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श्रोता नहीं है इंद्र…बटरोही

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श्रोता नहीं है इंद्र…

बटरोही


आख्यान 

उर्फ हिंदी समाज में अनुपस्थित इनरुवा लाटा   

न सेशे यस्य रम्बते ऽन्तरा सकथ्या 3 कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते।
विश्वस्मादिंद्र उत्तर:। ।
(ऋग्वेद: 10.86.16)

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते।
सेदीशे यस्य रम्बते ऽन्तरा सकथ्या 3 कपृत्।
विश्वस्मादिंद्र उत्तर:। ।
(ऋग्वेद: 10.86.17)

मुझे नहीं लगता कि आज की तारीख में हिंदी कहानी के किसी पाठक को याद होगा कि सन् 2005 में एक अनियतकालिक पत्रिका में 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ शीर्षक से मेरी जो कहानी छपी थी, उसमें ऊपर लिखे ऋग्वेद के दोनों मंत्र मुद्रित थे। नौ साल के बाद आपको इस मरे हुए प्रसंग की याद दिलाने के पीछे मेरी अपनी पीड़ा है। मैं जानता हूं कि हिंदी पाठक के सामने इन दिनों साहित्य से जुड़े रिश्तों की अहमियत नहीं है… ऐसे में सत्तर की सीमा छू रहे इस लेखक में भला कोई क्यों रुचि लेगा? फिर भी मैं 'आ बैल मुझे मारÓ की तर्ज पर आपको परेशान कर रहा हूं, तो इसलिए कि जिंदगी के इस मोड़ पर आकर आखिरी सांस लेने से पहले आप तक अपनी बात पहुंचा देना चाहता हंू।
घटना 1997 की है जब मैं दुनिया के सुंदरतम शहरों में से एक बुदापैश्त (हंगरी) के ऑत्वॉश लोरांद विश्वविद्यालय में हिंदी का विजिटिंग प्रोफेसर था। एक दिन एमए के मेरे एक हंगेरियन विद्यार्थी चॅबॅ दैजो ने ऋग्वेद के उक्त दो मंत्र मुझे इस आशय से दिए कि मैं उनका हिंदी में अनुवाद कर दूं। मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद उसमें लिखा हुआ था। वैदिक संस्कृत सीखने का मुझे कभी मौका नहीं मिल पाया, इसलिए मैंने अपनी असमर्थता व्यक्त की, मगर जब मेरी नजर उसके अंग्रेजी अनुवाद पर पड़ी तो मैं चौंका। ऋग्वेद को मैं एक धार्मिक या (अधिक से अधिक) आध्यात्मिक रचना के रूप में जानता था। मैंने इससे पहले ऋग्वेद नहीं पढ़ा था, सरसरी निगाह से भले देखा हो। बाद में जितना मुझसे बन पड़ा था, मैंने चॅबॅ की मदद की। बात आई-गई हो गई।

भारत लौटने के बाद मैंने अपने विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष की मदद से ऋग्वेद का इंद्र सूक्त पढ़ा और ऋक अथर्व आदि वेदों में आए इंद्र संबंधी प्रसंगों का अध्ययन किया। उन्हीं दिनों मैंने नैनीताल पर केंद्रित एक कथा-शृंखला लिखी, जिसकी एक कड़ी में उक्त मंत्रों से जुड़े प्रसंग का जिक्र किया। इसी कहानी का नाम था 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ! कहानी में इंद्र का प्रसंग अलग तरह से आया है, जिसमें कोशिश की गई है कि धर्म से जुड़े मिथकों को न छेड़ा जाए! फिर भी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में इंद्र इतना जीवंत पात्र है कि उससे जुड़े संदर्भों और प्रतीकों के बिना न तो भारतीय संस्कृति की बात की जा सकती, न धर्म की।

चॅबॅ के दिए गए मंत्रों का संदर्भ शायद मेरे अवचेतन में दबा रहा होगा, इसीलिए कहानी का सारा तानाबाना मैंने इंद्र के चारों ओर बुना। कहानी में इंद्र मंगल ग्रह के राजा के रूप में सामने आता है। इंद्र, नचिकेता, भृगु, यमराज, चॅबॅ दैजो और मैं – ये छह लोग पच्चीस जनवरी, 2004 की रात यमलोक के तोरणद्वार पर अपनी-अपनी जिज्ञासाओं को लेकर बैठे हुए थे। … (पच्चीस जनवरी की रात को मैंने एक सपना देखा था, जिसे हिंदी दैनिक अमर उजाला, नैनीताल संस्करण के26 जनवरी, 2004 अंक में मुख्य समाचार के रूप में हू-ब-हू इस प्रकार प्रकाशित किया गया था: "गणतंत्र दिवस से ठीक एक दिन पहले मंगल ग्रह पर जिंदगी की संभावनाओं की खोज में जुटे वैज्ञानिकों को उस वक्त बड़ी सफलता मिली जब अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र नासा का दूसरा रोवर 'अपॉर्च्युनिटीÓ भी लाल ग्रह मंगल की सतह पर सफलतापूर्वक उतर गया। छह पहियों वाले रोवर ने मंगल ग्रह से तस्वीरें भी भेजनी शुरू कर दी हैं। इन तस्वीरों में मंगल की सतह पृथ्वी की तरह लग रही थी। इससे रोमांचित मिशन से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक स्टीव स्केवयर्स ने उछलते हुए कहा, 'मैं इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं करूंगा, क्योंकि इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैंने पहले नहीं देखा।Ó वैज्ञानिकों ने अपॉर्च्युनिटी के जुड़वां यान 'स्पिरिटÓ से भी दुबारा संपर्क स्थापित कर लिया है जिसे तीन सप्ताह पहले 3 जनवरी, 2004 को उन्होंने सफलतापूर्वक मंगल पर उतारा था।ÓÓ)

मेरी कहानी 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ के नचिकेता के मन में अपने पूर्वज गौतम ऋषि, उनकी पत्नी अहल्या और इंद्र के संबंधों को लेकर अजीब-सी जिज्ञासा ने जन्म लिया था, जिसके समाधान के लिए वह यमराज की शरण में गया था। नचिकेता को एक दिन लगा कि उसके प्रपितामह गौतमवंशीय वाजश्रवा, पितामह अरुण, पिता उद्दालक तथा उसके अपने रक्त में कहीं इंद्र का ही अंश तो नहीं है? जिज्ञासा का बीज तब अंकुरित हुआ जब उसने एक दिन सुना कि संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों में से एक अहल्या उसके पूर्वज गौतम ऋषि की पत्नी थी। अहल्या के सौंदर्य पर मोहित होकर एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में इंद्र उसका वेश धारण कर अहल्या के पास गया और उससे संभोग किया। मगर बीच में ही नदी तट पर नहाने गया गौतम वापस आ गया और अपनी ही आंखों के सामने अपनी पत्नी को एक गैरमर्द के साथ देख क्रुद्ध होकर उसने पत्नी को श्राप दिया, जिससे अहल्या उसी क्षण पत्थर की बन गई। … जिससे बाद में जुड़वां पुत्रों का जन्म हुआ। कौन थे ये जुड़वां?… नचिकेता की जिज्ञासा का मुख्य बिंदु यही था कि कहीं उसके रक्त में ही इंद्र का रक्त तो नहीं है!

सवाल कहानी के अच्छी या बुरी होने का नहीं है। उसे परखने और समझने का अंतर था। इतना मैं समझ गया था कि कहानी को लेकर एक संपादक की आपत्ति का आशय कहानी में चित्रित कुछ ऐसे वर्णनों से था, जिसे उनके अनुसार ऋग्वेदकार ने इंद्र देवता को शिश्न के रूपक में प्रस्तुत करते हुए चित्रित किया था। (वेदों के प्रथम हिंदी टीकाकार दयानंद सरस्वती ने 'कृपत्Ó (शिश्न) के लिए कहीं 'इंद्रियÓ और कहीं 'जननांगÓ लिखा है। ) मगर यह बात समझ में नहीं आई कि जो बात साढ़े तीन हजार साल पहले के कवि के लिए अश्लील नहीं थी, वह इक्कीसवीं सदी के एक स्थापित-चर्चित लेखक-संपादक के लिए कैसे अश्लील हो गई?

अपने मन के ऊहापोह को शांत करने के लिए मैंने भारतीय साहित्य की आख्यान परंपरा पर दुबारा नजर डाली। इसी खोजबीन के दौरान मुझे लगा कि हिंदी के (खासकर आजादी के बाद के) चर्चित लेखकों के चरित्रों में मुख्य चिंता के रूप में शुरू से ही एक 'तीसरा व्यक्तिÓ उपस्थित रहा है (जो खुद लेखक ही होता है) और वह साहित्य को मुख्यधारा की स्वीकृति तब तक नहीं प्रदान करता, जब तक कि उसकी समस्या औरत और मर्द की देह के आदिम आकर्षण और उत्तेजना के साथ न जुड़ी हो… दूसरे शब्दों में उन्हें एक ही बात खुद के द्वारा लिखी जाकर नैतिक लगती है, जबकि दूसरे के द्वारा लिखी जाते हुए अनैतिक।
चॅबॅ दैजो ने बुदापैश्त में मुझे ऋग्वेद के उक्त दो मंत्रों के अलावा अथर्ववेद का यह श्लोक भी दिया था, जिसकी संस्कृत बाद की (लौकिक) होने के कारण मुझे समझने में दिक्कत नहीं हुई :

महानग्नी महानग्नं धावतम अनुधावति।
इमास् तु तस्य गो रक्ष यभ मामद्धि चौदनम्। ।
(अथर्व. 20.136; ऋक्. खिला 5.22: आहनस्या…)

कौन है इंद्र?

प्रिय पाठकगण!
मैंने अपनी कहानी 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ भारतीय साहित्य के वर्जित प्रसंगों को उजागर करने के लिए नहीं लिखी थी। न मैंने कहानी की आख्यान के रूप में पुनर्रचना का निर्णय किसी को सबक सिखाने के उद्देश्य से लिया है। साढ़े तीन हजार साल की अवधि में दो ध्रुवांतों पर खड़ी परस्पर विरोधी दृष्टियों की टकराहट का जिक्र करना किसी को भी अटपटा लग सकता है। इसके बावजूद आज मुझे यह देखकर जरूर हैरानी होती है कि इक्कीसवीं सदी में अश्लीलता का पैमाना हमारे पुरखों के यथार्थ से कहीं अधिक दकियानूसी है।

मैं जानता हूं कि भारतीय साहित्य और कलाओं की विराट स्मृति-परंपरा का प्रसंग उठाकर मैं अपने लिए कितना बड़ा जोखिम आमंत्रित कर रहा हूं। यह भी जानता हूं कि मैं इसका पात्र कतई नहीं हूं। मगर यह सवाल विचार करने योग्य तो है ही कि आज, साढ़े तीन हजार सालों के बाद मुझे अपने आरंभिक ऋषि-कवियों का पक्ष लेने के लिए उनके मंत्रों पर उस पीढ़ी के सामने पुनर्विचार करना पड़ रहा है जो सेक्स पर खुली और बेलाग ढंग से बात करने के लिए बदनामी की हद तक चर्चित हो! यहां मैं अपने समकालीनों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए भी नहीं आया हूं… वैसी योग्यता मुझमें है भी नहीं। मगर मन में उठने वाली इस जिज्ञासा को मैं रोक भी तो नहीं सकता कि अपनी भाषा के साथ हमारा संपर्क इतना कट गया है कि हम यद्यपि खुद को साहित्य और भाषा का मर्मज्ञ कहलवाने में गर्व का अनुभव करते हों, मगर अपनी जातीय भाषा की अर्थ-छवियों को बिसरा बैठे हैं!…

बहरहाल, बात इंद्र के संदर्भ में उठी है तो यह जान लेना जरूरी है कि यह इंद्र है कौन? इस इंद्र का भारतीय साहित्य की परंपरा के साथ क्या संबंध रहा है ?… अपने सुदूर अतीत में झांकता हूं तो इंद्र का उल्लेख मुझे अनेक परस्पर विरोधी रूपों में मिलता है… कहीं वह देवताओं का राजा है तो कहीं सेनापति, कहीं अपनी भुजाओं में बिजली की चमक समेटे आकाश के आर-से-पार तक छुट्टे सांड की तरह दौड़ लगाते सूर्य के रूप में है तो कहीं अपने पड़ोसी गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या के सौंदर्य पर लट्टू होकर उसके साथ धोखे से सहवास करने वाले ब्रह्मांड के सबसे बड़े पुरुष के रूप में दिखाई देता है। … कहीं यह अतिमानव हमारी धरती पर नई मानव सभ्यता का प्रसार करने के लिए बीहड़ जंगलों को चुटकी में साफ कर देने वाले महानायक के रूप में सामने आता है!…

ऋग्वेद में अति मानवीय प्राकृतिक शक्तियों के बीच वही एकमात्र देवता है जो मनुष्य है लेकिन नैसर्गिक ताकतों से अधिक शक्तिशाली, एक सुपर पॉवर!… विचित्र वीर है वह, अतुलनीय शक्ति का समुच्चय और बर्बर युग का ऐसा नायक जिसके सामने जल-थल-नभ का कोई प्राणी एक पल के लिए भी नहीं टिक पाता। सृष्टि के समस्त शौर्य के प्रतीक इस महानायक की तुलना के लिए इस धरती पर सचमुच ही कोई प्राणी नहीं है… अपनी महानता में भी और नीचता में भी! इंद्र सचमुच अतुलनीय और सर्वशक्तिमान है! 'इंद्र इज अब्व ऑल!Ó अगर यह अश्लीलता है तो सृष्टि का सारा तामझाम ही अश्लील है… तब फि र श्लील क्या है?

कैसी विडंबना है कि आज के दिन तक हमारी स्मृति में अटके हुए अपनी परंपरा और संस्कृति के ये महानायक – इंद्र, उसकी प्रशस्ति गाते वेद और इन दोनों के द्वारा निर्मित (भारतीय) समाज – एक थके-हारे, सुविधाभोगी और गिड़गिड़ाते परिवेश के रूप में सिमट आए हैं। क्या यही कारण नहीं है कि हम साढ़े तीन हजार साल के बाद भी अतीत के यथार्थ की अभिव्यक्ति को पचा पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। … जिस भारतीय वाङमय का जन्म इतने मुक्त और ऊर्जा-उमंग से जुड़े कथन के रूप में हुआ हो, उसकी जगह पर लिजलिजा धार्मिक कर्मकांड और उद्दंड राष्ट्रीयता कैसे घर करती चली गई है? क्या हमारी भारतीयता और राष्ट्रीयता खुद में ही सिमटी, इतनी ही दकियानूसी तब भी थी, जब चारों ओर इंद्र का ही राज था!… क्या हमारा समाज सचमुच कभी ऐसा 'राष्ट्रÓ रहा है, जिसका आदि-नेतृत्व इंद्र जैसे सेक्युलर महानायक ने किया है!
कहते हैं, भारतीय साहित्य का प्रथम श्लोक आदिकवि के मुंह से संभोगरत क्रौंच पक्षी में से नर के मारे जाने के बाद मादा के रुदन से फूटे शब्दों के रूप में सामने आया था। क्रौंची के अवसाद का कारण यही तो था कि वे लोग संसार के सबसे अंतरंग सुख में खोए हुए थे… ओ शिकारी, तेरा भला न हो क्योंकि तूने आदिम अहसासों के बीच खोए हुए युगल की मधुर अनुभूति को खंडित कर दिया। … उस अनुभूति को, जिसमें से जन्म लेने वाली ऊर्जा के जरिए ही सृष्टि का विस्तार हुआ है… उसी का तो प्रतीक है इंद्र… वह इंद्र, जो अपने रक्तबीजों के रूप में अनादिकाल से संसार का विस्तार करता आ रहा है… ऐसा प्रतीक भला अश्लील कैसे हो सकता है!

कुछ इसी तरह के सवालों के साथ जूझते हुए ही इस बीच मेरा अनेक 'इंद्रोंÓ के साथ सामना हुआ। इनमें से एक इंद्र है, हमारे समय में वेदों की भाषा के एकदम मौलिक व्याख्याकार हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के वेल्स प्रोफेसर माइकेल विट्जेल की किताब 'आर्यों के भारतीय मूल की कल्पना (इतिहास में मिथक का मिश्रण)Ó का देवता इंद्र, जिसे वह ऐसा 'भार्यÓ (भारतीय आर्य) मानते हैं जिसने अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा की बदौलत भारत को वह पहचान दी, जिसे आज तक भारतवासी अपनी अस्मिता के रूप में स्वीकार करते आ रहे हैं। प्रोफेसर विट्जेल लिखते हैं, "ऋग्वेद संहिता के आधार पर पूर्ववर्ती भार्यों की पहचान का एक सरल तरीका यह है : भार्य जन (आर्य जन) वैदिक संस्कृत बोलते थे। इस भाषा में इन लोगों ने विपुल साहित्य की रचना की, जो मौखिक रूप से ही रचा जाता था और मौखिक रूप से ही अन्य लोगों तक पहुंचता था…

"इन भार्यों (आर्यों) का समाज पितृवंशीय था जो वर्ण संरचना (कुलीन या सामंत वर्ग, पुरोहित/ ऋषि वर्ग और जन-सामान्य वर्ग) आधारित तथा गोत्रों में विभाजित था। इसमें गण होते थे और कभी- कभी इन गणों के संघ भी बने होते थे। गण के मुखिया (राजा/महाराजा) का चुनाव उच्च वर्ण के (अर्थात् कुलीन वर्ग के) लोगों में से किया जाता था और इन राजाओं की परंपरा प्राय: एक ही परिवार से संबंधित होती थी। ये गण एक-दूसरे से परस्पर लड़ते-भिड़ते रहते थे। उनके धर्म में देवगणों की व्यवस्था बहुत ही जटिल थी। … कुछ प्राकृतिक शक्तियों के देवता थे, जैसे : हवा के देवता वायु देव, आग के देवता अग्नि देव, आकाश पिता था (द्यौ: पिता), पृथ्वी माता थी (पृथ्वी माता), भोर का देवता उषस् कहलाता था, आदि आदि। … इनमें एक देव और था इंद्र, जो भार्य योद्धाओं का आदि प्रारूप था, यानी इंद्र युद्ध का आदि देवता था। ये सभी देवता समस्त सृष्टि के संचालक और नियंत्रक तो अवश्य माने जाते थे, फिर भी ये सभी एक अन्य अदृश्य यानी निराकार किंतु परम 'सक्रियÓ शक्ति के अधीन थे, जिसे ऋत कहते हैं।ÓÓ

देवताओं के राजा के अलावा दूसरा इंद्र हमारे दौर के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी की किताब प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता का सेनापति इंद्र है, जिसकी इस कार्य के लिए बार-बार वेदों में स्तुति की गई है कि उसने नदियों को मुक्ति दिलाई। कोसंबी के अनुसार, "उन्नीसवीं सदी में, जब प्रकृति संबंधी मिथकों से हर प्रकार की घटना को, यहां तक कि होमर के काव्य में वर्णित ट्रॉय के विध्वंस को भी, समझाया जा रहा था, तब 'नदियों की मुक्तिÓ का अर्थ लगाया गया – वर्षा लाना। इंद्र बादलों में बंद जल को मुक्त करने वाला वर्षा का देवता बन गया। …ÓÓ

तीसरा है हमारे सातवें आसमान में बैठा वह विचित्र इंद्र, जो ब्राह्मणवादी दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए भगवद्गीता की तर्ज पर लिखी गई किताब योगवासिष्ठ की लंबी, एकालापी कथा को जन्म देने वाला है… उस पवित्र गीता की प्रतिलिपि का निर्माता, जिसे हाथ में लेकर आज भी भारत के न्याय के मंदिरों में सत्यनिष्ठा की कसम खायी जाती है!… योगवासिष्ठ की कथा का आरंभ देवताओं के राजा इंद्र के आदेश पर होता है। इंद्र राजा अरिष्टनेमि को महर्षि वाल्मीकि के पास भेजता है, जो उनसे मोक्ष का साधन पूछने के लिए वाद-विवाद करता है। वाल्मीकि अरिष्टनेमि को विश्वामित्र द्वारा दशरथ-दरबार में जाकर यज्ञों की रक्षा के लिए राम को मांगने का प्रसंग सुनाते हैं, लेकिन मोक्ष तथा जीवन-मृत्यु से जुड़ी यह बहस एकाएक भयभीत ब्राह्मणों की इस गुहार के रूप में सामने आ जाती है कि राजा दशरथ पुरोहितों की सुरक्षा के लिए अपने पंद्रह वर्षीय बड़े बेटे राम को भेज दें, जिससे कि उनके यज्ञ निर्विघ्न चल सकें। राजा दशरथ इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इस प्रकार ऋग्वेद का अपराजेय इंद्र योगवासिष्ठ में ब्राह्मणों का रक्षक और पुरोहित वर्ग का कवच बन जाता है।

इनरुवा लाटा

ये तीनों तो इतिहास प्रसिद्ध इंद्र हैं, जिनके बारे में कमोवेश हर भारतीय जानता है, मगर इस आख्यान में एक और इंद्र है, जिसे हमारे इलाके में 'इनरुवा लाटाÓ कहते हैं। हालांकि उसे खुद के समाज में कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। हिंदी समाज का प्रतिनिधि चरित्र इनरुवा लाटा, खुद को सीधा-सच्चा, उदार, परोपकारी और प्रगतिशील समझता है… जितना संभव हो सकता है, दूसरों की मदद ही करता है… फिर भी लोग जाने क्यों उसका यकीन नहीं करते!… पढ़े-लिखे लोगों के समाज के साथ उसका संवाद इसलिए संभव नहीं है क्योंकि उसे न तो पुराने विद्वानों की देवभाषा संस्कृत आती और न नए विद्वानों की भाषा इंग्लिश, सिर्फ हिंदी आती है जिसे भारत में अनपढ़ों और लाचारों की भाषा समझा जाता है… न उसकी पोशाक में जींस-शर्ट की जैसी ठसक है, उसकी भाषा सीधी-सपाट और गंवारू है। मानो इस नए जमाने में भी उसे यह मालूम न हो कि सिविल सोसाइटी में बातें किस तरह की जाती हैं, कै से लोगों को प्रभावित किया जाता है!… उसे देखकर कभी-कभी शक होता है कि वह इसी संसार का जीव है या किसी दूसरे लोक से (मसलन मंगल लोक से) टपक पड़ा कोई एलियन!

बेचारा इनरुवा लाटा… लोगों ने उसे लछुआ कोठारी की औलाद बना डाला। …
माफ कीजिए… आप लछुआ कोठारी और उसकी औलादों को तो जानते नहीं, इस प्रसंग को कैसे समझेंगे ? बता दूं कि लछुवा कोठारी हमारे पहाड़ी समाज की एक अद्भुत लोक-अभिव्यक्ति है, खासकर उसकी नौ संतानें जिनमें से हरेक 'लाटाÓ था… लाटा, यानी सीधा-सच्चा और जुबान से हकलाने वाला, पारदर्शी व्यक्तित्व वाला, जो दिल से उठने वाली किसी बात को सामने खड़े व्यक्ति को देखकर जुबान पर नहीं लाता, बल्कि दिल की बात सीधे उजागर करता है… शायद इसीलिए वे सभी हकलाते थे। उनकी समझ में नहीं आता था कि जो बात वो कहने जा रहे हैं उसे विद्वानों की सभा में कहा जाना चाहिए या नहीं! मगर जुबान तक आ चुकी बात को लौटाया तो नहीं जा सकता था, इसलिए वे अमूमन ऐसी बात कह बैठते थे जो कुलीन समाज को अपनी शान पर बट्टा महसूस होने लगती। दूसरी ओर, सुनने वाला उनकी बातों को सीधे दिल से निकली बात के रूप में ग्रहण करते हुए उन्हें आध्यात्मिक वाणी का-सा सम्मान देता और उनकी सीधी-सपाट अभिव्यक्ति के मूल में छिपी भावना का आशय समझते हुए उनकी इज्जत भी करता था। मगर हर कोई उनके सामने आने से बचता था… इसलिए कि पता नहीं कब वे लोग उनकी सच्चाई नंगे रूप में उजागर कर दें!… इसीलिए मुंह-सामने भले ही लोग उनकी हंसी उड़ाते, पीठ पीछे उन्हें भविष्यवक्ता का-सा सम्मान देते।

लोगों को लगता कि उनके अंदर ऋग्वेद के इंद्र की तरह का कोई ईश्वरांश मौजूद है जिसे वे जानना तो चाहते हैं, मगर सीधे उसका सामना नहीं कर सकते। इसीलिए तो लोगों ने उसका नाम इंद्र का अपभ्रंश 'इनरुवाÓ रख दिया था। मन के अंदर लोग उन्हें गुरु का-सा सम्मान देते, मगर बाहरी तौर पर उनका मखौल उड़ाकर मनोरंजन करते। देखते-देखते ज्ञान के भंडार लछुवा कोठारी के संतानें संसार की सबसे बुद्धिहीन, उल्टी बुद्धि वाले ऐसे खुराफाती बन गए जो हमेशा दूसरों का नुकसान करने की जुगत में रहते हैं! इसी प्रक्रिया में जाने कब समाज के कुलीनों ने 'लाटाÓ शब्द का अर्थ ही बुद्धू और कुटिल बुद्धि वाला व्यक्ति बना डाला।

समाज के खास लोगों को अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरों में ऐसे दोष दिखाने जरूरी होते हैं, जिससे कि वे लोग हमेशा खास बने रहें। ऐसे खास लोगों को बिना सवाल उठाए हां-में-हां मिलाने वाला कोई चाहिए था, लछुवा कोठारी की औलादें इसके लिए सबसे उपयुक्त पात्र थे। हकलाहट में शब्द की ध्वनि मुंह के अंदर से निकलकर कुछ पलों के बाद श्रोता तक पहुंचती है और इस बीच सुनने वाले को उसका आशय अपनी मर्जी से ग्रहण करने का मौका मिल जाता है। बड़े लोगों की बातें, जिन्हें पढ़े-लिखे लोग ज्ञान की बातें कहते थे, लछुवा की औलादों की समझ में तो आती नहीं थीं, इसलिए वह हर बात में मुंडी हिलाते रहते जिससे कि कुलीनों को लगता रहे कि सामने वाला उनकी बातों को संसार के श्रेष्ठतम ज्ञान के रूप में स्वीकार कर रहा है।

मगर वे इतने बेवकूफ भी नहीं थे जितने कि कुलीन उन्हें समझते थे। उनकी बात खत्म हो जाने के बाद वह लाल-बुझक्कड़ की तरह एक ऐसी बात कह डालते, जिसका जवाब कुलीनों के पास भी नहीं होता। ऐसी हालत में कुलीनों की मजबूरी थी कि वे लछुवा कोठारी की औलादों को बुद्धू या उल्टे दिमाग वाला कहें और इनरुवा लाटों की मजबूरी यह थी कि हकलाहट के दौरान जो बात गले के अंदर ही अटकी रह गई थी, उस महत्त्वपूर्ण ज्ञान को उसकी सारी अर्थछवियों के साथ श्रोताओं तक पहुंचाएं। इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों को संतोष मिल जाता था… कुलीनों की श्रेष्ठता भी सिद्ध हो जाती थी, जैसा कि वे लोग चाहते थे, और लछुवा की संतानें अपने गले के अंदर अटकी बातों को भी व्यक्त करने में सफल हो जाते। धीरे-धीरे विचित्र सवाल पूछने के उनके किस्से समाज में इतने मशहूर हो गए कि लछुवा कोठारी की औलादों ने चाहे वह बात कही हो या नहीं, किसी भी लीक से हटी, बेवकूफी भरी बात को उनके नाम के साथ जोड़ दिया जाने लगा। सात समंदर पार इंग्लैंड से आए सफेद चमड़ी वाले कुमाऊं के कमिश्नर ओकले ने तो लछुवा के बिरादरों की इन विशेषताओं के आधार पर उन पर एक किताब ही लिख डाली।
आप पूछ सकते हैं कि लछुवा कोठारी के संतानों उर्फ इनरुवा लाटों को मैं कैसे जानता हूं ?
हुआ यह कि बहुत छुटपन में मुझे 1892 में प्रकाशित कुमाऊं के तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर ई. एस. ओकले की अंग्रेजी में लिखी एक किताब मिली: 'प्रोबर्ब्स एंड फ ोकलोर ऑफ कुमाऊं एंड गढ़वालÓ, जिसे उन्होंने कुमाऊं के एक कुलीन ब्राह्मण पंडित गंगादश्र उप्रेती के साथ मिलकर लिखा था। सवा चार सौ पृष्ठों की इस किताब में हमारे इलाके के डेढ़ हजार से अधिक लोक-विश्वास और लोकोक्तियां संकलित हैं। इन्हीं के बीच पेज 74 पर एक लोकोक्ति संकलित है 'लछुआ कोठारी का च्येलाÓ जिसके साथ लोक जीवन में प्रचलित कथा भी दी गई है।

अब बेचारे लछुवा कोठारी का इसमें क्या कसूर कि उसके 'ज्वान-जवानÓ (भरपूर जवान) नौ बेटे उसकी मर्जी के अनुसार नहीं ढल पाए! कौन पिता बेटों को अपनी मर्जी से गढ़ सकता है? उस पर एक साथ नौ बच्चों को! आधुनिक आनुवंशिकी-वेत्ताओं ने भले ही कुछ ऐसे गुणसूत्रों का पता लगा लिया हो कि पिता की कुछ खास आदतें उसकी संतान में वीर्य के साथ स्थानांतरित हो जाती हैं और इस रूप में संतान की खास आदतों के लिए उसका पिता ही जिम्मेदार होता है, मगर लाटा लछुआ कोठारी क्या जाने गुणसूत्रों और आनुवंशिकी के चमत्कारों को! वह राजा इंद्र तो था नहीं जिसकी प्रशस्ति साढ़े तीन हजार सालों तक वेद-पुराण और उपनिषद् गाते फिरते रहे हों… न वह डार्विन या फ्रॉयड-युंग जैसे विदेशी ऋषियों की जानकारी रखता था, फिर भी लोग तो यही समझते थे कि अगर 'इनरुवाÓ शब्द 'इंद्रÓ का अपभ्रंश है तो उसमें कुछ-न-कुछ तो ब्रह्मांड के सबसे शक्तिशाली तत्त्व का कोई अंश मौजूद होगा!… शायद इसीलिए मेरे दिमाग में भी उस अजीब-सी कल्पना ने जन्म लिया, जिसे मैं इस आख्यान के माध्यम से अपने विद्वान् पाठकों तक पहुंचाना चाहता हूं। खैर, ये बातें बाद में…! पहले लछुवा कोठारी कीे औलादों से परिचय प्राप्त कर लीजिए! कहीं आप भी बाकी लोगों की तरह इनका मखौल न उड़ाने लगें… इसलिए उनसे जुड़ी इस लोककथा को सुन लीजिए। … शायद इसके बाद ये लोग आपको आत्मीय महसूस होने लगें।

कुमाउंनी लोक कथा :
'लछुवा कोठारी का च्येलाÓ (लछुआ कोठारी की औलाद)

बहुत पुराने जमाने में कुमाऊं जिले के परगना गंगोली, पट्टी बेरीनाग के कोठार गांव में लछुवा नामक एक आदमी रहता था जिसके नौ बेटे थे। सभी बेटे मजबूत कद-काठी के हृष्टपुष्ट और सुंदर थे, मगर थे दिमाग के कमजोर और सनकी। बचपन से ही वे लोग लीक से हटी ऐसी बातें करते थे कि लोग उनके नाम का प्रयोग बेवकूफी के पर्याय के रूप में करने लगे थे। अपनी ओर से तो वे लोग किसी भी काम को पूरी ईमानदारी और मन लगाकर करते, मगर जब उसका परिणाम सामने आता, हमेशा उल्टा होता और उनकी समझ में नहीं आता कि ऐसा हो कैसे गया!

लछुवा अपने बेटों को बेहद प्यार करता था और कोशिश करता कि उनकी कोई इच्छा अतृप्त न रहे। दूसरी ओर बेटे भी पिता पर जान छिड़कते थे और कोई ऐसी बात नहीं आने देना चाहते थे कि उनके कारण पिता को कष्ट पहुंचे। पिता द्वारा आदेश देने की देर होती, बेटों में उसे पूरा करने की होड़ लग जाती। … और हमेशा इसी होड़ में बेटों से कुछ-न-कुछ ऐसा हो जाता कि बना-बनाया काम बिगड़ जाता। हालांकि उनमें साहस और जोखिम लेने की वृत्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी लेकिन कौन-सा काम कब और कैसे किया जाना चाहिए, इसे वह तत्काल तय नहीं कर पाते।

लछुआ कोठारी अपने लड़कों की हरकतों से हमेशा चिंतित रहता। यह बात उसे परेशान करती रहती कि ऐसे सरल हृदय बच्चों का पहाड़-सा जीवन कैसे कटेगा… छल-छऽ और स्वार्थों से भरी इस दुनिया में लोग आसानी से उन्हें ठग ले जाएंगे। … एक दिन उसने सोचा, क्यों न हरेक बेटे के लिए एक-एक मजबूत घर बना दिया जाए, ताकि उनके सिर पर कम-से-कम एक आरामदेह छत तो हमेशा मौजूद रहे! सारे बेटों को उसने अपने पास बुलाया और उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा। सभी से उसने जंगल जाकर अपने-अपने मकान के लिए लकड़ी काट कर लाने को कहा।

गंगोली इलाका देवदार की बेहतरीन इमारती लकड़ी के लिए पूरे कुमाऊं में प्रसिद्ध है। इलाके में बीस-तीस फुट ऊंचे देवदार के पेड़ों का घना जंगल है जिनके पेड़ों की मोटाई इतनी होती है कि उन्हें एक लंबा चौड़ा आदमी भी अपने दोनों हाथों के घेरे में नहीं ले सकता। देवताओं के इस वृक्ष के बारे में कहा जाता है कि कोई भी एक आदमी अपने जीवनकाल में इसे जन्म लेते और नष्ट होते नहीं देख सकता। कहावत ही है – 'देवदार का पेड़, सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा और सौ साल सड़ा।Ó इसलिए लछुवा कोठारी ने सोचा, क्यों न ऐसा मकान बनाया जाए जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सैकड़ों सालों तक चलता रहे। बेटों से उसने कहा, 'मेरे प्यारे बच्चो, अब तुम जवान हो गए हो, कल को तुम्हारी शादी होगी और सबको अपने अलग-अलग घरों की जरूरत पड़ेगी। मैं अपने जीवनकाल में तुममें से हरेक के लिए एक-एक घर बनाकर मरना चाहता हूं। जाओ, जंगल से अपने लिए एक-एक खूब मजबूत लंबा-चौड़ा देवदार का पेड़ काटकर ले आओ। वहीं से पेड़ की बल्लियां, तख्ते और गिल्टे भी तैयार कर लाना, जिससे कि यहां का काम कुछ हल्का हो सके। पेड़ काटने में एक दूसरे की मदद करना और जो जितना बड़ा मकान बनाना चाहता है, अपने लिए उतना ही बड़ा पेड़ काटकर तैयार करना।Ó

सभी बेटे कुल्हाड़ी, आरे आदि लेकर जंगल को चल पड़े। आधा दिन उन्होंने अपने-अपने लिए पेड़ छांटने में बिताया और अपने कद के हिसाब से हर बेटे ने एक-एक विशाल देवदार का पेड़ काट डाला। जब सारे पेड़ धराशायी हो गए, उनकी समझ में नहीं आया कि अब उनका क्या करना है? बड़े बेटे ने अपने से छोटे भाई से कहा, 'भुला (भैया), बाज्यू (पिताजी) ने कहा था, इन नौ पेड़ों से उनको नौ घर बनाने हैं इसलिए हमें हरेक घर के लिए बल्लियां, तख्ते, बीम और गिल्टे चाहिए… लेकिन कितने चाहिए, ये तो हम पूछना ही भूल गए। तुम जाकर बाज्यू से पूछकर आओ कि उन्हें कितने बड़े तख्ते और बल्लियां चाहिए, ताकि उसी नाप की बल्ली काटकर हम घर ले जा सकें।Ó आठवे भाई ने 'चम्मÓ-से पेड़ को अपने कंधे पर रखा और उसे घर ले गया।

लछुवा कोठारी ने जब बेटे की बात सुनी तो अपना माथा पकड़ लिया। 'अरे मूर्ख, मुझे ही वहां बुला लिया होता! या मैं किसी रस्सी से नाप भेज देता, पूरा पेड़ यहां लाने की क्या जरूरत थी। … और तू इतना भारी-भरकम पेड़ यहां तक लाया कैसे? इसे तो तुम सारे भाई भी मिलकर नहीं उठा पाओगे।Ó…
'ऐसे लाया, और कैसे…Ó कहकर पलक झपकते आठवे बेटे ने देवदार का पेड़ अपने कंधे पर फिर से टिका लिया।Ó… 'ये आदमी हैं या पिशाचÓ… लछुवा कोठारी ने मन-ही-मन में कहा और प्रकट रूप में बेटे से कहा, 'हर-एक पेड़ के नौ बराबर हिस्से काटना, जिनमें से दो हिस्सों की बल्लियां बनेंगी, दो हिस्सों के खंभे और पांच हिस्सों के तख्ते। … सारे तख्ते तैयार हो जाएं, तब मुझे ही जंगल में बुला लेना।Ó

शाम होते-होते बेटा पेड़ के साथ फिर वापस आ गया, 'बाज्यू, आपने ये तो बताया ही नहीं किसके हिस्से में कौन-सा पेड़ होगा?Ó… लछुवा ने फिर माथा पकड़ लिया, 'अरे च्यला (बेटे), सबेरे से तू भूखा- प्यासा घूम रहा है, इससे अच्छा ये नहीं होता कि तुम सारे भाई सभी कटे पेड़ों को यहीं ले आते और यहीें जरूरत के हिसाब से उनके तख्ते, बीम, दरवाजे और खिड़कियां बना लेते!Ó…

'वो सब चीजें हम बने बनाए यहां ले आएंगे बाज्यू! हम अगर आपकी सेवा के लिए मौजूद हैं तो आपको मेहनत करने की क्या जरूरत है!… आप कहां तक एक-एक तख्ते को ढोते फिरेंगे!Ó आठवे बेटे ने कहा।

जंगल पहुंचकर आठवे बेटे के निर्देशानुसार सारे बेटे पेड़ के नौ टुकड़े करके उनके गिल्टे और बल्लियां चीरने में लग गए, लेकिन प्रत्येक बेटा अपना तख्त दूसरे से बड़ा बनाने और दूसरे को उससे अलग बनाने के जोश में उन्हें काटता चला गया और धीरे-धीरे सारे पेड़ उन्होंने छोटे-छोटे टुकड़ों में काट डाले। सारी मूल्यवान इमारती लकड़ी बेकार हो गई। यह सुनते ही लछुवा कोठारी पर मानो वज्रपात हो गया। 'जिस औलाद ने मकान बनने से पहले ही उसके टुकड़े कर डाले हों, वो कैसे अपनी जिंदगी मिलकर बिताएंगे।Ó, लछुवा ने सोचा और अपने घर के सामने देवदार के टुकड़ों के पहाड़ देखकर वहीं बेहोश हो गया।

कुछ ही दिनों के बाद जब सारे भाई एक दिन जंगल गए थे, ढलती सांझ के समय रोते हुए पिता के पास पहुंचे और बोले, 'बाज्यू, हमारे एक भाई को बाघ ने खा लिया है।Ó 'क्यों, कब, कहां?Ó लछुवा चिल्लाते हुए बाहर आया तो देखा, सारे भाई सकुशल खड़े थे।

'तुम सब तो मेरे सामने ही खड़े होÓ, लछुवा ने उन्हें डांटा तो बड़े बेटे ने रोते हुए कहा, 'ये देखो…Ó, उसने भाइयों को गिनना शुरू किया। बाकी सारे आठ भाइयों को उसने गिना, मगर खुद को नहीं। सारे भाइयों ने भी ऐसा ही किया। सभी भाइयों ने जब रोते हुए आठ ही गिने तो लछुवा कोठारी ने एक-एक कर सबके सिर पर चपत मारकर नौ लोग गिने। सबकी हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। वे लोग खुशी से नाचने लगे : 'बाज्यू, तुमने हमारे एक भाई को फिर से पैदा कर दिया। धन्य हो तुम!Ó

लछुवा कोठारी की औलादों का तीसरा किस्सा भी उतना ही रोचक है। एक दिन उसने बेटों से कहा, 'हमेशा उल्टे काम करते हो, जाकर कुछ कमा कर लाओ!Ó उसने बेटों को बहुत सारा रुपया दिया और कहा कि इससे अपनी पसंद का कोई करोबार करके फायदा कमा कर लाओ। रुपयों को लेकर वह कुमाऊं के सबसे बड़े शहर काशीपुर गए और उससे खूब कपड़ा खरीद कर बेचने लगे। कुछ महीनों के बाद पिता ने बेटों से पूछा कि क्या कारोबार में कुछ फायदा भी हो रहा है, बेटों ने बताया, 'बाज्यू, कपड़े से हमें खूब फायदा हो रहा है। हमने रुपए का आठ गज कपड़ा खरीदा था, लेकिन उसे बारह गज के हिसाब से बेच रहे हैं। कपड़ा हाथों-हाथ बिक रहा है और हमें मिल रहा है चार गज का फायदा!…Ó
लछुआ की समझ में नहीं आया कि कैसे अपने बच्चों की ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जाय। एक दिन उसने बेटों से कहा, बेटो, तुम लोग इतने ताकतवर हो, संसार का कोई भी काम तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं है। अपने लिए एक-एक नौला (जलश्रोत-घर) खोद लो। 'क्यों नहीं, बाज्यूÓ, उन्होंने एक स्वर में कहा और सोचने लगे कि नौला कहां पर खोदना अच्छा रहेगा। सारे भाइयों ने आपस में परामर्श किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गांव में पानी के स्रोत तो बहुतायत में हैं, लेकिन पहाड़ की चोटी पर कहीं पानी नहीं है। गाय भैंसों को लेकर जब ग्वाला जाते हैं, तो चोटी में पहुंच कर प्यास से हालत खराब हो जाती है और पानी पीने के लिए नीचे ही आना पड़ता है। क्यों न पहाड़ की चोटी पर ही नौ नौले खोद लें हम लोग। पहाड़ की चोटी पर जाकर सबने मिलकर नौलों के लिए गड्ढे खोदने शुरू कर दिए। कई-कई दिनों तक बहुत गहराई तक खोदने के बावजूद जब पानी नहीं निकला, तो थककर सारे गड्ढे उसी तरह छोड़ दिए गए। आज भी गंगोली गांव के पहाड़ी शिखर पर जो विशाल नौ सुरंगें खुदी हुई हैं, उन्हें 'लछुवा कोठारी के नौलेÓ कहा जाता है, हालांकि उनमें एक बूंद पानी नहीं है।

लछुवा कोठारी और उसकी संतानों का अंत भी बहुत दुखद रहा। सारी जिंदगी लछुवा इसी बात से परेशान रहा कि कैसे उसके बेटे इतनी स्वार्थी दुनिया में अपना वक्त काटेंगे! रात-दिन यही चिंता उसे परेशान किए रहती और उसकी कुछ भी समझ में नहीं आता। अपने बेटों से वह अपना दुख कैसे बताता? कहीं कुछ उल्टा-सीधा न कर डालें, इसलिए वह अपनी ही चिंताओं में घुलता रहा। इसी फिक्र में एक दिन लछुवा ने खाना-पीना छोड़ दिया। जब लछुवा मरणासन्न हो गया, सारे बेटे बुरी तरह परेशान हो गए। उनकी समझ में नहीं आया कि भगवान की तरह के उनके पिता की यह हालत किसने कर डाली। एक भाई उनकी तकलीफ के बारे में पूछने के लिए गांव के वैद्य-पुरोहित के पास गया तो पुरोहित ने उसे बताया कि यह तो संसार की पुरानी रीत है बच्चे!… जो इस संसार में आया है, उसे एक दिन इसे छोड़ना ही पड़ता है। भगवान के इस नियम को कोई रोक नहीं सकता। …

'हमारे बाज्यू ने अगर किसी का कुछ बिगाड़ा ही नहीं है तो कोई उन्हें क्यों दुख दे रहा है?Ó… एक दिन अंतत: लछुवा कोठरी की मृत्यु हो गई। … अपने पिता की निर्जीव देह को लेकर सारे लड़के गंगोली के सबसे ऊंचे शिखर पर गए और वहां से एक स्वर में शिकायत करने लगे, 'हे भगवान, हमारे पिता ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था जो तुम उनको हमसे छीन रहे हो!… हम उन्हें कभी नहीं छोड़ेंगे, चाहे तुम इन्हें छीनने के लिए कितनी ताकत क्यों न लगा दो।Ó

गांव वालों ने किसी तरह समझा-बुझाकर लछुवा का अंतिम संस्कार करने के लिए बेटों को राजी किया और सारे भाइयों ने मिलकर संस्कार किया। कहते हैं कि जब लछुवा कोठारी का संस्कार संपन्न हो गया, सारे बेटे रोते-रोते विक्षिप्त-से हो गए। … 'हमारी देखरेख करने वाले पिता ही नहीं रहे तो हम जीकर क्या करेंगे?… हम भी अपने बाज्यू के पास जाएंगे।Ó… चिता से उठती हुई लपटों के साथ पिता की देह को धुंए के रूप में उड़ता हुआ देखकर उनके मन में विचार आया कि क्यों न वे भी उड़कर पिता के पास स्वर्ग में चले जाएं। सारे भाइयों ने निर्णय लिया कि वे गंगोली के सुरंगों वाले शिखर पर जाकर अपनी-अपनी कमर में पंख बांधकर पक्षी बन जाएंगे और स्वर्ग के लिए छलांग लगा देंगे।

इस प्रकार सबने अपनी-अपनी कमर के दोनों ओर अनाज साफ करने वाला एक-एक सूप बांधा और स्वर्ग के लिए छलांग लगा दी।
लोक विश्वास है कि वे सभी भाई आज भी अंधेरी रात में टिमटिमाते प्रकाश-बिंदुओं के रूप में अपने पिता के आदेशों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और आकाश के बीचों-बीच टिमटिमा कर अपने पिता के साथ भेंट होने का इंतजार करते रहते हैं।

सहस्रवीर्य, सहस्रयोनि और सहस्राक्ष

'सहस्रयोनिÓ और 'सहस्राक्षÓ के मिथक के बारे में आप जानते ही हैं, सहस्रवीर्य का नाम शायद आपके लिए नया हो। यह वही इंद्र है जिसे ऋग्वेदकार ने 'कृपत्Ó यानी शिश्न कहा है। एक बार मैं उसका प्रसंग दुहरा दूं। इंद्र ने गौतम ऋषि की सुंदर पत्नी अहल्या के साथ धोखे से संभोग किया और पकड़े जाने पर गौतम ने उसे श्राप दिया कि ओ इंद्र, तुझे योनि से इतना ही प्यार है तो जा, तेरा सारा शरीर ही योनिमय हो जाय! पलक झपकते ही गौतम ने इंद्र के शरीर में एक हजार योनियां उगा दीं। कैसा लगता होगा उस वक्त इंद्र। चुटिया से लेकर पांव के नाखूनों तक योनि ही योनि! मगर हिंदू पुरोहितों के पास हर जटिल समस्या की काट है। इंद्र ने सैकड़ों साल तक ब्रह्मा की तपस्या की तो उन्होंने अपने कमंडल से उस पर गंगाजल छिड़कते हुए इतनी मोहलत दे दी कि जा, तेरी हर योनि आंख में बदल जाए। … इंद्र, जो पहले समूचे ब्रह्मांड के वीर्यबैंक के रूप में शिश्न था, गौतम के श्राप से सहस्रयोनि इंद्र बन गया, और फिर एक दिन ब्रह्मा की कृपा से हजार आंखों वाला सहस्राक्ष इंद्र बन गया… हजार आंखों के समान तेज वाले सूर्य के बराबर सहस्राक्ष… जो हमारे सौरमंडल का सबसे ताकतवर देवता है!

इंद्र तो शिश्न था यानी पुरुष… उसने तपस्या के जरिए अपने बचाव का रास्ता निकाल लिया, लेकिन बेचारी अहल्या का क्या! वह तो खामखाह चक्कर में फंस गई। उसने तो इंद्र को अपने साथ सहवास के लिए आमंत्रित नहीं किया था। … अगर किया भी था तो सजा की काट दोनों के लिए समान होनी चाहिए थी। इंद्र को तो ब्रह्मा ने छप्पर फाड़ हजार आंखों के बराबर ज्योति दे दी… मगर अहल्या? उस बेचारी को तो त्रेता युग तक, जब तक कि उस दौर के महानायक राम की ठोकर नहीं मिली, बुत की तरह दो युगों के संधिस्थल पर सोए रहना पड़ा। मुक्त होने के बाद भी उसे अपनी ही योनि मिली। न पति गौतम मिला और न प्रेमी इंद्र!… बेचारी अहल्या! सैकड़ों सालों तक दो युगों के संधिस्थल पर पड़ी रही, मगर कभी भी अपनी पहचान नहीं बन पाई।
चलिए, पहले इंद्र-अहल्या से जुड़े पौराणिक प्रसंग पर विचार करें!

भारत में आर्यों के राजा इंद्र के सत्तासीन होने से पहले जिन मातृदेवियों का एकछत्र साम्राज्य बताया जाता है, उनमें पांच का विशेष जिक्र आता है – सीता, अहल्या, द्रोपदी, तारा और मंदोदरी। आर्यों की संस्कृति में इन पांचों का उल्लेख संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों के रूप में आता है। ये पांचों सर्वशक्तिमान स्त्रियां थीं, सुंदर, वीर, कुशल और सृष्टि का विस्तार करने में दक्ष। ये न होतीं तो इंद्र सृष्टि का कितना ही विशाल वीर्य बैंक क्यों न होता, बिना इनकी मदद के इतना बड़ा ब्रह्मांड कैसे रच सकता था, लेकिन औरत तो औरत ही है न। अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए आर्यों ने राजा इंद्र के नेतृत्व में मातृदेवियों के साथ युद्ध किया। स्त्रियां पराजित तो नहीं हुईं, लेकिन आर्यों ने मां का संबोधन देकर उन्हें अपने वश में कर लिया। … स्त्री की सबसे बड़ी कमजोरी – मातृत्व!… पुरुष आर्यों ने पांचों सुंदरियों को देवी-मां (माई-योगिनी) बनाकर अपने साथ मिला लिया। उनसे मानवी का दर्जा छीन लिया गया, वे देवी बन गईं हमेशा-हमेशा के लिए। … (आख्यान के अगले हिस्से में इसके एक प्रमुख चरित्र 'दाड़िमी माईÓ के रूप में आप इस 'देवी-मांÓ के दर्शन करेंगे। )

मगर यह गौतम कौन था? महाराज जनक का उप-पुरोहित गौतम ऋषि अंतरिक्ष में निवास करने वाले प्रसिद्ध सप्तऋषियों में से एक था, जिसके व्यवहार से खुश होकर ब्रह्मा ने अपनी सबसे सुंदर सृष्टि अहल्या (मातृदेवी) का उससे विवाह कर दिया था… हल (पाप) से मुक्त अहल्या!… क्या था अहल्या का पाप और किस पाप से मुक्त की गई थी वह त्रेता युग के महानायक राम के द्वारा?… इंद्र के द्वारा अपनी वासना को शांत करने का फल उसे ही क्यों जन्म-जन्मांतर तक भोगना पड़ा? इंद्र के साथ सहवास की पहल क्या अहल्या ने की थी?… (वैदिक धर्म के प्रचारक कुमारिल भट्ट ने इंद्र और अहल्या के प्रेम का आध्यात्मीकरण करते हुए इंद्र को सूर्य और अहल्या को रात्रि या भूमि का प्रतीक मानते हुए अहल्या की देह पर इंद्र का शयन प्रकृति का शाश्वत नियम बताया है… आकाश के द्वारा धरती की देह में हमेशा रमण करते हुए सृष्टि का विस्तार करने वाला स्वर्गवासी देवता इंद्र। )

लेकिन रुकिए! इस विचित्र कथा के बीच एक और रोचक व्यक्ति आता है : पुरुवंशी महाराज गाधि का पुत्र ब्रह्मर्षि विश्वामित्र। भारतीय पुराणों में इंद्र से लेकर विश्वामित्र तक न जाने कितने चरित्र हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते, जो शाश्वत और सनातन वीर्यकोश के प्रतीक हैं और जिनमें आजीवन सुंदरियों के साथ रमण की इच्छा बनी रहती है… जिनके लिए जीवन की सिर्फ एक ही सार्थकता है, स्त्री की कोख में वीर्य ढालकर उसका विस्तार करके सृष्टि पर कृपा करना। …
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय और हिंदू संस्कृति में इंद्र जैसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है। इंद्र ही एकमात्र ऐसा चरित्र है जिसके बारे में आज तक भी यह पता लगा पाना मुश्किल है कि उसका कौन-सा पक्ष मिथक है और कौन-सा इतिहास। ऋग्वेद में चित्रित सारे महानायकों के बीच वही एकमात्र मानव है, दूसरों की तरह अतिमानवीय शक्तियों का मानवीकरण नहीं। ऋग्वेद में मौजूद कुल तैंतीस देवताओं को उनके आवास के आधार पर तीन भागों में बांटा गया है – स्वर्ग में रहने वाले, अंतरिक्ष में रहने वाले और धरती पर रहने वाले।

पहली कोटि में सूर्य, उषा, रात्रि, द्यौ (आकाश), मित्र, वरुण और अश्विन आते हैं, जबकि अंतरिक्ष में रहने वाले देवता हैं : इंद्र, रुद्र, मरुत् (गण), पर्जन्य, वात, आपस (जल) और अपांनपात्। सोम, अग्नि, पृथ्वी तथा कुछ नदियों का निवास धरती पर है। इनके अलावा कुछ जुड़वां देवता भी हैं जो एकरूप होकर विचरण करते हैं : मित्रावरुण (मित्र और वरुण), इंद्राग्नि (इंद्र और अग्नि) तथा द्यावापृथिवी (स्वर्ग और भूमि)। वाक् (वाणी) को स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री की तरह स्वतंत्र दैवत्व प्राप्त है, जो सरस्वती का पूर्वरूप है। इनके अलावा बिना विभाग वाले मंत्रियों की तरह कुछ देवता आदमी के मनोभावों के सप्राण प्रस्तुतीकरण हैं – श्रद्धा, मन्यु (क्रोध, अहंकार), अनुमति, आरमति (भक्ति) आदि। … इंद्र इन सबमें एकदम अलग और मनुष्य की आदिम शक्ति और सीमा का जीवंत प्रतीक है। उसे सच ही सर्वशक्तिमान कहा गया है…

आख्यान को आगे बढ़ाने से पहले एक और जिज्ञासा का समाधान कर लेना जरूरी है। क्या इंद्र अहल्या-गौतम दंपत्ति का एक मामूली पड़ोसी था या उनका मित्र था? वह अगर देवकीनंदन खत्री के तेज सिंह ऐयार की तरह गौतम का वेश धारण करके अहल्या के पास गया तो अहल्या ने उसे इतनी आसानी से अपना शरीर क्यों सौंप दिया? आखिर पति और प्रेमी की गंध में फर्क तो होता ही होगा। सारे तामझाम के बावजूद यह संशय अपनी जगह तो है ही कि इंद्र या गौतम की गलती का दंड अहल्या को ही क्यों भोगना पड़ा… अहल्या को तो समय की शिला पर कैद करके आजन्म कारावास का दंड मिला… कोठार गांव की हमारी दाड़िमी माई की तरह… जबकि दोनों पुरुषों को ऐसा कोई दंड नहीं मिला। खैर, कहानी को विस्तार देने से पहले आपके साथ इस कथा की प्रधान पात्र दाड़िमी माई से आपका परिचय करा दूं।

लछुवैकि नौ कुड़ी बाखइ और दाड़िम बुड़ि
(लछुवा कोठारी की नौ घरों की शृंखला और दाड़िम बुढ़िया)

पाठकों को याद होगा, लछुवा कोठारी ने अपनी नौ संतानों में हरेक के लिए एक-एक 'कुड़िÓ यानी घर बनाने का निर्णय लिया था, जिन्हें बनाने के उत्साह में उसके बेटों ने गंगोली का सारा जंगल काट डाला था। लोककथा में इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि लछुवा कोठारी की संतानों के घर कब बने, बने भी या नहीं, मगर आज भी गंगोली गांव में नौ घरों की एक बाखई (शृंखला) मौजूद है, जिसे 'लछुवैकि नौ कुड़ी बाखइÓ यानी 'लछुवा कोठारी के नौ घरों की शृंखलाÓ कहा जाता है। लोककथा में लछुवा कोठारी का समय नहीं बताया गया है, सिर्फ इतना कहा गया है : 'बहुत पुराने जमाने की बात है…Ó कमिश्नर ओकले और पंडित उप्रेती के लिए यह मामूली बात रही होगी इसलिए उन्होंने चलताऊ ढंग से बात कह दी, मगर मेरे लिए तो इस कथन ने संकट ही पैदा कर दिया है।

पिछले दिनों हमारी इस बाखइ की आखिरी निशानी 'दाड़िम बुड़िÓ चल बसी थी। … स्वाभाविक है कि आपके मन में सवाल उठेगा कि यह दाड़िम बुड़ि है कौन, और ऐसे विचित्र शब्द का मतलब क्या है। … दाड़िम के आकार के, असंख्य झुर्रियों वाले चेहरे वाली इस बुढ़िया में धरोहर बनने का तत्व तो मौजूद है, मगर इस खूसट बुढ़िया को भारतीयों के आदि-पुरुष इंद्र के साथ जोड़ने का कुछ और मतलब है। इस राज को मैं कथा के अंतिम वाक्य में ही उजागर करूंगा, इसलिए थोड़ा धैर्य धरें।
दाड़िम बुड़ि का परलोक गमन दूसरी वृद्धाओं से एकदम अलग तरह का था। 'परलोकÓ शब्द का प्रयोग मैं यहां पर अपनी दाड़िम दादी की तरह ही पूरी आध्यात्मिक श्रद्धा के साथ कर रहा हूं। आज से करीब सत्तर-अस्सी साल पहले, जब उसका इस संसार में आगमन हुआ था, तभी से वह पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ तीनों लोकों के अस्तित्व में यकीन करती आ रही थी। उसके मां-बाप ने भी उसे यही सिखाया था और बाद में सास-ससुर और समाज ने भी, कि इस दुनिया में तीन लोक होते हैं, एक हमारे वर्तमान का, दूसरा हमारे अच्छे कर्मों का और तीसरा हमारे ही नीच कर्मों का। जब तक हमारे अंदर सांस है, हम अपने इस लोक में रहते हैं, मरने के बाद अगर हमने अच्छे कर्म किए होते हैं तो स्वर्गलोक में जाते हैं या फिर बुरे कर्मों को भोगने पाताल लोक में। इन तीनों लोकों के बीच ही अपनी जिंदगी का संतुलन संभालते हुए दाड़िम दादी बच्ची से जवान, फिर अधेड़ और फिर बूढ़ी हो गई, मगर आज तक यह तय नहीं कर पाई कि उसने जो कर्म किए उनके आधार पर वह किस लोक में जाने की अधिकारिणी है।

घुटनों तक का झगुला पहनने वाली उस बच्ची का चेहरा कब कच्चे सेब के रंग से गुजरता हुआ पके सेब-सा और फिर कब खेत के कोने में फालतू पड़े गेठी के दाने-सा कुरूप हो गया था, यह बात उसे खुद नहीं मालूम। दरअसल, इस तरह से उसने कभी सोचा ही नहीं। बचपन में तो वह सारी चीजों से बेखबर सामने पहाड़ी पर उगे हुए हिमालय की ऊंचाइयों की छत पर पसरे हुए आकाश में चिड़िया की तरह उड़ते रहना चाहती थी, मगर बचपन में ही जब उसकी शादी कर दी गई वह कुछ देर तक के लिए ठहरी जरूर थी मगर जिंदगी का लंबा सिलसिला कब अजीब-सी करवट बैठ गया, उसे खुद नहीं मालूम… मगर यह बहुत बाद की बात है!…
पहले आप दाड़िम बुड़ि के घर 'नौ कुड़ी बाखइÓ के बारे में कुछ और विस्तार से जान लीजिए। यह तो आपको पता लग ही चुका है कि यह बाखइ लछुवा कोठारी की नौ संतानों ने अपने-अपने लिए बनाई थी, ताकि सैकड़ों सालों तक सारे भाई एक साथ बने रहें। लछुवा कोठारी का समय भले ही आज के दिन हमें मालूम न हो, उन देवदार के पेड़ों के हवाले से, जिनकी लकड़ी इन मकानों में लगाई गई है, इतना तो विश्वास के साथ कहा ही जा सकता है कि वह बाखइ कम-से-कम चार-पांच सौ साल पुरानी तो होगी ही। सवा सौ साल पहले ओकले और उप्रेती ने इस लोक-कथा को लिपिबद्ध किया था, जिसमें उन्होंने इसे 'बहुत पुराने जमानेÓ की बात कहा था। तभी से हमारे गांवों में पुश्त-दर-पुश्त यह कहावत चली आ रही थी… देवदार का पेड़ सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा और सौ साल सड़ा!… यानी तीन सौ सालों तक तो उसे धरती पर कोई मिटा नहीं सकता… रही बात घरों की शृंखला 'बाखइÓ की… पहाड़ी बाखइ की खासियत यह भी है कि इसमें रहते हुए लोग संयुक्त परिवार के साथ-साथ स्वतंत्र परिवार में रहने का आनंद ले सकते हैं। सबका चूल्हा-चौका और आंगन-गोदाम अलग होता है, मगर सारे मकान पंक्ति में एक-दूसरे से जुड़े रहने के कारण एक बड़ी हवेली का अहसास कराते हैं मानो एक बड़ा परिवार एक ही चारदीवारी में रहता हो। यानी नौ कुड़ी बाखइ में चार-पांच सौ वर्षों से नौ परिवार संयुक्त परिवार के रूप में रहते चले आ रहे थे!

कुमाऊं जिले के परगना गंगोली, पट्टी बेरीनाग का कोठार गांव, जिसमें नौ घरों वाली बाखइ आज भी मौजूद है, एक ऊंची चोटी के लगभग मध्य में बसा हुआ बेहद सुंदर गांव है। उत्तर दिशा में हिमालय का अर्धचंद्राकार विस्तार है… और हिमालय तथा धरती के मिलनस्थल पर आज भी देवदार के विशालकाय वृक्षों की कतारें ऐसी लगती हैं, मानो हिमालय के पहरेदार देवताओं के रूप में एक पंक्ति में खड़े उसकी रखवाली कर रहे हों। समुद्र सतह से सवा दो हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह गांव आज भी अपने शिखर पर विशालकाय सुरंगों के रूप में उन नौ नौलों की स्मृति संजोए हुए है जिन्हें बनाने का आदेश किसी जमाने में लछुवा कोठारी ने अपनी नौ लाटा-संतानों को दिया था। उन नौलों में पानी तो कभी नहीं रहा, संभव है कि वे मूल रूप में नौले नहीं, प्राकृतिक सुरंगें रही हों, मगर गांव वाले आज भी उन्हें पूरे विश्वास के साथ 'लछुवा कोठारी के नौलेÓ ही कहते हैं।

मेरा अपना संपर्क भी इस बाखइ से कहां रहा? बचपन से लेकर आज तक वह बाखइ फिल्मों की भुतहा हवेली की तरह मेरी स्मृति में बसी हुई है। बचपन की स्मृतियां… उनकी अपनी अलग चाल होती है… वो जमाने के अनुसार बदलती ही कहां हैं। जमाना अपनी रौ में बहता है, जबकि स्मृतियों की अपनी अलग दीवानी चाल होती है। ऐसी ही एक अलग और निराली चाल है इस 'नौ कुड़ी बाखइÓ की! विशाल पहाड़ी के मध्य में बसा हुआ गांव कोठार और उसके माथे पर इतमीनान से पड़े हुए पुराने सूखे वृक्ष की तरह नौ कुड़ी बाखइ… मानो कोई विशालकाय जिन्न एक पराजित योद्धा की तरह सारी चीजों से बेखबर सदियों से हमारी इस पहाड़ी के मध्य में पसरा हुआ हो।

घने पेड़ों, झाड़ियों और जलस्रोतों से घिरे कोठार गांव के शिखर पर जो रहस्यमय सुरंगें हैं (गांव के लोग जिन्हें 'नौलेÓ कहते है), उन्हें लेकर दाड़िम दादी के जीवन काल में भी अनेक किस्से और किंवदंतियां प्रचलित थीं। नौ विशालकाय लंबी सुरंगें… लोकजीवन ने उनके साथ महाभारत की कथा के न जाने कितने प्रसंग जोड़ डाले थे। भूवैज्ञानिकों के अनुसार चूने की चट्टानों के भ्रंश से बनी ये सुरंगें महाभारतकार व्यास और लछुवा कोठारी के वंशजों की कल्पनाशीलता के समन्वय के अद्भुत नमूने हैं। एक गुफा में अर्जुन अपने धनुष से सैकड़ों कौरवों पर एक साथ निशाना साध रहा है; उसी तरह की दूसरी गुफा में एक भारी गोल शिला के रूप में उसका भाई भीम सिंह कोठारी बगल में आकर बैठ गया है और अपनी विशाल गर्जना के द्वारा दुर्योधन की जांघ पर प्रहार करते हुए कौरवों को हवा में उड़ते सूखे पत्तों की तरह भगा रहा है। अर्जुन अपने अचूक निशाने से एक-एक कौरव को घायल करके धराशायी कर रहा है। … चारों ओर चूना- पत्थर के टुकड़ों के रूप में सैकड़ों कौरव हाहाकार मचाए हुए हैं। …

एक और 'नौलेÓ में चकमक पत्थर की शिला के रूप में सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर खड़े उपदेश दे रहे हैं, तो अगली सुरंग में नकुल और सहदेव अपने-अपने तीर ताने गंगोली के देवदार वन की चौकीदारी कर रहे हैं। उनका नाम भी गांव वालों ने 'नौ कुल कोठारीÓ और 'सौ देव कोठारीÓ रख दिया है। … दाड़िमी को पांचवे नौले की 'दुर-पतीÓ सबसे प्रिय रही है, जो पांच भाई पांडवों से घिरी हुई साक्षात दुर्गा जैसी लग रही है… द्रौपदी की धोती इतनी लंबी है कि वह पाताल लोक के आखिरी कोने तक चली गई है, फिर भी उसका सिरा किसी को नहीं दिखाई दे रहा है… न किसी देवता, न मनुष्य और न राक्षस को। आठवीं सुरंग में एक ओर गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को धनुष-विद्या सिखा रहे हैं, तो दूसरी ओर चारों तरफ फैले नुकीले पत्थरों के बिस्तर पर सोए बाबा भीष्म द्रौपदी की हालत को देखकर दहाड़ मार-मार कर रो रहे हैं। दाड़िम दादी बचपन से ही जब भी इस नौले में जाती, सारे पांडवों के साथ हमेशा अपने आंसू भी चढ़ा आती। उसके जन्म के पहले से ही गंगोली के लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि आंसुओं का यह चढ़ावा ही उन नौलों रूपी मंदिर का प्रसाद होता है। जो भी भक्त यहां आता, दहाड़ मारकर अपनी भावना के कुछ आंसू यहां चढ़ा जाता और ऐसा करके उसे पूरा भरोसा होता कि भगवान उसकी मनोकामना पूरी कर देंगे।

दस साल की उम्र में, जिस दिन दाड़िम दादी की शादी हुई थी, उसने सबसे पहले इस आठवें नौले में ही जाकर घंटों आंसू बहाए थे और पांडव देवताओं से अपनी सुरक्षा और खुशहाली की ढेरों मन्नतें मांगी थीं। उसके मायके का गांव सामने की पहाड़ी पर था, जहां से वह बचपन से ही इन सारे 'पांडवों के नौलोंÓ को देख सकती थी। मायके के गांव के लोग भी यही मानते थे कि अपने हाथों में धनुष-बाण लिए अर्जुन, भीम सिंह, नौकुल और सौदेव कोठारी तथा सारी धरती के बराबर लंबी धोती पहनने वाली दुरपती चौबीसों घंटे उनकी रखवाली करते रहते हैं… उन्हीं के कारण उन पर कभी कोई विपत्ति नहीं आती। … जिस दिन इन नौलों से बाहर निकलकर उनके ये देवता रूठ जाएंगे, सारी दुनिया में 'परलयÓ आ जाएगा। …

और उस दिन सचमुच प्रलय आ ही गया था।
दाड़िम दादी जिस दिन कोठार गांव में ब्याह कर लाई गई थी, उसकी उम्र क्या रही होगी… मुश्किल से दस साल! इसके बाद उसकी जिंदगी के कितने दिन सुख से बीते होंगे… मुश्किल से दस और साल! मगर वो दस साल पांडव देवताओं की कृपा से बहुत ही अच्छे बीते। तब वह दाड़िम दादी नहीं, दाड़िम बहू थी। उसके जीवन की संचित मधुर स्मृतियां इसी दौरान की हैं। एक दिन उसका पति मोहनियां कोठारी चल बसा। सारा गांव उसके शोक में डूबा। दाड़िम बहू से भी अधिक बुरा लगा गांव के लोगों को। लेकिन जैसे सारा गांव एक दिन उस दुख को भुलाकर रोजमर्रा के कामकाज में व्यस्त हो गया, दाड़िम बहू भी जिंदगी के पुराने ढर्रे में लौट आई। सारे दु:ख भूलकर वह बांज, देवदार, कलौंज, भीमल, काफल, बेड़ू और उतीस के जंगल की दुनिया का अंतरंग हिस्सा बन गई। जंगल से लकड़ी, घास और कंदमूल लेने के लिए आते-जाते वह पेड़ों से बतियाती रहती, उनके नीचे बैठकर पल भर के लिए सुस्ताती और इस तरह उनके साथ उसकी गहरी दोस्ती हो गई थी। सारे पेड़ और गुफाओं-सुरंगों में रहने वाले पशु-पक्षी उसके भाई-बहिन जैसे ही बन गए थे और वह उनके साथ अपनी छोटी-छोटी बातें बांटती… हर तरह के सुख-दुख। इन दस सालों में ही उसने गंगोली के कोठार गांव के आसपास के जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौंधों की भाषा सीख ली थी। दाड़िम बहू उन सबसे बतियाती और उनके दुख-सुख ध्यान से सुनती। उसने कोठार गांव के जंगल में अपनी सुखी दुनिया बसा ली थी।

कोठार गांव की सीमा पर जो तुन, बांज, देवदार के घने और सेमल, पीपल और च्यूर के इक्का-दुक्का पेड़ खड़े थे, वही गांव को शेष दुनिया से अलग करते हैं। उन्हीं की जड़ों पर से जन्म लेने वाले जलस्रोत कहीं पर धरती के अंदर और कहीं जमीन के ऊपर झरनों के रूप में बहते हुए नीचे घाटी में बहती सर्पाकार नदी में मिल जाते हैं। नदी किनारे खूब लंबे-चौड़े खेत हैं, जिनमें धान और दूसरे पहाड़ी अनाजों की खेती होती है। दाड़िम बहू का वक्त इन सब के बीच कब गुजर जाता था, इसके बारे में उसने कभी नहीं सोचा। पति की स्मृति उसके दिमाग में सिर्फ इतनी-सी है कि कोई एक लड़का उसे अपने साथ कोठार गांव ले आया था… बस! वह कौन था, उसके साथ उसकी क्या भूमिका थी, इसके बारे में न उसे बताया गया था और न वह जानती थी।

शादी के बाद के उन दस वर्षों के छितराए हुए-से समय के टुकड़े को वह तरतीबवार याद नहीं कर सकती… हालांकि उसे लगता है कि उसी टुकड़े ने उसे जिंदगी की पहचान दी है। फिर भी, जीवन की इस कठिन यात्रा के बाद वह उस छोटे-से टुकड़े को आज भी साफ-साफ याद कर सकती है। …
उस दिन वह अपनी बाखली के आखिरी छोर वाले घर में आग लेने गई हुई थी। यह रोज का नियम था। हर घर का चूल्हा दूसरे के घर से मांग कर लाई गई आग से जलता था और आग के ये छोटे-छोटे टुकड़े (जिन्हें इनरुवा लाटा 'अग्नि देवताÓ कहता था) सिर्फ चूल्हे की लकड़ियों को ही नहीं, गांव भर के लोगों के दिलों में मौजूद आलोक को भी प्रकाशित करते हुए एक-दूसरे के साथ जोड़ते थे।

सुबह का उजाला चारों ओर फैल चुका था। अधिकांश सयानी औरतें गोठ में भैंसों को दुहकर रसोई में उसे कढ़ाई में गरम करने की जुगत में व्यस्त थी। कम उम्र की लड़कियां और बहुएं एक घर से दूसरे घर तक आग के आलोक का आदान-प्रदान कर रही थीं। लड़के आंगन के पेड़ों-झाड़ियों पर उत्पात मचा रहे थे और प्रौढ़ पुरुष सूरज की ओर मुंह किए, माथे के ऊपर हथेली की ओट लगाए दिन भर के कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करने की कोशिश कर रहे थे।

"आग चाहिए, एक पोत (चिंगारी)ÓÓ, दाड़िम बहू ने, जो तब छलकती किशोरी थी, गृहस्वामी इनरुवा कोठारी से कहा था।
"निकाल ले जा दो पोत… छार में दबा हुआ है जला कोयलाÓÓ, इनरुवा लाटा ने अपने छज्जे पर बैठे-बैठे ही कहा। उसकी आंखें बाहर आंगन के कोने पर खड़े दाड़िम के पेड़ पर थीं। उसी पल इनरुवा की नजर दाड़िम बहू के चेहरे पर पड़ी। … 'दोनों आपस में कितने मिलते हैं… दाड़िम बहू और खेत के किनारे खड़े पेड़ पर लटका दाड़िम का फल…Ó इनरुवा के दिमाग में विचार कौंधा… मगर उसने उसे वाणी नहीं दी।
'आग का पोत मैंने निकाल लिया है और कोयले को फिर से छार से ढक दिया है। उससे अपने चूल्हे की आग जलाकर पोत को फिर से छार से ढक देना, हां…Ó दाड़िम बहू ने कहा।
दाड़िम बहू का चेहरा ओझल हो जाने के बाद भी देर तक इनरुवा की आंखों के सामने टंगा रहा। उसने उस चेहरे को पूरी हिफाजत से सहेजकर रख लिया। दाड़िम बहू को इसकी कोई खबर नहीं थी, वह रोज ही आग लेने के लिए इनरुवा के घर जाती, हालांकि कुछ दिनों के बाद वह शाम की आग लेने के लिए भी उसके घर जाने लगी। आग लेने का यह सिलसिला लगातार चलता रहा, एक दिन हर रोज लाई जाने वाली उस चिंगारी ('पोतÓ) ने सचमुच ही पूरे गांव में आग दहका दी।
…'शास्त्रÓ शब्द दाड़िम बहू ने उस दिन पहली बार सुना था। …

'शास्त्रों के अनुसार यह घनघोर पाप है। दस दिनों के बिरादर को जूठा कर दिया है इस पापिन ने!… हमें क्या मालूम था कि यह आग लेने नहीं, बिरादरी में आग लगाने उस घर में जाती है।Ó पुरोहित केशवानंद ने कहा था।

'सात फेरे किसी और के साथ लिए और अपना पेट भर लिया किसी और के साथ जाकर!Ó निचली धार में रहने वाला भिमुवा ल्वार अपने ऑफर (भट्टी) में दराती की धार को जलाकर पीटता हुआ बड़बड़ा रहा था।

दाड़िम बहू की समझ में कुछ भी नहीं आया था। कैसी बातें कर रहे हैं ये लोग। वह तो यही समझती रही थी कि आग का यह लेन-देन उनके स्नेह और उपकार का आदान-प्रदान है।

'इनरुवा हो, क्या हुआ ये सब?… दाड़िम भौजी के बारे में क्या कह रहे हैं लोग-बाग?Ó नदी किनारे अपने घट (पनचक्की) के अंदर ही रहने वाला शेरुवा, जिसका पूरा शरीर हमेशा आटे से रुई के फाहों की तरह ढका रहता था, पानी की गूल से ही इनरुवा को देखकर आंखों के ऊपर हथेली की ओट देकर चिल्लाया।
'ठीक ही कह रहे हैं। अच्छा ही होता अगर वह मेरे घर आ जाती। …Ó घट की चक्की के शोर के बीच ही हकलाते हुए चिल्लाया इनरुवा, 'आग देवता को लेने तो रोज ही आती है वह, कितना अच्छा होता अगर ऐसा हो ही जाता।Ó इनरुवा याद करने की कोशिश करने लगा कि वह लछुवा की संतानों की कितनी पीढ़ियों के बाद इस दुनिया में आया होगा। … कम से कम सत्तर-अस्सी पीढ़ियां तो तब से लेकर आज तक गुजर ही चुकी होंगी। …

इनरुवा लाटा दूसरे ही दिन गांव के सबसे बुजुर्ग घुरू-बू के पास गया। पैंसठ वर्षीय लंबे चौड़े सुदर्शन रूपाकार वाले घुरू-बू जगत् दादा थे, सभी लोग उन्हें 'बूबूÓ (दादा) पुकारते। घुरू-बू इनरुवा के प्रकरण से परिचित थे, फिर भी सारे मामले को उन्होंने इनरुवा की जुबानी सुना तो अपना निर्णय देने में वह खुद को सहज महसूस करने लगे। पहली बार इनरुवा को कोई मिला जो उसकी भावनाएं समझता था। खुद इनरुवा को भी घुरू-बू से इतने आत्मीय और सद्भावनापूर्ण व्यवहार की उम्मीद नहीं थी, 'ठीक कह रहा है रे इनरुवा। मैं तेरे साथ हूं। तू जैसा करना चाहता है कर ले, फिकर मत कर। … हं रे, तू तो इनरुवा ठैरा, साक्षात इंदर भगवान का अवतार। क्यों? तब फिर डरना कैसा?Ó

गांव में जिसने भी घुरू-बू की बात सुनी, भौंचक रह गया। बात घुरू-बू ने कही है तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता, हालांकि ऐसी बात को गलत कैसे नहीं माना जाय! सारे शास्त्र जिसे गलत कहते हैं, घुरू-बू उसे कैसे सही कह सकते हैं। … बात कैसी भी क्यों न हो, गलत बात को सही तो नहीं कहा जा सकता है न!… ये क्या हो गया घुरू-बू को?…
इनरुवा को पूरे समाज का विरोध झेलना पड़ा, मगर अकेले घुरू-बू का समर्थन उसके पास इतनी बड़ी ताकत थी कि उसने फैसला किया कि वह किसी की परवाह नहीं करेगा। पूरे गांव के पीछे शास्त्र की ताकत थी जब कि इनरुवा के पीछे अकेले घुरू-बू की, जो भीष्म पितामह की तरह उसके सामने खड़े थे। भीष्म पितामह के बारे में भी इनरुवा को घुरू-बू ने ही बताया था। उसे यह सोचना अच्छा लगा कि वचन के पक्के उसके दादा एकदम भीष्म पितामह की तरह हैं। भीष्म पितामह ने भी तो मछुआरे की बेटी के साथ अपने पिता की शादी करवाने के लिए आजन्म ब्रह्मचारी रहने का फैसला लिया था। ठीक उसी तरह घुरू-बू भी बिरादरी की परवाह किए बगैर उसका समर्थन कर रहे थे। इनरुवा को अपनी बात पर इसलिए भी भरोसा था कि ऊपर शिखर पर पांडवों के नवें नौले में नुकीले चकमक पत्थरों के बिस्तर पर सोई हुई भीष्म पितामह की महान आत्मा जिस तरह सैकड़ों सालों से कोठार गांव की रखवाली करती रही है, घुरू-बू की कही गई बात भी एक दिन सच होकर रहेगी।

दाड़िमी बहू नौकुड़ी बाखइ के बांई तरफ के आठवें घर में रहती थी, जबकि बाखइ का दाहिनी ओर से पहला घर इनरुवा का था। बीच में पूरे सात घर पड़ते थे और सभी में भरे-पूरे परिवार रहते। पूरी बाखइ में खूब चहल-पहल रहती, इस सबसे बेखबर इनरुवा हमेशा दाड़िमी बहू की यादों में खोया रहता। हर वक्त वह अपने मन में दाड़िमी के बिंब बनाए रखता… काश, उसके घर के एकांत में महज दो लोग होते – इनरुवा और दाड़िमी।

एक दिन हिम्मत करके चौथे घर वाले खीम सिंह कोठारी ने कहा इनरुवा से, 'हं रे इनरुवा, दाड़िम का आदमी मोहनियां तुम्हारा दस दिन का बिरादर हुआ। खून का रिश्ता हुआ तुम दोनों के बीच। … कैसी अनहोनी कर रहा है तू? ऐसा कैसे हो सकता है।Ó
अपने सदाबहार शांत मिजाज में हकलाते हुए बोला इनरुवा, 'हो क्यों नहीं सकता खिमू कका, उसे अपनी जिंदगी खुशी के साथ गुजारने का हक है कि नहीं? क्यों जीतेजी बेचारी को नरक में धकेल रहे हो!Ó

'वह विधवा है रे। विधवा की जिंदगी उसके आदमी के साथ ही खतम हो जाती है। कोई दूसरा आदमी उसकी जगह नहीं ले सकता। ऐसा शास्त्रों में कहा गया है, हमारे मन से सोची गई बात नहीं है।Ó

'घुरू-बू तो राजी हैं इस रिश्ते से। वह हमारे गांव के ही तो बुजुर्ग हैं। इतनी बड़ी उमर उन्होंने ऐसे ही नहीं गुजारी है। अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित का उनको तुमसे ज्यादा ज्ञान है। नहीं है तो तुम ही बताओ कि मैं कैसे गलत हूं। शास्त्रों की बात को छोड़कर। क्यों?Ó

'कैसी बात करते हो इनरुवा। शास्त्रों के फैसले बाद कहने को रह ही क्या जाता है! जहां शास्त्र का ठप्पा लगा, बात खतम।Ó खीम सिंह कोठारी ने भी अपनी बात खत्म की। …
'आदमी से बड़ा इस संसार में और कोई नहीं है इनरुवा,Ó घुरू-बू ने एक दिन इनरुवा को अपने घर बुलाकर कहा। घुरू-बू का घर 'दरमाड़िÓ कोठार गांव के निचले छोर पर था। पत्थर की छत और देवदार के तख्तों से बनी पहली मंजिल के फर्श पर नक्काशीदार दो खिड़कियां और उनके बीच विशालकाय मुख्य दरवाजा था, जिसे 'खोलीÓ कहा जाता था। यह मकान घुरू-बू की पांच पीढ़ी पहले के पुरखे ने बनाया था। तीसरी पीढ़ी के परदादा की पांच संतानें थीं – तीन बेटे और दो बेटियां। तीन बेटों में से घुरू-बू के दादा को छोड़कर दो बेटे ऊपर गांव में मकान बनाकर बस गए थे और दादा के भी जो दो लड़के हुए, उनमें ताऊ ने विवाह नहीं किया। घुरू-बू अकेली संतान, अपने ताऊजी के पदचिह्नों में चलते हुए इतने बड़े घर में अकेले रहने लगे। बहनों की शादी हो चुकी थी, कभी-कभार कोई बहन भेंट करने के लिए मायके चली आतीं। घुरू-बू का सारा वक्त कभी घर में अकेले और कभी गांव में लोगों के विवाद निबटाने में बीतता। यों भी, उनका वक्त अपने घर में कम ही बीतता था।

हिंदुस्तान के नक्शे में जो स्थिति श्रीलंका की है, उल्टे त्रिभुजाकार गांव कोठार से जुड़े घुरू-बू के घर दरमाड़ि की स्थिति ठीक वैसी ही थी। खुद घुरू-बू को भी मालूम नहीं था कि उनके घर का नाम दरमाड़ि क्यों पड़ा और किसने यह नाम इस घर को दिया। दरमाड़ि से गांव का आखिरी घर दस-बारह छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेतों के बाद था इसलिए गांव के लोग जब भी उनके घर का जिक्र करते, ऐसे करते मानो किसी दूसरे गांव की बातें कर रहे हों।

इस रूप में अनेक बार लोग दरमाड़ि का उल्लेख एक अलग गांव या कभी गांव के उपनिवेश के रूप में किया जाता। एक ऐसा उपनिवेश, जिसका भूगोल अपने मूल स्थान से अलग नहीं है, फिर भी वह अलग दिखाई देता है। यह स्थिति गांव के संदर्भ में ही नहीं, घुरू-बू के बारे में भी उतनी ही सच थी, जिनका रहन-सहन और वैचारिक स्तर पूरे गांववासियों से एकदम फर्क था। घुरू-बू को इसका लाभ इस रूप में मिल जाता कि उनके नाम की पहचान दोनों जगहों के साथ जुड़ गई थी, हालांकि उनकी अलग पहचान 'दरमाड़ि के घुरू-बूÓ के रूप में ही थी। लोग जितनी सहजता से उनके आवास के लिए 'घुरू-बू का कोठार गांवÓ का प्रयोग करते, उसी तर्ज पर 'घुरू-बू की दरमाड़िÓ कहते।
दरमाड़ि के घर की खास पहचान उसके अगल-बगल उगे हुए च्यूर के दो भारी-भरकम पेड़ थे और यह पहचान इसलिए भी खास थी कि गांव में किसी और के पास च्यूर के पेड़ नहीं थे। च्यूर के लिए जिस तरह की समशीतोष्ण जलवायु की जरूरत होती है, पूरे इलाके में शायद दरमाड़ि ही उसके लिए उपयुक्त जगह थी। यह पेड़ कई रूपों में प्रयोग में लाया जाता था। इसके पत्तों को मवेशी बड़े शौक से खाते, भैंसें उन्हें खाकर गाढ़ा-स्वादिष्ट दूध देतीं, इसके फूल और फल मीठे और जायकेदार होते, बीजों को पेर कर बढ़िया दानेदार घी बनता था और घी निकालने के बाद जो खली बचती थी, उसे भी जानवर बड़े शौक से खाते। यह खली खेतों के लिए बेहतरीन जैविक खाद के रूप में भी इस्तेमाल की जाती।
दरमाड़ि की एक और खासियत यह थी कि यहां से नीचे घाटी में बहती नदी और ऊपर लछुवा कोठारी के नौलों की दूरी बराबर थी, यानी यह इलाके के ठीक मध्य में था। इतनी खासियतों के होते हुए भी यहां गांव की-सी चहल-पहल नहीं रहती थी। गांव की दो-एक औरतें (कभी एक और कभी दो) घुरू-बू के द्वारा पाली गई भैंस के लिए घास के कुछ पूले डाल जातीं और सुबह या शाम, जब भी सुविधाजनक होता, गोबर झाड़-बटोर कर खेत के किनारे खाद के ढेर में डाल जातीं। जहां तक भैंस का दूध दुहने की बात थी, यह काम घुरू-बू खुद ही करते। कभी अगर रात को गांव में ही रुकना पड़ गया तो किसी अनुभवी रिश्तेदार को दरमाड़ि भेज देते, जो भैंस को दुहकर उसके आगे घास-पात डाल आता।
घुरू-बू के गोठ में जो भी भैंस बंधी रही, हमेशा सीधी-सादी 'गऊ-देवताÓ रही… जिसने भी उसका थन छुआ, चुपचाप उसे ही दूध दे दिया। पानी का स्रोत बगल के खेत में ही था, जिसके चारों ओर उनके किसी पुरखे ने नौला चिन दिया था, इसलिए पीने और सिंचाई के लिए पानी की इफरात थी। मकान से लगे खेत का एक हिस्सा पुराने समय से ही हरी सब्जी, कंदमूल और लहसुन-प्याज-आलू-घुइयां वगैरह के लिए और उसी से चिपका हुआ दूसरा टुकड़ा तंबाकू के पौधे उगाने के काम में लाया जाता। तंबाकू की खेती करने के पीछे घुरू-बू का स्वार्थ सिर्फ नशे का अमल बुझाना नहीं था, गांव से अलग छिटकी इस पहाड़ी पर कुछ विषैले सांपों ने बिल बनाए हुए थे और घुरू-बू जानते थे कि सांप तंबाकू के खेतों के पास नहीं फटकते।

उस दिन जब घुरू-बू ने इनरुवा को दरमाड़ि बुलाकर गहरी आत्मीयता जताते हुए कहा, 'आदमी से बड़ा इस संसार में और कोई नहीं है इनरुवा,Ó तो जो बात सबसे पहले उसके दिमाग में कौंधी थी, यह थी कि भाड़ में जाएं बिरादरी वाले। उस बेचारी दाड़िमी को बेसहारा छोड़ देने का क्या हक है गांव वालों को! कहना तो बड़ा आसान होता है, लेकिन जिसको नरक भुगतना पड़ता है वही उसकी तकलीफ जानता है। गांव वालों का क्या जा रहा है बोलने में, निकाल दिए मुंह से दो आंखर। भुगतना तो भुगतने वाले को ही पड़ता है। …

उसी दिन घुरू-बू ने अपनी खास भाषा में इनरुवा को विस्तार से समझाया था कि उन लोगों का कुल-देवता भीष्म पितामह ऐसे ही देवता नहीं बन गया। सर्वगुण संपन्न इस गंगापुत्र को कदम-कदम पर सताया गया, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। लोग तो अपनी संतान के लिए कुर्बानी देते हैं, हमारे इस पुरखे ने अपने बाप के लिए कुर्बानी दी, अपनी सौतेली माता के लिए कुर्बानी दी। खुद आजन्म ब्रह्मचारी और राजपाट से दूर रहकर अपने पिता को उसकी प्रेमिका दिलाई। … अरे, जिस मोहनियां के पल्ले से उसको बांधा गया था, उसे दाड़िमी ने देखा ही कहां? आठ-दस साल की बच्ची थी वह उन दिनों। जिस दिन उसे होश आया, उसने तो सबसे पहले तुमको ही देखा न! अब तुम ही तो हुए उसके आदमी? बताओ, हुए कि नहीं? तुमको अपना फर्ज निभाना चाहिए कि नहीं… कहने दो शास्त्र को, जो कहता है। आदमी से बड़ा थोड़े ही है शास्त्र। शास्त्र को आदमी ने बनाया है, आदमी को शास्त्र ने नहीं। …

घुरू-बू और इनरुवा का यह सत्संग बहुत दिनों तक नहीं चल पाया। कुछ दिनों के बाद एक दिन अचानक घुरू-बू चल बसे। जब तक वह जिंदा थे, उन्होंने लोगों को समझाने की कोशिश की, समझाने में सफल भी होने लगे थे, लेकिन उनके न रहने पर समर्थकों का सुर ही बदल गया। लोगों ने एक-जुबान में कहना शुरू कर दिया कि वे लोग शास्त्र के खिलाफ नहीं जा सकते। इनरुवा के खिलाफ पुरोहितों ने मोर्चा संभाल लिया, कहते हैं उन्हीं में से किसी ने घुरू-बू के खाने में जहर मिला दिया था। अब मैदान एकदम साफ था, लेकिन इनरुवा अकेला पड़ गया। दाड़िम बहू अकेली पड़ गई। वे दोनों एक बनना चाहते थे, गांव वालों ने उनके सारे रास्ते बंद कर दिए।
पुरोहितों ने ही आखिर में रास्ता सुझाया, 'सबको इस संसार में जीने का अधिकार है। आत्महत्या करना अपराध है, लेकिन शास्त्र के खिलाफ आचरण करना उससे भी बड़ा अपराध। एक ही रास्ता है, दाड़िम बहू को देवता को समर्पित कर दिया जाए। इस तरह उसकी कोख में पल रहा जीव भी पवित्र हो जाएगा। उसे भी जीने का हक मिल जाएगा।Ó इनरुवा पागलों की तरह चिल्लाता रहा, इस बात की भीख मांगता रहा कि उसकी संतान उसे पालने दी जाए, लेकिन कोठार गांव का कोई आदमी उसके पक्ष में नहीं खड़ा हुआ। किससे बहस करता इनरुवा। उसकी भावनाओं को समझने वाले घुरू-बू नहीं रहे थे, उस तरह की सोच वाला आदमी वह कोठार गांव में कहां से लाता? कोठार के शिखर पर के नौलों में लिखी गई महाभारत की इबारत हालांकि अभी भी वहां थी, मगर अब उसे पढ़ने वाला कोई नहीं था। इनरुवा और दाड़िमी की लाख कोशिशों के बावजूद उनका पाठ गांव वालों की समझ में नहीं आया, न गांव वालों का पाठ उन दोनों की समझ में। …

कुछ महीनों के बाद नदी किनारे के एक उपेक्षित मंदिर में एक माई (भक्तिन) छोटे-से शिशु के साथ दिखाई दी। माई तो वहां लगातार ही रह रही थी, लेकिन बच्चा एक दिन गायब हो गया था। यह घटना इतनी जल्दी में घटित हुई कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। मिट्टी-पत्थर की काई-पुती, सीलन से गल गई दीवारों से घिरे इस मंदिर में बेडौल आकार के कुछ पत्थर और लोहे के त्रिशूल-चिमटे और घंटियां फर्श और दीवार पर रोपे गए थे, जो अब दाड़िमी माई के देवता थे। कोठार वालों ने दाड़िमी को इन देवताओं को समर्पित कर दिया था। कल तक उसके देवता इनरुवा को अपना पति स्वीकार करने की जिन लोगों ने अनुमति नहीं दी थी, आज उन्होंने ही एक साथ तैंतीस करोड़ पति उसे सौंप दिए थे। पत्थरों और त्रिशूल-चिमटों से सजे सीलन भरे जिस मंदिर में कल तक कोई झांकता भी नहीं था, अब कोठार ही नहीं, पूरे गंगोली इलाके के सयाने मर्द और औरतें हाथ जोड़े हुए माई के आशीर्वाद के लिए तरसते दिखाई देने लगे थे। …

इनरुवा कहां गया इस बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं पड़ा। कुछ लोगों का कहना था कि उसे एक बार दरमाड़ि के घुरू-बू वाले खाली घर में एक बच्चे के साथ घुसते हुए देखा गया था, लेकिन अपनी नौ कुड़ी बाखइ में वह फिर कभी नहीं लौटा। बाखइ का उसका घर घुरू-बू की दरमाड़ि की तरह बीरान हो गया। …

दो : पुनर्जन्म
इनरुवा जोगी और दाड़िमी माई
"नमोऽऽऽ नरैणÓÓ, दाड़िमी माई ने मंदिर के कोने में किसी भारी चीज के गिरने की आवाज सुनी तो अपेक्षाकृत जोर से कहा, "कौन है बाहर… परेशानी-तकलीफ में तो नहीं है कोई… नमो… नरैण!…ÓÓ
कोई उत्तर नहीं मिला तो ओढ़े हुए कंबल को कंधों से हटाकर बड़बड़ाती हुई खिड़की से झांकने के लिए उस ओर बढ़ी। बाहर अंधेरा था और कोहरा। ऐसे में कौन दिखाई देता। वापस आकर अपने तखतनुमा बिस्तर की ओर बढ़ने लगी तो किसी के कराहने और रोने की आवाज कानों में पड़ी। ऐसा लगा कि कोई बहुत तकलीफ में है। … इतनी सांझ को बरसाती फुहारों और ठंड के बीच कौन हो सकता है?…
इस बार वह लकड़ी के भारी दरवाजे की ओर बढ़ी। कमरे के दाहिने हिस्से में जल रही धूनी का उजाला कमरे में चारों ओर फैला हुआ था, जबकि बाहर पूरी तरह अंधेरा पसरा हुआ था। निपट सन्नाटे के बीच बांज के पेड़ों की छाल में चिपटे हुए झींगुरों और बहती हुई नदी का मिलाजुला शोर अंधेरे के साथ मिलकर अकेलेपन को और अधिक मुखर बना देता था।
इस बार तुन के बने उस सीलन-भरे भारी-भरकम दरवाजे को पूरे जोर से अंदर की ओर खींचा, तो जबरदस्त रगड़न से एक दूसरे ही तरह की चीख वातावरण में फैल गई। मगर दाड़िमी माई को नदी का भुतहा शोर जरा-भी अटपटा नहीं लगा।

बाहर कोई हलचल नहीं थी। नदी में उभरी हुई चकमक पत्थर की एक शिला का गुंबदनुमा सिरा अस्पष्ट झिलमिला रहा था। एक सियार पूंछ झुकाए हुए मंदिर के किनारे-किनारे जंगल की ओर निकल गया था। झुटपुटे अंधेरे के बीच ही एक साही की तीखी आवाज के साथ पंख की तरह गोलाकार उभरे उसके श्वेत-श्याम कांटों का सफेद हिस्सा चमक रहा था। दाड़िमी माई इन सारे जीवों और उनकी हरकतों से परिचित थी, इसलिए किसी भारी चीज के गिरने से हुई आवाज के पीछे मौजूद कारण को जानने की जिज्ञासा उसके मन में बढ़ती चली गई।

"नमोऽऽऽ नरैण!ÓÓ… एक बार फिर आवाज में जोर देकर वह चिल्लाई, "कोई है यहां?… ये कराहने की जैसी आवाज किसकी आ रही है। …ÓÓ
फिर से वही भुतहा अशांति चारों ओर फैल गई। एकाएक कुछ याद आया। … किशन कहां होगा… ऐसे ही सन्नाटे के बीच एक दिन किशन को एक जोगी जबर्दस्ती उसके कमरे से छीन ले गया था। … काफी समय के बाद जब उसकी नींद खुली तो वह जंगल में भटकती रही थी, मगर किशन हाथ नहीं आया। उसका मन कहता था कि वहां उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। … लेकिन ऐसे छीनकर क्यों ले गया वह किशन को? इनरुवा के ही जैसे रूपाकार का कौन-था वह लुटेरा… और दाड़िमी ने उसे खोजने की कोशिश क्यों नहीं की। क्या वह जानती थी उस लुटेरे को? अगर वह दाड़िमी से उस बच्चे को मांगता तो क्या वह उसे नहीं देती? उन दोनों के बीच क्या कोई रिश्ता था?
वास्तविकता यह है कि दाड़िमी अब किशन के बारे में नहीं सोचती। … इस अकेली भुतहा कुटिया में रहते हुए उसे कितने ही बरस गुजर गए हैं। वह भिक्षा मांगने कोठार गांव में नहीं जाती। अपने मायके के गांव भी नहीं जाती। कभी दूसरी ओर की पहाड़ी के गांवों में दूर-दूर तक जाती है। वहां से भी ज्यादा भिक्षा नहीं लेती। पेट भरने के लिए नदी किनारे और जंगल से खूब कंदमूल मिल जाता है।

"कौन है यहां?ÓÓ, इस बार उसने साफ महसूस किया कि आदमी की आवाज में अंधेरे के बीच सीलन भरी तकलीफ तैर रही थी। … कोई है जरूर… यह आवाज जानवर की तो कतई नहीं है। ऐसी आवाज पिछले पांच-छह सालों में उसे पहले कभी नहीं सुनाई दी थी।

बहुत ध्यान से उसने आवाज के पीछे अपने कान दौड़ाए। इस बार कराह की दिशा को उसने चीन्ह लिया। अंदर गई। धूनी से एक जलती लकड़ी निकाली और उसके प्रकाश में कराह की दिशा की ओर बढ़ी। … अपनी ओर टुकुर-टुकुर ताकती आदमी की आंखों को उसने आसानी से पहचान लिया। वह तेजी से उस ओर बढ़ी।
"कौन है यहां?,ÓÓ उसने आवाज में खम देकर पुकारा। कपड़ों के चीथड़ों से भरे किसी ढीले थैले की तरह पड़े उस आकार को उसने तलाशना चाहा, मगर दूसरे ही पल रुक गई। यह जानते हुए कि वह कोई आदमी ही है, पल भर के लिए विचार आया कि कहीं वह कोई जानवर हुआ तो… कोई चोट खाया जानवर!… आदमी की आकृति में हलचल हुई और वह जमीन से उठने की कोशिश करने लगा। जैसे किसी सहारे को तलाश रहा हो। दाड़िमी माई ने अपना हाथ उस ओर नहीं बढ़ाया। शायद वह असमंजस में थी कि उसे ऐसे व्यक्ति को सहारा देना चाहिए या नहीं।

"छूत की बीमारी है मुझे। …ÓÓ उस गुड़मुड़ आकृति में से रुक-रुक कर कराह भीगी आवाज पैदा हुई। लगा कि वे शब्द नहीं, गहरी पीड़ा में से निचुड़कर आता हुआ दु:ख हो, "पलधार (दूसरी पहाड़ी) के मेरे बिरादर ऊपर डाने (शिखर) पर से मुझे धक्का दे गए। सोचा होगा नीचे पहुंचने तक दम तोड़ दूंगा, लेकिन मेरे प्राणों ने मेरा साथ नहीं छोड़ा।ÓÓ कराह के बीच उभर रहे शब्दों के आकार के बिंब दाड़िमी माई साफ देख पा रही थी।
"कौन हो तुम, क्या नाम है, कहां के रहने वाले हो?… यहां पर किसने धक्का दिया तुमको?… ऐसे जबर्दस्त ढलान में तुम बचे कैसे रह गए? तुम्हारे अंदर का जीव तो बड़ा जबर्दस्त मालूम होता है भगत… नमो… नरैण। …ÓÓ दाड़िमी माई ने थैले के आकार के उस आदमी से एक साथ अनेक सवाल पूछ डाले। इस बार वह कुछ भी नहीं बोला। कराह का स्वर जरूर कुछ अस्पष्ट हो गया था।

"अंदर चलो, वहां उजाले में देखती हूं। अभी सांस बची हुई है और मुंह से बोल रहे हो तो ठीक हो जाओगे। नमो… नरैण… भगवान की सबसे कीमती देन होती है यह जिंदगी भया… जब तक सांस में सांस है, इसे संभाल कर रखना चाहिए। देखती हूं कितने बचे हैं प्राण। … चोट में पत्ती-पंखुड़ी रगड़कर देखती हूं, खून का आना तो बंद हो। …ÓÓ
"खून-पीब के दागों से भरा हूं मैं। वो लोग कहते हैं, कोड़-खुजली से सड़ गया हूं। … तभी तो वो लोग मुझे डाने पर से धक्का दे गए। … ऐसी हालत में तुम भी क्या कर सकते हो। … तुमको भी सर जाएगा ये रोग। अब ऐसे ही मरना है मुझे। … मैं अच्छा नहीं हो सकता। …ÓÓ वह अपनी रही-सही ताकत को समेटकर एकाएक फूट-फूट कर रो पड़ा।
दाड़िमी माई से अब नहीं रहा गया। मंदिर के किनारे एकत्र किए गए चीड़ के छिलकों में से एक को उसने धूनी की आग से छुआया तो पलभर में ही उसका लीसा जलकर चारों ओर उजाले के रूप में फैल गया। छिलके की मशाल उस आकृति के पास ले गई तो मुंह से एक दबी-सी चीख निकली, "नमो… नरैण… तुम तो शिशौण के भूड़ (बिच्छू बूटी की झाड़ी) में पड़े हुए हो। … इसके झूस (बारीक कांटे) तुमको चुभ नहीं रहे हैं?… उठो इस पर से…Ó

अपनी हालत से बेखबर वह आदमी सहसा चौंका। मानो उसे कुछ हुआ ही न हो! देह में कपड़ा नहीं, जगह-जगह खून के गंदे चकत्ते-से उभरे थे। एक गंदे कपड़े से शरीर लपेटा गया था जिसके फटे हिस्सों से दाग दिखाई दे रहे थे। लगता था, उसे शरीर में किसी तरह की सनसनी नहीं महसूस हो रही थी, इसीलिए वह नंगे बदन बिच्छू बूटी के इतने बारीक जहरीले कांटों से घिरा होने के बावजूद चेष्टाहीन पड़ा था। इतमीनान से, मानो कपड़े की किसी गठरी का बंधन ढीला करके खोला गया हो, सरकता हुआ वह झाड़ी के किनारे के लगभग सुरक्षित स्थान की ओर बढ़ा और कराहते हुए बैठ गया। मानो वह अपनी देह से पूरी तरह बेखबर था।

"अंदर चलो, धूनी के पास। वहां उजाला भी है और थोड़ी गर्मी भी मिलेगी। तुम्हारे घाव भी दिखाई देंगे। वहीं पर कुछ सोचते हैं।ÓÓ
"नहीं…, तुमको भी सर जाएगा ये रोग। मुझे तो मरना ही है… तुम क्यों अपने लिए जानबूझकर…ÓÓ अटक-अटक कर कराहता हुआ वह अपनी बात समझा रहा था।
दाड़िमी माई ने उसका हाथ पकड़ना चाहा तो जैसे कोई जहरीला सांप जीभ लपलपाता उसकी ओर बढ़ा हो, अपनी पूरी ताकत लगाकर आदमी पीछे सरकता हुआ चिल्लाया, "नहीं-नहीं, मरने दो मुझे। वो लोग मुझे यहां इसीलिए तो फेंक गए हैं ताकि मैं इसी तरह गल-गल कर मर जाऊं।ÓÓ इस बार उसकी आवाज में किसी तरह का दु:ख या अवसाद नहीं था। मानो वह अपनी नियति स्वीकार कर चुका था।

मगर हाथ थाम ही लिया दाड़िमी माई ने। … "मैं भी कहां जिंदा हूं भया, इस भासी (घने) जंगल में… मुझे भी किसके लिए जिंदा रहना है। … मर भी जाती हूं तो कौन है रोने वाला मेरे लिए!…ÓÓ उसने मन-ही-मन में सोचा, लेकिन कहा नहीं। किसको अपनी व्यथा सुनाए, कौन है उसकी बातें सुनने वाला यहां?… उसने हाथ पकड़कर खींचा तो लगा, मानो हथेली किसी लसलसे पदार्थ से सन गई हो। फिर भी हाथ नहीं छोड़ा उसने और उसे कमरे की ओर घसीटती चली गई। अब तक वह भी कुछ संभल चुका था। कराहते हुए ही वह उठा और घिसटता हुआ दाड़िमी माई के पीछे हो लिया।

चीड़ के छिलके डालकर धूनी की आग तेज की उसने… और जब चारों ओर उजाला ही उजाला फैल गया तो उसने गौर से गठरीनुमा उस जीव को तलाशा। शरीर का बड़ा हिस्सा घावों से भरा पड़ा था और कहीं-कहीं खून के थचके जमे हुए थे। उसे ताज्जुब हुआ कि वह जिंदा कैसे है! कुछ पलों के लिए भ्रम भी हुआ कि कहीं यह आदमी नहीं, जंगल का कोई घायल जीव ही हो। उसी पुराने धैर्य के साथ वह खड़ी रही और सोचने लगी कि उसे क्या करना चाहिए। वह पूछना चाहती थी कि उसे ऊपर पहाड़ी से इतनी निर्दयता के साथ क्यों फेंका लोगों ने, दूसरे ही पल खुद ही उसका जवाब पा लिया कि परिजनों के पास इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा होगा।

अब वह कुछ सावधान हो गई थी। लगभग हड़बड़ाहट में ही, वह धूनी पर से जलती लकड़ी उठाकर बाहर निकली और एक कपड़े को हाथ में लपेट कर शिशूण की बड़ी टहनी तोड़ लाई। वह नहीं जानती थी कि उसे इसका क्या करना है… एकाएक जैसे किसी अदृश्य संकेत के वश में हो, शिशूण की टहनी को सिलबट्टे पर रखकर कूटने लगी। करीब आधे घंटे तक वह तेजी से पत्ते और उनकी डंठल कूटती रही और जब सिलबट्टे के ऊपर काफी मात्रा में लसलसा पदार्थ जमा हो गया, उसने करछी से एक कढ़ाई में समेट कर उसे आदमी के शरीर में पोतना शुरू किया। वह नहीं जानती थी कि उसे ऐसा करना चाहिए था या नहीं, मगर इस वक्त ऐसा करने के सिवा उसके पास कोई और रास्ता नहीं था। आदमी उसी तरह निश्चेष्ट पड़ा रहा, मानो उसे इस बात का अहसास ही न हो कि उसके शरीर में कोई देह भी है। …

पूरे शरीर में बिच्छू बूटी का लेप कर चुकी तो उसने एक कटोरे में भरकर लसलसे पदार्थ को उसके हलक में भी डाल दिया। उसे लगा कि आदमी का दर्द कुछ कम हुआ है और वह सिलबट्टे को नदी की ओर सरका कर नदी के पानी से ही अपने हाथ और पांव धो लाई। उसे खुद भी महसूस हुआ कि वह तनावमुक्त हो गई है। आदमी की आंखों में उसने झांकने की कोशिश की, उसमें कृतज्ञता का भाव तो था ही, लगा कि उसे चैन मिला है। अब उसके पास उस आदमी के लिए कोई काम नहीं था, एक गहरी सांस लेकर वह अपने तख्त पर गई और कंबल ओढ़कर सोने की कोशिश करने लगी। कुछ देर बाद जैसे कुछ याद आया हो, धूनी में लकड़ी का एक और मोटा टुकड़ा डाला, कोयले और लकड़ियों की राख झाड़ी और जब आग दहक गई, बिस्तर पर कंबल ओढ़कर सो गई।

रोज की तरह भोर होते ही पयां के पेड़ पर उसे जगाने वाली चिड़िया की चहक से वह उठी, तो सबसे पहले उसकी नजर कोने पर सोए आदमी पर पड़ी। इस बार उसने उसके घावों पर नजर डालने की जरूरत नहीं समझी, मानो वह इस बात को लेकर आश्वस्त हो कि उसका इलाज कारगर हो गया है। वह कराह नहीं रहा था, यही उसके संतोष के लिए काफी था। उठकर रोज की तरह वह नदी किनारे गई और सूरज भगवान की दिशा की ओर देखकर हाथ जोड़ते हुए अपने दिमाग में एकाध पल के लिए अतीत के बिंब बनाने लगी। क्षितिज पर फैले घने बादलों के बीच गुलाबी रेखाएं फैली हुई थीं… वहां पर किसी बीते दिन देखे गए सूरज भगवान का हल्का-सा बिंब उसके दिमाग में बना, इसके बाद उसने ज्यादा कुछ नहीं सोचा। दोपहर के खाने के बारे में उसने सोचने की कोशिश की तो अपनी अपेक्षा उस आदमी को लेकर सोचने लगी।
"नमोऽऽऽ नरैण!… खाना खाओगे कुछ?ÓÓ

वह कुछ नहीं बोला। जरूरी नहीं कि उसे नींद आई हो और उसने दाड़िमी की बात सुनी हो। इतने सारे ताजे घावों के होते हुए कोई भी कैसे सो सकता है?… मरा तो वह अभी नहीं होगा… उसने सोचा, फिर मानो अपने-आप से कहा, 'पेट तो अपने टाइम में हिस्सा मांगेगा ही। यही पापी पेट का नियम है।Ó
आदमी के साथ इतनी ही बातें करने की उसे जरूरत महसूस हुई। इसके बाद आदमी के साथ बातें करने का उसका मन नहीं हुआ। एक मर रहे आदमी के साथ कैसे बातें की जा सकती हैं! चेतना जागेगी तो खुद ही बोलने लगेगा। … तब शिशूण की एक और टहनी कूटकर इसके घावों में पोत देगी। बीते परसों परलीधार के थोकदार के घर से लाई गई भिक्षा को उसने थैले में टटोला। खिचड़ी की पोटली में से दो मु_ी दाने भगोने में डाले और एक बार पानी से धोकर फिर से साफ पानी डालकर नमक-हल्दी मिलाई, तश्तरी से ढका और धूनी के एक किनारे से टिका दिया।

बाकी दिनों खाने की जुगत वह दोपहर के बाद करती थी। सुबह नदी में नहाना, मंदिर की देव-मूर्तियों को नहलाना, पूजा-पाठ और सूरज जब सिर पर आ जाता, तभी उसे पेट की सुध आती। उसे खुद ताज्जुब हुआ कि आज उसने इतनी सुबह खिचड़ी क्यों चढ़ा दी?

"नमोऽऽऽ नरैण…ÓÓ उबासी लेने के-से अंदाज में उसके मुंह से निकला। बाहर निकलते हुए दरवाजे पर ठिठकी। मुड़कर देखा तो उस आदमी पर फिर से नजर टिक गई। मु_ीभर के बेडौल चेहरे वाला कोई अधेड़ था वह। उम्र चाहे जो भी रही हो, इस वक्त बिच्छू बूटी का लेप लगे होने के कारण वह कीचड़-धंसे घायल जानवर की तरह लग रहा था। आंखों के गड्ढों में भरी हुई कीचड़ और खून भरे घाव एकदम हमशक्ल लग रहे थे… मानो पूरी देह में अनेक आंखें पैदा हो गई हों… हजार आंखों की देह वाला आदमी… एक अजीब-सा बिंब बना उसके मन में, फिर खुद ही न समझ पाने के कारण मुस्कराने लगी। दाड़िमी माई के लिए वह जानवर से अधिक था भी क्या… एक ऐसा जानवर, जिसका नाम वह नहीं जानती! जिसके बारे में कुछ भी नहीं जानती। … लेकिन जानवर अपने हाव-भाव तो व्यक्त करता है, ये तो जैसे सड़े हुए मांस का लोथड़ा है, जिसके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, इसके बारे में वह कुछ सोच भी नहीं सकती।

…ऐसे आदमी को वह अपनी कुटिया में क्यों ले आई, जबकि वह खुद ही मना कर रहा था। उसके साथ रहकर तो वह भी सड़ी हुई देह में बदल सकती है… मानो एक हजार सड़ी आंखों वाली दाड़िमी माई… तीखी सिहरन के साथ उसके मन में इनरुवा लाटा का बिंब बना… फिर अपने किशनुवा का… कहां होंगे वो दोनों?… क्या उसका किशनुवां इनरुवा के ही साथ होगा? सामने सोए आदमी के चेहरे में उसे हू-ब-हू इनरुवा लाटा की अनुहारि दिखाई दी… हालांकि वह इनरुवा लाटा नहीं था। … क्या करे वह इस आदमी का?
शाम तक आदमी सोया ही रहा। वह आश्वस्त हुई कि उसे अंदर लाने का उसका निर्णय गलत नहीं था। सुबह जब खिचड़ी पक चुकी थी तो उसके दिमाग में आया था कि आदमी को खाने के लिए पुकारे, मगर वह इतनी गहरी नींद में था कि जगाना उसे खुद ही गलत लगा। उसके चेहरे के अंदाज और सांस के उतार-चढ़ाव को देखते हुए उसे पूरा भरोसा था कि वह मरा नहीं है। उसे फिर से अपने निर्णय पर आश्वस्ति हुई।

अब उसका ध्यान खुद पर टिका। कौन है वह… यहां क्या कर रही है?… वह तो इनरुवा के साथ अपना संसार बसाना चाहती थी। पूजा-पाठ की बड़ी-बड़ी बातें न उसकी समझ में आती थीं और न अपने काम की लगती थी। मगर आज तो ये सब उसकी जिंदगी के जरूरी हिस्से हैं। ऐसे ही मौकों पर उसे घुरू-बू याद आते हैं… ऐसे पहले व्यक्ति, जिनकी बातें उसे हमेशा आकर्षित करती थीं। मगर वह भी तो इस नरक में धकेलने से उसे रोक नहीं पाए थे।

उस दिन रात को नौकुड़ी बाखइ के इनरुवा की खोली में उन दोनों ने तय किया था कि वे बिरादरी की परवाह किए बगैर आने वाली सुबह से ही इस घर में रहना शुरू कर देंगे। इसी घर में किशनुवां (हालांकि तब उसका नाम नहीं पड़ा था) पैदा होगा। तब घुरू-बू जिंदा थे, इसलिए उनके मन में किसी का डर नहीं था। घुरू-बू को लेकर पूरी रात बातें की थीं उन्होंने। तय किया था कि उनकी उपस्थिति में ही वे लोग इस घर में अपना नया जीवन शुरू करेंगे। वे लोग दूसरे दिन हर पल बेसब्री से घुरू-बू की प्रतीक्षा करते रहे थे मगर रात का खाना खाने के बाद आधी रात से ही उन्हें उल्टी शुरू हो गई थीं और सुबह का उजाला फूटने से पहले उन्हें खून की उल्टी हुई और वह अचेत पड़ गए। सुबह काफी देर तक भी जब दरमाड़ि के घर में हलचल नहीं हुई और दोपहर को भैंस भूख से रंभाने लगी, गांव के कुछ लोग दरमाड़ि की ओर ऐसे भागे, मानो पहले से जानते हों कि वहां कुछ अनहोनी हुई है।

उसी के अगले दिन से इनरुवा और दाड़िमी के प्रति लोगों का रुख बदल गया था। मगर वे अकेले पड़ गए थे। यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि न इनरुवा कुछ सोच पाया और न दाड़िमी। कुछ अनहोनी का आभास दोनों के मन में था, मगर घुरू-बू के बारे में नहीं, अपने बारे में। घुरू-बू जैसे देवता आदमी को कोई इस तरह नुकसान भी पहुंचा सकता है, यह बात तो उनके सपने में भी नहीं आ सकती थी। …

इसके बाद का घटनाक्रम तेजी से घटित हुआ था। इनरुवा के पास गांव में दाड़िमी के साथ रहने का यही तर्क था कि उनके सामने लंबी, सपनों-भरी जिंदगी पड़ी है, जिसके साथ वो गांव में ही एक-दूसरे को सहारा देकर बिताना चाहते थे। उसने कुछ बुजुर्गों से विनती भी की थी कि वे लोग गांव के कोने में उन्हें अपने सपनों के साथ पड़े रहने दें… गांव के दो-एक बुजुर्गों ने सहमति में सिर भी हिलाए थे, लेकिन पुरोहित इसकी अनुमति देने के लिए किसी हालत में तैयार नहीं थे।

इनरुवा लाख चिल्लाता रहा, मगर उसकी बातें किसी की समझ में नहीं आईं। गांव के अनेक पुरोहित गाली-गलौज करते हुए लगभग दौड़ाते हुए दाड़िमी को नदी किनारे के पुराने शिव मंदिर तक ले गए और देवताओं के साथ कैद करके बाहर से सांकल चढ़ा गए। एक युवा पुरोहित जोर-जोर से चिल्लाकर उसे सुबह और शाम कर्मकांड समझा जाता था, ताकि उसने जो अश्लील कर्म किया है, उसका पाप धुल सके। बारी-बारी से हर रोज कोई पुरोहित दाड़िमी के लिए खाना लेकर आता, उसे पूजा- कर्मकांड की विधि समझाता और कमरे के अंदर ही उसके नहाने का पानी रखकर चला जाता ताकि वह यथासमय नहा-धोकर पूजा करके खाना खा सके। कितने दिनों तक अपने को भूखा और असहाय रखती दाड़िमी। आखिर एक दिन पुरोहितों के कर्मकांड ने उसे अपने वश में कर ही लिया।


धूनी से थोड़ा हटकर दीवार के किनारे वह आदमी मुर्दे की तरह सोया हुआ था, लेकिन मरा नहीं था। वह कराह भी नहीं रहा था, साफ है कि उसे किसी-न-किसी रूप में राहत अवश्य मिली थी, चाहे बिच्छू बूटी के लेप से, खुद को लेकर रचे गए बर्बर हत्याकांड में उसकी मौत के टल जाने से या दाड़िमी के आत्मीय व्यवहार से। मंदिर की दीवारों पर जगह-जगह उभरे सीलन के निशानों की तरह आदमी का शरीर दरी पर पसरा हुआ था और कमरे की दीवारों और कोनों में टिके हुए पत्थर और लोहे के दाड़िमी के देवता मानो चुपचाप खड़े होकर, सोए हुए आदमी के शरीर में अपेक्षित चेतना की प्रतीक्षा कर रहे थे।

आदमी को उसने नहीं जगाया, न खाने के लिए पूछा। इन चीजों की अगर उसे जरूरत होती तो वह खुद ही इस तरह के संकेत देता। अपने नियत समय पर दाड़िमी ने नदी किनारे जाकर नहाया और रोजमर्रा का कर्मकांड निभाती रही। इस बीच कुछ जंगली जानवर पेड़ों, घास और बूटियों को सूंघते हुए नदी किनारे आए और दाड़िमी की ओर एक नजर डालकर जंगल में गायब हो गए। दाड़िमी ने उठने के बाद से ही सूरज की दिशा में जल चढ़ा दिया था और दोपहर को एक ग्रास खिचड़ी भगवान के नाम रखकर दो ग्रास अपने पेट में डाले और नदी किनारे की झाड़-पत्तियों को टटोलने लगी, मानो उनके बीच वह सोए हुए आदमी के लिए जड़ी-पत्ती खोजने का उपक्रम कर रही हो।
चाहे और किसी के लिए चमत्कार न हो, दाड़िमी माई और उस आदमी के लिए यह चमत्कार ही था कि आदमी दूसरे दिन सुबह की किरणों के साथ ही होश में बातें करने लगा था। शरीर के घावों का गीलापन काफी कम हो गया था, वहां गुलाबी और गहरे हरे रंग का मिलाजुला लेप चकत्तों की तरह उभर आया था। इसी उत्साह में दाड़िमी कुछ और जहरीली पत्तियां तोड़कर उन्हें पीसकर घावों पर मलने लगी। उसे भरोसा था कि अज्ञानतावश, मगर भागती जिंदगी को थामने के उपक्रम में आदमी की देह पर वह जो प्रयोग कर रही है वही इस आदमी को नई जिंदगी देंगे। …
उसका यह प्रयोग अंतत: काम आ गया। …
तीन : उपसंहार
एडविन हब्बल और स्टीफेन हॉकिंग का इंद्रलोक

इस कथा में यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इंद्र का अपभ्रंश इनरुवा और अहल्या की प्रतिरूप दाड़िमी का अंत में क्या हुआ होगा… क्या गांव वालों का हृदय परिवर्तन होकर उन्होंने प्रायश्चित किया होगा या जंगल-जंगल भटकते इनरुवा लाटा को एक दिन उन्होंने उसकी संतान के साथ खोज लिया होगा और वे सारे लोग दाड़िमी माई की कुटिया में एकत्र हुए होंगे… इनरुवा और उसके बेटे की वंश परंपरा के प्रयत्नों से कोठारी गांव में नए युग की शुरुआत हुई होगी… चारों दिशाओं में ज्ञान के सूरज का आलोक फैल गया होगा, जिसने नई धरती और नए आकाश को जन्म दिया होगा!…

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ… जीवन का विस्तार अगर ऐसे ही खयाली पुलावों से संभव हो पाता तो इस संसार में दुख-तकलीफों के लिए जगह ही नहीं बचती। यों, मुझे इस आख्यान का काल्पनिक सुखांत या दुखांत लिखने में कोई कठिनाई नहीं है, मगर ऐसा करने से न तो मुझे संतोष मिल पाएगा, न आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को। … वो जमाने दूसरे थे जब पंचतंत्र या तिलस्मी आख्यानों द्वारा पहले से तय अंत के आधार पर कहानियां तैयार की जाती थीं। आज तो यथार्थ का दबाव हमारे जीवन के पल-पल और पोर-पोर में इस कदर छाया हुआ है कि कोरा अतीत और खालिस यथार्थ दोनों में से कोई एक अकेला आपको किसी भी तरह का सहारा दे सकने में असमर्थ हैं। … ऐसे में कहां शरण ले आज का बेचैन मन! अतीत अब नॉस्टेल्जिया भी नहीं बन पाता। … करोड़ो वर्षों की कशमकश के बाद इस 'होमो-सेपियनÓ (मननशील) जीव का मन कागज के पुराने गल गए टुकड़े पर लिखी गई ऐसी इबारत की तरह बन चुका है, जिसने आदमी को तनाव और यंत्रणा की एक और अंधी गली में झोंक दिया है।

इतना लंबा आख्यान लिख लेने के बाद मुझे भारत के सबसे बड़े संस्कृति-संस्थान के उन पूर्व-निदेशक-संपादक द्वारा उठाई गई आपत्तियों का भी तो कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा है। … ऐसे में क्या करना चाहिए मुझे?… कल्पनाओं के घोड़े तो आदमी के मन में युग-युगों से बेलगाम दौड़ते रहे हैं, मजेदार बात यह है कि इस इक्कीसवीं सदी के गूगलीय माहौल में भी पाठकगण कथाओं और आख्यानों का अंत सदियों से चले आ रहे सुखांत या दुखांत की तरह ही देखना चाहते हैं। … कुछ अतीतजीवी लोग कलाओं को ब्रह्मानंद की प्राप्ति का साधन मानते हैं, जबकि कुछ दूसरे लोगों के लिए अतीत उनके वर्तमान के भविष्यफल की रूपरेखा प्रदान करने वाले उपकरण की तरह रह गया है।

बड़ा सवाल यह है कि हम जिंदगी भर अपनी कल्पनाओं के घोड़े क्यों और किसके लिए दौड़ाते रहते हैं? यह लिखना-पढ़ना हमें ऐसा क्या दे जाता है जिसके लिए हम अनेक परेशानियों और तनावों से गुजरते हुए, उससे मुक्त होना चाहकर भी अंतत: फिर से उसी चक्रव्यूह की शरण में चले जाते हैं… उन्हीं तनावों को एक बार फि र से झेलने। … जिंदगी जीने के नाम पर हम तनावों से मुक्त होना चाहते हैं या एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद में बार-बार पुनर्जन्म के रूप में उसका वरण करते हैं!… क्यों करना चाहते हैं हम अपने जीवन की पुनर्रचना? किसके लिए है यह चाहत!… हम खुद ही ऐसा करते हैं या कोई अधिदैविक शक्ति हमसे ऐसा करवाती है। सारी जिंदगी खुद को लेकर एक तकलीफदेह कनफ्यूजन में जीना हमारी नियति है या यह हमारा अपना चुनाव होता है!…

इस प्रसंग को यहीं छोड़कर मैं अपने इनरुवा लाटा के उन सूत्रों को खोजने की कोशिश करता हूं जो साढ़े तीन हजार साल पहले के महान इंद्र के साथ जुड़े हुए हैं। भारतीय कला-मनीषा को इंद्र के मिथक ने हजारों सालों में जो विस्तार दिया है, वह सिर्फ सेक्स और उसके वीर्य से निर्मित इस ब्रह्मांड के विस्तार की कथा नहीं है, निश्चय ही इससे अलग और अधिक है। … उसे ऐसा होना ही चाहिए था, अन्यथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों सालों से इस ब्रह्मांड में हमारे चारों ओर बुनते चले गए इस इंद्रजाल का मतलब क्या है!…
आदमी ने अपनी ताकत और विवेक के सहारे इतनी प्रगति कर ली है कि वह आज उस जगह पर पहुंच चुका है जहां एक ओर अतीत का सर्वशक्तिमान इंद्र अपने हजारों साल के इतिहास-बोध को अपनी मु_ी में थामे वर्तमान की हजार-हजार व्याख्याओं के साथ मानव जाति को चुनौती देता हुआ खड़ा है, तो दूसरी ओर उस चुनौती का सामना करता, 8 जनवरी 1942 को इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड शहर में पैदा हुआ संसार का सबसे शक्तिशाली दिमाग स्टीफन हॉकिंग, एक अपंग-से चेहरे के रूप में, दुनियाभर में फैले अपने एक करोड़ से अधिक पाठकों के साथ आने वाले नए संसार की व्याख्या कर रहा है। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम, वर्तमान में जी रहे लोग, अतीत और वर्तमान की दोनों धाराओं को अपने दोनों हाथों से थामे रखने की जिद के साथ, एक तर्कातीत अंध-आस्था के सहारे भागे चले जा रहे हैं। हालांकि खुद नहीं जानते कि जा कहां रहे हैं, आगे बढ़ भी रहे हैं या नहीं… फिर भी हम इसे ही प्रगति का नाम देते हैं…

क्या हमारी यह नई दुनिया इंद्र का ही एक प्रति-संसार है?… इंद्र से इनरुवा लाटा तक; वैदिक आर्य इंद्र की भाषा से लेकर इनरुवा लाटा की भाषा, एक उपेक्षित बोली, मध्यपहाड़ी-हिंदी तक; इंद्र, यम, गौतम, नचिकेता और अहल्या के मिथकीय संसार से लेकर स्टीफन हॉकिंग के महा-मिथक ब्लैकहोल तक! इन हजारों वर्षों में हमारे इस 'शिशु ग्रहÓ – हमारी धरती – में ब्लैक होल की तरह ज्ञान-विज्ञान के अनेक अंतराल पैदा हो गए हैं… उन्हें कैसे पाटा जाए!… क्या ब्लैकहोल को पाटा जा सकता है? स्टीफन हॉकिंग और इनरुवा लाटा क्या हमेशा इस धरती पर मनुष्य की दो अलग-अलग प्रजातियां ही बनी रहेंगी! आखिर कहां हैं इनरुवा लाटा की जड़ें?… ऐसे में संसार का सबसे शक्तिशाली मस्तिष्क नास्तिक स्टीफन हॉकिंग शायद आज के विकसित मनुष्य को कोई रास्ता सुझा सके। क्या हमारा स्टीफन हॉकिंग नास्तिक है?…

"अनंत क्षेत्र से परे क्या है यह कभी भी बहुत स्पष्ट नहीं किया गयाÓÓ, हॉकिंग कहता है, "परंतु यह निश्चित रूप से मानव जाति के प्रेक्षण करने योग्य ब्रह्मांड का हिस्सा नहीं था। …

"एक अपेक्षाकृत आसान मॉडल सन् 1514 में पोलेंड के एक पुरोहित निकोलस कॉपर्निकस द्वारा प्रस्तुत किया गया। उनका विचार यह था कि सूर्य केंद्र में स्थिर है तथा पृथ्वी एवं दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में घूमते हैं। इस विचार को गंभीरतापूर्वक ग्रहण करने तक लगभग एक शताब्दी व्यतीत हो गई। तब जर्मनी के जोहांस केपलर और इटली के गैलीलियो गैलिली – इन दो खगोलविदों ने कॉपर्निकस के सिद्धांत का, इस तथ्य के बावजूद, सार्वजनिक रूप से समर्थन करना प्रारंभ कर दिया कि इसमें पूर्वानुमानित कक्षाएं, प्रेक्षित की गई कक्षाओं से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थीं। अरस्तू व टॉलेमी के सिद्धांतों पर एक घातक प्रहार सन् 1609 में हुआ। उस वर्ष गैलीलियो ने रात्रि के आकाश का एक दूरबीन से प्रेक्षण करना प्रारंभ कर दिया था। जब गैलीलियो ने वृहस्पति ग्रह का प्रेक्षण किया तो उसने पाया कि उसके कई छोटे उपग्रह या चंद्रमा हैं, जो उसकी परिक्रमा करते हैं। इससे यह बात सामने आई कि हर पिंड का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाना आवश्यक नहीं था, जैसा कि अरस्तू और टॉलेमी सोचते थे। … "अरस्तू और अधिकतर दूसरे यूनानी दार्शनिकों को ब्रह्मांड की उत्पत्ति का विचार इसलिए पसंद नहीं आया क्योंकि इसमें दैवी हस्तक्षेप की गंध आवश्यकता से अधिक थी। इसी कारणवश वह यह विश्वास करते थे कि मानव जाति और इसके चारों ओर का यह संसार सदैव से अस्तित्व में था तथा सदैव अस्तित्व में रहेगा। … जब अधिकांश लोग एक अपरिवर्तनीय और आवश्यक रूप से स्थिर ब्रह्मांड में विश्वास रखते थे तो यह प्रश्न कि इसकी कोई शुरुआत थी या नहीं, वास्तव में धर्मशास्त्र या तत्व-मीमांसा से संबंधित रह गया था। परंतु 1929 में एडविन हब्बल ने यह महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण किया कि आकाश में जहां कहीं भी हम देखें, दूरस्थ आकाशगंगाएं बहुत तीव्र गति से हमसे दूर भाग रही हैं। दूसरे शब्दों में, ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्ववर्ती समय में सभी पिंड परस्पर बहुत समीप रहे होंगे। वस्तुत: ऐसा लगा कि लगभग 10 या 20 अरब वर्ष पूर्व एक ऐसा समय था जब ब्रह्मांड का सारा पदार्थ ठीक एक ही स्थान पर था और इसीलिए उस समय ब्रह्मांड का घनत्व असीमित था। अंतत: यह खोज ब्रह्मांड की उत्पत्ति के प्रश्न को विज्ञान की परिधि में ले आई। हब्बल के प्रेक्षणों ने यह सुझाया कि महाविस्फोट या महानाद (बिग बैंग) के नाम से ज्ञात एक समय ऐसा था जब ब्रह्मांड अति सूक्ष्म तथा अत्यंत सघन था। ऐसी परिस्थितियों में विज्ञान के सारे नियम भंग हो जाते हैं और इसी के साथ ही भविष्य के बारे में पूर्वानुमान लगाने की सारी क्षमता भी समाप्त हो जाती है। …

"यह कल्पना की जा सकती थी कि ईश्वर ने ब्रह्मांड को अतीत में किसी निश्चित काल पर उत्पन्न किया। दूसरी ओर यदि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है, तो इस तथ्य के भौतिक कारण हो सकते हैं कि उत्पत्ति हुई ही क्यों! अब भी यह कल्पना की जा सकती थी कि ईश्वर ने ब्रह्मांड को बिग बैंग के क्षण पर या इसके बाद ठीक इस तरीके से उत्पन्न किया कि यह ऐसा दिखाई दे मानो कोई महाविस्फोट हुआ था, परंतु यह मानना निरर्थक होगा कि इसे बिग बैंग से पहले उत्पन्न किया गया था। एक निरंतर विस्तृत होता हुआ ब्रह्मांड सृष्टिकर्ता का निषेध नहीं करता, परंतु इस बात पर सीमा-बंधन अवश्य लगाता है कि आखिर उसने अपना कार्य कब पूरा किया होगा!

"…कोई भी भौतिक सिद्धांत इस अर्थ में सदा अस्थायी होता है कि यह मात्र एक परिकल्पना होती है : आप इसे कभी सिद्ध नहीं कर सकते।ÓÓ (साभार: 'समय का संक्षिप्त इतिहासÓ, पृष्ठ 17-23)

उस दिन जब दाड़िमी माई मंदिर के कोने में गठरी की तरह पड़े हुए उस आदमी को मन से मृत घोषित कर चुकी थी, एकाएक उसके बैठने की मुद्रा को देखकर चौंक उठी थी। मानो गल कर वातावरण में विलीन हो चुकी उसकी देह ने एक ठोस देह के रूप में पुनर्जन्म ले लिया हो और मानो मां की कोख से एक बने-बनाए पूरे आकार के मनुष्य ने अभी-अभी जन्म लिया हो… कौन था वह नया मनुष्य?… क्या यह वही आदमी था, जिसे दाड़िमी बिच्छू बूटी की झाड़ी पर से हाथ खींचकर अपने कमरे में घसीट लाई थी। … पिछले बारह वर्षों से दाड़िमी माई इस कुटिया में उस आदमी के साथ रह रही थी। आज दाड़िमी की देह तीस वर्ष की उम्र पार कर चुकी थी और इन वर्षों में लगातार बहती रही नदी किनारे की सर्द हवाओं ने उसके चेहरे को कठोर बना डाला था। मगर आज उसे खुद भी इस बात पर यकीन नहीं होता कि वह दस बरस की वही दाड़िमी है जो कभी ब्याह कर पहली बार कोठार गांव के 'दुर-पतीÓ के आठवें नौले में लाई गई थी।

आज हालात एकदम फर्क हो चुके थे। दाड़िमी के चारों ओर फैली प्रकृति और पर्यावरण ने सामने बैठे उस आदमी को ऐसा चेहरा प्रदान कर दिया था जिसने उस आदमी को ही नहीं, दाड़िमी को भी नए आत्मविश्वास से भर दिया था। इन बारह वर्षों में वह उस आदमी से प्यार करने लगी थी, उसी तरह का प्यार, जैसा कि एक मां अपनी संतान से करने लगती है, एक किशोर लड़की अपने दोस्त से करने लगती है। … जंगल के बीच उस सीलन भरे कुटियानुमा मंदिर में मानो दाड़िमी ने एक शिशु को जन्म दे दिया था, एक सुंदर, स्वस्थ, पवित्र और आत्मीय शिशु को… आदमी के आकार के एक शिशु को। दाड़िमी के मन में उस आदमी ने ममता, स्नेह और वात्सल्य के न जाने कितने खूबसूरत आकार अंकुरित कर दिए थे। … उसे अपने हाथों से एक नया, अपरिभाषेय संसार सौंप दिया था!…

दाड़िमी ने उस आदमी को कितनी ही बार हैरत के साथ अपनी देह को टटोलते हुए देखा था… आश्चर्य से भरे कौतूहल के साथ वह आदमी जितना ही अपनी साफ -सुथरी बन चुकी देह को टटोलता, दाड़िमी को वहां अपने जीवन की सार्थकता पसरी हुई दिखाई देने लगती। लगता, जीने के कितने ही नए अर्थ मिल गए हैं उसे। वह अब उस आदमी के साथ हमेशा रहना चाहती थी… उसके दोस्त की तरह।

वह आदमी एक दिन अचानक गायब हो गया। दाड़िमी ने उसे खोजने की कोशिश नहीं की… वह कोई बच्चा थोड़े ही है, उसने सोचा था। … बारह वर्षों तक दाड़िमी उसके लिए जंगल के कोने-कोने से खोज-खोज कर कितनी ही जड़ी-बूटियां, पेड़-पौधों की छालें और जहरीले पत्ते बटोर कर लाई थी, उनके लेप से उसकी देह पर एक कुशल पेंटर की तरह चित्रकारी करती रही थी और उन्हें पीसकर काढ़ा पिलाती रही थी। वह आदमी बिना किसी एतराज के आज्ञाकारी बच्चे की तरह दाड़िमी के आदेशों का पालन करता रहा था। लेकिन जब आदमी को नई जिंदगी मिल गई, वह दाड़िमी से नाता तोड़कर कोठार गांव की एक औरत के घर बैठ गया था।

दाड़िमी ने जब उसे पहली बार नदी किनारे की पनचक्की से पिसान का बोझा कंधे पर लादे कोठार गांव की चढ़ाई चढ़ते हुए देखा था, तो वह जरा भी नहीं चौंकी थी। उसने मन-ही-मन में सोचा था कि वह जानती थी, उसे सचमुच औरत के सहारे की जरूरत थी। … उसी पल दाड़िमी के मन में यह बात भी तो उभरी थी कि उसे भी एक पुरुष की जरूरत थी, जिसे वह जाने कब से तलाशती रही थी। … तब से लेकर आज तक चालीस साल की लंबी अवधि बीत चुकी है, दाड़िमी इतने सालों तक मंदिर के उसी सीलन भरे कमरे में रहती आ रही थी, उन कुछ वर्षों को छोड़कर, जब वह बुढ़ापे की दहलीज पर कोठार गांव के अपने ससुराल के घर में अपने देवता के लिए खाना बनाने के लिए लौट आई थी।


दाड़िमी माई की प्राकृतिक चिकित्सा, उसके पास किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद, उसकी ही नहीं, मानव समाज की बड़ी ताकत बन सकी, यह बात दाड़िमी के समर्पण से ही नहीं, स्टीफन हॉकिंग द्वारा लिखे गए उक्त विवरण से भी स्पष्ट हो जाती है। इससे यह बात तो साफ हो ही जाती है कि कोरे तर्कों और गणित की गणनाओं के आधार पर न तो हम संसार के सबसे शक्तिशाली मस्तिष्क हॉकिंग के भौतिक सिद्धांतों को सिद्ध कर सकते और न हिंदी की एक उप-भाषा मध्य-पहाड़ी को बोलने वाली, किस्मत की मारी, गंवार दाड़िमी के उस उपचार को, जिसे उसने अपनी कुटी में जबर्दस्ती लाए गए आदमी के इलाज के रूप में बतौर इलाज आजमाया था। इस रूप में इन दोनों खोजों में कोई अंतर नहीं है! काश, ज्ञान-विज्ञान से जुड़े हमारे आधुनिक मनीषियों के पास इस पर विचार करने का अवकाश होता!…

किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ है, हालांकि आगे क्या हुआ होगा, इसका अनुमान आज के इस विकसित युग में लगा पाना मुश्किल नहीं है। हजारों-लाखों सालों से इस ब्रह्मांड में एक ही बात दुहराई जाती रही है : आदमी और औरत की एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हुई देह और उनमें से अंकुरित होती कलाएं। उनकी इकसार परिणति… सृष्टि का विस्तार… सहस्रवीर्य, सहस्रयोनि और सहस्राक्ष… पाठकों से मेरा विनीत आग्रह है कि आगे आने वाले विवरण को इनरुवा लाटा और दाड़िमी माई से जुड़ी कहानी के अंत के रूप में न देखा जाए। …

….
एक दिन नौ कुड़ी बाखइ के आठवे घर में, जिसमें साठ-सत्तर साल पहले दाड़िमी बहू ब्याह कर लाई गई थी, फिर से एक अलग तरह का शोर सुनाई दिया था। …
एक बूढ़ी माई 'नौ कुड़ी बाखइÓ के गोठ में अपने दोपहर के भोजन के लिए निर्वस्त्र होकर भात उबाल रही थी। ऐसा वह लंबे समय से करती आ रही थी। कुछ समय पहले उसकी धोती, जिसे पहनकर वह अपने देवता के लिए खाना बनाती थी, फटकर तार-तार हो चुकी थी। उसके पास बदलने के लिए दूसरी धोती नहीं थी… कुछ दिनों तक तो वह धोती को उसी हालत में अपनी देह पर लपेटकर खाना बनाती रही थी, मगर कपड़े की भी तो अपनी जिंदगी होती है, उसे गल जाना ही था!… दाड़िमी माई सोचती है, अगर वह कपड़े पहनकर रसोई बनाएगी तो अपने देवता को जूठी देह से खाना खिला रही होगी, जो शास्त्रों और परंपरा के विरुद्ध होगा!…

पाठकों से मेरा फिर से अनुरोध है कि मुझसे यह रहस्य न पूछा जाए कि दाड़िमी माई कब और कैसे कोठार गांव के अपने ससुराल के घर में पहुंची? किसने उसे इस बात की अनुमति दी?… मैं सिर्फ एक संकेत कर सकता हूं। संभव है कि ऐसा हुआ हो, दस साल की दाड़िम बहू जब साठ-सत्तर की दाड़िमी माई हो गई होगी, तो अपने ही घर में उसके प्रवेश करने पर कोठार गांव की तीसरी-चौथी पीढ़ी ने कोई ऐतराज नहीं किया होगा। इतने दिनों तक पुरानी बातें किसकी स्मृति में बची रहती हैं?

सबकुछ बदला… पीढ़ियों, सामाजिक सरोकारों, खान-पान, रुचियों और आपसी रिश्तों में फर्क आया, मगर जो चीज नहीं बदली, वे थे दाड़िमी माई के संस्कार। वह चाहती तो अपनी बिरादरी की परवाह किए बगैर अपनी मर्जी से रसोई बना सकती थी… इस उम्र में उसे टोकने वाला था ही कौन! (अब तो पुरोहित भी उसे नहीं रोकते!) मगर पुरखों की रीति और अपने देवताओं की पूजा से वह कैसे इनकार कर सकती थी। … कैसे अपने और देवता के बीच किसी और की उपस्थिति सहन कर सकती थी!…

…एक बूढ़ी निर्वस्त्र औरत कैसी होती है, यह देखने के लिए कोठार गांव के सारे नंगधड़ंग बच्चे दोपहर के वक्त नौकुड़ी बाखइ के आठवें घर के गोठ को घेर लेते; बुढ़िया की ओर कंकड़-पत्थर फेंकते हुए उछलते-कूदते और उसकी नंगी देह की ओर इशारा करते हुए हंसते। हालांकि एक बूढ़ी-नंगी देह में हंसने या उपहास के लायक कुछ भी तो नहीं होता, मगर जिसे देखकर बच्चे हंस रहे होते, बूढ़ी दाड़िमी माई उसे अपनी एक हथेली से ढंके हुए, दूसरे हाथ में डंडा थामे बच्चों के पीछे-पीछे भाग रही होती। …
महानग्नी महानग्नं धावतम अनुधावति।

इमास् तु तस्य गो रक्ष यभ मामद्धि चौदनम्। । (अथर्व. 20.136 और ऋग्वेद खिला. 5.22)
यहां पर विचार योग्य मुद्दा यह है कि क्या दाड़िमी माई को 'महानग्नीÓ संबोधन से पुकारना ठीक रहेगा? और वे बच्चे भला कैसे 'महानंगेÓ हो गए। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि कोठार गांव की चिलचिलाती दुपहरी में नौकुड़ी बाखइ के आठवें गोठ के आगे बच्चों का कौतूहल किस चीज को लेकर था और हमारी दाड़िमी दादी इस उम्र में किस चीज को लेकर इतना शरमा रही थी कि उसे अपने अप्रासंगिक हो चुके हिस्से (ऋग्वेद की भाषा में 'गोÓ यानी गाय) को हथेली से छिपाना पड़ रहा था!…
सहस्राब्दियों से निरंतर लड़े जा रहे सुर और असुर शक्तियों के इस अपराजेय युद्ध रूपी नाटक का यह कैसा विचित्र पटाक्षेप है… जो न सुखांत है और न दु:खांत!

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बाजार में मारकेज की यादःAuthor: पंकज बिष्ट

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बाजार में मारकेज की यादःAuthor: पंकज बिष्ट

बीजिंग डायरी  

अंग्रेजी की खोज में बीजिंग मेरे जैसे स्वभाषा समर्थक और औपनिवेशिक अवशेषों के विरोधी आदमी के लिए भी किसी दु:स्वप्न से कम नहीं है। निश्चय ही चीनी के साथ अंग्रेजी देखने को मिल अवश्य जाती है पर यह हवाईअड्डों, सार्वजनिक यातायात और विशाल जगमागाते विज्ञापनों तक ही सीमित है। ये विशाल बिल बोर्ड कुल मिलाकर केएफसी, पीजा हट, कोका कोला से लेकर डोलसे एंड गब्बाना, गुकी, जॉर्जिओ अर्मानी जैसी दुनिया की कुछ जानी-मानी और कई मेरे लिए अनजानी फैशन कंपनियों के हैं। और मात्र हवाई अड्डे से शहर जानेवाले रास्ते की गगनचुंबी इमारतों की कतारों में ही नहीं बल्कि पूरे शहर में देखे जा सकते हैं। एक साम्यवादी देश की राजधानी में इन की सर्वव्यापिता थोड़ा-सा ही चकित करती है वरना चीन में हो रही 'क्रांति'के नए अध्याय से अब कौन अपरिचित है! खैर बात अंग्रेजी की हो रही थी। सच यह है कि शहर में किसी स्थानीय आदमी को, अंग्रेजी बोलते या उसके दो-एक शब्द भी समझते, पा जाना लाटरी लगने से कम नहीं है। सौभाग्य से भूमिगत मेट्रो, जो पूरे महानगर को जोड़ती है – यह चार सौ किलो मीटर लंबी बतलाई जाती है – अपनी सूचनाएं, स्टेशनों और मेट्रो के डिब्बों में की सार्वजनिक घोषणा व्यवस्था और इलेक्ट्रानिक बोर्डों के माध्यम से अंग्रेजी में भी देती है। यद्यपि यहां बोली जाने वाली अंग्रेजी का उच्चारण सप्रयास अमेरिकी नजर आता है इस पर भी उच्चारण में चीनी लहजा चुनौती बना रहता है। इसके अलावा जबड़ा तोड़ कहिए या अजनबी यीहीयुआन, सनलीतुन याशीयू, कांग मियाओंगुआजीजिएन, माओ जूशी जिनीएनतांग, झौंगाओ लैश बोऊगुआन जैसे शब्दों का सही उच्चारण रोमन अक्षरों के माध्यम से समझना लगभग असंभव है। (यहां भी ये कितने गलत हैं कहा नहीं जा सकता!) पर ये शब्द ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थानों के नाम हैं जो हर किसी के लिए देखने जरूरी हैं। इस कठिनाई के बावजूद चीनियों की अपनी भाषा के लिए प्रतिबद्धता काबिले तारीफ है। इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी इस जटिल चित्रात्मक लिपि को, किस तरह से इस हद तक कंप्यूटर-सहज बना लिया है कि लगता है मानो कंप्यूटर का निर्माण ही चीनी लिपि के लिए हुआ हो।

मेट्रो का किराया स्थानीय लिहाज से सस्ता है। तीन युआन (चीनी मुद्रा जिसका आधिकारिक नाम रिन मिन बो या आरएमबी है) टिकट में आप जहां तक जाएं जा सकते हैं। यानी टिकट सिर्फ एक ही दर का है और लंबी यात्राओं के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। निश्चय ही यह सड़कों की भीड़ को घटाने की मंशा से किया गया होगा। मेट्रो जिस तरह से ठसा ठस भरी रहती हैं उससे स्पष्ट है कि लोग, पहुंचने की सुनिश्चितता के कारण, मेट्रो में आना-जाना ज्यादा पसंद करते हैं। बीजिंग के ट्रैफिक जाम कुख्यात हैंभी, और हों भी क्यों ना, सड़कों पर शायद ही दुनिया का कोई ऐसा कार का ब्रांड हो – रॉल्स रॉयस से लेकर फरारी, लंबोरगिनी, एस्टोन मार्टिन, पोर्श आदि आदि, जो नजर न आता हो। हुंदाई, टोयोटा, फोर्ड, सुजूकी, रेनो आदि की तो बात ही मत कीजिए।

अंग्रेजी बोलने का चीनियों का लहजा एक मायने में देश के दैनंदिन जीवन में अमेरिकी प्रभाव का ही प्रतीक माना जा सकता है। वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और पहली को पीटने को प्रतिबद्ध है। यद्यपि चीन को पहली अर्थव्यवस्था को पीटने में समय लगेगा पर आश्चर्यजनक रूप से अपनी जीवन शैली में वे अमेरिकियों को पीछे छोड़ने के निकट हैं। मेट्रो संभवत: इस बात का सबसे अच्छा संकेतक है कि चीनी मन पर अमेरिका ने किस हद तक कब्जा जमा लिया है। बिजनेस सूट, जीन्स, मिनी स्कर्टस और निश्चय ही हॉट पैंट – सब मिल कर एक लंबी कहानी को संक्षेप में कह देते हैं। मेट्रो के भूमिगत रास्तों में बोटेक्स और स्तन बढ़ाने के विशाल विज्ञापनों की पृष्ठभूमि में युवा-युवतियों का स्वच्छंद आचरण और प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन असहज कर देता है। नवीनतम केश सज्जाएं – पंक-शंक जो भी हों, पर पश्चिम, विशेषकर हॉलीवुडी, बड़े पैमाने पर युवा-युवतियों के सरों पर सजी देखी जा सकती हैं। क्या बालों को इतने बड़े पैमाने पर नौजवानों द्वारा सुनहरा रंगना महज एक फैशन कहा जा सकता है? संभवत: अब पूर्व के लिए भी आधुनिकता का अर्थ पश्चिम ही हो गया है। या उसकी नकल हो गया है। चीन ही अपवाद नहीं कहा जा सकता। जापान को देखिए, दक्षिण कोरियो को लीजिए, यहां तक कि स्वयं भारत को ही देखिए, क्या हो रहा है? हम 'अपनी'आधुनिकता को विकसित करने में क्यों असमर्थ हो गए हैं? इसके असान जवाब – दिल्ली से बीजिंग, बीजिंग से तोक्यो तक – शायद किसी के पास नहीं हैं।

मॢट्रो की भूमिगत दुनिया जितनी चमकीली और स्वच्छ नजर आती है बाहर उतनी ही धुंध रहती है। उस समय तो कुछ ज्यादा ही थी। पता चला उत्तर में मंगोलिया के रेगिस्तान से आने वाली धूल ने पूरे देश को त्रस्त कर रखा है फिर बीजिंग तो उत्तर में ही है। (बी का अर्थ ही उत्तर और जिंग का राजधानी होता है) उसके साथ स्मॉग (धुंआरे) ने, जो शुद्ध शहर की देन था, मिल कर रही-सही कसर पूरी की हुई थी। चेहरे पर हरे-सफेद मेडिकल मॉस्क लगाए लोग जगह-जगह नजर आ रहे थे। पर आश्चर्य की बात दूसरी ही थी। वह थी लोगों, विशेषकर युवाओं का धूम्रपान प्रेम। विशेषकर जब दुनिया में लोग धूम्रपान बड़े पैमाने पर छोड़ रहे हैं चीन में इतने सारे लोगों का सिगरेट पीते मिल जाना, कम अजीब नहीं लगता। क्या चीनी सरकार युवाओं के सिगरेट पीने को लेकर चिंतित नहीं होगी? एक सर्वव्याप्त धुंआ था जिसे लगता था, स्वीकार कर लिया गया था। विशेषज्ञों का कहना है यह विकास की कीमत है जो चीन चुका रहा है।

कुछ विदेशी बाकी सब देशी

हमारा गाइड अंग्रेजी धाराप्रवाह बोल रहा था। अमेरिकी उच्चारण के बावजूद बात समझने में दिक्कत नहीं हो रही थी। कार्यक्रम के अनुसार हमें उस दिन चीन की दीवार देखनी थी पर उस चतुर-सुजान व्यक्ति ने बिना किसी सूचना के ऐन मौके पर कार्यक्रम में परिवर्तन कर दिया और सीधे शहर दिखलाने ले गया। रास्ते में समझाया, कल रविवार होने से गु गांग (फॉरबिडन सिटी या प्रतिबंधित शहर) में बहुत भीड़ रहेगी। प्रत्यक्षत: वह गलत नहीं था। हमारा पहला पड़ाव ही गु गांग था। वहां अनगिनत समूह नजर आ रहे थे। कुछ तो एक-ही रंग की टोपियां पहने थे मानो आइपीएल की किसी टीम के सदस्य हों। सबका नेतृत्व एक झंडाधारी कर रहा था। किसी तार जैसी धातु की लचीली डंडी पर टंकी ये झंडियां विभिन्न रंगों की थीं। नेतृत्व करने वाले के पास एक छोटा लाउडस्पीकर भी था जिसका इस्तेमाल वह सूचनाएं देने के लिए कर रहा था। ये छोटे कस्बों और गांवों के लोग थे। इनमें से कई पहली बार यहां आए होंगे, गाइड ने हमें समझाया। उसके स्वर में एक परिचित हीनता थी जैसी कि बाहरी गांवों से आनेवालों के प्रति सारी दुनिया के नगरवासियों में रहती है। इसके बाजवूद ये सारे लोग खासे आधुनिक नजर आ रहे थे, उतने ही फैशनेबुल जितने कि उनके शहरी भाईबंद हो सकते हैं। विशेष कर युवा बहुत ही आधुनिक और भड़कीले पहनावे में थे। वे उतने ही स्वस्थ और चमकते नजर आ रहे थे जितने कि बीजिंग के लोग। कुपोषण या और किसी तरह की कोई कमी कहीं नजर नहीं आ रही थी। मेरे लिए यह कौतुहल का विषय था कि भीड़ में कुछ माओ कोट और टोपियां भी थीं। यह अपने आप में खासा बड़ा प्रमाण था कि वे लोग बाहर के तो हैं बल्कि पिछड़े, बुजुर्ग माओवादी दौर के अवशेष भी हैं।

उस कंडक्टेड टूर में सिर्फ विदेशी थे और संख्या में 10-12 से ज्यादा नहीं थे। हमारे साथ तीन ब्रिटिश नागरिक थे। बुजुर्ग रिटायर्ड दंपत्ति और उनकी एक भतीजी या भांजी जो आस्ट्रेलिया में जाकर बस गई थी। हमें दोस्ती करने में देर नहीं लगी। आखिर अंग्रेजों से हमारा पुराना रिश्ता है। फिर वह भारत आए हुए भी थे। हम पहले दरवाजे जो 'व्युमनÓ या मध्याह्निक (मैरिडियन) कहलाता है से घुसे ही थे कि एक युवती ने अपने साथ फोटो खिंचवाने का अनुरोध कर किया। बुढ़ापे में यह मजेदार अनुरोध था। हम दोनों जम कर उस लड़की के साथ खड़े हो गए। पर हमें अंदाज नहीं था कि इस अनुरोध के साथ ही हमारा सेलिब्रिटि स्टेटस समाप्त नहीं होनेवाला है। कहना चाहिए अनुरोधों की अप्रत्याशित शृंखला का तांता ही लग गया। स्पष्ट था कि विदेशी, विशेषकर श्वेत योरोपीयों की भारी मांग है। योरोपीयों के साथ का यह अयाचित लाभ हमें भी मिल रहा था।
हम फॉरबिडन सिटी का कम और भीड़ का ज्यादा आनंद लेने लगे थे। रिचर्ड ने, जो मेरी ही उम्र के थे, एक मजेदार बात की ओर ध्यान आकर्षित किया। बोले, आपने देखा, मेरे और आप के अलावा यहां कोई भी दाढ़ी वाला नहीं है। रिचर्ड के बाल भी थोड़े बढ़े हुए थे। वह किसी चित्रकार से कम नहीं लग रहे थे। मैं ने यों ही इधर-उधर नजर दौड़ाई। बात सामान्य थी पर थी वाक ई ध्यान देने योग्य। न कोई युवा और न ही कोई बुजुर्ग, दाढ़ी या बाल बढ़ाए था। सब लोग करीने से बाल कटाए थे। सामान्यत: क्लीन शेव वाले ही लोग थे। मूंछें भी लगभग नहीं थीं। ऐसे लोग जो अपने बालों के प्रति इतने सजग हों आखिर दाढ़ी से क्यों बच रहे थे? या उनके बालों में सप्रयास पैदा वैसा ओजस्वी औघड़पन क्यों नहीं था जैसा हमारे यहां या दुनिया में और जगह कलाकारों या उस तरह की प्रकृति के लोगों में देखने को मिलता है। बाल दाढ़ी तो छोड़िए किसी ऐसे व्यक्ति का भी मिल जाना असंभव था जो अपनी वेशभूषा को लेकर बेपरवाह हो।

उस के बाद मैंने जितना चीन देखा, अंग्रेज की बात मुझे उतनी ही याद आती रही, और चकित करती रही। शायद ही कहीं कोई दाढ़ीवाला मिला हो। हां, शीयान के मुस्लिम मुहल्ले में अवश्य कुछ इस्लाम धर्मी दाढ़ियां बढ़ाए नजर आए थे पर वे भी लगभग अपवाद जैसे ही थे। बहुत हुआ तो मुस्लिम गोल टोपी पहने हुए जरूर मिल जाते थे। ऐसा क्यों होगा? यह कोई बड़ा सवाल नहीं था, पर हैरान करने वाला तो था ही। क्या इसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि चीनी समाज ऐसे लोगों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है जो जरा भी, प्रतिकात्मक स्तर पर ही सही, बोहमियन, फकीराना, लापरवाह या असामान्य दिखने या सोचने की कोशिश करते नजर आते हों? फैशन के वे पश्चिमी तरीके – स्पाईक्ड बालों से लेकर कसी जीनों और हॉट पैंट तक – जो युवाओं को जरूरी-बेजरूरी आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध बनाते हों, जरा भी आपत्तिजनक नहीं हो सकते हों पर फैशन की वे अभिव्यक्तियां जो सामान्यता को नकारती लगें, सिरे से गायब हों, असामान्य नहीं कहा जाएगा? तो क्या चीनी युवा स्टैब्लिशमेंट के वे संकेत बखूबी समझ रहे हैं कि जो मन में आए करो – सिगरेट पियो, शराब पीकर झूमो, बेलगाम फैशन में डूबे रहो, हमें कोई आपत्ति नहीं है, पर असामान्य होने की कोशिश न करो?
बीजिंग में देखने को बहुत कुछ है। नगर दर्शन करते-करते शाम तक हम थक चुके थे। लौटते हुए जब हमने पूछा आप कल चीन की दीवार देखने चलेंगे तो ब्रिटिश दंपत्ति ने बतलाया, हम दीवार देख चुके हैं। कल स्वदेश लौट रहे हैं। अब मेरी समझ में आया कि गाइड ने हमारे कार्यक्रम में तब्दीली क्यों की। उसने हम तीनों को भी उनके साथ नत्थी कर लिया था।

'सिद्धार्थ'नाम की फिल्म

किसी शो रूम की तरह चमचमाता बीजिंग हलचलों से भरा शहर है। इस का कारण अप्रैल का वह महीना हो सकता था जब हम सौभाग्य से वहां थे। इस दौरान अधिकतम तापमान 20 और न्यूनतम 11 डिग्री के आसपास रहने से यह साल का सबसे खुशनुमा मौसम था। बीजिंग की ठंड बदनाम है और गर्मी भी कम नहीं पड़ती। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह एक दिन पहले शुरू हुआ था और अखबार बतला रहे थे कि आने वाले दिनों में ऑटोमोबाइल प्रदर्शनी के अलावा फैशन शो भी कतार में है। वांगफूजिंग में हमें एक सिनेमा हाल मिला जिसमें फिल्म समारोह चल रहा था। आधिकारिक सरकारी अंग्रेजी अखबार चाइना डेली में उस दिन एक मजेदार रिपोर्ट थी। उसके अनुसार, "राजधानी में चौथे वार्षिक बीजिंग अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की शुरुआत के दौरान हॉलीवुड के दुनिया के दूसरे सबसे बड़े फिल्म बाजार (यानी चीन) के साथ संबंध पूरे शबाब पर देखने को मिले।"

रिपोर्ट में आगे कहा गया था कि ग्रेविटी फिल्म के निर्देशक अलफांसो क्युवारोन्स भी समारोह में उपस्थित थे। इस फिल्म ने चीन में सन 2013 में छह करोड़ 90 लाख युआन यानी लगभग 66 करोड़ 60 लाख का धंधा किया था। ऐसा नहीं है कि जनता हॉलीवुड की डब की हुई फिल्मों को ही पसंद करती है, हॉलीवुड के हीरो- हीरोइन भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। जहां-तहां हालिवुड की फिल्मों के पोस्टर देखे जा सकते हैं। बुलेट ट्रेन में भी हॉलीवुड की फिल्म चीनी डबिंग के साथ चल रही थीं। एमेजिंग स्पाइडरमैन का दूसरा भाग भी उन दिनों चर्चा में था।

एक सप्ताह बाद भारत लौट कर पता चला कि चौथे बीजिंग फिल्म समारोह में उत्कृष्ट फिल्म का पुरस्कार भारतीय फिल्म सिद्धार्थ को मिला। फिल्म का निर्देशन एक एनआरआइ रिची मेहता ने किया था पर वह बॉलीवुड में बनी थी न कि हॉलीवुड में। मजे की बात यह थी कि फिल्म का संबंध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध से नहीं था, जिसके माननेवाले चीन में बड़ी संख्या में हैं। बल्कि यह फिल्म एक पिता के अपने खोए बच्चे की तलाश की कहानी है। चीन में बच्चों को लेकर जबर्दस्त भावात्मक उथल-पुथल है और इसका संबंध वहां एक बच्चे की पाबंदी-से है।

इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि चीन भारतीय फिल्मों का बड़ा बाजार हो सकता है, चीन की सारी अमेरिका परस्ती के बावजूद, हॉलीवुड को बॉलीवुड की फिल्में पीटने में देर नहीं लगाएंगी। चीन अंतत: है तो एशियाईदेश ही।

बाजार में मारकेज की याद

वांगफूजिंग शहर के बीच में बहुत सुंदर और फैशनेबुल बाजार है। ताइनामेन चौक, माओ की समाधि, फॉरबिडन सिटी सब इसके आसपास ही हैं। यहां सबसे आकर्षक चीज संभवत: वांगफूजिंग बुक स्टोर नाम की एक छह मंजिली विशाल किताबों की दुकान है जिसमें लगे एलिवेटर पुस्तक प्रेमियों को सतत विभिन्न मंजिलों में पहुंचाते रहते हैं। दुनिया भर के विषयों की किताबें से सजे इसके हर मंजिल के विशाल कक्ष हमारी कनॉटप्लेस की किताबों की दुकान से दो गुने चौड़े तो होंगे ही। लेकिन सब किताबें चीनी में थीं। हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ, क्या अंग्रेजी में कुछ नहीं होगा? हम चलते रहे और अंतत: तीसरी मंजिल में कुछ अल्मारियां मिल ही गईं जो अंग्रेजी के लोकप्रिय लुगदी कथा साहित्य के अलावा चीनी संस्कृति, इतिहास, कुछ पेंगुइन क्लासिक्स, चीन पर अंग्रेजी में लिखे कुछ उपन्यास और गेब्रियल गार्सिया मारकेज के दो उपन्यासों से भरी थीं। जिस किताब ने मुझे विशेषकर आकर्षित किया वह थी अमिताव घोष की द सी ऑफ पॉपीज। यह अफीम युद्ध पर लिखा गया उपन्यास है। इन के पीछे के रैकों में मात्से दोंग के कई खंडों वाला भारी भरकम वाङ्मय था।

इसमें शंका नहीं कि वांगफूजिंग बाजार कम से कम एक बार तो देखने लायक है। मॉल जैसी विशाल दुकानें डिजाइनर कपड़ों से लेकर लक्जरी घड़ियों जैसे फैशनेबुल सामानों से भरीं थीं। शायद ही ऐसा कोई मल्टी नेशनल ब्रांड न हो जो नजर न आ रहा हो। विशेषकर घड़ियों के इतने बड़े शो रूम मेरी कल्पना से परे थे। रोलेक्स, राडो, डिओर, बेंटले, टेग हेयुर, हुबोल्ट, पेनराई एक से एक नाम थे। सुना जाता है कि अब से स्विस घड़ियां यहीं बनती हैं और पचास हजार की घड़ी को फ्ली मार्केट में हजार दो हजार में आम खरीदा जा सकता है। चीन अपनी प्रगति और समृद्धि के रहस्यों को छिपाने में ढाई हजार वर्ष पहले रेशम युग से ही माहिर रहा है।

पटरियां ही नहीं बल्कि लगभग एक किमी लंबी मुख्य सड़क भी खरीदारों के चलने के लिए खुली थी और वहां गाड़ियां पूरी तरह वर्जित थीं। कहीं कोई फेरीवाला या पटरी पर बैठनेवाला नजर नहीं आ रहा था। लेकिन उन्हें व्यवस्थित तरीके से बाजार के बीच-बीच में बड़े-बड़े हालों में जगह दी हुई थी। ये जगहें भीड़ और हल्ले-गुल्ले से भरी थीं। मेरी पत्नी कुछ हल्के-फुल्के और सस्ते सामानों की तलाश में ऐसी ही एक हाल में घुसीं। साथ में बेटा था। जैसा कि होता है मैंने दाम-युद्ध की चिकचिक से बेहतर बाहर ही इंतजार करना ठीक समझा। चीनी संगीत के हमारी ही तरह जबर्दस्त प्रेमी हैं। पर पश्चिमी संगीत के प्रति उनका लगाव कुछ ज्यादा उमड़ता नजर आ रहा था। पश्चिमी धुनों पर चीनी गानों की भी कमी नहीं थी। जो भी हो म्यूजिक सिस्टम हर कदम पर जोशो-खरोश से बज रहे थे।

मैं उस खोमचा-बाजार के ऐन बाहर खड़ा हो गया। भीड़ में स्थानीय लोग तो थे ही विदेशी भी कम नजर नहीं आ रहे थे। योरोपियों के अलावा अफ्रीकी और एशियाई भी। एशियाईयों से मेरा तात्पर्य हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंग्लादेशी और श्रीलंकाइयों से है। पाकिस्तानी कुछ ज्यादा ही थे। मुझे ज्यादा खड़ा नहीं होना पड़ा। फुटपाथ के समानांतर लगी एक पत्थर की बैंच पर जल्दी ही जगह खाली हो गई और मैं एक कोने पर बैठ गया। शाम ठंडी थी इस पर भी आरामदायक थी। मैं एक पूरी बाजू के स्वेटर में ढटा हुआ था।
इस बैंच ने मुझे वह एकांत दे दिया था जिसकी मुझे सुबह से तलाश थी। उस अविराम जन प्रवाह और इलेक्ट्रानिक हल्ले से कटने में मुझे कुछ ही क्षण लगे होंगे।

मारकेज का, अपनी पीढ़ी के कई लोगों की तरह, मैं भी प्रेमी रहा हूं। साहित्य का पहला नोबेल पुरस्कार पानेवाले चीनी लेखक मो यान उनके प्रशंसक हैं। मो यान पर मारकेज का जबर्दस्त प्रभाव है। सच यह है कि मारकेज चीन में बहुत लोकप्रिय हैं। वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के चीनी अनुवाद की लाखों प्रतियां वहां बिकी हैं। वह कैंसर से पिछले कुछ वर्षों से पीड़ित थे। उनका देहांत 87 वर्ष की भरीपूरी उम्र में हुआ था। इस पर भी यह सुनना दुखद था कि वह आदमी जिसके आप इतने बड़े प्रशंसक थे, नहीं रहा है। उनका देहांत पिछली रात हुआ था और सुबह के अखबारों में समाचार नहीं था। इस दुखद समाचार के बारे में मेरे बेटे ने बतलाया था जिसे यह जानकारी इंटरनेट से मिली थी। होटल के हमारे कमरे में टीवी था पर देखने का अवसर नहीं मिला था। उस महान कोलंबियाई लेखक को याद कर मैं उदास-सा महसूस करने लगा। जो भी हो वह हमारे दौर के बड़े लेखकों में थे और एक मायने में समकालीन भी, जिसने एक लेखक के रूप में दुनिया को देखने की हमें एक नई ही दृष्टि दी थी। उनका जाना एक पीढ़ी के खत्म होने का संकेत था।
मेरी पत्नी आने का नाम नहीं ले रही थीं। मैंने महसूस किया कि भीड़ घटने लगी है और ठंड भी बढ़ गई है। बैंच पर मैं अकेला रह गया था। अचानक कोट पहना एक अधेड़-सी उम्र का आदमी मेरे सामने आकर रुका और उसने कोट की जेब से इतने अप्रत्याशित तरीके से हाथ निकाला मानो पिस्तौल निकाल रहा हो। मैं थोड़ा झसका। पर मेरे सामने पिस्तौल नहीं एक हाथ था। ऐसा हाथ जिसका पंजा कटा था। ठूंठ जैसे हाथ को समझने में मुझे समय लगा। पर तब तक मेरा सर नकार में हिल चुका था। वह आदमी खरगोश की तरह चौकन्ना था। उसने इधर-उधर देखा, नि:शब्द अपना हाथ समेटा और बिना किसी आग्रह के आगे बढ़ गया। यह असहायता का हाथ था जो न जाने कैसे कटा होगा। मुझे बुरा लगा, इतना कठोर नहीं होना चाहिए था।

मैं फिर से सोचने लगा था उस मौत के बारे में जिसकी विशद् का अंदाजा मुझे अब लग रहा था। यह जाना एक दौर के पटाक्षेप का भी संकेत था। मारकेज की वह बात जो एक लेखक के रूप में मैं कभी नहीं भूल पाता हूं उन्होंने कई वर्ष पहले एक साक्षात्कार में कही थी। किसी भी रचना का पहला वाक्य लिखना ही सबसे कठिन और चुनौती भरा होता है। वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूट (हिंदी में एकांत के सौ वर्ष) का पहला वाक्य याद कीजिए: "कई वर्ष बाद जब कर्नल ऑरेलिआनो बुंदिआ फायरिंग स्क्वैड के सामने खड़े थे उन्हें विगत की वह दोहर याद आई थी जब उनके पिता उन्हें बर्फ दिखलाने ले गए थे।'।'इसी तरह ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क का पहला वाक्य है: "सप्ताहांत को गिद्ध राष्ट्रपति के महल में बालकनी की खिड़कियों के कांच को चौंच मार-मार कर तोड़ते हुए घुस गए थे और उन्होंने पंखों की फड़फड़ाहट से अंदर ठहर गए समय को चैतन्य कर दिया था और सोमवार की सुबह शहर एक मरे हुए बड़े आदमी की गलित भव्यता की गुनगुनी हवा के झोंके से अपने सदियों के आलस्य से जागा था।"या फिर लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा का यह अद्भुत पहला वाक्य: "यह अपरिहार्य था: कड़ुए बादामों की गंध उसे सदा अप्रतिदत्त प्रेम की नियति की याद दिलाती थी।"ये सब इतने स्वयंस्फूर्त और चमत्कारी लगते हैं कि आप इनके पीछे की मेहनत को भूल जाते हैं। वह पाठकों के लेखक तो थे ही लेखकों के भी उतने ही बड़े लेखक थे। हमने उनसे कई चीजें सीखी हैं और अब भी कई बातें सीखनी बाकी हैं।

तभी मैंने सुना जैसे कोई अंग्रेजी में कुछ बोल रहा हो। मेरी तंद्रा टूटी। "हैलो सर!"जैसा कुछ था।
मुझे समझने में कुछ क्षण लगे। बैंच पर मेरे अलावा कोई नहीं था। दोहराया हुआ संबोधन मेरे ही लिए था। मैंने दाईं ओर गर्दन फेरी। एक चीनी युवती मुस्करा रही थी। उसने पूछा, "आर यू एलोन सर?" (क्या आप अकेले हैं?) उसके प्रश्न में किसी तरह की शंका की गुंजाइश नहीं थी इसपर भी वह इतना अप्रत्याशित था कि यकायक जवाब देना मुश्किल हो गया। वह अब तक मेरी अचकचाहट भांप गई थी। उसने मुस्कराकर दोहराया, "आर यू एलोन सर ऑर वेटिंग फॉर यूअर फ्रेंड?" (आप अकेले हैं या अपने मित्र का इंतजार कर रहे हैं?)

अब तक मैं संभल चुका था। किसी तरह मुस्कराने का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा, "ओह नो थैंक्स। यस आई एम वेटिंग …" (अरे धन्यवाद! हां में इंतजार…) अंतत: मैंने कह ही दिया था। और कुछ भी कहना चाहता था पर उसके पास मेरे उत्तर के लिए ज्यादा समय नहीं था। वह सिर्फ 'हां'या 'ना'में जवाब चाहती थी। बाकी उत्तर मेरे मुंह में ही रह गया था। उसने हाथ हिलाया और "बाई, बाई!"कहने के साथ ही नियोन लाइटों की रंग-बिरंगी रोशनी में नहाई भीड़ में बिला गई। मैं उसके तौर-तरीकों की तारीफ किए बिना नहीं रह पाया।
यह मारकेज का दिन था। मुझे अप्रयास ही उनकी आत्मकथा लिविंग टु टैल द टेल की घटना याद आ गई। शुरुआती दिनों की बात थी जब वह एक युवा लेखक के तौर पर संघर्षरत थे। वह अपनी माता जी के साथ नदी के रास्ते अपने शहर अर्काटाका जा रहे होते हैं। धीमी गति से चलनेवाला स्टीमर यात्रियों से भरा है। वहां एक युवा वेश्या जबर्दस्त धंधा कर रही होती है। मारकेज की मां उस महिला की स्थिति पर अफसोस प्रकट करती हैं, इस पर भी उसकी मजबूरी समझती हैं।

पर संभवत: मुझे किसी और चीज ने परेशान किया हुआ था। आखिर वह क्या हो सकता है जिसने कि मुझे मारकेज की मृत्यु के अगले दिन, बीसवीं सदी के मध्य के कोलंबिया की, 21वीं सदी के दूसरे दशक के बीजिंग से, तुलना करने को मजबूर किया? क्या यह मेरी कल्पना की बेलगाम अर्थहीन भटकन थी या फिर वास्तव में जरूर कुछ ऐसा था जो चीजों को इस तरह जोड़ रहा था? मेरे पास तत्काल कोई उत्तर नहीं था।

वह बीजिंग का आखिरी दिन था। अगली सुबह जब हम लौट रहे थे, अखबार मारकेज के निधन के समाचार और शृद्धांजलियों से भरे हुए थे।

मित्रों को पढ़ायें

 समयांतर से साभार 

Countercurrents is back online

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Countercurrents is back online


Dear Friend,

After a frustrating outage Countercurrents is back online. Thank you all for your patience and support. Here is the new news letter with all  the backlog.


 In Solidarity
 Binu Mathew
 Editor
 www.countercurrents.org


The Time To Act Is Now: IPCC Issues 'Final Word' On Climate Change
 By Lauren McCauley

http://www.countercurrents.org/mccauley031114.htm

We must reduce global carbon emissions and we must do it now, concludes a landmark report released in Copenhagen on Sunday by the United Nations climate science body, the Intergovernment Panel on Climate Change


What Will It Take To Go Beyond Extractivism?
 By Federico Fuentes

http://www.countercurrents.org/fuentes031114.htm

The debate has led to the coining of the term "extractivism". While almost non-existent in leftist discourse only a few years ago, extractivism has become a central focus for many progressives


A History Lesson: What ISIS Learned From IRGUN
 By William A. Cook

http://www.countercurrents.org/cook031114.htm

 There is an irony growing out of this conundrum: ISIS in Syria borders the Israeli state; the Islamic State as envisioned by ISIS includes areas designated for Eretz Israel. A battle of beliefs looms in the mid-East with both sides committed to their respective god given lands, both driven by fanatical believers in the righteousness of their cause, both determined to prevent the other from succeeding


Upheaval In WANA: Who Is Responsible?
 By Chandra Muzaffar

http://www.countercurrents.org/muzaffar031114.htm

WANA (West Asia and North Africa) has been engulfed in turmoil and upheaval for decades. What are the root causes of instability in this vital region of the world? An objective analysis would reveal that the elite interests of two states in WANA, Israel and Saudi Arabia, and the drive for dominance and control over the region by the United States and its allies lie at the root of the perpetual conflict and violence that has brought so much death and destruction to WANA


On The List
 By Kathy Kelly

http://www.countercurrents.org/kelly031114.htm

Later that afternoon, when I returned from running an errand, two more women wearing burkas were sitting downstairs; several more were upstairs. They will come, constantly, persistently, desperately. I wish they could knock on the gates of the Pentagon, and refuse to go away. Actually, they have something in common with U.S. military generals who won't go away either. The Pentagon has requested $58.6 billion, for Fiscal Year 2015 , to fund U.S. troops in Afghanistan


Extremists Execute Up To 30,000 Surrendered Soldiers And Civilians
 By Robert Barsocchini

http://www.countercurrents.org/barsocchini031114.htm

Militant extremists executed up to thirty-thousand surrendered soldiers and civilians along a single stretch of desolate highway between Iraq and Kuwait. The extremist group calls itself USA – United States of America. The year was 1991, and this massacre came to be know as the "Highway of Death"…


The Subjugation Of India By The US Rests On Monsanto's Control Of Agriculture
 By Colin Todhunter

http://www.countercurrents.org/todhunter031114.htm

After a study of GMOs over a four-year plus period, India's multi-party Parliamentary Standing Committee on Agriculture recommended a ban on GM food crops stating they had no role in a country of small farmers. The Supreme Court appointed a technical expert committee (TEC), which recommended an indefinite moratorium on the field trials of GM crops until the government devised a proper regulatory and safety mechanism. As yet, no such mechanism exists, but open field trials are being given the go ahead. GMO crops approved for field trials include rice, maize, chickpea, sugarcane, and brinjal


Koodankulam: Corruption To Impending Disaster – The Missing Link?
 By Dr. V. Prakash

http://www.countercurrents.org/prakash031114.htm

Now it is an agreed fact by NPCIL, Rosatom and Russian Embassy, that there is certain problem in the turbine. The plant, which faced an unplanned shut down on September 16, 2014 may resume operation by end of November or end of December


What Speaks The Speaking Tree? Koodankulam Nuclear Reactor
 During Its One Year Of Grid Connection
 By VT Padmanabhan, R Ramesh, V Pugazhendi, & Joseph Makkoli

http://www.countercurrents.org/padmanabhan031114.htm

The first unit of the Koodankulam Nuclear Power Plant (KKNPP-1) attained criticality on 15 Jul 2013 and was grid connected on 22 Oct 2013. During the 365 days since grid connection, the reactor was under outage for 106 days and on maintenance shut-down for 64 days. It generated 2825 million units (MU) of electricity and consumed 538 MU for house-load (own consumption). The original plan to start commercial generation on 22nd April 2014, six months after its grid connection was postponed twice to 22nd Jul 14 and 22nd Oct 14. Now that the reactor has been shudt down on 25 Sep 14 for repair/replacement of turbo-generator, there is no burden of any deadline


Unclear Nuclear Issues
 By S.G.Vombatkere

http://www.countercurrents.org/vombatkere031114.htm

In the background of the adage that there are more questions that a fool can ask than a wise man can answer, this fool asks some questions of nuclear scientists and engineers


As Irom Sharmila's Fast Reaches 15 Years Where Do We Stand On AFSPA
 By Pankaj Pathak

http://www.countercurrents.org/pathak031114.htm

On the eve of 5th November when iron lady Irom Sharmila started her fast 15 years back for revocation of AFSPA from Manipur, 'SAVE SHARMILA SOLIDARITY CAMPAIN' (SSSC) is writing letters to each parliamentarian to express his views on this issue and raise this issue in winter session of parliament. We are also ensuring to meet or convey our message to chief of state leaders of all the parties contesting polls in J&K. Our demand is to include the promise of removal of the AFSPA in time bound manner from J&K in their manifesto in upcoming elections


Human Trafficking In India
 By Jaffer Latief Najar

http://www.countercurrents.org/najar031114.pdf

Human trafficking is one of the major concern of twenty first century that has taken a rapid pace with the advent of the free movement and free trade under the shadow of globalisation. One should not be confuse about Human Trafficking as a form of human smuggling and migration. On the one side, smuggling involves illicit crossing of nation-state border with proper intention and concensus of the indiviual and migration is nothing, but voluntary movement of indiviuals. On the other side, Human-trafficking has been subjected to the act without the wishes of the indiviuals leading to vulnerability and exploitation


Statement On The Recent Communal Disturbances In Trilokpuri
 By People's Alliance for Democracy and Secularism (P.A.D.S)

http://www.countercurrents.org/pads031114.htm

Members of P.A.D.S. have been interacting with and visiting residents of Trilokpuri ever since the communal disturbances started on Oct 23. Along with many other citizens we are involved in efforts to re-establish peace and in providing legal aid to those wrongfully arrested. This statement is based on our experiences


Kandizal Breach: Victim Of Political Compulsions
 By Abdul Majid Zargar

http://www.countercurrents.org/zargar031114.htm

The admission by Chief Minster Omar Abdullah , in an interview published in Khaleej Times of 19th October 2014, about the brazen role of MLA Chadoora, Javaid Mustafa Mir in obstructing the breach of Kandizal area as per the standard operating procedure ,raises some pertinent questions

31 October, 2014


Pentagon Claims "Russian Aggression" Against NATO
 By Patrick Martin

http://www.countercurrents.org/martin311014.htm

The Obama administration and the Pentagon are stoking up military tensions with Russia in the wake of the October 26 Ukrainian parliamentary elections, claiming that flights by small numbers of warplanes over international waters Wednesdayconstituted "political saber-rattling" and even "Russian aggression."


War Resumes In Ukraine
 By Eric Zuesse

http://www.countercurrents.org/zuesse311014.htm

Ukraine's President Says All Ukrainians Who Reject His Government Should Die. Ukraine Violates Ceasefire Agreement w. Russia and OSCE, Re-Invades Its East


The Nazi-CIA Connection
 By Mickey Z.

http://www.countercurrents.org/mickeyz311014.htm

In what constitutes a corporate media "scoop," the New York Times recently reported on how "newly disclosed records and interviews" broke [sic] this story: "In the decades after World War II, the CIA and other United States agencies employed at least a thousand Nazis as Cold War spies and informants and, as recently as the 1990s, concealed the government's ties to some still living in America."


Interrelated Threats To Humans And To The Biosphere
 By John Scales Avery

http://www.countercurrents.org/avery311014.htm

We live in a time of crisis. We did not ask to be born at such a time, but history has given to our generation an enormous responsibility towards future generations. We must achieve a new kind of economy, a steady-state economy. We must stabilize global population. We must replace fossil fuels by renewable energy. We must abolish the institution of war. We must act with dedication and fearlessness to save the future of the earth for human civilization and for the plants and animals with which we share the gift of life


Preserve The 'Kiss Of Love'
 By Kandathil Sebastian

http://www.countercurrents.org/sebastian311014.htm

On 2nd November, some youngsters from Kochi in the state of Kerala, India plan to organize a different kind of protest which they call 'kiss of love'. These youngsters are protesting against the growing intolerance towards the Public Display of Affection in the state and they call likeminded couples to come out in large numbers to join them by hugging and kissing each other


The Colombian Peace Negotiations: Prospects And Continuing Horrors
 By Justin Podur

http://www.countercurrents.org/podur311014.htm

It is now about four years since the unofficial initiation of the ongoing peace process between the FARC and the Colombian government (secret approaches were made starting in October 2010), and over two years since the official opening of talks based on a "General Agreement" signed on August 26, 2012. There have been thirty rounds of negotiations to date, which have brought negotiators from the government and the FARC to Havana


Are We Hard-Wired To Think We Can Grow Forever?
 By James Magnus-Johnston

http://www.countercurrents.org/johnston311014.htm

Humanity is an irrational lot, prone to denial and short-termism. If rational arguments were primary catalysts for social change, perhaps a steady state economy would already be a reality. Research in behavioural economics and cognitive psychology is beginning to help us understand why human beings don't always make decisions that are in their best interests. Can we overcome our irrational, maladapted mental hard-wiring to thrive in a post-growth future?


Poetry And Politics: The Tough Relations
 By V.I. Postnikov

http://www.countercurrents.org/postnikov311014.htm

The relations between poetry and politics have always been strained. Many great poets have deliberately stood outside politics, or even disdained it. Others subconsciously avoided the "mundane" topics. Yet, there are some that wholly embraced politics and fed upon it. The latest poet's talk between Gary Corseri and Charles Orlovski has spurred my long-standing desire to try to probe these relations


Building Political Capital On Hate Propaganda
 By Vidya Bhushan Rawat

http://www.countercurrents.org/rawat311014.htm

It is a reminder bell that rings every year which has not changed us to the core. The horrific crimes against humanity perpetrated by the political goons in the dark night of October 31st till a couple of days of November 1984 after the then Prime Minister Indira Gandhi was declared officially 'dead' and which remain unpunished till date is not just a matter of shame but absolute failure of our democracy


Jan Dhan Yojana: Ambitious But Ambiguous Plan
 By Kavaljit Singh

http://www.countercurrents.org/ksingh311014.htm

Jan Dhan Yojana (People's Wealth Plan) – an ambitious financial inclusion program – was launched amid much fanfare in India on 28th August, 2014. The initial target of Jan Dhan Yojana is to cover 75 million unbanked households by26th January, 2015. The government claims that on the inaugural day, a record 15 million bank accounts were opened across the country under this initiative. Nowhere else in the world, such a large number of bank accounts have been opened on a single day. In less than a month, nearly 40 million accounts have been opened under this initiative


Safe Nuclear Power: Fact And Myth
 By S.G.Vombatkere

http://www.countercurrents.org/vombatkere311014.htm

The nuclear energy programs of many countries are either at a standstill or are actually declining. Prominent among these are USA, Sweden and Denmark, and most recently Germany. The reasons for this are to be found solely in public awareness of the dangers of catastrophic accidents and of long-term risks of continued low-level radiation from normal operation of nuclear installations


Trilokpuri Riots: Police have Targeted Muslims: Shabnam Hashmi
 An Interview with Social Activist Shabnam Hashmi by Mishab Irikkur and Abhay Kumar

http://www.countercurrents.org/akumar311014.htm

Shabnam Hashmi believes that the rise of Modi poses an ever bigger challenge to secular forces as the incidents of communal violence have increased many times in the last few months, including the latest one in Delhi's Trilokpuri area and tension in Bawana earlier. Against the background of this, Mishab Irikkur and Abhay Kumar interacted with Hashmi at ANHAD's office in Nizamuddin, Delhi, on Tuesday afternoon, October 28 on a wide range of issues. The excerpts of the interview are as follows


Trilokpuri Ritot: Fact-Finding Report
 By Concerned Citizens

http://www.countercurrents.org/cc311014.htm

A brief fact-finding report of communally instigated tension at Trilokpuri, Delhi


"Swachh Bharat Abhiyan" And The Filth Of Democracy
 By Samar

http://www.countercurrents.org/smar311014.htm

No, the man pictured here has not entered the gutter as part of Prime Minister Narendra Modi's much hyped Swachh Bharat Abhiyan , or "clean India campaign". Unlike the ad rush that shows posing with the broom, he could not have entered the gutter to preach the country about the virtues of cleanliness. He is, in fact, indulging in a practice outlawed time and again by both the legislature and the judiciary of the country, most recently on March 27 this year

लानत है ऐसे स्वार्थी व मौकापरस्त मालिक तथा उसकी घटिया सोच की। उसकी जितनी मजम्मत की जाय कम है।

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Surendra Grover added 2 new photos.
7 hrs · Edited · 
रता था और एक बार उसके ड्राईवर की गलती से मेरा दायाँ हाथ कटते कटते बचा मगर तीन अंगुलियाँ कट गई थी, जिन्हें प्लास्टिक सर्जरी के सहारे जोड़ा गया था.. उस ट्रक मालिक ने मेरा इलाज़ भी करवाना उचित नहीं समझा.. मेरी उम्र उस समय कोई चौदह बरस थी और समझ भी नहीं थी और न ही सोशल मीडिया ही था.. जहाँ मैं अपनी पीड़ा रख सकता.. आज जब इस मासूम लडकी के साथ ऐसी नाइंसाफी हो रही है तो मैं चुप नहीं रह सकता.. आपसे भी अपेक्षा रखता हूँ कि आप भी इस मालिकों के ज़ुल्म और सितम की शिकार लडकी की सहायता करने में पीछे नहीं रहेंगे.. मेरा निवेदन है आपसे कि इस लडकी के पक्ष में अपनी फेसबुक वाल पर ज़रूर लिखे और साथ ही अहमदाबाद के इस न्यूज़ चैनल की निंदा करें..
Surendra Grover's photo.
Surendra Grover's photo.
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कौन-सा धर्म ? कौन-सी- संस्कृति ? कौन-सी क़ानून व्यवस्था ? कौन-सा राज्य ? कौन-सी पार्टी ? कौन-सा नेता ?

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कौन-सा धर्म ? कौन-सी- संस्कृति ? कौन-सी क़ानून व्यवस्था ? कौन-सा राज्य ? कौन-सी पार्टी ? कौन-सा नेता ? एक जवान सॉफ्टवेयर मजदूर दिल्ली में एक दिन काम पर नहीं गया । अगले दिन उसपर आरोप लगा कि उसके नहीं आने से कम्पनी को पिछले दिन 80, 000 रुपये का घाटा हुआ । लड़का गुस्से में आ गया : "जाओ ! मैं नहीं आता ! एकदिन के 80, 000 बनाते हो और देते हो महीने में सिर्फ 25,000 !" यह क़ानूनी लूट है -- जिससे नेता, बाबू , पुलिस, अदालत, जेल , फ़ौज, मैनेजमेंट और कंपनियों का खर्च चलता है । चूँकि मूल्य का निर्माण विश्व-स्तर पर होता है इसीलिए दुनिया में जो भयानक और सुस्पष्ट अत्याचार और युद्ध होते हैं और हुए हैं जैसे अश्विट्स हिरोशिमा, वियतनाम एजेंट- ऑरेंज और नापाम बम, चीन-अमरीका-भारत के रक्षा बजट, अंतरिक्ष कार्यक्रम, इराक़ में अबू ग़रीब , मणिपुर में मनोरमा बलात्कार काण्ड, कश्मीर, आदिवासियों को उजाड़ना, प्रकृति का मानव इतिहास में सबसे बड़ा संहार. … इन सारे पापों की जड़ में हमारा मजदूर होना है । यह सब हमलोगों के नाम पर और हम से बिना पूछे होता है -- और होता आया है। इसीलिए ग़ैर-क़ानूनी लूट यानि " भ्रष्टाचार" तो इस व्यवस्था का सबसे छोटा हिस्सा है। इतने कम समय में धरती के इतिहास में हमारे समाज को सबसे हिंसक समाज ( स्त्रियों और बच्चों पर अनवरत अत्याचार ) बनने से हमको कौन रोक पाया ? कौन-सा धर्म ? कौन-सी- संस्कृति ? कौन-सी टेक्नोलोजी ? कौन-सी क़ानून व्यवस्था ? कौन-सा राज्य ? कौन-सी पार्टी ? कौन-सा नेता ? 
ये सब मिलकर आज तक कुछ नहीं रोक पाये सिर्फ़ मुंह देखते रहे बल्कि उनकी सक्रिय या मौन सहमति ही रही तो अगले बीस-पचास सालों में क्या रोक पायेंगें ?

May we see War Criminals in India be hanged ever? No,Never. Palash Biswas

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May we see  War Criminals in India be hanged ever? No,Never.

Palash Biswas

May we see  War Criminals in India be hanged ever?


The answer remains,No,Never!


Bangladesh's Supreme Court has upheld the death penalty handed down for a Jamaat-e-Islami leader for atrocities committed more than four decades ago, the latest in a spate of rulings against the Islamist party's officials.Mohammad Kamaruzzaman, 62, assistant secretary-general of the party, was found guilty on Monday of genocide and torture of unarmed civilians during the 1971 war to breakaway from Pakistan, by a special war crimes tribunal in May last year.


Earlier,On Sunday, media tycoon Mir Quasem Ali, who is also a key figure in Bangladesh's largest Islamist party, was sentenced to death for war crimes.


May we ever hope that the media tycoons in India responsible to invoke violent tsunami nonstop  since Independence ever be tried for their war crimes like continuous hate campaign,continuous corporate lobbying for ethnic cleansing,exclusion,killing constitution,democracy ,human and civic rights ever be tried?


Those who are glorified as pioneers of Indian media since Sikh Genocide,Bhopal Gas tragedy,Anti reservation fire, Babari mosque demolition,riots countrywide nonstop,minority persecution,salwa judum,AFSPA,Gujarat Genocide, non stop ethnic cleansing and blatant apartheid practiced had reduced India media as lethal weapon of disinformation, hate campaign,persecution, segregation,exclusion,false encounters,corporate lobbying resultant in intensive depopulation and mass destruction all on the name of development ,investment,growth rate,religious nationalism,blind faith and superstitions,violent warmonger nationalism and unprecedented violence.


All of them happen to be war criminals against humanity who have indulged Indian media in a tool to justify the blatant violation of human rights and civic rights, killing the nature,the environment,the weather cycle, biocycle, topography, humanscape across the political borders.

None of them may be tried,none of those war criminals trading hate and violence would ever be tried.None of those responsible of all kinds of scams,responsible to kill citizenship itself finishing the basic concept of justice,equality and truth has to be tried.


None of the war criminals responsible Bhopal Gas Tragedy, Operation blue star and following sikh genocide,communal riots,Babri mosque demolition,mobilising private armies to practice genocide culture against deprived agrarian nature associated communities,invoking non stop atrocities against untouchables,minorities,untouchable geographies like Kashmir,the entire Himalayan Zone, entire north east and entire Tribal humanscape would be hanged in this colonial feudal set up of so called rule of law.


This comes only days after the party's top leader, Motiur Rahman Nizami, was sentenced to death for heading an armed group in 1971.

Ali, also a shipping and real estate tycoon, became the eighth Islamist sentenced to death by the controversial war crimes court, set up by Prime Minister Sheikh Hasina's government in 2010.

The decision, announced on Wednesday, sparked protests by supporters as the Jamaat party called a nationwide strike.Similar judgements against other Jamaat officials last year plunged the country into one of its worst crises. Tens of thousands of Jaamat activists clashed with police in various protests that left some 500 people dead.


Why? We boast to be greatest democracy.We are credited as secular,progressive and ended to become an emerging market which knows the language of market and believes in the aesthetics of purchasing power.


Bangladesh is politically very much in turmoil since independence and has been known for minority persecution.We may not forget Indian role in the liberation war of Bangladesh and the price we paid since.We might not forget the genocide there,minority persecution and continuous refugee influx resultant.


A coup like environment always envelops Bangladesh where the prime minister Begum Hasina Wajed might face the same fate as her father and many of her nearest and dearest ones have met.


But Hasina showed the steelmade political will to hang all the war criminals who manage genocide time to time and are mostly responsible for minority persecution there,the greatest headache for Indian nation,its security and so on.


How could Hasina managed to fight a war against orthodox religious nationalists?


Just because the democratic and secular movement is much more organised and the media as well as intelligentsia dare to sacrifice themselves to defend democracy amidst continuous bloodshed.


Just because scores of journalists and intellectuals have sacrificed themselves in defence on mother language,indigenous culture,equality,social justice,democracy and secularism in most odd situation sustained by foreign hands.

Just because the students and youth,women,professional and social and productive forces,common masses have been mobilised in support of democracy and secularism.


Bangladesh has a central Dalit Mahasangh which is aligned with a central Adivasi Mahasangh,OBC communities have joined the united front with all progressive,secular and democratic forces and finally Shahbagh movement created the support base on which stands the government and judiciary there and could hang anyone responsible  for war crimes.


Just because they resisted the religious foreign nationalism and opted for nationalist identity based on culture,buddhist heritage of Bengal abdicated by Bengal on our map and essentially their mother tongue.


We dare not as we are struck by our multiple identities which aborts the progressive,social,secular democratic rock solidarity in defence of humanity and nature.


We have reduced ourselves as consumers in the open market inflicted by free flow of foreign capital and command and reduced our country as a colony of foreign interests ,for which all the bells toll.


We may not as we have lacs of ATM organisations indulged in identity based power politics and profit making.


We may not because we have no feeling for the hell losing against the majority and we happen to be tagged with those war criminals whom we have and new gods and demigods.

All our heavens have been translated into hell losing all round and we subjected ourselves to continuous holocaust and ethnic cleansing,and racial apartheid of Manusmriti rule under the neo nazi global Order.


We may wait death,we may commit suicide and we may subordinate ourselves to the guillotines,but in no way we dare to stand for our constitution,democracy,progress and secularism.


নবান্ন নিরাপদ। আমরা কতটা নিরাপদ,এই প্রশ্ন বার বার বারম্বার বাংলার আকাশে বাতাসে বসন্তের বজ্রনিণাদ। পলাশ বিশ্বাস

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নবান্ন নিরাপদআমরা কতটা নিরাপদ,এই প্রশ্ন বার বার বারম্বার বাংলার আকাশে বাতাসে বসন্তের বজ্রনিণাদ

পলাশ বিশ্বাস


নবান্ন নিরাপদআমরা কতটা নিরাপদ,এই প্রশ্ন বার বার বারম্বার বাংলার আকাশে বাতাসে বসন্তের বজ্রনিনাদ

গিয়েছিলাম নৈনীতালের বাঙালি উদ্বাস্তু বসতিতে,নতুন জেলা উধম সিংহ নগরের বাসন্তীপুর গ্রামে

নিজের শহর নৈনীতালে ছিলাম,ছিলাম উত্তরাখন্ডের রাজধানী দেহরাদুনে

পয়ত্রিশ বত্সর পর দেখা করলাম চিপকো আন্দোলন ও পরিবেশ চেতনার ভীষ্ম পিতামহ সুন্দরলাল বহুগুণার সঙ্গে

যিনি পয়ত্রিশ বছর পরও আামায় ভোলেন নি

বার বার বললেন,কলকাতায় ফিরে যেন ইন্ডিয়ান স্কুল অফ ম্যানেজমেন্টে গিয়ে জয়ন্ত বন্দোপাধ্যায়ের সঙ্গে অবশ্যই দেখা করি

উনি জানতেন আমি দিল্লীতে যাচ্ছি কিন্তু দিল্লীর একটি নামও মুখে আনলেন না,এতই নাড়ির টান

প্রথমেই সাতাশি বছরের বহুগুণাজি সহ্ঘী জীবনসঙিনী সবিতাকে পাশে বসিয়ে বললেন,আমরাও বাঙালি এবং বন্দোপাধ্যায়

বললেন বহু পুরুষ আগেই তাঁর তিন পূর্ব পুরুষ কেদার দর্শনে উত্তরাখন্ডে গিয়ে ফিরতি পথে টেহরির বুথানী গ্রামে রাত্রি বিশ্রাম করছিলেন

তাঁদের মধ্যে ছিলেন একজন বৈদ্য.যিনি সেই রাতেই গুরুতর অসুস্থ রাজাকে সুস্থ করে তোলেন এবং রাজা তাঁদের ঔ গ্রামে রেখে দেন


তাঁরাই হলেন বহুগুণা


সবিতা এবং আমি অনেক বার জিজ্ঞাসা করলাম,কোথা থেকে তাঁরা গিয়েছিলেন যদি বলেন,তাহলে আমরা সেই শিকড়ের সন্ধ্যান করি,তিনি বলতে পারলেন না

অথচ হিমালয়ে গোমুখে মরুস্থল দর্শন করে পাহাড়িদের অতি প্রিয় ভাক তিনি ছেড়েছেন,প্রকৃতির বিপর্যয়ে এই ভারত মহাদেশে জলের আকাল হচ্ছে খূবই শীগ্গির এবং অন্নে সঙকট ত হচ্ছেই,ধান আর হবে না কোথাও,তাঈ আগে ভাগে ভাতে উপবাস

এমনি করেই,কুমাযুঁতে কৌশানী গ্রামে সেন বংশের উত্তরাধিকারীদের সঙ্গে ছাত্র জীবনে দেখা সাক্ষাত হয়েছে বহুবার,এবং তাঁরা বাংলার সেন বংশে নিজের শিকড় খুঁজে মরেন


হেমবতী নন্দন বহুগুণা এবং সুন্দরলাল বহুগুণার একই উত্স

বাঙালিত্বে তাঁদের পরিচয়

কিন্তু তাঁরা বাংলা লিখতে বলতে পারেন না

পাহাড়ে সেন বংশের উত্তরসুরিরাও বাংলা বলতে পারেন না

এবং আমরা যারা বাংলার বাইরে বাস করি উদ্বাস্তু পুন্রবাসনের সৌজন্যে,স্বাধীনতার পর তাঁরাও বাংলা বলতে লিখতে পারিনা

অথছ আমরা বাংলার পথে ঘাটে মার খাওয়া ,খাল পাড়ে,বিল পাড়ে অনাথ ওপার বাংলার মানুষদের তুলনায় ঢের ভালো আছি

দন্ডকারণ্য থেকে যারা মরিচঝাংফিতে বসতি করতে এসেছিলেন,তাঁরা কোনো দিন ভাবেন নি,সেখানে বাঙালিরা এত ভালো থাকবেন

কম্যুনিস্টরা পূর্ববঙ্গের উদ্বাস্তুদের নূতন হোমল্যান্ড আন্দামান থেকে বন্চিত করেছেন উদ্বাস্তুদের বাংলাতেই পুনর্বাসনের দাবিতে,সেই আন্দামানেও বাঙালিরা মোটামুটি বালো আছেন

ভালো আছেন মহারাষ্ট্রে, তামিলনাডুতে, উড়ীষ্যায়, রাজস্থানে, অন্ধ্রে, উত্তরপ্রদেশ ও উত্তরাখন্ডে

আমার গ্রামের মেয়েরা বউরা,ছেলেরা সবাই টাকরি করে,অনেক বাড়িতে চার চাকা গাড়ি

ব বাড়িই পাকা

আমার গ্রামের চারদিকে পাকা রাস্তা

আমার গ্রামে হাসপাতাল,স্কুল এবং রাজ্যের নেতাজি জয়ন্তী এব বিভিন্ন খেলার প্রতিযোগিতাও আমাদের গ্রামে

আমরা ভালো আছি

কিন্তু বিজেপি সরকার আমাদের বেনাগরিক করে আমাদের নাগরিকত্ব হরণ করেছ সর্বত্র

উত্তরাখন্ডে 2003 এ বাংলার সমর্থনে প্রবল আন্দোলনের ফলে বাঙালিদের এখন বাংলাদেশি বলছেন না কেউ,কিন্তু উত্তর প্রদেশের জেলায় জেলায় যেখানে পুনর্বাসন কলোনী,সেখানে তাঁরা অবশ্যই মুলনিবাসী বলে মান্যতা পাছ্ছেন না,তাঁদের চাকরিও হচ্ছে না

কিন্তু আমাদের সারা দেশ ব্যাপী উদ্বাস্তি জনপদে বাংলা সাহিত্য,বাংলা ভাষা এবং বাংলা সংস্কৃতির চর্চা বন্ধ হয়ে গেছে

পশ্চিম বঙ্গের জনসংখ্যার তুলনায় অনেক বেশি তফসিলী মানুষজন বাংলার ইতিহাস ভুগোল থেকে বেদখল হয়ে গেলেন এবং বাংলা তাঁদের জন্যচোখের জল ফেলবে না

অনেকের টাকা হয়েছে প্রচুর,কিন্তু তাঁরা রবীন্দ্রনাথ নজরুল বিবেকানন্দ নাম শুনেছেন,কিন্তু তাঁদের তেমনকরে চেনেন না যেমন তাঁরা সব ভাষাই শিখছেন,বাংলা অক্ষর চেনেন না

তাঁরা বাংলাভাষায় সংলাপ আলাপ আলোচনায় আদৌ অভ্যস্ত নয়বাংলা ভাষা নিয়ে যাদের বড়ই গরব,বাঙালির জাত্যাভিমানে যাদের ছাতি হরকিউলাস,তাঁরা বাংলা ভাষা ও বাঙালি জাতির এই বিপর্যয় নিয়ে মাথা ঘামাবেন না

কিন্তু এবার উত্তরাখন্ডে গিযে হাড়ে হাড়ে বুঝলাম আমরাও বহুগুণাদের মত,সেনদের মত আর বাঙালি থাকতে পারছি না

জানিনা বাঙ্গালিদের কাছে এই মর্মবেদনার কোনো মানে হয় কিনা

তবু বাংলার বাইরে তৃতীয়শ্রেণীর নাগরিক বেনাগরিক ঘুসপেঠিয়া হয়েও আমরা নিরাপদ আছি

কিন্তু এই বাংলায়,হবাঙালির নিরাপত্তার হাল হকীকত তে এখন কাগজে কাগজে ,টিভি চ্যানেলে ,সবজান্তা প্যানেলে ফর্দাফাইং যাচ্ছে তাই,অথচ বাংলার বাইরের মানুষজন বাঙালিত্বে যাদের আজও পরিচয়,তাঁকা বাংলা কাগজ দেখেন না,টিভিতে সিরিয়াল সিনেমা খেলা দেখলেও খবর দেখেন না,তেমন কোনো বন্দোবস্ত সেখানে নেই

প্রায় কুড়ি দিন স্বজনদের পাশে থেকে কলকাতায় ফিরে যেন আবার সন্ত্রাসের রাজত্বে ফিরে এলাম যেখানে নবান্নের নিরাপত্তা আছে,কিন্তু মানুষের কোনো নিরাপত্তা নেই

তাহলে কি গোটা হবাঙালি জাতিকে কি এবার বাংলার বাইরে পাছিয়ে দিয়ে তাঁদের নিরাপত্তার বন্দোবস্ত করতে হবে,বুঝতে পারছি না


যে বিজেপির জন্য রাজ্যে রাজ্যে বাঙালিদের চরম বিপর্যয়,সেই বিজেপিকে ক্ষমতায় বসাতে বাংলায় প্রচন়্ড সুনামী চলছে,লজ্জায় মুখ ঢাকার জায়গা নেই



আনন্দবাজারের খবরে প্রকাশ,রাজ্য সরকারের সদর দফতরের আশপাশে জমায়েতে নিষেধাজ্ঞা নতুন ঘটনা নয়। সে ব্যবস্থা মহাকরণ ঘিরে বরাবরই আছে। কাছাকাছি লালবাজার, রাজভবন, বিধানসভা ভবন, হাইকোর্ট ইত্যাদি থাকায় সেই নিষেধাজ্ঞার পরিধিও গোটা বিবাদী বাগ চত্বর জুড়ে। কিন্তু নবান্নের ক্ষেত্রে এত দিন তা ছিল চারপাশের ১০০ মিটার পর্যন্ত। এ বার তা অন্তত ছ'গুণ বেড়ে গেল। যার অনেকটাই ঘনবসতি এলাকা।


আহা কি আনন্দ,আনন্দবাদজারেরই খবর,রক্ত ঝরার সাত দিন বাদে ছন্দে ফেরার ইঙ্গিত দিল মাখড়া। এক দিকে, মহরমের কারণে এলাকায় জারি থাকা ১৪৪ ধারা শিথিল করল বীরভূম জেলা পুলিশ-প্রশাসন। অন্য দিকে, তারই ফাঁক গলে সোমবার মাখড়া ও লাগোয়া চৌমণ্ডলপুর গ্রামে ত্রাণ নিয়ে ঢুকল বিজেপির প্রতিনিধি দল। গ্রামবাসীদের একাংশ যেমন বিজেপির মিছিলে সামিল হলেন, তেমনই যোগ দিলেন নিত্য দিনের কাজে।


এই হল গিযা আমাদের প্রগতিশীল উদার ধন ধান্যে পুষ্পে ভরা সকল দেশের রানী সেযে আমার বাংলাদেশ কাঁটাতারে রক্তাক্ত,মৃতপ্রায়


একুনি সুন্দর লাল জি যেমন গোমুখে মরুদর্শন করে ভাত ছেড়েছেন,বাংলার সন্তার্স দর্শনে কি আমাদের বাংলাই ছাড়তে হবে,আমায় ভাবাচ্ছে,আপনাদের ভাবাবে কিনা জানিনা






আজকালে চন্দ্রনাথ বন্দ্যোপাধ্যায়, অনুপম বন্দ্যোপাধ্যায়ের মাখড়াপ্রতিবেদন  সিউড়ি থেকেঃচৌমণ্ডলপুর ও মাখড়া গ্রামে সোমবার ১৪৪ ধারা উঠতেই বি জে পি মিছিল করল দুই গ্রামেই৷‌ অন্য দিকে, পুলিস গ্রামে ঢুকতেই দিল না কংগ্রেসের প্রতিনিধি দলকে৷‌ জোর করে ঢুকতে গেলে পুলিস গোটা প্রতিনিধি দলকেই গ্রেপ্তার করে নিয়ে যায় পাড়ুই থানায়৷‌ পরে তাদের ছেড়ে দেওয়া হয়৷‌ এদিকে ৩ দিনের ছুটি শেষে সোমবার কাজে যোগ দিলেন বীরভূমের পুলিস সুপার অলোক রাজোরিয়া৷‌ এদিনই পাড়ুই থানার ওসি হিসেবে কাজে যোগ দেন প্রসেনজিৎ দত্ত৷‌ ২৪ অক্টোবর বোমা উদ্ধার করতে গিয়ে জখম হয়েছিলেন প্রসেনজিৎ৷‌ অন্য দিকে মাখড়া-কাণ্ডে ধৃত ১০ জনকে ৫ দিনের পুলিস হেফজত শেষে সোমবার ফের সিউড়ির সি জে এম আজালতে তোলা হয়৷‌ বিচারক ধৃতদের ১২ দিনের জেল হেফাজতে পাঠানোর নির্দেশ দেন৷‌ এদিন ১৪৪ ধারার বাঁধন আলগা হলেও, রাজনৈতিক দলগুলির চাপান-উতোরে স্বস্তি ফিরল না গ্রামে৷‌ দুপুরে বি জে পি নেতা জয় ব্যানার্জিকে নিয়ে দলের জেলা সভাপতি দুধকুমার মণ্ডল মিছিল করে গ্রামে ঢুকতেই মাখড়ার তৃণমূল কংগ্রেসের কর্মী-সমর্থকেরা ভয় পেয়ে যান৷‌ যদিও বি জে পি নেতাদের দাবি, কেমন আছেন গ্রামের মানুষ, কী দরকার তাঁদের, এ-সবের খোঁজখবর নেওয়ার জন্যই তাঁরা গ্রামে ঢুকেছিলেন৷‌ যদিও ১৪৪ ধারা তুলতে জেলা প্রশাসনকে বাধ্য করার কৃতিত্ব নিতে বি জে পি-র দাপুটে জেলা সভাপতি দুধকুমার মণ্ডল দাবি করেছেন, লাগাতার চাপ ও আন্দোলনের জন্যই ১৪৪ ধারা প্রত্যাহার করিয়ে গ্রামের মানুষকে স্বস্তি দেওয়া গেছে৷‌ ওদিকে, জেলা কংগ্রেসের সভাপতি সৈয়দ সিরাজ জিম্মির দাবি, গত ১ নভেম্বর প্রদেশ কংগ্রেস সভাপতি অধীর চৌধুরি ১৪৪ ধারা তোলার সময়সীমা বেঁধে দিয়ে জানিয়ে দিয়ে গিয়েছিলেন, ১৪৪ ধারা তোলা না হলে পুলিসকেই গ্রামে আটকে দেওয়া হবে৷‌ সেই চাপেই ১৪৪ ধারা প্রত্যাহার করা হয়েছে৷‌ তবে ১৪৪ ধারা তুলে নেওয়ায় অধীরবাবুকে পুলিস আটকানোর আর প্রয়োজন না হলেও, পুলিস কিন্তু আজও মাখড়া গ্রামে কংগ্রেসের প্রতিনিধি দলকে ঢুকতে দেয়নি৷‌ বি জে পি গ্রামে ঢুকে মিছিল করার অনুমতি পেলেও, কেন কংগ্রেসকে ঢুকতে দেওয়া হবে না? পুলিসের কাছে সৈয়দ জিম্মি এই প্রশ্ন করলেও মেলেনি উত্তর, মেলেনি গ্রামে ঢোকার অনুমতিও৷‌ কংগ্রেস দলে থাকা জেলা আই এন টি ইউ সি নেতা তপন সাহা বলেন, পুলিস জানায়, ওই অবস্হায় গ্রামে যারা মিছিল করেছে, তাদের বিরুদ্ধে আইনানুগ ব্যবস্হা নেওয়া হবে৷‌ কিন্তু ১৪৪ ধারা উঠলেও গ্রামে শাম্তি ফিরিয়ে আনতে রাজনৈতিক মিছিল-মিটিং হতে না দেওয়ার সিদ্ধাম্ত নেওয়া হয়েছে৷‌ পুলিস অবশ্য সংবাদমাধ্যমের কাছে এ নিয়ে মুখ খুলতে নারাজ৷‌ তবে আজ দুপুরে বি জে পি-র মিছিলকে ঘিরে জেলা পুলিসের বজ্র আঁটুনি ফস্কা গেরোর ছবিটাই ফের ফুটে উঠেছে৷‌ যদিও অন্য বিরোধীদের অভিযোগ, পুলিস জেনেশুনেই বি জে পি-কে মিছিল করার সুযোগ করে দিয়েছে ঝামেলা এড়াতে৷‌ যদিও জেলার পদস্হ এক পুলিস অফিসারের বক্তব্য, ১৪৪ ধারা উঠতেই বি জে পি মিছিল করে দেওয়ার পর টনক নড়ে জেলা পুলিস-প্রশাসনের৷‌ তার পরেই নির্দেশ যায়, আর নয়৷‌ বি জে পি-র জেলা সভাপতি দুধকুমার মণ্ডল যদিও বলেন, 'রাজনীতি করার জন্য নয়, আজ গ্রামের মানুষের সঙ্গে কথা বলে জেনে এসেছি এখনই কী তাঁদের প্রয়োজন৷‌ সেই সব নিয়ে আবারও গ্রামে যাব৷‌'গতকাল বি জে পি নেতা তথাগত রায় ত্রাণ নিয়ে ফিরে গেলেও ১৪৪ ধারা উঠতেই তাঁরা সেই ত্রাণ নিয়ে গিয়ে বিলি করেন দুই গ্রামে৷‌ অবশ্য জেলা তৃণমূল কংগ্রেসের সহ-সভাপতি মলয় মুখোপাধ্যায় অভিযোগ করেছেন, রাজনীতি করছে বি জে পি৷‌ এদিকে গ্রামের মানুষ এখনও পুলিসের বিরুদ্ধে মুখ খুললেও, রাজনৈতিক অশাম্তি এড়াতে গ্রামে পুলিস থাকুক, চাইছেন তাঁরা৷‌ পূর্ণিমা বাউড়ি, শাকিলা বিবি– সকলেরই বক্তব্য এক৷‌ এদিনও বি জে পি-র মিছিলে হাঁটা গ্রামবাসীদের অনেককেই বিকেলে দাঁড়াতে দেখা যায় কংগ্রেসের পাশে৷‌ তবে এই দুই গ্রামের ধর্মপ্রাণ মানুষ মহরমের আগে ১৪৪ ধারা তুলে নেওয়ায় স্বস্তির শ্বাস ফেলেছেন৷‌ এখানকার মতোই মঙ্গলডিহির রাস উৎসবের কর্মকর্তারাও খুশি, ১৪৪ ধারা ওঠায় এবার হয়ত মিলবে রাসে পুলিসের অনুমতি৷‌ তবে জেলা প্রশাসন সূত্রে খবর, দু'দিনের জন্য ১৪৪ ধারা তোলা হয়েছে, এটা যেমন ঠিক নয়, ঠিক তেমনই পরিস্হিতি তৈরি হলে ১৪৪ ধারা নতুন করে জারি করার বাধাও নেই৷‌ সব মিলে মাখড়া-চৌমণ্ডলপুর গ্রামে স্বাচ্ছন্দ্য ফেরার পথে এখন মূল বাধা রাজনৈতিক দলগুলির চাপান-উতোর৷‌ অন্য দিকে, মাখড়া-কাণ্ডে পুলিস হেফাজতে থাকা ১০ জনকে আজ সিউড়ি আদালতে হাজির করা হলে আদালত তাদের ১৪ দিনের জেল হেফাজতের আদেশ দিয়েছে৷‌




अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका! हमारे वजूद के लिए बेहद जरुरी है इस मर्दवादी सामंती साम्राज्यवादी सड़ी गली व्यवस्था का अंत और उसके लिए हमें स्त्री नेतृत्व को मंजूर करना ही होगा। पलाश विश्वास

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अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!

हमारे वजूद के लिए बेहद जरुरी है इस मर्दवादी सामंती साम्राज्यवादी सड़ी गली व्यवस्था का अंत और उसके लिए हमें स्त्री नेतृत्व को मंजूर करना ही होगा।

पलाश विश्वास

3rd January to be declared as woman's day of India

3rd January to be declared as woman's day of India


अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!


मुझे यह कहने में गर्व महसूस हो रहा है कि भले ही कोई दूसरा ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दूसरा राजा राममोहन राय, दूसरा हरिचांद ठाकुर,दूसरी सावित्री बाई फूले की नजीर भारतीय इतिहास में नहीं है,लेकिन हमारी बेटियां और बहुएं खूब समझने लगी हैं कि अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का अब है मौका!


बिजनौर के पास अपने ससुराल, गांव धर्मनगरी में मैं अपने दिवंगत मित्र का घर खोज नहीं पा रहा था।


गली में दिग्भ्रमित खड़ा था तो भीतर अपने घर से एक किशोरी बाहर निकल आयी और पूछा कि किसके घर जाना है तो मैंने मित्र की बेटियों कंकना और कांदु के नाम बताये तो उसने फटाक से घर वह दिखा दिया।


मैंने धन्यवाद कहने के साथ उसका नाम पूछा,बोली सुप्रिया विश्वास।


मैंने फिर पूछा कि किस क्लास में पढ़ती हो,बोली,बारहवीं में।मैंने फिर यूं ही कह दिया,ठीक से पढ़ती हो न!


इसके बाद उस बेटी ने जो कहा,मैं हतप्रभ रह गया।वह बोली,मेरे मां बाप इतना कष्ट उठाकर पढ़ा रहे हैं,मैं क्यों नहीं पढ़ुंगी?


कंकणा मित्र की बड़ी बेटी है और उसका विवाह हो गया है।वह पोस्ट ग्रेजुएट है शायद और उसका एक बच्चा भी है।वह गांव में नहीं,बिजनौर में रहती है और कालेज में पढ़ाती है।


मित्र की असामयिक मृत्यु कैंसर और मधुमेह से हुई।छोटा बेटा चांदसी डाक्टर है और बाहर रहता है।


अधूरा घर बनाकर मित्र ने बीए फाइनल पढ़ रही छोटी बेटी कांदु की शादी करा दी।लेकिन वह शादी उसके लिए नर्क बन गयी।साल भर पहले उस नरकयंत्रणा से उसे बजरिये तलाक मुक्ति मिली।वह नये सिरे से पढ़ रही है और घर में अकेली मां को संभालते हुए नौकरी करके घर भी चला रही है।उसका बच्चा अभी छोटा है।


बाद में मैं सुप्रिया कोखोजते हुए रात को उसके घर पहुंचा तो उसके पिता नशे की हालत में उलजुलूल बक रहा था।


विचित्र स्थिति थी और वह मासूम सी बिटिया जार जार रो रही थी।


तभी उसकी छोटी बहन कक्षा आठ में पढ़ने वाली पूजा ने कहा,अब नहीं कैद चूल्हा चौका,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!


सुनते ही सुप्रिया की आंखें चमक उठीं और देर तक उसने मुझसे बातें कीं।


इसके विपरीत चित्र कोलकाता में देखने को मिला।


नई दिल्ली में मेट्रो रेलवे के करिश्मे से परिवहन अब सुहाना है और सड़क पर दिनदहाड़े डकैती नहीं होती यात्रियों के खिलाफ।कोलकाता में मेट्रो रेलवे सबसे पहले आया,लेकिन राजनीति की वजह से परिवहन नरकयंत्रणा है अब भी।


कश्मीरी गेट से जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम के पास आटोरिक्शा से मैं बिना किसी हुल हुज्जत के ढाई सौ रुपये में चला गया। बाद में कहीं भी मेट्रो से आता जाता रहा तो लौटते वक्त नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक सामान सहित आटोरिक्शा वाले ने सिर्फ 120 रूपये लिये।यह मेरे लिए सुखद अनुभव है इस बार दिल्ली यात्रा का।


सियालदह से सोदपुर का रेल किराया पांच रुपये मात्र है।दूरी पंद्रह किमी।


सामान सहित उतरकर मेरी और सविता की लोकल ट्रेन से यात्रा करने की हिम्मत नहीं हुई तो टैक्सीवाल ने सीधे सात सौ रूपये मांग लिये।


एक बूढ़ा सज्जन से टैक्सीवाले को मना लिया साढ़े चार सौ रुपये में घर तक पहुंचाने के लिए।मजबूरन हम तैयार हो गये।


रास्ते भर उनकी सांसें उखड़ रही थीं।खांसते हांफते जब वह हमें लेकर सोदपुर पहुंचे तो रुपये गिनने तक की उनकी हालत नहीं थी।


मैंने पूछा कि जब आपकी हालत इतनी खराब है,सड़क पर क्यों निकलते हैं।


इस पर उन्होंने जो कहा,मैं सन्न हो गया।


वे बोले उन्हें दिल की बीमारी है और बाल्व बेकार हो गये हैं।फेफड़े खराब हैं और ऊपर से दमा है।शुगर भी है।


उनने कहा कि सारी बीमारियां लाइलाज हैं और इलाज के पैसे भी नहीं हैं।

फिरभी मैंने पूछा तो आखिर निकलते क्यों है।


बोले वे,न निकलें तो जियेंगे कैसे।सारे लड़के कामयाब हैं।अच्छा खासा कमाते हैं षमुड़कर भी नहीं देखते।


सड़क पर उतरे बिना गुजारा नहीं है,ऐसा कहकर वे फिर टैक्सी लेकर निकल पड़े।


शर्म कि ऐसे बेटों की ख्वाहिश में तमाम पर्व त्योहार और भ्रूणहत्या तक की हमारी परंपरा और हमारी संस्कृति है और बेटियां हमारे लिए बोझ,परायाधन है।


इस बार बसंतीपुर में  हमने खास ख्याल रखा कि अपने गांव के सारे घरों में जाऊं।


जो बचे खुचे बुजुर्ग हैं,लड़के हैं,बहू बेटियां हैं और बच्चे हैं,उन सबके साथ कुछ वक्त बिताऊं कि फिर हो न हो कि ऐसी मुलाकात मिले या न मिले।


दशकों बाद हम दिवाली पर घर में थे।हमारे यहां दिवाली पर न काली पूजा की परंपरा है और न लक्ष्मी पूजन की।


इस दीप पर्व पर पूर्वी बंगाल के किसान अपने पुरखों को याद करते हैं।दिवाली पर मिठाइयां और शुभकामनाएं बांटने के बजाय पुरखों को टाद करने की लोक परंपरा है।


शाम के बाद हम सारे घरवाले श्मशान घाट निकल चले और साथ में गांव के लोग भी जुट चले।बच्चे पटाखा फोड़ रहे थे और रोशनी कर रहे थे तो हम अपने पिता,मां,ताऊ,ताई और पद्दो के असमय दिवंगत बड़े बेटे विप्लव के लिए श्मशान पर मोमबत्तियां जला रहे थे।दिवंगत गांव वालों के लिए भी।


हमारे गांव वालों ने अब दो साल पहले अंत्येष्टि स्थल को पक्का बना लिया है और एक ही स्थान पर विश्राम करती हैं गांव की दिवंगत आत्माएं।


पक्का बनाने के बाद पंदर्ह बीस लोगों की अंत्येष्टि वहां हो चुकी है।हम उन तमाम दिवंगत आत्माओं के मुखातिब भी हुए और उनकी याद में मोमबत्तियां जलायीं।


श्मशान घाट के आस पास भूमिहीनों की बस्तियां हैं और अब वे संपन्नता में भूमिधाारियों से कम नहीं है।


वहां जाने का मौका चुूंकि कम ही होता है क्योंकि हम हमेशा घोड़े पर सवार गांव पहुंचते हैं और घोड़े पर ही निकल जाते हैं।लेकिन इसबार ज्यादातर अनचीन्हे अपने लोगों के हुजूम से भी मेरी अंतरंग बातें हुईं।मैं घर घर गया।


खास बात यह रही जिन घरों में मैं दस बारह साल की उम्र में बेटियों को विदा करते देखने का अभ्यस्त रहा हूं,उन सभी घरों में,पूरे गांव भर में न सिर्फ बेटियां बल्कि बहूएं भी पढ़ लिख रही हैं या कामकाजी हैं।


स्त्री सशक्तीकरण के इस खामोश भारत को हमारा सलाम और कहना न होगा कि बिटिया जिंदाबाद।जिंदाबाद बिटिया।


कल ही लंदन में  अति सक्रिय बहुरालता कांबले Bharulata Kambleसे लंबी बातें हुई ।


माता सावित्री बाई फूल के नाम पर भारत में तीन जनवरी को महिला दिवस मनाने कीउनकी मुहिम के सिलसिले में लंबी चैटिंग हुई।


हम उनकी मांग का समर्थन करते हैं और सभी लोकतांत्रिक ताकतों को पुरुष वर्चस्व की इस व्यवस्था के खिलाफ स्त्री सशक्तीकरण के इस अभियान में शामिल होने का आग्रह भीा करते हैं।


वे मुझे जानती न होंगी लेकिन में उन्हें करीब एक दशक से जानता हूं और मैंने जब कहा कि हम स्त्रियों को चौके में कैद करने के खिलाफ हैं और हम स्त्रियों से रोज सीखते हैं तो वह लगातार हमसे बातें करती रहीं।मैं दफ्तर के लिए लेट भी हो रहा था,लेकिन उनकी बातें खत्म नहीं हो रही थी।अचानक वे इतनी अंतरंग,मैं दंग रह गया।


जैसा कि कोलकाता के उस बूढ़े ड्राइवर की व्यथा कथा है,वह हर गांव हर शहर में अब उपभोक्तावादी मुक्तबाजारी संस्कृति में अपरिहार्य है।


सिर्फ बदली नहीं हैं हमारी बेटियां और बहूएं भी अब उस परिवार का बोझ उठाने को तैयार हैं,जिसकी जिम्मेदारियां हमारे बेटे उठाने से मुकर रहे हैं,जिन्हें पैतृक संपत्ति के अलावा परिवार से कुछ लेना देना नहीं है।


यह उनका अपराध भी नहीं है।बेटियों और बहुओं को मालूम हो गया है नर्क हुई जिन्दगी को बदलना है तो कुछ बनकर दिखाना है।


बेटों को तो मां बाप की जागीर मिली हुई है।कुछ करें तो भी अच्छा। नहीं कर पाये तो भी ऐश करेंगे।कमसकम चूल्हा चौके की जिम्मेदारी तो उनकी नहीं है।


दरअसल हम पिता माता बतौर उपभोक्ता हैं और अपनी अपनी जड़ों से कटे हुए हैं तो हमारे बच्चे अगर मुक्त बाजार की संस्कृति की संतानें हैं,तो यह उनका नहीं,हमारा अपराध है।हम उन्हें दोषी ठहरा नहीं सकते।


इसी समाज की वे संताने हैं,जिन्हें हमने रचा है।जो जहर हम बोते रहे हैं दशकों से घर बार परिवार समाज देश तोड़कर,अब उसके नतीजे भी हमें ही भुगतने होंगे।


हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि स्त्री सशक्तीकरण के मार्फत कमसकम हमारी बहनें,बेटियां और बहुएं दिशाहीन युवापीढ़िय़ों को सही रास्ता दिखायें।


बचने का इसके सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है।


हमारे वजूद के लिए बेहद जरुरी है इस मर्दवादी सामंती साम्राज्यवादी सड़ी गली व्यवस्था का अंत और उसके लिए हमें स्त्री नेतृत्व को मंजूर करना ही होगा।


हम तो अपनी बेटियों को काबिल बनाने की हर चंद कोशिश करेंगे ही और साथ ही हर हाल में चाहेंगे कि हमें अपनी बेटियों के साथ ही पढ़ी लिखी जिम्मेदार सचेतन कामकाजी बहुएं जरुर मिलें।


क्योंकि वे ही हमारी किस्मत बदल सकती हैं।अगर उन्हें हम बेटी बना सकें।


हमने घर घर अपने गांव में यही चर्चा चलायी और कमसकम बसंतीपुर में अब कोई स्त्री चूल्हे चौके में कैद न हों,यह हमारी निजी जिम्मेदारी है।जिसे निभाना हमारी बची खुची जिंदगी का मकसद है सबसे बड़ा।इससे ज्यादा हमारी औकात भी नहीं है।


अपने ही गांव में ज्यादातर वक्त बिताने के लिए इसबार मैं दिनेशपुर और रूद्रपुर,तराई और पहाड़ के ज्यादातर मित्रों और आत्मीयजनों से मिल नहीं सका।


इसका अफसोस तो है लेकिन मुझे खुशी है कि हम अपने गांव में स्त्री सशक्तीकरण की बहस छेड़ सके हैं,जो शायद भावुक भरत मिलाप से ज्यादा महत्वपूर्ण है।


इसी सिलसिले में निवेदन है कि बहुरालता कांबले के पिटीशन पर जरुर गौर करें और सचमुच अगर भारत को आप हजारों साल की गुलामी से मुक्त करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने घर के अंदर कैद अपनी बहनों,बेटियों और बहुओं को आजाद करने की मुहिम में अवश्य शामिल हों।


इसीलिए सावित्री बाई फूले को याद करना अनिवार्य है।

Bharulata Kamble

Petition by

Bharulata Kamble

Luton, United Kingdom



To the government of India

Re: 3rd January to be declared as woman's day of India

There is no better way to pay tribute to the supreme name, Savitribai Phule, other than declaring her birthday as woman's day of India. India observed the 180th birth anniversary of one such feminist on Jan 3 — Savitribai Phule. She not only fought for the right to education, but for the right to dignity for widows, unwed mothers, and women with unwanted pregnancies. In the nineteenth century, her work was revolutionary.

Savitribhai Phule, the supreme lady who fought against the totalitarianism of caste and other social evils in India. Savitiribai Phule, who dared to pursue the Nobel profession of 'teaching' in the 'Dark Age' and became first lady teacher in India. This is the supreme name who started first school for females in India.

One of the supreme name who fought against the unpardonable boundaries imposed on the women society of India. Savitribai Phule, the lady who started first ever woman's school. This is the supreme name who started first ever school downtrodden females.  Savitribai Phule, struggled and suffered with her revolutionary husband in an equal measure, but remains obscured due to casteist and sexist negligence. Apart from her identity as Jotirao Phule's wife, she is little known even in academia. Modern India's first woman teacher, a radical exponent of mass and female education, a champion of women's liberation, a pioneer of engaged poetry, a courageous mass leader who took on the forces of caste and patriarchy certainly had her independent identity and contribution.  

It is indeed a measure of the ruthlessness of elite-controlled knowledge-production that a figure as important as Savitribai Phule fails to find any mention in the history of modern India. Her life and struggle deserves to be appreciated by a wider spectrum, and made known to non-Marathi people as well as others not in India but in the world. Savitribai Phule was the mother of modern poetry stressing necessity of English and Education through her poems. Savitribai Phule was the first Dalit women, in-fact first women whose poems got noticed in the British Empire.

Mahatma Jotiba Phule and his wife Savitribai Phule were first among the people who declared war against Casteism and Brahminic-Casteist culture. The Maharashtrian pioneering couple led mass movement of uniting oppressed class against the Brahminic values and thinking. Savitribai Phule worked as an equal partner in the mission of uplifting the poor and oppressed people. Though, she was formerly uneducated, she was encouraged, motivated by Mahatma Jotiba Phule to study. Later on she became the first lady teacher of school started by her husband. Life of Savitribai Phule as a teacher in the school at the time when upper caste orthodox people used to look down wasn't easy and many a they times used to pelt stones and throw dung on her. The young couple faced severe opposition from almost all sections. Savitribai was subject to intense harassment everyday as she walked to the school. Stones, mud and dirt were flung at her as she passed. But Savitribai Phule faced everything peacefully and with courageously.

At the time when even a shadow of untouchables were considered impure, when the people were unwilling to offer water to thirsty untouchables, Savitribai Phule and Mahatma Jotiba Phule opened the well in their house for the use of untouchables.

Savitribia Phule's thinking accurately that education is necessary for the restoration of social and cultural values. Savitribai Phule started 'Mahila Seva Mandal' in 1852, which worked for raising women's consciousness about their human rights, dignity of life and other social issues.

Lets pay tribute the supreme lady by recognizing her birthday to be the woman's Day of India.

Yours faithfully

Bharulata Kamble

Bharulata211@yahoo.com

Here is a brief story about Savitribai Phule:

Savitribai lived under the British Raj, and along with her husband Jyotirao Phule was one of the most prominent social reformists between 1847 and her death in 1897. As was the tradition in those days, Savitribai married Jyotirao when she was nine, and he thirteen. She has always had a fascination for words, and was also impressed by Jyotirao's cousin Saguna, who was a nanny in the house of a British official and spoke English.

At 16, Savitribai joined Saguna and sparked revolution by setting up a school for young people of the lower castes and economic classes. This in those days was taboo. Stories suggest that orthodox Hindu men of the upper classes attacked Savitribai whenever she visited her school. Sometimes, they abused her verbally, and at other times they pelted her with cow dung, rotten vegetables and stones. But Savitribai's determination never wavered. With her husband's help, she set up five other schools, and by the age of 19 was an accomplished teacher herself.

Savitribhai led the battle for women's liberation along several other fronts. As a young wife, she saw that several women her own age were already widowed. Some of them were forced to sacrifice their lives at their husband's pyre (Sati), and others were condemned to a life of seclusion. Savitribai joined social reformists of her time and worked to efface the stigma against these women, and to incorporate them into society.  With her husband, she ran a home for pregnant widows and orphaned children, and took personal care of the destitute women who took refuge in that home.

She soon discovered that women are often stigmatized for unwanted pregnancies. She ran a delivery home for such women, and took care of their abandoned children. Her husband even let one child take on his name, an act that earned him criticism.

Savitribai was a soldier of reform, and she died taking care of women affected by an epidemic of plague. She was one of the only women of the time whose death was reported in a newspaper.

Young Indian women of today owe a debt of gratitude to women like Savitribai who braved stigma. She voluntarily lived on the fringes of her society – an outcast in some ways, because of what she believed in. Yet, it never deterred her from her goal – the advancement of women through education. She was also one of the first women to work hard against misogyny during the period of the British Raj.

Coming back to today, education still remains elusive to young girls around the world. Across Asia, child labour and child marriage rob children of their right to complete basic school education. Without education, these young girls are unable to read and access information about their own bodies and health,  let alone about their rights and  choices.

While there are several attempts at providing illiterate women information in simplified forms, there is nothing like sending a girl to school and helping her develop the skills to think and form opinions of her own. What we need is for women to come together as a fitting tribute to the Savitribais of yesteryears, and support education among women. After all there is only one way to combat misogyny and stigma – education. But to achieve that we first need to protest the stigma against educating young girls.

To:

to the government of India

3rd January to be declared as woman's day of India

Sincerely,

[Your name]


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सावित्रीबाई फुले

http://hi.wikipedia.org/s/6hwa

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारतकी एक समाजसुधारिका एवं मराठीकवयित्रीथीं। उन्होने अपने पति महात्मा ज्योतिराव फुलेके साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए। सावित्रीबाई भारत के प्रथम कन्या विद्यालय में प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत माना जाता है। १८५२ में उन्होने अछूतबालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

अनुक्रम

 [छुपाएँ]

परिचय[संपादित करें]

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।

'सामाजिक मुश्किलें

वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय।

महानायिका

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

विद्यालय की स्थापना[संपादित करें]

1848 में पुणेमें अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में।

निधन[संपादित करें]

10 मार्च 1897 को प्लेगके कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया। और इसी कारण से उनकी मृत्यु हुई।



Bharulata Kamble added 5 new photos to the album Salute to Mamta and her parents.

October 29 at 6:01pm·

Salute to these parents who despite being in poverty are happy raising this girl who was born with only parts of limbs. My heart fell for the brave and cheerful girl and great parents who are not cursing god or their fate but raising this girl selflessly. I heard mamta's father is blind and mother doing her best to do the needful to run a happy family. I initiated help for Mamta from my personal funds and manages to raise some funds under the Social Amity Foundation for Equality. If you wish to help then please send me personal message.

— with Subodh Kamble and Bharulata Kamble.

Felicitating Mamta for bravery and smile.

Felicitating Mamta for bravery and smile.

Delivering funds to Mamta. As one can see in this photo that Mamta has limbs deformity and has deformity of toes and fingers.

Delivering funds to Mamta.

Delivering funds to Mamta.

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अब नहीं कैद चूल्हा चौके की,चूल्हा चौका के साथ पढ़ने लिखने,कुछ बनने का मौका!



‘कविता: 16 मई के बाद’ का आयोजन 9 नवम्बर, रविवार को होगा

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'कविता: 16 मई के बाद'का आयोजन 9 नवम्बर, रविवार को होगा

लखनऊ 5 नवंबर 2014। 16 मई के बाद केन्द्र में अच्छे दिनों का वादा कर आई
नई सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिकता और काॅरपोरेट लूट को संस्थाबद्ध
करके पूरे देश में अपने पक्ष में जनमत बनाने की आक्रामक कोशिश शुरु कर दी
है उसके खिलाफ जनता भी अलग-अलग रूपों में अपनी चिन्ताओं को अभिव्यक्ति दे
रही है। जिस तरह चुनावों के दरम्यान सांप्रदायिक माहौल खराब किया जा रहा
है, कहीं 'लव जिहाद'के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का दमन कर सामंती
पुरुषवादी ढांचे का विस्तार किया जा रहा है तो उसके बरखिलाफ हमारे
रोज-मर्रा के सवालों से टकराता देश का कवि समाज भी मुखरता से आगे आया है।
ऐसे ही कविताओं को एक मंच पर लाने के लिए रविवार, 9 नवंबर 2014 को सीपीआई
कार्यालय अमीरुद्ौला पब्लिक लाइब्रेरी के पीछे शाम 4 बजे से 'कविता: 16
मई के बाद'का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति
मंच, इप्टा, जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसाइटी द्वारा किया जा रहा
है।

इप्टा कार्यालय पर विभिन्न लेखक, रंगकर्मी और सामाजिक संगठनों ने इस
आयोजन के संदर्भ में बैठक की। बैठक में वक्ताओं ने कहा कि सत्ता में आने
के बाद भाजपा जिस अंधराष्ट्रवाद को भड़का रही है वह एक प्रकार का उन्माद
है जो एक ओर बहुसंख्य जनता को आसन्न खतरे के प्रति सचेत नहीं होने देता
वहीं दूसरी ओर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर समुदायों को
पहचान की राजनीति की ओर धकेल देता है। पहचान की राजनीति एक साथ तीन काम
करती है - अंध-राष्ट्रवाद की कारस्तानियों को उचित ठहराती है, नई
चुनौतियों का सामना करने के लिए कमजोर समुदायों के हाथों में आधुनिक तर्क
देने की जगह उसे अतीतोन्मुख कर देती है, उसे मिथकों में उलझा देती है, और
इस तरह सामंती और मनुवादी वर्चस्ववादी संस्कृति को मजबूत होने का मौका
देती है। वक्तओं ने कहा कि यही वह समय है जब प्रतिरोध की संस्कृति भी
अपने को और अधिक धारदार तरीके से अभिव्यक्त करती है। 'कविता: 16 मई के
बाद'इस प्रतिरोध की संस्कृति को एक साझे मंच पर लाने की कोशिश है।

बैठक में राकेश, कौशल किशोर, अजीत प्रियदर्शी, आदियोग, राम कृष्ण, मो0
शुऐब, शाहनवाज आलम आदि शामिल हुए।

द्वारा
आदियोग
09415011487
https://www.facebook.com/events/386404258175459/

ইসলামের আর্থিক সুবিধা পুত্রের চেয়ে কন্যার বেশি

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ইসলামের আর্থিক সুবিধা পুত্রের চেয়ে কন্যার বেশি

                                                                                             শাহ্ আব্দুল হান্নান। 

 

সদ্য প্রস্তাবিত নারী উন্নয়ন নীতিতে সরকার উত্তরাধিকারের ক্ষেত্রে নারী  পুরুষকে সমান করতে চাচ্ছে। তা করা হলে সূরা নিসার ১১ নং আয়াতে নির্দেশিত বিধানের সরাসরি লঙ্ঘন করা হবে।অথচ এটি একেবারেই অপ্রয়োজনীয়। আয়াতটিতে বলা হয়েছে

 

 

    'আল্লাহ তোমাদের সন্তানদের ব্যাপারে নির্দেশ দিচ্ছেনপুরুষের অংশ দু'জন মেয়ের সমান।   যদি (মৃতের ওয়ারিশদু'য়ের বেশি মেয়ে হয় তাহলে পরিত্যক্ত সম্পত্তির তিনভাগের দু'ভাগ তাদেরদাও। আর যদি একটি মেয়ে ওয়ারিশ হয় তাহলে পরিত্যক্ত সম্পত্তির অর্ধেক তার। যদি মৃত ব্যক্তির সন্তান থাকে তাহলে তার বাপ-মা প্রত্যেকে সম্পত্তির ছয় ভাগের এক ভাগ পাবে। আর যদিতার সন্তান না থাকে এবং বাপ-মা তার ওয়ারিশ হয় তাহলে মাকে তিনভাগের একভাগ দিতে হবে। যদি মৃতের ভাই-বোন থাকেতাহলে মা ছয় ভাগের এক ভাগ পাবে।  সমস্ত অংশ বেরকরতে হবে মৃত ব্যক্তি মৃত ব্যক্তি যে ওসিয়ত করে গেছে তা পূর্ণ করার এবং সে যে ঋণ রেখে গেছে তা আদায় করার পর। তোমরা জানো না তোমাদের বাপ-মা  তোমাদের সন্তানদের মধ্যেউপকারের দিক দিয়ে কে তোমাদের বেশি নিকটবর্তী। এসব অংশ আল্লাহ নির্ধারণ করে দিয়েছেন। আর আল্লাহ অবশ্যই সকল সত্য জানেন এবং সকল কল্যাণময় ব্যবস্থা সম্পর্কে অবগত আছেন।'

 

 

প্রকৃতপক্ষে ইসলামে পুত্রের চেয়ে কন্যার আর্থিক অধিকার এবং সুবিধা বেশি। নি‡¤œ বিশ্লেষণেই তা প্রমাণ করবে। 

 

    

আমর নিজের কথাই বলি। আমরা অনেক ভাই-বোন ছিলাম। আমার মরহুম আব্বার সমগ্র সম্পত্তির মূল্য আজকের বাজারদরে প্রায় ৯০ লক্ষ টাকা হবে। আমরা প্রত্যেক ভাই ১৫ লক্ষ টাকারউত্তরাধিকারী হয়েছিলাম এবং প্রত্যেক বোন . লক্ষ টাকার উত্তরাধিকারী হয়েছিল। অর্থাৎ আমার সুবিধা বোনের তুলনায় . লক্ষ টাকা বেশি ছিল।  অন্য দিকে ইসলামী বিধান মোতাবেক(দ্রষ্টব্য  সূরা বাকারাসূরা নিসা সূরা তালাকআমাকে আমার স্ত্রীপুত্র  কন্যার ভরণপোষণ ব্যয় বহন করতে হয়েছে। আজকের মূল্যে তা অন্তত ৩০ হাজার টাকা মাসিক খরচ হবে।আমার স্ত্রী ৩০ বছর বিবাহিত জীবনের পর মারা যান।  সময়ে আমাকে প্রতি মাসে ৩০ হাজার টাকা করে ৩০ বছর ধরে ব্যয় করতে হয়েছিলযার পরিমাণ (৩০,০০০x১২x৩০) = কোটি  লক্ষ টাকা  এর পরও পিতা হিসেবে আমার কন্যার জন্য আমাকে অনেক খরচ করতে হয়েছে। 

 

অন্যদিকে আমার বোনের কোনো অর্থ ব্যয় করতে হয়নি বোনের স্বামীপুত্র বা কন্যার ভরণপোষণের জন্য। কেননা কুরআন  সুন্নাহ মোতাবেক তারা এর জন্য দায়িত্বশীল নয়। অর্থাৎভরণপোষণের ক্ষেত্রে যেখানে আমাকে  কোটি  লক্ষ টাকা ব্যয় করতে হয়েছেসেখানে  পরিমাণ অর্থ আমার বোনকে ব্যয় করতে হয়নি।  ক্ষেত্রে বোনের সুবিধা  কোটি  লক্ষ টাকা। যদিআমার . লক্ষ টাকা উত্তরাধিকার সূত্রে পাওয়া অধিক সুবিধা বাদ দেয়া হয় তাহলে বোনের নিট সুবিধা হয় ( ,০৮,০০,০০০-,৫০,০০০=,০০,৫০,০০০/-)  কোটি ৫০ হাজার টাকা। হিসেবে আমি মোহরানা ধরিনি। অসংখ্য ক্ষেত্রে হিসাব করে দেখেছিসার্বিক আর্থিক সুবিধা ইসলামী বিধানে পুত্রের চেয়ে কন্যার বেশি

 

 

পিতামাতার উত্তরাধিকার বেশির ভাগ ক্ষেত্রে সমান। ভাইবোনরাযে ক্ষেত্রে তারা উত্তরাধিকারী হয়ে থাকেনবেশ কিছু ক্ষেত্রে সমান পান। এসব ক্ষেত্রেও সব শ্রেণির পুরুষের আর্থিক দায়িত্ব নারীরচেয়ে একইভাবে বেশী। 

 

 

হিসাব করে দেখেছিআমেরিকার জনগণ যদি ইসলামী আইন অনুসরণ করেতাহলে নারীরাই অধিক সুবিধা পাবে। সেখানে উত্তরাধিকার খুব সামান্যই পাওয়া যায়। কেননা বেশির ভাগ মানুষক্রেডিট কার্ডে চলেতাদের সঞ্চয় নেই বা থাকলেও ৯৯ শতাংশ ক্ষেত্রে তা খুবই সামান্য। সে দেশে মাসিক খরচ যদি মাত্র দুই হাজার ডলারও ধরি তাহলে ৩০ বছরে বিবাহিত জীবনে ইসলামীআইন মোতাবেক নারীর সুবিধা হবে  (২০০০x১২ x৩০)= ,২০,০০০ ডলার (বাংলাদেশী টাকায় প্রায়  কোটি ৭৬ লক্ষ টাকা)

 

 

সুতরাং এটা স্পষ্ট যেপুরুষ  নারীর আর্থিক সুবিধা প্রদানের ক্ষেত্রে ইসলাম মূলত নারীদের অধিক সুবিধা দিয়েছে। তাই উত্তরাধিকার আইন বদলের যে কোনো প্রচেষ্টা অপ্রয়োজনীয়। তদুপরি ৯০ভাগ মুসলিম অধিবাসীর বাংলাদেশে  ধরনের সরাসরি কোরআন-বিরোধী বিধান প্রবর্তন জনগণের কাছে গ্রহণযোগ্য হবে না। দেশে উত্তেজনা সৃষ্টি হবে। আমি সরকারকে অনুরোধ করিযেনতারা  উদ্যোগ থেকে সরে আসেন। নারীদের সব ধরনের অধিকার দেয়া হোকতাদের অধিকার যাতে তারা সত্যিকার অর্থেই পায় এবং কেবল কথায় যাতে তা সীমাবদ্ধ না থাকেতার জন্যব্যবস্থা নিন। কিন্তু সরাসরি কুরআন  ধর্মের সাথে সংঘর্ষশীল ব্যবস্থা নেবেন না। এসব বিধান ভালো করে কার্যকরও হয় না। যেসব আইনের পেছনে নৈতিকতার সমর্থন রয়েছেধর্মের সমর্থনরয়েছেসেগুলো বেশি কার্যকর হয়। ধর্মবিরোধী আইন কখনোই সত্যিকার অর্থে কার্যকর হয় না। কেননা আইনের পেছনে দরকার নৈতিক ভিত্তি

 

লেখক

বিশিষ্ট সমাজ সেবক  সাবেক সচিব 

গণপ্রজাতন্ত্রী বাংলাদেশ সরকার 

FACT FINDING TEAM to inquire into the Sexual Violence against Dalit Women in Bihar (6th - 8th of November)

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FACT FINDING TEAM to inquire into the Sexual Violence against 

Dalit Women in Bihar  (6th - 8th of November)

 

 

The recent case of 6 dalit women being raped in Kurmuri village, Tarari block, Bihar on 8th of October by the ex members of Ranbir Sena has again reflected the devastating status of the marginalized communities in India. In a country where the upper caste men practice their power on dalits through sexual violence on women says a lot about its apathetic socio-political state and the entrenched oppressive feudal elements that have refused to go. Dalit rapes in Bihar are not new but the continuation of such rapes and atrocities even after such a wave of civil and human rights movements is alarming and disturbing. Even after this incident more dalit rapes and killings have continued to be reported.

 

Since many years, Bhojpur has remained a site of violent class struggle between the dalits and the upper castes. In 1990, when the dalits of village Danwar Bihta went to assert their right to vote 22 of them were brutally killed and their houses were burnt. In 1996, in Bathani Tola, 21 dalits were killed by Ranvir Sena in broad daylight to counter their assertion. The current change in the political scenario is bound to reignite or rather reinforce such casteist elements and which seems to have happened in the incident of 8th October.

 

As a response, the Delhi Solidarity Group is planning to conduct a fact finding on 6th - 8th of November to study the recent incident as well as the political dynamics that is brewing in this region. The court trial has just begun and in this scenario an attempt to write on the issue and to create awareness about it in the public domain with strong facts is one of the main tasks for civil society groups. The motive is to come up with a detailed analysis of this caste conflict and the kind of violence that is being perpetrated on the people belonging to the lower castes.

  

The team constituted for the Fact Finding is:

 

  • Chandra Bhushan - Senior Assistant Editor with Navbharat Times 
  • Mohammad Kaifullah - Researcher in Jamia Millia Islamia University
  • Dr. Vinod Kumar - Associate Professor, National Law University  
  • Rupesh kumar - HRLN, Delhi  
  • Advocate Savita Ali - HRLN, Patna 
  • Kamayani - National Convener, NAPM and Jan Jagaran Shakti Sangathan

 

Background of the incident: 

 

On 8th October 2014, 2 women and 4 teenage girls, all rag pickers from Dumaria village, had gone to Neelnidhi, a scrap dealer, to sell the things they had collected throughout the day. Neelnidhi allegedly made them wait, saying he did not have enough cash to pay their dues. He also promised to pay them auto fare to return home if it became dark. When it was time to shut the shop, the accused locked up the six women in Neelnidhi's godown at gunpoint. They made the women consume liquor and took turns to outrage their modesty, police said quoting the FIR. Before committing the crime, they tied two 6-year-old boys, who had accompanied the women to Kurmuri, with ropes. The trio reportedly thrashed the boys when they cried on seeing the plight of their womenfolk. They later allowed the women and the boys to go home, threatening them with dire consequences if they told anyone about the incident. The shop owner, Nilneedhi Singh, who is said to be the area commander of the banned caste militia Ranvir Sena, allegedly detained the women till night and raped them along with two of his associates, Jai Prakash Singh and Jaggu Pandit. The medical examination of the women who were allegedly raped has confirmed that they were sexually assaulted.



After the rape incident, there was a huge uproar in the nearby villages where the CPI(ML) led a rally asking for suspension of SP and strict punishment to the accused. But the feudal casteist forces responded even more strongly, when the activists and supporters of the Akhil Bharatiya Rashtrawadi Kisan Sanghathan (ABRKS) blocked roads at two places to protest against what they called the politically motivated action against the three and demanded an impartial probe. The ABRKS is headed by Indu Bhushan who is the son of Ranbir Sena head Brahmeshwar Singh.

 

 

-- 

In Solidarity, 

Shefali

 

Delhi Forum 

F 10/12 (Basement),

Malviya Nagar,New Delhi-110017 

 

Phone: 011 - 26680883 (O), 9582671784 (M)

email: shefali@delhiforum.net 

কুলঙ্গারদের হাতে মতুয়া সমাজের ভার ! শরদিন্দু উদ্দীপন

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কুলঙ্গারদের হাতে মতুয়া সমাজের ভার ! শরদিন্দু উদ্দীপন

বেছন ধান ভাল না হলে বতরের ফলনে যে তার প্রভাব পড়ে তা ঠাকুরনগরের ঠাকুরবংশের বর্তমান প্রজন্মকে দেখলেই বোঝা যায়। আজ খবরে প্রকাশ নিজের মাতৃসমান জেঠিমাকে খুনের হুমকি দিয়েছেন মঞ্জুল পুত্র সুব্রত ঠাকুর। দুর্দান্ত! বাপকা বেটাই বটে! কিছুদিন আগে মঞ্জুল ঠাকুর যেমন দাদা কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরকে খুনের হুমকি দিয়েছিলেন। মতুয়া মহাসংঘের বড়মা বীণাপাণি ঠাকুরকে পুলিশ ডাকতে হয়েছিল। তেমনি সুব্রত ঠাকুর ও তার মদ্যপ চেলা চামুণ্ডাদের হুমকির জন্য সদ্য প্রয়াত সাংসদ কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরের স্ত্রী মমতা ঠাকুরকেও পুলিশ প্রহরার আশ্রয় নিতে হল। মহামতি গুরুচাঁদ ঠাকুরের বংশের এ হেন কদর্য পরিণতি যে আপামর মতুয়া ভক্তদের বিভ্রান্ত করে তুলবে তার কোন সন্দেহ নেই। অনেকে আঘাত পাবেন তাদের প্রনম্য ঠাকুর বংশধরদের আত্মঘাতী প্রবণতা দেখে। কিন্তু ঠাকুর বংশের এই প্রশাখার বাড় বৃদ্ধি সম্পর্কে যারা ওয়াকিবহাল তারা কিন্তু ওবাক হননি। কারণ তারা জানেন যে বিষবৃক্ষ থেকে বিষফলই পাওয়া যায়। 

 

কদাচারের উৎসঃ 

ঠাকুরনগরের এই ছোপের উৎপত্তিই হয়েছে কদাচারের মাধ্যমে। মহামতি গুরুচাঁদ ঠাকুরের বড়ছেলে শশিভূষণ থেকেই কদাচারের সূচনা। নানা কারণে গুরুচাঁদ ঠাকুর শশিভূষণকে ত্যাজ্যপুত্র করতে চেয়েছিলেন। শশিভূষণের বড় ছেলে প্রমথরঞ্জন ঠাকুর গুরুচাঁদের মতকে অগ্রাহ্য করেই জোদ্দার জমিদারদের দ্বারা পরিচালিত কংগ্রেস পার্টির সাথে সখ্যতা শুরু করেন। গুরুচাঁদ চেয়েছিলেন স্বতন্ত্র রাজনৈতিক দল যেখানে সংখ্যা অনুপাতে ভাগিদারী পাওয়া যাবে। শিক্ষা, চাকরী, রাজনীতি ও সংস্কৃতিতে ক্রমশ উজ্জ্বল স্বাক্ষর রাখতে পারবে বাংলার দলিত, নিষ্পেষিত জাতি সমূহ। কিন্তু ১৯৩৭ সালে গুরু চাঁদের মৃত্যু হলে প্রমথ রঞ্জন ঠাকুরের নেতৃত্বে এক ঝাঁক নেতা কংগ্রেসের সাথে যুক্ত হয়। অন্যদিকে মুকুন্দ বিহারী মল্লিকের নেতৃত্বে একদল নেতা গুরুচাঁদের দেখানো পথেই ব্রিটিশ শাসনের প্রতি নৈতিক সমর্থন ধরে রাখেন। প্রমথ রঞ্জন চেয়েছিলেন সকল ক্ষমতা তার হাতেই নিয়ন্ত্রিত হবে তাই তিনি মুকুন্দ বিহারী মল্লিককে ও সহ্য করতে পারেন নি, পরবর্তী কালে যোগেন্দ্রনাথ মণ্ডলকেও সহ্য করতে পারতেন না। ১৯৪২ সালে প্রতিষ্ঠিত হয় শিডিউলড কাস্ট লীগ। যোগেন্দ্র নাথ মণ্ডল হন সভাপতি। এই বছরেরই প্রতিষ্ঠিত হয় সর্ব ভারতীয় তপশিলি জাতি ফেডারেশনের বঙ্গীয় শাখা। যোগ্যতা অনুসারে এই বৃত্তর সংগঠনের সভাপতিও হন মহাপ্রাণ যোগেন্দ্র নাথ মণ্ডল। ১৯৪৫ সালের এপ্রিল মাসে তৎকালীন ফরিদপুর জেলার গোপালগঞ্জে আয়োজিত প্রাদেশিক সম্মেলনে মহাপ্রাণ যোগেন্দ্র নাথ মণ্ডল ঘোষণা করেন যে এই ফেডারেশনের দায়িত্ব হবে তপশিলি জাতিগুলির জন্য পৃথক রাজনৈতিক আত্মপরিচয় প্রতিষ্ঠা করা। কিন্তু তপশিলি জাতির নেতাদের মধ্যে বিভাজনের ফলে বাংলার ৩০টি সংরক্ষিত আসনের মধ্যে ২৪টিই কংগ্রেস সমর্থিত প্রার্থীরা জয় লাভ করে। প্রমথ রঞ্জন ঠাকুর নির্দল হিসেবে জয়লাভ করলেও ক্ষমতার লোভে কংগ্রেসে যোগদান করেন।

 

আম্বেদকর বিরোধী শিবিরে প্রমথ রঞ্জনঃ

স্বাধীন ভারতের স্বতন্ত্র সংবিধান রচনা করার জন্য গণপরিষদ গঠনের ঘোষণা করা হলে সারা ভারত তপশিলি ফেডারেশনের পক্ষ থেকে ডঃ বি আর আম্বেদকরকে গণপরিষদে পাঠানোর উদ্যোগ নেওয়া হয়। মুকুন্দবিহারী মল্লিক এই গণপরিষদে নির্দল প্রার্থী হতে চাইলেও পরে তিনি আম্বেদকরকে ভোট দিতে মনস্থির করেন। কিন্তু কংগ্রেস পার্টির ষড়যন্ত্রে সামিল হয়ে পি আর ঠাকুর ডঃ বি আর আম্বেদকরের বিপক্ষে দাঁড়িয়ে যান। যদিও যোগেন্দ্র নাথ মণ্ডলের উদ্যোগে ও প্রথিতযশা নেতা নেতৃদের  অক্লান্ত পরিশ্রমে কংগ্রেস ও পি আর ঠাকুর আম্বেদকরের গণপরিষদে যাওয়া আটকাতে পারেননি।

 

পাপেট-পুতুল এবং পি আর ঠাকুরঃ

জাতীয় ক্ষেত্রে ডঃ আম্বেদকরকে আটকানোর জন্য কংগ্রেস তৈরি করেছিল জগজীবন রাম নামে এক তাবেদার এবং বাংলায় যোগেন্দ্র নাথ মণ্ডলকে আটকানোর জন্য ব্যবহার করেছিল পি আর ঠাকুরকে। জাতীয় নির্বাচনে পি আর ঠাকুর কয়েকবার নির্বাচিত হলেও জনগণের জন্য তিনি প্রায় কিছুই করেননি। কিছু করার দক্ষতাও তার ছিলনা। মূলত তিনি ছিলেন কংগ্রেসের হাতের পাপেট। দম দেওয়া পুতুল। ফলে আচিরেই কংগ্রেস তাকে প্রত্যাখ্যান করে। এর পরে বার কয়েক নির্বাচনে দাঁড়ালেও তার জামানত বাজেয়াপ্ত হয়। তার নিজের মানুষেরাই তাকে অপাংক্তেয় হিসেবে প্রত্যাখ্যান করেন। শেষ বয়সে শুধু পদধূলি বিতরণ করে ভক্তের দান-দক্ষিণা গ্রহণ করা ছাড়া তার কোন উপায় ছিলনা।

 

বিষবৃক্ষের ফলঃ 

এই পি আর ঠাকুরের বড় ছেলে সদ্য প্রয়াত কপিলকৃষ্ণ ঠাকুর। মতুয়া মহাসংঘের প্রাক্তন সভাপতি এবং বনগাঁ কেন্দ্রের নির্বাচিত সাংসদ। সামাজিক উন্নয়নে তাঁর অবদান কতটুকু ছিল তা অণুবীক্ষণেও দেখা যাবেনা। পি আর ঠাকুরের ছোট ছেলে মঞ্জুল ঠাকুর। বর্তমান তৃণমূল সরকারের ভারপ্রাপ্ত মন্ত্রী।  তাঁর বেড়ে ওঠার কাহিনী একালের রগবাজদেরও লজ্জা দেবে। গুরুচাঁদের পথ ও মতুয়া দর্শনের সাথে তাঁর কোন যোগাযোগ নেই। কোন কালে ছিলও না।  নিরীহ কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরের প্রতি তাঁর অভব্য আচরণ ঠাকুর বাড়ির ঘোরতর সংকটের মূল কারণ। মূলত মতুয়া মহাসংঘের পদ নিয়ে এদের মারামারি। কপিল ঠাকুর জীবিত কালে ছিলেন মতুয়া মহাসংঘের সভাপতি। তখন মঞ্জুল ঠাকুর ছিলেন সহসভাপতি আর তাঁর পুত্র সুব্রত ঠাকুর সম্পাদক। এখন মঞ্জুল ঠাকুর সভাপতি এবং তাঁর ছেলে সুব্রত ঠাকুর সম্পাদক। মোদ্দা কথায় মতুয়া মহাসংঘ এঁদের পারিবারিক রাজতন্ত্র। এই রাজতন্ত্রের সর্বোচ্চ পদে থাকতে পারলে আজন্ম গোলাম অসংখ্য মতুয়া ভক্তদের প্রণামির টাকায় পেট ভরানো যায়। মতুয়া শক্তি  দেখিয়ে রাজনীতিতে কল্কে পাওয়া যায় এবং নির্বাচিত হতে পারলে পরবর্তী প্রজন্মের হাতে তুলে দেওয়া যায় বিষ বৃক্ষের ফল।    

 

সুব্রত ঠাকুর যথার্থই বাপ কা বেটা !!  

মঞ্জুল ঠাকুরের ছেলে এই সুব্রত ঠাকুর। তৃণমূলের পঞ্চায়েত স্তরের নেতা। কিছুদিন আগে ফেশবুকে রাজনৈতিক দলের সঙ্গে সম্পর্ক ছিন্ন করে তিনি জনগণের কল্যাণে কাজ করার জন্য বিজ্ঞাপন দেন। পরবর্তী কালে জানা যায় যে তৃণমূল দল তাঁর জেঠিমা মমতা ঠাকুরকে বনগাঁ কেন্দ্রের প্রার্থী হিসেবে মননয়ন দিচ্ছে। এ জন্য বেজায় চটেছেন সুব্রত। আরো খবর পাওয়া যায় যে তিনি গোপনে গোপনে বিজেপির সাথে যোগাযোগ করছেন এবং সেই কারণেই তৃণমূলের পদ ছাড়তে মনস্থির করছেন কিন্তু সেখানেও বাঁধ সেধেছে কেডি বিশ্বাস। কারণ কেডি বিশ্বাস পূর্বে এই কেন্দ্র থেকেই বিজেপির হয়ে লড়েছিলেন। তাই সুব্রত বিষ ছড়াতে শুরু করেছেন।  আজন্ম বেড়ে ওঠা হিংসা প্রতিহিংসার কাদা ছড়াচ্ছেন। মাতৃসম জেঠিমাকে মাতাল বন্ধুদের দিয়ে খুনের হুমকি দিচ্ছেন। ধিক্কার জানাই তাঁর এই অভব্যতার। ধিক্কার জানাই তাদের পারিবারিক সংস্কৃতির এই নিম্নগামী প্রবণতাকে। সাবধান হতে আহ্বান করি সমস্ত মতুয়া ভক্তদের। কারণ এই স্খলিত পরিবারের কাছ থেকে মতুয়াদের পাওয়ার কিছু নেই। এরা শুধু নিতে শিখেছে, দিতে শেখেনি। তাই সাধু সাবধান...।।    

 

ममता बनर्जी के राजकाज की वजह से ही बंगाल में तेज होने लगा केसरियाकरण ममता बनर्जी का राजकाज दरअसलबंगाल में नाजी फासी राजनीति के लिए जनाधार तैयार कर रहा है।जो किसी साधारण सी लगने वाली महिला के इस ऊंचाई तक पहुंच जाने के बाद शायद भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है।

Next: पहले सुंदरलाल बहुगुणा होने का मतलब समझें तो फिर समझें उनके सरोकार! अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह! पलाश विश्वास
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ममता बनर्जी के राजकाज की वजह से ही बंगाल में तेज होने लगा केसरियाकरण

ममता बनर्जी का राजकाज दरअसलबंगाल में नाजी फासी राजनीति के लिए जनाधार तैयार कर रहा है।जो किसी साधारण सी लगने वाली महिला के इस ऊंचाई तक पहुंच जाने के बाद शायद भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है।


एक्सकैलिवर स्टीवेंस विश्वास

बंगाल में वाम पंथियों के अवसान के लिए नहीं,बल्कि संघ परिवारे के अभूतपूर्व उत्थान के लिए ममता बनर्जी याद की जायेंगी।केंद्र विरोधी जिहाद के तहत वे तेजी से बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण का माहौल बना रही है और आपराधिक तत्वों को खुल्ला समर्थन देकर वोटबैंक की राजनीति करते रहने के कारण न केवल बंगाल में राजनीतिक हिंसा और साप्रदायिक वैमनस्य से फिजा खराब हो चली है,बल्कि राष्ट्र की एकता और अखंडता को भी भारी खतरा पैदा हो गया है।


स्वभाव से ममता कलाकार हैं और कभी वे अपने ब्रश से रंग भरती हैं, कभी कविताओं के जरिए लोगों को भावों से भर देती हैं, तो कभी अपने संगीत से लोगों को लुभाती हैं...ये हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममताबनर्जी।सड़क पर किसी भी मुद्दे को लेकर जनहित में लगातार आंदोलन चलाना .जैसे नंदीग्राम सिंगुुर प्रकरण में ,उनका राजनीति ब्रांड है।वहीं,राजकाज में मां माटी मानुष जमाने में न जनसुनवाई है,न कानून का राज है और न लोकतांत्रिक  तरीके से किसी जनांदोलन की कोई संभावना है।ममता बनर्जी का राजकाज दरअसलबंगाल में नाजी फासी राजनीति के लिए जनाधार तैयार कर रहा है।जो किसी साधारण सी लगने वाली महिला के इस ऊंचाई तक पहुंच जाने के बाद शायद भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है।


गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले में 2 अक्टूबर को हुए धमाके के सिलसिले में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल समेत देश के शीर्ष सुरक्षा और खुफिया प्रमुखों ने आज घटना स्थल का दौरा किया। डोभाल ने यहां बांग्लादेश के जिहादी संगठनों के फलने फूलने परममता बनर्जीसरकार की बेखबरी पर कथित रूप से असंतोष व्यक्त किया। सूत्रों ने बताया कि डोभाल ने ममता बनर्जीको सख्त संदेश दिया और कहा कि राज्य सरकार आतंकवाद के खतरे से आंख नहीं चुरा सकती। वहीं ममता ने आतंकवाद से लड़ने में अपनी ओर से केंद्र को पूरे सहयोग का भरोसा दिया और मिलकर काम करने का वादा किया।


बैठक के बाद गृह मंत्रालय के विशेष सचिव प्रकाश मिश्रा ने कहा कि केंद्र व राज्य सरकार आतंकवाद के खिलाफ साथ मिलकर कार्रंवाई करेगी। ब‌र्द्धमान धमाका आतंक का बड़ा रूप है, लिहाजा इसकी जांच एनआइए, एनएसजी जैसी दक्ष एजेंसियों को सौंपी गई है। उन्होंने कहा कि ममता बनर्जीके वादे पर पूरा भरोसा है और प्रदेश में फैले आतंक के जाल को जल्द ही ध्वस्त कर देंगे। हालांकि डोभाल ने मामले की जांच में पुलिस की भूमिका पर नाराजगी जताई।


केंद्रीय मंत्रिमडल से समर्थन वापस लेने के उनके आत्मघाती राजीनिक दिवालियेपन की वजह से उन्हीं की शुरु तमाम परयोजनाएं अटक गयी है और उद्योग और कारोबार के मामले में पार्टी जनों की बेलगाम वसूली और सिंडकेट सस्कृति की वजह से बाकी बचे खुचे उद्योग धंधे भी चौपट होने लगे हैं।

रोजगार सृजन का कोई उपाय नहीं हो पा रहा है और कानून व्यवस्था अब बलात्कार संस्कृति है।


शिक्षा क्षेत्र में भी राजनीतिक वर्चस्व का आलम यह है कि जादवपुर विश्वविद्यालय में पुलिस बुलवाकर नंदीग्राम और रवींद्र सरोवर कांड दोहराने वाले अस्थाई उपकुलपति को छात्रों और अध्यापकों के अविराम आंदोलन के बाद ममता दीदी ने स्थाई नियुक्ति दे दी है और विश्वविद्यालय को केंद्रित होकर कलरव दिनोदिन तेज होता जा रहा है।पठन पाठन बंद है।जादवपुर के छात्रों ने इस बीच एक जनमत संग्रह कराया जिसमें विश्वविद्यालय के नब्वे फीसद छात्रों ने वीसी को हटाने की मांग की है।


आर्थिक घोटालों में दीदी और उनके परिजन अब कटघरे में हैं और सांसदों और मंत्रियों की जेल यात्रा की तैयारी है।अब दीदी खुद कह रही है कि उन्हें और उनके नेताओं, मंत्रियों, सांसदों को मीडिया खामखां चोर बना रहा है जबकि उनने कोई चोरी की नहीं है।वे खुद बता रही है कि मुकुल राय और मदनमित्र को जेल भेजने की साजिश हो रही है।इससे उनकी साख बहुत तेजी से घट रही है।तमाम लोग चांदी काट रहे हैं और चिनके हिस्से में टुकड़े नहीं आ रहे हैं वे जहां तहां बवाल कर रहे हैं।त-णमूली व्यापक पैमाने पर सभी सेक्टरों में उधम मचाये हुए हैं,जिससे दिनोंदिन बंगाल में अराजकता का माहौल मजबूत होने लगा है।


भाजपा को रोकने के लिए दीदी वामदलों पर आरोप लगा रही हैं और वाम भाजपा मिलीभगत का बहाना बना रही है।जबकि वाम और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को खत्म करके दक्षिणपंथी बयार चलाने का करतब उन्हीं का है।उनका अपना जनाधार कभी नहीं रहा है।सनसनीखेज लोकप्रिय नारों और वायदों के सहारे पोपुलिस्ट राजनीति करने और कार्यकर्ताओं नेताओं का मनचाहा इस्तेमाल करने की उनकी आदत की वजह से उनकी पार्टी में उनके अलावा कोई राज्यस्तरीय या स्थानीय नेतृत्व बना ही नहीं है जो अराजक गलत और आपराधिक तत्वों के चंगुल से पार्टी को निकाल बाहर कर सकें तो दूसरी ओर विपक्ष पर दिनोंदिन तेज हो रहे हमले के मद्देनर केंद्र सरकार की वजह से अचानक मालदार और वजनदार पार्टी बन जाने के कारण सभी विपक्षी दलों और तृणमूले के कार्यक्रता नेता अपनी अपनी खाल बचाने की गरज से या फिर चांदी काटने के फिराक में भाजपाई बनते जा रहे हैं।


वोट बैंक के सांप्रदायिक और धार्मिक ध्रूवीकरण से अल्पसंख्यकों के वोट बैंक भरोसे सरकार और पार्टी चल रही है लेकिन अल्पसंख्यकों को भी अब असुरक्षा का डर सता रहा और सुरक्षा के लिए वे भाजपा में जाने लगे हैं  तो उनपर सत्तादल का हमला तेज होने लगा है।हाल में वीरभूम जिले की घटनाएं कुछ इसी प्रकार है जहां पीड़ितों से मिलने की इजाजत सासदों को भी नहीं मिल रही है जबकि मुआवजा हमलावरों को मिल रहा है।

इसी बीच केरल से शुरू हुआ "किस ऑफ लव" आंदोलन कोलकाता पहुंच गया है। बुधवार को स्टार थियेटर के सामने प्रेमी युगलों ने कोच्चि में हुई घटना का विरोध जताया। वहीं प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के निकट प्रेमी युगलों ने सभा एवं विरोध प्रदर्शन किया। विरोध जता रहे युवक-युवतियों के हाथों में पोस्टर थे, जिस पर लिखा था- हमलोग "किस ऑफ लव" का समर्थन करते हैं। यादवपुर विश्वविद्यालय से यादवपुर थाने तक जुलूस भी निकाला गया।

गौरतलब है कि कोच्चि के एक कॉफी शॉप में पिछले हफ्ते एक प्रेमी युगल के एक-दूसरे को चूमने व गले लगने पर उनपर अनैतिकता फैलाने के आरोप में हमला किया गया था। इसके विरोध में प्यार को अभिव्यक्त करने की आजादी की मांग (किस ऑफ लव) को लेकर युवाओं के एक समूह द्वारा केरल से शुरू किया गया आंदोलन कोलकाता पहुंच गया है।

रविवार को प्रेमी युगलों ने कोच्चि के समुद्र तट पर एक-दूसरे को चूमकर विरोध व्यक्त किया था। इस पर 80 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इसका सोशल मीडिया पर व्यापक विरोध शुरू हो गया और प्रेमी युगलों ने आंदोलन छेड़ दिया।


पहले सुंदरलाल बहुगुणा होने का मतलब समझें तो फिर समझें उनके सरोकार! अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह! पलाश विश्वास

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पहले सुंदरलाल बहुगुणा होने का मतलब समझें तो फिर समझें उनके सरोकार!

अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह!


पलाश विश्वास


मैंने संजोगवश पत्रकारिता में करीब चालीस साल बिता दिये और बाकी जिंदड़ी कारी ही रहनी है,तो इसकी वजह कक्षा दो में पढ़ाई के दौरान ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में पिता के साथ मेरी पहली नैनीताल यात्रा है।


तब हम तल्लीताल में एडवोकेट और ढिमरी ब्लाक आंदोलन के नेता हरीश ढौंढियाल के सौजन्य से रुके थे,जो मिडलेक पुस्तकालय की सीध में थोड़े ही ऊपर रहते थे।नैनीताल कोर्ट में उस सुनवाई में आंदोलनकारियों को कब सजा हो गयी और कब उन्हें जमानत मिली,यह तो मुझे तब मालूम नहीं पड़ा,लेकिन मेरे भविष्य का फैसला हो गया।


अदालत से छूटते ही पिता मुझे लेकर डीएसबी चले गये और उनने कहा कि तुम्हें यहीं पढ़ना है तो कक्षा दो ही की अवस्था में मैं डीएसबी का छात्र बन गया।


इसपर तुर्रा नैनीताल का मदहोश कर देने वाला प्राकृतिक सौंदर्य और वादियों से घिरी वह नीली झील।फिर अनंत आत्मीयता का वह अमोघ दुर्निवार आकर्षण।


पिता भूल गये और हाई स्कूल पास करने के बाद बनारस के विख्यात स्वतंत्रता सेनानी बनर्जी परिवार में रहकर काशी में मेरे आगे पढ़ाई की योजना बना ली उनने और उनके मित्र स्वतंत्रताता सेनानी बसंत कुमार बनर्जी ने।लेकिन मैंने तो नैनीताल को ही चुना हुआ था और मैं वहीं का हो गया।जो मेरी जीवनधारा में सबसे निर्णायक फैसला है।


मेरे इस भविष्य और वर्तमान के लिए उनका भी आभार जो मुझे लगातार रिजेक्ट करते रहे और मुझे दूसरा कुछ बनने से रोकते रहे।


जैसे परम सारस्वत प्रभाष जोशी ने बाहैसियत पत्रकार मुझे कोलकाता बुलाकर कोलकाता के सत्तासीनों के असर में सबएडीटर बनाकर मुझे कामयाब कारपोरेट पत्रकार बनकर युद्धअपराधियों की जमात में शामिल होने से रोक लिया।उनका भी आभार।


मैं जो भी कुछ जुनून की हद से चाहता था,वह हासिल हो जाता तो शायद मैं भी बाकी लोगों की तरह सुखी संपन्न जीवन बिताकर चैन की वंशी बजा रहता होता।


या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने की गरज से जो मैं जेएनयू तक पहुंच गया था,वहां से झारखंड मदन कश्यप और उर्मिलेश के सौजन्य से न पहुंचता तो मैं देशभर की आदिवासी बिरादरी में इस तरह कभी शामिल नहीं हो पाता।


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अगर डा.मानस मुकुल दास मुझे गाइड कर पाते और उपलब्ध गाइड डा.मालवीय से अपने विषय पर मैं अड़ा नहीं होता तो भी कथा दूसरी होती।


नैनीताल छोड़कर भागा नहीं होता ज्ञान की खोज में और फौरन उपलब्ध विश्वविद्यालयी चाकरी ओढ़ लेता तो देश भर में जल जंगल जमीन नागरिकता मानवाधिकार और पर्यावरण के मुद्दों से मेरे कोई सरोकार नहीं होते।


धनबाद में कामरेड एके राय और महाश्वेता दी से न जुड़ता तो पत्रकार बनकर भी मैं उसी पृथ्वी की धूरी पर गोल गोल घूमता,जो अब खत्म होने को है।


ज्ञान डिग्रियों से नहीं मिलता।


पढ़ने लिखने और प्रकांड विद्वता के कारण भी कोई ज्ञानी नहीं होता।


वे इस दुनिया के सबसे कामयाब लोग हैं।स्टेटस के हिसाब से हम उनके चरणों की धूल भी नहीं है लेकिन ऐसे महामहिमों के चरण चिन्हों पर चलने से सरासर इंकार के सिलसिले में ही मेरी जीवन धारा बहती रही है,रहेगी।


एेसे यूं समझे जैसे सूरदास,कबीरदास,संत रविदास, दादू से लेकर चैतन्य महाप्रभु,संत तुकाराम और लालन फकीर जैसे लोग हैं,जो उस मायने में पढ़े लिखे नहीं थे,लेकिन दुनिया के किसी भी पढ़े लिखे के मुकाबले सर्वकालीन प्रासंगिक ज्ञानवृक्ष हैं सभ्यता के।


इस देश के गांवों में सुप्रीम कोर्ट जिन मुकदमों का निपटारा दशकों से कानूनी दांवपेंच से कर नहीं पाता,पलक झपकते ही किसी विक्रमादित्य शिला पर बिन बैठे हल कर देने वाले बूढ़ मानुख भी हैं जो लोक परंपराओं,सहजिया जीवन दर्शन और प्राकृतिक सान्निध्य में निरपेक्ष तरीके से से हंस दक्षता से दूध का दूध और पानी का पानी कर सकते हैं।


मेरे पिता ने कक्षा दो में जब मैं पढ़ रहा था, तब ही मुझे अपना सबसे अंतरंग मित्र बना दिया और अपने हर विमर्श और हर यात्रा में ,मैराथन पंचायती कवायद में भी या फिर राष्ट्रपति दर्शन में मुझे सहयात्री बना लिया और ताराचंद्र त्रिपाठी जैसे गुरुजी और मुझे प्राइमरी से लेकर डीएसबी तक पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं की बहती हुई आत्मीय संवेदनाओं का सान्निध्य जो मिला,उसकी वजह से मैं आज जैसा भी हूं,वैसा हूं।


मैं जीवन में बेहद नाकाम डफर रहा,लेकिन रिटायर होने से पहले जीआईसी नैनीताल में मिले ब्रह्मराक्षस के ज्ञानदर्शन का सिलसिला अब भी ताराचंद्र त्रिपाठी माध्यमे मुझे मिलता रहता है और पैंतीस साल पहले एमए पास करने वाले अपने छात्र को आज भी परिजनों में मानते हैं डा. बटरोही,शेखर पाठक,फीजिक्स प्रोफेसर कविता पांडेय या अंग्रेजी की मैडम परमासुंदरी मिसेज अनिल बिष्ट।


मेरे ख्याल से किसी नोबेल पुरस्कार से ये उपलब्धियां बड़ी हैं।


मैं और सविता करीब डेढ़ हजार मील दौड़कर इसबार जो सुंदर लाल बहुगुणा जी को प्रणाम करने देहरादून पहुंचे और पैंतीस साल बाद हुई मुलाकात में बिना परिचय पूछे उन्होंने मुझे झटके से पहचान लिया और छूटते ही बोले,`हम भी बंगाली है और हमारे पूर्वज भी बंगाली हैं',जड़ों को छूने का उनका यह प्रयास हमें आत्मीयता में बांध लेने की उनकी सहज पर्यावरण चेतना है।फिर बंद्योपाध्याय से बहुगुणा बन जाने की कथा उनने सुनायी जो पहाड़ों में लोग जानते होंगे।


बुनियादी मसला यही है यानी पर्यावरण चेतना,जिसके लिए भारत महादेश ही नहीं,इसके मुक्तबाजारी विध्वंसक दायरे से बाहर इस पृथ्वी और उसके समस्त अंतरिक्ष मंडल में शायद अब भी सबसे प्रासंगिक नाम है सुंदर लाल बहुगुणा।


ढिमरी ब्लाक आंदोलन तेलंगना के बाद उसी क्रम में किसानों का जनविद्रोह ही नहीं था सिर्फ,बल्कि भारत में हजारों साल से,यूं समझिये कि हड़प्पा और मोहंजोदोड़ो समय से कृषिजीवी मनुष्यों की जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए एकताबद्ध अस्मिता आरपार बहुजन सामाजिक जो जनांदोलन रहा है, जो औपनिवेशिक भारत में चुआड़ विद्रोह से लेकर सन्यासी विद्रोह,मुंडा,भील,संथाल आदिवासी विद्रोहों,नील विद्रोह,मतुआ आंदोलन, अयंकाली का संयुक्त मोर्चा,ज्योतिबा सावित्री फूले का शिक्षा सशक्तीकरण, नवजागरण की परंपरा में है।


पिता ने जाने अनजाने मुझे उस परंपरा से बांध दिया और वे लगभग अपढ़ थे।


कक्षा दो तक ही पढ़े वे और शायद कक्षा दो में पढ़ने वाले अपने बेटे पर देश दुनिया की चिंताओं और सरोकारों का कार्यभार सौंपने में उन्हें कोई द्विधा  नहीं हुई तो शायद इसलिए की उनकी पूंजी वही कक्षा दो की विद्या रही है।


इस बार मैं बसंतीपुर गया तो छोटे भाई पंचानन के बेटे पावेल में मुझे अपना खोया हुआ बचपन जीने का अहसास मिला और लगा जैसे कि उसकी काया में मैं ही अपने शैशव में लौट आया हूं।अब मेरे लिए चुनौती है कि अपने पिताकी तरह मैं उसे अपने सरोकार और अनुभव का साझेदार बना सकूं,यह कितना कठिन है,बाकी बच्चों से संवादहीनता के संकटमध्ये मुझसे शायद बेहतर कोई नहीं जानता।कोई भी नहीं।


पढ़ा लिखा होने के,डिग्रीधारी विद्वता के अनर्थ भी बहुत होते हैं।जैसे कि बाबासाहेब डा.अंबेडकर को भी कहना पड़ा कि उन्हें पढ़े लिखों ने धोखा दिया।


जैसे बिजनौर में एकदम ताजा पीढ़ी के अति कुशाग्र एक बीटेक इंजीनियर जो सर्वर मैनेजमेंट और मैथ्स के विशेषज्ञ हैं,उनसे करीब दो घंटे तक हमारी मुठभेड़ में महसूस हुआ।मैं तो उससे सीखने के मोड में डीफाल्ट था,लेकिन वह आब्जैक्टिव फैक्ट्स को सर्वोच्च प्राथमिकता के नाम जीवन दर्शन और जीवन दृष्टि जैसी बुनियादी चीजों को लगातार खारिज करता रहा।


उसके मुताबिक भारत में सारी समस्याओं की जड़ जनसंख्या महाविस्फोट है या फिर यूरिया।यूरिया वाला तर्क मैं समझता हूं और जनसंख्या महाविस्फोट के बारे में बाकी देश मेरे उच्च विचारों से अवगत है।लेकिन पुरानी पीढ़ियों की सिंपल बीए एमए पीएचडी डिग्रियों को जो वह लगातार खारिज करता रहा और हमारी पीढ़ियों को घंटा समझकर लगातार बजाता रहा तो मौजूदा शिक्षा कारोबार का फंडा भी समझ में आ गया।


फिर उसने कहा कि सबसे बड़ा अपराधी अंबेडकर हैं क्योंकि उनकी वजह से आरक्षण है और अस्मिताओं में बंटा यह देश है।मैंने कहा कि अंबेडकर पढ़े हो या नहीं,उसने कहा कि किताबों में ऐसा लिखा है।वह अनुसूचित जाति से ही है।


यह जो पूर्वाग्रह है,उसका शिकार मैं भी रहा हूं।यह पढ़े लिखे होने का दोष है।तजिंदगी हम अपने आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते और अपने ही पक्ष का लगातार अंध बचाव करते हुए दृष्टि अंध होकर सुॆखी संपन्न होकर दक्षिण हो जाते हैं।


मेरे पिता एक मुश्त गांधी,अंबेडकर,लोहिया,मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों के समन्वय से अपना फैसला करते थे और कहते थे कि सिर्फ मार्क्सवाद होना  ही काफी नहीं है,इस देश के जल जंगल जमीन और पर्यावरण के साथ इतिहास को समझने के लिए अंबेडकर को समझना जरुरी है,तो यही बात हमारे दिमाग में भी थी कि अंबेडकर तो जात पांत की राजनीति के प्रणेता हैं,वर्गीय ध्रूवीकरण या क्रांति के अंतिम लक्ष्य को हासिल करने के लिए अंबेडकर पढ़ना क्यों जरुरी है।


पिता तो चिपको आंदोलन से लेकर पृथक उत्तराखंड आंदोलन तक में हमारे सारे साथियों के साथ बेहिचक खड़े हो गये,मैं उनके किसी आंदोलन में शरीक नहीं हो सका उनके जीते जी,पढ़े लिखे होने के दुराग्रह के कारण और उनका पक्ष जान ही न सका।


सुंदर लाल जी से मैंने पूछा भी कि नैनीताल समाचार में नवंबर 1978 में नैनीताल क्लब अग्निकांड के तुरंत बाद जो गिरदा की अगुवाई में उनसे हमारी आखिरी प्रचंड बहस हुई थी और गिरदा ने दो टुक शब्दों में कह दिया था कि जनांदोलन सहिंस होगा कि अहिंस,इसका फैसला आप हम करने वाले कौन होते हैं,क्या उसकी कोई याद उन्हें है।


उन्होंने ना कह दिया और फिर भी ताज्जुब कि वे हमें भूले नहीं है।


अपने पिता के निधन से पहले लगता है,मैं जीवनदृष्टि से ही वंचित रहा हूं,तब तक मैं खूब पढ़ता लिखता रहा हूं,लेकिन भारतीय लोक को समझना हमारी औकात से बाहर की चीज थी।अब उन्हींके सरोकारों से लबालब मुझे पढ़ने लिखने की फुरसत ही नहीं है।जो मैं अब अतिशय लेखन भिन भिन भाषाओं में करता हूं वह न पत्रकारिता है और न साहित्य।वे मेरे जीवन के सरोकार से जुड़े संवाद का अटूट सिलसिला है अराजक।


देश भर में छितरा दिये गये बंगाली शरणार्थियों ने पिता की मौत के बाद जब अपने हर संकट में मुझे दस्तक देना शुरु किया और बाकी समुदायों के लोग भी उस पिता की संतान होने की वजह से मुझे अपनों से जोड़ने लगे,तब जाकर कहीं मुझे पिता की जीवनदृष्टि का ज्ञान हुआ और अंबेडकर को पढ़ने के बाद लगा कि  उनके जीवन के अनुभव हमारे पाठ के मुकाबले कितना अहम है।


पिता अक्सर हां कहते हैं कि ज्ञान पोथियों में नहीं,समाज और जीवन में होता है,जो पढ़ने की चीज नहीं होती ,महसूसने और आत्मसात करने की चीज होती है औऱ इसके लिए लोक की गहराइयों में पैठना होता है।मैं उन्हें कभी समझ ही न सका।शिक्षा के आडंबर ने मुझे सिरे से दृष्टिअंध बना दिया था।


सुंदर लाल बहुगुणा से बाहैसियत पत्रकार मैं कभी नहीं मिला हूं।


देहरादून में उत्तराखंड में महिला आंदोलन को नेतृत्व देने वाली और उमा बाभी की उत्तराटीम की दो अति प्रिय महिलायें रहती हैं,पहली तो गीता गैरोला दीदी और दूसरी हमारी वैणी कमला पंत।


इसके अलावा भास्कर उप्रेती की सहधर्मिनी केदार जलआपदा की विलक्षण युवा पत्रकार सुनीता भास्कर से भी मिलने की बड़ी तमन्ना थी,लेकिन सरकारी अतिथिशाला की दीवारों में फंस जाने की वजह से उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।




इसके बावजूद मुझे कोई पछतावा नहीं है।


क्योंकि जीवंत पर्यावरण चेतना से मेरा अंतिम साक्षात्कार तो हो ही गया।


दरअसल आंदोलन के सिलसिले में ही सुंदरलाल बहुगुणा से हमारी मुलाकातें होती रही हैं और आंदोलन के तौर तरीके से हमारी उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के वाम ब्रिगेड से उनका कोई तालमेल था नहीं ,लेकिन हम उन्हींकी पर्यावरण चेतना की मशालें लेकर अपने अपने गांव से निकल पड़े थे,यह तमीज हमें तब भी थी।


बहुगुणा जी गांधीवादी हैं।


वे संत विनोबा भावे के सहकर्मी सर्वोदयी भी हैं।


भारत में या दुनिया में किसी भी विचारधारा के किसी भी अन्य व्यक्ति के जल जंगल जमीन मनुष्यता प्रकृति और पर्यावरण को जोड़कर अपनी जीवन दृष्टि और उस मुताबिक जमीनी स्तर पर सक्रियता के धारक वाहक होने की सूचना मुझे नहीं है।


वैसे हम पिता की मृत्यु के बाद लगातार यह कहते लिखते रहे हैं कि पर्यावरण चेतना के बिना भारतीय अर्थव्यवस्था,विश्वजनीन समस्याओं ,राष्ट्रतंत्र और राजकाज समामाजिक आंदोलन और राजनीति ही नहीं,साहित्य, कला और संस्कृति की कोई भी गतिविधि गैर प्रासंगिक हैं।


हम मानते रहे हैं कि इस देश के नीति निर्धारक लोग खासतौर पर मेधा तबके के लोग,राजनेता और अर्थशास्त्री और खासतौर पर जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता पर्यावरण को देनी चाहिए।


अनिवार्यतः उन्हें पर्यावरण कार्यकर्ता होना चाहिए,तभी वे जनपक्षधरता के मोर्चे से कुछ करने के काबिल बन सकते हैं।ऐसी सीख हमें इन्हीं सुंदरलाल बहुगुणाजी से मिली है जो हमारे बाबूजी के बराबर हैं।


मेरे पिता अब नही हैंं लेकिन राजीव नयन बहुगुणाके पिता में अपने पिता को साक्षात पिर जीवंत देखने का अनुभव हुआ है अबकी दफा देहरादून में।


अब यह समझने वाली बात है कि भारतीय संविधान और अंतररार्ष्ट्रीय कानून,सभ्यता के मानक,सुप्रीम कोर्ट के फैसलों,नागरिकता ,नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों का बर्बर उल्लघंन करने की जो जनसंहारी साढ़ संस्कृति का विकास सूत्र है,उसमें एक एक इंच को सीमेंट के जंगल में तब्दील कर देने की रियल्टी बिल्जर प्रमोटर माफिया उत्कट अश्लील तत्परता है और लंबित परियोजनाओं में फंसी देशी विदेशी पूंजी के अलावा न मनुष्यता और न प्रकृति की कोई चिंता है।


अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह!


जो आजादी से पहले से उत्तुंग हिमाद्री शिखरों को छूते हुए समुंदर की गहराइयों में पैठते हुए इस पृथ्वी,पृथ्वी की समस्त मनुष्य ही नहीं जीवप्रणालियों,प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण परिवेश बचाने की लड़ाई लड़ने वाले भीष्म पितामह हैं और देहरादून में अपनी बेटी के घर में वृद्धावस्था में उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि न अब इस पृथ्वी पर जल होगा और न कोई अनाज।


मुक्त बाजारी आत्मघाती विकास सर्वनाश बजरिये हमने अपनी प्रकृति और पर्यावरण,जलवायु और समूचे कायनात को इतना इतना जहरीला बना दिया है।


वे कई वर्षों से पहाड़ की यात्रा नहीं कर पा रहे हैं।लेकिन उन्हें खुशी है कि उत्तरकाशी में बाढ़,भूस्खलन और भूकंप की मार सहकर भी लोग जिंदा हैं और उजेली का सर्वोदय आश्रम बना हुआ है।


उन्हें पुरानी टिहरी के ठक्कर छात्रावास,जो पहाड़ों में दलित छात्रों की शिक्षा के लिए उन्होंने स्थापित किया था,उसके साथ समूची पुरानी टिहरी और सैकड़ों गांवों के डूब में शामिल होने के बाद ऊर्जा प्रदेश उत्तराखंड के पीपीपी विकास माडल से सख्त ऐतराज हैं।


और केदार जल प्रलय में खोये जनपदों,गांवों और मनुष्यों के शोक में वे फिर वहीं तीरबिद्ध कंटकशय्या पर इच्छा मृत्यु अभिशप्त भीष्म पितामह, जिनकी प्यास बुझाने वाला कोई अर्जुन द्वापर के बाद हुआ नहीं है और न होने के आसार हैं।


इतना प्रलाप सुंदरलाल बहुगुणा का मतलब समझने के आशय से है।इसे समझे बिना वे क्या कहते हैं,क्या भूलते हैं और भूमि उपयोग,पर्यावरण,जलवायु और विकास के बारे में उनके विचारों पर बहस हम शुरु कर ही नहीं सकते।


आज फिलहाल यही तक।

आगे इस सिलसिले में चर्चा से पहले इंडिया वाटर पोर्टल पर उपलब्ध पर्यावरण के छेड़छाड़ से हमें भारी नुकसान होगा : सुंदर लाल बहुगुणा,शीर्षक आलेख में उनके विचारों को पहले समझ लेंः

हमारी भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति थी। हमारे शिक्षा के केन्द्र, अर्थात आश्रम अरण्य में थे। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अरण्यों को पुर्नजीवित करने के लिए शांति निकेतन की स्थापना की। कमरों के अंदर पढ़ने का चलन तो अंग्रेजों ने पैदा किया था क्योंकि उनका देश ठंडा था और घरों से बाहर बैठकर पढ़ाई नहीं हो सकती थी। इसलिए उन्होंने ये सारा जाल बुना। उनके आने से पहले तक तो भारत में सब कुछ खुले आसमान के नीचे होता था। क्योंकि खुले आकाश के नीचे और प्रकृति के सानिध्य में मनुष्य के विचारों को स्फूर्ति मिलती है, नए-नए विचार आते हैं।


वह कमरे के अंदर उन्हीं विचारों को बार-बार दोहराता रहता है जो उसके अंदर जमा होते हैं। क्योंकि कमरे की इतनी कम परिधि होती है जिसमें वह कमरे के चारों और ही चक्कर काटता रहता है। यदि भारत को अपना वर्चस्व कायम रखना है तो उसे अपने अतीत की ओर देखना चाहिए अर्थात उसे पुनः वही जीवन पद्धति अपनानी चाहिए जो उसे अरण्य संस्कृति से प्राप्त हुई थी। जिसमें चिन्तन करने और नए विचारों को प्राप्त करने के लिए, खुले आसमान के नीचे, पेड़ों के नीचे और नदी के किनारे बैठकर अध्ययन किया जाता था।


आपने देखा ही होगा कि कोई भी ऋषि नदी के किनारे या पहाड़ की उस चोटी पर बैठकर ध्यान लगाता है जहां से प्राकृतिक सुंदरता अर्थात जीवंत प्रकृति के दर्शन होते है। इस प्रकार प्रकृति से हमें स्थाई मूल्यों की प्राप्ति होती है। आज हमें दो-तीन चीजों की आवश्यकता है पहली तो अपने आज को अपने अतीत से जोड़ने की, जिस प्रकार कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों के साथ जुड़ा होता है और अगर उसे जड़ से अलग कर दिया जाए तो वह सूख जाता है उसी तरह किसी भी समाज की जड़ उसका अतीत होता है और अगर उसको उसके अतीत से काट दिया जाए तो वह भी तरक्की नहीं कर पाता है।


दूसरी, बात मनुष्य को जिंदा रहने के सभी साधन प्रकृति से मिलते हैं। प्रकृति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और ऑक्सीजन कमरे के अंदर पैदा नहीं हो सकती है। उसे जल की भी आवश्यकता होती है और जल के बारे में आस्ट्रेलिया के सोवरगर नामक विद्वान ने "The Living Water"'जिन्दा जल', नामक एक पुस्तक लिखी। उनके अनुसार हर जगह का पानी जिंदा नहीं रहता है जैसे नल के अंदर गया हुआ पानी स्वछन्द रूप से खासकर पहाड़ी नदी में बहने वाले जल की अपेक्षा कम स्वच्छ होता है क्योंकि वह पानी पहाड़ों से टकरा-टकराकर अपने को स्वच्छ रखता है और उसी पानी को जीवन्त कहा जाता है।


शायद इसीलिए हमारे यहां हरिद्वार में गंगा में श्राद्ध तर्पन करने के पीछे भी यही सोच काम करती हो क्योंकि गंगा, अपना हरिद्वार तक का सफर पहाड़ी क्षेत्र में बहकर तय करती है उसके बाद उसका पानी, उसकी गति कम हो जाती है और गति कम होते ही वह प्रदूषण का घर बन जाती है। इस प्रकार दूसरा तत्व स्वच्छ पानी है।


उनके अनुसार जीने के लिए तीसरा साधन 'अन्न'है और वृक्ष हमें फलों के द्वारा पोषण देते हैं। हम वृक्षों को इसलिए उगाते हैं ताकि हमें उनसे अन्न की प्राप्ति हो। शुरू में अन्न, मनुष्य की खुराक नहीं थी। शुरू-शुरू में हम पशुपालक थे और पशुओं के साथ अपना जीवनयापन करते हुए फलों का सेवन करते थे लेकिन उस दौरान स्त्रियों को काफी कष्ट होता था क्योंकि उनके साथ रहने वाले पशु सब घास तथा अन्य पौधों को चर लिया करते थे जिससे फिर उस स्थान पर हरियाली की कमी हो जाती थी और उन्हें उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना होता था इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे घास के बीजों को पकाकर खाना शुरू किया और इस तरह मनुष्य ने अन्न पैदा करना, उसे संग्रह करना और उसे पकाना शुरू कर दिया।


जब से मनुष्य ने अन्न की खेती करना और उसे संग्रह करना शुरू किया तभी से दुनिया में अधिकांश लड़ाइयां शुरू होने लगी। अब समय आ गया है जब पूरी मनुष्य जाति को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। सबसे पहले तो हमें आधुनिक युग के नए अवतार 'प्रदूषण'का हल निकालना होगा।


आज पूरे विश्व में प्रदूषण ने अपना जाल इस तरह से बिछाया हुआ है जबकि आज से कुछ साल पहले तक लोगों ने प्रदूषण शब्द के बारे में सुना तक भी नहीं था। मुझे याद है कई वर्ष पहले "India International Center" (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर) में प्रदूषण के बारे में एक गोष्ठी हो रही थी। हमारी गोष्ठी चल ही रही थी, तभी वहां एक ग्रामीण आदमी आ गया, उसने उन सभी बातों को सुनने के बाद हमसे पूछा कि ये खरदूषण कहां से आ गया?


ये बड़े-बड़े साहब उससे इतना क्यों डर रहे हैं, आखिर ये है कहां? तो इस प्रकार से आज तक उसने इस प्रदूषण शब्द को भी नहीं सुना था इसलिए वह उसे खरदूषण कहकर पुकार रहा था। मैंने, किसी की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह इनकी पोशाक के अंदर छिपा हुआ है, इनकी जीवनशैली ही प्रदूषण को जन्म देती है।


आज समाज की प्रगति के आगे कई समस्याएं मुंह बाएं खड़ी हैं उनमें पहली है, 'युद्ध का भय'क्योंकि आज गरीब से गरीब देश भी अपनी अधिकांश कमाई अनुत्पादक कार्यों जैसे हथियारों को जमा करने और सेनाओं पर खर्च करने में लगा रहा है, इस कारण से वहां की सामान्य जनता को नुकसान हो रहा है। समाज का दूसरा बड़ा खतरा 'प्रदूषण'है। आज आबादी बढ़ने के साथ-साथ नागरिक सुविधाएं भी बढ़ रही हैं जिससे धूल, धुआं और शोर जैसे तीन दैत्य हमारे देश को प्रदूषित करते जा रहे हैं। हवा में बढ़ते धूल और धुएं के कारण पत्तों के ऊपर भी धूल जमती जा रही है जिससे हमें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी है और हम लोग कई सांस संबंधी समस्याओं से ग्रस्त होते जा रहे हैं।


आज भी मुझे सन् 72 में संयुक्त राष्ट्र विज्ञान परिषद् की पत्रिका में छपे एक दंड चित्र के कार्टून की याद आती है जिसमें, एक बौना आदमी एक बड़े पेड़ को अपनी बांह के बीच में पकड़कर दौड़े जा रहा है, दौड़े जा रहा है किसी ने उससे पूछा - कहां जा रहे हो? जरा ठहरो ... उसने कहा, देखता नहीं है कि सीमेंट की सड़क मेरा पीछा करती आ रही है। इस प्रकार काफी सालों से मनुष्य को सभी तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करने की लालसा के कारण आज ऐसे कई निर्माण कार्यों पर जोर दिया जा रहा है जिससे हमारी प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को घातक नुकसान हो रहा है।


एक परिभाषा है, कि जंगल एक समुदाय है जैसे समाज में अनेक प्रकार के लोग एक साथ रहते हैं उसी तरह से जंगल में भी कई प्रकार के वृक्ष, लताएं, झाड़ियां और जीव-जन्तु मिलकर एक समुदाय बनाते हैं और वे सभी एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।


वनों के संरक्षण में कई ऐसे औषधीय पेड़-पौधे और जड़ी-बूटियों का रोपण हो रहा है लेकिन शायद वो अधिक उत्तम न हों।

अगर वे उत्तम किस्म के न हों तो उनके गुण धर्मों में भी अंतर होगा। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अब समय आ गया है जब हमें अपनी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करनी बंद कर देनी चाहिए और विकास के साथ-साथ प्रकृति के पुर्नजीवन के बारे में भी सोचना चाहिए। इसके अलावा मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर रहने की आदत बनाने का भी प्रयास करना चाहिए।


जैसा कि पहले भी था जिसे symbiotic relationship कहते हैं।

मैं, यहां पहाड़ों की बात इसलिए कर रहा हूं कि पहाड़ हमारे जल की मीनारें हैं और हमारे जीवन के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है जल संकट का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है। इसी प्रकार खेती भी सभी के लिए अनिवार्य है, अगर हमने भविष्य की जाति को जिंदा रखना है तो हमें अपनी कृषि-व्यवस्था को जिंदा रखना होगा।


क्या, आपको अन्न की खेती का भविष्य बहुत उज्ज्वल नजर नहीं आता है?

हालात जैसे भी हों, इतने कम समय में अन्न की बढ़िया खेती नहीं हो सकती।


अब पहले वाली विशुद्धता भी खत्म हो गई है, उसमें कीटनाशक भी शामिल हो गए हैं और उसका जैविक स्तर भी बिगड़ गया है।

हमारे यहां दो तरह की खाद्य पदार्थ होते हैं। एक तो, विशुद्ध, साधारण खादों वाली और दूसरी जैविक खादों वाली होती है जिसे अमीर लोग ही खरीदते और खाते हैं।


अब तो ऐसी स्थिति हो गई है कि हम टमाटर जैसी चीज में भी जिनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा मांस डालकर उसमें मांस पैदा कर दिया। ऐसे में, अब हमारा टमाटर भी शाकाहारी की जगह मांसाहारी ही हो गया है। प्रकृति के साथ इस तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह की छेड़छाड़ से हमारे पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी भारी नुकसान को झेलना होगा।

http://hindi.indiawaterportal.org/node/47307


प्राकृतिक संसाधनो के ऊपर महिला सशक्तिकरण - सामूहिकता, सहकारिता व यूनियन

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Invitation 



61st Birth anniversary of Bharati Roy Chowdhury will be celebrated on 11-12 november @ Women Empowerment Center ,Bharati Sadan, vill:Nagal Mafi, Saharanpur, UP, India.On this occasion a mass education programme on 'Strengthening Women leadership of Minor Forest Produce (MFP)  Co-operatives: Achieving self reliant political economy in forest region' will be organized .Women leaders of AIUFWP from forest regions of U.P, Uttrakhand, M.P,Bihar, Jharkhand, Gujarat, Himachal Pradesh &Delhi will participate to pay tribute to their departed icon. The regions are Shivalik (U.P.-Uttarakhand) , Tarai (U.P. Indo-Nepal Border), Kaimur (U.P.-Bihar-Jharkhand), Bundelkhand( U.P.-M.P.), Santhal Pargana (Jharkhand), South Gujarat, Bhatti Mines (Delhi).              

As you may be aware that in these forest regions women from Adivasi and Dalit communities have been collectively struggling over a decade or so to establish their community rights over the forest resources and have formed collectives. Till now they have been successful in holding these reclaimed areas in spite of repeated attacks from the Forest and Police administrations and from the local vested interests. In some of these areas the women groups have been able to form co-operatives and in other areas the process has already been started with their own initiative to form co-operatives, as ensured by the 2012 amendments in FRA rules. The forest Right movement, lead by AIUFWP is in a critical period to take a leap forward towards establishing Community Governance system replacing the colonial structure present in the forest regions. It is now very important to discuss about the effective strategy to build up a strong co-operative movement and institutions under women leadership in these regions ,which would bring about a national movement towards achieving community governance in forest regions in India..  

 

On this occasion we are glad to inform that Bharati Fellowship program will be initiated to provide support to grass-root women organizers from Dalit- Adivasi communities and especially who have taken independent initiative to build mass organization in their respective area. Your presence is solicited to guide us to make the program a success.


Note : Pl find the concept note in hindi, the english version will be posted very soon. 




प्राकृतिक संसाधनो के ऊपर महिला सशक्तिकरण - सामूहिकता, सहकारिता व यूनियन 
11-12 नवम्बर 2014
भारती सदन, नागल माफी-सहारनपुर उ0प्र0

मुख्य प्रपत्र

संघर्षशील महिला साथी भारती राय चैधरी की 61वीं वर्षगांठ को एक बार फिर अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन महिला नेतृत्व के सशक्तिकरण को समर्पित करने जा रहा है। इस उपलक्ष में 11-12 नवम्बर 2014 को भारतीजी को समर्पित उ0प्र0 के जिला सहारनपुर के नागलमाफी स्थित ''महिला सशक्तिकरण केन्द्र''पर ''महिला सहकारी समिति के प्रशिक्षण एवं यूनियन में महिला नेतृत्व का सशक्तिकरण''विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। जनवरी 2011 जब भारतीजी का निधन हुआ तब से हमारी यूनियन द्वारा हर वर्ष वनाधिकार आंदोलन से जुड़े महिला नेतृत्व को मजबूत करने के कई कार्यक्रम किये गये हैं, जिनके काफी अच्छे नतीजे भी सामने आ रहे हैं। यह सभी जनशिक्षण कार्यक्रम व अन्य यूनियन के कार्यक्रम लगातार एक श्रृंखला में किए जा रहे हैं, जिनमें से कई मजबूत कार्यक्रम उभर कर सामने आए हैं और जिन्हें सिलसिलेवार तरीके से आगे बढ़ाये जाने का कार्य किया जा रहा है। ज्ञात हो कि भारतीजी द्वारा वनाधिकार आंदोलन में महिलाओं की भूमिका व उनके प्राकृतिक संसाधनों पर स्वतंत्र अधिकारों को लेकर देश भर में एक लम्बे संघर्ष का काम किया गया है व अपनी कर्मभूमि सहारनपुर के शिवालिक वनक्षेत्र में 80 के दशक में पहली बार महिलाओं के वनउत्पाद पर स्वतंत्र अधिकारों को बहाल करने का काम किया गया था। भारती जी का समुदाय की महिलाओं के साथ एक गहरा रिश्ता था व उनके ज़हन में समुदाय की महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने के लिए बहुत गंभीर चिंतन रहा। चूंकि उनका विष्वास था कि, अगर नारी मुक्ति के सपने को साकार करना है, तो वह समुदाय व श्रमिक वर्ग का महिला नेतृत्व ही अपने संघर्ष से साकार कर सकता है।मध्यम वर्ग की महिलाओं के नेतृत्व से उन्हें कम उम्मीद थी, इसलिए उनका ज़्यादा वक्त समुदाय में ही बीतता था व उनको सशक्त करने के लिए भारती जी के द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। 
इसी श्रंृखला की अगली कड़ी के रूप में 11 व 12 नवम्बर 2014 का यह कार्यक्रम नागलमाफी स्थित ''महिला सशक्तिकरण केन्द्र''पर आयोजित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में कई प्रदेशों के महिला नेतृत्वकारी साथी भाग लेंगे। जिनमें प्रमुख तौर पर उ0प्र0, उत्तराखंड़, झांरखण्ड, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली व असम से महिला साथी इस कार्यक्रम में शामिल होंगी। इस जनशिक्षण कार्यक्रम का मुख्य केन्द्र बिन्दु इस बार -

वनोत्पादों के लिये महिला सहकारी समितियों का निर्माण। 
यूनियन में महिलाओं की सशक्त भूमिका।
कार्यक्रमों के आधार पर महिला नेतृत्व के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को मजबूत करना।रहेगा।

यह कार्यक्रम काफी गहन चर्चा, मंथन व महिलाओं द्वारा ज़मीन पर संघर्ष करके हज़ारों एकड़ वनभूमि व जंगल पर स्थापित किये गये पुनर्दख़ल की उपज है। यूनियन जिन राज्यों में संघर्षशील है, उनमें कई वनक्षेत्रों में महिलाओं के नेतृत्व में वनाश्रित समुदायों ने वनाधिकार कानून के लागू होने से पहले व बाद में हज़ारों एकड़ भूमि को पुनर्दख़ल कायम करके राजसत्ता और स्थानीय दबंगों को चुनौती देने का काम किया है। यही नहीं आदिवासी दलित महिलाओं ने 250 वर्ष पुराने आदिवासियों के संघर्ष की विरासत को भी जि़न्दा रखा, जिन्होंने सबसे पहले उपनिवेशिक राज के खिलाफ बग़ावत की थी और आज उसी परम्परा को कायम रखते हुए आदिवासी व दलित महिलाओं ने अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए वन एवं भूमि की लूट के कानूनों व उनके द्वारा की जा रही लूट को बादस्तूर ज़ारी रखने के लिए बनाए गए वनविभाग को वनों से बेदखल कर के सामुदायिक वनस्वशासन को स्थापित करने का फैसला तक लिया है। 

गौरतलब है कि आज़ादी के 67 साल पूरे होने के बाद आज तक इस आज़ाद देश की हुकुमत ने वनक्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के संवैधानिक अधिकार व लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के लिए एक भी कदम नहीं उठाया, बल्कि उपनिवेशिक परम्परा के तहत वनविभाग को ही देश की 23 प्रतिशत भूमि का मालिक मान कर वनाश्रित समुदायों का दमन करने की खुली छूट दे दी। लेकिन देश की संसद को आखिरकार 2006 में वनाश्रित समुदाय और वनों के सम्बंध को लेकर वनाधिकार कानून को पारित कर यह स्वीकार करना ही पड़ा कि, वनों की बरबादी और वनों में रहने वालों के साथ उपनिवेशिक नीतियों के चलते ऐतिहासिक अन्याय हुए हैं। लेकिन कानून बनने के बाद भी किसी भी सरकार में इतना दम दिखाई नहीं दे रहा कि वे इस कानून को लागू कर सकें। चूंकि वनों में अभी भी उसी उपनिवेशिक परम्परा की जड़े मज़बूत हैं, जिसके द्वारा वनों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने लूटा था। आज इस उपनिवेशिक परम्परा की जगह अंतर्राष्ट्रीय पूंजी इन प्राकृतिक संसाधनों पर हावी हो चुकी है व केन्द्रीय और तमाम राज्य सरकारी तंत्रों पूॅजीवादी उदारीकरण की नीतियों के हाथों बिक चुकी हैं। आज वनक्षेत्रों में वनाश्रित समुदाय और सरकार के बीच में टकराव की स्थिति बनी हुई है। चूंकि जो प्राकृतिक संसाधन वनाश्रित समुदाय की जीविका के साधन हैं, सरकार उन्हीं को बहुराष्ट्रीय व देसी कम्पनियों को ओने-पोने भावों पर बेचने में लगी हुई हैं। इसलिए आज अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के साथ सबसे सीधी लड़ाई प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरशील समुदाय ही लड़ रहे हैं, जिसमें अग्रणी भूमिका में महिलाऐं हैं। इस टकराव के चलते वनाश्रित समुदायों पर हिंसक हमले भी तेज़ हो गए हैं, लेकिन इन हमलों के खि़लाफ समुदाय के लोग भी डट कर सामने मैदान में मुकाबला कर रहे हैं व सरकार, पूंजीपतियों, सामंतो, जमींदारों व पितृसत्तावादी ताकतों को सीधी चुनौती दे रहे हैं। 

वनों को अंग्रेज़ों ने केवल कच्चा माल और राजस्व अर्जित करने के लिए इस्तेमाल किया, ताकि यहां की लूट को अपने देश ब्रिटेन तक आसानी से पहुंचाया जा सके। इसके लिए अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा 100 साल तक हमारे सारे संसाधनों को जम कर लूटा। जब इसके खि़लाफ़ आदिवासियों द्वारा कई प्रांतों में बग़ावत शुरू की गई, तब अंग्रेज़ी हुकुमत ने इन विद्रोहों को कुचलने के लिए कई काले कानूनों को बनाया व ऐसी न्यायिक पद्धति की शुरूआत की जो कि बेहद पेचीदा थी व जिसमें चोरों, लूटेरों, हत्यारों, अपराधियों एवं बलात्कारियों को बचाने के लिए ज्यादा प्रावधान थे एवं बगावत करने वाले, देशभक्तों एवं अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों के लिए कड़ी सज़ा के प्रावधान थे। 1947 तक ऐसे कई काले कानूनों के ज़रिए उन्होंने भारत के संसाधनों को लूटा। आदिवासियों के कई आंदोलन, 1857 की क्रांति, भगतसिंह जैसे कई नौजवानों की शहादत, सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले व बाबा साहब अम्बेडकर के चिंतन आदि से जब उनके पांव उखड़ने लगे, तो अंग्रेज़ों ने बंटवारे की नीति अपना कर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का निर्माण करा दिया व 1935 के अंग्रेजी कानून के तहत देश की सत्ता जमींदार, सामंती  व ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथ में सौंपी, ताकि देश की आम मेहनतकश जनता, दलित आदिवासी, मूलनिवासी, श्रमजीवी तबकों के समाज अपने हकों से महरूम रहें । इसलिए प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समुदाय का सत्ता से टकराव कोई आज का टकराव नहीं है, बल्कि कई सदियों पुराना है। इस टकराव को राजसत्ता कभी हल नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं हो पाएगी। इसलिए वह लगातार वंचित तबकों को उनके हकों से बेदख़ल कर उन्हें भिखारी या फिर लाभार्थी बनाए रखना ही चाहती है। उनकी मानसिकता है कि वंचित दलित आदिवासी व अन्य अति पिछड़े तबकों का काम केवल सेवा करने का है, नाकि अपने हकों को मांगने का, इस मानसिकता के खिलाफ भले ही संविधान ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया, लेकिन लोकतंत्र को सही मायने में ज़मीनी स्तर तक पहुंचाने का काम सरकारों ने वनक्षेत्रों में तो बिल्कुल नहीं किया और करना भी नहीं चाहतीं, बल्कि सरकार ने तमाम प्राकृतिक सम्पदाओं को सरकारी सम्पत्ति बना लिया, जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39बी की खुली अवमानना है। 
 
वनक्षेत्रों में वनों का मालिक आज भी वनविभाग है और आज भी वनविभाग का काम वनों से राजस्व अर्जित करना है, ना कि वनों की रक्षा करना। इस विभाग का एक अंग वननिगम देश की बेशकीमती व अरबों रूपयों की वनउपज पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है। इस वनउपज का मालिकाना हक़ अगर वनाश्रित समुदाय के पास होता, तो वनाश्रित समुदाय आज देश के सबसे ग़रीब नहीं होते, बल्कि देश के पर्यावरण के प्रहरी होते व आज वनों का इतना नुकसान न होता, जितना कि हो चुका है। वे अपना विकास खुद ही कर लेते व उन्हें सरकार के रहम-ओ-करम पर नहीं रहना पड़ता। इस वनउपज के अलावा वनविभाग द्वारा जंगल की चोरी और अवैध खनन में लिप्त होनेे का काम किया जाता है, जिससे उनके कर्मचारियों और अधिकारियों की अवैध कमाई भी अरबों रूपयों में होती है। यह अवैध कमाई सरकार, पूंजीपतियों, कम्पनियों व अधिकारियों के इशारे पर वनों में ज़ारी है। विडम्बना ये है कि एक तरफ़ सरकारें जंगलों से आदिवासी मूलनिवासी को उजाड़ रही हैं और दूसरी तरफ इन बेशकीमती सम्पदाओं को कम्पनियों के हाथ में सोंप रही हैं। ये आम लोगों के संवैधानिक अधिकारों की घोर अवमानना है। 

ऐसे माहौल में सरकार की उन कानूनों को लागू करने में बिल्कुल रूचि नहीं, जिससे आम लोग मजबूत हो व उनकी ग़रीबी दूर हो। केन्द्र व राज्य सरकारें कम्पनियों की गिरफ़्त में हैं, इसलिए यह सरकार तमाम ऐसे कानूनों को कमज़ोर करने में लगी हुई हैं, जोकि आदिवासी, दलित, महिलाओं व श्रमजीवी समाज के तमाम संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करते हैं। तमाम मुख्य राजनैतिक पार्टियां भी सत्तापक्ष के साथ हैं। ऐसे में अब केवल जन राजनैतिक जनांदोलनों के माध्यम से ही वंचित समुदाय अपनी आजीविका, संवैधानिक अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा कर सकते हैं, जिसके लिए उनके द्वारा अपने संगठनों के बलबूते पर ही इन कानूनों को लागू कर नया इतिहास रचे जाने की ज़रूरत है व  पूंजीवाद, जातिवाद, पितृसत्तावाद, सामंतवाद व साम्प्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है। 

वनाश्रित समुदायों द्वारा सामुदायिकता एवं सहकारिता के प्रयोग

इन्हीं सन्दर्भो में यूनियन द्वारा कार्यरत कई वनक्षेत्रों में महिलाओं की पहल पर सामुदयिकता एवं सहकारिता के अनूठे प्रयोग किए जा रहे हैं, जिन्हें आगे बढ़ाते हुए इन्हें अब राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने की ज़रूरत है। उ0प्र0, बिहार, झारखण्ड, बुन्देलखण्ड, कैमूर एवं तराई के वनक्षेत्रों में ऐसी कई मिसालें हंै, जहां पर समुदाय के महिला नेतृत्व में हज़ारों एकड़ वनभूमि पर सामूहिक खेती, वानिकीकरण व वनउपज पर सहकारी समितियों का गठन करके अपने स्तर पर यह प्रक्रिया चलाई जा रही है। इसमें महत्वपूर्ण वनउपज जैसे तेंदु पत्ता, आंवला, जलौनी लकड़ी आदि हैं, जिन पर समुदायों ने वननिगम से वनाधिकार कानून के आधार पर सीधी टक्कर ले कर अपना दख़ल क़ायम करके सहकारी समितियां बनाने की कोशिश की जा रही है। वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन 2012 में दिये गये प्रावधानों के अनुसार वननिगम द्वारा वनउपज से कमाये जाने वाले अरबों रूपये के राजस्व को वनों के विकास या फिर वनाश्रित समुदायों के विकास के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि उनका शोषण कर, उन्हें वनों से बेदख़ल करने की साजिश बादस्तूर ज़ारी है। लेकिन वनों के अंदर ऐतिहासिक अन्यायों को समाप्त करने की बात कहने वाली वनाधिकार कानून की प्रस्तावना ने वनाश्रित समुदायों को एक कानूनी ताकत दी है। जिसके आधार पर आज वनाश्रित समुदाय उपनिवेशिक वनविभाग, वननिगम और उनके सहयोगियों को कड़ी चुनौती दे रहे हैं। इन्हीं प्रयासों से प्रेरित होकर अन्य राज्यों और क्षेत्रों में जैसे; गुजरात, सांथाल परगना, बिहार में भी यूनियन/क्षेत्रीय मोर्चों का गठन हो रहा है, जिसका प्रभाव क्षेत्रों में दिख रहा है। 

इन्हीं प्रयासों ने हमें यह सोचने की दिषा दी कि इन सामूहिक प्रयासों को अब जनसंस्थानों में बदलने की ज़रूरत है, ताकि यह नए सामुदायिक व समुदाय आधारित संस्थान अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए व हमारी आज़ाद सरकार द्वारा पोषित वनविभाग व वननिगम को वनक्षेत्र से बेदख़ल कर सकंे। अब इन पुराने उपनिवेशिक संस्थानों की वनों के अंदर कोई ज़रूरत नहीं है, अगर समुदाय आधारित संस्थान विकसित नहीं किए जाऐंगे तो वन एवं वनाश्रित समुदाय दोनों का ही अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। पिछले 5 वर्षांे से हमारा यूनियन इन सामुदायिक प्रयासों के नीतिगत मस्अलों पर राष्ट्रीय श्रम संगठन न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव की मदद से सहकारिता आंदोलन को इन वनक्षेत्रों में विकसित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इन प्रयासों के तहत चित्रकूट, सोनभद्र जिलों में कई महिला वन-जन सहकारी समूह वनउपज पर हक़ के लिए खड़े किए गए हैं। जोकि अभी प्रारम्भिक दौर में हैं व इनमें समुदायों की लगातार बढ़ती रुचि एवं मेहनत के मद्देनज़र इस दिशा में काफी सकारात्मक काम किए जा रहे हैं। जहां पर पुनर्दख़ल नहीं हो रहा है, वहां भी दिख रहा है कि महिलाऐं सशक्त हो रही हंै, जैसे; गुजरात, सांथाल परगना या फिर बिहार हंै। इसे एक तालमेल में लाकर मजबूत करना ज़रूरी है।
एक बात साफ है कि सरकार की ओर से इन सहकारी समितियों को विकसित करने की कोई भी मदद नहीे मिलने वाली है, चूंकि उसमें वननिगम जैसी भ्रष्ट संस्था को हटाने का दम नहीं है। इसलिए यह पहल स्वयं लोगों को ही करनी होगी और लोकतंत्र में जनता की ताकत क्या होती है, यह भी सरकार को बताना होगा। इसलिए शंकर गुहा नियोगी द्वारा छत्तीसगढ़ में संघर्ष और निर्माण की विचारधारा को आज प्रासंगिक करने की ज़रूरत है। इन्हीं प्रयासों के चलते हमारी यूनियन ने महिला नेतृत्व के साथ इन सहकारी समितियों को मज़बूत करने के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला लिया व दिवंगत साथी भारतीजी की याद में इन प्रयासों को मजबूत कर महिलाओं को सशक्त करने का भी निर्णय लिया। इसी मौके पर सहकारिता एवं यूनियन को मजबूत करने की दिशा में इस कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। 


हमारा मानना है कि कार्यक्रमों के आधार पर ही महिलाओं का सषक्तिकरण सम्भव है। उनके प्रति बढ़ती हुई हिंसा को रोकने का काम सामाजिक और आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रमों के ज़रिए उनको सषक्त करने से ही होगा। महिलाओं के कार्यक्रमों में राजनैतिक सोच की बहुत ज़रूरत है। चूंकि उन्हें किसी भी संसाधन पर स्वतंत्र रूप से किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। संसाधनों के नियंत्रण में ज्यों-ज्यों निजिकरण बढ़ता जाएगा, त्यों-त्यों महिलाओं का शोषण भी बढ़ता जाएगा, परिवार एवं राज्य दोनों ही लगातार निजिकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। निजिकरण ही महिलाओं की गुलामी की जड़ है। महिलाएं सामूहिकता में ज्यादा रहती हैं, इसलिए पितृसत्तावाद को वे ही टक्कर दे सकती हैं, चूंकि पितृसत्तावाद सामूहिकता के खिलाफ है व संसाधनों के निजिकरण पर टिका है। संसाधनों का निजिकरण चाहे वो पितृसत्तावाद, सांमतवाद, जातिवाद या फिर पूंजीवाद के तहत हो वह महिलाओं के खिलाफ ही है। चूंकि इसमें महिलाओं खास तौर पर ग़रीब महिलाओं व उनकी पीढि़यों को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है। सामूहिकता व सहकारिता के विकास से संसाधनों में वृद्धि होगी व समाज का नियंत्रण बढ़ेगा, जबकि संसाधनों के निजिकरण से संसाधन सीमित होते चले जाऐंगे व निर्धनता में बढ़ोतरी होगी। इसलिए सामूहिकता का पाठ दुनिया को शायद ग़रीब महिलाओं से ही सीखना होगा, चूंकि वे ही अपनी सामूहिकता के आधार पर सामूहिक राजनैतिक चेतना का संचार कर रही हैं, जिसमें उनका भविष्य यानि अगली पीढ़ी की सुरक्षा निहित है। 

इस चर्चा में आजकल सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को बदलने की जो बहस चल रही है, उस पर भी रोशनी डालना ज़रूरी है। सरकार वनाधिकार कानून को बदलने की फिराक में है और वनक्षेत्रों में कम्पनियों के गैरकाूननी दख़ल कराने की कोशिश कर रही है। पिछली सरकार ने भी यह कोशिश की, लेकिन उन्हें जनता के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस कानून के साथ छेड़खानी को लेकर मध्यम वर्गीय साथियों में भी निराशा और आंशका पैदा हो रही है। हांलाकि यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मौज़ूदा सरकार के लिए कानून को विधिबद्ध रूप से बदलना इतना आसान नहीं होगा। चूंकि उन्हें कानून को बदलने के लिए संसदीय प्रक्रिया में जाना होगा। आज की परिस्थिति में यह तभी सम्भव होगा, जब दोनों सदनों में उन्हें बहुमत प्राप्त होगा, जो कि अभी राज्यसभा में नहीं है। इसलिए एक तरह से भाजपा सरकार एक ऐसा वातावरण पैदा करना चाह रही है कि कानून न बदल के, सारे प्रावधानों को विभागीय आदेशों से बदल दिया जा सके। हमारा मानना है कि सरकार किसी भी प्रकार की ऐसी हरक़त अगर करती है, तो जहां पर सशक्त आंदोलन हैं, वहां इसका प्रतिरोध होगा, जिसको कुचलना अब इतना आसान नहीं है। इतिहास गवाह है कि, उपनिवेषिक काल में ब्रिटिष राज को कई बार जनविद्रोह के कारण पीछे हटना पड़ा। और  यह विद्रोह की आग अब भी वनाश्रित समुदायों के अंदर जीवित है, जो कि किसी भी समय ज्वालामुखी बन कर फूट सकती है। इस बार यह विद्रोह वनाश्रित समुदायों का ही नहीं होगा, बल्कि इसमें व्यापक श्रमजीवी समुदाय भी शामिल हांेगे। हमें वन श्रमजीवी महिलाओं के सषक्तिकरण की प्रक्रिया का महत्व इसी ऐतिहासिक प्रसंग में देखना चाहिए। इसलिए यह कार्यक्रम निर्णायक राजनैतिक आंदोलन के लिये एक ठोस कार्यक्रम है। जिसमें किसी समझौते या लेने देन की गुंजाइश नहीं है। 
क्रान्तिकारी अभिनन्दन के साथ
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन

যুক্তরাজ্য পার্লামেন্টারী হিউম্যান রাইটস গ্রুপের ভাইস চেয়ারম্যান লর্ড এভিবুরির বিবৃতি কামারুজ্জামানকে সব আইনী অধিকার প্রদান ও সকল মৃত্যুদন্ড রহিত করতে রাষ্ট্রপতির প্রতি আহ্বান

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যুক্তরাজ্য পার্লামেন্টারী হিউম্যান রাইটস গ্রুপের ভাইস চেয়ারম্যান লর্ড এভিবুরির বিবৃতি
কামারুজ্জামানকে সব আইনী অধিকার প্রদান ও সকল মৃত্যুদন্ড রহিত করতে রাষ্ট্রপতির প্রতি আহ্বান

যুক্তরাজ্য পার্লামেন্টের উচ্চ কক্ষ হাউস অব লর্ডস এর সদস্য ও যুক্তরাজ্য পার্লামেন্টারী হিউম্যান রাইটস গ্রুপের ভাইস চেয়ারম্যান লর্ড এভিবুরি জামায়াত নেতা কামারুজ্জামানকে সব আইনী সুবিধা প্রদানের আহ্বান জানিয়েছেন। তিনি সব নেতার ফাাঁসির আদেশ রহিত করার পক্ষে নীতিগত অবস্থান পুনর্ব্যক্ত করেছেন এবং এ ব্যাপারে বাংলাদেশের মহামান্য রাষ্ট্রপতিকে উদ্যোগ নেয়ার পক্ষে মত দিয়েছেন।
গতকাল বুধবার প্রদত্ত এক বিবৃতিতে লর্ড এভিবুরি উল্লেখ করেন,বাংলাদেশের আন্তর্জাতিক অপরাধ ট্রাইব্যুনাল দলীয় প্রধানসহ জামায়াতে ইসলামীর দুইজন সিনিয়র নেতাকে মৃত্যুদন্ড দিয়েছে। অন্যদিকে দেশটির সুপ্রিমকোর্ট দলের সহকারি সেক্রেটারি জেনারেল মুহাম্মদ কামারুজ্জামানের ট্রাইব্যুনালের দেয়া মৃত্যুদন্ডাদেশ বহাল রেখেছেন। একটি পত্রিকার সাবেক সম্পাদক এই কামারুজ্জামান ইতোপূর্বে এফসিও অতিথি হিসেবে যুক্তরাজ্য সফর করেছেন।
বিবৃতিতে লর্ড এভিবুরি বলেন, এটর্নি জেনারেল মাহবুবে আলম বুধবার বলেছেন যে "কামারুজ্জামানের ফাঁসি কার্যকর করা এখন সময়ের ব্যাপার মাত্র"। অথচ তার সমুদয় আইনী প্রক্রিয়া এখনও শেষ হয়নি। 
বিবৃতিতে তিনি এ ব্যাপারে তিনটি আইনী প্রক্রিয়া অনুসরণ ও সম্পন্ন করার কথা বলেন। ১) সুপ্রিম কোর্টের বিচারপতিদেরকে রায়ের পূর্ণাঙ্গ সুলিখিত কপি সরবরাহ করতে হবে যাতে পূর্ণাঙ্গ ব্যাখ্যা থাকতে হবে যে কেন তারা নিম্ন আদালতের দেয়া মৃত্যুদন্ড বহাল রেখেছেন।
২) রায়ের কপি হাতে পাওয়ার পর আসামীর অধিকার রয়েছে যে তিনি ৩০ দিনের মধ্যে রায় পূনর্বিবেচনা করার আবেদন করতে পারেন। বাংলাদেশ সংবিধানের ১০৫ অনুচ্ছেদে প্রতিটি নাগরিককে এই অধিকার দেয়া হয়েছে।
৩) পরবর্তিতে আসামী রাষ্ট্রপতির কাছে প্রাণ ভিক্ষার জন্য ৭ দিন সময় পাবেন।
বিবৃতিতে বলা হয়, রায় কার্যকর করার জন্য কামারুজ্জামানকে ইতোমধ্যে ঢাকা কেন্দ্রীয় কারাগারে আনা হয়েছে। এতে মনে হচ্ছে সব আইনী প্রক্রিয়া শেষ না করেই দ্রুত ফাঁসি দিতে চায় সরকার।
লর্ড এভিবুরি কামারুজ্জামানকে সমস্ত আইনী অধিকার দেয়ার জন্য যথাযথ কর্তৃপক্ষের প্রতি আবেদন জানান। সেই সঙ্গে সব ফাঁসির দন্ড রহিত করার জন্য মহামান্য রাষ্ট্রপতির নিকট আবেদন জানিয়ে বলেন, আমরা নীতিগতভাবে এর বিরোধী।

জাহাঙ্গীরনগর বিশ্ববিদ্যালয় : আবার ধর্ষণ

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জাহাঙ্গীরনগর বিশ্ববিদ্যালয় : আবার ধর্ষণ

জাহাঙ্গীরনগর বিশ্ববিদ্যালয়ে নারী নিপীড়ন, সন্ত্রাস ও মাদকের বিস্তার ভয়াবহ আকারে ঘটে চললেও সবাই যেন তা দেখেও না দেখার ভান করছে। একের পর এক দুর্ঘটনা ঘটতে থাকলেও এর কোনো প্রতিকার হচ্ছে না। সাধারণ শিক্ষার্থী, রাজনৈতিক সংগঠন, শিক্ষক, ক্যাম্পাসের আলোচিত বুদ্ধিজীবী মহল এবং বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন কারও কোনো কার্যকর ভূমিকা বা উদ্যোগ চোখে পড়ছে না। ফলে বিশ্ববিদ্যালয়ে শিক্ষার পরিবেশ মারাত্মকভাবে বিঘিœত হচ্ছে। চলতি বছরে এমন কিছু ঘটনা ঘটেছে যা বিশ্ববিদ্যালয়টির ভাবমূর্তিকে চরমভাবে প্রশ্নবিদ্ধ করেছে। পাশাপাশি সাম্প্রতিক ক্যাম্পাসের সর্বত্র মাদকের বিস্তার ও নানা ধরনের অনৈতিক কর্মকাণ্ডে শিক্ষার্থীদের জড়িয়ে পড়ার মতো অসংখ্য ঘটনা ঘটেছে। শিক্ষার্থীদের মধ্যে নিরাপত্তাহীনতার আতঙ্ক ক্রমশ বাড়ছে। কিন্তু এই পরিস্থিতি মোকাবেলার মতো শক্ত উদ্যোগের বিপরীতে দেখা গেছে সব পক্ষের এড়িয়ে যাবার মানসিকতা। স্বাভাবিকভাবেই যা সমস্যাকে আরও গভীরতর করে তুলছে।

ধর্ষণের প্রমাণ মেলে না!
জাবিতে নারী নিপীড়ন ঘটছে নানা প্রকারে। বহিরাগতরা ক্যাম্পাসে বেড়াতে এসে ধর্ষণের শিকার হয়েছেন, এ বছর এমন অভিযোগ উঠেছে বেশ কয়েকটি। ক্যাম্পাসের ছাত্রীরাও ছিনতাই, টিজিং ও অপ্রীতিকর ঘটনার মুখোমুখি হচ্ছেন নিয়মিত। ফলে ক্যাম্পাসে ছাত্রীদের চলাফেরা সীমিত হচ্ছে। সন্ধ্যার পর আগের তুলনায় ছাত্রীরা হল থেকে কম বের হন। আগে যেখানে মাঝরাত পর্যন্ত ক্যাম্পাসের গুরুত্বপূর্ণ চত্বরগুলো মুখরিত থাকত, এখন সেখানে রাত দশটার মধ্যেই ক্যাম্পাস সুনসান হয়ে যাচ্ছে।  নাম প্রকাশে অনিচ্ছুক দ্বিতীয় বর্ষ পড়–য়া অর্থনীতি বিভাগের একজন ছাত্রী বলেন, 'ক্যাম্পাসের এমন অবস্থার কথা ঈদের ছুটিতে বাড়িতে গিয়ে মায়ের কাছে বলেছিলাম। এখন আমার মা প্রতিদিন সন্ধ্যায় ফোন দিয়ে হলে ফিরেছি কি না, জিজ্ঞেস করে। তাড়াতাড়ি হলে ঢুকে যেতে বলে। অথচ ভর্তির সময় পরিবার থেকে সবাই এই ক্যাম্পাসটিকে নিরাপদ ভেবে অগ্রাধিকার দিয়েছিল। দিন দিন পরিস্থিতির অবনতি ঘটছে। সন্ধ্যার পরে কোনো কাজে বের হলে টিজিংয়ের শিকার হতেই হবে। সিনিয়র-জুনিয়র কোনো বিষয় নেই। প্রতিবাদ করতে গেলে উল্টো মারপিটের ঘটনাও ঘটেছে।'

নিয়মিত একজন ছাত্রীকে যখন এই অবস্থার মধ্য দিয়ে যেতে হয়, স্বাভাবিকভাবেই ক্যাম্পাসে বেড়াতে এসে বহিরাগতরা পড়ছেন আরও বড় সমস্যার মধ্যে। সর্বশেষ গত ৯ অক্টোবর বৃহস্পতিবার দুপুরে ঈদুল আজহার ছুটিতে বহিরাগত এক তরুণী বোটানিক্যাল গার্ডেনে গণধর্ষণের শিকার হন বলে একাধিক সূত্র জানিয়েছে। বিগত এক বছরে কমপক্ষে এমন তিনটি ধর্ষণের ঘটনা ঘটার শক্ত অভিযোগ উঠেছে। বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসনের ঊর্ধ্বতন কর্তৃপক্ষ ঘটনাগুলো জানলেও তারা এর বিরুদ্ধে কোনো ব্যবস্থা নেয়নি। 'অভিযোগের ভিত্তি নেই'বা 'আমরা জানি না'বা 'লিখিত কোনো অভিযোগ কেউ করেনি'ইত্যাদি বলে দায় এড়িয়ে গেছে।

বিশ্ববিদ্যালয়ের বিভিন্ন বিভাগের শিক্ষার্থী, নিরাপত্তা রক্ষী, সাংবাদিক ও শিক্ষকদের সঙ্গে কথা বলে জানা গেছে, গত ৯ অক্টোবর ক্যাম্পাসে ঈদুল আজহার ছুটি চলছিল। ছুটির সময়ে হল খালি করার নির্দেশনা জারি করে বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন। ফলে পুরো ক্যাম্পাস ছিল শ্মশানের মতো নিস্তব্ধ। কিন্তু পোষ্যকোটায় ভর্তি হওয়া কর্মকর্তা-কর্মচারীদের স্বজন কিছু শিক্ষার্থী ছুটির এই সময়টিতে ক্যাম্পাসেই ছিল। ঘটনার দিন এদের সঙ্গে আরও ৮-১০ জন ছিল। তারা সবাই মিলে ক্যাম্পাসের বোটানিক্যাল গার্ডেন এলাকায় নিয়মিত আড্ডা দেয়।

৯ অক্টোবর একটি যুগল ক্যাম্পাসে বেড়াতে আসে। তারা বোটানিক্যাল গার্ডেন এলাকায় যাওয়া মাত্র তরুণটিকে কিল-ঘুষি দিয়ে ওই দলের দুজন মিলে বেঁধে ফেলে। বাকিরা তরুণীটিকে পাশে নিয়ে পালাক্রমে ধর্ষণ করে এবং ফেলে রেখে যায়।গণধর্ষণের ঘটনায় জড়িত মর্মে কয়েকজনের বিরুদ্ধে স্পষ্ট অভিযোগ ওঠে। এদের মধ্যে আছে বিশ্ববিদ্যালয় কর্মচারী সমিতির সাধারণ সম্পাদকের ভাই আন্তর্জাতিক সম্পর্ক বিভাগের তৃতীয় বর্ষের ছাত্র আসিফ ইকবাল। প্রকৌশল অফিসের মিস্ত্রি আলমগীর মাস্টারের ছোট ভাই প্রততত্ত্ব বিভাগের তৃতীয় বর্ষের ছাত্র রাসেল খন্দকার। বিশ্ববিদ্যালয়ের চিকিৎসা কেন্দ্রের পিয়ন ইসমাইলের ছেলে সোহেল ঈসরাফিল ও আ ফ ম কামাল উদ্দিন হলের নিরাপত্তা প্রহরী মাহবুবের ছোট ভাই শওকত আকবর। ক্যাম্পাসে ছিনতাই, টিজিং, নারী নিপীড়নসহ সুনির্দিষ্ট অভিযোগ আছে এদের বিরুদ্ধে।

সূত্র জানায়, আসিফ ইকবালের বড় ভাই আব্দুর রহমান বাবুল বিশ্ববিদ্যালয় কর্মচারী সমিতির সাধারণ সম্পাদক। সম্প্রতি বিশ্ববিদ্যালয়ের এক ছাত্রীর সঙ্গে মিথ্যা প্রেমের অভিনয় ও ব্ল্যাকমেইল করে দেড় মাস যাবৎ জোরপূর্বক নিয়মিত শারীরিক সম্পর্কে জড়াতে বাধ্য করার মতো জঘন্য অভিযোগ রয়েছে আসিফের বিরুদ্ধে। এছাড়াও ক্যাম্পাসের আশপাশে বিভিন্ন এলাকায় ছিনতাইয়ের সঙ্গে তার যুক্ত থাকার বিষয়ে সাধারণ শিক্ষার্থীসহ অনেকেই ওয়াকিবহাল।

রাসেল খন্দকার আল বেরুনী হল ছাত্রলীগের সভাপতি উজ্জ্বল কুমারের ছত্রছায়ায় থাকে। গত রোজার সময় বিশ্ববিদ্যালয়ের পার্শ্ববর্তী ইসলামনগর বাজারে ছাত্রলীগ নেতা-কর্মীদের দ্বারা এক দোকান ভাঙচুরে সে যুক্ত থাকে ও ২৫ হাজার টাকা চাঁদা আদায় করে। হলে একাধিকবার বড়দের গায়ে হাত তোলার মতো ঘটনা ঘটিয়েও সে পার পেয়ে গেছে।

সোহেল ঈসরাফিল বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্র না হয়েও ক্যাম্পাসে বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্রের পরিচয় দেয়। বিএনপির হরতালের সময় ঢাকা-আরিচা মহাসড়কে গাড়ি ভাঙচুরের দায়ে কয়েক মাস আগে গ্রেফতার হয়েছিল। পরে জামিনে বের হয়ে এসেই ইসলামনগর বাজারে প্রকাশ্যে পিস্তল নিয়ে মহড়া দেয় বলে একাধিক প্রত্যক্ষদর্শী সূত্রে জানা গেছে।

শওকত আকবরও বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্র না। কিন্তু বিশ্ববিদ্যালয়ের বরাতেই চলে তার সব কুকর্ম। ঈদুল আজহার দুই দিন আগে বিশ্ববিদ্যালয়ের ডেইরি গেটে ঢাকা-আরিচা মহাসড়কে গাড়ি আটকিয়ে চাঁদা আদায় করে বলে তার বিরুদ্ধে অভিযোগ পাওয়া গেছে।সূত্র আরও জানায়, ছুটির সময় এই চারজনসহ ১০-১২ জনের একটি গ্রুপ চারটি মোটরসাইকেলে করে ক্যাম্পাসে ঘুরে বেড়িয়েছে। নিরাপত্তা প্রহরীরা তাদের দেখেছেন বলে স্বীকার করেন। কিন্তু নাম প্রকাশ করতে তারা রাজি হননি। যে দিন তরুণীটি ধর্ষিত হন, ঠিক তার পরের দিন ১০ অক্টোবর শুক্রবার তিনটার সময় আসিফ ইকবাল, রাসেল খন্দকার, সোহেল ঈসরাফিল, শওকত আকবরসহ আরও কয়েকজন বিশ্ববিদ্যালয়ের বোটানিক্যাল গার্ডেনের সামনের কালভার্টের ওপর আশুলিয়া প্রেসক্লাবের সাংগঠনিক সম্পাদক আশরাফ ও তার ছোট বোনকে আটকিয়ে হুমকি-ধমকি দিতে থাকে। এ ঘটনা শুনে বিশ্ববিদ্যালয়ের সাবেক এক ছাত্র ও সাংবাদিক ঘটনাস্থলে উপস্থিত হলে 'ক্যাম্পাসের কিনা তা জানতে চেয়েছিলাম'দাবি করে পরে একপর্যায়ে তারা চলে যেতে বাধ্য হয়।

প্রত্যক্ষদর্শীর বরাত দিয়ে ক্যাম্পাসের একজন শিক্ষার্থী ও সংবাদকর্মী বলেন, 'প্রথমে বেশ কয়েকজন এই ধর্ষণের ঘটনার বিষয়ে খোলাখুলি কথা বলেছিলেন। তারা বিভিন্নজনকে ঘটনা জানিয়েছিলেন। ঘটনার দিনই বিশ্ববিদ্যালয়ের প্রক্টরের উপস্থিতিতে উপাচার্য অধ্যাপক ফারজানা ইসলামকে অবহিত করা হয় এবং বিষয়টি নিয়ে জাবি কর্মচারী সমিতির এক সভায় আলোচনাও হয় বলে একটি সূত্র নিশ্চিত করে। 

নিরাপত্তারক্ষীসহ সাধারণ কর্মকর্তাদের কয়েকজন এ ঘটনার সঙ্গে জড়িতদের বিচারের মুখোমুখি করার কথা ভাবেন। এই প্রত্যক্ষদর্শীদের বরাতে তখন দু'একটি সংবাদ মাধ্যমে ধর্ষণের ঘটনার কথা ছাপাও হয়। কিন্তু বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন পরবর্তীতে বিষয়টি এড়িয়ে গেলে প্রত্যক্ষদর্শীরাও পরে পিছিয়ে যান। এখন এই প্রত্যক্ষদর্শীরা সরাসরি দেখেছেন বলতে রাজি হচ্ছেন না। যিনি আগে দেখেছি বলেছেন, তিনিও এড়িয়ে যাচ্ছেন। প্রশাসনের আন্তরিকতা সন্দেহাতীতভাবে প্রমাণিত না হলে আর মুখ খুলে এরা কেউ চাকরি হারাতে চাইবেন না।'

বহিরাগতরা ক্যাম্পাসে বেড়াতে এসে ধর্ষণের শিকার হওয়াটা এই প্রথম নয়। এর আগে ২০১৩ সালের ঈদুল আজহার ছুটির সময় ক্যাম্পাসে বেড়াতে আসা অপর এক বহিরাগত তরুণীকে শহীদ মিনার এলাকা থেকে উঠিয়ে নিয়ে যাওয়া হয়। পরে ওই তরুণীর সঙ্গে আসা যুবক বিশ্ববিদ্যালয়ের নিরাপত্তারক্ষীদের বিষয়টি জানালে ওই যুবকসহ নিরাপত্তারক্ষীরা দুই ঘণ্টা পুরো ক্যাম্পাসে খোঁজাখুঁজি করেও তরুণীটির হদিস পাননি। ক্যাম্পাসের নিরাপত্তাকর্মীরা এ ধরনের ঘটনা ঘটেছে বলে স্বীকৃতি দিলেও তারা নিজেদের পরিচয়ে কোনো কথা বলতে রাজি নন। প্রধান নিরাপত্তা কর্মকর্তা জেফরুল হাসান সজল নিজেও তখন ওই তরুণীকে খুঁজতে বেরিয়েছিলেন বলে জানা গেছে।

শুধু বহিরাগত নয়, এ বছর এপ্রিল মাসে অনুষ্ঠিত ২০১৩-১৪ শিক্ষাবর্ষের ভর্তি পরীক্ষা দিতে আসা এক ছাত্রীও ধর্ষণের শিকার হন বলে অভিযোগ আছে। বাইরে থেকে এসে ক্যাম্পাস ঘুরে দেখতে গিয়ে অপরিচিতরা চলে যান বোটানিক্যাল গার্ডেন বা সুইমিং পুলের দিকে। সেখানে আড্ডারত মাদকসেবীরা এদের ধরে নিয়ে যায় বোটানিক্যাল গার্ডেনের পেছনের দিকে। সেখানে তারা নির্বিঘেœ যা খুশি তা-ই করে। তাদের হাত থেকে উদ্ধার পেয়েই ক্ষতিগ্রস্তরা এলাকা ত্যাগ করেন। কেউ জানেনি ভেবে তারাও বিষয়টি চেপে যান। ক্যাম্পাসের ভেতর এ নিয়ে আলাপ আলোচনা কিছু চললেও তথ্যপ্রমাণ না মেলার কারণে এর কোনো প্রতিকার হয় না। ক্যাম্পাসের মানসম্মানের কথা বলে বিষয়টি সবাই মিলে চাপা দিয়ে দেন। এবারের ঘটনায়ও প্রক্টরিয়াল বডির মাধ্যমে একটি তদন্ত কমিটি করা হয়েছিল। কমিটি উপরোল্লিখিত চারজনকে শোকজ করলেও তাদের বিরুদ্ধে অভিযোগ আনার মতো কোনো প্রমাণ না পেয়ে তাদের ছেড়ে দিয়েছে। একইভাবে এই এক বছরে ক্যাম্পাসের ছাত্র ও অছাত্ররা মিলে নারী নিপীড়নের যেসব ঘটনা ঘটিয়েছে তার কোনো বিচার হয়নি। স্বাভাবিকভাবেই এর ফলে অপরাধীদের দৌরাত্ম্য বেড়েছে।

ক্যাম্পাসজুড়ে সন্ত্রাস
ক্যাম্পাসের কেন্দ্রীয় খেলার মাঠ, প্রধান প্রবেশদ্বার ডেইরি গেট, বোটানিক্যাল গার্ডেন ও সুইমিংপুল এলাকা, মীর মশাররফ হোসাইন হল গেট ইত্যাদি এলাকায় নিয়মিত ছিনতাইয়ের ঘটনা ঘটে। শুধু শিক্ষার্থীরা নন, শিক্ষকরাও ছিনতাইয়ের শিকার হন। শিক্ষার্থীদের বিভিন্ন গ্রুপের সঙ্গে এ সব ঘটনায় ক্যাম্পাসের কর্মকর্তা-কর্মচারীদের স্বজনরা যুক্ত থাকে। তারা ক্যাম্পাস সংলগ্ন স্থানীয় ইসলাম নগর, পানধুয়া এলাকায় গিয়েও সন্ত্রাসী তৎপরতা চালায়। ক্যাম্পাসের ভেতরে এসব উচ্ছৃঙ্খল ছাত্ররা সিনিয়রদের গায়ে হাত দেয়ার মতো ঘটনাও ঘটায় হরদম।

গত ১৭ মে, ২০১৪ বিশ্ববিদ্যালয় ক্যান্টিনের পরিচালক কামাল হোসেনকে ক্রিকেট স্ট্যাম্প দিয়ে বেধড়ক পেটায় ছাত্রলীগ নেতা ফয়সাল হোসেন দিপু। গত ৩ জুলাই বিশ্ববিদ্যালয়ের সমাজবিজ্ঞান অনুষদের সামনে পরিসংখ্যান বিভাগের ৪২তম ব্যাচের শিক্ষার্থী আমির হামজা রিয়াদকে রড দিয়ে বেধড়ক পেটায় বঙ্গবন্ধু হলের জুনিয়রদের ১০-১২ জনের একটি দল। সে সময় আহত রিয়াদকে এনাম মেডিকেল কলেজ হাসপাতালে ভর্তি করা হয়েছিল। এর কিছুদিন আগে ২১ জুন, পরিসংখ্যান বিভাগের ৪৩তম ব্যাচের শিক্ষার্থী বিদ্যুৎ সরকার সনিকে এই রিয়াদ মারপিট করে বলে জানা যায়।

গত দুই মাসে সিনিয়র শিক্ষার্থীরা বেড়াতে এসে জুনিয়রদের কাছে মার খেয়েছেন, অকথ্য ভাষায় গালি শুনেছেন বা অপরিচিতদের দ্বারা ছিনতাইয়ের শিকার হয়েছেন, এমন ঘটনা এক ডজনেরও বেশি হবে বলে জানান মাস্টার্স শেষ করতে চলা পরিসংখ্যান বিভাগের একজন শিক্ষার্থী। নাম না প্রকাশের শর্তে তিনি বলেন, 'প্রতিদিন এরকম ঘটনা ঘটে। সব তো কানে আসে না। কিছুদিন আগে মোটরসাইকেল মহড়া দেয়ার সময় এক সিনিয়র ভাইয়ের রিকশার সঙ্গে কিছু ছেলের ঝামেলা লেগে যায়। শামীম নামের ওই বড় ভাইকে তারা তখন বেধড়ক পেটায়। কেউ এসবের কোনো প্রতিবাদ করতেও যায় না। কারণ প্রতিবাদ করতে গেলে মার খেতে হবে। সেই মার খেয়েও পরে কিছু হবে না। তাই সবাই দেখেও না দেখার ভান করে চলছে।'

এর সঙ্গে যোগ হয়েছে ব্যাপক ছিনতাই-রাহাজানি। এসব ঘটনায় বিশ্ববিদ্যালয়ের পোষ্যদের তথা  কর্মচারীদের সন্তান বা ছোট ভাইদের জড়িত থাকার প্রমাণ পাওয়া গেছে। এদের মধ্যে কেউ কেউ বিশ্ববিদ্যালয়ের বিভিন্ন বিভাগের ছাত্র। যারা পোষ্য কোটায় ভর্তি হয়েছে এবং অনেকেই জাতীয়তাবাদী ছাত্রদলের রাজনীতির সঙ্গে জড়িত থাকলেও সবাই কোনো না কোনো ছাত্রলীগ নেতার প্রশ্রয়ে আছে। ছাত্রলীগ-ছাত্রদল ভেদ এক্ষেত্রে যেন একেবারে ঘুচে গেছে।

গত ৬ সেপ্টেম্বর ক্যাম্পাসের মুক্তমঞ্চে জাবি থিয়েটার (টিএসসি) আলবেয়ার কাম্যুর 'দ্য আউটসাইডার'নাটকের প্রদর্শনীর আয়োজন করে। সেখানে উপস্থিত হয়ে ৪৩তম ব্যাচের কিছু ছাত্র নাটকের বিভিন্ন ডায়লগ ধরে কটূক্তি করতে থাকে। অবস্থা এমন পর্যায়ে গিয়ে দাঁড়ায় যে, আয়োজকরা প্রদর্শনী বন্ধ করে দিতে বাধ্য হন। তারা মাইকে ঘোষণা করেন যে, 'যারা পেছন থেকে কটূক্তি করছেন, তারা কিছু বলার থাকলে মাইকে এসে বলুন।'এই ঘোষণার পর ওই ছাত্ররা ধীরে ধীরে কেটে পড়ে। পরবর্তীতে অনুষ্ঠান শেষে প্রক্টর তপন কুমার সাহাকে জানানো হলেও অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে কোনো ব্যবস্থা নেয়া হয়নি। ঘটনা বর্ণনা করতে গিয়ে লোকপ্রশাসন বিভাগের ৪২তম ব্যাচের এক ছাত্রী বলেন, 'এরকম ভয়াবহ পরিস্থিতি এই ক্যাম্পাসে দেখতে হবে, তা আমরা কেউ ভাবিনি। ক্যাম্পাসে সুস্থ সংস্কৃতির চর্চা তো নেই, উল্টো যা হয় তা বন্ধ করে দেয়ার আয়োজন আছে। দিওয়ালির অনুষ্ঠানে গেলে শিক্ষকরা ছাত্রীদের ডেকে বলেন, মুসলিম হয়ে দিওয়ালিতে যাও কেন? কোনো মেয়ে টিজের শিকার হলে তারা অভিযুক্তদের খোঁজার চেয়ে মেয়েদের খুঁত ধরতে বেশি আগ্রহী থাকেন। ক্যাম্পাসের আজকের এই পরিণতির পেছনে একশ্রেণীর শিক্ষকের ভূমিকাই প্রধান।

মাদক ক্যাম্পাসের সর্বত্র
বিশ্ববিদ্যালয়ের সর্বত্র মাদকের জোগান। রাজনৈতিক সুবিধাপ্রাপ্ত শিক্ষার্থীদের কক্ষগুলোতে হাতের নাগালেই পাওয়া যায় ইয়াবা, গাঁজা, মদ, ফেনসিডিলসহ নানা ধরনের মাদকদ্রব্য। কারা এসব বিক্রি ও বিতরণ করে, তা মোটামুটি ক্যাম্পাসে প্রকাশ্য হলেও এর কোনো প্রতিকার নেই। দীর্ঘদিন ধরে চিহ্নিত এসব মাদক ব্যবসায়ীর নাম উল্লেখ করে বিভিন্ন কাগজে খবর প্রকাশ হলেও প্রশাসন এদের ধরতে কোনো ব্যবস্থা নেয়নি।
অনুসন্ধানে জানা গেছে, বর্তমানে ক্যাম্পাসে সর্বাধিক জনপ্রিয় মাদক হচ্ছে ইয়াবা। সাভার এলাকার গেন্ডা, হেমায়েতপুর এবং ক্যাম্পাসের পার্শ্ববর্তী ইসলামনগর বাজার, কলমা, পানধুয়া, ওয়ালিয়া থেকে নির্দিষ্ট একটি চক্রের মাধ্যমে ক্যাম্পাসে ইয়াবা সরবরাহ হয়। গত ৯ জুন বিশ্ববিদ্যালয় সংলগ্ন বটতলা এলাকা থেকে দুই ইয়াবা ব্যবসায়ীকে আটক করে আশুলিয়া থানা পুলিশ। আটককৃতরা সবাই বিশ্ববিদ্যালয়ের কর্মচারীদের সন্তান। তাদের একজন বিশ্ববিদ্যালয়ের জাহানারা ইমাম হলের ঝাড়ুদার রোকেয়া আক্তারের ছেলে মো. মহসিন (২০) এবং অন্যজন বিশ্ববিদ্যালয়ের এস্টেট অফিসের মালি মো. আবুল হোসেনের ছেলে মো. আব্দুল হালিম (২৫)। এদের সঙ্গে আগে উল্লেখিত ৯ অক্টোবরের ঘটনায় জড়িত গ্রুপটির সম্পর্ক ছিল বলে জানা গেছে।

বিশ্ববিদ্যালয়ের বিভিন্ন স্পটে শিক্ষার্থীরা প্রায় প্রকাশ্যেই মাদক গ্রহণ করে থাকে। সুইমিংপুল এলাকা পরিদর্শনে গিয়ে এই প্রতিবেদক সেখানে বেশ কজনকে গাঁজা সেবনরত অবস্থায় দেখতে পান। বোটানিক্যাল গার্ডেনের পেছনের জংলা এলাকাতেও বিভিন্ন স্থানে খবরের কাগজ বিছিয়ে মাদকের আসর বসতে দেখা যায়। ওই এলাকায় যত্রতত্র মদ ও ফেনসিডিলের বোতল পড়ে আছে। সূত্র জানায়, সবচেয়ে বেশি মাদক সেবন চলে ক্যাম্পাসের বিভিন্ন হল ও ভবনের ছাদে। হলগুলোতে নির্দিষ্ট রুমে রাত ১টার পর শিক্ষার্থীরা একসঙ্গে গাঁজা ও মদ্যপান করে থাকে।

বাইরে প্রকাশ্যে গাঁজা সেবন চলে বিশ্ববিদ্যালয়ের পরিবহন চত্বর, প্রকৌশল অফিস, টারজান পয়েন্ট, নির্মাণাধীন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর হল, নিরাপত্তা অফিসের বারান্দা, কেন্দ্রীয় ছাত্র সংসদ চত্বর, কেন্দ্রীয় খেলার মাঠ, জাবি স্কুল অ্যান্ড কলেজ মাঠ এবং কেন্দ্রীয় গ্রন্থাগারের বারান্দাসহ বিভিন্ন স্থানে। এসব স্থানে ছোট ছোট দল-উপদলে বিভক্ত হয়ে আসর বসে। এছাড়া প্রতিনিয়তই মওলানা ভাসানী হলের দ্বিতীয় তলা, আ ফ ম কামালউদ্দিন হলের দ্বিতীয় তলা, শহীদ সালাম-বরকত হলের এ ব্লকের দ্বিতীয় ও 'বি'ব্লকের দ্বিতীয় তলা, আল বেরুনী হলের (বর্ধিতাংশ) একাদশ ব্লক, বঙ্গবন্ধু শেখ মুজিবুর রহমান হলের দ্বিতীয় তলা এবং মীর মশাররফ হলের বি ব্লকের দ্বিতীয় তলার নির্দিষ্ট কয়েকটি কক্ষে মাদকের আসর বসে। মেয়েদের হলগুলোতেও নির্দিষ্ট কিছু কক্ষে একই রকম ঘটনা ঘটে বলে কয়েকটি সূত্র নিশ্চিত করেছে।

খোঁজ নিয়ে জানা গেছে, বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্রলীগ নেতাদের অনুমতি নিয়ে শিক্ষার্থীদের কাছে গাঁজা সরবরাহ করে থাকেন আলী নামের একজন কর্মচারী। তিনি মেডিকেলের অ্যাম্বুলেন্স চালক হিসেবে ক্যাম্পাসে কর্মরত। মাদকসেবী শিক্ষার্থীদের কাছে তিনি 'দাদু'নামে পরিচিত। দাদু কেমন আছেন বলে ফোন দিলেই তিনি বুঝে যান যে গাঁজা লাগবে। এছাড়া এসব কাজে বিশ্ববিদ্যালয়ের তৃতীয় ও চতুর্থ শ্রেণীর পরিবহন কর্মচারী, হলের গার্ড এবং ঝাড়ুদারদেরও সংশ্লিষ্টতার অভিযোগ রয়েছে।

বিশ্ববিদ্যালয়ে মাদকের চালান নিয়ে নানা ধরনের ঘটনা ঘটে, যার সূত্র ধরে ঘটে সন্ত্রাসী কর্মকাণ্ড। কিছুদিন আগে ক্যাম্পাসের বঙ্গবন্ধু হলের একজন নিরাপত্তাকর্মী নাজিম মারা যান। বয়সে যুবক এই নাজিম ক্যাম্পাসে মোটরসাইকেল চালাতেন। তাকে দেখে হলের নিরাপত্তাকর্মী মনে হতো না। ইসলাম নগর বাজারে তার আড্ডা ছিল। ছাত্রলীগ নেতাদের সঙ্গে ছিল তার দহরম মহরম। সূত্র জানায়, ক্যাম্পাসে মাদকের চালানসহ ছাত্রলীগের অস্ত্রশস্ত্র বহন করত এই নাজিম। তার মৃত্যুর পর বলা হয় যে, হৃদযন্ত্রের ক্রিয়া বন্ধ হয়ে তিনি মারা গেছেন। ক্যাম্পাসের ভেতর উড়ো খবর আছে মদের আড্ডায় গিয়ে তার মৃত্যু হয়।

ছাত্রলীগের সাংগঠনিক সম্পাদক হাওলাদার মুহিবুল্লাহ বিশ্ববিদ্যালয়ে মাদক ও অন্যান্য সন্ত্রাসী কর্মকাণ্ডে যুক্তদের পেছনে থেকে বড় ভাইয়ের ছায়া দেন বলে অভিযোগ আছে। ৩৮ ও ৩৯ ব্যাচের কিছু শিক্ষার্থী এসব তৎপরতার সঙ্গে ব্যাপকভাবে জড়িত। যদিও মাদকসেবীরা অধিকাংশই ক্যাম্পাসে নতুন, ৪১ ও ৪২ ব্যাচের।

এসব বিষয়ে বিশ্ববিদ্যালয়ের নিরাপত্তা কর্মীদের জিজ্ঞেস করা হলে তারা কথা বলতে রাজি হন না। নাম প্রকাশে অনিচ্ছুক একজন পরিবহন কর্মচারী বলেন, 'মাদক তো এই বয়সে পোলাপান খায়ই। আমাদের বলা আছে, ক্যাম্পাসে এত ছেলেপেলে থাকে। এরকম একটু আধটু গেঞ্জাম, মাদক খাওয়া হইবই। এগুলা নিয়া আমাদের কথা বলার বারণ আছে।'কে বারণ করেছে জিজ্ঞেস করলে তিনি বলেন, 'এইটা প্রতি মাসেই একবার করে উপর মহল থেকে বলে দেয়া হয়।'

সবাই চুপ!
এত কিছু ঘটছে ক্যাম্পাসে, কিন্তু কেউ দেখছে না। বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন অন্যায় ঠেকাবে কি, তারা অধিকাংশই নিজেদের আখের গোছাতে ব্যস্ত। বিশ্ববিদ্যালয়ের স্মরণকালের দুর্নীতিবাজ প্রশাসন শরীফ এনামুল কবীরের পক্ষের প্যানেল থেকেই চলতি বছরের মার্চে দেশের প্রথম নারী উপাচার্য হিসেবে নির্বাচিত হয়েছেন ড. ফারজানা ইসলাম। তিনি দায়িত্ব নেয়ার পর এ পর্যন্ত বিশ্ববিদ্যালয়ের বিভিন্ন বিভাগে ৪০ জন শিক্ষক নিয়োগ দেয়া হয়েছে, যার অধিকাংশই রাজনৈতিক বিবেচনায় বলে অভিযোগ আছে। উপাচার্য থাকাকালে ড. শরিফের বিরুদ্ধে শূন্য পদের চেয়ে অধিক শিক্ষক নিয়োগের অভিযোগ ছিল। তার তিন বছরের মেয়াদকালে বিশ্ববিদ্যালয়ে কমপক্ষে ২০০ বিতর্কিত শিক্ষক নিয়োগ দেয়া হয়েছে।

ড. শরিফের প্যানেলের ফারজানা ইসলামও সেই একই পথে হেঁটেছেন। সম্প্রতি জৈব রসায়ন এবং আণবিক জীববিজ্ঞান বিভাগে চারটি শূন্য পদে শিক্ষক নিয়োগের বিজ্ঞাপন দিলেও সেখানে ছয়জনকে নিয়োগ দিয়েছে তার প্রশাসন। এর মধ্যে তিনজনই আবার বিশ্ববিদ্যালয়ের শিক্ষকদের আত্মীয়। শিক্ষক ও শিক্ষার্থীদের অভিযোগ, ওই বিভাগে ২২টি পদের বিপরীতে এমনিতেই ২৩ জন শিক্ষক ছিল। নতুন নিয়োগপ্রাপ্তরা হলেন, ড. শরিফের ভাতিজা এবং সহকারী প্রক্টর সেলিনা আক্তারের স্বামী কাজী রাসেল উদ্দিন, সহকারী প্রক্টর মাহমুদুল হাসানের স্ত্রী আফরোজা পারভীন, পদার্থ বিজ্ঞান বিভাগের অধ্যাপক আব্দুল মান্নানের ভাতিজা মোজাম্মেল হোসাইন। বাকি তিনজন সুব্রত বণিক, মো. মাহফুজ আলী খান এবং ড. মোহাম্মদ মোরশেদকে রাজশাহী বিশ্ববিদ্যালয় থেকে আনা হয়েছে। অভিযোগ ওঠার পর বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন এ বিষয়ে তাদের প্রতিক্রিয়া জানাতে গিয়ে বলে যে, 'সবকিছু বিবেচনা করে বোর্ড সঠিক প্রার্থীদেরকেই নিয়োগ দিয়েছে।'

বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন নিয়োগ প্রক্রিয়ার মাধ্যমে নিজেদের স্বার্থ নিয়ে ব্যস্ত। তাদের বিরোধী অংশগুলো এই নিয়ে সোচ্চার হলেও ক্যাম্পাসের অন্যান্য সমস্যা নিয়ে তারাও এ পর্যন্ত খুব কমই প্রতিক্রিয়া দেখিয়েছেন। এসবের মধ্যেই শিক্ষকদের একাংশ গত ২৯ অক্টোবর গণনিয়োগ, শিক্ষার্থীদের ওপর হামলা, শিক্ষকদের সঙ্গে প্রতিহিংসামূলক আচরণ এবং প্রশাসনিক আধিপত্য দিয়ে শিক্ষকের চাকরিচ্যুতিসহ নানা বিষয় নিয়ে উদ্বেগ প্রকাশ করে সংবাদ সম্মেলন করেন। তারা আশঙ্কা প্রকাশ করেন যে, ক্যাম্পাসে শরীফ এনামুলের সময়কার খারাপ অবস্থা আবারও ফিরে আসছে। তারা ৯ অক্টোবরের ধর্ষণের ঘটনার তদন্তও দাবি করেন। এর বাইরে পুরো ক্যাম্পাসে ভয়ানক ওই ঘটনা নিয়ে কোনো প্রতিক্রিয়া এখন পর্যন্ত দেখা যায়নি।

বিশ্ববিদ্যালয়ের প্রগতিশীল ছাত্র সংগঠনগুলোর মধ্যেও এ নিয়ে তেমন কোনো উদ্বেগ দেখা যায়নি। এ ধরনের ঘটনার প্রেক্ষিতে কী উদ্যোগ নিয়েছেন? প্রশ্ন করা হলে ছাত্র ইউনিয়ন জাবি সংসদের সভাপতি তন্ময় ধর বলেন, 'ধর্ষণের ঘটনায় সুনির্দিষ্ট কোনো তথ্য পাইনি বিধায় এটা নিয়ে আমরা কিছু বলতে পারিনি। সামগ্রিকভাবে এ মুহূর্তে হয়তো আমাদের দৃশ্যমান কোনো কর্মসূচি নেই। কিন্তু আমরা শিক্ষার্থীদের মধ্যে প্রচার চালাচ্ছি। বিষয়গুলো নিয়ে আমরাও উদ্বিগ্ন। প্রশাসন এবং সরকারি দলের যে মেলবন্ধন, তার ফলেই এসব ঘটনার প্রতিবাদ করা কঠিন হয়ে পড়েছে।'

বিশ্ববিদ্যালয় শাখা সমাজতান্ত্রিক ছাত্রফ্রন্টের সভাপতি শাফায়েত পারভেজ বলেন, 'আমরা ছাত্রদের কাছ থেকে এ বিষয়ে জানতে পেরেছি। বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন এ বিষয়ে একটি তদন্ত কমিটি করেছে। সেই কমিটির প্রতিবেদন প্রকাশিত হলে আমরা পরবর্তী পদক্ষেপ নেব।'বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন যদি বলে এমন ঘটনা ঘটেনি, তাহলে কী করবেন? এমন প্রশ্নের জবাবে তিনি বলেন, 'আমরা তখন নিজেরা অনুসন্ধান করব। সাধারণ ছাত্রদের সঙ্গে পরামর্শ করে তখন সিদ্ধান্ত নেব। ইস্যু তো এই একটি না। এরকম আরও অনেক বিষয় আছে। সব নিয়েই আমাদের ভাবতে হয়।'

ছাত্র সংগঠনের নেতাদের কণ্ঠ যেন এক্ষেত্রে প্রশাসনের কণ্ঠেরই প্রতিধ্বনি। প্রক্টর তপন কুমার সাহাকে এ প্রসঙ্গে প্রশ্ন করা হলে তিনি বলেন, 'আমরা ৯ অক্টোবরের ঘটনার তদন্ত করছি। দ্রুতই প্রতিবেদন জমা দেয়া হবে। রেজিস্ট্রার আনুষ্ঠানিকভাবে বিষয়টি আপনাদের জানাবেন। মাদকসহ ক্যাম্পাসের অন্য বিষয়াদি নিয়ে আমরা তৎপর রয়েছি। প্রোভিসি স্যারের নেতৃত্বে একটি টিম গঠন করা হয়েছে। দ্রুতই পরিস্থিতির উন্নতি ঘটবে বলে আমি আশাবাদী।'প্রোভিসি আবুল হোসেনকে এ বিষয়ে প্রশ্ন করা হলে তিনি বলেন, 'আমাদের কাজ চলছে। আপনি একদিন আমার অফিসে আসুন। তখন মুখোমুখি বসে বিস্তারিত আলাপ করা যাবে।'

প্রগতিশীল ক্যাম্পাস হিসেবে জাহাঙ্গীরনগর বিশ্ববিদ্যালয়ের বিশেষ সুনাম রয়েছে। নাট্যাচার্য সেলিম আল দীনের ক্যাম্পাস এটি। ক্যাম্পাসের ভেতরের পরিবেশও অসাধারণ। এটি সেই ক্যাম্পাস, যেখানে পাখিদের জন্য গান হয়। অথচ এখানে বেড়াতে এসেই যদি কোনো নারীকে ধর্ষণের শিকার হতে হয়, তাহলে ক্যাম্পাসের আর কী থাকল! সবাই মান সম্মান বাঁচাতে এসব ঘটনা এড়িয়ে যান। কিস্তু এর ফলে অপরাধীর হাত আরও লম্বা হয়। ক্যাম্পাসের সার্বিক পরিস্থিতির যে ভয়াবহ অবনতি ঘটেছে, তা একেবারে স্পষ্ট। সাংস্কৃতিক অবস্থারও ব্যাপক অবনমন ঘটেছে। কিন্তু সবাই নিজেকে নিয়ে ব্যস্ত। ছাত্র সংগঠন, বুদ্ধিজীবী, শিক্ষক, কোনো পক্ষকেই এ নিয়ে সক্রিয় ভূমিকায় দেখা যায়নি। তাহলে কি সব শেষ হয়ে গেলে তারপর নড়েচড়ে বসবেন সংশ্লিষ্টরা? জাহাঙ্গীরনগর বিশ্ববিদ্যালয়কে শুধু পাখিদের নয়, মানুষের জন্যও নিরাপদ করতে হবে। অমানুষদের থাবা থেকে ক্যাম্পাসটিকে রক্ষা করতে হবে। সেজন্য সংশ্লিষ্টদের টনক নড়াটা জরুরি!


সাংস্কৃতিক অবনমন ঘটেনি, বরং উন্নতি হচ্ছে'
ড. ফারজানা ইসলাম

উপাচার্য, জাবি

সাপ্তাহিক : ক্যাম্পাসে ৯ অক্টোবর একটি ধর্ষণের ঘটনা ঘটার অভিযোগ এসেছে। আপনারা কী ভূমিকা নিয়েছেন?
ড. ফারজানা : এই ঘটনা আমরা জানতে পেরেছি। এ ধরনের ঘটনার তো সাধারণত কোনো প্রমাণ পাওয়া যায় না। যাদের বিরুদ্ধে অভিযোগ এসেছে তাদের কারণ দর্শানোর নোটিশ দেয়া হয়েছে। আমরা এ বিষয়ে প্রক্টরকে প্রধান করে একটি তদন্ত কমিটি করেছি। তদন্ত কমিটি জানাবে। তবে আমি যদ্দূর জেনেছি, এর সত্যতা এখনো নিশ্চিত হওয়া যায়নি।
সাপ্তাহিক : ক্যাম্পাসে ব্যাপকভাবে মাদকের বিস্তার ঘটেছে?
ড. ফারজানা : মাদক, ছিনতাই বেশ ভালোই হচ্ছে। আমি পুলিশের স্পেশাল ব্রাঞ্চের সঙ্গে কথা বলেছি। প্রোভিসিকে প্রধান করে একটি পরিদর্শক দল করা হয়েছে। আমরা অ্যালার্ট হয়েছি। যারাই ধরা পড়বে, তাদের বিরুদ্ধে কঠোর ব্যবস্থা নেয়া হবে, তাদের পুলিশে দেয়া হবে। 
সাপ্তাহিক : সার্বিকভাবে ক্যাম্পাসের সাংস্কৃতিক অবনমন ঘটেছে। এর জন্য কী পদক্ষেপ নিবেন?
ড. ফারজানা : সাংস্কৃতিক অবনমন হয়েছে, এমনটা বলা যাবে না। বরং উন্নতি হচ্ছে। আগে ক্যাম্পাসে যা খুশি তা-ই চলত। এখন আমরা একটা সংস্কৃতি গড়ে তোলার চেষ্টা করছি। সেটা হচ্ছে, কিছু ঘটলেই তদন্ত, তার পরে সে অনুযায়ী প্রতিকারের বিধান দেয়া। এটাই আমাদের সবার সংস্কৃতি হওয়া উচিত বলে আমি মনে করি। কারও সম্পর্কে না জেনে মন্তব্য দেয়াটা তো ঠিক না। সেটাই বরং সাংস্কৃতিক অবনমন। 

http://www.shaptahik.com/v2/?DetailsId=9685

Why East Bengal Refugees are Discriminated and Hated Palash Biswas

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Why East Bengal Refugees are Discriminated and Hated

Palash Biswas
More than twenty million East Bengal refugees coming over to India in different dates and phases since 1947 partition and riots over there, awaiting citizenship and rehabilitation, reservation, right to learn mother language and even minimum human and civil rights in different states of India. Meanwhile, the original citizenship Act of 1955 has been changed by a new act called Dual citizenship Act enacted last year with the objectives: preventing grant of Indian Citizenship to illegal migrants; grant of dual citizenship to foreigners of Indian origin and compulsary registration with issue of National identity card for all citizens of India.This new Act declares the government stand to deport all illegal migrants.This anti refugee Act was passed in the parliament with general consensensus. The SC/St MPs from Bengal also supported the bill bowing to respective party whip. . The new act has abolished the right of citizenship by birth. Any person who has crossed the border after 18th july 1948 without valid passport and visa is considered illegal migrants. The East Bengal refugees, even rehabilated in fifties, have not been granted citizenship as have been the refugees coming from West Punjab. The Bengali leadership never demanded citizenship for the refugees. BJP leaders and CPIM leaders in bengal speak in the same language about the Bengali refugees. Thirteen lac names have been deleted in Bengal in the last assembly elections as the concerned persons could not prove their Indian nationality. The situation is very grave as it is seen in the pilot project of national identity card in Murshidabad district in West Bengal. More than ninety percent of the population could not present the required documents to prove their citizenship. Elsewhere in the country, refugees and even the indian Bengali citizens in non Bengali states staying for employment are being deported. Rehabilated in fifties, the Dandakaranya refugees in Orrissa have been served the notice to leave India. In Orrissa the registration of new born babies in the refugee families are being denied birth certificates. East Bengal refugees have been discriminated and victimised as nintey percent of them belongs to scheduled castes . In Chhattisgargh itself twenty two of total twenty six lac Bengali refugees belong to Namashudra caste. It is the same story elsewhere ,more or less. Other prominent refugee caste is the dalit Paundra, Pods, who are considered as par as the Namashudras. We have to know the social equation of erstwhile Bengal to understand the Bengali leadership behaviour. It is well known that Indian Dalit movement is rooted in East Bengal as well well as in Maharashtra. Namoshudra leader Jogendra Nath Mandal led the Dalit movement in Bengal. Mandal was responsible to send Ambedkar,defeated in Maharashtra, to the constitution assembly. Thus Hindu Dalit amjority areas like Jassore, Faridpur, Barishal and Khulna were included in Pkistan which destroyed the Dalit movement base in India. The Dalit refugees had been scattered all over in india with an objective to annihilate the main dalit foce like Namashudra and Paundras. Specific lower castes, or 'Scheduled Castes' (as they were known in British Indian official parlance), who lived in the border areas between East Pakistan (now Bangladesh) and the West Bengal state of the Union of India. They maintained since the early twentieth century their distance from high caste Hindus and their politics and, often in alliance with Muslims, opposed them actively.
The Namasudras who were earlier known as Chandals (a term derived from the Sanskrit chandala, a representative term for the untouchables) lived mainly in the Eastern districts of Bengal. According to the census of 1901, more than 75 percent of the Namasudra population lived in the districts of Bakerganj, Faridpur, Dhaka, Mymensingh, Jessore and Khulna. Moreover, it has also been pointed out in several studies that a contiguous region comprising northeastern Bakerganj, southern Faridpur and the adjoining Narail, Magura, Khulna and Bagerhat districts contained more than half of this caste population. It was the Matuya leader Harichand Thakur who led the movement to abolish the foul noun for the dalits and the British Governmet prohibited calling anyone Chandal. The Chandals became Namashudra.But the independence with partition of Bengal which ultimately came in the midnight of 14-15 August 1947 did not help the Scheduled Caste masses, as they feared. The caste hindu ruling class captured the statepower replacing Brtish. Many prominent groups like the Namasudras and the Rajbansis lost their territorial anchorage and, contrary to their hopes and in spite of their pleas, most of the Namasudra-inhabited areas in Bakarganj, Faridpur, Jessore and Khulna, like the Rajbansi areas of Dinajpur and Rangpur, went to East Pakistan, instead of West Bengal. The post-partition violence, as F.C. Bourne, the last British Governor of East Bengal reported in 1950, left many of them with "nothing beyond their lives and the clothes they stand up in". This compelled many of them to migrate as refugees to India, where being uprooted from their traditional homeland they had to begin once again their struggle for existence. The national leaders like Jawahar Lal Nehru, Dr Rajendra Prasad , Sardar Patel and others assured the partition victims everypossible assitance and rehabilatition.
The two most important communities which dominated Scheduled Caste politics in colonial Bengal were the Namasudras and the Rajbansis. The Namasudras, earlier known as the Chandals of Bengal, lived mainly in the eastern districts of Dacca, Bakarganj, Faridpur, Mymensingh, Jessore and Khulna. When these districts were ceded to East Pakistan, the inhabitants were forced to migrate across the new international boundary to the state of West Bengal in India. At the same time, a section of the Kochs of northern Bengal, living in the districts of Rangpur, Dinajpur, Jalpaiguri and the Princely state of Cooch Behar, came to be known as the Rajbansis from the late nineteenth century. Of those districts, Rangpur and parts of Dinajpur went to East Pakistan, while the rest remained in West Bengal. In other words, so far as the Namasudras and the Rajbansis were concerned, the international political boundary that came into existence in 1947 did not correspond by any means to ethnic boundaries, and resulted in the uprooting of these two groups of people from their territorial anchorage. Incidentally, according to the 1901 Census, the Rajbansis and the Namasudras were the second and third largest Hindu castes respectively in the colonial province of Bengal.Both of these two groups were considered untouchables among the Hindus of Bengal. Although untouchability per se was not as limiting a problem in this as in other parts of India, the Namasudras and the Rajbansis suffered from a number of disabilities, which created a considerable social distance between them and the high caste Bengalis who dominated Hindu society. Hence, when as a result of land reclamations in eastern and northern Bengal in the late nineteenth century, these two groups of people both experienced some amount of vertical social mobility, they proposed creating their own distinctive community identities. As the Hindu nationalists began to invoke a glorious Hindu past as an inspiration for nation building, these people at the bottom of the social hierarchy began to look at the present as an improvement over the darker past. They regarded British rule as a good thing, seeing it as having overthrown the codes of Manu and establishing equality in an otherwise hierarchical society. The nationalist movement, therefore, appeared to them to be an attempt to put the clock back - an endeavour by the higher castes to restore their slipping grip over society. In 1906, a Namasudra resolution stated very clearly that "simply owing to the dislike and hatred of the Brahmins, the Vaidyas and the Kayasthas, this vast Namasudra community has remained backward; this community has, therefore, not the least sympathy with them and their agitation ...". In 1918 the Namasudras and the Rajbansis in a joint meeting demanded unequivocally the principle of "communal representation" to prevent "the oligarchy of a handful of limited castes". And when this was finally granted in the Communal Award of 1932, the leaders of both these communities greeted it as "a political advantage unprecedented and unparalleled in the constitutional history of India". But Gandhi, anxious to maintain the political homogeneity of the Hindu community, stood in their way. When Ambedkar finally succumbed to his moral pressure to sign the Poona Pact, the Rajbansi and Namasudra leaders condemned it as "Dr Ambedkar's political blunder"; for, by taking away the privilege of a separate electorate, it "ultimately led ... to the political death of millions of people at the hands of the so-called caste Hindus". Sometimes this alienation took the form of violent confrontation, particularly as the Namasudra peasants got involved in bazaar looting, house breaking and, in alliance with the Muslims, socially boycotting the high caste Hindus. In the case of the Rajbansis, passivity was the more dominant form of expression of their alienation, although from time to time they too participated in shop looting and no-rent campaigns against their high caste zamindars.It should be noted that in undivided Bengal, the Zamidars belonged to Brahmin and kayasth communities whereas the peasants were muslims and dalits. Thus the dalit muslim allaince was a normal and scientific result of economic political tention in Bengal. It further resulted in the rise of Muslim League politics in Bengal as it was considerd as the best expression of revolt by Muslim peasants against caste hindu Zamindars. The dalit peasnt communities like Namashudra, Rajbanshi and Paundras saw nothing wrong in it. Since the early years of the twentieth century both the Namasudras and the Rajbangshis sent requests to the colonial bureaucracy to bring them under the orbit of preferential treatment. Apart from extending preferential treatment to them in matters of education and employment, sympathies were also sought from the colonial bureaucracy over matters related to political participation. While the position of the Namasudra and Rajbangshi elite in the local bodies showed signs of improvement, their representation in the provincial legislature was still negligible. But more importantly, in order to gain special political privileges, the lower caste elite consciously advocated an anti-Congress and pro-British stance. At the same time, the lower caste elite, particularly the Namasudras who had actively opposed the swadeshi movement of the Congress, favoured a blatantly separatist line in the wake of the constitutional proposals of the 1910s and 1920s seeking greater devolution of power among various Indian groups. Almost immediately after the Mont-Ford proposals, the Rajbangshi and Namasudra elite pressed for greater representation for depressed communities in Bengal. As a result of these demands, the Reform Act of 1919 provided for the nomination of one representative of the depressed classes to the Bengal Legislature.
The peasants of these Bengali Dalit castes refrained from participating in Congress-led mass political agitations like the Non-Co-operation, Civil Disobedience and Quit India movements, led by Gandhi, because they were under the hegemony of the caste Hindu leaders. And then, finally, in the election of 1937 both Namasudra and Rajbansi voters rejected the Congress and the Hindu Sabha candidates and elected their own caste leaders in all the Scheduled Caste reserved constituencies. The process of alienation seemingly came to a conclusion with Dr B.R. Ambedkar forming the All India Scheduled Caste Federation in 1942 and declaring that "the Scheduled Castes are distinct and separate from the Hindus ...". The following year, its Bengal branch was started by a few enthusiastic Namasudra and Rajbansi leaders, their avowed political goal being to establish "the separate political identity" of the Scheduled Castes.After the election of 1937, when the leaders of the Namasudra and Muslim communities were coming to a political adjustment and the first coalition ministry under Fazlul Huq had started functioning smoothly, their followers in the eastern Bengal countryside got involved in a series of violent riots in Faridpur, Mymensingh and Jessore between February and April 1938. Though rioting had been entirely due to local initiative of the peasants of the two communities over such issues as disputes over cattle or demarcation of land, the Hindu Sabha decided to take up the issues and make them items for a propaganda campaign. In an organised way rumours were spread, particularly in Jessore, that temples had been desecrated and images broken and an Assistant Secretary of the organisation was sent to the troubled area to conduct an enquiry on the spot. Religious emotions were thus fermented in a conflict which initially had nothing to do with religion
At a meeting at Agra in March 1946, Ambedkar had announced his support for the League demand, "Muslims are fighting for their legitimate rights and they are bound to achieve Pakistan". About a month later, in a press interview, he justified his demand for separate villages for the Scheduled Castes. This would not amount, he thought, to an encroachment on the rights of any other party. There were large areas of cultivable waste land lying untenanted in the country which could be set aside for the settlement of the Scheduled Castes. The echoes of this demand could be heard from distant places. In the Central Provinces some of the Scheduled Castes started talking vaguely about a 'Dalistan'; and in northern Bengal a few Rajbansis, supported by the Scheduled Caste Federation leader Jogendranath Mandal, raised the demand for 'Rajasthan' or a separate Rajbansi Kshatriya homeland. But the majority of the Scheduled Castes in Bengal, the Rajbansis included, seemed to be on the exactly opposite pole. Their responses to the partition issue clearly show that they had completely identified themselves with Hindu sentiments and apprehensions on this matter.
In Bengal Eaton shows that those from whom. Muslim converts were largely drawn—Rajbansis, Pods, Chandals, Kuchs, etc .Significantly, there was hardly any major social movement in Bengal between the tenth and the fifteenth century aimed at the elevation of the Antyaja jatis in the Hindu social scale. Only in 19th century, Harichand Thakur and Guruchand Thakur of Orakandi changed the scenerio with Matuya Dharama denying Brahminical Hindu religion.Matuya Hindu religious community, founded by Sri Sri harichand thakur of Gopalganj. The word 'matuya' means to be absorbed or remain absorbed in meditation, specifically to be absorbed in the meditation of the divine.The Matuya sect is monotheist. It is not committed to Vedic rituals, and singing hymns in praise of the deity is their way of prayer and meditation. They believe that salvation lies in faith and devotion. Their ultimate objective is to attain truth through this kind of meditation and worship. They believe that love is the only way to God. Under the influence of certain liberal religious sects, a sense of self-respect developed among the Namasudras. In fact, these liberal as well as radical sects under the leadership of charismatic gurus like Keshab Pagal or Sahalal Pir challenged the hierarchic Hindu caste system and preached a simple gospel based on devotion (bhakti) and spiritual emotionalism (bhava). In 1872-73, the Namasudras under the leadership of Dwarkanath Mandal, tried to bolster their self-esteem by undertaking a social and economic boycott of the upper castes. The failure of this movement led to the establishment of the Matua sect - an organised religious sect under the influence of Sri Harichand Thakur and his son Sri Guru Chand Thakur.
The namashudras joined the Matuya Dharam. Which Was a social reform movement altogether. Harichand and Guruchand Thakur emphasised on education. Guruchand Thakur established thousands of eductional institutions. The Matuya have no distinctions of caste, creed, or class. They believe that everyone is a child of God. The Matuya believe that male and female are equal. They discourage early marriage. Widow remarriage is allowed. They refer to their religious teachers as 'gonsai;' both men and women can be gonsai. The community observes Wednesday as the day of communal worship. The gathering, which is called 'Hari Sabha' (the meeting of Hari), is an occasion for the Matuya to sing kirtan in praise of Hari till they almost fall senseless. musical instruments such as jaydanka, kansa, conch, shinga, accompany the kirtan. The gonsai, garlanded with karanga (coconut shell) and carrying chhota, sticks about twenty inches long, and red flags with white patches, lead the singing.
In fact, there was hardly any case of social mobility among them, and for the great majority of the population comprising essentially the lower castes, the major sources of social mobility remained inaccessible. Prolonged pursuit of a particular occupation for generations in the absence of alternative job opportunities naturally gave rise to strict social conventions, which in the traditional context were overlaid with rituals. Some details relating to the lower castes in Bengal can be highlighted. Lower Caste Movements efforts to obliterate the social backwardness of some groups or communities in the society. Bengali society throughout the nineteenth and twentieth centuries remained broadly divided into the Hindu and Muslim communities. In that sense, the inner divisions of the Hindu society tended to be perfunctory. Thus, the social scenario in Bengal betrayed features quite different from those in Central India and some parts of the Deccan, where the Muslim population was relatively small as a result of which the anti-Brahmin movements thrived there.
The forms of discrimination against the untouchables in Bengal differed from that in Maharastra or South India. In Bengal, caste rigidities were never strong enough to keep the untouchable population in a state of perpetual servitude. In this context, the types of discrimination faced by depressed or scheduled caste leaders like jogendranath mandal were not the same as those experienced by Ambedkar in Maharastra.
In Bengal the list of scheduled castes included not only the 'untouchables' but also several Ajalchal castes ritually ranked a step above them. The colonial bureaucracy enlisted communities under the Scheduled Caste grouping not much in accordance to their ritual status, but more in terms of their economic status. Therefore, it has been argued that since the intensity of untouchability was relatively weak in Bengal, compared to some other regions of India, movements such as those demanding right of entry to temples could never become a major plank in the movement for the removal of untouchability. Therefore lower caste protest did not always demand the complete removal of untouchability. Scholars like Masayuki Usuda have argued that these movements took the form of joint efforts in which socially backward castes too participated. The problems of untouchability and those of social ostracism were reflected in the antagonisms that prevailed between the indigent Chhotoloks (low born) and the rich Bhadraloks (men enjoying a higher status by virtue of their ritual ranking, education and other virtues) in the society. At times movements among the Bengali untouchables assumed class connotations.
However, such movements need to be analysed in two different ways. In the first place, such movements are sometimes considered as manifestations of protest against a dominant system of social organisation that sanctioned disabilities and inflicted deprivation on certain subordinate groups. On the other hand such movements, it has been argued, could be interpreted as expressions of ambitions or aspirations that sought accommodation and positional readjustments within the existing system of distribution of power and prestige. It would be worthwhile to argue that within such 'untouchable' social groups, different levels of social consciousness and different forms of political action emerged, which inevitably were incorporated within a single movement.
In Bengal, due to their socio-economic backwardness, some of the lower or 'untouchable' castes developed worldviews that were fundamentally different from that of the nationalists and this led to their alienation from mainstream politics. However within the same social movement of such ritually 'inferior' castes, there could be a convergence of different tendencies - some protestant and some accommodating. In fact, as a result of such tendencies, lower caste social protest in spite of the immense possibilities of initiating some fundamental changes in society or polity, fell far short of the cherished goals.
The Pala documents also provide some information about the untouchable castes, which were outside the frontiers of Hindu society. In the list containing the names of the beneficiaries of landgrants in the Pala copperplates, high governments officials were immediately followed by Brahmans, who in turn were followed by various peasant communities. In fact, there was no reference either to the Ksatriyas or the Vaishyas. But, beyond such social groupings there were several other groups who were referred to as Medh, Andhra and Chandalas. The Chandalas were considered to be the lowest of all the social groupings. Social commentators like Bhabadeva Bhatta have referred to them as an AntyajaJati. In several charya songs information about several other low castes such as Doms or Dombs, Chandalas, Shabaras and Kapalikas have also been found. In some medieval texts it has been pointed out that contact of Brahmans with such lower castes was forbidden.

Women Lead Resistance Monday, April 9, 2007

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Women Lead Resistance 
Monday, April 9, 2007

Palash Biswas
Both feminism and nationalism in India emerged from the social reform movement of the C19th, it is widely believed. But fact is that tribal women enjoyed equality from the beginning and it is not the feminism advocted by the Ruling Brahmins in India. Even before Renaissance, Dalit Women of Bengal had the awakening as they were directly involved with the production system!

Women of Nandigram fought and led the fight from Front as they happen to be associated with indegineus production system. We may remember the fight of Mother India, fight of Dhania in `Godan, if we like.

The social reform movement originated within the Indian intelligentsia and spread to sections of the middle classes. But the peasant women were socially much more conscious from the beginning.

Mind you, Midnapur happens to be the Home of Matangini Hazra!

During the quit india movement, the people of Medinipur planned an attack to capture the Thana, court and other government offices. Matangini, who was then 72 years old, led the procession. The police opened fire. A bullet hit her arm. Undaunted she went on appealing to the police not to shoot at their own brethren. Another bullet pierced her forehead. She fell down dead, a symbol of the anti-colonial movement, holding the flag of freedom in her hand.
What Nandigram has seen, hence, it is nothing new for Bengal!

In fact, Indian Women have come in front to lead the Great Indian Resistance against Post Modern manusmriti, Neo Libetral Globalisation in form of eviction of the masses from the roots!

It is not only coincidence that Brahminical Hindutva considers all Women SHUDRA! Islam also says that women are unsacred! Varnshram never helped women!

Because all women are shudra, the women Mahashweta devi, Medha Patkar, Arundhati Ray, Aparna Sen, Nabaneeta Dev sen, Shaonli Mitra, Anuradha Talwar, Joya Mitra and all women from Singur and Nandigram shows us well how to Resist State Power!

We have seen it often in Manipur!

These ladies deny to be show piece fair commodity meant for the open market!

As Nandigram in West Bengal became a lightning rod for criticism of economic reforms, candidates in Dadri, home to more than 200 villages, are wooing farmers with a promise that they will not allow the forcible acquisition of land to set up industries or plush residential enclaves.
Farmers to whom the lands belong complain that they have been caught unaware by the acquisition process.

Political parties, including the Bharatiya Janata Party, Bahujan Samaj Party and former prime minister V P Singh's Jan Morcha, have demanded that the Samajwadi Party government make the entire land acquisition process transparent so that the farmers' right to just compensation is not affected.

"The compensation awarded to farmers is nowhere near the market price of land. There is no transparent move to uphold in full the rights of those who have been displaced because of this land acquisition," BJP legislator Nawab Singh Nagar, seeking to retain his seat on the same plank, said as he walked into a dusty village of the constituency for his campaign.


Last year, V P Singh and Communist Party of India general secretary A B Bardhan were arrested by police as they headed to Dadri for a protest against alleged inadequate compensation to villagers whose land was acquired for a mega power project of Reliance.

"There have been similar protests and demonstrations in Dadri since Noida and Greater Noida came into being. But farmers continue to suffer. Nobody is genuinely concerned about their welfare," said Congress candidate Raghuraj Singh.

Hazra, Matangini (1870-1942) a famous Gandhian leader and a humanitarian. Matangini Hazra (Matangini Hazra) was born at a village named Hogla under Tamluk Thana of Medinipur in West Bengal. Daughter of a poor peasant, she had no access to education at her father's house. Given in marriage at an early age, Matangini became widowed at eighteen without having any children. She played an active role in the struggle for independence from colonial rule and followed Mahatma Gandhi's creed of non-violence.

In 1932, Matangini participated in Gandhi's civil disobedience movement (Salt Satyagraha), manufactured salt at Alinan salt centre and was arrested for violating the salt act. After her arrest she was made to walk a long distance as punishment. She also participated in the 'Chowkidari Tax Bandha' (abolition of chowkidari tax) movement and while marching towards the court building chanting slogan to protest against the illegal constitution of a court by the governor to punish those who participated in the movement, Matangini was arrested again. She was sentenced to six months imprisonment and sent to Baharampur jail.

After her release Matangini got actively involved with the activities of the indian national congress. She took to spinning thread and Khaddar (coarse cloth) like a true follower of Gandhi. In 1933 she joined the 'Mahakuma Congress Conference' at serampore where police resorted to baton charge on the protesters. Always engaged in humanitarian causes, she worked among affected men, women and children when small pox in epidemic form broke out in the region. People lovingly called her 'Gandhi Buri'.


The Left Front's most recent record in ushering in capitalism in the state of West Bengal is shameful, but there isn't even a muted response to the Pakistan judiciary reeling under the boots of a military dictator.

However, let's stick to India alone. Even though the Left allows the UPA government to survive on its oxygen, it misses no opportunity to bare the Manmohan Singh government's capitalists tendencies. And in its own bastions of West Bengal and Kerala, it's not just rolling out red carpet to woo foreign investment but is shameless in suppressing popular revolt.

The contradictions are clear. Coming from the CPI(M), lofty ideas, talks of power to the people and human rights appear hollow. The emperor has no clothes. Scores of artists and intellectuals across the country have showed their resentment in no uncertain terms.

Also, West Bengal Governor Gopal Krishna Gandhi has hardly ever courted political controversy. He is known to be a man of scholarship, integrity and composure. When he criticises the government, it contains the credulity of honesty.

The state government thought it would get away this time, too. It thought that a nexus of party, police and a highly politicised establishment would again suppress opposition. It forgot, however, that communication technology and a vibrant media not only had gathered more strength in recent times but also spread the reach. Mamata Banerjee just fitted the bill.

The support of Jamiat-e-Ulema against the state government is again reflective of the withering away of its Muslim vote bank. So, did Nandigram happen due to CPI (M)'s overconfidence? Partly. More so, due to the bourgeois attitude that has crept into the leadership.

Nandigram, quite naturally, generated much political heat in both the Houses. The NDA and the ruling almost came to blows. It was only expected. But the sheer ruffian behaviour of the Kolkattan Left forced Speaker Somnath Chatterjee to offer his resignation for the nth time. No, the Communists did not attack any member from the Opposition benches but a Cabinet minister belonging to DMK, a fellow ally in UPA.



In accordance with written history, Faminism appeared first in Bengal - Ram Mohan Roy founded Atmiya Sabha in Bengal in 1815. 1828 Brahmo Samaj also formed in Bengal.It was partly inspired by Hindu revivalism and partly by liberal ideas.

Talwar (1990) points out that the movement for the uplift of women initiated by men in the early C19th – e.g. Raja Ram Mohun Roy – and included education, widow remarriage, abolition of purdah, and agitation against child marriage.
The author argues that social reform movements arose out of conflict between the older feudal joint family system and material needs of the developing urban middle class.
The urban m/c family was no longer a productive unit but a place of emotional fulfilment. The reform movement of the C19th was generally limited to urban areas.


'As an Indian bourgeois society developed under western domination, this class sought to reform itself, initiating campaigns against caste, polytheissm, idolatry, animism, purdah, child marriage, sati and more, seeing them as elements of a pre-modern or primitive identity' (Kumar 1993).

All India Shiksha Sangharsh Yatra,Unique campaign to demand education!

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All India Shiksha Sangharsh Yatra,Unique campaign to demand education!

Palash Biswas

India has become a free hunting ground for education mafia and decontrolled,deregulated market linked education hubs makes the knowledge economy with free flow of foreign capital as well as black money.Education is now subjective to purchasing power and the masses deprived of sufficient purchasing capacity may not afford quality education despite so much so hyped right to education and Sarv Shiksha Abhiyan.

I did not know that last Sunday (2 November 2014), a unique campaign was launched in the country. Unique, because never before people in such a large number had come on street to demand something like education, possibly not for themselves but for the coming generations.

Our respected friend Anand Teltumbde informed as I returned from North India on first November and  I could not connect him as he was away and had been engaged to flag off south Indian phase of All India Shiksha Sangharsh yatra.I did know anything about this campaign as  during my travel most of the time,I was disconnected in the digital nation which is in fact is reduced to a smartphone nation or a tab nation.I needed his expertise to explain so many things and he was unavailable.

As I landed in New Delhi on 29th Oct,he called me to inform about the sad demise of his 93 old father,the senior Tendulkar on 22nd October and told that he was at home in Mumbai.

Returning Kolkata I just could not get him and all of a sudden he with other friends countrywide launched the campaign.I am surprised and missed the opportunity to stand with them with this excellent campaign most needed.

Meanwhile,we already have launched a nationwide campaign to dilute the secular versus communal dialogue which rather polarise Indian people on religious lines and the secularism banks on identities so much so which disintegrates the nation as well as the peoples resistance against the prevailing genocide culture all over the bleeding geopolitics.

We know that Indian constitution is,of course,drafted by Dr.BR Ambedkar but it is not his cration as whole sole as the ruling hegemoy which grabbed power did everything to tilt the equations against the depressed classes.Eventually,the rights whcih we get from constitutional provions are taken away by other provisions.Nevertheless,the constitution of India is the source of ourdemocratic,civic and human rights and we may not allow it to be manipulated by the free market econmy and its forign priorities,the investors and the corporate lobbying.

Anand thinks otherwise and sees the trap within as glorification of the constitution might be suicidal,he assumes.The ruling hegemony is misusing,abusing Dr BR Ambedkar and the emotional love of the excluded communities for Babasaheb.He has been warning,though he is not against the debate on the relevance of the constitution and democratic set up  in India.

We discussed the issues at large time to time.

But Teltumbde and his friends have rather strengthened us as the deprivement of the agrarian communities,the enslavement of the excluded Indian majority roots in the basic scientific module that the masses had been deprived of education for thousands of years and had no opportunity of empowerment whatsoever.Tendulkar is absolutely correct to focus on this basic issue without which the empowerment and sovereignty of the citizen remain impossible and the ruling hegemony reserves every opportunity in every sphere of life as it is well showcased in Bengal.


I stand rock solid with my dear friends.

We request all citizens to support  the campaign nationwide.


Just read the note, Anand Teltumbde has sent to me to explain the campaign.




This campaign, if succeeded, could pave way for the radical transformation of India. The countrywide one month long campaign began from different directions to be converged and culminated in Bhopal on 4 December 2014. It would expose the intrigues of the ruling classes in creating a mess in the sphere of education and to rouse people to fight against them to win their fundamental right to education.

Teltumbde writes:While education is generally reckoned as an important issues, as we are inured to consider many other confusing our priorities, its prowess is barely recognised that it could resolve the perpetuating problem of inequality in one shot. In any case, howsoever we invoke past injustices, it is impossible to recover the lost past or adequately recompense it. However, we can surely put a stop to its perpetuation. Education has the prowess to do that. If we ensure that a child coming to the world does not inherit the misfortune and carry the imprint of poverty of its parents and receives the basic inputs such as health care and education equitably, the problem of perpetuation of inequality would be solved to a large extent.

Education along with health constitutes the basic factor in human life. While health represents its physicality and is common to all sentient beings, education represents its consciousness and characterizes only humans. As such, education becomes more important than even health. In the context of India's caste system, education assumes far more importance to the Dalits and the Shudra castes because it was the single biggest causal factor behind their enslavement by the upper castes for millenniums. Mahatma Phule's Marathi couplet: succinctly highlights the importance of education to the lower castes:

"vidyevina mati geli; mativina neeti geli; neetivina gati geli; gativina vitta gele; vittavina shudra khachale; itke anartha eka avidyene kele" (Lack of education led to lack of wisdom, lack of wisdom led to lack of morals, lack of morals led to lack of progress, lack of progress led to lack of finance, lack of finance led to the downfall of the Sudras; all these damage was caused by just the lack of education)

In the present context, it rather applies to all the poor who constitute more than 83 percent of India's population.

Education has always been used as lever by the ruling classes to keep people enslaved. In colonial days it was informed by Macaulay's Minutes which envisaged creating "a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinion, in morals and in intellect" through education. Coming to present day rulers, education is being used to promote the hindutva agenda by saffronizing school text. Every ruling class thus used education to mould people in a manner that would be helpful in perpetuating its domination. While this may be axiomatic; what would one call if even this education is denied to some people or if it is dished out in a way so as to perpetuate the iniquitous social order? The state of Indian education today precisely presents this spectre. Indian ruling classes intrigued to give the dying caste system new lease of life through modern institutional contrivance and further ensured its perpetuation through commercialised multi-layered education system. It needs to be seen that this system is more insidious than Manu's because it perpetuates graded inequality without appearing as crude as the latter.

Contrary to the desire of the founding fathers to make education universal, free, and compulsory, the ruling classes who formally assumed reins of power from the British surreptitiously drove their policies to promote the interests of incipient bourgeoisie and traditional elites. Private schools and colleges did exist but the majority were still run by the government. Although education had multiple layers, it was yet to be naked commerce. From mid-1980s however, with the advent of neoliberal reforms, education underwent rapid transformation for the worse. The social Darwinist ethos of neoliberalism turned it into a commercial good to be bought and sold with market logic. While this resulted in huge quantitative expansion, the poorer strata, particularly Dalits, were effectively excluded from quality education. The so called Right to Education Act brought by the government with much fanfare has actually proved to be the last straw on their back. Not only it took away whatever little that existed in the Constitution, it legitimized the naturally evolved multi-layered education system.


Today the market of education is full of variety of wares being offered by all kinds of people. The entire rural India where still nearly 70 percent of our people reside are squarely cut off from education of any consequence. The same is the situation of the urban slums where majority of poor people live. Since public school system has lost confidence of people, private English medium schools have mushroomed everywhere which are fast driving people to the ditch of ignorance. Many types of schools have come up which offer varying quality education depending upon paying capacity of the buyer. A poor man's child will get to the school for the name sake, where teachers barely appear whereas rich man's child will go to the global schools which compete with the best in the world. Right here the destinies of children get cast. Later, if one scurvies through the primary phase, one is pushed into markets for tuition and coaching classes and special tutoring centres like Kota to enter the premium institutions, the cost of which is just beyond the means of majority of Indians who are supposed to be living off Rs 20 a day. The entire game is informed by neloliberal logic. The government reckons its responsibility to provide primary education, just to ensure no one falls out of the market net, but distances itself from higher education saying it is not a public good. This 50 billion dollar market is already agreed to be exploited by global capital through WTO. The results daily unfold before us with amazing rapidity in the form of mushrooming education malls and superstores called universities and institutions. While there is quantitative expansion for the rulers to flaunt their achievement and fool people, qualitatively it is touching the nadir. Barely four universities of India come within first 500 universities in the world. Survey after surveys being conducted by Pratham like institutions reveal that there is no learning in schools.


All India Forum for Right to Education (AIFRTE) was formed by progressive educationists, activists and organisations working among masses to oppose this ruinous development. Tens of hundreds of organizations working among people, thousands of activists and intellectuals have joined it or lent their support. In a country of 1.2 billion people and cacophony of Modi their voice is still not heard. We demand universal, free, compulsory and equal quality education through neighbourhood schools to all from Kindergarten to post-graduation (KG to PG) classes. The all-time alibi of lack of resources by the government right from the colonial regime is not valid. Education has to constitute the topmost priority, the raison de etre of any government, and no amount of excuse can change it. The country that flaunts 1.8 trillion dollar economy and can hand out 6 lakh crores of rupees to the corporate honchos with impunity cannot say it does not have resources for education.  


As a member of presidium of AIFRTE I wish to invite you to join this struggle.



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