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बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

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बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि

लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है


पलाश विश्वास



भाई फैसल अनुराग ने लिखा हैः

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे यदि हम अब भी नहीं सचेत हुए तो। ये बड़ी कम्पनिओं के एजेंटों की पार्टियाँ हैं। हमारे जंगल और खदानों को लूटने के लिए ये हमें खरीदना चाहतीं हैं। हम बिरसा की तरह मरना पसंद करेंगें लेकिन बिकना नहीं। एक मुंडा ने एक भाषण में यह कहा।

तो रियाज ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता पोस्ट की है।


इन दोनों के एक ही प्रसंग और संदर्भ में रखकर आज का यह रोजनामचा है।


रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दोनों टाप के कवि थे तो टाप के पत्रकार भी।हिंदी पत्रकारिता के नवउदारवादी संघी मसीहा संप्रदाय के अभ्युत्थान  से पहले,आपरेशन ब्लू स्टार पर बाकायदा इंदिरागांधी को संपादकीय में बिना देर स्वर्णमंदिर प्रवेश का उपदेश देते हुए हिंदुत्व की मौलिक तूफान रचने में जो सबसे ज्यादा सिद्धहस्त थे और मौजूदा तमाम दिग्गज जिनके आशीर्वादधन्य  गुरुघंटाल हैं,उनके  सर्वव्यापी वर्चस्व की वजह से आज न कविता में और न पत्रकारिता में कोई उनकी कहीं चर्चा करता है।


हमने तो दिनमान से पत्रकारिता के सरोकार के साथ साथ उसकी भाषा भी आत्मसात की है।जिस जनसत्ता प्रभाव में पत्रकीारिता की तत्सम मुक्ति संभव हुआ,उसमें भी सर्वेश्वर और सहाय के साथी हरिशंकर व्यास,वनवारी,जवाहरलाल कौल के साथ मंगलेश डबराल की महती भूमिका रही है।


आज भले ही रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर की तरह औद्योगिक पूंजी का समय नहीं है। लंपट,क्रोनी,आवारा वित्तीय पूंजी के शिकंजे में हैं भारतवर्ष,लेकिन समझने वाली बात तो यह भी है कि उनसे भी पहले सामंती उत्पादनप्रणालीमध्ये  मुक्तिबोध, प्रेमचंद और रामविलास शर्मा का रचा आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेज आज भी हमें दिशाबोध कराते हैं।


सर्वेश्वर का लकड़बग्घा आज का यथार्थ समाजवास्तव है। कारपोरेट क्रोनी कैपिटल अबाध प्रवाहमान,नरसंहार अभियान अबाध और इस राजसूय यज्ञ को फासीवादी कर्मकांड में बदलने का यह आयोजन बाकायदा चुआड़ विद्रोह उपरांत अंत्यजों से बेदखल भूमि के स्थाई बंदोबस्त के  तहत बरतानी गर्भजात शासक वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्तावर्ग के सर्वव्यापी आधिपात्य  धाराप्रवाह समय में भगवान बीरसा के अरण्य के अधिकार के उद्गोष के बिना प्रतिरोध असंभव है।


ख्या करने की बात तो यह है कि भारत का संविधान रचने वाले डा.बीआर अंबेडकर ने भी अंततः चेतावनी दी थीः


Parliamentary Democracy has never been a government of the people or by the people, and that is why it has never been a government for the people. Parliamentary Democracy, notwithstanding the paraphernalia of a popular government, is in reality a government of a hereditary subject class by a hereditary ruling class. It is this vicious organization of political life which has made Parliamentary Democracy such a dismal failure. It is because of this Parliamentary Democracy has not fulfilled the hope it held out the common man of ensuring to him liberty, property and pursuit of happiness.


-Dr Babasaheb Ambedkar


भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हालात और विकल्पहीनता के इस संकट पर इस अंबेडकरी तात्पर्य के संदर्भ में भी चर्चा होनी चाहिेए।


अंबेडकर क्या,जिस बरतानी संसदीय लोकतंत्र के हम लोग अनुगामी हैं,उसपर जार्ज बनार्ड शा का लिखा एप्पिल कार्ट का अध्ययन भी बेहद प्रसंगिक है। जहां जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनती की सरकार वाली अवधारणा पर शा की दीर्घायित विचारोत्तेजक प्रस्तावना है।


धनतंत्र कोई नयी व्यवस्था तो है ही नहीं। भारतीय वंशवादी नस्ली सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर की यह चेतावनी समझनी होगी।


मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि स्टार स्पोर्ट्स पर हर ओलर अंतराल अबकी बार मोदी सरकार के उद्घोष को भारतीय जीत की  धारावाहिकता में या मोदी की तर्ज पर या घर घर मोदी की तर्ज पर रुपांतरित करने से कैसे चूक गये मोदियाये सृजनकर्मी।


इस नारे को तो हिसाब से अब यह होना चाहिेए कि अबकी बार मोदी की सरकार,भारत की जय जयकार।


लगता है कि सेमीफाइनल या फाइनल में अश्वमेधी घोड़ों के पिट जाने की आशंका से उन्होंने यह दुस्साहस नही किया होगा।


खेलों में जो मुक्त बाजार का खेल है,वह आइकोनिक अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि है।


विज्ञापनी सितारे अब चुनाव के सबसे जीतने काबिल उम्मीदवार है।यह संकट कितना घनघोर है कि चंडीगढ़ में किरण खेर और गुल पनाग का मुकाबला है तो मेरठ में मोहसिना किदवई के संसदीय विकल्प बतौर प्रस्तुत हैं नगमा।बंगाल में तो सितारे ही चुनाव मैदान में हैं और उनके रोडशो में फैनीतूफान में बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता निष्णात है।


भारतीय समाज में जाति व्यवस्था, वर्णवर्चस्व, वंशवाद और नस्ली क्षेत्रीय भेदभाव का नतीजा है आज का फासीवाद,जिसे विकास के लिए धर्मोन्माद के विकल्प बतौर मैनेजरी सूचनाई विशेषज्ञता और दक्षता के मार्फत सर्जिकल प्रिसिजन के साथ पहले ही खस्ताहाल जनप्रतिनिधित्व शून्य लोकतंत्र की देह में असंवैधानिक नीति निर्धारक चिप्स की सतरह प्रस्थापित किया जा रहा है।


बताया जा रहा है कि संघ परिवार अब राम मंदिर को हिंदुत्व का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं मानता।


इसे संघी एजंडा का विचलन समझने की भूल कर रहे हैं हम।


हिंदुत्व के मुकाबले अगर ध्रूवीकरण हुआ तो अहिंदू अस्मिताओं का भी ध्रूवीकरण होना लाजिमी है। जिसका विस्फोट हम हाल में खूब देखते रहे हैं।


इसीलिए अस्मिताओं के कामयाब और नाकाम पिटे हुए चेहरों को भी फैसन परेड में केसरिया कायाकल्प में प्रस्तुत करना संघी रणनीति है ताकि पैदल सेनाओं को एकदूसरे के विरुद्ध लामबंद किया जा सकें।


राम मंदिर हो न हो,संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र का एजंडा मौलिक तौर पर अमल में लाने की तैयारी है।


दरअसल हम जिस लकड़बग्घे के सामने हैं,उसका चेहरा शायद सर्वेश्वर के बिंबसंयोजन में भी अनुपस्थित है।


हिटलरी मुसोलिनिया फासीवाद नाजीवाद का जायनी मुक्त बाजारी उत्तरआधुनिक संस्करण है यह लकड़बग्घा,जो अब तक का सबसे जहरीला तत्व है।


विकास के बहाने इस विकल्प को जनादेश में अनूदित करने का प्रकल्प मोदी सर्वभूतेषु है।


दैविक विशुद्धता नस्ली भेदभाव का अंतःस्थल है और हम ईश्वरत्व में लोकतंत्र को समाहित करने लगे हैं।


लकड़बग्घा का यह अवतार ग्रह ग्रहांतर में भी स्वतंत्रता और मानवाधिकार, प्रकृति,पर्यावरण,मनुष्य और मौसमचक्र के भयावह विवर्तन का महाकाव्य है,जहां मर्यादा पुरुषोत्तम या देवि दुर्गा के हाथों सारे आयुध सौंपे जा रहे है दानवीकृत बहुसंख्य के वध के लिए।


इस वधउत्सव में बिरसा मुंडा का प्रतिरोधकल्पे आवाहन बेहद जरुरी है।


ध्यान देने वाली बात है कि अस्मिताओं के आधार पर हो रहे निर्वाचन में जाति,वंश के साथ आवारा क्रोनी पूंजी के तमाम तत्वों की निर्णायक भूमिका है।


ध्यान देने योग्य बात यह है कि कांग्रेस को भारतीय जनता खारिज करती ,उससे पहले तमाम रेटिंग एजंसियां खारिज कर चुकी है।


विनिवेश,प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन, कर संशोधन और श्रम कानूनों का सफाया,सेवाओं के मुक्त बाजार के संदर्भ में कांग्रेस की नीतिगत विकलांगता के विरोध में कारपोरेट साम्राज्यवाद का स्वर अपने ही गुलामों के विरुद्ध मुखर है।


ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक मंच बतौर अपनी भूमिका निभाती रही है,जिसका कोई वैचारिक चरित्र कभी नहीं रहा है।


कांग्रेस एजंडा मार्फत काम करती रही है।


आर्थिक सुधारों को लागू करते वक्त पांरपारिक जनाधार की चिंता कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक मजबूरी रही है तो नेतृत्व में वंशवादी विरासत का बोझ उसकी ऐतिहासिक कमजोरी।


मीडिया जो उसके विरुद्ध हुआ,उसे समझने के लिए मीडियामध्ये आप का अभ्युत्थान और माडियामध्ये उसका उसीतरह विसर्जन के घटनाक्रम को समझने की जरुरत है।


कारपोरेट और अमेरिकी हितों के विरुद्ध किसी तरह का स्वर इस पतित लोकतंत्र में मुक्तबाजार में तब्दील लोकतंत्र में असंभव हुआ,इसीलिए अरविंद केजरीवाल के तमाम वरदहस्त अब परिदृश्य से अदृश्य हैं।


उसी तरह अमेरिकी एजंडे को लागू करने में नाकाम कांग्रेस जनाधारों को टटोलने और वंशवादी नेतृत्व बहाल करने के अनिवार्य कार्यभार के चलते अब इस मुक्तबाजारी लोकतंत्र में जनादेश का विकल्प नहीं है।


इस पर भी ध्यान देना जरुरी है कि आर्थिक सुधारों के पहले चरण के कार्यान्वयन में राममंदिर सर्वस्व संघ परिवार गुजरात के भयावह नरसंहार के बावजूद पूरी तरह व्यर्थ रहा है।


जो सुधार लागू हुए वे मनमोहनी पहली और दूसरी यूपीए सरकारों ने पिछले दशक में लागू कर दिये।


विनिवेश मंत्रालय का आविस्कार भाजपा ने किया तो उसके राजकाज को संभव बनाया वाम समर्थित यूपीए ने ही।


प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की अनंत धारा और अबाध पूंजी प्रवाह के महायज्ञ को पूर्णाहुति दी गयी मनमोहनी ईश्वरत्व केमाध्यम से ही।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है श्रम कानूनों का सफाया न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है खुदरा बाजार और रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी विनिवेश को संभवव न बना पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है जंगल में जारी जनयुद्ध को सलवा जुडु़म पद्धति से निपटा न पाना और बहुराष्ट्रीय पूंजी की असंख्य परियोजनाओं का वर्षों से लंबित हो जाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है करसंशोधनों के जरिये प्रभुवर्ग के साथ कारपोरेट लंपट क्रोनी आवारा  पूंजी को पूरीतरह करमुक्त न कर पाना।मुक्त बाजार से मुटियाये कारपोरेट इंडिया को अब छूट,रियायत और प्रोत्साहन में कोई रुचि है ही नहीं।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है वित्तीय संशोधनो के जरिये वित्तीय पूंजी के हवाले नागरिकों की जन माल न  कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है बायोमेट्रिक डिजिटल आधार प्रकल्प के बावजूद सब्सिडी को पूरी तरह खत्म न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकाम है भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन करके आतंक के विरुद्ध युद्ध के बहाने एशिया महाद्वीप  के बाजार में एकाधिकार वर्चस्व के लिए रणनीतिक अमेरिकी,इजरायली बरतानी पारमाणविक गठजोड़ के तहत बाजार और संसाधनों पर पूरा कब्जा कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है भारतीय देहात को कृषि के सफाये के साथ उपभोक्तावादी शहरी चरित्र न दे पाना।


ये तमाम सुधार विकास के पर्याय हैं।


ये तमाम सुधार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण का एजंडा है।


ये तमाम अधूरे कार्य भारत की नई बनने वाली केंद्र सरकार के अनिवार्य कार्यभार हैं।


इसी एजंडा को अपनाने के लिए राममंदिर की तिलांजलि के बिना कारपोरेट समर्थन असंभव है और देस में सर्वभूतेषु मोदी भी असंभव है।


इसीलिए बंधु,राममंदिर का मुद्दा अब संघ एजंडा में सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।


विकास या आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के एजंडा के कार्यान्वयन का घोषणापत्र  है हर संघी पदक्षेप का तात्पर्य। लेकिन इसका कहीं यह मतलब भी नहीं कि वह रामरथी लालकृष्ण आडवानी के बलिदान से अपने हिंदुत्व के एजंडे का परित्याग कर चुका है या काशी से मुरली मनोहर जोशी के स्थानांतरण मार्फत उसने अपने चरित्र से विचलन भी नहीं अंगीकार किया है।


हम पहले से निरंतर लिखते रहे हैं कि नस्ली हिंदुत्व की विशुद्धता जनसंहारी रक्तपात की फसल है तो उसी खेत की उपज है यह मुक्त बाजार।


विकास का मायने चुआड़ विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,संन्यासी विद्रोह,गोंड विद्रोह,नील विद्रोह में शामिल हमारे तमाम पूर्वजों से लेकर शहीदेआजम भगत सिंह और स्वत्ंत्र भारत में जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हर व्यक्ति को मालूम है।


बहुसंख्य जनगण को अपनी पैदल सेना बनाये रखने के लिए डायवर्सिटी की समरसी समावेशी चादर ओढ़कर धर्मोन्मादी मुख से विकास का अखंड जाप है यह और वहविकास सचमुच गुजरात माडल का विकास है।


सर्वेश्वर के लकड़बग्घे का मायने बदल गया है।






लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/30/2014 11:59:00 AM



सर्वेश्वरदयाल सक्सेनाकी कविता. देखिए कि लकड़बग्घा कितने करीब आ गया है और उसके चेहरे पर खून के निशान कितने ताजा हैं. आपकी लाठी और लालटेन कहां है?


उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के

करीब आ गया है

यह जो हल्की सी आहट

खुनकती हंसी में लिपटी

तुम सुन रहे हो

वह उसकी लपलपाती जीभ

और खूंखार नुकीले दांतों की

रगड़ से पैदा हो रही है।

इसे कुछ और समझने की

भूल मत कर बैठना,

जरा सी गलत गफलत से

यह तुम्हारे बच्चे को उठाकर भाग जाएगा

जिसे तुम अपने खून पसीने से

पोस रहे हो।

लोकतंत्र अभी पालने में है

और लकड़बग्घे अंधेरे जंगलों

और बर्फीली घाटियों से

गर्म खून की तलाश में

निकल आए हैं।

उन लोगों से सावधान रहो

जो कहते हैं

कि अंधेरी रातों में

अब फरिश्ते जंगल से निकलकर

इस बस्ती में दुआएं बरसाते

घूमते हैं

और तुमहारे सपनों के पैरों में चुपचाप

अदृश्य घूंघरू बांधकर चले आते हैं

पालने में संगीत खिलखलिता

और हाथ-पैर उछालता है

और झोंपड़ी की रोशनी तेज हो जाती है।


इन लोगों से सावधान रहो।

ये लकड़बग्घे से

मिले हुए झूठे लोग हैं

ये चाहते हैं

कि तुम

शोर न मचाओ

और न लाठी और लालटेन लेकर

इस आहट

और खुनकती हंसी

का राज समझ

बाहर निकल आओ

और अपनी झोंपड़ियों के पीछे

झाड़ियों में उनको दुबका देख

उनका काम-तमाम कर दो।


इन लोगों से सावधान रहो

हो सकता है ये खुद

तुम्हारे दरवाजों के सामने

आकर खड़े हो जाएं

और तुम्हें झोंपड़ी से बाहर

न निकलने दें,

कहें-देखो, दैवी आशीष बरस

रहा है

सारी बस्ती अमृतकुंड में नहा रही है

भीतर रहो, भीतर, खामोश-

प्रार्थना करते

यह प्रभामय क्षण है!


इनकी बात तुम मत मानना

यह तुम्हारी जबान

बंद करना चाहते हैं

और लाठी तथा लालटेन लेकर

तुम्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते।

ये ताकत और रोशनी से

डरते हैं

क्योंकि इन्हें अपने चेहरे

पहचाने जाने का डर है।

ये दिव्य आलोक के बहाने

तुम्हारी आजादी छीनना चाहते हैं।

और पालने में पड़े

तुम्हारे शिशु के कल्याण के नाम पर

उसे अंधेरे जंगल में

ले जाकर चीथ खाना चाहते हैं।

उन्हें नवजात का खून लजीज लगता है।

लोकतंत्र अभी पालने में है।


तुम्हें सावधान रहना है।

यह वह क्षण है

जब चारों ओर अंधेरों में

लकड़बग्घे घात में हैं

और उनके सरपरस्त

तुम्हारी भाषा बोलते

तुम्हारी पोशाक में

तुम्हारे घरों के सामने घूम रहे हैं

तुम्हारी शांति और सुरक्षा के पहरेदार बने।

यदि तुम हांक लगाने

लाठी उठाने

और लालटेन लेकर बाहर निकलने का

अपना हक छोड़ दोगे

तो तुम्हारी अगली पीढ़ी

इन लकड़बग्घों के हवाले हो जाएगी

और तुम्हारी बस्ती में

सपनों की कोई किलकारी नहीं होगी

कहीं एक भी फूल नहीं होगा।

पुराने नंगे दरख्तों के बीच

वहशी हवाओं की सांय-सांय ही

शेष रहेगी

जो मनहूस गिद्धों के

पंख फड़फड़ाने से ही टूटेगी।

उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे

तुम्हारी जबान बोलना भूल जाएगी

लाठी दीमकों के हवाले हो जाएगी

और लालटेन बुझ चुकी होगी।

इसलिए बेहद जरूरी है

कि तुम किसी बहकावे में न आओ

पालने की ओर देखो-

आओ आओ आओ

इसे दिशाओं में गूंज जाने दो

लोगों को लाठियां लेकर

बाहर आ जाने दो

और लालटेन उठाकर

इन अंधेरों में बढ़ने दो

हो सके तो

सबसे पहले उन पर वार करो

जो तुम्हारी जबान बंद करने

और तुम्हारी आजादी छीनने के

चालाक तरीके अपना रहे हैं

उसके बाद लकड़बग्घों से निपटो।


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के करीब

आ गया है।



उम्र के लपेटे में फंसे वीरेन दा की चार कविताओं से ध्याड़…

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उम्र के लपेटे में फंसे वीरेन दा की चार कविताओं से 

ध्याड़…

भारत सिंह||
पिछले साल मेरी उम्र ६५ की थी/ तब मैं तकतरीबन पचास साल का रहा होऊंगा/ इस साल मैं ६५ का हूं/ मगर आ गया हूं गोया ७६ के लपेटे में. वीरेन दा ने अपनी कविताओं से हमें फिर से ध्याड़ लगाई है. इसमें थोड़ी निराशा है तो इसके झींने पर्दे के पीछे छुपीं ढेरों ऊर्जा और आशा भी. तमाम नाउम्मीदों को एक जीवंत पुकार से मीलों पीछे धकेल देने वाले हमारे वीरेन दा आज कह रहे हैं- दोस्तों-साथियों मुझे छोड़ना मत कभी/कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूंगा प्यार से/दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा. अरे वीरेन दा, तुम्हें भला कैसे छोड़ सकते हैं तुम्हारे चाहने वाले? पर वीरेन दा, तुम्हें उम्र की कबसे फिक्र होने लगी, तुम्हारे यार तो तुम्हारी जुल्फों के बीच से कभी नजर न आने वाली तुम्हारी चांद और सफेदी की झलक पाने के चक्कर में दर्जनों बाजियां हार गए. यारबाज वीरेन दा आप कहां उम्र के लपेटे में फंसे हो, उससे होना-पाना कुछ नहीं, आप तो आज भी २५ से लेकर ७५  तक के यारों के लिए वीरेन दा और वीरेन ही हो.images
वीरेन दा को जानने वाले लोग उनकी जिंदादिली को भी बखूबी जानते हैं. ऐसी बीमारी जो अपनी चर्चाओं में ही हमें तोड़े दे रही हो वीरेन दा उससे गप्प हांकते हुए कह रहे हैं- ...मेरा ये कमबख्त दिल/डाक्टर कहते हैं कि ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद पर काम कर रहा है/मगर ये कूदता है, भागता है, शामी कबाब और आईसक्रीम खाता है/शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है इन्कलाब जिंदाबाद कहते हुएसच वीरेन दा, ये सब जुलूस, धरने सूने हैं आपके बिना. भले ही सालों बाद मिलो वीरेन दा का दिल उसी ठिकाने पर मिलता है- अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूं/ हां जी हां वही कनफटा हूं, हेठा हूं/टेलीफोन की बगल में लेटा हूं/रोता हूं धोता हूं रोता-रोता धोता हूं/तुम्हारे कपड़ों से खून के निशां धोता हूं. 
कवि और पत्रकार वीरेन दा कहीं भी रहें उनकी चौकन्नी नजर अब भी सबकुछ नोट कर रही है- पैसे देकर भी हमने धक्के खाये/तमाम अस्पतालों में/हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया/सिला गया भूंजा गया/झुलसाया गया/तोड़ डाली गईं हमारी हड्डियां/और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजेहद/हमें हिफाजत से रखने की थीं. कैसी जो हिफाजत होती होगी वह, जिसे वीरेन दा का दिल नहीं मानता. वह तो घोड़े के पैर पर नाल ठोंके जाने से भी कचोट उठता है. बरेली में रिपोर्टिंग के दौरान परेशानहाल वीरेन दा के पास पहुंचो तो कहते थे, यार ये भी क्या गजब का काम-धंधा हुआ? आदमी पेट भरने के लिए ऐसा अमानवीय काम करने को मजबूर है कि घोड़े के पैरों पर नाल तक ठोंक रहा है. इसकी भी रिपोर्टिंग करो यार। वीरेन दा ये रिपोर्ट भी अभी रह ही गई है.
ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया/कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूं तुमसे मैं. वीरेन दा तुमने तो दुनियादारी के साथ कदम साधते हुए लाढ़-प्यार जताना खूब सीखा, पर अभी ये सब हमें सिखाना बाकी है. तुम्हारा प्यार हमें खूब मिला पर अब भी मिलना बाकी है. कैसे जो हम भूखे-प्यासे दिनों में तुम्हारे घर आते थे, ठीक तुम्हारे सोने के समय में सेंध लगाते हुए- दोपहर तीन बजे के आस-पास. फिर भी तुम अपने हाथों से चांद की तरह गोल हाफ ब्वॉयल एग बनाकर और उस पर काली मिर्च का पाउडर छिड़ककर लाते और चाय के साथ पिलाते थे. फिर तमाम मुश्किलों को अपनी एक हुंकार से भगाकर और अपनी कलाकारी से बेहतर दिनों की उम्मीद ओढ़ाकर हमें वापस काम पर भेजते थे.
खामोशी से इस बेहरम शहर को जी रहे वीरेन दा हमें पता चला है कि इंदिरापुरम में ही रह रहे हो. तुम इस तरह तो छुप-छुपा न पाओगे कभी, तुम्हारी कविताएं तुम्हारे दिल का हाल हमें बता रही हैं. सुना है, बीती होली भी ऐसी ही बीती है तुम्हारी- हाय मैं होली कैसे खेलूं तेरी मैट्रो में/तेरी फौज पुलिस के सिपाही/ली लीन्हा मेरी जामा तलासी तेरी मैट्रो में/एक छोटी पुड़िया हम लावा/उससे ही काफी काम चलावा/बिस्तर पर लेटे-लेटे खेल लिये जमकर के होली/आं-हां तेरि मैट्रो में. अरे वीरेन दा, ये आवाज के जादू से खुलने वाली मैट्रो तु्म्हें रंगों से खेलने से क्या और कैसे रोकेगी, जिन रंगों के सोते फूटे पड़ रहे हैं तुम्हारे भीतर. अभी तो वीरेन दा, हमें बीते साल ही पता चला है तुम्हारे सधे अंदाज में मजाज की ये गजल गाने का, शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूं..फिर ये तुम्हारे मुंह से सुननी और साथ-साथ गानी भी तो बाकी है. ये तो गलत बात ही हुई न वीरेन दा कि अपनी पुराने यारों के साथ तो तुम ये गजल खूब गाए हो और हमारे साथ नहीं.


Read more: http://mediadarbar.com/26376/four-poims-of-viren-da/#ixzz2xZ5VNFzE

और अपने लिए एक नयी जनता चुन लें

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और अपने लिए

एक नयी जनता चुन लें

पलाश विश्वास

जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे / बर्तोल ब्रेख्त

जर्मनी में

जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे

और यहां तक कि

मजदूर भी

बड़ी तादाद में

उनके साथ जा रहे थे

हमने सोचा

हमारे संघर्ष का तरीका गलत था

और हमारी पूरी बर्लिन में

लाल बर्लिन में

नाजी इतराते फिरते थे

चार-पांच की टुकड़ी में

हमारे साथियों की हत्या करते हुए

पर मृतकों में उनके लोग भी थे

और हमारे भी

इसलिए हमने कहा

पार्टी में साथियों से कहा

वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं

क्या हम इंतजार करते रहेंगे

हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो

इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में

हमें यही जवाब मिला

हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते

पर हमारे नेता कहते हैं

इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है

हर दिन

हमने कहा

हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं

आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से

पर साथ-साथ यह भी कहते हैं

मोरचा बना कर ही

हम जीत सकते हैं

कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो

यह छोटा दुश्मन

जिसे साल दर साल

काम में लाया गया है

संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में

जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को

फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में

हमने देखा है मजदूरों को

जो लड़ने के लिए तैयार हैं

बर्लिन के पूर्वी जिले में

सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं

जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं

लड़ने के लिए तैयार रहते हैं

और शराबखाने की रातें बदले में मुंजार रहती हैं

और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत नहीं कर सकता

क्योंकि गलियां हमारी हैं

भले ही घर उनके हों


अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पांडेय

और भारत में जब फासिस्ट मजबूत हो रहे हैंः

The Economic Times

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The Economic Times

10 hours ago

Tata Motors, HCL Tech top FY13 profits in just 9 monthshttp://ow.ly/vg8jtPhoto: Tata Motors, HCL Tech top FY13 profits in just 9 months http://ow.ly/vg8jt




माफ कीजिये मेरे मित्रों,भारत और पूरी तीसरी दुनिया के देशों में हूबहू ऐसा ही हो रहा है।सत्ता वर्ग अपने हितों के मुताबिक जनता चुन रही है और फालतू जनता का सफाया कर रही है।
हमने अमेरिकी खुफिया निगरानी तंत्र के सामंजस्य में आंतरिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर बार बार लिखा है और हमारे सारे साथी इस बात को बार बार लिखते रहे हैं कि कैसे राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है और धर्मोन्मादी कारपोरेट सैन्य राष्ट्र ने किस तरह अपने ही नागरिकों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।

क्रयशक्ति संपन्न कथित मुख्यधारा के भारत को अस्पृश्य वध्य इस भारत के महाभारत के बारे में कुछ भी सूचना नहीं होती।

जब हममें से कुछ लोग कश्मीर,मणिपुर समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर और आदिवासी भूगोल में नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हैं,तो उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का अभियोग चस्पां हो जाता है।
जिस देश में इरोम शर्मिला के अनंत अनशन से नागिक बेचैनी नहीं है,वहां निर्वाचन प्रहसन के सिवाय क्या है,हमारी समझ से बाहर है।
पूरे भारत को गुजरात बना देने का जो फासीवादी विकास का विकल्प जनादेश बनाया जा रहा है,उसकी परिणति मानवाधिकार हनन ही नहीं, वधस्थल के भूगोल के विस्तार की परिकल्पना है।

सबसे बड़ी दिक्कत है कि हिंदू हो या अहिंदू,भारत दरअसल भयंकर अंधविश्वासी कर्मकांड में रात दिन निष्णात हैं।जो जाति व्यवस्था के आधीन हैं, वे भ्रूण हत्या के अभ्यस्त हैं तो जाति व्यवस्था के बाहर या तो निरंकुश फतवाबाजी है या फिर डायनहत्या की निरंतर रस्में।


हम जो अपने को भारत का नागरिक कहते हैं,वे दरअसल निष्क्रिय वोटर के सिवाय कुछ भी नहीं हैं।वोट डालने के अलावा इस लोकतंत्र में हमारी कोई राजनीतिक भूमिका है ही नहीं।हमारे फैसले हम खुद करने के अभ्यस्त नहीं हैं।


मीडिया सोशल मीडिया की लहरों से परे अंतिम सच तो यह है कि लहर वहर कुछ होता ही नहीं है। सिर्फ पहचान होती है।पहचान अस्मिता की होती है।


जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग हमारे प्रतिनिधित्व का फैसला कर देते हैं।जो फैसला करने वाले लोग हैं,वे सत्ता वर्ग के होते हैं।


जो चुने जाते हैं,वे सत्ता वर्ग की गूंगी कठपुतलियां हैं।


सत्ता वर्ग के लोग अपनी अपनी सेहत के मुताबिक हवा और मौसम रचते हैं,हम उसी हवा और मौसम के मुताबिक जीना सीखते हैं।


इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हमारी कोई भूमिका नहीं है।


नरेंद्र मोदी या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररुपेण संस्थिते हैं, लोकिन अंततः वह ओबीसी हैं और चायवाला भी। अगर वह नमोमयभारत के ईश्वर हैं और हर हर महादेव परिवर्ते हर हर मोदी है,घर घर मोदी है,तो हम उसे ओबीसी और चायवाला साबित क्यों कर रहे हैं। क्या भारत काप्रधानमंत्रित्व की भूमिका ओबीसी सीमाबद्ध है या फिर प्रधानमंत्री बनकर समस्त भारतवासियों को चाय परोसेंगे नरेंद्र मोदी।


हमने बार बार लिखा है कि राजनीति पहले रही होगी धर्मोन्मादी और राजनीति अब भी धर्मोन्मादी ही रहेगी।लेकिन राजनीति का कारपोरेटीकरण,राजनीति का एनजीओकरण हो गया है। राजनीति अब बिजनेस मैनेजमेंच है तो सूचना प्राद्योगिकी भी। राजनेता अब विज्ञापनी माडल हैं।विज्ञापनी माडल भी राजनेता हैं।


तो यह सीधे तौर पर मुक्त बाजार में मार्केटिंग है। मोदी बाकायदा एक कमोडिटी है और उसकी रंगबिरंगी पैकेजिंग वोर्नविटा ग्रोथ किंवदंती या फेयरनेस इंडस्ट्री के काला रंग को गोरा बनाने के चमत्कार बतौर प्रस्तुत की जा रही है।नारे नारे नहीं हैं।नारे मािनस कार्यक्रम है।नारे बिन विचारधारा है।नारे दृष्टिविहीन है।नारे अब विज्ञापनी जिंगल है।जिन्हें लोग याद रख सकें।नारे आक्रामक मार्केटिंग है,मार्केटिंग ऐम्बुस है।खरीददार को चकाचौंध कर दो और बकरा को झटके से बेगरदन करदो। जो विरोध में बोलें,उसे एक बालिश्त छोटा कर दो।


फासीवाद का भी कायाकल्प हो गया है।मोहिनीरुपेण फासीवाद के जलवे से हैलन के पुराने जलवे के धुंधलाये ईस्टमैनकालर समय जीने लगे हैं हम।


मसलन जैसा कि हमारे चुस्त युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा हैः


Forward Pressका ताज़ा चुनाव विशेषांक देखने लायक है। मालिक समेत प्रेमकुमार मणि और एचएल दुसाध जैसे बहुजन बुद्धिजीवियों को इस बात की जबरदस्‍त चिंता है कि बहुजन किसे वोट देगा। इसी चिंता में पत्रिका इस बार रामविलास पासवान, अठावले और उदित राज की प्रवक्‍ता बनकर अपने पाठकों को बड़ी महीनी से समझा रही है कि उन्‍होंने भाजपा का दामन क्‍यों थामा। जितनी बार मोदी ने खुद को पिछड़ा नहीं बताया होगा, उससे कहीं ज्‍यादा बार इस अंक में मोदी को अलग-अलग बहानों से पिछड़ा बताया गया है। इस अंक की उपलब्धि एचएल दुसाध के लेख की ये आखिरी पंक्तियां हैं, ध्‍यान दीजिएगा:


''चूंकि डायवर्सिटी ही आज बहुजन समाज की असल मांग है, इसलिए एनडीए यदि खुलकर डायवर्सिटी की बात अपने घोषणापत्र में शामिल करता है तो बहुजन बुद्धिजीवी भाजपा से नए-नए जुड़़े बहुजन नेताओं के समर्थन में भी सामने आ सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो हम इन नेताओं की राह में कांटे बिछाने में अपनी सर्वशक्ति लगा देंगे।''


इसका मतलब यह, कि भाजपा/संघ अब बहुजनों के लिए घोषित तौर पर non-negotiable नहीं रहे। सौदा हो सकता है। यानी बहुजन अब भाजपा/संघ/एनडीए के लिए दबाव समूह का काम करेंगे। बहुत बढि़या।


इस पर मंतव्य निष्प्रयोजनीय है।अंबेडकरी आंदोलन तो गोल्डन ग्लोब में समाहित है, समाजवादी विचारधारा विशुद्ध जातिवाद के बीजगणित में समाहित है तो वामपंथ संसदीय संशोधनवाद में निष्णात।गांधीवाद सिरे से लापता।


इस कायाकल्पित मोहिनीरुपेण फासीवाद के मुाबले यथार्थ ही पर्याप्त नहीं है,यथार्थ चैतन्य बेहद जरुरी है।ब्रेख्त की पंक्तियां हमें इसकी प्रासंगिकता बताती हैं।


इसी सिलसिले में कवि उदय प्रकाश ने ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति कथाकारी अंदाज में उकेर दी है। अब अगली बहस इसी पर।

उदय प्रकाश ने एक जरुरी बहस के लिए इशारा कर दिया है।इसलिए उनका आभार।


हिटलरशाही का नतीजा जो जर्मनी ने भुगता है,आज के धर्मोन्मादी कारपोरेट समय में उसे समझने के लिए हमें फिर पिर ब्रेख्त की कविताओं और विशेषतौर पर उनके नाटकों में जाना होगा।


सामाजिक यथार्थ महज कला और साहित्य का सौंदर्यबोध नहीं है,जो चकाचौंधी मनोरंजन की अचूक कला के बहुरंगी बहुआयामी खिड़कियां खोल दें हमारे लिए।सामाजिक यथार्थ के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिभंगी इतिहास बोध के सामंजस्य से ही जनपक्षधर सृजनधर्मिता का चरमोत्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।


फासीवाद के जिस अनिवार्य धर्मोन्मादी कारपोरेट यथार्त के बरअक्श हम आज हैं, वह ब्रेख्त का अनचीन्हा नहीं है और कला माध्यमों को हथियार बतौर मोर्चाबंद करने की पहल इस जर्मन कवि और नाटककार ने की,यह खास गौरतलब है।


''सरकार का

जनता पर से विश्वास

उठ चुका है


इसलिए

सरकार को चाहिए

कि वह जनता को भंग कर दे


और अपने लिए

एक नयी जनता चुन ले ...''


(यह सटीक अनुवाद तो नहीं, ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति भर है. जिन दोस्तों को मूल-पाठ की याद हो, वे प्रस्तुत कर सकते हैं.)


उदय प्रकाश ने यह उद्धरण भी दिया हैः

''उनके माथे और कनपटियों की

तनी हुई,

तनाव से भरी,

उभरी-फूली हुई

नसों को ग़ौर से देखो ...


ओह!

शैतान होना

कितना मुश्किल हुआ करता है ...!''


(ब्रेख़्त और Tushar Sarkarके प्रति आभार के साथ, अनुकरण में इस छूट के लिए !)


इस बहस के भारतीय परिप्रेक्ष्य और मौजूदा संकट के बारे में विस्लेषण से पहले थोड़ा ब्रेख्तधर्मी भारतीय रंगमंच और ब्रेख्त पर चर्चा हो जाना जरुरी भी है।


संक्षेप में जर्मन कवि, नाटकार और निर्देशक बर्तोल ब्रेख्त का जन्म 1898 में बवेरिया (जर्मनी) में हुआ था। अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को यथार्थवाद के आगे का रास्ता दिखाया। बर्तोल्त ब्रेख्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इसी ने उन्हें 'समाज'और 'व्यक्ति'के बीच के अंतर्संबंधों को समझने नया रास्ता सुझाया। यही समझ बाद में 'एपिक थियेटर'जिसकी एक प्रमुख सैद्धांतिक धारणा 'एलियनेशन थियरी' (अलगाव सिद्धांत) या 'वी-इफैक्ट'है जिसे जर्मन में 'वरफ्रेमडंग्सइफेकेट' (Verfremdungseffekt) कहा जाता है।ब्रेख्त का जीवन फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का जीवन था। इसलिए उन्हें सर्वहारा नाटककार माना जाता है। ब्रेख्त की मृत्यु 1956 में बर्लिन (जर्मनी) में हुई।

भारतीय रंगकर्म के तार ब्रेख्त से भी जुड़े हैं।दरअसल,संगीत, कोरस, सादा रंगमंच, महाकाव्यात्मक विधान, यह सब ऐसी विशेषताएं हैं जो ब्रेख्त और भारतीय परंपरा दोनों में मौजूद हैं, जिसे हबीब तनवीर और भारत के अन्य रंगकर्मियों ने आत्मसात किया।छत्तीसगढ़ी कलाकारो के टीम के माध्यम से सीधे जमीन की सोंदी महक लिपटी नाट्य अनुभूति की जो विरासत रच गये हबीबी साहब,वह यथार्थ से चैतन्य की सार्थक यात्रा के सिवाय कुछ और है ही नहीं।


भारत में बांग्ला, हिंदी, मराठी और कन्नड़ रंगकर्म से जुड़े मूर्धन्य तमाम लोगों ने इस चैतन्य यात्रा में शामिल होने की अपनी अपनी कोशिशें कीं। हबीबी तनवीर और गिरीश कर्नाड,बा बा कारंथ से लेकर कोलकाता के नादीकार तक ने।दरअसल भारत में नये नाट्य आंदोलन के दरम्यान 60-70 के जनआंदोलनी उत्ताल समय में ब्रेख्त भारतीय रंगमंच के केंद्र में ही रहे। इसी दौरान जड़ों से जुड़े रंगमंच का नारा बुलंद हुआ और आधुनिक भारतीय रंगमंच पर भारतीय लोक परंपरा के रंग प्रयोग किए जाने लगे। यह प्रयोग नाट्य लेखन और मंचन दोनों क्षेत्रों में हो रहा था। ऐसे समय में ब्रेख्त बहुत अनुकूल जान पड़े।


गौरतलब है कि ब्रेख्त के लिये नाटक का मतलब वह था, जिसमें नाटक प्रेक्षागृह से निकलने के बाद दर्शक के मन में शुरू हो। उन्होंने नाटक को एक राजनीतिक अभिव्यक्ति माना, जिसका काम मनोरंजन के साथ शिक्षा भी था।ब्रेख्त ने अपने सिद्धांत एशियाई परंपरा से प्रभावित होकर गढ़े थे। 1935 में ब्रेख्त को चीनी अभिनेता लेन फेंग का अभिनय देखने का अवसर रूस में मिला, जहां हिटलर के दमन और अत्याचार से बचने के लिये ब्रेख्त ने शरण ली थी। फेंग के अभिनय से प्रभावित होकर ब्रेख्त ने कहा कि जिस चीज की वे वर्षो तक विफल तलाश करते रहे, अंतत: उन्हें वह लेन फेंग के अभिनय में मिल गई। ब्रेख्त के सिद्धांत निर्माण का यह प्रस्थान बिंदु है।


कवि उदय प्रकाश मौजूदा संकट को इस तरह चित्रार्पित करते हैंः


२३ दिसंबर १९४९ की आधीरात, जब फ़ैज़ाबाद के डी.एम. (कलेक्टर) नायर थे, उनकी सहमति और प्रशासनिक समर्थन से, बाबरी मस्ज़िद के भीतर जो मूर्ति स्थापित की गई, उसकी बात इतिहास का हवाला बार-बार देने वाले लोग क्यों नहीं करते ?

इस तथ्य के पुख्ता सबूत हैं कि इस देश में सांप्रदायिकता को पैदा करने वाले और इस घटना के पूर्व, ३० जनवरी, १९४८ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या करने वाली ताकतें अब केंद्रीय सत्ता पर काबिज होेना चाहती हैं.

उनके अलंकृत असत्य और प्रभावशाली वागाडंबर (लफ़्फ़ाज़ी) के सम्मोहन ने और पूरी ताकत और तैयारी के साथ, उन्हीं के द्वारा खरीद ली गयी सवर्ण मीडिया के प्रचार ने देश के बड़े जनमानस को दिग्भ्रमित कर दिया है.

क्या 'विकास' की मृगमरीचिका दिखाने वाले नेताओं के पास अपना कोई मौलिक, देशी विचार और परियोजना है? या यह तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक और मानवीय संपदा को बर्बरता के साथ लूट कर, उसे कार्पोरेट घरानों को सौंप कर, सिर्फ़ अपना हित साधने वाले सत्ताखोर कठपुतलों के हाथों में समूचे देश की संप्रभुता को बेचने वालों को सपर्पित कर देने की एक देशघाती साजिश है, जिसे 'राष्ट्रवाद' का नाम दिया जा रहा है ?

यह एक गंभीर संकट का समय है.

सिर्फ़ चुनाव में जीतने और हारने की सट्टेबाज़ी का सनसनीखेज़ विज़ुअल तमाशा और फ़कत राजनीतिक जुआ यह नहीं है.

ऐसा मुझे लगता है .



राजीव नयन बहुगुणा का कहना है

इतिहास के सर्वाधिक रक्त रंजित, अंधकारपूर्ण और कम ओक्सिजन वाले दौर के लिए तत्पर रहिये ।संभवत इतिहास की देवी अपना मुंह अपने ही खून से धोकर निखरना चाहती है ।एक बार वोट देने के बाद जो क़ौम पांच साल के लिए सो जाती है , उसे ये दिन देखने ही पड़ते हैं। अंधड़ का मुकाबला कीजिये ।...ये रात खुद जनेगी सितारे नए -नए

हिमांशु कुमार लिखते हैं

तुम ने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा

आज वो कुचा-ओ-बज़ार में आ निकला है


कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन के

खून चलता है तो रुकता नहीं सन्गीनों से

सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों सेतुम ने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा  आज वो कुचा-ओ-बज़ार में आ निकला है    कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन के  खून चलता है तो रुकता नहीं सन्गीनों से  सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से


आप को विकास करना है

आप को मेरी ज़मीन पर कारखाना लगाना है

तो आप सरकार से कह कर मेरी ज़मीन का सौदा कर लेंगे

फिर आप मेरी ज़मीन से मुझे निकलने का हुक्म देंगे

में नहीं हटूंगा तो आप मुझे मेरी ज़मीन से दूर करने के लिये अपनी पुलिस को भेजेंगे

आपकी पुलिस मुझे पीटेगी , मेरी फसल जलायेगी

आपकी पुलिस मेरे बेटे को देश के लिये सबसे बड़ा खतरा बता कर जेल में डाल देगी

तुम्हारी पुलिस मेरी बेटी के गुप्तांगों में पत्थर भर देगी

में अदालत जाऊँगा तो मेरी सुनवाई नहीं की जायेगी

में कहूँगा कि यह कैसा विकास है जिसमे मेरा नुक्सान ही नुक्सान है

तो तुम पूछोगे अच्छा तो वैकल्पिक विकास का माडल क्या है तेरे पास बता ?

आप पूछेंगे कि हम तेरी ज़मीन ना लें तो फिर विकास कैसे करें ?


अजीब बात है यह तो .

विकास तुम्हें करना है विकल्प में क्यों ढूंढूं ?

में तुम्हें क्यों बताऊँ कि तुम मेरी गर्दन कैसे काटोगे ?

अरे तुम्हें विकास करना है तो उसका माडल ढूँढने की जिम्मेदारी तुम्हारी है भाई .


राष्ट्र तुमने बनाया

इसे लोकतन्त्र तुमने बताया

राष्ट्रभक्ति के मन्त्र तुमने पढ़े

अब इस राष्ट्र के बहाने से तुम मेरी ज़मीन क्यों ले रहे हो भाई

क्या राष्ट्र मेरी ज़मीन छीन कर मज़ा करने के लिये बनाया था ?

क्या राष्ट्र तुमने इसीलिये बनाया था कि तुम राष्ट्र के नाम पर इस सीमा के भीतर रहने वाले गरीबों को पीट कर उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लो


अगर राष्ट्र हम गरीबों के लिये नहीं है

अगर इस राष्ट्र की फौज पुलिस और बंदूकें मेरी बेटी की रक्षा के लिए नहीं हैं

अगर राष्ट्र मुझे लूटने का एक साधन मात्र है तुम ताकतवर लोगों के हाथों का

तो लो फिर

में तुम्हारे राष्ट्र से स्तीफा देता हूं

अब तुम्हारा और मेरा कोई लेना देना नहीं है

मैंने तुम्हें अपनी तरफ से आज़ाद किया

अब अगर तुम अपनी पुलिस मेरी ज़मीन छीनने के लिये भेजोगे तो में उसका सामना करूँगा

में अपनी ज़मीन अपनी बेटी और अपनी आजादी की हिफाज़त ज़रूर करूँगा


में गाँव का आदिवासी हूं

अजीब बात है

जब तुम्हारे सिपाही की गोली से मैं मरता हूं

तब तुम मेरी मरने के बारे में बात भी नहीं करते

लेकिन जब तुम्हारे लिये मेरी ज़मीन छीनने के लिये भेजे गये तुम्हारे सिपाही मरते हैं तब तुम राष्ट्र राष्ट्र चिल्लाने लगते हो .

बड़े चालाक हो तुम .


मेरे मृत्यु के समय तुम

साहित्य धर्म और अध्यात्म की फालतू चर्चा करते रहते हो

तुम्हारे साहित्य धर्म और अध्यात्म में भी मेरी कोई जगह नहीं होती

मेरी मौत तुम्हारे राष्ट्र के लिये कोई चिन्ता की बात नहीं है तो मैं तुम्हारे विकास की चिन्ता में अपनी ज़मीन क्यों दे दूं भाई ?


अगर तुम्हें मेरी बातें बुरी लग रही हैं तो

मेरी तरह मेहनत कर के जीकर दिखाओ

बराबरी न्याय और लोकतन्त्र का आचरण कर के दिखाओ

इंसानियत से मिल कर रह कर दिखाओ

हमें रोज़ रोज़ मारने के लिये हमारे गाँव में भेजी गई पुलिस वापिस बुलाओ

तुम्हारी जेल में बंद मेरी बेटी और बेटों को वापिस करो

फिर उसके बाद ही अहिंसा लोकतन्त्र और राष्ट्र की बातें बनाओ .


लेकिन शंभूनाथ शुक्ल कुछ और ही लिख रहे हैं

वैसे अगर भारत में 'हेट स्पीच' की आजादी मिल जाए तो पता चलेगा कि यहां तो हर व्यक्ति घृणा का टोकरा लादे है। कोई अपने पड़ोसी से नफरत करता है तो कोई अपने भाई या बहन से कुछ तो अपने मां-बाप, बेटे-बेटियों से नफरत करते मिल जाएंगे। यहां अन्य धर्मावलंबियों की तुलना में हिंदू अपने ही धर्म की अलग-अलग जातियों के प्रति ऐसी घृणा का भाव पाले हैं कि शायद वे विधर्मियों के प्रति ऐसी नफरत नहीं करते होंगे। जरा इसका माइक्रो लेबल पर एनालिसिज करिए तो पाएंगे यहां जातियां अपनी ही सब कास्ट वालों को नीचा दिखाने उन्हें प्रताडि़त करने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहतीं। यही हाल पेशों में है। अगर आप चाय बेचते हैं तो राजा-रानी का मुकाबला कैसे कर सकते हैं? मैं अपने शुरुआती दिनों में साइकिल में पंचर जोड़ता था इसलिए आज भी मेरे बहुत सारे रिश्तेदार मुझसे बराबरी का व्यवहार नहीं करते। और मौका आने पर ताना मारते हैं कि कल तक तुम साइकिल के पंचर लगाया करते थे। आज भी गांव में देखिए जब कुएं में पानी भर रहे हों तो एक जाति जब अपना गगरा भर कर चली जाती है तो दूसरी जाति को ऊपर चढऩे की मंजूरी मिलती है। पहले तो ठाकुर ही भरेगा फिर बांभन फिर बनिया और फिर लाला। इसके बाद अहीर, कुर्मी, लोध, कहार, काछी। यहां तक कि उन गांवों में भी नहीं जहां जमींदारी यादव, कुर्मी या लोधों की थी। और कुआं बनवाया हुआ उन्हीं जातियों का है पर वे कुएं की जगत पर तब ही चढ़ सकते हैं जब ठाकुर साहब के घर का गग़रा भर जाएगा. दलितों के टोले के लोगों को तो ठाकुर के कुएं की जगत पर चढऩे की इजाजत तक नहीं है। इसी तरह खान साहब के यहां पहले खानखाना, फिर सैयद, शेख आदि वहां भी मनिहार को उस वक्त तक कुएं की जगत में चढऩे की इजाजत नहीं मिलती जब तक शेख साहब के घर का गगरा न भर जाए।

अब हिमांशु कुमार

आजादी मिलने के बाद भारत की सत्ता कहीं बड़ी जातियों के हाथ से निकल ना जाय इसलिए बड़ी जतियों ने सत्ता अपने हाथ में रखने के लिए भारत की राजनीति का लक्ष्य नागरिकों की समानता नहीं बल्कि हज़ारों साल पहले मर चुके एक राजा का मंदिर बनाना घोषित कर दिया .

फिर हिमांशु कुमार

इलाहबाद के आज़ाद पार्क के नज़दीक लगाईं गयी शहीद भगत सिंह की प्रतिमा को नगर निगम वाले उठा कर ले गए .


ठीक भी है . भगत सिंह होते तो खुद ही अपनी प्रतिमा हटवा देते .


उनके दीवानों को भी समझना चाहिए कि अब निज़ाम बदल चूका है .


अब वहाँ हेडगवार साहब या सावरकर साहब की मूर्ती लगाई जायेगी शायद .


सरकारें और उसके कारिंदे ऐसे ही खुद की दिखावटी भक्ति बदलते रहते हैं .


तुम भी बदलाव के लिए तैयार रहो कामरेड .

सुरेंद्र ग्रोवर

मैंने कभी यह नहीं कहा कि केजरीवाल प्रधानमंत्री बन सकता है.. हाँ, इतना ज़रूर मानता हूँ कि वह जागरूकता फैला रहा है.. हमें नहीं चाहिए परम्परागत राजनीति.. इस देश को परम्परागत राजनैतिक दलों, चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा या वामपंथी या अन्य क्षेत्रीय दलों की राजनीति ने गर्त में पहुँचाने की जैसे कसम ही खा रखी है.. बहुत हुआ.. अब हमें नई राजनीतिक इमारत की बुनियाद रखनी ही होगी.. अभी नहीं तो कभी नहीं..

सत्य नारायण

केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।

http://www.mazdoorbigul.net/archives/4272

जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

अंग्रेजी से अनुवादः रामकृष्ण पाण्डेय

जर्मनी में

जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे

और यहां तक कि

मजदूर भी

बड़ी तादाद में

उनके साथ जा रहे थे

हमने सोचा

हमारे संघर्ष का तरीका गलत था

और हमारी पूरी बर्लिन में

लाल बर्लिन में

नाजी इतराते फिरते थे

चार-पांच की टुकड़ी में

हमारे साथियों की हत्या करते हुए

पर मृतकों में उनके लोग भी थे

और हमारे भी

इसलिए हमने कहा

पार्टी में साथियों से कहा

वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं

क्या हम इंतजार करते रहेंगे

हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो

इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में

हमें यही जवाब मिला

हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते

पर हमारे नेता कहते हैं

इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है

हर दिन

हमने कहा

हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं

आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से

पर साथ-साथ यह भी कहते हैं

मोरचा बना कर ही

हम जीत सकते हैं

कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो

यह छोटा दुश्मन

जिसे साल दर साल

काम में लाया गया है

संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में

जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को

फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में

हमने देखा है मजदूरों को

जो लड़ने के लिए तैयार हैं

बर्लिन के पूर्वी जिले में

सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं

जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं

लड़ने के लिए तैयार रहते हैं

और चायखाने की रातें बदले में गुंजार रहती हैं

और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत

नहीं कर सकता

क्योंकि गलियां हमारी हैं

भले ही घर उनके हों

मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014

सुरेंद्र ग्रोवर

गुजरात सरकार ने अपनी सभी वेब साईटस से आर्थिक डेटा हटा दिया है क्योंकि केजरीवाल के सवालों ने उनकी पोल खोल दी थी.. अब गुजरात सरकार सफाई दे रही है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के कारण ऐसा किया गया.. हाय, मैं मर जावां, सब्जी च मीठा पा के.. इतने भोले भी न समझो हमें..

शंभूनाथ शुक्ल

गुजरा गवाह, लौटा बाराती और स्याही लगवाकर आया वोटर तीनों को फिर कोई नहीं पूछता।

मोहन क्षोत्रिय

‪#‎आंधी‬जब चलती है, तो ऐसी चलती है कि थमने का नाम ही लेती, और जब थम जाती है तो कुछ समय बाद ही लगने लगता है कि कभी चली ही न थी !


आंधी के मुरझा जाने /थम जाने के बाद आंधी की चर्चा कोई खास मायने नहीं रखती, वर्तमान अथवा भविष्य के लिए !


हां, उसका आनंद वैसे तो लिया जा सकता है जैसे किस्सों का लिया जाता है !


तो दोस्तों, अच्छा लगे या बुरा, आंधी मुरझाने तो लग ही गई है ! ऐसा वे लोग भी कहने लगे हैं जिन्होंने शुरू में इसे आंधी का नाम दिया था !

समझ के बारे में / बर्तोल ब्रेख्त

कलाकारवृंद, तुम जो चाहे-अनचाहे

अपने आपको दर्शकों के फ़ैसले के हवाले करते हो,

भविष्य में उतरो, ताकि जो दुनिया तुम दिखाओ

उसे भी दर्शकों के फ़ैसले के हवाले कर सको ।


जो है तुम्हें वही दिखाना चाहिए,

लेकिन जो है उसे दिखाते हुए तुम्हें

जो होना चाहिए और नहीं है, और जो राहतमंद हो सकता है

उसकी ओर भी इशारा करना चाहिए,

ताकि तुम्हारे अभिनय से दर्शक

        अभिनीत चरित्र से बर्ताव करना सीख सकें।

इस सीखने-सिखाने को रोचक बनाओ,

सीखने-सिखाने का काम कलात्मक तरीके से होना चाहिए

और तुम्हें लोगों और चीज़ों के साथ बर्ताव करना भी

         कलात्मक तरीके से सिखाना चाहिए,

कला का अभ्यास सुखद होता है ।


तय मानो; तुम एक अँधेरे वक़्त में रह रहे हो,

शैतानी ताक़तों द्वारा आदमी को फ़ुटबाल की तरह

         आगे-आगे उछाला जाता तुम देखते हो,

सिर्फ़ कोई जाहिल ही निश्चिंत रह सकता है,

जो संशयमुक्त हैं; उनकी तो पहले ही अधोगति बदी है,

हम शहरों में जो मुसीबतें झेलते है; उनकी तुलना में

इतिहास-पूर्व के मनहूस वक़्त के भूचाल क्या थे ?

विपुलता के बीच हमें बरबाद करती तंघाली के बर‍अक्स

         ख़राब फ़सलें क्या थीं ?


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


सबसे पीछे जा छिपा / बर्तोल ब्रेख्त

लड़ाई लड़ी जा चुकी है, अब हमें खाना शुरू करना चाहिए !

सबसे काले दौर को भी ख़त्म होना ही पड़ता है ।

लड़ाई के बाद बच गए लोगों को अपने छुरी-काँटें सँभाल लेने चाहिए ।

टिका रहनेवाला आदमी ही अधिक ताक़तवर होता है

और शैतान सबसे पीछे जा छिपता है ।

ओ निश्चेष्ट धड़कनो, उठो !

ताक़तवर वह है जो अपने पीछे किसी को नहीं छोड़ता ।

फिर से बाहर निकलो, लँगड़ाते हुए— रेंगते हुए

       जैसे भी हो; अपने को दाँव पर लगाओ

और जो सबसे पीछे जा छिपा है उसे आगे ला— पेश करो !


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

नया ज़माना / बर्तोल ब्रेख्त

नया ज़माना यक्-ब-यक् नहीं शुरू होता ।

मेरे दादा पहले ही एक नए ज़माने में रह रहे थे

मेरा पोता शायद अब भी पुराने ज़माने में रह रहा होगा ।


नया गोश्त पुराने काँटें से खाया जाता है ।


वे पहली कारें नहीं थीं

न वे टैंक

हमारी छतों पर दिखने वाले

वे हवाई जहाज़ भी नहीं

न वे बमवर्षक,


नए ट्राँसमीटरों से आईं मूर्खताएँ पुरानी ।

एक से दूसरे मुँह तक फैला दी गई थी बुद्धिमानी ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

एक महान् राजनेता की बीमारी की ख़बर पढ़कर / बर्तोल ब्रेख्त

जब एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नाराज़ होता है

तो दो साम्राज्य हिलते हैं ।

जब एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की मृत्यु होती है

तो आसपास की दुनिया ऐसी नज़र आती है

जैसे अपने बच्चे को दूध मुहय्या न करा पाने वाली माँ ।


अगर एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अपनी मृत्यु के हफ़्ते भर बाद

वापस आना चाहे, तो समूचे देश में उसे

दरबानी का काम भी कहीं नहीं मिल पाएगा ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


जो आदमी मुझे अपने घर ले गया / बर्तोल ब्रेख्त

जो आदमी मुझे अपने घर ले गया

उसे घर से हाथ धोना पड़ा

जिसने मुझे संगीत सुनाया

उससे उसका वाद्य ले लिया गया,


क्या वह यह कहना चाहता है कि

मौत का वाहक मैं हूँ, या—

जिन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया

वे हैं मौत के वाहक ?


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

जनता की रोटी / बर्तोल ब्रेख्त

इन्साफ़ जनता की रोटी है ।

कभी बहुत ज़्यादा, कभी बहुत कम ।

कभी ज़ायकेदार, कभी बदज़ायका ।

जब रोटी कम है; तब हर तरफ़ भूख है ।

जब रोटी बदज़ायका है; तब ग़ुस्सा ।


उतार फेंको ख़राब इन्साफ़ को—

बिना लगाव के पकाया गया,

बिना अनुभव के गूँधा गया !

बिना बास-मिठास वाला

भूरा-पपड़ियाया इन्साफ़

बहुत देर से मिला बासी इन्साफ़ ।


अगर रोटी ज़ायकेदार और भरपेट है

तो खाने की बाक़ी चीज़ों के लिए

       माफ़ किया जा सकता है

हरेक चीज़ यक्-बारगी तो बहुतायत में

नहीं हासिल की जा सकती है न !

इन्साफ़ की रोटी पर पला-पुसा

काम अंजाम दिया जा सकता है

जिससे कि चीज़ों की बहुतायत मुमकिन होती है ।


जैसे रोज़ की रोटी ज़रूरी है

वैसे ही रोज़ का इंसाफ़ ।

बल्कि उसकी ज़रूरत तो

       दिन में बार-बार पड़ती है ।


सुबह से रात तक काम करते हुए,

आदमी अपने को रमाए रखता है—

काम में लगे रहा एक क़िस्म का रमना ही है ।

कसाले के दिनों में और ख़ुशी के दिनों में

लोगों को इन्साफ़ की भरपेट और पौष्टिक

       दैनिक रोटी की ज़रूरत होती है ।


चूँकि रोटी इन्साफ़ की है, लिहाज़ा दोस्तो,

यह बात बहुत अहमियत रखती है

कि उसे पकाएगा कौन ?


दूसरी रोटी कौन पकाता है ?


दूसरी रोटी की तरह

इन्साफ़ की रोटी भी जनता के हाथों पकी होनी चाहिए ।


भरपेट, पौष्टिक और रोज़ाना ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


लेनिन ज़िन्दाबाद / बर्तोल ब्रेख्त

पहली जंग के दौरान

इटली की सानकार्लोर जेल की एक अन्धी कोठरी में

ठूँस दिया गया एक मुक्तियोद्धा को भी

शराबियों, चोरों और उचक्कों के साथ ।

ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेंसिल घिसता रहा

लिखता रहा हर्फ़-ब-हर्फ़—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


ऊपरी हिस्से में दीवार के

अँधेरा होने की वज़ह से

नामुमकिन था कुछ भी देख पाना

तब भी चमक रहे थे वे अक्षर— बड़े-बड़े और सुडौल।

जेल के अफ़सरान ने देखा

तो फ़ौरन एक पुताईवाले को बुलवा

बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत ।

मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गई थी

इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर :

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब एक और पुताईवाला लाया गया ।

बहुत मोटे बुरुश से, पूरी दीवार को

इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार

जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गए ।

मगर अगली सुबह

दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री ।

घंटे-भर तक वह उस पूरी इबारत को

करनी से ख़ुरचता रहा सधे हाथों ।

लेकिन काम के पूरे होते ही

कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर

और भी साफ़ नज़र आने लगी

बेदार बेनज़ीर इबारत—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा—

अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो !


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


निर्णय के बारे में / बर्तोल ब्रेख्त

तुम जो कलाकार हो

और प्रशंसा या निन्दा के लिए

हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए

भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी

दर्शकों के निर्णय के लिए

जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है


जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए

लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए

कि क्या हो सकता था और नहीं है

इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो

क्योंकि तुम्हारे चित्रण से

दर्शकों को सीखना चाहिए

कि जो कुछ चित्रित किया गया है

उससे वे कैसा रिश्ता कायम करें


यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए

शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए

और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए

कि चीज़ों और लोगों के साथ

कैसे रिश्ता कायम किया जाय

कला भी मनोरंजक होनी चाहिए


वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो।

तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को

गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं

सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं

और जिन्हें ख़तरे का कोई अन्देशा नहीं है

उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है


प्रागैतिहास के धुँधलके में जो भूकम्प आये

उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने

जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है

बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने

जो नष्ट करता है हमें

विपुलता के बीच



अँग्रेज़ी से अनुवाद : नीलाभ


जो गाड़ी खींचता है उसे कहो / बर्तोल ब्रेख्त

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

वह जल्द ही मर जाएगा

उसे कहो कौन रहेगा जीता

वह जो गाड़ी में बैठा है

शाम हो चुकी है

बस एक मुठ्ठी चावल

और एक अच्छा दिन गुज़र जाएगा


मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : महेन


नीचे पढ़िए यही कविता मूल जर्मन में :

Sag ihm, wer den Wagen zieht


Sag ihm, wer den Wagen zieht

er wird bald sterben

sag ihm wer leben wird?

der im Wagen sitzt

der Abend kommt

jetzt eine Hand voll Reis

und ein gutter Tag

ginge zu Ende


नई पीढ़ी के प्रति मरणासन्न कवि का संबोधन / बर्तोल ब्रेख्त

आगामी पीढ़ी के युवाओं

और उन शहरों की नयी सुबहों को

जिन्हें अभी बसना है

और तुम भी ओ अजन्मों

सुनो मेरी आवाज सुनो

उस आदमी की आवाज

जो मर रहा है

पर कोई शानदार मौत नहीं


वह मर रहा है

उस किसान की तरह

जिसने अपनी जमीन की

देखभाल नहीं की

उस आलसी बढ़ई की तरह

जो छोड़ कर चला जाता है

अपनी लकड़ियों को

ज्यों का त्यों


इस तरह

मैंने अपना समय बरबाद किया

दिन जाया किया

और अब मैं तुमसे कहता हूं

वह सबकुछ कहो जो कहा नहीं गया

वह सबकुछ करो जो किया नहीं गया

और जल्दी


और मैं चाहता हूं

कि तुम मुझे भूल जाओ

ताकि मेरी मिसाल तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं कर दे

आखिर क्यों

वो उन लोगों के साथ बैठा रहा

जिन्होंने कुछ नहीं किया

और उनके साथ वह भोजन किया

जो उन्होंने खुद नहीं पकाया था

और उनकी फालतू चर्चाओं में

अपनी मेधा क्यों नष्ट की

जबकि बाहर

पाठशालाओं से वंचित लोग

ज्ञान की पिपासा में भटक रहे थे


हाय

मेरे गीत वहां क्यों नहीं जन्में

जहां से शहरों को ताकत मिलती है

जहां वे जहाज बनाते हैं

वे क्यों नहीं उठे

उस धुंए की तरह

तेज भागते इंजनों से

जो पीछे आसमान में रह जाता है


उन लोगों के लिए

जो रचनाशील और उपयोगी हैं

मेरी बातें

राख की तरह

और शराबी की बड़बड़ाहट की तरह

बेकार होती है


मैं एक ऐसा शब्द भी

तुम्हें नहीं कह सकता

जो तुम्हारे काम न आ सके

ओ भविष्य की पीढ़ियों

अपनी अनिश्चयग्रस्त उंगलियों से

मैं किसी ओर संकेत भी नहीं कर सकता

क्योंकि कोई कैसे दिखा सकता किसी को रास्ता

जो खुद ही नहीं चला हो

उस पर


इसलिए

मैं सिर्फ यही कर सकता हूं

मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली

कि तुम्हें बता दूं

कि हमारे सड़े हुए मुंह से

जो भी बात निकले

उस पर विश्वास मत करना

उस पर मत चलना

हम जो इस हद तक असफल हुए हैं

उनकी कोई सलाह नहीं मानना

खुद ही तय करना

तुम्हारे लिए क्या अच्छा है

और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी

उस जमीन को जोतने के लिए

जिसे हमने बंजर होने दिया

और उन शहरों को बनाने के लिए

लोगों के रहने योग्य

जिसमें हमने जहर भर दिया



अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पांडेय


(ब्रेख्त की कविताओं के लिए कविताकोश का आभार)


Arundhati Roy explains how corporations run India and why they want Narendra Modi as prime minister

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Arundhati Roy explains how corporations run India and why they want Narendra Modi as prime minister

by CHARLIE SMITH on MAR 30, 2014 at 1:51 PM

Booker Prize winner Arundhati Roy predicts that a Narendra Modi–led government would send in the army against poor villagers.

INDIAN AUTHOR AND social critic Arundhati Roy wants the world to know that her country is under the control of its largest corporations.

"Wealth has been concentrated in fewer and fewer hands," Roy tells the Georgia Straight by phone from New York. "And these few corporations now run the country and, in some ways, run the political parties. They run the media."

The Delhi-based novelist and nonfiction writer argues that this is having devastating consequences for hundreds of millions of the poorest people in India, not to mention the middle class.

Roy spoke to the Straight in advance of a public lecture on Tuesday (April 1) at 8 p.m. at St. Andrew's–Wesley United Church at the corner of Burrard and Nelson streets. She says it will be her first visit to Vancouver.

In recent years, she has researched how the richest Indian corporations—such as Reliance, Tata, Essar, and Infosys—are employing similar tactics as the U.S.-based Rockefeller and Ford foundations. 

She points out that the Rockefeller and Ford foundations have worked closely in the past with the State Department and Central Intelligence Agency to further U.S. government and corporate objectives. 

Now, she maintains that Indian companies are distributing money through charitable foundations as a means of controlling the public agenda through what she calls "perception management".

This includes channelling funds to nongovernmental organizations, film and literary festivals, and universities.

She acknowledges that the Tata Group has been doing this for decades, but says that more recently, other large corporations have begun copying this approach.

Private money replaces public funding

According to her, the overall objective is to blunt criticism of neoliberal policies that promote inequality.

"Slowly, they decide the curriculum," Roy maintains. "They control the public imagination. As public money gets pulled out of health care and education and all of this, NGOs funded by these major financial corporations and other kinds of financial instruments move in, doing the work that missionaries used to do during colonialism—giving the impression of being charitable organizations, but actually preparing the world for the free markets of corporate capital."

She was awarded the Booker Prize in 1997 for The God of Small ThingsSince then, she has gone on to become one of India's leading activists, railing against mining and power projects that displace the poor.

She's also written about poverty-stricken villagers in the Naxalite movement who are taking up arms across several Indian states to defend their traditional way of life.

"I'm a great admirer of the wisdom and the courage that people in the resistance movement show," she says. "And they are where my own understanding comes from."

One of her greatest concerns is how foundation-funded NGOs "defuse people's movements and...vacuum political anger and send them down a blind alley".

"It's very important to keep the oppressed divided," she says. "That's the whole colonial game, and it's very easy in India because of the diversity."

Roy writes a book on capitalism

In 2010, there was an attempt to lay a charge of sedition against her after she suggested that Kashmir is not integral to India's existence. This northern state has been at the centre of a long-running territorial dispute between India and Pakistan.

"There's supposed to be some police inquiry, which hasn't really happened," Roy tells the Straight. "That's how it is in India. They...hope that the idea of it hanging over your head is going to work its magic, and you're going to be more cautious."

Clearly, it's had little effect in silencing her. In her upcoming new book Capitalism: A Ghost Story, Roy explores how the 100 richest people in India ended up controlling a quarter of the country's gross-domestic product.

The book is inspired by a lengthy 2012 article with the same title, which appeared in India's Outlook magazine.

In the essay, she wrote that the "ghosts" are the 250,000 debt-ridden farmers who've committed suicide, as well as "800 million who have been impoverished and dispossessed to make way for us". Many live on less than 40 Canadian cents per day.

"In India, the 300 million of us who belong to the post-IMF 'reforms' middle class—the market—live side by side with spirits of the nether world, the poltergeists of dead rivers, dry wells, bald mountains and denuded forests," Roy wrote.

The essay examined how foundations rein in Indian feminist organizations, nourish right-wing think tanks, and co-opt scholars from the community of Dalits, often referred to in the West as the "untouchables".

For example, she pointed out that the Reliance Group's Observer Research Foundation has a stated goal of achieving consensus in favour of economic reforms.

Roy noted that the ORF promotes "strategies to counter nuclear, biological and chemical threats". She also revealed that the ORF's partners include weapons makers Raytheon and Lockheed Martin.

Anna Hazare called a corporate mascot

In her interview with the Straight, Roy claims that the high-profileIndia Against Corruption campaign is another example of corporate meddling.

According to Roy, the movement's leader, Anna Hazare, serves as a front for international capital to gain greater access to India's resources by clearing away any local obstacles.

With his white cap and traditional white Indian attire, Hazare has received global acclaim by acting as a modern-day Mahatma Gandhi, but Roy characterizes both of them as "deeply disturbing". She also describes Hazare as a "sort of mascot" to his corporate backers.

In her view, "transparency" and "rule of law" are code words for allowing corporations to supplant "local crony capital". This can be accomplished by passing laws that advance corporate interests.

She says it's not surprising that the most influential Indian capitalists would want to shift public attention to political corruption just as average Indians were beginning to panic over the slowing Indian economy. In fact, Roy adds, this panic turned into rage as the middle class began to realize that "galloping economic growth has frozen".

"For the first time, the middle classes were looking at corporations and realizing that they were a source of incredible corruption, whereas earlier, there was this adoration of them," she says. "Just then, the India Against Corruption movement started. And the spotlight turned right back onto the favourite punching bag—the politicians—and the corporations and the corporate media and everyone else jumped onto this, and gave them 24-hour coverage."

Her essay in Outlook pointed out that Hazare's high-profile allies, Arvind Kerjiwal and Kiran Bedi, both operate NGOs funded by U.S. foundations.

"Unlike the Occupy Wall Street movement in the US, the Hazare movement did not breathe a word against privatisation, corporate power or economic 'reforms'," she wrote in Outlook.

Narendra Modi seen as right-wing saviour

Meanwhile, Roy tells the Straight that corporate India is backing Narendra Modi as the country's next prime minister because the ruling Congress party hasn't been sufficiently ruthless against the growing resistance movement.

"I think the coming elections are all about who is going to crank up the military assault on troublesome people," she predicts.

In several states, armed rebels have prevented massive mining and infrastructure projects that would have displaced massive numbers of people.

Many of these industrial developments were the subject of memoranda of understanding signed in 2004.

Modi, head of the Hindu nationalist BJP coalition, became infamous in 2002 when Muslims were massacred in the Indian state of Gujarat, where he was the chief minister. The official death tollexceeded 1,000, though some say the figures are higher.

Police reportedly stood by as Hindu mobs went on a killing spree. Many years later, a senior police officer alleged that Modi deliberately allowed the slaughter, though Modi has repeatedly denied this.

The atrocities were so appalling that the American government refused to grant Modi a visitor's visa to travel to the United States.

But now, he's a political darling to many in the Indian elite, according to Roy. A Wall Street Journal report recently noted that the United States is prepared to give Modi a visa if he becomes prime minister.

"The corporations are all backing Modi because they think that [Prime Minister] Manmohan [Singh] and the Congress government hasn't shown the nerve it requires to actually send in the army into places like Chhattisgarh and Orissa," she says.

She also labels Modi as a politician who's capable of "mutating", depending on the circumstances.

"From being this openly sort of communal hatred-spewing saccharine person, he then put on the suit of a corporate man, and, you know, is now trying to play the role of the statesmen, which he's not managing to do really," Roy says.

Roy sees parallels between Congress and BJP

India's national politics are dominated by two parties, the Congress and the BJP.

The Congress maintains a more secular stance and is often favoured by those who want more accommodation for minorities, be they Muslim, Sikh, or Christian. In American terms, the Congress is the equivalent of the Democratic Party.

The BJP is actually a coalition of right-wing parties and more forcefully advances the notion that India is a Hindu nation. It often calls for a harder line against Pakistan. In this regard, the BJP could be seen as the Republicans of India.

But just as left-wing U.S. critics such as Ralph Nader and Noam Chomsky see little difference between the Democrats and Republicans in office, Roy says there is not a great deal distinguishing the Congress from the BJP.

"I've said quite often, the Congress has done by night what the BJP does by day," she declares. "There isn't any real difference in their economic policy."

Whereas senior BJP leaders encouraged wholesale mob violence against Muslims in Gujarat, she notes that Congress leaders played a similar role in attacks on Sikhs in Delhi following the 1984 assassination of then–prime minister Indira Gandhi.

"It was genocidal violence and even today, nobody has been punished," Roy says.

As a result, each party can accuse the other of fomenting communal violence.

In the meantime, there are no serious efforts at reconciliation for the victims.

"The guilty should be punished," she adds. "Everyone knows who they are, but that will not happen. That is the thing about India. You may go to prison for assaulting a woman in a lift or killing one person, but if you are part of a massacre, then the chances of your not being punished are very high."

However, she acknowledges that there is "some difference" in the two major parties' stated idea of India.

The BJP, for example, is "quite open about its belief in the Hindu India...where everybody else lives as, you know, second-class citizens".

"Hindu is also a very big and baggy word," she says to clarify her remark. "We're really talking about an upper-caste Hindu nation. And the Congress states that it has a secular vision, but in the actual playing out of how democracy works, all of them are involved with creating vote banks, setting community against community. Obviously, the BJP is more vicious at that game."

Inequality linked to caste system

The Straight asks why internationally renowned authors such as Salman Rushdie and Vikram Seth or major Indian film stars like Shahrukh Khan or the Bachchan family don't speak forcefully against the level of inequality in India.

"Well, I think we're a country whose elite is capable of an immense amount of self-deception and an immense amount of self-regard," she replies.

Roy maintains that Hinduism's caste system has ingrained the Indian elite to accept the idea of inequality "as some kind of divinely sanctioned thing".

According to her, the rich believe "that people who are from the lower classes don't deserve what those from the upper classes deserve".

Her comments on corporate power echo some of the ideas of Canadian activist and author Naomi Klein.

"Of course, I know Naomi very well," Roy reveals. "I think she's such a fine thinker and of course, she's influenced me."

Roy also expresses admiration for the work of Indian journalist Palagummi Sainath, author of the 1992 classic Everybody Loves a Good Drought: Stories from India's Poorest Districts.

However, she suggests that the concentration of media ownership in India makes it very difficult for most reporters to reveal the extent of corporate control over society.

"In India, if you're a really good journalist, your life is in jeopardy because there is no place for you in a media that's structured like that," Roy says.

On occasions, mobs have shown up outside her home after she's made controversial statements in the media.

She says that in those instances, they seemed more interested in performing for the television cameras than in attacking her.

However, she emphasizes that other human-rights activists in India have had their offices trashed by demonstrators, and some have been beaten up or killed for speaking out against injustice.

Roy adds that thousands of political prisoners are locked up in Indian jails for sedition or for violating the Unlawful Activities Prevention Act.

This is one reason why she argues that it's a fallacy to believe that because India holds regular elections, it's a democratic country.

"There isn't a single institution anymore which an ordinary person can approach for justice: not the judiciary, not the local political representative," Roy maintains. "All the institutions have been hollowed out and just the shell has been put back. So democracy and these festivals of elections is when everyone can let off steam and feel that they have some say over their lives."

In the end, she says it's the corporations that fund major parties, which end up doing their bidding.

"We are really owned and run by a few corporations, who can shut India down when they want," Roy says.

Follow Charlie Smith on Twitter @csmithstraight.

The Indian Summer Arts Society presents An Evening with Arundhati Roy at St. Andrew's–Wesley United Church (1022 Nelson Street at Burrard) at 8 p.m. on Tuesday (April 1). Tickets are available for $25 ($20 for students).

An Ambedkar for our times ANAND TELTUMBDE

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An Ambedkar for our times ANAND TELTUMBDE with a disclaimer


Palash Biswas


Disclaimer


Our dear friend ANAND TELTUMBDE had been kind enough to inform me about this article while he wrote it in the context of Arundhati`s outlook interview and the controversy created by her preface to Annihilition of caste.Our respected friend Vidya Bhushan Rawat wrote and excellent piece,the dissent essence write up.Rather Rawat intelligently emphasised that anybody has the right to write on Ambedkarite movement and his ideology.It is a positive departure from the point of view expressed by Dalit intelligentsia including AIBSF and Forward Press who oppose Non Dalits who write on Dr Ambedkar.There had been a little misunderstanding while I replied to our respected author Anita Bharati criticising the suicidal globalisation supporter flagbearers of Ambedkarite movement.Rawat,however,has a different point of view that Annihilition of Caste or any other writins by Ambedkar needs no preface by others.


Here you are!


I have been writing on Ambedkarite movement as an Ambedkarite activist and have been discussing about the greater role of the followers of Dr Ambedkar in present day context of ethnic cleansing of the ninety percent Indian People including SC, ST, OBC, Minorities, peasants, labour,women from every community who are tread Shudra and underclass irrespective of religion and caste and racially discriminated geography along with the so called caste Hindu people but virtually reduced to untouchable status,degenerated because of exclusion and deprivement of purchasing power in the open market economy.


Mind you,Ambedkarite activists are not the whole sole property of opportunist co opted creamy layer politicians and other elements who use Ambedkarite movement as an ATM.


It is to be noted that Activists who have been working with Dr BR Ambedkar and Kanshiramji have become disillusioned with Ambedkarite power sharing,fence crossing,corporate politics.


We have already suffered very much during last two decades of reforms which is treated as Golden age by those only who have adjusted very well under the fatty cover of the creamy layer at the cost of the ninetynine percent.Now we do face a fascist turnaround of the zionist corporate imperialist state power empowered with a manipulated mandate created by intensive misinformation campaign and unprecedented mind control with surgical precision by the ruling hegemonial racist manuist class.


Second generation of ethnic cleansing all on the name of development killing agrarian communities and the productive forces with a racist gender bias is the agenda to be accomplished and it is religious identity tsunami all the way to select a fascist corporate Hindu government.


At this juncture, tagged activism would not help our topmost priority to breakthrough an avenue out of the Killing fields,the Indian People`s Republic reduced to.Irony is that all those people involved neck to bottom in identity politics has aligned with Hindutva fascism which is strictly based on caste system,racial apartheid,purity myths and rituals, exclusive economics, social and geographical exclusion,militarisation of state,army rule in untouchable geography,havoc builder promoter raj, unplanned urbanisation,displacement,retrenchment, irrelevant reservation politics,war against people, corporate lobbying, corporate funding and policy making by extra constitutional elements killing the constitution,democracy,republic,the people and the nature.


Key to power politics deviated entire Ambedkarite movement whereas Babasaheb had said that the depressed classes have to fight against two enemies at the same time,the Brahaminical class and the capitalism.He never did mention caste anyway.We have embraced the caste identity only to destroy ourselves forgetting the enslavement of thousands of years.it is the catse,the Indian version of apartheid which have been subjecting us to not only racial discrimination,exclusion but also demonising majority communities to justify the ethnic cleaninng.The myth industry is all about ethnic cleanisn which produces the religion and it is all the way Hindutva.Our leaders have crossed the fences to align with the fascist killers and our intelligentsia is glorifying them.


Mind you Baba Saheb warned:


Parliamentary Democracy has never been a government of the people or by the people, and that is why it has never been a government for the people. Parliamentary Democracy, notwithstanding the paraphernalia of a popular government, is in reality a government of a hereditary subject class by a hereditary ruling class. It is this vicious organization of political life which has made Parliamentary Democracy such a dismal failure. It is because of this Parliamentary Democracy has not fulfilled the hope it held out the common man of ensuring to him liberty, property and pursuit of happiness.

-Dr Babasaheb Ambedkar

For me,Arundhati is the best person to write on the current system run by corporate fascist imperialism.


The debate should continue so that we may opt for a gesture of resistance at least.


The urgency highlighted by Arundhati is the call of the day provided we opt to stand against corporate fascist tsunami enveloping the nation and the people.


Thus,we have been debating.Anand wrote this article to address our present problems and the real issues long forgotten.


We must thank the Hindu editorial.


But the article mentioned Gandhi as Gandhiji.As Dr Ambedkar never said Gandhi was the mahatma.Anand also never caled Gandhi Gandhiji.


We talked on this issue and Anand confirmed with a SMS and a letter followed.


It should be noted to avoid further deviation and controversy.




Dr. Anand Teltumbde


12:14 PM

Dear Palash,


I just sent an sms to you. In the article, a jarring reference to Gandhi is coming as 'Gandhiji' . While those who know me, do know also that I never use Gandhiji for Gandhi, there is a section who might exploit it in the social media forgetting the core issues in the article.


I think you can explain (when you will circulate it-- I hope you will) that you spoke to me and that I explained that it was done by the copy desk of Hindu. Either way, I have never used Gandhiji ever. We should preempt the irrelevant controversy by our esteemed brethren!!!


Regards


An Ambedkar for our times

ANAND TELTUMBDE


Today, Ambedkar certainly outshines every other leader in terms of public acceptance. However, the incidences of casteism also show parallel growth. This paradoxical phenomenon can be explained only by separating the real Ambedkar from the unreal one

In an interview published in Outlook (March 10, 2014), Arundhati Roy says, “We need Ambedkar — now, urgently” — it was in connection with the publication of a new annotated edition of Ambedkar’s text, TheAnnihilation of Caste, brought out by Navayana, a New Delhi-based publishing house. Ms. Roy wrote a 164-page essay titled “The Doctor and the Saint” as an introduction to the book, which has now become 415 pages thick, expanding the core text of just about 100 pages.

Behind the controversy

Her introduction has already created an unseemly controversy in Dalit circles, reminiscent of the debate in the 1970s in the wake of incipient Dalit literature, about who could produce Dalit literature. The protagonists of Dalits insisted that one had to be born a Dalit to do that. The controversy now reflects a similar identitarian obsession that one had to produce a caste certificate (Scheduled Caste) to introduce either Ambedkar or his text. It is intriguing however why such a controversy has cropped up only in the case of Ms. Roy especially when scores of non-Dalits have written on Ambedkar and his writings earlier. Is it because of her celebrity status or of her infamy as a Maoist sympathiser as perceived by middle class Dalits? The latter is more probable. For them, anything even remotely connected with communism is enough to evoke despisal and disapproval.

Whatever be the motivation behind this uproar, it is surely unwarranted. Ignoring the outpouring of nasty “one-liners” in social media, the main objections, at a reasonable level, to her writing this piece appear to be her undue projection of Gandhiji to introduce Ambedkar or to her being qualified to do the job in the first place or even her purported introduction not being an introduction to the text that followed. Even if one concedes the validity of these viewpoints, they need not have been expressed with such vehemence and negativity. As a matter of fact, the creative writer in Ms. Roy chose not the text per se but the stand-off between Ambedkar and Gandhiji in the context of Gandhiji’s reaction to the text in his magazine Harijan. She imagined that she could bring forth the problem of castes far more effectively if she used the contrast between Ambedkar and Gandhiji, who best represented moderate Hindu society, than dealing with the subject matter in a dry and mechanical manner. As for the qualification, while she took great pains to understand the issue she wrote on, her writings never reflected any aura of authority beyond a commonsensical objectivity necessitated by her style. Perhaps, and therefore, they appeal more to common people than to the so-called intellectuals.

Ambedkar, real and unreal

The most interesting argument however came not from Dalits but, paradoxically, an upper caste journalist (“B.R. Ambedkar, Arundhati Roy, and the politics of appropriation” by G. Sampath,Livemint, March 18, 2014). Challenging Ms. Roy, it said that if she wanted the bauxite under the Niyamgiri hills to be left to the Adivasis, why did she not leave Ambedkar who has been the only possession of Dalits to Dalits themselves? Interestingly though, the implication of the argument can be dangerous insofar as any engagement of the “other” defined as such on the basis of caste can be dismissed as illegitimate. May be, Ambedkar symbolises the cultural good of Dalits, but still, to ghettoise him to Dalits alone will mean downright disrespect to him and incalculable harm to the cause of Dalits. Niyamgiri left to the Adivasis implies a progressive interrogation of the prevailing developmental paradigm, while leaving Ambedkar to Dalits will mean retrogressive destruction of the annihilation-agenda of Babasaheb Ambedkar.

The controversy has surprisingly gone past the main point — that it is the bland business logic of the publisher that has fundamentally drawn Ms. Roy into writing the introduction. With her stature as a Booker Prize awardee, later amplified by her fearless pro-people stands on various issues on various occasions, the book was sure to go global. Moreover, it can well be imagined that her writing would certainly create a controversy, as has happened before. All this would mean a bonanza for any publisher in boosting sales of the book. Whether Navayana had consciously thought it out this way or not, these established product strategies of a publisher cannot be grudged by anyone as, after all, s/he has to follow the grammar of business. Notwithstanding the “anti-caste” tag Navayana tends to wear of late, publishing adulatory and cultish literature on Ambedkar is not the same thing as supporting the annihilation of castes. Once this controversy raked up by a few dies down, the vast majority of Dalits would rather take pride in the point that even Arundhati Roy joined them in worshipping their god. Every such form of Ambedkar adulation has indeed been reinforcing the caste identity and directly distances the annihilation project.

The acceptance of Ambedkar does not necessarily equate itself with the spread of an anti-caste ethos. Today, Ambedkar certainly outshines every other leader in terms of public acceptance. No other leader can rival him in the number of statues, pictures, congregations, books, research, organisations, songs, or any other marker of popularity of/on him. Curiously, his picture has become a fixture even in movies and television episodes. However, the incidences of casteism as indicated by cases of caste discrimination, caste atrocities, caste associations and caste discourses, etc. also show parallel growth. This paradoxical phenomenon can be explained only by separating the real Ambedkar from the unreal one, cast into the icons constructed by vested interests to thwart the consciousness of radical change ever germinating in Dalit masses. These icons package the enigmatic real Ambedkar into a simplistic symbol: an architect of the Constitution, a great nationalist, the father of reservations, a staunch anti-communist, a liberal democrat, a great parliamentarian, a saviour of Dalits, a bodhisattva, etc. These icons of the harmless, status quo-ist Ambedkar have been proliferated all over and overshadow a possible, radical view of the real Ambedkar.

Which Ambedkar?

Notwithstanding the intrigues behind the promotion of such icons by vested interests with active support from the state, the evolution of Ambedkar, the pragmatist sans any ideological fixation, all through his life, makes him intrinsically difficult to understand. A young Ambedkar who theorised castes as the enclosed classes, the enclosure being provided by the system of endogamy and exogamy, expecting the larger Hindu society to wake up and undertake social reforms like intermarriage in order to open up castes into classes is in contrast to the post-Mahad Ambedkar, disillusioned by the rabid reactions from caste Hindus, turning his sights to politics to accomplish his objective. Were his threats of conversion to Islam for a separate political identity for Dalits, or to force caste Hindus to consider social reforms? Then there is the Ambedkar of the 1930s, anxious to expand his constituency to the working classes sans castes, who founded the Independent Labour Party (ILP), arguably the first Left party in India, and walked with the communists but at the same time one who declared his resolve to convert to some other religion to escape castes. What about the Ambedkar of the 1940s, who returns to the caste, dissolves the ILP and forms the Scheduled Castes Federation, shuns agitational politics and joins the colonial government as labour minister or the one who wrote States and Minorities, propounding state socialism be hardcoded into the proposed Constitution of free India? Or Ambedkar, the staunchest opponent of the Congress or the one who cooperated with the Congress in joining the all-party government and accepted its support to get into the Constituent Assembly? Or even the Ambedkar who developed the representation logic culminating in reservations, expecting that a few advanced elements from among Dalits would help the community progress or the one who publicly lamented that educated Dalits had let him down? Or the Ambedkar who was the architect of the Constitution and advised Dalits to adopt only constitutional methods for a resolution of their problems or the one who disowned it in the harshest possible terms and spoke of being the first person to burn it down? And finally, the Ambedkar who kept referring to Marx as a quasi benchmark to assess his decisions? Or the one who embraced Buddhism and created the ultimate bulwark against communism in India to use the words of one of his scholars, Eleanor Zelliot, or even the one who would favourably compare Buddha and Marx just a few days before bidding adieu to the world, saying their goal was the same but that they differed in the ways of achieving them — Buddha’s being better than Marx’s? These are just a few broad vignettes of him, problematic in typifying him in a simplistic manner. If one goes deeper, one is bound to face far more serious problems.

Ambedkar is surely needed as long as the virus of caste lingers in this land but not as a reincarnation of the old one as most Dalits emotionally reflect on. Not even in the way Ms. Roy would want him to come now and urgently. He will have to be necessarily constructed to confront the far messier problem of contemporary castes than that obtained in his times.

(Anand Teltumbde is a civil rights activist with CPDR, Mumbai.)



"The pragmatist sans any ideological fixation" thats what Ambedkar is

.Very good one

from:  Aditya

Posted on: Apr 2, 2014 at 12:30 IST

Both Gandhiji and Ambedkar were complex personalities. However each was useful to India in their own way. Gandhiji's movements achieved independence in a unique non violent manner. Ambedkar helped frame a constitution based on the principles of equality, equity and justice to all. There may be a purely academic purpose in discussing the nitty gritty of their actions and words today. Let us give them credit where it is due to each one of them and move ahead. India today needs practical solutions to everyday problems of the common people which can be achieved if common people rise above their apparent differences (of caste, religion. language, race etc.) and use their democratic right of voting to choose honest politicians and honest leaders (irrespective of party affiliations) to take India forward.

from:  Aditya G

Posted on: Apr 2, 2014 at 12:11 IST

Ambedkar is misunderstood by the leftists not because he did not have full support to left ideology in indian context but on indian socio-political reality. He wanted to do best possible help to the Dalits. indian marxists failed to understand him from their point of view.

from:  anil bharali

Posted on: Apr 2, 2014 at 11:53 IST

The term 'Dalit' is a thing of past . They all belong to Hindu community . Dalits were prosecuted in past by so-called 'upper caste' Hindus . Now a days these people have progressed a lot . No such untouchable factor is there now a days. The real danger country suffers is terrorism and extremism.

from:  anil

Posted on: Apr 2, 2014 at 10:58 IST

Dr Ambedkar envisaged reservation for a short period so that the Dalits will get the necessary social surrounding to compete with others . If he has put in black and white that the family of the person who gets reservation benefit should not be given further reservation, many more dalit families would have benefited in the last 60 years. Now at least dalits who have not benefited should insist on this change , otherwise the vested interests will enjoy the benefits forever and the rest cannot compete with general population .The caste factor has been blown out of proportion since even in the brahmin community inter marriages within eight sub castes of brahmins is rare .More than the caste the type of profession pursued decides the persons level in the society .An alternative to the present system ,

reservation should be based on the profession pursued by the parents

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from:  s balaraman

Posted on: Apr 2, 2014 at 10:27 IST  


और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें

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और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें

और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें


अंधड़ का मुकाबला कीजिये… ये रात खुद जनेगी सितारे नए-नए

पलाश विश्वास

माफ कीजिये मेरे मित्रों, भारत और पूरी तीसरी दुनिया के देशों में हूबहू ऐसा ही हो रहा है। सत्ता वर्ग अपने हितों के मुताबिक जनता चुन रही है और फालतू जनता का सफाया कर रही है।

हमने अमेरिकी खुफिया निगरानी तंत्र के सामंजस्य में आंतरिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर बार-बार लिखा है और हमारे सारे साथी इस बात को बार-बार लिखते रहे हैं कि कैसे राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है और धर्मोन्मादी कारपोरेट सैन्य राष्ट्र ने किस तरह अपने ही नागरिकों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।

क्रयशक्ति संपन्न कथित मुख्यधारा के भारत को अस्पृश्य वध्य इस भारत के महाभारत के बारे में कुछ भी सूचना नहीं होती।

जब हममें से कुछ लोग कश्मीर, मणिपुर समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर और आदिवासी भूगोल में नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हैं, तो उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का अभियोग चस्पां हो जाता है।

जिस देश में इरोम शर्मिला के अनंत अनशन से नागिक बेचैनी नहीं है, वहाँ निर्वाचन प्रहसन के सिवाय क्या है, हमारी समझ से बाहर है।

पूरे भारत को गुजरात बना देने का जो फासीवादी विकास का विकल्प जनादेश बनाया जा रहा है, उसकी परिणति मानवाधिकार हनन ही नहीं, वधस्थल के भूगोल के विस्तार की परिकल्पना है।

सबसे बड़ी दिक्कत है कि हिंदू हो या अहिंदू, भारत दरअसल भयंकर अंधविश्वासी कर्मकांड में रात दिन निष्णात हैं। जो जाति व्यवस्था के आधीन हैं, वे भ्रूण हत्या के अभ्यस्त हैं तो जाति व्यवस्था के बाहर या तो निरंकुश फतवाबाजी है या फिर डायनहत्या की निरंतर रस्में।

हम जो अपने को भारत का नागरिक कहते हैं, वे दरअसल निष्क्रिय वोटर के सिवाय कुछ भी नहीं हैं। वोट डालने के अलावा इस लोकतंत्र में हमारी कोई राजनीतिक भूमिका है ही नहीं। हमारे फैसले हम खुद करने के अभ्यस्त नहीं हैं।

मीडिया, सोशल मीडिया की लहरों से परे अंतिम सच तो यह है कि लहर वहर कुछ होता ही नहीं है। सिर्फ पहचान होती है। पहचान अस्मिता की होती है।

जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग हमारे प्रतिनिधित्व का फैसला कर देते हैं। जो फैसला करने वाले लोग हैं, वे सत्ता वर्ग के होते हैं।

जो चुने जाते हैं, वे सत्ता वर्ग की गूंगी कठपुतलियां हैं।

सत्ता वर्ग के लोग अपनी अपनी सेहत के मुताबिक हवा और मौसम रचते हैं, हम उसी हवा और मौसम के मुताबिक जीना सीखते हैं।

इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हमारी कोई भूमिका नहीं है।

नरेंद्र मोदी या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररुपेण संस्थिते हैं, लेकिन अंततः वह ओबीसी हैं और चाय वाला भी। अगर वह नमोमयभारत के ईश्वर हैं और हर हर महादेव परिवर्ते हर हर मोदी है, घर घर मोदी है, तो हम उसे ओबीसी और चायवाला साबित क्यों कर रहे हैं। क्या भारत का प्रधानमंत्रित्व की भूमिका ओबीसी सीमाबद्ध है या फिर प्रधानमंत्री बनकर समस्त भारतवासियों को चाय परोसेंगे नरेंद्र मोदी।

हमने बार-बार लिखा है कि राजनीति पहले रही होगी धर्मोन्मादी और राजनीति अब भी धर्मोन्मादी ही रहेगी। लेकिन राजनीति का कारपोरेटीकरण, राजनीति का एनजीओकरण हो गया है। राजनीति अब बिजनेस मैनेजमेंट है तो सूचना प्राद्योगिकी भी। राजनेता अब विज्ञापनी मॉडल हैं। विज्ञापनी मॉडल भी राजनेता हैं।

तो यह सीधे तौर पर मुक्त बाजार में मार्केटिंग है। मोदी बाकायदा एक कमोडिटी है और उसकी रंगबिरंगी पैकेजिंग वोर्नविटा ग्रोथ किंवदंती या फेयरनेस इंडस्ट्री के काला रंग को गोरा बनाने के चमत्कार बतौर प्रस्तुत की जा रही है।नारे नारे नहीं हैं। नारे माइनस कार्यक्रम है। नारे बिन विचारधारा है।नारे दृष्टिविहीन है। नारे अब विज्ञापनी जिंगल है। जिन्हें लोग याद रख सकें।नारे आक्रामक मार्केटिंग है, मार्केटिंग ऐम्बुस है। खरीददार को चकाचौंध कर दो और बकरा को झटके से बेगरदन करदो। जो विरोध में बोलें, उसे एक बालिश्त छोटा कर दो।

फासीवाद का भी कायाकल्प हो गया है।मोहिनीरुपेण फासीवाद के जलवे से हैलन के पुराने जलवे के धुंधलाये ईस्टमैनकालर समय जीने लगे हैं हम।

मसलन जैसा कि हमारे चुस्त युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा हैः

Forward Press का ताज़ा चुनाव विशेषांक देखने लायक है। मालिक समेत प्रेमकुमार मणि और एचएल दुसाध जैसे बहुजन बुद्धिजीवियों को इस बात की जबरदस्‍त चिंता है कि बहुजन किसे वोट देगा। इसी चिंता में पत्रिका इस बार रामविलास पासवानअठावले और उदित राज की प्रवक्‍ता बनकर अपने पाठकों को बड़ी महीनी से समझा रही है कि उन्‍होंने भाजपा का दामन क्‍यों थामा। जितनी बार मोदी ने खुद को पिछड़ा नहीं बताया होगाउससे कहीं ज्‍यादा बार इस अंक में मोदी को अलग-अलग बहानों से पिछड़ा बताया गया है। इस अंक की उपलब्धि एचएल दुसाध के लेख की ये आखिरी पंक्तियां हैंध्‍यान दीजिएगा:

"चूंकि डायवर्सिटी ही आज बहुजन समाज की असल मांग हैइसलिये एनडीए यदि खुलकर डायवर्सिटी की बात अपने घोषणापत्र में शामिल करता है तो बहुजन बुद्धिजीवी भाजपा से नए-नए जुड़़े बहुजन नेताओं के समर्थन में भी सामने आ सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो हम इन नेताओं की राह में कांटे बिछाने में अपनी सर्वशक्ति लगा देंगे।"

इसका मतलब यहकि भाजपा/संघ अब बहुजनों के लिये घोषित तौर पर non-negotiable नहीं रहे। सौदा हो सकता है। यानी बहुजन अब भाजपा/संघ/एनडीए के लिये दबाव समूह का काम करेंगे। बहुत बढ़िया।

इस पर मंतव्य निष्प्रयोजनीय है। अंबेडकरी आंदोलन तो गोल्डन ग्लोब में समाहित है, समाजवादी विचारधारा विशुद्ध जातिवाद के बीजगणित में समाहित है तो वामपंथ संसदीय संशोधनवाद में निष्णात। गांधीवाद सिरे से लापता।

इस कायाकल्पित मोहिनीरुपेण फासीवाद के मुाबले यथार्थ ही पर्याप्त नहीं है, यथार्थ चैतन्य बेहद जरूरी है। ब्रेख्त की पंक्तियां हमें इसकी प्रासंगिकता बताती हैं।

इसी सिलसिले में कवि उदय प्रकाश ने ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति कथाकारी अंदाज में उकेर दी है। अब अगली बहस इसी पर।

उदय प्रकाश ने एक जरूरी बहस के लिये इशारा कर दिया है। इसलिये उनका आभार।

हिटलरशाही का नतीजा जो जर्मनी ने भुगता है, आज के धर्मोन्मादी कारपोरेट समय में उसे समझने के लिये हमें फिर पिर ब्रेख्त की कविताओं और विशेषतौर पर उनके नाटकों में जाना होगा।

सामाजिक यथार्थ महज कला और साहित्य का सौंदर्यबोध नहीं है, जो चकाचौंधी मनोरंजन की अचूक कला के बहुरंगी बहुआयामी खिड़कियां खोल दें हमारे लिये। सामाजिक यथार्थ के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिभंगी इतिहास बोध के सामंजस्य से ही जनपक्षधर सृजनधर्मिता का चरमोत्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।

फासीवाद के जिस अनिवार्य धर्मोन्मादी कारपोरेट यथार्थ के बरअक्स, हम आज हैं, वह ब्रेख्त का अनचीन्हा नहीं है और कला माध्यमों को हथियार बतौर मोर्चाबंद करने की पहल इस जर्मन कवि और नाटककार ने की, यह खास गौरतलब है।

''सरकार का

जनता पर से विश्वास

उठ चुका है

इसलिये

सरकार को चाहिए

कि वह जनता को भंग कर दे

और अपने लिये

एक नयी जनता चुन ले ।।।"

(यह सटीक अनुवाद तो नहीं, ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति भर है। जिन दोस्तों को मूल-पाठ की याद हो, वे प्रस्तुत कर सकते हैं।)

उदय प्रकाश ने यह उद्धरण भी दिया हैः

"उनके माथे और कनपटियों की

तनी हुई,

तनाव से भरी,

उभरी-फूली हुई

नसों को ग़ौर से देखो ।।।

ओह!

शैतान होना

कितना मुश्किल हुआ करता है ।।।!"

(ब्रेख़्त और Tushar Sarkar के प्रति आभार के साथ, अनुकरण में इस छूट के लिये !)

इस बहस के भारतीय परिप्रेक्ष्य और मौजूदा संकट के बारे में विश्लेषण से पहले थोड़ा ब्रेख्तधर्मी भारतीय रंगमंच और ब्रेख्त पर चर्चा हो जाना जरूरी भी है।

संक्षेप में जर्मन कवि, नाटकार और निर्देशक बर्तोल्त ब्रेख्त का जन्म 1898 में बवेरिया (जर्मनी) में हुआ था। अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को यथार्थवाद के आगे का रास्ता दिखाया। बर्तोल्त ब्रेख्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इसी ने उन्हें 'समाज'और 'व्यक्ति'के बीच के अंतर्संबंधों को समझने नया रास्ता सुझाया। यही समझ बाद में 'एपिक थियेटर' जिसकी एक प्रमुख सैद्धांतिक धारणा 'एलियनेशन थियरी'(अलगाव सिद्धांत) या 'वी-इफैक्ट'है जिसे जर्मन में 'वरफ्रेमडंग्सइफेकेट' (Verfremdungseffekt) कहा जाता है।ब्रेख्त का जीवन फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का जीवन था। इसलिये उन्हें सर्वहारा नाटककार माना जाता है। ब्रेख्त की मृत्यु 1956 में बर्लिन (जर्मनी) में हुई।

भारतीय रंगकर्म के तार ब्रेख्त से भी जुड़े हैं। दरअसल, संगीत, कोरस, सादा रंगमंच, महाकाव्यात्मक विधान, यह सब ऐसी विशेषताएं हैं जो ब्रेख्त और भारतीय परंपरा दोनों में मौजूद हैं, जिसे हबीब तनवीर और भारत के अन्य रंगकर्मियों ने आत्मसात किया। छत्तीसगढ़ी कलाकारों के टीम के माध्यम से सीधे जमीन की सोंदी महक लिपटी नाट्य अनुभूति की जो विरासत रच गये हबीब साहब, वह यथार्थ से चैतन्य की सार्थक यात्रा के सिवाय कुछ और है ही नहीं।

भारत में बांग्ला, हिंदी, मराठी और कन्नड़ रंगकर्म से जुड़े मूर्धन्य तमाम लोगों ने इस चैतन्य यात्रा में शामिल होने की अपनी अपनी कोशिशें कीं। हबीब तनवीर और गिरीश कर्नाड,बा। बा। कारंथ से लेकर कोलकाता के नादीकार तक ने।दरअसल भारत में नये नाट्य आंदोलन के दरम्यान 60-70 के जनआंदोलनी उत्ताल समय में ब्रेख्त भारतीय रंगमंच के केंद्र में ही रहे। इसी दौरान जड़ों से जुड़े रंगमंच का नारा बुलंद हुआ और आधुनिक भारतीय रंगमंच पर भारतीय लोक परंपरा के रंग प्रयोग किए जाने लगे। यह प्रयोग नाट्य लेखन और मंचन दोनों क्षेत्रों में हो रहा था। ऐसे समय में ब्रेख्त बहुत अनुकूल जान पड़े।

गौरतलब है कि ब्रेख्त के लिये नाटक का मतलब वह था, जिसमें नाटक प्रेक्षागृह से निकलने के बाद दर्शक के मन में शुरू हो। उन्होंने नाटक को एक राजनीतिक अभिव्यक्ति माना, जिसका काम मनोरंजन के साथ शिक्षा भी था। ब्रेख्त ने अपने सिद्धांत एशियाई परंपरा से प्रभावित होकर गढ़े थे। 1935 में ब्रेख्त को चीनी अभिनेता लेन फेंग का अभिनय देखने का अवसर रूस में मिला, जहां हिटलर के दमन और अत्याचार से बचने के लिये ब्रेख्त ने शरण ली थी। फेंग के अभिनय से प्रभावित होकर ब्रेख्त ने कहा कि जिस चीज की वे वर्षो तक विफल तलाश करते रहे, अंतत: उन्हें वह लेन फेंग के अभिनय में मिल गई। ब्रेख्त के सिद्धांत निर्माण का यह प्रस्थान बिंदु है।

कवि उदय प्रकाश मौजूदा संकट को इस तरह चित्रार्पित करते हैं-

23 दिसंबर 1949 की आधी रातजब फ़ैज़ाबाद के डी।एम। (कलेक्टर) नायर थेउनकी सहमति और प्रशासनिक समर्थन सेबाबरी मस्ज़िद के भीतर जो मूर्ति स्थापित की गईउसकी बात इतिहास का हवाला बार-बार देने वाले लोग क्यों नहीं करते ?

इस तथ्य के पुख्ता सबूत हैं कि इस देश में सांप्रदायिकता को पैदा करने वाले और इस घटना के पूर्व,30 जनवरी1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या करने वाली ताकतें अब केंद्रीय सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं।

उनके अलंकृत असत्य और प्रभावशाली वागाडंबर (लफ़्फ़ाज़ी) के सम्मोहन ने और पूरी ताकत और तैयारी के साथउन्हीं के द्वारा खरीद ली गयी सवर्ण मीडिया के प्रचार ने देश के बड़े जनमानस को दिग्भ्रमित कर दिया है।

क्या 'विकासकी मृगमरीचिका दिखाने वाले नेताओं के पास अपना कोई मौलिकदेशी विचार और परियोजना हैया यह तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक और मानवीय संपदा को बर्बरता के साथ लूट करउसे कार्पोरेट घरानों को सौंप करसिर्फ़ अपना हित साधने वाले सत्ताखोर कठपुतलों के हाथों में समूचे देश की संप्रभुता को बेचने वालों को सपर्पित कर देने की एक देशघाती साजिश हैजिसे'राष्ट्रवादका नाम दिया जा रहा है ?

यह एक गंभीर संकट का समय है।

सिर्फ़ चुनाव में जीतने और हारने की सट्टेबाज़ी का सनसनीखेज़ विज़ुअल तमाशा और फ़कत राजनीतिक जुआ यह नहीं है।

ऐसा मुझे लगता है ।

राजीव नयन बहुगुणा का कहना है

इतिहास के सर्वाधिक रक्त रंजित, अंधकारपूर्ण और कम ओक्सिजन वाले दौर के लिये तत्पर रहिये। संभवत इतिहास की देवी अपना मुंह अपने ही खून से धोकर निखरना चाहती है। एक बार वोट देने के बाद जो क़ौम पांच साल के लिये सो जाती है, उसे ये दिन देखने ही पड़ते हैं। अंधड़ का मुकाबला कीजिये… ये रात खुद जनेगी सितारे नए-नए

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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Should India junk Aadhar?

Banking license proved reforms have not be stayed at any cost.Adhaar to be scrapped as subsidy would not exist.

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Banking license proved reforms have not be stayed at any cost.Adhaar to be scrapped as subsidy would not exist.

Palash Biswas


http://economictimes.indiatimes.com/



Banking license proved reforms have not be stayed at any cost.Nandan Nilekani has left for his political flight having ensured the monopolistic profit for ADHAAR to be scrapped as soon as BJP Hindutva government takes over. It does not mean that subsidies have to be sustained. Rather it means no link is needed further as subsidies have to go. The corporate server has set the second generation programme with surgical precision and banking license heralded the trend.Mind you,it is election time and a time to woo the voters who are deprived of citizen sovereignty all the way. Since corporate corruption is a major issue, licence to well known companies are delayed to avoid controversy.They will get sooner or later what they want.


Just read Economics Times which published a full page on Adhhaar to be wasted.It had nothing to do national security or internal security.It is blatant violation of Indian constitution and naked wastege of taxpayers money for the best interst of Mr Nandan Nilekani.The project has to be endorsed by the parliament while governmenyts in differenet states illegally linked Adhaar to basic services which may not be withdrawn for unconstitutional Adhaar as the Suprme Court of India has ruled.But states have intensified the Adhaar campaign violating civic and human rights and making it a case of contempt of court.


Prime Minister in waiting Narendra Modi enjoys full support of global economic order,corporate India and MNCs.He has showcased Gujarat model of development skipping aggressive Ram Mandir priority on the one hand, and on the other hand, he has assured global free market economy to open up Indian economy. Whole set up of taxation patterns and labour laws have to be changed to load taxation load against poverty line having an open agenda to finish agrarian India with its working classes and producer communities. Indo US nuclear treaty has to be made a reality and retail FDI should not  be waited at all. It is rather eye washing that  Bharatiya Janata Party is likely to express its opposition to genetically modified (GM) crops in its party manifesto and suggest that an integrated commission be formed to look into all aspects of farming including minimum support price for grains, crop insurance, adequate and timely compensation to affected farmers and irrigation.


India's Hindu nationalist Bharatiya Janata Party said Monday that if it wins national elections set to begin next week, its first priority would be to revive investment in the country's slowing economy.

"We'll have to reestablish confidence of both Indian and international investors in the Indian economy," said Arun Jaitley, a senior BJP leader. But, he added, "our policy will also have a social conscience," a signal that welfare programs for the country's poor would also be a priority.

The BJP hasn't offered details of its economic plans, even though the start of balloting is just days away. Opinion polls indicate that the party is more popular than its main rival, Congress, which has been in power for the past decade and is facing a wave of anti-incumbent sentiment.

The BJP's prime ministerial candidate, Narendra Modi, has campaigned on pledges to spur development, create jobs and boost manufacturing.

His tone has been starkly different from the left-leaning Congress, which promised to expand health care, housing and other benefits for the poor in its election manifesto last week, while also pledging to revive growth and invest more in infrastructure.




http://economictimes.indiatimes.com/


The Reserve Bank of India (RBI) on Wednesday granted two preliminary licenses to set up new banks in a country where only one household in two has access to formal banking services.

The approval of licences for IDFC Ltd (IDFC.NS) and Bandhan Financial Services marks the start of a cautious experiment for a sector dominated by lethargic state lenders, many of which are reluctant to expand into rural areas or towns where banking penetration is low. No new Indian bank has been formed since Yes Bank (YESB.NS) in 2004.

Proponents of more licences hope deep-pocketed corporate-backed banks will do more to serve these markets, but critics worry about whether companies can strictly separate their retail banking operations from their main businesses.

Despite these concerns, and the uncertainties raised by general elections due to conclude by May, the RBI has said it plans to issue more licences.

RBI Governor Raghuram Rajan said in a television interview earlier on Wednesday that banking licences will be an on-tap facility, meaning the central bank will keep issuing new licences to applicants it deems fit as and when required.

The Bharatiya Janata Party, which is overwhelmingly leading in polls, has not clarified its stance on the expansion of the banking sector.

"RBI's approach in this round of bank licences could well be categorised as conservative," the central bank said in a statement.

"At a time when there is public concern about governance, and when it comes to licences for entities that are intimately trusted by the Indian public, this may well be the most appropriate stance."

The RBI said the approval would be valid for 18 months during which IDFC and Bandhan Financial will have to comply with requirements laid down by the central bank.

IDFC, a Mumbai-based non-bank financial company, specialises in infrastructure lending, while Bandhan Financial is a microfinance organisation based in Kolkata.

The central bank said it will also consider an application from India Post, but under a separate process to be carried out in consultation with the government.

The central bank said 25 applicants had been considered and judged under criteria including analysis of their financial statements, their track record over the past 10 years and their potential to run a bank.

However, big companies that applied did not receive a license in this stage.

Applicants had included billionaire Anil Ambani's Reliance Capital (RLCP.NS); the financial arm of Larsen & Toubro (LART.NS), India's biggest engineering group; and Shriram Capital, the holding company for Shriram Transport Finance Company (SRTR.NS).

Opinion polls suggest Mr. Modi's message has resonated with Indians frustrated with sluggish economic growth, alleged corruption and a government widely viewed as inefficient.

In a televised interview Monday, Mr. Modi spoke about removing bureaucratic hurdles, bringing predictability to tax policies and creating jobs by encouraging new industries like agro-based ventures, ship building and defense manufacturing.

"Today, vote-bank-oriented programs that are bankrupting our treasury are being called economic reforms," Mr. Modi said. "Economic reforms are those that breathe new life into a system and create opportunities for people."

As chief minister of the western state of Gujarat, Mr. Modi built a reputation as a strong leader who helped businesses by building infrastructure and reducing red tape—and India's stock market and the rupee have been rallying on the belief that a BJP government would turn the economy around.

Mr. Jaitley said Monday that in the last decade, Congress had halted the liberal approach it had adopted in 1991, and he said his party would work to make sure "India once again is a great place for doing business."

At the same time, Mr. Jaitley said, his party wouldn't rely on the benefits of growth to trickle down to the poor. "India will always need, at least for the foreseeable future, a state intervention for poverty alleviation," he said, a message aimed at India's millions of poor.

A new survey by the Pew Research Center shows there is overwhelming support for rural-jobs and subsidized-food programs that were centerpieces of Congress's policy agenda.

Congress has criticized Mr. Modi for being too close to big business. "His brand of liberalism is crony capitalism," India's finance minister P. Chidambaram said Monday


BJP Manifesto Committee Chief Murli Manohar Joshi met around 55 people, including farmers, scientists and NGOs representatives  to discuss various issues related to farmers.

The representatives also emphasised that the BJP-led National Democratic Alliance should set up an integrated commission if it comes to power to deal with all issues related to farmers. "The commission would ensure that farmers are given the right MSP (minimum support price) for their crops, decide the bonus, ensure that proper and timely compensation is given for damaged crops, and crop insurance," Joshi said.

The AIADMK Government would never allow genetically modified seeds to be tested in Tamil Nadu as the field trials would affect the people and the agricultural fields, the Chief Minister J. Jayalalithaa has said.

She also accused the Central Government headed by the Congress of piling misery upon misery on the people with its wrong economic policies.

She said the Environment Ministry at the Centre had approved field trials of genetically modified crops of more than 200 varieties including rice, wheat, maize and cotton, among others, by private companies. This would affect human beings and farm lands. It would only benefit MNC seed companies, and bring misery to the farming community.

She said farmers could not get seeds from genetically modified crops and they would have to approach the private companies for seeds for replanting, making food grain production the preserve of a handful of private companies. She assured the gathering that her Government would never allow testing of genetically modified seeds in the State. She went on to say that when the new Central Government, of which AIADMK would be a part, takes office, permission granted at the national level for testing of genetically modified crops would be scrapped.

ACCESS TO BANKING

India has 27 state-run banks and 22 private sector banks, according to RBI data, but its ratio of branches to adults is only about one-fourth of Brazil's, leaving about half of households in India - a country of 1.2 billion people - outside the banking system.

Over the last few years, RBI has been pushing banks to make more genuine efforts to penetrate into India's hinterland and increase lending to farmers, small traders and businesses.

But banks, struggling under huge piles of non-performing assets that are eroding their capital, have been reluctant.

The RBI formed a four-member external panel to start evaluating the applications for new bank licenses from November but has made clear that it will go slow.

It said on Wednesday it will consider giving out partial licenses that would allow companies to provide only few banking services, and consider bank applications on more regular basis as it learns lessons from the initial licenses.

"One can't expect these two licences to be a game changer. Scaling up, reaching out has its own cost," said Robin Roy, associate director of financial services at PriceWaterhouseCoopers India. "It won't be a cake walk to convert (that) into a banking model."

IDFC Chairman Rajiv Lall welcomed the grant of a license but anticipated an arduous process. "We will start working on this tomorrow. The whole structure has to be compliant in 18 months, so that has a number of legal steps," he told CNBC-TV 18 in an interview.



दंगों की राजनीति : आतंकवाद का तड़का

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दंगों की राजनीति : आतंकवाद का तड़का

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मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ के दंगे जो आमतौर पर मुजफ्फरनगर दंगे के नाम से मशहूर हैं, के बाद हुए विस्थापन और दंगा पीडि़त कैंपों की स्थिति की चर्चा तथा राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर अभी चल ही रहा था कि अचानक अक्टूबर महीने में राजस्थान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने आईएसआई के दंगा पीडि़तों के संपर्क में होने की बात कह कर सबको चौंका दिया। राहुल गांधी का यह कहना था कि दंगा पीडि़त 10-12 युवकों से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई संपर्क साधने का प्रयास कर रही थी। इसकी जानकारी उन्हें खुफिया एजेंसी आईबी के एक अधिकारी से मिली थी। यह सवाल अपने आप में महत्त्वपूर्ण है कि आईबी अधिकारी ने यह जानकारी राहुल गांधी को क्यों और किस हैसियत से दी? उससे अहम बात यह है कि क्या यह जानकारी तथ्यों पर आधारित थी या फर्जी इनकाउंटरों, जाली गिरफ्तारियों और गढ़ी गई आतंकी वारदातों की कहानियों की तरह एक राजनीतिक खेल जैसा कि आतंकवाद के मामले में बार-बार देखा गया है और जिनकी कई अदालती फैसलों से भी पुष्टि हो चुकी है। राहुल गांधी के मुंह से यह बात कहलवाकर आईबी दंगा भड़काने के आरोपी उन सांप्रदायिक तत्त्वों को जिसमें कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेता भी शामिल थे, बचाना चाहती थी। राहुल गांधी ने इसके निहितार्थ को समझते हुए यह बात कही थी या खुफिया एजेंसी ने यह सब उनकी अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए दंगे की गंभीरता की पूर्व सूचना दे पाने में अपनी नाकामी से माथे पर लगे दाग को दर्पण की गंदगी बता कर बच निकलने के प्रयास के तौर पर किया था। क्या उस समय राहुल के आरोप को खारिज करने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाद में खुफिया एजेंसी की इस मुहिम को अपना मूक समर्थन दिया था जिससे दंगा पीडि़तों, कैंप संचालकों और पीडि़तों की मदद करने वालों को भयभीत कर कैंपों को बंद करने की कार्रवाई की जाए ताकि इस नाम पर सरकार की बदनामी का सिलसिला बंद हो?

राहुल गांधी के बयान के बाद दंगा भड़काने वाली सांप्रदायिक ताकतों ने आईएसआई को इसका जिम्मेदार ठहराने के लिए जोर लगाना शुरू कर दिया था। इस आशय के समाचार भी मीडिया में छपे। दंगे के दौरान फुगाना गांव के 13 लोगों की सामूहिक हत्या कर उनकी लाशें भी गायब कर दी गई थीं। वह लाशें पहले मिमला के जंगल में देखी गईं परंतु बाद में उनमें से दो शव गंग नहर के पास से बरामद हुए। शव न मिल पाने के कारण उन मृतकों में से 11 को सरकारी तौर पर मरा हुआ नहीं माना गया था। समाचार पत्रों में उनके लापता होने की खबरें प्रकाशित हुईं जिसमें इस बात की आशंका जाहिर की गई थी कि जो लोग आईएसआई के संपर्क मे हैं उनमें यह 11 लोग भी शामिल हो सकते हैं। यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि कुछ लोग दंगा पीडि़तों की मदद करने के लिए रात के अंधेरे में कैंपों में आए थे। उन्होंने वहां पांच सौ और हजार के नोट बांटे थे। इशारा यह था कि वह आईएसआई के ही लोग थे। आईएसआई और आतंकवाद से जोडऩे की इस उधेड़ बुन में ऊंट किसी करवट नहीं बैठ पा रहा था कि अचानक एक दिन खबर आई कि रोजुद्दीन नामक एक युवक आईएसआई के संपर्क में है। कैंप में रहने वाले एक मुश्ताक के हवाले से समाचारों में यह कहा गया कि वह पिछले दो महीने से लापता है। जब राजीव यादव के नेतृत्व में रिहाई मंच के जांच दल ने इसकी जांच की तो पता चला कि रोजुद्दीन जोगिया खेड़ा कैंप में मौजूद है और वह कभी भी कैंप छोड़ कर कहीं नहीं गया। तहकीकात के दौरान जांच दल को पता चला कि रोजुद्दीन और सीलमुद्दीन ग्राम फुगाना निवासी दो भाई हैं और दंगे के बाद जान बचा कर भागने में वह दोनों बिछड़ गए थे। रोजुद्दीन जोगिया खेड़ा कैंप आ गया और उसके भाई सलीमुद्दीन को लोई कैंप में पनाह मिल गई। जब मुश्ताक से दल ने संपर्क किया तो उसने बताया कि एक दिन एक पत्रकार कुछ लोगों के साथ उसके पास आया था और सलीमुद्दीन तथा रोजुद्दीन के बारे में पूछताछ की थी। उसने यह भी बताया कि सलीमुद्दीन के लोई कैंप में होने की बात उसने पत्रकार से बताई थी और यह भी कहा था कि उसका भाई किसी अन्य कैंप में है। पत्रकार के भेस में खुफिया एजेंसी के अहलकारों ने किसी और जांच पड़ताल की आवश्यक्ता नहीं महसूस की और रोजुद्दीन का नाम आईएसआई से संपर्ककर्ता के बतौर खबरों में आ गया। इस पूरी कसरत से तो यही साबित होता है कि खुफिया एजेंसी के लोग किसी ऐसे दंगा पीडि़त व्यक्ति की तलाश में थे जिसे वह अपनी सविधानुसार पहले से तैयार आईएसआई से संपर्क वाली पटकथा में खाली पड़ी नाम की जगहभर सकें और स्क्रिप्ट पूरी हो जाए। परंतु इस पर मचने वाले बवाल और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले को लेकर पहले से घिरी उत्तर प्रदेश सरकार व मुजफ्फनगर प्रशासन ने ऐसी कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया। केंद्र सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने भी कहा कि गृह मंत्रालय के पास ऐसी सूचना नहीं है। राहुल गांधी के बयान की पुष्टि करने की यह कोशिश तो नाकाम हो गई। लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आईबी की सबसे विश्वास पात्र दिल्ली स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मुजफ्फरनगर दंगों का बदला लेने के लिए दिल्ली व आसपास के इलाकों में आतंकी हमला करने की योजना बना रहे एक युवक को मेवात, हरियाणा से गिरफ्तार कर लिया है और उसके एक अन्य सहयोगी की तलाश की जा रही है। यह दोनों मुजफ्फरनगर के दो अन्य युवकों के संपर्क में थे। हालांकि पूर्व सूचनाओं से उलट इस बार यह कहा गया कि जिन लोगों से इन कथित लश्कर-ए-तोयबा के संदिग्धों ने संपर्क किया था उनका संबंध न तो राहत शिविरों से है और न ही वह दंगा पीडि़त हैं।

मेवात के ग्राम बजीदपुर निवासी 28 वर्षीय मौलाना शाहिद जो अपने गांव से 20 किलोमीटर दूर ग्राम छोटी मेवली की एक मस्जिद का इमाम था, 7 दिसंबर 2014 को गिरफ्तार किया गया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि अखबारों में यह खबर छपी कि पुलिस को उसके सहयोगी राशिद की तलाश है। राशिद के घर वालों को दिल्ली पुलिस की तरफ से एक नोटिस भी प्राप्त हुआ था जिसके बाद 16 दिसंबर को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नूहपुर (मेवात का मुख्यालय) की अदालत में राशिद ने समर्पण कर दिया। राशिद खान वाली मस्जिद घघास में इमाम था और वहां से 25 किलोमीटर दूर तैन गांव का रहने वाला था। इन दोनों पर आरोप है कि इनका संबंध पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से है। इन दोनों ने मुजफ्फरनगर के लियाकत और जमीरुल इस्लाम से मुलाकात की थी। लियाकत सरकारी स्कूल में अध्यापक और जमीर छोटा-मोटा अपराधी है। मौलाना शाहिद और राशिद इन दोनों से मिले थे और मुलाकात में अपहरण की योजना बनाने और इस प्रकार प्राप्त होने वाले फिरौती के पैसे का इस्तेमाल मस्जिद बनवाने के लिए करने की बात उक्त दोनों ने की थी। बाद में उन्हें बताया गया कि फिरौती की रकम को मस्जिद बनाने के लिए नहीं बल्कि आतंकी वारदात को अंजाम देने लिए हथियार की खरीदारी पर खर्च किया जाएगा तो दोनों ने इनकार कर दिया। दिल्ली स्पेशल सेल का यह दावा समझ से परे है क्योंकि एक साधारण मुसलमान भी जानता है कि मस्जिद बनाने के लिए नाजायज तरीके से कमाए गए धन का इस्तेमाल इस्लाम में वर्जित है। ऐसी किसी मस्जिद में नमाज नही अदा की जा सकती। ऐसी सूरत में पहले प्रस्ताव पर ही इनकार हो जाना चाहिए था। यह समझ पाना भी आसान नही है कि एक दो मुलाकात में ही कोई किसी से अपहरण जैसे अपराध की बात कैसे कर सकता है।

दूसरी तरफ पटियाला हाउस कोर्ट में रिमांड प्रार्थना पत्र में स्पेशल सेल ने कहा है कि इमामों की गिरफ्तारी पिछले वर्ष नवंबर में प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर की गई है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शाहिद सीधे और सरल स्वभाव का है। वह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद दंगा पीडि़तों के लिए फंड इकट्ठा कर रहा था और उसके वितरण के लिए किसी गैर सरकारी संगठन एवं मुजफ्फरनगर के स्थानीय लोगों से संपर्क किया था। तहलका के 25 जनवरी के अंक में छपी एक रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि लियाकत और जमीर दिल्ली व उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते थे। आतंकवाद के मामले में अबरार अहमद और मुहम्मद नकी जैसी कई मिसालें मौजूद हैं जब मुखबिरों को आतंकवादी घटनाओं से जोड़ कर मासूम युवकों को उनके बयान के आधार पर फंसाया जा चुका है। राहुल गांधी का आईबी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर दिया गया वक्तव्य, कैंपों में खुफिया एजेंसी के अहलकारों द्वारा पूछताछ, रोजुद्दीन के आईएसआई से संपर्क स्थापित करने का प्रयास और अंत में मौलाना शाहिद और राशिद की खुफिया सूचना के आधार पर गिरफ्तारी और लियाकत तथा जमीर की पृष्ठभूमि और भूमिका को मिलाकर देखा जाए तो चीजों को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। सांप्रदायिक शक्तियों ने खुफिया एवं जांच एजेंसियों में अपने सहयोगियों की सहायता से मुसलमानों को आतंकवाद और आतंकवादियों से जोडऩे का कोई मौका नहीं चूकते चाहे कोई बेगुनाह ही क्यों न हो। गुनहगार होने के बावजूद अगर वह मुसलमान नहीं है तो उसे बचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। पांच बड़ी आतंकी वारदातों का अभियुक्त असीमानंद अंग्रेजी पत्रिका दि कारवां को जेल मे साक्षात्कार देता है और आतंकवादी वारदातों के संबंध में संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार और संघ प्रमुख मोहन भागवत का नाम लेता है तो उसे न तो कोई कान सुनने को तैयार है और न कोई आंख देखने को। किसी एजेंसी ने उस साक्षात्कार के नौ घंटे की ऑडियो की सत्यता जानने का कोई प्रयास तक नहीं किया। चुनी गई सरकारों से लेकर खुफिया और सुरक्षा एवं जांच एजेंसियां सब मूक हैं। मीडिया में साक्षात्कार के झूठे होने की खबरें हिंदुत्वादियों की तरफ सें लगातार की जा रही हैं परंतु उसके संपादक ने इस तरह की बातों को खारिज किया है और कहा है कि उसके पास प्रमाण है। देश का एक आम नागरिक भी यह महसूस कर सकता है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में न तो इच्छा है और न ही इतनी इच्छा शक्ति कि इस तरह की चुनौतियों का सामना कर सके। यही कारण है कि आतंक और सांप्रदायिक हिंसा का समूल नाश कभी हो पाएगा इसे लेकर हर नागरिक आशंकित है।

मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा को लेकर एक और सनसनीखेज खुलासा सीपीआई (माले) ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है। दंगे के मूल में किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ नही है यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था। 27 अगस्त को शहनवाज कुरैशी और सचिन व गौरव की हत्याओं के मामले में दर्ज एफआईआर में झगड़े का कारण मोटर साइकिल और साइकिल टक्कर बताया गया था। परंतु सीपीआई (माले) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि मोटर साइकिल टक्कर भी सचिन और गौरव की तरफ से शहनवाज की हत्या के लिए त्वरित कारण गढऩे की नीयत से की गई थी। इस पूरी घटना के तार एक बड़े सामूहिक अपराध से जुड़े हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहनवाज कुरैशी और सचिन की बहन के बीच प्रेम संबंध था। जब इसकी जानकारी घर और समाज के लोगों को हुई तो मामला पंचायत तक पहुंच गया और जिसने सचिन और गौरव को शहनवाज के कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उक्त लड़की उसके बाद से ही गायब है और इस बात की प्रबल आशंका है कि उसकी भी हत्या हो चुकी है। इस तरह से यह आनर किलिंग का मामला है जो एक गंभीर सामाजिक और कानूनी अपराध है। एक घिनौने अपराध के दोषियों और उनके समर्थकों ने उसे छुपाने के लिए नफरत के सौदागरों के साथ मिलकर इतनी व्यापक तबाही की पृष्ठभूमि तैयार कर दी और हमारे तंत्र को उसकी भनक तक नहीं लगी। कुछ दिखाई दे भी तो कैसे जब आंखों पर सांप्रदायिकता की ऐनक लगी हो।

मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीडि़तों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोडऩे का प्रयास किया गया उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक तत्त्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वयं दंगा पीडि़तों पर लगाने का षड्यंत्र रचा गया था। आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोली ने खुफिया और सुरक्षा एवं जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था। देश में होने वाली कुछ बड़ी आतंकी वारदातों में मुंबई एटीएस प्रमुख स्व. हेमंत करकरे ने अपनी विवेचना में इस साजिश का खुलासा कर दिया था। गुजरात में वंजारा एंड कंपनी द्वारा आईबी अधिकारियों के सहयोग से आतंकवाद के नाम पर किए जाने वाले फर्जी इनकाउंटरों का भेद भी खुल चुका है। शायद यही वजह है कि बाद में होने वाले कथित फर्जी इनकाउंटरों में मारे गए युवकों और आतंकी वारदातों में फंसाए गए निर्दोषों के मामले में सांप्रदायिक ताकतों के दबाव के चलते जांच की मांग को खारिज किया जाता रहा है। मुजफ्फरनगर दंगों की सीबीआई जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ऐसी किसी जांच का विरोध किया है। सच्चाई यह है कि किसी निष्पक्ष जांच में जो खुलासे हो सकते हैं वह न तो दंगाइयों के हित में होंगे और न ही सरकार के और दोनों ने हितों की राजनीति का पाठ एक ही गुरू 'अमेरिका'से सीखा है। करे कोई और भुगते कोई की राजनीति यदि मुजफ्फरनगर दंगों के मामले में भी सफल हो जाती तो इसका सीधा अर्थ यह होता कि किसी भी राहत कैंप को चलाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता, दंगा पीडि़तों की मदद करने वाले हाथ रुक जाते या उन्हें आतंकवादियों के लिए धन देने के आरोप में आसानी से दबोच लिया जाता और पीडि़तों की कानूनी मदद करने का साहस कर पाना आसान नहीं होता। शायद सांप्रदायिक शक्तियां ऐसा ही लोकतंत्र चाहती हैं जहां पूरी व्यवस्था उनकी मर्जी की मोहताज हों। हमें तय करना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र चाहते है और हर स्तर पर उसके लिए अपेक्षित प्रयास की करना होगा।

अमर्त्‍य सेन की देवी और इच्‍छाओं का अश्‍व

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अमर्त्‍य सेन की देवी और इच्‍छाओं का अश्‍व

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जयपुर साहित्य उत्सव में साहित्य कम और मेला-मनोरंजन अधिक है इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन अमर्त्य सेन, होमी भाभा, सुबोध गुप्ता और झुंपा लाहिड़ी जैसों को एक ही स्थान पर देखना-सुनना भी एक अनुभव है।



Amartya-Sen-Jaipur-Literature-Festivalअमर्त्य सेन ने अपनी बात दिलचस्प अंदाज में रखी कि कैसे उन्हें 'गॉड ऑफ मीडियम थिंग्स'या मध्यममार्ग की देवी मिली और उन्होंने उससे भारत के लिए सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग वरदान मांगा। अमर्त्य सेन की ये इच्छाएं जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़े एक बुजुर्ग की नसीहत सरीखी हैं जिसकी अब एकमात्र इच्छा संभवत: यही है कि उसके परिवार के सदस्य मिलजुलकर खुशहाल जिंदगी जिएं। उसकी ये इच्छाएं यथार्थ से दूर हैं, आदर्शवादी हैं, असंभव जान पड़ती हैं लेकिन उसमें वर्तमान की सच्चाइयों और चुनौतियों को देखा जा सकता है।

पहले दिन उन्होंने देवी से कहा कि भारत में भाषा, साहित्य, संगीत और कला जैसी शास्त्रीय शिक्षाओं की घोर उपेक्षा क्यों की जाती है जबकि शिक्षा व्यवस्था और दैनिक जीवन में इनकी भूमिका का विस्तार होना चाहिए क्योंकि इन्हीं से संतुलन आएगा। इससे कौन सहमत नहीं होगा। इंजीनियरिंग,कंप्यूटर प्रौद्योगिकी,चिकित्सा, विज्ञान और प्रबंधन- कथित रूप से आसानी से नौकरी दिलानेवाले यही पेशेवर विषय हमारे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में हावी हैं। मानविकी को गंभीरता से नहीं लिया जाता और समाज में इनके प्रति हेय और बेचारगी की दृष्टि है जो चिंताजनक है। मानविकी से जुड़े छात्रों और प्राध्यापकों, दोनों के ही स्तर औसत और अधिकांशत: दोयम दर्जे के हैं। कुछ समय पहले किए गए नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में डिग्री लेने वाले 10 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने योग्य होता है। (पर्सपेक्टिव 2020) शिक्षा के निजीकरण के दौर में पिछले 16 सालों में 69 नये निजी विश्वविद्यालय खुले हैं लेकिन गिनती के ऐसे संस्थानों को छोड़कर निजी विश्वविद्यालयों में साहित्य, राजनीति शास्त्र या इतिहास की ही पढ़ाई नहीं होती है तो कला, साहित्य और संगीत तो दूर की कौड़ी है। जहां होती भी है वहां इन विषयों को पढऩेवाले छात्रों की संख्या काफी कम है। मानविकी और समाज विज्ञानों के प्रति भेदभाव की ये प्रवृत्ति सिर्फ उच्च शिक्षा में नहीं है इसकी नींव तभी रख दी जाती है जब 10वीं के बाद छात्रों को ऐच्छिक विषयों का चयन करने का अवसर मिलता है। प्राइवेट (जिन्हें बेहतर माना जाता है) स्कूलों में मानविकी और शास्त्रीय कलाओं के विभाग ही नहीं होते हैं और चाहकर भी छात्र इन विषयों को नहीं पढ़ पाते हैं। उनके सामने दो ही विकल्प होते हैं विज्ञान पढ़ें या फिर कॉमर्स।

अमर्त्य सेन की शास्त्रीय कलाओं और मानविकी को बढ़ावा देने की ये इच्छा अल्बर्ट आइंस्टीन के उस वक्तव्य की याद दिलाती है जो उन्होंने अपने मशहूर आलेख 'व्हाइ सोशलिज्म' में दिया था।

'पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि वह व्यक्ति को मानसिक दृष्टि से अक्षम और विकलांग बना देता है (क्रिपलिंग ऑफ इंडीविजुअल्स)। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली छात्रों में अतिवादी प्रतियोगिता के बीज बोती है। उन्हें सिर्फ इसका प्रशिक्षण दिया जाता है कि सफलता अर्जित करके कैसे वे भावी कैरियर की तैयारी कर सकते हैं। '

'मुझे पूरा विश्वास है कि एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना में ही इसका समाधान है। एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का गठन किया जाए जिसके सामाजिक मूल्य हों। एक व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ उसकी क्षमताओं को ही बढ़ावा देना नहीं है बल्कि एक नागरिक के तौर पर उसमें अपने पड़ोस और समाज के प्रति दायित्वबोध विकसित करना है। '

'शिक्षण व्यवस्था को सफलता और ताकत के महिमामंडन की बजाय व्यक्ति में सामाजिक जवाबदेही की भावना भरनी चाहिए। '

आइंस्टीन का यह आलेख 1949 में मंथली रिव्यू के पहले अंक में छपने के बाद 1998 में, रिव्यू के 50 साल पूरा होने पर दोबारा प्रकाशित किया गया था।

अमर्त्य सेन ने देवी से दूसरा वरदान यह मांगा कि भारत में एक मजबूत दक्षिणपंथी पार्टी हो जो सांप्रदायिक न होकर धर्मनिरपेक्ष हो। क्या यह संभव है। अमर्त्य सेन का यह कहना एक कंफ्यूजन भी पैदा करता है। क्या एक दक्षिणपंथी धर्मनिरपेक्ष हो सकता है या एक धर्मनिरपेक्ष दल दक्षिणपंथी हो सकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से दो परस्पर विरोधी धुरों को एक दूसरे का पूरक बनाने और उनकी कथित अच्छाइयों के विलय की बात एक तरह से ऐतिहासिक और राजनैतिक तथ्यों को भी अनदेखा करना है। जर्मनी हो या ब्रिटेन या फिर भारत- दक्षिणपंथी राजनैतिक दल जिस बहुसंख्यकवाद का पोषण करते हैं उसमें अल्पसंख्यक, धार्मिक हो या सामुदायिक वह हमेशा आशंका और हाशिये में रहता है। आखिर एक दक्षिणपंथी पार्टी की विचारधारा कैसे लोकप्रियता हासिल करती है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और महेंद्रा ह्यूमैनिटीज केंद्र के निदेशक होमी के भाभा कहते हैं कि, 'जनता दक्षिणपंथ की लोकलुभावन और प्रभावशाली दिखनेवाली असहिष्णुता से तब प्रभावित होती है जब लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु परंपराओं को पोषित करनेवाली ताकतों का ह्रास होता है और लोगों में इससे असंतोष पैदा होता है।'(इंटरव्यू, आउटलुक, जनवरी 2014)

But people turn to the effective populism of intolerant right-wing politics when there is a collapse of persuasive, progressive leadership from those who cherish democra­tic, secular traditions of tolerance that make India an inspiration to the world.

भारत में इस समय राजनैतिक दलों के अनुशासन, पहचान और तौर-तरीकों को लेकर एक संकट की सी स्थिति दिखती है। बीजेपी अपनी पूर्वाग्रही और कट्टर सांप्रदायिक छवि से मुक्ति पाने के लिए कॉस्मेटिक हथकंडे अपना रही है तो कांग्रेस एक राष्ट्रवादी नायक की तलाश में है और इस कोशिश में कभी वह बीजेपी की नकल करती प्रतीत होती है तो कभी आप से सबक लेते हुए 'ओपन मैनिफेस्टो'की बात करती है। अमर्त्य सेन की यह इच्छा भी संभवत: इसी प्रक्रिया से प्रेरित है। क्या बीजेपी को उनकी यह सलाह है कि अपनी फासीवादी छवि तोड़कर 'इंक्लूसिव'चोला पहन लेने से काम बन जाएगा। क्या ऐसे नरेंद्र मोदी उन्हें स्वीकार्य होंगे या फिर यह कि नरेंद्र मोदी के एक कांग्रेसी संस्करण की जरूरत है।

उनकी तीसरी इच्छा है कि भारत में लेफ्ट पार्टियां ज्यादा मजबूत हों लेकिन एकदम साफ हों कि उनकी रीति-नीति क्या हो। वह प्रतिबद्धता से साम्राज्यवाद का विरोध करें और इसका प्रयास करें कि गरीब और वंचितों की समस्याएं कैसे दूर हों। वामपंथ के तमाम असमंजस और अंतर्विरोध के बावजूद अमर्त्य सेन के ऐसा कहने से यह ध्वनि आती है कि सत्ता में कथित मजबूत धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथ आए और वामपंथ सिर्फ विपक्ष और विचार के स्तर पर और दबाव समूह के तौर पर ही सीमित रहे।

ndtv-vedanta-our-girls-compaignदेवी से चौथा वरदान उन्होंने मीडिया के बारे में मांगा कि मीडिया और जिम्मेदार हो। मनोरंजन, बिजनेस, अवसरवाद, सब्सिडी के अलावा गरीबों की बात करे। मध्यममार्ग का उपदेश देनेवाली अमर्त्य सेन की देवी इस बात से अवगत होगी कि कॉरपोरेट मीडिया और सत्ता राजनीति के गठजोड़ के इस दौर में यह सच्चाई से मुंह मोडऩेवाली एक विरोधाभासी इच्छा है। सैकड़ों चैनलों और हजारों अखबारों से 'संपन्न'इस देश में मीडिया के मालिकों के छोटे-बड़े स्वार्थों से अब कोई भी अपरिचित नहीं रहा है। समाचार और विचार लगातार मैनिपुलेट किए जा रहे हैं और पक्ष-विपक्ष में एक छद्म वातावरण बनाया जा रहा है। एक उदाहरण के लिए, इस समय एनडीटीवी सहित सभी नामी चैनलों पर करोड़ों रुपए देकर उत्तराखंड सरकार की डॉक्युमेंट्री चलवाई जा रही है जिसमें आपदा के बाद सरकार के राहत और बचाव का प्रोपेगंडा है। स्क्रीन पर एक कोने में विज्ञापन लिखा हुआ जरूर आता है लेकिन सिर्फ एक सजग दर्शक ही इसकी पहचान कर पाएगा कि यह प्रचार है या रिपोर्ट है। यही एनडीटीवी कभी वेदांता के साथ मिलकर कन्या बचाओ अभियान चलाता है तो कभी बाघ बचाने का उपक्रम रचता है और उधर सरकारों की मनमानी और वेदांता और पॉस्को जैसी कंपनियों का खेल जारी रहता है।

इसी तरह से जयपुर शहर के चौराहों पर इन दिनों 'ईटीवी'का विशाल बोर्ड लगा है जिसमें वसुंधरा हाथ जोड़े दिखती हैं और लिखा है 'वेलकम बैक'। क्या यह समाचार चैनल है या सरकार का प्रचार निदेशालय। सभी प्रमुख अखबारों के पहले पृष्ठ वाहन, अपार्टमेंट, कोका-कोला, टूथ पेस्ट और साबुन तेल के विज्ञापनों के सुपुर्द हो चुके हैं। द हिंदू अब तक अपवाद था लेकिन उसका संयम भी जवाब दे गया लगता है। ऐसे विज्ञापनों के बाद मीडिया से किस प्रतिबद्धता की उम्मीद रह जाती है। किसी भी अन्य पूंजीवादी उपक्रम की तरह मीडिया भी अब हर तरह से कम से कम लागत में अधिक से अधिक पैसा कमाने का उपक्रम और होड़ का मैदान बन चुका है। इसलिए जब अमर्त्य सेन ये कहते हैं कि, 'बुद्धिजीवी लोग मीडिया को चलाते हैं और मीडिया अपनी ताकत को कम आंकता है'या जब वह ये अपील करते हैं कि, 'मीडिया को बलात्कार और सेक्स ट्रैफिकिंग जैसे विषयों पर संवेदनशील होना चाहिए तो यह नतीजे और सलाहें नकली प्रतीत होती हैं। '

अमर्त्य सेन की पांचवी इच्छा है कि हर बच्चा अच्छे स्कूल में जाए, सबको चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो। महिलाओं की जिंदगी दुरूह न हो। उनका कहना है कि यह बहुत आसान है अगर देश अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल करे। दरअसल भारत के आर्थिक विकास का सामाजिक चेहरा इतना विडंबनापूर्ण है कि एक ओर अरबों रुपए की वेलनेस इंडस्ट्री तेजी से पांव फैला रही है तो दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है।

bharat-nirman-ke-praman-educationएक नजर डालते हैं 2013 के मानव विकास सूचकांक (खुद अमर्त्य सेन और पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक द्वारा विकसित) में 186 देशों के आकलन में भारत की स्थिति पर। भारत शर्मनाक रूप से 136वें स्थान पर है। इन दिनों मीडिया में छाए 'भारत निर्माण के प्रमाण'के सरकारी अभियान के आंकड़ों में यह दावा किया जा रहा है कि इस समय 6-14 साल की उम्र के 19.7 करोड़ बच्चे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का लाभ उठा रहे हैं। 2003-04 की तुलना में एनरॉलमेंट रेशियो में प्राइमरी में 17.7′ और मिडिल लेवल में 23′ बढ़ोत्तरी हुई है। सात लाख शिक्षकों के पद स्वीकृत हुए हैं और 30,888 प्राइमरी और 10,644 अपर प्राइमरी स्कूल के भवन बनाए गए हैं। दूसरी ओर मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2011 के अंतरिम आंकड़ों के अनुसार प्राथमिक शिक्षा यानी 1-5 साल की उम्र में 27 प्रतिशत बच्चे ड्रॉपआउट यानी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं, 1-8 साल की उम्र में 40 प्रतिशत तो 1-10 साल की उम्र के बीच के 49.3 प्रतिशत बच्चे दाखिला लेने के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं जिसकी एक बड़ी वजह है काम करने का दबाव। सबके लिए समान प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के मिलेनियम विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अब दो साल से भी कम का समय रह गया है और ये आंकड़े बयान करते हैं कि कैसे अभी भी हम बुनियादी शिक्षा के सवाल पर ही जूझ रहे हैं और ड्रॉपआउट रेट समान शिक्षा और सामाजिक न्याय के आड़े आ रहा है।

सबके लिए समान और सुविधाजनक स्वास्थ्य सेवाओं की आदर्शवादी इच्छा का यथार्थ यह है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार 28′ आबादी 66′ स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा रही है और बाकी के 72′ की पंहुच सिर्फ एक तिहाई सुविधाओं तक है। औसतन 65 प्रतिशत लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं जहां इलाज का खर्च 9 से 10 गुना ज्यादा होता है। (स्त्रोत: आईएमएस इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थकेयर इंफॉर्मेटिक्स)

अदालतों के कथित ढीले और रूढि़वादी नजरिये पर सवाल उठाते हुए अमर्त्य सेन ने अपनी छठी इच्छा जाहिर की: 'समलैंगिकता को अवैध माननेवाली धारा 377 को हाईकोर्ट ने पलट दिया फिर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया। क्या आप( देवी को संबोधित) रिवर्सल ऑफ रिवर्स को रिवर्स कर सकती हैं यानी क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट सकती हैं। 'भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के साथ-साथ और भी अनेक कानूनी विषय हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिए। अदालतों के कामकाज में पारदर्शिता लाने और उनकी भी जवाबदेही तय करने में जितनी देर होगी इस तरह के फैसलों के घाव बढ़ते जाएंगे।

अमर्त्य सेन की सातवीं और आखिरी इच्छा का संबंध उनके शब्दों में भारतीयों के डिफीटिज्म, उनके हताशावादी होने से है। उन्होंने देवी से अनुरोध किया कि वह भारतीयों को थोड़ा आशावादी होने में मदद करें। उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाया कि आजादी के बाद भारत में कोई बड़ा दुर्भिक्ष नहीं आया जिसका श्रेय भारत की प्रगति और क्षमता को जाता है। लेकिन उन्होंने भारत में स्त्रियों की स्थिति, बलात्कार की बढ़ती घटनाओं और विशेष तौर पर स्त्री पुरुष के अनुपात के असंतुलन पर चिंता जाहिर की।

2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं। बाल लिंग अनुपात में स्थिति और भी खराब है। 0-6 साल की उम्र के बच्चों के बीच प्रति हजार लड़कों में सिर्फ 914 लड़कियां हैं। सवाल यह है कि वे कौन सी घटनाएं हैं, कौन से बिंदु हैं जो भारतीयों को आशावादी बना सकते हैं। किस चीज में उम्मीद खोजें आम जन।

अंत में अमर्त्य सेन ने आम आदमी की एक नई और वंचितों के पक्ष में परिभाषा गढऩे की कोशिश की। यही बिंदु मानो उनकी पूरी कवायद का सबसे सार्थक बिंदु था। उन्होंने कहा कि, 'सस्ती बिजली और सस्ता पानी मांगनेवाला आम आदमी नहीं है। आम आदमी वह है जिसके पास बिजली नहीं है, पानी नहीं है, जो वंचित है और जो अभावों में जी रहा है। 'ऐसा कहकर उन्होंने आप की राजनीति को भी आईना दिखाया। उनकी इच्छाओं की सदाशयता पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इस अत्यंत कठिन राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं के वक्त में कुछ इधर से और कुछ उधर से ठीक करो वाला फलसफा कितना न्यायसंगत और व्यावहारिक होगा- यह विचारणीय है। फिर सेन के इस वरदान अभियान में भ्रष्ट नौकरशाही के बारे में कुछ भी नहीं है। अफसरशाही क्या वैसी निरंकुश और यथास्थितिवादी बनी रहे जैसी वह है।

आइंस्टीन ने अपने आलेख में कहा था कि, 'राजनैतिक और आर्थिक ताकत के इस धुर केंद्रीकरण में इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि कैसे नौकरशाही की अकूत ताकत पर अंकुश लगाया जाए और उसके समानांतर व्यक्ति विशेष के अधिकारों की रक्षा की जाए और अफसरशाही की शक्ति का लोकतांत्रिक तोड़ सुनिश्चित किया जाए। 'क्या ऐसा हो पा रहा है। क्या ऐसा होगा।

बहरहाल, अमर्त्य सेन के सपनों का यह भारत, उनका यह मध्यममार्गी आग्रह गौतम बुद्ध की वीणा के तारों और भीतर ही कहीं महात्मा गांधी के संयम और सादगी की भी याद दिलाता है जो हमारे जीवन के हर पक्ष से गायब हो चुका है। लेकिन सत्ता-प्रतिष्ठान और अभिजात समाज के बंद दरवाजों तक न तो कोई गुहार पहुंचती है और न ही कोई सलाह। आंदोलन जो हैं सो हैं। जेनुइन प्रतिरोधों की क्या जगह और क्या अहमियत हो सकती है इस पर भी अमर्त्य सेन कुछ नहीं बोले। क्या मध्यममार्ग की उनकी देवी संघर्ष की हिमायती नहीं हैं।

अपसंस्‍कृति की संस्‍कृति

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अपसंस्‍कृति की संस्‍कृति

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saifai-mahotsavसमाजवादी सरकार का 'सैफई महोत्सव'सिनेमाई सितारों के वैभव का बिंदास प्रदर्शन करके गुजर गया। इस महोत्सव को अपसंस्कृति का सांस्कृतिक विद्रुप इसलिए माना जा रहा है,क्योंकि यह आयोजन जिस समय सैफई की धरती पर रंगीनियां बिखेर रहा था,उसी समय मुजफ्फरनगर दंगों के पीडि़त खुले आसमान में हड्डियां कंपकपा देने वाली ठंड की मानव निर्मित त्रासदी झेल रहे थे। जाहिर है,ऐसे में एक संवेदनशील और जवाबदेही सरकार का दायित्व बनता है कि वह राहत-शिवरों में कराह रहे लोगों की सुध लेता? वैसे तो वृहत्तर भारत का लोक उत्सवधर्मी है,इसमें किसी को कोई संदेह भी नहीं है। लेकिन किसी प्रदेश की पूरी की पूरी सरकार ठंड से तीन दर्जन से ज्यादा बच्चों की मौत और हजारों लोगों के विस्थापन की पीड़ा से रूबरू होने के बावजूद फूहड़ और भड़काऊ आयोजन के रंग में डूबकर सत्ता के मद में चूर हो जाए तो यह स्थिति समाजवादी चरित्र और लोकतांत्रिक भावना को जानबूझकर नजरअंदाज करने की मानी जाएगी? प्रजातंत्र की जनकल्याणकारी सरकारों से अधिकतम संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है, न कि संवेदनशून्य हो जाने की?

उत्तर प्रदेश के शासक पिता-पुत्र को मुजफ्फरनगर दंगों और सैफई महोत्सव से जुड़ी खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पूर्वाग्रही मानसिकता और षड्यंत्र की बू आ रही है। जब कोई शासक नीरो की तरह बंसी बजाने लगता है, तो उसे ऐसा ही भ्रम होता है। और सावन के अंधों को सब जगह हरा-हरा ही दिखता है। मीडिया की जबावदेही विसंगतियों पर प्रश्न खड़े करना और सत्ता के स्याह पक्ष को प्रकट करना है। विज्ञापन अथवा अन्य राजनीतिक लाभ से विभूषित करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मीडिया हकीकत से आंख मूंद ले? इसके उलट सत्ताधारियों का जरूर यह कर्तव्य बनता है कि उनकी असफलताओं की कोई खबर आकार ले रही है तो वे उससे सामना करें और समस्या के निराकरण की दिशा में जरूरी पहल करें? किंतु उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐसा करने की बजाए, जले पर नमक छिड़कने का काम किया। गोया, उसने सैफई महोत्सव में तो आठ-दस करोड़ रुपए खर्च किए ही, सत्रह मंत्री और विधायकों को अध्ययन के बहाने कई देशों में सैर-सपाटे के लिए भेज दिया। अब इस फिजूलखर्ची पर मीडिया सवाल नहीं उठाएगा तो क्या सरकार का जयगान करने लग जाएगा? यदि आप वाकई सच्चे समाजवादी होते अथवा आपके अंतर में कहीं आत्मा होती, तो आप यात्रा और महोत्सव की मौज-मस्तियों में डूबने की बजाय असहायों के दुख-दर्द में साथ खड़े होते?

चित्रपट के कलाकारों को नचाने का काम अखिलेश सरकार ने ही किया हो, ऐसा नहीं है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारें भी इसी प्रकृति की हैं। एक नबंवर को इन दोनों प्रदेशों का स्थापना दिवस पड़ता है। इस दिन ये सरकारें भी लोक संस्कृति के सरंक्षण के बहाने फिल्मी सितारों के फूहड़ व भड़काऊ प्रदर्शन करने लगी थीं। इन सरकारों ने भोपाल में जहां हेमा मलिनी और संगीतकार एआर रहमान के कार्यक्रम कराए, वहीं रायपुर में बिंदास अभिनेत्री करीना कपूर के साथ गायक सोनू निगम के कार्यक्रमों को जमीन पर उतारा। इन्हें पौने दो-दो करोड़ रुपए बतौर पारिश्रमिक दिए गए। आवास, आहार और आवागमन की पंचसितारा व्यवस्थाओं का खर्च अलग से उठाया गया। वैचारिक विपन्नता का यह चरम इसलिए भी ज्यादा हास्यास्पद, लज्जाजनक व आश्चर्य में डालने वाला है,क्योंकि इन दोनों प्रांतों में उस भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं,जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजा फहराने का दंभ भरती है। जबकि विडंबना यह है कि संस्कृति के सरंक्षण के बहाने सिने सितारों की प्रस्तुतियां, लोक की जो स्थानीय सांस्कृतिक पहचान है,उसे ही लीलने का काम कर रहीं हैं।

यह सांस्कृतिक संरक्षण का बाजारी मुखौटा है। इसमें प्रच्छन्न शोषण तो है ही,भष्ट आचरण भी परिलक्षित होता है? यह कदाचार चतुराई भरा है। इसमें प्रत्यक्ष रूप में न तो संस्कृतिकर्मियों की बेदखली का शोषण और अवमानना दिखाई देता है और न ही लेन-देन का कारोबारी कुचक्र। सिनेमाई महिमामंडन होता ही इतना मायावी है कि देशज लोक कितना ही उत्पीडि़त क्यूं न हो, वह दिखाई नहीं देता। देशज लोक की यह उपेक्षा आगे भी जारी रहती है,तो तय है,लोककर्मी और बदतर हालत में पहुंचने वाले हैं। भारत के राज्य ऐसे हैं,जहां समृद्ध लोक संस्कृति बिखरी पड़ी है। आर्थिक वंचना की पीड़ा झेलते हुए भी ये लोक कलाकार मंच मिलने पर स्वर्णिम आभा रचने को तत्पर दिखाई देते हैं। इन्हीं लोक प्रस्तुतियों को हम स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के अवसरों पर रचकर राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय गौरव का अनुभव करते हैं। गौरवशाली इन लोक धरोहरों के प्रदर्शन का अवसर इन लोक कलाकारों को मिलता तो उन्हें दिया जाने वाला पारिश्रमिक उनकी बदहाल होती आर्थिक स्थिति को संवारता। लोक प्रस्तुतियों के माध्यम से बड़ी आबादी भारतीय ज्ञान परंपरा, मिथक और इतिहास बोध से परिचित होती। लेकिन यहां चिंताजनक है कि हमारे सत्ता संचालक देशज सांस्कृतिक मूल्यों से कट रहे हैं और संस्कृति के नाम पर सिनेमाई छद्म को महत्त्व देने लग गए हैं। यह स्थिति महानगरीय सार्वदेशिक संस्कृति का विस्तार है, जिसमें लोग अपनी जड़ों से कटते चले जाते हैं और संस्कृति को सामाजिक सरोकारों से काटकर,मनोरंजन के फूहड़ प्रदर्शन में बदल देते हैं। ठीक इसी तरह के भौड़े प्रदर्शन हमें टीवी के पर्दे पर हास्य और बिग शो जैसे कार्यक्रमों में दिखाई देते हैं।

हमारी लोक संस्कृतियां हैं, जो अवाम को भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम रूपों से परिचित कराती हैं। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और पुराण कथाओं के लघु रूप लोक प्रस्तुतियों में अंतर्निहित हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, परनामी, कबीरपंथी आदि अनेक धर्म व विचार भिन्नता में आस्था रखने वाले लोगों में पारस्परिक सौहार्द का मंत्र लोक श्रुतियां ही रचती हैं। जो आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है,उसके जनमानस में आत्मसात हो जाने की प्रकृति, देशज लोक सांस्कृतिक मूल्यों से ही पनपती है। आंतरिक एकता जो शाश्वत और सनातन है,बाहरी वैविध्य जो अल्पजीवी और महत्त्वहीन है,जीवन दृष्टि के इस समावेशी मूल्य के प्रचार का कारक यही लोक धरोहरें हैं।

सिनेमाई नायिकाओं के नृत्य से कहीं ज्यादा प्रभावकारी व उपदेशी संपे्रषणीयता लोक नृत्यों और लोकनर्तकियों की भाव भंगिमाओं एवं उनके बोलों में निहित है। भगवान शिव के तांडव नृत्य से नृत्य लोक में आया। यही पहले लोक नृत्य के रूप में प्रचलित व प्रतिष्ठित हुआ और बाद में शास्त्रीय नृत्य के मूल का आधार बना। समारोहों की उत्सवधर्मिता के लिए लोक और शास्त्रीय नर्तकों को भी बुलाया जा सकता है। जीवन और प्रकृति के घनिष्ठ रूपों में तादात्म्य स्थापित करने के कारण, लोक नृत्य अलग-अलग वर्गों के व्यवसाय से प्रभावित होकर अनेक रूप धारण करते हैं। बदलते मौसम में कृषक समाज के सरोकार भी लोक नृत्य और गीतों से जुड़े होते है,जो कर्तव्य के प्रति चेतना के प्रतीक होते हैं। हमारे लोक में ऐसे अनेक प्रतीक है,जो अपनी विलक्षणता के कारण सार्वभौमिक हैं। उदाहरण स्वरूप 'सिंह'वीरता का 'श्वेत'रंग पवित्रता और शांति का 'सियार'कायरता का और 'लोमड़ी'चतुराई का प्रतीक पूरी दुनिया में माने जाते हैं। हरेक देश के लोक साहित्य में ये इन्हीं अर्थों के पर्याय हैं।

अफसोस है कि भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद का सांस्कृतिक सत्य, स्थानीय लोक सांस्कृतिक विराटताओं के बीच एकरूपता का विद्रूप रचने लग गया है। हजारों साल से अर्जित जो ज्ञान परंपरा हमारे लोक में अद्वितीय वाचिक और लिखित संग्रहों के नाना रूपों में सुरक्षित है, उसे छद्म संस्कृति द्वारा विलोपित हो जाने के संकट में डाला जा रहा है। इस संकट को भी वे राज्य सरकारें आमंत्रण दे रही हैं,जो संस्कृति के संरक्षण का दावा करने से अघाती नहीं हैं। क्या यह सांस्कृतिक छद्म नहीं हैं?

गुजरात का ‘विकास मॉडल’

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लेनिन ने मैक्सिम गोर्की की किताब मां के बारे में कहा था कि यह किताब अपने समय का बेशकीमती दस्तावेज तो है ही साथ में सामयिक भी है। ठीक इसी तरह पिछले साल प्रकाशित होनेवाली किताब पॉवर्टी अमिड प्रोसपेरिटी : एस्सेज ऑन द ट्रैजेक्ट्री ऑफ डेवलपमेंट इन गुजरात यकीनन प्रासंगिक है। आज सारा कॉरपोरेट मीडिया—प्रिंट हो या ऑडियो विजुअल—एक सुर में राग अलाप रहा है कि 'गुजरात मॉडल'ही वह मॉडल है जो देश को विकास के रास्तों पर ले जा सकता है। गोया सारी कठिनाईयों को पार करने का एक मात्र रास्ता 'गुजरात मॉडल'और बकौल नरेंद्र मोदी 'गुड गवर्नेंस'उर्फ अच्छे प्रशासन को अपनाना ही है। मीडिया ने इस विचार के व्यापक प्रचार में भी कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है कि हिंदुस्तान में गुजरात विकास के परिदृश्य पर एक रोशन सितारा है और इस प्रदेश ने जो विकास नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किया है उसका अनुसरण करके भारतीय जनता की बड़ी खिदमत की जा सकती है। यह किताब न सिर्फ गुजरात के तथाकथित विकास की कलई खोलती है बल्कि यह भी बताती है कि आर्थिक वृद्धि की अंधी दौड़ में समाजी मुद्दों—गरीबी, विषमता, लैंगिक भेद-भाव, बेरोजगारी और अशिक्षा वगैरह को कैसे एक तरफ किया गया है। इस पुस्तक को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रोफेसर अतुल सूद ने संपादित किया है, यह पुस्तक दर असल सूद के अलावा बारह स्वतंत्र शोधकर्ताओं के शोध और विश्लेषण पर आधारित दस लेखों का संग्रह है। सूद की दृष्टि में मौजूदा गुजरात मॉडल, जिसे दूसरे प्रदेश नकल करने को तैयार हैं, की 'विशेषता देश की अर्थव्यवस्था का अविनियमन (डीरेग्यूलेशन) और वैश्विक बाजारों के साथ एकीकरण'है।

सुचरिता सेन और चिनमय मलिक का लेख ऐतिहासिक संदर्भों में, कृषि में नीतिगत बदलाव—मुख्यत: भूमि संबंधी नीतियों की पड़ताल करते हुए इस हकीकत की बाकायदा पुष्टि करता है कि कैसे कृषि का निगमीकरण बढ़ रहा है। प्रदेश कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत की तुलना में एक से डेढ़ गुना तेजी से वृद्धि कर रहा है। बाजार पहुंच, तकनीकी प्रसार, बुनियादी ढांचे के विकास और अन्य क्षेत्रों के विकास ने इस क्षेत्र की वृद्धि दर में योगदान दिया है। कृषि में इस वृद्धि का वितरण प्रभाव काफी हद तक भूमि स्वामित्व और भूमि उपयोग पैटर्न के साथ-साथ इस बात पर निर्भर करता है कि छोटे किसान की लाभकारी फसलों में कितनी भागीदारी है। कृषि खरीद, मूल्य निर्धारण और बाजारीकरण की नीतियों में उदारीकरण के द्वारा लायी गई वृद्धि से फसल विशेष और क्षेत्र विशेष भी कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। फसल पैटर्न में भारी परिवर्तन आया है—खाद्य फसलों का स्थान अब गैर-खाद्य फसलों और नकदी और नफा कमानेवाली फसलों ने ले लिया है। गौरतलब है कि भूमि आवंटन और फसली आंकड़े बताते हैं कि कपास की खेती और उच्च मूल्य की फसलों का फायदा ज्यादातर बड़े किसानों ने उठाया है। अगर हम जोत आकार से किसान समूहों को देखें, तो गुजरात में, सबसे छोटे जोत वाले किसान समूह के परिवारों की संख्या में वृद्धि तो हुई है परंतु उनके औसत रकबे में कमी हुई है, वहीं दूसरी ओर बड़ी जोत वाले किसान समूहों के औसत रकबे में बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढ़ती हुई असमानता का संकेत है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुजरात में काश्त की जमीनों को जिस तरीके से बड़ी-बड़ी कंपनियों को कौडिय़ों के भाव दिया गया है वह मोदी सरकार और क्रोनी पूंजीवाद के बीच के मजबूत होते रिश्ते को बताता है। अडाणी समूह—जो कि विश्व प्रसिद्ध फोब्र्स पत्रिका के अनुसार 208 करोड़ डॉलर की पूंजी के साथ विश्व का 609वां बड़ा व्यापार घराना है और भारत के निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बंदरगाह, एक बिजली कंपनी और कॉमोडिटी ट्रेडिंग का व्यवसाय चलाता है—को मात्र एक रुपए प्रति मीटर की दर से 14305.49 एकड़ (5.78 करोड़ वर्ग मीटर) कच्छ की जमीनें दी गईं। वहीं इस घराने ने, इन जमीनों को राज्य के स्वामित्व वाली इंडियन ऑयल कंपनी सहित अन्य कंपनियों को 11 डॉलर प्रति वर्ग मीटर की दर से उप-पट्टे (सबलेट) पर देकर भारी मुनाफा कमाया। ये भारी मुनाफा, दरअसल, राजस्व की हानि ही है। दूसरी तरफ, जमीन की खरीद-फरोख्त की नीति में हुए बदलाव ने काश्त की जमीनों तक आम किसानों की पहुंच को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है।

काबिले गौर बात है कि जमीन की इस लूट से न सिर्फ राजस्व की हानि हुई है बल्कि इसने पर्यावरण को भी बहुत प्रभावित किया है। तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रख कर अडाणी के पॉवर प्लांट को लाइसेंस दिया गया। सुनीता नारायण की अध्यक्षता में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित कमेटी (कमेटी फॉर इंस्पेक्शन ऑफ मेसर्स अडाणी पोर्ट एंड एसईजेड लिमिटेड, मुंदरा, गुजरात) की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ कि इसके पॉवर प्लांट की हवा में उडऩेवाली राख (फ्लाई ऐश) से ज्वरीय वन (मैंग्रोव्स) नष्ट हो रहे हैं, कच्छ की संकरी खडिय़ां (क्रीक) भर रही हैं तथा जल और भूमि का क्षरण हो रहा है। पर्यावरण का यह क्षरण लोगों की रोजी-रोटी पर भारी पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर, कच्छ के मछुआरों का कहना है कि मछली पकडऩे के मौके में लगभग साठ फीसदी की कमी आई है। गुजरात का यह विकास मॉडल जहां बड़े उद्योगों के मुनाफा कमाने के अवसरों को बढ़ा रहा है वहीं यह छोटे-छोटे किसानों, मछुआरों और मजदूरों से उनका रोजगार छीन रहा है।

रुचिका रानी और कलाई यारासान ने अपने लेख में तेजी से बढ़ते हुए विकास और रोजगार के क्षेत्रीय और सामाजिक असंतुलन का बखूबी विश्लेषण किया है। इन का यह लेख इस बात की पुष्टि करता है कि कैसे गुजरात में तथाकथित विकास की सब से बड़ी विडंबना यह है कि यहां रोजगार का मसला ज्यों का त्यों बना हुआ है—गुजरात में रोजगार के अवसर मंदी और जड़ता की दास्तान बयान करते हैं। यानी रोजगार की दर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार में 1993-94 से 2004-05 तक रोजगार में वृद्धि दर 2.69 प्रतिशत वार्षिक थी जो 2004-05 से 2009-10 तक यह दर घट कर शून्य तक पहुंच गई।

गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले सत्रह सालों के दौरान (1993 से 2010 तक) रोजगार में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत के तकरीबन बराबर है, वहीं शहरी रोजगार की दर राष्ट्रीय औसत की तुलना में बेहतर है। पिछले पांच सालों में ग्रामीण क्षेत्र में गैरमामूली दर से हुई आर्थिक वृद्धि के बावजूद रोजगार के अवसर कम हुए हैं। पिछले चंद बरसों में रोजगार के सिलसिले, खासतौर से नौकरियों, में वृद्धि की दर मामूली रही और यह वृद्धि अमूमन अल्पकालिक और अस्थायी तौर पर मिलने वाली नौकरियों में हुई है। गुजरात में आर्थिक विकास की निर्भरता—जिस को अर्थशास्त्र की शब्दावली में ड्राईवरज आफ ग्रोथ कहते हैं—औद्योगिक क्षेत्र है। इस किताब के एक और लेख में संगीता घोष ने इसी क्षेत्र का बहुत ही विस्तार से विश्लेषण किया है। वह इस बात को बड़े ही तार्किक अंदाज में प्रस्तुत करती हैं कि गुजरात में अन्य प्रदेशों के मुकाबले मजदूरी में तेजी से गिरावट आई है। तीस साल पहले, गुजरात का देश में ग्रास वैल्यू एडेड में जो हिस्सा हुआ करता था वह आज दो गुना हो गया है। इसके बावजूद देश के औद्योगिक क्षेत्र के रोजगार में गुजरात की भागीदारी संतोषजनक नहीं है—रोजगार की वृद्धि दर जड़ बनी हुई है जो अर्थशास्त्रियों के लिए एक अहम सवाल है। विदित हो कि ग्रास वैल्यू एडेड (जीवीए) या सकल वर्धित मूल्य अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्रक (विनिर्माण) में तैयार कुल उत्पादों का मौद्रिक मूल्य है।

जहां तक मजदूरी की बात है, रोजगार में लाभ के बावजूद मजदूरी में कोई संतोषजनक वृद्धि नहीं हुई है। मजदूरी में इजाफे़ की यह दर 2000 के दशक में सिर्फ 1.5 प्रतिशत थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 3.8 प्रतिशत थी। इसी दशक में, इस प्रदेश का देश के औद्योगिक उत्पादन (मैनूफैक्चरिंग) जीवीए का हिस्सा 14 फीसदी था वहीं रोजगार में यह हिस्सा 9 प्रतिशत था। गुजरात ऐसा एक मात्र प्रदेश है जहां मजदूरी और जीवीए का अनुपात सब से कम रहा है। इस अविश्वसनीय हालत में अनुबंध पर लगे अस्थायी और अल्पकालिक मजदूरों का शोषण बढ़ा है। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां 2000 के दशक में मजदूरी का जीवीए में हिस्सा देश के अन्य प्रदेशों—हरियाणा, महाराष्ट्र और तामिलनाडु के मुकाबले सब से नीचे रहा है। उस की वजह से एक समय में परस्पर विरोधी स्थितियां पैदा हो गईं हैं—जहां एक तरफ कारखानों में मजदूरों की हालत बदतर हुई है वहीं दूसरी तरफ पूंजी और मुनाफे में वृद्धि हुई है।

हम जानते हैं कि गुजरात में कारखाने फल-फूल रहे हैं। अनुसूचित जनजातियों के जीवन की निर्भरता, विशेषत: 2005-10 के दौरान कृषि पर केंद्रित रही है। 1993-94 के रोजगार में उनका हिस्सा सात प्रतिशत था, जो 2009-10 में भी ज्यों-का-त्यों बना रहा। जहां तक मुसलमानों की हिस्सेदारी का सवाल है वो पंद्रह प्रतिशत से घट कर चौदह प्रतिशत हो गई। इस संदर्भ में डॉ. सूद का विचार कुछ इस प्रकार है: "गुजरात में जो कुछ हो रहा है हिंदुस्तान के दूसरे प्रदेशों में होने वाले परिवर्तनों—अल्प रोजगार, कैपिटल ईंटेंसिव ग्रोथ और श्रम के अस्थायी और अल्पकालिक होने का अग्रदूत है।''

पिछले पांच सालों में दूसरे प्रदेशों के विकास और औसत राष्ट्रीय विकास के मुकाबले गुजरात में प्रति व्यक्ति मासिक खपत (एमपीसीई )शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कम रही है। गुजरात में 2009-10 में एमपीसीई 1388 रुपए था जो हरियाणा (1598 रुपए) और महाराष्ट्र्र (1549 रुपए) से बहुत कम है। इस तरह गुजरात में एमपीसीई की सतह जो 1993 में अपेक्षाकृत अच्छी थी वह 2010 तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो गई।

इसी तरह गुजरात में गत पांच वर्षों के दौरान ग्रामीण निर्धनता में 2.5 प्रतिशत सालाना की कमी आई है जो राष्ट्रीय स्तर की औसत हालत से बेहतर है मगर महाराष्ट्र और तमिलनाडु से कम है। 2009-10 के अंत तक ग्रामीण गुजरात में गरीबों की संख्या हरियाणा और तमिलनाडु की तुलना में ज्यादा थी और 1990 की दहाई के आरंभ में दूसरे प्रदेशों के मुकाबले इनकी गिनती में ज्यादा सुधार नहीं आया है। गरीबों की संख्या और निर्धनता की दर का विश्लेषण उस परिदृश्य की पुष्टि करता है जिसमें 1993 से 2005 तक और 2005 से 2010 तक शहरी क्षेत्रों में गरीबी की दर में गिरावट की रफ्तार राष्ट्रीय स्तर और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा कम रही है और दिलचस्प बात यह है कि शहर में निर्धनता की दर में यह वृद्धि वाइब्रेंट गुजरात वाले दौर में हुई है।

बराबरी और समता के स्तर पर भी गुजरात में कोई बेहतरी नहीं आई है। 1993-94 में देश की औसत विषमता का स्तर 32 प्रतिशत के करीब था और गुजरात के लिए यही स्तर लगभग 27 प्रतिशत था, लेकिन 2009-10 में यह बढ़कर 33 प्रतिशत के करीब हो गया, मतलब यह कि पिछले सत्रह सालों में विषमता में वृद्धि हुई है। पिछले पांच सालों में यानी 2005 से 2010 के बीच जहां तमिलनाडु, महाराष्ट्र और हरियाणा में इसमें कमी आई है वहीं गुजरात में असमानता की दर में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

आज गुजरात एक समृद्ध प्रदेश है मगर स्वास्थ्य और शिक्षा में इसकी हालत डावांडोल है। प्राथमिक शिक्षा के सिलसिले में एक अनुमान के मुताबिक देश के दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा साक्षरता की दर में सुधार की रफ्तार सुस्त है। 2000 से 2008 के दौरान, छह से अधिक वर्षों के बच्चों में साक्षरता के लिहाज से गुजरात का रैंक देश के अन्य राज्यों के मुकाबले गिरा है जो कि पांचवे से सातवें स्थान पर पहुंच गया है। शैक्षिक संस्थाओं में जाने वालों का अनुपात हाल में 21 से 26 प्रतिशत कम हुआ है। जबकि अन्य पंद्रह प्रदेशों में छह से दस प्रतिशत की कमी आई है। छह से चौदह साल के बच्चों में इसी अवधि में साक्षरता का लैंगिक-अंतर 20 प्रतिशत है। हालांकि, गुजरात में साक्षरता दर (स्कूल जाने वाले बच्चों की) कुल राष्ट्रीय औसत की साक्षरता दर से ऊंची है—महाराष्ट्र और हरियाणा से भी ज्यादा है; परंतु यह दर तमिलनाडु से थोड़ा कम है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में, जहां तक शिशु मृत्यु दर की गिरावट का सवाल है, अगर देश के अन्य प्रदेशों से गुजरात का मुकाबला करें तो यह दसवें पायदान पर है। 2000 और 2010 के दौरान शिशु मृत्यु दर के ग्रामीण-शहरी अनुपात में कोई फर्क नहीं हुआ है। गत दस सालों में शहरी-ग्रामीण असंतुलन और विषमता वैसी-की-वैसी बनी हुई है। मृत्यु दर के लैंगिक-अंतर को कम करने की कारगुजारी भी संतोषजनक नहीं है। 2000 और 2010 के दौरान अनुसूचित जातियों और जनजातियों और अन्य सामाजिक समूहों के बीच असमानता में वृद्धि हुई है। जहां तक आहार और पोषण का मामला है, प्रदेश में 1998-99 में पोषण की कमी के प्रभाव का अनुपात राष्ट्रीय औसत की अपेक्षा से समाज के वर्गों में कम हुआ है जबकि 2005-06 में राष्ट्रीय औसत के अनुपात से पोषण की स्थिति और खराब हुई है। अनुसूचित जातियों में पोषण की कमी राष्ट्रीय औसत के बराबर है वहीं अनुसूचित जनजातियों में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। पोषण में, 1999 और 1995 के दौरान जो प्रदेश नौवीं पायदान पर था वही प्रदेश 2005 से 2010 के बीच ग्यारहवीं पायदान पर पहुंच गया। यह सब तब हुआ जब विकास का राष्ट्रीय स्तर लगातार बढ़ता ही रहा है।

यह बात भी काबिल-ए-जिक्र है कि सामाजिक सेवाओं के विभिन्न क्षेत्रों में प्रदेश का व्यय जीएसडीपी के प्रतिशत और कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में दूसरे प्रदेशों की औसत गिरावट से ज्यादा गिरा है और राष्ट्रीय औसत के नीचे आकर ठहर गया है। यह स्थिति इस बात का संकेत करती है कि सरकार क ी सामाजिक सेवाओं को उपलब्ध कराने की बुनियादी जिम्मेदारी से ध्यान हटाया गया है।

एक तरह से गुजरात ऐसे राजनीतिक और आर्थिक मॉडल की झलक पेश करता है जिस में बाजार के तहत होने वाली वृद्धि के फार्मूले पर विश्वास किया गया है। सरकारी खजाने का इस्तेमाल निजी निवेश को बढ़ावा देने के साथ-साथ उस को ज्यादा से ज्यादा लाभप्रद बनाने के लिए हुआ है। इस अंधी दौड़ में विकास के बुनियादी अधिमानों—सबका विकास, स्वास्थ्य व शिक्षा तक सबकी पहुंच, रोजगार और समता—को नजरअंदाज किया गया है। तेज रफ्तार वृद्धि को विकास की गारंटी समझा गया जबकि हकीकत यह है कि वृद्धि दर का विकास-दर से कोई संबंध नहीं है। काबिल फख्र वृद्धि का हुसूल, निर्धनता और समावेश की बिगड़ती स्थिति को बेहतर बनाने की जमानत नहीं बन सका। इसके उलट बेरोजगारी बढ़ाने, सामाजिक न्याय बिगाडऩे, निर्धनता और विषमता को बढ़ाने में कारगर हुआ है। अगर केंद्रीय नीतियों में तब्दीलियां नहीं लाई गईं या फिर प्रदेशों में प्रभावी ढंग से विभिन्न प्रकार के विकास एजेंडों पर अमल नहीं किया गया, तो गुजरात जैसे हालात दूसरी जगहों पर भी उत्पन्न हो सकते हैं।

ब्रह्मचर्य नैतिकता और राष्ट्रवाद

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ब्रह्मचर्य नैतिकता और राष्ट्रवाद

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देखा जाए तो राष्ट्रीय सेवक संघ जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, सुविधानुसार पत्नी-त्याग और पुरुष द्वारा पुनर्विवाह आदि को गलत नहीं मानता है क्योंकि ये सब धर्म-सम्मत हैं। प्रश्न है क्या धार्मिक नियमों से उपजी बुराईयों को रोकने का आज आरएसएस के पास कोई व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका है? इस जैसी संस्था, जिसने पिछले दिनों महाराष्ट्र में जादू-टोने के खिलाफ लाए जा रहे कानून का यह कहते हुए विरोध किया था कि ये हमारे (हिंदू) धर्म के खिलाफ जा सकते हैं, क्या कोई ऐसा काम करेगी जो धर्म और संस्कृति के नाम पर चल रहीं कुप्रथाओं को हटाने में किसी तरह की निर्णायक भूमिका निभा सकती हो? दूसरी ओर भारतीय समाज में, विशेष कर हिंदू समाज में, जो भी सुधार आज दिखाई देते हैं वे सब कानून के बल पर ही हुए हैं और होंगे भी।

गत माह बंगलुरु में हुई स्वयं सेवकों की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के महासचिव सुरेश भैयाजी जोशी ने सन 2011-14 की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि "गत वर्ष समाज के सामने 'लिव इन रिलेशनशिप' (बिना विवाह के स्त्री-पुरुष के साथ रहने) और समलैंगिकता के दो मुद्दे चर्चा के लिए सामने आए। इन संबंधों को कानूनी मान्यता देने को लेकर दोनों तरह के तर्क पक्ष और विपक्ष में प्रस्तुत किए गए। इस तरह की चीजों को कानूनी मान्यता देने से पहले इन के समाज पर दूरगामी प्रभावों पर सोचा जाना चाहिए। इन चीजों को कानूनी बनाने से पहले हमें अपने सामाजिक जीवन पर होनेवाले इनके दीर्घकालिक घातक असर को ध्यान में रखना होगा। लेकिन एक ऐसा समाज जो अपनी  परंपराओं, संस्कृति, रूढिय़ों और जीवन मूल्यों पर चलता हो कानून से नहीं चल सकता। केवल धार्मिक और सामाजिक विचारों पर आधारित दिशा-निर्देश ही सामाजिक जीवन को सुरक्षित कर सकते हैं।'' (इंडियन एक्सप्रेस , 7 मार्च 2014 )

जोशी का वक्तव्य इस मामले में एकांगी है कि मसला सिर्फ समलैंगिकता या 'लिव इन रिलेशन'का ही नहीं है। अगर समलैंगिकता गलत है या 'लिव इन रिलेशन'तो फिर सीधे उसे गलत कहा जाना और तर्क दिए जाने चाहिए थे। परंपराओं, मान्यताओं और रूढिय़ों तथा कानून में फर्क यह है कि वे सामयिक जरूरतों और बदलावों के अनुरूप विकसित होते हैं। उन्हें बनाने की प्रक्रिया में सामाजिक, जैविक और सांस्कृतिक पक्षों को जांचने के बाद ही कानूनी जामा पहनाया जाता है।

परंपराएं, मूल्य और कानून

स्पष्ट है कि आरएसएस के पास समलैंगिकता या 'लिव इन रिलेशन'के खिलाफ कोई ठोस तर्क नहीं हैं। पर वह उसके बहाने अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगा है। उसकी मंशा कानूनों को मानने की नहीं लगती है बल्कि वह धार्मिक मूल्यों से उपजी परंपराओं को निर्णायक बनाने की जुगत में रहता है। इस तरह देखा जाए तो वह जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, सुविधानुसार स्त्री त्याग और पुरुष द्वारा पुनर्विवाह आदि को मानता हैक्योंकि ये सब धर्म-सम्मत हैं। प्रश्न है क्या धार्मिक नियमों से उपजी बुराइयों को रोकने का आज आरएसएस के पास कोई व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका है? इस जैसी संस्था, जिसने पिछले दिनों महाराष्ट्र में जादू-टोने के खिलाफ लाए जा रहे कानून का यह कहते हुए खुले आम विरोध किया था कि ये हमारे (हिंदू) धर्म के खिलाफ जा सकते हैं, क्या कोई ऐसा काम करेगी जो धर्म और संस्कृति के नाम पर चल रहीं कुप्रथाओं को हटाने में किसी तरह की निर्णायक भूमिका निभा सकती हो? दूसरी ओर भारतीय समाज में, विशेष कर हिंदू समाज में, जो भी सुधार आज दिखाई देते हैं वे सब कानून के बल पर ही हुए हैं और होंगे भी।

देखा जाए तो जिन्हें आरएसएस परंपराएं और मूल्य कहता है और जो हमारे जीवन को अनादिकाल से नियामित करती रही हैं, उनमें से भी अधिकांश एक तरह से कानून ही हैं जो धर्म के माध्यम से समाज द्वारा लागू किए जाते हैं। मनु स्मृति इसका उदाहरण है। या इसी तरह कुरान भी है। धार्मिक नियमों की विशेषता यह है कि वे हजारों वर्षों से प्रचलन में रहने के कारण इस तरह से रूढ़ हो जाते हैं कि आंख मूंद कर समाज द्वारा स्वीकार और शासक वर्ग द्वारा लागू किए जाते हैं। इनके उदाहरण आप खाप पंचायतों के तौर-तरीकों या दलितों को दंडित करने की घटनाओं में देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि धार्मिक संस्थाएं स्वयं दंड देने का काम न करती हों। उदाहरण के लिए समाज से बहिष्कृत करना या जन्म-मृत्यु के संस्कारों से उस व्यक्ति या उसके परिवार के सदस्यों को धार्मिक अनुष्ठानों से वंचित करना एक आम दंड रहा है। यू. आर. अनंतमूर्ति के क्लासिक उपन्यास संस्कार में इसका प्रभावशाली चित्रण है। नियमों के खिलाफ जानेवालों को, आधुनिक राज्य व्यवस्था के आने से पहले तक धर्म द्वारा कई तरह से दंडित किया जाता था और यह दंड ही मूलत: लोगों को तथाकथित धार्मिक नियमों के खिलाफ जाने से रोकता रहा है।

राज्य व्यवस्था, न्याय प्रणाली जिसका एक अंग है, कोई ऐसी चीज नहीं है जो कि शून्य में काम करती हो, विशेषकर आधुनिक व्यवस्था। अंतत: उसे अपने समाज की अच्छाइयों और बुराइयों का लगातार आंकलन करना होता है। इसके साथ ही उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि अंतत: वह समाज, जिसकी व्यवस्था का दायित्व उसका है, किस तरह से आगे बढ़ पायेगा। यह तभी हो सकता है जब कि राज्य व्यवस्था ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में हुई अद्यतन प्रगति के आलोक में और उसका लाभ उठाते हुए, कानून बनाए। जिस तरह से ज्ञान, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक उन्नति अंतिम नहीं है, उसी तरह से नैतिकताएं और मूल्य भी अंतिम नहीं होते। उन्हें समयानुसार बदलना होता है।

प्रचार बनाम सत्य

इधर एक एसएमएस इंटरनेट के विभिन्न मंचों में घूम रहा है। साथ में दो वीडियो टुकड़े भी हैं। यह संदेश मोदी का प्रचार है और इसमें उनकी तारीफ में कई बातें कही गई हैं। बाकी बातों को छोड़ दें तो भी दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहली यह कि वह अपने पिता की बहुप्रचारित चाय की दुकान में मदद किया करते थे और उत्तर गुजरात के वाडनगर रेलवे स्टेशन में यात्रियों को चाय बेचा करते थे। गोकि इस संबंध में तथ्य क्या हैं इसे अभी भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए अंग्रेजी साप्ताहिक आउटलुक के 3 मार्च के अंक में छपा है कि "मोदी के पिता वास्तव में क्या करते थे यह विवादास्पद है। दूसरे पक्ष का कहना है कि वह फाफड़ा (बेसन का एक तला व्यंजन) बेचा करते थे न कि चाय। तीसरा पक्ष यह है कि मोदी आरएसएस के हेडगेवार भवन में प्रचारकों के लिए खाना पकाते थे और पोचा लगाते थे। और उनके पिता ने कुछ समय तक कैंटीन चलाई थी पर बाद में वह ज्यादा लाभदायक 'प्रोटेक्शन' (संरक्षण) का धंधा करने लगे थे। वह स्थानीय चाय की ठेली वालों और पुलिस के बीच दैनिक हफ्ता (प्रोटेक्शन मनी) की शृंखला में बिचौलिए का काम करते थे। ''जो भी हो, यह निश्चित है कि वह गरीब घर से हैं और शुरू में उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी है। पर उन्होंने परिवार को अपनी उपलब्धियों का कभी कोई फायदा नहीं पहुंचाया। दूसरा, कि वह अविवाहित हैं।

इन दोनों ही बातों के नैतिक और सामाजिक पक्ष हैं। परिवार से मोदी के संबंध से पहले उनके अविवाहित होने पर चर्चा जरूरी है।

इंडियन एक्सप्रेस में ही 3 फरवरी 2014 को जसोदाबेन नाम की महिला का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। (अगले दिन उसी संस्थान के हिंदी दैनिकजनसत्ता ने भी इसका अुनवाद छापा।) साक्षात्कार के मुताबिक जसोदाबेन का विवाह मोदी से हुआ था और उन्होंने जसोदाबेन को विवाह के तीन वर्ष बाद ही छोड़ दिया था। जसोदा बेन के अनुसार वे दोनों इन तीन वर्षों में तीन माह भी साथ नहीं रहे। दूसरे शब्दों में कानूनी दृष्टि से मोदी आज तक विवाहित हैं क्यों कि उन्होंने तलाक नहीं लिया है।

यह साक्षात्कार नेट पर खुलेआम उपलब्ध है। दिल्ली, मुंबई के अलावा अहमदाबाद और वडोदरा सहित देश के नौ केंद्रों से प्रकाशित होनेवाला एक्सप्रेस मोदी और भाजपा का प्रशंसक होने के साथ ही उदारीकरण के सबसे बड़े समर्थकों में भी है। अगर यह तथ्य और साक्षात्कार गलत होता तो इसका मोदी की ओर से निश्चित ही कोई खंडन आ चुका होता और आरएसएस के नटी ब्रिगेड ने मेल, एसएमएस, क्लिपिंग के माध्यम से अब तक जमीन- आसमान एक कर दिया होता।

तब प्रश्न है क्या यह बात अज्ञानवश कही जा रही है कि मोदी अविवाहित हैं या तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है?

पर ऐसा भी नहीं है कि यह एक्सप्रेस का 'स्कूप'हो। यह तथ्य पिछले पांच वर्षों से जग जाहिर है। अंग्रेजी साप्ताहिक ओपन ने जसोदाबेन के बारे में अपने 11 अप्रैल 2009 के अंक में ही छाप दिया था। पत्रिका के अनुसार बनासकांठा जिले के राजोसाणा गांव में मोदी की पत्नी के होने के बारे में गोधरा दंगों के बाद यानी सन 2002 में ही उनके विरोधियों ने पता लगा लिया था। यहां प्रश्न हो सकता है कि इस बीच मीडिया ने पहले कभी इस बारे में क्यों नहीं छापा? फिलहाल इससे दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि मोदी ने अपने विवाह को छिपाए क्यों रखा? दूसरा यह कि क्या उनके इन तीन वर्षों में या महीनों में अपनी पत्नी से शारीरिक संबंध थे या नहीं। गोकि इससे उनकी वैवाहिक स्थिति पर कानूनी तौर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। गत वर्ष प्रकाशित मोदी की द मैन, द टाइम्स नामक जीवनी के लेखक निलांजन मुखोपाध्याय ने इसके उत्तर अपनी तरह से दिए हैं। उनके अनुसार मोदी ने अपने "विवाह के तथ्य को इसलिए छिपाए रखा क्योंकि इसका अर्थ यह होता कि वह पवित्रतावादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सीढिय़ां नहीं चढ़ पाते। आरएसएस अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के विवाह को नहीं स्वीकारता है। ''यद्यपि ओपन की रिपोर्ट से ऐसा आभास होता है कि मोदी द्वारा जसोदाबेन को छोडऩे का अतिरिक्त कारण उनका सुंदर न होना और अनपढ़ होना भी रहा है। मोदी जिस तरह से अपनी वेशभूषा और शरीर को लेकर सचेत रहते हैं वह इस बात का संकेत तो है ही कि वह काफी हद तक आत्ममुग्ध आदमी हैं। पर इससे भी आगे यह मोदी की उस मानसिकता को भी दर्शाता है जो औरत का मूल्यांकन उसकी शारीरिक बनावट के आधार पर करता है। पर इससे भी ज्यादा यह घटना मोदी की उस निर्मम आत्मकेंद्रितता को दर्शाती है जो अपने लिए किसी की भी बलि चढ़ाने में एक पल को नहीं झिझकती।

परिवार और कर्तव्य के सवाल

मुखोपाध्याय ने एक और महत्त्वपूर्ण बात का दावा किया है कि मोदी का "अपनी पत्नी से कभी कोई शारीरिक संबंध नहीं रहा।''

इस बात का क्या आधार है और क्या यह संभव हो सकता है, यह अपने आप में सवाल है। यहां याद रखना जरूरी है कि जसोदाबेन ने एक्सप्रेस के साक्षात्कार में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि शुरू में मोदी का उनसे व्यवहार अच्छा था और वह उनका रसोई में भी हाथ बंटाते थे। जसोदाबेन ने यह भी कहा है कि वह "तीन वर्षों में तीन माह भी साथ नहीं रहे। ''तीन महीने से कम ही सही, पर इस साथ रहने से उनका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या ये तथ्य मुखोपाध्याय के दावे की पुष्टि करते हैं?

ओपन में छपी हेमा देशपांडे की यह रिपोर्ट स्पष्ट कर देती है कि नरेंद्र मोदी ने अपने विवाह के तथ्य को नियोजित तरीके से छिपाए रखने की हर संभव कोशिश की। जिस राजोसाणा गांव में जसोदाबेन पढ़ाती थीं उस गांव के स्कूल के प्रधानाचार्य ने किस तरह से सरकारी अधिकारियों या भाजपा नेताओं के माध्यम से उन्हें डराया, उसका किस्सा पढऩे लायक है। यह स्पष्ट कर देता है कि मोदी ने अपने विवाहित होने के तथ्य को छिपाए रखने के लिए पार्टी और सरकारी मशीनरी का खुल कर दुरुपयोग किया है।

आश्चर्य है कि उनसे इस बारे में कोई सवाल-जवाब न तो आरएसएस, न उनकी पार्टी और न ही मीडिया ने किए हैं। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय प्रेस तक ने भी नहीं। यह उनके मीडिया मैनेजमेंट का भी कमाल माना जाएगा। साफ है कि मोदी को लेकर कई तरह की गलत बयानी लगातार की जा रही है। उन्हें सर्वगुण संपन्न अवतारी पुरुष सिद्ध करने का कोई भी मौका भाजपा का प्रचार तंत्र और उनके हिंदुत्ववादी समर्थक नहीं छोड़ रहे हैं। मोदी अच्छे प्रशासक हो सकते हैं (जिसको लेकर अपनी तरह की शंकाएं हैं) पर क्या इस पृष्ठभूमि के चलते व्यक्ति के स्तर पर भी उन्हें नैतिक और आदर्श कहा जा सकता है? नैतिकता ब्रह्मचर्य में या पारिवारिक बंधनों से मुक्त होने में नहीं मानवीय व्यवहार में है। अगर वह किसी पश्चिमी प्रजातंत्र में होते तो उन्हें पत्नी का गैरकानूनी तरीके से त्याग करने के कारण ही, प्रधानमंत्री पद तो छोड़, क्या किसी छोटे-मोटे सार्वजनिक पद पर भी बैठने दिया जाता?

अब परिवार पर आते हैं। इस संदर्भ में पहला सवाल है कि कोई व्यक्ति निजी महत्त्वाकांक्षाओं जैसे कि सन्यासी बनने के लिए या फिर आरएसएस जैसे सांस्कृतिक आंदोलन से जुडऩे के लिए या और किसी तरह की निजी सफलता के लिए ही क्यों न हो, उस परिवार को जिसने उसका 20-22 वर्ष तक जैसा भी संभव था, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया हो, समर्थ होते ही, छोडऩा क्या समझ में आता है? अपने परिवार को, माता-पिता, भाई-बहन या पत्नी को असहाय छोड़ देना कहां तक जायज है? ऐसे परिवार को जो किसी तरह दो जून की रोटी कमाता हो—फिर चाहे खोमचा लगाकर हो, ठेला चला कर या पुलिस और फेरीवालों के बीच दलाली कर के ही क्यों न हो। आठ व्यक्तियों, छह बच्चों और माता-पिता, के परिवार को। उस पर भी उस पत्नी को, जिससे आपने सार्वजनिक तौर पर (हिंदुत्ववादियों की भाषा में कहें तो जिस पत्नी के साथ अपने अग्नि के सामने सात फेरे लगाए हों और आजीवन साथ रहने की सौगंध उठाई हो) विवाह किया हो, छोडऩा तो और भी गंभीर मसला है। वह भी परंपरागत मूल्यों से ग्रसित ऐसे समाज में जहां परित्यक्ता या विधवा के लिए कोई स्थान ही न हो। जहां स्त्री को, बीसवीं सदी के मध्य में भी अपना साथी चुनने (या छोडऩे) की कोई आजादी न रही हो। पति के अलावा कोई आसरा न हो। ढंग की शिक्षा या रोजगार न हो (विवाह के समय जसोदाबेन सिर्फ सातवीं तक पढ़ी हुई थीं और उनकी उम्र 17 वर्ष थी) और न ही किसी तरह की कोई संस्थागत सामाजिक सुरक्षा हो। ध्यान रखने की बात है कि इसे बाल विवाह या अवैध भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह माता-पिता की रजामंदी से हुआ था। (मोदी का जन्म 1950 में हुआ और विवाह 1968 में)। ऐसे आदमी का आपद धर्म क्या हो सकता है? अगर निर्वाण की तलाश या फिर सांस्कृतिक पुनर्जागरण में अपने सपने के संधान जैसा कुछ हो तो भी क्या यह दुर्धर्ष आत्मकेंद्रितता और अतिमहत्त्वाकांक्षा से उपजी स्वार्थपरता नहीं है? यहां तो वह भी नहीं है। राजनीतिक सफलता कुल मिला कर सामाजिक सफलता ही है, विशेषकर जिस तरह की राजनीति में मोदी और उनके दल का विश्वास है। क्या ऐसा नहीं लगता कि उनके द्वारा आरएसएस में जाना कठिन जिंदगी से पलायन के तौर पर अपनाया गया एक रास्ता मात्र हो। जो भी हो तथ्य यह है कि उन्होंने उसके बाद अपने गरीब परिवार की ओर फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा।

ब्रह्मचर्य की अप्रासंगिकता

प्रसंग का दूसरा पक्ष एक ऐसी संस्था से जुड़ा है जो अपनी जड़ता और फासीवाद के कारण अप्रासंगिक हो चुकी है। क्या आज कोई ऐसा संगठन हो सकता है जो तथाकथित 'ब्रह्मचर्य'को बढ़ावा देता हो? सुनकर आश्चर्य होता है कि इक्कीसवीं सदी में भी किसी संगठन के आदर्शों में एक 'ब्रह्मचर्य'जैसा मूलत: प्रकृति विरोधी नियम भी है, फिर चाहे अलिखित ही क्यों न हो? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा ही संगठन है जिसके प्रचारक अविवाहित रहते हैं और कहने को ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यहां ध्यान रखने की बात है कि वे धर्म जिनमें ब्रह्मचर्य को महत्त्व दिया जाता रहा है इससे उपजे दुराचारों से बच नहीं पाते हैं। ईसाई धर्म व्यवस्था में पादरियों के दुराचार और अप्राकृतिक यौन व्यवहार के किस्से आज जिस मात्रा में सामने आ रहे हैं वह किसी धर्म से जुड़ी कोई पहली घटना नहीं है। सिर्फ इस में विशेषता यह है कि इस धर्म के पश्चिमी समाज के अनुयायी अपने खुले नजरिये के कारण इसे सुधारने और बदलने की कोशिश कर रहे हैं। देखने की बात यह है कि वहां किसी धार्मिक संगठन की राजनीति में ऐसी सर्वग्राही दखलंदाजी नहीं है जैसी कि भारतीय लोकतंत्र में आरएसएस की देखने को मिलती है। आगामी माह होनेवाले चुनावों में जिस तरह से आरएसएस भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार से लेकर लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची तय कर रहा है वह इस तथाकथित सांस्कृतिक संगठन की रही-सही पोल भी खोल देता है। पर सत्य यह है कि आरएसएस को लेकर भी 'ब्रह्मचर्य-विचलन'के किस्सों की कोई कमी नहीं है। नवीनतम किस्सा संगठन के सहसरकार्यवाहक के.सी. कन्नन का है जिन्हें अपने प्रेम प्रसंग के कारण पद से हटा दिया गया है। इसकी घोषणा मार्च के शुरू में बंगलुरू की प्रतिनिधि सभा में ही की गई। आरएसएस के पदक्रम में यह तीसरा सबसे बड़ा पद होता है (द इंडियन एक्सप्रेस 12 मार्च)। कुछ समय पहले गुजरात में काम कर रहे एक और प्रचारक सुरेश जोशी का मामला बड़े जोर-शोर से सामने आया था। जोशी को लेकर एक ऐसी सीडी बांटी गई थी जिसमें वह एक स्त्री के साथ निजी क्षणों में नजर आ रहे थे। विडंबना यह है कि इस सीडी के बनवाने में नरेंद्र मोदी, जो कि उनके विरोधी हैं, का हाथ होने की जबर्दस्त अफवाह थी। इसके अलावा संघ में समलैंगिकता को लेकर तो न जाने कितने किस्से प्रचलित हैं, बल्कि एक तरह से इसके लिए उस पर अक्सर ही कटाक्ष किया जाता है।

व्यवहारिकता का आत्ममंथन

पर ऐसा भी नहीं है कि आरएसएस में इस सवाल को लेकर विवाद न रहा हो। सरसंघचालक बनने के तत्काल बाद मीडिया से बात करते हुए मोहन भागवत ने कहा था, "चूंकि एक हिस्सा अभी भी महसूस करता है कि हाफ पैंट पहनना सुविधा का मामला है और विवाह परिवार चलाने के उत्तरदायित्व की मांग करता है इसलिए दोनों ही मामलों को स्थगित रखा जाता है।

"अगर कोई प्रचारक विवाह करना चाहता है तो हम इसका सदा स्वागत करते हैं। लेकिन वह प्रचारक के रूप में काम नहीं कर सकता, हम गृहस्थ आश्रम का सदा स्वागत करते हैं, हम चाहते हैं प्रचारकों से ज्यादा लोग परिवारवाले बनें।'' ( द हिंदुस्तान टाइम्स, 4 अगस्त, 2009)

जो संगठन परिवार की संस्था के बारे में सार्वजनिक तौर पर इस तरह से बातें करता हो, फिर चाहे दिखाने के लिए ही क्यों न हो, उससे इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं।

आज के दौर में विवाहित स्त्री को छोडऩा कहां तक उचित है? संभव है धर्म इसकी इजाजत देता हो और हिंदू धर्म में इसके उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे शिव ने पार्वती को छोड़ा, नल ने दमयंती को छोड़ा, राम ने सीता को छोड़ा या फिर भीम ने हिडिंबा को छोड़ा आदि। अगर वह इजाजत देता भी है तो क्या वह सिर्फ पुरुष को ही देता है? क्या किसी पुराण में इस तरह की कोई कथा मिलती है जिसमें विवाहित स्त्री ने पति, बच्चों और परिवार को छोड़ कर सन्यास लिया हो? या कहीं कोई समकालीन वाकया हो? (अगर लिया भी होगा तो पति या पारिवारिक उत्पीडऩ के कारण। वैसे सच्चाई यह है कि औरतें ऐसे में भी अक्सर आत्महत्या को चुनती हैं।) इस तथ्य के बावजूद कि धर्म में महिलाओं का मरना, मार दिया जाना, उनका आत्महत्या करना, सहज स्वीकार्य है पर क्या हिंदू धर्म और उसका समाज आज भी इस तरह परिवार-त्याग के कदम को सही ठहराता और स्वीकरता है?

जैसा कि हिंदू धर्म का यह स्वयंभू रक्षक कहता है, "हम गृहस्थ आश्रम का सदा स्वागत करते हैं, हम चाहते हैं प्रचारकों से ज्यादा लोग परिवार वाले बनें।''तो सवाल है वह नरेंद्र मोदी के पत्नी छोडऩे के प्रसंग को इतनी खामोशी से क्यों निगल जाता है? क्यों उसने मोदी को प्रचारक बनाया? क्या मोदी ने अपनी वैवाहिक स्थिति के बारे में संघ को गलत जानकारी नहीं दी थी? इससे मोदी की विश्वसनीयता तो शंकास्पद हो ही जाती है, पर सवाल है इस सच्चाई के सामने आने के बाद संघ ने क्या किया? क्या उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्यवाही की गई? नहीं। वह इस मुद्दे पर चुप्पी साधे है पर वरिष्ठ भाजपा नेताओं का तर्क है कि यह बाल-विवाह का मामला था और वयस्क होने पर मोदी ने इसे एक दुखद अध्याय की तरह छोड़ दिया। यह कानूनी तौर पर भी गलत है। सन् 1978 के संशोधन तक विवाह की कानूनी उम्र लड़की के लिए 15 और लड़के की 18 वर्ष थी। जहां तक बाल-विवाह की बात है वह तो इसलिए भी गलत है कि आज भी बाल विवाह उसे कहा जाता है जहां लड़की 9 से कम और लड़का 11 से कम हो। पर यहां तर्क यह हो सकता है कि क्या आरएसएस और भाजपा सब बाल-विवाहों को, जो देश में आज भी हो रहे हैं, अवैध मानता है? और क्या ऐसे पतियों को अपनी पत्नियों को छोडऩे की इजाजत देता है? इसी से जुड़ा प्रश्न उठता है, अगर केंद्र में भाजपा नेतृत्ववाली सरकार आती है तो क्या इस तरह का कोई कानून पास किया जाएगा?

संविधान में स्त्री

ये ऐसे सवाल हैं जो आज के दौर में भारतीय स्त्री की पहचान और स्वायत्तता के साथ ही साथ स्त्री-पुरुष की समानता के आधारभूत सिद्धांतों और भारतीय संविधान की मूल भावना से जुड़े हैं। जो जाति, धर्म, रंग और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता और इस तरह के व्यवहार को अपराध की श्रेणी में रखता है। वृहत्तर संदर्भ में ये किसी भी संगठन की, चाहे वह सांस्कृतिक हो या राजनीतिक, प्रासंगिकता भी सिद्ध करते हैं।

यह छिपा नहीं है कि दुनिया का कोई भी धर्म पुरुष और स्त्रियों को समान अधिकार नहीं देता। वह स्त्री को पुरुषों के बराबर मानता ही नहीं है। हिंदू धर्म अपवाद कैसे हो सकता है! पर धर्म-धर्म के बीच भी स्त्री की स्थिति में अंतर देखा जा सकता है। हिंदू धर्म कई मायने में औरतों के प्रति ज्यादा कठोर है। वह न तो परित्यक्ता को दूसरे विवाह की इजाजत देता है और न ही किसी विधवा को। बल्कि विधवा का तो वह जीने का भी अधिकार छीन लेता है। कम से कम ईसाई धर्म और इस्लाम में यह इजाजत तो है। सती जैसी निर्मम प्रथा, दुनिया के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित उस बर्बर प्रथा से क्या अलग है जिसके चलते राजे-रजवाड़ों की पत्नियों और रखैलों को उनके साथ ही दफन कर दिया जाता था?

इन सवालों का महत्तर सामाजिक महत्त्व है, विशेषकर इसलिए क्यों कि ये एक व्यक्ति के भारतीय समाज में परिवार और पत्नी के संदर्भ में उसके दायित्वों से जुड़े हैं। दुनिया के सबसे बड़े देश का प्रधान मंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले और देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करनेवाले व्यक्ति के संदर्भ में ये अतिरिक्त महत्त्व के तो हैं ही। जो समाचार, विशेष कर उनके द्वारा राज्य की पुलिस के द्वारा एक औरत का पीछा करवाने (पत्नी नहीं) और उस के निजी जीवन पर नजर रखने को लेकर आए हैं, वे सरकारी तंत्र के दुरुपयोग और एक नागरिक की स्वतंत्रता के हनन का दूसरा आयाम हैं। ये सवाल खड़ा करते हैं कि क्या ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में पहले से ही जर्जर भारतीय लोकतंत्र में नागरिकों की निजता को सम्मान मिल सकेगा? वैसे ये मोदी के उस रुझान का भी संकेत हैं जो स्त्री-पुरुष के बीच के नैसर्गिक आकर्षण से उपजते हैं। पर वे साथ-ही-साथ तथाकथित ब्रह्मचर्य और अविवाहित रहने के संघ के आग्रह की निरर्थकता को भी उजागर कर देते हैं।

यहां स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि क्या उनकी परित्यक्त पत्नी जसोदाबेन को उतनी ही छूट रही होगी जितनी मोदी को पुरुष और एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के कारण उपलब्ध है और स्पष्ट है कि मोदी ने उसका लाभ भी उठाया है और क्या गारंटी है कि आगे नहीं उठाएंगे? दूसरी ओर एक परंपरागत हिंदू स्त्री के संस्कार और सामाजिक सीमाओं को देखते हुए ऐसा कर पाना जसोदाबेन के लिए लगभग असंभव रहा होगा। जसोदाबेन के अनुसार नरेंद्र मोदी ने उनके विवाह का एक-एक फोटो फाड़ दिया था। पर उनके पास आज भी मोदी का एक फोटो है और उन्हें उनके भागे हुए पति द्वारा भेंट की गई एक किताब है जिसे वह अमूल्य धरोहर की तरह संजोए हैं। अपनी इन्हीं अमूल्य निधियों के भरोसे वह आज भी इंतजार करती हैं कि शायद उनका पति उन्हें किसी दिन फोन करेगा। (2009 में मुंबई से प्रकाशित डेली न्यूज एंड एनालिसिस की रिपोर्ट) क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मोदी तत्काल अपनी पत्नी को स्वीकारें और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दें। और क्या संघ को उनसे इसका आग्रह नहीं करना चाहिए? अन्यथा उन्हें भी आज नहीं तो कल किसी को गोद लेने का पाखंड करना होगा।

कैसा आदर्श?

जैसा कि कहा जा चुका है कानून ऐसी इजाजत नहीं देता कि कोई अपनी पत्नी का इस निर्ममता से त्याग करे। बिना कोई कारण बतलाए उसे विवाह के तीन वर्ष बाद ही छोड़कर चला जाए। उसे कानूनी तौर पर मुक्त न करे और उसके भरण-पोषण की भी कोई व्यवस्था न करे और अंतत: उसे अपने मायके का दरवाजा खटखटाना पड़े। साफ है कि यह त्याग नहीं अन्याय है। चूंकि नरेंद्र मोदी अब स्वयं इस तरह से बोलने लगे हैं मानो उनका भारत का प्रधान मंत्री होना सरकारी प्रमोशन होने जैसा ही सुनिश्चित है, (10 मार्च को पूर्णिया में दिए भाषण की जनसत्ता में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित भाषा की रिपोर्ट), ऐसे में इन प्रश्नों का उनसे उत्तर पूछा जाना जरूरी है। उन्होंने जो किया है वह भारतीय युवा पीढ़ी के लिए किस तरह की नजीर बनेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। उन्होंने एक निरीह और असहाय स्त्री का जीवन निजी महत्त्वाकांक्षाओं और विश्वासों के चलते बर्बाद किया है। क्या यह भारतीय संविधान और कानून का अपमान नहीं है? सर्वोपरि यह कि यह भारतीय नारी का अपमान है। महिला दिवस पर उनका महिलाओं के सशक्तीकरण और स्वावलंबी बनाने का संदेश देने के पीछे कोई और मंशा तो नहीं है?

हाल ही में मोदी ने दिल्ली में वकीलों को संबोधित करते हुए कहा है कि उन्होंने जिंदगी भर कोई कानून नहीं तोड़ा। यहां तक कि स्कूटर तक कभी गलत पार्क नहीं किया। (द हिंदू 9 मार्च 2014) यह सब सही हो सकता है। पर इस में कौन-सी अजीब बात है। कानूनों का पालन हर सभ्य समाज का आम नागरिक करता है और उसे करना भी चाहिए। यातायात के नियमों का पालन एक सामान्य अनुशासन का मामला है। आश्चर्य यह है कि राम जेठमलानी सहित वकीलों के उस जमावड़े में से किसी ने मोदी को यह नहीं बतलाया कि पत्नी को छोडऩा, उस पर जासूस लगाना, किसी महिला पर अपनी पुलिस सेनजर रखवाना आदि भी गैरकानूनी है। सिर्फ पत्नी को ही बेसहारा छोड़ कर भाग जाना और फिर उसे गैरकानूनी तरीकों से छिपाने की कोशिश करना किसी सामान्य अपराध से किस तरह कम है?

सवाल पूरे संघ परिवार से किया जाना जरूरी है कि क्या वह एक ऐसे व्यक्ति को प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार बना कर उस भारतीय परंपरा को जो परिवार की अपनी संस्था पर गर्व करती है और इस संदर्भ में स्वयं अपनी मान्यताओं की जड़ों में मट्ठा डालने का काम नहीं कर रहा है? मोदी के विवाह का खुलासा पांच वर्ष पहले हो चुका था इसके बावजूद एक ऐसे प्रचारक को जिसने अपने जीवन के बारे में अहम तथ्य छिपाया हो, प्रधान मंत्री बनाकर आरएसएस क्या संदेश दे रहा है? सह सरकार्यवाहक कन्नन को निकाले जाने की अपनी रिपोर्ट में एक्सप्रेस ने संघ के एक अंदरूनी व्यक्ति का हवाला देते हुए लिखा है: "आरएसएस के लिए प्रचारक का पद एक संस्था है। उसके लिए अविवाहित और ब्रह्मचारी रहना जरूरी है। एक छिपे प्रेमप्रसंग के चलते कन्नन ने इस संस्था का अपमान किया है।''इस पृष्ठभूमि में कन्नन का संघ से निकाला जाना क्या दोगलापन नहीं है?

सत्यमेव जयते?

निश्चय ही मोदी का आना उनके सांप्रदायिक रिकार्ड के कारण संघ परिवार के हिंदूवादी एजेंडे को बढ़ाएगा और संभव है संघ के प्रति युवाओं के घटते आकर्षण की कुछ हद तक ही सही क्षतिपूर्ति कर देगा। पर यह जिस तरह की असामाजिकता और असुरक्षा को बढ़ाएगा, विशेषकर निम्न वर्ग की महिलाओं में, इसकी उस के नेतृत्व को कोई चिंता है। आज प्रचारक मध्य या उच्च वर्ग से नहीं आते। पहले भी शायद ही आते होंगे। अब ये उस निम्न मध्य व निम्न वर्ग से आते हैं, जिसे विकास के मोदी मॉडल ने बड़े पैमाने पर बेरोजगार और असुरक्षित किया हुआ है। तर्क हो सकता है कि कोईभी युवा मोदी के रास्ते पर चल कर देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकता है। पर यह नहीं भुलाया जा सकता कि मोदी अपवाद हैं क्यों कि वह कई ऐतिहासिक संयोगों की देन हैं। लेकिन भूला नहीं जाना चाहिए कि इस उदाहरण में कई औरतों को जसोदाबेन की तरह विवाहित-विधवा का जीवन जीने को मजबूर करने की पूरी संभावना है।

देखा जाए तो मोदी के इस असामाजिक न भी कहें तो भी अनैतिक व्यवहार की जड़ें काफी हद तक स्वयं आरएसएस के अवैज्ञानिक, अप्रासंगिक और अतार्किक आदर्शों में निहित हैं। सवाल है आखिर वह कौन सा दायित्व है जिसे आज विवाहित आदमी नहीं निभा सकता? फिर पुरुष को ही क्यों प्रचारक बनाया जाता है? क्या यह संघ का स्त्री के प्रति गहरी अनास्था और भेदभाव नहीं दिखलाता है? 'नर्क का द्वार स्त्री'वाली जड़ धार्मिक अवधारणा को पुष्ट करता। जबकि प्रचारकों, विशेषकर मुख्यमंत्री 'प्रचारक', के 'पथभ्रष्ट'होने के उदाहरण बतलाते हैं कि वे किस तरह स्वयं स्त्रियों के संसर्ग के लिए लालायित रहते हैं और क्या नहीं कर सकते हैं। अगर सीमा पर रहनेवाले सिपाही या बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे अर्द्धसैनिक बलों के लोग अपने दोनों कामों को बखूबी निभा सकते हैं तो वह कौन-सी ऐसी अड़चन है जो विवाहित होना प्रचारक के काम के रास्ते में बाधा बनती है? सवाल है अगर यह नियम न होता तो क्या नरेंद्र मोदी को अपनी पत्नी को इस तरह चोरी से छोड़कर जाना पड़ता? लगता है मोदी: द मैन, द टाइम्स के माध्यम से यही बात कहने की कोशिश की जा रही है कि मोदी ने विवाह जरूर किया और पत्नी भी छोड़ी पर वह हैं ब्रह्मचारी। यानी प्रचारक बनने लायक थे। निश्चय ही मोदी और उनके प्रचारक बखूबी जानते हैं कि उन्हें किस तरह से एक नायक की छवि को गढऩा चाहिए फिर चाहे इसके लिए कितना ही मसाला यानी गल्प का सहारा क्यों न लेना पड़े।

सब कुछ के बावजूद प्रचार की अपनी सीमाएं होती हैं। गोकि हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स का कहना था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो सच बन जाता है। पर मुंडक उपनिषद् में कहा गया है:

सत्यमेव जयते नानृतं

सत्येन पन्था विततो देवयान:।

येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।

(केवल सत्य की विजय होती है; झूठ की नहीं। दैवीय मार्ग सत्य से होकर ही जाता है, जिससे होकर संत लोग जिनकी कामनाएं पूरी तरह शांत हो चुकी हैं, वहां पहुंचते हैं जहां सत्य का परम निधान है।)

वैसे हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह में भी गुदा हुआ है 'सत्यमेव जयते'। पर न तो राजनीति संतों का काम है और न ही सत्य को प्राप्त करने का मार्ग।

कॉरपोरेट, मोदी, गुजरात और कांग्रेस

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कॉरपोरेट, मोदी, गुजरात और कांग्रेस

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रिलायंस के हितों की रक्षा करने के लिए चाहे कांग्रेस की सरकारें रही हों या भाजपा की पिछली एनडीए सरकार रही हो या फिर गुजरात की मोदी सरकार रही हो, सभी ने बखूबी अपनी वफादारी निभाई है। बहुत सारे मौकों पर यह सच सामने भी आ चुका है, लेकिन रिलायंस और उसके मालिक मुकेश अंबानी कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बने। यह पहला मौका है जब इस बार के लोकसभा चुनावों में मुकेश अंबानी और कॉरपोरेट का भ्रष्टाचार भी एक अहम मुद्दा है।

सुप्रीम कोर्ट ने 26 मार्च 2014 को केंद्र सरकार से कहा कि वह बायोमैट्रिक्स मार्केटिंग एंड स्ट्रासबोर्ग होल्डिंग द्वारा रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) की चार कंपनियों में किए गए 6530 करोड़ रुपए के निवेश के मामले में अब तक क्या कदम उठाए हैं, उसके बारे में रिपोर्ट पेश करे। सिंगापुर में भारतीय उच्चायोग ने अगस्त 2011 में भारत सरकार को इस फर्म द्वारा किए गए इस निवेश के बारे में जांच करने के लिए पत्र लिखा था। आरआईएल के केजी-डी 6 ब्लॉक से निकाली जा रही प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाने के मामले में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा, "हम जानना चाहते हैं कि उच्चायोग के पत्र के बाद इस मामले में क्या जांच हुई है।''सिंगापुर में भारतीय उच्चायोग के पत्र के आधार पर यह कहा जा रहा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के जरिए मनी लॉन्ड्रिंग की गई है। उच्चायोग का कहना था कि बायोमैट्रिक्स मार्केटिंग एक कमरे वाली कंपनी थी जो प्रत्यक्ष तौर पर कोई व्यापार नहीं करती थी, उसकी कोई संपत्ति और इक्विटी नहीं थी और उसने सिंगापुर में इनकम टैक्स रिटर्न भी दाखिल नहीं किए थे। इस पर भी उसने 6530 करोड़ का इतना बड़ा निवेश किया था। सिंगापुर से यह भारत में होने वाला सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है। फ्रंटलाइन पत्रिका के 21 मार्च 2014 अंक में प्रकाशित स्टोरी (रिलायंस फैक्टर) के मुताबिक भारतीय उच्चायोग ने यह भी कहा था कि यह एफडीआई पूरी तरह से भारत में रिलायंस समूह की कंपनियों में गई और इसका बड़ा हिस्सा रिलायंस गैस ट्रासंपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (आरजीटीआईएल) में जमा किया गया। इस कंपनी का सौ प्रतिशत स्वामित्व मुकेश अंबानी के पास है। उच्चायोग का यह भी कहना था कि बायोमैट्रिक्स मार्केटिंग अतुल शांति कुमार दयाल द्वारा नियंत्रित की जा रही थी। वहीं, आम आदमी पार्टी का कहना है कि दयाल रिलायंस के लिए काम करता है। वह रिलायंस समूह की 32 कंपनियों और प्रमोटर कंपनियों में निदेशक है। आप का कहना है कि रिलायंस को बचाने के लिए केंद्र की यूपीए सरकार उच्चायोग द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचना को दबाए रही।

रिलायंस के हितों की रक्षा करने के लिए चाहे कांग्रेस की सरकारें रही हों या भाजपा की पिछली एनडीए सरकार रही हो या फिर गुजरात की मोदी सरकार रही हो, सभी ने बखूबी अपनी वफादारी निभाई है। बहुत सारे मौकों पर यह सच सामने भी आ चुका है, लेकिन रिलायंस और उसके मालिक मुकेश अंबानी कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बने। यह पहला मौका है जब इस बार के लोकसभा चुनावों में मुकेश अंबानी और कॉरपोरेट का भ्रष्टाचार भी एक अहम मुद्दा है। इसका श्रेय जाहिर तौर आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को जाता है। केजरीवाल कांग्रेस और मोदी के बारे में लगातार कह रहे हैं दोनों ही कॉरपोरेट के हितों के रक्षा के लिए आपस में मिले हुए हैं। लेकिन दिलचस्प यह है कि मोदी जो चुनावी रैलियों में भ्रष्टाचार मिटाने और देश की तरक्की के नाम पर गरज रहे हैं अभी तक एक बार भी मुकेश अंबानी और अपने बहुत करीब उद्योगपति अडाणी के मामले में खामोश हैं। आम आदमी पार्टी का कहना है कि यूपीए सरकार ने प्राकृतिक गैस के केजी-डी 6 ब्लॉक पर रिलायंस के साथ समझौते के विभिन्न प्रावधानों का कंपनी के हितों के पक्ष में उल्लंघन किया है। इतना ही नहीं रिलायंस के हितों के लिए तमाम आलोचनाओं और सरकारी खजाने की कीमत पर यूपीए सरकार मुकेश अंबानी के लिए सबकुछ करने को तैयार है। वह गैस के दाम बढ़ाने पर आमदा है। रिलायंस के गैस के मामले को संसद और उसके बाहर लंबे समय तक उठाने वाले भाकपा के सांसद गुरदास दासगुप्ता ने एक साक्षात्कार में कहा कि कंपनी (रिलायंस) ने कई तरीकों से अनुबंध का उल्लंघन किया है। उसने कीमतें बढ़ाने के लिए सरकार को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर कम गैस का उत्पादन किया। उत्पादन एक बहुत ही छोटे से दायरे तक सीमित है। कंपनी को जो गैस के फील्ड दिए गए हैं उसका बड़ा हिस्सा अभी भी ऐसे ही पड़ा है। ऐसे बहुत सारे कारण हैं जिनके आधार पर अनुबंध को खत्म किया जा सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने प्राकृतिक गैस के दाम के मामले में पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा, वर्तमान पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली, हाइड्रोकार्बन्स के पूर्व महानिदेशक वी.के. सिब्बल और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के अध्यक्ष मुकेश अंबानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई।

रिलायंस के प्रति कांग्रेस ही नहीं भाजपा का भी बहुत ज्यादा प्रेम है। यह कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के टेपों से सबके सामने आ चुका है। इस मामले में विशेषतौर पर दिलचस्प थी नीरा राडिया और एन के सिंह के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत। एन.के. सिंह जनता दल (यू) के राज्यसभा सदस्य और पूर्व आईएएस अधिकारी हैं। वह भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में पीएमओ में भी तैनात थे। इस बातचीत (रिकॉर्डेड) में एन.के. सिंह नीरा राडिया को बता रहे थे "कि वह मुकेश अंबानी के पक्ष में कैसे आग से खेले ताकि वे संसद में 2009 के आम बजट पर भाजपा की ओर से बहस की शुरुआत करने के लिए अरुण शौरी को रोक सकें। उनका तर्क था कि शौरी ने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा बजट में घोषित टैक्स छूट के पूर्वप्रभावी कार्यान्वयन का विरोध किया था। उस टैक्स में छूट की एकमात्र लाभार्थी मुकेश अंबानी की कंपनी थी। प्रस्तावित छूट थी कि पहले साल में प्राकृतिक गैस या कच्चे तेल के पाइपलाइन नेटवर्क के बिछाने और कार्यान्वित करने वाले को सौ प्रतिशत छूट दी जाएगी। और इन मापदंडों के आधार पर इस विशाल, अपूर्व और अनोखे टैक्स लाभ का एकमात्र चहेता लाभार्थी था रिलायंस गैस ट्रांसपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (आरजीटीआईएल)। एन के सिंह नीरा राडिया के साथ बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि अगर शौरी ने बहस शुरू की होती तो उसके कारण मुकेश अंबानी के लिए इस छूट के मामले में समस्याएं खड़ी हो जातीं और वह कोशिश कर रहे थे कि शौरी को मुख्य वक्ता से बदलें। इसके बाद भाजपा में हुई घटनाएं उस परिवर्तन की साक्षी रहीं जो एन. के. सिंह अंबानी के पक्ष में करना चाहते थे। पूर्व भाजपा अध्यक्ष एम. वेंकैया नायडू ने शौरी के स्थान पर मुख्य वक्ता के रूप में बहस की शुरुआत की। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है उन्होंने उस छूट के पक्ष में बहुत ही मजबूती से दलील दी। बाद में शौरी ने खुलेआम कहा था कि यह कॉरपोरेट हितों के लिए की गई लॉबिंग का परिणाम था। राडिया टेपों की अन्य रिकॉर्डिंग में मुकेश अंबानी ने कांग्रेस के बारे में कहा था कि कांग्रेस तो अपनी दुकान ने है। लेकिन राज्यसभा की बहस की घटना यह दिखाया कि भाजपा भी उनके लिए दुकान से कम नहीं थी।'' (फ्रंटलाइन 21 मार्च 2014, रिलायंस फैक्टर)।

यह तो मुकेश अंबानी के लिए कांग्रेस और भाजपा के प्रेम के चंद उदाहरण हैं। रिलायंस के साथ सरकारों के प्रेम की एक लंबी गाथा है, जो विशेष तौर से बीते तीन दशकों में काफी परवान चढ़ी है। इसका एक उदाहरण रिलायंस की गुजरात में जामनगर रिफाइनरी का है। 1999 में इसे तीन हजार हेक्टेयर में बनाया गया था। सन् 2006 में कंपनी इसके विस्तार के लिए चार हजार हेक्टेयर जमीन और चाहती थी। इसके लिए उसने मोदी सरकार की मदद मांगी। कंपनी की योजना यहां स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड) बनाने की थी। यह जमीन रिफाइनरी के निकट के पांच गांवों की थी। किसान इस अधिग्रहण के खिलाफ थे। कंपनी खेती वाली जमीन अधिग्रहीत करना चाह रही थी। लेकिन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कंपनी के पक्ष में चंद महीनों में ही मामले को सुलटा लिया। उन्होंने किसानों के सामने इतना ही विकल्प छोड़ा कि वे मुआवजा ले लें और जो कुछ भी थोड़े लाभ दिए जा रहे हैं उन्हें चुपचाप ले लें। कंपनी कुछ किसानों की तोडऩे में कामयाब हो गई। जिसके चलते किसानों को कानूनी लड़ाई में कामयाबी नहीं मिली। उनका आंदोलन भी गति नहीं पकड़ सका। राज्य में विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी इस लड़ाई को नहीं लड़ा। यहां यह गौर करने वाली बात है कि भारत के एसईजेड एक्ट 2005 के तहत इस जोन में कंपनियों को सीमा शुल्कों और बिक्री तथा आयकर पर बड़े पैमाने पर छूट दी जाती है।

कॉरपोरेट के लिए मोदी क्या मायने रखते हैं इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। मोदी ने अपने चहेते उद्योगपति अडाणी को कच्छ में 14306 एकड़ जमीन दी। यह जमीन एक रुपए प्रति वर्ग मीटर से लेकर 32 रुपए प्रति वर्ग मीटर की कीमत पर दी गई। इसमें से अधिकतर जमीन मुंद्रा गांव में दी गई। जहां औद्योगिक इस्तेमाल के लिए जमीन का बाजार मूल्य दो सौ रुपए से 315 रुपए प्रति वर्ग मीटर था और वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए एक हजार रुपए से 1575 रुपए प्रति वर्ग मीटर था। मोदी सरकार ने गुजरात के कई हिस्सों में अडाणी को कौडिय़ों के भाव जमीन दी है। मोदी देशभक्ति और जवानों की वीरता तथा उनके साहस की गाथाओं पर अपनी रैलियों में काफी कुछ कह रहे हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति क्या है इसका उदाहरण आम आदमी पार्टी ने दिया है। आम आदमी पार्टी का कहना है कि भारतीय वायु सेना ने मोदी से जमीन मांगी थी। इसके लिए भारतीय वायु सेना से बाजार मूल्य से आठ गुना ज्यादा पैसा मांगा गया था। वायु सेना को सौ एकड़ जमीन 8800 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से प्रस्तावित की गई थी। बाद में प्रधानमंत्री के खुद हस्तक्षेप करने पर कीमत कम की गई।

मोदी के कॉरपोरेट प्रेम का एक और उदाहरण सामने है। आम आदमी पार्टी ने इसकी जो कहानी बताई है वह कुछ इस प्रकार है, जो उसने पूरे दस्तावेजों और ठोस तथ्यों के साथ सामने रखी है। गुजरात सरकार की तेल और गैस की खोज करने वाली कंपनी का नाम है गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (जीएसपीसी)। जीएसपीसी ने अगस्त 2002 में केजी बेसिन में गैस ब्लॉक हासिल किए। सरकार के खुद के आकलनों के अनुसार जीएसपीसी को गैस के जो फील्ड आवंटित किए गए वे 20 अरब डालर के थे। मोदी सरकार ने जियो ग्लोबल और जुबिलंट एनप्रो लिमिटेड के साथ उत्पादन साझीदारी समझौता किया। मोदी ने इन दोनों कंपनियों को दस-दस प्रतिशत पार्टिसिपेटिंग इंट्रेस्ट (दस-दस हजार करोड़ रुपए) दिया। इसके बदले जियो ग्लोबल को कथित तौर पर तकनीकी सहायता उपलब्ध करानी थी। सवाल यह है कि इसके लिए इन्हीं दो कंपनियों को क्यों चुना गया। रिकॉर्डों के अनुसार यह किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धी बोली के जरिए नहीं हुआ। अरविंद केजरीवाल का कहना है कि इन दोनों कंपनियों को इन गैस फील्डों में पार्टिसिपेटिंग इंट्रेस्ट बिना किसी कीमत के दे दिया गया। मजेदार बात यह है कि जियो ग्लोबल कंपनी जीएसपीसी के साथ अपने इस समझौते से छह दिन पहले ही स्थापित की गई थी। समझौते के दिन इसकी कुल पूंजी 64 डालर (3200 रुपए) मात्र थी। इस कंपनी का स्वामित्व किसी जां पॉल रॉय के पास है। तो 3200 रुपए वाली यह कंपनी छह दिन में 10,000 करोड़ रुपए की पूंजी वाली कंपनी बन गई। मोदी सरकार ने जियो ग्लोबल के साथ समझौते का यह कहकर बचाव किया कि जियो ग्लोबल तकनीकी विशेषज्ञता मुहैया करा रही है। जब खुद जियो ग्लोबल ने यूएस में सिक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन के सामने यह स्वीकार किया कि उसके पास जरूरी विशेषज्ञता नहीं है। कैग ने जियो ग्लोबल की तकनीकी योग्यता पर गंभीर संदेह व्यक्त किया था। जब कैग ने ऑडिट शुरू किया तो मोदी सरकार ने जियो ग्लोबल के साथ अनुबंध रद्द करने के लिए 18 अगस्त 2010 को केंद्र की यूपीए सरकार को पत्र लिखा। मजेदार बात यह है कि इसके बाद मोदी सरकार द्वारा लिखे गए पत्रों के बाद यूपीए सरकार ने जियो ग्लोबल के साथ करार रद्द करने की इजाजत नहीं दी। इसमें दिलचस्प बात यह है कि जां पॉल रॉय को न केवल मोदी के गुजरात में लाभ मिला बल्कि केंद्र में यूपीए सरकार की ओर से भी उसे अवैध लाभ प्राप्त हुए। केजरीवाल जुबिलियंट एनप्रो के बारे में कहते हैं कि इसके मालिक श्याम सुंदर भरतिया हैं। श्याम सुंदर भरतिया शोभना भरतिया के पति हैं। शोभना भरतिया को कांग्रेस ने राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया है और वह कांग्रेस और गांधी परिवार की काफी करीबी हैं। केजरीवाल सवाल करते हुए कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक है कि मोदी उस व्यक्ति को अवैध लाभ देते हैं जो कि कांग्रेस का करीबी है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कांग्रेस बीते कई वर्षों से मोदी के घोटालों पर खामोश है।

कांग्रेस की इस खामोशी की वजह कॉरपोरेट घराने रहे हैं। जिसका साफ मतलब निकलता है कि कॉरपोरेट घराने नहीं चाहते थे और नहीं चाहते हैं कि कांग्रेस गुजरात में मोदी को परेशान करे। यह शीशे की तरह की साफ है कि कांग्रेस ने शब्दाडंबरों के अलावा गुजरात में कोई ठोस और सतत् आंदोलन मोदी के खिलाफ नहीं चलाया। जबकि गुजरात में विशेष निवेश क्षेत्रों (एसआईआर) के लिए बड़े पैमाने पर किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहीत की जा रही है। किसान आंदोलनरत हैं लेकिन उनको समर्थन करने वाली वहां कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। फिर भी कई स्थानों पर किसान लड़ाई लड़ रहे हैं। कईं स्थानों पर जमीन अधिग्रहण की अधिसूचना के खिलाफ किसानों के आंदोलनों के बाद सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। लेकिन राष्ट्रीय मीडिया इसे हमेशा अनदेखा करता रहा है। मीडिया के एक छोटे से हिस्से में मोदी के विकास की वास्तविकता की कुछ खबरें जरूर आती हैं। मोदी के तथाकथित विकास की पोल कांग्रेस ने कभी नहीं खोली। जबकि एनएसएसओ, अन्य विकास संबंधी रिपोर्टों और आर्थिक सर्वे और 2011 की जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो चुका है कि गुजरात का साक्षरता, रोजगार, शिक्षा, लिंग अनुपात, असमानता, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा के तहत मिलने वाले न्यूनतम वेतन, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, वेतन, ग्रामीण योजना, स्वास्थ्य, आहार सहित अन्य मानव सूचकांकों में प्रदर्शन बहुत बेहतरीन नहीं है। बहुत से मामलों में तो गुजरात अन्य राज्यों से काफी पीछे है। महिलाओं के स्वास्थ्य के मामले में सर्वे के अनुसार 15 से 49 आयु वर्ग की 55.5 प्रतिशत महिलाएं रक्ताल्पता पीडि़त (अनीमिक) हैं। इसी आयु वर्ग की 60.8 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं कुपोषित और अनीमिक हैं। एनएसएसओ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में बाल श्रमिकों (पांच से 14 वर्ष आयु के) की संख्या घटने के बजाय बढ़ी है। निवेश और खासकर विदेशी निवेश के मामले में भी मोदी का प्रचार वास्तविकता कम झूठ का पुलिंदा ज्यादा है। वरिष्ठ पत्रकार किंगशुक नाग ने अपनी किताब नमो स्टोरी : अ पॉलिटिकल लाइफ में लिखा है, "मोदी और उनके आर्थिक कौशल के चारों ओर फैले हुए मिथक का आधार आधा सच और आधा केवल अतिश्योक्ति है। उदाहरण के लिए मोदी के बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए वाइब्रेंट (गतिशील) गुजरात प्रदर्शन पर यह प्रभाव डालते हैं कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने में गुजरात अन्य राज्यों से आगे है। किंतु सत्य यह है कि पिछले बारह वर्षों में भारत में गुजरात केवल पांच प्रतिशत ही विदेशी निवेश ला पाया है। महाराष्ट्र और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली उससे बहुत आगे हैं।''यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात आर्थिक रूप से मोदी के आने के पहले से ही समृद्ध था। मोदी के आने से वहां कोई चमत्कार नहीं हुआ है। हां, इतना जरूर हुआ है कि मोदी ने कॉरपोरेट घरानों के लिए हर तरह का रास्ता खोला है और जनता वहां अपनी जायज मांगों के लिए भी आवाज नहीं उठा सकती है। इसका ताजा उदाहरण है लार्सन एंड टूब्रो की सूरत में हजीरा फैक्ट्री का मामला। इस फैक्ट्री के 980 स्थायी कर्मचारी 16 दिसंबर से हड़ताल पर हैं। इन कर्मचारियों की मांग है कि उन्हें भी महाराष्ट्र में पवई में काम कर रहे कंपनी के कर्मचारियों के समान वेतन मिले। गुजरात की मोदी सरकार ने कर्मचारियों की इस हड़ताल को गैर कानूनी घोषित कर दिया। हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट ने कंपनी का 'तुष्टीकरण'करने के लिए राज्य सरकार को फटकार लगाई।

गुजरात के इस पूरे परिदृश्य के मद्देनजर यह सवाल लगातार उठता रहा है कि आखिर वहां कांग्रेस इतनी निष्क्रिय क्यों है। जबकि राजनीतिक ताकत के बतौर वह उतनी हाशिए पर नहीं जितनी दिखाई देती है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को गुजरात में 26 सीटों में से 11 सीटें मिली थी और उसका वोट प्रतिशत 43.38 था। वहीं 2002 के बाद से 2007 और 2012 में विधानसभा चुनाव में उसकी सीटें कम होने के बजाय बढ़ी हैं। क्या इसका जवाब गुजरात में कॉरपोरेट घरानों के हितों की डील में तो नहीं छिपा है कि गुजरात में दखल मत दो। वैसे भी नई आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में कोई अंतर नहीं है। कॉरपोरेट घराने कांग्रेस से भी लाभ बटोरते रहे हैं और मोदी ने भी उनके हितों की पूरी तरह से रक्षा की है। कांग्रेस ने कॉरपोरेट हितों के लिए मोदी के गुजरात में अपने को निष्क्रिय कर दिया और जिसका खामियाजा उसे इस बार के लोकसभा चुनाव में उठाना पड़ रहा है। अब कॉरपोरेट घराने पूरी तरह से मोदी के पीछे हैं। उन्हें लग गया है कि अब कांग्रेस नहीं मोदी ही उनके हितों की खूब अच्छी तरह से रक्षा कर सकते हैं। कांग्रेस से फिलहाल वे जितना हासिल कर सकते थे कर चुके हैं। अब उन्हें नई आर्थिक नीतियों के तीसरे चरण का 'राष्ट्रीय नायक'चाहिए जो उन्हें मोदी के रूप में दिखाई दे रहा है। मोदी का यह उभार पूरे विपक्ष और खासकर कांग्रेस की असफलता का परिचायक है। यह कांग्रेस की ही देन है कि कॉरपोरेट घराने इस देश में राजनीति से बड़े ही नहीं हो गए बल्कि पूरी राजनीति को नियंत्रित भी करने लगे हैं। उनके लिए अपने हित पहले हैं चाहे उन्हें कोई फासीवादी पूरा करे या कोई अन्य। जिसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। भाजपा के प्रचार पर जिस तरह से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है वह साफ बतलाता है कि कॉरपोरेट घरानों ने मोदी के लिए पूरी तिजोरी खोल दी है। यह अतिश्योक्ति नहीं है कि आजाद भारत में अपने प्रचार पर इतने बड़े पैमाने पर पैसा नहीं बहाया गया है। भाजपा का 2004 का इंडिया शाइनिंग अभियान भी 150 करोड़ रुपए का था,लेकिन इस बार का मोदी अभियान अरबों रुपए का है। जिसे अभी तक करीब पांच सौ करोड़ रुपए का बताया जा रहा है। इंटरनेशनल कम्युनिकेशन कंसल्टेंसी एपको वल्र्डवाइड 2007 से ही मोदी की छवि चमकाने के काम में लगी है। अब मोदी ने सोहो स्क्वेयर और विज्ञापन एजेंसी ओ एंड एम की सेवाएं भी ली हैं। गुजरात में कांग्रेस और कॉरपोरेट 'डील'ने कांग्रेस को लाभ देने के बजाय उसकी जमीन हिला दी है।

कल्‍याणकारी राज्य की चुनौतियां

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कल्‍याणकारी राज्य की चुनौतियां

साभार समयांतर

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जितनी भी सरकारें पिछले 30 सालों में आईं हैं उनकी राजनीति यही है। इसमें विश्व बैंक का जबरदस्त दबाव है। विश्व बैंक का दबाव है कि आपकी नीति होनी चाहिए 'ग्रोथ इन एनी कॉस्ट'। मतलब आपकी विकास की दर बढऩी चाहिए फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो। और यह कीमत पड़ती है कामगारों और पर्यावरण पर।

सन् 1947 में जब हमें आजादी मिली थी उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरुप क्या था और आगे चलकर इसका क्या स्वरूप हुआ, वह समझना होगा। सन् 47 तक हमारी अर्थव्यवस्था में आम आदमी कहीं भी नहीं आता था। वह ब्रिटिश सेना का एक हिस्सा बनकर रह गया था। आजादी के बाद जो हमारा नया नेतृत्व आया उसकी समझ थी कि समाज की जो भी समस्याएं हैं वे व्यक्तिगत (इंडिविजुअल) नहीं हैं, वे सामूहिक (कलेक्टिव) हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने हमारे यहां जितनी तादाद में स्कूल, कॉलेज, औषधालय, अस्पताल बनवाए उतनी तादाद में अपने देश में नहीं बनवाए। मैंने अपनी किताब में दिखाया है कि हमारा जो ढांचा था और ब्रिटेन में सन् 1950 में जो ढांचा था आप देखेंगे कि सन् 50 में वह पूरी तरह से सामान्य नहीं हो पाया था क्योंकि विश्वयुद्ध के दौरान वहां काफी तादाद में सड़कें, रेलवे और पुल तहस-नहस हो गए थे। फिर भी उस समय उनका जो ढांचा था; चाहे आप शिक्षा, ऊर्जा या परिवहन को ले लें और जो भारत का ढांचा था उसमें जबरदस्त अंतर था। उनका सन् 1950 में जो ढांचा था हम पचास साल बाद भी उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए हैं। यह एक तरह का अर्द्धविकास (अंडर डेवेलपमेंट) दिखाता है।

हमारे यहां शिक्षा का जबरदस्त अभाव था। सन् 1911 की जनगणना के मुताबिक यहां सिर्फ 11 प्रतिशत लोग शिक्षित थे और उसमें भी महज आधा प्रतिशत लोग थे जिनके पास किसी तरह की विज्ञान या टेक्नोलॉजी की जानकारी थी। सन् 1950 में भी सिर्फ 16 प्रतिशत लोग शिक्षित थे। हालात खराब थे। स्वास्थ्य के क्षेत्र में देखें तो मृत्युदर भी और जन्मदर भी बहुत ज्यादा थी। लेकिन मृत्युदर इतनी ज्यादा थी कि 1930 के दशक में जनसंख्या इतनी घट गई कि मृत्युदर जन्मदर से ज्यादा हो गई थी। चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी या रोजगार सृजन हो, इन सभी में हम बहुत पिछड़े हुए थे।

राज्य की भूमिका का महत्त्व

उस समय राष्ट्रीय आंदोलन की यह धारणा थी कि हमें सामूहिक रूप से इस समस्या का समाधान करना होगा, क्योंकि वैयक्तिक रूप से इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इसलिए राज्य को बहुत बड़ी भूमिका दी गई कि वह इन समस्याओं को समझे और हल निकाले। 1947 में हम इस रास्ते पर चले। लेकिन उस समय जो हमारा शासक वर्ग था उसकी समझ क्या थी ? वह यह कि पश्चिमी आधुनिकता की एक बस जा रही है और हमें किसी तरीके से उसमें कूद पडऩा है। उस समय दो रास्ते दिखाई दिए। एक वह आधुनिकता जो पश्चिम में थी यानी बाजार अर्थव्यवस्था (मार्केट इकोनॉमी)। दूसरा सोवियत संघ का मॉडल था जिसने सन् 1918 के बाद बहुत तरक्की की थी। बड़ी तेजी से उत्पादन बढ़ाया था। हमारे नेतृत्व को दोनों रास्ते दिख रहे थे और उसने इन दोनों को जोड़कर कर मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना। हमारा विकास का मार्ग एक उधार लिया हुआ विकास का मार्ग था। इन दोनों के साथ दिक्कत यह थी कि जब ऊपर विकास होगा तब वह रिसकर नीचे भी जाएगा। इसके चलते ही गांधी जी ने कहा था कि हम लोग नीचे से ऊपर उठें और जो गांव आधारित गणतंत्र (विलेज रिपब्लिक) है उससे शुरुआत करें। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने विकास का वह रास्ता नहीं चुना। इसकी वजह से आप देखेंगे कि अर्थव्यवस्था में बराबर एक संकट चलता रहा। चाहे 1967 में नक्सलवादी आंदोलन हो,1975 का आपातकाल हो या फिर 1980 के दशक का संकट हो। एक के बाद एक संकट आते चले गए। मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलते हुए विकास की दर तो जरूर बढ़ी लेकिन संकट भी चलता रहा। गरीबी बहुत हद तक बनी रही। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में तरक्की हुई, लेकिन उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए थी। कुल मिलाकर एक जबरदस्त संकट हमारी अर्थव्यवस्था में बना रहा।

नब्बे के दशक तक हमारे संकट कुछ ज्यादा ही बढ़ गए, क्योंकि हमने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की नीतियां सन् 1980 से अपनानी शुरू कर दी थीं। इन नीतियों के पीछे सोच बिल्कुल उल्टी थी। 1990 से जो हमने नीतियां अपनाई उनमें सोच थी कि जितनी भी समस्याएं हैं वे व्यक्ति की वजह से हैं। व्यक्ति खुद अपनी समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। अगर वह शिक्षित नहीं है, वह स्कूल नहीं गया, कॉलेज नहीं गया तो उसको स्कूल जाकर या कॉलेज जाकर खुद को पढ़ाना है। अगर स्वास्थ्य की समस्या है तो वह उसकी अपनी समस्या है, समाज का दायित्व नहीं है। इसलिए यहां यह माना जाता है कि बाजार सब चीजों का, सब समस्याओं का हल देगा। अगर शिक्षा चाहिए तो बाजार में जाइए। स्वास्थ्य चाहिए तो बाजार जाइए। अगर रोजगार सृजन करना है तो बाजार जाइए। मार्केट से आपको काम मिलेगा और वहीं से तनख्वाह मिलेगी। सन् 1990 के बाद यह हुआ कि अब व्यक्ति को खुद समझना पड़ेगा कि उसे समाज में कैसे रहना है। यह राज्य की जिम्मेदारी नहीं है। राज्य पीछे चला गया और बाजार आगे चलने लगा।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की घुसपैठ

हमारी अर्थव्यवस्था में एक बड़ी तब्दीली हुई। वैसे तब्दीलियां तो चलती रहती थीं। जैसे 1975 में जब आपातकाल लागू हुआ तभी से हमारी नीतियां दक्षिणपंथ की ओर झुकने लगी थीं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक) से बहुत सारे लोग आए। धीरे-धीरे नौकरशाही उनके कब्जे में जाने लगी और एक रिवोल्विंग डोर (घूमता द्वार) नीति हो गई। हमारे नीतिकार विश्व बैंक, आईएमएफ और अन्य वित्तीय संस्थाओं में जाते थे और वहां से लोग यहां आते थे। विचारों में आदान-प्रदान इतना ज्यादा हो गया कि जो नीतियां वे सुझाते थे वही हमारे नीति निर्माता यहां आकर समझाते थे। हमारी जो एक आंतरिक विकास के मार्ग की बात थी विकास का वह स्वतंत्र मार्ग 1970 के दशक के मध्य से ढहने लगा। नीतियों का स्वतंत्र स्पेस था, धीरे-धीरे खत्म होता चला गया, खासकर सन् 1990 के बाद से। आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) आदि बड़े पैमाने पर हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होते चले गए। पहले डब्ल्यूटीओ नहीं था, पहले गैट (जनरल एग्रीमेंट ऑन टेरिफ्स एंड ट्रेड) था। सन् 1994 के बाद वह डब्ल्यूटीओ बन गया और डब्ल्यूटीओ में कई नए प्रावधान आ गए। चाहे वह ट्रिप्स (एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड एस्पेक्ट्स ऑफ इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) हो या अन्य।

लेकिन सबसे बड़ा था डिस्प्यूट सेटलमेंट मैकेनिज्म (विवाद निपटारा तंत्र) और क्रॉस रिटैलीएशन। मतलब अगर आपको किसी को कहना है कि यह बाजार खोलना है और उसने वह नहीं किया तो उससे आप कह सकते थे कि इसके कारण किसी दूसरे बाजार में हम आपको नुकसान (क्रॉस रिटैलीएशन) पहुंचाएंगे। गैट में यह नहीं था। इसके चलते हमारी नीतियों पर दबाव तेजी से और बहुत ज्यादा बढ़ता चला गया।

अगर आप देखें तो इधर पिछले ढाई साल में अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है। करीब 11 प्रतिशत की विकास दर अब गिरकर साढ़े चार प्रतिशत पर आ गई है। सरकार इस दिशा में क्या कर रही है? मुद्रास्फीति तेज है। वित्तीय घाटा नियंत्रण में नहीं आ रहा है। चालू खाता घाटा तेज है। रुपए का अवमूल्यन हुआ है। यह बड़े पैमाने पर हुआ है, करीब 20 प्रतिशत मुद्रा (करेंसी) गिर गई है। इन सभी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है? समाधान इसलिए नहीं निकल पा रहा है क्योंकि हम बाहरी क्षेत्र की तरफ ध्यान दे रहे हैं न कि अपने अंदरूनी क्षेत्र की तरफ। वहां पर कौन निर्णय कर रहे हैं? क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां (ये अमेरिकी नीतियों पर आधारित हैं) दबाव डाल रही हैं। कहते हैं कि जब राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) कंट्रोल कर लेंगे तो बाकी समस्याएं हल हो जाएंगी। लेकिन यह उल्टी बात है। जितना आप राजकोषीय घाटा कम करते हैं उतना ही विकास की दर कम हो जाती है। आज नीतियों का स्पेस हमारे हाथ से धीरे-धीरे खिसक गया है। इसलिए हमारे आम नागरिक को जो चाहिए उसे वह नहीं मिलता है। दस सालों में हुआ भी यही है। जैसे कि मनरेगा जैसी योजना बनी, खाद्य सुरक्षा का अधिकार कानून बना, शिक्षा का अधिकार कानून बना, यह सब किस वजह से हुआ, क्योंकि विषमताएं तेजी से बढ़ती चली गई हैं। इसके चलते विद्रोह न हो इसलिए मनरेगा रखना पड़ेगा, क्योंकि रोजगार सृजन नहीं हो रहा है।

बढ़ती बेरोगारी और निवेश का संबंध

आज हमारा 80 प्रतिशत निवेश कॉरपोरेट सेक्टर में जा रहा है। जहां पर महज सात प्रतिशत लोग काम करते हैं। सात प्रतिशत लोगों के लिए 80 प्रतिशत निवेश जा रहा है। कृषि जैसा क्षेत्र जहां पर अभी भी 50 प्रतिशत लोग काम करते हैं उसके लिए महज चार प्रतिशत निवेश हो रहा है। सात प्रतिशत के लिए 80 प्रतिशत और 50 प्रतिशत लोगों के लिए चार प्रतिशत निवेश है। बाकी असंगठित क्षेत्र हैं जहां महज 16 प्रतिशत निवेश हो रहा है। जबकि वहां पर रोजगार अभी भी 40-45 प्रतिशत के करीब है। इसलिए असमानता बेतहाशा बढ़ी है। आप आंकड़े देखें तो हमारे कॉरपोरेट सेक्टर पर महज दशमलव एक प्रतिशत लोगों का नियंत्रण है। हमारे बाजार में 90 प्रतिशत स्टॉक होल्डिंग कॉरपोरेट सेक्टर के हाथ में है। इस दशमलव एक प्रतिशत की आय 1999 या 2000 में हमारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का साढ़े छह प्रतिशत थी। सात साल के दौरान वह बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई। यानी सात साल में तीन गुना बढ़ गई। कृषि की आमदनी जीडीपी के 21 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत हो गई। यानी इस दौरान जो दशमलव एक प्रतिशत लोग हैं वे कृषि में निर्भर 50 प्रतिशत लोगों से ज्यादा कमाने लगे। इस असमानता के चलते संकट बेतहाशा बढ़ा।

दूसरी बात, कॉरपोरेट सेक्टर में जहां आज हमारा 80 प्रतिशत निवेश जा रहा है, वह रोजगार सृजन नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए, टाटा स्टील सन् 1990 में 20 लाख टन स्टील का उत्पादन करता था और वहां 80 हजार लोग काम करते थे। सन् 2010 में एक करोड़ टन स्टील का उत्पादन करने लगा है पर वहां महज 30 हजार लोगों को नौकरी मुहैया है। यानी उत्पादन पांच गुना बढ़ गया और रोजगार रह गया एक तिहाई। सारे कॉरपोरेट सेक्टर में सब जगह यही हुआ है। इसलिए लोगों ने कहा कि रोजगार रहित विकास (जॉबलेस ग्रोथ ) हो रहा है। इस जॉबलेस ग्रोथ के चलते ही बेरोजगारी का संकट है।

हमारे यहां कामगारों को कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। यहां कोई यह नहीं कह सकता कि मैं काम नहीं करूंगा जब तक कि मुझे मेरे जैसा काम नहीं मिलेगा। इसलिए देश में जो बेरोजगारी है वह कभी दो-ढाई प्रतिशत से ज्यादा नहीं होती, लेकिन अंडर एम्प्लॉयमेंट (अर्द्ध रोजगार)बहुत बढ़ जाता है। रिक्शा वाला बाजार में 14 घंटे खड़ा रहता है लेकिन उसे 2-3 घंटे का काम मिलता है। जो ठेले वाला बाजार में 12 घंटे खड़ा होगा उसको तीन-चार घंटे काम मिलेगा। जो सिर पर बोझा उठाता है उसको भी तीन-चार घंटे का काम मिलेगा। इसमें बेरोजगारी के आंकड़े ज्यादा नहीं बढ़ते हैं, लेकिन अंडर एम्प्लॉयमेंट बढ़ जाता है और इसके चलते गरीबी बनी रहेगी।

कुल मिलाकर जो विषमताएं बढ़ रही हैं वे इसलिए बढ़ रही हैं कि हमारे नीति निर्माताओं के पास पॉलिसी स्पेस नहीं बचा है। वे बाहर से निर्देशित हैं। हमारा व्यापार किस तरह का हो यह विश्व व्यापार संगठन से निर्धारित करता है। हमारी विदेश व्यापार नीति अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से निर्देशित होती है। हमारी मुद्रा नीति अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निर्देशित होती। हमारी अर्थव्यवस्था का ढांचा विश्व बैंक से निर्देशित होगा। उसमें बदले की शर्त (क्रॉस कंडीशनलिटी) निहित होती है। अगर आपको कोयले के लिए ऋण लेना है तो सिर्फ कोयला सेक्टर में ही शर्तें नहीं लगेंगी।

हम लोगों ने 2007 में एक वल्र्ड बैंक इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्रिब्यूनल (स्वतंत्र विश्व बैंक जन ट्रिब्यूनल) खड़ा किया था। इसके लिए मैंने अध्ययन किया था। मैंने देखा कि जब हमने ऊर्जा सेक्टर के लिए ढांचागत समायोजन ऋण लिया तो क्रॉस कंडीशनलिटी थी कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कैसे काम करेगा। उसमें क्रॉस कंडीशनलिटी थी कि वैल्यू एडेड टैक्स को लागू करना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था में क्रॉस कंडीशनलिटी के चलते सारा का सारा पॉलिसी स्पेस खत्म हो जाता है। वैल्यू एडेड टैक्स (वीएटी) हमारे देश के लिए बहुत ज्यादा उपयोगी नहीं है। लेकिन बाहर से दबाव आ रहा है तो वैट को लागू करना है। वैट के बाद अब गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) लागू करना है। डायरेक्ट टैक्स रिफॉर्म करने हैं। ये क्रॉस कंडीशनलिटी के तहत आते हैं। कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि अंदरुनी समस्याओं की तरफ हमारे नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं है। 1991 में कांग्रेस की सरकार आई। उसके बाद यूनाइटेड फ्रंट की सरकार आई, जिसमें लेफ्ट था। उसके बाद बीजेपी की मिली-जुली सरकार आई और उन्होंने स्वदेशी की बात की। लेकिन वे और भी ज्यादा विदेशी हो गए, क्योंकि उन्होंने बहुराष्ट्रीय पूंजी को आमंत्रित किया। मॉरीशस रूट खोल दिया। उन्होंने तरह-तरह से यह किया। उसके बाद यूपीए सरकार आई, 'हमारा हाथ आम आदमी के साथ', लेकिन वह भी उसी दिशा में चलती रही। जितनी भी सरकारें पिछले 30 सालों में आई हैं उनकी राजनीति यही है। इसमें विश्व बैंक का जबरदस्त दबाव है। विश्व बैंक का दबाव है कि आपकी नीति होनी चाहिए 'ग्रोथ इन एनी कॉस्ट'। मतलब आपकी विकास की दर बढऩी चाहिए फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो। और यह कीमत पड़ती है कामगारों और पर्यावरण पर। यही नीति चीन ने पिछले 20 सालों में अपनाई है। इससे आप देखिए कि उनका पर्यावरण कितना प्रदूषित हो गया है। जब वहां चार-पांच साल पहले ओलंपिक खेल हुए थे तो उनको आधी कारें सड़कों से हटानी पड़ी थीं। इतना प्रदूषण होता था कि खिलाड़ी प्रतियोगिता में भाग लेने की स्थिति में नहीं रह सकते थे। 'ग्रोथ विद एनी कॉस्ट'वाले दर्शन के चलते हमारा संकट और भी गहरा होता चला गया है। सवाल उठता है कि आज हमारी यह जो समस्या है वह विश्व के संदर्भ में किस तरह की समस्या है।

नवउदारवाद का उदय

सन् 1920 में दुनिया में बहुत ज्यादा असमानता थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा आई। इसी के चलते असमानता कम हुई। लेकिन वह जो कींसियन नीतियां थीं इनका संकट सन् 60 के दशक में और 70 के दशक की शुरुआत में आया। फिर धीरे-धीरे मुद्रा नीतियां और नव क्लासिकीय नीतियां उभरने लगीं। खासकर जब 1978 में मार्गरेट थैचर और 1980 में रोनाल्ड रीगन आए। इन की नीतियों को थैचरिज्म और रीगनिज्म कहा जाता है। इन दोनों के आने के साथ सारी नीतियां पूंजीवाद समर्थक और मुक्त बाजार (फ्री मार्केट) की तरफ झुक गईं। इसके लागू होते ही यह धारणा बनी कि मुक्त बाजार की नीति सभी के लिए ठीक है। इस तरह बड़े पैमाने पर मुक्त बाजार नीतियां लागू होती हैं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कमजोर पड़ती चली गई है। इसके चलते समाज में असमानता तेजी से बढ़ी। सन् 2004-05 की जो रिपोर्ट अमेरिका में आई थी, जिसका क्रुगमैन बार-बार जिक्र करते हैं, उसमें दिखाया गया है कि सन् 2004-05 में अमेरिका में असमानता 1920 से ज्यादा थी। दुनिया में जो सौ सबसे बड़े संपत्तिधारी (टॉप हंड्रेड वेल्थ होल्डर्स) हैं उनकी संपत्ति सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी से ज्यादा है। यानी असमानता बेतहाशा बढ़ी है। एलन ग्रिनस्पैन ने, जो सोलह साल फैडरल रिजर्व (संयुक्त राज्य अमेरिका के रिजर्व बैंक) के प्रमुख थे और जिनको वित्तीय बाजार (फाइनेंशियल मार्केट) खुदा समझता था, जो कहते थे वही होता था, कहा कि मुक्त बाजार नीति सर्वोत्कृष्ट है। क्योंकि बाजार खुद ही चीजों को ठीक कर लेता है। यानी अगर बाजार में कोई गड़बड़ी होगी तो बाजार उसको ठीक कर लेगा। इसलिए राज्य को बाजार में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है।

इसके चलते धीरे-धीरे मुक्त बाजार की नीति स्थापित हो गई। स्टॉक मार्केट और बाकी वित्तीय बाजार (फाइनेंशियल मार्केट) में फैलाव होने लगा। इस स्थिति में 'पेपर वेल्थ' (कागजी संपत्ति) बढ़ती है। यानी अगर आपका स्टॉक आज दस रुपए है, कल सौ रुपए है और उसके बाद एक हजार रुपए है तो इससे पेपर वेल्थ बढ़ रही है। इससे फाइनेंशियल बबल (वित्तीय गुब्बारा) का जन्म हुआ है। मिंस्की ने 1977 में रेखांकित किया था कि इस 'फाइनेंशियल बबल'का इतना बड़ा होना खतरनाक है। यह पूंजीवाद को संकट में ले जाएगा। और अंतत: 1987 में स्टॉक मार्केट ढह गया। लोगों ने मिंस्की साहब से पूछा कि क्या यह वही बैठना 'क्रैश'है जिसके बारे में आप बता रहे थे? इस पर उनका उत्तर था, नहीं-नहीं यह तो कुछ भी नहीं है। जो क्रैश होगा वह बहुत बड़ा होगा। 1997 में फिर क्रैश हुआ, जो दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ। उस समय भी उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि नहीं यह भी कुछ नहीं है और भी बड़ा होगा। असल में वह (क्रैश) 2007-08 में आया, यानी जो फाइनेंसियल बबल है वह 700-800 ट्रिलियन डॉलर का हो गया था। जबकि अर्थव्यवस्था चौंसठ ट्रिलियन डॉलर की थी, तो फाइनेंशियल मार्केट इतना बड़ा हो गया कि वास्तविक अर्थव्यवस्था से दस गुना ज्यादा। अगर आपको 700-800 ट्रिलियन डॉलर पर दस प्रतिशत लाभ (रिटर्न) देना है तो आपको 70 ट्रिलियन डॉलर देना पड़ेगा। लेकिन दुनिया की अर्थव्यवस्था में 70 ट्रिलियन डॉलर का उत्पादन नहीं है, तो कहां से देंगे।

वित्तीय बाजार का संकट

यह मार्केट उस आधार पर चला जैसा सट्टा बाजार (बहुत लाभ की आशा से किया हुआ व्यापार संबंधी क्रियाकलाप) चलता है। वह बढ़ता जाता है और जिस दिन रुका तो ढह जाता है। जब 2007-08 में संकट आया और वित्तीय बाजार गिरने लगा तो एकदम से ढह गया। यह जो संकट है वह बुनियादी संकट है। वित्तीय बाजार विश्वास पर काम करता है और जब वह ढहता है तो विश्वास खत्म हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि पिछले चार-पांच साल से फेडरल रिजर्व एक ट्रिलियन डॉलर लिक्विडिटी (मुद्रा) मार्केट में डालता रहा है, लेकिन अमेरिका की अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन तेज नहीं हो पा रहा है। क्योंकि वित्तीय बाजार में जो व्यापारी (ऑपरेटर्स) हैं वे पैसा लेते हैं लेकिन उसको आगे बढ़ाते नहीं हैं। जबकि उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए, जैसा सन् 2007-08 से पहले होता था। पिछले पांच-छह साल में इतनी लिक्विडिटी डाली गई है कि अगर वह 2007-08 से पहले की डाली गई होती तो आज विकराल स्फीति (हाइपर इनफ्लेशन) नहीं होती। दाम हजार, दो हजार प्रतिशत नहीं बढ़ते रहते। लेकिन वहां पर मंदी (डिफ्लेशन) का डर है। गिरने का डर है, न कि स्फीति का डर। और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए डिफ्लेशन बहुत भयानक होता है। जैसे जापान में डिफ्लेशन हुआ और जापान की अर्थव्यवस्था करीब-करीब पंद्रह साल बढ़ी ही नहीं। डिफ्लेशन का यह डर इसलिए था क्योंकि वित्तीय बाजार विश्वास पर काम करते हैं और जब ट्रस्ट खत्म हो जाता है तो उनकी समझ में नहीं आता कि आगे कैसे चलें। 2007-08 के बाद का यह जो संकट है उससे हम अभी उबर नहीं पाए हैं। आपने देखा कि योरोप (योरोजोन) में पिछले दो साल में दोबारा संकट आ गया। 2007-08 के संकट से उबरे तो 2010 में फिर हो गया। वह ग्रीस में आया। स्पेन में आया। इटली में आया और फ्रांस तक को प्रभावित कर रहा है। तो संकट की स्थिति से अभी दुनिया की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई है।

यह जो सारा मसला है इसके पीछे देखें तो एक वैश्विक स्तर पर हुआ रणनीतिक परिवर्तन है। परिवर्तन क्या है? अमेरिका और चीन में सन् 1972 में रणनीतिक गठजोड़ हुआ। 1972 में हेनरी किसिंजर भारत आए। आपको याद होगा कि 1971 में बंगाल की खाड़ी में जो सातवां बेड़ा आया था उससे संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के संबंधों में बहुत बड़ी दरार पैदा हो गई थी। किसिंजर सन् 72 में यहां इसलिए नहीं आए थे कि दोनों देशों के बीच संबंधों में पड़ी दरार को पाटा जाए बल्कि उन्हें तो माओ से मिलने चीन जाना था। वह अचानक दो दिन के लिए गायब हो गए और वहां (चीन) माओ से समझौता करके लौटे। फिर निक्सन वहां गए। उसके बाद अमेरिका और चीन में रणनीतिक गठजोड़ हुआ। उन्होंने यह कोशिश की कि कैसे सोवियत संघ को खत्म किया जाए। उसमें वे सफल हुए। क्योंकि सोवियत संघ का रक्षा बजट जीडीपी का 15 प्रतिशत पहुंच गया था जबकि अमेरिका या बाकी देशों का तीन और चार प्रतिशत ही था। सोवियत संघ के विघटन की दिशा में यह एक रणनीतिक गठजोड़ था। चीन में माओ की मृत्यु के बाद देंग श्याओ पिंग का नया शासन आता है। चीन का यह नया शासन 180 डिग्री घूम जाता है। देंग ने कहा था कि बिल्ली सफेद हो या काली उससे क्या फर्क पड़ता है उसे तो चूहे को पकडऩा है। तो चाहे हम साम्यवाद से आगे बढ़ें या पूंजीवाद से आगे बढ़ें, हमें तो अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि एक अंतर के साथ समाजवाद, लेकिन वास्तव में वह पूंजीवाद की तरह था। दुनिया में सन् 1975 के बाद से बड़ा बदलाव आया। चीन के पल्टी मारने और सोवियत संघ के टूटने से दुनिया के पटल पर विशेष कर जिसे तीसरी दुनिया कहते थे या जिसे आज विकासशील दुनिया कहा जाता है, वहां पर यह भ्रम पैदा हो गया कि समाजवाद काम नहीं करेगा। सोवियत संघ, जो राष्ट्रीय आंदोलनों को एक संरक्षण देता था, मदद करता था, वह खत्म हो गया।

इससे पश्चिम की हिम्मत बढ़ गई। 1982 में जब गैट समझौता वार्ता हो रही थी तो हमारे वार्ताकार एस.पी. शुक्ल बताते हैं कि अमेरिकी वार्ताकार ने कहा था, अब हम आपके कृषि बाजार पर कब्जा करेंगे। अब आपको कोई नहीं बचा सकता। हम आपके कृषि बाजार को खुलवाएंगे। अमेरिका और पश्चिमी ताकतों की हिम्मत इसलिए बढ़ गई क्योंकि उन्हें मालूम था कि अब विकासशील दुनिया के देशों की मदद करने वाला कोई नहीं बचा है। इसलिए 1986 में उरुग्वे राउंड की वार्ता में सारे नए मुद्दे आ जाते हैं। ये मुद्दे अब तक नहीं थे। वहां पर विश्व व्यापार संगठन को बनाने की बात हुई। गैट की बात हुई। जेड इन सर्विसेज की बात वहां पर हुई। जेड इन एग्रीकल्चर की बात वहां हुई। ट्रिप्स की बात वहां हुई। अब पश्चिम निश्चिंत था कि हम विकासशील देशों पर कब्जा कर सकते हैं। उनके बाजार को कब्जा सकते हैं। इसलिए देखा जा सकता है कि जैसे ही 1991 में सोवियत संघ का विघटन होता है तुरंत ही पश्चिमी दुनिया पूंजी के विस्तार (कैपिटल मूवमेंट) की बात करती है। इसके पहले वह मदद की बात करती थी। अब वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को छूट की बात करती है। पूंजी को आकर्षित करने के लिए छूट देने की बात हुई।

वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने पर स्थिति में जो बदलाव हुआ और अर्थव्यवस्था बदली इसको हमें समझना पड़ेगा। यह वैश्वीकरण के बाजारीकरण का दौर है। बाजार तो हरदम था। आप बाजार में जाते हैं, अदला-बदली करते हैं। कुछ लेते हैं और कुछ देते हैं। यह तो हर समय से था, लेकिन बाजारीकरण नया है। बाजारीकरण में जितने भी संस्थान हैं वहां बाजार के तर्क की पैठ है। बाजार का अपना तर्क क्या है? जैसे सैम्युलसन ने बताया कि बाजार का सबसे पहला तर्क है डॉलर वोट। यानी आपके पास एक डॉलर है तो एक वोट और एक मिलियन डॉलर है तो एक मिलियन वोट। यहां एक व्यक्ति एक वोट नहीं चलता। अगर आपके पास पैसा है तो मर्सिडीज बेंज खरीद सकते हैं ,याट खरीद सकते हैं। पैसा नहीं है तो आप खाना नहीं खरीद सकते हैं। बाजार का तर्क है कि जिसके पास खरीदने की क्षमता है वह निर्धारित करेगा कि क्या होना चाहिए। निर्यात में फ्लोरीकल्चर, होर्टीकल्चर, फिशीकल्चर की अहमियत जानते हैं, क्योंकि इससे ज्यादा लाभ होता है तो उत्पादन का तरीका बदल जाता है।

सबसे बड़ी बात, एक अमेरिकी की एक भारतीय से 40 गुना ज्यादा आय है। यानी एक अमेरिकी के बराबर 40 भारतीय। तो वैश्विक स्तर पर ग्लोबल गवर्नेंस के जो ढाई हजार संस्थान हैं उसमें किसकी चलती है? अमेरिका की। संयुक्त राष्ट्र में इराक पर कोई प्रस्ताव आए तो अमेरिका कहता है हम हमला करेंगे। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में अमेरिका पर कोई मामला दर्ज नहीं हो सकता, बाकी सारी दुनिया इसके अंतर्गत आती है। डब्ल्यूटीओ में अमेरिका को अगर कुछ असुविधाजनक लगता है तो सुपर स्पेशल 301 के तहत अलग कानून बना लेता है। यह जो खरीदने की क्षमता है वह निर्धारित कर रही है कि कौन कहां पर कितनी राजनीतिक आर्थिक ताकत का इस्तेमाल करेगा। चाहे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष हो, विश्व बैंक हो, विश्व व्यापार संघटन हो, एशियन डेवलपमेंट बैंक हो—जितने भी ढाई हजार वैश्विक संस्थान हैं वहां पर अमेरिका का वर्चस्व है। अगर आप बाजार में हाशिए पर हैं तो और ज्यादा हाशिए पर चले जाएंगे। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होगा, राष्ट्रीय स्तर पर होगा और क्षेत्रीय स्तर पर भी होगा।

पूंजी के लिए महाराष्ट्र का क्या मतलब है? सोलापुर, कोल्हापुर और विदर्भ नहीं है। वह है मुंबई-पूना क्षेत्र और मुंबई-वडोदरा क्षेत्र। यहां पर पूंजी है और यहां पर और पूंजी जाएगी। उत्तर प्रदेश के लिए पूंजी का क्या मतलब है? बांदा नहीं, कानपुर का विऔद्योगिकीकरण हो गया है, तो यहां मतलब है गाजियाबाद और नोएडा। हरियाणा का क्या मतलब है? गुडग़ांव और फरीदाबाद और अब वहां पर बहुत हो चुका है तो बहादुरगढ़ तक फैल रहा है। यह बाजार निर्धारित कर रहा है कि कहां पर और निवेश जाएगा और किस तरह का निवेश जाएगा। तो डॉलर वोट के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर पर जो हाशिए पर हैं उनका और हाशियाकरण होगा।

सबसे बड़ा रुपैया

यह बहुत बड़ा सिद्धांत है, जिस पर बाजार चलता है। इसने हर जगह अपनी पैठ बना ली है। हमारी सोच में यह पैठ बना चुका है कि कौन क्या करेगा। यह उसी तरह है कि 'मोर इज बेटर' (जितना ज्यादा उतना अच्छा)। मतलब आपके पास एक कमीज है तो दूसरी कमीज। एक कार है तो दूसरी कार। एक घर है तो दूसरा घर। यही आधार है, उपभोक्तावाद का। उपभोग तो हमेशा होता था, लेकिन उपभोग उपभोक्तावाद में बदल गया है। जो त्याग करेगा वह बेवकूफ है। बाजार के इस तर्क में उपभोक्ता की संप्रभुता का पूरा मुद्दा ही समा गया है। जो उपभोक्ता चाहता है वही होना चाहिए। आपको सिगरेट चाहिए तो बाजार आपको सिगरेट की आपूर्ति करेगा। बाजार नहीं कहता कि सिगरेट पीना खराब है। यह समाज कहता है। बाजार को आज ऑब्जेक्टिव (लक्ष्य) समझा जाता है और समाज को सब्जेक्टिव (वस्तुपरक या निष्क्रिय)। बाजार का जो नतीजा है वह ज्यादा वांछनीय है बनिस्पत इसके जो समाज कह रहा है। इसलिए समाज में स्टैंड (पक्ष) लेना बहुत कठिन है, क्योंकि बाजार ऑब्जेक्टिव है और उसके चलते बाजार आगे चल रहा है और समाज रिट्रीट कर (सिमट)रहा है। आज जो कंपनी सौ प्रतिशत डिविडेंट देती है वह बेहतर चलने वाली कंपनी है। वह चाहे सिगरेट बेचकर करे, चाहे हीरे बेचकर करे। हैथवे फंड आदि ने खरबों डालर का लाभ कमा लिया, तो यह अच्छे प्रबंधन की निशानी मानी जाती है। उससे दस लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं वह कोई मायने नहीं रखता है।

यही बाजार का परिणाम है। इसके चलते आदमी केवल आर्थिक रूप से निर्धारित हो रहा है। सामाजिक रूप से नहीं, राजनीतिक रूप से नहीं, सांस्कृतिक रूप से नहीं, भावनात्मक रूप से नहीं। आदमी क्या है, रेशनल प्राणी। रेशनल क्या? रेशनल का मतलब है लाभ को अधिक से अधिक बढ़ाना। हर चीज में नफा-नुकसान देखना। इसने हमारी सोच को प्रदूषित कर दिया है। हर चीज में देखना है कि हमारा फायदा हो रहा है या नुकसान। हम क्या करें? यहीं तक हमारी सोच सीमित रह जाती है। इसलिए आदमी को हम बस सॉफिस्टिकेटेड परिष्क्रित मशीन की तरह समझते हैं। जो कभी चलती है, कभी रुक जाती है। कभी सो जाती है, आदि आदि। रोजगार उसे चालू करने का बटन है और बेरोजगारी उसे बंद करने का बटन है। इसमें कोई और मूल्य नहीं है। अब जो बेरोजगार है उसकी बीवी का क्या हो रहा है, बच्चे का क्या हो रहा है, उसकी अपनी सोच पर क्या असर हो रहा है और समाज में उसका जो सम्मान है उसका क्या हो रहा है? उससे कोई लेना-देना नहीं है। आज आपने उसको रोजगार दिया और कल उसे निकाल दिया।

कुल मिलाकर मार्केट का यह मूल्य (नैतिकता) सारे समाज में फैल गया है। इसके चलते कल्याणकारी राज्य का नामोनिशान नहीं है। राज्य को सब्सिडी नहीं देनी चाहिए। सब्सिडी को बाजार में खराब माना जाता है। गरीब को सब्सिडी देनी पड़े तो कोई तरीका ढूंढिए, सब्सिडी मत दीजिए, क्योंकि यह बाजार में हस्तक्षेप है। डब्ल्यूटीओ में आपको कृषि को बंद नहीं करना है। लेकिन आपको खाद्य सुरक्षा चाहिए तो यह बाजार में हस्तक्षेप है, इसलिए सही नहीं है। डब्ल्यूटीओ इसके खिलाफ आवाज उठा सकता है। इस दर्शन के चलते 1990-91 के बाद हमारे देश में उपजे कुलीन वर्ग के लिए वैश्वीकरण का क्या अर्थ है? उसे दुनिया के कुलीन वर्ग से जुडऩे की चाह है। वहां एक नई मर्सिडीज बेंज का मॉडल आया तो उसे छह महीने बाद यहां भी होना चाहिए। नया कंप्यूटर का मॉडल आया तो वो भी यहां होना चाहिए। आईफाइव आया है तो वह यहां भी उपलब्ध होना चाहिए। यहां पर आम जनता को क्या चाहिए? बनखेड़ी में एक और नल लग जाए। एक और डिस्पेंसरी खुल जाए। कहीं और पानी की व्यवस्था हो जाए। इस की चिंता किसे है! दिल्ली में सब चौबीस घंटे होना चाहिए बाकी देश जाए भाड़ में। जो कुलीन (अभिजात्य) है उसका आम जनता से भावनात्मक रिश्ता खत्म हो गया है और वह ग्लोबल कुलीन वर्ग से जुड़ा हुआ है। वैश्वीकरण है अभिजात्य वर्ग का दुनिया भर के अभिजात्य वर्ग से जुड़ाव, न कि गरीब व्यक्ति से। इसके चलते 1991 के बाद से ही हमारे शासक वर्ग में सहमति है कि यही नीतियां चलेंगी। चाहे कांग्रेस की सरकार आए, चाहे एनडीए की आए, चाहे यूनाइटेड फ्रंट की। चाहे कोई और सरकार आए। सरकारों से कोई फर्क नहीं पड़ता, जो सोच है वह कहीं और से आ रही है।

काला धन और असमानता का संबंध

काले धन की अर्थव्यवस्था पर दो शब्द जरूरी हैं। काले धन की अर्थव्यवस्था से असमानता बेतहाशा बढ़ जाती है। अगर आप व्हाइट इकोनॉमी (स्वच्छ धन) में देखें तो जो शीर्ष तीन प्रतिशत हैं और जो बॉटम 40 प्रतिशत हैं उनमें आय का अनुपात 12:1 का है और अगर इसमें काले धन की अर्थव्यवस्था को जोड़ दें तो यह अनुपात 200:1 का हो जाता है। देश में जो असली असमानता है वह काले धन की अर्थव्यवस्था से आती है, न कि स्वच्छ धन से। यह काला धन शीर्ष तीन प्रतिशत के हाथ में नियंत्रित है। इसके चलते असमानता और नीतियों की असफलता जबरदस्त बढ़ जाती है। काले धन की अर्थव्यवस्था के चलते हमारी विकास दर पांच प्रतिशत से कम हो गई है। सन् 1970 के दशक में जब हम साढ़े तीन प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहे थे और काला धन आज जैसा नहीं था, तो हम साढ़े आठ प्रतिशत भी बढ़ सकते थे। पिछले दस साल का औसत साढ़े सात प्रतिशत है तो हम साढ़े बारह प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहे होते। हमारी अर्थव्यवस्था आज बारह-तेरह ट्रिलियन डॉलर की होती बजाय 1.8 ट्रिलियन डॉलर के। हमारी प्रति व्यक्ति आय 12,000 डॉलर होती बजाय कि 1,500 डॉलर के। हम नीचे के 30 की जगह मध्य आयवाले देश होते। काले धन की अर्थव्यवस्था के चलते विकास में जबरदस्त असंतुलन है। शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, सब जगह नीतियों की विफलता का सामना करना पड़ता है। काले धन की अर्थव्यवस्था से पैसा बाहर भेजना आसान हो जाता है। पिछले साठ साल में करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर देश से बाहर गया है। गरीब देश में काले धन की अर्थव्यवस्था के जरिए बड़े स्तर पर पूंजी को बाहर भेजा गया है। पूंजी की कमी क्यों है, क्योंकि काले धन की अर्थव्यवस्था है। काले धन की अर्थव्यवस्था नहीं होती तो आपकी पूंजी इस तरह से बाहर नहीं जाती। हमारे बजट में बीस प्रतिशत और ज्यादा बढ़ा होता। सिर्फ पंद्रह प्रतिशत पर हमारी सरकार चलती है। शिक्षा के क्षेत्र में हम चार प्रतिशत से ज्यादा कभी आगे नहीं जा सके। उसे हम दस प्रतिशत दे सकते थे। स्वास्थ्य के क्षेत्र में डेढ़ प्रतिशत नहीं पार कर पाए, उसके लिए तीन प्रतिशत दिया जा सकता था। इसी तरह बिजली है, सड़कें हैं; सबके लिए आज जो कमी नजर आती है वह कब की खत्म हो जाती। काले धन की अर्थव्यवस्था नहीं होती तो बाहरी सेक्टर पर हमारी निर्भरता घट जाती। पिछली योजना के चलते हम जिन समावेशी नीतियों की बात करते हैं वह तब तक नहीं हो सकती जब तक हमारी नीतियों का आधार हमारे हाथ में दोबारा न आ जाए। जब तक वह बाहर वालों के हाथ में रहेगा तब तक समावेशी नीतियां संभव नहीं हैं।

अंत में, विश्व बैंक ने 1992 में सेफ्टीनेट (सुरक्षा कवच) की बात कही। सुरक्षा कवच का तात्पर्य है कि हमारी नीतियां असमान हैं। जिसकी वजह से गरीबी बढ़ जाती है तथा बहुत से लोग नीचे चले जाते हैं। एक सुरक्षा कवच चाहिए पर सुरक्षा कवच कुछ लोगों के लिए हो सकता है। सारी जनता के लिए नहीं हो सकता है। इसलिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं। हमें बुनियादी तौर पर अपनी नीतियों को सही दिशा में लाना पड़ेगा। हमें यह समझना पड़ेगा कि बाजारीकरण और उसके दर्शन ने हमारी नीतियां बदल दी हैं और हमारी सोच पर जबरदस्त असर डाला है। वह सोच किस तरह से बदलेगी। वह सोच तब ही बदलेगी जब आंदोलन खड़ा होगा। आंदोलन ही हमें एक नए रास्ते पर ले जा सकता है।

(समयांतर के 15वें वर्ष के अवसर पर दिल्ली में आयोजित गोष्ठी में दिया गया व्याख्यान। अरुण कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और कालेधन की अर्थव्यवस्था पर विशेषज्ञ हैं।)


क्रोनी पूंजीवाद और सांप्रदायिकता का गठबंधन

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क्रोनी पूंजीवाद और सांप्रदायिकता का गठबंधन

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मोदी ने पार्टी को जिस तरह से कब्जे में कर लिया है वह अपने किस्म का निर्मम व्यक्तिवाद है। संभावित प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाने या कमजोर करने को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए।

पूरे राजनीतिक परिदृश्य में जो बातें स्पष्ट होती जा रही हैं वे काफी हद तक इस माह होने जा रहे संसदीय चुनावों के बाद का संकेत मानी जा सकती हैं। पहले इन्हें देखा जाए।

पहली बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है। एक छोटी-सी घटना इसका बड़ा-सा प्रमाण है। पिछले दिनों पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ट्वीट किया अब की बार भाजपा सरकार। मोदी के समर्थकों ने उन पर तत्काल हमला बोला और सिंह साहब को उसे बदल कर कुछ ही देर में अबकी बार मोदी सरकार करना पड़ा। यह घटना बतलाती है कि मोदी ने पूरी पार्टी को किस तरह से कब्जे में कर लिया है या करने की कोशिश कर रहे हैं और वहां उनके अलावा किसी और का नाम नहीं लिया जा सकता। (क्या यहां किम जांग-उन की छाया नहीं नजर आ रही है? ) भाजपा के उन सभी नेताओं को रास्ते से हटाने या कमजोर कर देने, अपमानित कर उनकी सीटों को बदलने के प्रयत्नों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट है। इस संदर्भ में जसवंत सिंह का यह कहना कि नमो नमो करना व्यक्तिवाद को बढ़ावा देना है, कोई गलत नहीं है। इसी के तहत बाहर से आए लोगों को टिकट देने में उदारता बरती जा रही है क्यों कि वे मोदी के लिए किसी भी तरह की चुनौती नहीं हो पाएंगे। पर यह खेल भितरघात के खतरों के चलते मोदी के मनसूबों पर पानी फेरने में देर नहीं लगानेवाला है। जानकारों का मानना है कि इससे भाजपा 20 से 30 सीट तक गंवा सकती है। इस पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) मोदी की स्थिति को सुनिश्चित करने में लगा है क्योंकि वह उन्हें 2002 के दंगों के परिप्रेक्ष्य में हिंदुत्व के प्रचार का प्रभावशाली माध्यम मानता है। यही कारण है कि आरएसएस भी इस व्यक्तिवाद का ज्यादा विरोध नहीं कर रहा है इसके बावजूद की वह संघ के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को एक के बाद एक ठिकाने लगाने पर जुटे हैं। क्या यह मोदी के आरएसएस की पकड़ से बाहर हो जाने का संकेत है? संभवत: हां। अब तक इस हिंदू फासीवादी संगठन का पहले जनसंघ और आपात काल के बाद भाजपा के नाम से जानी जानेवाली पार्टी में अप्रत्यक्ष ही सही पर प्रभावशाली नियंत्रण रहा है। स्वयं नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनवाने और फिर प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में खड़ा करने में भी संघ का स्पष्ट हाथ है। लगता है भस्मासुर अपने देवता को ही निगलने जा रहा है।

संघ परिवार में क्या होगा, यह उसका मामला है पर प्रश्न है हिंदूवादी ताकतों का केंद्र की सत्ता के दरवाजे पर इस तरह दस्तक देने की स्थिति में आना संभव कैसे हुआ। इसके कई कारण हैं, जिनमें निश्चय ही सबसे बड़ा कांग्रेस का अवसरवाद है। दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक वामपंथ की राजनीतिक संकीर्णता माना जा सकता है। देखने की बात यह है कि कांग्रेस और वाम के पतन के समानांतर आरएसएस और उसका राजनीतिक मुखौटा भाजपा प्रबल होती गई है। वाम की आत्ममुग्धता और उसके, विशेषकर हिंदी पट्टी में, असफल या निष्क्रिय होते चले जाने से हिंदू राष्ट्रवादी तत्त्वों को उस स्पेस को घेरने में आसानी हुई जिसे कांग्रेस के भ्रष्ट शासन, परिवारवाद, दरबारी संस्कृति और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने तैयार किया था। निश्चय ही इस दौरान क्षेत्रीयता और पहचान की राजनीति करनेवाले दलों का उदय हुआ पर वे उस स्पेस को भरने की स्थिति में नहीं थे जिसे कांग्रेस एक लंबे समय तक अपनी सब को खुश रखने वाली नीति के कारण बनाए हुए थी। कांग्रेस के मध्यमार्गी या छद्म प्रगतिवादी रुझान ने वाम को आत्मतुष्ट और निष्क्रिय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। उसके नेतृत्व ने कभी ऐसी दूरगामी नीति के तहत काम नहीं किया जो पूरे देश को ध्यान में रखती हो। दूसरी ओर आरएसएस के झंडे तले एकत्रित हिंदू प्रतिक्रियावादी तत्त्वों ने बेहतर रणनीतिक कुशलता, दृढ़ता और दूरदर्शिता का परिचय दिया। नवउदारवाद की नीतियों से उपजी आकांक्षा, असुरक्षा और अनिश्चितता ने मध्यवर्ग व निम्न मध्यवर्ग को तथाकथित दृढ़ नेतृत्व और हिंदूवाद की ओर बड़े पैमाने पर आकर्षित किया।

साफ है कि पूंजीपतियों ने मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं, मानसिक रुझान, बेहतर शासन तथा अनुशासन की चाह का लाभ उठाते हुए अपने हित के लिए मोदी को एक कुशल और दृढ़ प्रशासक के रूप में गढऩे में निर्णायक भूमिका निभाई। यह काम पिछले दस वर्षों में बहुत चतुराई और नियोजित तरीके से किया गया। देश के कारपोरेट जगत के एक प्रभावशाली हिस्से द्वारा मोदी को बढ़ाने का मूल कारण यह रहा है कि वह जानता है कि अब उसके हित कांग्रेस के माध्यम से नहीं साधे जा सकते। ऐसा करने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों, पर्यावरणीय चिंताओं और वंचितों को दरकिनार करना होगा। गुजरात में विगत एक दशक में यही किया गया है। अन्यथा मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देना कोई बहुत तार्किक नहीं लगता। गुजरात भारत को देखते हुए एक छोटा-सा राज्य है, जनसंख्या और आकार में भी। वह अपनी जनसंख्या में ही उत्तरप्रदेश से तीन गुना या बिहार से दो गुना छोटा है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुजरात सदा से विकसित और व्यापारिक राज्य रहा है। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में वहां कोई क्रांतिकारी परिवर्तन जैसा कुछ हुआ हो। आज भी वह विकास दर में कई राज्यों से पीछे है। उल्टा वहां बड़े पैमाने पर पर्यावरण विनाश, रोजगार का खात्मा और विस्थापन हुआ है। तीसरा, मोदी को केंद्र में काम करने का एक दिन का अनुभव नहीं है। वह कभी सांसद तक नहीं रहे हैं। चौथा, मोदी के साथ जो सबसे नकारात्मक बात जुड़ी है वह है उनका मुस्लिम विरोधी माना जाना। यह ऐसा कारण है जो देश के एक बड़े वर्ग को उनके प्रति सशंकित रखने में महत्त्वपूर्ण घटक माना जा सकता है। इसका दुष्परिणाम मुसलमानों को विकास के लाभ से वंचित रखने और उनके बड़े पैमाने पर अलगाववाद का शिकार होने की पूरी संभावना तो है ही यह औद्योगिक शांति और बाजारों के लिए भी हानिकारक है। इससे जो तनाव उत्पन्न हो सकते हैं वे देश को अस्थिर करने में महत्त्वपूर्ण कारक बन सकते हैं। ऐसे में नीतीश कुमार का यह कहना गलत नहीं है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से ज्यादा कई अनुभवी लोग हैं।

इस संदर्भ में सबसे निर्णायक बात है पूंजी की 'लोकतंत्र के नाच' (तांडव?) में भूमिका। यह छिपा नहीं है कि मोदी को विकल्प के तौर पर जिस नियोजित तरीके से प्रस्तुत किया गया है वह असामान्य है। पर शायद इससे भी बड़ी बात यह है कि किसी एक व्यक्ति को प्रोजेक्ट करने में इस तरह से विज्ञापन और मीडिया का इस्तेमाल भी पहले कभी नहीं किया गया। भारतीय कारपोरेट जगत, बल्कि कहना चाहिए कुछ बड़े पूंजीपतियों ने, जिनकी जड़ें विशेषकर गुजरात में हैं, यह काम जांच-परख कर किया है। मोदी ने मुख्यमंत्री के तौर पर सारे नियमों और नीतियों को ताक पर रख कर, जिस तरह से अडाणी, अंबानी और टाटा को पिछले एक दशक में लाभ पहुंचाया है उन कामों ने सिद्ध कर दिखाया कि वह पूंजीपतियों के हित में सबसे कारगर व्यक्ति साबित होंगे, मनमोहन सिंह से भी आगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह वैश्विक पूंजी, नवउदारवाद और हिंदू फासीवाद का खुल्लम-खुल्ला गठबंधन है। निश्चय ही पिछले दशक में गुजरात में निवेश हुआ है पर सवाल है कि उससे आम आदमी कितना लाभान्वित हुआ है। राज्य में रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं। अर्द्ध रोजगार की भरमार है। किसानों की बेदखली बढ़ी है और गरीबों में कुपोषण रिकार्ड स्तर पर है। पर जैसा कि स्पष्ट है, मोदी की सफलता कारपोरेट घरानों के लिए राज्य के दरवाजों को पूरी तरह खोल देने में छिपी है।

यह अनुमान का विषय है कि मोदी को गढऩे में कितना पैसा लगाया गया है। जो भी हो यह खासी बड़ी राशि है। मार्च के अंतिम सप्ताह में टीवी चैनल सीएनएन-आईबीन के साक्षात्कार में चुनावों की घोषणा होते ही सेंसेक्स के मोदी के प्रधानमंत्री बनने की अपेक्षा से उछाल खाने पर केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कारपोरेट सेक्टर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान को चला रहा है। यह वह इसलिए कर रहा है क्योंकि वह नरेंद्र मोदी से उसी तरह की, जिस तरह की उन्होंने गुजरात में दी, मुफ्त की सुविधाएं पाने की उम्मीद में है। उन्होंने यह भी कहा कि यही कारण है कि गुलाबी अखबार यानी वाणिज्यिक अखबार मोदी के साथ हैं। जब उनसे साक्षात्कारकर्ता ने पूछा कि क्या वह आरोप लगा रहे हैं तो सिब्बल का उत्तर था, नहीं वह यह सब जानते हैं।

इसी तरह उनसे एक दिन पहले 22 मार्च को पुणे में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया मोदी की 'पेड पब्लिसिटी' (पैसा लेकर प्रचार) कर रहा है। मोदी के हर भाषण का सीधा प्रसारण राजनीति पर पैसे के बल पर हावी होने का प्रयत्न है।

प्रश्न है कांग्रेसी यह सब इतनी देर में क्यों कह रहे हैं? संभवत: वे उम्मीद कर रहे थे कि मोदी के पक्ष में हवा इस तरह नहीं बन पाएगी। दूसरा यह भी छिपा नहीं है कि कांग्रेस अपनी आर्थिक नीतियों में आज किसी भी रूप में भाजपा से अलग नहीं रही है। कांग्रेस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे उस कारपोरेट सेक्टर पर सीधे आक्रमण करें जिसे मोदी ने फलने-फूलने का मौका दिया है और बदले में उन्होंने मोदी को बढ़ाया है। इनमें से सबसे बड़े घराने अंबानी देश को कांग्रेस की ही देन हैं। वह यों ही कांग्रेस को 'अपनी दुकान'नहीं कहते। यह कांग्रेस अब सब कुछ हाथ से निकल जाने की हताशा के अलावा आम आदमी पार्टी (आप) के द्वारा मोदी और मीडिया पर किए गए सीधे हमले के कारण मजबूरी में कर रही है। आपके आक्रमण ने भाजपा, मीडिया और कारपोरेट सेक्टर तीनों को हिला दिया है। यह कम मजेदार नहीं है कि मीडिया चालित बहसों में भाग लेनेवाले भाजपा के प्रतिनिधि कहते हैं कि केजरीवाल के पास सिवाय मोदी पर आक्रमण करने के और कोई मुद्दा नहीं है। प्रश्न है मोदी अपने भाषणों में किस तरह की बातें करते हैं? आखिर विकास और देशभक्ति क्या कोई अमूर्त चीजें हैं? इन्हें परिभाषित किया जाना जरूरी है। क्या उन्होंने आर्थिक नीतियों, बेरोजगारी, समानता सांप्रदायिकता जैसे विषयों पर बात की है? स्वयं मीडिया भी इसका कम बड़ा दोषी नहीं है। यहभाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के विचारों की वास्तविकता को छिपाए रखने के लिए सुविचारित रणनीति के तहत किया जा रहा है।

मोदी का उस उस मीडिया से बचना जिसके लिए वह अवतार से कम नहीं हैं, क्या आश्चर्यजनक नहीं है? विशेषकर भारतीय मीडिया को वह घास नहीं डालते। जो भी बात उन्होंने की है विदेशी मीडिया से की है। कभी अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को 'पैकेज्ड प्रेसीडेंट', यानी ऐसा राष्ट्रपति जिसे पूंजी और मीडिया ने अपनी जरूरतों के मुताबिक गढ़ा हो, कहा गया था। निश्चय ही मोदी में कमोबेश उसी तरह से भारत का पहला 'पैकेज्ड प्राइममिनिस्टर'होने की संभावना जरूर नजर आ रही है। यह उस नयी परंपरा की शुरुआत है जिसमें अब वही प्रधानमंत्री बनेगा जो कारपोरेट सेक्टर चाहेगा। दूसरे शब्दों में पूंजी की नजर में विश्वसनीय होगा।

यह भाजपा के उस चेहरे का भी अंत है जो उदार माना जाता था। मोदी के उत्थान से देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण निश्चय ही तेज होगा। वह जिस तरह से अपने प्रतिद्वंद्वियों को पाकिस्तान का एजेंट कह रहे हैं या उन्होंने बनारस को चुनावों के लिए चुना है, बतलाता है कि भविष्य में भी उनके एजेंडे में सांप्रदायिकता महत्त्वपूर्ण हथियार बना रहेगा। वह विकास के अपने एजेंडे को व्याख्यायित नहीं करते। गुजरात का विकास क्रोनी पूंजी और सांप्रदायिकता का मिश्रण है। (क्रोनी का शाब्दिक अर्थ यारबाज या चमचा है पर यह ऐसी पूंजीको रेखांकित करता है, जो सत्ता के साथ मिल कर गलत तरीकों से लाभ उठाती है)। पर जिस तरह से मोदी अपने दल में सफाई का काम कर रहे हैं उसने इसमें एक और तत्त्व मिला दिया है और वह है अधिनायकवाद। चिंता की असली बात यह है कि अक्सर पूंजी और धार्मिक कट्टरता मिल कर संहारक पेय में बदल जाती है। अधिनायकवादी प्रवृत्ति आग में घी का काम करती है।

इस पर भी इस अंग्रेजी कहावत को याद किया जा सकता है कि चाय के प्याले और होंठों के बीच कई फिसलनें हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, भविष्य बतलाएगा।

बहस तलब,हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

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बहस तलब,हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

पलाश विश्वास

बहस तलबः `इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.'


इन पंक्तियों पर खुली बहस के लिए यह आलेख है।


जाति उन्मूलन पर बाबासाहेब के लिखे एन्निहिलिशन आफ कास्ट आलेख पर मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना लिखने के अधिकार को चुनौती देते हए जेएनयू के मुक्ताचंल में आल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट यूनियन के बैनकर के साथ दलितों के प्रवक्ता बने संगठन की ओर से नियमागिरि पर लिखे अरुंधति के आलेख का हवाला दोते हुए कहा गया है कि उन आदिवासियों के लिए जैसे नियमागिरि पहाड़ पवित्र है,उसीतरह दलितों के लिए बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर भी पवित्र है,लिहाजा बेहतर हो कि अंबेडकर को दलितों के लिए ही सुरक्षित रख दिया जाये।


जैसे कि हमारे प्रबुद्ध मित्र विद्याभूषण रावत ने हस्तक्षेप में साफ साफ लिखा है कि अरुंधति के लिखे पर तमाम दलित प्रतिक्रयाक्रियाें दरअसल विषयांतर है,हमारा भी मानना है कि अरुंंधति के लिखने से हिंदुत्व के निष्कासन सिद्धांत के तहत बाबासाहेब की पवित्रता भंग नहीं हुई है।


बाबा साहब ने दरअसल जाति तोड़ो सवर्ण संगठन को संबोधित यह वक्तव्य जो दिया ही नहीं जा सका,को आलेख बतौर प्रकाशित किया,जिसपर उनके प्रबल विरोधी और मनुस्मृति के प्रवक्ता गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।


बाबासाहेब ने उस प्रतिक्रिया का भी समुचित प्रत्युत्तर दिया है। जाहिर है कि बाबासाहेब असहमति और विरोध के बावजूद संवाद से परहेज नहीं करते थे।


रावतभाई ने अपने आलेख का शीर्षक भी मौजूं रखा हैः


Dissent is the essence of Ambedkarism

March 27, 2014Leave a commentनीला, नील क्रांति

The issue is not whether she can write on Ambedkar or not. No one can stop anyone to write on a public figure and his or her work. A few of them said that none had brought this great work to international people and hence if Navayana is doing so we should complement him.

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http://www.hastakshep.com/category/english#.Uz71xKiSwnY


विद्याभूषणजी का आलेख गौर से पढ़ना जरुरी है। हालांकि उन्होंने यह जो लिखा कि अंबेडकर के लिखे पर किसी नयी प्रस्तावना की जरुरत नहीं है,इससे हम असहमत है।


जब बाबासाहेब ने यह आलेख लिखा था,तब परिस्थितियां भिन्न थीं, अब लेकिन परिस्थितियां एकदम बदल गयी है और जाति व्यवस्था को मजबूती देने में दलितों और बहुजनों की आत्मघाती भूमिका सवर्ण वर्चस्व के स्थाई बंदोबस्त को ही बहाल करने में लगी है।


इसी बीच आनंद तेलतुंबड़े जो संजोग से दलित भी हैं,अरुंधति के आउटलुक में लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक आलेख अंग्रेजी में लिखा है,जो दैनिक हिंदू में प्रकाशित भी हो गया।इस आलेख को जाति उन्मूलन संबंधी प्रस्तावना में हो रहे विवाद की पृष्ठभूमि में लिखा गया है,जिसपर हमने आनंद के कहने पर अंग्रेजी में एक मंतव्य भी लिखा है।


अब हमारे मित्र रियाज उल हक ने हिंदी में आनंद का यह आलेख पोस्ट कर दिया है।हिंदी के पाठक इसे पढ़ सकते हैं और कम से कम आनंद के विशेषाधिकार पर दलितयुक्ति से सवाल खड़ा करने की गुंजाइश नहीं है।


आनंद ने अरुंधति को भी बख्शा नहीं है।जैसे रावत ने मुद्दों पर बात की है,उसी बहस को आगे बढ़ाते हुए अंबेडकर को आइकन बतौर पेश करने की सत्तावर्गीय प्रवृत्ति को चिन्हित भी किया है तेलतुंबड़े ने। हमारी उनसे इस आलेख पर इसके हिंदू में प्रकाशन से पहले और बाद में लगातार इन मुद्दों पर  बातचीत होती रही है और इस मंतव्य को लिखने से पहले भी हमने उनसे बात कर ली है।


इस आलेख में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल आनंद ने उठाया है वह अबंडकर के अंधा अनुकरण के विरुद्ध है,जिसे अरुंधति भी जाने अनजाने गौरवान्वित कर रही हैं।


हम राष्ट्र के वर्तमान चरित्र,बहुआयामी सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में कारपोरेट साम्राज्यवाद के उपनिवेश बने भारत में बहुजनों के नरसंहारी आयोजन के ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार संबंधी विश्लेषण के लिए अरुंधति के विश्लेषण को महत्वपूर्ण योगदान माना है और इस पर बहस की जरुरत भी बतायी है लेकिन अंबेडकर की प्रासंगिकता पर उनके लिखे से पूरी तरह सहमत हम भी नहीं है।


बेहतर होता कि फारवर्ड प्रेस,एआईबीएसएफ और दूसरे आलोचक रावत की तरह असहमति के बिंदुओ पर बहस को केंद्रित करते।


आनंद ने साफ साफ लिखा हैः


आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को 'जाति विरोधी'बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.


इसी भक्तिभाव और अंध श्रद्धा ने बाबासाहेब को या तो बोधिसत्व बना दिया है या फिर उनको मूर्तिबद्ध बना दिया है। गौतम बुद्ध बुनियादी तौर पर विश्व के पहली रक्तहीन क्रांति के जनक हैं जिन्होंने वर्ण व्यवस्था के वैदिकी निरंतरता का अवसान करते हुए सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है।


बौद्धमय भारत के अवसान के बाद प्रतिक्रांति बजरिये जातिव्यवस्था के स्थाई बंदोबस्त  से लेकर मुक्त बाजार के क्रोनी पूंजी वर्चस्व वाले एकाधिकारवादी कारपोरेट राज में तब्दील होने के बावजूद भारत और बाकी विश्व में गौतम बुद्ध के धम्म,पंचशील, समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत अप्रासंगिक नहीं हुआ है और न उनका किसी भी सूरत में अवमूल्यन उसी तरह संभव नहीं है जैसे फ्रांसीसी क्रांति,रंगभेद के खिलाफ अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका  के स्वतंत्रता संग्राम, इंग्लैंड की रक्तहीन क्रांति,यूनान में कुलीनतंत्र के खिलाफ गुलामों का विद्रोह,रूस और चीन की क्रांतियां।


दुनिया रोज बनती है और दुनिया रोज बदलती है लेकिन इतिहास और इतिहास बोध भौगोलिक राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक बदलावों के मध्य शाश्वत मूल्य हैं,जिनके बिना हम एक कदम तक आगे नहीं बढ़ सकते।


मसलन मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों,दर्शन और उनके धर्म कर्म से हमें घनघोर आपत्ति हो सकती है,लेकिन इस सच से इंकार नही किया जा सकता कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक नेतृत्व कर रहे थे।कैसी स्वतंत्रता मिली और सत्ता हस्तांतरण के नतीजे क्या हैं,उन मुद्दों पर हम बहस जरुर कर सकते हैं।


हम बार बार भारतीय सांप्रतिक इतिहास के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गांधी की सकारात्मक भूमिकाओं को आज के राजनीतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में तौल रहे हैं,लेकिन उनकी नकारात्मक राजनीति और उनकी भूलों को  भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।


आपातकाल और आपरेशन ब्लू स्टार का हम कतई समर्थन नही कर सकते।तो गुजरात नरसंहार के बावजूद वाजपेयी की निष्क्रियता और राममंदिर आंदोलन जरिये कमंडल राजनीति में वाजपेयी की भूमिका,आर्थिक सुधार अभियान की निरंतरता बनाये रखने के साथ हिंदुत्वादी राजकाज की वाजपेयी की गृहनीति का भी हम लगातार विरोध करते रहे हैं।


इन आपत्तियों और असहमतियों के बावजूद उनकी भूमिकाओं को हम सिरे से खारिज नहीं कर सकते।


बाबासाहेब अंबेडकर न ईश्वर थे और न हिंदुत्व को जाति व्यवस्था के कारण खारिज करके अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म दीक्षित होने के बावजूद बोधिसत्व भी नहीं थे।


बाबासाहेब अंबेडकर बहुजन मूक भारत की मुक्तिकामी आकांक्षाओं के अब तक की सबसे प्रबल अभिव्यक्ति हैं।


लेकिन मुक्तिप्रसंग पर चर्चा किये बिना हम उनकी भूमिका की जाच पड़ताल कर ही नहीं सकते।


बाबासाहेब अंबेडकर रक्तमांस के जीते जागते इंसान थे।उनके विचार और अवस्थान भी समय समय पर बदलते या विकसित होते रहे हैं।


बाबासाहेब अंबेडकर चेतना के प्रतीक हैं न कि जड़ता के।


अपने समय और समाज को संबोधित करते हुए भिन्न अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ 1947 से पहले और बाद उन्होने जो लिखा,उनके मायने अब बदले हालात में सिरे से बदल गये हैं लेकिन अस्पृश्यता और नस्लीभेदभाव वाले वर्णवर्चस्वी एकाधिकारवादी मनुस्मृति व्यवस्था बदलने के बदले मुक्त बाजार और कारपोरेट राज में और ज्यादा मजबूत हो गयी है।


इसी सदर्भ में अरुंधति के लेखन पर गौर न करके हम सामाजिक और सांप्रतिक यथार्थ से मुंह ही चुरा रहे हैं।


न हम और तेलतुंबड़े अरुंधति का गौरवान्वयन कर रहे हैं और न उनका बचाव।वे बेहतरीन लेखिका हैं और अपना बचाव वे बखूब कर सकते हैं। वे सही हैं या गलत, बहस इस पर भी नहीं केंद्रित होना चाहिए।बहस उन मुद्दों पर जरूर होनी चाहिए जो उन्होंने उठाये हैं।


खास बात तो यह है कि जो लोग दावा यह कर रहे हैं कि दलितों के,माफ कीजिये बहुजनों और गैरदलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के भी नही,हैं डा.भीमराव अंबेडकर, उन्हें शायद इस सच का सामना करने की हिम्मत भी नहीं है कि सत्तावर्ग ने उन्हें सिरे से अंबेडकर से बेदखल कर दिया है।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर भी मुक्त बाजार में उतने ही कमोडिटी हैं जितने कारपोरेट हिंदुत्व के सुपरमाडल नरेंद्र मोदी।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर और अंबेडकर के अनुयायी अब पूरी तरह सत्तावर्ग के कब्जे में हैं।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर की भी ब्रांडिंग हो गयी है और हम अंबेडकर नहीं,ब्रांडेड अंबेडकर के अनुयायी बनकर फासिस्ट कारपोरेट राज की पैदल सेनाएं हैं।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर के विचारों के मुताबिक अंबेडकरी आंदोलन का कोई वजूद है ही नहीं है। न जाति उन्मूलन के बेसिक एजंडा के तहत समता और सामाजिक न्याय की किसी परिकल्पना का कोई अस्तित्व है।


कटुसत्य तो यह है कि सौदेबाजी के सिद्धांत के तहत जो सत्ता की चाबी में उलझा अंबेडकरी आंदोलन,वह सौदेबाजी सामाजिक न्याय और समता के साथ अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे के नाम पर वर्णवर्चस्वी फासिस्ट तबके का शरणागत बना रही है भारतीय बहुजनों को।


कटुसत्य तो यह है कि इस अनंत वधस्थल पर हम वध्य हैं और अपनी गरदन बचाने के लिए उस तलवार से याचना कर रहे हैं अपने प्राणों की,जो खून से नहाकर ही अपनी धार तेज करती है और उसके इस चरित्र में कोई परिवर्तन हो नहीं सकता।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर के जिस संविधान पर हमें इतना गर्व है, वह वर्णवर्चस्वी बहुमत के संशोधित संविधान है और अंबेडकरी मसविदा का हूबहू अनुकरण नहीं है।


कटुसत्य तो यह है कि जिन मौलिक अधिकारों का प्रावधान है भारतीय संविधान में,उनका भी अस्तित्व खत्म है।


कटुसत्य तो यह है कि जिस लोकतंत्र की बुनियाद रखा बाबासाहेब ने,वह अब न सिर्फ मुक्त बाजार है, न सिर्फ छिनाल पूंजी वित्तीय लंपट आवारा अबाध पूंजी की कठपुतली है, न सिर्फ यह मुक्त बाजार है,न सिर्फ कृषि और कृषि समुदाय,प्रकृति और प्रकृति से जुड़े बहुजनों का कत्लगाह है यह, बल्कि जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश में तब्दील है।


कटुसत्य तो यह है कि जो कानून बनाये बाबासाहेब ने वे बदले जा चुके हैं और जो बाकी हैं,वे बदल दिये जायेंगे,जिस राजस्व प्रबंधन और संसाधन प्रबंधन की प्रस्तावना कर गये बाबा साहेब,उसके उलट सबकुछ हो रहा है, जो संवैधानिक रक्षाकवच बाबासाहेब ने बहुजनों के लिए सुनिश्चित किये,वे छिन्न भिन्न हैं और अस्पृश्य नस्ली भेदभाव के शिकार भूगोल में वह भारतीय संविधान अब सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून,आतंक निरोधक कानून,सलवा जुड़ुम जैसी  रंग बिरंगी युद्धक कानूनों और अभियानों में तब्दील है,जहां न बाबासाहेब के लोकतंत्र,न लोक गणराज्य और न संविधान कभी लागू हुआ है।


कटुसत्य तो यह है कि जिस आरक्षण पर भारत में जनादेशनिर्मिति वास्ते वोटबैंक समीकरण है ,ग्लोबीकरण ने उसे सिरे से अप्रासंगिक बना दिया है।


कटुसत्य तो यह है कि निजीकरण और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,ठेके पर नियुक्तिययों, अबाध पूंजी प्रवाह और शहरीकरण ने आरक्षण के कफन पर आखिरी कीले ठोंक दी है और हम मरी हुई लाश की राजनीति कर रहे हैं।


कटुसत्य तो यह है कि बाबासाहेब की विचारधारा एटीएम में तब्दील है, जहां से जो जितना निकाल सकता है, निकाल रहा है और इस दौड़ में भी बहुजन कहीं हैं ही नहीं।


कटुसत्य तो यह है कि वह एटीेम भी अब शोषक  शासक तबकों और उनके चर्बीदार सिपाहसालारों के कब्जे में है।


इस बेदखली का एक ब्यौरा आनंद ने भी पेश किया हैः

हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंटके 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर 'अन्य'बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देना का मतलब होगा कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर खींचते हुए उसे बुरी तरह नुकसान पहुंचाएगा.



बुनियादी मुद्दे को तेलतुंबड़े ने सही सही रेखांकित किया है जो बहसतलब हैलेकिन इसके पहले युवा कवि नित्यानंद गायेन की इनपंक्तियों पर पहले गौर करेंः

चुम्बक जिसके सदा

दो कोन होते हैं

एक कोना

जो सदा आकर्षित करता है

और दूसरा

जो अलग करता है

समान कोने वालों को

मतलब कुछ तो सन्देश देता है

मैगनेट की आकर्षण शक्ति

कि अपने विपरीत विचारधारा वाले का

स्वागत करनी चाहिए हमें


बहुत पहले जान लिया था इस विचार को

संत कबीर ने

जबकि तब कहीं किसी को पता नही था

चुम्बक के बारे में

किन्तु आज ऐसा होता नही

जबकि हम घिरे हुए हैं चुम्बकों से

और करते हैं एक दम उल्टा

चुम्बक के सिद्धांत के विरुद्ध व्यावहार

हम खोजते हैं

अपने जैसे विचारधारा वालों को ......


-नित्यानन्द गायेन


कौन से आंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 1940 के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने विरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंनेस्टेट्स एंड माइनॉरिटीजलिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.



हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/02/2014 07:47:00 PM


बाबासाहेब आंबेडकर की क्रांतिकारी रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पर अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई हालिया प्रस्तावना द डॉक्टर एंड द सेंट के बारे में छिड़े विवाद पर यह सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है, जिसमें आनंद तेलतुंबड़े ने न सिर्फ जातियों के खात्मे के सवाल को केंद्र में रखते हुए पूरे विवाद का विश्लेषण किया है, बल्कि उन्होंने आंबेडकर को एकांगी और सरलीकृत प्रतीक के रूप में पेश किए जाने की राजनीति और इसके खतरों को भी सामने रखा था. अनुवाद: रेयाज उल हक


आउटलुक(10 मार्च 2014) में छपे अपने एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा, 'हमें अंबेडकर की जरूरत है-अभी और तुरंत'. यह बात उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रकाशक नवयाना से आंबेडकर की रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्टके एक नए, व्याख्यात्मक टिप्पणियों वाले संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में कही. अरुंधति ने 'द डॉक्टर एंड द सेंट'के नाम से एक 164 पन्नों का निबंध इस किताब की प्रस्तावना के रूप में लिखा है. इस तरह करीब 100 पन्नों की मूल रचना अब प्रस्तावना और टिप्पणियों समेत 415 पन्नों की मोटी किताब के रूप में हमारे सामने है.

एक अनुचित विवाद

अरुंधति की प्रस्तावना ने दलित हलकों में एक अनुचित विवाद पैदा किया है. इसने 1970 के दशक में शुरुआती दलित साहित्य के दौर में चली बहस की याद दिला दी, कि कौन दलित साहित्य लिख सकता है. दलितों के पक्ष में दलील देनेवालों का जोर इसपर था कि दलित साहित्य लिखने के लिए जन्म से दलित होना जरूरी है. मौजूदा विवाद में भी पहचान को लेकर ऐसी ही सनक की झलक दिखी है, कि आंबेडकर या उनकी किसी रचना की प्रस्तावना लिखने के लिए या उनसे परिचित कराने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी है. हालांकि यह बात उलझन में डालने वाली है कि जब अनगिनत गैर दलित पहले ही आंबेडकर और उनके लेखन पर लिख चुके हैं, ऐसा विवाद सिर्फ अरुंधति के मामले में ही क्यों पैदा हुआ? क्या यह उनकी नामी-गिरामी हैसियत की वजह से है या मध्य वर्गीय दलितों की नजर में उनके माओवादी समर्थक होने की बदनामी की वजह से? इस दूसरी बात की गुंजाइश ज्यादा है, और यह उनकी प्रतिक्रिया की मूल वजह हो सकती है. क्योंकि उनके लिए कम्युनिज्म से दूर दूर से भी किसी चीज का जुड़ा होना उससे दूर भागने और उसे खारिज कर देने के लिए काफी है.


इस शोरगुल की जो भी वजह हो, यकीनन यह अनुचित था. सोशल मीडिया पर घटिया फिकरों की बाढ़ को नजरअंदाज कर दें तो इस रचना को लेकर तर्कसंगत स्तर की जो मुख्य आपत्तियां रहीं उनमें ये थीं कि उन्होंने आंबेडकर से परिचय कराने में गांधी को अनुचित रूप से ज्यादा जगह दी है. या यह कहा गया कि क्या इस काम के लायक काबिलियत उनमें थी. या फिर यह कि उनकी प्रस्तावना किताब में शामिल मूल रचना की प्रस्तावना नहीं है. अगर कोई इन नजरियों को जायज मान भी ले तो यह मानना मुश्किल है कि उनको ऐसी शिद्दत के साथ और खारिज कर देने के लहजे में जाहिर करना जरूरी था. वास्तविकता ये है कि अरुंधति के भीतर के रचनात्मक लेखक ने पारंपरिक अर्थों में मूल रचना को नहीं बल्कि मूल पाठ पर गांधी की पत्रिका हरिजन में छपी गांधी की प्रतिक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर और गांधी के बीच विवाद को चुना. उन्होंने सोचा कि नीरस, मशीनी तरीके से विषय को उठाने के बजाए अगर वे आंबेडकर और गांधी के बीच विरोधाभास की मदद लेंगी तो वे जातियों की समस्या को कहीं ज्यादा कारगर तरीके से पेश कर पाएंगी क्योंकि गांधी उदार हिंदू समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक काबिलियत का सवाल है, हालांकि अरुंधति जिस विषय के बारे में लिख रही थीं, उसे समझने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन उनके लेख में उनकी शैली की मांग के मुताबिक, आमफहम समझदारी से परे जाकर किसी विशेषज्ञता की तड़क-भड़क नहीं दिखी है. और शायद इसीलिए, उनका निबंध आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करेगा बजाए तथाकथित बुद्धिजीवियों के.


हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंटके 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर 'अन्य'बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देना का मतलब होगा कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर खींचते हुए उसे बुरी तरह नुकसान पहुंचाएगा.

आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को 'जाति विरोधी'बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.


आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ रही है तो इससे लाजिमी तौर पर यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि जाति-विरोधी सदाचार भी बढ़ रहा है. आज आंबेडकर आम स्वीकार्यता के मामले में किसी भी दूसरे नेता से यकीनन कहीं आगे निकल गए हैं. कोई भी दूसरा नेता प्रतिमाओं, तस्वीरों, सभाओं, किताबों, शोध, संगठनों, गीतों या लोकप्रियता की दूसरी सभी निशानियों के मामले में आंबेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता. दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों तक में उनकी तस्वीर स्थायी जगह पाने लगी है. हालांकि जातीय भेदभाव, जातीय उत्पीड़न, जातीय संगठनों और जातीय विमर्श आदि से जो बात साफ होती है, ये है कि आंबेडकर की स्वीकार्यता के समांतर जातिवाद का हमला भी बढ़ता गया है. इस अजीब रूप से विरोधाभासी परिघटना को केवल तभी समझा जा सकता है, जब वास्तविक आंबेडकर को अवास्तविक आंबेडकर से जुदा किया जाए. उस अवास्तविक आंबेडकर को, जिसे निहित स्वार्थों ने प्रतीकों में बदल दिया है, ताकि दलित जनता में पैदा होने वाली क्रांतिकारी बदलाव की चेतना को कुंद किया जा सके. ये प्रतीक वास्तविक और गूढ़ आंबेडकर को एक सरलीकृत प्रतीक में बदल देते हैं: संविधान का निर्माता, महान राष्ट्रवादी, आरक्षण का जन्मदाता, एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी, एक उदारवादी जनवादी, संसदीय व्यवस्था का एक महान हिमायती, दलितों का मसीहा, एक बोधिसत्व आदि. एक हानिरहित, यथास्थितिवादी आंबेडकर के ये प्रतीक हर जगह छा गए हैं और इन्होंने वास्तविक आंबेडकर को क्रांतिकारी तरीके से देखने की संभावनाओं की राह में रुकावट खड़ी कर दी है.

कौन से आंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 1940 के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने विरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंनेस्टेट्स एंड माइनॉरिटीजलिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.


इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.


लेकिन आधार के खिलाफ खामोश हैं कारपोरेट के खिलाफ जिहादी केजरीवाल? जनांदोलनों के चेहरे तो हैं,उनके मुद्दे सिर से गायब क्यों हैं?

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लेकिन आधार के खिलाफ खामोश हैं कारपोरेट के  खिलाफ जिहादी केजरीवाल?

जनांदोलनों के चेहरे तो हैं,उनके मुद्दे सिर से गायब क्यों हैं?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



क्या सच में केजरीवाल में है इतना दम है कि वे इस चुनाव में वाकई महत्वपूर्ण किरदार निभा पायेंगे? जिस तरह से उन्हें दिल्ली का मुख्यमत्री पद छोड़ना पडा,उससे उनकी राजनीतिक साख को बट्टा लग गया है तो दूसरी ओर उन्होंने भ्रष्टाचा के मसले उठाते हुए कारपोरेट राज को बेपर्दा करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में सवाल तो उठा दिया लेकिन कायदे से वे आर्थिक सुधारों के बारे में, विनिवेश और विदेशी पूंजी निवेश के जरिये बेदखल हो गयी अर्थव्यवस्था के बारे में मौन साध रखा है।


जनांदोलनों के तमाम चमकते चेहरे आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। यह निश्चय ही भारतीय राजनीति में निर्णायक मोड़ है कि डूब देश के प्रवक्ता मेधा पाटेकर महानगर मुंबई से चुनाव मैदान में हैं तो बस्तर में आदिवासी अस्मिता का चेहरा सोनी चेहरा आप उम्मीदवार है। अब सवाल यह है कि उन मुद्दों के बारे में केजरीवाल खामोश क्यों हैं,जिन्हें लेकर ये तमाम आंदोलन होते रहे हैं।प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट पर चुनिंदा कंपनियों के खिलाफ आवाज उठाने से ही जल जंगल जमीन के हक हकूक बहाल नहीं हो जाते।जो लोग आप के मोर्चे से देश में आम आदमी का राज कायम करना चाहते हैं, उनके सरोकार पर भी वही सवाल उठाये जाने चाहिए जो अस्मिता राजनीति के झंडेवरदारों के खिलाफ उठाये जा रहे हैं। उनके उन बुनियादी मुद्दों पर उस आम आदमी पार्टी का क्या कार्यक्रम है,इसका तो खुलासा होना चाहिए।


बतौर दिल्ली के मुख्यमंत्री नागरिक और मानवाधिकार बहाल करने में अरविंद ने क्या कुछ पल की,उससे उनकी रुझान के बारे में अंदाजा मिल सकता है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के मातहत करने की उनकी जंग को नाजायज नहीं कहा जा सकता। इस लड़ाई में दिल्ली की जनता भी उनके साथ खड़ी थी।सड़क पर जब वे अराजकता का नारा बुलंद कर रहे थे, तब भी मीडिया और राजनीति में हंगामा बरप जाने के साथ कारपोरेट समर्थन सिरे से गायब हो जाने के बाद भी जनता उनके साथ खड़ी थी।जबकि बिजली पानी की समस्याएं दूर करने की कोई स्थाई पहल नहीं की उन्होंने,सब्सिडी मार्फत वाहवाही लूटने की कोशिश ही की।जाहिर सी बात है कि मौजूदा हालात में वे लोकपाल बिल दिल्ली विधानसभा से समर्थक कांग्रेस के प्रबल विरोध के बावजूद किसी भी सूरत में पास नहीं करा सकते थे। कारपोरेट कंपनियों के खिलाफ एफआईआर तो उन्होंने दर्ज करा दी लेकिन सरकार छोड़ कर भाग जाने से वह लड़ाई भी अधूरी रह गयी।


सबसे बड़ा करिश्मा केजरीवाल कारपोरेट आधार परियोजना को रद्द करने की मांग करके कर सकते थे।पहले ही बंगाल विधानसभा ने आधारविरोधी प्रस्ताव पास किया हुआ था, दिल्ली विधानसभा में हालांकि ऐसे किसी प्रस्ताव की गुंजाइश ती नहीं,लेकिन वे मांग  तो कर ही सकता थे।तेल और गैस घोटाले में रिलायंस के खिलाफ जिहाद करने वाले अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद जारी अाधार अभियान पर कोई ऐतराज नहीं है,बाकी आईटी कंपनियों के मुकाबले इंफोसिस की अबाध उड़ान में उन्हें कोई भ्रष्टाचार नजर नहीं आया,बिना संसदीय अनुमोदन के जरुरी सेवाओं के लिए आधार की बायमैट्रिक अनिवार्यता से उन्हें नागरिक और मानवादिकार हनन का कोई मामला नहीं दिखा, यह अचरज की बात है। तो अगर उनकी रिलायंस विरोधी जंग को कारपोरेट कंपनियों की अंदरुनी लड़ाई मान लिया जाये,इसके लिए केजरीवाल किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते।


ईमानदारी की बात तो यह थी कि दिल्ली को अनाथ छोड़ने के बजाय वे लोकसभा चुनाव दिल्ली से ही लड़ते और मैदान में डटे रहते।दूसरे राजनेताओं की तरह महज हंगामा खड़ा करने के लिए काशी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा होकर साझा उम्मीदवार के विक्लप को खत्म नहीं करते।अब तो वे यह भी कहने लगे हैं कि गैस की कीमतें कम कर दी जाये तो वे भाजपा का समर्थन भी कर सकते हैं।ठीक यही सौदेबाजी अस्मिता राजनीति भी कर रही है। मान लीजिये, अगर साढ़े तीन सौ से ज्यादा सीटों पर लड़कर पंद्रह बीस सीटें आप निकाल लें तो बहुमत से पीछे रह जाने वाली भाजपा किसी भी कीमत पर जनाजदेश अपने हक में करने की गरज में उनकी हर शर्त मान लें तो क्या वे राजग खेमे में नजर आयेंगे पासवान,उदितराज से लेकर मायावती,जयलिलता,नवीनपटनायक,चंद्रबाबू नायडू,शरद पवार, मुलायम और लालू के साथ,यह बड़ा सवाल है।तो आप किस परिवर्तन की बात कर रहे हैं। राजनीतिक जमीनतैयार किये बिना कहीं से भी किसी को भी चुनाव मैदान में उतारकर किस तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप करने जा रहे हैं केजरीवाल,यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।


मसलन बंगाल में कोलकाता,बैरकपुर और रायगंज में जिन उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया है आपने,बंगाल में कोई उन्हें नहीं जानता।न बंगाल में आप का संगठन है।मई तक कितने और उम्मीदवार आप के बंगाल से होंगे,यह पहेली बनी हुई है।


तीन दलित राम बने भाजपा के हनुमान: आनंद तेलतुंबड़े

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तीन दलित राम बने भाजपा के हनुमान: आनंद तेलतुंबड़े

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/06/2014 04:07:00 PM



चुनाव के मौसम में जिस तरह मौकापरस्त गठबंधनों को वंचित और दलित जनता के हितों की पैरोकारी का नाम दिया जाता है, उसमें आनंद तेलतुंबड़े का यह नया लेख पढ़ना दिलचस्प है. अनुवाद: रेयाज उल हक

बाबासाहेब आंबेडकर का झंडा ढोने का दावा करने वाले तीन दलित रामों ने - रामदास आठवले, राम विलास पासवान और राम राज (हालांकि उन्होंने कुछ साल पहले अपना नाम बदल कर उदित राज कर लिया था), सत्ता के टुकड़ों की आस में पूरी बेशर्मी से रेंगते हुए अपनी ठेलागाड़ी को भाजपा के रथ के साथ जोत दिया है. इनमें से पासवान 1996 से 2009 तक अनेक प्रधानमंत्रियों – अटल बिहारी बाजपेयी, एचडी देवेगौड़ा, आईके गुजराल और मनमोहन सिंह - के नेतृत्व में बनने वाली हरेक सरकार में केंद्रीय मंत्री (रेलवे, संचार, सूचना तकनीक, खनन, इस्पाद, रसायन एवं उर्वरक) रहे और उन्होंने खुद को एक घाघ खिलाड़ी साबित किया है. उनको छोड़ कर बाकी के दोनों राम हाल हाल तक भाजपा के सांप्रदायिक चरित्र के खिलाफ गला फाड़ कर चिल्लाते रहे थे. आठवले की रीढ़विहीनता तब उजागर हुई जब केंद्र में मंत्री बनने की उनकी बेहिसाब हसरत पूरी नहीं हुई और 2009 के लोकसभा चुनावों में वे हार गए. उन्होंने कांग्रेस के अपने सरपरस्तों पर अपने 'अपमान'का इल्जाम लगाना शुरू किया, जिन्होंने उन्हें सिद्धार्थ विहार के गंदे से कमरे से उठा कर महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री के रूप में सह्याद्रि के एयरकंडीशंड सूइट में बिठाया था. लेकिन कम से कम डॉ. उदित राज (हां, उन्होंने प्रतिष्ठित बाइबल कॉलेज एंड सेमिनरी, कोटा, राजस्थान से डॉक्टरेट किया था!)  ने जिस तरह से अपने भाजपा-विरोधी तर्कसंगत रुख से कलाबाजी खाई है, वह हैरान कर देने वाला है.

एक मायने में, भारतीय लोकतंत्र के पतन को देखते हुए, दलित नेतृत्व की ऐसी मौकापरस्त कलाबाजियां किसी को हैरान नहीं करती हैं. आखिरकार हर कोई ऐसा ही कर रहा है. तब अगर दलित नेता ऐसा करते हैं तो इसकी शिकायत क्यों की जाए? आखिरकार, उनमें से अनेक अब तक कांग्रेस में रहते आए हैं, तो अब वे भाजपा में जा रहे हैं तो इसमें कौन सी बड़ी बात है? हो सकता है कि भाजपा और कांग्रेस में बहुत थोड़ा ही फर्क हो, लेकिन असल में चिंतित होने की वजहें उनके पेशों और उनके बारे में जनता की अवधारणा में निहित हैं. कांग्रेस के उलट, भाजपा एक विचारधारा पर चलने वाली पार्टी है. इसका विचारधारात्मक आधार हिंदुत्व है, जिसमें शब्दों की कोई लफ्फाजी नहीं है, यह फासीवाद की विचारधारा है जिसे साफ तौर से आंबेडकर की विरोधी विचारधारा के रूप में देखा जा सकता है. हालांकि उपयोगिता भाजपा से भारत के संविधान के प्रति वफादारी की मांग करती है या फिर आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों को लुभाने की मांग करती है, लेकिन उनका विचारधारात्मक रवैया उन सबके खिलाफ है. इसलिए दलित नेताओं को आंबेडकर का जयगान गाते हुए उनके साथ गद्दारी करने की इस घटिया हरकत को देखकर गहरा दुख होता है.

आंबेडकर की विरासत

हालांकि आंबेडकर ने हिंदू धर्म में सुधारों के विचार के साथ शुरुआत की थी जिसका आधार उनका यह खयाल था कि जातियां, बंद वर्गों की व्यवस्था हैं [कास्ट्स इन इंडिया]. यह घेरेबंदी बहिर्विवाह और अंतर्विवाह के व्यवस्था के जरिए कायम रखी जाती है। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि अगर अंतर्विवाहों के जरिए इस व्यवस्था से मुक्ति पा ली गई तो इस घेरेबंदी में दरार पड़ जाएगी और जातियां वर्ग बन जाएंगी। इसलिए उनकी शुरुआती रणनीति यह बनी थी कि दलितों के संदर्भ में हिंदू समाज की बुराइयों को इस तरह उजागर किया जाए कि हिंदुओं के भीतर के प्रगतिशील तत्व सुधारों के लिए आगे आएं। महाड में उन्होंने ठीक यही कोशिश की है। हालांकि महाड में हुए कड़वे अनुभव से उन्होंने नतीजा निकाला कि हिंदू समाज में सुधार मुमकिन नहीं, क्योंकि इनकी जड़ें हिंदू धर्मशास्त्रों में गड़ी हुई थीं। तब उन्होंने सोचा कि इन धर्मशास्त्रों के पुर्जे उड़ाए बगैर जातियों का खात्मा नहीं होगा [एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट]। आखिर में, अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने वह तरीका अपनाया जो उनके विचारों के मुताबिक जातियों के खात्मे का तरीका था: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना वक्त बीत जाने के बाद, आज इस बात में कोई भी उनके विश्लेषण के तरीके की कमियों को आसानी से निकाल सकता है। लेकिन जातियों का खात्मा आंबेडकर की विरासत के केंद्र में बना रहा। इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया वह दलितों को सशक्त करने के लिए किया ताकि वे उस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष कर सकें, जो उनकी निगाह में 'स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे'को साकार करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट थी। चूंकि मार्क्सवादियों के उलट वे यह नहीं मानते थे कि इतिहास किसी तर्क के आधार पर विकसित होता है, कि इसकी गति को कोई नियम नियंत्रित करता है, इसलिए उन्होंने वह पद्धति अपनाई जिसे व्यवहारवाद कहा जाता है। इसमें उनपर कोलंबिया में उनके अध्यापक जॉन डिवी का असर था।

व्यवहारवाद एक ऐसा नजरिया है जो सिद्धांतों या विश्वासों का मूल्यांकन, व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करने में मिली कामयाबी के आधार पर करता है। यह किसी विचारधारात्मक नजरिए को नकारता है और सार्थकता, सच्चाई या मूल्य के निर्धारण में बुनियादी कसौटी के रूप में व्यावहारिक नतीजों पर जोर देता है. इसलिए यह मकसद की ईमानदारी और उसको अमल में लाने वाले के नैतिक आधार पर टिका होता है। आंबेडकर का संघर्ष इसकी मिसाल है। अगर इस आधार से समझौता कर लिया गया तो व्यवहारवाद का इस्तेमाल दुनिया में किसी भी चीज़ को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है। और आंबेडकर के बाद के आंदोलन में ठीक यही हुआ। दलित नेता'आंबेडकरवाद'या दलित हितों को आगे ले जाने के नाम पर अपना मतलब साधने में लगे रहे। भारत की राजनीति का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि एक बार अगर आप पैसा पा जाएं तो आप अपने साथ जनता का समर्थन होने का तमाशा खड़ा कर सकते हैं। एक बार यह घटिया सिलसिला शुरू हो जाए तो फिर इसमें से बाहर आना मुमकिन नहीं। इसी प्रक्रिया की बदौलत एक बारहवीं पास आठवले करोड़ों रुपए की संपत्ति जुटा सकता है, और उस आंबेडकर की विरासत का दावा कर सकता है जो बेमिसाल विद्वत्ता और दलितों-वंचितों के हितों के प्रति सर्वोच्च प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। करीब करीब यही बात दूसरे रामों और उनके जैसे राजनीतिक धंधेबाजों के बारे में भी कही जा सकती है। उनका सारा धंधा आंबेडकर और दलित हितों की तरक्की के नाम पर चलता है।

दलित हित क्या हैं?

अपने निजी मतलब को पूरा के लिए बेकरार ये सभी दलित हितों की पुकार मचाते हैं. दलित नेताओं में यह प्रवृत्ति तब भी थी जब आंबेडकर अभी मौजूद ही थे. तभी उन्होंने कांग्रेस को जलता हुआ घर बताते हुए उसमें शामिल होने के खिलाफ चेताया था. जब कांग्रेस ने महाराष्ट्र में यशवंत राव चह्वाण के जरिए दलित नेतृत्व को हथियाने का जाल फैलाया तो आंबेडकरी नेता उसमें जान-बूझ कर फंसते चले गए. बहाना यह था कि इससे वे दलित हितों की बेहतर सेवा कर पाएंगे. उन्होंने जनता को यह कहते हुए भी भरमाया कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ सहयोग किया था. भाजपा उस हजार चेहरों वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक धड़ा है, जो हिंदुत्व पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. उसने संस्कृति और धर्म का यह अजीब घालमेल जनता को भरमाने के लिए किया है. यह भाजपा अंबडकरियों के लिए सिर्फ एक अभिशाप ही हो सकती है. असल में अनेक वर्षों तक यह रही भी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आरएसएस ने समरसता (समानता नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य) का जाल दलित मछलियों को फंसाने के लिए फेंका और इसके बाद अपनी सख्त विचारधारा में थोड़ी ढील दी. दिलचस्प है कि दलित हितों के पैरोकार नेता, शासक वर्ग (और ऊंची जातियों) की इन पार्टियों को तो अपने ठिकाने के रूप में पाते हैं लेकिन वे कभी वामपंथी दलों पर विचार नहीं करते हैं, जो अपनी अनगिनत गलतियों के बावजूद उनके स्वाभाविक सहयोगी थे. इसकी वजह सिर्फ यह है कि वामपंथी दल उन्हें वह सब नहीं दे सके, जो भाजपा ने उन्हें दिया है.

तो फिर दलित हितों का वह कौन सा हौवा है, जिसके नाम पर ये लोग यह सारी करतब करते हैं? क्या वे यह जानते हैं कि 90 फीसदी दलितों की जिंदगी कैसी है? कि भूमिहीन मजदूरों, छोटे-हाशिए के किसानों, गांवों में कारीगरों और शहरों में झुग्गियों में रहने वाले ठेका मजदूरों और शहरी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टर में छोटे मोटे फेरीवाले की जिंदगी जीने वाले दलित किन संकटों का सामना करते हैं? यहां तक कि आंबेडकर ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में यह महसूस किया था और इस पर अफसोस जताया था कि वे उनके लिए कुछ नहीं कर सके. आंशिक भूमि सुधारों के पीछे की पूंजीवादी साजिशों और हरित क्रांति ने गांवों में पूंजीवादी संबंधों की पैठ बना दी, जिसमें दलितों के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं थे. इन कदमों का दलित जनता पर विनाशकारी असर पड़ा, जिनके तहत अंतर्निर्भरता की जजमानी परंपरा को नष्ट कर दिया गया. देहातों में पहले से कायम ऊंची जातियों के जमींदारों को बेदखल करके उनकी जगह लेने वाले, सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी शूद्र जातियों के धनी किसानों द्वारा क्रूर उत्पीड़न के लिए दलितों को बेसहारा छोड़ दिया. ब्राह्मणवाद का परचम अब उन्होंने अपने हाथों में ले लिया था. बीच के दशकों में आरक्षण ने उम्मीदें पैदा कीं, लेकिन वे जल्दी ही मुरझा गईं. जब तक दलितों को इसका अहसास होता कि उनके शहरी लाभान्वितों ने आरक्षणों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है, कि नवउदारवाद का हमला हुआ जिसने आरक्षणों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. हमारे राम इन सब कड़वी सच्चाइयों से बेपरवाह बने रहे और बल्कि उनमें से एक, उदित राज, ने तो आरक्षण के एक सूत्री एजेंडे के साथ एक अखिल भारतीय संगठन तब शुरू किया, जब वे वास्तव में खत्म हो चुके थे. जनता को आरक्षण के पीछे छिपी शासक वर्ग की साजिश को दिखाने के बजाए, वे शासक वर्ग की सेवा में इस झूठे आसरे को पालते-पोसते रहने को तरजीह देते हैं. क्या उन्हें यह नहीं पता कि 90 फीसदी दलितों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें जमीन चाहिए, सार्थक काम चाहिए, मुफ्त और उचित और बेहतर शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य की देखरेख चाहिए, उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जरूरी ढांचे चाहिए और जाति विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्था चाहिए. ये हैं दलितों के हित, और अफसोस इस बात है कि किसी दलित राम द्वारा उनकी दिशा में बढ़ना तक तो दूर, उनको जुबान तक पर नहीं लाया गया है.

भाजपाई राम के हनुमान

यह बात एक सच्चाई बनी हुई है कि ये राम दलित हितों के नाम पर सिर्फ अपना फायदा ही देखते हैं. उदित राज इनमें से सबसे ज्यादा जानकार हैं, अभी कल तक संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ हर तरह की आलोचनाएं करते आए हैं जो अगर कोई देखना चाहे तो उनकी किताब 'दलित्स एंड रिलिजियस फ्रीडम'में यह आलोचना भरी पड़ी है. उन्होंने मायावती को बेदखल करने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं और नाकाम रहने के बाद अब वे उस भाजपा की छांव में चले गए हैं, जो खुद उनके ही शब्दों में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है. दलितों के बीच उनकी जो कुछ भी थोड़ी बहुत साख थी, उसका फायदा भाजपा को दिलाने के लिए वे हनुमान की भूमिका अदा कर रहे हैं. दूसरे दोनों राम, पासवान और आठवले ने उदित राज के उलट भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने का फैसला किया है. वे दलितों में अपने छोटे-मोटे आधारों के बूते बेहतर सौदे पाने की कोशिश कर रहे हैं: पासवान को सात सीटें मिली हैं, जिनमें से तीन उनके अपने ही परिवार वालों को दी गई हैं, और आठवले को उनकी राज्य सभा सीट के अलावा एक सीट दी गई है. बीते हुए कल के कागजी बाघ आठवले नामदेव ढसाल के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जो बाल ठाकरे की गोद में जा गिरे थे. उस बाल ठाकरे की गोद में, जो आंबेडकर और आंबडेकरी दलितों से बेहद नफरत करता था. ये काबिल लोग अपने पुराने सहयोगियों द्वारा 'दलितों के अपमान' (अपने नहीं) को भाजपा के साथ हाथ मिलाने की वजह बताते हैं. आठवले का अपमान तब शुरू हुआ जब उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. उन्हें तब शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई जब उन्होंने दलितों द्वारा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के लिए दी गई भारी aकुर्बानी को नजरअंदाज कर दिया और विश्वविद्यालय के नाम को विस्तार दिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था. और न ही उन्हें तब शर्मिंदगी महसूस हुई जब उन्होंने दलित उत्पीड़न के अपराधियों के खिलाफ दायर मुकदमों को आनन-फानन में वापस ले लिया. ये तो महज कुछ उदारण हैं, पासवान और आठवले का पूरा कैरियर दलित हितों के साथ ऐसी ही गद्दारी से भरा हुआ है.

अब वे भाजपा के राम की सेवा करने वाले हनुमान की भूमिका निभाएंगे. लेकिन यह मौका है कि दलित उनके मुखौटों को नोच डालें और देख लें कि उनकी असली सूरत क्या है: एक घटिया बंदर!

बहस तलब : हमें अंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस अंबेडकर की?

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बहस तलब : हमें अंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस अंबेडकर की?

बहस तलब : हमें अंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस अंबेडकर की?



बहस तलबः `

इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, अंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी। लेकिन यह अंबेडकर उस पुराने अंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं। वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी। अंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुयी समस्या का सामना करने के लिये फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा।'

इन पंक्तियों पर खुली बहस के लिये यह आलेख है।

जाति उन्मूलन पर बाबासाहेब के लिखे एन्निहिलिशन आफ कास्ट आलेख पर मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना लिखने के अधिकार को चुनौती देते हए जेएनयू के मुक्ताचंल में आल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट यूनियन के बैनर के साथ दलितों के प्रवक्ता बने संगठन की ओर से नियमागिरि पर लिखे अरुंधति के आलेख का हवाला देते हुये कहा गया है कि उन आदिवासियों के लिये जैसे नियमागिरि पहाड़ पवित्र है, उसी तरह दलितों के लिये बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर भी पवित्र हैं, लिहाजा बेहतर हो कि अंबेडकर को दलितों के लिये ही सुरक्षित रख दिया जाये।

जैसे कि हमारे प्रबुद्ध मित्र विद्याभूषण रावत ने हस्तक्षेप में साफ-साफ लिखा है कि अरुंधति के लिखे पर तमाम दलित प्रतिक्रयाक्रियाएं दरअसल विषयांतर है, हमारा भी मानना है कि अरुंधति के लिखने से हिन्दुत्व के निष्कासन सिद्धांत के तहत बाबासाहेब की पवित्रता भंग नहीं हुयी है।

बाबा साहब ने दरअसल जाति तोड़ो सवर्ण संगठन को संबोधित यह वक्तव्य जो दिया ही नहीं जा सका, को आलेख बतौर प्रकाशित किया, जिस पर उनके प्रबल विरोधी और मनुस्मृति के प्रवक्ता गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।

बाबासाहेब ने उस प्रतिक्रिया का भी समुचित प्रत्युत्तर दिया है। जाहिर है कि बाबासाहेब असहमति और विरोध के बावजूद संवाद से परहेज नहीं करते थे।

रावतभाई ने अपने आलेख का शीर्षक भी मौजूं रखा है-

Dissent is the essence of Ambedkarism

The issue is not whether she can write on Ambedkar or not। No one can stop anyone to write on a public figure and his or her work। A few of them said that none had brought this great work to international people and hence if Navayana is doing so we should complement him।

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http://www.hastakshep.com/english/opinion/2014/03/27/dissent-is-the-essence-of-ambedkarism

विद्याभूषणजी का आलेख गौर से पढ़ना जरूरी है। हालांकि उन्होंने यह जो लिखा कि अंबेडकर के लिखे पर किसी नयी प्रस्तावना की जरूरत नहीं है, इससे हम असहमत हैं।

जब बाबासाहेब ने यह आलेख लिखा था, तब परिस्थितियां भिन्न थीं, अब लेकिन परिस्थितियां एकदम बदल गयी हैं और जाति व्यवस्था को मजबूती देने में दलितों और बहुजनों की आत्मघाती भूमिका सवर्ण वर्चस्व के स्थाई बंदोबस्त को ही बहाल करने में लगी हैं।

इसी बीच आनंद तेलतुंबड़े जो संजोग से दलित भी हैं, अरुंधति के आउटलुक में लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक आलेख अंग्रेजी में लिखा है, जो दैनिक हिंदू में प्रकाशित भी हो गया। इस आलेख को जाति उन्मूलन सम्बंधी प्रस्तावना में हो रहे विवाद की पृष्ठभूमि में लिखा गया है, जिस पर हमने आनंद के कहने पर अंग्रेजी में एक मंतव्य भी लिखा है।

अब हमारे मित्र रियाज उल हक ने हिंदी में आनंद का यह आलेख पोस्ट कर दिया है। हिंदी के पाठक इसे पढ़ सकते हैं और कम से कम आनंद के विशेषाधिकार पर दलित युक्ति से सवाल खड़ा करने की गुंजाइश नहीं है।

आनंद ने अरुंधति को भी बख्शा नहीं है। जैसे रावत ने मुद्दों पर बात की है, उसी बहस को आगे बढ़ाते हुये अंबेडकर को आइकन बतौर पेश करने की सत्तावर्गीय प्रवृत्ति को चिन्हित भी किया है तेलतुंबड़े ने। हमारी उनसे इस आलेख पर इसके हिंदू में प्रकाशन से पहले और बाद में लगातार इन मुद्दों पर  बातचीत होती रही है और इस मंतव्य को लिखने से पहले भी हमने उनसे बात कर ली है।

इस आलेख में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल आनंद ने उठाया है वह अंबेडकर के अंधा अनुकरण के विरुद्ध है,जिसे अरुंधति भी जाने अनजाने गौरवान्वित कर रही हैं।

हम राष्ट्र के वर्तमान चरित्र, बहुआयामी सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के उपनिवेश बने भारत में बहुजनों के नरसंहारी आयोजन के ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार सम्बंधी विश्लेषण के लिये अरुंधति के विश्लेषण को महत्वपूर्ण योगदान माना है और इस पर बहस की जरूरत भी बतायी है लेकिन अंबेडकर की प्रासंगिकता पर उनके लिखे से पूरी तरह सहमत हम भी नहीं है।

बेहतर होता कि फारवर्ड प्रेस, एआईबीएसएफ और दूसरे आलोचक रावत की तरह असहमति के बिंदुओ पर बहस को केन्द्रित करते।

 आनंद ने साफ साफ लिखा हैः

अंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था। एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुयी है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी। इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी। किसी भी प्रकाशक के लिये यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुँहमाँगी मुराद है। भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद सम्बंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है। खुद को 'जाति विरोधी' बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं। अंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है। कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाये तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गयी हैं। अंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है।

इसी भक्तिभाव और अंध श्रद्धा ने बाबासाहेब को या तो बोधिसत्व बना दिया है या फिर उनको मूर्तिबद्ध बना दिया है। गौतम बुद्ध बुनियादी तौर पर विश्व के पहली रक्तहीन क्रांति के जनक हैं जिन्होंने वर्ण व्यवस्था के वैदिकी निरंतरता का अवसान करते हुये सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है।

बौद्धमय भारत के अवसान के बाद प्रतिक्रांति बजरिये जाति व्यवस्था के स्थाई बंदोबस्त से लेकर मुक्त बाजार के क्रोनी पूँजी वर्चस्व वाले एकाधिकारवादी कॉरपोरेट राज में तब्दील होने के बावजूद भारत और बाकी विश्व में गौतम बुद्ध के धम्म,पंचशील, समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत अप्रासंगिक नहीं हुआ है और न उनका किसी भी सूरत में अवमूल्यन उसी तरह संभव नहीं है जैसे फ्रांसीसी क्रांति, रंगभेद के खिलाफ अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता संग्राम, इंग्लैंड की रक्तहीन क्रांति,यूनान में कुलीनतंत्र के खिलाफ गुलामों का विद्रोह, रूस और चीन की क्रांतियां।

दुनिया रोज बनती है और दुनिया रोज बदलती है लेकिन इतिहास और इतिहास बोध भौगोलिक राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक बदलावों के मध्य शाश्वत मूल्य हैं, जिनके बिना हम एक कदम तक आगे नहीं बढ़ सकते।

मसलन मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों, दर्शन और उनके धर्म कर्म से हमें घनघोर आपत्ति हो सकती है, लेकिन इस सच से इंकार नही किया जा सकता कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक नेतृत्व कर रहे थे। कैसी स्वतंत्रता मिली और सत्ता हस्तांतरण के नतीजे क्या हैं, उन मुद्दों पर हम बहस जरूर कर सकते हैं।

हम बार बार भारतीय सांप्रतिक इतिहास के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गांधी की सकारात्मक भूमिकाओं को आज के राजनीतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में तौल रहे हैं, लेकिन उनकी नकारात्मक राजनीति और उनकी भूलों को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।

आपातकाल और आपरेशन ब्लू स्टार का हम कतई समर्थन नही कर सकते। तो गुजरात नरसंहार के बावजूद वाजपेयी की निष्क्रियता और राममंदिर आंदोलन जरिये कमंडल राजनीति में वाजपेयी की भूमिका, आर्थिक सुधार अभियान की निरंतरता बनाये रखने के साथ हिन्दुत्ववादी राजकाज की वाजपेयी की गृहनीति का भी हम लगातार विरोध करते रहे हैं।

इन आपत्तियों और असहमतियों के बावजूद उनकी भूमिकाओं को हम सिरे से खारिज नहीं कर सकते।

बाबासाहेब अंबेडकर न ईश्वर थे और न हिन्दुत्व को जाति व्यवस्था के कारण खारिज करके अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म दीक्षित होने के बावजूद बोधिसत्व भी नहीं थे।

बाबासाहेब अंबेडकर बहुजन मूक भारत की मुक्तिकामी आकांक्षाओं के अब तक की सबसे प्रबल अभिव्यक्ति हैं। लेकिन मुक्ति प्रसंग पर चर्चा किये बिना हम उनकी भूमिका की जाँच पड़ताल कर ही नहीं सकते।

बाबासाहेब अंबेडकर रक्तमाँस के जीते जागते इंसान थे। उनके विचार और अवस्थान भी समय समय पर बदलते या विकसित होते रहे हैं। बाबासाहेब अंबेडकर चेतना के प्रतीक हैं न कि जड़ता के। अपने समय और समाज को संबोधित करते हुये भिन्न अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ 1947 से पहले और बाद उन्होने जो लिखा,उनके मायने अब बदले हालात में सिरे से बदल गये हैं लेकिन अस्पृश्यता और नस्लीभेदभाव वाले वर्णवर्चस्वी एकाधिकारवादी मनुस्मृति व्यवस्था बदलने के बदले मुक्त बाजार और कॉरपोरेट राज में और ज्यादा मजबूत हो गयी है।

इसी सदर्भ में अरुंधति के लेखन पर गौर न करके हम सामाजिक और सांप्रतिक यथार्थ से मुंह ही चुरा रहे हैं।

न हम और तेलतुंबड़े अरुंधति का गौरवान्वयन कर रहे हैं और न उनका बचाव। वे बेहतरीन लेखिका हैं और अपना बचाव वे बखूब कर सकती हैं। वे सही हैं या गलतबहस इस पर भी नहीं केंद्रित होना चाहिए। बहस उन मुद्दों पर जरूर होनी चाहिए जो उन्होंने उठाये हैं।

खास बात तो यह है कि जो लोग दावा यह कर रहे हैं कि दलितों को, माफ कीजिये बहुजनों और गैरदलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के भी नही, हैं डॉ. भीमराव अंबेडकर, उन्हें शायद इस सच का सामना करने की हिम्मत भी नहीं है कि सत्तावर्ग ने उन्हें सिरे से अंबेडकर से बेदखल कर दिया है।

कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर भी मुक्त बाजार में उतने ही कमोडिटी हैं जितने कॉरपोरेट हिन्दुत्व के सुपरमाडल नरेंद्र मोदी। कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर और अंबेडकर के अनुयायी अब पूरी तरह सत्तावर्ग के कब्जे में हैं। कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर की भी ब्राण्डिंग हो गयी है और हम अंबेडकर नहीं, ब्राण्डेड अंबेडकर के अनुयायी बनकर फासिस्ट कॉरपोरेट राज की पैदल सेनाएं हैं।

कटु सत्य तो यह है कि अंबेडकर के विचारों के मुताबिक अंबेडकरी आंदोलन का कोई वजूद है ही नहीं। न जाति उन्मूलन के बेसिक एजंडा के तहत समता और सामाजिक न्याय की किसी परिकल्पना का कोई अस्तित्व है।

कटुसत्य तो यह है कि सौदेबाजी के सिद्धांत के तहत जो सत्ता की चाबी में उलझा अंबेडकरी आंदोलन, वह सौदेबाजी सामाजिक न्याय और समता के साथ अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बँटवारे के नाम पर वर्णवर्चस्वी फासिस्ट तबके का शरणागत बना रही है भारतीय बहुजनों को।

कटुसत्य तो यह है कि इस अनंत वधस्थल पर हम वध्य हैं और अपनी गरदन बचाने के लिये उस तलवार से याचना कर रहे हैं अपने प्राणों की,जो खून से नहाकर ही अपनी धार तेज करती है और उसके इस चरित्र में कोई परिवर्तन हो नहीं सकता।

कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर के जिस संविधान पर हमें इतना गर्व है, वह वर्णवर्चस्वी बहुमत के संशोधित संविधान है और अंबेडकरी मसविदा का हूबहू अनुकरण नहीं है।

कटुसत्य तो यह है कि जिन मौलिक अधिकारों का प्रावधान है भारतीय संविधान में, उनका भी अस्तित्व खत्म है।

कटुसत्य तो यह है कि जिस लोकतंत्र की बुनियाद रखा बाबासाहेब ने, वह अब न सिर्फ मुक्त बाजार है, न सिर्फ छिनाल पूँजी वित्तीय लंपट आवारा अबाध पूँजी की कठपुतली है, न सिर्फ यह मुक्त बाजार है, न सिर्फ कृषि और कृषि समुदाय, प्रकृति और प्रकृति से जुड़े बहुजनों का कत्लगाह है यह, बल्कि जायनवादी कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश में तब्दील है।

कटुसत्य तो यह है कि जो कानून बनाये बाबासाहेब ने वे बदले जा चुके हैं और जो बाकी हैं, वे बदल दिये जायेंगे, जिस राजस्व प्रबंधन और संसाधन प्रबंधन की प्रस्तावना कर गये बाबा साहेब, उसके उलट सबकुछ हो रहा है, जो संवैधानिक रक्षाकवच बाबासाहेब ने बहुजनों के लिये सुनिश्चित किये, वे छिन्न भिन्न हैं और अस्पृश्य नस्ली भेदभाव के शिकार भूगोल में वह भारतीय संविधान अब सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून, आतंक निरोधक कानून,सलवा जुड़ुम जैसी रंग बिरंगी युद्धक कानूनों और अभियानों में तब्दील है, जहां न बाबासाहेब के लोकतंत्र, न लोक गणराज्य और न संविधान कभी लागू हुआ है।

कटुसत्य तो यह है कि जिस आरक्षण पर भारत में जनादेशनिर्मिति वास्ते वोटबैंक समीकरण है, ग्लोबीकरण ने उसे सिरे से अप्रासंगिक बना दिया है।

कटुसत्य तो यह है कि निजीकरण और प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश, ठेके पर नियुक्तिययों, अबाध पूँजी प्रवाह और शहरीकरण ने आरक्षण के कफन पर आखिरी कीले ठोंक दी है और हम मरी हुयी लाश की राजनीति कर रहे हैं।

कटुसत्य तो यह है कि बाबासाहेब की विचारधारा एटीएम में तब्दील है, जहां से जो जितना निकाल सकता है, निकाल रहा है और इस दौड़ में भी बहुजन कहीं हैं ही नहीं।

कटुसत्य तो यह है कि वह एटीएम भी अब शोषक  शासक तबकों और उनके चर्बीदार सिपाहसालारों के कब्जे में है।

इस बेदखली का एक ब्यौरा आनंद ने भी पेश किया हैः

हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर अंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गयी कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की माँग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें अंबेडकर को दलितों के लिये छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं। यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर 'अन्य'बता दिये गये लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है। अंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिये उनकी घेरेबंदी कर दिये जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुँचाना होगा। नियमगिरी को आदिवासियों के लिये छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि अंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देना का मतलब होगा कि यह बाबासाहेब अंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर खींचते हुये उसे बुरी तरह नुकसान पहुँचायेगा।

बुनियादी मुद्दे को तेलतुंबड़े ने सही सही रेखांकित किया है जो बहसतलब है लेकिन इसके पहले युवा कवि नित्यानंद गायेन की इनपंक्तियों पर पहले गौर करें-

चुम्बक जिसके सदा

दो कोने होते हैं

एक कोना

जो सदा आकर्षित करता है

और दूसरा

जो अलग करता है

समान कोने वालों को

मतलब कुछ तो सन्देश देता है

मैगनेट की आकर्षण शक्ति

कि अपने विपरीत विचारधारा वाले का

स्वागत करनी चाहिए हमें

बहुत पहले जान लिया था इस विचार को

संत कबीर ने

जबकि तब कहीं किसी को पता नहीं था

चुम्बक के बारे में

किन्तु आज ऐसा होता नहीं

जबकि हम घिरे हुये हैं चुम्बकों से

और करते हैं एक दम उल्टा

चुम्बक के सिद्धांत के विरुद्ध व्यवहार

हम खोजते हैं

अपने जैसे विचारधारा वालों को …..

-नित्यानन्द गायेन

कौन से अंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिये जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, अंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण अंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है। युवा अंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है। उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके। उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के अंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिये राजनीति का रुख कर लिया था। क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिये थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिये थी? 1930 के दशक के अंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की। यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी। तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गये लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिये किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया। 1940 के दशक के अंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की। उन्होंने विरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुये। या वे अंबेडकर जिन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज लिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गयी। कांग्रेस के सख्त विरोधी अंबेडकर या वे अंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुये कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिये जिनका समर्थन हासिल किया। वे अंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुये तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे अंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है। वे अंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिये सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे अंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे। वे अंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे अंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, अंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे अंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुये कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे। उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था। ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो अंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं। अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाये उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा।

यदि आप भी उक्त आलेख पर बहस में हिस्सा लेना जाहते हैं तो अपनी प्रतिक्रिया amalendu.upadhyay(at)gmail.com पर भेज दें। प्रतिक्रिया के साथ अपना चित्र, संपर्क व परिचय भी भेजें।

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