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उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह

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उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह

पलाश विश्वास

उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह।

पंतजलि के विज्ञापनी बहारमध्ये योग गुरु बाबा रामदेव प्रकट होकर अभयदान दे रहे हैं टीवी न्यूज में,इलेक्शन से पहले जनता ने सिलेक्शन कर लिया है।बाबा सच कह रहे होंगे।लेकिन योगगुरु के अनेक रंग बिरंगे अवतार मीडिया में सोशल मीडिया में फर्जी मोदी सुनामी रचने के खेल में रमे हुए हैं।बंगाल में वाम शासन के दरम्यान हर चुनाव से पहले परिवर्तन सुनामी का हश्र हमने देखा है।लेकिन जब परिवर्तन आया दरअसल,तब मीडिया ने उसे तुल नहीं दिया।फिर परिवर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार बनने के बाद लाल रंग को मिचा देने पर आमादा मीडिया ने तो नंदीग्राम सिंगुर भूमि आंदोलन के दौरान सरकारी भोंपू की भूमिका निभाते हुए वामदलों को ात्मघत के लिे मजबूर कर दिया।अमर्त्यसेन की अगुवाई में तमाम अर्थसास्त्री और बांग्ला सांस्कृतिक बाजारु आइकन सिविल सोसाइटा का पालाबदल भी तदनुसार हुआ और सितारों का जमावड़ा भी।मायावती,अखिलेश,जयललिता के असंख्यउदाहरण तो हैं ही,जिन्हें चुनावी बहसों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ा जब उन्होंने सत्ता शिखर को स्पर्श किया।और तो और पिछले लोकसभा चुनाव में भी हालात कांग्रेस के एकदम खिलाफ थे और मजा देखिये कछपुतली प्रधानमंत्री ने नेहरु गांधी वंश की वैशाखी के सहारे पूरे दस साल भारत पर राज कर लिया।


ध्या देने योग्य बाते हैं कि शेयर सूचकांक सांढ़ों के जबर्दस्त हमवले से छलांगा मारकर ऊपर चढ़ तो रहा है,विदेशी निवेशकों की आस्था तो अटूट है,पर रुपये की गिरावट थमी नहीं है।मुनाफा वसूली के खेल में अक्सर ही बाजार डांवाडोल है।वैश्विक इशारों का हवाला देकर दलाली का धंधा जोरों पर है।लेकिन अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। अमेरिकी हित दांव पर हैं।ऱूस में भी पुनरूत्थान होने लगा है और एक ध्रूवीय कारपोरेट विश्व व्यवस्था मध्यपूर्व के तेल संसाधनों को फतह करने के बाद समूचे एशिया पर विजयध्वज फहराने के लिए मोदी वंदना में लगी है।ध्यान से सुने जो रामधुन है,उसमें संघी स्वर कम है,यांकी सुर ज्यादा मुखर है और जायनी तड़का तो लाजवाब है। फास्टफूड जंक है,दुनिया जानती है,जहरीला यह रसायन जायके में बुसंद है जरुर,लेकिन जुलाब बनकर कहर कब बरपायेगा ठिकाना नहीं है।


बाजार के दिग्गज बढ़ चढ़कर सांढ़भाषा बोल रहे हैं कि सेनसेक्स में लंबी छलांग कि आस लगाइये।लगाइये बाजी और हो जाइये मालामाल क्योंकि मोदी तो आ ही गये हैं।दीपक पारेख जैसे बैंकिंग सुपर आइकन ऐलान कर रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सुधारों के ज्वार से अर्थव्यवस्था बम बम होगी।


हर हर महादेव अब हर हर मोदी है।हिंदुत्व तो गया तेल लेने।महादेव किनारे कर दिया गये, मटिया दिये गये तो अटल आडवाणी जोशी जसवंत हरिन की औकात क्या।भागवत जी भागवत पुराण की तरह मोदी पुराण रचने लगे हैं। चित्रकथा में नये ईश्वर अवतरित है और प्राचीन देवदेवी मंडल खारिज है।देव देवी भी अब विज्ञापनी माडल है।


2007 में हमने अपने ब्लाग में लिखा था जो आज उसका चरमोत्कर्ष है।


Monday, September 24, 2007 11:44 PM


Create Icons to Escalate Killingfields!Space is the Next Battlefield.Man made Calamities Play Havoc and Consumer Carnival Continues

http://breakingnewsstream.blogspot.in/2014/03/create-icons-to-escalate.html


विज्ञापनी सितारे सीधे अब आपके संसदीय प्रतिनिधि होंगे।इस चुनाव का कुल जमा नतीजा यह है।पार्टीबद्ध सितारों के जलवे को देखते रहिए,चकाचौंध होते रहिये,गला रेंते जाते वक्त जोर का झटका धीरे से लगेगा।


मंडल बनाम कमंडल महायुद्ध कुरुक्षेत्र का अंतिम विलाप है।इस शोकगाथा में आत्मद्वंसी महाविनाश के बाद विधवाओं और संतानहारी माताओं की यंत्रणा के अथाह सागर के सिवाय कुछ हात नहीं लगेगा।महारथी के रथ के पहिये जमीन में धंस गये हैं।महाभारत और रामायण नये सिरे से रचे जा रहे हैं।


प्रक्षेपण प्रक्षेपित समय का सबसे बड़ा सच है।


इसके विपरीत,चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा की अनिवार्य जनादेश भविष्यवाणी के विपरीत,रोज रोज के चूहादौड़ के परिदृश्य में आज रविवारी इकानामिक टाइम्स में शाफ साफ लिक दिया गया है कि भाजपा को बमुश्किल दो सौ सीटें मिल सकती हैं।बाकी बहत्तर कारपोरेट इंडिया के सरदर्द का सबब है।वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे।पूरे देश में गुजरात माडल के विकास की परिकल्पना को साकार करने में कितना सहयोग करेंगे और कितना अड़ंगा डालेंगे,उनकी चिंता यही है।


जिस तरह से संघी और भाजपाई मौलिक पात्रों को दरकिनार करके चित्र विचित्र किस्म के गैरसंघी सांसद भाजपाई टिकट पर चुनकर आयेंगे,हालांकि व्हिप भरोसे उनकी ईमानदारी पर कोई चिंता नहीं जतायी गयी है।


मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर अभी द महीने का वक्त बाकी है,अंतिम फैसला आने को।ख्याली पुलाव और गाजर के हलवा का सही वक्त है यह।दिल्ली में तो फलों के साथ साथ सब्जियों का रस भी खूब मिलता है।धूप बस आगे बहुत कड़ी होनी है।लू भी होगी भयानक।एसी गाड़ी से घना घना चड़ने उतरने वाले अपनी अपनी सेहत का ख्यल करें।मौसम की मार किसपर कितनी भारी होगी,ऐसी कुंडला बांचने वाला विशेषज्ञों का बाजार भी शायद गर्म हो जाये। हमारे क्रांति दर्शी मित्रों का इस क्षेत्र में भयानक भविष्य है।


कल देर रात हमें अपने भावुक मित्र एचएल दुसाध का फेसबुकिया लेख पढ़कर खूब संतोष हुआ।वे अबतक भाजपा के एजंडा में डायवर्सिटी पंच करने की लड़ाई घनघोर लड़ रहे थे।अब उन्होंने लिखा है कि पारो हो या चंद्रमुखी,कोई फर्क नहीं है यारो।उन्होंने बहुजनों को चेतावनी दी है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है।वैसे वे अकेले बहुजन होंगे शायद,जो ऐसा लिख पा रहे हैं।


अब वामपंथी हाशिये का एक गजब नतीजा निकल रहा है। देश भर में पढ़े लिखे मुसलमान और ध्रमस्थलों से राजनीति करने वाले मुसलमान भी भयमुक्त हने के लिहाज से केसरिया बन रहे हैं।दरअसल भय की इतनी बेनजीर अभिव्यक्ति आजाद भारत में कभी देखी नहीं गयी है।धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील मोर्चे का नाकाम होने का यह ज्वलंत प्रमाण है।अस्पृश्यता मुक्त होने की कोशिश में अस्पृश्यता के सबसे बड़े कारोबारी शायद मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए राजा युधिष्ठिर की तरह सियासी शतरंज की बाजी पर अपनी द्रोपदी को दांव पर लगा बैठे हैं।अब इस द्रोपदी का कृष्ण कौन होगा,ओबामा,नितानहु,अंबानी या कोई और,इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा।


लेकिन मित्रों,जो तय हो गया है,वह यह है कि खिचड़ी भाजपा ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व के एजंडे को अमली जामा पहनाने के लिए हिंदुत्व के एजंडे को बनारसी के घाट पर गंगा आरती के साथ गंगा में ही विसर्जित कर दिया है। जैसे सत्ता की चाबी खोजने के चक्कर में अंबेडकर अनुयायियों ने अंबेडकर को ही मूर्ति बना दिया,उसी तरह मोदी ही गोवलकर हैंं।मोदी ही हेगड़ेवार।मोदी ही शंकराचार्य और मोदी ही बाबा रामदेव।बीच के सारे लग मध्यवर्ती हो गये।उन्हें क्या कहा जाये,लिख दें तो मानहीनि हो जायेगी।आप ही समझ लें।


वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है।

वामपंथ के अवसान पर जो बल्लियों पर लुंगी डांस कर रहे थे,वे तय करें कि अब मोदी की जीत का जश्न वे कैसे मनायेंगे।

हमें तो राहत है कि अगर मोदी के प्रधानमंत्रित्व से इस देश को कमंडल से निष्कृति मिल जाये,तो अच्छा ही है।

लेकिन मामला इतना आसान नहीं है।

हिंदू राष्ट्र भले ही अब नहीं बने लोकिन जो कारपोरेट अधर्म राज जनसंहारी बनने को तय है, उसका हश्र हिंदू राष्ट्र से भी भयानक होगा।


जाहिर है कि उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह।

जाहिर है कि उठो,जमींदोज आम लोगों कब्रिस्तान और स्मशान में मृत आत्माों का आवाहन करो।

जाहिर है कि उठो,मूक भारत के जनगण,इस खतरे का मुकाबलो करने के लिए गोलबंद हो जाओ तहस नहस  हो जाने से पहले।

हो सकता है कि यह आखिरी कुरुक्षेत्र हो और आखिरी महाभारत भी।


शतरंज के खिलाड़ी में सत्यजीत राय ने टाम आल्टर का बखूब इस्तेमाल किया है।हिंदी फिल्मों के दर्शक इन टाम आल्टर से खूब परिचित है।लेकिन निर्देशक के तयदायरे से बाहर उनकी विशुद्ध हिंदुस्तानी जुबान में बुनियादी मसलो को संबोधित करने वाले एक मातर टीवीशो का फैन हो गया हूं।


चांदनी चौक पर चुनावी चाय की चुस्की लेते हुए उन्हे देखकर कायल हो गा था।आज दोपहर जेएनयू में युवा छात्रों से बतियाते उनके तेवर से घायल बी हो गया हूं।


मुझे खुशी है कि विचारधाराों के नाम इतनी धोखाधड़ी के बाद जेएनयू के छात्र जिन्हें विजारधारा जुगाली के दर्मान रोटी की शक्ल के बारे में आकार प्रकार समेत सिलसिलेवार बताना पड़ता था,चुनावी चाय की चुस्की लेते हुए टामभाी से रोटी रोजी के सवाल से ही जूझते रहे।उनका लघभग कोरस में कहना था कि रोटी का सवाल बुनियादी है।रजगार के सवाल बुनियादी है।बेसिक जरुरतों के तमाम सवाल बुनियादी है। वे संबोधित होने ही चाहिए।वे संबोधित हों तो विचारधारा अपने आप साकार होने लगेगी।


वामपंऎतियों के पंरपरागत गढ़ में वे कह रहे थे जो सवाल वामपंथ को करने थे वे अरविंद केजरीवाल पूछ रहे हैं।


इसके साथ ही वे कह रहे थे कि भारतीय जन गण के गुस्से को एकदम कारपोरेट तरीके से मैनेज किया है अरविंद केजरीवाल ने।


वे बीस साल के सुदारों पर चर्चा कर रहे थे।चिंता जता रहे थे मुद्दों के हाशिये पर जाने का।

लेकिन वे विचारधारा की अनिवार्यता की जुगाली करने से अब बाज आ रहे हैं और चाहते हैं कि मुद्दे फोकस हो और बात रोटी से शुरु हो।

क्या हमारे विद्वत जन इल लड़के लड़कियों की आवाज सुन रहे हैं?





उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह!

साथी सत्यनारायण जी ने इस पोस्टर के साथ लिखा है


हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि 'देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!'


हम सहमत तो हैं साथी सत्यनारायण जी,हम इलाहाबाद में जारी शहीदेआजम की विचारधारा पर पर्चा भी इस आलेक के अंत में दे रहे हैं,लेकिन इंक्लाब के लिए अस्मिताओं में खंडित विखंडित भारतीयबहुसंख्य जनगण को गोलबंद करने की रमनीति भी आपकी ओर से चाहते हैं।


कवि नीलाभ अरसे बाद हमारे टाइम लाइन में दाखिल हुए और लिखा गौरतलब। आज धूमिल की पंक्तियों से बात शुरु करने के बाद उनका लिखा शेयर कर रहा हूं कि जिस लोकगणराज्य की बात हम कर रहे हैं वहां गणतंत्र की मृत्युशय्या का जश्न हम लोग कैसे मनाने लगे हैं।

आज सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो बेसाख़्ता ग़ालिब का एक मिसरा याद हो आया --

हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो

सुर्ख़ियों में सबसे बड़ी ख़बर यह थी कि नेता लोग धड़ा-धड़ भा.ज.पा. में शामिल हो रहे हैं. यानी मोदी की बहार हो-न हो दल-बदलुओं की बहार है. भा.ज.पा. सोचती है कि इस तरह वह जनता के सामने अपनी मक़बूलियत साबित कर सकेगी. नेता सोचते हैं कि इस तरह वे अपनी गोटी लाल कर लेंगे. यानी जनता को दोनों ही मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि इस तरह उनकी चालबाज़ी रंग ले आयेगी.

ऐसे में दो ख़याल आये. पहला ख़याल अपने एम.ए. के सहपाठी और पुराने कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी का आया. जनार्दन बरसों पहले 1968-69 में कांग्रेस में शामिल हुआ था और चाहे कांग्रेस जिस भी हाल में रही, उसने कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा. कांग्रेस और जनार्दन से मतभेदों की बावजूद मैं जनार्दन की इस निष्ठा का एहतराम करता हूं. वह "इश्क़े-बुतां" में उम्र काटने के बाद "आख़िरी वक़्त मुसलमां होने" में यक़ीन नहीं रखता. जनार्दन जैसे लोग कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दलों में भी होंगे और हमें उनका भी अभिनन्दन करना चाहिये.

दूसरा ख़याल यह आया कि हो-न हो अरविन्द केजरीवाल ही की बात सही होती जान पड़ती है कि जो भी तब्दीली इन चुनावों के सबब से हो, वह साल-दो साल से ज़्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगी. और ऐन मुमकिन है कि फिर चुनाव हों.

तब क्या इन दल-बदलुओं की गति उस चमगादड़ जैसी नहीं होगी जो पंचतन्त्र की कथा में पक्षियों और पशुओं की लड़ाई में कभी अपने पंख दिखा कर पक्षियों में शामिल होता था और कभी स्तनपायी होने के नाते पशुओं की तरफ़. और बिल-आख़िर न पक्षियों में जगह पा सका, न पशुओं में. उसकी नियति में उलटा लटकना ही लिखा था.

क्या हमारी जनता इन दल-बदलुओं का हश्र वैसा ही नहीं करेगी ?

पत्रकार, कलाकार, रंगदार, सिपहसालार, सरमायेदार, इजारेदार, सलाहकार, वफादार, गद्दार, नम्बरदार,

हो गए सब सेवादार, करके जय-जयकार...

क्या महंगाई-दंगाई दोनों की सरकार इस बार?

बाबू नफा-नुकसान की यह सियासत है बड़ी मजेदार @ चाय की गुमटी पर बड़े मियां कहत रहीं. (साथी असलम के वाल से)


मोहन क्षोत्रिय जी के इशारे पर गौर करें कि कैसे अंध राष्ट्रवादी सुनामी रचने का बिंब संयोजन गढ़ा जा रही है किंवदंतियों के कारखानों में।

‪#‎किंवदंतियां‬बन रही हैं, प्रसारित की जा रही हैं...


...कि बड़ा मगरमच्छ बचपन में छोटे मगरमच्छों के साथ खेला करता था.


खेलता रहा होगा, भाई ! अपन किस आधार पर खंडन करें? कर ही नहीं सकते ! ठीक है न?


हिमांशु जी ने सिलसिलेवार ब्यौरा देकर साबित किया है कि अफसाने की हकीकत लेकिन कुछ और है

गुजरात में दुग्ध क्रन्ति १९७३ में वी जे कुरियन की अगुवाई में शुरू हुई . तब तक भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था .

गुजराती व्यापारी कई सौ सालों से देश विदेश में व्यापार करते हैं . मैंने गुजरात के आदिवासी इलाकों में सन १९ ८० से जाना शुरू कर दिया था .

मैंने गुजरात के आदिवासियों के बीच १९८९ से १९९१ के बीच सघन काम किया है .

गुजराती किसान उस समय भी देश के अन्य किसानों के मुकाबले उन्नत ही थे .

तब गुजरात के गांधीवादी कार्यकर्ता झीना भाई दर्जी के साथ मुझे काम करने का मौका मिला था .

झीना भाई, नारायण देसाई, चुन्नी भाई वैद्य और हजारों गांधीवादी और सर्वोदय कार्यकर्ता गाँव गाँव में सहकारिता शराबबंदी और खादी व ग्रामोद्योग का काम करते रहे हैं .

तब मोदी नाम के किसी व्यक्ति को कोई नहीं जानता था .

मोदी का नाम गुजरात में मुसलमानों के बड़े जनसंहार के बाद मशहूर हुआ .

अपने ऊपर लगे खून के दाग धोने के लिये मोदी ने पहले से ही विकसित गुजराती किसानों और गुजराती विकास को अपनी कारगुजारी बताना शुरू कर दिया .

यह एक चालाक हरकत है .

मैंने गुजरात में साइकिल से दौरा किया था .

गुजरात में वन वन अधिकार क़ानून के बाद आदिवासियों को उन ज़मीनों के पट्टे मिलने चाहिये थे जिन पर वह पहले से खेती कर रहे थे .

लेकिन मोदी सरकार ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों के आवेदनों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया .

इतना ही नहीं उल्टा मोदी ने गुंडा गर्दी कर के आदिवासी किसानों की ज़मीनों को छीनना भी शुरू कर दिया . किसानो की पिटाई करवानी शुरू कर दी गई .

मैंने अपनी साईकिल यात्रा के दौरान इन किसानो से मिलकर उनकी आपबीती प्रकाशित भी करी थी .

अपनी यात्रा में मेरी मुलाकात सभी तरह के लोगों से हुई कई अधिकारियों ने अपना नाम ना बताने की बात कह कर बताया कि मोदी ने दो लाख एकड़ ज़मीने बड़े कारखानेदारों को दे दी हैं .

ई टीवी को एक लाख दो हजार एकड़ जमीन दी है .

सानंद विश्वविद्यालय को बंद कर के विश्वविद्यलय की ज़मीन टाटा को नैनो कार बनाने के लिये दे दी गई है .

बडौदा अहमदाबाद हाई वे के दोनों तरफ छह किलोमीटर की ज़मीने मोदी ने उद्योगों के लिये रिजर्व कर दी हैं .

गुजरात आज कल उद्योगपतियों का स्वर्ग बना हुआ है .

उन्हें सारे टैक्सों में छूट है . वे जैसा चाहे प्रदूषण फैला सकते हैं . जितना चाहे नदियों को गन्दा कर सकते हैं . जितना चाहे हवा में प्रदूषण फैला सकते हैं .

उनके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं के घर पर पुलिस पहुँच जाती है . मेरी मुलाकात ऐसे कई कार्यकर्ताओं से हुई .

गुजरात में मज़दूर अपनी बुरी हालत के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते .

तो अगर आप पैसे वाले हैं तो गुजरात में आइये . मुफ्त की ज़मीन लीजिए .टैक्स मत दीजिए . प्रदुषण फैलाइए . मजदूरों को सताइए . मोदी का गुणगान कर दीजिए और उन्हें खुश कर दीजिए .

अब ये मोदी माडल भाजपा देश में बेचने निकली है .

अगर इस देश के युवा को यही माडल चाहिये जिसमे सारी ज़मीने उद्योगपतियों की हो जाएँ .

जहां सरकार को कल्याणकारी कार्यक्रम के लिये कोई टैक्स भी ना मिले .

जहां ये उद्योगपति हमारी हवा और पानी को गन्दा कर दें .

करोड़ों किसान बेज़मीन होकर शहरों के बाहर गंदी बस्तियों में कीड़े मकोडों की तरह रहने और बेरोजगारी, भूख और बीमारी से मरने को मजबूर हो जायें .

कुछ लोगों के मज़े के लिये पूरे देश को मरने के लिये मजबूर कर देने वाला यह विकास . यह घोर असमानता पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था . इस विनाश को अंजाम देने वाली राजनीति अगर हमे स्वीकार है तो फिर हमें कोई नहीं बचा सकता .

लेकिन इस सब को स्वीकार करने के साथ ही भगत सिंह, गांधी, मार्क्स, वेद कुरान बाइबिल ग्रन्थ साहब सब को जला देना .

क्योंकि इन सब ने तो हमें सबकी समानता ,प्रकृति के साथ साहचर्य और मिल कर रहना सिखाया था.

मोदी का माडल हर धर्म और हर अक्लमंदी के विरुद्ध है .


दयानंद पांडेय ने भी खूब लिखा है

मोदी के प्रधान मंत्री पद की राह में सिर्फ़ तीन अड़ंगे हैं। एक उन का सांप्रदायिक चेहरा, दूसरे अरविंद केजरीवाल, तीसरे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। बा्की दो से बह पार भले पा लें पर राजनाथ सिंह उन के दुर्योधन पर शकुनी की तरह सवार हैं। लगता है उन को कहीं का नहीं छोड़ेंगे। आडवाणी की आह अपनी जगह है। जसवंत सिंह, सूर्य प्रताप शाही तक खुले आम रोते,आंसू बहाते घूम रहे हैं। दल बदलुओं के लाक्षा्गृह अलग हैं।


चन्द्रशेखर करगेती ने जो उत्तराखंड के बारे में लिखा है,वह देशव्यापी परिदृश्य है।हर दल हर नेता भाजपा कांग्रेस की राजनीति की निरंतरता जारी रखने के लिए उनकी जमींदारी के कारिंदे और लठैत बने मचरगश्ती कर रहे हैं।

ये चुनाव हैं या पांच साल की मुँह दिखाई ?


उत्तराखण्ड में दो तरह के लोकसभा चनाव हो रहें हैं, एक तरफ काँग्रेस-भाजपा अपने मजबूत कार्यकर्ताओं की टीम और धनबल के चलते एक दूसरे से सीधे मुकाबले में चुनाव लड़ रहें है ! अपने राष्ट्रीय दल होने के रुतबे के चलते वे इस आम चुनाव को उसी अनुरूप एक दूसरे के खिलाफ लड़ेंगे !


वहीं दुसरी और राज्य में अपनी नाममात्र की उपस्थिति होने के बावजूद जनवादी होने का स्वयंभू तमगा टाँगने वाले माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी, उपपा पार्टी जैसी पार्टियाँ राज्य के किसी भी एक जिले में अपनी सशक्त उपस्थिति ना होने के बावजूद भी ऐसे ख़म ठोक रहें हैं जैसे ये चुनाव ना होकर जनता के बीच अपना चेहरा दिखाने की प्रदर्शनी भर हो ?


भाजपा ने जिन नेताओं को लोकसभा में प्रत्यासी के तौर पर टिकट दिया हैं, वे राज्य राजनीति के वही घिसे पिटे चेहरे हैं जिन्हें जनता बरसो से देखती आ रही है, जो चुनाव दर चुनाव अपने क्षेत्र की जनता को नारों की भांग घोटकर पिलाते आयें हैं, स्थितियाँ ना तब बदली थी और ना अब बदलने वाली हैं, क्योंकि ये नेता वही हैं जो कभी उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के घोर विरोधी थे,और राज्य निर्माण इनकी पार्टी की नीति में नहीं था, और राज्य बना तो इनके राज में इतने घोटाले हुए कि शायद वे अपने आपमें किसी भी नवोदित राज्य के गिनीज रिकॉर्ड में स्थान पा सकते हैं ? अगर इन प्रत्यासियों की राज्य की प्रगति में अगर मूल्यांकन किया जाय तो जितना बजट इन्हें उपलब्ध करवाया गया था, उतने में शायद पहले से ही राज्य के जिले में मौजूद जन सुविधाओं के बराबर तहसील स्तर पर नयी जनसुविधाओं को विकसित किये जा सकते थे,राज्य को गर्त में धकेलने ये प्रत्यासी जिम्मेदार हैं, उससे उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता हैं l राज भले ही कोश्यारी जी का रहा हो या खंडूरी जी का या निशंक का, इनके राजकाल अगर राज्य चर्चा में रहा तो केवल कुर्सी की उठापटक को लेकर, आगे भी इन घिसे पीटे और सत्ता लोलुप चेहरों से कोई उम्मीद बेमानी होगी !


उपरोक्त परिस्थियों में जहाँ अन्य दल आपसी समझोते के तहत भाजपा-कांगेस के चेहरे से सत्ता के लिए की जाने वाली नोटंकी को बेनकाब कर सकती थी, लेकिन अपने तुच्छ अहम के चलते छोटे दलों के मुखिया अपनी हठधर्मिता और झूठी पार्टी लाइन के दंभ के चलते इन तेरह सालों में काँग्रेस-भाजपा को लगातार मौक़ा देते गये हैं कि ये दोनों दल बारी-बारी से इन दलों की आपसी सर फुट्टवल का लाभ उठाकर सत्तासीन हो जाये, यों कहा आये कि काँग्रेस भाजपा अपने चुनावी प्रत्यासियों की योग्यता के चलते सत्तासीन ना होकर छोटे दलों की आपसी फूट के कारण सत्तासीन हुए हैं l


राज्य के माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी पार्टी, उपपा के नेतृत्व में इतनी भी समझ व सुझबुझ नहीं कि वे एक बार आपस में बैठकर राज्य को बर्बादी से बचाने के लियें एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर सामूहिक रूप से काँग्रेस-भाजपा से मुकाबला कर सके,और नहीं तो कभी एक साथ बैठकर मुद्दों पर चर्चा कर इस दिशा में कोई प्रयास कर सके ? ये तेरह साल, साल दर साल बीतते गये, और इन फुटकर नेताओं के पास काँग्रेस-भाजपा को सिवाय अपने भाषणों में कोसने के अलावा और कोई उपलब्धि दर्ज कराने को नहीं है !


ये लोससभा चुनाव भी संपन्न हो जाएगा, हम एक बार फिर इन फुटकर पार्टियों के फुटकर नेतृत्व को चुनाव में अपनी अपनी छद्म उपस्थिति दर्ज करा कर कुछेक हजार गिनती के वोट पर सिमटते हुए देखेंगे और चुनाव बाद अपनी असफलता का ठीकरा जतना के सर पर फोड़ते हुए देखेंगे, जैसे जनता ही इनकी ठेकेदारी लिए हुए हैं !


तो हे मठाधीशों जब तक जनता के मुद्दों पर अलग अलग मुँह से बांग देने के बजाय एक साथ नहीं आओगे , काँग्रेस-भाजपा आपने हमारे ना चाहते हुए भी जनता की छाती पर मूंग डालते रहेंगे, जब तक जनता को निस्वार्थ विकल्प नहीं मिलेगा वह काँग्रेस-भाजपा से त्रस्त होने के बावजूद भी वोट उन्हें ही देती रहेगी, क्योंकि वोट करना उसकी आदत बन गया है !


अब यह राज्य के माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी पार्टी, उपपा के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वे इस लोकसभा जनता के जीतने लायक वोट हासिल करते हैं या एक बार फिर अँगूठा देखते हैं

23 मार्च को इलाहाबाद में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के ८४ वे शहादत दिवस पर बांटा जाने वाला पर्चा



अकेले जूझते पत्रकारों की सुरक्षा का क्या इंतजाम किया चुनाव आयोग ने

हर दल से कार्यकर्ता टूटकर भाजपा में शामिल होने लगे, कांग्रेसी वोट बैंक भी भाजपा के हिस्से में

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हर दल से कार्यकर्ता टूटकर भाजपा में शामिल होने लगे, कांग्रेसी वोट बैंक भी भाजपा के हिस्से में


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



सारे देश में जैसे लोग टूटकर भाजपा में शामिल हो रहे हैं,वैसा बंगाल में भी हो रहा है।फर्क यह है कि सांसद विधायक या बड़े नेता बंगाल में दूसरे दलों से भाजपा में शामिल नहीं हो रहे हैं।कोई बड़ा धमाका नहीं होने के कारण खबर भी नहीं बन रही है।सितारों की चमतक तक चर्चा सीमित है। लेकिन जिलों, नगरों, महानगरों, उपनगरों,कस्बों और गांवों में हर दल से कार्यकर्ता टूटकर भाजपा में शामिल हो रहे हैं।जो लोग कल तक माकपा, तृणमूल और कांग्रेस के लिए काम करते देखे गये,बड़ी संख्या में वैसे लोग हर हर मोदी,घर घर मोदी के नारे लगाने लगे हैं।खासकर बंगाल सरकार की अल्पसंख्यक राजनीति से चिढ़े हुए हिंदू मतों का ध्रूवीकरण बेहद तेज है। तो दूसरी और कड़ी शिकस्त खाने की कगार पर खड़ी काग्रेस के नेताओं के चुनाव लड़ने से इंकार और उम्मीदवार तय होने का पूरा फायदा भाजपा को हो रहा है। कांग्रेस  वोटबैंक का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के खाते में शामिल हो रहा है।देशभर में तेज हो रही मोदी लहर का असर अलग है।


हम पहले से ही लिख रहे हैं कि भाजपा बंगाल में तृणमूल को कड़ी टक्कर देने की हालत में है।कांग्रेस अधीर चौधरी और मौसम बेनजीर की सीट बचाने के लिए भी मुश्किल में दीख रही है तो दूसरी ओर वामदलों के पुरान जनाधार और धंस रहे हैं। मेदिनीपुर में घाटाल और झाड़ग्राम तो देब और संध्या राय के जरिए बेदखल होने को हैं ही,बांकुड़ा में भी मुनमुन सेन ने नौ बार के सांसद वासुदव आचार्य की नींद हराम कर दी है। उत्तर बंगाल के वामदलों के नेता तो राज्य सभा चुनावके वक्त ही दलबदल कर चुके हैं।पहाड़ की तीनों सीटों परकोई वाम संभावना नहीं है तो दक्षिण बंगाल में रज्जाक मोल्ला के बहिस्कार के बाद वाम की हालत और पतली है।


लेकिन खास बात तो यह है कि खस्ताहाल वामदलों और कांग्रेस की बुरीगत का फायदा सत्तादल के बजाय तभाजपा को होने के आसार ज्यादा है। फिर मौजूदा सांसदों के कामकाज से तृणमूल की भी कई सीटें खतरे में हैं। इनमें लोकसभा में एक भी प्रश्न न करने वाले तापस पाल और शताब्दी राय खास हैं।इन दोनों में से तापस पाल की हालत ज्यादा खराब है और कृष्णनगर में फिर जुलु बाबू की वापसी के आसार है।


दमदम में दो बार के भाजपा सांसद,कुशल संगठक और पूर्व केंद्रीय मंत्री तपन सिकदार को माकपा तृणमूल मुकाबले में फिलहाल कमजोर समझा जा रहा है।इस संसदीइलाके में कांंग्रेस के परंपरागत वोट हैं तो कट्टर भाजपी समर्थक भी कम नहीं है।तपन सिकदार ने अपने कार्यकाल में स्थानीय क्लबों और संस्थाओं से मधुर संबंध बना लिये थे। जहां से बड़ी संख्या में कार्यकर्ता उन्हें मिल रहे हैं।पूरे इलाके में उनकी मोटरसाईकिल रैलियं की धूम लगी है।


तो बारासात मे दीदी के नाम पर अब तृणमूल को एकतरफा समर्थन मिलने के आसार कम है। जादूगर पीसी सरकार को भारी जनसमर्थन मिल रहा है।उनकी सर्वप्रियता उनकी बड़ी पूंजी है और अपनी साफ छवि के जरिये वे अपनी बेटी अभिनेत्री मौबनी के शब्दों में शायद बंगाल में अब तक का सबसे बड़ा मैजिक दिखा दें।ईवीएम मशीनों पर कमल खिलने लगे बारासात में तो कोई ताज्जुब नहीं है क्योंकि वायदे के मुताबिक न रंजीत पांजा ने और न काकोली घोष दस्तिदार ने दीदी को दिये गये बिना समर्थन का कोई मान रखा है।


हुगली में चंदन मित्र,श्रीरामपुर में बप्पी लाहिड़ी और आसनसोल में बाबुल सुप्रिय मजबूत उम्मीदवार हैं और केसरिया लहर पर सवार पांसा पलट सकते हैं।


हावड़ा भाजपा का सबसे बड़ा गढ़ है।जहां जीत की शायद सबसे ज्यादी संभावना थी, जो अब वजनदार उम्मीदवार मैदान में नहोने की वजह से कम हो गयी है। कोलकाता उत्तर अब कोलकाता उत्तर पूर्व नहीं है। इसका वोटबैंक समीकरण सिरे से बदल गया है।लेकिन भाजपा ने कोलकाता के दोनों सीटों में इस सीट को खास तवज्जो देकर राहुल सिन्हा को मैदान में उतारा है।इसीतरह हावड़ा में अगर भाजपा का कोई वजनदार उम्मीदवार होता और इतना जोर लगाया गया होता तो निश्चित तौर पर हावड़ा की सीट भी भाजपा की झोली में गिरना तय था।


गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन के जरिये भाजपा ने दार्जिलिंग सीट तो चुनाव प्रक्रिया शुरु होने से पहले ही अपनी झोली में डाल दी है,जलपाीगुडी़ और अलीपिर दुआर में भी भाजपा मजबूती से बढ़त पर हैं।


इसबार तो दक्षिण 24 परगना में भी कमल खिलने के आसार बन गये हैं।मथुरापुर सुरक्षित सीट पर भजपा का दावा बन गया है।


खास बात है कि बंगाल में करीब डेढ़ करोड़ मतदाता गैरबंगाली हैं,जो ज्यादातर भाजपा और रनरेंद्र मोदी के समर्थक हैं।भाजपा का संगठन कम समर्थन के बावजूद बंगाल में हमेशा मजबूत रहा है।इस सांगठनिक बढ़त का फायदा भाजपा को अब मिलना बाकी है। तपन सिकदार,तथागत राय और राहुल सिन्ही की तिकड़ी राज्य भाजपा नेतृत्वका चमकदार चेहरा तो हैं ही।इस पर संसाधनों की कोई कमी है नहीं।इसके अलावा मुर्शिदाबाद,हुगली ,बर्दवान,मेदिनीपुर,हावड़ा और दोनों 24 परगना के जो एक करोड़ से ज्यादा लोग महाराष्ट्र, गुजरात और भाजपा प्रभावित राज्यों में काम कर रहे हैं,वोट देने वे जब राज्य में लौटेंगे,तो उनके रुक का असर भी लाजिमी है।


यह समीकरण कांग्रेस और वामदलों को कितना समझ में आ रहा है, कहना मुश्किल है।लेकिन ममता बनर्जी ने तृणमूल  कार्यकर्ताओं को आगाह कर दिया है कि एक भी वोट भाजपा को नहीं गिरने चाहिए। खुद दीदी,मुकुल राय और तृणमूल के छोटे बड़े नेता बार बार ऐलान कर रहे हैं कि बंगाल में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलने वाली है।अगर ऐसा ही है तो भाजपा को इतना तवज्जो क्यों दे रहीं हैं दीदी और अब तक मोदी और भाजपा के बारे में खामोस रहने के बावजूद अब कांग्रेस की तुलना में भाजपा और मोदी पर ज्.ादा तीखा प्रहार क्यों कर रही हैं दीदी,इसे गहराई से समझने की जरुरत है।


मतलब साफ है कि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का सहारा बनने को तैयार है बेसहारा माकपा।

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২০০৪-এর অবস্থা হলে কংগ্রেসকে নিয়ে ভাববেন বুদ্ধ


मतलब साफ है कि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का सहारा बनने को तैयार है बेसहारा माकपा।

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

২০০৪-এর অবস্থা হলে কংগ্রেসকে নিয়ে ভাববেন বুদ্ধ



बंगाल कांग्रेस और बंगाली माकपा का चोली दामन का साथ रहा है।अपना अलग दल बनाने से पहले कांग्रेस में रहकर मुक्यमंत्री ममता बनर्जी बाकायदा  कांग्रेस की केंद्रीय मंत्री और प्रदेश युवा कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से माकपापरस्त कांग्रेसी दिग्गजों के खुलेाम तरबूज कहा करती थी।भीतर से हरा और अंदर से लाल।लेकिन कामरेड ज्योति बसु सरकार ने जनवरी 1979 में जब सुंदरवन इलाके में शरणार्थियों की बसावट उजाड़ने के लिए मरीचझांपी में पुलुस फायरिंग,आगजनी से लेकर नदियों में नाव डुबो देने और पेयजल में जहर मिलाने तक का कृत्य कर डाला,बाहैसियत कांग्रेस नेता ममता बनर्जी खामोश रही।कांग्रेस संस्कृति का तालमेली असर उन पर भी रहा है।मरीचझांपी नरसंहार की जांच का आदेश उन्होंने नहीं दिया है,इसे इस तरह समझा जाये कि माकपा दिग्गज सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर से हराकर ममता दीदी जब पहलीबार केंद्रीय मंत्री बनीं,तो वे सीधे राइटर्स पहुंच गयीं तत्कालीन  मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु को प्रणाम करने।आपस में तलवारे खिंची रहने के बावजूद कांग्रेस वामपंथ का चोली दामन का साथ कबी नहीं छूटा है और न छूटेगा।


बंगाल के माकपाई अपनी दुर्गति के लिए पहली यूपीए सरकार से भारत अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर समर्थन वापसी को जिम्मेदार मानते हैं और ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के फैसले को नहीं,बल्कि कांग्रेस को अकेली बेसहारा छोड़ देने के फैसले को ऐतिहासिक हिमालयी भूल मानते हैं।न नौ मन तेल होता  और न राधा नाचती,यह उनकी दलील है।यानि न कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के साथ होती और न परिवर्तन की हवा बनती।अब विडंबना देखिये कि कांग्रेस और तृणमूल फिर अलग अलग है और इसके बावजूद माकपाई अपना अपना सिर धुन रहे हैं।यह कांग्रेस अब पुरानी कांग्रेस है ही नहीं।जिसके अधीर चौधरी और बेनजीर मौसम तक की सीट अब पक्की नहीं है और जिसका वोटबैंक केसरिया झोली में स्थानांतरित है।


लेकिन फिर उनकी याद आयी है।फिर हानीमून के याद सता रहे हैं माकपाई को और उथल पुथल हो रहा पुरातन प्रेम जाम से छलक छलक कर निकल रहा है।आखिरकार बुद्धदेव बाबू ने कह ही दिया कि फिर 2004 जैसी हालत हुई तो कांग्रेस का ही समर्थन करेंगे।दिल ने फिर याद किया है तो बहारें फिर आयेंगी शायद।मतलब साफ है कि कांग्रेस का सहारा बनने को तैयार है बेसहारा माकपा।


बंगाल में हालात संगीन है।कांग्रेस और माकपा समेत सारे वामदल खस्ताहाल है और तेजी से उत्थान हो रहा है केसरिया भाजपा का।अभी से यह हिसाब लगाना बेमानी है कि भाजपा को बंगाल में कुल कितनी सीटें मिलेंगी।लेकिन जितनी भी सीटें मिलेंगी ,वह रिकार्ड होगा बंगाल के लिहाज से।एक बात तय है कि कांग्रेस को पछाड़कर और शायद माकपा को भी पीछे धकेलकर भाजपा बंगाल में मुख्य विपक्ष बनने जा रहा है।आगामी लोकसभा चुनाव में बंगाल में पड़ने वाले  भाजपा मतों का प्रतिशत पंद्रह से बीस तक कुछ भी हो सकता है।इसका मतलब हुआ कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता का दावेदार बन जायेगी खासकर तब जबकि बंगाल में रज्जाक मोल्ला और नजरुल इस्लाम की अगुवाई में दलित मुस्लिम गठबंधन मुकम्मल आकार ले लेगा।पूंछकटी हालत हो जायेगी दलित मुस्लिम वोटबैंक के बाहुबली दलों की।तब अलग अलग इकाइयों के विरुद्ध निःसंदेह भाजपाई हिंदुत्व ही सत्ता का सबसे कारगर रसायन होगा।


मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नजर में दिल्ली की कुर्सी हो ,न हो,अगले विधानसभा चुनाव के समीकरण जरुर होंगे।इसी के मद्देनजर अबतक मोदी के खिलाफ खामोशी उनकी मुखर होने लगी है।वे चीख चीखकर कह रही हैं कि भाजपा को एक वोट भी न दें।


तो अपने अपने खेत के रखवाले बेखबर हो ही नहीं सकते।बाकी देश में कोई ऐसा राजनेता नहीं है,जो सपने में भी कांग्रेस को सत्ता के नजदीक पहुंचने के करीब देख रहा हो।लेकिन बुद्धबाबू देख रहे हैं। जाहिर है कि बनारस के घाट पर गांजा सेवन के मानस से नहीं बोल रहे हैं बुद्धबाबू। उनकी नजर में भी दिल्ली नहीं,बंगाल का विधानसभा चुनाव है।जैसे बाकी देश  में कांग्रेस चुनाव से बहले ही हार बैठी है,वैसा ही किस्सा बंगाल में भी दोहराया जा रहा है।


बुनियादी फर्क सिर्फ इतना है कि यहां कांग्रेस के साथ साथ वामपंथ भी सफाये के कगार पर है।विकल्प तेजी से ममता बनाम भाजपा बनता जा रहा है। लोकसभा चुनाव का नतीजा जो हो सो हो,विचारधारा गयी तेल लेने गयी,बंगाली माकपाइयों की नाक में बंगाल की सत्ता की आदिम गंध ही भरी पूरी होती है।जैसे महुआगंध से झूमता है भालू,वैसा ही भालू मिजाज बंगाली कामरेडों का है जिन्होंने इस बंगाली सत्ता गंध में मदहोश बाकी देश में वामपंथ की खेती ही बंद करवा दी है।


एक बुनियादी फर्क और है।सत्ता के शिखर पर दस साल बिताने वाल भारत पाक परमाणुसंधि को अमली जामा पहनाने वाले,आर्थिक सुधारों के मसीहा मनमोहन सिंह और उनके वित्तमंत्री पी चिदंबरम इस कुरुक्षेत्र में सिरे से गायब हैं। राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस का कायकल्प हो रहा है।सत्ता से बाहर होने के बाद अग्निपाखी की तरह जिस कांग्रेस का पुनर्जन्म होगा,वह यकीनन ममोहनी कांग्रेस तो होगी नहीं।लेकिन माकपा के किसी कायाकल्प की कोई संभावना नहीं है।सांगठनिक कवायद में नेतृत्व बदलने में फेल माकपा ने कायाक्प के प्रवक्ता रज्जाक मोल्ला को बाहर कर दिया है।वृहत्तर वामपंथ की बात करने वाली माकपा अपने ही सिपाहसालारों सोमनाथ चटर्जी, समीर पुतुतुंडु, सैफुद्दीन, प्रसेेनजीत बोस,रज्जाक मोल्ला,लक्ष्मण सेट जैसे लोगों को किनारे पर लगा रही है।कांग्रेस ने सरदार के सारे निशान मिटा दिये हैं,लेकिन वामपक्ष के भीष्मपितामह वहीं हैं।एक तो बुद्धदेव हैं,बाकी कौन कौन हैं,हिसाब लगाते रहिये।


तीसरे मोर्चा की चुनावी रस्म शुरु होने से पहले ही विघ्नित है।अकबर,पासवान,उदितराज जैसे लोगों के केसरिया हो जाने से बिखर गया है धर्मनिरपेक्षता मोर्चा भी। लेकिन बाकी देश में जो हो,बंगाल में अपना वजूद बचाने के लिए भाजपी की कड़ी चुनौती के लिए धर्मनिरपेक्षता का थीमसांग एकसाथ गाने लगे हैं ममता बनर्जी, बुद्धदेव और अधीर चौधरी।


अब देखते हैं कि आखिरकार बीरबल की खिचडी़ जब पककर आयेगी तो क्या होगा और कैसा होगा उसका स्वाद। धीरज रखिये,शायद सोलह मई तक का भी इंतजार नहीं ही करना पड़े।





২০০৪-এর অবস্থা হলে কংগ্রেসকে নিয়ে ভাববেন বুদ্ধ

নিজস্ব সংবাদদাতা

কলকাতা,২৪ মার্চ , ২০১৪, ০৪:১৫:২৩


রাজনীতি যে সম্ভাবনার শিল্প, বুঝিয়ে দিলেন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য!

ভোটে বামেদের লড়াই বিজেপি এবং কংগ্রেস, দু'পক্ষের বিরুদ্ধেই। কিন্তু ২০০৪-এর মতো পরিস্থিতি আবার হলে এবং অন্য কোনও বিকল্প না-থাকলে ভোটের পরে কংগ্রেসকে সমর্থনের সম্ভাবনা ভেবে দেখতে হবে বলে মন্তব্য করলেন বুদ্ধবাবু। যদিও তাঁরই দলের সাধারণ সম্পাদক প্রকাশ কারাট ইতিমধ্যেই জানিয়ে দিয়েছেন, কংগ্রেসের জন্য বামেদের দরজা বন্ধ। সিপিএম পলিটব্যুরোর দুই নেতার মতের এই ফারাক ভোটের মুখে জল্পনা উস্কে দিয়েছে।

কেন্দ্রে ২০০৪ সালের মতো পরিস্থিতি তৈরি হলে ভোটের পরে বামেরা কি আবার কংগ্রেসকে সমর্থন করতে পারে? এই প্রশ্নের জবাবে সংবাদসংস্থা পিটিআই-কে বুদ্ধবাবু বলেছেন, "একমাত্র যদি ২০০৪-এর মতোই পরিস্থিতি আসে এবং সেখানে অন্য কোনও রাস্তা যদি খোলা না থাকে!"তবে একই সঙ্গে প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রীর বক্তব্য, "আমাদের আশা, ২০০৪-এর মতো পরিস্থিতি আর হবে না। তখন সাম্প্রদায়িক বিজেপি-কে ঠেকানোর জন্য আমাদের কংগ্রেসের দিকে যেতে হয়েছিল।"

বুদ্ধবাবুর মন্তব্য ফের জল্পনা খুঁচিয়ে তুললেও সিপিএমের অন্দরেই এই প্রশ্নে দু'রকমের ব্যাখ্যা মিলছে। দলের একাংশের মতে, ইদানীং বিজেপি-কে বেশি আক্রমণ করে তৃণমূল নেত্রী কংগ্রেসের জন্য সম্ভাবনার দরজা খুলে রাখছেন। এই পরিপ্রেক্ষিতে বুদ্ধবাবুও কংগ্রেসের প্রতি কৌশলে বার্তা দিয়ে রাখলেন। আবার সিপিএমেরই অন্য একাংশের বক্তব্য, ২০০৪-এর উদাহরণ দিয়ে বুদ্ধবাবু একটি তাত্ত্বিক অবস্থানের কথা বলেছেন। কিন্তু একই সঙ্গে বলেছেন যে, ওই পরিস্থিতি আর ফিরবে বলে তাঁরা মনে করেন না। সুতরাং, তার পরে আর নতুন জল্পনা অর্থহীন!

বস্তুত, সংবাদসংস্থাকে দেওয়া ওই সাক্ষাৎকারে বুদ্ধবাবু এ-ও বলেছেন, "যেমন করে হোক কিছু রাজনৈতিক শক্তিকে একজোট করে ভোটের পরে আবার কংগ্রেসের ধামাই ধরতে হবে, এটা আমাদের দলের কৌশলগত লাইনের অংশ নয়!"তিনি পরিষ্কারই জানিয়েছেন, সর্বশক্তি দিয়ে তাঁরা বিজেপি-কে ঠেকানোর চেষ্টা করছেন। পরাস্ত করতে চাইছেন কংগ্রেসকেও। গড়ে তুলতে চাইছেন বিকল্প শক্তি।

বিজেপি-র প্রধানমন্ত্রী পদপ্রার্থী নরেন্দ্র মোদীর উত্থানের সঙ্গে হিটলারের তুলনাও টেনেছেন বুদ্ধবাবু। বলেছেন, "জার্মানিতে ১৯৩৩ সালে নির্বাচনে জিতেছিলেন হিটলার। তার মানে কি তাঁর নীতি ঠিক ছিল?"তাৎপর্যপূর্ণ ভাবে কংগ্রেসের রাহুল গাঁধী সম্পর্কে মন্তব্য করতে চাননি বুদ্ধবাবু। তাঁর কথায়, "তিনি দায়িত্ব নেওয়ার চেষ্টা করছেন। ওঁকে চেষ্টা করতে দিন। ওই যুবক সম্পর্কে মন্তব্য করতে চাই না।"

রাজ্যে প্রায় ২৭% সংখ্যালঘু ভোটের কথা ভেবে বিজেপি-কে আক্রমণ এখন বাকি সব দলেরই মূল রাজনৈতিক কৌশল হয়ে উঠেছে। মমতার মতো বুদ্ধবাবুরাও আক্রমণ করছেন মোদীকে। আবার একই সঙ্গে সিপিএম-কে রাজ্যে প্রতিষ্ঠান-বিরোধী ভোটের বেশির ভাগ ঝুলি টনার চেষ্টা চালাতে হচ্ছে। তৃণমূল-বিরোধী ভোটের বিভাজন আটকাতে তাই কংগ্রেস এবং বিজেপি-র বিরুদ্ধে সূর্যকান্ত মিশ্রদের অভিযোগ, তারা অনেক আসনে দুর্বল প্রার্থী দিয়েছে। বাম সূত্রের ব্যাখ্যায়, চতুর্মুখী লড়াইয়ে এ বার সামান্য কিছু ভোটও তফাত গড়ে দিতে পারে। তাই সম্ভাব্য সব পথই বাজিয়ে দেখতে হচ্ছে সকলকে।

দক্ষিণ ২৪ পরগনার ভাঙড়ে রবিবারই দলীয় প্রার্থী সুজন চক্রবর্তীর কেন্দ্রে কর্মিসভা করতে গিয়ে কংগ্রেস-সহ সব দলের সমর্থকদের কাছেই সমর্থন চাওয়ার জন্য দলের কর্মীদের পরামর্শ দিয়েছেন সিপিএম পলিটব্যুরোর আর এক সদস্য সূর্যবাবু। তিনি বলেছেন, "ভাঙড়ে তৃণমূলের একাংশের অত্যাচারে সিপিএম, কংগ্রেস-সহ সব দলের কর্মীরা ভীত হয়ে পড়েছেন। আপনারা বাড়ি বাড়ি গিয়ে প্রচার করা শুরু করুন। অন্য রাজনৈতিক দলের সমর্থকেরা গালিগালাজ করলেও কিছু মনে করবেন না। একজোট হয়ে লড়াই করার চেষ্টা করুন।" 

http://www.anandabazar.com/national/%E0%A7%A8%E0%A7%A6%E0%A7%A6%E0%A7%AA-%E0%A6%8F%E0%A6%B0-%E0%A6%85%E0%A6%AC%E0%A6%B8-%E0%A6%A5-%E0%A6%B9%E0%A6%B2-%E0%A6%95-%E0%A6%97-%E0%A6%B0-%E0%A6%B8%E0%A6%95-%E0%A6%A8-%E0%A7%9F-%E0%A6%AD-%E0%A6%AC%E0%A6%AC-%E0%A6%A8-%E0%A6%AC-%E0%A6%A6-%E0%A6%A7-1.14143


हमने लोकतंत्र ऐसे हाथों में सौंप दिया है या सौंप रहे हैं जो बलात्कार को मजे में बदल रहे हैं। पाश का लिखा आज भी सच है सबसे खतरनाक वो आँखें होती है जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..

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हमने लोकतंत्र ऐसे हाथों में सौंप दिया है या सौंप रहे हैं  जो बलात्कार को मजे में बदल रहे हैं।

पाश का लिखा आज भी सच है

सबसे खतरनाक वो आँखें होती है

जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..

पलाश विश्वास

ধর্ষণ নিয়ে বিতর্কিত মন্তব্য, টুইট করে ক্ষমা চাইলেন দেব

ধর্ষণের মতো স্পর্শকাতর বিষয়কে জড়িয়ে মন্তব্য করে বিতর্কে জড়িয়েছিলেন ঘাটাল কেন্দ্রের তৃণমূল প্রার্থী দেব। দিনভর নাটকের পর অবশেষে টুইট করে ক্ষমা চাইলেন দেব।


ভোটের উত্তেজনা কেমন লাগছে? একটি সংবাদপত্রে দেওয়া সাক্ষাত্কারে দেবের মন্তব্য, ধর্ষিত হওয়ার মতো অনুভূতি হচ্ছে। হয় চিত্কার করো না হলে উপভোগ করো। দেবের রুচিবোধ নিয়ে সমালোচনার ঝড় উঠেছে রাজ্য রাজনীতিতে।


কেশপুরে গ্রামের বাড়িতে গিয়ে বলেছেন মিলেমিশে কাজ করার কথা। বিরোধী বামপ্রার্থী সন্তোষ রাণাকে ফোন করে নিজেই আদায় করেছেন চায়ের নেমন্তন্ন। রাজ্য রাজনীতিতে হঠাত্ই সৌজন্যের টাটকা বাতাস। সৌজন্যে ঘাটালের তৃণমূল প্রার্থী দীপক অধিকারী, ওরফে দেব। সেই ফিলগুড ফ্যাক্টরে জল ঢেলে দিলেন দেব নিজেই।


ভোটের উত্তেজনা কেমন উপভোগ করছেন। একটি সংবাদপত্রের প্রতিনিধির প্রশ্নের জবাবে দেবের সরস উত্তর, নিজেকে ধর্ষিত মনে হচ্ছে তাঁর। তিনি বলছেন, এটা অনেকটা ধর্ষণের মতো। হয় চিত্কার করো, কিংবা উপভোগ কর। এই মন্তব্যে সমালোচনার ঝড় রাজ্যজুড়ে।


বেফাঁস এই মন্তব্যের জন্য দেবকে সরাসরি দায়ী করতে নারাজ অভিনেতা বাদশা মৈত্র। দেবকে বুঝেশুনে কথা বলার পরামর্শ দিয়েছেন তিনি।


সিপিআইএম নেতা সুজন চক্রবর্তীর দাবি, দেবকে যে চাপ দিয়ে প্রার্থী করা হয়েছে তা তাঁর এই মন্তব্যেই পরিষ্কার।


যদিও দেবকে ক্লিনচিট দিচ্ছেন না সমাজকর্মীরা। ইয়ুথ আইকন দেব কী করে এমন দায়িত্বজ্ঞানহীন মন্তব্য করতে পারেন, সেই প্রশ্ন তুলছেন তাঁরা।

पाश का लिखा आज भी सच है

सबसे खतरनाक वो आँखें होती है

जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..

कितना बड़ा और कितना भयंकर सच है यह, इसका अंदाजा हममें से किसी को नहीं है। उपभोक्ता संस्कृति के मुक्त बाजार में सेलिब्रिटी राजनीति किस आत्मघाती ब्लैकहोल में समाहित करने लगी है और किस बरमुडा त्रिभुज में भारतीय समाज,भारत गणराज्य और उसका लोकतंत्र सिरे से लापता होने लगा है कि मलबे तक का नामोनिशान न रहे,इसका सचमुच पढ़े लिखे लोगों को तो कोई अंदाजा नहीं है।


मुक्त बाजार का भी व्याकरण होता है।


पूंजीवाद में भी लोककल्याण की अवधारणा निहित होती है।


हिंदुत्व आखिर धर्म है,जो आदर्श नैतिकता पर आधारित है और उसका भगवान पुरुषोत्तम राम हैं।


हम मुक्त बाजार के खिलाफ हैं।हम धर्मोन्माद के विरुद्ध हैं।


हम संघपरिवार के हिंदू राष्ट्र के एजंडे के खिलाफ हैं।

लेकिन बहुसंख्य भारतीयों की आस्था हिंदुत्व है और भारतीय संस्कृति में भी हिंदुत्व निष्णात है,इस सच से इंकार नही कर सकते।


हिंदुत्व कोई अनुशासित धर्म नहीं है।बाकी धर्मालंबियों की तरह हिंदुओं के लिए धर्मस्थल पर नियमित हाजिरी और अनिवार्य पूजा पाठ का प्रावधन नहीं है।


दरअसल सही मायने में हिंदुत्व की बुनियादी अवधारणा संस्कृति बहुल भारतीय मिजाज के मुताबिक है।


हिंदुत्व में सबसे बड़ा रोग मनुस्मृति आधारित जाति व्यवस्था और विशुद्धता का सिद्धांत है।


बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर से बहुत पहले इस अस्मिता आधारित नस्ली वर्चस्व के खिलाफ साधु संतों बाउल फकीरों ने क्रातिकारी आंदोलन छेड़ रखा था।और वह आंदोलन भी किसी खास धर्म के खिलाफ था नहीं।


संत कबीर ,चैतन्य महाप्रभु,

संत तुकाराम,हरिचांद गुरुचांद ठाकुर से लेकर दयानंद सरस्वती ने सुधार आंदोलन के जरिये तो बंगाल में नवजागरण के तहत कानूनी पाबंदियों के जरिये आदिम हिंदुत्व का संशोधित स्वरुप हमारी पहचान है आज।


मुक्त बाजार और अबाध पूंजी के व्याकरण के विरुद्ध अपारदर्शी जनविरोधी उपभोक्ता विरोधी मुक्त कारोबार विरोधी आर्थिक सुधारों के नीति निर्धारण हम पिछले बीस साल

से बिना प्रतिरोध जी रहे हैं।

मंडल विरोधी कमंडल मार्फत संघ परिवार के हिंदुत्व का चरमोत्कर्ष अब हर हर मोदी घर घर मोदी है।


जिस महादेव को आर्य अनार्य दोनो प्रजातियों का आदि देव माना जाता है,जो आर्य अनार्य संस्कृतियों के समायोजन के सबसे जीवंत प्रतीक है।


आदिवासियों के टोटम जो सतीकथा में समाहित आदिवासी देवियों के चंडी रुप के पति भैरव के रुप में शिव माहात्म के रुप में पूरे देश को जोड़ता रहा है सदियों से और देवी के वाहन के रुप में आदिवासियों के टोटम की पूजा की जो परंपरा है,उसे मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए तिलांजलि दे रहा है हिंदुत्व के सबसे बड़े प्रवक्ता संघ परिवार।


हम इसे निर्वाक सहन कर रहे हैं।


नस्ली भेदभाव के खंडन बतौर शिव की अवधारणा को समझें तो समझ में आनेवाली बात है कि बाजार और पूंजी के समांतरनस्ली वर्चस्व के वैश्विक गठजोड़ का कौन सा खूनी खेल रचा जा रहा है।



अब शंकराचार्य ने हरहर मोदी के औचित्य पर संघ परिवार से ऐतराज जताया तो नरेंद्र मोदी ने भी अपने अनुयायियों से कह दिया कि यह नारा न लगायें।


हालांकि सच तो यह है कि संघ परिवार और भाजपा इस वक्त मोदीमय है और मोदी एकमुश्त कारपोरेट राज और अमेरिकी हितों के देवादिदेव बनने को बेताब हैं।


बाकी सारे देव देवी कूड़े के ढेर में हैं।भूतों प्रेतों को सिपाहसालार बनाकर मोदी भारत गणराज्य को कैलाश बनाने को तत्पर हैं।


इस महाभियान की बागडोर सूचना तकनीक और सोशल मीडिया में प्रबल रुप में उपस्थित नरेंद्र मोदी स्वयं संभाल रहे हैं।


भाजपा चुनाव प्रचार अभियान के चेहरा वे ही हैं।पार्टी के टिकट उन्हीं के मर्जी से बांटे जा रहे हैं।


रोज इतिहास का पुनर्पाठ रच रहे हैं वे। रोज उनको केंद्रित किंवदंतियां रची जा रही है।


मुद्दे वे अपनी सुविधा के मुताबिकबना बिगाड़ रहे हैं।


काशी भारतीय संस्कृति का प्राचीनतम केंद्र है और मोहंजोदोड़ों हड़प्पा नगर सभ्यताओं के अवसान के बाद नदीमातृक सर्वाधिक प्राचीन नगरी भी है काशी।


धमाकों और हिंसा की छिटपुट वारदातों के बावजूद काशी केइतिहास को खंगाले तो तमाम संवाद शास्त्रार्थ के नाम पर काशी में  ही घटित हुए।


काशी में महाकवि सुब्र्मण्यम भारती और प्तरकार मसीहा विष्णुराव पराड़कर का निवास भारतीयता को मजबूत करता रहा है।


काशी बाकी धर्मस्थलों की तरह एकतरफा प्रवचन का केंद्र नहीं है।


अस्सी के घाट पर वर्गहीन भारतीय समाज की प्रवाहमान अभिव्यक्ति से बाकी देश अपरिचित भी नहीं है।


ऐसे काशी में बाबा विश्वेश्वर महादेव हैं तो पार्वती स्वयं अन्नपूर्मा है,जो खाद्य सुरक्षा की गारंटी हैं।


इस काशी से ही नमो की सुनामी रचने की परियोजना है ताकि उत्तर प्रदेश और बिहार जीतकर बहुमती जनादेश के सहारे दिल्ली का सिंहासन नमो हो जाये।


अब शायद केसरिया शब्द पर भी पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि भाजपा अब भाजपा कहीं है ही नहीं वह तो अब नमोपा है और संघ परिवार भी संघ परिवार नहीं रहा,वह नमोपरिवर है।


तो इस नमोपा और नमो परिवार भारत देश को नमोदेश बनाने पर तुला है और इस परियोजना को अमली जामा पहनाने के लिए भारतीय संस्कृति के प्राणकेंद्र प्रगतिशील हिंदुत्व के प्राचीन शास्त्रित गढ़ काशी को ही बाजारु अंकगणित से निर्वाचित किया गया है।


अब समझने वाली बात है कि इतनी महत्वपूर्ण परियोजना की कमान संघ परिवार और नमो के हाथ में नहीं है,हम ऐसा सोचने का दुस्साहस भी नहीं कर सकते।


तो नमो के वाराणसी में दावेदारी घोषित होते ही गूंज उठा हर हर मोदी घर घर घर मोदी नारे की देश विदेश मथ रही प्रतिध्वनियां का क्या हिंदुत्व के बहरे कानों तक पहुंचाने के लिए शंकराचाचार्य की वाणी ही प्रतीक्षित थी,इस पर सोचें।


इस पर  भी सोचें की बहुसांस्कृतिक काशी के कायाकल्प के जो संघी प्रकल्प हैं,उससे सबसे पहले महादेव विस्थापित हो रहें हैं,यानी नस्ली वर्चस्व की खुली युद्धघोषणा है यह।


भाजपा और संघ परिवार के लोगों ने देव देवी मंडल ने टीवी पर चौबीसों घंटे सातों दिन गूंज रहे इस नारे को सुना ही नहीं,ऐसा अजब संजोग इस देश में हुआ ही नहीं।


मोदी प्रधानमंत्रित्व का चेहरा हैं।यह कैसा चेहरा है जिसे अपने बुनियादी प्रकल्प की कैचलाइन की ही खबर नहीं होती और शंकराचार्य  के कहने पर उन्हें फतवा जारी करना पड़ता है,अब और नहीं।


लेकिन नमोमीडिया फिर भी बाज नहीं आ रहा है।


शंकराचार्य की आपत्ति पर बाकायदा मतदान कराया जा रहा है और इस मतदान में भी मोदी के मुकाबले देवादिदेव महादेव की जमानत जब्त होती दिख रही है।


दरअसल गौरतलब तो यह है कि मोदी के मुकाबले चाहे केजरीवाल हो या चाहे डां. कर्ण सिंह और तीसरे चौथे अनगिनत कितने ही उम्मीदवार। नमो का मुकाबला भाजपा से था।


नमो का मुकाबला संघ परिवार से था। नमो का मुकाबला भारतीय लोकतंत्र से था।नमो का मुकाबला धर्मनिरपेक्षता से था।


भाजपा नमोपार्टी है।संघपरिवार नमोपरिवार है।


अब नमो लोकतंत्र की बारी है।


नमोनिरपेक्षता और नमोदेश की बारी है।


सही मायने में नमो का असली मुकाबला काशी की गौरवशाली विरासत से है।


नमो के मुकबले दरअसल अकेले उम्मीदवार हैं काशी के अधिष्ठाता देवादिदेव बाबा विश्वेश्वर महादेव।


नमो पार्टी और नमो परिवार के उत्सव अकारण नहीं है क्योंकि एक भी वोट पड़े बिना काशी हारती नजर आ रही है और शिवशंकर भोलेनाथ की तो पहले से ही जमानत जब्त हो गयी।


हमेन कभी शिव के मत्थ जल नहीं चढ़ाया है। हमने कभी शिवरात्रि के मौके पर उपवास नहीं रखा है। हमने कभी किसी शिव मंदिर जाकर अपनी मनोकामनाें व्यक्त नहीं की।हम तो सिरे से इस लिहाज से अहिंदू ही हुए। नरकयंत्रणा के जसायाफ्ता कैदी।


लेकिन जिनकी आस्था प्रबल है जो हिंदुत्व के झंडेवरदार हैं जो भाजपा और संघ परिवार के प्रतिबद्ध सेनानी और सिपाही हैं,वे तनिक ठंडे दिमाग से सोचे काशी और महादेव को तिलांजलि देकर उनका हिंदू राष्ट्र कितना हिंदू होगा आखिरकार।


इससे भी बड़ा सवाल बुनियादी यह है कि सदियों की आजादी की लड़ाई के बाद जो हमने विभाजित लहूलुहान आजादी हासिल की और अपने लिए लोकगणराज्य बनाया,उन्हें हम किन हाथों में सौंप रहे हैं।


इस सवाल पर जवाब खोजने से पहले बंगाल के नये बवाल पर भी गौर करें। पहले ही अरविंद केजरीवाल मुद्दा बना चुके हैं कि भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा है।


पहले भी भारत की न्यायप्रणाली ने बार बार बता दिया है कि कैसे संसद और विधानसभायें अपराधियों और बाहुबलियों की शरणस्थलियां बन गयी हैं।


अरविंद तो नाम लेकर लेकर कारपोरेट एजंटों का खुलासा कर रहे हैं।राडिया टेप भी सारवजनिक हैं।


लेकिन बाजार अर्थव्यलव्स्था के साथ सैकड़ों करोड़ में खेलकर उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं के विज्ञापनी माडल प्रतिबद्ध और निष्ठावान नागरिकों और राजनेताओं को हाशिये पर धकेल कर जो अराजनीतिक अलोकतांत्रिक रैंप में बदलने को है संसद को, वह फैशनपरेड कितना लाजबवाब और जायतकेदार है, इसपर भी मुलाहिजा फरमायें।


बंगाल की अग्निकन्या बाकी भारत की देवी चंडिका हैं क्योंकि उन्होंने वामसुर को वध कर दिया।उनके परिवर्तन राज को दिल्ली स्थानांतरित करने के ख्वाब को भले ही अन्ना हजारे के ऐन मौके पर कदम पीछे करने से भारी धक्का लगा है।लेकिन आगामी लोकसभा चुनावों में बनेन वाली सरकार की रचना में उनकी,जयललिता की और बहन मायावती की निर्णायक भूमिका होनी चाहिए।तीनों महिलाएं अपने अपने राज्य में सत्ता के शिखर को स्पर्स किया हुआ है और उनके मजबूत वोट बैंक भी हैं।


दीदी को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उतने ही नापसंद हैं जितने कि जयललिता और मायावती को। लेकिन माावती और जयललिता ने भी राजनेताओं को इतने थोक दरों पर किनारे नहीं किया है। दीदी के सारे उम्मीदवार या तो उनके अनुगत अंध भक्त हैं जो सवाल नहीं करते या फिर चौंधियने वाले सितारे हैं,जो चमकते तो हैं ,लेकिन जमीन पर कहीं होते ही नहीं हैं।


ऐसे ही एक सितारे का नाम है बांग्ला फिल्मों का मौजूदा नंबर वन स्टार देव जो गुरुदास गुप्ता के घाटालकेंद्र से तृणमूली उम्मीदवार हैं।गुरुदास बाबू नहीं लड़ रहे हैं और उनकी जगह भाकपा के संतोष राणा हैं। मेदिनीपुर तृणमूल का सबसे मजबूत गढ़ है और देव की दिवानगी अपराजेय है।लाखों वोटों से वे वामपक्ष की यह सीट छीन लेंगे,इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है।


उन्हीं देव ने कल एक बांग्ला अखबार में साक्षात्कार में राजनीति के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए खुद को रेप्ड बताया।किसने यह रेप किया ,यह हालांकि उन्होंने नहीं  बताया।लेकिन बलात्त्कार पीड़ितों के लिए एक रामवाण सुझा दिया।


देव के मुताबिक बलात्कार के पीड़ितों के लिए दो ही विक्लप खुले होते हैं।या तो खूब चीखों या बलात्कार के मजे ले लो। उन्होंने बताया कि वे बलात्कार का शिकार होकर मजा ले रहे हैं।हालांकि मीडिया,राजनीति और समाज में हुई तीखी प्रतिक्रिया के मद्देनजर राजनीतिक समीकरण ही बदल जाने के खतरे को भांपते हुए देब की लगाम कस दी गयी है।


देव ने ट्विटर पर बयान जारी रखकर अपने इस वक्तव्य के लिए माफी मांग ली है।लेकिन इस बयान का मतलब एकदम बदल नहीं गया सोशल मीडिया पर जारी इस माफीनामे से।


युवाओं के सबसे बड़े बंगाली सुपरआइकन के इस सुवचन से युवा मानसिकता का कितना कायाकल्प होगा,अब आप इस पर विचार जरुर करें।


जाने अनजाने देव ने मुत् बाजार की अर्थ व्यवस्था के सबसे बड़े सच को नंगा पेश कर दिया है।


यह वक्त बलात्कार  के खिलाफ चीखों का नहीं है शायद।


हमने लोकतंत्र ऐसे हाथों में सौंप दिया है या सौंप रहे हैं  जो बलात्कार को मजे में बदल रहे हैं।


इसक साथ ही प्रासंगिक एक सच यह है कि दिल्ली और मुंबईे के बहुचर्चित बलात्कार कांडों पर छह सात महीने में फैसले भी आ चुके हैं। लेकिन बंगाल में परिवर्तन राज में हुए किसी भी बलात्कारकांड की अभी सुनवाई ही नहीं हुई है। न अभियुक्तों के खिलाप अभियोग दायर ह पा रहे हैं।


जाहिर है, कि सुपरस्टार भावी सांसद के सुवचन का तात्पर्य बेहद भयानक है।

उससे भी भयानक है मुक्त बाजार का यह स्त्री विमर्श।



आज से छब्बीस साल पहले, सिर्फ़ सैंतीस साल की उम्र में, ‪#‎पाश‬खालिस्तानी आतंकवाद के शिकार हुए थे.


उनकी प्रसिद्ध कविता...


‪#‎सबसे_खतरनाक_होता_है_हमारे_सपनों_का_मर_जाना‬ !


सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

गद्दारी, लोभ की मुट्ठी

सबसे ख़तरनाक नहीं होती


बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है

सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है

पर सबसे ख़तरनाक नहीं होती


सबसे ख़तरनाक होता है

मुर्दा शांति से भर जाना

ना होना तड़प का

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौट कर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना


सबसे खतरनाक वो आँखें होती है

जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..

जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है

जो चीज़ों से उठती अन्धेपन कि भाप पर ढुलक जाती है

जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई

एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है


सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है

जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए

और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा

आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए


श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

गद्दारी, लोभ की मुट्ठी

सबसे ख़तरनाक नहीं होती

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना.....


बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?

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बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?





एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



क्या होगा इस देश का जहा 77% से ज्यादा जनसंख्या है गरीबी रेखा के नीचे। जी हां,असली आंकड़ा यही है।


चुनाव आ रहे हॅ और हर राजनैतिक दल यह एक मुद्दा उठा रहा है। असल मे गरीबी सिर्फ एक ताश का पत्ता है जिसका इस्तेमाल इस ताश के खेल मे जोकर की तरह होता है।बस,इसके इस्तेमाल के लिए बहुसंख्य आम जनता को सिर्फ गरीब बनाके रख दिया जाता है।इस वर्ग का सशक्तीकरण हो जाये,तो राजनीति का सारा खेल गुड़गोबर। राजनीतिक शतरंज पर ये गरीब लोग पैदल सेनाएं अनंत हैं।शह और मात के अंजाम के कातिर हर चाल में इस पैदल सेना की कुर्बानी दी जाती है।


मजा तो यह है कि राजनेता गरीबों की बदहाली पर घड़ियाली आंसू बहाने से कभी बाज नहीं आते।गरीबी चुनावी मुद्दा तो है,लेकिन गरीबी खत्म करने की कोई परिकल्पना और उसके लिए ईमानदार कार्यक्रम किसी के पास नहीं है।


1971 के मध्यावधि चुनाव में बाकायदा बांग्लादेश युद्ध में विजय की पृष्ठभूमि में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के भीतर कुंडली मारकर बैठे सिंडिकेट के सर्वव्यापी प्रभाव के खात्मे के लिए गरीबी हटाओ का नारा दिया था।जिसके तहत राष्ट्रीयकरण की नीति चली थी।


विडंबना देखिये,अब उसी कांग्रेस की अगुवाई में सन 1971 के बीस साल बाद 1991 से निजीकरण के तहत गरीबी हटाने के लिए गरीबों की क्रयशक्ति बढ़ाकर उन्हें मुत्क बाजार का उपभोक्ता बनाने की मुहिम चलायी जा रही है।अब भी आर्थिक सुधारों के जरिये देश की अरथव्यवस्था की बुनियाद कृषि और उत्पादनप्रणाली दोनों को ध्वस्त करने वाली कांग्रेस के प्रधानमंत्रित्व के दावेदार राहुल गांधी गरीबी के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ रहे हैं।


नरेंद्र मोदी के हिंदुत्ववादी विकास और अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली जंग के अलावा रंग बिरंगी अस्मिताओं के खिलाफ कांग्रेस की पूंजी अब भी गरीबी है।


हकीकत तो यह है कि तरह तरह की सामाजिक परियोजनाें चलाने वाली सुधार सरकारें आंकड़ों और परिभाषाओं में गरीबी खत्म कर रही हैं।कभी गरीबी रेखा की परभाषा 32 रुपये हैं तो कभी 27 रुपये।लेकिन गरीबी रेखा के आर पार गरीबी के साम्राज्य में खरोंच तक नहीं आयी है।नकदी नदी के प्रवाह का विस्तार तो हुआ लेकिन मंहगाई, मुद्रास्फीति, बेरोजगारी और बेदखली के चौतरपा मार से गरीबो के संरक्षक लोक गणराज्य भारत का वजूद ही खत्म है।


आज चुनाव सूचना महाविस्पोट के दम पर लड़ा जा रहा है।महानगरों, कस्बों और औद्यगिक इकाइयों को आधारक्षेत्र बनाकर रथी महारथी कुरुक्षेत्र जीतने का दम भर रहे हैं।इसके उलट भारत देश में आज भी लाखों गांव ऐसे हैं,इस इक्कीसवीं सदी में भी जहां जिला शहर से घंटेभर की दूरी तक सूचना महाविस्पोट का कोई धमाका नहीं है।वहां रोजनामचा बिना अखबार चल रहा है।बिना टीवी लोगों का गुजरबसर हो रहा है। लहरं की जद से बाहर हैं वे गांव।लेकिन उनका भी मताधिकार है।जनादेश निर्माण में उनकी भी भूमिका होगी।लेकिन वे हिसाब से बाहर हैं।किसी सर्वे में उन गांवों का कोई वजूद ही नहीं है।


इसके अलावा स्थानीय रोजगार से वंचित जो प्रवासी भारत अपने महानगरों, भिन्न राज्यों ,घरेलू नगरों ,औद्योगिक इकाइयों में घूमंतू हैं,जो विकास की कीमत पर बेदखल गंदी बस्तियों के वाशिंदे हैं,उनकी गरीबी मापने की कोई परिभाषा नहीं है।जो आदिवासी गांव,जो बहुसंख्यआदिवासी गांव हैं,बतौर राजस्व गांव चिन्हित नहीं है और मुख.धारा के महासमुंदर में बिंदु समान अलगाव के द्वीप हैं जो,वहां तो गरीबी रेखा पाताल लोक में हैं।उनकी एकमात्र बुनियादी जरुरत खाना और कपड़ा तक दे नहीं पाता महाशक्ति भारत।


कोलकाता,मुंबई और नई दिल्ली के आसपास बसी बस्तियों की गरीब आबादी भी इस देश के असली भूगोल है।कोलकाता में रल पटरियों के दोनों तरफ की आबादी किसी महानगर से कम नहीं है।प्लेटफार्म के नीचे सुरंगों में भी रहते हैं लोग।सबवे में आशियाना है। पानी के मोटे पाइपों,फुटपाथों पर गुजरबसर करते लोग तो विकास के आंकड़ो के जीवंत कार्टून हैं।इन गरीबों का कोई माई बाप नहीं है।हर जरुरी चीज पैसे के बिना मिलती नहीं है।चिकित्सा,शिक्षा और छत बिन पैसे मिलती ही नहीं हैं।ऐसे मंहगे सपने वे देखते नहीं हैं।उनकी जरुरत सिर्फ खाना सोना पैकाना और पहनना है ,जिसके लिए उनकी रोजमर्रे की जिंदगी रोज लहूलुहान होती है।


चुनावी मौसम में इन लोगों का भाव अचानक आसमान पर पहुंच जाता है।वोट उनके भी हैं।इन्हीं लोगों को चुनाव के वक्त नरनारायण बना दिया जाता है ताकि वे अपना वोटवर दे दें।मांग पर ऐसे में नकद भुगतान का बंदोबस्त भी है।चुनावी रैली,रोड शो और दूसरी भीड़जमाऊ कारोबार में इनकी मौजूदगी अहम है।जैसे प्रेस क्लब में पत्रकारों को बिरयानी खिलाकर उपहार देकर साधने का रिवाज बन गया है,उसी तरह इन लोगों को भी चुनाव में लगाने का इंतजाम है।चुनाव दरअसल ऐले लोगों का कमाने और खाने का बंदोबस्त भी है।जब तक चुनाव का मौसम है,खाने पीने की कोई फिकर नहीं।मस्त बिंदास। फिर वहीं अंधेरी रात।


बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?


लोकसभा चुनाव-2014 - हाँ, हमें चुनना तो है! लेकिन किन विकल्पों के बीच?

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लोकसभा चुनाव-2014 - हाँ, हमें चुनना तो है! लेकिन किन विकल्पों के बीच?

Indian-_Election_Cartoonसाथियो!

16वें लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। हमें फिर चुनने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन चुनने के लिये क्या है? झूठे आश्वासनों और गाली-गलौच की गन्दी धूल के नीचे असली मुद्दे दब चुके हैं। दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों के देश भारत के 66 साल के इतिहास में सबसे महँगे और दुनिया के दूसरे सबसे महँगे चुनाव (30 हज़ार करोड़) में कुपोषण, बेरोज़गारी या भुखमरी मुद्दा नहीं है! बल्कि "भारत निर्माण"और देश के "विकास"के लिए चुनाव करने की दुहाई दी जा रही है! विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है और इसका असर भारत के टाटा, बिड़ला, अम्बानी-सरीखे पूँजीपतियों पर भी दिख रहा है। ऐसे में, भारत का पूँजीपति वर्ग भी चुनाव में अपनी सेवा करने वाली चुनावबाज़ पार्टियों के बीच चुन रहा है। पूँजीवादी जनतंत्र वास्तव में एक धनतंत्र होता है, यह शायद ही इससे पहले किसी चुनाव इतने नंगे रूप में दिखा हो। सड़कों पर पोस्टरों, गली-नुक्कड़ों में नाम चमकाने वाले पर्चों और तमाम शोर-शराबे के साथ जमकर दलबदली, घूसखोरी, मीडिया की ख़रीदारी इस बार के चुनाव में सारे रिकार्ड तोड़ रही है। जहाँ भाजपा-कांग्रेस व तमाम क्षेत्रीय दल सिनेमा के भाँड-भड़क्कों से लेकर हत्यारों-बलात्कारियों-तस्करों-डकैतों के सत्कार समारोह आयोजित करा रहे हैं, तो वहीं आम आदमी पार्टी के एनजीओ-बाज़ "नयी आज़ादी", "पूर्ण स्वराज"जैसे भ्रामक नारों की आड़ में पूँजीपतियों की चोर-दरवाज़े से सेवा करने की तैयारी कर रही है; भाकपा-माकपा-भाकपा(माले) जैसे संसदीय वामपंथी तोते हमेशा की तरह 'लाल'मिर्च खाकर संसदीय विरोध की नौटंकी के नये राउण्ड की तैयारी कर रहे हैं। उदित राज व रामदास आठवले जैसे स्वयंभू दलित मसीहा सर्वाधिक सवर्णवादी पार्टी भाजपा की गोद में बैठ कर मेहनतकश दलितों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह खड़ा होता है कि हमारे पास चुनने के लिए क्या है?

किसे चुनें-सांपनाथ, नागनाथ या बिच्छुप्रसाद को?

देश का पूँजीवादी जनतंत्र आज पतन के उस मुकाम पर पहुँच चुका है, जहाँ अब इस व्यवस्था के दायरे में  छोटे-मोटे सुधारों के लिये भी आम जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। अब तो जनता को इस चुनाव में चुनना सिर्फ Election_Exhibition_12यह है कि लुटेरों का कौन-सा गिरोह उन पर सवारी गाँठेगा! विभिन्न चुनावी पार्टियों के बीच इस बात के लिये चुनावी जंग का फैसला होना है कि कुर्सी पर बैठकर कौन देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा करेगा; कौन मेहनतकश अवाम को लूटने के लिये तरह-तरह के कानून बनायेगा; कौन मेहनतकश की आवाज़ कुचलने के लिये दमन का पाटा चलायेगा; दस साल से सत्ता में मौजूद कांग्रेस को ज़ाहिरा तौर पर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से जनता पर टूटे कहर का ख़ामियाजा भुगतना पड़ रहा है। रही-सही कसर रिकार्डतोड़ घपलों-घोटालों ने पूरी कर दी है। देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का श्रीगणेश करनेवाली कांग्रेस को उम्मीद थी कि चुनाव करीब आने पर लोक-लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर वह जनता को एक बार फिर बरगलाने में कामयाब हो जायेगी! मगर घनघोर वित्तीय संकट ने इस कदर उसके हाथ बाँध दिये है कि चाहकर भी वह चन्द हवाई वादों से ज़्यादा कुछ नहीं कर पा रही है। उसके 'भारत निर्माण'के नारे की हवा निकल चुकी है।

उधर नरेन्द्र मोदी पूँजीपति वर्ग के सामने एक ऐसे नेता के तौर पर अपने को पेश कर रहा है जो डण्डे के ज़ोर पर जनता के हर विरोध को कुचलकर मेहनतकशों को निचोड़ने और संसाधनों को मनमाने ढंग से पूँजीपतियों के हवाले करने में कांग्रेस से भी दस कदम आगे रहकर काम करेगा! बार-बार अपने जिस गुजरात मॉडल का वह हवाला देता है वह इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। याद रहे कि इसी नरेन्द्र मोदी ने 2007 में कहा था कि वह पूरे देश को एक 'विशेष आर्थिक क्षेत्र' (सेज़) में तब्दील कर देगा! जो भी व्यक्ति जानता है कि 'सेज़'के भीतर किस कदर मज़दूरों का खून निचोड़ा जाता है, वह नरेन्द्र मोदी के इस दावे का मतलब समझ जायेगा। नरेन्द्र मोदी देश के पूँजीवादी आर्थिक संकट की पैदावार है जो कि जनता के अज्ञान और झूठे प्रचार के ताबड़-तोड़ हमले का सहारा लेकर 'जादू की छड़ी'से हर समस्या का समाधान कर देने का दावा करता है! यह जादू की छड़ी वास्तव में तानाशाहाना तरीके से निजीकरण-उदारीकरण और देशी-विदेशी पूँजी के लिए देश को लूट का खुला चरागाह बनाने की नीतियाँ हैं, जो कि मोदी गुजरात में लागू कर चुका है और अब पूरे देश में लागू करना चाहता है। ये नीतियाँ जहाँ एक ओर देश के अमीरज़ादों, कारपोरेट घरानों, उच्च मध्यवर्ग के लिए चमक-दमक भरे मॉल, एक्सप्रेस वे, सेज़ आदि खड़े करेंगी वहीं देश के 80 फीसदी आम मेहनतकशों के जीवन को नर्क के रसातल में धकेल देंगी। यही मोदी के विकास का मतलब है। संकट में बुरी तरह घिरे पूँजीपति वर्ग को इसीलिए अभी मोदी सबसे प्रिय विकल्प नजर आ रह है।

दरअसल यही हाल सभी चुनावबाज़ पार्टियों का है। चाहे वह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो, बिहार में नीतीश कुमार की जद(यू) हो, हरियाणा में इनेलो व हरियाणा जनहित कांग्रेस हों या महाराष्ट्र में शिवसेना व मनसे हों-सभी जनता की मेहनत को लूटकर टाटा-बिड़ला-अम्बानी आदि की तिजोरियाँ भरने के लिए बेचैन हैं। उदारीकरण-निजीकरण की विनाशकारी नीतियाँ किसी पार्टी के लिये मुद्दा नहीं हैं क्योंकि इन नीतियों को लागू करने पर सबकी आम राय है। पिछले दो दशक के दौरान केन्द्र और राज्यों में संसदीय वामपन्थियों समेत सभी पार्टियाँ या गठबन्धन सरकारें चला चुके हैं या चला रहे हैं और सबने इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया है। बल्कि इन तमाम क्षेत्रीय दलों ने जिस नंगे अवसरवाद और बिकाऊपन का प्रदर्शन किया है वह अभूतपूर्व है! मुलायम से लेकर जयललिता और ममता तक प्रधानमन्त्री की कुर्सी को ललचायी निगाहों से देख रहे हैं और खुले तौर पर कह रहे हैं कि वे उसके लिए कोई भी सौदा करने के लिए तैयार हैं!

इन सभी से अलग होने का दावा करते हुए प्रकट हुई अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार-विरोध के नारे के साथ दिल्ली की विधानसभा में कदम रखे और कांग्रेस और भाजपा से ऊबे लोगों ने इन्हें वोट भी दिये। लेकिन 49 दिनों की सरकार और उसके बाद के दौर ने इनके चरित्र को नंगा कर दिया है। 'आप'के भीतर सीटों के बँटवारे पर जो कुत्ताघसीटी और जूतमपैजार जारी है उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि 'आप'सन्तों के चोंगे में शैतान ही है; अरविन्द केजरीवाल की एक प्रमुख समाचार चैनल के पत्रकार के साथ मिलीभगत और 'आप'का नाम चमकाने के लिए सस्ते दाँव-पेच ने दिखला दिया है कि केजरीवाल भी चुनावी गटर-गंगा के बडे़ महारथी हैं! लेकिन इन सबसे अहम बात है कि केजरीवाल की 'आप'भी वही नीतियाँ लागू करने के बात कर रही है जो कि भाजपा और कांग्रेस लागू करती रही हैं। पूँजीपतियों के मंच सीआईआई पर केजरीवाल की पूँछ नियन्त्रण से बाहर हो गयी थी और बेतरह हिले जा रही थी! केजरीवाल ने सभी पूँजीपतियों से वायदा किया कि अगर'आप'की सरकार बनती है तो वह 'धन्धे में कोई हस्तक्षेप'नहीं करेगी और देश में 'धन्धा लगाना और चलाना आसान बना देगी!'इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है पूँजीपतियों को हर रोक-टोक (जैसे कि सुरक्षा सम्बन्धी क्लियरेंस लेना, पर्यावरण क्लियरेंस लेना, श्रम कानूनों का पालन करना, बिक्री कर आदि देना!) से पूरी छूट दी जायेगी! और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और अधिक बढ़ाया जायेगा, क्योंकि 'आप'सरकार सरकारी विभागों से भ्रष्टाचार समाप्त कर देगी और पूँजीपतियों को सरकारी अफसरों को घूस नहीं देनी पड़ेगी! दिल्ली में 'आप'ने अपनी सरकार के दौरान दिल्ली से सभी सरकारी और ग़ैर-सरकारी ठेका कर्मचारियों से जो ग़द्दारी और वायदा-ख़ि‍लाफ़ी की वह आज सबके सामने है। आज सभी जानते हैं कि केजरीवाल ने पानी और बिजली पर जनता की जेब से जो सब्सिडी कम्पनियों को दी थी वह भी सिर्फ़ 31 मार्च तक के लिए थी! आम आदमी पार्टी एक मायने में भाजपा और कांग्रेस से भी ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि यह जनता को "साफ़-सुथरे पूँजीवाद"का झूठा सपना दिखाकर भरमा रही है; ठीक वैसे ही जैसे एक समय में जेपी आन्दोलन और मोरारजी देसाई सरकार ने किया था! जब भी पूँजीवादी व्यवस्था गम्भीर संकट का शिकार होती है, तो कोई सन्त, कोई श्रीमान सुथरा प्रकट होते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था पर से जनता के विश्वास को बनाये रखने का काम करते हैं। आज यही काम अरविन्द केजरीवाल की 'आप'कर रही है।

ऐसे में, जब चुनाव आयोग और तमाम स्वयंसेवी संगठन से लेकर आमिर ख़ान का 'सत्यमेव जयते', चाय कम्पनियाँ, मोबाइल कम्पनियाँ अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए जनता का वोट देने के लिए "आह्वान"करते हैं, तो हँसी फूट पड़ती है! चुनाव आयोग की स्थिति विशेष तौर पर हास्यास्पद होती है! वह प्रत्याशियों के लिए नये-नये नियम बनाता है, उनका प्रचार करता है, उनके बारे में प्रशिक्षण देता है और अन्त में सारे चुनावी दल इन नियमों के पुलिन्दों का कागज़ी जहाज़ बनाकर उड़ा देते हैं! वोट डालने के लिए अपील का भी तमाम कम्पनियाँ अपने उत्पाद के बाज़ार के लिए इस्तेमाल करती हैं। क्या यह सब दिखलाता नहीं है कि यह सब एक विशालकाय, खर्चीली और घृणा पैदा करने वाली नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं है? यही कारण है कि इन अपीलों का कुछ ख़ास असर नहीं होता। पन्द्रहवें लोकसभा चुनाव में सिर्फ करीब 59 फ़ीसद मतदाताओं ने मत डाले, जिसमें करीब 37 फीसद ही जीतने वाले दल, कांग्रेस को मिले। यानी कुल मतदाताओं के 30 फीसदी से भी कम। इसके ऊपर से दारु बाँटकर, पैसे से ख़रीदकर और बूथ कब्ज़ा करके हासिल किये मतों का फीसद भी कम से कम 15-20 फीसद होता है। यानी, इस देश की सरकार चुनने का काम महज़ 10 फीसदी लोग ही करते हैं। इस चुनाव में अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची ही दिखा रही है कि इस बार पहले से भी अधिक चोर-उचक्कों, बलात्कारियों, गुण्डों और करोड़पतियों को टिकट दिया गया है। भगवाधारी भाजपा हो, तिरंगा उड़ाने वाली कांग्रेस हो, टोपी पहनाने वाली आम आदमी पार्टी हो या फिर तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ या विरोध की नौटंकी करने वाले नकली वामपंथी-लुटेरी आर्थिक नीतियों के सवाल पर सबमें एकता है! यह बात सापफ़ है कि सरकार चाहे इस चुनावी दल की हो या उस चुनावी दल की-वह शासक वर्गों की मैनेजिंग कमेटी ही होती है। इसी मैनेजिंग कमेटी की भूमिका कौन-सा दल निभायेगा यही तय करने के लिए हर पाँच साल पर चुनावों की महानौटंकी आयोजित की जाती है और इसका भी भारी-भरकम ख़र्च आम ग़रीब जनता की जेब से ही वसूला जाता है। यह जनतन्त्र देश के अस्सी फीसदी मेहनतकश लोगों के लिए पूँजीपतियों का धनतन्त्र है। ऐसे में, प्रश्न यह उठता है कि हमें क्या करना चाहिए?

नाउम्मीदों की एक उम्मीद-इंक़लाब

इस बेहद ख़र्चीली चुनावी नौंटकी और जनता की छाती पर भारी चट्टान की तरह लदी पूँजीवादी संसदीय प्रणाली को हम सिरे से ख़ारिज करते हैं। वैसे भी पिछले 62 सालों के पन्द्रह लोकसभा चुनावों में पूँजीवादी राजनीति की फूहड़ता और नग्नता जनता के सामने उजागर है। साफ है कि गैर-बराबरी और अन्याय पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव एक धोखा है पूँजीवादी जनतन्त्र जनता के लिए धनतन्त्र और डण्डातन्त्र है। हमारे पास विकल्प यही है कि नागनाथ, साँपनाथ आदि में से एक को चुन लें। ऐसे में, 'सबसे कम बुरे'का चुनाव करने से आज हमें कुछ भी नहीं हासिल होगा। हमें इस चुनावी नौटंकी की असलियत को समझना होगा। हमें समझना होगा कि मौजूद पूँजीवादी व्यवस्था की नींव में देश की 75 से 80 फीसदी मज़दूरों, आम मेहनतकश आबादी की लूट है। इस व्यवस्था के दायरे के भीतर हम किसी को भी चुन लें,कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

इसलिए बेहतर है हम पूँजीवाद के विकल्प की बात करें। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद अमर नहीं हैं। आज समय के गर्भ में महत्वपूर्ण बदलाव के बीज पल रहे हैं। विकल्प के निर्माण के लिए उन्हें ही आगे आना होगा जो ठगे जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं और आवाज़ उठाने पर कुचले जा रहे हैं! वैसे भी हम पहले ही बहुत देर कर चुके है और सड़ाँध मारते पूँजीवाद का एक-एक दिन हमारे लिए भारी है! यह घुटन, यह गतिरोध अब ज़िन्दा आदमी के बर्दाश्त के काबिल नहीं! हमें उठ खड़ा होना होगा और अपने ज़िन्दा होने सबूत देना होगा! वरना आने वाली पीढ़ियों को इतिहास क्या बतायेगा कि हम क्या कर रहे थे? जब देश ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा हुआ था, तबाही के नर्ककुण्ड में झुलझ रहा था?

इसलिए हमें समूची पूँजीवादी व्यवस्था का ध्वंस करने की फैसलाकुन लड़ाई शुरू करनी होगी। हमें क्रान्तिकारी तरीके से मेहनतकश जनता का लोकस्वराज्य कायम करना होगा। इसलिए हमारा नारा है "खत्म करो पूँजी का राज, लड़ो बनाओ लोकस्वराज्य।"लोकस्वराज्य से हमारा अर्थ है उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले सामाजिक वर्गो का नियन्त्रण और साथ ही मुनाफे और बाज़ार के लिए उत्पादन की पूरी व्यवस्था को नष्ट करके एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जिसमें उत्पादन सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हो और पैदावारों का समानतापूर्ण बँटवारा हो। लोकस्वराज्य व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों की भूमिका अदा करने के लिए पेशेवर नेताओं का परजीवी वर्ग नहीं होगा, बल्कि आम लोग जो कि सारी चीज़ें बनाते और चलाते हैं, वही राजनीतिक निर्णय लेने का कार्य भी करेंगे। जो लोग सुई से लेकर जहाज़ तक हरेक चीज़ बनाते हैं वह पूरे देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था क्यों नहीं चला सकते? लोकस्वराज्य व्यवस्था पूँजीवादी जनवाद से इस मायने में भिन्न होगी कि उसमें एक ऐसी चुनावी प्रणाली होगी जिसमें जनता छोटे-छोटे निर्वाचक मण्डलों में अपने प्रतिनिधियों का सीधे चुनाव करेगी। कारखानों में, गाँवो-मुहल्लों में, सेना में लोग अपने बीच में से अपने सच्चे प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे। छोटे चुनाव क्षेत्र होने के कारण चुनाव प्रचार का खर्च नगण्य होगा और चुनाव में पैसे की वैध-अवैध भूमिका समाप्त हो जायेगी। हर नागरिक को चुनने और चुने जाने का अधिकार होगा। जनता को विश्वास खो चुके प्रतिनिधि को तत्काल वापस बुलाने का भी अधिकार होगा। जनप्रतिनिधियों की सभा किसी भी स्तर पर बहसबाज़ी के अड्डे नहीं रहेंगी बल्कि वे सरकार यानी कार्यपालिका के काम और संसद यानी विधायिका के काम को एक साथ सम्पन्न करेंगी। नौकरशाही का काम भी चुने हुए व्यक्ति द्वारा होगा। नेताओं का कोई स्वतंत्र पेशा नहीं होगा। वे आम मेहनतकश जनता के बीच के लोग होंगे और उनका वेतन और जीवन स्तर भी उन्हीं जैसा होगा। ज़ाहिरा तौर पर ऐसा सच्ची आज़ादी, ऐसा सच्चा जनवाद इस पूँजीवादी ढाँचे में सम्भव ही नहीं है। इसलिए हमें सबसे पहले जनमुक्ति के एकमात्र रास्ते-यानी इंक़लाब की तैयारी में जुटना होगा! शहीदेआज़म भगतसिंह के शब्दों में, हमें इंक़लाब के सन्देश को कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा और जनता में इंक़लाब की अलख जगानी होगी।

आज से ही जुट जाना होगा!

पुरानी-जर्जर दीवार भी अपने आप नहीं गिरती है उसके लिए भी हथौड़े का प्रहार करना पड़ता है। उसी तरह जर्जर, मानवद्रोही हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था भी अपने आप नहीं गिर जायेगी। इसके लिए जनता को अपना फौलादी हाथ उठाना ही होगा। आज दुनिया में तमाम देशों में जनता यह समझ चुकी है कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था उसे बेरोज़गारी, गरीबी-बदहाली, महँगाई और युद्ध के अलावा कुछ नहीं दे सकती। पिछले दो वर्षों के दौरान मिस्र से लेकर कई यूरोपीय देशों तक में जनता मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ि‍लाफ़ सड़कों पर है। यह एक दीगर बात है कि अभी इन स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों के पास कोई क्रान्तिकारी संगठन और विकल्प नहीं है और ऐसे क्रान्तिकारी संगठन और विकल्प के बिना पूँजीवाद व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता है। हमारे देश में भी आने वाले वर्ष भयंकर सामाजिक उथल-पुथल के होंगे क्योंकि किसी की भी सरकार आये, लूट और शोषण में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। आने वाले समय में पूँजीवाद का अन्तकारी संकट और गहराने वाला है और इस संकट का बोझ भी पूँजीपति वर्ग मज़दूरों और मेहनतकशों के ऊपर डालेगा। इसलिए भविष्य में देश भर में मज़दूर आन्दोलनों, युवा आन्दोलनों, स्त्री आन्दोलनों का ज्वार उठेगा! ऐसे में, इन बिखरे आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोकर समूची पूँजीवादी व्यवस्था का ध्वंस करने वाले इंक़लाब में तब्दील करने के लिए एक इंक़लाबी पार्टी की ज़रूरत होगी जो कि पूँजीवादी व्यवस्था का एक वैज्ञानिक-व्यावहारिक विकल्प पेश कर सके। इसके लिए आज से ही तैयारियाँ करनी होंगी। गली, मोहल्लों, शहरों, कॉलेजों और गाँवों में मज़दूरों के संगठन, स्त्रियों के संगठन, छात्रों के संगठन, जाति-तोड़क संगठन आदि का जाल देश भर में बिछा देना होगा। साथ ही, आज से ही एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा करने का काम भी शुरू करना होगा। ऐसी पार्टी के बगै़र परिवर्तन की यह परियोजना मुकाम तक नहीं पहुँचायी जा सकती है। हम ऐसे सभी ज़िन्दा, संवेदनशील, चिन्तनशील, न्यायप्रिय और साहसी मज़दूरों, छात्रों, स्त्रियों आदि का आह्वान करते हैं कि इस परिवर्तनकामी मुहिम में शामिल हों।

भगतसिंह का ख़्वाब-इलेक्शन नहीं, इंक़लाब!!

ख़त्म करो पूँजी का राज! लड़ो बनाओ लोकस्वराज्य!!

  • बिगुल मज़दूर दस्ता
  • दिल्ली मज़दूर यूनियन
  • नौजवान भारत सभा
  • दिशा छात्र संगठन

सम्पर्कः (011)64623928, 9540436262, 9711736435, 9873358124, 8750045975, 9289498250

http://www.mazdoorbigul.net/archives/5015

साधो, देखो जग बौराना अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।

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साधो, देखो जग बौराना



अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।




पलाश विश्वास

BJP's Poll StrategyBJP puts off release of 'India Vision 2025' document

BJP puts off release of 'India Vision 2025' document

The document backs retrenchment of labour to be made liberal and supports privatisation or even shutdown of loss-making PSUs along with disinvestment.


कवि अशोक कुमार पांडेय का आभार।कबीर दास को याद दिलाने के लिए।यह याद बड़ी प्रासंगिक है।तो साथी हो जाये कुछ संवाद इसी पर।लिखें अपनी वाणी भी।


साधो, देखो जग बौराना ।


साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।

हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।

आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।

बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना ।

आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।

आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।

पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।

माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।

साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।

घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।

गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।

बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।

करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।

हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी ।

वह करै जिबह, वो झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।

या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।

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कबीर



बचपन के बिन पूर्वग्रह के दिनों के कोरे स्लेटी स्मृति पटल पर सबसे उजले आंखर कबीरवाणी है।विचारधाराओं के अनुप्रवेश से काफी पहले हिंदी पट्टी में कबीर से मुलाकात हो जाती है कच्ची पक्की पाठशालाओं में।

लेकिन वह स्वर्णिम स्मृति धूमिल होते देर भी नहीं लगती और बीच बाजार घर फूकने को तैयार कबीर से जिंदगीभर हम आंखें चुराते रहते हैं।


यह जो कबीरा खड़ा बाजार है,मुक्त बाजार के धर्मोन्मादी महाविनाशयुद्ध में अमित शक्तिधर शत्रु से निपटने का अचूक रामवाण है जो हमारे तूण में बिना इस्तेमाल जंग खाने लगा है।


हिंदी से अंग्रेजी माध्यम में दाखिल होने के बावजूद यह हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाय़ी थे और थे नैनीताल के तमाम रंगकर्मी जो फिर फिर कर कबीर के दोहे हांकते थे,जैसे कि आज फिर यह हांका लगाया कविवर अशोक ने,तब फिर हम चाहे अनचाहे कबीर के मुखातिब होते हैं।


लेकिन कबीरवाणी साधने का दम हो,कबीर को आत्मसात करने का जिगर हो तभी न बात बनें।


गौर करें कि धर्म विरुद्ध नहीं हैं कबीर।उस अंध सामंती युग के अपढ़ समाज को कबीर से बेहतर किसी ने संबोधित किया हो,ऐसा कम से कम हमने पढ़ा लिखा नहीं है।


मुद्दों को यथायथ रखकर चीड़फाड़ के साथ सठिक दिशा देने वाले संस्कृतिकर्मी बतौर देखें,तो इस सुधारवादी संत की अपरंपार महिमा से आप्लुत हुए बिना रहा नहीं जा सकता।


धर्मनामे जो पाखंड अंध सामंती समाज की नींव बनाते हैं,उसीपर तीव्रतम प्रहार के अचूक रामवाण है कबीरे के दोहे।


इसपर गौर करें कि जब वह लिख रहे थे ,तब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली थी ही नहीं और इसके लिए सदियों इंतजार करना था।लेकिन सााजिक श्रम संबंध सामंती वर्चस्व के बावजूद अटूट थे।


कबीर का मोर्चा वही श्रमसंबोधों की अखंड जमीन पर तामीर हुआ और जो किला उन्होने गढ़ा वहां शत्रुपक्ष की पहुंच से बाहर था।


आज भी कबीर ठीक वहीं खड़े हैं,प्रखर समाजवास्तव और यथारत वैज्ञानिक दृष्टभंगिमा के साथ बिना किसी विचारधारा वैशाखी के।


उसवक्त तक तो किसी ने नहीं कहा था कि धर्म अफीम है।न उस वक्त चार्वाक की नास्तिकता की निरंतरता की कोई परंपरा ही जीवित थी।


सामंती युग के खिलाफ लड़ रहे थे तुलसीदास और रहीम दास भी भक्तियुग की तमाम मेधाें सामंती तानाबाना को तोड़ने के फिराक में नये सामंती तिलिस्म का रामचरित मानस ही रच रहे थे ईश्वर को हाड़ मांस रक्त का सामंती महाप्रभु बनाते हुए।


लेकिन कबीर थे,जिनका कोई कारोबार न था ईश्वरत्व को लेकर।


वे भारत के पहले वस्तुवादी दार्शनिक थे,जिनका जीवन दर्शन बेहद मौलिक था तो उनकी वाचनदृष्टि भी प्रक्षेपास्त्र सरीखी।


उनके कहे को उनका समकाल खारिज नहीं कर सका और न आज धर्मोन्मादी जो सखि संप्रदाय है,उनमे कूवत है कि मुखोमुखि कबीर से बीच बाजार शास्त्रार्थ की हिम्मत जुटा सकें।


वह कबीर कहीं न कहीं बीच बाजार अपने दोहे दोहरा रहा है,फर्क इतना है कि हम देखकर भी नहीं देखते।फर्क यह है कि हमारे कानों में मोबाइल ठुंसा हुआ है और हम पढ़ते लिखते यकीनन नहीं हैं खूब पढ़ा लिखा होने के बावजूद।


मालवा में अब भी कबीर गायकी लोकप्रियविधा है जैसे छत्तीसगढ़ की पांडवाणी। मजे की बात तो यह है कि जिस धर्मोन्मादी पाखंड के खिलाफ रोज महाभारत लड़ रहे थे संत कबीर,कबीरगायकी के भूगोल में उसी धर्मोन्मादी पाखंड की महासुनामी है।


धर्म इतना बुरा भी नहीं है।बरसों पहले,शायद एक दशक पहले हमारी विख्यात महाश्वेता दी से धर्म पर समयांतर के लिए लंबा इंटरव्यू किया था तब दीदी ने बताया था कि धर्म एकमात्र पूंजी है सर्वस्वहाराों के पास।


ब दीदी ने बताया था किसर्वस्व हारकर भी उसके वजूद की बहाली के लिए मृत संजीवनीसुधा है धर्म।


आम बहुसंख्यभारतीयों की इसी धार्मिक पूंजी का बहुआयामी इस्तेमाल हो रहा है कारपरेट साम्राज्यवादी मुक्तबाजार राष्ट्र में इन दिनों।


धर्म ही प्रजाजनों के विरुद्ध युद्धघोषणा की सर्वोत्तम पद्धति है।


ध्यान दें तो साफ जाहिर है कि जैसे राष्ट्र बदल गया है मुक्त बाजार में।जैसे समाज बदल गया है मुक्त अराजक बाजार में।


जैसे उत्पादन प्रणाली,उत्पादन संबंधों और श्रमसंबंधों का पटाक्षेप का सुमुखर पर्याय है आर्थिक विकास और सशक्तीकरण ,उसीतरह धर्म भी मुक्त बाजार है और जहां धर्म नहीं,अधर्म का ही कारोबार चलता है।


जिस अखंड नैतिकता, आदर्शवादी मूल्यबोध,उच्च विचार सादा जीवन, सहिष्णुता, समता,समभाव और समव्यथा,लोककल्याण और धर्मनिरपेक्षता की लोकतांत्रिक बुनियाद पर भारत में धार्मिक पहचान बनती रही है,वह नस्ली भेदभाव और घनघोर जाति अस्मिता के मध्य बाजार वर्चस्वी वर्णवर्चस्वी सत्ता वर्ग की कठपुतली में तब्दील है।


हमारे मोदियाये मित्रों को संघ परिवार के सिद्धांत से कुछ लेना देना नहीं है और न संघी विरासत से।


धर्म से तो वे उपभोक्तावादी क्रयशक्ति पेशी संयुक्त तो  हैं,बीजमंत्र का मबाइल जाप तो है और कर्मकांडी वैभव प्रदर्शन की कूट अश्लीलता तो है,लेकिन उनका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।


मिथकों में भी झांके तो हिंदुत्व के ब्रह्मा विष्णु माहेश्वर में अद्भुत संयोजन है और संवाद का अटूट सिलसिला है।मोदीपा में जिसकी कोई गुंजाइश ही नहीं है।


पारदर्शिता के बजाय छद्म  और पाखंड का ही नवसुर आलाप है नवराग में।


पाखंड और छद्म का अखंड तिलिस्म है वह हिंदुत्व जो बाजार के लिए रचा गया है,जो नख सिख जायनवादी है और साम्राज्यवादी बहुआयामी एकाधिकारवादी आक्रामकता के अलावा जिसका मौलिरक तत्व अंध युग का वह सर्वात्मक सामंतवाद है,जिसके किलाफ लड़ रहे थे भक्ति युग के संत फकीर बाउल।


दरअसल वह भक्ति जमाना था ही नहीं,वह तो समामंतवाद विरोधी उत्पादक समाज का महाविद्रोह था,जिसके आगे उस वक्त का सामंतवादी राजमहल भी असहाय था।


शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेजों को ध्यान से पढ़ लें और उसी संदर्भ और प्रसंग में संत कबीर का विवेटन करें तो वे राजगुरु,आजाद,सुखदेव के साथ कहीं न कहीं शहीदेआजम के साथ जेल के सींखचों में या फांसी के मंच पर या फर्जी मुठभेड़ परिदृश्य में नजर आ ही जायेंगे।


भारत के मौलिक क्रांति दर्शी थे संत कबीर और उनके दोहे मुकम्मल दस्तावेज हैं उस अपढ़ पूर्वज समाज के जो सामंती उत्पादनप्रणाली में जीवन जीविका निर्वाह कर रहे थे।


वे दरअसल सुधार आंदोलन के भक्ति विद्रोह के चारु मजुमदार थे,जो भूमि सुधार के दस्तावेज के बजाय दोहे कह रहे थे।और भारतीय यथार्थ का विश्लेषण सीधे जमनता के मध्य कर रहे थे.जो अंततः चारु मजुमादार और उनके दुस्साहसी साथी कभी नहीं कर सकें।


मोदियाये मित्रों से धर्म शास्त्रार्थ प्रयास व्यर्थ है क्योंकि धर्म ध्वजा उन्हींके हाथों में हैं।


धर्म की व्याख्या भी  उनकी मूर्ति कला है अद्भुत।


जैसे उन्होंने मार्क्स माओलेनिन की मूर्ति बना दी,जैसे अंबेडकर को मूर्ति सीमाबद्ध कर दिया उसी तरह उनका हिंदुत्व भी मूर्ति बद्ध है।


अब फर्क इतना है कि सबसे भव्य सर्वाधुनिक ब्रांडेड परमाणुसमृद्ध जो मूर्ति अब हिंदुत्व है,वह नमो है।इस तमी नमो के आर पार कुछ भी पारदर्शी नहीं है।न इतिहास न परंपरा न धर्म। न काशी और न अखंड भारतवर्ष।


कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे या मंदिर वहीं बनायेंगे,हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है,जैसे सूक्ति बचन घनघोर अस्मितावाद है जो सिरे से अखंडता का खंडन मंडन विखंडन है।


भारत की बात कर रहे हैं और भारतीय लोकंत्तर की बात कर रहे हैं आप और देश के भूगोल को गुजरात में समेटने या बाकी देश को गुजरात बना देने की देशभक्ति को कबीरवाणी में ही समझा जा सकता है।


अखंड भारत अगर आपका सामाजिक यथार्थ है तो पूर्वोत्तर या कश्मीर,या दंडकारण्य या दक्षिणात्य की अनिवार्यता मुख्यधारा की अहम प्रस्तावना है और इसके साथ ही इस खंडित विखंडित महादेश महामानवसागरतीरे धर्म की बहाली अधर्म के विरुद्ध करते हुए हमें पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, तिब्बत, अफगानिस्तान, भूटान,म्यांमार से लेकर समूची एशिया भूमि के पंचशील में लौटना ही होगा और बौद्धमय भारत के उदार लोकतंत्र का आवाहन करना होगा जहां धर्म धम्म है।


ध्यान से देखें तो कबीरवाणी भी उसी धम्म का महाउद्घोष है। एक भारत चीन सीमांत संघर्ष से पंचशील अप्रासंगिक नहीं हो गया है।इसे समझने वाले पहले व्यक्ति का नाम लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी है।


माफ कीजियेगा मित्रों,मेरे हिसाब से अटल बिहारी का राजनीतिक कद और राजनयिक काठी पंडित जवाहरलाल नेहरु की भ्रांतिपूर्ण विदेशनीति और वर्चस्ववादी राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता और यहां तक कि उनके समाजवादी माडल से ज्यादा उज्ज्वल है।


नाथुराम गोडसे गांधी हत्यारे बतौर कुख्यात है।लेकिन गांधी की हत्या तो दरअसल कांग्रेस के रथी महारथियों ने ही की है गांधी दर्शन को भारतीय संदर्भ में निष्प्रभावी बनाने में।गोडसे ने दरअसल संघ परिवार की नहीं,बाजारु कांग्रेसियों की ही अखंड मदद की है क्योकि गांधी की मौजूदगी में नेहरु को भी अपनी मनकी करने की छूट नहीं थी क्योंकि अंबेडकर को नाथने वाले गांधी से बड़ा जनसम्मोहक सर्वाधिनायक राजनेता भारत में कोई दूसरा हुआ ही नहीं है।


नेहरु का मूल्यांकन हर हाल में गांधी छत्र छाया में होना लाजिमी है।इसके विपरीटअटल अटल बने ही इसीलिए कि वे संघ परिवार के तिलिस्मबाहर प्राणी थे जैसे कि इंदिरागांधी ने सिंडिकेट तिलिस्म से बाहर राजकाज किया,उसी परंपरा का बिना तानाशाह हुए कुशलता पूर्वक निर्वाह किया संघी सिंडिकेट मुक्त अटल ने।


इस विरोधावासी नमोसमय की सबसे बड़ी राहत शायद यही है कि अटल बिहारी वाजपेयी संघ परिवार से सेवामुक्त हैं और नमो सुनामी में उनकी छवि का कोई इस्तेमाल नहीं है।


हम भाव निरपेक्ष होकर अब अटल जी का मूल्यांकन तथ्यों पर आधारित कर सकते हैं।चीन के साथ सन बासठ के नेहरुहठी सीमाविवाद की निरंतरता को खत्म करने का श्रेय अटल जी को है।


इसी कारण भारत आज कहीं ज्यादा सुरक्षित और अखंड है और इसी कराण अपनी जद में विस्पोटक गृहयुद्धी माहौल में भी पूर्वोत्तर या अन्यत्र अमेरिकापरस्त मीडिया के छायायुद्ध परकल्प के विपरीत चीनी हस्तक्षेप प्रयास के कोई प्रमाण हैं ही नहीं।


बांग्लादेश निर्माण प्रकल्पे विश्वजनमत साधकर अमेरिकी नौसैनिक बेडे़ को नपुंसक बनाने के अलावा राजनयिक अटल का भारच चीन संवाद उन्हें ऊभारतीयप्रधानमंत्रियों में सबसे परिपक्व राजनेता रुपेण मर्यादित करता है।


अपने मर्यादा पुरुषोत्तम की ऐसी तैसी करके किसा मर्यादा पुरुषोत्तम की अंधआराधना में लगे हैं हिंदुत्व सेनाएं,समय है अब भी समझें।


हम बार बार लिख रहे हैं कि अमरिका तिलमिलाया हुआ है रूसी पुनरुत्थान प्रयास से और अकध्रूवीय महाशक्ति हैसियत खोने  की आशंका से।


तीसरी दुनिया में नमोमय भारत जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवादी युद्धबाज गृहयुद्धखोर हथियारों और जहरीले रसायनों के कारोबारी अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा ब्रांडेड दांव है,जहां देशभक्त अटल बिहारी वाजपेयी,लाल कृष्णा आडवाणी,सुषमा स्वराज,जसवंत सिंह,मुरली मनोहर जोशी जैसे संघसेवकों की सेवामुक्ति हिंदू राष्ट्र का एजंडा नहीं, बल्कि अमेरिकी जनसंहारी आखेटगाह का राजसूय यज्ञ है।


इसीलिए रंगबिरंगे अस्मिता पथिक पुरोहितों को नमौसेना के सिपाहसालार बनाया गया है संघ सिद्धांतों को तिलांजलि देकर ताकि भारत को बार बार लहूलुहान किया जा सकें ताकि रक्त नदिया बहती रहे,ताकि टुकड़ा टुकड़ा बंटता रहे भारत।


कबीर वाणी दरअसल इस असहिष्णुता और इस विखंडन के खिलाफ मौलिक डायवर्सिटी उद्गोष है।


अमेरिका एजंडा क्या है,इसे भी समझना जरुरी है।


किस एजंडा के लिए नमोममय भारत का निर्माण है,उस विधि प्राविधि की भी चीरफाड़ जरुरी है।


अमेरिकी समर्थन भाजपा के खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तीव्र विरोध के विसर्जन की तिलांजलि से हुई है।यह भाजपा के अंतर्कलह का विशुद्ध मामला तो है ही नहीं और न प्रवीण परिवर्ते नवीन अभिषेक है यह।


खुदरा बाजार दखल के अमेरिकी कार्यक्रम और भारत अमेरिकी परमाणु संधि,जिसका अभी कार्यान्वयन होना है,उसके बीच जो विंध्य पर्वत श्रेणी है,उसे मोदीत्व हिमालय के सामने नतमस्तक करने का अमेरिकी अगस्त्य का महाभिशाप है आडवाणी संप्रदाय विरुद्धे,जो अमेरिका विरोधकल्पे वामसहयात्री रहे हैं बार बार।


सर्जिकल प्रिसिजन के साथ नमो मिशन का पहला पड़ाव इसीलिए संघ प्रतिबद्ध दशकों प्राचीन सेनानियों का एकमुश्त वध अभियान है।


यह दरअसल भाजपाई या संघी अंतर्कलह है ही नहीं,यह सर्वग्रासी अमेरिकी कारपोरेट हितों की अभिव्यक्ति का आक्रामक एकाधिकारवादी चरमोत्कर्ष है।


नमोपा का एजंडा दरअसल भाजपा का विजन 2025 है जो दरअसल प्रथम राजग सरकार का कंलंकित विश्वबैंकीय विनिवेश मंत्रालय है। नमो सुनामी में इतिहास भूगोल और अर्थव्यवस्था संबंधी तथ्यविकृतियों के तिलिस्म और इसे केंद्रित मीडिया डायवर्सन के नमोपा का आर्थिक एजंडा का गुप्तमंत्र गुप्ततंत्र है।


इकानामिक टाइम्स में सिशन दो हजार पच्चीस के बारे में खुलकर लिका गया है,जो मूलतः मिशन 2020 है। और दरअसल इसे 2014 के जनादेश मार्फत ही निपटाना है।


2020 या 2025 तक न अमेरिका वैश्विक इशारों के मुताबिक इंतजार करने वाला है और न वह कारपोरेटि इंडिया जिसे बहुरंगी नमोपा के जनादेश  की अनिवार्यता पर चिंता है जो नीति विकंलांगता के महाभियोग से कांग्रेस को बर्खास्त कर चुका है और जो सरकार बनते ही भारतीय बहुसंख्य जनगण को फिनिश करके विशुद्ध कारपोरेट इंडिया के निर्माण के लिए बेताब है।


यह मीडिया समाचार भी दरअसल आम जनता को गलत टाइमिंग में फंसाने का और 2025 तक कयामत के लिए धीरज रखकर खा पी लेने के लिए तैयार करने का बंदोबस्त है जबकि सत्यानाश जारी है।


दरअसल विजन 2025 भाजपा कांग्रेस का साझा चूल्हा है।कांग्रेस की मनमोहिनी सरकार जो नहीं कर सकी तो उसके लिए बाजार में नये कसाई की तलाश में नमोपा कारपोरेट आविस्कार है।


सरकारी उपक्रमों और महकमों के विनिवेश का अरुण शौरी एजंडे को लागू करना विजन 2025 है।


सारे श्रम कानून खत्म करना विजन 2025 है।


सत्तावर्ग को अरबपतियों को एकमुश्त टैक्स छूट,मध्यवर्ग को थोक दरों पर गाजर और टैक्स का सारा बोझ बहुसंख्य भारतीयों पर लागू करने का टैक्स सुधार यानी जो पे कर सकते हैं,उनको छूट और जिनको खाने के लाले पड़े हैं और जिनकी कोई छत भी नहीं और रोजगार भी नहीं जिनके,उनका सफाया,विजन 2025 है।


विजन 2025 के तहत ही बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र और नागरिकाता संसोधन कार्यक्रम राजग फसल है,जिसे बायोमेटच्रिक नागरिकता में तब्दील कर दिया कारपोरेट कांग्रेस ने,विजन 2025 बेनागरिक निराधार लोगो का सफाया कार्यक्रम है तो आधारित लोगों की निरंतर जासूसी का कार्यक्रम।


लेनदेन और उत्पादन प्रणाली और सेवाओं और बाजार में सरकारी भूमिका का खात्मा विजन 2025 है।


कृषि का पूरी तरह सफाया और देहात का शहरीकरण विजन 2025 है।


इस इंडियन विजन 2025 में न राममंदिर है और न हिंदू राष्ट्र।


अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।


इसे सहजभाव से समझने के लिए कबीरवाणी साधना सहायक होगा।धर्मपाखंड का बुनियादी प्रयोजन सामंती साम्राज्यवादी राष्ट्रचरित्र को अप्रतिद्वंद्वी बनाने का है।


धर्म पाखंड की प्रोयजनीयता अखंड कालाधन अखंड अबाध ग्लोबल पूंजी प्रवाह है।


इसी वजह से सांढ़भाषा में तब्दील है मीडियाभाषा और शेयरबाजर बल्ले बल्ले है।


नमोसुनामी का गुब्बारा आसमान में जो उड़ाया गया है,उसीमे कैद है बाजार का प्राणतोता।जिस दिन यह गुब्बारा फूटेगा,तोता गुब्बाराप्रिय हो अनंत में समाहित हो जायेगा।


दऱअसल उत्पादन और श्रमसंबंधों के रसायन से बने समतामूलक समाज की सभ्यता के विरुद्ध है यह धर्मपाखंड की आदिम संस्कृति जो कमाल की सेक्सी है और चरम उन्मुक्त भी।


यह संस्कृति भुगतान का प्रतिज्ञाबद्ध है लेकिन छिनाल इतनी कि ताश फेंटती रहे अनंतकाल और खोलकर देती नहीं ,ललचाती रहे।धर्मोन्मादी लोग मुक्तबाजार के सबसे लालची उपभोक्ता हैं जो जापानी तेल से लथपथ वियाग्रा खोर प्रजाति के आत्मध्वंसी मर्द हैं और उनकी दासियां संग संग।कबीर वाणी दरअसल लोभ के इस तंत्र के विरुद्ध है।


बाजार विरोधी कबीर वाणी इसीलिए बाजार अर्थव्यवस्था के विरुद्ध राम वाण है।


शुभम श्री की कुछ नई कविताएं. जाति प्रश्न, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को मौजूदा संदर्भों में देखने की कोशिश करते हुए लिखी गई इन कविताओं को शुभम ने अनुराधा गांधी को समर्पित किया है.


कुछ कैटेगरी कविताएं

(1)


आरक्षित/अनारक्षित

यही वर्ण

यही जाति

यही गोत्र

यही कुल

हमारे समय की रीत है

शास्त्र में नहीं

संविधान में लिखा है ।


(2)


डीजे बंद होने तक नाचेंगे

इरिटेट कर देने की हद तक चिढ़ाएंगे

कैंटीन का हिसाब रहेगा 50-50

बातें अनगिनत बहुत सी

होती रहेंगी

दिन रात

साथ साथ

क्लास, कॉरीडोर, कोर्स, एग्जाम

लेक्चर में काटा पीटी खेलेंगे

मैसेज करेंगे

टीचर का कार्टून बनाएंगे

हंसेगे अपनी दूधिया हंसी

लड़ेंगे बिना बात भी

फिर अलग हो जाएंगे एक दिन

हम यूनीवर्सिटी के सीलन भरे स्टोरों में

बक्सों में बंद कैटेगरी हो जाएंगे

एसटी/एचएच/2/2013 जेन/सीओपी/7/2011

पीएच/ईई/1/2012 एससी/आइआर/3/2012


कोटा

(आइ, टू, एम ऑक्स/ब्रिज के लिए)

हम आते हैं

आंखों में अफ्रीका के नीले सागर तट भरे

एशिया की सुनहरी मिट्टी का रंग लिए

सिर पे बांधे अरब के रेगिस्तान की हवाएं

सुरम्य जंगलों से, पूर्वजों के स्थान से

गांवों के दक्षिणी छोरों से

अपमानित उपनामों से

अंधेरी आंखों के साथ

असमर्थ अंगों के साथ

यूनीवर्सिटी के नोटिस बोर्ड पर

...

हम केवल नाम नहीं होते

...

सेमेस्टर के बीच कुछ याद नहीं रहता

क्लास में, लेक्चर में, लाइब्रेरी में

पढ़ते, लिखते, सोचते

भूल जाते हैं बहुत कुछ किसी और धुन में

लेकिन

हर परिचय सत्र में

हर परीक्षा के बाद

हर स्कॉलरशिप से पहले

हर एडमिशन में

यूनीवर्सिटी याद दिलाती है

हमारा कोटा

जैसे बिना कहे याद दिलाती हैं

कई नज़रें

हमारी पहचान

दलित

नाम चुक जाएंगे

हर मोड़ पर

हमसे पहले पहुंचेगी

हमारी पहचान

सदियों का सफर पार करती हुई

हम नए नाम की छांव में

रुकेंगे थोड़ी देर

चले जाएंगे


जनरल


मैं नहीं कर पाऊंगी दोस्त

काम बहुत हो जाता है

घर, ट्यूशन, रसोई

समय नहीं मिलता

तुम तो हॉस्टल में हो

अच्छे से पढ़ना

जनरल में क्लियर करना।



এভাবেই ঘুরে দাঁড়াবেন কমরেড বাংলার ঘুর্ণি পিচে बोधिवृक्ष छांव में येचुरी बुद्धदेव,केजरीवाल बंगाल तक धावा बोलेंगे तो लक्ष्मण की ममता स्तुति

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এভাবেই ঘুরে দাঁড়াবেন কমরেড বাংলার ঘুর্ণি পিচে

बोधिवृक्ष छांव में येचुरी बुद्धदेव,केजरीवाल बंगाल तक धावा बोलेंगे तो लक्ष्मण की ममता स्तुति

এক্সকেলিবার স্টিভেন্স বিশ্বাস


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


 এভাবেই ঘুরে দাঁড়াবেন কমরেড বাংলার ঘুর্ণি পিচে।


লোকসভা নির্বাচনে বামেদের ভোট বাড়বে। দাবি করলেন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য। সংবাদসংস্থা পিটিআইকে দেওয়া সাক্ষাত্‍কারে সিপিআইএম পলিটব্যুরো সদস্যের দাবি, রাজ্যে মহিলাদের নিরাপত্তা নেই। চলছে দুষ্কৃতীরাজ। প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রীর মার্কশিটে বর্তমান মুখ্যমন্ত্রী পেয়েছেন বিগ জিরো। সংবাদসংস্থা পিটিআই-কে দেওয়া সাক্ষাত্কারে বর্তমান সরকারকে কাঠগড়ায় তুললেন প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী।

শিল্প-কৃষি-আইনশৃঙ্খলা-শিক্ষা-স্বাস্থ্য-সহ সব ক্ষেত্রেই বর্তমান সরকার ব্যর্থ বলে দাবি করে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য বলেছেন, রাজ্যের কোনও মহিলাই সুরক্ষিত নন। এটা ভয়ঙ্কর পরিস্থিতি। তাঁদের জমানার কথা টেনে এনে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যর মন্তব্য, বাম আমলেও রাজ্যে মহিলাদের ওপর অপরাধ হত। কিন্তু তখন আইন মেনে ব্যবস্থা নেওয়া হত। দোষীরা শাস্তি পেত। আর এখন সমাজবিরোধীরাই সব দখল করে নিয়েছে।


দুহাজার এগারোর পর রাজ্যে বামেদের অবস্থার কিছুটা উন্নতি হয়েছে বলে দাবি করে আসছিলেন বাম নেতা-কর্মীরা। লোকসভা ভোটের ঠিক আগে এবার সেই দাবিই করলেন সিপিআইএমের পলিটব্যুরো সদস্য বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য।


গত বিধানসভা নির্বাচনে তৃণমূলের সঙ্গে বামেদের ভোটের ব্যবধান ছিল তিরিশ লক্ষ। তাঁর দাবি, সেই ব্যবধান ক্রমশ কমছে ।


নিজেদের ভুলের জন্যই বহু বাম সমর্থক তাঁদের ছেড়ে গিয়েছেন বলেও মন্তব্য করেন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য। ভুল শুধরে তাদের ফিরিয়ে আনার প্রক্রিয়া চলছে বলে জানান তিনি।


তবে পঞ্চায়েত ভোটে তৃণমূলের সাফল্যকে গুরুত্ব দিতে নারাজ প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী। তাঁর দাবি,সন্ত্রাসের জন্যই পঞ্চায়েত ভোটে স্বাভাবিক জনমত উঠে আসেনি ।


এবার লোকসভায় তাঁরা তৃণমূলের সন্ত্রাস মোকাবিলার সিদ্ধান্ত নিয়েছেন বলে জানান সিপিআইএমের পলিটব্যুরো সদস্য ।


সিঙ্গুর সমস্যা নিয়েও সরব হয়েছেন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য। তিনি বলেন, সিঙ্গুর সমস্যা রাজ্যের ভবিষ্যতকে অন্ধকারে ঠেলে দিয়েছে। গোটা ঘটনার জন্য মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়কে দায়ী করেন প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী। তিনি বলেন, অবাঞ্ছিত অতিথি হতে চান না বলেই সরে যাওয়ার সিদ্ধান্ত নিয়েছিলেন রতন টাটা। তবে তার আগেই রতন টাটা গুজরাত সরকারের সঙ্গে আলোচনা শুরু করেছিলেন। একথা তিনি পরে জানতে পেরেছিলেন বলে জানান বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য।


घुरे दांड़ानो यानि सत्ता में वापसी वामदलों का ख्याली पुलाव पकते पकते पक नहीं रहा है।अध नींद अध दिवास्वप्न में बंगाल की स्पिनी पिच पर गोलंदाजी चारों तरफ से इतनी विचित्र है कि माकपाई बल्ला फिसल फिसल जाये।गेंद छूते ही लंबा लंबा ऊंचा कैच।मैदान बाहर।


विचित्र किंतु सत्य है कि जिस बुद्धदेव भट्टाचार्यके नेतृत्व में सिंगुर नंदीग्राम में भूमि आंदोलन के दमन की पृष्ठभूमि में परिवर्तन सुनामी का जन्म हुआ,सम्मुख समर के कुरुक्षेत्र में वाम शिविर के भीष्मपितामह वही हैं।


तो दूसरी ओर, नईदिल्ली में माकपा महासचिव तो कामरेड प्रकाश कारत हैं लेकिन पार्टी का संसदीय राजनीतिक चेहरा हैं कामरेड सीताराम येचुरी।


संजोग से दोनों बोधिवृक्ष की छांव में है।रोज दोनों के दिव्यचक्षु खुल रहे हैं।आत्मालोचना के मसीहा बनकर जनाधार वापसी की कवायद में लग गये हैं दोनों।


येचुरी ने खुल्लमखुल्ला मान लिया कि कारपोरेट राज के खिलाफ जो सवाल अरविंद केजरीवाल उठा रहे हैं,वाम दले वे सवाल उठाने में नाकाम हैं।अब केजरीवाल बंगाल में भी धावा बोलने वाले हैं।तीन प्रत्याशी खड़े हैं आपके।यौगेंद्र घूम गये हैं लेकिन अभी अरविंद आये नहीं है।तो क्या बंगाल में असली वाम की जगह लेगा आप,सवाल यह भी है।


अब इससे भी मजेदार बात तो यह है कि बुद्धदेवबाबू ने ऐेल लोकसभा चुनाव से पहले मान लिया कि अति आत्मविश्वास के चलते सिंगुर और नंदीग्राम में उनसे गलतियां हुई हैं।


इस पर तुर्रा यह कि कामरेड बुद्धदेव और कामरेड येचुरी को अब भी दिल्ली में कांग्रेस की सरकार की संभावना नजर आ रही है,जो देश के बाकी राजनेताओं और नागरिकों के लिए एक असंभव सा समीकरण है।तीसरा मोर्चा बहुत जोर लगाने से पहले नहीं बन पाया तो बनने से पहले ही बिखर गया।अब चुनाव नतीजे की बात रही दूर,चुनाव प्रचार कायदे से शुरु भी नहीं हुआ कि इस कामरेड जोड़ी ने ऐलान भी कर दिया कि 2004 की तरह हालत हुई तो फिर कांग्रेस को समर्थन।


दूसरी ओर,हालत इतनी खराब है माकपा की कि बहिस्कृत पूर्व लोकसभाध्यक्ष को हर दूसरे तीसरे पार्टी कार्यक्रम में सामने रखना होता है जबकि उनकी पार्टी में वापसी की कोई संभावना नहीं है।रज्जाक मोल्ला की नेतृत्व में बदलाव की मांग सिरे से खारिज हो गयी तो उन्होंने दलित मुस्लिम गठबंधन के सामाजिक न्याय मोर्चा का ऐलान कर दिया तो माकपा को फिर उन्हें दल से बहिस्कृत करना ही पड़ा।


अब देखिये, मोल्ला की गैरहाजिरी में ग्राम बांग्ला में वाम उम्मीदवार गहरे समुंदर में डूबते से खुद को पा रहे हैं और मदद के लिए उन्हीं मोल्ला से गुहार लगा रहे हैं।ऐसे उम्मीदवारों में हाईप्रोफाइल सुजन चक्रवर्ती भी है।


सबसे ज्यादा फजीहत तो लक्ष्मण सेठ को लेकर हो गयी।माकपाई नंदीग्राम सिंगुर का ठीकरा सेठ के मत्थे पोड़कर अपने को पाक साफ साबित करने के फिराक में थे। मोल्ला के साथ सेठ के बहिस्कार की तैयारी भी थी।लेकिन पार्टी की दिनोंदिन हालत पतली होते जाने और मेदिनीपुर में वाम का नामलेवा कोई नहीं होने की मजबूरी से यह परियोजना मोल्ला को निकालकर ही खत्म कर दी गयी।


अब पार्टी सदस्यता का नवीकरण सेठ नहीं करा रहे थे तो हड़कंप मच गया।खुद वाममोर्चा चेयरमैन और राज्य सचिव विमान बोस उन्हें मनाने की कोशिस कर ही रहे थे,तो लक्ष्मण सेठ ने बाकायदा ममता स्तुति शुरु कर दी और सिरे से माकपा सदस्यपद नवीकरण करने से इंकार करते हुए वामच्छेद कर दिया।


কেজরিওয়ালের কাছে হার মানল সিপিএম


sitaram

নয়াদিল্লি: সাধারণ মানুষের স্বার্থে এতদিন লড়াই করেছে বামপন্থীরা৷ কিন্ত্ত সেই তারাই হার মানছে এক আম আদমির কাছে৷ অরবিন্দ কেজরিওয়ালের কাছে পরাজয় স্বীকার করে নিল সিপিএম৷ যে বিষয়গুলি নিয়ে দীর্ঘদিন ধরে বারবার বলেও জাতীয় ক্ষেত্রে কোনও ছাপ ফেলতে পারেনি প্রকাশ কারাটের দল, সেই দুর্নীতি থেকে গ্যাসের দাম নিয়ে লড়াই করে এবং সরাসরি কংগ্রেস-বিজেপিকে আক্রমণ করে আলোড়ন তুলে দিয়েছেন কেজরিওয়াল৷ এই অবস্থায় সিপিএম নেতা সীতারাম ইয়েচুরির বক্তব্য, 'কেজরিওয়াল তো আমাদের কাছে এসেছেন, আমাদের কাছ থেকেই তথ্য নিয়েছেন, আমাদের তোলা বিষয়ই ওঠাচ্ছেন৷ এটাও ঠিক, তিনি বিপুল সাড়া ফেলেছেন৷' তা হলে সিপিএম কেন পারল না? সীতারাম এ বার সব দোষ চাপিয়ে দিলেন মিডিয়ার ঘাড়ে৷ তাঁর কথায়, 'আমরা বড় বড় প্রতিবাদ সভা করেছি৷ বহু মানুষ এসেছেন৷ কিন্ত্ত মিডিয়া তা দেখায়নি বা তার কথা বলেনি৷ বরং সব সময় কেজরিওয়ালকেই গুরুত্ব দিয়ে দেখানো হচ্ছে৷'


কিন্ত্ত ঘটনা হল, যত দিন যাচ্ছে, ততই একটা বিষয় স্পষ্ট, কেজরিওয়ালকে কেউ পছন্দ করুন বা অপছন্দ করুন, তাঁকে কেউ উপেক্ষা করতে পারছেন না৷ কারণ তিনি সরাসরি লড়াই করছেন৷ ভোটের ময়দানে চ্যালেঞ্জ জানিয়েছেন শীলা দীক্ষিত থেকে শুরু করে নরেন্দ্র মোদীকেও৷ মুকেশ আম্বানির মতো শিল্পপতির বিরুদ্ধেও স্পষ্ট কথা বলছেন৷ রাস্তায় নেমে প্রতিবাদ জানাচ্ছেন৷ মানুষের একেবারে অন্দরমহলে পৌঁছে যাচ্ছেন৷


এহেন কেজরিওয়ালকে কি বামেরা ভবিষ্যত্‍ জোটে চায়? সীতারামের জবাব, 'আমরা যে কথা বলি, সেটা আরেকজন বলছেন দেখে আমরা খুশি৷ তবে জোট যা হবে তা ভোটের পরে৷ এখন জোট নিয়ে কথা বলা অর্থহীন৷' কেজরিওয়াল অবশ্য এ দিনও মোদীর উন্নয়নের দাবি ধূলিসাত্‍ করতে চেয়েছেন৷ এ নিয়ে বিজেপির সঙ্গে আপ-এর একপ্রস্ত দাবির লড়াইও চলে৷ বিজেপির বক্তব্য, অরবিন্দ কেজরিওয়াল এবং আপ নরেন্দ্র মোদীর বিরুদ্ধে মিথ্যা অভিযোগ করছেন৷ আসল তথ্য হল, কৃষিতে গুজরাটের বৃদ্ধি হল এগারো শতাংশ৷ মোদীর প্রচেষ্টায় রাজ্যের ৬৮ শতাংশ জমি সেচযোগ্য হয়েছে৷ কৃষকদের আয় বেড়েছে৷ আপ এর পাল্টা জবাব দিয়েছে জাতীয় ক্রাইম ব্যুরোর রিপোর্ট তুলে ধরে৷ আপ-এর বক্তব্য, গুজরাটে কৃষির অবস্থাটা কী রকম তা কৃষকদের আত্মহত্যার ঘটনাই প্রমাণ করে দেবে৷ ২০১২ সালে ৫৪৬ জন, ২০১১-তে ৫৭৮ জন এবং ২০১০ সালে ৫২৩ জন কৃষক আত্মহত্যা করেছিলেন৷ গুজরাট সরকার অবশ্য আত্মহত্যার এই হিসাব নিজেদের ওয়েবসাইট থেকে মুছে দিয়েছে৷


গ্যাসের দাম ও রিলায়্যান্সকে সুবিধা দেওয়া নিয়ে বিজেপির মত হল, বিজেপি নেতা যশবন্ত সিন্হা অর্থ মন্ত্রকের সংসদীয় কমিটির প্রধান হিসাবে একটা রিপোর্ট দিয়েছিলেন৷ সেখানে সরকারের এই সিদ্ধান্তের বিরোধিতা করা হয়েছিল৷ এমনকি গুজরাটের প্রাক্তন শক্তিমন্ত্রী পর্যন্ত এর বিরোধিতা করেছিলেন৷ কিন্ত্ত আপ বলেছে, যশবন্ত তো সংসদীয় কমিটির রিপোর্ট দিয়েছেন, এটা তো বিজেপির কোনও কমিটি নয়, সংসদের কমিটি৷ উল্টে গুজরাট সরকার যে সুপারিশ করেছিল, তাতে গ্যাসের দাম ইউনিট প্রতি ১৪ ডলার হয়ে যেত৷ এ ব্যাপারে সুপারিশের চিঠিও প্রকাশ করেছে আপ৷


মমতাকে বিঁধবেন কেজরি


kejri

অমল সরকার


বারাণসী: বুধবারটা বারাণসীতে ভালোই কাটল কেজরিওয়ালের৷ মঙ্গলবারের মতো রাস্তায় পদে পদে নরেন্দ্র মোদীর সমর্থকদের বিক্ষোভের মুখে অন্তত পড়তে হয়নি৷ বারাণসীর পাশাপাশি লাগোয়া এলাকাতেও রোড-শো করলেন আম আদমি পার্টির প্রধান৷ প্রায় ৬০ কিলোমিটারের সফরে একবারই মাত্র তাঁর গাড়ি লক্ষ্য করে কালো পতাকা দেখায় মোদী সমর্থকেরা৷


কিন্ত্ত এই 'নির্ঝঞ্ধাট' রোড-শো খুশি করতে পারল কি কেজরিওয়ালকে? রোড-শো চলাকালীন শহরের মধ্যে কোথাও কোথাও পথচলতি মানুষ তাঁকে দেখে হাত নেড়েছেন বটে৷ কিন্ত্ত তার জন্য কেজরিওয়ালকেও কম কসরত করতে হয়নি৷ শহরের বাইরের ছবিটা ছিল আপ-এর জন্য আরও দুশ্চিন্তার৷ হাতে গোনা কয়েকটি জায়গায় জনতা ফুল-মালা নিয়ে অপেক্ষা করলেও ভিড় ছিল পাতলা৷ তেমনই একটি জায়গা ভৈরোতলাও৷ শহর থেকে প্রায় তিরিশ কিলোমিটার দূরের এই মহল্লায় একটি চায়ের দোকানের সামনে হঠাত্‍ গাড়ি থামালেন আপ প্রধান৷ দোকানিকে হাতজোড় করে বলেন, 'ম্যায় অরবিন্দ কেজরিওয়াল৷ আপকে সেবা করনে আয়ে হ্যাঁয়৷ থোড়া চায়ে পিলাইয়ে৷' দোকানিকে দেখে মনে হল, বুঝতে পারেননি মানুষটি কে? কিঞ্চিত্‍ থতমত খেয়ে চা এগিয়ে দিলেন৷ চিত্রনাট্যের পরবর্তী অংশে যা থাকে, হলও তাই৷ মেহমানের কাছ থেকে দোকানি দাম নিতে চান না৷ অন্যদিকে, মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের মতো কেজরিও জেদ ধরেছেন দাম দেবেনই৷ সতীর্থ একজন দোকানির হাতে ১০ টাকার নোট গুঁজে দিলেন৷ এরই মধ্যে হুড়োহুড়িতে দোকানের টিনের চাল হেলে কেজরিওয়ালের পিঠ ছুঁয়ে ফেলার জোগাড়৷ ফলে পুলিশ ভিভিআইপি প্রার্থীকে দ্রুত গাড়িতে তুলে দিতে তত্‍পর৷ কিন্ত্ত কেজরিওয়াল ফের মমতা৷ ঘর ঠিক না হওয়া পর্যন্ত কিছুতেই যাবেন না৷ সেখানেই এক ফাঁকে কথা বলার সুযোগ এল৷ জানতে চাইলাম, 'বাংলায় প্রচারে যাবেন না? কেজরিওয়াল বললেন, 'অবশ্যই যাব, দিদির বিরুদ্ধে অনেক কিছু বলার আছে?' কবে যাবেন? অরবিন্দ জবাব দেওয়ার আগেই আটকে দিলেন তাঁর দিল্লিনিবাসী স্বেচ্ছাসেবকেরা, সিপিএম, তৃণমূলের কর্মীদের আচরণও হার মানবে যাদের কাছে৷


বাংলায় প্রচারে গিয়ে কী বলবেন কেজরিওয়াল? আপ-এর আর এক শীর্ষ নেতা গোপাল রাইয়ের কথায়, 'কেন, বাংলায় ইস্যুর কোনও অভাব আছে? চিটফান্ড কেলেঙ্কারির থেকে বড় দুর্নীতি দেশে ক'টা আছে?' তাঁর আরও সংযোজন, 'মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় দুর্নীতির বিরুদ্ধে অনেক কথা বলেন, তা আটকাতে ব্যবস্থা নেওয়া তো দূরে থাক, ভ্রষ্টাচার বেড়ে গিয়েছে বাংলায়৷' বাংলার মুখ্যমন্ত্রী যে নাম না করে দিল্লির প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রীর সমালোচনা করে থাকেন তা ভালোই জানেন আপ নেতারা৷ সরল জীবনযাপনে কেজরিওয়াল বাংলার মুখ্যমন্ত্রীকে নকল করছেন, তৃণমূলের এই প্রচারেও অসন্ত্তষ্ট আপ নেতৃত্ব৷ কেজরিওয়াল কলকাতায় গিয়েই এ সবের জবাব দেবেন, জানালেন আপ নেতারা৷


এ দিন দুপুর ১২টা নাগাদ বারাণসীর ভারতমাতা মন্দিরে কপাল ঠেকিয়ে কেজরিওয়াল স্করপিও ছেড়ে উঠে পড়লেন টেম্পোর মাথায়৷ গন্তব্য, রোহনিয়া, রাজাতলাও, বরোরার মতো বারাণসী শহর লাগোয়া গাঁ-গঞ্জ৷ এই সফরের পোশাকি নাম 'ঝাড়ু লাগাও যাত্রা'৷ কোনও সন্দেহ নেই বারাণসীর জন্য প্রতীকটা আদর্শ৷ এত ধুলো আর নোংরা ক'টা শহরে মেলে সন্দেহ আছে৷ দলের প্রতীক চেনানোর পাশাপাশি তিনি যে দুর্নীতি, অপশাসনকে ঝাড়ু মেরে ঝেটিয়ে বিদায় করতে চান, 'ঝাড়ু লাগাও যাত্রা'র মধ্যে দিয়ে সেই বার্তাই দিতে চাইলেন আপ নেতা৷ কিন্ত্ত দিনের শেষে প্রশ্ন উঠলই, ১০ টাকার ঝাড়ু হাতে জনতা, না কি দশ-বিশ লাখের গাড়ি-- আম আদমির রোড-শো'তে কোনটা বেশি ছিল? কেজরিওয়াল কতটা মন কাড়তে পারলেন বোঝা যাবে ভোটের বাক্সে৷ কিন্ত্ত গাড়ির যথার্থ বিজ্ঞাপন যে হল, তাতে সন্দেহ নেই৷ ছিল মিডিয়ার গাড়িও৷ নির্বাচনী আচরণবিধির তোয়াক্কা না করে সেই গাড়ির মিছিল থেকে আপ সমর্থকেরা এত ঝাঁটা বিলোলেন, যে তার যথার্থ ব্যবহার হলে বারাণসীর পথঘাট ধূলিশূন্য হবে অচিরেই৷


মহার্ঘ গাড়ির পাশাপাশি সেগুলির নম্বরও বলে দিচ্ছিল, বারাণসীতে শুধু কেজরিওয়ালই নন, বহিরাগত তাঁর সমর্থকেরাও৷ এমনকি শোভাযাত্রা নিয়ন্ত্রণ থেকে কেজরিওয়ালকে ঘিরে রাখার কাজেও খোদ দিল্লি থেকে ওয়াকিটকি হাতে হাজির ১০ জনের একটি টিম, যাদের সকলেই ছাত্র৷ তাঁদেরই একজন দিল্লির সীতা কলোনির বাসিন্দা পলিটেকনিকের ছাত্র রোহিত পাণ্ডে জানাচ্ছেন, স্বেচ্ছাসেবক হিসাবে এই দায়িত্বই চেপেছে তাঁদের কয়েকজনের উপর৷ সর্বত্রই কেজরিওয়ালের প্রচারে সফরসঙ্গী হচ্ছেন৷ ফলে পুলিশের কাজটা সহজ হয়ে গিয়েছে৷


বারাণসী সফরে স্বামীর সঙ্গী হয়েছেন কেজরিওয়াল পত্নী সুনীতাও৷ সঙ্গে মেয়ে হর্ষিতা এবং ছেলে পুলকিত৷ গাঁয়ের সফর শেষে বারাণসী-এলাহাবাদ হাইওয়েতে (জিটি রোড এখানে এই নামেই পরিচিত) কনভয় থামলে জানতে চাইলাম, দিল্লির সঙ্গে কতটা ফারাক বারাণসীর? হাতজোড় করে ইন্ডিয়ান রেভিনিউ সার্ভিসের পদস্থ অফিসার সুনীতা বললেন, 'দোহাই, আমি কিছু বলব না৷' বুধবার বেনিয়াবাগের সভায় আপ সুপ্রিমো ভাষণে জানিয়েছিলেন, তিনি ডায়াবেটিক৷ স্ত্রী তাঁকে যথেষ্ট সেবাযত্ন করেন৷ জানা গেল, কেজরিওয়ালের শরীর ভালো নেই৷ মঙ্গলবার গঙ্গা স্নান, তার পর দিনভর ছোটাছুটিতে অসুস্থ হয়ে পড়েন আপ প্রধান৷ এ দিন সকালে বারাণসীর একটি স্টেডিয়ামে প্রাতঃভ্রমণকারীদের সঙ্গে মিলিত হওয়ার কথা ছিল কেজরিওয়ালের৷ পুলিশ অনুমতি না দেওয়ায় তা সম্ভব হয়নি৷ সাতসকালে বেরনোর ঝক্কি থেকে বেঁচে যান কেজরিওয়ালও৷ রোড-শো'তেও মাঝেমধ্যেই ছাদ খোলা গাড়ি ছেড়ে স্করপিওয় চাপছিলেন আম আদমি পার্টির সুপ্রিমো৷ এক সময় চড়া রোদে টানা হাত নাড়তে নাড়তে ক্লান্ত কেজরিওয়াল হুডখোলা ভ্যান ছেড়ে ঠান্ডি গাড়িতে ঢুকে পড়লেন৷


কিন্ত্ত গাড়ির মিছিলে এ দিন ফিকে ছিল বারাণসীর আম আদমির উপস্থিতি৷

http://eisamay.indiatimes.com/nation/kejriwal-on-mamata/articleshow/32763434.cms?


২১ জুলাই গুলির নির্দেশ দিয়েছিলেন ৩ আইপিএস


budha

এই সময়: ২১ জুলাই কমিশনে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের দেওয়া বয়ানের সঙ্গে তত্‍কালীন পুলিশ কমিশনার তুষার তালুকদারের বয়ানে অসঙ্গতি দেখা দিল৷ ঠিক একমাস আগে, গত ২৬ ফেব্রুয়ারি প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য কমিশনে সাক্ষ্য দিতে এসে জানিয়েছিলেন, ২১ জুলাই ঘটনার গতিপ্রকৃতির দিকে নজর রাখলেও, পুলিশের সঙ্গে তাঁর কোনও যোগাযোগ ছিল না৷ তত্‍কালীন মুখ্যমন্ত্রী জ্যোতি বসু তাঁকে ঘটনাটি সংবাদমাধ্যমকে জানাতে বলেছিলেন৷ তিনি তাই সাংবাদিক বৈঠক করেন৷


মঙ্গলবার কমিশনে দ্বিতীয়বারের জন্য সাক্ষ্য দিতে এসে কলকাতার প্রাক্তন পুলিশ কমিশনার তুষার তালুরদার সাফ জানালেন, সে দিনের ঘটনার সবিস্তার বিবরণ জানানো হয়েছিল রাজ্যের তত্‍কালীন মুখ্যসচিব, স্বরাষ্ট্রসচিব এবং তথ্য ও সংস্কৃতি মন্ত্রীকে৷ একইসঙ্গে এদিন তুষারবাবু কমিশনে জানান, গুলি চালনার নির্দেশ তিনি দেননি৷ আত্মরক্ষায় গুলি চালানোর নির্দেশ দিয়েছিলেন তিন ডেপুটি কমিশনার দেবেন বিশ্বাস, নকুল সেনগুপ্ত এবং সিদ্ধার্থ রায়৷ প্রসঙ্গত, সেই সময় বুদ্ধবাবু তথ্য ও সংস্কৃতি দপ্তরের মন্ত্রী ছিলেন৷


তত্‍কালীন যুব কংগ্রেস নেতা এবং বর্তমানে রাজ্যের মন্ত্রী মদন মিত্র এর আগে অভিযোগ করেছিলেন, ১৯৯৩-র ২১ জুলাই পুলিশ যোগাযোগ রেখে চলছিল বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের সঙ্গে৷ গুলি চালানোর নির্দেশও তাঁরই৷ কমিশনের বিচারপতি সুশান্ত চট্টোপাধ্যায় প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রীর কাছে ওই প্রসঙ্গ তুললে বিরক্ত বুদ্ধবাবু বলেছিলেন, 'আপনি অনুগ্রহ করে এমন অর্বাচীনের মতো কথাকে গুরুত্ব দেবেন না৷' এদিন তুষারবাবুর সাক্ষ্যে গুলি চালনার দায় তিন জন ডেপুটি কমিশনারের উপর চাপলেও, সে দিন পুলিশের তরফে যে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের সঙ্গেও যোগাযোগ রেখে চলা হচ্ছিল, তা স্পষ্ট হল৷


তবে গুলি চালনার নির্দেশ তিনি কোনও ভাবেই দেননি বলে এদিন ফের দাবি করেন তুষারবাবু৷ তিনি বলেন, 'আত্মরক্ষার্থেই সে দিন মেয়ো রোডে দেবেন বিশ্বাস, ডোরিনা ক্রসিংয়ে নকুল সেনগুপ্ত এবং সিদ্ধার্থ রায় গুলি চালানোর নির্দেশ দিয়েছিলেন৷' তুষারবাবুর বক্তব্য, সেই ঘটনার প্রশাসনিক তদন্ত করানো হয়েছিল ডেপুটি কমিশনার পদমর্যাদার এক অফিসারকে দিয়ে৷



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দলের সঙ্গে সম্পর্ক ছেদ চেয়ে লক্ষ্মণের মমতা স্তুতি

নিজস্ব সংবাদদাতা

কলকাতা ও তমলুক,২৭ মার্চ , ২০১৪, ০৩:১৪:৩৩


নিজের দলের সঙ্গে সম্পর্ক ছেদের কথা ঘোষণা করে এ বার মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের ভূয়সী প্রশংসা করলেন সিপিএমের প্রাক্তন সাংসদ লক্ষ্মণ শেঠ!

দলের সদস্যপদ আর নবীকরণ করতে চান না জানিয়ে আগেই সিপিএম রাজ্য সম্পাদক বিমান বসুকে চিঠি পাঠিয়েছিলেন লক্ষ্মণবাবু। তবু জেলা কমিটির সিদ্ধান্ত মেনে বুধবার দলের পূর্ব মেদিনীপুর জেলা সম্পাদকমণ্ডলীর দুই সদস্য কলকাতায় এসে তাঁর সঙ্গে কথা বলেন। কিন্তু তাঁদের খালি হাতে ফিরিয়ে দিয়ে সংবাদমাধ্যমে মমতার বন্দনায় মুখর হন পূর্ব মেদিনীপুরের এক সময়ের দোর্দণ্ডপ্রতাপ এই সিপিএম নেতা!

নন্দীগ্রাম নিখোঁজ মামলায় অভিযুক্ত লক্ষ্মণবাবুর আস্তানা এখন কালীঘাটে মুখ্যমন্ত্রীর বাড়ির অদূরেই। সংবাদমাধ্যমকে এ দিন তিনি বলেছেন, প্রশাসক হিসাবে মমতা ক্রমশ উন্নতি করছেন। পাহাড় ও জঙ্গলমহলে শান্তি ফিরিয়েছেন। প্রাক্তন সাংসদের কথায়, "মুখ্যমন্ত্রীর বুকের পাটা আছে, মানতে হবে!"তাঁর দাবি, পাহাড়ে গিয়ে মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় যে ভাবে বলেছেন বাংলাকে ভাগ হতে দেবেন না, বাম আমলে সেই রকম দৃঢ়তা দেখানো যায়নি।

এ কথার উত্তরে সিপিএম রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর সদস্য শ্যামল চক্রবর্তী বলেন, "ওর স্মৃতিশক্তি বোধহয় কমে যেতে শুরু করেছে! বাম আমলে পাহাড় নিয়ে যে চুক্তি হয়েছিল, সেখানে গোর্খাল্যান্ডের কোনও উল্লেখ ছিল না। ১৯৮৬ থেকে নেপালিভাষী ৪২ জন কমরেড খুন হয়েছেন শুধু বাংলাকে ভাগ হতে দেব না, পাহাড়ে এই কথা বলার জন্য।"জঙ্গলমহল প্রসঙ্গে তাঁর মন্তব্য, "ওখানে শান্তি তো আসবেই। যারা অশান্তি করতো, তারা এখন তৃণমূল করছে! বা সরকারের আশ্রয়ে আছে!"লক্ষ্মণবাবুর এ দিনের মন্তব্যের জন্য তাঁর

কৈফিয়ত চাওয়া হয়েছে বলেও শ্যামলবাবু জানান।

এর পরে দলে লক্ষ্মণের ভবিষ্যত্‌ কী? সিপিএম সূত্রের ইঙ্গিত, লক্ষ্মণবাবুর পরিণতি আর এক বিদ্রোহী নেতা আব্দুর রেজ্জাক মোল্লার মতোই হতে চলেছে। অনেকেরই ধারণা, লক্ষ্মণ নিজে তাঁর বহিষ্কারের পথ সুগম করতেই এ দিন পরিকল্পিত ভাবে মুখ খুলেছেন। এ দিন প্রশ্নের জবাবে লক্ষ্মণবাবু নিজেই বলেছেন, "৩১ মার্চের পরে এই সিপিএম পার্টির সঙ্গে আমার কোনও সম্পর্ক থাকবে না।"ওই দিনই সিপিএমে সদস্যপদ নবীকরণের শেষ তারিখ। তবে এ দিনের ঘটনার পরে তার আগেই লক্ষ্মণবাবুর ব্যাপারে চূড়ান্ত সিদ্ধান্ত নিতে পারে আলিমুদ্দিন। সিপিএমের কেন্দ্রীয় কমিটির সদস্য গৌতম দেব এ দিন কটাক্ষ করে বলেন, "উনি (লক্ষ্মণ) এখন কোন দলে আছেন, খোঁজ নিতে হবে! কাগজে বিজ্ঞাপন দেননি ঠিকই। তবে শুভেন্দু অধিকারীর বিরুদ্ধে একটা লোক খুঁজছেন মমতা বন্দ্যেপাধ্যায়! লক্ষ্মণ শেঠ কি সেই কাজটা করতে পারবেন?"

লক্ষ্মণবাবুকে হারিয়েই তমলুক থেকে পাঁচ বছর আগে সাংসদ হয়েছিলেন শুভেন্দু। তিনি এ নিয়ে প্রথমে মন্তব্য করতে না-চাইলেও পরে বলেছেন, "লক্ষ্মণবাবুর শংসাপত্রের জন্য আমরা কেউ অপেক্ষা করে নেই! সবাই জানেন তা! তবে তিনি যে সামান্য শুভবুদ্ধি দিয়ে সত্যিটা স্বীকার করেছেন, সেটাই বড় কথা!"এই 'শুভবুদ্ধি'র উত্‌স? সিপিএম এবং তৃণমূল, দু'দলেই গুঞ্জন, নন্দীগ্রাম মামলায় নিজেকে বাঁচাতেই 'দিদি'র হাত ধরতে চাইছেন লক্ষ্মণ!

সিপিএমের অন্যতম 'বাহুবলী'বলে পরিচিত লক্ষ্মণবাবুকে নিয়ে দলে অনেক দিন ধরেই অস্বস্তি থাকা সত্ত্বেও কোনও চূড়ান্ত পদক্ষেপ করা হয়নি। এমনকী লক্ষ্মণ নিজে সদস্যপদ নবীকরণ করতে চান না বলে জানানোর পরেও হাল ছাড়েনি সিপিএম। এ দিন সদস্যপদের কাগজপত্র নিয়ে লক্ষ্মণবাবুর কলকাতার বাড়িতে গিয়েছিলেন পূর্ব মেদিনীপুরের দুই নেতা প্রশান্ত প্রধান ও প্রশান্ত পাত্র। কিন্তু লক্ষ্মণবাবু তাঁদের ফিরিয়ে দেন। তার পর সংবাদমাধ্যমে মুখ খোলেন। সেখানে তাঁর বিরুদ্ধে দলীয় তদন্ত প্রক্রিয়া নিয়ে বিমান বসু যে সব কথা বলেছেন, তাকে 'কৌশল'বলে কটাক্ষ করেন লক্ষ্মণবাবু।

বিঁধতে ছাড়েননি প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যকেও। সম্প্রতি একটি সাক্ষাত্‌কারে বুদ্ধবাবুর বক্তব্যের সূত্র ধরেই এ দিন লক্ষ্মণবাবুর তোপ, "আমাদের দলের নীতি কংগ্রেস এবং বিজেপি-র থেকে সমদূরত্ব। এক দিকে সমদূরত্বের কথা বলব আবার কংগ্রেসকে সমর্থনের কথাও বলব, এটা কী ভাবে হতে পারে!"

এই ভাবে দলের বিরুদ্ধে সরব হওয়ার পর লক্ষ্মণকে বহিষ্কার করা ছাড়া উপায় থাকল না বলেই মনে করা হচ্ছে। দলের রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর এক সদস্যের কথায়, "জেলায় সংগঠনে কিছু প্রভাব পড়লেও লক্ষ্মণবাবুকে বহিষ্কার করলে জনমত বরং আমাদের দিকেই থাকবে। অনেকে প্রশ্ন করছেন, কেন এখনও সিদ্ধান্ত নেওয়া হচ্ছে না? একটা তদন্ত কমিশনের কাজ চলাকালীন নিয়মগত কিছু অসুবিধা আছে বলেই এত দিন কোনও পদক্ষেপ করা হয়নি।"লক্ষ্মণবাবুর স্ত্রী তমালিকা পণ্ডা শেঠ অবশ্য সদস্যপদ নবীকরণ করিয়েছেন বলে দলীয় সূত্রের খবর।

http://www.anandabazar.com/state/%E0%A6%A6%E0%A6%B2-%E0%A6%B0-%E0%A6%B8%E0%A6%99-%E0%A6%97-%E0%A6%B8%E0%A6%AE-%E0%A6%AA%E0%A6%B0-%E0%A6%95-%E0%A6%9B-%E0%A6%A6-%E0%A6%9A-%E0%A7%9F-%E0%A6%B2%E0%A6%95-%E0%A6%B7-%E0%A6%AE%E0%A6%A3-%E0%A6%B0-%E0%A6%AE%E0%A6%AE%E0%A6%A4-%E0%A6%B8-%E0%A6%A4-%E0%A6%A4-1.15213


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পঞ্চায়েত ভোটের পুনরাবৃত্তি হবে না, দাবি বুদ্ধ-গৌতমের

নিজস্ব সংবাদদাতা

কলকাতা,২৭ মার্চ , ২০১৪, ০৩:২১:০৯


রাজ্যে তৃণমূলের থেকে বামেদের ভোটের ব্যবধান ক্রমে কমছে বলে দাবি করলেন প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য। সিপিএমের রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর সদস্য গৌতম দেবেরও দাবি, তৃণমূলের শক্তি যে কমছে, লোকসভা ভোটেই তার প্রমাণ মিলবে।

সংবাদসংস্থা পিটিআই-কে দেওয়া সাক্ষাৎকারের দ্বিতীয় পর্বে বুদ্ধবাবু বলেছেন, "গত বিধানসভা ভোটের ফল পর্যালোচনা করলে দেখা যাবে তৃণমূল এবং বামফ্রন্টের প্রাপ্ত ভোটের ব্যবধান ছিল প্রায় ৩০ লক্ষ। সেই ব্যবধান এখন কমেছে।"পাশাপাশি তিনি বলেন, "পঞ্চায়েত ও পুরভোটে যা হয়েছিল, তা সবটা জনসমর্থনের ভিত্তিতে নয়। ভোটের আগে এবং ভোটের দিন তৃণমূল গোলমাল করেছিল। লোকসভা ভোটে আমরা সন্ত্রাসের মোকাবিলা করব।"বাম সূত্রের বক্তব্য, পঞ্চায়েত ও লোকসভা ভোটের ধরন এক নয়। এ বার চতুর্মুখী লড়াই হচ্ছে। সেটাও যথেষ্ট আশাব্যঞ্জক।

গৌতমবাবুও বুধবার একটি টিভি সাক্ষাৎকারে দাবি করেছেন, তাঁদের ফল ২০০৯-এর মতোই হবে। তাঁর বক্তব্য, "সংখ্যালঘুদের ভোট হারাবেন মমতা। উত্তর ২৪ পরগনায় বাঙালি মুসলিমদের ভোট পেয়েই পঞ্চায়েতে সেখানকার বিস্তীর্ণ অংশে জিতেছি আমরা।"একই সঙ্গে তাঁর কটাক্ষ, "প্রবল শক্তি আর নেই মমতার। তা হলে গুজরাত, ঝাড়খণ্ড, অসমের সভা বাতিল করলেন কেন?"

লোকসভায় ঘুরে দাঁড়াতে ছেড়ে-যাওয়া সমর্থকদের একাংশকে ফিরিয়ে আনাই যে মূল লক্ষ্য, তা-ও বুঝিয়ে দেন বুদ্ধ-গৌতম। বুদ্ধবাবুর কথায়, "আমাদের ভুলের কথা তাঁদের (ছেড়ে যাওয়া সমর্থকদের) খোলাখুলি বলছি। একটা অংশ বুঝতেও পারছেন।"গৌতমবাবু বলেছেন, "যাঁরা ছেড়ে গিয়েছিলেন, তাঁরা সবাই তৃণমূল পার্টি অফিসে গিয়ে বসে পড়েননি! এঁরা এখন ভাবছেন। এঁদের কাছে যাচ্ছি। আরও যাব।"

সিঙ্গুর প্রসঙ্গে তাঁর পুরনো বক্তব্যের পুনরাবৃত্তি করে রতন টাটার দিকেও ইঙ্গিত করেন প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী। তাঁর মন্তব্য, "ভেবেছিলাম উনি (মমতা) কিছু বক্তৃতা করবেন। কিন্তু কারখানাটা হবে। শেষ পর্যন্ত রতন টাটাই সরে যাওয়ার সিদ্ধান্ত নিলেন। বললেন, অবাঞ্ছিত অতিথি হয়ে থাকতে চান না। পরে জেনেছিলাম, তার আগেই তিনি গুজরাতের সঙ্গে কথাবার্তা শুরু করে দিয়েছিলেন।"

বুদ্ধবাবু এ-ও মনে করেন, আব্দুর রেজ্জাক মোল্লার বহিষ্কার ভোটে প্রভাব ফেলবে না। বরং তাঁর বক্তব্য, "এতে দলের স্বাস্থ্য ভাল হবে! আদর্শের উপরে ভিত্তি করে শৃঙ্খলা নিয়েই একটা কমিউনিস্ট পার্টির চলা উচিত!"প্রতিক্রিয়ায় রেজ্জাকের মন্তব্য, "ওঁকে তাড়ালেই পার্টির ভাল হবে!"একটি অনুষ্ঠানে এ দিনই রেজ্জাক বলেছেন, "উনি তো কখনও সংগঠন করে ওঠেননি। কাকার নাম ভাঙিয়ে প্রক্সি লিডার হয়ে এসেছেন!"


लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है: अरुंधति रॉय

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लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है: अरुंधति रॉय

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/27/2014 02:04:00 AM




इन दिनों, जब देश को उस इंसान को अपने प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसकी निगरानी में गुजरात में दो हजार से ज्यादा मुसलमानों का जनसंहार किया गया, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बच्चों को मारा गया और मुसलमानों की संपत्ति को लूट कर उनकी आजीविका को तबाह किया गया, उन्हें विस्थापित और बेदखल कर दिया गया, तो हमें भारत के इस संसदीय लोकतंत्र के बारे में सोचने और विचार करने की जरूरत है, जिसके जरिए फासिस्ट हत्यारे सत्ता में आते रहे हैं. यह भी देखने की जरूरत है कि क्या फासीवाद भारत में किसी एक पार्टी तक सीमित है, या यह सत्ता और शासक वर्ग का बुनियादी चरित्र है. इसी से यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या इस देश में संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था किसी भी रूप में फासीवाद से लड़ने, उसे सत्ता से बेदखल करने और दूर रखने में सक्षम है? हाशिया पर इस सिलसिले में लेखों का एक सिलसिला शुरू किया जा रहा है, जिसमें हम इन सभी सवालों पर गौर करेंगे. इस सिलसिले में सबसे पहले हम 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार और उसके अनेक पहलुओं के बारे में पढ़ते हैं. अरुंधति रॉय का यह लेख पहले पहल 6 मई 2002 को आउटलुक में छपा था. यह उनकी किताब लिसनिंग टू ग्रासहूपर्स में संकलित है. इसका हिंदी अनुवाद जितेंद्र कुमार ने किया है और संपादन नीलाभ का है.


पिछली रात वडोदरा से एक मित्र ने फोन किया. रोते हुए. उसे मुझको यह बताने में पन्द्रह मिनट लगे कि बात क्या है. बात कोई पेचीदा नहीं थी. बस इतनी कि उसकी एक सहेली सईदा को भीड़ ने पकड़ लिया था. और यही कि उसके पेट को फाड़ कर उसमें जलते हुए चीथड़े भर दिये गये थे. और यही कि मरने के बाद उसके माथे पर किसी ने 'ओम'गोद दिया था.[1]

आखिर कौन-सा हिन्दू धर्म-ग्रन्थ ऐसा करने का उपदेश देता है?

प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात की बर्बरता को यह कह कर न्यायोचित ठहराया है कि यह गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के 58 हिन्दू यात्रियों को जिंदा जला देने वाले मुस्लिम 'आतंकवादियों'के खिलाफ भड़के हिन्दुओं के बदले की कार्रवाई का हिस्सा था.[2] जो लोग इस तरह की भयावह मौत मरे उनमें से हरेक किसी का भाई, किसी की माँ, किसी का बच्चा था. वे यकीनन थे. कुरान की किस आयत में लिखा है कि उन्हें जिंदा भून दिया जाना चाहिए था?

दोनों पक्ष एक-दूसरे का कत्ल करके जितना अधिक अपने धार्मिक मतभेदों की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, उतना ही उनके बीच अन्तर करना मुश्किल होता जाता है. वे एक ही वेदी की पूजा करते हैं. दोनों एक ही हत्यारे देवता के उपासक हैं, वह चाहे जो भी हो . जो माहौल इतना जहरीला बना दिया गया हो, उसमें किसी भी व्यक्ति के लिए, खासकर प्रधानमन्त्री के लिए, मनमाने ढंग से यह घोषणा करना कि यह कुचक्र ठीक-ठीक कहाँ से शुरू हुआ, दुर्भावनापूर्ण और गैर-जिम्मेदाराना है.

इस वक्त हम एक जहर-घुला प्याला पी रहे हैं-एक खोटा लोकतंत्र जिसमें धार्मिक फासीवाद मिला है. खालिस जहर!

हम क्या करें? हम कर क्या सकते हैं?

हमारी सत्ताधारी पार्टी रक्तस्राव से पीड़ित है. आतंकवाद के खिलाफ उसकी रटंत, पोटा पास कराना, पाकिस्तान के खिलाफ हुंकारे भरना (जिनमें परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की धमकी छिपी है), सीमा पर इशारे के इंतजार में खड़ी दस लाख की फौज और सबसे खतरनाक—स्कूली पाठ्यक्रम में इतिहास की किताबों को साम्प्रदायिक रंग देने और झूठ से भर देने की कोशिश—इनमें कोई भी जुगत उसे एक के बाद दूसरे चुनाव में मात खाने से नहीं बचा सकी है.[3] यहाँ तक कि उसकी पुरानी चाल—अयोध्या में राम मन्दिर योजना को नये सिरे से शुरू करना—भी किसी काम नहीं आयी है. हर तरफ से हताश पार्टी ने इस गाढ़े समय में गुजरात का रुख किया है.

गुजरात देश का अकेला बड़ा राज्य है, जहाँ भाजपा की सरकार है और जो पिछले कुछ वर्षों से ऐसी पैट्री डिश (बैक्टीरिया सम्बन्धी प्रयोग के लिए काम आने वाली आधी ढँकी तश्तरी) बन गया है, जिसमें हिन्दू फासीवाद व्यापक राजनैतिक बीजाणु पैदा करने का प्रयोग साधने में जुटा हुआ है. मार्च 2002 में प्रारम्भिक नतीजों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया.

गोधरा की हिंसा के कुछ ही घण्टों के भीतर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बहुत सावधानी से नियोजित सफाया-अभियान (पोग्रोम) शुरू किया गया. इसकी अगुवाई हिन्दू राष्ट्रवादी विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल कर रहा था. सरकारी तौर पर मृतकों की संख्या 800 है, लेकिन निष्पक्ष रिपोर्टों के मुताबिक, यह संख्या 2000 से ज्यादा हो सकती है.[4]

घरों से खदेड़ दिये गये डेढ़ लाख से ज्यादा लोग अब शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. औरतों को नंगा करके उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, बच्चों के सामने उनके माँ-बाप को पीट-पीट कर मार डाला गया. 240 दरगाहें और 180 मस्जिदें तबाह कर दी गयीं. अहमदाबाद में आधुनिक उर्दू शायरी के संस्थापक वली दकनी के मकबरे को ध्वस्त करके रातों-रात पाट दिया गया. मशहूर संगीतकार उस्ताद फैयाज अली खां के मकबरे को अपवित्र कर उस पर जलते हुए टायर टाँग दिये गये.[10] दंगाइयों ने मुसलमानों की दुकानों, घरों, होटलों, कपड़ा-मिलों, बसों और निजी कारों को लूटा और उनमें आग लगा दी. लाखों लोग बेरोजगार हो गये हैं.[5]

अहमदाबाद में भीड़ ने कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी का घर घेर लिया. पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त, मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किये गये उनके फोन अनसुने कर दिये गये. उनके घर के गिर्द पुलिस की गश्ती गाड़ियों ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. भीड़ ने एहसान जाफरी को उनके घर से बाहर घसीट कर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये.[6] 

अलबत्ता, यह महज इत्तफाक है कि फरवरी में हुए राजकोट विधानसभा उपचुनाव में एहसान जाफरी प्रचार अभियान के दौरान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तीखी आलोचना करते रहे थे.

पूरे गुजरात में हजारों लोग इन दंगाइयों में शामिल थे. वे पेट्रोल बमों, बन्दूकों, चाकुओं, तलवारों और त्रिशूलों से लैस थे.[7] विहिप और बजरंग दल के आम लम्पटों के अलावा लूट-मार में दलित और आदिवासी भी शामिल थे जो बसों और ट्रकों में भर-भर कर लाये गये थे. लूट-पाट में मध्यम वर्ग के लोग भी शरीक हुए.[8] (एक स्मरणीय मौके पर एक परिवार मित्सुबिशी लांसर पर चढ़ कर पहुँचा था.[9]) मुस्लिम समुदाय के आर्थिक आधार को नष्ट करने की सोची-समझी, योजनाबद्ध कोशिश की गयी. दंगाइयों के सरगनाओं के पास कम्प्यूटर से तैयार की गयीं ब्योरेवार सूचियाँ थीं, जिनमें मुस्लिम घरों, दुकानों, कारोबारों, यहाँ तक कि उनकी साझेदारियों तक को चिह्नित किया हुआ था. अपनी कार्रवाई में ताल-मेल बैठाने के लिए उनके पास मोबाइल फोन थे. उनके पास ट्रकों में लदे हजारों गैस सिलेण्डर थे, जिन्हें हफ्तों पहले जमा कर लिया गया था और जिन्हें उन्होंने मुस्लिम व्यापारिक प्रतिष्ठानों को उड़ाने में इस्तेमाल किया. उन्हें न सिर्फ पुलिस की सुरक्षा हासिल थी, बल्कि उनके साथ पुलिस की मिली-भगत भी थी, जो गोलियों की आड़ में उन्हें आगे बढ़ने मे मदद कर रही थी.[10]

एक ओर गुजरात जल रहा था, दूसरी ओर हमारे प्रधानमंत्री एमटीवी पर अपनी नयी कविताओं का प्रचार कर रहे थे.[11] (खबरों के मुताबिक उनकी कविताओं के एक लाख कैसेट बिक गये हैं.) उन्हें गुजरात का दौरा करने में एक महीना लग गया—जिस बीच वे तफरीह के लिए दो बार पहाड़ भी गये.[12] आखिरकार जब वे वहाँ पहुँचे तो नरेन्द्र मोदी के दिल दहलाने वाले साये में उन्होंने शाह आलम राहत शिविर में भाषण भी दिया.[13] उनके होंट हिले, उन्होंने चिन्ता प्रकट करने का प्रयास भी किया, लेकिन उस जली-झुलसी, खून-सनी और चकनाचूर दुनिया से हो कर गुजरती हवा की उपहास-भरी साँय-साँय के सिवा कुछ नहीं सुनाई दिया. अगले दृश्य में हमने देखा, वे सिंगापुर में गोल्फ की छोटी-सी गाड़ी में घूमते, वाणिज्य-व्यापार सम्बन्धी करार कर रहे थे.[14]

हत्यारे आज भी गुजरात की सड़कों पर मँडरा रहे हैं. हफ्तों तक दंगाई रोजमर्रा की जिंदगी के निर्णायक बने रहे. कौन क्या कह सकता है, कौन किससे मिल सकता है और कब और कहाँ ? उनकी सत्ता तेजी से फैली और उसने धार्मिक मामलों से आगे बढ़ कर जमीन-जायदाद सम्बन्धी विवादों, पारिवारिक झगड़ों और जल संसाधनों की योजना और आबण्टन को भी अपने चंगुलों में ले लिया है. (यही कारण है कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन की मेधा पाटकर पर हमला किया गया).[15] मुसलमानों के कारोबार बन्द करा दिये गये हैं. रेस्तरांओं में मुसलमानों को कुछ नहीं परोसा जाता. स्कूलों में मुसलमान बच्चों को पसन्द नहीं किया जाता. मुस्लिम छात्र इतने डरे हुए हैं कि इम्तहान नहीं दे सकते.[16] मुस्लिम माता-पिता लगातार इस खौफ में जीते हैं कि उनके बच्चे, उनकी नसीहत भूल कर लोगों के बीच 'अम्मी'या 'अब्बा'कह बैठेंगे और कहर-भरी मौत को अचानक न्योता दे डालेंगे.

ऐलान हो चुका है: यह तो महज शुरुआत है.

क्या यही वह हिन्दू राष्ट्र है, जिसके सपने हम सब को दिखाये गये हैं? एक बार मुसलमानों को 'उनकी औकात बता दिये जाने'के बाद क्या देश भर में दूध और कोका-कोला की नदियाँ बहने लगेंगी? क्या राम मन्दिर बन जाने के बाद हर आदमी के बदन पर कमीज होगी और पेट में रोटी?[17] क्या हर आँख का हर आँसू पोछ दिया जायेगा? क्या हम अगले साल इसकी वर्षगाँठ मनाने की उम्मीद करें? या फिर तब तक नफरत का कोई और निशाना ढूँढ लिया जायेगा? अकारादि क्रम में आदिवासी, ईसाई, दलित, पारसी, सिख—इनमें से कौन होगा अगला निशाना? जो लोग जीन्स पहनते हैं या अंग्रेजी बोलते हैं, या जिनके होंट मोटे हैं और बाल घुँघराले हैं? हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा. यह शुरू हो चुका है. क्या तयशुदा रस्में जारी रहेंगी? क्या लोगों के सिर कलम होंगे, उनके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े करके उन पर मूता जायेगा? भ्रूणों को उनकी माँओं की कोख से फाड़ निकाला जायेगा?[18] 

कितना खोट होगा उस आँख में जो इस विविध-रूपी, खूबसूरत और दर्शनीय अराजकतावाली संस्कृति के बिना भारत की कल्पना करेगी? इसके बगैर तो भारत मकबरा बन जायेगा और उससे श्मशान की-सी चिरायँध आने लगेगी.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन थे और किस तरह मारे गये, गुजरात में पिछले हफ्तों के दौरान मारा गया हर आदमी मातम का हकदार है. पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों नाराजगी-भरी चिट्ठियों में पूछा गया है कि 'छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी'गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाने की घटना की निन्दा उतने ही रोष के साथ क्यों नहीं करते, जितना आक्रोश वे बाकी गुजरात में हुई हत्याओं की भर्त्सना करते हुए जाहिर करते हैं. जो बात ये पत्र लेखक नहीं समझ पाते वह यह कि फिलहाल गुजरात में जिस तरह का सरकार-समर्थित सफाया-अभियान जारी है, उसमें और गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाने की घटना के बीच एक बुनियादी फर्क है. हमें अब भी पक्का पता नहीं है कि गोधरा जनसंहार के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार था. गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक सार्वजनिक बयान में दावा किया कि ट्रेन का अग्नि-काण्ड पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी आई.एस.आई. की साजिश थी.[19] महीनों बाद भी पुलिस को इस दावे की पुष्टि में सबूत का एक रेशा तक हासिल नहीं हुआ है. गुजरात सरकार की फोरेन्सिक रिपोर्ट के अनुसार डिब्बे के फर्श पर किसी ने, जो डिब्बे के भीतर ही था, 60 लीटर पेट्रोल उँडेल दिया था. दरवाजे बन्द थे सम्भवतः अन्दर से. सवारियों के जले हुए शव डिब्बे के बीचों-बीच ढेरी की शक्ल में पाये गये. अभी तक किसी को वाकई पता नहीं है कि आग किसने लगायी थी.

हर तरह के राजनैतिक नजरिये और पहलू को जँचने वाले अटकल-अनुमान हैं: यह पाकिस्तानी साजिश थी; यह मुस्लिम आतंकवादियों की करतूत थी, जो गाड़ी के भीतर पहुँचने में कामयाब हो गये थे; यह गुस्साई भीड़ का कारनामा था; यह विहिप/बजरंग दल की सोची-समझी चाल थी ताकि बाद के हौलनाक मंजर के लिए मैदान तैयार किया जा सके. सच किसी को पता नहीं.[20] 

जिन्होंने भी किया—उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता चाहे जो भी हो—उन्होंने भयंकर अपराध किया. लेकिन प्रत्येक स्वतंत्र रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात में मुस्लिम समुदाय का सुनियोजित जनसंहार—जिसे सरकार ने स्वतः स्फूर्त 'प्रतिक्रिया'करार दिया है—अगर कम करके कहा जाये तो राज्य की कृपालु छत्रछाया में अंजाम दिया गया, और अगर बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाये तो इसके पीछे राज्य सरकार की सक्रिय हिस्सेदारी थी.[21] जिस पहलू से देखें, राज्य इस अपराध का दोषी है. और राज्य अपने नागरिकों के नाम पर कार्रवाई करता है. इसलिए, नागरिकों के नाते हमें यह मानना पड़ेगा कि गुजरात के इस सफाया अभियान में हमें भी किसी-न-किसी रूप में साझीदार बनाया जा रहा है. यही बात दोनों जनसंहारों को एक-दूसरे से बिलकुल अलग रंग में रँग देती है.

गुजरात जनसंहार के बाद, भाजपा की नैतिक और सांस्कृतिक बिरादरी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) ने, जिसके सदस्य खुद प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मोदी हैं, अपने बंगलूर सम्मेलन में मुसलमानों से आह्वान किया कि वे बहुसंख्यक समुदाय की 'सदाशयता'हासिल करें.[22] 

गोआ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी का स्वागत नायक के रूप में किया गया. खीसें निपोर कर की गयी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की उनकी बनावटी पेशकश को आम सहमति से ठुकरा दिया गया.[23] हाल के एक सार्वजनिक भाषण में मोदी ने गुजरात की पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं की गांधीजी की दाँडी यात्रा से तुलना की है — उनके मुताबिक दोनों घटनाएँ 'स्वाधीनता के लिए संघर्ष'के महत्वपूर्ण पल हैं.

हालाँकि मौजूदा भारत और युद्धपूर्व जर्मनी के बीच समानताएँ रोंगटे खड़े करने वाली हैं, वे हैरत नहीं पैदा करतीं. (आर.एस.एस. के संस्थापकों ने अपने लेखों में हिटलर और उसके तरीकों को खुल कर सराहा है.[24]) बस, एक अन्तर है कि यहाँ हिन्दुस्तान में हमारे पास कोई हिटलर नहीं है. उसके बजाय, हमारे यहाँ एक शोभायात्रा है, एक सचल वाद्य-वृन्द. अनेक फनों, अनेक भुजाओं वाला संघ परिवार—हिन्दू राजनैतिक और सांस्कृतिक संगठनों का 'सम्मिलित कुनबा'—जिसमें भाजपा, आर.एस.एस., विहिप और बजरंग दल, सब अलग-अलग साज बजाते हैं. इसकी बेजोड़ प्रतिभा बस इस बात में निहित है कि यह जाहिरा तौर पर हर आदमी के लिए, हर समय, हर मर्ज की दवा है.

संघ परिवार के लिए हर मौके के लिए एक उपयुक्त चेहरा है. हर मौसम के लिए मुनासिब लफ्फाजी से लैस, पुराने तुकबन्दी करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी; गृह मन्त्रालय में भड़काऊ कट्टरपन्थी लाल कृष्ण आडवाणी; विदेशी मामलों के लिए एक तहजीबदार शख्सियत जसवन्त सिंह; टी.वी.पर बहस करने के लिए एक चिकने-चुपड़े, अंग्रेजी भाषी वकील अरुण जेटली; मुख्यमंत्री पद के लिए निर्मम, हृदयहीन नरेन्द्र मोदी; और जनसंहार के धन्धे के लिए जरूरी शारीरिक मशक्कत के लिए बजरंग दल और विहिप के जमीनी कार्यकर्ता. और अन्त में,  अनेक सिरों वाली शोभायात्रा के पास एक छिपकली की पूँछ भी है जो संकट के वक्त कट कर गिर पड़ती है और उसके गुजर जाने के बाद फिर उग आती है—रक्षामंत्री का जामा पहने सजावटी समाजवादी जॉर्ज फर्नांडीज—जिन्हें यह शोभायात्रा अपने नुकसान को काबू में करने के मिशन—युद्ध, तूफान, जनसंहार—पर भेजती रहती है. उन्हें भरोसा है कि वे सही बटन दबायेंगे और सही सुर निकालेंगे.

संघ परिवार उतनी जबानों में बात करता है जितनी त्रिशूलों के एक गट्ठर में नोकें होती हैं. वह एक साथ कई परस्पर विरोधी बातें कह सकता है. एक ओर जहाँ उसका एक सरदार (विहिप) अपने लाखों सिपाहियों को 'अन्तिम समाधान'की तैयारी के लिए खुले आम उकसाता है, वहीं उसका प्रतीकात्मक प्रमुख (प्रधानमंत्री) राष्ट्र को आश्वस्त करता है कि सभी नागरिकों के साथ, चाहे उनका कोई भी धर्म हो, समानता का व्यवहार किया जायेगा. यह किताबों और फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है, भारतीय संस्कृति को 'अपमानित करने के लिए'चित्र जला सकता है. साथ ही, वह पूरे देश के ग्रामीण विकास के बजट का 60 फीसदी हिस्सा एनरॉन के हाथ उस कम्पनी के लाभ के तौर पर गिरवी रख सकता है.[25] उसके भीतर राजनैतिक मान्यताओं की इन्द्रधनुषी छटा है, लिहाजा जो अमूमन दो विरोधी राजनैतिक पार्टियों के बीच की खुल्लम-खुल्ला लड़ाई होती, वह अब महज परिवार का अन्दरूनी मामला बन जाता है. तकरार चाहे जितनी कटु हो, हमेशा खुले-आम होती है, हमेशा सौहार्द के साथ सुलझा ली जाती है, और दर्शक हमेशा सन्तुष्ट हो कर जाते हैं कि गुस्सा, एक्शन, बदला, साजिश, पश्चाताप, गीत-गाने, और ढेर सारा खून-खराबा—सब कुछ देखने के बाद उनका पैसा वसूल हो गया. यह 'फुल स्पेक्ट्रम डॉमिनेंस'का हमारा अपना देसी संस्करण है. 

लेकिन जब सिर-धड़ की बाजी लगती है, तो झगड़े-टण्टे करने वाले सरदार खामोश हो जाते हैं और यह भयावह तरीके से जाहिर हो जाता है कि तमाम ऊपरी कोलाहल और चीख-पुकार के नीचे दिल तो एक ही धड़कता है. और केसरिया में रचा-बसा, सिर्फ मछली की आँख पर नजर गड़ाये, क्षमा से रहित एक दिमाग दिन-रात काम करता है.

भारत में पहले भी सफाया अभियान हुए हैं, हर तरह के सफाया अभियान—जिनका निशाना जातियाँ, कबीले और धार्मिक मतावलम्बी बने हैं. 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की निगरानी में तीन हजार से ज्यादा सिखों का कत्लेआम हुआ, जो हर तरह से गुजरात के जनसंहार जितना ही वीभत्स था.[26] उस समय राजीव गांधी ने कहा था, 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है.'32 1985 के चुनावों में कांग्रेस ने सूपड़ा साफ कर दिया. सहानुभूति की लहर का फायदा उठा कर. अट्ठारह साल बीत चुके हैं और लगभग किसी को सजा नहीं मिली है.

राजनैतिक दृष्टि से संवेदनशील किसी भी मुद्दे को लीजिए — परमाणु परीक्षण, बाबरी मस्जिद, तहलका घोटाला, चुनावी फायदे के लिए फिरकापरस्ती के पिटारे खोलना — और आप पायेंगे कि कांग्रेस पार्टी वहाँ पहले से ही मौजूद है. हर मामले में बीज कांग्रेस ने बोये हैं और भाजपा ने झपट्टा मार कर वह घिनौनी फसल काटी है. लिहाजा जब हमारे सामने वोट डालने का सवाल उठता है तो क्या इन दोनों में कोई अन्तर रह जाता है? इसका जवाब कुछ हिचकिचाहट के बावजूद साफ-साफ 'हाँ'में है. सुनिए क्यों: यह सही है कि कांग्रेस पार्टी दशकों से पाप करती रही है, गम्भीर पाप, लेकिन उसने रात में वह किया है जिसे भाजपा दिन-दहाड़े करती है. कांग्रेस ने वह काम पोशीदा तरीके से, गुप-चुप, पाखण्डीपन के साथ और शर्म से आँखें चुराते हुए किया, जिसे भाजपा गर्व के साथ करती है. और यह अन्तर बेहद महत्वपूर्ण है.

साम्प्रदायिक घृणा को हवा देना संघ परिवार के फरमान का एक हिस्सा है. उसकी योजना वर्षों से बनती रही है. वह सभ्य समाज की धमनियों में धीरे-धीरे घुलने वाले जहर की सूई सीधे लगा रहा है. देश भर में आर.एस.एस. की सैकड़ों शाखाएँ और शिशु मन्दिर लाखों बच्चों और युवा लोगों को दीक्षित-प्रशिक्षित करके धार्मिक घृणा और झूठे इतिहास से उनके दिमागों को कुन्द करने में जुटे हुए हैं. इसमें अंग्रेजी राज से पहले के काल में मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दू महिलाओं की इज्जत लूटने और हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त करने के अतिरेजित विवरण शामिल हैं. वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में फैले उन मदरसों से किसी तरह भिन्न और कम खतरनाक नहीं हैं जिन्होंने तालिबान को जन्म दिया. गुजरात जैसे राज्यों में पुलिस प्रशासन और हर स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ताओं को योजनाबद्ध तरीके से चपेट में ले लिया गया है.[27] 

इस सारे उपक्रम में प्रचण्ड लोकप्रियता है जिसे कम करके आँकना या जिसके बारे में कोई मुगालता रखना मूर्खता होगी. इसका भारी धार्मिक, राजनैतिक, वैचारिक और प्रशासनिक आधार है. इस प्रकार की शक्ति, इस प्रकार की पहुँच, केवल राज्यतंत्र के समर्थन से ही हासिल की जा सकती है.

कुछ मदरसे, धार्मिक घृणा फैलाने की मुस्लिम नर्सरियाँ, राज्य के समर्थन के अभाव में जो हासिल नहीं कर पाते, उसे अपनी पगलाई उग्रता और विदेशी चन्दों से पूरा करने की कोशिश करते हैं . वे हिन्दू साम्प्रदायिकतावादियो को अपने सामूहिक उन्माद और नफरत का नंगा नाच करने के लिए माकूल आधार मुहैया करा देते हैं. (दरअसल, वे इस उद्देश्य को इस खूबी से पूरा करते हैं मानो वे एक ही टीम का हिस्सा हों.)

इस सतत दबाव से इस बात की बहुत सम्भावना है कि अधिसंख्य मुस्लिम समुदाय अपने निजी हवाबन्द टोलों में दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत में, लगातार डरा हुआ और किसी किस्म के नागरिक अधिकार और इन्साफ की उम्मीद के बिना जीने को मजबूर हो जायेगा. इनकी रोजमर्रा की जिंदगी कैसी होगी? हर छोटी-मोटी झड़प, चाहे वह सिनेमा के कतार में हुई तू-तू, मैं-मैं हो या चौराहे की लाइट पर कोई विवाद, घातक रूप ले सकता है. लिहाजा, वे खामोश रहना, अपने हालात को स्वीकार करके, जिस समाज में वे रहते हैं, उसके हाशिये में ही रेंगते हुए जीना सीख जायेंगे. उनका खौफ दूसरे अल्पसंख्यकों तक सम्प्रेषित हो जायेगा, उनमें से कई, खासकर नवयुवक शायद दहशतगर्दी का रास्ता पकड़ेंगे. वे कई भयावह काण्ड कर डालेंगे. सभ्य समाज को उनकी निन्दा करने को कहा जायेगा. तब राष्ट्रपति बुश का आप्त वाक्य—'आप या तो हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ'हमारे सामने आ खड़ा होगा. 

ये शब्द बर्फ की तरह समय में जम कर ठहर गये हैं. भविष्य में वर्षों तक हत्यारे और जनसंहारी अपने हत्याकाण्डों का जायज ठहराने के लिए, अपने घिनौने होंटों को इन शब्दों के साथ-साथ हिलायेंगे (फिल्मकार इसे 'लिप-सिंक'कहते हैं.)

शिवसेना के बाल ठाकरे के पास, जो इधर महसूस कर रहे हैं कि मोदी ने उन्हें कुछ पीछे छोड़ दिया है, इसका स्थायी समाधान है. उन्होंने गृहयुद्ध का आह्वान किया है. क्या यह बिलकुल बेजोड़ नहीं है? तब पाकिस्तान को हम पर बमबारी नहीं करनी पड़ेगी, हम खुद ही अपने ऊपर बमबारी करेंगे. आइए, पूरे हिन्दुस्तान को ही कश्मीर या बोस्निया या फिलिस्तीन या रवाण्डा में तब्दील कर लें. हम सब सदा यातना झेलते रहें. एक-दूसरे की हत्या करने के लिए महँगी बन्दूकें ओर विस्फोटक खरीदें. असलहों के अंग्रेज सौदागर और हथियारों के अमरीकी निर्माता हमारे खून पर फलें-फूलें.[28] हम कार्लाइल समूह से—दोनों बुश और बिन लादेन परिवार जिसके शेयर होल्डर हैं—थोक छूट की माँग कर सकते हैं.[29] 

अगर सब कुछ ठीक-ठाक चले तो हो सकता है हम अफगानिस्तान जैसे बन जायें. (और यह तो देखिए कि उन्होंने कितना नाम कमाया है.) जब हमारे सभी खेतों में सुरंगें बिछ जायेंगी, हमारे मकान ढह जायेंगे, हमारी सारी व्यवस्था मलबे में तब्दील हो जायेगी, हमारे बच्चे शरीर से अपंग और दिमागी खँडहर हो जायेंगे, जब हम खुद को अपनी बनायी घृणा से लगभग बर्बाद कर चुके होंगे, तब हम चाहें तो अमेरिकियों से मदद की अपील कर सकते हैं. चाहिए किसी को हवाई जहाज से गिराया हुआ एयर लाइन्स वाला खाना?[30]

हम आत्म-विनाश के कितना करीब पहुँच गये हैं. एक कदम और, फिर हमें नष्ट होने से कोई रोक नहीं सकता. इसके बावजूद सरकार अड़ी हुई है. गोआ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक भारत के प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इतिहास रच दिया. वे भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गये हैं जिसने मर्यादाओं को तोड़ कर सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों के खिलाफ ऐसी धर्मान्धता का प्रदर्शन किया जिससे जॉर्ज बुश और डॉनल्ड रम्सफेल्ड भी शर्मायें. उन्होंने कहा, 'मुसलमान जहाँ कहीं भी हों, वे शान्ति से नहीं रहना चाहते.'[31]

गुजरात के जनसंहार के बाद, अपने 'प्रयोग'की कामयाबी से आश्वस्त भाजपा तत्काल चुनाव कराना चाहती है. वडोदरा से मेरी मित्र ने कहा, 'निहायत ही शरीफ लोग, निहायत ही शाइस्तगी के साथ कहते हैं, ''मोदी हमारे हीरो हैं''.'

हममें से कुछ लोग इस मुगालते में थे कि पिछले कुछ हफ्तों की भयावह घटनाओं से सेकुलर पार्टियाँ, चाहे जितनी स्वार्थी हों, गुस्से में एकजुट हो जायेंगी. अकेले भाजपा को भारत के लोगों ने बहुमत नहीं दिया है. उसके पास हिन्दुत्व को लागू करने का जनादेश नहीं है. हमें उम्मीद थी कि केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबन्धन के 27 साझीदार अपना समर्थन वापस ले लेंगे. मूर्ख थे हम कि हमने सोचा वे देखेंगे उनकी नैतिक दृढ़ता, धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्तों के प्रति उनकी घोषित प्रतिबद्धता की इससे बड़ी परीक्षा नहीं हो सकती.

यह युग का लक्षण है कि भाजपा के एक भी सहयोगी दल ने समर्थन वापस नहीं लिया. काँइयेपन से भरी हर आँख में आप दूर देखने वाली नजर को दिमागी गणित बैठाते देखेंगे कि समर्थन वापस लेने पर कौन-कौन-सा चुनाव-क्षेत्र और कौन-कौन-सा मन्त्रालय बचा रहेगा और कौन-कौन-सा वे गँवा बैठेंगे. भारत के वाणिज्य-व्यापार जगत के दीपक पारिख अकेले मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं जिन्होंने घटनाओं की निन्दा की है.[32] जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री और भारत के अब इकलौते प्रमुख मुस्लिम राजनीतिज्ञ फारुख अब्दुल्ला मोदी का समर्थन करके सरकार की कृपा हासिल करने में लगे हैं, क्योंकि उन्हें धुँधली-सी आशा है कि वे जल्दी ही भारत के उपराष्ट्रपति बन जायेंगे.[33] और सबसे खराब यह है कि दलितों की महान उम्मीद, बसपा नेता मायावती ने उत्तर प्रदेश में भाजपा से गँठजोड़ कर लिया है.[34] कांग्रेस और वामपन्थी दलों ने मोदी के इस्तीफे की माँग करते हुए जनान्दोलन छेड़ा है.[35]

इस्तीफा? क्या हम अपना विवेक खो चुके हैं? अपराधियों से इस्तीफा माँगने का कोई मतलब नहीं होता. उन पर आरोप लगा कर मुकदमा चलाया जाता है और सजा दी जाती है. जिस तरह से गोधरा में ट्रेन जलाने वालों के साथ होना चाहिए. जिस तरह से भीड़ और पुलिस और प्रशासन के उन लोगों के साथ होना चाहिए जिन्होंने बाकी गुजरात में सुनियोजित जनसंहार किया. जिस तरह से उन्माद को चरम पर पहुँचाने वालों के साथ होना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय के पास मोदी और बजरंग दल तथा विहिप के विरुद्ध 'सुओ मोटू'—अपने संज्ञान पर—कार्रवाई का विकल्प है.[36] सैकड़ों गवाहियाँ हैं. ढेर सारे सबूत हैं.

लेकिन भारत में अगर आप ऐसे हत्यारे या जनसंहारी हैं, जो संयोग से राजनैतिक है तो आपके लिए आशावादी होने की तमाम वजहें हैं. कोई अपेक्षा तक नहीं करता कि राजनैतिकों पर मुकदमा चलाया जायेगा. मोदी और उनके सहयोगियों के खिलाफ आरोप लगा कर उन्हें बन्द करने की माँग से दूसरे राजनैतिकों की अपनी पोलें, उनके अपने घिनौने अतीत की सच्चाइयाँ खुलने लगेंगी. लिहाजा इसके बजाय वे संसद की कार्रवाई ठप कर देते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं. आखिरकार जो सत्ता में होते हैं वे जाँच के आयोग गठित करते हैं, उनके नतीजों की अनदेखी कर देते हैं और आपस में यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि तंत्र का बुलडोजर चलता रहे.

अभी से इस मुद्दे ने रूप बदलना शुरू कर दिया है. क्या चुनाव की इजाजत दी जाय या नहीं? क्या यह फैसला चुनाव आयोग को करना चाहिए? या सुप्रीम कोर्ट को? दोनों हालात में—चुनाव कराये जायें या टाल दिये जायें—मोदी को छुट्टा निकल जाने दे कर, उन्हें अपना राजनैतिक कैरियर जारी रखने दे कर, लोकतंत्र के आधारभूत, निदेशक सिद्धान्तों को न केवल कमजोर किया जा रहा है, बल्कि उनके साथ जान-बूझ कर भीतरघात किया जा रहा है. इस तरह का लोकतंत्र समाधान नहीं, समस्या है. हमारे समाज की सबसे बड़ी ताकत को उसी के सबसे घातक दुश्मन के रूप में तैयार किया जा रहा है. 'लोकतंत्र को और गहरा'करने की हमारी तमाम बातों का क्या मतलब है जब उसे यों तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है कि वह पहचान ही में न आये.

अगर भाजपा चुनाव जीत गयी तो क्या होगा? आखिरकार, जॉर्ज बुश को आतंक के खिलाफ अपने युद्ध में 60 फीसदी जनसमर्थन हासिल था, और एरिएल शेरॉन को फिलिस्तान पर अपने पाशविक हमले के लिए इससे भी अधिक जनादेश हासिल है.[37] क्या इसी से सब कुछ जायज हो जाता है? कानून-व्यवस्था, संविधान, प्रेस—सारे ताम-झाम—को तिलांजलि क्यों नहीं दे दी जाती, और नैतिकता को भी कूड़ेदान में फेंक कर हर चीज को मतदान के हवाले क्यों नहीं कर दिया जाता? जनसंहार जनमत संग्रह का विषय बन सकता है और कत्ले-आम के लिए मार्केटिंग अभियान छेड़े जा सकते हैं.

भारत में फासीवाद के मजबूत कदम साफ-साफ दिखने लगे हैं. इसकी तारीख भी नोट कर लें: 2002 का वसन्त. भले ही हम अमरीकी राष्ट्रपति और 'आतंक के खिलाफ गठबन्धन'को इसकी भयावह शुरुआत के लिए दुनिया भर में माकूल माहौल बनाने के लिए धन्यवाद दे सकते हैं, पर वर्षों से हमारे सार्वजनिक और निजी जीवन में पनप रहे फासीवाद का श्रेय उन्हें नहीं दिया जा सकता.

***

इसका झोंका 1998 में पोखरण में परमाणु विस्फोट के समय आया था.[38] तब से खूंखार देश-भक्ति खुले-आम राजनैतिक चलन में आ गयी. 'शान्ति के हथियारों'ने भारत और पाकिस्तान को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया है—धमकी और जवाबी धमकी, तंज और जवाबी तंज.[39] और अब, एक युद्ध और सैकड़ों लोगों के मौत के बाद, दोनों देशों के दस लाख से अधिक फौजी एक-दूसरे के आमने-सामने सीमा पर तैनात हैं, आँख से आँख मिलाये, एक निरर्थक परमाणु साँप-छछूँदर की हालत में.[40]

पाकिस्तान के खिलाफ बढ़ती आक्रामकता सीमा से टप्पा खा कर कर हमारी राजनीति में इस तरह से घुस गयी है जैसे किसी तेज नश्तर ने हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता के अवशेष को काट कर अलग कर दिया हो. देखते-ही-देखते जहर उगलने वाले नारकीय भगवद्भक्तों की भीड़ ने लोगों की कल्पना पर कब्जा कर लिया है. और हमने ऐसा होने दिया है. पाकिस्तान के खिलाफ जंग के हर नारे के साथ हम खुद पर, अपनी जीवन-शैली पर, अपनी अद्भुत विविधता-सम्पन्न और प्राचीन सभ्यता, उन सारी चीजों पर चोट करते हैं जो हिन्दुस्तान को पाकिस्तान से भिन्न बनाती है. 

भारतीय राष्ट्रवाद का मतलब उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्रा में हिन्दू राष्ट्रवाद बनता चला गया है, जो खुद को अपने सम्मान और अपनी कदर से परिभाषित नहीं करता, बल्कि 'दूसरे'के प्रति घृणा से. और फिलहाल 'दूसरा'मुसलमान हैं, महज पाकिस्तान नहीं. राष्ट्रवाद किस तरह फासीवाद के साथ घी-शक्कर हो जाता है इसे देख कर मन विचलित होता है. हमें फासीवादियों को यह छूट नहीं देनी चाहिए कि वे यह परिभाषित करें कि राष्ट्र क्या है और किसका है. यह याद रखना जरूरी है कि राष्ट्रवाद, अपने सभी अवतारों—साम्यवाद, पूँजीवाद या फिर फासीवाद—में बीसवीं सदी के लगभग सभी जनसंहारों की जड़ रहा है. राष्ट्रवाद के मुद्दे पर फूँक-फूँक कर कदम रखने में ही समझदारी है.

क्या हमारे अन्दर सिर्फ हाल में बना राष्ट्र होने के बजाय एक पुरातन सभ्यता का हिस्सा होने का माद्दा नहीं है? सिर्फ इलाके की पहरेदारी करने के बजाय देश से मोहब्बत करने का? सभ्यता का अर्थ क्या होता है, यह संघ परिवार को रत्ती भर नहीं मालूम. हम कौन थे, इसकी स्मृति, हम कौन हैं, इसकी समझ और हम क्या बनना चाहते हैं, इसक सपनों को वे सीमित करके, घटा कर, परिभाषित करके खण्डित और अपवित्र करना चाहते हैं. उन्हें कैसा भारत चाहिए? हाथ-पैर-सिर और आत्माविहीन एक धड़, जिसके घायल हृदय में झण्डा भोंक कर कसाई के चापड़ के नीचे रिसते हुए खून के साथ छोड़ दिया गया हो. क्या हम ऐसा होने दे सकते हैं? क्या हमने ऐसा होने दिया है?

पिछले कुछ वर्ष से आहिस्ता-आहिस्ता पाँव पसारते फासीवाद को हमारी कई 'लोकतान्त्रिक'संस्थाओं ने तैयार किया है. सबने—संसद, अदालत, प्रेस, पुलिस, प्रशासन, जनता ने—इसके साथ प्यार जताया है. यहाँ तक कि 'सेकुलरिस्ट'भी इसके लिए सही माहौल बनाने में मदद देने के दोषी हैं. जब भी आप किसी संस्था, (सुप्रीम कोर्ट समेत) किसी भी संस्था के सिलसिले में ऐसे अधिकारों की वकालत करते हैं जिनके बल पर वह निरंकुश ताकत से काम ले सकती है, जिसके लिए उसका कोई जवाबदेही नहीं है और जिसे कभी चुनौती नहीं दी जानी चाहिए, तब आप फासीवाद की तरफ कदम बढ़ा रहे होते हैं. 

राष्ट्रीय प्रेस ने पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं की भर्त्सना करके आश्चर्यजनक साहस दिखाया है. भाजपा के बहुत-से हमराही, जो उसके साथ सफर करके कगार तक पहुँचे हैं, अब नीचे गर्त में झाँक कर उस नरक को देख रहे हैं जो कभी गुजरात था, और सच्ची हताशा से मुख मोड़ रहे हैं. लेकिन कितनी कड़ी और कितनी लम्बी लड़ाई वे लड़ेंगे? यह किसी नये क्रिकेट के दौर के लिए किये गये प्रचार-अभियान की तरह नहीं होगा. और रिपोर्ट करने के लिए हमेशा कोई चौंकाने वाला कत्ले-आम नहीं होगा. फासीवाद में राज्य की सत्ता के सभी अंगों में धीरे-धीरे घुसपैठ करना भी शामिल है. इसका ताल्लुक धीरे-धीरे क्षरित होती नागरिक स्वतंत्रताओं से भी है; रोजमर्रा की मामूली, नाइन्साफियों से, जो दर्शनीय नहीं होतीं. इससे लड़ने का मतलब है लोगों के दिलों और दिमागों को फिर से जीतना. इससे लड़ने का मतलब यह नहीं है कि आर.एस.एस. की शाखाओं और खुल्लम-खुल्ला फिरकापरस्त मदरसों पर पबन्दी लगाने की माँग की जाए. इसका मतलब है उस दिन तक पहुँचने के लिए काम करना जब उन्हें खराब विचार मान कर स्वेच्छा से त्याग दिया जाये. इसका मतलब सार्वजनिक संस्थाओं पर कड़ी नजर रखना और उनसे जवाबदेही की माँग करना है. इसका मतलब है जमीन से कान लगा कर सचमुच शक्तिहीन लोगों की दबी-दबी आवाजों को सुनना. इसका मतलब है देश भर के सैकड़ों प्रतिरोध-आन्दोलनों से उठने वाली उन अनगिनत आवाजों को मंच प्रदान करना जो असली चीजों के बारे में बात कर रही हैं—बँधुआ मजदूरी, वैवाहिक बलात्कार, यौन रुचियाँ, महिलाओं का मेहनताना, यूरेनियम डंपिंग, हानिकारक खनन, बुनकरों के दुखड़ों, किसानों की आत्म-हत्याएँ. इसका मतलब है विस्थापन और बेदखली और रोज-रोज की घोर निर्धनताजनित निष्करुण हिंसा से लड़ना. 

इससे लड़ने का यह भी मतलब है कि अपने अखबार के स्तम्भों और टीवी के प्राइम-टाइम कार्यक्रमों पर उनके झूठे जज्बों और नाटकीय स्वाँगों को काबिज न होने देना जिन्हें वे बाकी हर चीज से ध्यान बँटाने के लिए तैयार करते हैं.

देश में ज्यादातर लोग गुजरात की घटनाओं से भले ही सहम गये हों, पर लाखों मतान्ध लोग, पट्टी पढ़ाये जाने के बाद, उसी आतंक के हृदय में और गहरे उतरने की तैयारी कर रहे हैं. अपने इर्द-गिर्द देखिए और आप पायेंगे कि छोटे-छोटे पार्कों, खाली पड़ी जगहों, गाँवों के मैदानों में आर.एस.एस. अपना केसरिया झण्डा फहरा कर मार्च कर रहा है. अचानक वे चारों ओर छा गये हैं—खाकी निक्करें पहने बड़े-बालिग लोग मार्च कर रहे हैं, लगातार, लगातार मार्च कर रहे हैं. किधर जा रहे हैं वे? किस चीज के लिए? 

इतिहास के प्रति अपनी उपेक्षा के कारण वे इस ज्ञान से वंचित रह जाते हैं कि फासीवाद कुछ ही समय तक फलता-फूलता है और फिर अपने ही हाथें अपने को नष्ट कर लेता है. लेकिन दुर्भाग्यवश, किसी परमाणु हमले के परिणामस्वरूप उठने वाले विकिरण की तरह उसकी भी आधी जिंदगी होती है जो आने वाली नस्लों को बर्बाद कर देगी. यह उम्मीद रखना बेकार है कि इस दर्जा गुस्से और नफरत को सार्वजनिक निन्दा-भर्त्सना से रोका या दबाया जा सकेगा. भाई-चारे और प्यार के भजन अच्छे होते हैं, पर इतना पर्याप्त नहीं है.

ऐतिहासिक तौर पर फासीवादी आन्दोलन राष्ट्रीय मोहभंग की भावना से तेज हुए हैं. भारत में फासीवाद तब आया जब आजादी के संघर्ष को एड़ लगाने वाले सपने रेजगारी की तरह बिखर गये.

खुद आजादी, जैसा कि गाँधी ने कहा था, 'लकड़ी की रोटी'की तरह हमें मिली—एक काल्पनिक स्वतंत्रता—बँटवारे के दौरान मारे गये लाखों लोगों के खून से सनी.[41] 

आधी सदी से ज्यादा समय तक राजनैतिकों ने, इन्दिरा गाँधी की अगुआई में उस नफरत और परस्पर अविश्वास को और भड़काया है, उसके साथ खिलवाड़ किया है, और उस घाव को कभी भरने नहीं दिया. सभी राजनैतिक पाटियों ने अपने-अपने चुनावी फायदों के लिए हमारे धर्मनिरपेक्ष संसदीय लोकतंत्र की मज्जा का उत्खनन किया है. मिट्टी के ढेर को खोदने वाले दीमकों की तरह उन्होंने 'धर्मनिरपेक्षता'के अर्थ का लगातार अवमूल्यन करते हुए, अन्दर-ही-अन्दर रास्ते और सुरंगें बना ली हैं और नौबत यहाँ तक आ गयी कि वह एक खोखला ढाँचा बन कर रह गया है जो किसी भी समय धँस सकता है. उनके उत्खनन ने उस ढाँचे की बुनियाद को कमजोर कर दिया है जो संविधान, संसद और अदालतों को एक-दूसरे से जोड़ता है—पाबन्दियों और सन्तुलन का वह हिसाब जो किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होता है. ऐसी परिस्थिति में राजनैतिकों पर दोष मढ़ना और उनसे उस नैतिकता की माँग करना बेकार है जिसे वे देने के काबिल नहीं हैं. वह जनता कुछ दयनीय-सी जान पड़ती है जो निरन्तर अपने नेताओं का रोना रोती रहती है. अगर नेता हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो इसीलिए कि हमने उन्हें इसकी इजाजत दी है. यह दलील भी दी जा सकती है कि जिस हद तक नेता जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, उसी हद तक समाज भी अपने नेताओं की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी है. हमें यह मानना होगा कि हमारे संसदीय लोकतंत्र में व्यवस्था सम्बन्धी खतरनाक गड़बड़ी है जिसका दुरुपयोग राजनेता करेंगे ही. और इसी का नतीजा है वह दावानल जिसे हमने गुजरात में भड़कते देखा है. इस लोकतंत्र की नाड़ियों में ही आग है. हमें इस मुद्दे को हाथ में लेना होगा और व्यवस्था के स्तर पर इसका समाधान तैयार करना होगा.

लेकिन ऐसा नहीं है कि महज राजनैतिकों द्वारा साम्प्रदायिक अलगाव का फायदा उठाने की वजह से ही फासीवाद हमारी दहलीज पर आ खड़ा हुआ है. पिछले पचास वर्षों से आम नागरिकों के मन में सम्मान और सुरक्षा के साथ जीने, और घोर निर्धनता से राहत के छोटे-छोटे सपने योजनाबद्ध तरीके से चूर-चूर कर दिये गये हैं. इस देश की सभी 'लोकतान्त्रिक'संस्थाएँ जवाबदेही से परे और आम आदमी की पहुँच से दूर रही हैं, और सच्चे सामाजिक न्याय के हित में काम करने की अनिच्छा या अक्षमता दिखाती रही हैं. भूमि सुधार, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्राकृतिक संसाधनों का बराबर बँटवारा, सकारात्मक भेदभाव लागू करना—असली सामाजिक परिवर्तन की सारी रणनीति को उन जातियों और वर्गों के लोग बड़ी चतुराई, काँइयेपन और नियमित ढंग से हथिया कर निष्फल करते रहे हैं, राजनैतिक प्रक्रिया पर जिनकी जबरदस्त पकड़ है. और अब एक मूलतः सामन्तवादी समाज के जटिल, श्रेणीबद्ध, सामाजिक ताने-बाने को चीरते हुए, उसे सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से बाँटते हुए, उस पर लगातार और मनमाने ढंग से कॉर्पोरेट वैश्वीकरण थोपा जा रहा है.

ये शिकायतें असली और जायज हैं. और फासीवाद इन शिकायतों का सबब नहीं है. लेकिन उसने इन पर कब्जा करके इन्हें पलट दिया है और इनसे एक वीभत्स और झूठे गौरव की भावना पैदा कर दी है. फासीवाद ने न्यूनतम समान विशेषता—धर्म—का इस्तेमाल कर लोगों को एकजुट कर लिया है. ऐसे लोग जिनका अपने जीवन पर कोई बस नहीं रह गया है, ऐसे लोग जिन्हें अपने घरों और बिरादरियों से उजाड़ दिया गया है, जिन्होंने अपनी संस्कृति और भाषा गँवा दी है, उन्हें किसी चीज पर गर्व कराया जा रहा है. वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे उन्होंने मेहनत-मशक्श्कत के बाद हासिल किया हो, या जिसे वे अपनी निजी उपलब्धि मान सकते हैं, बल्कि ऐसी है जो संयोग से वे खुद हैं. बल्कि ज्यादा सही तौर पर ऐसी है जो वे संयोग से नहीं हैं. और यह झूठ, यह खोखलापन उस लड़ाकू गुस्से को भड़का रहा है जिसे फिर एक कल्पित निशाने की ओर मोड़ दिया जाता है जो अखाड़े में ले आया गया है.

देश के निर्धनतम लोगों को पैदल सैनिकों के रूप में इस्तेमाल करके, दूसरे सबसे गरीब समुदाय से उसके वोट के अधिकार छीनने, उसे मार भगाने या खत्म करने की परियोजना को और भला कैसे जायज ठहराया जा सकता है? आखिर इसे और कैसे समझा या समझाया जा सकता है कि गुजरात में जिन दलितों और आदिवासियों को हजारों वर्षों से ऊँची जातियाँ तुच्छ समझती रही हैं, उनका दमन-शोषण करती रही हैं और उनके साथ कचरे से भी बदतर व्यवहार करती रही हैं, उन्होंने अपने से कुछ ही कम दुर्भाग्यशाली लोगों के खिलाफ अपने ही शोषकों के साथ कैसे हाथ मिला लिया? क्या वे महज दिहाड़ी के गुलाम हैं, भाड़े के सिपाही? क्या उनकी सरपरस्ती करना और उनकी करतूतों की जिम्मेदारी से उन्हें बरी कर देना सही है? या क्या मैं मोटी बुद्धि से काम ले रही हूँ? 

बदनसीबों के लिए अपने से कम बदनसीब लोगों पर अपना गुस्सा और घृणा निकालना शायद आम चलन है, क्योंकि उनके असली दुश्मन पहुंच से बाहर, दुर्जेय जान पड़ने वाले और मार करने की हद से पूरी तरह बाहर होते हैं. क्योंकि उनके अपने नेता उनसे कट कर, उन्हें वीराने में बेसहारा भटकने के लिए छोड़ कर, ऊँचे लोगों के साथ दावत उड़ाते हुए, हिन्दू धर्म में वापसी की बेतुकी लफ्फाजी कर रहे हैं. (यह सम्भवतः एक विश्वव्यापी हिन्दू साम्राज्य बनाने की दिशा में पहला कदम है—उतना ही यथार्थवादी लक्ष्य जितना अतीत में विफल हुई फासीवादी योजनाएँ जैसे रोम की शानो-शौकत की बहाली, जर्मन नस्ल का शुद्धीकरण या इस्लामी सल्तनत की स्थापना.)

भारत में 15 करोड़ मुसलमान रहते हैं.47 हिन्दू फासीवादी उन्हें जायज शिकार मानते हैं. क्या मोदी और बाल ठाकरे जैसे लोग सोचते हैं कि एक 'गृह युद्ध'में उनका सफाया कर दिया जायेगा और दुनिया खड़ी देखती रहेगी? अखबारों की खबरों के मुताबिक यूरोपीय संघ और दूसरे कई देशों ने गुजरात में जो हुआ उसकी भर्त्सना करते हुए उसकी तुलना नाजियों के शासन से की है.[42] भारत सरकार की अनिष्टसूचक प्रतिक्रिया है कि जो एक 'अन्दरूनी मामला'है उस पर टीका-टिप्पणी करने के लिए विदेशियों को भारतीय मीडिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए.[43] (मसलन, कश्मीर में चल रहा दिल दहलानेवाला मामला?)

अब आगे क्या होगा? सेंशरशिप? इण्टरनेट पर प्रतिबन्ध? अन्तरराष्ट्रीय फोनकॉल पर पाबन्दी? गलत 'आतंकवादियों'को मारना और डीएनए के झूठे नमूने तैयार करना?[44] कोई आतंकवाद सरकारी आतंकवाद की बराबरी नहीं कर सकता.

लेकिन उनसे दो-दो हाथ कौन करेगा? उनके फासीवादी शब्दाडम्बर पर शायद विपक्ष की ओर से कोई घन-गरज ही चोट कर सकती है. अभी तक सिर्फ राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने ही इस मामले पर अपनी भावना और गुस्सा जाहिर किया है: 'कौन माई का लाल कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है? उसको यहाँ भेज दो, छाती फाड़ दूँगा.'[45]

दुर्भाग्यवश, इस मामले में कोई फौरी समाधान नहीं है. फासीवाद को तभी रोका जा सकता है जब उससे विचलित होने वाले लोग सामाजिक न्याय को ले कर उतनी ही दृढ़ प्रतिबद्धता दिखायें, जो साम्प्रदायिकता के प्रति उनके आक्रोश के बराबर हो.

क्या हम इस दौड़ पर चल पड़ने के लिए तैयार हैं? क्या हममें से कई लाख लोग न सिर्फ सड़कों पर प्रदर्शनों में, बल्कि अपने-अपने काम की जगहों पर, दफ्तरों में, स्कूलों में, घरों में, अपने हर निर्णय और चुनाव में एकजुट होने को तैयार हैं?

या अभी नहीं...?

अगर नहीं तो अब से वर्षों बाद जब सारी दुनिया हमसे कन्नी काट लेगी (जो उसे करना ही चाहिए), तब हम भी अपने साथी मनुष्यों की आँखों से झलकती नफरत पहचानना सीखेंगे, जैसे हिटलर की जर्मनी के आम नागरिकों ने सीखा था. हम भी अपने किये (और अनकिये) पर, जो हमने होने दिया उस पर, शर्मिंदगी के चलते अपने बच्चों की नजरों से नजरें नहीं मिला पायेंगे.

यही हैं हम. भारत में. ऊपरवाला हमें इस काली रात से उबरने में मदद करे.


संदर्भ और टिप्पणियां

1. 'सईदा'एक बदला हुआ नाम है. गुजरात में हिंसा का निशाना खास तौर पर औरतें थीं. मिसाल के लिए, यह देखिए: 'वडोदरा के ग्रामीण इलाके में एक डॉक्टर ने कहा कि 28 फरवरी से जो घायल झुण्डों में वहाँ आने लगे उन्हें ऐसे घाव लगे थे जैसे साम्प्रदायिक हिंसा में पहले कभी नहीं देखे गये थे. हिपोक्रैटिक शपथ का घेर उल्लंघन करते हुए, डॉक्टरों को मुस्लिम मरीजों का इलाज करने पर धमकियाँ दी गयी हैं और उन पर दबाव डाला गया है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवकों द्वारा किये गये रक्तदान को केवल हिन्दू मरीजों के काम में लायें. तलवार से लगे घाव,कटी हुई छातियाँ और विविध तीव्रता से जले लोग कत्ले-आम के आरम्भिक दिनों के लक्षण थे. डॉक्टरों ने कई औरतों के शव-परीक्षण किये जिनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और जिनमें से बहुत-सी औरतों को इसके बाद जला दिया गया था. खेड़ा जिले की एक औरत के सामूहिक बलात्कार के बाद बलात्कारियों ने उसका सिर मूँड़ कर उस पर चाकू से ओम् गोद दिया था. कुछ दिन बाद हस्पताल में उसकी मौत हो गयी. औरतों की पीठ और नितम्बों पर ओम् गोदने के और भी मामले सामने आये.'—लक्ष्मीमूर्थी, 'इन द नेम ऑफ ऑनर,'कॉर्पवाच इंडिया, 23 अप्रैल 2002. http ://www.indiaresource.org/issues/globalization/2003/inthenameofhonor.htmlपर उपलब्ध. (29 मार्च 2009 को देखा गया).

2.    'स्ट्रे इन्सिडेंट्स टेक गुजरात टोल टू 554,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 5 मार्च 2002. घटनाओं की विस्तृत जानकारी के लिए देखें, सिद्धार्थ वरदराजन, एडिटेड, गुजरात: द मेकिंग ऑफ ए ट्रैजेडी, (नई दिल्ली: पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2002), डियोन बुंशा, स्केयर्ड: एक्सपरिमेन्ट्स विद वायलेंस इन गुजरात, (नई दिल्ली: पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2008), और विशेषतः कम्यूनलिज्म कॉम्बैट का मार्च-अप्रैल 2002 अंक, इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.sabrang.com/cc/archive/2002/marapril/index.html और राकेश शर्मा की डॉक्यूमेंट्री फिल्म फाइनल सॉल्यूशन (मुम्बई, 2004), फिल्म के बारे में जानकारीhttp://rakeshfilm.com पर उपलब्ध है.

3.    एडना फर्नांडिस, 'इंडिया पुशेज थ्रू ऐण्टी-टेरर लॉ,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 27 मार्च 2002, पृ. 11; 'टेरर लॉ गेट्स प्रसिडेंट्स नोड,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 3 अप्रैल 2002; स्कॉट बलडॉफ, 'ऐज स्प्रिंग अराइव्ज, कश्मीर ब्रेसस फॉर फ्रेश फाइटिंग,' क्रिश्चन साइंस मॉनीटर, 9 अप्रैल 2002, पृ. 7; हॉवर्ड डब्ल्यू, फ्रेंच और रेमण्ड बोनर, 'एट टेन्स टाइम, पाकिस्तान स्टाट्र्स टू टेस्ट मिसाइल्स,; न्यूयॉर्क टाइम्स, 25 मई 2002, पृ.1; एडवर्ड ल्यूस, 'द सैफ्रन रिवोल्यूशन,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 4 मई 2002, पृ. 1, मार्टिन रेग कॉन, 'इंडियाज ''सैफ्रन''करिकुलम, टोरंटो स्टार, 14 अप्रैल 2002, पृ. बी4; पंकज मिश्रा, 'होली लाइज' द गार्डियन(लन्दन), 6 अप्रैल 2002, पृ. 24, एडवर्ड ल्यूस, 'बैटल ऑवर अयोध्या टेंपल लूम्स,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 2 फरवरी 2002, पृ. 7.

4.    'गुजरात्स टेल ऑफ सॉरो: 846 डेड,'इकोनॉमिक टाइम्स ऑफ इंडिया, 18 अप्रैल 2002. हाल तक ये आँकड़े 1180 तक बढ़ गये थे. देखें, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 2002 'गुजरात रायट्स: मिसिंग परसन्स टू बी डिक्लेयर्ड डेड,'इंडियन एक्सप्रेस, 1 मार्च 2009. सिलिया डबल्यू, डुगर, 'रिलिजियस रायट्स लूम ओवर इंडियन पोलिटिक्स,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 27 जुलाई 2002, पृ.1. एडना फर्नांडिस, 'गुजरात वायलेंस बैक्ड बाइ स्टेट, सेज ईयू रिपोर्ट,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 30 अप्रैल 2002, पृ. 12; ह्यूमन राइट्स वॉच, '''वी हैव नो आर्डर टू सेव यू'': स्टेट पार्टिसिपेशन ऐण्ड काम्प्लिसिटी इन कम्यूनल वायलेंस इन गुजरात,'भाग 14, नं. 3 (सी) अप्रैल 2002 (यहाँ के बाद इसे एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट लिखा गया है) भी देखें. इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.hrw.org/legacy/reports/2002/india/gujrat.pdg (29 मार्च 2009 को देखा गया). ह्यूमन राइट वाच प्रेस विज्ञप्ति भी देखें, 'इंडिया: गुजरात ऑफिशियल टूक पार्ट इन ऐण्टी-मुस्लिम वायलेंस,'न्यूयॉर्क, 30 अप्रैल 2002.

5.    देखें, 'ऐ टेन्टेड इलेक्शन,'इंडियन एक्सप्रेस, 17 अप्रैल 2002; मीना मेनन, 'अ डिवाइडेड गुजरात नॉट रेडी फॉर स्नैप पोल,'इण्टर प्रेस सर्विस, 21 जुलाई 2002; एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 7, 15-16, 27-31, 458'डुगर 'रिलिजियस रायट लूम्स ओवर इंडियन पॉलिटिक्स,'पृ. 11; 'विमेन रीलिव दी हॉरर्स ऑफ गुजरात,'द हिन्दू, 18 मई 2002; हरप्रकाश सिंह नन्दा, 'मुस्लिम्स सर्वाइवर्स स्पीक इन इंडिया,'युनाइटेड प्रेस इण्टरनेशनल, 27 अप्रैल 2002; 'गुजरात कारनेज: दी आफ्टरमाथ: इम्पैक्ट ऑफ वायलेंस ऑन विमेन,'ऑनलाइन वॉलण्टियर्स डॉट ओआरजी, 2002. इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.onlinevolunteers.org/gujrat/women/index.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया.); जस्टिस ए.पी.रावनी, सबमिशन टू द नैशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन, न्यू डेल्ही, 21 मार्च 2002, अपेण्डिक्स 4. इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://el.eoccentre,info/eldoc/153a/GujCarnage.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया). 'आर्टिस्ट्स प्रोटेस्ट टू डिस्ट्रक्शन ऑफ कल्चरल लैण्डमार्क्स,'प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 13 अप्रैल 2002, और रामा लक्ष्मी, 'सेक्टेरियन वायलेंस हॉन्ट्स इंडियन सिटी: हिन्दू मिलिटेंट्स बार मुस्लिम्स फ्रॉम वर्क,'वॉशिंगटन पोस्ट, 8 अप्रैल 2002, पृ. 12 भी देखें.

6.    कम्युनलिज्म कॉम्बैट (मार्च-अप्रैल 2002) ने जाफरी के अन्तिम क्षणों को लिखा है:

एहसान जाफरी को उनके घर से बाहर खींच निकाला जाता है, 45 मिनट तक उनके साथ पाशविक व्यवहार होता है, उनके कपड़े उतार कर नंगा घुमाया जाता है और उनसे कहा जाता है कि वे 'वन्दे मातरम!'और 'जय श्री राम!'कहें. वे इन्कार कर देते हैं. उनकी उँगलियाँ काट दी जाती हैं और उन्हें बुरी तरह जख्मी हालत में मुहल्ले भर में घुमाया जाता है. फिर उनके हाथ और पैर काट दिये जाते हैं. इसके बाद सँड़सी जैसी किसी चीज से उनकी गर्दन को पकड़ कर उन्हें सड़क पर घसीट कर आग में फेंक दिया जाता है.  
                   
यह भी देखें:  '50 किल्ड इन कम्यूनल वायलेंस इन गुजरात, 30 ऑफ देम बर्न्ट,'प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 28 फरवरी 2002.

7.    एच.आर.डबल्यू. रिपोर्ट, पृ. 5. डुगर, 'रिलिजस रायट्स लूम ओवर इंडियन पॉलिटिक्स,'पृ. .1.

8.    'गुजरात कारनेज,'ऑनलाइन वॉलण्टियर्स डॉट ओआरजी, 2002. 'वर्डिक्ट ऑन गुजरात डेथ्सः इट्स प्रीमेडिटेटेड मर्डर,'स्ट्रेट्स टाइम्स (सिंगापुर), 7 जून 2002 भी देखें.

9.    'एमएल लौंचेज फ्रण्टल अटैक ऑन संघ परिवार,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 मई 2002.

10.    एच.आर.डब्ल्यू, रिपोर्ट, पृ. 21-27. जे.एन.यू. के प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय की टिप्पणी भी देखें, उन्होंने गुजरात में एक स्वतंत्र तथ्यान्वेषी दल का नेतृत्व किया था, 'कैन इंडिया एण्ड रिलिजस रिवेंज?'सीएनएन इण्टरनैशनल, 'क्वेश्चन ऐण्ड आन्सर विद जैन वर्जी,' 4 अप्रैल 2002.

11.    तवलीन सिंह, 'ऑउट ऑफ ट्यून,'इंडिया टुडे, 15 अप्रैल 2002, पृ. 21. शरद गुप्ता, 'बीजेपी: हिज एक्सीलेंसी,'इंडिया टुडे, 28 जनवरी 2002, पृ. 18 भी देखें.

12.    खोजेम मर्चेंट, 'वाजपेयी विजिट्स सीन ऑफ कम्यूनल क्लैशेज,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 5 अप्रैल 2002, पृ. 10. पुष्पेश पन्त, 'अटल ऐट दी हेल्म, ऑर रनिंग ऑन ऑटो?'टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 अप्रैल 2002.

13.    भरत देसाई, 'विल वाजपेयी सी थ्रू ऑल द विण्डो ड्रेसिंग? दि इकोनॉमिक टाइम्स, 5 अप्रैल 2002.

14.    एजेंस फ्रांस-प्रेस, 'सिंगापुर, इंडिया टू एक्सप्लोर क्लोजर इकोनॉमिक टाइज,' 8 अप्रैल 2002.

15.     'मेधा (पाटकर) फाइल्स चार्जेज अगेंस्ट बीजेपी लीडर्स,'दि इकोनॉमिक टाइम्स, 13 अप्रैल 2002.

16.    एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 30. बुरहान वजीर, 'मिलिटेंट्स सीक मुस्लिम फ्री इंडिया,'दि ऑब्जर्वर (लन्दन), 21 जुलाई 2002 पृ. 20 भी देखें.

17.    मिश्रा, 'होली लाइज,'पृ. 24.

18.    महिलाओं पर हुए हमलों के सन्दर्भ में देखें, 'सेवन मोर हेल्ड फॉर असॉल्टिंग विमेन,'एक्सप्रेस बज (चेन्नई), 25 जनवरी 2009. ईसाइयों पर हुए हमलों के सन्दर्भ में देखें, अंगना चटर्जी, 'हिन्दुत्व'ज वायलेंट हिस्ट्री,'तहलका, 13 सितम्बर 2008, और हर्ष मन्दर, 'क्राई, द बिलवेड कण्ट्री: रिफ्श्लेक्शन ऑन दी गुजरात मैसेकर,' 13 मार्च 2002. इण्टरनेट पर उपलब्ध:www.sacw.net/Gujrat2002/Harshmandar2002.html (29 मार्च 2009 को देखा गया). चटर्जी, वायलेंट गॉड्स भी देखें.

19.    देखें कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, 'गोधरा' (नवम्बर-दिसम्बर 2002). इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://www.sabrang.com/cc/archive/2002/novdec02/godhara.html (29 मार्च 2009 को देखा). वरदराजन द्वारा सम्पादित गुजरात में ज्योति पुनवानी, 'द कारनेज एट गोधरा'भी देखें. 

20.    एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 13-14. सिद्धार्थ श्रीवास्तव, 'नो प्रूफ येट ऑन आईएसआई लिंक विद साबरमती अटैक: ऑफिशियल्स,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 9 मार्च 2002, 'आईएसआई बिहाइण्ड गोधरा किलिंग्स, सेज बीजेपी,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 18 मार्च 2002. उदय मधुरकर, 'गुजरात फ्यूएलिंग दी फायर,'इंडिया टुडे, 22 जुलाई 2002, पृ. 38. 'ब्लडस्टेण्ड मेमोरीज,'इंडियन एक्सप्रेस, 12 अप्रैल 2002. सिलिया डबल्यू. डुगर, 'आफ्टर डेडली फायरस्टॉर्म, इंडियन ऑफिशियल्स आस्क वाई,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 6 मार्च 2002, पृ.3.

21.    'ब्लेम इट ऑन न्यूटन्स लॉ: मोदी,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 3 मार्च 2002. फर्नांडेस, 'गुजरात वायलेंस बैक्ड बाई स्टेट,'पृ. 3 भी देखें.

22.    'आरएसएस कॉशन्स मुस्लिम्स,'प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 17 मार्च 2002. संघमित्र चक्रवती, 'माइनॉरिटी गाइड टू गुड बिहेवियर,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 25 मार्च 2002.

23.    'मोदी आफर्स टू क्विट ऐज गुजरात सीएम,'दि इकोनॉमिक टाइम्स, 13 अप्रैल 2002. 'मोदी आस्क्ड टू सीक मैण्डेट,'द स्टेट्समैन (इंडिया), 13 अप्रैल 2002.

24.    एम.एस गोलवलकर, वी, ऑर, आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, (नागपुर: भारत पब्लिकेशन्स, 1939) और विनायक दामोदर सावरकर, हिन्दुत्व (नई दिल्ली: भारत सदन, 1989). 'सैफ्रन इज थिकर दैन...,'द हिन्दू, 22 अक्टूबर 2000. डेविड गार्डनर, 'हिन्दू रिवाइवलिस्ट्स रेज द क्वेशचन ऑफ हू गर्वन्स इंडिया,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन) 13 जुलाई 2000, पृ. 12.

25.    देखें, अरुंधति रॉय, पॉवर पॉलिटिक्स में 'पॉवर पॉलिटिक्स,'  द्वितीय संस्करण, (कैम्ब्रिज: साउथ एण्ड प्रेस, 2002), पृ. 57.

26.    मनोज मित्ता और एच.एस. फूल्का, वेन ए ट्री शुक डेल्ही: दी 1984 कारनेज, (नई दिल्ली: लोटस बुक्स, 2008).

27.    एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, 39-44.

28.    जॉन पिल्जर, 'पाकिस्तान ऐण्ड इंडिया ऑन ब्रिंक,'द मिरर (लन्दन), 27 मई 2002 पृ. 4.

29.    ऐलिसन ले कोवॉन, कर्ट आइखेनवॉल्ड और माइकेल मॉस, 'बिन लादेन फैमिली, विद डीप वेस्टर्न टाइज, स्ट्राइव्ज टू री-इस्टैब्लिश ए नेम,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 28 अक्टूबर 2001, पृ. 19.

30.    देखें स्टीवन मफसन, 'पेंटागन चेंजिंग कलर ऑफ एयरड्रॉप्ड मील्स: येलो फूड पैक्स, क्लस्टर बॉम्ब्लेट्स ऑन ग्राउण्ड मे कन्फ्श्यूज अफगशन्ज,'वॉशिंगटन पोस्ट, 2 नवम्बर 2001, पृ. ए21.

31.    संजीव मिगलानी, 'अपोजिशन कीप्स अप हीट ऑन गवर्नमेण्ट ओवर रायट्स,'रॉयटर्स, 16 अप्रैल 2002.

32.    सुचेता दलाल, 'आइदर गवर्न ऑर गो,'इंडियन एक्सप्रेस, 1 अप्रैल 2001.

33.    'इट्स वॉर इन ड्रॉइंग रूम्स,'इंडियन एक्सप्रेस, 19 मई 2002.

34.    रणजीत देवराज, 'प्रो-हिन्दू रुलिंग पार्टी बैक टू हार्डलाइन पॉलिटिक्स,'इंटर प्रेस सर्विस, 1 जुलाई 2002. 'ऐन अनहोली अलायंस,'इंडियन एक्सप्रेस, 6 मई 2002.

35.    निलांजना भादुरी झा, 'कांग्रेस (पार्टी) बिगिन्स आउस्ट-मोदी केप्नेन'दि इकोनॉमिक टाइम्स, 12 अप्रैल 2002.

36.    8 जून 2006 को पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा, जकिया जाफरी ने मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी और मन्त्रियों, वरिष्ठ अफसरों और पुलिसकर्मियों समेत 62 अन्य लोगों के खिलाफ फौजदारी कानून की धारा 154 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज कराने का प्रयास किया था. देखें, कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, 'द चार्ज शीट' (जून 2007). इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://www.sabrang.com/cc/archive/2007/june07/crime.html (29 मार्च 2009 को देखा गया).

37.    देखें, रिचर्ड बेनेडेट्टो, 'कॉन्फिडेंस इन वॉर ऑन टेरर वेन्स,'यूएसए टुडे, 25 जून 2002, पृ. 19 . और डेविड लैम्ब, 'इजराइल्स इन्वेजंस, 20 इयर्स अपार्ट, लुक ईरिली अलाइक,'लॉस ऐंजेलिस टाइम्स, 20 अप्रैल 2002, पृ.ए5.

38.    रॉय, द कॉस्ट ऑफ लिविंग में 'दि एण्ड ऑफ इमैजिनेशन'.

39.    'मैं इसे शान्ति की गारण्टी का एक हथियार, शान्ति का एक जामिन कहूँगा,'पाकिस्तान के परमाणु बम निर्माता अब्दुल कदिर खान ने कहा. इम्तियाज गुल, 'फादर ऑफ पाकिस्तानी बॉम्ब सेज न्यूक्लियर वेपन्स गैरण्टी पीस,'डायचे प्रेस-एजेन्तुर 29 मई 1998. राज चेंगप्पा, वेपन्स ऑफ पीसः द सीक्रेट स्टोरी ऑफ इंडियाज क्वेस्ट, टू बी अ न्यूक्लियर पॉवर (नई दिल्ली: हार्पर कॉलिंस, 2000).

40.    एडवर्ड ल्यूस, 'फर्नांडीज हिट बाइ इंडियाज कॉफिन स्कैण्डल,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 13 दिसम्बर 2001, पृ. 12.

41.    'अरेस्टेड ग्रोथ'टाइम्स ऑफ इंडिया, 2 फरवरी 2000.

42.    एडना फर्नांडीज, 'ई यू टेल्स इंडिया ऑफ कंसर्न ओवर वायलेंस इन गुजरात,'फाइनैन्शियल टाइम्स  (लन्दन), 3 मई 2002, पृ. 02; ऐलेक्स स्पिलियस, 'प्लीज डोण्ट से दिस वॉज ए रायट. दिस वॉज ए जेनोसाइड, प्योर ऐण्ड सिम्पल,'डेली टेलिग्राफ (लन्दन), 18 जून 2002, पृ. 13.

43.    'गुजरात एक अन्दरूनी मामला है और स्थिति नियन्त्रण में है,'भारत के विदेश मंत्री जसवन्त सिंह ने कहा. देखें, शिशिर गुप्ता, 'द फॉरेन हैण्ड,'इंडिया टुडे, 6 मई 2002, पृ. 42 और हाशिया.

44.    हिना कौसर आलम और पी. बालू, 'जे ऐण्ड के (जम्मू ऐण्ड कश्मीर) फजेज डीएनए सैम्पल्स टू कवर अप किलिंग्स,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 मार्च 2002.

45.    'लालू वॉण्ट्स यूज ऑफ पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म ऐक्ट) अगेंस्ट वीएचपी, आरएसएस,'टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 मार्च 2002.

शारदा फर्जीवाड़े पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा तो कर दिया,लेकिन विपक्ष फिरभी मुद्दा बना नहीं पा रहा

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शारदा फर्जीवाड़े पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा तो कर दिया,लेकिन विपक्ष फिरभी मुद्दा बना नहीं पा रहा

जैसे सहाराश्री को निवेशकों का पैसा लौटाने की योजना बताने को कहा गया है ,ठीक उसी तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को भी आदेश दे दिया है कि वह बतायें कि कैसे शारदा में पैसे लगाकर ठगे गये लोगों को उनकी रकम वापस दिलायेगी सरकार।अचरज की बात तो यह है कि बंगाल के राजनीतिक हल्कों में शारदा प्रकरण पर सन्नाटा है जैसे सबको सांप सूंघ गया है।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


शारदा फर्जीवाड़े मामले को सुप्रीम कोर्ट  ने व्यापक साजिश का नतीजा बताकर भले ही बंगाल की मां माटी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है,लेकिन इसका आगामी लोकसभा चुनाव नतीजों पर कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है। न निवेशकों को उनका पैसा वापस मिल रहा है,न रिकवरी की को सूरत है और न चिटफंड कारोबार केंद्रीय  एजंसियों की सक्रियता के बावजूद बंद हो पाया है।


सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया है कि दस दिनों के भीतर शारदा फर्जीवाड़े मामले की केस डायरी,एफआईआर,चार्जसीट की प्रतिलिपि सर्वोच्च अदालत में जमाकरें और साथ में यह भी बतायें कि इस भारी घोटाले की साजिश में आखिरकार कौन कौन लोग थे,किन्हें शारदा समूह को खुल्ला छूट देने का फायदा मिसला और किन्हें इस कंपनी से सुविधाएं वगैरह मिली हैं।जैसे सहाराश्री को निवेशकों का पैसा लौटाने की योजना बताने को कहा गया है ,ठीक उसी तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को भी आदेश दे दिया है कि वह बतायें कि कैसे शारदा में पैसे लगाकर ठगे गये लोगों को उनकी रकम वापस दिलायेगी सरकार।अचरज की बात तो यह है कि बंगाल के राजनीतिक हल्कों में शारदा प्रकरण पर सन्नाटा है जैसे सबको सांप सूंघ गया है।



अब तक प्रगति यह है कि केंद्रीयएजंसियों की गतिविधियां इस सिलसिले में ठप हैं और सेबी को पुलिसिया  अधिकार देने के बावजूद इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो सकी है। हालंकि श्यामल सेन आयोग ने शारदा  समूह की संपत्ति बिक्री कर निवेशकों की संपत्ति लौटाने का निर्देश दिया है।


जबकि दिन के उजाले की तरह जगजाहिर है कि शारदा समूह की कंपनियों में बेहतर मुनाफे का लालच दिए जाने पर लोगों ने अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई लगा रखी थी।कंपनी पिछले दिनों डूब गई और निवेशकों को उनका पैसा वापस नहीं कर पाई।


शारदा समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुदीप्त सेन और उनके कई सहयोगी सलाखों के पीछे हैं। धोखाधड़ी और षड्यंत्र के आरोप में उन पर कानूनी कार्रवाई चल रही है।जेल में हैं सत्तादल के सांसद कुणाल घोष भी।






गौरतलब है कि इससे पहले पहले शारदा चिटफंड घोटाले में गिरफ्तार राज्‍यसभा के सांसद कुणाल घोष ने इस पूरे मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी और मुकुल रॉय को घसीटा भी है,फिरभी विपक्ष इस मामले को मुद्दा नहीं बना सका,यह बंगाल में विपक्ष की बदहाली का आलम है।


हालांकि सहारा मामले में सहाराश्री की गिरफ्तारी के बाद बाद बंगाल में भी निवेशकों के पैसे लौटाने के हालात बन जाने  चाहिए थे,जो हरगिज नहीं बने।गौरतलब है कि गोरखपुर से शुरू हुआ 'सहारा' का सफर आज अरबों रुपयों तक पहुंच चुका है।चिटफंड से लेकर कई नामी स्कीम्स चलाने के साथ ही सहारा ने रियल स्टेट्स, स्पोर्ट्स स्पॉन्सरशिप, फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया के कारोबार में अपनी मजबूत पकड़ बनाई।सुप्राम कोर्ट के फैसले से लेकिन सहारा को भी निवेशकों को पैसे लौटाने की पहल के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।


लेकिन दूसरी तरफ, बंगाल में ऐसा कुछ होने के आसार अब भी नहीं बने हैं और न शारदा फर्जीवाड़े में गिरफ्तार सुदीप्तो और देवयानी से साजिश की परतें खुल पायी है।


अब अगर राज्य सरकार अपनी ओर से पहल करके दोषियों को सजा दिलाने के साथ निवेशकोंं को उनका पैसा वापस दिलाने  का काम कर देती है तो विपक्ष को आरोप लगाने का भी मौका नहीं लगेगा।


दरअसल बंगाल में सत्तापक्ष को सड़क पर चुनौती देने वाली कोई ताकत है ही नहीं।कांग्रेस अब साइनबोर्ड जैसी पार्टी हो गयी है और उसकी जगह तेजी से भाजपा ले रही है। लेकिन शारदा फर्जीवाड़े मामले को चुनावी मुद्दा में बदलने की कोई कवायद न कांग्रेस ने की है और भाजपा ने।


वामपक्ष अपने बिखराव से बेतरह परेशान है और उसे खोये हुए जनाधार की वापसी की जितनी फिक्र है,मुद्दों पर जनता को गोलबंद करने की उनकी तैयारी उतनी नहीं है। अचानक चुनाव के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के इस मंतव्य को चुनावी मुद्दा बनाने की हालत में बगाल की राजनीति कतई नहीं है और न ममता बनर्जी उन्हें कोई मौका देने की भूल करेंगी।


दरअसल इस घोटाले के साथ देशव्यापी चिटफंड कारोबार का पोंजी नेटवर्क का तानाबाना ऐसा है कि हर दल के रथी महारथी इस जंजाल में फंसे हुए हैं।


इसलिए पार्टियों के सामने अपनी अपनी खाल बचाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह गया और किसी राजनीतिक दल ने इसे मुद्दा बनाकर कोई जनांदोलन छेड़ा नहीं।


इस घोटाले के पर्दाफाश से जो शुरु आती प्रतिक्रिया हुई,विपक्ष की निष्क्रियता से सत्तापक्ष ने उसको भी रफा दफा कर दिया।मंत्रियों,सांसदों, विधायकों और पार्टी नेताओं पर गंभीर आरोप होने के बावजूद ममता ने आक्रामक रवैया अपनाकर उनका बचाव कर लिया और विपक्ष शुरुआत में सीबीआई जांच की रट लगाते रहने के बावजूद खारिज हो गया।


भाजपा बेहतर हालत में थी क्योंकि राज्य और केंद्र  में सत्ता से बाहर होने की वजह से उसके नेता फंसे नहीं हैं। लेकिन रहस्यमय चुप्पी ओढ़कर भाजपा ने वह मौका गवां दिया।



सुप्रीम कोर्ट का फैसला तब आया है जबकि राजनीतिक दलों ने अपने अपने उम्मीदवार घोषित भी कर दिये। सत्तापक्ष के आरोपित सभी लोग चुनाव मैदान में हैं,इसके बावजूद अपनी अपनी मजबूरी की वजह से राज्य के राजनीतिक दल इसे लेकर संबद्ध लोगों की घेराबंदी कर पायेंगे,इसकी संभावना भी कम है।



সারদা-কাণ্ড বৃহত্তর ষড়যন্ত্র, বলল কোর্টSC

গৌতম হোড়


নয়াদিল্লি: সারদা-কেলেঙ্কারিকে এ বার 'বৃহত্তর ষড়যন্ত্র' আখ্যা দিয়ে পশ্চিমবঙ্গ সরকারকে তুমুল অস্বস্তিতে ফেলল সুপ্রিম কোর্ট৷ এই মামলার তদন্তের গতিপ্রকৃতি নিয়ে বুধবার রাজ্য সরকার যে হলফনামা দিয়েছে, তাতে দেশের সর্বোচ্চ আদালত অসন্ত্তষ্ট৷ বিচারপতি টি এস ঠাকুর এবং বিচারপতি সি নাগাপ্পান সরকারি আইনজীবীদের তীব্র ভত্‍র্‌সনা করেন৷ তাঁরা নির্দেশ দিয়েছেন, দশ দিনের মধ্যে কেস ডায়েরি, এফআইআর, চার্জশিটের কপি-সহ রাজ্য সরকারকে জানাতে হবে, সারদা-কেলেঙ্কারির এই বৃহত্তর ষড়যন্ত্রে কারা জড়িত ছিল, কারা টাকা এবং অন্যান্য সুযোগ-সুবিধা পেয়েছে, সারদা গোষ্ঠী যে কোটি কোটি টাকা বাজার থেকে তুলেছিল, সেই টাকা কী করে বিনিয়োগকারীদের কাছে ফেরত দেওয়া হবে ইত্যাদি যাবতীয় তথ্য৷


দুই বিচারপতির মন্তব্য, 'রাজ্য সরকারের পেশ করা হলফনামায় এ সব নিয়ে কিছুই বলা হয়নি৷ আসল মামলা তো ওই বৃহত্‍ ষড়যন্ত্র৷ তার কী তদন্ত হচ্ছে?' রাজ্য সরকারের আইনজীবীরা ভোটের অজুহাত দেখিয়ে পরবর্তী শুনানি চার সপ্তাহ পিছিয়ে দেওয়ার আর্জি জানান৷ দুই বিচারপতির ডিভিশন বেঞ্চ সেই আর্জি খারিজ করে হলফনামা জমা দেওয়া এবং পরবর্তী শুনানির দিন ৯ এপ্রিল ধার্য করেছে৷ এতে সারদা-কাণ্ড নিয়ে ভোটের মুখে রাজ্য সরকারের চাপ আরও বাড়ল৷ যদিও ভোটের আগেই সারদা-কাণ্ডের সিবিআই তদন্তের রায় ঘোষণা হবে কি না, সে ব্যাপারে বিচারপতিরা স্পষ্ট করে কিছু জানাননি৷ তাঁরা জানিয়ে দিয়েছেন, এই মামলার তদন্তকারী অফিসারদের ভোটের কাজে লাগানো যাবে না৷ বিচারপতি ঠাকুর জানতে চান, রাজ্যে কবে ভোট হচ্ছে, কবে তা শেষ হচ্ছে৷


রাজ্য সরকার তাদের হলফনামায় চার্জশিটের তিনটি নমুনা দিয়েছিল৷ আবেদনকারীর পক্ষের আইনজীবী বিকাশ ভট্টাচার্য বলেন, 'এই চার্জশিটে দেখা যাচ্ছে, যে-সব আমানতকারী টাকা দিয়েছিলেন, তাঁদের দাবি সত্যি কি না, সে বিষয়ে যাবতীয় তদন্ত করা হয়েছে৷ এটা অত্যন্ত সাধারণ চার্জশিট৷ কিন্ত্ত তাঁদের টাকা কোথায় গেল, এই কেলেঙ্কারিতে কারা জড়িত সে সব বিষয়ে কোনও তদন্ত না-করেই চার্জশিট দেওয়া হয়েছে৷' বিচারপতি ঠাকুর রাজ্য সরকারের আইনজীবীকে বলেন, 'চার্জশিটে এই কেলেঙ্কারির ব্যাপকতা, টাকা কোথায় গেল, তাতে কারা জড়িত সে সব তো কিছুই নেই৷ আপনারা তো ক্ষুদ্র দৃষ্টিতে বিষয়টি দেখেছেন৷ এটা নিছক একটা লেনদেনের বিষয় নয়৷ লাগাতার লেনদেন হয়েছে৷ চক্রান্ত হয়েছে৷ নিশ্চয়ই তার বৃহত্তর প্রতিক্রিয়া আছে৷ কারও হয়ত ৫০ হাজার টাকা জালিয়াতি হয়েছে৷ আপনি যদি শুধু ওই ৫০ হাজার টাকা দেখেন তা হলে তো হবে না৷ ২ হাজার কোটি টাকারও বেশি অর্থ এর সঙ্গে জড়িত৷ সেই বিষয়টি দেখতে হবে৷ সেটা কবে দেখবেন? আদৌ দেখবেন কি?'

রাজ্যের আইনজীবী বৈদ্যনাথনও অবশ্য স্বীকার করে নেন, বেশিরভাগ তদন্তই হয়েছে ব্যক্তিগত ঠকানোর বিষয় নিয়ে৷ তবে আমতা আমতা করে তিনি দাবি করেন, বৃহত্তর প্রশ্ন নিয়েও সরকার তদন্ত করছে৷ সেই তদন্তের কাজ ৯০ শতাংশ এগিয়েছে৷ বিধাননগর কমিশনারেট এ বিষয়ে তদন্ত করে চার্জশিট দিয়েছে৷


সারদার সম্পত্তি নিয়ে রাজ্য সরকার যে হলফনামা দিয়েছিল তাতেও সন্ত্তষ্ট হননি বিচারপতিরা৷ তাঁরা জানিয়েছেন, এই হলফনামাতেও প্রচুর গলদ আছে৷ রাজ্য সরকারের হলফনামায় বলা হয়েছে, সারদা গোষ্ঠী রাজ্যে ২০৯টি সম্পত্তি কিনেছিল ৪০ কোটি টাকা দিয়ে৷ আর ভিন্ রাজ্যে সারদা ৫ কোটি টাকা দিয়ে সম্পত্তি কেনে৷ কিন্ত্ত হলফনামার অন্য এক জায়গায় বলা হয়েছে, সারদা মোট ১১০ কোটি টাকা দিয়ে সম্পত্তি কিনেছিল৷ বিচারপতি ঠাকুরের প্রশ্ন, 'এখানে তো ৪৫ কোটি টাকার হিসাব পাওয়া যাচ্ছে, কিন্ত্ত হলফনামার অন্য এক জায়গায় বলা হয়েছে, ১১০ কোটি টাকা দিয়ে সম্পত্তি কেনা হয়েছে৷ তা হলে বাকি টাকা কোথায় গেল?' তখন রাজ্য সরকারের আইনজীবী বৈদ্যনাথন জানান, কিছু সম্পত্তি পাওয়ার অফ অ্যাটর্নি দিয়ে কেনা হয়েছিল৷ সে সব হিসাব এখানে নেই৷ কারণ সেল ডিড পাওয়া যায়নি৷ বিচারপতির প্রশ্ন, তা হলে তদন্তের সময় কি ওই সব সম্পত্তির মালিকদেরও জিজ্ঞাসাবাদ করা হয়েছে? তাঁরা কী বলছেন? বৈদ্যনাথনের জবাব, ওঁরাও অনেকে পাওয়ার অফ অ্যাটর্নি দিয়েই সম্পত্তি কিনেছিলেন৷ বৈদ্যনাথন আরও জানান, সারদা গোষ্ঠী বাজার থেকে যে টাকা তোলার কথা বলছে, সবই তাদের কম্পিউটারের সফটওয়ারের তথ্য৷ এরপর বিচারপতি ঠাকুরের মন্তব্য, 'ঠিক আছে, মেনে নেওয়া গেল, সারদা ১১০ কোটি টাকা দিয়েই সম্পত্তি কিনেছে৷ বাকি টাকার কী হল? সারদা যে বাজার থেকে ২৪৬০ কোটি টাকা তুলেছে বলে আপনারা বলছেন, সেই টাকাটা কোথায় গেল? সেটা কি আপনারা তদন্ত করে দেখেছেন? নাকি এক বছর পরেও সারদার সফটওয়ারের তথ্য ছাড়া আপনাদের কাছ আর কোনও তথ্য নেই?'


বিচারপতিরা পরিষ্কার জানিয়ে দিয়েছেন, শ্যামল সেন কমিশনের ব্যাপারে তাঁদের কিছুই বলার নেই৷ কমিশন যেমন কাজ করে যাচ্ছে, তেমনই করবে৷ দ্বিতীয়ত, বিচারপতিরা এটাও পরিষ্কার করে দিয়েছেন, সিবিআই হোক বা না হোক, তাঁরা তদন্তের দেখভাল করবেন না৷ হাইকোর্টের অধীনে থেকেই তদন্ত হবে৷ বিচারপতিরা বলেন, 'আমাদের জানার বিষয় দু'টি৷ তদন্ত ঠিকমতো হচ্ছে কি না৷ তদন্তের ভার রাজ্যের তদন্তকারী সংস্থার হাতেই থাকবে নাকি সিবিআই-এর হাতে তা তুলে দেওয়া হবে৷ আর সারদার এই ষড়যন্ত্রে কারা জড়িত৷

http://eisamay.indiatimes.com/city/kolkata/supreme-asks-state-to-file-a-new-affidavit/articleshow/32737479.cms

ব্যাখ্যায় সন্তুষ্ট না হলে সিবিআইয়ের ইঙ্গিত

সারদায় লাভবান কারা, প্রশ্ন তুলল সুপ্রিম কোর্ট

নিজস্ব সংবাদদাতা

নয়াদিল্লি,২৭ মার্চ , ২০১৪, ০৩:০৯:৩২1-2

বুধবার বিকেল ৩টে নাগাদ বসিরহাটে সারদা কাণ্ডে অভিযুক্ত দেবযানীকে বসিরহাট এসিজেএম আদালতে তোলা হয়। বিচারক ৯ এপ্রিল তাঁকে ফের আদালতে হাজির করানোর নির্দেশ দিয়েছেন। ছবি: নির্মল বসু।


সারদা কেলেঙ্কারিতে কারা জড়িত এবং তার থেকে কারা লাভবান হয়েছেন, তার স্পষ্ট উত্তর চায় সুপ্রিম কোর্ট। রাজ্য সরকার যদি দশ দিনের মধ্যে এর সন্তোষজনক জবাব দিতে না পারে, তা হলে সারদা মামলা সিবিআইয়ের হাতে যাওয়ার সম্ভাবনা যে বেড়ে যাবে, আজ সে কথা জানিয়ে দিল সর্বোচ্চ আদালত।

আজ সারদা-মামলার শুনানির সময় বিচারপতিরা রাজ্য সরকারের সামনে পাঁচটি গুরুত্বপূর্ণ প্রশ্ন রেখেছেন। নির্বাচনের কথা বলে ওই সব প্রশ্নের জবাব দিতে রাজ্য সরকারের তরফে চার সপ্তাহ সময় চাওয়া হয়। কিন্তু লগ্নিকারীদের দিকে তাকিয়ে রাজ্যকে ১০ দিনের মধ্যে হলফনামা জমা দেওয়ার নির্দেশ দেয় বিচারপতি টি এস ঠাকুর ও বিচারপতি সি নাগাপ্পনের বেঞ্চ। ৯ এপ্রিল মামলার পরবর্তী শুনানি হবে।

সারদা মামলায় গত শুনানির দিনেও রাজ্যের তদন্ত নিয়ে কড়া মন্তব্য করেছিল সুপ্রিম কোর্ট। তার পরে এমন একটা ধারণা তৈরি হয়েছিল যে, সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেওয়া হবে কি না, তা নিয়ে এ দিনই সিদ্ধান্ত জানিয়ে দিতে পারে সর্বোচ্চ আদালত। শেষ পর্যন্ত যদি সারদা তদন্তের দায়িত্ব সিবিআইয়ের হাতে যায়, তা হলে লোকসভা ভোটের আগে রাজ্য রাজনীতির উপরে কতটা প্রভাব ফেলতে পারে, তা নিয়ে জোর জল্পনাও শুরু হয়ে যায়।

শেষ পর্যন্ত এ দিন অবশ্য সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেয়নি সর্বোচ্চ আদালত। তবে সে প্রসঙ্গও উঠেছে। বিচারপতিরা সরাসরি রাজ্যের কাছে জানতে চান, কোটি কোটি টাকার এই কেলেঙ্কারিতে কারা জড়িত? কারা এর ফলে লাভবান হয়েছেন? রাজ্য কি এই বিষয়গুলি নিয়ে তদন্ত করছে? তাঁদের বক্তব্য, এটি একটি বৃহত্তর ষড়যন্ত্র। এর রহস্যমোচনে রাজ্য সরকার কী করছে? এর পরে তাঁদের মন্তব্য, যদি ইচ্ছাকৃত ভাবে এই বিষয়টি এড়িয়ে যাওয়ার চেষ্টা হয়, তা হলে সিবিআই তদন্তের দরকার পড়বে।

সারদা সংস্থার হয়ে সুদীপ্ত সেন কোথায়, কত টাকায় কত সম্পত্তি কিনেছিলেন, সে বিষয়ে রাজ্যের কাছে সবিস্তার রিপোর্ট চেয়েছিল সুপ্রিম কোর্ট। আজ সেই রিপোর্ট নিয়ে অসন্তোষ প্রকাশ করেন বিচারপতিরা। তাঁরা বলেন, ওই রিপোর্টে যথেষ্ট ফাঁকফোকর রয়েছে। একই ভাবে সারদা-কাণ্ডে পুলিশ যে সব চার্জশিট পেশ করেছে, তার নমুনা দেখেও অসন্তোষ প্রকাশ করেন বিচারপতিরা। বিচারপতি ঠাকুর বলেন, সঙ্কীর্ণ দৃষ্টিকোণ থেকে তদন্ত হচ্ছে। এক জন লগ্নিকারীকে কী ভাবে ঠকানো হল, কে প্রতারণা করল এখানে শুধু তার তদন্ত করে চার্জশিট পেশ হচ্ছে। বৃহত্তর ষড়যন্ত্রের রহস্য উদ্ঘাটন প্রয়োজন।

রাজ্য পুলিশের তদন্তের গুণগত মান বুঝতে এর আগের দিন কিছু চার্জশিটের নমুনা পেশ করার নির্দেশ দিয়েছিল সর্বোচ্চ আদালত। আবেদনকারীদের আইনজীবী বিকাশ ভট্টাচার্য সেই সব চার্জশিট দেখিয়ে অভিযোগ তোলেন, প্রতারণা করে তোলা টাকা কোথায় গেল, কোনও চার্জশিটেই তার জবাব নেই। বিচারপতি ঠাকুর এই সময় রাজ্যের আইনজীবীকে উদ্দেশে বলেন, "এই বড় বিষয়টি চার্জশিটে অনুপস্থিত। ক্ষুদ্র পরিসরে বিষয়টি দেখা হচ্ছে। তদন্তের আসল লক্ষ্য তা হওয়া উচিত নয়।"

আদালতে উপস্থিত বিধাননগরের পুলিশ কমিশনার রাজীব কুমার রাজ্যের আইনজীবী সি এস বৈদ্যনাথনের মাধ্যমে আদালতকে জানান, বিধাননগর থানায় দায়ের হওয়া একটি মামলায় যে চার্জশিট পেশ হবে, তাতে এই বৃহত্তর ষড়যন্ত্রের বিশদ বিবরণ থাকবে। ওই মামলার তদন্তের কাজ ৯০ শতাংশ হয়ে গিয়েছে। দু'মাসের মধ্যে সেই চার্জশিট পেশ হবে। বিচারপতি নাগাপ্পন বলেন, "সেটাই তো প্রধান মামলা হওয়া উচিত। অথচ এ বিষয়ে কোনও হলফনামাতেই একটাও কথা নেই।"

সারদা গোষ্ঠীর আর্থিক খতিয়ানের রিপোর্ট পেশ করে রাজ্য সরকারের আইনজীবী সি এস বৈদ্যনাথন জানান, সারদার মোট ২২৪টি সম্পত্তি চিহ্নিত করে বাজেয়াপ্ত করা হয়েছে। এর মধ্যে ২০৯টি সম্পত্তি পশ্চিমবঙ্গে। সারদার হিসেবনিকেশের সফটওয়্যার থেকে পাওয়া তথ্য অনুযায়ী, এই জমি-বাড়ি সম্পত্তি কিনতে ৪০ কোটি টাকা খরচ করেছিল তারা। রাজ্যের বক্তব্য, তার বাইরেও নগদে ১০০ কোটি টাকা মেটানো হয়েছিল। বাকি সম্পত্তিগুলি রয়েছে প্রতিবেশী রাজ্যে। যার জন্য ব্যয় হয়েছে ৫ কোটি টাকা। আবার রাজ্যের তরফে এ-ও জানানো হয়েছে, সব মিলিয়ে জমি-বাড়ি কিনতে প্রায় ১১০ কোটি টাকা ব্যয় হয়েছে।

রাজ্য সরকারের রিপোর্টে আরও বলা হয়েছে, পাওয়ার অব অ্যাটর্নির মাধ্যমে বহু সম্পত্তি কিনেছিলেন সুদীপ্ত সেন। এ জন্য কোথায় কত টাকা খরচ হয়েছিল, তার কোনও হিসেব মেলেনি। বাজার থেকে মোট ২৪৬০ কোটি টাকা তুলেছিল সারদা। যার ৯০ শতাংশই নগদে তোলা হয়েছে। ব্যাঙ্কের মাধ্যমে কোনও রকম লেনদেন হয়নি। এর মধ্যে ৪৭৫ কোটি টাকা লগ্নিকারীদের ফিরিয়ে দেওয়া হয়েছে।

রাজ্যের রিপোর্ট বিচারপতিদের যে সন্তুষ্ট করতে পারেনি, তা তাঁদের প্রশ্ন থেকেই পরিষ্কার। রিপোর্ট বলছে, গত বছরের এপ্রিল থেকে তদন্ত শুরু হয়েছে। কিন্তু রাজ্য যে সব তথ্য পেশ করছে, সেগুলি সারদার সফ্টওয়্যার থেকে পাওয়া। বিচারপতিরা প্রশ্ন তোলেন, "পুলিশ নিজে কী করেছে? যাদের কাছ থেকে পাওয়ার অব অ্যাটর্নির মাধ্যমে সম্পত্তি কেনা হয়েছিল, তাদের কাছ থেকে তথ্য জোগাড়ের চেষ্টা হয়নি কেন?"রাজ্যের আইনজীবী যুক্তি দেন, কেউ প্রশাসনের দ্বারস্থ হয়নি। বিচারপতিদের প্রশ্ন, "পুলিশ নিজে গিয়ে কেন তাঁদের বয়ান নথিভুক্ত করেনি? যদি ১১০ কোটি টাকার সম্পত্তি কেনা হয়ে থাকে, তা হলে বাকি টাকা কোথায়?"রাজ্যের তরফে বলা হয়, অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে প্রতারণার দাবিও খতিয়ে দেখা হচ্ছে। তদন্ত শেষ করতে পুলিশকে মে মাস পর্যন্ত সময় দেওয়া হোক। বিচারপতিরা সেই আবেদন নাকচ করে দেন।

রাজ্য সরকারের আইনজীবী আজ আদালতে অভিযোগ তুলেছেন, সিবিআই তদন্ত দাবির পিছনে রাজনৈতিক উদ্দেশ্য রয়েছে। এক জন আবেদনকারী কংগ্রেসের প্রার্থী হয়েছেন।

আবেদনকারীদের আইনজীবী কলকাতার মেয়র ছিলেন। বিকাশবাবু জবাব দেন, "মেয়র ছিলাম বলে কি মামলা লড়তে পারি না? কোনও আবেদনকারীই কংগ্রেসের প্রার্থী হননি।"বিচারপতি ঠাকুর মন্তব্য করেন, "রাজনৈতিক সম্পর্ক থাকলেও তা নিয়ে আলোচনার এটা আদর্শ সময় নয়। বাইরে নির্বাচনী যুদ্ধ শুরু হয়ে গিয়েছে।"পশ্চিমবঙ্গে ভোটগ্রহণ কবে কবে, সে বিষয়েও জানতে চান তিনি।

বিচারপতিরা জানতে চান, কত দিনের মধ্যে রাজ্য হলফনামা পেশ করতে পারবে? রাজ্যের যুক্তি ছিল, নির্বাচনী প্রক্রিয়া শুরু হয়েছে। চার সপ্তাহ সময় লাগবে। তদন্তকারীদের অনেকেই ভোটের কাজে ব্যস্ত হয়ে পড়বেন। বিকাশবাবু বলেন, এই তদন্তের সঙ্গে ভোটের সম্পর্ক নেই। রাজ্য সিবিআই তদন্তে ভয় পাচ্ছে। তাই সময় নষ্ট করছে। বিচারপতিরা জানান, সারদার তদন্তকারীদের যাতে আইন-শৃঙ্খলার দায়িত্ব না দেওয়া হয়, তার নির্দেশ দেওয়া হবে।

প্রতারিতদের টাকা ফেরত দেওয়ার বিষয়ে কী কী করা হয়েছে, আজ সুপ্রিম কোর্টে শ্যামল সেন কমিশনের তরফে তা জানানো হয়। বিচারপতিরা জানান, কমিশন ভাল কাজ করে থাকতে পারে। সেটা এখানে বিচার্য নয়। বিচারপতি ঠাকুর বলেন, "সুপ্রিম কোর্ট শ্যামল সেন কমিশনের কাজে কোনও বাধা দিচ্ছে না। আমরা সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দিলে একটাই পার্থক্য হবে। কলকাতা হাইকোর্ট তখন রাজ্য পুলিশের বদলে সিবিআই তদন্তে নজরদারি করবে।"

এ দিনই সারদার কাছে প্রতারিত ১০ হাজার লোকের তরফে একটি আবেদনে সিবিআই তদন্তের বিরোধিতা করা হয়। আবেদনকারীদের আইনজীবী পি ভি শেট্টি বলেন, সিবিআই-কে তদন্তভার দিলে গোটা প্রক্রিয়া পিছিয়ে যাবে। প্রতারিতদের টাকা ফেরত পেতে সমস্যা হবে। বিচারপতি ঠাকুর প্রশ্ন করেন, সিবিআই তদন্ত হলে এই প্রতারিতদের সমস্যা কোথায়? সত্যিই প্রতারিতরা এই আবেদন করছেন কি না, সেই প্রশ্নও তোলেন তিনি।

http://www.anandabazar.com/state/%E0%A6%B8-%E0%A6%B0%E0%A6%A6-%E0%A7%9F-%E0%A6%B2-%E0%A6%AD%E0%A6%AC-%E0%A6%A8-%E0%A6%95-%E0%A6%B0-%E0%A6%AA-%E0%A6%B0%E0%A6%B6-%E0%A6%A8-%E0%A6%A4-%E0%A6%B2%E0%A6%B2-%E0%A6%B8-%E0%A6%AA-%E0%A6%B0-%E0%A6%AE-%E0%A6%95-%E0%A6%B0-%E0%A6%9F-1.15208


अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने का ब्राह्मणवादी षडयंत्र

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अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने का ब्राह्मणवादी षडयंत्र


HASTAKSHEP

दलित चिन्तन नमो का

भँवर मेघवंशी

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर दलितों का नेतृत्व बेहद आकर्षित नजर आ रहा है, ऐसा उनकी भीड़ खींचने की क्षमता की वजह से हो रहा है अथवा उनके दलित हितैषी होने की वजह से? यह अभी विचारणीय प्रश्न बना हुआ है, पर इतना तो तय है कि उनकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विगत कुछ वर्षों में अन्दर ही अन्दर काफी काम किया है, जिसका लक्ष्य था कि दलित कैसे आर.एस.एस. के साथ आयें? संघी दलितों की तो वैसे भी कमी नहीं थीजिन बेचारों ने अपनी आँखें शाखाओं मे ही खोलींवे तो ताउम्र खाकी निकर उतार ही नहीं पायेंगे। उनके लिये तो अम्बेडकर भी सदैव ही पराये रहेंगे, वे हेडगेवार, गुरूजी गोलवलकर, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया, कु.सी. सुदर्षन के रास्ते मोहन भागवत के चरणों में ही रह कर जीवन यापन करते रहेंगे, ऐसे सभ्य, सुसंस्कृत राष्ट्रभक्त, सकारात्मक संघी दलितों की तो हम बात ही नहीं कर रहे हैं। ऐसे आज्ञाकारी, स्वामीभक्त और गुलामी को गले का हार मान बैठे दलित लोग तो देश में बड़ी संख्या में मौजूद हैं तथा यदा-कदा सामाजिक समरसता से सरोबार होकर वे अम्बेडकर चेतना को पलट देने का प्रयास भी करते हैं लेकिन ज्यादा सफल नहीं हो पाते हैं, मगर हम बात दलितों के उन कथित रहबरों की कर रहे हैं, जिन्हें अचानक नरेन्द्र मोदी में एक 'मुक्तिदाता'और दलित पिछड़ों का 'महानायक'नजर आने लगा है। संघ की योजना के तहत एक राष्ट्रवादी अम्बेडकरवादी महासभा भी बनाई गयी है जो डॉ.अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम, के आर नारायण तथा कांशीराम के फोटो लगाकर हिन्दुत्ववाद की चाशनी में अम्बेडकरवाद को परोसने में लगी हुयी है, ऐसी महासभाएं यही करती हैं, वे अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने लगती हैं, यह दलित चेतना को समाप्त करने का एक दूरगामी ब्राह्मणवादी षडयंत्र है, जिसके प्रचारक खुद ही दलित बने बैठे हैं। ये वो लकड़िया है जो कुल्हाडी के साथ मिलकर अपने ही हमजात पेड़ो का नाष करने पर लग जाती है। खैर, तो ज्यादातर दलित नेता नरेन्द्र मोदी से बेहद प्रभावित नजर आ रहे है, विषेषतः 60 की उम्र के आस पास वाले दलित नेता, जो थक हार गये है तथा अब लगभग हताश व निराश है अथवा वे युवा दलित जो 25 वर्ष से नीचे की उम्र के है जिन्हें मोदी में अपना मुक्ति दाता नजर आ रहा है। ऐसा माहौल है कि जैसे मोदी हर मर्ज की दवा है, दलितों के साथ सदियों से हो रहा अन्याय अत्याचार और भेदभाव जैसी समस्याऐं मोदी राज में एक ही झटके में खत्म हो जायेगी, सब कुछ इतना अच्छा होगा कि फिर दलित तो दलित भी नहीं रहेंगे, वे भी विश्व गुरू के पद पर आसीन हो जायेंगे।

      लेकिन यह जरूरी नहीं समझा जा रहा है कि इस पर विचार किया जाये कि आखिर नरेन्द्र मोदी का दलित चिन्तन क्या है? उनके दलित सरोकार क्या है? वे क्या सोचते है इस वर्ग के प्रति? षेष राजनीतिक दलों व नेताओं के दलितों के प्रति विचारों तथा उनके विचारों में क्या भिन्नता है? मोदी जी के दलितों के मध्य दिये गये प्रवचनों और किये गये कार्यों पर किशोर मकवाना द्वारा संपादित ' सामाजिक समरसता'नामक पुस्तक इन दिनों हर जगह उपलब्ध है, जिसमें नरेन्द्र मोदी को दलित हितैषी साबित करने की भरपूर कोशिशें हुयी हैं, इससे पूर्व उनकी एक पुस्तक 'कर्मयोग'आई थी, जिसमें 'पाखानासाफ करने के काम को आध्यात्मिक कार्यमोदी जी बता ही चुके हैं। नवम्बर 2007 में वाल्मिकी समाज के बारे में बोलते हुये मोदी ने कहा है कि- ''मैं नहीं मानता कि वे (वाल्मीकि) इस काम (सफाई) को महज जीवन यापन के लिये कर रहे हैं।

सुरेन्द्र नगर जिले के थानगढ़ में न्याय की माँग के लिये शान्ति पूर्ण प्रदर्शन करते दलितों पर की गयी गुजरात पुलिस की बर्बर गोलीबारी में तीन दलित युवाओं की मौत की खबर को मीडिया ने तवज्जों ही नहीं दी, अहमदाबाद से मात्र सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित धांडुका तहसील के गलसाना गांव के 500 दलितों ने लम्बा सामाजिक बहिष्कार सहा है तथा उन्हें मंदिर प्रवेश से भी प्रतिबंधित रखा गया। सांबरकाठा के दिशा गाँव के दलितों ने 54 माह तक न्याय के लिये धरना दिया है।

प्रसिद्ध चिन्तक सुभाष गाताडे़ का तो यहाँ तक कहना है कि गुजरात के हजारों दलित छात्र छात्राओं को छात्रवृति तक नहीं मिल पाती है, उनकी छात्रवृति के लिये आंवटित बजट का एक अच्छा खासा हिस्सा अन्य कामों में लगा दिया जाता है। यह जानकारी 'नवसर्जन ट्रस्ट, द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तह्त मिली सूचनाओं से प्राप्त हुयी है, अकेले अहमदाबाद जिले में 3123 दलित छात्रों को छात्रवृति नहीं मिली है, 1613 छात्रों के आवेदन अब तक लम्बित है तथा कोष में कमी के नाम पर 1512 छात्रों को छात्रवृति देने से इंकार ही कर दिया गया है, जबकि तकरीबन तीन करोड़ रूपया जो छात्रवृति हेतु आवंटित था, वह अन्य कामों में लगा दिया गया है। नवसर्जन द्वारा 1600 गाँवों में छुआछूत के अध्ययन के लिये की गयी 'अण्डरस्टेंडिंग अनटचैबिलिटी'रिपोर्ट पर नज़र डालें तो पता चलता है कि गुजरात के गाँवों में से 98 प्रतिशत गाँवों में आज भी अस्पृश्यता देखने को मिलती है।( शुक्रवार, 21-27 मार्च 2014, पृष्ठ – 26)

      गुजरात में दलितों से भेदभाव का आलम यह है कि उन्हे मरने बाद भी अलग जलाया जाता है, प्रदेश में दलितों को जीते जी तो छुआछूत का सामना करना ही पड़ता है। मरने के बाद भी सरकार उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करती है, गुजरात में सरकारी पैसे से काफी जगहों पर गाँवों में दलितों के लिये अलग श्मशान बनाये गये हैं। (हितेश चावड़ा, दलित दस्तक,मार्च 2014 पृष्ठ -11) इतना ही नहीं बल्कि गुजरात अनाथालयों में आने वाले बच्चों के नामकरण की भी अजीब सरकारी व्यवस्था चल रही है अगर बच्चा दिखने में 'आकर्षक'होता है तथा पूछे गये सवाल का सही जवाब देता है तो उसका नामकरण 'सवर्ण'सूचक उपनाम से होता है जबकि बच्चा जवाब नहीं दे पाता है तो 'दलित पहचान'वाले उपनाम के साथ नामकरण होता है। (लक्ष्मी पटेल, भास्कर -अहमदाबाद , 21 मार्च 2014 ) गुजरात में नहर का पानी नहीं मिलने से परेशान दलितों ने अपनी आवाजें बुलन्द की है। नरेन्द्र मोदी की सामाजिक समरसता के तमाम दावों को ध्वस्त करते हुये विगत वर्षों मे तकरीन 5 हजार गुजराती दलितों ने सामूहिक धर्मान्तरण करके गुजरात में उनके साथ हो रहे भेदभाव को कड़ी चुनौती दी है।

दरअसल संघ हो अथवा नरेन्द्र मोदी उनका दलित चिन्तन जाति को 'वैशिष्ट्य'मानने से प्रारम्भ होता है और उसी पर समाप्त हो जाता है, संघ ने जाति का कभी विरोध नहीं किया मगर जातिगत आरक्षण का सदा ही विरोध किया है, उसे तो अनुसूचित जातियों को दलित कहे जाने से भी आपत्ति है वह उन्हें 'दलित'नहीं 'वंचित'कहना पसंद करते हैं, क्योंकि दलित प्रतिरोध और चेतना का शब्द है जो कि इस दलन के लिये गैर दलितों को जिम्मेदार ठहरा कर व्यवस्था को बदलने की मांग करता है, जबकि 'वंचित'सिर्फ 'वंचना'के पश्चात 'याचना'करने के लिये प्रेरित करता हुआ शब्द है, आज भले ही दलितों के सत्तापिपासु नेता नरेन्द्र मोदी के चरणों में लौट रहे हो मगर यह तय करना है कि इस देश के दलित अम्बेडकर के प्रतिरोधी दलित होना पसंद करते हैं या कि नरेन्द्र मोदी के याचक वंचित, जिस दलित समाज ने गांधी के हरिजन होने को ठोकर मारी है, वह एक बार फिर मोदी का वंचित बनने को तैयार होता है तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ भी नहीं हो सकता है। अभी तो सिर्फ इतना सा तय है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी विचारधारा कभी भी न तो दलितों की हितैषी रही है और न ही रहने वाली है। ।

 

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भँवर मेघवंशी, लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नों पर राजस्थान में सक्रिय हैं तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं।

आओ ढोएं हिन्दुत्व की पालकी

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आओ ढोएं हिन्दुत्व की पालकी

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HASTAKSHEP

सुभाष गाताडे

अस्सी के दशक में उत्तर भारत के कुछ शहरों में एक पोस्टर देखने को मिलता था। रामविलास पासवान के तस्वीर वाले उस पोस्टर के नीचे  एक नारा लिखा रहता था 'मैं उस घर में दिया जलाने चला हूँजिस घर में अंधेरा है।' उस वक्त़ यह गुमान किसे हो सकता था कि अपनी राजनीतिक यात्रा में वह दो दफा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भारतीय जनता पार्टी का चिराग़ रौशन करने पहुंच जायेंगे। 2002 में गुजरात जनसंहार को लेकर मंत्रिमंडल से दिए अपने इस्तीफे की 'गलति'को ठीक बारह साल बाद ठीक करेंगे, और जिस शख्स द्वारा 'राजधर्म'के निर्वाहन न करने के चलते हजारों निरपराधों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, उसी शख्स को मुल्क की बागडोर सम्भालने के लिये चल रही मुहिम में जुट जायेंगे।

मालूम हो कि अपने आप को दलितों के अग्रणी के तौर पर प्रस्तुत करनेवाले नेताओं की कतार में रामबिलास पासवान अकेले नहीं हैं, जिन्होंने भाजपा का हाथ थामने का निर्णय लिया है।

रामराज नाम से 'इंडियन रेवेन्यू सर्विस'में अपनी पारी शुरू करने वाले और बाद में हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म का स्वीकार करने वाले उदित राज, जिन्होंने इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में संघ-भाजपा की मुखालिफत में कोई कसर नहीं छोड़ी, वह भी हाल में भाजपा में शामिल हुये हैं। पिछले साल महाराष्ट्र के अम्बेडकरी आन्दोलन के अग्रणी नेता रिपब्लिकन पार्टी के रामदास आठवले भी भाजपा-शिवसेना गठजोड़ से जुड़ गये हैं। भाजपा से जुड़ने के सभी के अपने अपने तर्क हैं। पासवान अगर राजद द्वारा 'अपमानित'किए जाने की दुहाई देते हुये भाजपा के साथ जुड़े हैं तो उदित राज मायावती की 'जाटववादी'नीति को बेपर्द करने के लियेहिन्दुत्व का दामन थामे हैं, उधर रामदास आठवले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से खफा होकर भाजपा-शिवसेना के महागठबन्धन का हिस्सा बने हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस कदम से इन नेताओं को सीटों के रूप में कुछ फायदा अवश्य होगा। पासवान अपने परिवार के जिन सभी सदस्यों को टिकट दिलवाना चाहते हैं, वह मिल गया, वर्ष 2009 के चुनावों में जो उनकी दुर्गत हुयी थी तथा वह खुद भी हार गये थे, वह नहीं होगा; उदित राज सूबा सांसदी का चुनाव लड़ ही रहे हैं और अपने चन्द करीबियों के लिये कुछ जुगाड़ कर लेंगे या आठवले भी चन्द टुकड़ा सीटें पा ही लेंगे। यह तीनों नेता अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकेंगे, भले ही इसे हासिल करने के लिये सिद्धान्तों को तिलांजलि देनी पड़ी हो।

इसके बरअक्स विश्लेषकों का आकलन है कि इन नेताओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा के साथ जुड़ने से उसे एक साथ कई फायदे मिलते दिख रहे हैं।

अपने चिन्तन के मनुवादी आग्रहों और अपनी विभिन्न सक्रियताओं से भाजपा की जो वर्णवादी छवि बनती रही है, वह तोड़ने में इनसे मदद मिलेगी; दूसरे, 2002 के दंगों के बाद यह तीनों नेता भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीतिकी लगातार मुखालिफत करते रहे हैं, ऐसे लोगों का इस हिन्दुत्ववादी पार्टी से जुड़ना, उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी की विवादास्पद छवि के बढ़ते साफसुथराकरण अर्थात सैनिटायजेशन में भी मदद पहुंचाता है। यह अकारण नहीं कि कुछ ने संघ-भाजपा के इस कदम को उसकी सोशल इंजीनियरिंग का एक नया मास्टरस्ट्रोक कहा है। एक अख़बार में प्रकाशित एक आलेख 'नरेन्द्र मोदी की आर्मी'में – जिसने दलित वोटों का प्रतिशत भी दिया है, जिसका फायदा भाजपा के प्रत्याशियों को मिलेगा।

मालूम हो कि दलितों के एक हिस्से का हिन्दुत्व की एकांगी राजनीति से जुड़ना अब कोई अचरज भरी बात नहीं रह गयी है। अगर हम अम्बेडकर की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली 'बहुजन समाज पार्टी'को देखें तो क्या यह बात भूली जा सकती है कि उत्तर प्रदेश में राजसत्ता हासिल करने के लिये नब्बे के दशक में तथा इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में इसने तीन दफा भाजपा से गठजोड़ किया था।

और यह मामला महज सियासत तक सीमित नहीं है। 'झोत'जैसी अपनी चर्चित किताब- जिसका फोकस संघ की विघटनकारी राजनीति पर था- सुर्खियों में आए तथा अन्य कई किताबों के लेखक रावसाहब कसबे भी इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई की शुरूआत में शिवसेना द्वारा उन दिनों प्रचारित 'भीमशक्ति शिवशक्ति अर्थात राष्ट्रशक्ति'के नारे के सम्मोहन में आते दिखे थे। मराठी में लिखी अपनी कविताओं के चलते बड़े हिस्से में शोहरत हासिल किए नामदेव ढसाल, जिनके गुजर जाने पर पिछले दिनों अंग्रेजी की अग्रणी पत्रिकाओं तक ने श्रद्धांजलि अर्पित की थी, वह लम्बे समय तक शिवसेना के साथ सक्रिय रहे थे। विडम्बना यही थी कि वह सूबा महाराष्ट्र में अम्बेडकरी आन्दोलन में रैडिकल स्वर को जुबां देने के लिये, 'दलित पैंथर'के नाम से एक राजनीतिक संगठन की स्थापना करने के लिये चर्चित रहे थे, जिसने सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शिवसेना के गुण्डों से मुकाबला किया था।

रेखांकित करनेलायक बात यही है कि हिन्दुत्व की राजनीति के साथ दलित अग्रणियों के बढ़ते सम्मोहन का मसला महज नेतृत्व तक सीमित नहीं है। समूचे दलित आन्दोलन में ऊपर से नीचे तक एक मुखर हिस्से में- यहाँ तक कि जमीनी स्तर पर के कार्यकर्ताओं तक- इसके प्रति एक नया सम्मोहन दिख रहा है। विदित है कि यह सिलसिला भले पहले से मौजूद रहा हो, मगर 2002 में गुजरात जनसंहार के दिनों में इसकी अधिक चर्चा सुनने को मिली थी। गुजरात के साम्प्रदायिक दावानल से विचलित करने वाला यही तथ्य सामने आया था कि दंगे में दलितों और आदिवासियों की सहभागिता का। स्वतंत्र प्रेक्षकों, शोधकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ता सभी इस बात पर सहमत थे कि उनकी सहभागिता अभूतपूर्व थी। दलितों-आदिवासियों के हिन्दुत्वकरण की इस परिघटना को स्वीकारते हुये हमें इस तथ्य को भी स्वीकारना पड़ेगा इन समुदायों में ऐसे तमाम लोग भी थे जिन्होंने अपने आप को खतरे में डालते हुये मुसलमानों की हिमायत एवं रक्षा की थी।

अब वे दिन बीत गये जब अम्बेडकर ने खुलेआम ऐलान किया था कि 'वह भले ही हिन्दू होकर पैदा हुये हों,लेकिन वह हिन्दू के तौर पर नहीं मरेंगे(1937) और उसी समझदारी के तहत अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म का स्वीकार किया; आज अपने आप को उनके अनुयायी कहलाने वालों के एक हिस्से को इस बात से कत्तई गुरेज नहीं कि वे सावरकर और गोलवलकर जैसों के विचारों पर आधारित हिन्दू धर्म की एक खास व्याख्या के साथ नाता जोड़ रहे हैं।

निश्चित ही अपने आप को अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी के तौर पर पेश करने वाले ये सभी अम्बेडकर की इस भविष्यवाणी को याद करना नहीं चाहते होंगे जब उन्होंने कहा था कि 'हिन्दू राज अगर हक़ीकत बनता है तो निःस्सन्देह वह इस देश के लिये सबसे बड़ी तबाही का कारण होगा। हिन्दू चाहें जो भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्राता, समता और भाईचारे के लिये खतरा है। इसी वजह से वह जनतंत्र से असंगत बैठता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।'

संघ-भाजपा के प्रति उमड़े इन सभी में उमड़े 'प्रेम का खुमार'और इनके द्वारा भाजपा का दामन थामने का यह सिलसिला निश्चित ही इस बात को विलुप्त नहीं कर सकता कि भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मनुस्मृति के प्रति अपने सम्मोहन से कभी भी तौबा नहीं की है। वही मनुस्मृति जिसने शूद्रों अतिशूद्रों एवं स्त्रियों को सैंकड़ों सालों तक तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित रखा था। याद रहे कि स्वतंत्र भारत के लिये संविधाननिर्माण की प्रक्रिया जिन दिनों जोरों पर थी, उन दिनों संघ परिवार की तरफ से नये संविधान निर्माण के बजाय हिन्दुओं के इस प्राचीन ग्रंथ 'मनुस्मृति'से ही काम चलाने की बात की थी। अपने मुखपत्र 'आर्गेनायजर', (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि

 'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो 'मनुस्मृति'में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिये उसका कोई अर्थ नहीं है।''

हालांकि इधर बीच गंगा जमुना से काफी सारा पानी गुजर चुका है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मनुस्मृति को लेकर अपने रुख में हिन्दुत्व ब्रिगेड की तरफ से कोई पुनर्विचार हो रहा है। फरक महज इतना ही आया है किभारतीय संविधान की उनकी आलोचना- जिसने डा. अम्बेडकर के शब्दों में कहा जाये तो 'मनु के दिनों को खतम किया है'– अधिक संश्लिष्ट हुयी है। हालांकि कई बार ऐसे मौके भी आते हैं जब यह आलोचना बहुत दबी नही रह पाती और बातें खुल कर सामने आती हैं। विश्व हिन्दू परिषद के नेता गिरिराज किशोर, जो संघ के प्रचारक रह चुके हैं, उनका अक्तूबर 2002 का वक्तव्य बहुत विवादास्पद हुआ था, जिसमें उन्होंने एक मरी हुयी गाय की चमड़ी उतारने के 'अपराध'में झज्जर में भीड़ द्वारा की गयी पांच दलितों की हत्या को यह कह कर औचित्य प्रदान किया था कि

'हमारे पुराणों में गाय का जीवन मनुष्य से अधिक मूल्यवान समझा जाता है।'

मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल में, उन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नेत्री उमा भारती ने गोहत्या के खिलाफ अध्यादेश जारी करते हुये मनुस्मृति की भी हिमायत की थी। (जनवरी 2005) वक्तव्य में कहा गया था कि 'मनुस्मृति में गाय के हत्यारे को नरभक्षी कहा गया है और उसके लिये सख्त सज़ा का प्रावधान है।'चर्चित राजनीतिविद शमसुल इस्लाम ने इस सिलसिले में लिखा था कि 'आज़ाद भारत के कानूनी इतिहास में यह पहला मौका था जब एक कानून को इस आधार पर उचित ठहराया गया था कि वह मनुस्मृति के अनुकूल है।' ('द रिटर्न आफ मनु, द मिल्ली गैजेट, 16-29 फरवरी 2005)। संघ-भाजपा के मनुस्मृति सम्मोहन का एक प्रमाण जयपुर के उच्च अदालत के प्रांगण में भाजपा के नेता भैरोंसिंह शेखावत के मुख्यमंत्रीत्व काल में नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में बिठायी गयी मनु की मूर्ति के रूप में मौजूद है। इस तरह देखें तो जयपुर हिन्दोस्तां का एकमात्रा शहर है जहां मनुमहाराज हाईकोर्ट के प्रांगण में विराजमान हैं और संविधाननिर्माता अम्बेडकर की मूर्ति प्रांगण के बाहर कहीं कोने में स्थित है।

कोई यह कह सकता है कि यह तमाम विवादास्पद वक्तव्य, लेख या घटनाएं अब अतीत की चीजें बन गयी हैं, और हकीकत में संघ-भाजपा के दलितों के प्रति नज़रिये में, व्यवहार में जमीन आसमान का अन्तर आया है।

इसकी पड़ताल हम मोदी के नेतृत्व में गढ़े गये 'गुजरात मॉडल'को देख कर कर सकते हैं, जहां सामाजिक जीवन में – शहरों से लेकर गांवों तक – अस्पृश्यता आज भी बड़े पैमाने पर व्याप्त है, जबकि सरकारी स्तर पर इससे लगातार इन्कार किया जाता रहता है। कुछ समय पहले 'नवसर्जन'नामक संस्था द्वारा गुजरात के लगभग 1,600 गांवों में अस्पृश्यता की मौजूदगी को लेकर किया गया अध्ययन जिसका प्रकाशन 'अण्डरस्टैण्डिंग अनटचेबिलिटी'के तौर पर सामने आया है, किसी की भी आंखें खोल सकता है।

मन्दिर प्रवेश से लेकर साझे जलाशयों के इस्तेमाल आदि तमाम बिन्दुओं को लेकर दलितों एवं वर्ण जातियों के बीच अन्तर्क्रिया की स्थिति को नापते हुये यह रिपोर्ट इस विचलित करनेवाले तथ्य को उजागर करती है कि सर्वेक्षण किए गये गांवों में से 98 फीसदी गांवों में उन्हें अस्पृश्यता देखने को मिली है। गौरतलब था कि 2009 में प्रकाशित नवसर्जन की उपरोक्त रिपोर्ट पर मुख्यधारा की मीडिया में काफी चर्चा हुयी और विश्लेषकों ने स्पंदित/वायब्रेन्ट कहे जाने वाले गुजरात की असलियत पर सवाल उठाए।

इस बात के मद्देनज़र कि यह रिपोर्ट 'समरस'के तौर पर पेश किए जाने वाले गुजरात की छवि को पंक्चर करती दिख रही थी, घबड़ायी मोदी सरकार ने आनन-फानन में सीईपीटी विश्वविद्यालय के विद्वानों को 'नवसर्जन'की उपरोक्त रिपोर्ट की पड़ताल एवं समीक्षा करने के लिये कहा। दरअसल सरकार खुद को क्लीन चिट देने के लिये इतनी बदहवासी थी कि उसने इस प्रायोजित अध्ययन के अलावा एक दूसरा तरीका भी अपनाया। उसने सामाजिक न्याय मंत्री फकीरभाई वाघेला की अध्यक्षता में विभिन्न सम्बन्धित विभागों के सचिवों की एक टीम का गठन किया जिसे यह जिम्मा सौंपा गया कि वह रिपोर्ट के निष्कर्षों को खारिज कर दे। इस उच्चस्तरीय कमेटी ने अपने मातहत अधिकारियों को आदेश दिया कि वह गांव के अनुसूचित जाति के लोगों से यह शपथपत्रा लिखवा ले कि उनके गांव में 'अस्पृश्यता'नहीं है।

प्रख्यात समाजशास्त्री घनश्याम शाह सीईपीटी की रिपोर्ट की समीक्षा करते हुये लिखते हैं (डब्लू डब्लू डब्लू काउंटरव्यू डाट आर्ग, 13 नवम्बर 2013) और कहते हैं कि कितने ''हल्के''तरीके से सरकार ने भेदभाव की समस्या की पड़ताल की है। वह बताते हैं कि ''न केवल विद्धानजन बल्कि सरकार भी यही सोचती है कि अगर उत्सव में या गांव की दावत में दलितों को अपने बरतन लाने पड़ते हैं या सबसे आखिर में खाने के लिये कहा जाता है, तो इसमें कुछ गडबड़ नहीं है।'

एक अन्य विचलित करनेवाला तथ्य है कि सरकारी रिपोर्ट वर्णाश्रम में सबसे निचले पायदान पर समझे जानेवाले वाल्मिकियों की स्थिति पर सिर्फ मौन ही नहीं रहती बल्कि उनका उल्लेख तक नहीं करती। उनका समूचा फोकस बुनकरों पर है- जो सामाजिक तौर पर अधिक 'स्वीकार्य'कहे जानेवाला दलित समुदाय है। निश्चित ही वाल्मिकियों का अनुल्लेख कोई मानवीय भूल नहीं कहा जा सकता। उनके विशाल हिस्से का आज भी नारकीय कहे जानेवाले कामों में लिप्त रहना, जहां उन्हें आए दिन अपमान एवं कभी कभी 'दुर्घटनाओं'में मौत का सामना करना पड़ता है, अब ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। वैसे यह कोई पहली दफा नहीं है कि सरकार ने उनके वजूद से ही इन्कार किया हो। तथ्य बताते हैं कि वर्ष 2003 में गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह शपथपत्र दाखिल किया था कि उनके राज्य में हाथ से मल उठाने की प्रथा नहीं है, जबकि कई अन्य रिपोर्टों एव इस मसले पर तैयार डाक्युमेंटरीज में उसकी मौजूदगी को दिखाया गया है। वर्ष 2007 में जब टाटा इन्स्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज ने अपने अध्ययन में उजागर किया कि राज्य में 12,000 लोग हाथ से मल उठाते हैं,, तब भी राज्य का यही रूख था।

यह भी मुमकिन है कि जनाब नरेन्द्र मोदी चूंकि इस अमानवीय पेशे को 'अध्यात्मिक अनुभव'की श्रेणी में रखते आए हैं, इस वजह से भी सरकार खामोश रही हो। याद रहे कि वर्ष 2007 में जनाब मोदी की एक किताब 'कर्मयोग'का प्रकाशन हुआ था। आई ए एस अधिकारियों के चिन्तन शिविरों में जनाब मोदी द्वारा दिए गये व्याख्यानों का संकलन इसमें किया गया था,  जिसमें उन्होंने दूसरों का मल ढोने, एवं पाखाना साफ करने के वाल्मिकी समुदाय के 'पेशे'को ''आध्यात्मिकता के अनुभव''के तौर पर सम्बोधित किया था। (http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/true-lies/entry/modi-s-spiritual-potion-to-woo-karmayogis )

किताब में मोदी लिखते हैं:

''मैं नहीं मानता कि वे (सफाई कामगार) इस काम को महज जीवनयापन के लिये कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता ..किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मीकि समुदाय का काम है कि समूचे समाज की खुशी के लिये काम करना, इस काम को उन्हें भगवान ने सौंपा है ; और सफाई का यह काम आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए। इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं रहा होगा। ''(पेज 48-49)

गौरतलब है कि जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम की अमानवीयता को औचित्य प्रदान करनेवाला उपरोक्त संविधानद्रोही वक्तव्य टाईम्स आफ इण्डिया में नवम्बर मध्य 2007 में प्रकाशित भी हुआ था। यूं तो गुजरात में इस वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए जिसमें मैला ढोने को ''आध्यात्मिक अनुभव''की संज्ञा दी गयी थी। उन्होंने जगह जगह मोदी के पुतलों का दहन किया। अपनी वर्णमानसिकता के उजागर होने के खतरे को देखते हुये जनाब मोदी ने इस किताब की पांच हजार कापियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली।

वह 1956 की बात है जब आगरा की सभा में डा अम्बेडकर ने वहां एकत्रित दलित समुदाय के बीच एक अहम बात कही थी। अपने आंखों में आ रहे आंसूओं को रोकने की कोशिश करते हुये उन्होंने कहा कि 'मेरे पढ़े लिखे लोगों ने मेरे साथ धोखा किया।'सत्ता एवं सम्पत्ति की हवस में लिप्त और उसके लिये तमाम किस्म के मौकापरस्त गठबन्धन करने पर आमादा उनके तमाम मानसपुत्रों या मानसपुत्रियों को देख कर – जो 'हमारे वक्त़ के नीरो'की पालकी उठाने के लिये बेताब है – यही लगता है कि उनकी भविष्यवाणी कितनी सही थी।

About The Author

Subhash gatade is a well known journalist, left-wing thinker and human rights activist. He has been writing for the popular media and a variety of journals and websites on issues of history and politics, human right violations and state repression, communalism and caste, violence against dalits and minorities, religious sectarianism and neo-liberalism, and a host of other issues that analyse and hold a mirror to South asian society in the past three decades. He is an important chronicler of our times, whose writings are as much a comment on the mainstream media in this region as on the issues he writes about. Subhash Gatade is very well known despite having been published very little in the mainstream media, and is highly respected by scholars and social activists. He writes in both English and Hindi, which makes his role as public intellectual very significant. He edits Sandhan, a Hindi journal, and is author of Pahad Se Uncha Admi, a book on Dasrath Majhi for children, and Nathuram Godse's Heirs: The Menace of Terrorism in India.

No holy cow may save Indian sports.Judicial act spares scammy IPL.

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No holy cow may save Indian sports.Judicial act spares scammy  IPL.


Palash Biswas

Long live IPL. Lalit Modi gone.IPL continued.Srini replaced by interim BCCI President Sunil Gavaskar only to manage the scammy skinny IPL. Indian politics is inflicted with corruption. But Indian Sports seem to be overloaded with corruption.


So, here you are!Without giving any opinion on the merits of the allegations against BCCI president N. Srinivasan, the Supreme Court on Friday appointed the former India skipper, Sunil Gavaskar, as the interim president of the board to discharge the functions of the Indian Premier League 2014 until its final order on the IPL spot-fixing and betting scandal.



Gavaskar is chosen only to sustain the betting vicious cycle and the IPL Casino.A Bench of Justices A.K. Patnaik and Ibrahim Kalifulla, however, permitted both Chennai Super Kings (CSK) and Rajasthan Royals to participate in this year's IPL that commences on April 16.

"We make it clear that we have not passed any order preventing any player or any team from participating in the IPL tournament 2014."

"Considering the fact that Mr. Sunil Gavaskar was a cricket player of great repute and eminence, a captain of the Indian cricket team and has wide experience in cricket-related activities, we appoint him president of the BCCI in relation to IPL 2014," it observed.

The court directed that other responsibilities of the board be performed by BCCI vice-president Shivlal Yadav.

The Bench said, "We also direct that till we deliver the judgment, none of the employees of India Cements Limited or its associate companies [except cricket players or commentators] will perform any of the duties assigned to them by the BCCI."

Appearing for the BCCI, senior counsel Aryama Sundaram took exception to the allegations levelled by senior counsel Harish Salve, appearing for the Cricket Association of Bihar, against India captain M.S. Dhoni.

Mr. Salve had argued that Mr. Dhoni gave a false statement that Gurunath Meiyappan, Mr. Srinivasan's son-in-law , was only a cricket enthusiast.



Free Markets sports policy made a scapegoat of a beautiful batsman named Md.Azaharuddin.


Now,it seems to be the turn of MS Dhoni who happens to be the best match finisher.


Meanwhile a set of young brilliant cricket players led by speedster Shreeshant have been sacrificed saving the unholy business.


No doubt, Sunil Gavaskar is a living legend.But he is now reduced to a marketing icon only deeply engaged in sports business.


How may Gavaskar and Yadav clean the rot within unless the system survives to inflict sports?


Saurabh Ganguli did an excellent job to lead Indian cricket out of match fixing scandal.We were relieved.


What happened next?For whose cause Ganguli was dethroned and who played the game for the grand take over?


Hancy cronje was killed.South African Cricket survived.


What happened to Indian Cricket?


What happened to Indian sports after all?


IPL is not all about cricket.Rather it is the casino economics we opted for us.


IPL has inflicted Hockey as well as Tennis.


We were not sure this morning whether MS Dhoni would take field today.Now,we do celebrate  entry into T20 world cup semi finals.Led by Dhoni,India became the first team to qualify for the semifinals of the ICC World Twenty20 after routing hosts Bangladesh by eight wickets in a thoroughly one-sided Group II match.


Had Dhoni been banned, Virat would have been Indian Captain since today.


Then we had to begin afresh to wait for Kohli being inflicted.


Our players belong to common people whom sports elevated to iconic status.Then,they fall in the trap.Hijacked for business interest and remote controlled by people like Shrini.


Believe me,as it happened time and again,nothing is going to change.


Lalit Modi smiles all the way.


Kalmadi has earned enough and he lost nothing losing Loksabha ticket from a losing party.


Monopolistic regime in Indian sports may not end anyway.No one is responsible to anwer the masses and the Nation.


What price did shashi Tharoor paid at all?


Shrini would return with glittering honours and the players have to pay.


Are we ready to lose Anil Kumble or Sachin Tendulkar or Rahul Dravid or Sania Mirza or PT Usha or Rathor and Sinha, Anand,Bhupati and Liander who carried national flag all these years just for the sake of some or other IPL.


Why IPL should not be scrapped?

Why India Incs should take over Indian sports just because they pay the expenses?


IPL SPOT-FIXING SCAMRSS icon

Gavaskar to run IPL 2014


CSK, RR can participate; Shivlal Yadav to handle other BCCI matters

Pages: «  1  2  3  4  5    › »BCCI president N. Srinivasan

NEW DELHI, March 25, 2014

SC asks Srinivasan to step down as BCCI chief

Shocked at the revelations in the report submitted by the Justice Mukul Mudgal panel in a 'sealed cover', the Supreme Court on Tuesday asked Board of Control for Cricket in India (BCCI) president... »

CHENNAI, February 12, 2014

IPL scam: IPS officer may be chargesheeted

The Crime Branch CID of the Tamil Nadu police may chargesheet a senior police official of the Tamil Nadu cadre, accusing him of forcing a couple of bookies involved in the IPL betting scam to pay... »Gurunath Meiyappan

NEW DELHI, February 11, 2014

Meiyappan was all over CSK, says panel

Once allegations started surfacing against Gurunath Meiyappan, son-in-law of BCCI president N. Srinivasan, attempts were made to erase proof of his links with Chennai Super Kings, the Supreme Cour... »Gurunath Meiyappan, son-in-law of BCCI president N. Srinivasan.

MUMBAI, November 6, 2013

IPL betting case: police present slides before panel

Board of Control for Cricket in India chief N. Srinivasan's son-in-law Gurunath Meiyappan was instrumental in passing on vital information about Chennai Super Kings to bookies through actor Vindoo... »Former CSK team principal Gurunath Meiyappan. File photo

NEW DELHI, October 24, 2013

SC-appointed probe panel invites information on Meiyappan

The committee probing the Indian Premier League (IPL) spot-fixing episode sought information from the public regarding allegations of betting against Gurunath Meiyappan and the other accused... »Former CSK team principal Gurunath Meiyappan. File photo

NEW DELHI, October 12, 2013

IPL probe: SC-appointed panel to question Meiyappan

The three-member committee appointed by the Supreme Court to probe the IPL spot-fixing scandal will call Chennai Super Kings Team Principal and BCCI president N. Srinivasan's son-in-law Gurunath M... »Pakistani cricket umpire Asad Rauf (right) arrives with his lawyer Syed Ali Zafar to address a news conference in Lahore, Pakistan, on Friday. Zafar says Rauf will not be appearing in Indian court over spot-fixing charges as he has no confidence in Mumbai police, who framed charges against the Pakistani umpire. Photo: AP

KARACHI, September 28, 2013

IPL scam probe: Rauf not to travel to Mumbai

Disgraced Pakistan umpire, Asad Rauf has ruled out travelling to Mumbai for any investigation into the IPL spot-fixing scandal in which he has been chargesheeted by the Mumbai police."We hav...»Chennai Super Kings' former Team Principal Gurunath Meiyappan arrives at Esplanade court in Mumbai on Saturday in connection with IPL match-fixing case.

MUMBAI, September 21, 2013

Meiyappan, Rauf, Vindu Dara Singh chargesheeted

Charges against Meiyappan include betting, gambling and conspiracy »S. Sreesanth has claimed that his confession to police in the spot-fixing saga was under duress. File photo: PTI

NEW DELHI, September 16, 2013

My confession to police was under duress: Sreesanth

Banned fast bowler S. Sreesanth claimed innocence in a letter to the BCCI's disciplinary Committee and said his confession to Police in the spot-fixing saga was under duress. "Under the... »S. Sreesanth has claimed that his confession to police in the spot-fixing saga was under duress. File photo: PTI

NEW DELHI, September 14, 2013

Sreesanth optimistic of playing again

S. Sreesanth saw the life-ban coming but put up a brave front when facing the media soon after he presented his case to the members of the Board's Disciplinary Committee. Obliging mediap... »Combo picture of Sreesanth, Chavan and Chandila. File photo

NEW DELHI, September 13, 2013

BCCI bans Sreesanth, Chavan for life

Amit Singh and Siddharth Trivedi get lesser sentences; reprieve for Harmeet Singh »

NEW DELHI, September 2, 2013

IPL spot-fixing: Court defers order on bail pleas

A Delhi court on Monday fixed September 5 for its order on the bail pleas of nine accused, including suspended cricketer Ajit Chandila, arrested in connection with the IPL spot-fixing scandal.... »File photo of Saket district court in New Delhi, where the IPL spot fixing case is being tried.

NEW DELHI, August 21, 2013

Court issues NBWs against 3 Dawood aides in IPL spot-fixing case

A Delhi court on Wednesday issued 'open' non-bailable warrants (NBWs) against three close aides of underworld don Dawood Ibrahim in connection with the IPL spot fixing scandal after the police sai... »

NEW DELHI, August 5, 2013

Another bookie arrested in IPL case

Making the 30th arrest in the Indian Premier League spot-fixing case, the Delhi Police Special Cell arrested alleged bookie Chandra Prakash Jain alias "Jupiter" on Sunday. It is alleged that Jupit... »

NEW DELHI, July 30, 2013

I am attending the Working Committee Meeting: Srinivasan

A defiant BCCI President N.Srinivasan on Tuesday made it clear that he will attend the BCCI's Working Committee meeting here on August 2 despite the Bombay High Court ruling that the constitution... »

MUMBAI, July 29, 2013

We haven't cleared Meiyappan: police

"We have not finished with our probe yet and are looking for custody of Pakistani umpire Asad Rauf" »

NEW DELHI, July 24, 2013

IPL scam: Supreme Court rejects PIL plea for CBI probe

The Supreme Court on Tuesday dismissed a public interest writ petition seeking a CBI probe into the IPL spot fixing scam involving bookies, players and others. A Bench of Justices B.S. Ch...»

NEW DELHI, July 7, 2013

IAF chief to visit South Korea

Air Chief Marshal N.A.K. Browne, Chairman Chiefs of Staff Committee and Chief of the Air Staff, is leading a composite delegation comprising officers from the three services, on a four day visit t... » Rajasthan Royals player Harmeet Singh. Photo: R.V. Moorthy

NEW DELHI, July 5, 2013

Bookies could not rope in Shane Watson, says Harmeet

The meeting was held a few days after Harmeet was signed. »Flannagan is expected to highlight the threats and challenges, and give recommendations to ICC members on how to curb the dangers of corruption in cricket.

LONDON, June 29, 2013

ACSU for stronger anti-corruption laws

These concerns come in the wake of various scandals relating to spot-fixing. »

NEW DELHI, March 7, 2014

BCCI contemplates action against Chennai Super Kings as per law

The Board of Control for Cricket in India has informed the Supreme Court that the operational rules of the IPL would come into play against Chennai Super Kings for having Gurunath Meiyappan, who in... »

NEW DELHI, February 11, 2014

'Law needed to deal with corruption in sports'

The Supreme Court-appointed panel, which probed charges of betting and spot-fixing in the IPL, has recommended enactment of a substantive law to deal with corruption in sports. "The status... »Former Punjab and Haryana Chief Justice Mukul Mudgal on Monday submitted the report on IPL spot fixing scandal, involving the BCCI chief's son-in-law Gurunath Meiyappan. File photo

NEW DELHI, February 10, 2014

Meiyappan's role in betting proven, says Mudgal panel

'He was the face of CSK; Raj Kundra resorted to betting'»

JAIPUR, November 2, 2013

Jaipur police file FIR against Srinivasan, Meiyappan

The Jaipur Police on Friday registered a First Information Report against BCCI chief N. Srinivasan and his son-in-law and Chennai Super Kings team principal Gurunath Meiyappan to investigate allega... »BCCI president N. Srinivasan. File Photo: PTI

NEW DELHI, October 16, 2013

I am very honest, was unfairly attacked: BCCI president Srinivasan

His integrity might have been questioned several times ever since the IPL spot-fixing scandal broke out but BCCI president N. Srinivasan says he is a "very honest" man, who was "unfairly attacked"... »The Bombay High Court on Thursday asked Maharashtra government to file an affidavit within three weeks detailing investigations carried out by the Mumbai Crime Branch in the case of match fixing and betting in Indian Premier League cricket matches. File photo

MUMBAI, October 10, 2013

HC tells govt. to file affidavit in match-fixing and betting case

The Bombay High Court on Thursday asked Maharashtra government to file an affidavit within three weeks detailing investigations carried out by the Mumbai Crime Branch in the case of match fixing an... »

NEW DELHI, September 24, 2013

CAB moves Supreme Court against Srinivasan

The Cricket Association of Bihar (CAB) on Monday moved the Supreme Court to restrain N. Srinivasan from contesting for BCCI president at the September 29 annual general meeting. The CAB als... »

September 19, 2013

Children aren't investment plans

The BCCI is in 'ban' mode. Ban Lalit Modi, ban S. Sreesanth and Ankeet Chavan, gag players. Difficult issues are not dealt with. For instance, no-one wants to talk about the subsidy to the J&K... »Pakistani umpire Asad Rauf

MUMBAI, September 15, 2013

Mumbai police casting net for runaway Rauf

Pakistan umpire may be named 'wanted accused'; charge sheet against Vindu, Gurunath Meiyappan likely »Ankeet Chavan... end of the career.

MUMBAI, September 14, 2013

The lure of money led to Chavan's fall

The alleged ill-gotten gains from IPL-VI have resulted in Ankeet Chavan's cricket world crumbling. A promising player with a record collection of 33 wickets and 227 runs from 10 matches, he played... »A file photo of Gurunath Meiyappan.

CHENNAI, September 10, 2013

CBCID finds nothing incriminating against Meiyappan

No material evidence to prove his direct involvement in betting »Supreme Court on Friday issued notices to the BCCI, N. Srinivasan, his company India Cements which owns IPL team Chennai Super Kings, and Rajasthan Royals on a plea challenging Bombay High court order refusing to appoint a fresh committee to probe IPL spot fixing scam. File photo

NEW DELHI, August 30, 2013

'High Court failed to consider Srinivasan's clout in influencing fresh probe'

Supreme Court issues notice to BCCI, India Cements on SLP »Rahul Dravid

NEW DELHI, August 7, 2013

Make fixing a criminal offence, Dravid says

Former Indian captain Rahul Dravid on Wednesday called for making match-fixing and spot-fixing a criminal offence since only a strong law can serve as a huge deterrent to potential fixers."M... »

July 31, 2013

Controlling the Board

While deeply disturbing, the betting and spot-fixing scandal the Indian Premier League (IPL) has been embroiled in actually afforded the Board of Control for Cricket in India the opportunity to cl... »

NEW DELHI, July 30, 2013

Wait for police probe to end in spot-fixing case: Lele

Applauding the Bombay High Court's order, former BCCI secretary Jaywant Lele said on Tuesday that the Indian Cricket Board's internal enquiry panel was an "eyewash". The Bombay High Court... »Jagmohan Dalmiya:

KOLKATA, July 28, 2013

BCCI forwards spot-fixing report to IPL governing council

The Board of Control for Cricket in India's working committee on Sunday received the report of the two-member commission probing the IPL spot-fixing allegations and forwarded it to the IPL governi... »Hansie Cronje. File photo

NEW DELHI, July 15, 2013

After 13 years, charge sheet to be filed in match-fixing case

"It is the insidious effect of your actions on professional cricket and the followers of it which make the offences so serious. The image and integrity of what was once a game, but is now a busine... » Bookie Shobhan Mehta.

MUMBAI, July 5, 2013

Mumbai police arrest another bookie

Shobhan Mehta, was arrested from a casino in Goa. »S. Sreesanth

KOCHI, July 4, 2013

Bookie recants, stumps cops

Indian pacer S. Sreesanth fighting charges of spot fixing in the Indian Premier League received a shot in the arm with one of the alleged bookies retracting his confessional statement against the c... »

NEW DELHI, June 28, 2013

IPL fixing: One more held

Police say Jeetu supplied money to book


किस सर्वनाशी, आत्मध्वंसी गृहयुद्ध के कगार पर हमारा यह मंत्रोच्चार ओ3म मोद्याय सर्वम् स्वाहा? भूत धरम का नाच रहा है कायम हिन्दू राज करोगे? सारे उल्टे काज करोगे?

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किस सर्वनाशी, आत्मध्वंसी गृहयुद्ध के कगार पर हमारा यह मंत्रोच्चार ओ3म मोद्याय सर्वम् स्वाहा?

भूत धरम का नाच रहा है

कायम हिन्दू राज करोगे?

सारे उल्टे काज करोगे?

पलाश विश्वास

मामला हिंदुत्व का अब नहीं है।हिंदुत्व की लड़ाई है ही नहीं।सही मायने में मामला अब अमेरिकापरस्ती का भी नहीं है।

मामला है कारपोरेट साम्राज्यवादी कारपोरेट एकाधिकारी वर्णवर्चस्वी जायनी युद्धक अमेरिकापरस्ती का या सर्वभूताय मोदी और उसकी तीखी प्रतिक्रिया में हो रही भयंकर ध्रूवीकरण का,जिससे लोकतंत्र और लोकगणराज्य के साथ ही जिस हिंदुत्व के नाम यह लड़ाई लड़ी जा रही है,उसके कारपोरेट विध्वंसक कायाकल्प का।


नमोमुखे समस्त असम्मतों को भारतविरोधी राष्ट्रद्रोही फतवा अब मोदियाये अस्मिता सर्वस्व सर्वस्वहारा भारतीयों का भाषाविज्ञान और सौंदर्यशास्त्र है।उनके अलंकार और छंदबद्ध घृणा अभियान और उसी तर्ज पर अहिंदू तोपंदाजी इस देश की एकता और अखंडता के लिए अभूत पूर्व संकट है और न आपके पास कोई इंदिरा हैं और न अटल बिहारी वाजपेयी,जो इस संकटमध्ये देश को नेतृत्व दें।


यक्षप्रश्न यह है कि निर्विकल्प इस महाभारती जनसंहारी राजसूयी जनादेशप्रतिरोधे क्या माओप्रभावित सलवा जुड़ुम अचलों की तरह मतदाताओ के सामने नोटा के अलावा कोई विकल्प है या नहीं।


हम किन्हें चुनने जा रहे हैं ?


नमोमयभारत के लिए नमोपा जिस तेजी से सर्वभूतेषु मोदी और हर हर मोदी का जाप कर रही है और उसके जवाब में जो अल्लाहो अकबर की प्रतिध्वनियां गूंज रही हैं,ये हालात इक्कीसवीं सदी से हमें मध्ययुग के अंधकारी ब्लैकहोल में स्थानांतरित करने जा रहे हैं।अब कयामत कोई बाकी नहीं है।


हम भाजपा के लोकतांत्रिक प्रक्रिया मार्फत सत्ता में आने के विरुद्ध नहीं हैं और न हम असहमत होने के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित करने के पक्ष में हैं।हिंदुत्व की विचारधारा भी बाकी विचारधाराओं की तरह इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहेगी,इससे भी इंकार नहीं है।


लेकिन यह कैसी हिंदुत्व सेना है जो हिंदुत्व,भाजपा और संघ परिवार के साथ भारत राष्ट्र को ही यज्ञअधीश्वर विष्णुपरिवर्ते मोद्याय ओ3म स्वाहा कर रहा है?


इस सनातन श्राद्धकर्म से किसकी आत्मा की प्रेतमुक्ति संभव है,हम नही जानते।


नमूना देख लीजिये।


'या मोदी सर्वभूतेषु, राष्ट्ररूपेण संस्थित:, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:'


इस मंत्रजाप से महिषासुर मर्दिनी मिथक के असली जनसंहारी तात्पर्य का खुलासा भी हो जाता है।


चरित्र से नस्ली इस मंत्र के उच्चारण से नस्ली वर्चस्व की धारावाहिकता की शपथ ले रही है नमोवाहिनी,जिसके तार सीधे उस अमेरिकाविरोधी जायनी नस्ली लंपटक्रोनी वित्तीयपंजी के कारपोरेट युद्धक साम्राज्यवाद से जुड़ते हैं और जो समूची एशिया ही नहीं,बाकी दुनिया को भी परमाणु विध्वंस की कगार तक पहुंचा देते हैं।


इसके खुलासे के लिए तनिक विवरण भी देना जरुरी है।इसलिए इस प्रकरण का विवरण भी यथायथ दिया जा रहा है।


अब मां दुर्गा से जुड़े श्लोक का भी मोदीकरण

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने स्तुतिगान में कार्यकर्ताओं द्वारा लगाये जा रहे 'हर-हर मोदी'के नारों का इस्तेमाल रोकने की गुजारिश के बाद अब वाराणसी में मां दुर्गा से जुड़े एक श्लोक का भी मोदीकरण कर दिया गया है। भाजपा साहित्य एवं प्रकाशन प्रकोष्ठ द्वारा जारी एक पोस्टर में मां दुर्गा की पूजा करते वक्त पढ़े जाने वाले श्लोक को वाराणसी से चुनाव लड़ रहे मोदी के माफिक बनाने की कोशिश की गयी है।


मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर में नवरात्रि के आगमन की बधाई देते हुए लिखा है ''या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररूपेण संस्थित:, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:।''विशेषज्ञों के मुताबिक मां दुर्गा के लिये पढ़े जाना वाला श्लोक ''या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थित: नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:''है, जबकि मोदी के समर्थकों द्वारा गढ़े गये श्लोक का शाब्दिक अर्थ है..''मोदी जो राष्ट्र के रूप में हर मनुष्य में निवास करते हैं। उन्हें बार-बार नमन।''


गौरतलब है कि भाजपा के प्रान्तीय अध्यक्ष लक्ष्मीकान्त बाजपेयी द्वारा पिछले साल 20 दिसम्बर को वाराणसी में आयोजित मोदी की रैली में दिया गया 'हर-हर नमो'का नारा बाद में 'हर-हर मोदी'में तब्दील हो गया था। इस पर विवाद होने के बाद मोदी ने खुद एक ट्वीट करके नेताओं और कार्यकर्ताओं से इस नारे से परहेज की गुजारिश की थी। इस बीच, भाजपा साहित्य एवं प्रकाशन प्रकोष्ठ के काशी क्षेत्र के संयोजक अशोक चौरसिया ने सफाई दी कि मां दुर्गा से जुड़े असल श्लोक से कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। दरअसल मोदी के प्रति लोगों की भावनाओं को जाहिर करने के लिये यह नया श्लोक बनाया गया है। उन्होंने कहा, ''हमारी तरफ से गुरुवार को जारी किया गया पोस्टर हमारे अपने दृष्टिकोण को दर्शाता है न कि भाजपा के। हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करेंगे और भारतीय सीमाओं की सुरक्षा करेंगे।''


जाहिर है कि वाराणसी में नरेंद्र मोदीके गुणगान में जुटे भाजपा कार्यकर्ता अपने नेता के लिए परेशानी का सबब बनते जा रहे हैं। सोमवार से शुरू हो रही चैत्र नवरात्रि से ठीक पहले बीजेपी ने देवी दुर्गा को समर्पित मंत्र में बदलाव कर मोदी के लिए नारा गढ़कर नए विवाद को हवा दे दी है। बीजेपी कार्यकर्ताओं ने दुर्गा सप्तशती के मंत्र को बदलकर 'या मोदी सर्वभूतेषु, राष्ट्ररूपेण संस्थित:, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:' गढ़ दिया है। इसका मतलब बताया जा रहा है-'मोदी, जो सभी मनुष्यों के दिलों में राष्ट्र के रूप में रहते हैं, मैं उन्हें बार-बार नमन करता हूं।' जबकि मूल मंत्र कुछ यूं है-'या देवी सर्वभूतेषु, मातृरूपेण संस्थित:, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:'। इसका मोटे तौर पर मतलब होता है-सब स्थानों पर उपस्थित देवी इस संसार की जननी हैं, मैं उनके सामने श्रद्धा से बार-बार सिर झुकाता हूं।

वाराणसी के स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ताओं ने शहर में कई जगहों पर पोस्टर चिपकाए हैं। इन पोस्टरों में मोदी की तस्वीर के साथ मोदी का गुणगान करता हुआ बदला हुआ श्लोक लिखा हुआ है। इस कदम पर बवाल होना तय माना जा रहा है। गौरतलब है कि इससे पहले मोदी समर्थकों ने 'हर हर मोदी, घर घर मोदी' के नारे लगाए थे। इस पर द्वारिका के शंकराचार्य ने आपत्ति जताई थी।



दूसरी ओर इस परिदृश्य पर भी गौर करें।
उत्तर प्रदेश में सहारनपुर संसदीय सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद की शनिवार तड़के हुई गिरफ्तारी के बाद पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सहारनपुर रैली रद्द कर दी गई है। राहुल की शनिवार को सहारनपुर, गाजियाबाद और मुरादाबाद में जनसभाएं होनी थी, लेकिन मसूद की गिरफ्तारी के बाद उनकी सहारनपुर रैली स्थगित कर दी गई है। राहुल की बाकी दोनों रैलियां तय समय पर ही होंगी।

अपने इस भाषण में मसूद ने नरेंद्र मोदी की बोटी-बोटी अलग कर देने की बात कही थी। इस मामले में उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हुई थी और इस बयान के लिए मसूद के खिलाफ कार्रवाई की मांग हो रही थी। पुलिस ने बताया कि मसूद को आज सुबह गिरफ्तार किया गया। मसूद सहारनपुर से कांग्रेस के लोकसभा चुनाव के प्रत्याशी हैं। पार्टी ने उनकी टिप्पणी से यह कहते हुए दूरी बना ली थी कि वह हिंसा को अस्वीकार करती है, चाहे वह शाब्दिक हो या कुछ और। वहीं, भाजपा ने इस टिप्पणी को भड़काउ करार देते हुए विवाद में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को घसीट लिया था।
  
सहारनपुर में एक चुनावी रैली के दौरान के वीडियो फुटेज में मसूद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते दिखाई देते हैं। इस वीडियो के वेब पर सामने आने के बाद हंगामा मच गया था। उन्होंने कहा था कि यदि नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की कोशिश करते हैं, तो हम उनकी बोटी-बोटी कर देंगे, मैं मोदी के खिलाफ लड़ूंगा। वह सोचते हैं कि उत्तर प्रदेश गुजरात है। गुजरात में केवल चार प्रतिशत मुसलमान हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में 42 प्रतिशत मुसलमान हैं।

भारत को अमेरिका बनाने की मैराथन दौड़ इस वक्त की भारतीयसंसदीय राजनीति है।कांग्रेस और भाजपा क्या,इस देश के संसदीय वामपंथी भी औद्योगीकरण और शहरीकरण के जरिये देहाती देश का कायाकल्प करना चाहते हैं।नंदीग्राम और सिंगुर इसके सबूत हैं।

इस अमेरिकापरस्त राजनीति की खासियत यह है कि अमेरिकी कारपोरेट साम्राज्यवाद का अंध अनुसरण करते हुए अमेरिकी लोकतांत्रिक परंपराओं की सिरे से अनदेखी करने में ये लोग चूकते नहीं हैं।


हमारे मित्र एचएल दुसाध दावा करते हैं कि अमेरिका महाशक्ति अकेला इसलिए बना रहा क्योंकि वहां डायवर्सिटी लागू है।यानी सबके लिए समान अवसर और संसाधनों का बंटवारा।संसाधनों के बंटवारे की बात तो किसी पूंजीवादी व्यवस्था में एकदम असंभव है और तथ्य से परे हैं।


शायद अवसरों के लिए न्याय वहां भी नहीं है।लेकिन नागरिकों की संप्रभुता के मामले में नागरिकों के सशक्तीकरण के मामले में और दुनियाभर में एकाधिकारवादी साम्राज्यवाद की खूंखार एक ध्रूवीय वैश्विक व्यवस्था का इजारेदार होने के बावजूद अमेरिका में आखिरकार सरकार और संसद आम नागरिकों के प्रति करदाताओं के प्रति ,मतदाताओं के प्रति जवाबदेह है।


अगर दुसाध जी की डायवर्सिटी का तात्पर्य इस आंतरिक लोकतंत्र से है,तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता।


सबसे अहम बात जो है वह यह है कि दुनियाभर में नस्ली भेदभाव के विरुद्ध आजादी की लड़ाई अमेरिका ने लड़ी तो काम के घंटे तय करने की निर्णायक लड़ाई भी अमेरिका में लड़ी गयी।वहां श्रम कानून कितनी सख्ती से लागू है,देवयानी खोपड़ागड़े का मामला सामने है।


इसके अलावा वियतनाम युद्ध हो या इराक अफगानिस्तान युद्ध.युद्धविरोधी अमेरिकी जनमत ने हमेशा  वैश्विक प्रतिरोध का नेतृत्व भी किया है।


हमारे साम्राज्यवाद विरोधी तमाम रंगबिरंगे तत्व तो विचारधारा जुगाली तक सीमाबद्ध रहे हैं और चरित्र ने नस्ली वर्चस्व और वर्णवर्चस्वी व्यवस्था बहाल रखने के लिए घनघोर सामंती तत्वों से साझा मोर्चा उनका भी भारतीयबहुसंख्यजनगणविरुद्धे हैं।


सबसे खास बात है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बारे में सभी उम्मीदवारों को अपनी विदेश नीतियों,आर्थिक नीतियों,गृहनीतियों का खुलासा करना होता है।


अमेरिकी मतदाता जिन नीतियों का समर्थन करते हैं,उन्हींके मुताबिक मतदान की रुझान बनती है और जिसे बनाने में चुनाव अभियान के दौरान होने वाली बहसों और संबोधनों का खास महत्व होता है।


इसके विपरीत भारत में चुनाव बिन मुद्दा नारों पर लड़ा जाता है।चुनावघोषमापत्र रस्मी होते हैं और किसी उम्मीदवार को अपनी विचारधारा और नीतियों पर कोई कैफियत देनी नहीं होती।


अमेरिका में हर सरकारी फैसले और हर समझौते का संसदीयअनुमोदन ही नहीं,बाकायदा कानून बतौर पास होना भी अनिवार्य है।


हमारे यहां कारपोरेट नीति निर्धारण हैं।असंवैधानिक काकस राजकाज चलाते हैं और संसद हाशिये पर मौन।


अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अंतरराष्ट्रीयसंबंधों और विदेश नीति पर खास फोकस होता है गृहनीतियों और आर्थिक नीतियों की तरह।


भारतीय चुनावों में आर्थिक नीतियों और मुद्दों पर खुलकर चर्चा नहीं होती।


गृहनीतियों और आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य पर,रक्षा विषयक चर्चा भी नहीं होती और विदेश नीति का मामला पड़ोसी देशों को मवालियों की तरह मस्तानी चुनौतियां देना शामिल है।


समस्याओं का जिक्र करना ही मुद्दा नहीं होता,यह तमीज भी अपनी राजनीति को नहीं है।अमेरिकी चुनावों में समस्याों को संबोधित करते हुए उनके समाधान पर संवाद तो करना अनिवार्यहै ही,हर उम्मीदवार को तत्संबंधी परिकल्पना प्रस्तुत करनी होती है।


कारपोरेट साम्राज्यवादी अमेरिका ही अमेरिका नहीं है। रंगभेद के खिलाफ मोर्चाबंद युद्धविरोधी अमेरिकी जनमत को जाने बिना अपनी नस्ली वर्चस्वी व्यवस्था को बहाल रखने के लिए हम घृणा आधारित विदेश,गृह और अर्थनीतियों की बहाली और निरंतरता के लिए कारपोरेट जायनवादी साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था के साथ रणनीतिक गठबंधन करके अपनी आंतरिक वर्णवर्चस्वी सामंतशाही को ही मजबूत कर सकते हैं,अमेरिकी ऊंचाइयों को हरगिज छू नहीं सकते।

फिर नमो भारत की वैश्विक पारिपार्शिक पृष्ठभूमि पर फिर एकबार कवि अशोक कुमार  कुमार पांडे जी के सौजन्य से अगला संवाद शुरु से पहले पाकिस्तानी कवियत्री की ये पंक्तियां हमें जरुर इस अखंड महादेश के जुझारु पुरखों की याद में अवश्य पढ़ लेनी चाहिए।

माफ करना रियाज भाई,आपका मेल देरी से मिला ।पहले ही फेसबुक पर बहस की शुरुआत कर दी थी।लेकिन इस पाकिस्तानी कविता के लिए आपका आभार भी।

गौर करें कि कवियत्री फ़हमीदा रियाज़, पाकिस्तान ने नमो भारत को नया भारत नाम दिया है।नये भारत की जो तस्वीर बन रही है पास पड़ोस में बिना शत्रूभाव अटल नजरिये से उस पर भी गौर करें हमारे मोदीयाये देशवासी।पढ़ा जरूर,भले ही हमें नामलिहाज से एखे 47 की तुक से न मिला सकें तो पाकिस्तानी एजंट तो बता ही सकते हैं।

अटल जी के निष्पक्ष मूल्यांकन पर भी और उनको नेहरु इंदिरा से ऊपर के दर्जे में रखने के बावजूद मोदीयापे में लोग हमें पहले ही पाकिस्तानी ,नक्सली वगैरह खिताब दे रहे हैं।ताज्जुब तो यह है कि अबकी दफा बांग्लादेश तमगा देना भूल रहे हैं।

हम भारतीय लोकतंत्र में बाकायदा एक राजनीतिक दल भाजपा की भूमिका और उनके घनघोर आलोचक हैं।हम हिंदू राष्ट्र के विरुद्ध है।

लोकिन भाजपा का यह कारपोरेट नमोपा अवतार न केवल हिंदुत्व के खिलाफ है बल्कि राष्ट्रीयस्वयंसेवक संघ के उच्च आदर्शों और मूल्यबोध के विरुद्ध भी है।मोदियापा हिंदुत्व नहीं,सरासर कारपोरेट लाबिइंग है और उससे भी ज्यादा जायनी अमेरिकापरस्ती।

आपको ऐतराज हो तो खुलकर लिखें।

हम पूरा आलेख तैयार करते हुए आपके विचारों को भी यथायथ रखेंगे।

जो सिर्फ गालीगलौज कर सकते हैं, वे भी स्वागत हैं।बहुसंख्य भारतीय तो काले ही हैं,काला रंग रंगभेदी नस्लवाद है।तो कालिख पोतने से तो हम अपने ही जड़ों में लौटेंगे और गालीगीतों वाले देश में गालियों से किसे परहेज हैं।

बहरहाल जैसे भी हो आपको अपनी राय दर्ज करनी चाहिए।उकड़ू बैठे जो मौसमी मुर्ग मुर्गियां शुतूरमुर्ग हैं,उनसे भी निवेदन है कि इस संक्रमणकाल में अपनी जुबान पर लगा ताला खोले बशर्ते कि चाबी उनके पास हो।

नया भारत

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तुम बिल्कुल हम जैसे निकले

अब तक कहां छुपे थे भाई?

वह मूरखता, वह घामड़पन

जिसमें हमने सदी गंवाई

आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे

अरे बधाई, बहुत बधाई


भूत धरम का नाच रहा है

कायम हिन्दू राज करोगे?

सारे उल्टे काज करोगे?

अपना चमन नाराज करोगे?


तुम भी बैठे करोगे सोचा,

पूरी है वैसी तैयारी,

कौन है हिन्दू कौन नहीं है

तुम भी करोगे फतवे जारी


वहां भी मुश्किल होगा जीना

दांतो आ जाएगा पसीना

जैसे-तैसे कटा करेगी

वहां भी सबकी सांस घुटेगी


माथे पर सिंदूर की रेखा

कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!

क्या हमने दुर्दशा बनायी

कुछ भी तुमको नज़र न आयी?


भाड़ में जाये शिक्षा-विक्षा,

अब जाहिलपन के गुन गाना,

आगे गड्ढा है यह मत देखो

वापस लाओ गया जमाना


हम जिन पर रोया करते थे

तुम ने भी वह बात अब की है

बहुत मलाल है हमको, लेकिन

हा हा हा हा हो हो ही ही


कल दुख से सोचा करती थी

सोच के बहुत हँसी आज आयी

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले

हम दो कौम नहीं थे भाई


मश्क करो तुम, आ जाएगा

उल्टे पांवों चलते जाना,

दूजा ध्यान न मन में आए

बस पीछे ही नज़र जमाना


एक जाप-सा करते जाओ,

बारम्बार यह ही दोहराओ

कितना वीर महान था भारत!

कैसा आलीशान था भारत!


फिर तुम लोग पहुंच जाओगे

बस परलोक पहुंच जाओगे!


हम तो हैं पहले से वहां पर,

तुम भी समय निकालते रहना,

अब जिस नरक में जाओ, वहां से

चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना!


(फ़हमीदा रियाज़, पाकिस्तान)


लाहौर से खबर है कि दो अज्ञात बंदूकधारियों ने आज पाकिस्तान के वरिष्ठ विश्लेषक और लेखक रजा रूमी पर गोलियां चला दीं जिसमें उनके चालक की मौत हो गई और सुरक्षाकर्मी घायल हो गया. लाहौर पुलिस के प्रवक्ता नियाब हैदर ने कहा कि मोटरसाइकिल पर सवार दो लोगों ने गार्डन टाउन के राजा बाजार में रूमी की कार रोकी और गोलियां चलाना शुरू कर दिया. रूमी को नुकसान नहीं पहुंचा लेकिन उनके चालक मुस्तफा और अंगरक्षक अनवर को छर्रे लगे.

आदरणीय हिमांशु कुमार ने सच लिखा है

अडवाणी को इसलिए औकात बताई गयी क्योंकि वो पाकिस्तानी हैं .


उनका जनम पाकिस्तान में हुआ था .


जो कुछ भी पाकिस्तानी है


उससे मोदी जी को नफ़रत है


इसलिए धूल चटा दी अडवाणी पाकिस्तानी को


इस अनंत मूत्रधार को चिन्हित भी कर दिया कवि उदय प्रकाश ने
देवघर के बाबा बैजनाथ की कथा तो याद ही होगी। ऐसा ही दीर्घसूत्री मूत्रपात रावण को हुआ था और उसने बैजनाथ को एक गड़रिये को सौंपा था। गडरिया इंतज़ार ही करता रहा कि कब इस दीर्घ-शंका का अंत हो, नहीं हुआ, तो उकता कर वह शिव-लिंग वहीं रख कर चला गया।
बाबा बैजनाथ तब से वहीं रखे हुए हैं , जहां उस गडरिये ने रखा था… और ....

ई देख्या ससुर रावण का , ई देख्या ! ..... आजौ मूते जा रहा है !

हा हआ हा। .... दोस्तो , तनी अपने पुरान परधानमंत्री मोरार देसाई साहेब का सुमिरन करिये , जो जगत परसिद्ध 'शिवाम्बु -सेवी ' ह्वै गए थे, आज कतहूँ ऊ होते , तो उहईं आल इंडिया दिव्य-मूत्र औषधालय खुलवा देते …
(ससुर, ई ना दरसाता, कि उहाँ की भुइयां पबित्र भई कि नसाय गई ?)

अभिषेक पाराशर ने लिखा है: आम आदमी पार्टी पर फोर्ड फाउंडेशन से पैसा लेने का आरोप लगाने वाली भाजपा और कांग्रेस खुद ही इसके लपेटे में आ गई हैं। दोनों दल भाजपा और कांग्रेस वेदांत और सेसा गोवा जैसी कंपनियों से चंदा लेने की दोषी पाई गई हैं।

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग और न्यायमूर्ति जयंत नाथ के पीठ ने कहा, 'हमें यह मानने में कोई झिझक नहीं है कि प्रतिवादियों का जो आचरण याचिका में बताया गया है, उससे विदेशी चंदा (नियमन) अधिनियम 1976 का साफ उल्लंघन हुआ है। राजनीतिक दलों ने स्टरलाइट और सेसा से जो चंदा लिया है, वह कानून के मुताबिक 'विदेशी स्रोत' से लिए गए चंदे की श्रेणी में आता है।' अदालत ने चुनाव आयोग को दोनों दलों को मिले चंदों की रसीदें छह महीने के भीतर जांचने का आदेश दिया है।


वैसे भी नैनीताल इन दिनों केसरिया है।पहाड़ के क्रांतिकारी तो मैदानी जंग छोड़कर कन्याकुमारी में तामिल बोलते नजर आयेगे या ओड़ीशा में उड़िया।मुंबई और रांची में तो हिंदी चलेगी।राजनीतिक पर्यटन स‌े पहाड़े के हालात बदलेंगे नहीं।मुझे तो हमारे कविमित्र बल्ली की फिक्र हो रही है।कहां फस गये बेचारे।जिनने खड़ा कराया ,वे ही मैदान छोड़ रहे हैं।अब तिवारी बूढ़ापे में पहाड़ को स‌द्गति दिलाने का करतब दोहराने कोश्यारी केसरिया के मुकाबले हो तो आप चैन की बांसुरी ही बजा स‌कते हैं दाज्यू।
राजीव नयन जी के पोस्ट पर प्रतिक्रिया
राजीव नयन बहुगुणा ने लिखा हैः
अपूरित कामनाओं के पर्याय रंगीले राज पुरुष नारायण दत्त तिवारी आजकल अपने जैविक पुत्र और त्यक्त भार्या को लेकर नैनीताल की तराईयों में घूम रहे हैं। उन्हें कोंग्रेस से लोक सभा का टिकट चाहिए ।हद है। मुंह में दांत और पेट में आंत नहीं। फिर भी लालसा हिलोरे मार रही है ।जैविक पुत्र को अगर बिरासत पर हक़ चाहिए तो तिवारी की अकूत सम्पदा का पता लगा कर उस पर दावा करे ,लेकिन जनादेश क्या कोई अचल सम्पदा है जिस पर पीढ़ी दर पीढ़ी हक हुकूक चलते रहें? रोहित शेखर के संकट काल में मैं उन गिनती के पत्रकारों में था ,जिन्होंने उसके पितृत्व के दावे का समर्थन किया था ।लेकिन अब वह जनादेश का भी हस्तांतरण चाहता है ।जनता को चाहिए कि इन तीनों को वहां से खदेड़ भगाए। तिवारी ने अगर स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया तो उसकी उन्हें पेंशन मिल रही है और ता उम्र सत्ता में रहे हैं।

फिर लेनिन रघुवंश

यहाँ हम मंदिर-मसजिद के कोनों-अँतरों में

कोई पवित्र पुण्यफल नहीं, विध्यंसक विस्फोटक

सूँघते-ढूँढते फिर रहे हैं

वहाँ वे

खुलेआम भर रहे है लोगों के मस्तिष्क में

विध्वंसबीज विस्फोटक विचार

अभी-अभी आनी है होली

लाल चेहरे और हरी हथेलियाँ लिये

घूमते बच्चों के समूहों पर रीझे या खीजे

हमने कभी सोचा है, उनके हाथों की रंग-पिचकारियोँ

पिस्तौल के रूपाकार में क्यों बदल गई है?

हम कभी हुए है चिंतित की दीपावली और शबे-बारात के शिशु पटाखे

दहलाते बमबच्चों में क्यों बदल गए है?

और आज

महाशिवरात्रि और ईद की करीबी से

सबकी साँस रुकी है

जबकि ईद का कमसिन चाँद क्यों न हो सहर्ष शिरोधार्य

बालचंद्र ही नहीं, शिवशंकर का भालचंद्र जो

वे कहते हैं, अयोध्या के बाद काशी की बारी है

धर्म-संसद में पारित हुआ है प्रस्ताव

मंदिर के धड़ पर रखा है जो मसजिद का माथा

उसे कलम करने की तैयारी है

लेकिन क्यों?

इतिहास की भूल सुधारने में

भूल का इतिहास रचना क्यों जरूरी हो?

नरसिंहावतार के आगे नतमस्तक

गजमुख गणेश के पूजक

जनों के लिए निंदनीय क्यों हो वह, वंदनीय क्यों नहीं?

यदि जमीनस्थ जड़ो में

शिव-स्तोत्र के श्लोक और कुरआन की आयतें

प्यार से अझुराएँ

तो भला क्यों

हर हर महादेव और अल्ला हो अकबर के नारे

प्रकंपित आसमान में टकराएँ।


("गंगातचट"की "समरकांत उवाच"शीर्षक कविता का एक अंश)

मित्रवर उर्मिलेश उर्मिल

कैसी विडम्बना है, 56 इंच सीने वाले 'महापुरूष' के पास राजनीतिक विमर्श का कितना छोटा और संकरा दायरा है। वह अपने किसी भी आलोचक को 'पाकिस्तानी एजेंट' बताते फिर रहे हैं। कई मुद्दों पर केजरीवाल और उनकी पार्टी की मैं भी आलोचना करता रहा हूं, फिर इसी तर्ज पर वह मुझे बांग्लादेश का एजेंट बता दें। सिलसिला ऐसे ही चला तो यह देश 'विदेशी एजेंटों का देश' हो जाएगा और जो बचेंगे वह सिर्फ वो होंगे, जो 'भगवा और कारपोरेट' के साथ खड़े होंगे।

अशोक कुमार पांडे

एक लम्बी कविता का एक खंड

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राजा के पीछे खड़ी

चतुरंगिणी फौज़ बड़ी

तोप और बन्दूक लिए

भरे हुए संदूक लिए

टीवी के चैनल हैं

दफ्तर अखबार के

झुक झुक के गाते हैं

गीत सब दरबार के


राजा के पाँव को

राजा की छाँव को

राजा के नाम को

मुख को मुखौटे को

कुत्ते-बिलौटे को

चूमते-चाटते

रेंगते केंचुए से

नाग से फुंफकारते

भेडिये से काटते


पीछे-पीछे भागते हैं हाथ में कलम लिए

भाषा के कारीगर जादू बिखेरते

कला कला गा गा के सिक्के बटोरते

नोच नोच फेंकते हैं चेहरे पर के चेहरे

आँसूं बहाते हैं, रोते हैं, गाते हैं, चीखते चिल्लाते हैं


कोट काला टांग कर

आला लहराते हुए

प्रेस क्लब का नया पुराना

बिल्ला चमकाते हुए

कविता सुनाते हुए

कहानी बनाते हुए

एकेडमी से कालेज से

पार्टी मुख्यालय से

मल मल के आँख जागे सब

दिन के उजाले में

भागे सब भागे सब


जय श्रीराम, हनुमान जय

जय जय भवानी

जय अक्षरधाम जय

हम भी हैं हम भी है हैं हम भी हम हम हम

बम बम बम बोल बम हम हम हम

एक नज़र देखो तो

राजाजी नहीं अगर सारथि जी देखो तो

देखो तो फौजी जी भौजी जी देखो तो

देखो न कर दो न हम पर भी ये करम

जय जय अमेरिका सी आई ए की जय जय

वर्ण की व्यवस्था जय आप ही की सत्ता जय

एक बार राजा जी नजरियाइए जय जय

देखिये न छोड़ दी हमने है सब लाज शरम

हम भी हैं हम भी हैं हम भी हैं हम हम हम


कोई नहीं सुनता कोई कान भी देता नहीं

सडक किनारे खड़ा जन ध्यान भी देता नहीं


देखते ही देखते क्या हुआ ग़ज़ब हुआ

कलम लिए लिए जोंक बन गए सारे

जाकर चिपक गए अश्वों की पीठ से पूँछ से पैर से लिंग से अंड से

कुछ जो चतुर थे जा चिपके राज दंड से


और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं...

नित्यानंद गायेन

किसी भी व्यक्ति को जब यह लगने लगे , जो कुछ वह सोच रहा है या लिख रहा है वही सत्य है और अंतिम सत्य है , तो उस व्यक्ति को अपने पक्ष में बहस के लिए भी तैयार रहना चाहिए तथ्यों के साथ .........जो बहस से भाग जाता है वह झूठा और तानाशाही होता है .

जगदीश्वर चतुर्वेदी

भाजपा अध्यक्ष महान "डेमोक्रेट" हैं, कह रहे हैं मैं केजरीवाल के किसी आरोप का जबाव नहीं दूँगा।अब आप ही बताएं भाजपा को कैसे देश सौंप दें ? वे विपक्षी नेता के सवालों का अभी जबाव नहीं दे रहे हैं,सत्ता में आने के बाद तो कसाई की तरह पेश आएंगे !!

  • अभिषेक सिंहःमुझे हमेशा लगता था के जिस तरह अरविन्द, मोदी उनके विकास , उनकी नीतियों और भ्रष्टाचार पर इतनी बेबाकी से बहस करते हैं,कभी न कभी मोदी उन बातों का कोई तार्किक और ठोस जवाब अवश्य देंगे लेकिन कल जब इनका काश्मीर वाला भाषण सुना और जिस तरह से मोदी मंच से अपने समर्थकों का राजनैतिक मनोरंजन करा रहे थे, मेरा विस्वास और दृढ हो रहा था के यह व्यक्ति अटल जी के जैसे प्रखर ओजस्वी तर्क पूर्ण और विरोधियों चित्त कर देने वाली भाषण शैली का एक प्रतिशत भी नहीं है,विकास के साबुन से जिन पापों के दाग मोदी साम दाम दंड भेद अपना कर धुलना चाहते हैं विज्ञापनों रैलियों अम्बानियों अदानियों मीडिया चैनेलों रामविलासो,रामकृपालों,जगदम्बिका पालों और येदुरप्पाओं के साथ मिल कर सत्ता प्राप्ति की इस संवैधानिक द्यूत सभा में शकुनियों के पासों के दम पर मिली जीत या हार महत्वपूर्ण नहीं है,क्यूंकि सत्य और असत्य के बीच निर्णायक युद्ध का माहौल देश में बन चुका है और मोदी कितने भी प्रयास कर लें वो कुरुक्षेत्र से बच नहीं पाएंगे जहाँ आमने सामने ही पड़ेगा जवाब देना ही पड़ेगा

अनिता भारतीfeeling angry

जिस तरह से सारी राजनैतिक पार्टियों में महिला उम्मीदवारों की अनदेखी, उपेक्षा हो रही है उसे देखकर लगता है महिलाओं को अपनी राजनैतिक पार्टी बनानी चाहिए और उसमें पुरुषों को 33 प्रतिशत आरक्षण देना चाहिए.


अब नमोमय नमोसेना की प्रतिक्रिया पर भी गौर करें



Jeetendra Soni

4:18pm Mar 28

हर हर मोदी घर घर मोदी।



Pramod Thapliyal

3:13pm Mar 28

पलाश बाबू आप कुँए के मेढक हो, आपको सऊदी या कुवैत जाने की जरुरत है ...


Nikesh Deo

2:23pm Mar 27

bewakoooooffiiyaan .............


Ashit Tomar IS POST KO EK BILANG CHOTA KAR Do...

Aakash Gupta II

10:57am Mar 28

achha ... dekhte rahiye

इस परिदृश्य परशंभूनाथ शुक्ल ने लिखा है

मैं नरेंद्र मोदी को नहीं जानता न गुजरात को न साल २००२ को क्योंकि दंगे-फसाद तो देश में और विदेश में इतने ज्यादा होते हैं कि लगता है कि हम अगर जी रहे हैं तो किसी सरकार के भरोसे नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ रामभरोसे जिंदा हैं। माफ कीजिएगा अपने अपने लिहाज से राम का नाम बदल लेना और जो नास्तिक हैं तो वे राम की जगह खुद को मान लें। पर मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए मोदी के बारे में इतनी बार पढ़ा कि लगा कि अगर मोदी बन गए पीएम तो हिंदुओं को तो रामराज्य मिल जाएगा और मुसलमानों के लिए यह मुल्क रहने लायक नहीं रह जाएगा। यह प्रचार का हथकंडा है अथवा मोदी से बचने का डर? दोनों ही हालात मोदी के अनुकूल जाते हैं। इसलिए तनाव पैदा करने से बेहतर है कि १६ मई का इंतजार करो क्योंकि आपकी पोस्ट व लेख पढ़ कर कोई वोट देने तो जाएगा नहीं। वह जमाना गया जब जनसत्ता में संपादक स्वर्गीय प्रभाष जोशी के लेख पढ़कर लोग वोट दे आया करते थे। मुसलमानों का एक तबका या तो जानबूझकर मोदी का एजंट बनता जा रहा है अथवा अनजाने में ध्रुवीकरण किए जा रहा है। हिंदुओं का एलीट तबका आपके भयादोहन में लगा है। इसलिए बेहतर यही है कि मोदी के बारे में चिंता करने की बजाय अपने-अपने वोट डालने की तैयारी करो।

Maheruddin Khanमै नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करता इसका ये कतई मतलब नहीं कि मै हिंदुओं को पसंद नहीं करता। मोदी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावना भी मुझे नज़र नहीं आती फिर भी अगर मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो व्यवस्था तो नहीं बदल जाएगी और वर्त्तमान व्यवस्था के चलते मोदी कुछ नहीं कर पाएंगे। संविधान सशोधन के लिए उनके पास पर्याप्त बहुमत नहीं होगा इसलिए वो व्यवस्था में कोई बड़ा फेर बदल नहीं कर पाएंगे। तो फिर मोदी से मै तो नहीं डरता। भारत का सेक्युलर ताना बाना ही भारत की एकता की गारंटी है। भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता। ले दे कर नेपाल हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था उसका हश्र सब के सामने है। हिन्दू राष्ट्र में राजा क्षत्रिय होता है जो भारत में सम्भव ही नहीं है। संघ ,मोदी और भाजपा कितना ही प्रयास कर लें भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बना सकते। अगर इन्हें सत्ता मिलती है तो ये मुसलमानो को इग्नोर नहीं कर सकते क्योंकि मुस्लिम देशों से इनको बहुत कुछ लेना होगा यही कारण है कि आज भी भाजपा को कुछ दिखावटी मुस्लिम चेहरे रखना इसकी मजबूरी में शामिल है।


सुनीता पुष्पराज पान्डेयबड़ी उलझन है एक तरफ कुँआ एक तरफ खाई और तीसरी राम भरोसे अब या ना पुछना राम भरोसे कौन जो भी हो मेरा पड़ोसी नही है


Mohan Shrotriya

‪#‎कभी_लुभाए‬...‪#‎कभी_डराए‬...‪#‎कैसा_तो_यह_सपना_है‬ !


‪#‎पाकिस्तान‬और ‪#‎बांग्लादेश‬भारत के दो नए राज्य बन जाएंगे ! ‪#‎चीन‬मौजूदा सीमा-रेखा से बहुत-बहुत पीछे चला जाएगा. ‪#‎अफ़गानिस्तान‬भारत का तीसरा नया राज्य बनने का प्रस्ताव भेज देगा. यह सब साठ दिन के भीतर हो जाएगा !


‪#‎तालिबान_अलक़ायदा‬बिना शर्त समर्पण कर देंगे ! नेताओं की ‪#‎ज़ेड_प्लस‬सुरक्षा हटा ली जाएगी !


‪#‎गैस_पेट्रोल_डीज़ल‬की क़ीमतों में तीन-चार गुना बढ़ोतरी हो जाएगी !


‪#‎देश_को_मिटने_नहीं_दूंगा‬राष्ट्र-गीत बन जाएगा, और ‪#‎प्रसून_जोशी‬राष्ट्रकवि घोषित कर दिए जाएंगे !


स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में प्रार्थना अनिवार्य कर दी जाएगी : ‪#‎नमो_नमो‬का पंद्रह मिनट तक जाप चलेगा ! सभी छात्र-छात्राओं की उपस्थिति अनिवार्य होगी !


‪#‎फ़ेसबुक‬पर निगरानी के लिए एक स्वतंत्र मंत्रालय होगा. यहां से जुड़े मसले‪#‎फ़ास्ट_ट्रैक_कोर्ट‬को सौंप दिए जाएंगे !


सपने का शुरू का आधा हिस्सा देखकर मज़ा आ रहा था. बाद के हिस्से ने पसीने ला दिए, और मैं घबरा कर उठ बैठा !

Mohan Shrotriya

‪#‎मिल_क्यों_नहीं_जाती_ये_नामालूम_सी_हवाएं‬ !


‪#‎हवा‬

धमका रही है सबको

कि हवा खराब कर देगी

सबकी ही !


सारी हवाएं मिलकर

क्यों नहीं कर देती

हवा खराब

धमकाने वाली हवा की?


‪#‎कम_वेगवती‬हो सकती हैं

बाक़ी हवाएं

पर बोल ही सकती हैं

‪#‎चौतरफ़ा_हमला‬

धमकाने-धचकाने वाली हवा पर !


कहीं ऐसा तो नहीं

कि ये कम वेग वाली हवाएं

अपने होने पर ही मगन हों !


लेकिन सवाल यह है

कब तक मगन रह सकती हैं ये

मुठभेड़ से बची रह कर !



Article 2

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साझा संस्कृति संगम : प्रभात पटनायक का उदघाटन आलेख ~ सम्पूर्ण पाठ

साझा संस्कृति संगम के उद्घाटन में प्रभात पटनायक  के आलेख का सम्पूर्ण पाठ
साझा संस्कृति संगम के उद्घाटन में प्रभात पटनायक  के आलेख का सम्पूर्ण पाठ

नवउदारवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार ~ प्रभात पटनायक


नवउदारवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार ~ प्रभात पटनायक


जनतंत्र की वैधता के लिए अवाम के बीच इस यक़ीन की जरूरत पड़ती है कि वे जनतांत्रिक प्रक्रिया में शिरकत करके अपनी जि़दगी में बेहतरी ला सकते हैं। यह यक़ीन झूठा भी साबित हो सकता है, यह केवल एक भ्रांति भी हो सकता है। जब यह भ्रांति नही रहती तो लोग न केवल जनतंत्र के बारे में सर्वनिषेधवादी होने लगते हैं, बल्कि उन्हें यह भी लगने लगता है कि वे अपने इन प्रयत्नों से अपनी जिंदगी में बेहतरी नहीं ला सकते। इस तरह की हताशा उन्हें किसी 'उद्धारक'या 'अवतारी पुरुष''की खोज की ओर ले जाती है जिसमें उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे पाने की अभूतपूर्व ताक़त की झलक दिखायी देती हो और जो उनको बदहाली से उबार सके। अवाम तब 'तर्कबुद्धि के पक्ष में'नहीं रह जाते, वे अतर्क की दुनिया में विचरण करने लगते हैं।

वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के ज़माने में ऐसे 'उद्धारकों'और 'अवतारी पुरुषों'को अजीबोग़रीब तरीक़े से उस कारपोरेट क्षेत्र के द्वारा गढ़ा जाता है या उछाला जाता है, या ऐसे मामलों में जहां वे अपने कारनामों से उठने लगते हैं, कारपोरेट वित्तीय पूंजी अपने नियंत्रण वाले मीडिया का इसके लिए इस्तेमाल करती है, उनका निज़ाम कारपोरेट निज़ाम का समानार्थी हो जाता है। फ़ासीवाद का बीज-बिंदु यही है। (मुसोलिनी ने, जैसा कि हमें याद यहां याद आ रहा है, लिखा था कि फ़ासीवाद को वास्तविक अर्थो में कॉरपोरेटवाद कहना समीचीन होगा क्योंकि इसमें राजसत्ता कॉरपोरेट सत्ता में विलीन हो जाती है) इस तरह अवाम के, जनतंत्र के माध्यम से अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने की प्रक्रिया में यक़ीन के ख़ात्मे से वे हालात पैदा होते हैं जिनमें फासीवाद फलता फूलता है।


इसकी मिसाल जर्मनी के 'वेइमार रिपब्लिक'में देखी जा सकती है। अवाम की नज़रों में 'वेइमार रिपब्लिक'की वैधता ख़त्म हो चुकी थी क्योंकि वर्सीलीज़ संधि के फलस्वरूप मित्र शक्तियों ने हर्जाने का जो बोझ अवाम पर डाला था जिसकी वजह से अवाम की बढ़ती हुई बदहाली दूर कर पाने में एक के बाद एक चुनाव से बनी सरकार कामयाब न हो पायी थी। जनतंत्र की वैधता से यक़ीन उठ जाना ही वह विशेष कारण बना जिसने अवाम को नाज़ीवाद के आकर्षण के जाल में फंसा लिया। 'वेइमार रिपब्लिक'की असफलता को कम से कम उस शांति संधि में तलाश तो किया जा सकता है (जिसके खि़लाफ़ अर्थशास्त्री केंस ने आवाज़ उठायी थी)। मगर आज 'ग्लोबलाइजे़शन'के इस ज़माने में उसी तरह अवाम के बीच राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से बेहतर ज़िंदगी जी पाने में यक़ीन का ख़ात्मा हो गया है, साथ ही इस यक़ीन के ख़ात्मे की जड़ें इसी व्यवस्था के भीतर हैं। नव-उदारवाद के तहत यह प्रवृत्ति उभरती है कि जनतांत्रिक सस्थाओं की शक्ति पर से विश्वास उठ जाये और इसी से जुड़ा हुआ अतर्क बुद्धि का और फ़ासीवाद का विकसित होना है।

इसी तथ्य को दूसरे तरीक़े से समझा जा सकता है: नव-उदारवाद राजनीति के क्षेत्र को 'अंत'यानी 'क्लोज़र'की ओर धकेलता है जहां लोगों के सामने राजनीतिक विकल्पों में आर्थिक नीतियों पर एकरूपता दिखायी देती है, इससे अवाम की जिंदगी के हालात में उनके द्वारा चुने गये विकल्प से बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह 'अंत'या क्लोज़र केवल 'नज़रिये'का मामला नहीं है। दार्शनिक हेगेल ने इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रशियाई राजसत्ता के गठन के साथ आये अंत के रूप में देखा था। दर्शनशास्त्र में हेगेलवाद के विकास के समांतर ही अर्थशास्त्र में जो नया सिद्धांत विकसित हुआ, उसने भी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के उभार के साथ इतिहास के अंत की बात की थी। मगर ये सिर्फ 'नज़रिये'ही थे। इसके विपरीत, नव-उदारवाद एक साथ दो स्थितियां पैदा करता है, एक ओर वह एक वास्तविक मोड़ ले आता है जहां अवाम के सामने सचमुच का राजनीतिक विकल्प लाने के बजाय राजनीति के अंत की दशा या विकल्पहीनता होती है, इसकी प्रवृत्ति विकल्पों को एक जैसा बना देने की होती है जिससे अवाम के माली हालात में कोई सुधार नहीं होता। और यही वजह है कि अवाम की हताशा उन्हें अतार्किकता व फ़ासीवाद की ओर धकेलती है। मगर सवाल उठता है कि नवउदारवाद, 'अंत'का यह रुझान, क्यों उत्पन्न करता है? आइए, इस सवाल पर ग़ौर करें।

इसका जो सबसे अहम कारण है, उसे ज़्यादातर लोग जानते हैं, इसलिए इस पर यहां ज़्यादा बात करना ज़रूरी नहीं। 'ग्लोबलाइजे़शन'के साथ जुड़ा यह तथ्य है कि यह मालों व सेवाओं की पूरी दुनिया में आवाजाही की आज़ादी देता है, इन सबसे ऊपर, पूंजी की आवाजाही की आज़ादी है जिसमें वित्तीय पूंजी भी शामिल है। इस युग में जहां पूंजी तो पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेती है, देश उसी जगह राज्य-राष्ट्र बने रहते हैं। हर देश की आर्थिक नीतियां 'निवेशकों का भरोसा'बनाये रखने के विचार से नियंत्रित होती है, यानी भूमंडलीकृत पूंजी को फ़ायदा पहुंचना चाहिए, वरना वह पूंजी एकमुश्त उस देश को छोड़ कर कहीं और चली जायेगी, इस तरह वह देश बुरी तरह आर्थिक संकट की खंदक में जा गिरेगा। इस तरह के आर्थिक संकट में फंसने से बचने की ख़्वाहिश देश की तमाम राजनीतिक संरचनाओं को मजबूर करती है कि वे उसी एजेंडे को लागू करें जो भूमंडलीकृत पूंजी को मंजूर हो। यह तब तक चलता है जब तक कोई देश खुद ग्लोबलाइज़ेशन के दायरे में रहना जारी रखना चाहता है यानी वह पूंजी पर और व्यापार पर नियंत्रण लगाने की सोच कर भूमंडलीकरण की सीमा से बाहर जाने की कोशिश नहीं करता। इससे अवाम के सामने किसी सही विकल्प का चुनाव रह ही नहीं जाता। वे जिसे भी चुनें, जिस किसी की सरकार बने, वह घूम फिर कर उन्हीं 'नवउदारवादी'नीतियों पर चलती है।

हम यह अपने देश में भी देख रहे हैं। यूपीए सरकार और एनडीए सरकार और यहां तक कि 'थर्ड फ्रंट'की अल्पायु सरकार भी आर्थिक नीतियों के मामले में एक जैसी सरकारें ही रहीं। आज भी, जब चुनावी विकल्प के रूप में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का शोरशराबा हो रहा है, आर्थिक नीतियों के स्तर पर शायद ही कोई बुनियादी फ़र्क़ हो। सचाई तो यह है कि मोदी खुद इस बात पर ज़ोर देता है कि उसमें 'शासन करने'की यू.पी.ए. के मुक़ाबले बेहतर क्षमता है, आर्थिक नीतियों के मामले में कोई बुनियादी अंतर नहीं जिनसे अवाम की बदहाली दूर हो सके। इससे यही साबित होता है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अवाम के सामने आर्थिक नीतियों के स्तर पर वास्तविक विकल्प मौजूद नहीं है। इस बुनियादी तथ्य के अलावा इस युग में देश के वर्गीय ढांचे में कुछ ऐसे बदलाव आये हैं जिनकी वजह से भी विकल्प की ओर बढ़ पाने में दुश्वारी आ रही है। इन तब्दीलियों में एक बुनियादी तब्दीली यह है कि मज़दूरों और किसानों की शक्ति में कमी आयी है। चूंकि राज्यसत्ता की रीतिनीति तो वित्तीय पूंजी को खुश करने की है, इससे उसकी भूमिका बड़ी पूंजी के हमले से छोटे कारोबार और उत्पादन की रक्षा करना या मदद करना नहीं रह जाती। इस असुरक्षा के माहौल में छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। यह शोषण दोहरे तरीक़े से होता है, एक तो प्रत्यक्ष तौर पर बड़ी पूंजी उनकी संपदा जैसे उनकी ज़मीन वग़ैरह को कौडि़यों के मोल ख़रीद कर, दूसरे, उनकी आमदनी में गिरावट पैदा करके। इससे लघु उत्पादन के माध्यम से उनकी जि़ंदा बने रहने की क्षमता कम रह जाती है। अपनी आजीविका के साधनों से वंचित ये लोग काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं, इससे बेरोज़गारों की पांत और बढ़ती जाती है।

इसके साथ ही नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार भी सीमित ही रहते हैं, भले ही आर्थिक विकास में तेज़ी दिखायी दे रही हो। उदाहरण के तौर पर, भारत में आर्थिक विकास की चरमावस्था में भी रोज़गार की विकास दर, 2004-5 और 2009-10 में नेशनल सेम्पल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 0.8 प्रतिशत ही रही। जनसंख्या की वृद्धि दर 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही और इसे ही काम के लायक जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि दर माना जा सकता है। इसमें उन लघु उत्पादकों को भी जोड़ लें जो अपनी आजीविका से वंचित हो जाते हैं और रोज़गार की तलाश में शहर आ जाते हैं तो बेरोज़गारी की विकास दर 1.5 प्रतिशत से ज़्यादा ही ठहरेगी। उसमें केवल 0.8 प्रतिशत को रोज़गार मिलता है। तो इसका मतलब यह है कि बेरोज़गारों की रिज़र्व फ़ौज की तादाद में भारी मात्रा में इज़ाफ़ा हो रहा है। इसका असर मज़दूर वर्ग की सौदेबाज़ी की ताक़त पर पड़ता है। वह ताक़त कम हो जाती है। इस तथ्य में एक सचाई और जुड़ जाती है, यानी बेरोज़गारों की सक्रिय फ़ौज और रिज़र्व फ़ौज के बीच की अंतर-रेखा का मिट जाना। हम अक्सर सक्रिय फ़ौज को पूरी तरह रोज़गारशुदा मान कर चलते हैं, रिज़र्व फ़ौज को पूरी तरह बेरोज़गार। मगर कल्पना करिए, 100 की कुल तादाद में से 90 को रोज़गारशुदा और 10 को बेरोज़गार मानने के बजाय, यह मानिए कि ये अपने समय के 9/10 वक़्त तक ही रोज़गार में हैं, इससे वह धुंधली अंतर-रेखा स्पष्ट हो जायेगी जिसे हम रोज़गार में 'राशन-प्रणाली''या सीमित रोज़गार अवसर की प्रणाली के रूप में देख पायेंगे। दिहाड़ी मज़दूर की तादाद में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, स्थायी और अस्थायी नौकरियों में लगे लोग, या खुद कभी कभी नये काम करने वाले लोग जो किसानों के पारंपरिक कामों से हट कर हैं, यही दर्शाते हैं कि रोज़गारों में सीमित अवसर ही उपलब्ध हैं। बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोतरी जहां मज़दूरों की स्थिति को कमज़ोर बनाती है। वहीं रोज़गारों के सीमित अवसर इन हालात को और अधिक जटिल बना रहे हैं।

'रोज़गारों के सीमित होने के नियम'में तब्दीली के अलावा रोज़गार पाने के नियम भी बदले हैं जिनके तहत स्थायी नौकरियों के बजाय ठेके पर काम कराने की प्रथा चल पड़ी है। हर जगह 'आउटसोर्सिंग'के माध्यम से बड़े ठेकदारों से काम लिया जाता है जो भाड़े पर वही काम कराते हैं जो पहले उस विभाग में स्थायी कर्मचारी करते थे ;रेल विभाग इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। इससे भी मज़दूरों की सौदेबाज़ी की, यानी हड़ताल करने की क्षमता में कमी आयी है। दो अन्य तथ्य इसी दिशा का संकेत देते हैं। एक उद्योगों का निजीकरण जो कि भूमंडलीकरण के दौर में तीव्र गति हासिल कर रहा है। यूनियन सदस्यों के रूप में मज़दूरों का प्रतिशत पूरी पूंजीवादी दुनिया में प्राइवेट सेक्टर के मुक़ाबले पब्लिक सेक्टर में ज़्यादा है। अमेरिका में जहां प्राइवेट सेक्टर में केवल 8 प्रतिशत मज़दूर यूनियन सदस्य हैं, वहीं सरकारी क्षेत्र में, जिसमें अध्यापक भी शामिल हैं, कुल संख्या का एक तिहाई यूनियन सदस्य है। सरकारी क्षेत्र का निजीकरण इस तरह यूनियन सदस्यता में कमी लाता है और इस तरह मज़दूरों की हड़ताल करने की क्षमता कम होती जाती है। फ्रांस में पिछले दिनों कई बड़ी हड़तालें हुईं हैं तो इसकी एक वजह यह भी है कि सारे विकसित पूंजीवादी देशों के पब्लिक सेक्टरों के यूनियनबद्ध मज़दूरों की संख्या के मुक़ाबले फ्रांस में उनकी तादाद अभी भी सबसे ज़्यादा है।

एक और कारक भी है, जिसे 'रोज़गार बाज़ार में लचीलापन'कहते हैं, जिसके द्वारा मज़दूरों के एक सीमित हिस्से को ;फै़क्टरी में एक ख़ास संख्या के मज़दूरों से ज़्यादा रोजगारशुदा होने पर श्रम कानूनों के तहत जो सुरक्षा मिली हुई है; जैसे मज़दूरों को निकालने के लिए तयशुदा समय का नोटिस देना, उसे भी ख़त्म करने की कोशिश चल रही है। यह अभी भारत में नहीं हो पाया है,, हालांकि इसे लागू करवाने का दबाव बहुत ज़्यादा है। 'रोज़गार बाज़ार में लचीलापन'का यह दबाव कम अहम लग सकता है क्योंकि इसका असर सीमित मज़दूरों की तादाद पर ही दिखायी दे सकता है, मगर इसका मक़सद उन मज़दूरों से हड़ताल करने की क्षमता छीन लेना है जो अहम सेक्टरों की बड़ी बड़ी इकाइयों में काम कर रहे हैं और जिनकी हड़ताल क्षमता सबसे ज़्यादा है। ये तमाम तब्दीलियां यानी मज़दूरों की संरचना में, सौदेबाज़ी की उनकी क्षमता में, क़ानून के तहत मिले उनके अधिकारों में आयी तब्दीलियां मज़दूर वर्ग की राजनीति की ताक़त को कमज़ोर बनाने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। ट्रेड यूनियनों के कमज़ोर पड़ने का असर स्वतः ही मजदूर वर्ग के राजनीतिक दबाव के कमज़ोर होने में घटित होता है, एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक समाधान आगे बढ़ाने की उसकी क्षमता भी कमज़ोर होती है, और उसके इर्द-गिर्द अवाम को लामबंद करने में दुश्वारियां आती हैं।  इस तरह कारपोरेट-वित्तीय पूंजी भूमंडलीकृत पूंजी से गठजोड़ करके जितनी ताक़तवर होती जाती है, उतनी ही मज़दूर वर्ग, किसान जनता और लघु-उत्पादकों की राजनीतिक ताक़त में कमज़ोरी आती है, वे ग़रीबी और ज़हालत की ओर धकेल दिये जाते हैं। भूमंडलीकरण का युग इस तरीके़ से वर्ग-शक्तियों के संतुलन में एक निर्णायक मोड़ ले आया है। 

इस परिवर्तन के दो अहम नतीजे ग़ौर करने लायक़ हैं। पहला, वर्गीय राजनीति में गिरावट के साथ 'पहचान की राजनीति'वजूद में आती है। दरअसल, 'पहचान की राजनीति'एक भ्रामक अवधारणा है क्योंकि इसमें अनेक असमान, यहां तक एक दूसरे के एकदम विपरीत तरह के आंदोलन समाहित हैं। यहां तीन तरह के अलग अलग संघटकों की पहचान की जा सकती है। एक, 'पहचान से जुडे़ प्रतिरोध आंदोलन'जैसे दलित आंदोलन या महिला आंदोलन, जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं भी हैं; दूसरे, 'सौदेबाज़ी वाले पहचान आंदोलन'जैसे जाटों की आरक्षण की मांग जिसकी आड़ में वे अपनी स्थिति मज़बूत बना सकें; तीसरे, 'पहचान की फ़ासीवादी राजनीति'; जिसकी स्पष्ट मिसाल सांप्रदायिक फासीवाद है, जो हालांकि एक ख़ास 'पहचान समूह'से जुड़ी हुई है और दूसरे 'पहचान समूहों'के खि़लाफ़ ज़हरीला प्रचार करके उन पर हमला बोलती है। इस राजनीति को कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी पालती पोसती है और इसका वास्तविक मक़सद उसी कॉरपोरेट जगत को मज़बूती प्रदान करना होता है, न कि उस पहचान समूह के हितों के लिए कुछ करना जिनके नाम पर वह राजनीति संगठित होती है।

जहां ये तीनों तरह की 'पहचान राजनीतियां'एक दूसरे से काफ़ी जुदा हैं, वर्गीय राजनीति में आयी कमज़ोरी का अहम असर उन सब पर है। इस तरह की राजनीति ऐसे किसी ख़ास पहचान समूह को 'पहचान के नाम पर सौदेबा़जी की राजनीति'के माध्यम से एक उछाल प्रदान करती है जो अपने वर्गीय संगठनों के तहत कोई असरदार काम नहीं कर सकते। इस राजनीति से 'पहचान की फ़ासीवादी राजनीति'को भी बल मिलता है क्योंकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजात का वर्चस्व इस तरह की राजनीति को बढ़ावा देता है। जहां तक 'प्रतिरोध के पहचान आंदोलनों'का सवाल है, वर्गीय राजनीति के चौतरफ़ा कमजोर पड़ने से उनमें भी प्रगतिशीलता का तत्व कमज़ोर हुआ है और इससे वे भी अधिक से अधिक 'सौदेबाज़ी की पहचान राजनीति'की ओर धकेल दिये गये हैं। कुल मिलाकर, वर्गीय राजनीति में गिरावट से 'पहचान की राजनीति'के ऐसे रूपों को मज़बूती हासिल हुई है जो व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करते बल्कि उल्टे, अवाम के एक हिस्से को दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा करके इस व्यवस्था के लिए किसी आसन्न ख़तरे की संभावना को कमज़ोर ही करते हैं। इससे उस नयी संरचना के विचार को आघात पहुंच रहा है जिसमें, देश के भीतर जाति आधारित सामंती व्यवस्था के तहत 'पुरानी व्यवस्था'को ढहा कर, उसकी जगह 'नयी सामुदायिक व्यवस्था'की स्थापना पर बल था, जो कि हमारे जनतंत्र की मांग है।

इस आघात का एक और पहलू है, जो इस समाज के लंपटीकरण से जुड़ा है। पूंजीवादी समाज की यह ख़ासियत है कि इसकी सामाजिक स्वीकार्यता इस व्यवस्था के तर्क से उद्भूत नहीं होती, बल्कि तर्क के बावजूद होती है। ऐसी दुनिया जिसमें मज़दूर अपनी तरह तरह की गुज़र बसर की जगहें छोड कर एक जगह ठूंस दिये जाते हैं, जहां वे अकेले अकेले पड़ जाते हैं, एक दूसरे के साथ बुरी तरह प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, जैसी कि पूंजीवाद के तर्क की मांग है, वह दुनिया सामाजिक रूप से असुरक्षा से घिरी दुनिया ही होगी ;जिसे शायद ही 'समाज'की संज्ञा दी जा सके। पूंजीवाद के तहत सामाजिक वजूद इसलिए संभव होता है क्योंकि इसके नियमों के विपरीत मज़दूर शुरू में एक दूसरे से अनजान होते हैं, बाद में वे अपने 'समूह'बना लेते हैं जो कि ट्रेड यूनियनों के माध्यम से वर्गीय संगठनों में विकसित हो जाते हैं। यही वह 'नया सामुदायिक समाज'हो सकता है जिसका अभी हमने जि़क्र किया है।

अतीत में पूंजीवाद के तहत इस तरह के समाज का विकास संभव हुआ था क्योंकि बड़े पैमाने पर आबादी के बड़े शहरों में आ जाने से और नयी अनुकूल श्वेत बस्तियों में बस जाने से स्थानीय कामगारों की फ़ौज के रूप में उनकी तादाद सीमित रही और ट्रेड यूनियनें शक्तिशाली हो गयीं। आज तीसरी दुनिया के मज़दूरों के लिए इस तरह की संभावनाएं मौजूद नहीं हैं, और नव-उदारवाद ने, जैसा कि हम देख रहे हैं, बेरोज़गारों की तादाद बढ़ा दी है, जबकि ट्रेड यूनियनों और मज़दूरवर्ग की सामूहिक संस्थाओं को कमज़ोर कर दिया है। अलग थलग पड़ जाने से लंपट सर्वहारावर्ग की वृद्धि हो रही है। आपसी सामाजिक रिश्तों में लगातार गिरावट या उनकी नामौजूदगी उन मेहनतकशों को, जो भिन्न प्रकार के रहन सहन के हालात से निकल कर आते हैं, लंपटीकरण की ओर धकेल देती है। यह एक सच्चाई है कि इस तरह का लंपटीकरण सारे पूंजीवादी समाजों में मौजूद है, मगर उन पर विकसित समाजों के मज़दूर वर्ग के सामूहिक संस्थानों का नियंत्रण रहता है, जो कि इधर नव-उदारवादी निज़ाम में ढीला भी हो रहा है, मगर तीसरी दुनिया के समाजों में तो उन संस्थानों का नियंत्रण बेअसर हो रहा है जो कि नव-उदारवाद की भयंकर चपेट में आ गये हैं। भारत में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में इधर जो बढ़ोतरी हो रही है, इस घटना विकास के बारे में मेरे नज़रिये से मेल खाती है।

नवउदारवाद के युग में मजदूर वर्ग को संगठित करने में आने वाली कठिनाइयों का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि मारुति फ़ैक्टरी में, जो कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र के इलाके़ में ही क़ायम है, अगर कोई मज़दूर किसी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता से बात करता हुआ या किसी पर्चे के साथ पकड़ा गया तो वह नौकरी से मुअत्तिल हो सकता है। नव-उदारवादी व्यवस्था का एक और बिंदु है जिसकी ओर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा। इसका संबंध 'भ्रष्टाचार'से है। इस तरह की अर्थव्यवस्था की ख़ासियत यह है कि इसमें बड़ी पूंजी में लघु उत्पादकों के शोषण का रुझान होता है। मगर लघु संपति उसका एकमात्र निशाना नहीं होती। उसकी प्रवृत्ति तो मुफ़्त में या कम क़ीमत पर आम संपत्ति हड़प लेने की होती है जिसमें सिर्फ़ लघु उत्पादकों की संपत्ति ही नहीं, आम संपत्ति, आदिवासियों की संपत्ति और राज्य की संपत्ति शामिल है। नव-उदारवाद का युग उस प्रक्रिया को घटित होते हुए देख रहा है जिसमें पूरी निर्ममता से 'पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया'चल रही है जिसके लिए राज्य तंत्र की ओर से सहमति या साझेदारी ज़रूरी होती है। ऐसी सहमति प्राप्त कर ली जाती है जिसके लिए भूमंडलीकरण के ज़माने में हर राष्ट्र-राज्य पर नीतिगत मामलों का दबाव बना हुआ है, उस सहमति के लिए जो भी क़ीमत अदा करनी होती है, वह दे दी जाती है और उसी को हम 'भ्रष्टाचार'कहते हैं।

हम जिसे 'भ्रष्टाचार'कहते हैं, वह असल में एक तरह का टैक्स है जिसे राज्य तंत्र वसूल करता है जिसमें 'राजनीतिक वर्ग'भी सबसे बड़े हिस्से के रूप में शामिल होता है। यह टैक्स बड़ी पूंजी के द्वारा 'पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया'से अर्जित लाभ पर वसूला जाता है। यह ग़ौरतलब है कि 'भ्रष्टाचार'के बड़े -बड़े मामले जो भारत में इधर प्रकाश में आये हैं, जैसे टू-जी स्पेक्ट्रम या कोयला ब्लाकों की औने पौने दामों पर आवंटन की प्रक्रिया आदि, उन्हें बेचने का फ़ैसला लेने वालों को बदले में जो धन मिला उसे हम 'भ्रष्टाचार'कहते हैं। इस तरह 'पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया'पर यह एक तरह का टैक्स है और इस प्रक्रिया में इधर जो तेज़ी दिखायी देती है, उसके मूल में नवउदारवादी दौर में पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया का बड़े पैमाने पर मौजूद होना ही है। 'भ्रष्टाचार'के रूप में इस तरह के टैक्स के स्वरूप को दो कारकों के संदर्भ से ख़ासतौर पर देखा जा सकता है। पहला कारक है, राजनीति का माल में तब्दील हो जाना। यह सच है कि भिन्न भिन्न राजनीतिक संरचनाएं जो नव-उदारवादी निज़ाम के तहत काम कर रही हैं, अलग अलग आर्थिक एजेंडा नहीं रख सकतीं, तो उनमें अवाम की सहमति किसी नये तरीके़ से लेने की होड़ रहती है। इसके लिए ख़ास कि़स्म से अपनी 'मार्केटिंग'के लिए, प्रचार करने वाली भाड़े की फ़र्मों का सहारा लेना पड़ता है और उन्हें मीडिया को 'कैश दे कर ख़बर बनवाने'का उपक्रम करना पड़ता है, हेलीकाप्टर भाड़े पर ले कर ज़्यादा से ज़्यादा जगहों की यात्रा करनी होती है जिससे अपनी सूरत ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को नज़र आ सके, वगै़रह वगै़रह। ये सारे काम बहुत ज़्यादा ख़र्चीले हैं जिसकी वजह से राजनीति को संसाधन जुटाने का काम करना पड़ता है, राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरह संसाधन जुटाती ही हैं।

इसके अलावा, 'राजनीतिक वर्ग'को काम चलाने के लिए संसाधन जुटाने पड़ते हैं, मगर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में उसकी भूमिका बहुत अहम नहीं रह जाती। विश्व बैंक और आइ एम एफ़ के अधिकारी रह चुके अफ़सर या बहुराष्ट्रीय बैंको और वित्तीय संस्थानों के आला अफ़सर अर्थव्यवस्था चलाने के लिए तेज़ी से नियुक्त किये जा रहे हैं, यानी 'ग्लोबल वित्तीय समुदाय'के लोग ही सरकारों के फ़ैसलाकुन पदों पर बिठाये जाते हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को पारंपरिक राजनीतिक वर्ग के हाथों में अर्थ नीति संबंधी फैसले लेने का दायित्व सौंपना सहन नहीं। पारंपरिक राजनीतिक वर्ग को इस पर गुस्सा आना स्वाभाविक है, मगर वह इससे कुछ हासिल कर लेता है तो उसे समझौता करने से कोई गुरेज भी नहीं। और यह 'कुछ'पूंजी के आदिम संचयन के लाभ में से मिलने वाले अंश या टैक्स के रूप में होता है जिसे हम 'भ्रष्टाचार'कहते हैं और उसकी ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि राजनीति माल में तब्दील हो चुकी है।

'भ्रष्टाचार'इस तरह नव-उदारवादी ऩिजाम में बहुत सक्रिय भूमिका अदा करता है। यह 'राजनीतिक वर्ग'में अचानक आये 'नैतिक'पतन का परिणाम नहीं है, यह नव-उदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है। 'भ्रष्टाचार'का जो असर नव-उदारवादी पूंजीवाद पैदा करता है, उससे कॉरपोरेट वित्तीय अभिजात को एक दूसरी वजह से फ़ायदा होता है। यह 'राजनीतिक वर्ग'को बदनाम करके छोड़ता है, वह संसद को और जनतंत्र के दूसरे प्रातिनिधिक संस्थानों को कलंकित करा देता है, और साथ ही, अपने नियंत्रण वाले संचारमाध्यमों के फ़ोकस द्वारा चालाकी से यह सुनिश्चित कर लेता है कि 'भ्रष्टाचार'के इन कारनामों से पैदा हुए नैतिक कलंक की कालिख उसके काम में बाधा न बने। 'भ्रष्टाचार'विमर्श इसके रास्ते में आने वाले रोड़ों को साफ़ करते हुए कॉरपोरेट निज़ाम के युग की शुरुआत आसान बना देता है।

बात दरअसल और आगे जाती है। हमने देखा है कि नव-उदारवाद का दौर बेरोज़गारी के सापेक्ष आकार को बढ़ाता है, जिसके चलते वह निरपेक्ष दरिद्रता की शिकार आबादी के सापेक्ष आकार में भी बढ़ोत्तरी करता है। छोटे उत्पादक- चाहे वे अपने पारंपरिक व्यवसाय में लगे रहें या रोज़गार के अवसर की तलाष में शहरी इलाक़ों, जहां ऐसे अवसर आवश्यकता से कम ही हैं, की ओर चले जाएं- उनका निरपेक्ष जीवन-स्तर और बदतर हो जाता है। कामगारों की तादाद में जो नया इज़ाफ़ा होता है, उसे बढ़ती बेरोज़गारी के कारण अपने पुरखों के मुक़ाबले व्यक्तिगत स्तर पर बदतर भौतिक जीवन-स्थितियां झेलनी पड़ती हैं। और वे कामगार भी, जो बाक़ायदा रोज़गार पा लेते हैं, श्रम की रिज़र्व फ़ौज के बढ़ते सापेक्ष आकार द्वारा थोपी गयी आपसी होड़ की वजह से उदारीकरण से पहले के दौर का वास्तविक वेतन-स्तर हासिल नहीं कर पाते। कामगार आबादी के न सिर्फ़ बड़े, बल्कि बढ़ते हुए हिस्से को प्रभावित करती भयावह ग़रीबी आम बात हो जाती है।

यह ऐसा नुक्ता  है जिसे उत्सा पटनायक लंबे समय से सामने लाती रही हैं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों पर आधारित उनके निष्कर्ष बताते हैं कि 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन ('शहरी ग़रीबी'के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली शहरी आबादी 1993-94 में जहां 57 फ़ीसद थी, वहीं 2004-5 में वह बढ़ कर 64.5 फ़ीसद हो गयी और 2009-10 में 73 फ़ीसद हो गयी। 2200 कैलारी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ('ग्रामीण ग़रीबी'के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली ग्रामीण आबादी इन्हीं वर्षों में क्रमशः 58.5, 69.5 और 76 फ़ीसद थी। यह ग़ौरतलब है कि उच्च जीडीपी बढ़ोत्तरी के दौर में, जिसके भीतर 2004-5 से 2009-10 तक के साल आते हैं, ग़रीबी में ज़बर्दस्त बढ़त हुई। संक्षेप में, नव-उदारवाद के तहत ग़रीबी में बढ़ोत्तरी एक ऐसी व्यवस्थागत परिघटना है जिसकी जड़ें इस तरह के अर्थतंत्र की फि़तरत का ही हिस्सा हैं; जी.डी.पी. की ऊंची बढ़ोत्तरी से ग़रीबी दूर हो, यह ज़रूरी नहीं।

लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया जिस विमर्श को बढ़ावा देता है, वह 'भ्रष्टाचार'को जनता की आर्थिक बदहाली का, और इसीलिए बढ़ती ग़रीबी का, कारण बताता है। इस तरह नवउदारवाद के व्यवस्थागत रुझान का दोश मुख्य किरदार निभाने वाले कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन के सर नहीं मढ़ा जाता, बल्कि 'राजनीतिक वर्ग'और संसद समेत उन तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है जहां यह राजनीतिक वर्ग मौजूद होता है। इस तरह जनता को मुसीबत में झोंकने का व्यवस्था का अंतर्निहित रुझान विडंबनापूर्ण तरीक़े से जनता की निगाह में व्यवस्था को एक सहारा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उसी कॉरपोरेट पूंजी के शासन को वैधता देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो इस काम में मुख्य किरदार निभा रहा होता है।

यह बात संकट के ऐसे दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जैसे दौर से इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था गुज़र रही है। ऊंची बढ़त का दौर निकल गया है, जो कि कतई हैरतअंगेज़ नहीं; हिंदुस्तान में ऊंची बढ़त का चरण अंतरराष्ट्रीय और घरेलू 'बुलबुले'के मेल पर क़ायम था। इस 'बुलबुले'को देर-सबेर फूटना ही था। पहला वाला 2008 में फूटा, और दूसरा कुछ साल बाद। इस संकट का मतलब है कि रोज़गार की वृद्धि दर में और कमी आ रही है, जिससे कि कामगार जनता जो बढ़त के समय भी पीसी जा रही थी, उसकी हालत तो और ख़राब हो ही रही है, वह शहरी मध्यवर्ग जो बढ़त का महत्वपूर्ण लाभार्थी था, उसकी भी हालत ख़राब हो रही है। लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन की देखरेख में 'राजनीतिक वर्ग'के खि़लाफ़ खड़ा किया गया विमर्श न सिर्फ़ जनता के गुस्से को आर्थिक व्यवस्था और संसद समेत लोकतांत्रिक संस्थाओं के खि़लाफ़ जाने से रोकता है, बल्कि यह समझ भी बनाता है कि आज ज़रूरत एक अधिक 'ताक़तवर', अधिक निर्मम नव-उदारवाद की है। और यह चीज़ 'भ्रष्टाचार'में लिप्त 'राजनीतिक वर्ग'मुहैया नहीं करा सकता, जबकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और 'विकास पुरुष'के रूप में पेश किए जा रहे नरेंद्र मोदी जैसे उसके भरोसेमंद राजनीतिक एजेंट करा सकते हैं। इस तरह कॉरपोरेट शासन यानी फ़ासीवाद के लिए राह हमवार की गई है। कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़ासीवाद की ओर संक्रमण को किसी एकल कड़ी के रूप में, एक घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो किसी विशेष व्यक्ति के सत्ता में आने से घटित होती है। इस मामले में हमें 1930 के दशक की सोच में नहीं फंसना चाहिए। आज के हिंदुस्तान में तो पहले से ही ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, मिसाल के लिए उत्तरप्रदेश, जहां 'आतंकवादी'होने के संदेह पर ही किसी मुसलमान युवक को गिरफ़्तार किया जा सकता है और बिना सुनवाई, बिना जमानत के सालों-साल जेल में रखा जा सकता है। उसे क़ानूनी मदद भी नहीं मिल सकती क्योंकि वक़ील आम तौर पर किसी 'आतंकवादी'की पैरवी करने से इंकार कर देते हैं; और वे वक़ील, जो क़ानूनी मदद पहुंचाने की हिम्मत रखते हैं, सांप्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तों के हाथों हिंसा झेलते हैं। अगर आरोपित की खुशकि़स्मत से एकाध दशक के बाद सुनवाई पूरी हो जाए और कि़स्मत ज़्यादा अच्छी हुई तो समुचित क़ानूनी बचाव के बग़ैर भी निर्दोष क़रार दिया जाए, तब भी जनता की निगाह में एक 'आतंकवादी'होने का कलंक उस पर लगा ही रहता है और उसे नौकरी नहीं मिलती; और जिन लोगों ने उसे गिरफ़्तार करके जेल में अपनी जि़ंदगी के बहुमूल्य वर्ष बिताने के लिए मजबूर किया, उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती।

इसी तरह, दिल्ली के पास मारुति कारख़ाने के सौ से ज़्यादा मज़दूर महीनों से बिना किसी सुनवाई के, बिना ज़मानत या पैरोल के, जेल में बंद हैं। उन पर एक व्यक्ति की हत्या का संदेह है (जिसकी हत्या करने का कोई कारण सीधे-सीधे नज़र नहीं आता) और इसे लेकर कोई समुचित जांच अभी तक नहीं हुई है। यह स्थिति, जिसे मैं 'मोज़ाइक फ़ासीवाद'की स्थिति कहता हूं, इस मुल्क में पहले से मौजूद है। अगर कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन द्वारा समर्थित सांप्रदायिक-फ़ासीवादी तत्व अगले चुनाव के बाद सत्ता में आते हैं तो उन्हें लंपट तत्वों के बाहुबल पर फलते-फूलते स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल में देखने को मिलता है। ये स्थानीय सत्ता-केंद्र कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन से सीधे-सीधे जुड़े नहीं हैं और इसीलिए सीधे-सीधे इन्हें फ़ासीवादी नहीं कहा जा सकता; पर वे शिखर पर एक फ़ासीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में मददगार हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, देश  'मोज़ाइक फ़ासीवाद'से 'फ़ेडरेटेट फ़ासीवाद'की ओर बढ़ सकता है और ज़रूरी नहीं कि एक एकल एपीसोड के रूप में एकीकृत फ़ासीवाद का तजुर्बा हो।

इनमें से कोई बात इस पर्चे की बुनियादी बात को बदलती नहीं है। वह बात यह कि नवउदारवाद से पैदा हुआ 'राजनीति का अंत'फ़ासीवाद की ओर संक्रमण की ज़मीन तैयार करता है और यह संक्रमण उस तरह के संकट के दौर में तेज़ी पकड़ लेता है जिस तरह के संकट से हम आज गुज़र रहे हैं। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इन हालात में प्रगतिशील ताक़तें क्या कर सकती हैं? हेगेलीय दर्शन से उलट और इतिहास का अंत वाले अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्र से उलट, मार्क्स ने सर्वहारा को बदलाव के एजेंट के रूप में देखा था जो सिर्फ़ इतिहास को आगे नहीं ले जाता बल्कि खुद 'इतिहास के फंदे'से मानव जाति के निकलने की सूरत भी बनाता है।

यह बुनियादी विश्लेषण आज भी वैध है, और हमारी गतिविधियों को इससे निर्देशित होना चाहिए, बावजूद इसके कि नवउदारवाद ने वर्गीय राजनीति को कमज़ोर किया है। लेकिन इस कमज़ोरी को देखते हुए ज़रूरत इस बात की है कि न सिर्फ़ मज़दूरों को संगठित करने के लिए नये क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाये, मसलन अब तक असंगठित रहे मज़दूरों और घरेलू कामगारों को संगठित करना, बल्कि वर्गीय राजनीति के लिए नये कि़स्म के हस्तक्षेप भी किये जायें।


वर्गीय राजनीति को अधिक सोद्देश्य तरीक़े से 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति'में हस्तक्षेप करना चाहिए, और उसे महज़ पहचान की राजनीति से ऊपर उठाना चाहिए। इसे अधिक सोद्देश्य विधि से दलितों, मुसलमानों, आदिवासी आबादी और महिलाओं के प्रतिरोध को संगठित करना चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर एक पहचान समूह को किसी दूसरे की क़ीमत पर राहत मुहैया करायी गयी है तो दूसरे को भी बोझ की ऐसी सिरबदली के खि़लाफ़ प्रतिरोध के लिए संगठित किया जाए। वर्गीय राजनीति और 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति'का अंतर, दूसरे शब्दों में, इस बात में निहित नहीं है कि इनके हस्तक्षेप के बिंदु अलग-अलग हैं, बल्कि इस तथ्य में निहित है कि वर्गीय राजनीति 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति'के मुद्दों पर भी अपने हस्तक्षेप को स्वयं 'पहचान समूह'से परे ले जाती है। अलग तरह से कहें तो जातिसंबंधी या स्त्री के उत्पीड़न के मुद्दों पर हस्तक्षेप करने में विफलता स्वयं वर्गीय राजनीति की विफलता है, वर्गीय राजनीति का लक्षण नहीं।

इसी तरह, वर्गीय राजनीति को एक वैकल्पिक कार्यसूची के सवाल को खुद संबोधित करना चाहिए। इसे व्यवस्था के खि़लाफ़ संघर्ष में, एक 'संक्रमणकालीन मांग'के तौर पर, जनता के 'अधिकार'के रूप में बदहाली को रोकने वाले उपायों के सांस्थानीकरण पर ख़ास तौर से फ़ोकस करना चाहिए। मिसाल के लिए, इसे सार्वभौमिक अधिकारों के एक समूह- जैसे खाद्य अधिकार, रोज़गार का अधिकार, मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार, एक ख़ास स्तर तक मुफ़्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, और एक सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के लिए वृद्धावस्था पेंशन तथा विकलांगता मदद का अधिकार- के सांस्थानीकरण के लिए अभियान चलाना चाहिए और अवसर मिलने पर इन्हें अमल में लाना चाहिए।


यह सब पहली नज़र में महज़ एन.जी.ओ. की कार्यसूची जैसा लग सकता है जिसका वर्गीय राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन वर्गीय राजनीति और पहचान की राजनीति या एन.जी.ओ. राजनीति के बीच बुनियादी अंतर मुद्दों को लेकर उतना नहीं है जितना इन मुद्दों को बरतने के पीछे निहित ज्ञानमीमांसा में है। वर्गीय राजनीति जब मुद्दों को उठाती है तो व्यवस्था के अतिक्रमण के ज़रिये ही उनके समाधान की संभावना को देखती है; और यह तथ्य उसे बाधित करने के बजाय ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए प्रेरित करता है। दूसरी ओर एन.जी.ओ. राजनीति सिर्फ़ ऐसे मुद्दों को उठाती है, या मुद्दों को उसी हद तक उठाती है, जहां वे व्यवस्था के भीतर हल होने के लायक़ हों। वस्तुतः इस पर्चे का मुख्य बल इसी रूप में वर्गीय राजनीति संबंधी नज़रिये को बदलने पर है।

यह तर्क, कि मुल्क के पास इन अधिकारों की मांग को पूरा करने के लिए संसाधन नहीं हैं, ठीक नहीं है। इनके लिए कुल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 फ़ीसदी ही दरकार होगा; और भारत जैसे मुल्क में, जहां अमीरों से बहुत कम टैक्स वसूला जाता है, वहां इस काम के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाना कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है। इसके मुमकिन होने में सबसे बड़ी बाधा नवउदारवादी शासन है, और ठीक इसी वजह से वामपंथ को बामक़सद इस मामले को उठाना चाहिए। जहां भी वाम ताक़तें सत्ता में आती हैं, उन्हें संसाधनों को जुटाने के लिए जिस हद तक जाना मुमकिन हो, जाना चाहिए।

सबसे अधिक जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह है नवउदारवाद के वैचारिक वर्चस्व को स्वीकार न करना। लोकतंत्र पर नवउदारवाद के हमले को रोकने और लोकतंत्र की हिफ़ाज़त से आगे समाजवाद के संघर्ष तक जाने के लिए नवउदारवादी वर्चस्व को नकारना और नवउदारवादी विचारों के खि़लाफ़ प्रति-वर्चस्व गढ़ने का प्रयास करना एक शर्त है। विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की भूमिका केंद्रीय है। 

(हूबहू जैसा कहा ....... )


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प्राइमरी का मास्टर 

न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

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न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


बीरभूम के लाभपुर में आदिवासी कन्या से सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता की सुरक्षा बंदोबस्त में नाकामी के लिए सर्वोच्च न्यायालय नें बंगाल की मां माटी मानुष सरकार की कठोर भर्त्सना की है और कहा है कि बंगाल में पुलिस और प्रशासन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में पूरीतर तरह नाकाम है।सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को पीड़िता को महीने भर में पांच लाक रुपये के भुगतान का आदेस दिया है।स्त्री उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन का यह बंगीय परिदृश्य है।यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है जैसे कि वाममोर्चा चेयरमैन बंगाल में आपातकाल बताते रहते हैं।देश में न्यायिक प्रक्रिया बहाल करने की सर्वोच्च संस्था की यह टिप्पणी खतरे की घंटी है।


न्याय और कून के राज के लिए नागरिकों को स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल मेंदेखने को मिलता है। .अपहरण , बलात्कार , राहजनी , अपराध के कई चेहरे । राजनीतिक हिंसा, दमन, उत्पीड़न, कमजोर तबके पर और महिलाओं पर अत्याचार। हर किसी  को हर वक्त राष्ट्र और राजनीति का उन्मुक्त आश्वासन कि न्याय अवश्य  मिलेगा।लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि न्याय की गुहार सिर्फ गुहार बनके रह जाती है अनसुनी और अपराधी छुट्टा घूमते रह जाते हैं।राजनीतिक संरक्षण से बाधित होती है न्यायिक प्रक्रिया।कानून के राज में सभी नागरिक समान है। लेकिन हालत यह है कि  न्याय के  रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। भारतीय लोक गणराज्य में न्याय नहीं,कानून का राज नही तो तो क्या क्या करेगा आम आदमी?आज फिर पुरुषतंत्र स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध फर्जी प्रतिवाद का जश्न मना रहा है। जबकि हमारी जेहन में गुवाहाटी की सड़क पर दिनदहाड़े नंगी कर दी गयी आदिवासी लड़की के लिए न्याय की आवाज बुलंद हो रही है।हमारी आंखों में इंफल की उन नग्न माताओं का प्रदर्शन आज भी जिंदा है,जो सैन्य शक्ति क बलात्कार की चुनौती दे रही हैं तबस लगातार। भारतीय लोक गणराज्य में फिलवक्त कोई स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। हमने ऐसा मुक्त बाजार चुना है कि पुरुषतंत्र की नंगी तलवारे हर पल स्त्री के वजूद को कतरा कतरा काट रहा है।


पश्चिम बंगाल सरकार के रवैये से नाराज राज्य के दुष्कर्म पीड़ितों के परिजनों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से गुहार लगाकर भी देख लिया। ये परिजन अपने प्रियजनों के साथ हुए दुष्कर्म की जांच सीबीआई से कराने का दबाव बनाते रहे हैं।लेकिन न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।24 परगना जिले के कमदुनी गांव और मुर्शिदाबाद जिले के खरजुना और रानीताला गांवों के लोगों के दिल्ली पहुंचने का बंदोबस्त रेल राज्य मंत्री और कांग्रेस के नेता अधीर चौधरी ने किया था। जिनके विरुद्ध मुर्शिदाबाद में कई आपराधिक माले लंबित हैं।दुष्कर्म के अपराधों पर टालमटोल भरा रवैया अपनाने के लिए इन तीनों गांवों के लोग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार से खासा नाराज हैं।


बारासात के कामदुनी गांव में सात जून,2013  को परीक्षा से लौट रही एक 20 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म किया गया और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई। ममता बनर्जी 10 दिनों बाद पीड़िता के घर गईं। कुछ महिलाओं ने जब उनके खिलाफ प्रदर्शन किया तो ममता आपा खो बैठीं। उन्होंने महिलाओं को चुप होने और माकपा की राजनीति न करने को कहा। बाद में उन्होंने दावा कि गांव में उनकी हत्या की साजिश रची गई थी। प्रदर्शन में माओवादी शामिल थे। राजनीतिक हस्तक्षेप से इस मामले को रफा दफा कर दिया गया।उल्टे ग्रामीणों के राष्ट्रपति से मिलने से तृणमूल कांग्रेस नाराज हो गयी। न्याय और कानून व्यवस्था बहालकरने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहती रही कि कुछ लोग उनकी सरकार की बदनामी करने का प्रयास कर रहे हैं।



तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एसएफआई नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत पर संगठन की ओर से किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि यह एक दुर्घटना थी। वहीं छात्र नेता की हिरासत में पिटाई से मौत होने संबंधी आरोपों के बीच कोलकाता पुलिस ने मीडिया से संयम बरतने को कहा।बाद में हुआ यह तक कि दिल्ली मे एसएफआई की बदसलूकी के शिकार हो गयी ममता खुद और ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की होने वाली अहम मुलाकात रद्द हो गई । योजना आयोग में वामपंथी कार्यकर्ताओं के विरोध पर ममता की नाराजगी की पृष्ठभूमि में बैठक रद्द हुई । नतीजा यह निकला कि यह मामला महज राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया।न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जिस कश्मीर में और इरोम शर्मिला के अनंत आमरण अनशन के बावजूद जारी है, सलवा जुड़ुम की जद में देश का जो आदिलवासी भूगोल है।भूमि संघर्षों का बथानीटोला जिस मध्य बिहार में है और खैरांजलि जैसा परिदृश्य जहा हैं,उनकी चर्चा बहुत हो चुकी है।आगामी लोकसभा के मद्देनजर कोई कानून के राज की अनुपस्थिति नहीं करता,न्याय से वंचित बहुसंख्य जनगण जिन्हें राजकाज के लिए अपने मताधिकार का प्रयोगकरना है,उनकी सुधि कोई नहीं ले रहा है।देश के अनेक हिस्सों में आज भी भारतीय कानून लागू नहीं है।


बंगाल में पार्टीबद्ध न्याय प्रक्रिया और पार्टीबद्ध कानून व्यवस्था की विरासत बेसक पैंतीस साल की वाम विरासत है।नंदीग्राम,सिगुर,केशपुर, वानतला, मरीचझांपी,नेताई, मंगलकोट,जंगलमहल,आनंद मार्गियों को जिंदा जलाने की घटनाएं वाम मोर्चे के सत्ता में वापसी के रोड ब्रेकर बनी हुई हैं।डायन बताकर स्त्री हत्या की जघन्य परंपरा बदस्तूर जारी है।


सवाल यह है कि परिवर्तन के बाद क्या इस परंपरा में कोई व्यवधान आया है या नहीं। जो नागरिक समाज और जो चमकीले चेहरे वामविरोधी भूमि आंदोलन के वक्त पार्टीबद्धता के दायरे को तोड़कर सड़कों पर थे, वे न सिर्फ नये सिरे से ज्यादा मुखरता के साथ पार्टीबद्ध हो गये हैं बल्कि मानवाधिकार और कानून के राज में उनके मोर्चे पर सन्नाटा छा गया है। वे तमाम आदरणीय व्यक्तित्व अपनी अपनी प्रतिबद्धता और सरोकार के नकदीकरण में निष्णात है।


सत्ता मलाई का जायका लेते लोगों को यह होश भी नहीं रहा कि परिवर्तन के बाद हालात सुधरने के बजाय बिगड़ ही रहे हैं। दिल्ली और मुंबई में स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों  में फैसले आ रहे हैं।उम्र कैद और फांसी तक की सजा हो रही है छह महीने के भीतर।इसके बावजूद पूरे पैंतीस साल के बाद भी मरीचझांपी प्रकरण की जांच शुरु ही नहीं हुई है।आनंदमार्गियों को जिंदा जलाने की घटना के बाद भी साढ़े तीन दशक बीत गये हैं और आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। राजनीतिक बंदियों की रिहाई का आंदोलनथम सा गया है।


स्त्री उत्पीड़न तो मां माटी मानुष सरकार के राजकाज में अमावस्या रात है जिसकी किसी सुबह का शायद ही किसी को इंतजार हो।वीभत्स तम बलात्कार कांड बंगाल का रोजनामचा है।राजनीतिक हिंसा का सिलसिला जारी है।बेदखली अभियान प्रोमोटर बिल्डर राज का अनिवार्य अंग है तो कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए संबद्ध अफसरों के हाथ पांव अब भी बंधे हैं। वाम शासन के दौरान बिना लोकल कमिटी की इजाजत के थाने में एफआईआर तक दर्ज नहीं होता था। आज वह हालत बदल गयी है,कोई दावा नही कर सकता।कोयलांचल हो या महानगर या उपनगर या नया कोलकाता या सीमाव्रती इलाके सर्वत्र अपराधियों के हौसले बुलंद हैं जो र्जनीतिकदलों के रथी महारथी भी हैं।


घाटाल के सत्तादल प्रत्याशी बांग्ला फिल्म के स्टार नंबर वन जब बलात्कार का मजा लेने का फार्मूला बताते हैं तो पता चलता है कि कामदुनी से लेकर वीरभूम तक तमाम बलात्कारकांडों की जांच  का क्या हश्र होना है।मध्यमग्राम,बारासात से लेकर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस में उत्पीड़ित जीवित या मृत स्त्रिया सिंगुर में बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गयी तापसी मलिक की नियति याद दिलाती है।


কোর্টের নির্দেশে পাঁচ লক্ষ ধর্ষিতাকে


বীরভূমের লাভপুরে গণধর্ষণ কাণ্ডে নির্যাতিতা আদিবাসী তরুণীর নিরাপত্তা ব্যবস্থা সুনিশ্চিত না করায় রাজ্য সরকারকে তীব্র ভর্ত্‍সনা করল সুপ্রিম কোর্ট৷ শুক্রবার এই গণধর্ষণ মামলার রায় দিতে গিয়ে দেশের সর্বোচ্চ আদালত বলেছে, নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষাতে সম্পূর্ণ ব্যর্থ হয়েছে রাজ্য পুলিশ ও প্রশাসন৷ রাজ্য সরকারকে এক মাসের মধ্যে নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দেওয়ার নির্দেশ দিয়েছে আদালত৷


ওই ঘটনায় অভিযোগ নেওয়া থেকে শুরু করে পুলিশি তদন্তের পরতে পরতে নানা অসঙ্গতিও শীর্ষ আদালতের নজর এড়ায়নি৷ সেই সব অসঙ্গতির কথা তুলে সুপ্রিম কোর্ট রাজ্য সরকারকে সতর্কও করে দিয়েছে৷ দেশের সর্বোচ্চ আদালতের নির্দেশের পর এদিন সন্ধ্যাতেই জেলাশাসক জগদীশ প্রসাদ মীনার নির্দেশে জেলা প্রশাসনের এক আধিকারিক নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দিয়ে আসেন৷ প্রসঙ্গত, গণধর্ষণের শিকার ওই তরুণীকে জেলা প্রশাসন একটি হোমে রেখেছে৷ সুপ্রিম কোর্টের বক্তব্য হল, কোনও ক্ষতিপূরণই এমন ক্ষেত্রে নির্যাতিতার জন্য যথেষ্ট নয়৷ তা সত্ত্বেও যেহেতু রাজ্য সরকার নির্যাতিতার মৌলিক অধিকার রক্ষার ক্ষেত্রে গুরুতর ব্যর্থতার নজির রেখেছে, তার জন্যই ক্ষতিপূরণ দরকার৷ রাজ্য সরকার অবশ্য ঘটনার পরপরই ৫০ হাজার টাকা ক্ষতিপূরণ বাবদ দিয়েছিল৷


লোকসভা ভোটের মুখে লাভপুর-কাণ্ডে সুপ্রিম কোর্টের এই রায়ে রাজ্য সরকার চরম অস্বস্তিতে পড়েছে৷ দু'দিন আগেই সারদা-কাণ্ডেও সিবিআই তদন্ত হতে পারে বলে সর্বোচ্চ আদালত ইঙ্গিত দিয়েছে৷ পরপর এই দু'টি ঘটনাতেই সুপ্রিম কোর্টের ভূমিকা নিয়ে রীতিমতো উদ্বিগ্ন রাজ্য প্রশাসন৷ তবে সুপ্রিম কোর্টের মতামত নিয়ে সরকারের তরফে কেউ কোনও প্রতিক্রিয়া জানাননি৷ লাভপুর থানার সুবলপুর গ্রামে সালিশি সভার ফতোয়ায় আদিবাসী তরুণীকে গণধর্ষণের অভিযোগটিকে কেন্দ্র করে সুপ্রিম কোর্ট প্রথম থেকেই কড়া অবস্থান নিয়েছিল৷ ২২ জানুয়ারি লাভপুর থানায় অভিযোগ দায়ের হওয়ার পরই গ্রাম্য সালিশিতে গণধর্ষণের ফতোয়ার খবর শুধু এ রাজ্যে বা দেশে নয়, বিদেশেও নিন্দার ঝড় তোলে৷ পরদিন বিভিন্ন সংবাদ মাধ্যমে খবরটি প্রকাশিত হওয়ার ২৪ ঘণ্টার মধ্যে স্বতঃপ্রণোদিত হয়ে সুপ্রিম কোর্টে মামলাটি রুজু করেছিলেন প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবম৷ যা রীতিমতো নজিরবিহীন৷ এর আগে ২০০৭ সালে ১৪ মার্চ নন্দীগ্রামে গুলি চালনার ঘটনায় কলকাতা হাইকোর্ট স্বতপ্রণোদিত হয়ে মামলা করে এবং সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেয়৷


আদিবাসী সমাজের বাইরের এক বিবাহিত যুবকের সঙ্গে সম্পর্ক গড়ে তোলার অভিযোগে সুবলপুর গ্রামের সালিশি সভায় তরুণীটিকে গণধর্ষণের ফতোয়া দেওয়া হয়েছিল বলে অভিযোগ ওঠে৷ সেই ফতোয়া মেনে নিগ্রহ করা হয় ওই যুবতীকে৷ ওই অভিযোগে ১৩ জনকে পুলিশ গ্রেপ্তারও করেছিল৷ নিম্ন আদালতে সেই মামলা এখনও বিচারাধীন৷ কিন্ত্ত দু'মাস পার হতেই নিজেদের রুজু করা মামলাতে শুক্রবার চূড়ান্ত রায় দিয়ে দিল প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবমের নেতৃত্বাধীন বেঞ্চ৷ ওই বেঞ্চের বাকি দুই সদস্য হলেন, বিচারপতি সারদ অরবিন্দ ববরে এবং এম ভি রামানা৷ হাসপাতালের চিকিত্‍সায় সুস্থ হওয়ার সুবলপুর গ্রামের ওই তরুণী ও তাঁর মাকে প্রশাসনের ব্যবস্থাপনায় সিউড়ির কাছে একটি হোমে রাখা হয়েছে৷ রায়ে সরাসরি তার উল্লেখ না থাকলেও ওই ধরনের ব্যবস্থাপনার সমালোচনা করেছে সুপ্রিম কোর্টের বেঞ্চ৷ শীর্ষ আদালতের মতে, থাকার অন্তর্বর্তী ব্যবস্থা সাময়িক নির্যাতিতাকে সুরক্ষা দিতে পারে মাত্র, কিন্ত্ত তাদের জন্য দীর্ঘস্থায়ী পুনর্বাসন জরুরি৷


সুপ্রিম কোর্টের নির্দেশ, নিগৃহীতার নিরাপত্তা সুনিশ্চিত করার জন্য সংশ্লিষ্ট এলাকার সার্কেল ইন্সপেক্টরকে রোজ তাঁর আবাস পরিদর্শন করতে হবে৷ এই মামলার প্রসঙ্গে সুপ্রিম কোর্টের প্রধান বিচারপতির নেতৃত্বাধীন ওই বেঞ্চ অতীতের একাধিক মামলার কথাও টেনে এনেছে৷ তার মধ্যে উল্লেখযোগ্য হল, ২০০৬ সালের লতা সিং বনাম উত্তরপ্রদেশ সরকার মামলা, ২০১১ সালের আরু মুগম সারভাই বনাম তামিলনাড়ু সরকার মামলা, ২০১০ সালের শক্তি বাহিনী বনাম কেন্দ্রীয় সরকার মামলা ইত্যাদি৷ ওই সব মামলার উল্লেখ করে সুপ্রিম কোর্ট বলেছে, মোদ্দা কথা হল সংবিধানের একুশ নম্বর ধারায় ভারতীয় নাগরিকদের বিবাহ ক্ষেত্রে পছন্দের স্বাধীনতাকে স্বীকার করে নেওয়া হয়েছে৷ কিন্ত্ত অধিকাংশ ক্ষেত্রেই দেখা যাচ্ছে, পুলিশ-প্রশাসন এসব ক্ষেত্রে অযাচিত ভাবে হস্তক্ষেপ করছে৷ আবার কখনও পুলিশ-প্রশাসন নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষায় যথাযথ ভূমিকা নিচ্ছে না৷ তারই পরিণতি হিসেবে এ ধরনের ঘটনা ঘটছে৷


লাভপুর-কাণ্ডে স্বতঃপ্রণোদিত ভাবে মামলা রুজু করার পর রাজ্য সরকারের রিপোর্টের উপর কখনই ভরসা রাখতে পারেনি দেশের শীর্ষ আদালত৷ মামলাটি রুজু হওয়ার দিনেই বীরভূমের জেলা বিচারক ও মুখ্য বিচারবিভাগীয় ম্যাজিস্ট্রেটকে ঘটনাস্থল পরিদর্শন করে রিপোর্ট দিতে সুপ্রিম কোর্ট নির্দেশ দিয়েছিল৷ কিন্ত্ত ওই বিচারকদের রিপোর্টও যে তাদের খুশি করতে পারেনি, শুক্রবারের রায়ে তা স্পষ্ট৷ ওই রায়ে জানানো হয়েছে, অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে পুলিশের ব্যবস্থা গ্রহণ সম্পর্কে কোনও তথ্য ছিল না ওই রিপোর্টে৷ বরং নানা অসঙ্গতি ছিল তাতে৷ অসন্ত্তষ্ট আদালত গত ৩১ জানুয়ারি রাজ্যের মুখ্যসচিবের কাছে বিস্তারিত রিপোর্ট তলব করে৷ একই সঙ্গে অতিরিক্ত সলিসিটর জেনারেল সিদ্ধার্থ লুথরাকে আদালত-বান্ধব নিযুক্ত করেছিল সুপ্রিম কোর্ট৷ তাঁর পর্যবেক্ষণেই আদালতের নজরে এসেছিল পুলিশের অসঙ্গতিগুলি৷ যেমন, অনির্বাণ মণ্ডল নামে যিনি প্রথম ঘটনাটিতে এফআইআর দায়ের করেছিলেন, তাঁর উপস্থিতিকে অপ্রাসঙ্গিক মনে করেছে সুপ্রিম কোর্ট৷ তাছাড়া ভারতীয় দণ্ডবিধি অনুযায়ী এ ধরনের ঘটনায় মহিলা অফিসারের মাধ্যমে অভিযোগ গ্রহণ বাধ্যতামূলক হলেও তা মানা হয়নি৷


সালিশি সভা একটি গ্রামের ব্যাপার হলেও ফতোয়া দেওয়ার ওই সভাতে যে সংলগ্ন গ্রাম বিক্রমুর ও রাজারামপুরের মানুষ উপস্থিত ছিলেন, তাও সুপ্রিম কোর্টের নজর এড়ায়নি৷ সালিশি সভা ২০ জানুয়ারি রাতে হয়েছিল কি না, তা নিয়ে এফআইআর ও জুডিশিয়াল অফিসারদের রিপোর্টে ফারাক ধরা পড়েছে সুপ্রিম কোর্টের পর্যবেক্ষণে৷


BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

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BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

 BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)

Bharatiya Janata Party President Rajnath Singh on Sunday said people who came from Bangladesh after 1971 and settled in Assam or elsewhere in the country should be treated as illegal migrants and necessary action be taken against them.

“Everybody knows that there has been a huge influx of people of a particular community from Bangladesh during the last four decades and certain political parties have patronised them for vote-bank politics,” Singh said a rally at Karimganj in Barak Valley.

“If BJP comes to power, we’ll institute an inquiry to find out how so many people of a particular community could enter the country illegally and settle down,” Singh said.

“If, however, anybody comes with proper passport, visa or work permit, we have no problem with that but we cannot accept if they do not go back and settle down here,” the BJP chief said.

“In the case of Hindus being harassed in Bangladesh and forced to flee that country, we cannot treat them as refugees, but must be sympathetic to their cause,” he said.

“BJP does not believe in distinction between different religions or on division of the country on the basis of religion as was done during the time of Independence,” he said.

“BJP believes in politics of humanity and not of religion. In Assam, we make no difference between Hindus and Muslims, but illegal migrants who are a threat to the indigenous population, will not be tolerated,” he said.

“Earlier, before BJP came to power in 1998, India was considered a weak country and this was a matter that always hurt Vajpayeeji. After coming to power, he decided that India will carry out nuclear tests and though many countries opposed it, he went on with the tests,” he said.

“Powerful countries threatened to stop economic aid and imposed sanctions, but we finally emerged strong and no country considers us weak now,” Singh said.

In 2014, Hindutva versus caste

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In 2014, Hindutva versus caste

VARGHESE K. GEORGE
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The question in this general election is whether Hindutva will triumph over caste. There are at least three factors clearly nudging politics towards Hindu consolidation

Of the numerous public appearances by the Bharatiya Janata Party (BJP) prime ministerial candidate Narendra Modi over the last year or so, two have been strikingly inconceivable. Both happened in Kerala, often projected as a politically progressive State. In February 2014, Mr. Modi addressed a meeting of Pulayas, a Dalit community that has been for years a bedrock of support for the Communist parties. In April 2013, Mr. Modi was chief guest at the Sivagiri Mutt, founded by Kerala’s legendary social reformer, Sree Narayana Guru who led the backward Ezhava community to social awakening. The Ezhavas too have been largely supporters of the Left. At both the platforms — events separated by more than a year — Mr. Modi made a similar pitch. “Social untouchability may have ended, but political untouchability continues,” he said, referring to the continuing isolation that he faces from various quarters.

“The next decade will belong to the Dalits and the backwards,” he said, emphasising his own lower caste origins, at a rally in Muzaffarpur in Bihar on March 3. That event too was significant as he was sharing the stage with Lok Jansakti Party chief Ram Vilas Paswan, who returned to the saffron fold 12 years after he quit it over the Gujarat riots. And there is more to it. Dalit leader Udit Raj, who has been fashioning himself as the new age Ambedkar, joined the BJP. So did Mr. Ramkripal Yadav, who has for years been a shadow of Rashtriya Janata Dal chief Lalu Prasad Yadav, a champion of backward class politics in Bihar.

The BJP’s efforts to overcome caste barriers in its project to create an overarching Hindu identity are showing signs of success, though it is still far from being a pan-Indian phenomenon. “Mr. Modi has broken the stranglehold of caste. The affinity of these Dalits and backward leaders for the BJP is a clear indication of his acceptance among them,” says Mr. Dharmendra Pradhan, BJP general secretary.

The issue of caste identity

Among the several factors that slowed down Hindutva politics in India, caste identity has been prominent. Politically empowered sections of the backwards and Dalits viewed the Sangh project of a unified Hindu society with suspicion, as its insistence on traditions implied sustenance of the hierarchical social structure that disadvantaged them. One of the most pronounced examples of this was Dr. B.R. Ambedkar, who concluded that Dalit emancipation would not be possible while they remained within the Hindu social order. In turn, Baba Saheb — portrayed with considerable fulmination in Arun Shourie’s book, Worshipping False Gods — has been a villain in the Sangh discourse. But in 2013, an article in the Organiser, the mouthpiece of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), portrayed the Dalit icon as someone who contributed to Hindu unity.

The Hindutva project tried a combination of aggressive integration, sometimes accommodating Sanskritising demands from below and constantly working on the fear of an “Other.” But until they hit upon the idea of replacing a mosque in Ayodhya with a temple, all of this could not gather enough strength for the BJP to win a majority in any region of India. But coinciding with the Ayodhya movement was also a great upsurge of backwards, triggered by the implementation of the Mandal Commission report. Subsequently, caste and religion alternated as the prime moving force of politics, depending on the particularities of the time and place, in parts of northern and western India. The BJP gained power in several States. But except in Gujarat, the debate has not been settled conclusively in favour of Hindutva.

The question, therefore, in this election is whether Hindutva will triumph over caste. There are at least three factors clearly nudging politics towards Hindu consolidation.

Debate on Muslim reservation

Hindutva politics in Gujarat rode on violent anti-reservation agitations spearheaded by the Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (ABVP) in the 1980s. Though the agitation was against the reservation for backwards, the targets were Dalits. Almost immediately after the agitation, Hinduvta politics struck roots, co-opting vast sections of the lower castes into its fold, even as a rising portrayal of Muslims as the “other” unified them. But the trajectory in Uttar Pradesh and Bihar that together elect 120 members of Parliament has been different, as strong backward politics suspected the RSS on the question of reservation and found Muslims as allies. Ironic as it is, quota politics is dividing them now. The lower castes see the demand for Muslim quotas as detrimental to their interests. The case for affirmative action for Muslims is strong, no doubt, but the politics over it has played out much to the advantage of the Hindutva project. A social coalition that has been a bulwark against Hindutva in U.P. and Bihar for the last two decades is showing signs of unravelling.

The Dalit participation in the Muzaffarnagar riots in U.P., and the numerous Yadav versus Muslim skirmishes in Bihar over the last two years have strained the solidarity among the poor and the disadvantaged. Lower caste movements that challenged caste structures have also had a streak of Sanskritising aspirations that seek a better place within the Hindu hierarchy. When the image of the “other” is clearer, this streak becomes prominent.

Willingness to concede leadership

The lower caste sympathy towards the Hindutva project has been matched by a willingness among the upper castes to be content under the leadership of the lower. The turning point was the 2005 Assembly election in Bihar, when the BJP-JD(U) alliance sought a mandate, with Mr. Nitish Kumar being declared as the chief ministerial candidate. Only six months prior to that, when the alliance vacillated over projecting him — because the upper caste segments were not comfortable with the idea of a backward caste CM — it could not win and there was no clear majority for any formation. In 2007, the upper castes voted for Dalit leader Ms. Mayawati in U.P. who won a clear majority, the first for any since the Ayodhya movement. In 2010, the rainbow caste coalition voted for Mr. Nitish Kumar again; in 2012, another variant of the coalition voted for backward caste leader Mr. Akhilesh Yadav in U.P.

This change in the upper caste attitude can dramatically turn round the fortunes of the BJP. The BJP has been responsive to the leadership ambitions of the backwards and Dalits, but the upper caste support to leaders such as Mr. Kalyan Singh and Ms. Uma Bharti has been tentative. “We have the so-called backwards and lower castes standing up and wanting to be counted as Hindus. Sangh has empowered them. Even the communist movements could not accommodate these sections of the society in their leadership,” says Mr. Ram Madhav, senior RSS leader. “In 1998, the BJP had 58 MPs who were SCs and STs, possibly the highest for any party ever as a proportion of its strength,” he says. With Mr. Modi at the helm and the change in upper caste attitudes, the Sangh’s efforts have got a major fillip.

Media-propelled popularity

A third factor that has developed over the last decade is the dramatic popularity achieved by several lower caste gurus, aided by the visual media. To cite two examples, both Swami Ramdev, who was born a Yadav in Haryana and Mata Amritanandamayi, born in a fisherman’s community in Kerala, have attained such a huge following that their caste origins have been eclipsed. TV evangelism, as opposed to scriptural Hinduism controlled by priests, has enrolled a large section of poorer and lower caste people into thinking as Hindus. This may be a rerun of how TV serial “Ramayan” contributed to the Ayodhya movement; and lower caste Hindu gurus are not unprecedented. What makes it all extremely potent is the context of a certain level of economic prosperity among the lower castes, media penetration and the Sangh propaganda.

The terms of engagement between the state and the poor, between the upper and the lower castes, and between Hindus and Muslims could change further in the emerging scenario. “Lalu and Mulayam had managed to command backward castes support with a the promise of share in power. Mr. Modi’s politics for backwards and Dalits is not based on doles and welfare schemes, but overall development,” says Mr. Pradhan.

varghese.g@thehindu.co.in

ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा : वीरेन डंगवाल

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DetailsCategory: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK]Created on Monday, 31 March 2014 13:10Written by राहुल पांडेय
Rising Rahul : वीरेन दा, आपसे तो मुझे न जाने कि‍तने सालों पहले मि‍लना था, पर मैं खुद में बंद आदमी खुद से कभी इतना बाहर ही न आ पाया कि उस यायावरी से जुड़ सकूं, जि‍सने ताजिंदगी आपको बखूबी बरता। अभी भी मुझे खुद से बाहर आने में काफी दि‍क्‍कत है, पर दुख ये है कि अब आपके पास समय कम है...

अभी तक दि‍माग में आपके वो शब्‍द गूंज रहे हैं और शरीर का हर रोंया खड़ा हो जा रहा है कि 'ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा।'


आगे आपने न जोड़ा, न कहा, पर हमने समझ लि‍या और आपकी अनकही हम कभी स्‍वीकार भी न करेंगे वीरेन दा, बता दे रहे हैं अभी से। और हां, Yashwant को बोलने दीजि‍ए एलि‍यन एलि‍यन... मुझे आप बहुत खूबसूरत लगे... ठीक उतने, जि‍तने कि आप हैं।

[B]पत्रकार राहुल पांडेय के फेसबुक वॉल से.[/B]

[HR]

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