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गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

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गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।

पलाश विश्वास

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।


वे वयोवृद्ध हैं और घटनाक्रम को हूबहू याद नहीं कर सकते।वे लेकिन हमारे मुद्दों को भूले नहीं हैं।पैंतीस साल बाद उन्होंन हमें पहली नजर से पहचान लिया और सारे नारके उन्हें याद हैं।


हम उन परिणामों को खंगालने में अभ्यस्त और दक्ष हैं,जिन्हें हम बदल नहीं सकते।हम उन कारणों और मुद्दों को संबोधित करने के मिजाज में कभी नहीं होते,जिन्हें हम अइपना कर्मफल बताते अघाते नहीं हैं।ङम वे आस्थावान धार्मिक लोग हैं ,अधर्म और अनास्था जिनका जन्मसिद्ध अधिकार है।


दिवाली के बाद आज पहलीबार आनलाइन होने का मौका मिला है।


पहलीबार अपने गांव में,अपने जनपद में और अपने राज्य में मुझे खुद  को अवांछित अजनबी जैसा महसूस हुआ।


पहलीबार मैं अपने कस्बों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक खोजता रहा अपनों को ,कहीं कोई मिला ही नहीं।


जो मिला वह हमें हमारी क्रयशक्ति से तौलने में लगा रहा।ऩ अपनापा और न कोई सम्मान।


पहलीबार मुझे अपने पिता कूी मूर्ति से खून चूंती  नजर आयी और पहलीबार मुझे लगा कि इस सीमेंट के जंगल में मेरे पिता समेत हमारे किसी भी पुरखे के लिए कोई जगह नहीं है।


पहलीबार मुझे लगा कि मेरे पिता को भी एटीएम बना दिया गया है और उनके नाम से करोड़पति बन रहे लोगों की जनविरोधी हरकतों के मुकाबले मेरे पास कोई हथियार नहीं है।


पहलीबार लगा कि गौरादेवी और सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको की आड़ में लोगों ने अपने अपने घर भर लिए और बेच दी तराई,नदियां बेच दीं,बेच दिये जंगल, बेच दिये पहाड़।


राजीव नयन बहुगुणा और हम इसे रोक भी नहीं सकते।तराई और पहाड़ को बनाने वालों की संतान संततियों का यह वर्तमान है और भविष्य भी यहीं।देश को बनाने वालों,बचानेवालों का भी हश्र यही।


पहलीबार लगा कि हमारे गिरदा की भी ब्रांडिंग होने लगी है।


हमारे पुरखों,हमारे सहयोद्धाओं के संघर्ष की विरासत से भी हम अपनी जमीन,आजीविका ,कारोबार,जल,जंगल,नागरिकता और मनुष्यता की तरह बेदखल हो रहे हैं और हमारी संवेदनाएं अब कंप्य़ूटरों के साफ्टवेअर हैं या फिर एंड्रोयड मोबाइल के ऐप्पस।


पहलीबार लगा कि हमारी सामाजिक संरचना,हमारी सभ्यता और हमारी मातृभाषा और संस्कृति बेदखल खुदरा बाजार की ईटेलिंग हैं।


पहलीबार लगा कि वरनम वन अब सीमेंट का जंगल है जहां चप्पे चप्पे पर कैसिनोदंगल है।जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।


पहलीबार लगा कि इस गांव में,इस जनपद में हमारी कोई जगह नहीं है और महानगरों से हमारी वापसी नामुमकिन है


हम इसी परिदृश्य में पर्यावरण सेनानी सुंदर लाल बहुगुणा से मिलने उनके बेटी के घधर देहरादून चले गये ताकि पर्यावरण और कृषि के भूले बिसरे मुद्दों पर उनके नजरिये के मुताबिक फिर एक और प्रतिरोध का विमर्श शुरु हो।


बसंतीपुर से लेकर बिजनौर,नैनीताल से लेकर नई दिल्ली में हमारी बेटियों,बहुओं और माताओं ने अपनी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों से मुझे बार बार चौंकाया है,हम आहिस्ते आहिस्ते उनके बारे में भी लिखेंगे।


नैनीताल,रूद्रपुर, बिजनौर,देहरादून होकर आज दोपहर ढाई बजे कश्मीरी गेट उतरा।


इसबार बहन वीणा या भाई अरुण के यहां जाने के बजाये सीधे प्रगति विहार हास्टल के बी ब्लाक में राजीव के नये डेरे पर चला आया।


राजीव पहले ही कोलकाता से तंबू उखाड़कर दिल्ली में विराजमान है तो बच्चे भी अब दिल्लीवाले हो गये ठैरे।


गोलू और पृथू जी के पीसी पर काबिज हूं।


कल दोेस्तों से मुलाकात के अलावा वीरेनदा से मिलना है और परसो फिर वही दुरंते कोलकाता।फिर बची खुची नौकरी चाकरी।


दिल्ली आकर पीसी पर बैठने से बहले कोलकाता से आनंद तेलतुंबड़े जी का फोन आया कि पिता के निधन की वजह से वे मुंबई में थे। इसीलिए संपर्क में नहीं थे।इस बीच कई बार बीच बहस में बतौर व्याख्य़ा आनंदजी से संपर्क साधने की कोशश भी करता रहा,संभव नहीं हुआ,क्यों, आज जाना।


सीनियर तेलतुंबड़े जी लंबे अरसे से बीमार चलस रहे थे। लेकिन उनका इस तरह जाना बेहद खराब लग रहा है।उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।


हम सविता के मायके से बिजनौर होकर दिल्ली पहुंचे। उनका मायका धर्मनगरी स्वर्गीय धर्मवीर जी का गांव है जिसकी जमीने गंगा के बांध में शामिल हैं।गंगा बैराज संजोग से देश के सबसे समृद्ध कृषि जनपदों मेरठ और मुजफ्फरनगर जिलों को भी धर्मनगरी के सिरे से जोड़ता है।


इसी बिंदू पर जब भी मैं सविता के यहां आता हूं इन तीन जिलों के किसी भी कृषि वैतज्ञानिक के मुकाबले खेती के ज्यादा जानकार किसानों के व्यवहारिक ज्ञान के मुखातिब होता हूं।


सविता का भतीजा रथींद्र विज्ञान का छात्र रहा है।खेती बाड़ी करता है और पंचायत प्रधान भी रहा है।उससे और उसके साथियों से हमारी फसलों ,बीज,जीएम सीड्स,कीटनाशकों,उर्वरकों से लेकर इस क्षेत्र में जीवनचक्र जैव प्रणाली और खादर में पाये जाने वाले हरे एनाकोंडा सांपों के बारे में भी चर्चा हुई।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने आधुनिकता को अपनाया है लेकिन हरित क्रांति का अंधानुकरण नहीं किया है।उन्हें बाजार के हितों और खेती की विरासत के बीच केे संबंधों को साधने की कला आती है।


इसी इलाके में बासमती शरबती,हंसराज,तिलक जैसे देशी धान की खेती अब भी होती है और यहां के किसानों अपने बीजों की विरासत की विविधता मौलिकता छोड़ी नहीं है,यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात है।उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल की दक्षता भी उनकी हैरतअंगेज है।


इस बार की यात्रा के दौरान बसंतीपुर से लेकर तराई और पहाड़ के मौजूदा हालात के विचित्र किस्म के अनुभव भी हुए तो देहरादून में मौलिक पर्यावरण आंदोलनकारी व वैज्ञैनिक परम आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा ने करीब 35 साल के बाद हुई मुलाकात के बाद भी मुझे पहचान लिया और घंटों सविता और मुझसे इस अंतरंगता से बात की कि मैंने राजीवनयन को कहा कि वे सिर्फ तुम्हारे ही नहीं हमारे भी बाबूजी हैं।


हमने जो उत्तराखंड,उत्तरप्रदेश और दिल्ली में हाल फिलहाल महसूस किया और बाकी देश के अलग अलग हिस्सों में भारतीय मुक्त बाजार में बेदखल जल जंगल जमीन पर्यावरण और मनुष्यता के बारे में महसूस करते रहे, उसे सुंदर लाल बहुगुणा जी ने हैरतअंगेज ढंग से रेखांकित किया है।


हम सोच रहे थे कि राजीवनयन दाज्यू के पास रिकार्डिंग की व्यवस्था होगी जो थी नहीं,इसके अलावा विमला जी के साथ जुगलबंदी में भारतीय कृषिनिर्भर पर्यावरण और अर्थव्यवस्था और ग्लोबल जलवायु पर्यावरण मुद्दों पर जो सुलझे विचार उन्होंने व्यक्त किये,उसवक्त राजीव नयन दाज्यू मौके पर हाजिर ही न थे।


नतीजा यह हुआ कि मोबाइल मामले में अनाड़ी हमने जो भी रिकार्ड करने की कोशिश की,रथींद्र ने बताया कि वह कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ।लेकिन हमारे दिलोदिमाग पर वे बातें अब पत्थर की लकीरें हैं।


जैसे सुंदरलाल जी ने कहा कि हिमालय में भूमि उपयोग के तौर तरीके बदले बिना इस उपमहादेश में भयंकर जलसंकट होने जा रहा है,जिसका असर पूरी दुनिया पर होगा।


हम इन मुद्दों पर गंभीरता से सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।


हमने हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा को जिसतरह पथरीले जमीन में तब्दील होते महसूस किया,जैसे रामगंगी की हालत देखी धामपुर के पास,जैसे यमुना नदी को दिल्ली में ररते सड़ते हुए महसूस किया,वह पुरानी टिहरी के बांद में दम तोड़ते देखने या जलप्रलय की चपेट में केदार में लाशों का पहाड़ दरकना देखने से कम भयावह नहीं है।


जो बेहिसाब निर्माण और जमीन डकैती सर्वत्र जारी है,जो निरंकुश प्रोमोटर बिल्डर राज तराई,पहाड़.पश्चिम उत्तर प्रदेश और पराजधानी नई दिल्ली में भी देखा है,वह भारतीय कृषि,भारतीय अर्थव्यवस्था, देशज कारोबार,उद्योग धंधे,मातृभाषा,शिक्षा,संस्कृति और सभ्यता की मृत्युगाथा है।


अनाकोंडा सिर्फ लातिन अमेरिका में नहीं होते।


अनाकोंडा शुक्रताल से लेकर गंगा के खादर क्षेत्र में भी होते हैं।हरे रंग के वे अनाकोंडा उतने ही खतरनाक हैं जितने अमाजेन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग और अमेजन की सर्प संस्कृति।


अनाकोंडा परिवार यह लेकिन हमारी हरित क्रांति है।


भारतीय अनाकोंडा भी हरे हरे होते हैं और गंगा की गहराइयों में अनाकोंडा के इस बसेरे पर नेशनल जियोग्राफी,वाइल्ड लाइफ और डिस्कावरी में भी चर्चा नहीं होती।


पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों को लेकिन इन हरे अनाकोंडाओं के बारे मेँ खूब मालूम है  और उन्होंने तराई,पहाड़ और बाकी देश की तरह कृषि की हत्या में अब भी कोई भूमिका निभाने से इंकार के तेवर में हैं।


अपने खेत छोड़़ने को अब भी वे तैयार नहीं है और खेती की खातिर वे राजधानी दिल्ली का कभी भी घेराव कर सकते हैं।


हम खाप पंचायतों के मर्दवादी तेवर का किसी भी तरीके से समर्थन या महिमामंडन नहीं कर सकते लेकिन खेतों खलिहानों के हक हकूक की लड़ाई में इन खाप पंचायतों की सामाजिक क्रांति को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते।


उऩके इस खाप पंचायती तेवर को आप चाहे कुछ भी कहें, भारतीय कृषि को  मुक्त बाजार के मुकाबले,बहुराष्ट्रीय रंगबिरंगे अनाकोंडाओं के देहात की गोलबंदी और उसकी ताकत का मुशायरा भी ये खाप पंचायतें हैं।


आदिवासी इलाकों में भी सामाजिक संरचना बाजार के डंक का असर न होने की वजह से ही जल जंगल जमीन की लड़ाई इतनी तेज हैं वहां।


बाकी देश में सामाजिक संरचना का ताना बाना छिन्न भिन्न है और समाज देश को जोड़ने का कोई जनांदोलन जनजागरण कहीं भी नहीं है और न खाप पंचायतों की जैसी मजबूत कोई सामाजिक संरचना बची है।उलट इसके बाजार की नायाब हरकतों के संग संग राजनीति और महानगरीय मेधा आइकानिक सिविल सोसाइटी हर तरीके से समाज परिवार अस्मिताओं को और भी ज्यादा काट काटकर देश को मल्टीनेशनल आखेटगाह बना रही हैं।


इसलिए बेदखली का कोई सामाजिक सामूहिक विरोध अन्यत्र संभव भी नहीं है।खाप पंचायतों के इस मुक्त बाजार विरोधी तेवर को नजरअंदाज करके हम सामाजिक गोलबंदी के लिए लेकिन पहल कोई दूसरी कर नहीं सकते


बाकी समुदायों और बाकी समाज में प्रगति का जो पाखंड है,वही है मुक्त बाजार और बुलेट हीरक चतुर्भुज का डिजिटल देश।


बाकी चर्चा फिर आनलाइन होने की हालत में।



আড়ম-ওনাম-ভাইফোঁটা অসুর ধম্ম পালনের লোকোৎসব Saradindu Biswas

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আড়ম-ওনাম-ভাইফোঁটা অসুর ধম্ম পালনের লোকোৎসব

শরদিন্দু বিশ্বাস


ছোটবেলায় মেজকাকু গদাধরের সাথে নৌকা করে "আড়ম"বা "আড়ং"য়ে যাওয়া ছিল আমাদের জীবনের একটি অন্যতম আকর্ষণ। এই আড়ং মিলত রামদিয়াতে। বর্তমান বাংলাদেশের ওড়াকান্দি গ্রামের ঠিক পশ্চিম দিকে যে খালটি গোপালগঞ্জ থেকে কাশিয়ানী হয়ে পদ্মার সাথে মিশেছে ওই খালের পাড়েই রামদিয়া। নিজামকান্দি, মাঝকান্দি, ঘেত্তকান্দি, তারাইল, খাগাইল, নড়াইল, ঢিলাইল, সাফলিডাঙ্গা, সাতপাড়, শিঙাসুর, ঘেনাসুর, সুখতোইল, বোলতোইল এরকম কয়েকশো গ্রামের মাঝে এই রামদিয়া। ফলে রামদিয়ার আড়ং ছিল এই বিশাল অঞ্চলের মানুষের কাছে এক বাৎসরিক মিলন ক্ষেত্র শ্রেষ্ঠতম আড়ম্বর। আর এই আড়ংয়ে জনপুঞ্জের আন্তরিক আগ্রহে সাড়ম্বরে অনুষ্ঠিত হত প্রাচীন ভারতের নৌকেন্দ্রিক সভ্যতার শ্রেষ্ঠতম সাংস্কৃতিক উপস্থাপন "নাও বাইচ"বা "নৌকা বাইচ" আমাদের কাছে এই নৌকা  বাইচ দেখার একটা প্রগাঢ় আগ্রহ ছিল। বড় হয়ে ঐ নাও বাইচের একজন প্রতিনিধি হয়ে নিজেদের শৌর্য-বীর্য ও কলা-কৌশল উপস্থাপনের এক পারম্পরিক উন্মাদনা তৈরি হত আমাদের মধ্যে।


আড়মের আবহঃ  

সকাল থেকেই সাজ সাজ রব উঠত প্রত্যেকটি বাড়িতে, বাহান্দে বাহান্দে। দুপুরে খাওয়া দাওয়া শেষ করেই আমরা নতুন পোশাক পরে নিতাম। পারিবারিক নোউকাগুলি বাঁধা থাকত ঘাটে। পাশাপাশি থাকত একটি বাচাড়ি নৌকা।  মেজকাকু তাঁর সাথে যারা আড়ংয়ে যাবে তাদের সকলকে দেখে নিতেন। নাওয়ের চরাটের উপর বয়স অনুসারে সকলকে বসিয়ে দিতেন। নৌকা প্রস্তুত  হলে আমরা মা, পিসিমা আসতেন বরণকুলা নিয়ে। তেল, সিন্দুর, ধানদূর্বা দিয়ে বরণ করা হত নোউকাকে। বরণ শেষে মা তাঁর বা পায়ের হালকা ধাক্কা দিয়ে নৌকাকে একটু ভাসিয়ে দিতেন। আমাদের উদ্দেশ্যে বলতেন, "জয় করে এস"। বাচাড়ি নৌকা বরণ করতেন ঠাকুরমায়েরা কারণ ওই নৌকায় উঠতেন আমাদের জেঠামশাইয়ের নেতৃত্বে ২০-২২ জন বাছাই করা জোয়ান। বরণ শেষ হলে মেয়েরা জুয়াড় দিয়ে নৌকাগুলিকে ভাসিয়ে দিত। জ্যাঠামশাইয়ের হাতের রামদা ও ঢাল। ঝলসে উঠত সড়কি-বল্লম। কাঁসির আওয়াজ, বৈঠার টান ও বাইছাদের হেইয়া- হেইয়া রবে নিমেষে চোখের সমানে থেকে উধাও হয়ে যেত বাচাড়ি।        


নাও বাইচ আড়মের অন্যতম আকর্ষণঃ  


আশ্বিন মাসের মাঝামাঝি চারিদিকে জলমগ্ন গ্রামগুলি তখন এক একটা দ্বীপ। আমন ধান আর দীঘা ধানক্ষেতের পাশের নোলদাঁড়া দিয়ে সারিবদ্ধ ভাবে পারিবারিক নৌকা, ব্যবসায়ীক নৌকাগুলি এসে ভিড়ত রামদিয়ার খালপাড়ে। আসতো করফাই, সাম্পান, পানসি, টাবুরিয়া। আসতো বিদিরা বা বজরার মতো কিছু  শৌখিন নাও।  হাজার হাজার নৌকা নিয়ে লক্ষাধিক মানুষের সমাবেশ হত এই আড়ংয়ে। আসতো বাইচের বাচাড়ি। আমরা তাকিয়ে থাকতাম নদী বক্ষের দিকে কখন ঐ বাইচের বাচাড়িগুলি কাঁসির ছন্দবদ্ধ আওয়াজের সাথে সাথে বৈঠার ঝড় তুলে একে অন্যকে পিছনে ফেলে এগিয়ে যাবার জন্য তীব্র প্রতিযোগিতা শুরু করে এই বাচাড়িগুলির পিছেনে হাল সামলাত হালিয়া, নৌকার গুরার দুপাশে সারিবদ্ধ   ভাবে বসে থাকত বৈঠা হাতে তাগড়া জোয়ান বাইছাগণ। এদের শক্তির জোরে ও বৈঠার টানে জয় পরাজয় নিষ্পত্তি হত। সামনের দিকে থাকত ঢাল, সড়কি, লাঠি ও রামদা হাতে সেরা ঢালি বাহিনী। এ যেন ভাবি কালের জন্য কোন যুদ্ধের প্রস্তুতি অথবা প্রাচীন ঐতিহ্য ও পারম্পরিক  অভিজ্ঞতার এক গর্বিত অভিব্যক্তি। রামদা,  লাঠি, ঢাল ও সড়কির নিপুন কলাকৌশল দেখতে দেখতে একটি সহজাত সাহস আমদেরও সংক্রামিত করত। ওই  বিপুল উদ্দামতা, প্রতিকুলতার মধ্যে স্থির থেকে লক্ষ্যের দিকে এগিয়ে যাওয়ার অদম্য আবেগে আমরাও উৎসাহিত হয়ে উঠতাম। সহজাত স্বভাবের টানেই আমদের একান্ত গভীরে সঞ্চারিত হত লোকায়িত সংস্কৃতির এক সহজপাঠ। ঐকান্তিক ইচ্ছার এই বিপুল সমারোহ এই বঙ্গ এই ভারতবর্ষের বিবর্তনের ধারাপাতের সাথে আমরা নিবিড় ভাবে একাত্ত হয়ে যেতাম ছোটবেলা থেকে।


আড়মের সাথে দুর্গা প্রতিমা বিসর্জনঃ

বাংলায় ১৫ শতকের শেষ ভাগে বাংলায় দুর্গা পূজা শুরু হয়। আর সুকৌশলে আড়মের দিনেই এই বিসর্জনের প্রক্রিয়াটিকে সংযুক্ত করা হয় যাতে দুর্গাপূজাও লোকাচারের সাথে সম্পৃক্ত হয়ে যায় এবং কালক্রমে লোকাচার ও লোকোৎসবের পরিবর্তে দুর্গাপূজাই প্রধান হয়ে ওঠে। আমদের ছোট বেলাতেই দেখেছি প্রতিমা বিসর্জনের জন্য বাইচের প্রতিযোগিতাকে অনেকটাই ছেঁটে ফেলতে হয়েছে। দুর্গা প্রতিমা বোঝাই নৌকাগুলি বাইচের নৌকার গতিপথের মধ্যে ঢুকে পড়েছে এবং বাইচের আনন্দ অনেকটাই মাটি করে দিয়েছে।             


আড়ম বা আড়ং শব্দের তাৎপর্য

প্রাগার্য ভারতের অসুর ভাষার শব্দভাণ্ডারে আড়ম বা আড়ং শব্দের অর্থ প্রচুর, পর্যাপ্ত বা যথেষ্ট পরিমাণ। আড়মধোলাই, আড়ম্বর, সাড়ম্বর সব্দগুলি যে আড়ম বা আড়ং থেকে এসেছে তা আর বলার অপেক্ষা রাখেনা। পুরাকালের জনবহুল গ্রাম ও গঞ্জের নামের সাথেও আড়ং শব্দটি জুড়ে আছে। কিন্তু যে অর্থে আড়মের মেলা বলা হয় তা কেবল প্রচুর বা পর্যাপ্ত অর্থের মধ্যে সীমাবদ্ধ নয়। এর সঙ্গে যুক্ত হয়েছে সাংস্কৃতিক সমারোহ এবং নিশ্চিত ভাবে এই সমারোহের একটি আর্থসামাজিক উদ্দেশ্য আছে। যা বিবর্তিত হতে হতে লোকাচার ও লোকোৎসবে পরিণত হয়েছে।

যে কাল ও সময়ে আড়মের মেলা হয় সেটাও বেশ তাৎপর্যপূর্ণ। কেননা শ্রাবণ, ভাদ্র ও আশ্বিনের ঝড়, ঝঞ্ঝা ও বৃষ্টি খানিকটা কেটে গেলে মানুষের জীবনে প্রাকৃতিক বিপর্যয়ের আশংকা অনেকটা কেটে যায়। ক্ষেতের ধানগুলো বাড়ন্ত জলকেও হার মানিয়ে বুক চিতিয়ে দাঁড়িয়ে পড়ে। ভাদ্দরের প্রথম দিকে বাড়িতে আসে আউস ধান। অন্যদিকে দীঘা ধান ও আমন ধানের ক্ষেতগুলি চাষির বুক ভরিয়ে তোলে। কাজের চাপ কম। অনেকটা অবসর। প্রিয়জনদের মুখ মনে পড়ে। জানতে ইচ্ছে করে তারা কেমন আছে। জানাতে ইচ্ছে করে নিজের আশা আকাঙ্ক্ষার কথা। স্বজনের সাথে মিলিত হওয়ার এটাই উপযুক্ত কাল। জনপুঞ্জের এই একান্ত আবেগের সম্মিলিত মিলন ক্ষেত্রই আড়ম।  

সাধারণত কৃষিনির্ভর শ্রমজীবী মানুষের জীবনযাপনের জন্য যে সব সামগ্রীর প্রয়োজন তার যোগান দেয় আড়মের মেলা। মনোহারী সামগ্রীরও খামতি থাকেনা। ফলে পুরুষের সাথে সাথে নরীদের অংশগ্রহণও চোখে পড়ার মত। তবে আড়ং থেকে ঘরে ফেরার সময় পর্যাপ্ত পরিমাণ বিভিন্ন ধরণের মিষ্টির সাথে প্রচুর আখ কিনে বাড়ি ফেরে পরিবারকর্তা। চার-পাঁচদিন ধরে চলে খাওয়া দাওয়ার আয়োজন। আত্মীয় স্বজনের বাড়ি বাড়ি চলে নিমন্ত্রণের পালা। মাছ, মাংস, পিঠে, পুলীর ভরপেট আয়োজন।


আড়ম এবং ওনামঃ  


বাংলায় যে সময় আড়ম অনুষ্ঠিত হয় ঠিক একই সময় তামিলনাড়ুর সমুদ্রতটবর্তী অঞ্চল বিশেষত কেরালায় অনুষ্ঠিত হয় ওনাম উৎসব। ওনাম সম্ভবত প্রাচীন অসুর শব্দ আড়মের সংস্কৃতিকরণ। এই ওনাম উৎসবে বাইচের মতোই অনুষ্ঠিত হয় বাল্লাম কেলি (Vallum Kali)। মালাবার উপকুলের নৌপ্রতিযোগিতার সর্বাধিক প্রচলিত প্রচলিত আনন্দদায়ক খেলা। এই প্রতিযোগিতা ওনাম উৎসবের সাথে অঙ্গাঙ্গীভাবে জড়িত। ওনাম একটি কৃষি উৎসব। ফসল ঘরে তোলার পরে উপকুলের মানুষেরা আত্মীয়স্বজনের সাথে নিরলস আনন্দে মেতে ওঠে। চারদিন ধরে চলে নাচ, গান ও ভোজনের উৎসব। এর মধ্যে শ্রেষ্ঠ আকর্ষণ হল বাল্লাম কেলি। রংবেরংয়ের শতাধিক নৌকা নিয়ে আন্নামালাই, কোট্টিয়াম ও কোবালাম অঞ্চলের সাধারণ মানুষ মেতে ওঠে নৌপ্রতিযোগিতায়। কাড়া, নাকাড়া ও করতালের দ্রুত ছন্দে চলে বৈঠার টান। নৌকা বাইচের গানের মতোই বাল্লাম কেলির গানে থাকে একই ছন্দ, একই আবেগ ও একই দ্যোতনা।          

ফলে আড়ম-ওনাম, বাল্লাম কেলি ও বাইচ যে সম সংস্কৃতি সম্পন্ন জনপুঞ্জের লোকায়ত বিদ্যা সে বিষয়ে কোন সন্দেহের অবকাশ নেই।


অসুর উপাখ্যান ও লোকোৎসবঃ     


অনেক লোক উৎসবের সাথে জুড়ে দেওয়া হয়েছে এক একটি পৌরাণিক কাহিনী। এই পৌরাণিক কাহিনীর বিশ্লেষণ  করলে আড়মের মেলায় যাবার জন্য প্রস্তুত নৌকাগুলিকে বরণ করার সময় মা, পিসিমা  ঠাকুরমায়েরা কেন "জিতে এস"বলতেন তার খানিকটা অর্থ বোধগম্য হতে পারে। এই পৌরাণিক কাহিনীটি ভগবত পুরানে লিপিবদ্ধ হয়েছে।  বিষ্ণু বামন রূপ ধারণ করে কী ভাবে অসুর  রাজা মহাবলীকে হত্যা করেছিল তা এই কাহিনীতে বর্ণিত হয়েছে। কে এই রাজা বলী? যিনি মহা বলী নামে খ্যাত তা জানা প্রয়োজন বলে মনে করি।  রাজা বলীর বংশ পরিচয় জানা যায় কয়েকটি পুজাণে ও রামায়ন কাহিনীতে। বিষ্ণু পুরানে বর্ণিত আছে যে অসুর রাজা হিরণ্যকাশ্যপ ছিলেন দক্ষিণ ভারতের পরাক্রান্ত রাজা। তাঁর কারণেই দক্ষিণ ভারতে ব্রাহ্মন্যবাদী শক্তির প্রসার সম্ভব হচ্ছিলনা। দেবরাজ ইন্দ্র কিছুতেই এটে উঠতে পারছিল না হিরণ্য কাশ্যপের সাথে। হিরণ্য কাশ্যপের ভাই হিরন্যাক্ষ ছিলেন আরো দুর্ধর্ষ। ফলে সম্মুখ সমরে উত্তীর্ণ না হয়ে কৌশল অবলম্বন করলেন দেবশক্তি। বিষ্ণু বরাহ রূপ ধারণ করে  হিরন্যাক্ষকে হত্যা করলেন। নিরপরাধ ভাইকে এই নৃশংস ভাবে হত্যার বদলা নিতে হিরণ্য কাশ্যপ সৈন্যবল আরো বাড়িয়ে দেবশক্তিকে পর্যুদস্ত করতে লাগলেন। ফলে ছলনার আশ্রয় নিতে হল বিষ্ণুকে। বালক প্রহ্লাদকে কবজা করে ঢুকে পড়লেন রাজ প্রাসাদে। সুজোগ বুঝে ব্রাহ্মণ সেনাপতি নরসিংহের মূর্তির ছদ্মবেশ ধারণ করে রাজা হিরণ্যকাশ্যপকে হত্যা করে তাঁর নাবালক পুত্র প্রহ্ললাদ কে সিংহাসনে বসিয়ে দেবনীতি রুপায়নের ষড়যন্ত্র শুরু করলেন। তাদের ধারনা ছিল যে এই ব্যবস্থায় প্রজারা মনে করবে যে প্রহ্ললাদই শাসন করছে। ব্রাহ্মন্যবাদ কায়েম হলে প্রহল্লাদকেও হত্যা করা হবে।   

রাজা হিরন্যকের বোন ছিলেন হোলিকা। এই ষড়যন্ত্রের কথা তিনি জানাতে পেরে যান এবং প্রহল্লাদকে বাঁচানোর জন্য তাকে নিয়ে তিনি সুরক্ষিত স্থানে চলে যান। কিন্তু  আর্য দস্যুদের কুটিল নজর এড়িয়ে যেতে তিনি ব্যর্থ হন। দস্যুরা তাঁকে ঘিরে ফেলে। তাঁকে ধর্ষণ করে। তার রক্ত নিয়ে উন্মত্ত খেলায় মেতে ওঠে দেবশক্তি এবং গলায় দড়ি দিয়ে ঝুলিয়ে আগুনে পুড়িয়ে মেরে ফেলা হয় হোলিকাকে। এই প্রহ্লাদের ছেলে বিরোচনকে হত্যা করে ইন্দ্র। বিরোচনের পুত্রের নাম বলী ও কন্যার নাম মন্থরা। এই মন্থরা কিন্তু রামায়নে রামের দ্বিতীয় মাতা কৈকেয়ীর কুটিলা দাসী মন্থরা নন। ইনি রাজা মহাবলীর বোন মন্থরা। তবে রামায়নে উত্তরা কান্ডে দেখা যায় রাবণ রাজা বলীর নাতনী বজ্রজ্বালার সাথে কুম্ভকর্ণের বিবাহ দেন। এই সূত্রে কুম্ভকর্ণ মন্থরার নাতজামাই।


বলী কাহিনী ও দীপাবলিঃ  

অসুর রাজা বলী ছিলেন প্রজাপালক কল্যাণকারী রাজা। তাঁর শাসনে প্রজারা অত্যন্ত শান্তিতে বাস করতেন। দানশীল রাজা মহাবলী প্রজাদের সুখদুঃখে পাশে থাকতেন। রাজকোষ থেকে প্রচুর দান করতেন অতিথি ও প্রজাবর্গকে। এনিয়ে প্রজারা ভীষণ গর্ব বোধ করতেন। প্রাজ্ঞতা ও বলবীর্যে মহা বলীর রাজ্য ক্রমে শক্তিশালী রাজ্যে পরিণত হয়ে ওঠে। এতে বিষ্ণুর প্রভাব কমে যায়। তাই বলীর গর্ব খর্ব করার জন্য তিনি বামনের ছদ্মবেশে রাজা বলীর কাছে তিন পা জমি দান পাবার জন্য আবেদন করেন। রাজগুরু শুক্রাচার্য তিন পা জমির মধ্যে গভীর কোন ষড়যন্ত্র লুকিয়ে আছে বলে রাজাকে সতর্ক করেন। মহাবলী আপন পৌরুষ ও মর্যাদা রক্ষার জন্য তিন পা জমি দিতে রাজি হয়ে যান। আর এই সুজোগেই বামনবেশী বিষ্ণু এক পা দিয়ে সমগ্র পৃথিবী ঢেকে ফেলেন, আর এক পা দিয়ে আকাশ আচ্ছাদিত করেন এবং তৃতীয় পা কোথায় রাখবেন বলে বলীকে জিজ্ঞাসা করেন। বলী সবকিছু বামনের করায়ত্ত হয়েগেছে দেখে নিজের মাথা বাড়িয়ে দেন। আর তৃতীয় পা দিয়ে বামন বলীরাজাকে নরকে প্রথিত করেন। কিন্তু লোকায়ত কাহিনী অনুসারে তাকে হত্যা করে লুকিয়ে ফেলা হয়। যাতে প্রজা বিদ্রোহ না ঘটে তার জন্য রটিয়ে দেওয়া হয় যে  বলী নরক থেকে  বছরে একবার চার দিনের জন্য ঘরে ফিরতে পারবে। প্রচলিত ওনাম উৎসবের চারদিন সে প্রিয়জনদের সাথে মিলিত হবে। মহাবলীর এ হেন পরিণতিতে দেবসমাজে  মহা ধুমধামের মধ্য দিয়ে পালিত হয় আলোর উৎসব। এই উৎসবের নাম দীপাবলি।


ভাই ডুজ বা ভাই ফোঁটাঃ  

কিন্তু লোকসাহিত্য বা লোকগাথাগুলিতে লুকিয়ে আছে বলী রাজার অমর কাহিনী। বলী রাজার প্রজাগণ এই জঘন্য হত্যা মেনে নিতে পারেননি। বিশেষত বোন মন্থরা ঘোরতর অসন্তোষ প্রকাশ করতে থাকেন। তিনি দেবলোক ধ্বংস করে দেবার প্রতিজ্ঞা করেন।  রাজ্যের সমস্ত সৈন্যদের ভাই হিসেবে নিমন্ত্রণ করেন মন্থরা। কপালে শ্বেত চন্দনের ফোটা ও মিষ্টি খাইয়ে বাহিনীকে সাজিয়ে তোলন। যে মিষ্টিগুলি মন্থরা তৈরি  করেছিলেন তার প্রত্যেকটি ছিল এক একটি শস্ত্রের আকার। নৌবাহিনীকে সাজিয়ে তোলেন। বিষ্ণু পা দিয়ে বলীকে করেছিলেন তাই বাম পা দিয়ে নৌকা গুলিকে ধাক্কা দিয়ে মহড়ার জন্য ভাসিয়ে দেওয়া হয় বন্দরের জলে। মন্থরা তাদের উৎসাহিত করেছিলেন এই কথা বলে যে, তারাই যুদ্ধে জিতবে। মন্থরার এই যুদ্ধ প্রস্তুতি দেবকুলকে শঙ্কিত করে তোলে। দেবরাজ ইন্দ্র সসৈন্যে মন্থরাকে আক্রমণ করেন এবং হত্যা করেন। কিন্তু লোকায়ত কাহিনী অনুসারে মন্থরার এই দৃঢ় আদেশ নিয়ে শুরু হয় বাল্লাম কেলী। আজও কেরালার ছড়িয়ে থাকা সমুদ্রতট শায়িত অঞ্চলগুলিতে ওনামের চার দিন ধরে চলে বাল্লাম কেলি। বাল্লাম কেলী মালাবার উপকুলের সর্বাধিক প্রচলিত নৌকা প্রতিযোগিতা। বাংলার মা ঠাকুরমায়েদের বাইচের নৌকা  বরণের সাথে কোথায় যেন মন্থরার ওই বরণ একাত্ম হয়ে যায়। মন্থরার ওই শান্ত দৃঢ় কণ্ঠই আমরা শুনতে পেতাম আড়মের মেলাতে যাবার সময় মা ঠাকুরমার মুখে"জিতে এস"।      

মধ্য ভারতের জনসাধারণের মধ্যে বলী রাজার প্রত্যাবর্তনের সমারোহ হিসেবে পালিত হয় ভাই ডুজ বা ভাই ফোঁটা।  বছরের  এই একটি দিন ভাইয়েরা বোনের কাছে ফিরে আসে। বোনের জন্য নিয়ে আসে নতুন পোশাক। বোন একটি আসনের উপর ভাইদের বসিয়ে কপালে ফোঁটা দেয়। 

"ইনা মিনা ডিকা

ভাই কা শরপে টিকা

বহনা কহে ইয়ে মিঠাই লাও

বলী কা রাজ ফির সে লাও"এই ছড়াটি কাটতে কাটতে ভাইয়ের কপালে শ্বেত চন্দন পরিয়ে দেয়। এই ছড়ার বাংলা করলে দাড়ায়ঃ

ইনা মিনা ডিকা,

ভাইয়ের কপালে টিকা

বোন বলে এই মিঠাই খাও

বলীর শাসন ফিরিয়ে দাও।

ঘরে ঘরে বোনেরা লোকাচারের মাধ্যমে বলীর সুশাসন ফিরিয়ে আনার জন্য ভাইয়েদের এভাবে উৎসাহিত করায় প্রমাদ গোনে দেবসমাজ। তাঁরা আবার পৌরাণিক কাহিনীর মধ্যে যম ও যমুনার গল্প ঢুকিয়ে দিয়ে এই বিশাল অঞ্চলের লোকাচারকে ব্রাহ্মন্যবাদী ধারায় প্রবাহিত করার চক্রান্ত শুরু করে। রচিত হয় ভাই ফোঁটার ছড়াঃ

"ভাইয়ের কপালে দিলাম ফোঁটা

যম দুয়ারে পড়ল কাঁটা

যমুনা দেয় যমকে ফোঁটা

আমি দিই আমার ভাইকে ফোঁটা"।


মানুষ যুক্তিবাদী ও সুশিক্ষিত হলে ব্রহ্মন্যবাদ টেকেনাঃ  

ব্রাহ্মন্যবাদ বা দেবসমাজের রচিত কল্পকাহিনীগুলি থেকে একটি বার্তা আমাদের কাছে প্রকট হয়ে ওঠে যে, যখন যখন ভারতে ব্রাহ্মন্যবাদের উপর আক্রমণ এসেছে তখন তখন প্রলয়, সংকট, জিঘাংসা, নৃশংসতা, যুদ্ধ বা গুপ্ত হত্যার আশ্রয় নিয়েছে ব্রাহ্মণসমাজ। ঈশ্বরের নামে, ধর্মের নামে চালিত করা হয়েছে এই সব নরহত্যার জঘন্য ঘটনাগুলিকে। রচিত হয়েছে অবতার কাহিনী। ইতিহাস ধ্বংস করে রচিত হয়েছে মিথ। এই মিথ মিথ্যার বেসাতি কিনা তা কালে বিচার হবে।  তবে এই কল্প কাহিনীগুলিকে চোলাইয়ের মত  গেলাতে  গেলাতে ইতিহাস বানানোর চেষ্টা করা হয়েছে। ব্রাহ্মণসমাজ যে কতটা নৃশংস তা তাদের সৃষ্ট দেব দেবীদের ছবি দেখলেই স্পট বোঝা যায়। আর এই সব দেব দেবীর ভিত্তি হল আজগুবি পৌরাণিক কাহিনীগুলি। অর্থাৎ একথা স্পষ্ট যে বিজ্ঞানের আলোকে ইতিহাসের পর্যালোচনা করলে ব্রাহ্মন্যবাদী আজগুবি তত্ত্বগুলি প্রচুর হাস্যরসের খোরাক যোগায়। প্রজ্ঞা ও যুক্তিবাদের কাছে ধোপে টেকেনা ব্রাহ্মন্যবাদ। এটি কেবল মাত্র টিকে থাকে অজ্ঞতা ও  কুসংস্কারের মধ্য দিয়ে। হিংসা, বীভৎসতা, বিচ্ছিন্নতা, নৃশংসতা, নারীর প্রতি অবমানতা ও কদর্যতার জন্য পৃথিবীর কোথাও ব্রাহ্মন্যবাদের প্রসার ঘটেনি। গায়ের জোরে যেটুকু প্রসারিত হয়েছিল তাও সংকুচিত হতে হতে প্রাদেশিকতায় পরিণত হয়েছে। মানুষ আরো শিক্ষিত হলে, দেশের ও জনগণের আরো আর্থিক সয়ম্ভরতা এলে এই সংকোচন আরো বাড়বে এবং কালে কালে বিলোপ সাধন ঘটবে এই কলঙ্কিত মতবাদের। কিন্তু বিবর্তনের নতুন নতুন বাঁকে এসে শ্রম ও উৎপাদনের সাথে সম্পৃক্ত জনপুঞ্জের মধ্যেই মানবিক কারণেই বেঁচে থাকবে আড়ম, ওনাম, ভাইফোঁটা, নাওবাইচ, বাল্লাম কেলীর মত লোকাচার ও লোকসংস্কৃতি। 

वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।

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वीरेनदा सेमिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से किकविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।



पलाश विश्वास


सवा बजे रात को आज मेरी नींद खुल गयी है।गोलू की भी नींद खुली देख,उसकी पीसी आन करवा ली और फिर अपनी रामकहानी चालू।


जो मित्र अमित्र राहत की सांसें ले रहे थे,नींद में खलल पड़ने से बचने के ख्याल से बचने के लिए,उनकी मुसीबत फिर शुरु होने वाली है अगर मैं सही सलामत कोलकाता पहुंच गया तो,यानि आज से फिर आनलाइन हूं।


कल सुबह आठ बजे निकला था और नोएडा सेक्टर बारह, इंदिरापुरम,कलाविहार मयूरविहार होकर प्रगति विहार हास्टल रात के नौ बजे करीब लौटा।


आनंद स्वरुप वर्मा के वहां गहन विचार विमर्श,वीरेनदा से गहराई तक मुलाकात और पंकज बिष्ट के साथ उनके घर में बिताये कुछ अनमोल अंतरंग क्षणों के साथ दिल्ली की यह यात्री इसबार बहुत अनोखी बन निकली है और थकान से चूर चूर होकर दस बजे ही घोड़े बेचकर सो गया था लेकिन दिमाग के सेल दुरुस्त होते ही आंखें फिर उनींदी हैं।


अपने राजीव कुमार तो दिल्ली में आकर सन्नाटा जी रहे हैं बाकी गपशप तो गोलू,पृथू और मीना भाभी के साथ हो रही है और लग रहा है कि राजीव नये सिरे से कुछ बनाने की सोच रहा होगा।


इसबर वीणा और अरुण को खूब शिकायतें होंगी और अपने परिवार के बच्चों को भी कि मैं इस बारक सिर्फ दोस्तों से मिला हूं,परिजनों से नहीं।


मयूर विहार गया लेकिन झिलमिल नहीं गया वीणा के घर और नजहांगीर पुरी गया,जहां अरुण के बच्चे कृष्णा और तरुण को शायद अपने ताउ और ताई का इंतजार रहा है।


उनसे हम लोग मार्च तक मिलेंगे जरुर।नई दिल्ली के सीमेंट के जंगल में नहीं,अपने घर बसंतीपुर में।इसी उम्मीद के साथ आज दुरंतोे से कोलकाता लौट रहा हूं।


गनीमत है कि कोलकाता के बड़ाबाजार में धूल और ट्राफिक जाम में फंसे 14 अक्तूबर को सविता की तबियत इतनी खराब भी नहीं हुई और बसंतीपुर से होकर नैनीताल, देहरादून, बिजनौर होकर दिल्ली तक दौड़ दौड़कर कल रात बुलेटदौड़ से हम थक कर कब सो गये,पता ही नहीं चला और अबकी यात्रा की किस्त पूरी हो गयी और सविता मेरे साथ लगातार दौड़ती रहीं।उनका भी आभार।


पता नहीं कि ऐसी रात फिर कभी नसीब होगी या नहीं।


दिल्ली में अब भी एक बेचैन कवि आत्मा जिंदगी जीने का हुनर सिखा रही हैं हमें।


उन्हीं के साथ आज की सी कोई पूस की रात को नैनी झील के किनारे हम लोगों ने कड़कड़ाती सर्दी में आखिरीबार उधम मचाया था और उस कवि ने कहा था कि पलाश,तुम सिर्फ गद्य लिख सकते हो,कविता हरगिज नहीं लिख सकते और तब मैंने कहा था कि दा,जरुर लिख सकता हूं।


उस रात हमारे साथ एक और कवि थे पहाड़ और तराई में दिवानगी की हदतक काव्यधारा में बहनेवाले ,हमारे वजूद का हिस्सा जो अब भी बने हुए हैं,हमारे गिरदा।


साथ थे,राजीव लोचन साह जैसे नख से शिख तक भद्रपुरुष और वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई शुरु करने वाले हमारे सुप्रीम सिपाहसालार आनंदस्वरुप वर्मा भी।


शमशेर सिंह बिष्ट भी शायद आधी रात बाद बीच झील की तन्हा नैनीताल की उस रात के गवाह रहे हैं।शायद शेखर पाठक भी थे और हरुआ दाढ़ी भी।ठीक से याद नहीं है।


जाहिर है कि वह रात अब कभी नहीं लौटेगी,गिरदा के बिना वह रात लौटेगी नहीं।आनंद स्वरुप वर्मा ने कहा भी कि गिरदा के बिना नैनीताल सूना अलूना है और अब वहां जाना सुहाता नहीं है।पहाड़ों में गिरदा का न होना हमारे यकीन के दायरे से बाहर है।


आज की इस रात की सुबह तो यकीनन होगी ही और सुबह की न सही,शाम की गाड़ी से उस कोलकाता जरुर पहुंचकर फिर धुनि रमानी है,जहां इन्हीं कवि आत्मीय अग्रज ने मुझे सन 1991 को जबरन भेज दिया था कि कोलकाता को बदले बिना दुनिया नहीं बदलेगी और तबसे मैं कोलकाता को बदलने में लगा हूं ।


क्योंकि कवि हूं नहीं मैं फिरभी,एक अति प्रिय कविमित्र बड़े भाई के जुनूनी यकीन को सच में बदलने का जिम्मा मुझपर है कि दुनिया के गोलाकार वजूद की पूंछ वहीं से पकड़कर उस ऐसी पटखनी दूं कि सारी कविताएं सच हो जायें एकमुश्त।


मुझे कविताओं में रमने का मौका नहीं मिला तो क्या हमारे वीरेनदा और हमारे गिरदा कवि बतौर याद किये जाएंगे और देशभर के कवियों से लगातार मेरा दोस्ताना और दुश्मनी का रिश्ता जीने का मौका भी लगता है।


बाकी तोे बिजनौर के पास सविता के मायके गांव धर्मनगरी में एक युवा अति कुशाग्र बुद्धि के बीटेक इंजीनियर तापस पाल की राय में हमारी पीढ़ी के लोग कुल मिलाकर घंटा हैं। उससे मुठभेड़ के बारे में बाद में फिर।


इंदिरापुरम में जयपुरिया सनराइज शायद उस बहुमंजिली इमारत का नाम है,जिसमें हमारे समय के सबसे शानदार ,सबसे जानदार कवि का बसेरा है इसवक्त। आठवीं मंजिल में।जहां आनंदजी के वहां से हम लेट पहुंचे और वीरेनदा इंतजार में थके भी नहीं।परिवार में सिर्फ रीता भाभी से मुलाकात हो पायी।वे जस की तस हैं साबुत।लेकिन बच्चों से इस दफा मुलाकात हुई नहीं है।


कम से कम वीरेनदा से मिलने फिर इस शहर को आउंगा,जिसे मैं कभी प्यार नहीं कर सका क्योंकि वह लगातार लगातार जनपदों को चबाता जा रहा है और सारी सत्ता यहीं केंद्रित हैं और सारी साजिशें जनता के खिलाफ यही से शुरु होती हैं।


मन ही मन मैं शायद मणिपुरी हूं या तामिल या बस्तर दंतेवाड़ा का कोई सलवा जुड़ुम दागा आदिवासी क्योंमकि मैं जख्मी हिमालय भी हूं।


अबकी बार वीरेनदा से मिलकर लगा कि कविता दरअसल लिखने की कोई चीज होती नहीं है,कविता जीने की चीज होती है और कवि जबतक कविता में जीता है,तब तक जिंदगी बची होती है और तभी तक बनती बिगड़ती रहती है दुनिया।


कविता के बिना न सभ्यता होती है और न मनुष्यता।


यह सिरे से संवेदनाओं का ही नहीं,सरोकार का मामला है।


संवेदनाओं और सरोकार में जीनेवाली कविता की मौत होती नहीं है उसीतरह जैसे दुनिया को बदलने वाली जब्जे की मौत होती नहीं है।


और बदलाव की फल्गुधारा कविता की ही तरह हमारी रगों में बहती रहती है।


और हजारों रक्तनदियों की धार उसकी दिशा नहीं बदल सकती है।


न उसकी मंजिल कभी बदल सकती है भले भटक जाये या बदल जाये हमारे दिलोदिमाग, हमारे सरोकार लखटकिया करोड़पतिया कारोबार में।


सोलह मई के बाद की कविता के अन्यतम आयोजक रंजीत जी,अपने युवा भविष्य अभिषेक और अमलेंदु दोनों आज दिनभर हमारे साथ रहे जो आनंदस्वरुप वर्मा, वीरेनदा और हमारे सान्निध्य में अब तक हमारा कियाधरा को जारी रखनेवाले सबसे काबिल लोग हैं ।


अभिषेक,अमलेंदु,रियाज,सुबीर गोस्वामी,पद्दो लोचन,एकेसकैलिबर,शरदिंदु और आनेवाली पीढ़ियों के सहारे और उन तमाम युवा दिलोदिमाग जो आज की युवा स्त्रियों के खाते में भी हैं,हम छोड़ जायेंगे एक बेहतर दुनिया, साबूत सकुशल पृथ्वी,इसी तमन्ना में अटकी है हमारी जान जहां।


युगमंच का सिसिला अभी जारी है।


नैनीताल समाचार निकल रहा है।

समकालीन तीसरी दुनिया को बेहतर बनाने की तैयारी है और राजतंत्र फिर वापस नहीं लौटेगा और न फासीवाद मनुष्यता और सभ्यता का नाश कर सकता है।


पंकज दा हमें मयूर बिहार एक्सटेंशन तक पैदल छोड़कर फिर समयांतर के ताजा अंक को तराशने में लगे हैं,इससे बेहतर तस्वीरें हमारे लिए दूसरी हैं ही नहीं और न हो सकती हैं।


जैसे कि कविताएं सोलह मई के बाद अबी भी लिखी जा रही है चाहे गंगा के घाट बदले हों,पहाड़ में लालटेन जलती न हो और न कोई पौधा बंदूूक बन पाया हो और न कविता ने शहरों की घेराबंदी की हो।ये तस्वीरें बदलाव के यकीन को मजबूत बनाती हैं।


जिनके साथ पीढ़ियां भी कई हैं उतने ही प्रतिबद्ध,जितनी हमारी पीढ़ियां रही हैं और मकबरों के इस शहर से शायद जीने का शउर सिखाने वाले एक कवि की कविता में बेहद कैजुअल,आलसी कस्बाई जनपदीय जिंदगी रुप रस गंध के लोक में जीने की तमीज और कैंसर को हराने वाली कविता की औकात से मुखातिब होकर अब हमको पूरा यकीन है कि हम रहे न रहें,बची रहेगी जिंदगी फिर भी और हमेशा कि तरह बदलती रहेगी यह हमारी पृथ्वी भी।


जिसे गोलक बनाकर खेल रहे हैं दुनियाभर के आदमखोर लोग।


फिरभी यकीन है कि प्रकृति पर्यावरण,मनुष्यता,सभ्यता और लोक में बसे भिन भिन भाषा,अस्मिता और पहचान के लोग न उन्हें,उन आदमखोरों और मानवताविरोधी युद्धअपराधियों को  बख्शेंगे और न इस दुनिया को खत्म करने की कोई इजाजत देंगे।


यह तंत्र मंत्र यंत्र का तिलिस्म हम न तोड़ सकें तो क्या,नईकी फौजें आवल वानी और जइसा कि अपन गोरखवा कभी कहिलन,सच होइबे करें।


इस उपमहादेश में सर्वत्र आतंक के खिलाफ अमेरकिका के युद्ध के खिलाफ कोई शहबाग आंदोलन भी है और यादवपुर के छात्र अब भी सड़कों पर हैं और बाकी छात्र युवा भी कभी भी सड़कों पर उतर सकते हैं।


जैसे फिर कभी न कभी सड़कों पर उतर सकता है समूचा मेहनतकश तबका इस अबाध पूंजी के मुक्तबाजार के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध में।


कविता में आस्था यही सिद्ध करती है।

कविता धर्मांध राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति तो हरगिज नहीं हो सकती।

हर कविता की शक्ल वाल्तेअर जरुर है जिस के लिए मौत की सजा तय है।


सच वह भी अंतिम नहीं है जो तुलसी दास जी कहल वानी कि होइहिं सोई जो राम रचि राखा।राम जो रचि राखा,उसी को पलटने वाले कवि रहे हैं तमाम अगिनखोर।


बाकी दुनिया की तमाम कविताएं दरअसल बदलाव की नीयत की कविताएं हैं, जिनमें जीते जीते गोरख ऊबकर चल दिये,पाश आतंकवादियों के हाथों मारे गये,नवारुणदा कैंसर से जूझते जूझते चल दिये और पहाड़ों को हुड़के से जगाते रहे हमारे गिरदा और दिल्ली के मकबरों के बीच मुकम्मल जिंदगी का शापिंग माल हाईराइज खोल बैठे हैं हमारे वीरेनदा।


हमारे लिए कोई कवि महान नहीं होता।


हमारे लिए  कोई कवि अच्छा या बुरा नहीं होता।


नाम देखकर दाम तय करते हैं सौदागर मानुख और हम यकीनन सौदागर जमात के नहीं हैं।कविता लिख सकूं हूं या नहीं,हूं उसी गोरख,गिर्दा, पाश,नवारुण,चे,मायाकोवस्की वगैरह वगैरह के गोत्र का ही हूं और मेरे खून में भी डीएनए वहीं मूलनिवासी।


जिनके लिए कविता सौंदर्यबोध और व्याकरण नहीं है,न निहायत ध्वनियों का सिनेमाघर है,न भाषायी करतबी चमत्कार है,न जादुई यथार्थ है,न बंधी बंधायी कोई कैद गंगा है पवित्रतम सड़ांध।


बल्कि जिनके लिए  एक मुकम्मल जिंदगी है और दुनिया को उसकी धुरी पर चलते देने का गुरिल्ला युद्ध है निरंतर।


हम हर कविता में जनता का मोर्चा खोजते हैं।


हम हर कविता में जनसुनवाई खोजते हैं।


हम हर कविता में मुक्त बयार,उत्तुंग शिखर,अनबंधी नदियां और खिलते हुए बारुद के की देह में माटी की खुशबू के साथ एक मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध प्रकृति पर्यावरण मनुष्यता और सभ्यता के हक में चाहते हैं।


ऐसी हर कविता के कवि हमारे वजूद में शामिल होते हैं और चाहे कविता वह रचे न रचे,असली कवि वही होता है जो माटी से गढ़ सके वह मुक्म्मल दुनिया रोज रोज,जिसे रोज रोज परमाणु विध्वंस के मुक्तबाजारी हीरक  चतुर्भुज के विकास सूत्र में तबाह करने लगे हैं तमाम रंग बिरंगे अमानुष युद्ध अपराधी और जो मनुष्यों की दुनिया को ग्लोब बनाकर अपनी ही शक्लोसूरत वाली क्लोन रोबोट रिमोट नियंत्रित डिजिटल पुतलियों की नई सभ्यता रच रहे हैं।


हम हर पल सोलह मई के बाद की कविता में वह कविता खोज रहे हैं जिसे हमारे तमाम प्रियकवि रचते रहे हैं और जिसे पाश नवारुण गिरदा सुकांत चेराबंडुराजू और गोरख आखिरी सांस तक जीते रहे हैं और जिसे जीते हुए हम सबसे ज्यादा जिंदा हैं अब भी हमारे वीरेनदा।


हमारे हिसाब से हर कवि को कवि चाहे हो या न हो वह,कविता चाहे वह रचे न रचे,आखिरी सांस तक चेराबंडू,पाश, गिरदा और वीरेनदा की तरह दुनिया को बदल देने के इरादे के साथ एक मुकम्मल इंसान भी होना चाहिए।


हमारे हिसाब से कवि होंगे बहुत सारे श्रेष्ठ,शास्त्रीय और कालातीत महान,लेकिन जिंदगी में कविता जीने वाले कवि कोई कोई होते हैंं और खुशकिस्मत हैं हम कि वे सारे कवि हमारे ही वजूद में शामिल हैं।



वीरेनदा से मिलकर इस रात के बीतने के बेचैन इंतजार को जी रहा हूं फिलहाल और कहने की जरुरत नहीं कि इसबार दिल्ली आना बेहद अच्छा लग रहा है।



वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।


Fwd: (हस्तक्षेप.कॉम) नाना जी देशमुख ने 1984 के जनसंहार को न्यायोचित ठहराया था, देखें दस्तावेज

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Date: 2014-11-01 11:10 GMT+05:30
Subject: (हस्तक्षेप.कॉम) नाना जी देशमुख ने 1984 के जनसंहार को न्यायोचित ठहराया था, देखें दस्तावेज
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  • আড়ম-ওনাম-ভাইফোঁটা অসুর ধম্ম পালনের লোকোৎসব

    Posted:Sat, 01 Nov 2014 05:02:11 +0000
    শরদিন্দু বিশ্বাস  ছোটবেলায় মেজকাকু গদাধরের সাথে নৌকা করে "আড়ম"বা "আড়ং"য়ে যাওয়া ছিল আমাদের জীবনের একটি অন্যতম আকর্ষণ। এই আড়ং মিলত রামদিয়াতে। বর্তমান বাংলাদেশের ওড়াকান্দি গ্রামের ঠিক পশ্চিম দিকে যে...

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  • Building political capital on hate propaganda

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 17:25:43 +0000
    Vidya Bhushan Rawat It is a reminder bell that rings every year which has not changed us to the core. The horrific crimes against humanity perpetrated by the political goons in the dark night of...

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  • दो दशक के संघर्ष का आकलन और आगे की लड़ाई के लिए तैयार जन आंदोलन

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 15:53:11 +0000
    अंबरीश कुमार पुणे। जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ( एनएपीएम ) के राष्ट्रीय अधिवेशन में आज देश भर से आए जन आंदोलनों के प्रतिनिधियों ने विभिन्न मुद्दों पर अपना संघर्ष तेज करने का एलान किया है।...

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  • Come Clean

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 15:26:37 +0000
    Dr. Simmi Gurwara Clean India campaign is a better-late-than-never campaign. It gives a fresh impetus to our long forgotten cleanliness drive to keep our surroundings as clean as we know are on...

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  • ज़िंदादिल इंसान अजय नाथ झा

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 14:40:21 +0000
    जगदीश्वर चतुर्वेदी  आज सुबह ख़बर मिली कि अजय झा नहीं रहे, बहुत दुख हुआ, वह जेएनयू के साथियों का अज़ीज़ मित्र था। हम दोनों सतलज छात्रावास में कई साल एक साथ रहे, एक साथ खाना और घंटों बतियाना, लंबी...

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  • Subramanian Swamy's Call to Set History Books Afire

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 14:26:02 +0000
    AlokBajpai Akhil Bhartiya Itihas Sankalan Yojna is a subsidiary organization under the aegis of Rashtriya Swyamsevak Sangh. Recently in its programme, Subramanian Swamy (a new entrant in BJP) has...

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  • बोले समाजवादी-बड़े पैमाने पर किसान और आदिवासियों की जमीन छीनने की साजिश

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 13:44:33 +0000
    अंबरीश कुमार पुणे। किसानों और आदिवासियों की जमीन छीने जाने के खिलाफ समाजवादी धारा के कार्यकर्त्ता देश भर में अभियान छेड़ेंगे। यह फैसला गुरूवार यहाँ हुए समाजवादी समागम में हुआ। इस आगाज के साथ ही मुंबई...

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  • वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया आलेचक अजय एन झा का निधन

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 11:51:24 +0000
    नई दिल्ली। जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया आलेचक अजय एन झा का निधन हो गया है। अजय एन झा हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता का बड़ा नाम थे। वे हस्तक्षेप.कॉम से भी भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने कल...

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  • सरदार पटेल की विरासत की हिफाजत

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 09:31:50 +0000
    दिव्यांशु पटेल जबलपुर एक्सप्रेस के उस वातानुकूलित कोच में लगी पारम्परिक वेशभूषा में एक भील युवती की तस्वीर की तरफ बरबस ही ध्यान खिंचा जा रहा था, साथ बैठे अधेड़ उम्र के अफसरनुमा व्यक्तित्व वाले...

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  • नाना जी देशमुख ने 1984 के जनसंहार को न्यायोचित ठहराया था, देखें दस्तावेज

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 08:29:31 +0000
    शम्सुल इस्लाम आरएसएस भारत में अल्पसंख्यकों को दो श्रेणियों में विभाजित करने से कभी नहीं थकता है। प्रथम श्रेणी में है जैन, बौद्ध तथा सिख जो भारत में ही स्थापित धर्मों का अनुसरण करते हैं। दूसरी श्रेणी...

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  • वीरेनदा से मिलकर लगा कि कविता लिखने की नहीं, कविता जीने की चीज होती है

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 06:36:21 +0000
    वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल ज़िन्दगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है। पलाश विश्वास सवा बजे रात को आज मेरी नींद...

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  • 30 years since 1984: Mass Communal Violence and Lessons in Impunity

    Posted:Thu, 30 Oct 2014 15:44:47 +0000
    Friends, comrades and students of late Professor Iqbal Ansari cordially invite you to attend the 4th Professor Iqbal Ansari Memorial Lecture on 30 years since 1984: Mass Communal Violence and Lessons...

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  • Surinder Koli's hanging will imply a Judicial Acceptance of Torture Confessions: JTSA

    Posted:Thu, 30 Oct 2014 01:21:01 +0000
    Surinder Koli's hanging will imply a Judicial Acceptance of Torture Confessions: JTSA We are astound to learn that the Supreme Court has rejected the review petition of Surinder Koli today, finding...

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  • भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव

    Posted:Thu, 30 Oct 2014 01:06:57 +0000
    प्रेम सिंह ''समाजवाद का ध्येय वर्गहीन समाज की स्थापना है। समाजवाद प्रचलित समाज का इस प्रकार का संगठन करना चाहता है कि वर्तमान परस्पर विरोधी स्वार्थ वाले शोषक और शोषित, पीड़क और पीडि़त वर्गों का अंत...

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  • पत्रकार की खाल में (द) लाल पैदा कर रहा मोदी-राज

    Posted:Thu, 30 Oct 2014 00:55:29 +0000
    नीरज वर्मा 1975 से 1977 तक देश में आपात-काल था। "दबंग"इंदिरा गांधी ने पत्रकारों को झुकने को कहा था, कुछ रेंगने लगे, कुछ झुके और कुछ टूटने के बावजूद झुकने से इंकार कर बैठे। 2014 का नज़ारा...

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  • आचार्य नरेंद्रदेव जयंती पर संगोष्‍ठी 30 को

    Posted:Wed, 29 Oct 2014 18:44:59 +0000
    आचार्य नरेंद्रदेव जयंती पर संगोष्‍ठी विषय : आचार्य नरेंद्रदेव और अहिंसा वक्‍ता : अनिल नौरिया (सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल म्‍यूजियम एंड लायब्रेरी) अध्‍यक्षता : डॉ प्रेम सिंह स्‍थान : गांधी शांति...

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ঢাকায় ‘আমার দেশ’ অফিসে আগুন, দুটি চ্যানেলের সম্প্রচার বন্ধ

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ঢাকায় 'আমার দেশ'অফিসে আগুন, দুটি চ্যানেলের সম্প্রচার বন্ধ

ঢাকার কারওয়ান বাজারে বিএসইসি ভবনের এগারো তলায় অবস্থিত 'আমার দেশ' অফিসে আগুন লাগার ঘটনা ঘটেছে। ওই ভবনেই রয়েেছে দুটি বেসরকারি টেলিভিশন চ্যানেল এনটিভি ও আরটিভির অফিস।এই দুটি চ্যানেলের সম্প্রচার আপাতত বন্ধ রয়েছে।ফায়ার সার্ভিসের কর্মকর্তারা জানিয়েছেন প্রায় দুই ঘন্টার চেষ্টায় ভবনের আগুন তারা নিয়ন্ত্রণে আনতে পেরেছেন।শুক্রবার বেলা পৌনে বারোটার দিকে 'আমার দেশ' অফিসে আগুন লাগে।

'আমার দেশ' অফিসের গোডাউন থেকে অগ্নিকাণ্ডের সূত্রপাত হতে পারে বলে ধারণা করছেন ফায়ার সার্ভিস কর্মকর্তারা। তবে ঠিক কী কারণে আগুন লেগেছে সে সম্পর্কে জানাতে পারেনি ফায়ার সার্ভিস/বেলা দুইটা পর্যন্ত হতাহতের কোন খবর জানা যায়নি। এবং ক্ষয়ক্ষতির বিষয়েও কিছু জানা যায়নি।

এর আগে ২০০৭ সালেও ওই ভবনে আগুন লাগার ঘটে এবং তাতে বেসরকারি টেলিভিশন চ্যানেল এনটিভি'র কার্যালয় অনেকটা পুড়ে গিয়েছিল।

http://www.bbc.co.uk/bengali/news/2014/10/141031_an_karwanbazar_fire_update_two_channel_closed

http://mzamin.com/details.php?mzamin=NDgyMDA%3D&s=MQ%3D%3D

US Government Sanitizes Vietnam War History

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US Government Sanitizes Vietnam War History

Global Research, October 30, 2014

For many years after the Vietnam War, we enjoyed the "Vietnam syndrome," in which US presidents hesitated to launch substantial military attacks on other countries. They feared intense opposition akin to the powerful movement that helped bring an end to the war in Vietnam. But in 1991, at the end of the Gulf War, George H.W. Bush declared, "By God, we've kicked the Vietnam syndrome once and for all!"

With George W. Bush's wars on Iraq and Afghanistan, and Barack Obama's drone wars in seven Muslim-majority countries and his escalating wars in Iraq and Syria, we have apparently moved beyond the Vietnam syndrome. By planting disinformation in the public realm, the government has built support for its recent wars, as it did with Vietnam.

Now the Pentagon is planning to commemorate the 50th anniversary of the Vietnam War by launching a $30 million program to rewrite and sanitize its history. Replete with a fancy interactive website, the effort is aimed at teaching schoolchildren a revisionist history of the war. The program is focused on honoring our service members who fought in Vietnam. But conspicuously absent from the website is a description of the antiwar movement, at the heart of which was the GI movement.

Thousands of GIs participated in the antiwar movement. Many felt betrayed by their government. They established coffee houses and underground newspapers where they shared information about resistance. During the course of the war, more than 500,000 soldiers deserted. The strength of the rebellion of ground troops caused the military to shift to an air war. Ultimately, the war claimed the lives of 58,000 Americans. Untold numbers were wounded and returned with post-traumatic stress disorder. In an astounding statistic, more Vietnam veterans have committed suicide than were killed in the war.

Millions of Americans, many of us students on college campuses, marched, demonstrated, spoke out, sang and protested against the war. Thousands were arrested and some, at Kent State and Jackson State, were killed. The military draft and images of dead Vietnamese galvanized the movement. On November 15, 1969, in what was the largest protest demonstration in Washington, DC, at that time, 250,000 people marched on the nation's capital, demanding an end to the war. Yet the Pentagon's website merely refers to it as a "massive protest."

But Americans weren't the only ones dying. Between 2 and 3 million Indochinese – in Vietnam, Laos and Cambodia – were killed. War crimes – such as the My Lai massacre – were common. In 1968, US soldiers slaughtered 500 unarmed old men, women and children in the Vietnamese village of My Lai. Yet the Pentagon website refers only to the "My Lai Incident," despite the fact that it is customarily referred to as a massacre.

One of the most shameful legacies of the Vietnam War is the US military's use of the deadly defoliant Agent Orange, dioxin. The military sprayed it unsparingly over much of Vietnam's land. An estimated 3 million Vietnamese still suffer the effects of those deadly chemical defoliants. Tens of thousands of US soldiers were also affected. It has caused birth defects in hundreds of thousands of children, both in Vietnam and the United States. It is currently affecting the second and third generations of people directly exposed to Agent Orange decades ago. Certain cancers, diabetes, and spina bifida and other serious birth defects can be traced to Agent Orange exposure. In addition, the chemicals destroyed much of the natural environment of Vietnam; the soil in many "hot spots" near former US army bases remains contaminated.

In the Paris Peace Accords signed in 1973, the Nixon administration pledged to contribute $3 billion toward healing the wounds of war and the post-war reconstruction of Vietnam. That promise remains unfulfilled.

Despite the continuing damage and injury wrought by Agent Orange, the Pentagon website makes scant mention of "Operation Ranch Hand." It says that from 1961 to 1971, the US sprayed 18 million gallons of chemicals over 20 percent of South Vietnam's jungles and 36 percent of its mangrove forests. But the website does not cite the devastating effects of that spraying.

The incomplete history contained on the Pentagon website stirred more than 500 veterans of the US peace movement during the Vietnam era to sign a petition to Lt. Gen. Claude M. "Mick" Kicklighter. It asks that the official program "include viewpoints, speakers and educational materials that represent a full and fair reflection of the issues which divided our country during the war in Vietnam, Laos and Cambodia." The petition cites the "many thousands of veterans" who opposed the war, the "draft refusals of many thousands of young Americans," the "millions who exercised their rights as American citizens by marching, praying, organizing moratoriums, writing letters to Congress," and "those who were tried by our government for civil disobedience or who died in protests." And, the petition says, "very importantly, we cannot forget the millions of victims of the war, both military and civilian, who died in Vietnam, Laos and Cambodia, nor those who perished or were hurt in its aftermath by land mines, unexploded ordnance, Agent Orange and refugee flight."

Antiwar activists who signed the petition include Tom Hayden and Pentagon Papers whistleblower Daniel Ellsberg. "All of us remember that the Pentagon got us into this war in Vietnam with its version of the truth," Hayden said in an interview with The New York Times. "If you conduct a war, you shouldn't be in charge of narrating it," he added.

Veterans for Peace (VFP) is organizing an alternative commemoration of the Vietnam War. "One of the biggest concerns for us," VFP executive director Michael McPhearson told the Times, "is that if a full narrative is not remembered, the government will use the narrative it creates to continue to conduct wars around the world – as a propaganda tool."

Indeed, just as Lyndon B. Johnson used the manufactured Tonkin Gulf incident as a pretext to escalate the Vietnam War, George W. Bush relied on mythical weapons of mass destruction to justify his war on Iraq, and the "war on terror" to justify his invasion of Afghanistan. And Obama justifies his drone wars by citing national security considerations, even though he creates more enemies of the United States as he kills thousands of civilians. ISIS and Khorasan (which no one in Syria heard of until about three weeks ago) are the new enemies Obama is using to justify his wars in Iraq and Syria, although he admits they pose no imminent threat to the United States. The Vietnam syndrome has been replaced by the "Permanent War."

It is no cliché that those who ignore history are bound to repeat it. Unless we are provided an honest accounting of the disgraceful history of the US war on Vietnam, we will be ill equipped to protest the current and future wars conducted in our name.

Copyright, Truthout.org. Reprinted with permission.

Copyright © 2014 Global Research

Fwd: (हस्तक्षेप.कॉम) वीरेनदा से मिलकर लगा कि कविता लिखने की नहीं, कविता जीने की चीज होती है

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  • वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया आलेचक अजय एन झा का निधन

    Posted:Fri, 31 Oct 2014 11:51:24 +0000
    नई दिल्ली। जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया आलेचक अजय एन झा का निधन हो गया है। अजय एन झा हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता का बड़ा नाम थे। वे हस्तक्षेप.कॉम से भी भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने कल...

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    वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल ज़िन्दगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है। पलाश विश्वास सवा बजे रात को आज मेरी नींद...

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    Posted:Thu, 30 Oct 2014 15:44:47 +0000
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    Posted:Thu, 30 Oct 2014 01:21:01 +0000
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    प्रेम सिंह ''समाजवाद का ध्येय वर्गहीन समाज की स्थापना है। समाजवाद प्रचलित समाज का इस प्रकार का संगठन करना चाहता है कि वर्तमान परस्पर विरोधी स्वार्थ वाले शोषक और शोषित, पीड़क और पीडि़त वर्गों का अंत...

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  • पत्रकार की खाल में (द) लाल पैदा कर रहा मोदी-राज

    Posted:Thu, 30 Oct 2014 00:55:29 +0000
    नीरज वर्मा 1975 से 1977 तक देश में आपात-काल था। "दबंग"इंदिरा गांधी ने पत्रकारों को झुकने को कहा था, कुछ रेंगने लगे, कुछ झुके और कुछ टूटने के बावजूद झुकने से इंकार कर बैठे। 2014 का नज़ारा...

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  • आचार्य नरेंद्रदेव जयंती पर संगोष्‍ठी 30 को

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  • उतने ही खतरनाक हैं अनाकोंडा जितने अमेजन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग

    Posted: Wed, 29 Oct 2014 17:53:19 +0000
    पलाश विश्वास गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं। वे वयोवृद्ध हैं और घटनाक्रम को हूबहू याद नहीं कर सकते। वे लेकिन हमारे मुद्दों को भूले...

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  • लार टपकाते चेहरों को पहचानते हों, तो नाम सार्वजनिक करें

    Posted:Wed, 29 Oct 2014 11:55:47 +0000
    अभिषेक श्रीवास्तव आज मैंने प्रधानजी का दिवाली मंगल मिलन वाला पूरा वीडियो तसल्‍लीबख्‍श देखा। एक नहीं, कई बार देखा। करीब पौन घंटे के वीडियो में कुछ जाने-माने लोग हैं, कुछ पहचाने हुए हैं जिनके नाम नहीं...

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  • Modi Sarkar- Politics through Culture

    Posted:Wed, 29 Oct 2014 06:25:35 +0000
    Ram Puniyani The change in the ruling dispensation (May 2014) has more than one aspect which is likely to affect the very social-cultural-political map of India. Narendra Modi won the last elections...

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  • बेशक प्रत्येक संघी दंगाई नही हो परंतु हरेक दंगे में संघी जरूर होता है

    Posted: Tue, 28 Oct 2014 18:28:57 +0000
    प्रत्येक संघी दंगाई नही हो परंतु हरेक दंगे में संघी जरूर होता है। आजाद भारत के इतिहास में 1984 के जिस दंगे को कांग्रेस प्रायोजित कहा गया उन दंगों के चल रहे मुकदमों में भी संघ से जुड़े हुए लगभग 45...

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  • सांप्रदायिकता हमारे समाज में निहित है, जो बस किसी एक चिंगारी की बाट जोहती है

    Posted:Tue, 28 Oct 2014 17:44:57 +0000
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  • Congress brand of secularism needed to be exposed- Brinda Karat

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    New Delhi. Barely has this government caught its breath that it has started an unrelenting attack on India's poor said Brinda Karat, CPI-M's only woman Polit Bureau member in a special interview with...

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    New Delhi. October 28, A CPI(M) delegation consisting of Sitaram Yechury, Member of Polit Bureau and Leader of CPI(M) Group in Rajya Sabha and Mohd. Yusuf Tarigami, Member of CPI(M) Central Committee...

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    BJP Government is anti poor, says CPIM Polit Bureau Member Brinda Karat

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अभिषेक को धन्यवाद,इस शानदार मौके की तस्वीरे खींचने की जब हम अपने परिवार में थे और वीरेनदा और आनंदजी के साथ फिर सपना बुनने का दुस्साहस कर रहे थे

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अभिषेक को धन्यवाद,इस शानदार मौके की तस्वीरे खींचने की जब हम अपने परिवार में थे और वीरेनदा और आनंदजी के साथ फिर सपना बुनने का दुस्साहस कर रहे थे।
हम अब भी एक जान हैं तो असंभव कुछ भी नहीं।
पलाश विश्वास

अपने आसपास इतने सारे लोग हैं जो हमें कमज़ोर और निराश नहीं होने देते। बस मिलते-जुलते रहने की ज़रूरत है। सिर्फ चार महीने पहले रविभूषणजी जब दिल्‍ली आए थे तो उनके और रंजीतजी के साथ वीरेनदा के पास जाना हुआ था। पहली तस्‍वीर तब की है। वीरेनदा की वही निश्‍छल हंसी फिर देखने को मिली जब आठ साल बाद सपत्‍नीक दिल्‍ली आए पलाशदा के साथ हम लोगों ने दिन गुज़ारा। पलाशदा डेढ़ साल में रिटायर होने जा रहे हैं लेकिन अब भी किसी को बोलने नहीं देते। पूरे उत्‍साह से लबरेज़ और नई-नई चुनौतियों से लड़ने की योजनाएं बनाते हुए।

सोचिए, पलाशदा के साथ पहले आनंदस्‍वरूप वर्मा के घर पर जाना और वहां से वीरेनदा के यहां जाना, साथ में अम्‍लेंदुजी और रंजीतजी का संग। उस पर से पलाशदा की हमसफ़र सविता भाभीजी का वीरेनदा के कमरे में मधुर रवींद्र संगीत।

जिंदगी राजनीति और विचारधारा से बहुत बड़ी है। इन लोगों को देख‍कर लगता है कि हम कथित नौजवान लोग ही बहुत जल्‍दी बुढ़ा रहे हैं। सबके चेहरों की मुस्‍कान ऐसे ही बनी रहे। प्रधनवा का क्‍या है, वो तो आता-जाता रहेगा!!!

जून की तस्‍वीर। रविभूषणजी और वीरेनदा।
बाएं से पलाश बिस्‍वास, अम्‍लेंदु उपाध्‍याय, सविता भाभीजी, रंजीत वर्मा और ख़ाकसार
पलाशदा, अम्‍लेंदु भाई, पलाशदा की धर्मपत्‍नी सविताजी, आनंद स्‍वरूप वर्मा और रंजीतजी

हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए। बाकीर दोस्तन से हमार अर्जी यह कि हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे। पलाश विश्वास

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हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।

बाकीर दोस्तन से  हमार अर्जी यह कि हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।



पलाश विश्वास

हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।हमको जो जानत है,ऊ इस बयान का मतलब बूझ लें।जो जानबे ना करै,उनन को का मतलब कि कित्ते जोरल हम भौंकल वानी।


यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है।हुड़के की थाप पर थूकनेवाला कलेजा तो एक ही था।


विशुद्ध अराजनीतिक अवस्थान है।अपने लोगों के हित के लिए तो हम कुछ न कुछ करते रहेंगे,चाहे जो जइसन समझ लीजै।


देवभूमि कहकर पहाड़ की खाल नोंचेने वाले कसाइयों को बख्शने वाले दूसरे हो सकते हैं, हम तो कतई नहीं।


हां , हमको हउ न चाहिए।

न कुर्सी,न सम्मान, न पुरस्कार, न दर्जा उर्जा और न पैसा उइसा,न दवा दारु।


ऐसा हम राजनीतिक दंगल में कूदे बिना ही कर सकते हैं और यकीनन करेंगे भी।

कारपोरेट दलालों के खिलाफ हम उत्तराखंड में लड़ेंगे।उत्तराखंड से बाहर हमका एइसन कोई हंगामा करने की कोई जरुरत नहीं है।


पहले तो म्हारा माफीनामा पढ़ लिया जाये कि मैं दिल्ली गया तो सबसे संपर्क साध नहीं सका।ऐसा मेरे गांव बसंतीपुर,कस्बा दिनेशपुर,सिडकुलिया राजधानी  के गृहक्षेत्र तराईभर में और नैनीताल छोड़ बाकी पहाड़ में भी हुआ कि मैं कुछ ही लोगों से मिल पाया और जैसे सुरेंद्र ग्रोवर जी को शिकायत है,वैसे ही अनेक मित्रों प्रियजनों को शिकायत है कि मैंने उनकी खोज खबर नहीं ली।


भइया दिल्ली हम गये सिर्फ वीरेनदा से मिलने और उनसे मिलने हम फौजें इकट्ठी करने नहीं जा सकते थे।


बाकी दो हमारे सबसे खासमखास रिश्तेदार हैं,एक हुुए समयांतर वाले पंकज बिष्ट और दूसरे हैं आनंदस्वरुप वर्मा,पता नहीं कब उठ जायें और उनका किया कराया मटियामेट हो जायी।ऐसा न हो,इसका भी कुछ बंदोबस्त होना चाहिए।


जो लोग वैकल्पिक मीडिया की जंग जारी रखना चाहते हैं,मेरी इसबार की दिल्ली यात्रा उनके लिए ही थी।टीआरपी वालों के लिए कतई नहीं।


मैं हैसियतों की परवाह कतई नहीं करता और लोग यह न जानते हो तो उनकी गलती है।

पत्रकारिता और राजनीति में एको चीज कामन है,जो कुर्सी पे गधा घोड़ा खच्चर भैंस ऊट सांप नेवला कुछ भी हुआ करें,उन उगतन सूरज को सबै अर्घ्य दिया करें छठ मइया का नाम लेइके।डूबतन को भी अर्घ्य।का पता ,का न का बिगड़ लीन्हैं।हम ससुरे बिहारो से पत्रकारिता शुरु किलै,अखंड बिहार के माफिया डेन धनबाद से।किस्सा वासेपुर समझें।तो तनि बाहुबलि,धनपशु,कुर्सियन की रंगदारी हम तनिको कम बूझै हैं।



बीबीसी संपादक राजेश जोशी का कद यकीनन थोड़ा लंबा हुआ है लंदन से वापसी के बाद,लेकिन वह हमारे घरु टीम जनसत्ताई और तराइया दोनों के लिहाज से लंगोटिया हैं।बाकीर उनने इस देस के कारपोरेट मीडिया के खालउधेड़ु,पर्दाफाशु,पेइडू,स्क्रावलिंग रबड़घिस्सू घटनाघनघटा सनसनी के बजाय मुद्दों को संबोधित करने और जनसुनवाई विमर्श और संवाद की जो पत्रकारिता जारी रखी है और केदार जलप्रलय का जो कवरेज किया है, मित्र ,पूर्व सहकर्मी और तराइया होने की हैसियत से राजेशवा की पीठ सीधे ठोंकने की तमन्ना थी।


और बीबीसी वाली उनकी टीम को भी लाइव धन्यवाद देना था,तो पहलीबार बीबीसी वालों से भी मिल आया हिंदुस्तान टाइम्स भवन में जहां कभी हम मनोहर श्याम जोशी,हिमांशु जोशी वगैरह वगैरह से मिलने जाया करते थे,लेकिन हिंदुस्तान समूह में मेरा कभी कुछ छपा उपा नहीं है।मृणाल जमाने में भी नहीं।


कहने को जनसत्ता का सदर दफ्तर भी दिल्ली में है और मैंने किसी से फोनियाया तक नहीं।हम कुल मिलाकर तीन ही लोगों मिलने दिल्ली गये थे, अव्वल वीरेनदा,फिर आनंद जी और फिर पंकजदा।


बाकी अमलेंदु अभिषेक तो हमारे भविष्य ठहरे।रियाज मिलबे नहीं करा।जिनके घर ठहरे ,वह डीएसबी से कोलकाता तक हमारा निरंतर दुरंतो दोस्त हुआ।


इसलिए हमारी अर्जी यह कि हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।


लंबी यात्रा से सविता की हालत बेहद खराब थी,लेकिन हम सिर्फ सुंदरलाल बहुगुणा जी से मिलने देहरादून पहुंचे,जो वहां अपनी बेटी के साथ रहते हैं।


सविता तो सिर्फ बाबूजी को प्रणाम करने देहरादून गयी तो हमारा मकसद भी सिर्फ उन्हीं से मिलना था।


इसीलिए हमने सिर्फ राजीव नयन जी को सूचना दी थी, बाकी गीता गैरोलादीदी और भास्कर उप्रेती को ही जानकारी थी तो कमल जोशी तो कोटद्वार से बरसात के बीच उधार का स्कूटी लेकर बीजापुर स्टेट गेस्टहाउस पहुंचे देर रात कि डीएसबी में बीकर से चायपीने वाले हम लोग इतने अरसे बाद मिल रहे थे।


राजीव नयन जी का फंडा घमासान है,जिनने राजधानी दून में हमारे ठहराव का अतिविशिष्ट इंतजाम किया हुआ था और सुबह पता चला कि बगल में ही माननीय मुख्यमंत्री हरीश रावत  आसन जमाये बैठे हैं।


सुरक्षा बंदोबस्त से तो हमारी सांसे वैसे ही बंद हो जाती हैं।


कमल जोशी पहुंचा तो मैंने थोड़ी शिकायत भी की कि किसी केघर में ठहरते तो सबसे मुलाकात हो जाती,इसपर कमल ने कहा कि लाल लंगोट छोड़ी अभी नहीं।तुम्हें क्या लेना देना।सुबह उठकर सुंदरलाल जी से मलकर उल्टे पांव लौट जाना।


और हुआ दरअसल वहीं,भास्कर सुनीता को लेकर हल्द्वानी लौट गया तो कमलापंत को शाम तक पहुंचना था और गीता दीदी को कई दफा बहुगुणा जी से बातचीत के दौरान कोशिश करने पर भी फोन लगा नहीं पाया।


सुंदर लाल जी से बातें खत्म हुईं तो हम फिर बिजनौर की राह पर निकल पड़े।उन बातों का मतलब आज के बुनियादी मसलों से है और इस महादेश के वजूद से उनका वास्ता है,जिसपर अभी बात शुरु होनी है।


किस्सा सारा हूबहू इसलिए कि  कोई इस पर न हंगामा बरपा दें कभी कि मैं दून में सत्तापक्ष का अतिथि भी रहा,तो इसका खुलासा करने का तकाजा है यह।


मैं जैसे नैनीताल जाता हूं,वैसे ही मुंह उठाकर खाला का घर समझकर देहरादून चला गया कि अपने भी गर वहां होंगे। सरकारी ठहराव का अंदाजा न था।तैयारी भी न थी अपनी।


दरअसल दून के इस कायाकल्प से तो हकबक हम हुए और हमें लगा कि ससुरे किस सीमेंटी महाअरण्य में आ फंसे। जेब मैं पैसे होते तो अलग ठहरते भी और सुंदरलाल जी से उस बेशकीमती मुलाकात की वीडियोग्राफी भी करवा लेते।


हम तो फक्कड़ हैं ही और राजीवनयन जी हुए गुरु घंटाल।


लेकिन यकीन मानिये कि न अपण को कहीं से सम्मान, पुरस्कार, टिकट,प्लाट,घर,दर्जा वगैरह वगैरह से कोई लेना देना है और न राजीव नयन को।


इसे हिच हाइकिंग समझ लें और हमें सत्ता स्पर्श दोष से मुक्त कर दें और आगे कभी इसे लेकर बवाल न हो,इसलिए सविस्तार यह खुलासा।


किशोरी से क्षमायाचना और उनके आभार के साथ।


क्योंकि उन्हीं राजीव नयन जी की महिमा से मुख्यमंत्री कार्यालय से हमारे लिए गाड़ी का बंदोबस्त हुआ और किशोरी जी ने भुगतान वगैरह करके हमें खर्च से बचा लिया।


त्रिपुरा और असम में राज्यसरकारों का अतिथि बनकर हम कभी गये जरुर थे,लेकिन देहरादून में इस अति विशिष्ट स्वागत के लिए हम प्रस्तुत न थे।


किशोरी उपाध्याय ने राजीवनयन की मित्रता की वजह से जरुर कोई राजनीतिक जोखिम जरुर उठाया है,क्योंकि हम तराई और पहाड़ में उतने गऊ भी नहीं  माने जाते।लेकिन हम फिलहाल उत्तराखंड में हर हालत में भाजपाइयों को रोकना चाहते हैं तो राजनीति करें या नहीं करें,कांग्रेस पार्टी और उत्तराखंड सरकार का अहसान उतारने का मौका शायद मुझे मिल भी जाये।


हम अपने लोगों से खुलकर यह तो कह ही सकते हैं कि केशरिया न बनें अगर और सत्यानाश न चाहते हों।


ऐसा हम यकीनन कहेंगे क्योंकि डेढ़ साल बाद रिटायर हो जाना है और तब मैं इतना तो कर ही सकता हूं।


खास तौर पर बंगाली शरणार्थियों को देश भर में बेनागरिक बनाने के,देश सेखदेड़ने के संघी कार्यक्रम और बंगाल से बाहर सर्वत्र उन्हें मूलनिवासी न मानने की भाजपाई सरकारों की करतूत के बाद इतना करना तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार बनता है और इसके लिए मुझ पर सत्ता की किसी मेहरबानी की कोई जरुरत है ही नहीं।


यह हमारी सेवा मुफ्त होगी।बिना शर्त होगी।बशर्ते कि उत्तराखंड के कांग्रेसी और दूसरे भाजपाविरोधी ताकतें हमारी मदद लेने को तैयार हो जायें।


हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।



शमशेर दाज्यू और राजीवदाज्यू पहले ही पुष्टि कर चुके हैं कि रावत जी भी कभी हमारे जमाने में आंदोलनारी रहे हैं।वनों की नीलामी के खिलाफ वे जेलयात्रा कर चुके हैं और हमारे पिताश्री के भी सबसे अलग ताल्लुकात रहे हैं।


इंदिरा ह्रदयेश जी जब 77 के तख्तापलट के बाद हल्द्वानी से चुनाव लड़ी थी,तब हल्द्वानी में उनकी सभा में हेमवती नंदन बहुगुणा जी के अलावा मैं भी मंच पर था, जब भारी पथराव हो रहा था और पुलिस को लाठीचार्ज वगैरह करना पड़ा था।


प्रदीप टमटा जो सांसद बने ,वे हमारे मित्र थे।बाकी मंत्री वंत्री तो पहले से जानत रहे हैं।

हम सुंदर लाल जी से मिलने गये थे मिलकर आ गये।किस्सा खत्म पैसा हजम।


हम दून पहुंचे तो राजीव नयन दाज्यू के सौजन्य से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोरी उपाध्याय जी कांग्रेस भवन में अपने साथियों के साथ मौजूद थे।


उत्तराखंड में पहाड़ और तराई में हमारी भी थोड़ी बहुत पहचान ठैरी और हम भाजपाइयों को पहाड़ का और सत्यानाश करने के लिए सत्ता हस्तातंरित करने के विरुद्ध थे।रहेंगे।


बिजनौर से निकलकर हम मेरठ की नयी चकाचौंध के मध्य से निकलकर मोदीनगर के बाद ढाबे में काफी पीकर बस में बैठे तो गाड़ी गाजियाबाद होकर कश्मीरी गेट की तरफ निकलने लगी और बिजनौर में साइंलेट रहने वाले एअरटेल का नेटवर्क जुड़ गया।दिलीप मंडल ने ठीक याद रखा कि मैं दिल्ली पहुंचने वाला ही हूं।


दिलीप मंडल अब भारी भरकम पत्रकार और अध्यापक हैं।सुमंत और दिलीप दोनों बेहद कामयाब और ब्रांडेड पत्रकार  हैं,उसीतरह जैसे अभय कुमार दुबे और एकदा हमें पत्रकारिता में घुसेड़ने वाले राहुल सांकृत्यायन पर अधूरे रिसर्च के साथ जेएनयू में नामवरी शिकार उर्मिलेश भाई या पुण्यप्रसूण वाजपेयी।


हिंदी पत्रकारिता के दिन बहुर रहे हैं,इनकी बेशकीमती कामयाबी से ऐसा ही लगता है।ऐसे अनेकों हिंदी बांग्ला और कुल मिलाकर भारतीय पत्रकार हैं,जिनसे कभी न कभी हमारा रिश्ता रहा है।पी साईनाथ और हार्डीकर जैसे कुछ बिना किसी निजी परिचय के हमें थोड़ा बहुत घास डालते हैं तो बाकी लोग हमें न पिद्दी मानते हैं और न पिद्दी का शोरबा।


हमें इसका कोई गिला शिकवा नहीं है।बूढ़ापे तक परम सारस्वत प्रभाष जोशी ने जो हमें विंध्य भव कर गये,हम वहीं अस्पृश्य मध्यभारत या गैरनस्ली हिमालयी भूत बनकर रह गये.जिसकी प्रेतमुक्ति के आसार हैं नहीं।


दिलीप मंडल अब भी हमें अपना बड़ा भाई कहते शर्माते नहीं हैं  और इससे बड़ी बात यह कि अनुराधा के असमय निधन के बाद मैं अब तक उसके साथ खड़ा नहीं हो पाया।लेकिन यकीन मानिये कि मैं दिलीप को फोन भी नहीं कर सका।


पता चला कि संजय जोशी सिनेमा आंदोलनकारी इलाहाबादी भी वीरेनदा के इंदिरापुरम के बगल में कहीं बसते हैं,लेकिन मैं उसके बारे में पूछताछ करना भी भूल गया।कश्मीरी गेट जाने से पहले झिलमिल उतरने का मौका है,जहां मेरी बहन रहती हैं।


अपने जिगर के टुकड़े दिल्ली और अन्यत्र अनेक हैं।जैसे कि वह गुलमोहर का पेड़,जो बचपन मे सिधार गया।हमारे सरोकार दूसरे हैं।मुद्दे भी दूसरे हैं।एजंडा अलग है।मिशन भी अलग है।सो,दिल में उमड़े घुमड़े बले बहुतै कुछ,हमरा राह कुछ अलग ही है।


जिगर के टुकड़ों कि इसलिए हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।


दिनेशपुर में चौराहे पर सुबीर गोस्वामी के दादाजी डा.निखिल राय का दवाखाना था।जो मशहूर बंग्ला फिल्मस्टार विकास राय के भाई थे।दिनेश पुर में जात्रा के जनक हगी कहिए उन्हें।वे बूढ़े थे।सुबीर के पिताजी उनके दामाद।


सुबीर के पिताजी और माताजी दिनेशपुर में थिएटर करने वाले थे साठ के दशक में।रवींद्र नजरुल जयंती भी करने वाले वही।


अब न सुबीर के नानाजी हैं और न उनके पिता।उसके पिता डा.अजय गोस्वामी ने मेरे ससुराल वालों को कभी हिदायत दी थी कि पलाश को देखने की जरुरत नहीं है।न उसके घर वार देखने की जरुरत है।

और सविता इसतरह मेरी जिंदगी में आ गयीं। बिना जांच पड़ताल।खुदा की नियामत की तरह।

डा.निखिल राय और डा.अजय गोस्वामी मेरे वजूद में शामिल है लेकिन उनके अते पते के साथ मेरे शैशव,मेरे बजपन,मेरे कैशोर्य,मेरे विद्रोह,मेरी अराजकता के सारे ब्यौरे सिलसिलेवार गायब हैंय़लेकिन मेरा कोई हक नहीं बनता कि मैं दो बूंद आसूं भी बहा सकूं।


तराई में बंगालियों की सांस्कृतिक पहचान के दोनों आइकन अब शायद ही किसीको याद हों जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू शायद ही किसी को याद हों।इसीतरह भुला दिये जायेंगे हमारे गिरदा भी।


हमको भूल गये हमारे महबूब ,किससे गिला करें,किससे करें शिकायत कि उन्हें हमारी याद आती नहीं है।


दूसरी तीसरी कक्षा से लेकर एमए तक डा.निखिल राय से दुनियाभर के मसलों पर,फिल्म,थियेटर,कला साहित्य,संस्कृति,इत्यादि पर मेरी बहसें होती रहतीं थीं।उनकी आरपामकुर्सी पर सोये मैंने जाडो़ं और गरमियों की छुट्टिया बिता दीं।


सारे दिवास्वप्न उसी दवाखाना में देखीं।

दुनियाभर के हसीन इशारे और गुस्ताखियों का,शैशव से कैशोर्य और जवानी के इंतजार का वही डेरा था।


स्वप्न सुंदरी के साहचार्य का दिलफरेब अहसास का तिलिस्म भी वहीं।

रसगुल्लों के आखिरी जायके की यादें भी वहीं दफन हो गयीं।जीते जी वे स्मृतियां मेरे ख्वाबों में भी लौटेंगी नहीं अब कभी।


दिनेशपुर कस्बे का हमारा वह पुराना ठिकाना अब खत्म है।सुबीर के परिवार में बंटवारे के तहत वह जगह कम पड़ गयी,बिक गयीं और हमारी दिलोदिमाग को नेस्तनाबूत करने वाली तमाम स्मृतियां जमींदोज हो गयीं।


डरता हूं कि इसी तरह मेरा घर,परिवार,गांव,देहात ,तराई पहाड़,देश महादेश और यह दुनिया भी जमींदोज न हो जाये किसी दिन।

वह दिन यकीनन कयमत का सबब होगा।

हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।


मुनाफे की इस व्‍यवस्‍था में चाहे वेश्‍यावृत्ति कानुनी हो या पूरी तरह प्रतिबंधित, उसमें गरीब महिलाओं का ही शोषण होना है, उन्‍हीं की नाबालिग बच्चियां उठायी जाती है।

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एक अच्‍छे खाते पीते घर की शादीशुदा महिला का कल वेश्‍यावृत्ति को कानुनी बनाने सम्‍बंधी विषय पर कमेंट था कि ऐसा करने से "सभ्‍य"महिलाओं का बलात्‍कार रूक जायेगा। बहुत सारे अन्‍य लोग भी इसी तर्क से वेश्‍यावृत्ति को कानुनी बना देने की मांग कर रहे हैं। बलात्‍कार व महिला विरोधी अपराधों के मूल कारणों की पड़ताल करने की जगह ये लोग इतने मानवद्रोही बन गये हैं कि अपना या अपने सगे सम्‍बधियों (या फिर "सभ्‍य"महिलाओं का) का बलात्‍कार ना हो तो इन्‍हे दुनियाभर में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों या बलात्‍कारों से कोई समस्‍या नहीं है। वैसे देखा जाये तो भारत में कुछ इलाकों में वेश्‍यावृत्ति कानुनी भी है (दिल्‍ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में इसके लिए खास जगहें चिन्हित हैं)। उन्‍हीं इलाकों में भारत के गरीब इलाकों से व बांग्‍लादेश जैसे देशों से नाबालिग लड़कियों को लाया जाता है व हार्मोनों के स्‍टेरॉइड इंजेक्शन दे देकर उन्‍हें जवान दिखाया जाता है। क्‍या इससे भारत में बलात्‍कार बन्‍द हो गया है। क्‍या उन देशों में बलात्‍कार या महिला विरोधी अपराध कम हैं जहां वेश्‍यावृत्ति कानुनी है। वैसे भी कोई मानवद्रोही जानवर ही इस तरह की चीजों की वकालत करेगा जिससे एक महिला का बलात्‍कार का रोकने के लिए किसी दूसरी महिला को जिन्‍दगी भर तिल तिल मरना पड़े। 
मुनाफे की इस व्‍यवस्‍था में चाहे वेश्‍यावृत्ति कानुनी हो या पूरी तरह प्रतिबंधित, उसमें गरीब महिलाओं का ही शोषण होना है, उन्‍हीं की नाबालिग बच्चियां उठायी जाती है। अगर वेश्‍यावृत्ति प्रतिबंधित भी है तो पैसे वालों के लिए कोई समस्‍या नहीं है। आये दिन आप अख़बारों में बड़े बड़े कॉल गर्ल्‍स रैकेट के बारे में पढ़ते होंगे, क्‍या कभी भी किसी बिजनेसमैन, नेता, अफसर को पकड़कर सजा दी जाती है। क्‍या कभी भी ऐसे रैकैट सरगनाओं को सजा होती है।

सोवियत संघ में क्रान्ति के बाद एक बड़ी समस्‍या वेश्‍यावृत्ति भी थी पर उन्‍होनें कुछ ही वर्षों में उसे पूरी तरह खत्‍म करने में सफलता प्राप्‍त की। सभी लोगों को वो प्रयोग जरूर पढ़ना चाहिए और सोचना चाहिए कि क्‍या एक मुनाफाखोर व्‍यवस्‍था में वेश्‍यावृत्ति को पूरी तरह कानुनी बनाने या प्रतिबंधित करने से ये समस्‍या हल हो सकती है या फिर इसका समाधान एक मुनाफारहित समाजवादी समाज ही दे सकता है। 
'पाप और विज्ञान' नाम की इस पुस्‍तक में अमेरिकी पत्रकार डाइसन कार्टर ने अपने देश अमेरिका और समाजवादी रूस का तुलनात्‍मक अध्‍ययन करते हुए इस तरह की समस्‍याओं के दो समाधानों (अमेरिकन व रूसी) का विस्‍तृत ब्‍यौरा पेश किया है। नीचे इस पूस्‍तक के अंग्रेजी संस्‍करण का‍ लिंक दे रहा हूँ। हिन्‍दी में ये पुस्‍तक जनचेतना ने प्रकाशित की है। 
https://www.scribd.com/doc/137563326/Sin-and-Science

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कोलाहल होने दो। चलना बिना किसी नेतृत्व, बिना किसी झण्डे, बिना किसी संगठन दुनिया को शरीक होने का निमंत्रण

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कोलाहल होने दो।
चलना बिना किसी नेतृत्व, बिना किसी झण्डे, बिना किसी संगठन
दुनिया को शरीक होने का निमंत्रण
20 सितम्बर को कोलकाता में अलग अलग काॅलेजों के एक
लाख से ज्यादा छात्र बारिश में गाने गाते हुये सड़कों पर एकत्र
हो कर कई घण्टे चले।
एक बुजुर्ग कवि का कहना है कि कोलकता शहर को उन्होंने ऐसा कभी नहीं देखा।
ये चलना बिना किसी
नेतृत्व, बिना किसी झण्डे, बिना किसी संगठन की अगुआई के था।
''हौक.हौक.हौक हौकौलोराॅब'' - कोलाहल होने दो। जब
कई एक साथ बोलते हैं, उस भव्यता का रूप है कोलाहल। चुप्पी
और बोल के द्वन्द् को ये कोलाहल भेद देता है। ये कोलाहल
आनन्ददायक है, साथ ही अबूझ भी। एक के टैन्शन में कुछ ने
शामिल हो कर, कुछ के टैन्शन में लाख ने शरीक हो कर पूरे शहर
को, इन्टरनेट में करोड़ों को, और दुनिया.भर के सौ देशों में लोगों
को इस कोलाहल में खींच लिया।
''आमरा शैबई बोहिरागौतो''
- हम सब बाहरी हैं - के बिल्ले लगा कर छात्रों ने दुनिया को
अपने साथ शरीक होने का निमंत्राण दिया। अन्दर.बाहर के
विभाजन की भाषाओं को तहस.नहस कर दिया।
28 अगस्त कोलकाता की जादवपुर युनिवर्सिटी के
''विश्वविद्यालय उत्सव''का आखिरी दिन था। शाम को एक
छात्रा और उसके मित्र को अकेले में पा कर कुछ अन्य छात्रों ने
उनके साथ हिंसा की - डराया.धमकाया, मारपीट की, छात्रा
को जबरन हाॅस्टल के कमरे में ले गये और शारीरिक बदतमीजी
की। छात्रा ने अगले दिन उप कुलपति को शिकायत की और
पुलिस में एफ.आई. आर. दर्ज करवाई। वाइस चान्सलर बोला की
जांँच समिति बनाने में 15 दिन लगेंगे और बेहतर होगा कि इस
दौरान वह यूनिवर्सिंटी नहीं आयैं
छात्रा के साथ सहपाठी आये। सहपाठियों ने कहा कि जाँच
समिति तत्काल बनाई जाये और कार्यस्थल पर महिलाओं की
सुरक्षा के लिये जो दिशा निर्देश हैं उन्हें विश्वविद्यालय में लागू
किया जाये
इनके साथ और भी छात्रा जुड़ते गये। उप कुलपति के
कार्यालय के बाहर बैठ गये - फिल्में देखने.दिखाने लगे,
गाना गाने लगे, नये गीतों की रचना करने लगे, दीवiरों पे चित्र
बनाने लगे और ''कोलाहल होने दो''का गाना फैल गया। यह गीत
कुछ साल पहले बांग्लादेश के एक गायक ने रचा और गाया था।
16 सितम्बर की रात तक इस गीत को घूमते हुये 150 घण्टे
हो गये थे। उप कुलपति ने कमाण्डो पुलिस को बुलाया, लाइट
औफ करवाई और बेरहमी से छात्रों को पिटवाया।
अगले दिन छात्रा गिटार, वायलिन और माउथ ओरगन
बजाते हुये थाने के बाहर बैठ गये। पुलिस कंट्रोल रूम का नम्बर
उन्होंने इन्टरनेट द्वारा विश्वभर में फैला दिया। जगह जगह से
लोग पुलिस कंट्रोल रूम को फोन करने लगे।
एक रेडियो जाॅकी ने एक दो फोन की बातचीत एफ एम रेडियो 
पर भी प्रसारित कर दी।
पुलिस हैरान। अगले दिन जब पुलिस युनिवर्सिटी गई तब
बिना हथियार थी। 20 सितम्बर को एक लाख छात्र सड़कों पर
चले तब भी पुलिस ने हथियार साथ रखने से परहेज किया।
जादवपुर के छात्रों का ये कोलाहल कई और विश्वविद्यालयों
में उठ रहा है। कोलाहल को बढने दो।
as narrated in Faridabad Majdoor Samachar of this Month
Rajesh Jakhar's photo.
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Indian geopolitics remains the land of Ethnic cleansing with full bloom racial apartheid! It is Neo Nazi State Power we have made for ourselves which has declared a non stop war against its people and racial apartheid is practiced against humanity all over the geopolitics bleeding non stop. Neo Nazis have taken over the global order of Mass Destruction! Palash Biswas

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Indian geopolitics remains the land of Ethnic cleansing with full bloom racial apartheid!

It is Neo Nazi State Power we have made for ourselves which has declared a non stop war against its people and racial apartheid is practiced against humanity all over the geopolitics bleeding non stop.


Neo Nazis have taken over the global order of Mass Destruction!

Palash Biswas


Gangadin Lohar wrote: "If Hindutva or Islamists of India are right, how can be Neo-Nazis wrong ? Neo-Nazis believe that in today´s world 1. Colored races are far, far less creative unlike white races. 2. Colored races are overpopulating and flooding our countries. 3. Colored races are resource-eaters but not productive (if at all, then it is only under our benign white influence etc.!) Therefore, 4. Colored races should be eliminated before our identity, culture, religion everything disappear because of economic migrants to Europe or USA. 5. Colored races should be eliminated before it is too late to save earth and environment from overpoppulation caused by Colored Races. Lage Rahe Hindutva-walon aur Islamiston !


Here you are!

Our friend Gangadin Lohar has struck the gold,I had been missing!

This note may be concluded as Neo Nazis have taken over the global order of Mass Destruction and Indian geopolitics remains the land of Ethnic cleansing with full bloom racial apartheid!


It was Mrs Indira Gandhi who made the overpopulation the focal point of development and inclusion during emergency suspending civic and human rights,democracy  and constitution.


Since the emergency regime ,I have been hearing the echoes of the Neo Nazi war cry in every corner of the country and the theme being racial apartheid across the political borders all over the geopolitics resultant in unprecedented violence,reckless economic exclusion and ethnic cleansing all on the name of development and reforms to sustain the black money hegemony fed by desi videshi crony capital deregulated and decontrolled.


Every second enlightened or semi literate purchasing empowered post modern Indian citizen speaks in intense hate campaign oriented language and advocates depopulation.Corporate media and hegemony rooted intelligentsia have justified this ethnic cleansing manipulating mandate and making the democracy an autocracy managed by all types of war criminals and it is the Hindutva nation we boast so much so.


Technology has immunised knowledge and cloned robots created by mushroomed knowledge economy have no mercy for either humanity or nature.


It has nothing to do with religion whatsoever.

The want to eliminate the depressed classes.

They want to kill the welfare state and minimum governance and PPP model development launched monopolistic aggression against the agrarian rural India divided into thousands castes, hundreds identities,farther more communities,creeds,clans and religious identities overwhelming.


It is Neo Nazi State Power we have made for ourselves which has declared a non stop war against its people and racial apartheid is practiced against humanity all over the geopolitics bleeding non stop.


I have been on travel since 14th Oct. last and returned to my PC only yesterday.I reached my home affixed into the heart of urbanisation and industrialisation in the Terai belt of the Himalayan region known now as SIDCUL Rudrapur Pantnagar area.Wherefrom I tripped to my home town Nainital and returning from there I watched closely the SIDCUL landscape.


On 24th,I landed in Dharmanagari,the village of ex governor late Dharmaveer where my in laws do reside.

On 25th, I went Dehradoon just to meet legendary Sunder Lal Bahuguna who has stopped taking rice having seen the Gomukh being transformed into a desert.He has forgotten nothing which matters the humanity and nature.I would discuss on those iossues.


Dharmanagari is situated on the Banks Of the Ganges and it connects to Mujaffarnagar and Meerut across Ganga,the richest agrarian belt in India,ironically the fierce most hunting ground of the Neo Nazis which I witnessed as a working journalist for six years covering the period chronologically Bhopal Gas Tragedy, assassination of Mrs Indira Gandhi, Sikh Genocide,Ram Mandir movement getting momentum,agrarian movement led by MS Tikait and Hashimpura and Maliyana Genocide.


The peasants of Western UP are better scientists as far as harvesting is concerned and they happen to be skilled to use pesticides and fertilisers in a better way.They have sustained the desi seeds hitherto. They know well about the green Anacondas in the khadar region of the Ganges.But the are the greatest victims of neo nazi anacondas which culminates in unprecedented agrarian crisis as well as communal polarisation.



Which money is white,Mr.Prime Minister? Palash Biswas

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Which money is white,Mr.Prime Minister?

Palash Biswas

Way back in 2005,I had decided to purchase a three room apartment built on my late journalist friend Mahendra Srivastav.The promoter informed me that I had to pay just Rs.Eight lac only and he would manage the bank loan.I had no cash in hand and was planning to get personal loan which turned to be rather a Herculean task as no bank was ready to pass personal loan for a scribe in Kolkata.However,some friends specifically DSB old boy Rajiv Kumar assured me that there would not be any problem whatsoever as they were ready to help me with the booking amount.I was planning to draw some amount from my PF to pay back them.


Meanwhile,the promoter asked me about my plan to pay Rs One Lac in black.I never earned anything but my wage.I was getting a handsome amount regularly for my writing which stopped as soon as I started to write against open market economy and economic reforms in nineties.Being a sub editor of a low graded of a national daily,I had no way to save as I faced several emergencies including my wife`s open heart surgery.I informed the promoter that I may pay only in white as I may not get the black money.I could not manage to get a piece of land either.


The latest status around my locality is that two room apartments do cost Rs.Fifty lac.Even in a remote island like Ganga Sagar no land is available which is spared from the clutches of builders and promoters.


Hence,just after my retirement I would have no shelter to rest in and it would be very tough to sustain ourselves as both me and my wife are diabetic and have to spend  a lot on medical expenses.


In a world just on fire and ruled by promoters,my purse would not allow me to have a home just because I have no black money.


Economic Times focused on Black money today in its Sunday editions.I am quoting relevant articles to expose the meat of the problem which is rather showcased as cakewalk in continuous election campaign of the Indian Prime Miniser.


Chasing black money: How parties are resisting transparency in funding

Chasing black money: How parties are resisting transparency in funding

In the clamour for recovering black money stashed abroad, bigger scourges have received less attention - the way parties finance themselves, shady real estate deals & opaque shell company operations.


How black money finds its way out of India, and how it comes back as white

How black money finds its way out of India, and how it comes back as white

There are other methods to siphon black money out of the country, two of which are manipulation of export invoices and setting up of trusts abroad.


Weeding out black money from real estate: What govt should do to make housing affordable

Weeding out black money from real estate: What govt should do to make housing affordable

The only ones who can afford a house are not the salaried class but traders and dubious buyers who have a steady flow of black money.


ET concludes quite interestingly:Between 2001 and 2005, real estate in India boomed. Interest rates were low, housing was affordable and first-time buyers were entering the market. One could understand a bump-up in prices then. But between 2009 and 2013, something strange happened. Despite the fact that there wasn't a great wave of buying from first-time buyers, prices went upwards sharply. Most of this was fuelled by investors who invested in the premium and luxury segments and most of them involved black money transactions.


Read more at:

http://economictimes.indiatimes.com/articleshow/45007228.cms?utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst


My readers would remember,I always have written about free flow of capital and foreign investment referring it to the wide open floodgates of recycled black money.


The development so much so hyped as infrastructure is in reality all about promoter builder and mafia raj.


Hitherto, no scam is decoded and the economic criminal have been elevated to such a highiet that they are immuned to any trial or investigation.


The roots of Black money have always been defended and it has become the green revolution.


The constitution of India has become irrelevant and every constitutional provision to amount as safeguards for helpless Indian citizens have been mutilated breaking the framework of the constitution.Parliamentary democracy has become a mockery as market and private parties have hijacked the parliamentary democracy.


No one represts the citizens of India.No public hearing.Private parties have the final say and minimum governace is meant nothing but intensive corporate lobbying and mandat is managed by foreign investment.



No wonder, as probe into suspected black money stashed abroad by Indians gathers steam, banks in Switzerland are running from pillar to post to safeguard their interest while some are also considering financial provisions in their books for possible penal actions and legal costs.


At the same time, banks are also lobbying with the Swiss government to insist on putting in place necessary measures in their information-exchange and administrative assistance frameworks with India for safeguarding the interest of banking institutions during the subsequent prosecution and other legal or regulatory proceedings in the black money cases. Sources, however, said that the role of some banks, as also that of certain bankers, has already come under scanner for acting in concert with the suspected black money hoarders and also for making 'safe haven' promises for their funds.


The suspected lapses on the part of at least three large European banks, including two from Switzerland itself and the third having a significant presence in the Alpine nation, are also being probed for allegedly facilitating re-routing funds of certain Indian corporate houses back into their listed companies as foreign investments. Capital market watchdog Sebi is probing at least three large global banks and many Indian companies for alleged round tripping of funds by way of multi-layered transactions, while the regulatory noose has further tightened in these cases with involvement of other regulatory and enforcement agencies.


Such transactions are suspected to have taken place in case of 15-20 Indian companies, a senior official said, but refused to disclose their names as also that of the banks saying it might impede the investigations. Some portfolio managers at some banks, which have a significant presence in the Indian financial markets, could have helped clients route money back into the country as foreign funds using investment vehicles across jurisdictions. So far, the focus of this Supreme Court monitored probe has mainly remained on the persons and entities from India suspected to have stashed illicit wealth in overseas locations including Swiss banks.


However, as the probe moves further, including by a Special Investigation Team (SIT) with two former Supreme Court judges as chairman and vice-chairman along with members from various investigative and regulatory agencies, the banks are turning wary about possible action against them going ahead. Senior executives at various banks, including three large ones headquartered in Switzerland and the Swiss units of some major European banks, said that they are considering making financial provisions as anticipatory measures to deal with any action involving them in India's black money probe. The banks are also said to be lobbying with the Swiss government that it should ask the Indian authorities to put in place a 'settlement' mechanism to deal with the suspected entities, including the banks and their customers, before seeking any assistance in its black money probe.


Indian black money

From Wikipedia, the free encyclopedia

In India, Black money refers to funds earned on the black market, on which income and other taxes have not been paid. The total amount of black money deposited in foreign banks by Indians is unknown. Some reports claim a total exceeding US$1.4 trillion are stashed in Switzerland.[1] Other reports, including those reported by Swiss Bankers Association and the Government of Switzerland, claim that these reports are false and fabricated, and the total amount held in all Swiss banks by citizens of India is about US$2 billion.[2][3]

In February 2012, the director of the Central Bureau of Investigation said that Indians have $500 billion of illegal funds in foreign tax havens, more than any other country.[4][5] In March 2012, the Government of India clarified in its parliament that the CBI Director's statement on $500 billion of illegal money was an estimate based on a statement made to India's Supreme Court in July 2011.[6]

Black money in Swiss banks[edit]

In early 2011, several reports Indian media alleged Swiss Bankers Association officials to have said that the largest depositors of illegal foreign money in Switzerland are Indian.[1][7] These allegations were later denied by Swiss Bankers Association as well as the central bank of Switzerland that tracks total deposits held in Switzerland by Swiss and non-Swiss citizens, and by wealth managers as fudiciaries of non-Swiss citizens.[2][8][9]

James Nason of Swiss Bankers Association in an interview about alleged black money from India, suggests "The (black money) figures were rapidly picked up in the Indian media and in Indian opposition circles, and circulated as gospel truth. However, this story was a complete fabrication. The Swiss Bankers Association never said or published such a report. Anyone claiming to have such figures (for India) should be forced to identify their source and explain the methodology used to produce them."[8][10]

In August 2010, the government revised the Double Taxation Avoidance Agreement to provide means for investigations of black money in Swiss banks. This revision, expected to become active by January 2012, will allow the government to make inquiries of Swiss banks in cases where they have specific information about possible black money being stored in Switzerland.[11]

In 2011, the Indian government received the names of 782 Indians who had accounts with HSBC. As of December, 2011, the Finance Ministry has refused to reveal the names, for privacy reasons, though they did confirm that no current Members of Parliament are on the list. In response to demands from the Bharatiya Janata Party (BJP) opposition party for the release of the information, the government announced on 15 December that, while it would not publish the names, it would publish a white paper about the HSBC information.[12]

According to White Paper on Black Money in India report, published in May 2012, Swiss National Bank estimates that the total amount of deposits in all Swiss banks, at the end of 2010, by citizens of India were CHF 1.95 billion (INR 92.95 billion, US$2.1 billion). The Swiss Ministry of External Affairs has confirmed these figures upon request for information by the Indian Ministry of External Affairs. This amount is about 700 fold less than the alleged $1.4 trillion in some media reports.[2]

In February 2012, Central Bureau of Investigation (CBI) director A P Singh speaking at the inauguration of first Interpolglobal programme on anti-corruption and asset recovery said: "It is estimated that around 500 billion dollars of illegal money belonging to Indians is deposited in tax havens abroad. Largest depositors in Swiss Banks are also reported to be Indians". In a hint at scams involving ministers, Singh said: "I am prompted to recall a famous verse from ancient Indian scriptures, which says – यथा राजा तथा प्रजा. In other words, if the King is immoral so would be his subjects"[4][13] The CBI Director later clarified in India's parliament that the $500 billion of illegal money was an estimate based on a statement made to India's Supreme Court in July 2011.[6]

After formal inquiries and tallying data provided by banking officials outside India, the Government of India claimed in May 2012 that the deposits of Indians in Swiss banks constitute only 0.13 per cent of the total bank deposits of citizens of all countries. Further, the share of Indians in the total bank deposits of citizens of all countries in Swiss banks has reduced from 0.29 per cent in 2006 to 0.13 per cent in 2010.[2]

The through the Investigation Division of the Central Board of Direct Taxes released a White Paper on Black Money giving the Income Tax Department increased powers.[14]


SIT on black money[edit]

Noted jurist and former law minister Ram Jethmalani along with many other well known citizens filed a Writ Petition (Civil) No. 176 of 2009 in the Supreme Court of India seeking the court's directions to help bring back black money stashed in tax havens abroad and initiate efforts to strengthen the governance framework to prevent further creation of black money.[15]

In January 2011, the (SC) asked why the names of those who have stashed money in the Liechtenstein Bank have not been disclosed.[16] The court argued that the government should be more forthcoming in releasing all available information on what it called a "mind-boggling" amount of money that is believed to be held illegally in foreign banks.[17]

The SC on 4 July 2011, ordered the appointment of a Special Investigating Team (SIT) headed by former SC judge BP Jeevan Reddy to act as a watch dog and monitor investigations dealing with the black money. This body would report to theSC directly and no other agency will be involved in this. The two judge bench observed that the failure of the government to control the phenomenon of black money is an indication of weakness and softness of the government.[18]

The issue of unaccounted monies held by nationals, and other legal entities, in foreign banks, is of primordial importance to the welfare of the citizens. The quantum of such monies may be rough indicators of the weakness of the State, in terms of both crime prevention, and also of tax collection. Depending on the volume of such monies, and the number of incidents through which such monies are generated and secreted away, it may very well reveal the degree of "softness of the State."

— Justice B Sudershan Reddy and Justice S S Nijjar, Supreme Court of India, Source:[15]

The government subsequently challenged this order through Interlocutory Application No. 8 of 2011. The bench (consisting of Justice Altamas Kabir in place of Justice B Sudershan Reddy, since Justice Reddy retired) on 23 September 2011 pronounced a split verdict on whether government plea is maintainable. Justice Kabir said that the plea is maintainable while Justice Nijjar said it is not. Due to this split verdict, the matter will be referred to a third judge.[19][20]

In April 2014, Indian Government disclosed to the Supreme Court the names of 26 people who had accounts in banks in Liechtenstein, as revealed to India by German authorities.[21]

On 27 October 2014, Indian Government submitted name of three people in an affidavit to the Supreme Court who have black money account in foreign countries.[22] But on the very next day, Supreme Court of India orders centre Government to reveal all the names of black money account holders which they had received from various countries like Germany. The honorable bench of the Supreme court also asked the Centre not to indulge in any kind of probe rather just pass the names to them and Supreme court will pass the order for further probe.[23]

Following the order, Government of India submitted the names of 627 people in the Supreme Court of India in a sealed envelope on 29 October 2014.[24]

Double taxation agreements[edit]

Indian Government has repeatedly argued before the Court that it cannot divulge the names. It has further argued that the privacy of individuals would be violated by the revelation of data. These arguments are only designed to stall the revelation of names of some favoured entities.

DTAA is about declared (white) incomes of entities so that tax may be levied in one or the other country and not in both. Black income is not revealed in either of the two countries so there is no question of double taxation. Further, this data would not be available to either of the two countries to be exchanged. It is no wonder then that till date, no data has been supplied to India by any of the countries with which this treaty has been signed. In brief, DTAA is about white incomes and not black incomes, so it is disingenuous to say that in future no data would be given to us if names are given to courts. [25]

Criticism of Government[edit]

Different governments have tried to stall SIT.[26] A bank has been revealed to have acted like a hawala operator. Other MNC and private Indian banks also indulge in these activities. Why has the government not initiated action against them and hawala operators? Why is the government not proactive in analysing relevant data from the International Consortium of Investigative Journalists (ICIJ) and Julian Assange? No wonder the perception is that the government is stalling on unearthing Indian black money.[27]

Hasan Ali case[edit]

Hasan Ali Khan was arrested by Enforcement Directorate and the Income Tax Department on charges of stashing over 360 billion in foreign banks.[28] ED lawyers said Khan had financed international arms dealer Adnan Khashoggi on several occasions.[29]

However, media sources claimed this case is becoming yet another perfect instance of how investigative agencies like Income Tax Department go soft on high-profile offenders.[30][31][32][33] Ali's premises were raided by ED as far back as 2007. According several news reports, the probe against him has proceeded at an extremely slow pace and seems to have hit a dead end.[31][34][35][36][37][38]

India Today claimed that it had verified a letter confirming the US$8 billion in black money was in a Swiss bank UBS account, and the government of India too has verified this with UBS.[39]

The Swiss bank UBS has denied Indian media reports alleging that it maintained a business relationship with or had any assets or accounts for Hasan Ali Khan accused in the US$8 billion black money case. Upon formal request by Indian and Swiss government authorities, the bank announced that the documentation supposedly corroborating such allegations were forged, and numerous media reports claiming US$8 billion in stashed black money were false.[40][41] India Today, in a later article, wrote, "Hasan Ali Khan stands accused of massive tax evasion and stashing money in secret bank accounts abroad. But the problem is that the law enforcement agencies have precious little evidence to back their claims. For one, UBS Zurich has already denied having any dealings with Khan."[42]

Estimates of Indian black money[edit]

As Schneider estimates, using the dynamic multiple-indicators multiple-causes method and by currency demand method, that the size of India's black money economy is between 23 to 26%, compared to an Asia-wide average of 28 to 30%, to an Africa-wide average to 41 to 44%, and to a Latin America-wide average of 41 to 44% of respective gross domestic products. According to this study, the average size of the shadow economy (as a percent of "official" GDP) in 96 developing countries is 38.7%, with India below average.[43][44][45]

Public protests and government's response[edit]

In May 2012, the Government of India published a white paper on black money. It disclosed India's effort at addressing black money and guidelines to prevent black money in the future.[2]

India has following institutions already preventing, finding and investigating underground economy and black money.[2]

Swami Ramdev, popular as Baba Ramdev is a Hindu swami and a yoga guru. He is a social activist and has staged protests against corruption in the country. He has been associated with the 2011 Indian anti-corruption movement and also started his Bharat Swabhiman first phase Yatra with the pledge of disease free India and simultaneously to eradicate corruption and bring back black money from the birthplace of Sri Krishna, Dwarika Gujrat on 2 September 2010. This yatra has been through 25 states of India like rajasthan, Jammu Kashmir, Himachal Pradesh, Haryana, Uttar Pardesh, Jharkhand, Chhattisgarh, Orrisa, Assam West Bengal, Maharashta, Meghalaya and ends at the city of Mahakal Ujjain. On 20 September Swami Ramdev had started second phase of his yatra from the fort of Jhansi. More than 1 lakh people of Jhansi city had taken pledge to fight against corruption. On 30 January 2011, a written representation of people from over 600 districts was sent to the Prime Minister which contained demand of bringing back black money stashed abroad & putting an end to corruption, which was supported by all major social, spiritual groups and organizations of the nation. Ramdev himself sent the signed representation to the President of India through the District Magistrate of Bilaspur. Soon after on 27th Feb, 2011 he, organized a huge rally in Ramlila Maidan, Delhi which was attended by lakhs of people after which a written representation was handed over to the President to bring back black money, on the day which marks the birth anniversary of freedom fighter Shaheed Chandrasekhar Azad.[46][47][48]

Central Board of Direct Taxes: is a statutory authority functioning across India under the Central Board of Revenue Act of 1963. The Member(Investigation) of the CBDT,exercises control over the Investigation Division of the Central Board of Direct Taxes.The Member is a high ranking IRS officer of the rank of Special Secretary to the Government of India.The Member controls the:

The Director General of Income Tax (International Taxation) is in charge of taxation issues arising from cross-border transactions and transfer pricing. This organisation has been in operation for nearly 50 years, is primarily responsible for combating the menace of black money, has offices in more than 800 buildings spread over 510 cities and towns across India and has over 55,000 employees and even employees who are deputed from premier police organisations to aid the department.

Enforcement Directorate: was established in 1956. It administers the provisions of the Foreign Exchange Regulation Act of 1973 (FERA), later updated to Foreign Exchange Management Act of 1999 (FEMA). It is entrusted with the investigation and prosecution of money-laundering offences, confiscation of the proceeds of such crime, matters related to foreign exchange market and international hawala transactions. This India-wide directorate, with focus on major financial centres in India, has 39 offices and 2000 employees.

Financial Intelligence Unit: has been operating as a separate investigative entity since 2004. This government organisation for receiving, processing, analysing, and disseminating information relating to suspect financial transactions. It shares this information with other ministries, enforcement and financial investigative agencies of state and central government of India. Every month, it routinely examines about 700,000 investigative reports and over 1,000 suspect financial transaction trails to help identify and stop black money and money laundering.

Central Board of Excise and Customs and Directorate of Revenue Intelligence: is the apex intelligence organisation responsible for detecting cases of evasion of central excise and service tax. The Directorate develops intelligence, especially in new areas of tax evasion through its intelligence network across the country and disseminates information across Indian government organisations by issuing Modus Operandi Circulars and Alert Circulars to apprise field formations of the latest trends in tax evasion. It routinely arranges for enforcement operations to research into the evasion of duty and taxes. The Directorate of Revenue Intelligence functions under the CBEC. It is entrusted with the responsibility of collection of data and information and its analysis, collation, interpretation and dissemination on matters relating to violations of taxation and customs law. The organisation has thousands of employees and is divided into seven zones all over India. It maintains close liaison with the World Customs Organisation, Brussels, the Regional Intelligence Liaison Office at Tokyo,INTERPOL, and foreign customs administrations.

Central Economic Intelligence Bureau: functions under India's Ministry of Finance. It is responsible for coordination, intelligence sharing, and investigations at national as well as regional levels amongst various law enforcement agencies to prevent financial crimes, generation and parking of black money and illegal transfers. This organisation maintains constant interaction with its Customs Overseas Investigation Network (COIN) offices to share intelligence and information on suspected international financial transactions. The COIN offices gather evidence through diplomatic channels from the foreign custom offices and other foreign establishments to establish cases of mis-declaration to help identify and stop tax evasion and money laundering.

In addition to the primary agencies listed above, India has 10 additional separate departments operating under the central government of India - such as National Investigation Agency and National Crimes Record Bureau - to help locate, investigate and prosecute black money cases. Discovery and enforcement is also assisted by India's Central Bureau of Investigationand state police.[2]

In addition to direct efforts, the Indian central government coordinates its efforts with state governments with dedicated departments to monitor and stop corporate frauds, bank frauds, frauds by non-banking financial companies, sales tax frauds and income tax-related frauds.

MC Joshi committee on black money[edit]

After a series of ongoing demonstrations and protests across India, the government appointed a high-level committee headed by MC Joshi (the then CBDT Chairman[49]) in June 2011 to study the generation and curbing of black money. The committee finalised its draft report on 30 January 2012. Its key observation and recommendations were:[50]

  1. The two major national parties (an apparent reference to Indian National Congress, BJP) claim to have incomes of merely INR5 billion (US$81 million) and INR2 billion (US$32 million). But this isn't "even a fraction" of their expenses. These parties spend between INR100 billion (US$1.6 billion) and INR150 billion (US$2.4 billion) annually on election expenses alone.[50]
  2. Change maximum punishment under Prevention of Corruption Act from the present 3, 5 and 7 years to 2, 7 and 10 years rigorous imprisonment and also changes in the years of punishment in the Income Tax Act.[50]
  3. Taxation is a highly specialised subject. Based on domain knowledge, set up all-India judicial service and a National Tax Tribunal.[50]
  4. Just as the USA Patriot Act under which global financial transactions above a threshold limit (by or with Americans) get reported to law enforcement agencies, India should insist on entities operating in India to report all global financial transactions above a threshold limit.[50]
  5. Consider introducing an amnesty scheme with reduced penalties and immunity from prosecution to the people who bring back black money from abroad.[50]

Tax Information Exchange Agreements[edit]

To curb black money, India has signed TIEA with 13 countries -Gibraltar, Bahamas, Bermuda, the British Virgin Islands, theIsle of Man, the Cayman IslandsJersey, Liberia, Monaco, Macau, Argentina, Guernsey and Bahrain - where money is believed to have been stashed away. India and Switzerland, claims a report, have agreed to allow India to routinely obtain banking information about Indians in Switzerland from 1 April 2011.[51]

In June 2014, the Finance Minister Arun Jaitely on behalf of the Indian government requested the Swiss Government to hand over all the bank details and names of Indians having unaccounted money in Swiss banks.[52]

Proposals to prevent Indian black money[edit]

History

Even in colonial India, numerous committees and efforts were initiated to identify and stop underground economy and black money with the goal of increasing the tax collection by the British Crown government. For example, in 1936 Ayers Committee investigated black money from the Indian colony. It suggested major amendments to protect and encourage the honest taxpayer and effectively deal with fraudulent evasion.[53]

Current Proposals

In its white paper on black money, India has made the following proposals to tackle its underground economy and black money.[2]

Reducing disincentives against voluntary compliance[edit]

Excessive tax rates increase black money and tax evasion. When tax rates approach 100 per cent, tax revenues approach zero, because higher is the incentive for tax evasion and greater the propensity to generate black money. The report finds that punitive taxes create an economic environment where economic agents are not left with any incentive to produce.

Another cause of black money, the report finds is the high transaction costs associated with compliance with the law. Opaque and complicated regulations are other major disincentive that hinders compliance and pushes people towards underground economy and creation of black money. Compliance burden includes excessive need for compliance time, as well as excessive resources to comply.

Lower taxes and simpler compliance process reduces black money, suggests the white paper.[2]

Banking transaction tax[edit]

Baba Ramdev also known as Yoga guru outlined his policy prescription that involves replacement of most direct and indirect levies with a banking transaction tax and de-monetisation of currency notes of Rs 500 and Rs 1,000 to help prevent Indian black money, ease inflation, improve employment generation and also lower corruption.[54][55] SDFsfgasdfgadfh

Economic liberalisation[edit]

The report suggests that non-tariff barriers to economic activity such as permits and licences, long delays in getting approvals from government agencies are an incentive to proceed with underground economy and hide black money. When one can not obtain a licence to undertake a legitimate activity, the transaction costs approach infinity, and create insurmountable incentives for unreported and unaccounted activities that will inevitably generate black money. The successive waves of economic liberalisation in India since the 1990s have encouraged compliance and taxes collected by the government of India have dramatically increased over this period. The process of economic liberalisation must be relentlessly continued to further remove underground economy and black money, suggests the report.[2]

Reforms in vulnerable sectors of the economy[edit]

Certain vulnerable sectors of Indian economy are more prone to underground economy and black money than others. These sectors need systematic reforms. As example, the report offers gold trading, which was one of the major sources of black money generation and even crime prior to the reforms induced in that sector. While gold inflows into India have remained high after reforms, gold smuggling is no longer the menace as it used to be. Similar effective reforms of other vulnerable sectors like real estate, the report suggests can yield a significant dividend in the form of reducing generation of black money in the long term.

The real estate sector in India constitutes about 11 per cent of its GDP. Investment in property is a common means of parking unaccounted money and a large number of transactions in real estate are not reported or are under-reported. This is mainly on account of very high levels of property transaction taxes, commonly in the form of stamp duty. High transaction taxes in property are one of the biggest impediments to the development of an efficient property market. Real estate transactions also involve complicated compliance and high transactions costs in terms of search, advertising, commissions, registration, and contingent costs related to title disputes and litigation. People of India find it easier to deal with real estate transactions and opaque paperwork by paying bribes and through cash payments and under-declaration of value. Unless the real estate transaction process and tax structure is simplified, the report suggests this source of black money will be difficult to prevent. Old and complicated laws such as the Urban Land Ceiling Regulation Act and Rent Control Act need to be repealed, property value limits and high tax rates eliminated, while Property Title Certification system dramatically simplified.[2]

Other sectors of Indian economy needing reform, as identified by the report, include equity trading market, mining permits, bullion and non-profit organisations.

Creating effective credible deterrence[edit]

Effective and credible deterrence is necessary in combination with reforms, transparency, simple processes, elimination of bureaucracy and discretionary regulations. Credible deterrence needs to be cost effective, claims the report.[2] Such deterrence to black money can be achieved by information technology (integration of databases), integration of systems and compliance departments of the Indian government, direct tax administration, adding data mining capabilities, and improving prosecution processes.

Supportive measures[edit]

Along with deterrence, the report[2] suggests public awareness initiatives must be launched. Public support for reforms and compliance are necessary for long term solution to black money. In addition, financial auditors of companies have to be made more accountable for distortions and lapses. The report suggests Whistleblower laws must be strengthened to encourage reporting and tax recovery.

Amnesty[edit]

Amnesty programmes have been proposed to encourage voluntary disclosure by tax evaders. These voluntary schemes have been criticized on the grounds that they provide a premium on dishonesty and are unfair to honest taxpayers, as well as for their failure to achieve the objective of unearthing undisclosed money. The report[2] suggests that such amnesty programmes can not be an effective and lasting solution, nor one that is routine.

International enforcement[edit]

India has Double Tax Avoidance Agreements with 82 nations, including all popular tax haven countries. Of these, India has expanded agreements with 30 countries which requires mutual effort to collect taxes on behalf of each other, if a citizen attempts to hide black money in the other country. The report[2] suggests that the Agreements be expanded to other countries as well to help with enforcement.

Modified Currency Notes[edit]

Government printing of such legal currency notes of highest denomination i.e.; INR1000 (US$16) and INR500 (US$8.10) which remain in the market for only 2 years. After a 2-year period is expired there should be a one year grace period during which these currency notes should be submitted and accepted only in bank accounts. Following this grace period the currency notes will cease to be accepted as legal tender or destroyed under the instructions of The Reserve Bank of India. As a consequence turning most of the unaccountable money into accountable and taxable money.

See also[edit]

References[edit]

  1. a b Nanjappa, Vicky (31 March 2009). "Swiss black money can take India to the top"Rediff.com. Retrieved 23 May 2011.
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हमारे नवारुण दा और उन्हें हम जैसे जानते हैं पलाश विश्वास

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हमारे नवारुण दा और उन्हें हम जैसे जानते हैं

पलाश विश्वास

(यह आलेख समयांतर के सितंबर अंक में प्रकाशित है।शीर्षक भिन्न है और स्थानाभाव से थोड़ा संपादित भी)


शुरु में ही यह साफ कर दिया जाये कि नवारुण भट्टाचार्य का रचनाकर्म सिर्फ जनप्रतिबद्ध साहित्य नहीं है,वह बुनियादी तौर पर प्रतिरोध का साहित्य है और वंचितों का साहित्य भी।मंगलेश डबराल के सौजन्य से यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है,के बागी कवि जिस नवारुण को हम जानते हैं,अपने उपन्यासों,असंख्य छोटी कहानियों और कविताओं के मार्फत शब्द शब्द जनमोर्चे पर गुरिल्ला युद्ध दरअसल उन्हीं नवारुण दा का साहित्य है।


हमरे हिसाब से कविताओं की तुलना में गद्य में नवारुणदा मृत्युउपत्का की घनघोर प्रासंगिकता के बावजूद कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं।लेकिन उनकी हर्बर्ट को छोड़कर बाकी गद्य रचनाओं खासकर फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट की ज्यादा चर्चा भारतीय भाषाओं में नहीं हो पायी है।


नवारुण दा और महाश्वेता दी दोनों हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का बाकी भाषाओं के रचनाकर्मियों से ज्यादा सम्मान करते रहे हैं और मानते रहे हैं कि हिंदी जनता को संबोधित किये बिना और हिंदी के मार्फत जनमोर्चे की गतिविधियों चलाये बिना हालात बदलने वाले नहीं हैं।


इसके अलावा नवारुणदा खास तौर पर भारतीय भाषाओं के सेतुबंधन के प्रचंड पक्षधर थे और चाहते थे कि समूची रचनात्मकता को समग्रता में जनयुद्ध में त्बदील किया जाये जो दरअसल उनकी बुनियादी रचनाकर्म है।


भारतीय गणनाट्य आंदोलन,भारतीय सिनेमा ,भारतीय साहित्य,भारतीय कला समेत तमाम विधायों में निकट परिजनों की अविराम सक्रियता ने उनकी दृष्टि को प्रखर बनाया है और उनके रचनाकर्म को धारदार।


नवारुण दा ब्यौरे और किस्सों में,बिंब संयोजन और भाषिक कला कौशल,देहवाद,मिथक और विचारधारा की जुगाली में अपनी रचना ऊर्जा का अपचय नहीं किया करते थे।


उनके रचनाक्रम में अरबन इलिमेंट प्रबल होने के कारण अंत्यज समूहों के हाशिये पर रखे बहिस्कृत अस्पृश्य जीवन का अनंत कैनवास है लेकिन वे जैसे शास्त्रीयता का परहेज करते रहे हैं,वैसे ही जनपदी भाषा और लोक का प्रयोग भी करके अपने को देहात से जोड़ने काप्रयास भी उन्होंने नहीं किया।


वर्गीय ध्रूवीकरण मार्फते राज्यतंत्र को सिरे से उखाड़कर जनवादी शोषन विहीन वर्गविहीन समता और न्याय के लिए उनकी जो विलक्षण रचना प्रक्रिया है,वहां आप जनपदों को पल पल हर कदम पर मौजूद पायेंगे,भाषा और आचरण के स्तर पर,जबकि वे लोक मुहावरों के बजाय भदेश शहरी भाषा का ही इस्तेमाल करते रहे हैं और उनकी यह भाषा भद्रलोक की आभिजात भाषा भी नहीं है।लेकिन उनके लिखे शब्दों को आप गाली गलौच के स्तर पर किसी भी हालत में नहीं देख सकते।


भाषा बंधन की शुरुआती टीम में शामिल होने की वजह से बहुत संक्षिप्त दौर के लिए नवारुणदा को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला तो उन्हें अपने लेखन की तरह हमेशा अनौपचारिक और स्ट्रेट फारवर्ड पाया।लैंगवेज वर्क से उन्हें सख्त नफरत थी और वे न जीवन में और न साहित्य में लफ्फा जी करते रहे।उनका आब्जर्वेशन सरिजकल आपरेशन की तरह परफेक्ट है और वहां वे कोई चूक या गुंजाइश नहीं रखते।उनके लिखे में वहीं किसी शब्द को एडिट करने की भी कोई संभावना नहीं थी।

हम उनसे सीख नहीं पाये ज्यादा कुछ,खासकर उनके सटीक आक्रामक लेखन का तौर तरीका हमारे अभ्यास में नहीं जमा।  लेकिन बहुत कम समय के संबंध के बावजूद वे हमारे वजूद का हिस्सा जरुर बन गये।


गौरतलब है कि महाश्वेतादी के लेखन में डाकुमेंटेशन प्रबल है,नवारुण दा का लिखा लेकिन हर मायने में साहित्य है विधाओं के आरपार।किसी भी सूरत में डाकुमेंटेशन का कोईप्यास वहां नहीं है।विधाओं के व्याकरण को उन्होंने उसी तरीके से तहस नहस किया जैसे भाषा के प्रचलित सौंदर्यशास्त्र को लेकिन क्या मजाल जिस अर्थ में वे लिखते रहे हैं,वहा वर्तनी में कोई चूक हो जाये।बहुआयामी अभिव्यक्ति के जरिये उनका साहित्य दृश्य माध्यम की तरह  पूरी संवेदनाओं के साथ संप्रेषणीय है।इसमें उनकी विशेषज्ञता के आस पास भी नहीं है दूसरे साहित्यकर्मी,ऐसा हमारा मानना है।


जाहिर है कि आभिजात भाषा,सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के भद्र संस्कृकर्म से एकदम अलहदा हैं नवारुण दा।वितचारधारा और प्रतिबद्धता के झंडवरदारों के झुंड में भी वे नजर नहीं आते।फिरभी आज के हालात में भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा प्रासंगिक रचनाकार भी वहीं हैं क्योंकि जनविरोधी अलोकतांत्रिक मानवाधिकार हननकारी मुक्तबाजारी राज्यतंत्र के विरुद्ध सतह से उठते आदमी के लिए नवारुण दो शब्द दर शब्द अविराम हथियार गढ़ते रहे हैं।


उनके हथियार अस्मिताओं के आर पार ,उन्हें तहस नहस करके वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत फैताड़ु फौज का निर्माण करने में सक्षम हैं।जहां अंत्यज जमीन से बेदखल विस्थापित भूगोल के मानगर में स्थानातंरित आबादी के अंधकार कोनों में हीनता बोध के बजाय उनके तमाम पात्र जीते हैं तो हर वक्त उनकी राउंड दि क्लाक अविराम अक्लांत युद्ध प्रस्तुतियों के लिए,जहां गद्य पद्य एकाकार है।फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट में गद्य पद्य के बीच कोई घोषित नियंत्रणरेखा नहीं है और मारक अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अचूक लोक भदेस शब्दों से लैस उनके तमाम पात्र जहां आटोरिक्शा चलाने वाले आटो के नायक की भाषा आटो की आवाज में तब्दील है तो दंडवायस त्रिकालदर्शी  सूत्रधार।


जैसे कैंसर के खिलाफ उन्होंने आत्म समर्पण नहीं किया वैसे ही व्यवस्था के साथ समझौता करने से भी आमृत्यु घृणा करते रहे नवारुणदा।प्रतिष्ठित प्रकाशनों और पत्रिकाओं के वित्ज्ञापनी तामझाम के जरिये नहीं,बल्कि लघुपत्रिकाओं के मोर्चे से युद्धरत रहे नवारुण दा।


इस पर विवाद की गुंजाइश जरुर हो सकती है कि भारतीय भाषाओं में सत्तर दशक के सबसे बड़े प्रतिनिधि भी नवारुण दा हैं,जिसका मकसद शाकाहारी विरोध दर्ज कराकर क्रातिकारियों की पात में शामिल होकर व्यवस्ता का अंग बन जाना नहीं है।उनके आकस्मिक निधन के बाद हमने लिखा भी कि हमारे लिए तो यह सत्तर दशक का अवसान है।

माफ करना दोस्तों,अंत्यज हूं और फैताड़ू भी।लेकिन हर्बर्ट नहीं हूं एकदम।दढ़ियल दंडवायस हूं तो फेलकवि गर्भपाती विद्रोही पुरंदर भट या मालखोर मदन जैसा कोई डीएनए मेरा भी होगा।


इसलिए नवारुणदा के बारे में मेरा लिखा कोई शास्त्रीय आलोचना भी नहीं है ,वैसे ही जैसे उनका खुद का लिखा किसी भी मायने में न शास्त्रीय है और न वैदिकी।


मेरे लिए आवाज ही अभिव्यक्ति का मूलाधार है,शब्द संस्कृति का ब्राह्मणवाद नहीं।व्याकरण नहीं और न ही अभिधान और न सौंदर्यशास्त्र का अभिजन दुराग्रह।इसलिए नवारुण दा के लिखे को आत्मसत करने में मुझे कोई दिक्कत कभी नहीं हुई। मंचीय प्रस्तुति और गायकी में भी आवाज के प्रयोग के भिन्न तरीके हैं।किशोर कुमार के खेल को समझ लें।आवाज मार्फत ही अभिव्यक्ति का हुनर नवारुण दा का ट्रेडमार्क है।


मेरे लिए भी भाषा ध्वनि की कोख से जनमती है और आंखर पढ़े लिख्खे लोगों के वर्ण नस्ली धार्मिक सत्ता वर्चस्व का फंडा है,ज्ञान का अंतिम सीमा क्षेत्र नहीं आंखर।वह ध्वनि के उलझे तारों की कठपुतली ही है।


इसलिए ध्वनि ही मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है।

ध्वनि ही मेरी अभिव्यक्ति है।

ध्वनि ही अभिधान।ध्वनि ही व्याकरण और ध्वनि ही सौंदर्यशास्त्र।


नवारुण दा कैसे सोचते होंगे,हमें नहीं मालूम लेकिन उनके शब्द शब्द का अभ्यास धव्नि प्रतिध्वनि का सार्थक समावेश है।जहां शब्दों के भाषांतर से अभिव्यक्ति बदल जाने की संभावना कमसकम है।


अरस्तू से लेकर पतंजलि तक और उनके परवर्ती तमाम पिद्दी भाषाविदों, संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों और विद्वतजनों  को मैं इसीलिए बंगाल की खाड़ी में या अरब सागर में विसर्जित करता हूं समुचित तिलांजलि के साथ।ऐसा नवीारुण दा ने करके दिखाया है।


दरअसल जिस आंखर में ध्वनि की गूंज नहीं,जो आंखर रक्त मांस के लोक का वाहक नहीं,जो कोई बैरिकेड खड़ा करने लायक नहीं है,उस आंखर से घृणा है मुझे।दरअसल यह घृणा की विरासत हमें नवारुण दा से ही मिली है,हांलाकि उनके हमारे बीच कोई रक्त संबंध नहीं है,लेकिन वंश धारा को तोड़ते हुए शायद हमारा डीएनए एकाकार हैं।


दरअसल यह घृणा लेकिन नवारुणदा की मृत्युउपत्यका मौलिक और वाया मंगलेशदा अनूदित हिंदी घृणा के सिलसिले में भी  है,जाहिर है कि यह घृणा मौलिकता में नवारुणदा की पैतृिक विरासत है,जिसको मात्र स्पर्श करने की हिम्मत कर रहा हूं उन्हीं की जलायी मोमबत्तियों के जुलूस में स्तब्ध वाक खड़ा हुआ।


हम बाबुलंद कहना चाहेंगे कि हम  इस मृत आंखर उपनिवेश का बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिक होने से साफ इंकार करते हैं और यह इंकार गिरदा से लेकर मंटो, इलियस, मुक्तिबोध, दस्तावस्की, काफ्का, कामू,डिकेंस. उगो, मार्क्वेज, मायाकोवस्की,पुश्किन,शा, होकर माणिक ,ऋत्विक घटक, सोमनाथ होड़,लालन फकीर ,कबीर दास  से लेकर  नवारुण दा की मौलिक विरासत है और हम दरअसल उसी विरासत से नत्थी होने का प्रयत्न ही कर रहे हैं।


यही हमारी  संघर्ष गाथा है और प्रतिबद्धता भी है जो संभ्रांत नहीं,अंत्यजलोक है।इसी सूत्र से हम और नवारुण दा एकाकार हैं।


नवारुण दा की  तरह हमारे  लिए भी गौतम बुद्ध और बौद्धधर्म कोई आस्था नहीं,जीवनपद्धति है और वर्चस्ववादी सत्ता के खिलाफ लोक का बदलाव ख्वाब है,जिसे साधने के लिए ध्यान की विपश्यना तो है लेकिन मूल वही पंचशील।


नवारुण दा स्वभाव से बौद्ध थे और द्विजता का बहिस्कार ही उनकी रचनात्मक ऊर्जा का चरमोत्कर्ष है।ब्राह्मणवादी सत्ता के पक्ष में कभी नहीं रहा है उनका रचनाकर्म और बंगाल के वैज्ञानिक ब्राह्ममणवाद पर इतना तीखा प्रहार तो महाराष्ट्र के दलित फैंथर आंदोलन में भी हुआ हो,ऐसा मुझे नहीं लगता।उनकी रचनाधर्मिता बिना किसी घोषणा,बिना किसी प्रकाशित एजंडे के सीधे अंत्यज बहिस्कृत अस्पृश्य जीवन को वर्गीय चेतना से लैस करके बदलाव का मोर्चा बनाने की सीधी कार्रवाई,डायरेक्ट एक्शन है।


नवारुण दा घोषित तौर पर वामपक्षधर रहे हैं और वे संसदीय वाम संसोदनवाद के झंडेवरदार ,सिपाही या सिपाहसालार नहीं रहे हैं। बदलाव की विछारधारा के लोग अंतिम क्षण तक उनके साथ थे और उनकी शवयात्रा में भी उनके साथ थे।


भाषा बंधन में दलित विमर्श और दलित आंदोलन को उचित स्थान देने के बावजूद न अंबेडकरी आंदोलन और न अंबेडकरी विचारधाारा से उनकी कोई सहानुभीति रही है। लेकिन शरणार्थी समस्या पर वाम पक्ष के विश्वासघात से मोहभंग के बाद जो हमने अंबेडकर पढ़ना शुरु किया तो हमारे और उनके रास्ते भी अलग होते चले गये।यहां तक कि उनके कैंसर पीड़ित होने की खबर भी हमें मिली नहीं,मिली तो बहुत बाद।इसके बावजूद आज हमें यह कहने में कोई दुविधा नहीं है कि अंबेडकर पढ़कर हम जितने अंबेडकरी नहीं हुए,वंचित वर्ग से होते हुए,हम जितना वंचितों के नहीं हुए,नवारुण दा उससे कहीं ज्यादा अंबेडकरी थे और वंचितों के पक्षधर किसी भी दलित पिछड़ा आदिवासी सरचनाकर्मी से ज्यादा।


हम जैसे वाम और अंबेडकरी आंदोलन के बुनियादी लक्ष्य न्याय और समता में अंतरविरोध नहीं देखते,वैसा नवारुण दा ने न कभी कहा है और न लिखा है,लेकिन उनका रचनाकर्म फिर वही आनंद पटवर्ध्धन का जय भीम कामरेड है जहां लालझंडे के साथ नीले रिबन की अनिवार्य मौजूदगी है।इस रहस्य को आत्मसात किये बिना कंगाल मालसाट,फैताड़ु बोम्बाचाक और नवारुण दा की किसी भी गद्य रचना को समझा ही नहीं जा सकता और न मूल्यांकन संभव है।


वर्चस्ववादी बंगीय समाज में इस रचनादृष्टि के लिए कोई स्पेस अभी तैयार हुआ ही नहीं है।आदिवासी जनविद्रोह को कथावस्तु बतौर पेश करने वाली उनकी मां महाश्वेता दी भी सत्ता हेजेमनी के खिलाफ इतना डट कर युद्धरत नहीं रही हैं और न उनके साहित्य में वह अंत्यज अस्पृश्य जीवन है।


मां बेटे  के रचनाकर्म के समांतर पाठ से साफ जाहिर होता है कि नवारुण दा को हम समूचे भारतीय भाषां के लिए मुक्तबाजारी उपनिवेश समय में प्रतिरोध के लिहाज से सबसे ज्यादा प्रासंगिक क्यों मानते हैं।उनका इतिहास बोध और उनका दृष्टिकोण अनिवार्य तौर पर सांप्रतिक इतिहास और समकालीन समाजवास्तव के सात साथ राज्यतंत्र के खिलाप प्रतिरोध की प्रेरणा और ऊर्जा दोनों हैं,इसीलिए।


मां बेटे का अलगाव भी निहायत पारिवारिक घटना नहीं है,वैचारिक द्वंद्व और प्रतिबद्धता के भिन्न भिन्न आयाम हैं।


जैसे नवारुणदा के पिता नवान्न नाटक और बहुरुपी के शंभु मित्र  के प्राण बिजन भट्टाचार्य ने जैसे समझौता न करना अपनी उपलब्धि मानते रहे हैं,नवारुण दा की कुल उपलब्धि यही है और आप ऐसा महाश्वेता दी के बारे में कह नहीं सकते जो आधिपात्यवादी व्यवस्था और सत्ता से नत्थी होकर भी लगातार क्राति की बातें करती हैं हूबहू बंगीय कामरेडों की तरह।कथनी और करनी का यह विभेद नवारुण दा का जीवनदर्शन नहीं रहा है।ऐसे थे हमारे नवारुण दा।


जाहिर है कि पंचशील अभ्यास के लिए प्रकृति का सान्निध्य अनिवार्य है बौद्धमय होने से हमारा तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण चेतना है,जिसके बिना धर्म फिर वही है जो पुरोहित कहें और आचरण में पाखंड का जश्न जो है और जो अनंत फतवा श्रंखला है नागरिक मानवाधिकारों के विरुद्ध दैवी सत्ता के लिए।इस ब्राह्मणी संस्कृति के खिलाफ युद्धघोषणा और भगवाकरण के खिलाप निरंतर मोर्चा दरअसल नवारुण दा का साहित्य है।


इसे समझने के लिए यह भी समझ लें कि नवारुण दा का यही पंचशील मुझे तसलिमा के साथ भी खड़ा करता है पुरुषवर्चस्व के खिलाफ उनकी गैरसमझौतावादी बगावत के लिए जबकि उनकी देहगाथा में मैं कहीं नहीं हूं।इससे नवारुण रचनाकर्म के दस दिगंत का अंदाजा लगाया जा सकता है।


और चितकोबरा सांढ़ संस्कृति का तो हम सत्तर के दशक से लगातार विरोध करते रहे हैं।स्त्री वक्ष,स्त्री योनि तक सीमाबद्ध सुनामी के बजाय प्रबुद्ध स्त्री के विद्रोह में ही हमारी मुक्ता का मार्ग है और हमें उसकी संधान करनी चाहिए।लेकिन सुनील गंगोपाध्याय संप्रदाय ने बंगीय साहित्य और सस्कृति को चितकोबरा बना छोड़ा है,उसके खिलाफ भी है नवारुण दा का मुखर समाज वास्तव।देहगाथा से पृथक साहित्य,नायकरहित नायिका रहित सामाजिक जनजीवन के पात्रों का साहित्य ही नवारुण दा का साहित्य है,जिनका वर्गीय आधार पर ध्रूवीकरण प्रतिरोध की अनिवार्य शर्त है।



नवारुण दा की तरह हमारे लिए वाम कोई पार्टी नहीं,न महज कोई विचारधारा है।यह शब्दशः वर्गचेतना को सामाजिक यथार्थ से वर्गहीन जातिविहीन शोषणविहीन समता और सामाजिक न्याय के चरमोत्कर्ष का दर्शन है जैसा कि अंबेडकर का व्यक्तित्व और कृतित्व,उनकी विचारधारा,आंदोलन,प्रतिबद्धता,उनका जुनून,उनका अर्थशास्त्र ,धर्म और जातिव्यव्सथा के खिलाफ उनका बदतमीज बगावत और उनके छोड़े अधूरे कार्यभार।


गौरतलब है कि नवारुणदा वाम को वैज्ञानिक दृष्टि मानते रहे हैं और बाहैसियत लेखक मंटो वाम से जुड़े न होकर भी इसी दृष्टिभंगिमा से सबसे ज्यादा समृद्ध हैं जैसे अपने प्रेमचंद,जिन्हें किसी क्रांतिकारी विश्वविद्यालय या किसी क्रांतिकारी संगठन या किसी लोकप्रिय अखबार के प्रायोजित विमर्श का ठप्पा लगवाने की जरुरत नहीं पड़ी।जैसे जनता के पक्ष में अंधेरे से निकलने की मुक्तबोध का ब्रह्मराक्षस कार्यभार है,वैसा ही है नवारुण दा का रचनाकर्म।


इलियस,शहीदुल जहीर से लेकर निराला और मुक्तिबोध का डीएनए भी यही है।शायद वाख ,वैनगाग,पिकासो,माइकेल जैक्शन,गोदार,ऋत्विक घटक,मार्टिन लूथर किंग और नेसल्सन मंडेला का डीएनए भी वही।यह डीएनए लेकिन तमाम प्रतिष्ठित कामरेडों की सत्ता और सौदेबाजी से अलहदा है।


इसीलिए हमारे लिए अंबेडकर के डीप्रेस्ड वर्किंग क्लास और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सर्वहारा में कोई फर्क नहीं है और न जाति उन्मूलन और वर्गहीन समाज के लक्ष्यों में कोई अंतर्विरोध है।नवारुण दा से इस मुद्दे पर संवाद हुआ नहीं,लेकिन भरोसा है कि वे इससे असहमत होते नहीं क्योंकि उनकी रचनाओं का स्थाई भाव दरअसल यही है।


यही वह प्रस्थानबिंदू है,जहां महाश्वेता दी से एक किमी की दूरी के हजारों मील के फासले में बदल जाने के बाद भी नवारुण दा उन्हींकी कथा विरासत के सार्थक वारिस हैं तो अपने पिता बिजन भट्टाचार्य और मामा ऋत्विक घटक के लोक विरासत में एकाकार हैं उनके शब्दों और आभिजात्य को तहस नहस करने वाले तमाम ज्वालामुखी विस्फोट।


भाषाबंधन ही पहला और  अंतिम सेतुबंधन है मां और बेटे के बीच।संजोग से इस सेतुबंधन में हम जैसे अंत्यज भी जहां तहां खड़े हैं बेतरतीब।


महाश्वेता दी ने बेटे से संवादहीनता के लिए उनकी मत्यु के उपरांत दस साल के व्यवधान समय का जिक्र करते हुए क्षमायाचना की है और संजोग यह कि इन दस सालों में मैं दोनों से अलग रहा हूं।जब दोनों से हमारे अंतरंग पारिवारिक संबंध थे,तब हम सभी भाषा बंधन से जुड़े थे।पंकज बिष्ट,मंगलेश डबराल  से लेकर  मैं ,अरविंद चतुर्वेद और कृपाशंकर चौबे तक।


तभी इटली से आया था तथागत,जो हमें ठीक से जानता भी नहीं है।





अपनी विश्वप्रसिद्ध मां से निरंतर अलगाव के मध्य उनका व्यक्तित्व कृतित्व का विकास हुआ और इसीलिए उनके साहित्य में क्रांति का वह रोमांस भी नहीं।


उनके पात्र हारने के लिए नहीं,शहादत के लिए भी नहीं,मोर्चा फतह करने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई रणनीतिक लड़ते हैं,इसलिए उनका कांटेंट भी महज कांटेट नहीं है,स्ट्रैटेजिक कांटटेंट हैं।


फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मलसाट तो क्या कीड़े की तरह खत्म हुए हर्बर्ट में भी मुक्तबाजारी साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ उनकी खुली युद्धघोषणा है,जो मृत्यु उपत्यका का मूल स्वर और स्थाई भाव दोनों हैं।


वे रंग कर्मी भी रहे हैं।


बतौर रंगकर्मी वे पिता की विरासत की कमान भी संभालते रहे हैं और इसी रंगकर्म के तहत उनका साहित्य कुल मिलाकर एक मंचीय प्रस्तुति है चाहे आप नाटक कर लो या सिनेमा बना लो।


फालतू एक शब्द भी नवारुणदा ने कभी नहीं लिखा और उनके हर शब्द में युद्ध जारी है और रहेगा।


रंगकर्म के जरिये वे तेभागा से लेकर  सिंगुर नंदीग्राम तक तमाम जनांदोलन, जो उनके जीवन काल में हुए,उनमें उनकी सक्रिय भूमिका रही है और भारतीय जननाट्य आंदोलन के सलिल मित्र,सोमनाथ होड़,देवव्रत विश्वास और पिता बिजन भट्टाचार्य की सोहबत की ठोस तैयारी है उनकी रनाधर्मिता की देसी पूंजी।


साहित्य और संस्कृति की हर धारा में सक्रिय परिवार में पृथक धारा का निर्माण सबसे बड़ी चुनौती होती है।उनके नाना मनीश घटक बंगाल के सबसे अच्छे गद्यकार हैं तो उनके मामा ऋत्विक घटक इस उपमहाद्वीप के मूर्धन्य फिल्मकार।मां इतनी बड़ी साहित्यकार।लेकिन प्रखर जनप्रतिबद्धता के अलावा पारिवारिक कोई छाप उनके रचनाकर्म में नहीं है। न भाषा के स्तर पर और न शैली या सौंदर्यशास्त्र के पैमाने पर।


अपने अति घनिष्ठ मित्र बांग्लादेशी ख्वाबनामा के उपन्यासकार और छोटी कहानियों में उससे भी बड़े कथाकार अख्तराज्जुमान इलियस से बल्कि उनकी रचनात्मक निकटता रही है ,जिनकी असमय मौत हो गयी।


अख्तर और नवारुण दा का समाजवास्तव जीवन के सबसे निचले स्तर से शुरु होता है,जहा भद्रजनों का प्रवेश नहीं है।


अख्तर की तरह नागरिक और ग्रामीण दोनों स्तर पर रचनाकर्म करने वाले रचनाकार भी नहीं है।वे बेसिकैली अरबन संस्कृतिकर्मी हैं और भाषा को उन्होंने हर स्तर पर अंत्यज व्रात्य जीवन से उठाकर नागरिक और सामाजिक यथार्थ को एकाकार करके एक विलक्षण संयुक्त मोर्चा का निर्माण करते रहे हैं।


कविता में नवारुणदा की प्रासंगिकता के संदर्भ में निवेदन है कि हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, जो कयामती हालात हैं,जो देश बेचो निरंकुश अश्वमेध है,उसके प्रतिरोध की प्रेरणा समसामयिक उत्तरआधुनिक किस कविता में है, जरा उसे पेश कीजिये।जो समय को दिशा बदलने को मजबूर कर दें,पत्थर के सीने से झरना निकाल दें और सत्ता चालाकियों का रेशां रेशां बेनकाब कर दें, जो मुकम्मल एक युदध हो जनता के हक हकूक के लिए,ऐसी कोई कविता लिखी जा रही हो तो बताइये।


उस कवि का पता भी दीजिये जो मुक्तबाजारी कार्निवाल से अलग थलग है किंतु और जनता की हर तकलीफ,हर मुश्किल में उसके साथ खड़ा है।जिसका हर शब्द बदलाव के लिए  गुरिल्ला युद्ध है।


अस्थिकेशवसाकीर्णं शोणितौघपरिप्लुतं।

शरीरैर्वहुसाहस्रैविनिकीर्णं समंततः।।



महाभारत का सीरियल जोधा अकबर है इन दिनों लाइव,जो मुक्तबाजारी महापर्व से पहले तकनीकी क्रांति के सूचनाकाल से लेकर अब कयामत समय तक निरंतर जारी है।


उसी महाभारत के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे युद्धोपरांत यह दृश्यबंध है।


उस धर्मक्षत्रे अस्थि,केश,चर्बी से लाबालब खून का सागर यह।एक अर्यूद सेना, अठारह अक्षौहिणी मनुष्यों का कर्मफल सिद्धांते नियतिबद्ध मृत्युउत्सव का यह शास्त्रीय, महाकाव्यिक विवरणश्लोक।


गजारोही,अश्वारोही,रथारूढ़,राजा महाराजा, सामंत, सेनापति, राजपरिजन,श्रेष्ठी अभिजन और सामान्य युद्धक पैदल सेनाओं के सामूहिक महाविनाश का यह प्रेक्षापट है।जो सुदूर अतीत भी नहीं है,समाज वास्तव का सांप्रतिक इतिहास है और डालर येन भवितव्य भी।


मालिकों को खोने वाले पालतू जीव जंतुओं और युद्ध में मारे गये पिता,पुत्र,भ्राता,पति के शोक में विलाप में स्त्रियां का प्रलयंकारी शोक का यह स्थाईभाव है।नरभक्षियों के महाभोज का चरमोत्कर्ष है यह।


यह है वह शास्त्रीय उन्मुक्त मुक्तबाजार का धर्मक्षेत्र जिसे कुरुवंश के उत्तराधिकारी भरतवंशी देख तो रहे हैं रात दिन चौबीसो घंटे लाइव लेकिन सत्ताविमर्श में निष्णात इतने कि महसूस नहीं रहे हैं क्योंकि धर्मोन्मादी दिलदिमाग कोमा में है।आईसीयू में लाइव सेविंग वेंटीलेशन में है।कृतिम जीवन में है,जीवन में नहीं हैं।


अब उत्तरआधुनिक राजसूय अश्वमेध धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे तेलयुद्ध विकास कामसूत्र मध्ये अखंड भारतखंडे की पृष्ठभूमि भी वही महाकाव्यिक।नियति भी वही।मृत्यु उपत्यका शाश्वत वही।


यही कविता में नवारुणदा की याद की वजह भी है।


कविता अगर जीवित होती और किसी अंधेरे कोने में भी बचा होता कोई कवि तो इस मृत्युउपत्यका की सो रही पीढ़ियों को डंडा करके उठा देता और आग लगा देता इस जनविरोधी तिलस्म के हर ईंट में,सत्तास्थापत्य के इस पिंजर को तोड़ कर किरचों में बिखेर देता।


दरअसल उभयलिंगियों का पांख नहीं होते और वे सदैव विमानयात्री होते हैं।पांख के पाखंड में लेकिन आग कोई होती नहीं है।विचारधारा और प्रतिबद्धताओं की अस्मितामध्ये किसी अग्निपाखी का जन्म भी असंभव है।कविता अंतत- वह अग्निपाखी है और कुछ भी नहीं और बिना आग कविता या तो निखालिस रंडी, स्त्रियों के लिए अक्सर दी जाने वाली यह गाली किसी स्त्री का चरित्र है नहीं और दरअसल यह उपमा उभयलिंगी है जो सत्ता के लिए किराये की कोख भी है।


जो कविता परोसी जा रही है कविता के नाम पर वे मरी हुई सड़ी मछलियों की तरह मुक्तबाजारी धारीदार सुगंधित कंडोम की तरह मह मह महक रही हैं अवश्य,लेकिन  कविता कंडोम से हालात बदलने वाले नहीं है।


यह काउच पर,सोफे पर,किचन में ,बाथरूम में, बिच पर,राजमार्गे,कर्मक्षेत्रे मस्ती का पारपत्र जरुर है,कविता हरगिज नहीं।


सच तो  यह भी है कि इस धर्मक्षेत्रे महाभारते  कविता के बिना कोई लड़ाई भी होनी नही है क्योंकि कविता के बिना सत्ता दीवारों की किलेबंदी को ध्वस्त करने की बारुदी सुरंगें या मिसाइली परमाणु प्रक्षेपास्त्र भी कुुरुक्षेत्र की दिलोदमाग से अलहदा लाशें हैं।


लोक की नस नस में बसी होती है कविता।

हनवाओं की सुगंध में रची होती है कविता।


बिन बंधी नदियां होती हैं कविता।उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों की कोख में जनमी ग्लेशियरों के उल्लास में होती है कविता।


निर्दोष प्रकृति और पर्यावरण की गोद में होती है कविता।

कविता महारण्य के हर वनस्पति में होती है और समुंदर की हर लहर में होती है कविता।


मेहनतकशों के हर पसीना बूंद में होती है कविता।

खेतों और खलिहानों की पकी फसल में होती है कविता।


वह कविता अब सिरे से अनुपस्थित है क्योंकि लोक परलोक में है अब और प्रकृति और पर्यावरण को बाट लग गयी है।


पसीना अब खून में तब्दील है।


हवाएं अब बिकाऊ है।


कोई नदी बची नहीं अनबंधी।


सारे के सारे ग्लेशियर पिघलने लगे हैं और उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों का अस्तित्व ही खतरें में है। हिमालयअब आफसा है।आपदा है।


खामोश हो गयी हैं समुंदर की मौजें और महाअरण्य अब बेदखल  बहुराष्ट्रीय रिसार्ट,माइंनिंग है,परियोजना हैं ह या विकास सूत्र का निरंकुश महोत्सव है या सलवा जुड़ुम या सैन्य अभियान है।


वातानुकूलित सत्ता दलदल में धंसी जो कविता है कुलीन,उसमें शबाब भी है,शराब भी है,देह भी है कामाग्नि की तरह,लेकिन न उस कविता की कोई दृष्टि है और न उस निष्प्राण जिंगल सर्वस्व स्पांसर में संवेदना का कोई रेशां है।


अलख बिना,जीवनदीप बिना,वह कविता यौन कारोबार का रैंप शो के अलावा कुछ नहीं है और महाकवि जो सिद्धहस्त हैं भाषिक कौशल में दक्ष,शब्द संयोजन बिंब व्याकरण में पारंगत वे दरअसल मुक्तबाजार के दल्ला हैं या फिर सुपरमाडल।


हमने नवारुण दा की कविता में वह अलख जगते देखा है और उनके गद्य में भी फैताड़ुओं की कविता में ज्वालामुखी की वह धारा बहते हुई देखी है।
































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क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार। और हम जो हो गये निराधार पलाश विश्वास

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क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

और हम जो हो गये निराधार

पलाश विश्वास

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।


सुन्दर लाल बहुगुणा की उम्र अब 87 साल की है और वे पक्के गांधीवादी और सर्वोदयी हैं।चंडी प्रसाद भट्ट जी उनसे छोटे हैं।भट्ट जी अभी पहाड़ों में बने हुए हैं और धूम सिंह नेगी जाजल घाटी में सक्रिय हैं।


हर साल आने वाली बाढ़,भूकंप बारंबार और अक्सरहां भूस्खलन और उनसे भारी टिहरी महाभीमाकार जलाशय से बेदखल गांवों और घाटियों,डूब में शामिल तबाह हो रहे मध्य हिमालय में सुन्दरलाल बहुगुणा के साथी और अनुयायी और पहाड़ को भले यह नारा याद हो न हो,उन्हें और उनकी पत्नी विमला बहुगुणा को अब भी हर बात में यही बात नजर आती है,जिसे वे बार बार दोहराते भूलते नहीं है।


क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।


लोग इसे स्मृतिविभ्रम भी मान सकते हैं लेकिन यह अटूट आस्था प्रकृति और पर्यावरण चेतना की है,मनुष्यता और सभ्यता के भूत वर्तमान और भविष्य का सरोकार भी है इस अकेले नारे में। जिसका गंगासफाई या हिंदुत्व राष्ट्रवाद की बिजनेस फ्रेंडली तकनीकी मुक्त बाजार में शायद ही कोई प्रासंगिकता है।


लेकिन किसी सुन्दरलाल बहुगुणा के लिए तो यह बीजमंत्र है ही जो हम भाषा बेदखल संस्कृति अवक्षय के शिकार लोकजड़ों से उखड़े लोगों के लिए नीरस पुनरावृत्ति मात्र है जो धार्मिक आस्था मसलन जय बदरी विशाल नमो नमो की तरह धर्मोन्माद यकीनन पैदा नहीं करता।


इसीलिए शायद इस केसरिया कारपोरेट समय में इस विध्वंस महाप्रलय की कगार पर खड़े महादेश में धार पर किसी गूंज की तरह सुंदरलाल बहुगुणा और उनका चिपको आंदोलन विकाससूत्र विरुद्धे हैं और राज्यतंत्र की मजबूरी है कि न वे उन्हें कश्मीर बना सकता है,न मणिपुर और न मध्य भारत।


हालांकि कश्मीर से लेकर अरुमाचल तक समूचे हिमालय के विरुद्ध जो युद्ध जारी है अनवरत उसे हम हमेशा चीनविरुद्धे छायायुद्ध के स्मृति विभ्रम में जीते मरते रहेंगे।


प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध जो कारपोरेट विध्वंस का अतिक्रमण है,उसे नजरअंदाज करने का जनादेश है और मिथ्या सीमाओं का युद्धोन्माद में निष्णात वर्तमान के रोबोटिक पीढ़ियों के बेनागरिक हैं हम वर्णशंकर।



दरअसल मुक्तबाजारी महाविनाश के कगार पर खड़े इस महादेश का सबसे बड़ा मुद्दा भी यही है।


क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।



केदार जल आपदा पर भारतीय कारपोरेट मीडिया के पहाड़ और हिमालय नजरअंदाज पर्यटन धार्मिक हवाई कवरेज से लहुलूहान मैंने सारे देशी विदेशी संपादकों को पहाड़ से करीब डेढ़ हजार किमी दूर कोलकाता से एक खुली चिट्ठी अंग्रेजी में  लिखी थी,जिसे आउटलुक संपादक उत्तम सेनगुप्त ने फारवर्ड भी किया था,और जो हस्तक्षेप में लगी भी थी कि आपदा प्रबंधन में जनपदों,गांवों,घाटियों,ग्लेशियरों और स्थानीय जनता की सुधि भी ली जाये।


जो केदार जलप्रलय के अवसान के बाद अब तक नहीं ली गयी है और आगामी विपर्ययों के आपदा प्रबंधन के डीफाल्ट में भी ऐसी किसी तकनीक के ईजाद होने के आसार नहीं है और न कोई जनांदोलन है और न राजनीतिक सदिच्छा है सर्वव्यापी सत्ता कारपोरेट वर्चस्व के अलावा।


जल जमीन,बयार और जीवन के मूलभूत आधार पर बीबीसी हिंदी के अलावा फोकस किसी ने नहीं किया।


दिल्ली में कनाट प्लेस के बाहरी सर्किल से इंडिया गेट की तरफ खुलने वाली सड़क कस्तूरबा गांधी मार्ग परजो हिंदुस्थान टाइम्स की लंबी सी इमारत है,वहां से कभी कादंबिनी और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे प्रकाशन होते थे।


शिवानी की छोटी बहन नीलू कुमार डीएसबी में हमारे अंग्रेजी अध्यापिका और उस परिवार के दूसरे तमाम लोग नैनीताली होने की वजह से अपने ही लोग,लेकिन मृणाल पांडेय से हमारा कभी संवाद हुआ नहीं है।जिन्हें हम बेहतर लेखिका हमेशा मानते रहे हैं लेकिन उनकी ऊंचाई को स्पर्श करने की हमारी स्पर्द्दा रही नहीं है,उनके बाकी परिजनों से अंतरंग आत्मीयता के बावजूद।


हिंदुस्तान में हम हिमांशु जोशी की वजह से जाया करते थे और मनोहर श्याम जोशी की सघन सापेक्षिक उच्चता से मुग्ध होकर लौटते थे।


इसबार अपने तराइया कस्बे के हैरी पुत्तर बीबीसी हिंदी के संपादक राजेश जोशी को इसी भवन में दाखिल होते ही सलमान की गरमजोश जादुई झप्पी से निपटने के बाद हमने जो कहा कि यार राजेश,लंदन से लौटकर तुम्हारी लंबाई कुछ बढ़ ही गयी,वह मजाकिया टिप्पणी कतई नहीं है।


इससे मनोहर श्याम जोशी की कद काठी हिली मिली तो है ही,इस हिमालय के मुद्दों को बारंबार हाईलाइट करने और भारतीय जनता को जनसुनवाई का मौका बार बार देते रहने की हिंदी मीडिया के आखिरी ठिकाने में मोरचाबंद बीबीसी हिंदी टीम की सार्थक भूमिका पर हम जैसे कमतर इंसान की रूह के पैमाने पर बाकी हिंदी और भारतीय मीडिया के मुकाबले उनके कद की सही ऊंचाई यही है। बाकी भारतीय मीडिया से ऊंची।यह विडंबना है लेकिन कटु सत्य भी है कि हम बीबीसी को छू भी नहीं सकते।


केदार जल प्रलय एक अपरिहार्य परिणाम है और आपदा प्रबंधन के लिए वह फिलहाल इतिहास है और मध्य हिमालय अब न सिर्फ ऊर्जा और बांध और डूब प्रदेश हैं,उसे तेजी से तिब्बत की तर्ज पर कैलाश मानसरोवर और शायद एवरेस्ट से जोड़कर धर्म और पर्यटन की बहुराष्ट्रीय मुनाफा वसूली की पुरजोर प्राथमिकता है।


सारा हिमालय अब या तो सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून है।


सारा हिमालय अब या तो स्थानीय वाशिंदो से बेदखल कारपोरेट धर्म है या कार्पोरेट बिजनेस है या कारपोरेट पर्याटन है।


सारा हिमालय अब या तो पिघलता ग्लेशियर है या फिर निरंतर भूस्खलन है या निरंतर जलप्रलय।या अविराम प्राकतिक आपदाओं की सुनामी जिसे हम अब केसरिया नमो सुनामी बताते अघाते भी नहीं,न शर्मिंदा होते हैं।


सारा हिमालय अब या तो अनंत डूब है या फिर विनाशकारी चीड़ महारण्य सीमेंटी है जिसके रगों में बहती पगडंडियां और अविरल जलधाराएं दिशाहीन हैं।नदियां सारी बंधी बंदी,झीलें सारी मरी हुई मछलियां और अनंत संड़ांध से सराबोर हिमालय यह।


या सारा हिमालय अब सिडकुल है जिसमें पहाड़ के लोगों का कोई रोजगार नहीं है।जहां कोई श्रमकानून नहीं है जो शिक्षा बाजार का काकटेल है ,वही मेरा हरियाला हुआ धूसर जलछवि हिमालय है धवल नहीं मलिन म्लेच्छ बाकी हिंदुस्तान के लिए।


क्योंकि देवभूमि के हिंदू दरअसल आदिवासी मूलनिवासी कमतर हिंदू है और बलिप्रदत्तों के लिए वैदिकी पूजा पद्धति की अटूट परंपरा जारी है।

या सारा हिमालय अब किस्सा वासेपुर है और जहां भूमाफिया सर्वशक्तिमान है जो रोज रोज भूमि उपयोग बदल रहा है।इंच दर इच उनका कब्जा है और बाकी जो धरती बची है वह धारा 370 है।


सारा सवर्ण  हिमालय उसी वर्ण वैषम्य रंगभेद का शिकार है जो गति दुर्गति बाकी वंचितों की है और मजा यह है कि सारा हिमालय सवर्ण है और सारे पहाड़ी या देव हैं या देवादिदेव और देवियां सारी की सारी बंधुआ मजदूरिनें हैं और भविष्य वर्तमान के गैसचैंबर में एक बूंद आक्सीजन को तरस रहा है।


सिक्किम और सैन्यनियंत्रण से बाहर गांतोक से नाथुला और नीचे तीस्ता तक के पहाड़ पर रिसते जख्मों पर दौड़ती विकास बुलेटों की गूंज सर्वत्र घनघोर हैं और सुन्दरलाल बहुगुणा और विमला बहुगुणा की बूढ़ी आवाजें कुंवर प्रसूण,प्रताप शिखर,भवानी भाई,सुरेंद्र भट्ट,चिपको माता गौरा पंत के महाप्रयाण के बाद साठ और सत्तर के दशकों की तरह इस नारे की गूंज मुक्ताबाजारी महाकोलाहल में बना नहीं सकतीं।


जबकि भारतीय कारपोरेट धर्मांध मीडिया समूह में आर्थिक सुधारों के बहाने हिमालय तो क्या समूची कायनात और इंसानियत से हो रहे बलात्कार शीत्कारों के अलावा कोई आवाज कहीं नहीं है ।कोई जनसुनवाई नहीं है।


हम जानते हैं कि हमारी औकात दो कौड़ी नहीं है और साठ और सत्तर के दशकों के अवसान के बाद हमारी औकात नवारुणदा के कंगाल मालसाट के कालातीत दंडवायस काक की तरह भी नहीं है,जिसके अविराम कांव कांव में मनुष्यता के पक्ष में कोई गुरिल्ला युद्ध का कोई अक्लांत मोरचा बन सकें और न हम कोई काजी नजरुल हैं जो उदात्त कंठ से कह सकें,मम शिर नेहारि नत शिर शिखर हिमाद्रिर।


हम उत्तुंग धवल शिखरों ग्लेशियरों से घिरी अंधों के जनपदसमग्र जिसे देवभूमि कहा जाता है,उसकी प्रवासी संतान मात्र है और अपने ही जल जमीन जंगल से बह निकलती रक्तनदियों की सुनामियों के विरुद्ध मोर्चा बांधने के लिए इन बूढ़ी आवाजों की गोलंदाजी के सिवाय हमारे पास फिलवक्त कोई दिव्य पाशुपत ब्रह्मास्त्र वगैरह नहीं है।


कि जिससे हम अपने बेदखल स्वर्ग के लिए कोई युद्ध घोषणा कर सकें।


न हम इस देश के प्रधानमंत्री हैं और न हो सकते हैं जो कायाहीन शत्रुता की उपासना में निरंतर युद्ध करें और प्रकृति और पर्यावरण के खिलाफ भी जिनकी तमाम फौजें लगातार मोर्चा बंद हों।


हम अपनी जनता के पक्ष में उन अकेले सिपाहियों में हैं जो इस महादेश के सर्वत्र सजे कुरुक्षेत्र चक्रव्यूह में रथी महारथियों से घिरे अकेले अभिमन्यु की तरह मृत्यु अभिशप्त हैं।


हम कोई मूर्ति पूजा के लिए सुंदरलाल जी और विमला जी से गंगासागर से गंगा तक की उलट यात्रा के तहत बसंतीपुर छूकर बिजनौर होकर देहरादून में सरकारी आतिथ्य झेलकर मिलने नहीं गये।गये  तो अतीत से वर्तमान और भविष्य के सेतुबंधन के हनुमान प्रयत्न के तहत ही।


हालाकिं इस धर्मोन्मादी कारपोरेट राष्ट्र में हम हनुमान बन भी नहीं सकते।क्योंकि हम हनुमान का संजीवनी पर्वत से नाता कोई नहीं है और वे तो गुजारत के वैसे ही ब्रांड अंबेसैडर हैं जैस सुपरस्टार अमिताभ बच्चन।   


चिपको आन्दोलनके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा हैं ,ऐसा भी हम नहीं मानते।


गौरा पंत और उनकी महिलाब्रिगेड को याद करते हुए हमारे लिए यह कहना असंभव भी है।लेकिन सच तो यह है कि ९ जनवरी सन १९२७ को कथित देवों देवियों की की नरकयंत्रणा भूमि उत्तराखंडके टिहरी रियासत के सिल्यारा में जनमे सुंदरलाल बहुगुणा उस पर्यावरण चेतना के भीष्मपितामह हैं,जिनकी सोच के मुताबिक भारतनिषिद्ध वैश्विक पर्यावरण चेतना है और उसका भी मुद्दा वही,क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।


प्राथमिक शिक्षा के बाद वे लाहौर चले गए और वहीं से बी.ए. पास करने वाले सुंदरलाल बहुगुणा ने करीब पैंतीस साल बाद हुई मुलाकात के बाद भी हमें पहचान गये,यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं।


सविता को बगल में बैठाकर उनसे वे अपनी बेटी की तरह जो बतियाये हजारों मील दौड़ने के बाद उसकी सारी थकान एकमुश्त छंदबद्ध संगीतमय हो गयी।


स्मृति भ्रम के शिकार हमारे पूर्वज पुरखे नहीं हुए,ऐसा हमारा मानना है क्योंकि वे प्रकृति के नियमों से बंधे प्रकृति के साहचर्य से जुड़े अनुशासनबद्ध लोग होते हैं और हम चूंकि प्रकृति और मनुष्यता के चौतरफा हीरक सर्वनाश कीजुगत में पल पल षड्यंत्र में सक्रिय मृतात्माएं हैं ,रोबोट क्लोन है,जिन्हें न प्रकृति की परवाह है और न मनुष्यता की,हमारे लिए वे स्मृति विभ्रम के शिकार लोग होते हैं और उनकी अंत्येष्टि बिना हम उन्हें श्रद्धासुमन भी नहीं चढ़ा सकते।


जैसे साम्यवाद के,सामाजिक न्याय के मौलिक क्रांतिकारी गौतम बुद्ध को उनके ही अनुयायियों ने भव्य इमारतें तामीर करके तंत्र मंत्र यंत्र तिलिस्म में कैद करके उनके शील,उनके रक्तहीन महाविप्लव,उनके साम्य और उनके सामाजिक न्याय को बाट लगा दिया,वैसा ही तमाम जनांदोलनों और विचारधाराओं की नियतिबद्ध परिणति हैं।


हम ईश्वर की आस्था में निष्णात पल प्रतिपल ईश्वर और धर्म की हत्या में नियोजित पीढियों के रोबोटिक क्लोन हैं जो धरती को तबाह करके अंतरिक्ष,नीहारिकाएं और आकाशगंगाएं जीतना चाहते हैं और जो भारतीय कृषि समाज के महाविनाश की कीमत पर महाशक्तिधर स्वयं सर्वशक्तिमान ईश्वर तानाशाह फासीवादी बनने को उत्कट अश्लील हैं।


सन १९४९ में मीराबेन व ठक्कर बाप्पाके सम्पर्क में आने के बाद ये दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी किए। दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया।इसे भी लोग याद नहीं करते सवर्ण देवभूमि महाविनाश कुरुक्षेत्रे हिमालयमध्ये।न दलितों के दुकानदार इसकी इजाजत देंगे।


अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिल्यारा में ही 'पर्वतीय नवजीवन मण्डल' की स्थापना भी की। सन १९७१ में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

बहुगुणा के 'चिपको आन्दोलन' का घोषवाक्य है-

 क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है। बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड आफ नेचर नामक संस्था ने १९८० में इनको पुरस्कृत भी किया। इसके अलावा उन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

पर्यावरण को स्थाई सम्पति माननेवाला यह महापुरुष आज 'पर्यावरण गाँधी' बन गया है।लेकिन न भारतसरकार और न उत्तराखंड सरकार को पर्व त्योहार पर सरकारी गाड़ियों से अतिथि और फल भेजने से ज्यादा कोई परवाह इस भीष्म पितामह की है।


जो कंटक शय्या पर हैं और तृष्षा से काठ काठ कंठ उनका है लेकिन इस धरती परकोई धनुर्धर अर्जुन द्वापर के बाद हुआ नहीं कि उनकी प्यास बुझाने को धरती फोड़कर जलस्रोत निकाल लें।


होते अर्जुन तो उनके लिए भी असंभव होता यह कार्यभार क्योंकि वह मछली की आंख नही कोई।क्योंकि आकाश पाताल और मर्त्यभूमि में कहीं अब पानी का कोई ठिकाना नहीं हैं और रेडियोएक्टिव विकिरण से गल रहे हैं तमाम ग्लेशियर जो रेगिस्थान में बदल रहे हैं और इस कायनात में न अब कभी पानी होगा और न अनाज होगा ।हमारे लिए सिर्फ टैबलेट होंगे।


आज यही तक।बाकी मुद्दों पर चर्चा के लिए इसे मुखबंध ही समझें।तब तक यद कीजै यही पहाड़ा कि

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
  मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

और हम जो हो गये निराधार


Sunderlal Bahuguna

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Sunderlal Bhahuguna
Born9 January 1927 (age 87)
Maroda village, Tehri Garhwal, Uttarakhand[1]
Occupationactivist, Gandhian, environmentalist
Spouse(s)Vimla Bahuguna
Children3

Sunderlal Bahuguna (born 9 January 1927)[2] is a noted Garhwalienvironmentalist, Chipko movement leader and a follower of Mahatma Gandhi's philosophy of Non-violence and Satyagraha. This idea of chipko movement was of his wife and the action was taken by him. For years he has been fighting for the preservation of forests in the Himalayas, first as a member of the Chipko movement in the 1970s, and later spearheaded the Anti-Tehri Dam movement starting 1980s, to early 2004.[3] He was one of the early environmentalists of India,[4] and later he and people associated with the Chipko movement later started taking up environmental issues, like against large dams, mining and deforestation, across the country.india pays him a tribute for his contribution for the trees.[5]

He was awarded the Padma Vibhushan, India's second highest civilian honour, on 26 January 2009.[2]

Early life[edit]

Sunderlal Bahuguna was born in village Maroda, near Tehri, Uttarakhand on 9 January 1927. He claimed in a function arranged at Kolkata, that his ancestors bearing surname Bandopadhyaya, migrated from Bengal to Tehri, some 800 years ago.[6] Early on, he fought against untouchability and later started organising hill women in his anti-liquor drive from 1965 to 1970.[7] He started social activities at the age of thirteen, under the guidance of Shri Dev Suman, who was a nationalist spreading message of non-violence[8] and he was with Congress party of Uttar Pradesh (India) at the time of Independence.[9] Bahuguna also mobilised people against colonial rule before 1947.[10] He adopted Gandhian principles in his life and married his wife Vimla with the condition that they would live among rural people and establish ashram in village.[10] Inspired by Gandhi, he walked through Himalayan forests and hills, covering more than 4,700 kilometres by foot and observed the damage done by mega developmental projects on fragile eco-system of Himalaya and subsequent degradation of social life in villages.[10]

Chipko movement[edit]

Chipko movement started in 1973 spontaneously in Uttar Pradesh, in an effort to save trees and forests from felling by forest contractors.[11] In Hindi, "Chipko" literally means "to stick" and people started sticking to trees when it was being cut.Chipko movement later inspired Appiko Movement in Karnataka. One of Sunderlal Bahuguna's notable contributions to that cause, and to environmentalism in general, was his creation of the Chipko's slogan "Ecology is permanent economy." Sunderlal Bahuguna helped bring the movement to prominence through about 5,000-kilometer trans-Himalaya march[10]undertaken from 1981 to 1983, travelling from village to village, gathering support for the movement. He had an appointment with the then Indian Prime Minister Indira Gandhi and that meeting is credited with resulting in Ms. Gandhi's subsequent 15-year ban on felling of green trees in 1980.[3] He was also closely associated with Gaura Devi, one of the pioneers of the movement.

Anti Tehri Dam protests[edit]

A protest message against Tehri dam, which was steered by Sundarlal Bahuguna for years. It says "We don't want the dam. The dam is the mountain's destruction."

He has remained behind the anti-Tehri Dam protests for decades, he used theSatyagraha methods, and repeatedly went on hunger strikes at the banks of Bhagirathias a mark of his protest.[12] In 1995, he called off a 45-day-long fast following an assurance from the then Prime Minister P.V. Narasimha Rao of the appointment of a review committee on the ecological impacts of the dam, thereafter he went on another long fast another fast which lasted for 74 days at Gandhi Samadhi, Raj Ghat,[13] during the tenure of Prime Minister, H.D. Deve Gowda, he gave personal undertaking of project review. However despite a court case which ran in the Supreme Court for over a decade, work resumed at the Tehri dam in 2001, following which he was arrested on 20 April 2001.

Eventually, the dam reservoir started filling up in 2004, and on 31 July 2004 he was finally evacuated to a new accommodation at Koti, a little hillock, along the Bhagirathi where he lives today, continues his environment work.[3]

Sunderlal Bahuguna has been a passionate defender of the Himalayan people, working for temperance, the plight of the hill people (especially working women). He has also struggled to defend India's rivers.[14][15]

Awards[edit]

  • 1981 Padma Shri by the government of India, but he refused

Books written[edit]

  • India's Environment : Myth & Reality with Vandana ShivaMedha Patkar[17]
  • Environmental Crisis and Humans at Risk: Priorities for action with Rajiv K.Sinha[17]
  • Bhu Prayog Men Buniyadi Parivartan Ki Or (Hindi)[17]
  • Dharti Ki Pukar (Hindi)[17]

References[edit]

  1. Jump up^ Bahugunabetterworldheroes.com.
  2. Jump up to:a b Padma Vishushan awardees Govt. of India Portal.
  3. Jump up to:a b c Bahuguna, the sentinel of Himalayas by Harihar Swarup, The Tribune, 8 July 2007.
  4. Jump up^ Sunderlal Bahuguna, a pioneer of India's environmental movement... New York Times, 12 April 1992.
  5. Jump up^ How green is their valley The Times of India, 22 September 2002.
  6. Jump up^ Banerjee, Sudeshna (13 March 2011). "Bengali Bahuguna"The Telegraph,Calcutta. Retrieved 8 October 2012.
  7. Jump up^ Sunderlal Bahuguna culturopedia.com.
  8. Jump up^ Pallavi Thakur, Vikas Arora, Sheetal Khanka, (2010). Chipko Movement (1st ed.). New Delhi: Global Vision Pub. House. p. 131. ISBN 9788182202887.
  9. Jump up^ Shiva, Vandana (1990). Staying alive: women, ecology, and development. London: Zed Books. p. 70. ISBN 9780862328238.
  10. Jump up to:a b c d Goldsmith, Katherine. "A Gentle Warrior"Resurgence & Ecologist. Retrieved 8 October 2012.
  11. Jump up to:a b Chipko Right Livelihood Award Official website.
  12. Jump up^ Big Dam on Source of the Ganges Proceeds Despite Earthquake Fear New York Times, 18 September 1990.
  13. Jump up^ "If the Himalayas die, this country is nowhere". An Interview with Sunderlal Bahuguna with Anuradha Dutt (1996 Rediff Article). Uttarakhand.prayaga.org. Retrieved on 1 May 2012.
  14. Jump up^ 'My fight is to save the Himalayas' Frontline, Volume 21 – Issue 17, 14–27 Aug 2004.
  15. Jump up^ Bahuguna uttarakhand.prayaga.org
  16. Jump up^ "Jamnalal Bajaj Awards Archive"Jamnalal Bajaj Foundation.
  17. Jump up to:a b c d "Sunderlal Bahuguna". Retrieved 8 October 2012. |first1= missing |last1= in Authors list (help)

External links[edit]



Fwd: my short comment on run for unity

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From: Amalendu Upadhyaya<amalendu.upadhyay@gmail.com>
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  • उतने ही खतरनाक हैं अनाकोंडा जितने अमेजन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग

    उतने ही खतरनाक हैं अनाकोंडा जितने अमेजन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग


  • Fwd: SHUNYAKAAL 8th ISSUE

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    From: Dipankar Dutta<deepankar_dutta@yahoo.co.in>
    Date: 2014-11-03 22:19 GMT+05:30
    Subject: SHUNYAKAAL 8th ISSUE
    To:


    সুধী,

    শূন্যকাল ওয়েবজিনের ৮ম সংখ্যা প্রকাশিত হলো।
    ক্লিক করুন।


    আপনার সুচিন্তিত মতামত জানান।

    দীপঙ্কর দত্ত 
    নিউ দিল্লী 
    ০৯৮৯১৬২৮৬৫২
    Find us on Facebook : shunyakaal webzine 

    We vehemently decry the brutal police atrocity on the innocent students of Jadavpur University

                                                              

    Issue: 8,   31st Oct,  2014  *  Editor: Dipankar Dutta  *  Email: deepankar_dutta@yahoo.co.in   9891628652  *  Delhi

    _____________________________________________________________________________________________________

                                                                                     এই সংখ্যায়

    কাব্যডায়েরি : অনুপম মুখোপাধ্যায়
    অনুবাদ কবিতা : 
    দিলীপ ফৌজদার, অমৃতা নীলাঞ্জনা, বারীন ঘোষাল, ভাস্বতী গোস্বামী, দীপঙ্কর দত্ত
    কবিতা : বারীন ঘোষাল, তানিয়া চক্রবর্তী, রঞ্জন মৈত্র, জপমালা ঘোষরায়, অর্জুন বন্দ্যোপাধ্যায়, দেবযানী বসু, নীলাব্জ চক্রবর্তী, সঙ্ঘমিত্রা হালদার, হাসনাত শোয়েব, যাদব দত্ত, অস্তনির্জন দত্ত, হাসান রোবায়েত, উমাপদ কর, দেবাশিস মুখোপাধ্যায়, গৌরব চক্রবর্তী, ভাস্বতী গোস্বামী, মোস্তাফিজ কারিগর, সোম সরকার, কৃষ্ণা মিশ্র ভট্টাচার্য, দিলীপ ফৌজদার, দীপঙ্কর দত্ত
    প্রবন্ধ : রমিত দে

    ______________________________________________________________________________________________________

    _____________________________________________কাব্যডায়েরি____________________________________________


    অনুপম মুখোপাধ্যায় 

    কাব্যডায়েরি : পুনরাধুনিক


    ১৬।১১।২০১৪
    । 
    একজন। ছাতে 
    মাটি খুঁড়ে গাছ বসাচ্ছে। এই 
    দৃশ্য। দেখে স্মিত আরেকজন 
    ভুলে যাচ্ছে শিকড়ের 
    খোঁজ। আমি দেখছি। সস্তা। চারপাশ। আমি দেখছি। ফূর্তির। লোভ। লোকে 
    হন্যে হচ্ছে। আর ফাঁকা হয়ে যাচ্ছে 
    তাদের বিস্ময়ের আকাশ। আমি। হাজারে গিয়ে 
    দেখছি। আমার। দিন 
    বিক্রি হচ্ছে। আমি কোটিতে গিয়ে 
    দেখছি। আমার। রাত 
    বিক্রি হচ্ছে। আমি। কিনছি না । আমার কিছু যাচ্ছে আসছে না

    আজ একটি বিখ্যাত কাগজের সম্পাদক আমার লেখা চাইছেন। কী করি ! রাজি হয়ে যাচ্ছি। বেশি পাঠক পাওয়ার লোভ ছাড়তে চাইছি না

    ১৭। ১১। ২০১৪

     আমার। কিছু যাচ্ছে আসছে না। অসাড়। হয়ে থাকতে 
    চাইছি। এখানে। লোকে 
    সংশয়কে 
    পুজো করছে অনির্ণেয়তার নামে। আমার কী? ১ নিস্তেজ জীবন 
    আর ১ কদাকার জীবনকে। জড়িয়ে ধরছে। চুমু 
    খাচ্ছে। তারপরে সটান ফাক করছে... একবারের জন্যও নিজের উপরে 
    চড়তে দিচ্ছে না। তলঠাপগুলোকে। একঘেয়েমির 
    ওজন দিয়ে 
    বসিয়ে দিচ্ছে বিছানায়। এই হচ্ছে 
    কন্ডোমের ম্যাজিক! যে কোনো ১
    চুমু। যে কোনো ১
    সঙ্গম। ক্যামেরার চোখ থেকে 
    ব্যাখ্যা করা যাচ্ছে। এই 
    জীবন। আমার কি?  আমার 
    নয়। আমি 
    নৌকো নিয়ে ভাসছি 
    শিলাবতীর জলে। আমি। নিজের নৌকো 
    হতে চাইছি শুধু। । আমি সহ্য করে নিচ্ছি 

    আজ লেখাটা তৈরি করছি। লিখতে ভালই লাগছে। অন্যদের কথা অবিশ্যি বলতে পারছি না

    ১৮। ১১। ২০১৪

    আমি। কিছুটা। সহ্য করে নিচ্ছি। মনে 
    পড়ছে। ফাদার সার্জিয়াস। তলস্তয়... আপনিই। পারছেন 
    এক সন্তের 
    আঙুল কেটে ফেলতে। আপনিই... কিন্তু। শুধু আপনিই নন। ক্রাইম অ্যান্ড পানিশমেন্টের 
    নায়কটির মতো... কেউ 
    হাঁটতে চাইছে না ঘটনা থেকে সিদ্ধান্তের দিকে। আমি 
    চাইছি। শুধু। লেখাকেই। নিজের 
    জীবন করে তুলতে। আমি 
    আমার লেখার চেয়ে 
    ঢের বাসছি 
    আমার ছোট্ট মেয়েটাকে। আমার জীবন 
    আমার লেখা। লোকে 
    বুঝতে পারছে। না। আমার সহজ 
    আমার লেখা। লোকে 
    বুঝতে চাইছে না। মণীষীরা আর। আসতে 
    পারছেন না। এটা হচ্ছে মনিষ্যিদের 
    সরল পরিসর। আমি বাঁচছি । আমি হাঁটতে পারছি না

    লেখাটা শেষ হচ্ছে। ভিতর থেকে বেরিয়ে আসছে শেষটা। এটা আমি লিখছি, ভেবে আনন্দ হচ্ছে খুউউব
    । 
    ১৯। ১১। ২০১৪

    আমি। ওভাবে হাঁটতে চাইছি না। আপনাদের মতো 
    হতে চাইছি না। আপনারা। বিখ্যাত 
    লেখক। ন্যাড়া 
    দেবদূত। আপনাদের 
    মহিমা থেকে। আপনাদের 
    টেনে আনা হচ্ছে। সকলেই 
    সেলিব্রিটি হচ্ছেন। সেলেব... মানে 
    সেলেবল? আপনি দ্যাবাপৃথিবীতে 
    ইলিশ হয়ে থাকছেন। আমি মাইরি 
    হাঙর হয়েই খুশি। আপনাদের শ্রদ্ধা করতে চাইছি না

    আজ লেখাটায় অনেক ঘসামাজা করছি। কোনো লেখাই আজকাল ঠিক মনের মতো হয়ে উঠছে না। এই লেখাটা সম্ভবত ওই কাগজের উপযুক্ত হতে চাইছে না। চাইছে না কোনো লেখাই আমার

    ২০। ১১। ২০১৪

    আমি। আপনাদের। ক্লোন-কারখানার পুজো 
    করতে চাইছি না। আপনারা। লম্বা। দাড়িওলা। চুনকাম করা সব 
    খাড়া লাইটহাউস। দিগন্তে 
    ঠেস দিয়ে থাকছেন। আপনারা। অগম্য 
    নন। যেতে না চেয়েই 
    আমি আপনাদের চুষে নিতে 
    যেতে চাইছি না।  মৃত লোকেরা 
    আজ জ্যান্তদের চেয়ে। ঢের। অনেক। ঢের। হয়ে 
    থাকছেন। পৃথিবীতে থাকছে না কোনো মৃত লোক

    লেখাটা পাঠাচ্ছি আজ। ভাবছি, এটা অন্য কোথাও দেওয়া যেতে পারত। কিন্তু উনি চাইছেন। ভাবছি, দ্যাখা যাক

    ২১। ১১। ২০১৪

    ভারতে। মরছে না কেউই 
    ঠিকঠাক। থাকছেন না 
    কোনো। মৃত লোক। ভারতে। থাকছেন না 
    কোনো। আইকন। স্বাধীন ভারত কোনো বিগ্রহের 
    জন্ম দিচ্ছে না। কোনো দেবতাকে তাঁর কাঙ্ক্ষিত 
    মৃত্যু 
    দিতে পারছে না। মৃত হয়ে বাঁচতে চাইছি না আমি

    সম্পাদক নাকি উনি নন। সম্পাদককে পাঠানো হচ্ছে। আমি তো এবার একটু অবাক হয়ে যাচ্ছি

    ২২। ১১। ২০১৪

    আমি। আমার কী? ইয়ে দুনিয়া... অগর মিল ভি যায়ে 
    তো কেয়া হ্যায়? আমি 
    বাঁচছি। আমি 
    বাঁচছি। তোমাদের মৃত্যুর দিকে। চেয়ে 
    দেখছি না। লাভ নেই। চেয়ে দেখছি না


    সম্পাদক লেখাটাকে প্রত্যাখ্যান করছেন। ওটা নাকি ছোট কাগজের লেখা হয়েই থাকছে। বড়ো কাগজের পাঠকরা যা চাইছেন... ওটা হতে পারছে না। লেখা চাওয়ার জন্য মালিক দুঃখপ্রকাশ করছেন। দুঃখ, নাকি আফশোস?  উনি নাকি সম্পাদকের সঙ্গে একমত হতে পারছেন না। ওঁর মতে ওটা একটা... বিন্দাস লেখা

    একটা ভালো লেখা...
    ভালো লেখা কাকে বলে
    বুঝতে পারছি না


    ____________________________অনুবাদ কবিতা___________________________

     

    JOHN ASHBERY : MY PHILOSOPHY OF LIFE 
      
    অনুবাদ : দিলীপ ফৌজদার 

    আমার জীবনদর্শন


    ঠিক যখন ভাবলাম মস্তিষ্কে যথেষ্ট আর জায়গা নেই
    যে আরও একটা চিন্তা নিয়ে আসি, তক্ষুনি তক্ষুনি এই ভাবনাটা 
    এলো—এটাকে দর্শন বলবে বলো, যদি চাও । মোটামুটিভাবে,
    এতে আছে যাপন, যেরকমভাবে দার্শনিকরা জীবন কাটান,
    গুটিকয় সিদ্ধান্তে বাঁধা । তাতো হোল কিন্তু এগুলির ঠিক কোন একটা?

    এই জায়গাটা সবচাইতে শক্ত, জানি, কিন্তু ওটা আমারই
    এক ধরণের অন্ধকার দিব্যজ্ঞান হ্যাঁ ওটাকে ঐভাবেই বলা যেতে পারে ।
    সমস্ত কিছু, এই একটা তরবুজ খাওয়া বা বাথরুমে যাওয়া কিম্বা
    একটা পাতালরেলের প্ল্যটফর্মে দাঁড়িয়ে থাকা অযথাই, চিন্তায় আচ্ছন্ন
    কিছু মিনিট, অথবা - বৃষ্টিবনদের নিশ্চিহ্ন হয়ে আসার দুর্ভাবনা.
    আক্রান্ত হয়ে যাওয়ার ভয়, কিম্বা যথাযথ হবে ওটাকে ভোগান্তি বললে,   
    এগুলো আমারই বদলে নেওয়া আচরণের ফসল। না, আমি জ্ঞান দিতে যাবো না

    অথবা বাচ্চাদের, বুড়োদের নিয়ে উৎকন্ঠায় যাবো না, আলবৎ 
    থাকবে আমাদের এই ঘড়িবাঁধা বিশ্বজগৎএর স্বাভাবিক বাঁধাধরা নিদানেরা। 
    বরঞ্চ বলতে কি আমি ধরো থাকতেই দেবো এ ব্যাপারগুলি যা যেমন আছে  
    যতক্ষণে তাতে আমি নতুন নৈতিক পরিবেশের নির্যাস ফুঁড়ে দেব
    ভেবে নাও আড়ে বসব যেরকম অচেনা একটা লোক 
    অকষ্মাৎ ধাক্কা মারে রেলিংএর বেড়ার গায়ে আর সঙ্গেসঙ্গেই একটা বইতাক 
    আড়াআড়ি সটকে সরে যায়, 
    এবং বেরিয়ে পড়ে পেছনের লুকোনো ঘুরসিঁড়ি যার তলদেশের কোথাও সবুজ একটা বাতি 
    আর আপনাআপনিই সে নেমে যায় আর বইতাকটা সটাক আগের মতো 
    সাধারণত যেটা হয়ে থাকে এরকম অবস্থায়। 

    সঙ্গেসঙ্গেই একটা সুরভি তাকে আচ্ছন্ন করে- না জাফরান, না ল্যাভেণ্ডার, 
    এ দুয়ের মাঝামাঝি কিছু। গদীর কথা তার মনে উদয় হয় যেমনটায় 
    তার মেসোর বস্টন ডালকুত্তা শুয়ে শুয়ে তার দিকে চোখ রাখত
    প্রশ্নসূচক, সূঁচোলো কানের ডগাদুটো নোয়ানো। আর তারপরেই বিশাল ব্যস্ততা
    জেগে ওঠে। একটাও ধারণা গজিয়ে ওঠে না তা থেকে। এতটাই 
    তোমাকে চিন্তার স্রোত থেকে সরিয়ে আনার জন্য যথেষ্ট হয়ে দাঁড়ায়। কিন্তু তৎক্ষণাৎ তোমার মন জুড়ে বসে
    উইলিয়ম জেমস্ 
    এর লেখা কোন বইএর কিছুটা যেটা তুমি কখনোই পড়ে দেখোনি—তাতে কিছু না, তাতে ছিল
    মিহিপনা
    জীবনের লোধ্ররেণু ওপরে ছিটিয়ে রাখা, অবশ্যই ঘটনাচক্রের ফের, তথাপিও
    দৃশ্যত স্পন্দনহীন
    আঙুলের ছাপ নেই প্রমাণস্বরূপ। কেউ ওটা নাড়াচাড়া করেছিল
    ভাবনা গড়ারও আগে, অবশ্যই ধারণাটা ওরই ছিল
    ওর একার। 

    এটা তো ভালই কথা, গ্রীষ্মকালে সৈকত দর্শন
    হাজারটা ছোট ছোট বেড়ানর কথা হতে পারে। 
    তিতির শিশুর এক দঙ্গল পথিককে এসে স্বাগত জানায়। কাছাকাছি 
    জনতা সাণ্ডাস যেখানে পরিশ্রান্ত তীর্থযাত্রী খোদাই করেছে তাদের নামঠিকানা, হয়ত বা তার সঙ্গে বার্তার টুকরো
    বার্তাগুলি জগৎকে উদ্দেশ করা, যেভাবে ওরা বসে
    আর ভাবে যে কি করে ওরা কর্মটি সারা হলে পর আর হাত ধোয়ার পাতনা থেকে সরে আসে খোলামেলা জায়গায়
    ওরা কি সিদ্ধান্তে বাঁধা ছিল একরকমের, ছিল কি ওদের ঐ বার্তালিপি, রুক্ষ হোক, ওটা কি দর্শন একপ্রকারের
    —মেনে নিচ্ছি এভাবে দৌড়ুতে দিতে পারি না চিন্তার এই রেলগাড়ীকে—
    কিছু একটা আটকাচ্ছে। কোন কিছু আমি যা
    বোধের ঘেরে এনে ফেলব অত বড় নই। অথবা হয়ত, স্পষ্ট বলছি, আমি ভয়ভীত।
    আগে আমি কী ভাবে নিতাম এটা সেকথা এখন কি আর খাটে? 

    হয়তো বা এখন এতে আমি একটা বোঝাপড়া দাঁড় করাতে পারি — আমি চাইব
    যা যেমন আছে তা থাকুক, ঐ আর কি। শরতেই জেলি ও আচার দেবো যাতে শীত এলে 
    জবুথবু ঠাণ্ডা আর হাবিজাবি থেকে কিছু ছাড় পাওয়া।
    এটাই তো মানবসুলভ হবে সেই সঙ্গে বুদ্ধিমানদেরও মতো।

    বন্ধুরা কেউ মূঢ় মন্তব্য করলে আমি তাতে অপ্রস্তুত হবো না
    হবো না আমি নিজেও যদি করি, অবশ্যি স্বীকার করছি ওটা বেশ কঠিন,
    কেননা যখন তুমি ভীড়ের মঞ্চে যাও ওখান থেকে কিছু বলো
    তোমার মুখোমুখি শ্রোতাকে তাতিয়ে আগুন করো, যে এমনিতে এটাও পছন্দ করে না 
    যে তার কাছাকাছি দাঁড়ান দুটো মানুষ নিজেদের মধ্যে কথাবার্তা চালাক। হ্যাঁ, একে
    এখান থেকে ফোটানো দরকার যাতে শিকারীরা এর ওপর এক এক হাত নিতে পারে —
    এ জিনিস দুদিকেই চলে, জানবে। এটা হয় না যে তুমি অনবরত
    অন্যের ভাবনা ভেবে অস্থির আবার নিজেরও খেয়াল রাখছ
    একই সঙ্গে। এটা ক্ষতিকর, আবার অতোটাই মজার
    এরকম যে দুটো মানুষের বিয়েতে গেছ নেমন্তন্নে যাদের একজনকেও তুমি চেনো না।
    তবুও, অনেক মজা পাওয়া যেতে পারে ধারণাগুলির ফাঁকফোকলে যারা থেকে যায়।
    এইজন্যই ওদের থাকা! এইবার ভাবা যেতে পারে ওখানে পৌঁছে যাই
    মজা করি, মজা করি এই জীবনদর্শনকে নিয়েও।
    এরা রোজদিন আসে না এমন নাগালে। চেয়ে দ্যাখো! ভাবলে বেশ বড়সড়ই……

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    হাসনাত শোয়েব : কাঠবাদামের কান্না

    Translated from the original Bengali by Amrita Nilanjana

    THE WAIL OF THE ALMOND

                                    
    My father was home after an April dance with
    the turquoise spread in the wild,
    and we could hear the almond cry from the dark, deep forest green
    His veins still in spate and unsheathing,
    his breath slowly aft and clouding
    as phosphorus evenings clotted into the night
    in an insidious merry swing,
                 -  of fallen rooster feathers and the call of the tramp,
                 In a clinch with a text-book lesson,
                 clinging to memory and remorselessly brazen
                 he would say to the children:
                 'never dance where they have been
                 the colour of greed is sinfully green'
     
    We would shift to slumber then
    and count sheep and sin
    thinking of innocent woes,
    on the sidewalks of the city
    met sinners and loved their vagabond shoes
    Between the unknown and the rest,
    they weren't 'kite-runners' though,
    to the seamless blue they leaned on,
    couldn't be pared into
    selfish slices of conquest
    and there were some who never climbed
    in sync or without, they never rhymed                        
     
    …and I saw a band of young men drink the heady, forbidden pollen of the bees. confessed to sinning  with bravado on their sleeves. those who dared were shot at dawn without trial, could hold in their fist the language of denial. They knew sinning was another name for eternity. The almond still cried without pity. I found Kanak there, without an epilogue, without fear.
     
    'So you could dare the demons
    and be here," Kanak said to me,
    with a numbed cry, wistfully dear.
    'you never had the courage
    to hold my hand for one final grasp
    when I went,
    you looked so spent
    as you wept, holding on to
    the sinking hands of
    the wallclock's time
    nothing stopped the tolling chime
           - I felt so amused to see your time-trodden half
           - I wanted but the dead's not allowed to laugh'
     
    'but I had returned to you
    the legend of the peacock's way,
    why did you die that day?'
     
    …. and then silence became louder and shadows stretched silently
                                                                                                            
    We look into the mirror, I, you and him, find nothing but a mask with a brownish mane tell-tale, casting a saffron-laden spell, whose scent wafted into the ballroom of the Grandmother, so carefully crafted
     
    One last time we hear the almond weep
    With or without any sleep

    _________________________________________________________________

    বারীন ঘোষাল : মাইন ওয়ে

    Translated from the original Bengali by Barin Ghosal

    MINE WAY


    We mount and we mountain
    We fount and we fountain
    We-o-We were in air-down and up talks

    Raising glass turns on a song
    In northern accent
    A limited bird is prepositioning
    Freeing we win Windsor
    Bloom

    My We mineway has earth as tooth cleaner for termites
    Letters are being sieved from loose earth
    Waves rippling down in smooth death-yards
    Some manpowder searching quality ruins for blasting
    Gun is Gunis when waves anonymous loose beauty
    Nothing happens save we mount and we fount

                             

    বারীন ঘোষাল : অজ্ঞাত কবিতা - ১

    Translated from the original Bengali by Barin Ghosal

    POEM ANONYM  – 1


    It was icing in silence
    Flowers ………….. the ploughshares …………….. wind from past
    Man inside human
    Sounding no sound
    Fractures by men quietly scattered
    upon war and personal life
    No air …………… nobody breathing there
    The road motionless in sex-mime
    Summer-time flower-heap has put on vanity's crown
    Can't survive that fun and frolic
    Surprises some I have organized
    Mainly sundowns too
    in memory-stable ………………. Geographs ……………….. bee-lines on palm
    managed so far from anarchists

    This that there is nothing
    Everything is there at the same time
    In case the life machine kept generating
    the body lights up electricity
    Words slipping through the language-age net
    by load shading and shedding load
    soundless poem is still under making

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    ভাস্বতী গোস্বামী : বা  গান 

    Translated from original Bengali by Bhaswati Goswami 

    PHILHARMONIC  OTHERWISE


    Trees  and  fog  spread  out------
    Trees  and  fog  confine  them  too…..
    Remote  is  lured by a fascinating  gesture,
    Burying  it's  face  in  the  floss
    The  mist  has  been  gathered  fondly.
    You  are  in  a  different  sphere  now,
    Moon  and  untied  hair  are equally  dishevelled
    An  effortless  euphony  mystifies  the  gentle  touch……

    Breeze  accumulates
    Expanding  the  sanctuary  of  the  trees  gradually……

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    দীপঙ্কর দত্ত : রঞ্জিশ

    Translated from the original Bengali by Dipankar Dutta

    THE VENGEANCE 


    As fire shrivels up the charred remnants of XUV 5OO shoots up far-flung millet field machan
    leftovers under the mosquito curtain of stockings slut lies the almsman
                                                                  and rises well off next morning Risotto alla Milanese
    bayonet at this height is useless like an elephant's tusk gets removed
    can't withstand nostalbeckon
    as rigor mortis sets in neither closes Sofi's majora
                                        nor the minora of stinking tobacco side walls of Gaga's pee perfume
    when night lamps are somnolent the east wind has it's pistachios opened
    and then deafening Radio Mirchi streams on farmyard speakers
    rapping trigger fingering bullet brouhaha stretched beyond horizon
    spray indiscriminately,  screw all the whiny bastards of bike battalion --- 


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    US Struggles to Keep Asia in Dark Age. US-Funded “Newspapers” and “Activists”

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    US Struggles to Keep Asia in Dark Age. US-Funded "Newspapers" and "Activists"

    Global Research, November 03, 2014

    US-funded newspapers promote US-funded NGOs in their efforts to halt infrastructure projects that would reduce flooding, produce clean, renewable energy, and provide jobs and development for millions.

    "The Irrawaddy," which claims to be "a leading source of reliable news, information, and analysis on Burma/Myanmar and the Southeast Asian region," has doggedly covered efforts by so-called "activists" to prevent the construction of dams all across Southeast Asia – from Myanmar (still called by its British imperial nomenclature "Burma" by the Western media), across Thailand, and in Laos.

    Its most recent article, "Thai Power Firm's Business Tactics 'Use Burma's Weak Laws'," is a typical representation of these efforts. It reports that:

    One of the chief financiers of hydroelectric dams planned on Burma's Salween River is accused of investing in countries where there is "oppression and limited transparency" in order to achieve its objectives.

    Having been restricted in its activities at home, the Electricity Generating Authority of Thailand (EGAT) wants to use Burma and Laos as proxy suppliers of electricity via environmentally damaging river dams, the US-based NGO International Rivers told The Irrawaddy.

    Dams are undoubtedly disruptive to the surrounding, existing environment and surely governments and special interests regularly sidestep their responsibility to ensure dam construction results in equitable outcomes for surrounding human populations as well as wildlife. However, to oppose their construction entirely is a regressive, politically motivated agenda peddled by some of the most sociopolitically and environmentally destructive special interests on Earth.

    To understand this, one must understand what both The Irrawaddy and International Rivers have in common, and specifically why their agenda has become entwined in the battle against real development across all of Southeast Asia.

    US-Funded "Newspapers" and "Activists"

    Both The Irrawaddy and International Rivers are creations and perpetuations of the US State Department and several Fortune 500 corporate-financier funded foundations. These include foundations that represent the interests of corporations including Exxon, Chevron, British Petroleum (BP), Total, as well as big-finance and the World Bank. Already, it should be easy to understand why Western energy giants and financiers would be interested in arresting the development of sustainable energy independence across Southeast Asia.

    The Irrawaddy is literally a creation of the US State Department via its National Endowment for Democracy (NED). This is revealed in a 2006 report titled, "FAILING THE PEOPLE OF BURMA? A call for a review of DFID policy on Burma," published by the Burma Campaign UK. In it, it states specifically:

    The NED sub-grant program also has fostered the development of three well-known Burmese media organizations. The New Era Journal, the Irrawaddy, and the Democratic Voice of Burma (DVB) radio have become critical sources of independent news and information on the struggle for democracy in Burma.

    NED, while claiming to be "a private, nonprofit foundation dedicated to the growth and strengthening of democratic institutions around the world," has upon its board of directors (past and present) an unsavory collection of Fortune 500 representatives, pro-war Neo-Conservatives, and establishment politicians tied to some of the most regressive global agendas. These include Goldman Sachs, Boeing, Exxon, the above mentioned Brookings Institution, and many more.

    It is clear that this collection of special interests is not concerned with the human or environmental impact of hydroelectric energy production – considering many are directly overseeing the global petroleum racket. Instead is a desire in eliminating both potential competitors, as well as any semblance of geopolitical independence in regions of the planet they seek to project their power into. With think tanks like Brookings drawing up battle plans for everything from the invasions of Afghanistan and Iraq, to decade-spanning occupations, to proxy wars against Syria and Iran, it is not difficult to understand lesser forms of projecting power – through co-opted NGOs masquerading under the guise of "environmentalism" and "social activism," are also amongst their tools.International Rivers, over the years, has been funded by the following; The Sigrid Rausing Trust, Tides Foundation, Google, Open Society, the Ford Foundation, to name a few. Many of those contributing to International Rivers, are themselves creations of corporate-financier interests. Direct sponsors, such as the Sigrid Rausing Trust, Ford Foundation, and Open Society, are also involved in funding policy think tanks such as the Brookings Institution – a pro-war, pro-corporate conglomeration that features alongside the Sigrid Rausing Trust as donors (.pdf), banking empires including JP Morgan, Bank of America, and Barclays Bank, big-oil interests including Exxon, Chevron, Shell, and Statoil, as well as big-defense corporations Boeing, Northrop Grumman, and Raytheon,

    In fact, International Rivers makes a very interesting point that frames America's war on Asian dams perfectly. Under "Banks and Dam Builders" it claims:

    Traditionally, the World Bank Group has been the most important financier of large dams. For decades, the World Bank funded the construction of mega-dams across the world.

    In recent years, however, Chinese financial institutions have taken over this role, and have triggered a new boom in global dam building. Other public sector national banks, including Brazilian banks, Thai banks, and Indian banks, have also financed an increasingly important share.

    And there in lies one of many problems Wall Street and London and their "World Bank" have with Asia's dam boom – their fingers aren't in the pie in a region they openly seek to influence, manipulate, and even use as a collective proxy against China.

    The River Ruse

    13231234How exactly does one go about demonizing sustainable, renewable energy production that doubles as a means of flood management and river navigation?

    International Rivers and the well-intentioned activist subsidiaries it dupes into propagating its regressive agenda focus on several angles to demonize hydroelectric power – ranging from the plausible to the absolutely ridiculous. Upon International Rivers' website filed under "Our Work," one will find perhaps the most ridiculous excuse International Rivers proposes a nation should not build a dam because of – "Climate Change and Rivers." Citing an obscure study regarding methane producing bacteria found in virtually all permanent freshwater bodies from ponds to lakes and everything in between, International Rivers claims that dams and the reservoirs they create are contributing to "global warming" and therefore should not be built.

    Upon International Rivers'"Mekong Mainstream Dams" page, it claims:Other excuses International Rivers uses to obstruct dam projects that will bring electricity for modern infrastructure, industry, and other necessary requirements for producing job opportunities and a better quality of life is the defense of indigenous populations and their unsustainable fishing of various rivers' dwindling fish populations. In reality, a dam's construction would provide the means for many of these fishing communities to switch over to more productive occupations allowing fish populations to either recover, or be relocated to areas they can be carefully managed and nursed back to healthy levels.

    The revival of plans to build a series of dams on the Mekong River's mainstream in Cambodia, Laos, and Thailand presents a serious threat to the river's ecology and puts at risk the wellbeing of millions of people dependent on the river for food, income, transportation and a multitude of other needs.

    Only these people fishing and living along the rivers exist in a condition of abject poverty, trapped in a cycle of poor education, menial labor, exploitation, and dwindling natural resources being increasingly overtaxed – specifically because the Mekong is not being developed as project after project is "shelved" as International Rivers proudly puts it, due to their regressive work. These fisheries are being plundered by people who are unable to make any other living – again – primarily because of the lack of real, tangible, infrastructure development along the Mekong.

    Real Problems, Real Solutions

    This is not to say there are no real issues to debate when it comes to dam construction. Governments and investors seeking to build such projects have a responsibility to both the local people and the surrounding environment to ensure that the inevitable disruption and displacement that occurs is duly compensated for and that the benefits of the dam demonstrably outweigh the inconveniences it causes before construction.

    Flood management, transportation, and other benefits provided by the proper, well-planned construction of dams have raised millions out of poverty and literally lit up the lives of people around the planet from the rural south in the United States during the Great Depression, all across Europe for generations, to China today. Special interests in the West, already having constructed their dams and enjoying the fruits of well-developed infrastructure and industrialization are leveraging the disparity such development has granted them over impoverished, developing nations to kick-over any attempts to catch up – at least as long as that catching up isn't accomplished through Western corporations, banks, and other monopolies.A middle ground must be found between those who seek to construct dams, and those who will be affected by them. Provisions for protecting or even expanding fisheries after a dam is completed, utilizing the reservoir that will form is one way of accomplishing this. Ensuring that energy produced by the dam will lead to industrialization and local development that will provide better jobs and opportunities for local communities is another. Creating modern means of bypassing dams for improved river navigation is another way dams can demonstrably improve the lives of local communities and businesses.

    When a large-scale infrastructure project is ready to move from the drawing board toward breaking ground, there is much to debate about, and even potentially protest against regarding the manner in which the project is built, by whom, and to whose benefit. However, the topic of whether or not real, tangible, infrastructure development should be build should never be up for debate. It is the inherent right of all to move forward and upward. Those irrationally protesting any infrastructure project of any kind based on the tenuous arguments of disrupting the environment or unsustainable practices carried out by desperately poor people who need such projects to thrive, are the true enemies of progress, the environment, and ultimately the very people they claim to help.

    Local activists caught up in lies and propaganda can be forgiven for being misled, and should work to fulfill their role as a true check and balance against infrastructure development – not a perpetual, irrationally obstruction to it. Organizations like International Rivers, however, cannot be forgiven. Affiliated with the planet's worst socioeconomic and environmental criminals, activists the world over should ostracize and avoid them – lest they be tainted too by the regressive agenda of special interests.

    Tony Cartalucci, Bangkok-based geopolitical researcher and writer, especially for the online magazine"New Eastern Outlook".

    Copyright © 2014 Global Research

    "ओबामा बौद्ध असल्याची बातमी खरी नाही।

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    Rashtra Veer (friends with Satya Narayan) commented on a post that you're tagged in.
    Rashtra wrote: "ओबामा बौद्ध असल्याची बातमी खरी नाही।
    ---------
    अमेरिकन निवडणुकिच्या वेळी बराक हुसैन ओबामा यांनी म्हटले होते - Whatever we once were, we're no longer just a Christian nation; we are also a Jewish nation, a Muslim nation, a Buddhist nation, a Hindu nation, and a nation of nonbelievers. तेव्हा ते बौद्ध आहेत काय हा प्रश्न निर्माण केला गेला होता। तेव्हा काहीनी ते बौद्ध आहेत, ही अफ़वा पसरवली होती। आता व्हाट्स अप इत्यादी वर ती पसरते आहे म्हणून हे स्पष्टीकरण---

    या अफावेच्या समर्थनासाठी देण्यात येणारी पुढील लिंक विश्वासार्ह नाही। http://www.experienceproject.com/mobile/story.php?e=418838 त्यात बातमी नाही। ते कोणा एकाचे मत आहे। ओबामा हे शांत, स्थिर असतात, मेडिटेशन करताना त्यांचा फोटो मिळाला म्हणून ते बौद्ध असावे, असे लिहिले आहे। (फोटो खुर्चीवर बसून डोळे मिटलेले दिसतात। इतकेच।)

    त्या लिंकावर पुढे दिलेली दूसरी लिंक-
    http://warincontext.org/2008/11/07/editorial-americas-first-buddhist-president/
    यात तोच मजकुर आहे। त्यात शेवटी म्हटले आहे- Does all of this add up to evidence that the president-elect is a secret Buddhist? Of course not.

    या सम्बन्धी एक ब्लॉग http://thebuddhistblog.blogspot.in/2008/11/josef-fritzl-turns-to-buddhism.html?m=1यातही फक्त तर्क लाढ़वला आहे। त्यात एका कमेन्ट मध्ये म्हटले आहे। There is another American writer that discuss about Obama and Buddhism. His reasoning aside, I love one photo he used in the article, the one that looks like Obama is meditating!

    ओबामा हे थाई बौद्ध असल्याच्या अफ़वा पसरल्या होत्या। पण त्याचा पर्दाफाश पुढील साईट वर आहे।http://www.hoaxofthecentury.com/ThaiPresident1.htm यात Is Obama a Thai Buddhist President? या लेखात Jon Carlson म्हणतात - Hawaii misfits put out numerous altered and forged documents and photos, including a secret verification of a 'Obama' birth certificate stating August 4, 1961 as the birthdate.

    ओबामा हे थायलैंड, बर्मा, जापान मध्ये बौद्ध मंदिरात गेले... तसेच ते नास्तिक असल्याचे म्हटले गेले। यावरून ते बौद्ध असा निष्कर्ष काढता येत नाही। असे http://askville.amazon.com/President-Obama-secretly-Buddhist-visited-statue-Buddha-thought-Christian-heck/AnswerViewer.do?requestId=74895448 यात उत्तरात म्हटले आहे। प्रश्न होता - Is President Obama secretly a Buddhist? He visited a statue of a Buddha. I thought he was a Christian? प्रश्न विचारणारा कोत्या मनाचा दिसतो।

    नाही म्हणायला ओबामा यांची बहिण Maya Soetoro-Ng ही मात्र बौद्ध आहे। ओबामा यांचा ओढा बौद्ध धम्मा कड़े आहे। हवाई येथे जन्म व बालपण यामुळे ते बौद्ध लोकांच्या संपर्कात तेव्हा होते। त्यानी अमेरिकेच्या सर्वोच्च न्यायालयाच्या न्यायमूर्ती पदी सोटोमेयर या बौद्ध व्यक्तीची निवड केली। बौद्ध लोकां प्रमाणे ते उत्क्रांतिवादावर विश्वास ठेवतात। इतर कोणताही धर्म उत्क्रांतीवादावर विश्वास ठेवत नाही। त्यांची चेहरेपट्टी बौद्ध लोकांसारखी दिसते असेही अमेरिकेत म्हटले जाते। त्यांचे कानही तसे दिसतात असे म्हटले जाते। त्यामुळे त्याना गमतीने ओबामालामा असेही म्हणतात। ते धर्माने बुद्धिस्ट नसले तरी त्यांच्यात बौद्ध व्यक्तिंची लक्षणे दिसतात म्हणून त्याना Practicing Buddhist असेही समजले जाते।"

    How do we insult Gautam Buddha and Dr BR Ambedkar? Why should we be proud of Obama and invoke Gautam Buddha to celebrate a false propaganda that Obama along with family embraced Buddhism influenced by Ambedkar! Teltumbde says,it smacks of the innate slavish mentality of Dalits to identify with the moneyed and powerful and in corollary undermine common people. What otherwise they have got to do with Obama? I agree and stand with him. Palash Biswas

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    How do we insult Gautam Buddha and Dr BR Ambedkar?



    Why should we be proud of Obama and invoke Gautam Buddha to celebrate a false propaganda that  Obama along with family embraced Buddhism influenced by Ambedkar!


    Teltumbde says,it smacks of the innate slavish mentality of Dalits to identify with the moneyed and powerful and in corollary undermine common people. What otherwise they have got to do with Obama? I agree and stand with him.

    Palash Biswas


    Dr. Anand Teltumbde wrote:


    I got on whatsup morphed images of US Today and Gaurdian saying Obama along with family embraced Buddhism influenced by Ambedkar! I don't understand why our fellows have to indulge into such things. It smacks of the innate slavish mentality of Dalits to identify with the moneyed and powerful and in corollary undermine common people. What otherwise they have got to do with Obama? They will not identify with Blacks but jump on to identify Obama.. they will take pride in someone becoming minister, big officer (saheb syndrome, as I had called this long ago) and rather hate their own people on pavement!!


    Dearest friend Dr Teltumde! With due respect, I have to make your thought public and I hope that it is my right as you do endorse my response in this ridiculous episode.We know how Obama,the first black untouchable President of United States disappointed all of us worldwide who supported him and his rise seemed to be the dream of Martin Luther King.But as the President of United States of America he served the interests of the zionist global order overtaken by neo Nazis which has launched monopolistic aggression against the humanity and Nature and intensified war and civil war as dictated by global war economy.He could not bail out US out of middle east and rather shifted the war zone right into our heart.


    Specifically, Obama administration aligned with global Hindutva to exploit Indian resources and Indian people. Washington had been handling the remote control to kill Indian constitution and Indian Republic and Indian democracy to serve US interests and intensified the economic ethnic cleansing during his twin tenure.We know how Washington planted colonial super slaves in Indian State Power and made it declare non stop war against the people of India.So much so that Obama administration is overtaken by global Hindutva to reintroduce Neo Nazi Manusmriti regime in India which has singularagenda of depopulation and demographic readjustment of the deprived and epressed classes in India.


    The excluded communities,the majority in India must understand how Obama dismissed its own puppet Dr Manmohan Singh and made yet another Hindu super king, a supreme dictator fascist who allows no public hearing with his expertise in genocide.


    Mr Obama has made the depressed classes the victims of the world on fire where only purchasing power is the only survival kit which majority of Indian people does not have.


    Moreover,the way he opted for dismissing Gujarat Genocide case to welcome ex Gujarat Chief Minister elevated to Prime minister who had been most unwanted in United States of India.This turnaround exposes the whiteness of his black skin which suits better blatant apartheid the supreme characteristics of Indian Caste system which is the supreme cause of agrarian disaster and the suffering of  identity ridden Indian people.Not only, agrarian India, the US leadership aligned with global hindutva leading a business friendly government in India has done everything to kill Indian retailers.

    Gautam Buddha changed the world with his revolution for equality,social justice and peace.

    How should we be proud of the supreme war lord who has been destroy in us and the world in general?


    How do we insult Gautam Buddha and Dr BR Ambedkar?


    Dr.Teltumbde responded to my blog post as followed:

    "ओबामा बौद्ध असल्याची बातमी खरी नाही।



    Rashtra Veer (friends with Satya Narayan) commented on a post that you're tagged in.

    Rashtra wrote: "ओबामा बौद्ध असल्याची बातमी खरी नाही।

    ---------

    अमेरिकन निवडणुकिच्या वेळी बराक हुसैन ओबामा यांनी म्हटले होते - Whatever we once were, we're no longer just a Christian nation; we are also a Jewish nation, a Muslim nation, a Buddhist nation, a Hindu nation, and a nation of nonbelievers. तेव्हा ते बौद्ध आहेत काय हा प्रश्न निर्माण केला गेला होता। तेव्हा काहीनी ते बौद्ध आहेत, ही अफ़वा पसरवली होती। आता व्हाट्स अप इत्यादी वर ती पसरते आहे म्हणून हे स्पष्टीकरण---


    या अफावेच्या समर्थनासाठी देण्यात येणारी पुढील लिंक विश्वासार्ह नाही। http://www.experienceproject.com/mobile/story.php?e=418838त्यात बातमी नाही। ते कोणा एकाचे मत आहे। ओबामा हे शांत, स्थिर असतात, मेडिटेशन करताना त्यांचा फोटो मिळाला म्हणून ते बौद्ध असावे, असे लिहिले आहे। (फोटो खुर्चीवर बसून डोळे मिटलेले दिसतात। इतकेच।)


    त्या लिंकावर पुढे दिलेली दूसरी लिंक-

    http://warincontext.org/2008/11/07/editorial-americas-first-buddhist-president/

    यात तोच मजकुर आहे। त्यात शेवटी म्हटले आहे- Does all of this add up to evidence that the president-elect is a secret Buddhist? Of course not.


    या सम्बन्धी एक ब्लॉग http://thebuddhistblog.blogspot.in/2008/11/josef-fritzl-turns-to-buddhism.html?m=1यातही फक्त तर्क लाढ़वला आहे। त्यात एका कमेन्ट मध्ये म्हटले आहे। There is another American writer that discuss about Obama and Buddhism. His reasoning aside, I love one photo he used in the article, the one that looks like Obama is meditating!


    ओबामा हे थाई बौद्ध असल्याच्या अफ़वा पसरल्या होत्या। पण त्याचा पर्दाफाश पुढील साईट वर आहे।http://www.hoaxofthecentury.com/ThaiPresident1.htmयात Is Obama a Thai Buddhist President? या लेखात Jon Carlson म्हणतात - Hawaii misfits put out numerous altered and forged documents and photos, including a secret verification of a 'Obama' birth certificate stating August 4, 1961 as the birthdate.


    ओबामा हे थायलैंड, बर्मा, जापान मध्ये बौद्ध मंदिरात गेले... तसेच ते नास्तिक असल्याचे म्हटले गेले। यावरून ते बौद्ध असा निष्कर्ष काढता येत नाही। असे http://askville.amazon.com/President-Obama-secretly-Buddhist-visited-statue-Buddha-thought-Christian-heck/AnswerViewer.do?requestId=74895448यात उत्तरात म्हटले आहे। प्रश्न होता - Is President Obama secretly a Buddhist? He visited a statue of a Buddha. I thought he was a Christian? प्रश्न विचारणारा कोत्या मनाचा दिसतो।


    नाही म्हणायला ओबामा यांची बहिण Maya Soetoro-Ng ही मात्र बौद्ध आहे। ओबामा यांचा ओढा बौद्ध धम्मा कड़े आहे। हवाई येथे जन्म व बालपण यामुळे ते बौद्ध लोकांच्या संपर्कात तेव्हा होते। त्यानी अमेरिकेच्या सर्वोच्च न्यायालयाच्या न्यायमूर्ती पदी सोटोमेयर या बौद्ध व्यक्तीची निवड केली। बौद्ध लोकां प्रमाणे ते उत्क्रांतिवादावर विश्वास ठेवतात। इतर कोणताही धर्म उत्क्रांतीवादावर विश्वास ठेवत नाही। त्यांची चेहरेपट्टी बौद्ध लोकांसारखी दिसते असेही अमेरिकेत म्हटले जाते। त्यांचे कानही तसे दिसतात असे म्हटले जाते। त्यामुळे त्याना गमतीने ओबामालामा असेही म्हणतात। ते धर्माने बुद्धिस्ट नसले तरी त्यांच्यात बौद्ध व्यक्तिंची लक्षणे दिसतात म्हणून त्याना Practicing Buddhist असेही समजले जाते।"




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