Quantcast
Channel: My story Troubled Galaxy Destroyed dreams
Viewing all 6050 articles
Browse latest View live

ভাষা পরে, জাতি আগে। ভেবে পুলকিত হই। আর কী হবার থাকে?

$
0
0
Sushanta Kar


এটা বেশ জমেছে অসমিয়া বাঙালি হিন্দুর একাংশ শঙ্কিত আসাম না কাশ্মীর হয়ে যায়। আর অসমিয়া হিন্দু-মুসলমানের আতঙ্ক অসম না ত্রিপুরা হয়ে যায়। দুটোর মধ্যে যে তফাৎ কোথায়, বহু ভেবেচিন্তেও পেলাম না। দুটোরই উৎস ব্যাপক পরজাতি বিদ্বেষ। হিন্দুত্ববাদী আশা করেন, সব মুসলমান হিন্দু হয়ে যাবেন। ঘরওয়াপসি তার চরম নজির। না হলেও মুসলমানে দুর্গাপুজো করাকে যেভাবে কেউ কেউ সাম্প্রদায়িক সম্প্রিতীর নজির হিসেবে দেখেন, প্রতিতুলনাতে মুহরমের তাজিয়াতেও বহু হিন্দু যখন যোগ দেন, সেসব খুব গুরত্ব পায় না সেসব 'অসাম্প্রদায়িক' হিন্দুর ভাবনাতে। অন্যদিকে অসমিয়া মাত্রেরই আশা অসমে সবাই অসমিয়া হয়ে যাবেন। যারা নিজেদের উগ্রজাতীয়তাবাদ বিরোধী বলে ভাবেন, তার মধ্যে বড় অংশ নিজেদের শ্রমিক শ্রেণির মার্ক্সবাদী তাত্ত্বিক বলেও ভাবেন, তাদেরও মনে বড় দুঃখ এতোদিন আসামে থেকেও বাঙালি হিন্দু অসমিয়া হলেন না। মুসলমানের এক অংশ কেমন তরতরিয়ে হয়ে গেছেন। অমলেন্দু গুহের মতো ব্যক্তিত্বের অসমিয়া চর্চা তাই যত সম্নান পায়, হোমেন বরগোঁহাই, বা নিরূপমা বরগোঁহাইর বাংলা চর্চা সেরকম মর্যাদা পায় না। মানে দাঁড়াল এই যে আসামে থাকলে আপনি হয় হিন্দুত্ববাদী হোন, অথবা অসমিয়া। মুসললমানত্ব নিয়ে দাঁড়ালে বহু বাঙালি হিন্দুও ক্ষেপে যাবেন, সেই বাঙালি হিন্দু--যার বাঙালিয়ানাকে সে নিজেও মনে করে ডাস্টবিনে ফেলে দেবার জিনিস। এ ব্যাপারে বরাক ব্রহ্মপুত্রের বাঙালির বিশেষ ইতর বিশেষ নেই। বরাক উপত্যকাতে ১৯ মে এলে শহুরে মধ্যবিত্তেরা কিছু ঢোল পিটিয়ে ১১ শহীদের পুজো টুজো করেন। হিন্দু-মুসলিম ভাই ভাই বলেন। সেসব শহুরে হুজুগে পনা। কেউ কেউ কাগজে এই নিয়ে নিবন্ধ লিখে বাহবা কুড়ান। মনে মনে সবাই জানেন, অসমে থাকতে হলে 'হিন্দুত্বই সেরা পথ'। সেদিন তাই এক কংগ্রেসী নেতাও বলেই ফেললেন, ভাষা পরে, জাতি আগে। ভেবে পুলকিত হই। আর কী হবার থাকে?


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख असली खलनायक हैं रामगोपाल !

$
0
0

Recent Posts


हस्तक्षेप के संचालन में छोटी राशि से सहयोग दें


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

বিশিষ্ট গান্ধীবাদী স্বাধীনতা সংগ্রামী পদ্মভূষণ ও আনন্দ পুরস্কারপ্রাপ্ত লেখক কেন্দ্রীয় খাদি বোর্ডের অধিকর্তা শৈলেশকুমার বন্দ্যোপাধ্যায় আজ সকাল সাড়ে 6 টায় প্রয়াত হয়েছেন ।

$
0
0
Emanul Haque

বিশিষ্ট গান্ধীবাদী স্বাধীনতা সংগ্রামী পদ্মভূষণ ও আনন্দ পুরস্কারপ্রাপ্ত লেখক কেন্দ্রীয় খাদি বোর্ডের অধিকর্তা শৈলেশকুমার বন্দ্যোপাধ্যায় আজ সকাল সাড়ে 6 টায় প্রয়াত হয়েছেন ।
বেলা 1.30 টার সময় তাঁর দেহ নীলরতন সরকার হাসপাতালের অ্যানাটোমি বিভাগে দান করা হয়.।

মৃত্যু কালে তাঁর বয়স হয়েছিল 90।
জন্ম 10 মার্চ 1926 বিহারের সিংভূমে।
1942 ভারত ছাড়ো আন্দোলনে যোগ দিয়ে জেলে যান। গান্ধীর শিষ্য । সর্বোদয় ভূদান আন্দোলনে সক্রিয় ভূমিকা নেন।
40 গ্রন্থের লেখক ।।
গান্ধী পিস ফাউন্ডেশনের প্রথম সম্পাদক ।।
হেরিটেজ কমিশনের প্রথম চেয়ারম্যান ।
পেয়েছেন আনন্দ পুরস্কার ।
জিন্না: পাকিস্তান,দাঙ্গার ইতিহাস তাঁর অন্যতম প্রধান গ্রন্থ ।।
তাঁর দুই কন্যা ও এক পুত্র বর্তমান।
ভাষা ও চেতনা সমিতির পক্ষে তাঁর মৃত্যুতে শ্রদ্ধা জানান হয়।।
দেহ নিয়ে যাওয়া হয় নীলরতন হাসপাতালে। ।


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

সত্যি সেলুকাস্ কি বিচিত্র এদেশ ভারতবর্ষ!

$
0
0
দক্ষিনেশ্বর কালীমন্দির নির্মান করেছিলেন রানীরাসমনি ১৮৫৫ সালে।একটু পয়সার মুখ দেখলেই সকল মানুষের বিশেষ করে দলিত মানুষের মন্দির গড়ার মানসিকতা তৈরি হয়ে যায়।এতে পাপ মুক্তি- পূণ্যত্ব প্রাপ্তি এবং নাম- যশের ভাগি হওয়া যায়।আবার ওদিকে ভাত ছড়ালে যেমন কাকের অভাব হয়না তেমনি মন্দির হলেও পূজারির অভাব হয়না।অথচ যেদিন মন্দিরের জন্য জমি খুঁজছিলেন তখন কোন হিন্দুরাই গঙ্গাপারে জমি বিক্রি করতে রাজি হয়নি শুদ্রানির কাছে সেই জমি অবশেষে পেলেন কিছুটা ফিরিঙ্গিদের কবর স্থান আর বাকিটা মুষলমানদের কবর স্থান।বেগতিক বুঝে কিছু ব্রাহ্মণ বলতে শুরু করল শশ্মানের উপর কচ্ছপের পিঠের মত উচুঁ জায়গাইতো কালিসাধনার উপযুক্ত স্থান।একথা শুনে দিগুন উৎসাহে কালি-মন্দির নির্মান হল কিন্তু পূজারি পাওয়ায় বাধাঁ ঘটল।বীর রমনী রানীরাসমনি যিনি ইংরেজদের সঙ্গে যুদ্ধ করে জেলেদের গঙ্গা বক্ষে মাছধরার অধিকার ফিরিয়ে আনলেন যিনি বাবুঘাট, নিমতলাঘাট তৈরি করলেন তিনি পুরহিত খুঁজে পাচ্ছেননা কারন জেলে শুদ্রনীর মন্দিরে পূজা করতে রাজি কেউ রাজি নয়।ওদিকে কামার পুকুরের রামকুমার গরীব পিতৃহীন পূজারি ব্রাহ্মণ তার ছোট ভাইএর ভবিষ্যত নিয়ে চিন্তিত মুখ দিয়ে লালা গড়ায় মাঝে মাঝে ফিট্পড়ে গ্রামের কেউ পূজা করতে ডাকেনা।সুতরাং তিনি রাসমনির আর্জি নিয়ে ছুটলেন নবদ্বীপ সেখানে গিয়ে ন্যায়লংঙ্কার তর্কলংঙ্কার সব লংঙ্কারদের অলংঙ্কার নিয়ে হাজির রাসমনির দ্বারে। এসে বললেন পূজারিদের স্বত্ত্ব দান করলে কোন দোষ থাকবেনা।ব্যাস্ গদাই এর চাকরি পাকা সঙ্গে অনেক পুরোহিতের জীবিকার পথ পরিস্কার।
অথচ এইতো কদিন আগে বিড়ার অসুর স্মরণ সভায় বাঁধা দলিতের জন্য দলিতেরাই তারা একবার ভেবে দেখলনা আমার জাতির লোক যখন বলছে তখন সহযোগিতা না করি একবার এর সত্যতা বা উপযোগীতা যাচাই করে দেখি।
এব্যাপারে উচ্চবর্ণ সমাজ একদম সোচ্চার নিজেদের স্বার্থে।যখন তখন নিয়ম তৈরি করে।
সত্যি সেলুকাস্ কি বিচিত্র এদেশ ভারতবর্ষ!
Image may contain: tree, plant, sky, outdoor and water

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

সময় এসেছে। ভিক্ষা বৃত্তি ছাড়ুন। বাংলার নিপিড়িত শোষিত বঞ্চিত বহুজনের স্বার্থে একত্রিত হোন। রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়নের মধ্য দিয়েই যোগ্য জবাব দিন এই যুগান্তের ষড়যন্ত্রকারীদের।

Next: शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तक
$
0
0

মোদিভাইয়ের আনা নাগরিকত্ব সংশোধনী বিল একেবারে বাতিল করার দাবী তুললেন দিদিভাই। দুর্দান্ত সাজানো নাটকের প্লট। শ্যামাপ্রসাদ থেকে শ্যামাঙ্গিনী মমতা নিখুঁত অভিনেতা অভিনেত্রী। দিদিভাই মোদিভাইরা জেনে গেছেন যে তাদের পূর্বপুরুষেরা ভারতকে টুকরো করে বাংলাকে টুকরো করে উদ্বাস্তুদের শিরদাঁড়া ভেঙ্গে দিয়েছেন। এখন তাদের মাথা নিচু করে থাকা ছাড়া উপায় নাই। ২০১৪ সাল পর্যন্ত আগত উদ্বাস্তুদের পক্ষে নাগরিকত্ব বিলকে সংশোধন করে আইনে পরিণত করলে এই ক্লীব শিরদাঁড়ায় আবার হাড় গজাতে শুরু করবে। ঘাড় শক্ত হবে। ঝুঁকে পড়া মাথা খাঁড়া হয়ে দাঁড়াবে। মূলনিবাসীর এই খাঁড়া মাথা ব্রাহ্মন্যবাদীদের কাছে বড় বেমানান। বড় বেশি আতঙ্কের। 
বিজেপি যে বিল এনেছেন তাতে অসংখ্য ছিদ্র। এমন একটি ইস্যুতে এত ছিদ্র? খসড়া বিল আনার আগে সর্বদলীয় বৈঠকে এই ছিদ্র এড়ানো যেত। আসলে আন্তরিকতা নয় রাজনৈতিক ফয়দা তোলাই এদের লক্ষ্য। মানুষকে ছিন্নমূল করে রাখতে পারলেই এরা নিশ্চিন্ত থাকতে পারে। 
সমাধান একটাই, বহুজনের রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়ন। একটি বিদ্যালয়ের জন্য আন্দোলন, বিডিও অফিস ঘেরাও, ডেপুটেশন, একটি পরিষদ ইত্যাদি ইত্যাদি আসলে আবেদন-নিবেদন এবং ভিক্ষা বৃত্তির সামিল। সংখ্যা গরিষ্ঠ কেন এই ভিক্ষা বৃত্তিতে সামিল হবে? কেন তারা রাজনৈতিক ভাবে নিজেদের অধিকার প্রতিষ্ঠিত করবেন না !! আবেদন নিবেদনে ব্যক্তি মানুষের কিছু গতি হলেও সামগ্রিক স্বার্থ রক্ষা হয় না।

সময় এসেছে। ভিক্ষা বৃত্তি ছাড়ুন। বাংলার নিপিড়িত শোষিত বঞ্চিত বহুজনের স্বার্থে একত্রিত হোন। রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়নের মধ্য দিয়েই যোগ্য জবাব দিন এই যুগান্তের ষড়যন্ত্রকারীদের।

Saradindu Uddipan and 3 others shared a link.
কংগ্রেস সহ অন্যান্য ধর্মনিরপেক্ষ দলগুলির সঙ্গে সমন্বয় করে তৃণমূল যে এ বার সংসদে মোদী সরকারকে কোণঠাসা করতে চাইছে তার ইঙ্গিত দু'দিন আগেই দিয়েছিলেন তৃণমূল নেত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।
ANANDABAZAR.COM|BY নিজস্ব সংবাদদাতা

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तक

$
0
0

शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज

शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तकनीकी मुद्दों के तहत मुसलमान वोट बैंक को साध लेने की होड़ में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता का मामला तो लटक ही गया है और इससे असम और बंगाल में कश्मीर से भी भयंकर हालात पैदा हो रहे हैं।पहले शरणार्थी वामदलों के साथ थे।मरीचझांपी नरसंहार के बाद परिवर्तन काल में शरणार्थी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हो गये और शरणार्थियों में देशबर में कहीं भी वामदलों का समर्थन नहीं है।धर्मनिरपेक्ष राजनीति के इस विधेयक के तकनीकी विरोध के साथ शरणार्थी अब पूरे देश में संघ परिवार के खेमे में चले जायेंगे।बंगाल में 2021 में संघ परिवार के राजकाज की तैयारी जोरों पर है।

पलाश विश्वास

Refugees from East Bengal के लिए चित्र परिणाम

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि हम भारत ही नहीं,दुनियाभर के शरणार्थियों के हकहकू के लिए लामबंद हैं।

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि हम विभाजनपीड़ित शरणार्थियों की नागरिकता के लिए जारी देशव्यापी आंदोलन के साथ है।

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि विभाजनपीड़ितों की नागरकता के मसले को लेकर धार्मिक ध्रूवीकरण की दंगाई राजनीति का हम पुरजोर विरोध करते हैं।विभाजनपीड़ितों की पहचान अस्मिताओं या धर्म का मसला नहीं है।यह विशुद्ध तौर पर कानूनी और प्रशासनिक मामला है,जिसे जबर्दस्ती धार्मिक मसला बना दिया गया है और पूरी राजनीति इस धतकरम में शामिल है,जो विभाजनपीड़ितों के खिलाफ है।

कुछ दिनों पहले मैंने लिखा था कि इतने भयंकर हालात हैं कि अमन चैन के लिहाज से उनका खुलासा करना भी संभव नही है।पूरे बंगाल में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रूवीकरण होने लगा है,वह गुजरात से कम खतरनाक नहीं है तो असम में भी गैरअसमिया तमाम समुदाओं के लिए जान माल का भारी खतरा पैदा हो गया है। गुजरात अब शांत है।लेकिन बंगाल और असम में भारी उथल पुथल होने लगा है।मैंने लिखा था कि असम और बंगाल में हालात कश्मीर से ज्यादा संगीन है।

पहले मैं इस संवेदनशील मुद्दे पर चुप रहना बेहतर समझ रहा था लेकिन हालात असम में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के खिलाफ अल्फाई आंदोलन  और बंगाल में भी धार्मिक ध्रूवीकरण की वजह से बेहद तेजी से बेलगाम होते जा रहे हैं,इसलिए अंततः इस तरफ आपका ध्यान खींचना अनिवार्य हो गया है।

नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर यह ध्रूवीकरण बेहद ते ज हो गया है।हम शुरु से शरणार्थियों के साथ हैं।यह समस्या 2003 के नागरिकता संशोधन विधयक से पैदा हुई है,जो सर्वदलीय सहमति से संसद में पास हुआ।

जन्मजात नागरिकता का प्रावधान खत्म होने से जो पेजदगिया पैंदा हो गयी हैं,उन्हें उस कानून में किसी भी तरह का संशोधन से खत्म करना नामुमकिन है।

1955 के नागरिकता कानून के तहत शरणार्थियों को जो नागरिकता का अधिकार दिया गया था,उसे छीन लेने की वजह से यह समस्या है।

यह कानून भाजपा ने पास कराया था,जिसका समर्थन बाकी दलों ने किया था।बाद में 2005 में डा. मनमोहनसिह की कांग्रेस सरकार ने इस कानून को संसोधित कर लागू कर दिया।गौरतलब है कि मनमोहन सिह और जनरल शंकर राय चौधरी ने ही 2003 के नागरिकता संशोधन विधेयक में शरणार्थियों को नागरिकता का प्रावधान रखने का सुझाव दिया था,लेकिन जब उनकी सरकार ने उस कानून को संशोधित करके लागू किया तो वे शरणार्थियों की नागरिकता का मुद्दा सिरे से भूल गये।

अब वही भाजपा सत्ता में है और वह अपने बनाये उसी कानून में संसोधन करके मुसलमानों को चोड़कर तमाम शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन 2016 विधेयक पास कराने की कोशिश में है और उसे शरणार्थी संगठनों का समर्थन हासिल है।लेकिन भाजपा को छोड़कर किोई राजनीतिक दल इस विधेयक के पक्ष में नहीं है।दूसरी ओर,शरणार्थियों की नागरिकता के बजाय संघ परिवार मुसलमानों को नागरिकता के अधिकार से वंचित करने की तैयारी में है।जबकि तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों के साथ असम की सरकार के इस विधेयक को समर्थन के बावजूद असम के तमाम राजनीतिक दल और अल्फा,आसु जैसे संगठन इसके प्रबल विरोध में हैं।आसु ने असम में इसके खिलाफ आंदोलन तेज कर दिया है।असम में गैर असमिया समुदायोेें के खिलाफ कभी भी फिर दंगे भड़क सकते हैं।भयंकर दंगे।

राजनीतिक दल इस कानून के तहत मुसलमानों को भी नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं जिसके लिए संघ परिवार या एसम के राजनीतिक दल या संगठन तैयार नहीं हैं।असम में तो किसी भी गैरअसमिया के नागरिक और मानवाधिकार को मानने के लिए अल्फा और आसु तैयार नहीं है,भाजपा की सरकार में राजकाज उन्हीं का है।

वामपंथी दलों के साथ तृणमूल कांग्रेस इस विधेयक का शुरु से विरोध करती रही है।अब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और पश्चिम बंगालसरकार इस विधेयक का आधिकारिक विरोध करते हुए उसे वापस लेने की मांग कर रही है।

शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तकनीकी मुद्दों के तहत मुसलमान वोट बैंक को साध लेने की होड़ में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता का मामला तो लटक ही गया है और इससे असम और बंगाल में कश्मीर से भी भयंकर हालात पैदा हो रहे हैं।पहले शरणार्थी वामदलों के साथ थे।मरीचझांपी नरसंहार के बाद परिवर्तन काल में शरणार्थी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हो गये और शरणार्थियों में देशबर में कहीं भी वामदलों का समर्थन नहीं है।धर्मनिरपेक्ष राजनीति के इस विधेयक के तकनीकी विरोध के साथ शरणार्थी अब पूरे देश में संघ परिवार के खेमे में चले जायेंगे।बंगाल में 2021 में संघ परिवार के राजकाज की तैयारी जोरों पर है।

गौरतलब है कि दंडकारण्य और बाकी भारत से विभाजनपीड़ितों को बंगाल बुलाकर उनके वोटबैंक के सहारे कांग्रेस को बंगाल में सत्ता से बेदखल करने का आंदोलन कामरेड ज्योति बसु और राम चटर्जी के नेतृत्व में वामदलों ने शुरु किया था।मध्यबारत के पांच बड़े शरणार्थी शिविरों को  उन्होंने इस आंदोलन का आधार बनाया था।शरणार्थियों के मामले में बंगल की वामपंथी भूमिका से पहले ही मोहभंग हो जाने की वजह से शरणार्थियों के नेता पुलिनबाबू ने तब इस आंदोलन का पुरजोर विरोध किया था,जिस वजह से वाम असर में सिर्फ दंडकारण्य के शरणार्थी ही वाम आवाहन पर सुंदरवन के मरीचझांपी पहुंचे तब तक कांग्रेस को वोटबैंक तोड़कर मुसलमानों के समर्थन से ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री बन चुके थे और वामदलों के लिए शरणार्थी वोट बैंक की जरुरत खत्म हो चुकी थी।जनवरी 1979 में इसीलिए मरीचझांपी नरसंहार हो गया और बंगाल और बाकी देश में वामपंथियों के खिलाफ हो गये तमाम शरणार्थी।

बहुत संभव है कि लोकसभा में भारी बहुमत और राज्यसभा में जोड़ तोड़ के दम पर संघ परिवार यह कानून पास करा लें लेकिन 1955 के नागरिकता कानून को बहाल किये बिना संशोधनों के साथ 2003 के कानून को लागू करने में कानूनी अड़चनें भी कम नहीं होंगी और इस नये कानून से नागरिकता का मामला सुलझने वाला नहीं है।शरणार्थी समस्या सुलझने के आसार नहीं है लेकिन इस प्रस्तावित नागरिकता संशोधन के विरोध और विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के साथ मुसलमान वोट बैंक की राजनीति जुड़ जाने से जो धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज हो गया है,उससे बंगाल और असम में पंजाब,गुजरात और कश्मीर से भयानत नतीजे होने का अंदेशा है।

जहां तक हमारा निजी मत है,हम 2003 के नागरिकता संशोदन कानून को सिरे से रद्द करके 1955 के नागरिकता कानून को बहाल करने की मांग करते रहे हैं।1955 के कानून को लेकर कोई विरोध नही रहा है।इसीके मद्देनजर हमने अभी तक इस मुद्दे परकुछ लिखा नहीं है और न ही संसदीय समिति को अपना पक्ष बताया है क्योंकि संसदीय समिति में शामिल सदस्यअपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं और सुनवाई सिर्फ इस विधेयक को लेकर राजनीतिक समीकरण साधने का बहाना है।

वे हमारे अपने लोग हैं जिनके लिए मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू ने तजिंदगी सीमाओं के आर पार सर्वहारा बहुजनों को अंबेडकरी मिशन के तहत एकताबद्ध करने की कोशिश में दौड़ते रहे हैं। जब बंगाल में कम्युनिस्ट नेता बंगाल से बाहर शरणार्थियों के पुनर्वास का पुरजोर विरोध कर रहे थे,तब पुलिनबाबू कम्युनिस्टों के शरणार्थी आंदोलन में बने रहकर शरणार्थियों को बंगाल से बाहर दंडकारण्य या अंडमान में एकसाथ बसाकर उन्हें पूर्वी बंगाल जैसा होमलैंड देने की मांग कर रहे थे।

केवड़ातला महाश्मशान पर इस मांग को लेकर पुलिनबाबू ने आमरण अनशन शुरु किया तो उनका कामरेड ज्योतिबसु समेत तमाम कम्युनिस्ट नेताओं से टकराव हो गया।उन्हें ओड़ीशा उनके साथियों के सात भेज दिया गया लेकिन जब उनका आंदोलन वहां भी जारी रहा तो उन्हें नैनीताल की तराई के जंगल में भेज दिया गया।वहां भी कम्युनिस्ट नेता की हैसियत से उन्होंने ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृत्व किया।आंदोलन के सैन्य दमन के बाद तेलंगना के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उस आंदोलन से नाता तोड़ दिया।फिर उन्होंने कम्युनिस्टों पर कभी भरोसा नहीं किया।

वैचारिक वाद विवाद में बिना उलझे पुलिनबाबू हर हाल में शरणार्थियों की नागरिकता,उनके आरक्षण और उनके मातृभाषी के अधिकार के लिए लड़ते रहे।1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी वे ढाका में शरणार्थी समस्या के स्थाई हल के लिए पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के एकीकरण की मांग करते हुए जेल गये।

1971 के बाद वीरेंद्र विश्वास ने भी पद्मा नदी के इस पार बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए होम लैंड आंदोलन शुरु किया था।मरीचझापी आंदोलन में भी वे नरसंहार के शिकार शरणार्थियों के साथ खड़े थे।

तबसे आजतक विभाजनपीड़ित बंगाली शरणाऱ्थियों की नागरिकता,आरक्षण और मातृभाषा के अधिकार को लेकर आंदोलन जारी है लेकिन किसी भी स्तर पर इसकी सुनवाई नहीं हो रही है।सीमापार से लगातार जारी शरणार्थी सैलाब की वजह से दिनोंदिन यह समस्या जटिल होती रही है।भारत सरकार ने बांग्लादेश में अल्पसंक्यक उत्पीड़न रोकने के लिए कोई पहल 1947 से अब तक नही की है।2003 के कानून के बाद सन1947 के विभाजन के तुरंत बाद भारत आ चुके विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीन जाने से यह समस्या बेहद जटिल हो गयी है।1971 से हिंदुओं के साथ बड़े पैमाने पर असम,त्रिपुरा,बिहार और बंगाल में जो बांग्लादेशी मुसलमान आ गये,उसके खिलाफ असम औरत्रिपुरा में हुए खून खराबे के बावजूद इस समस्या को सुलझाने के बजाय राजीतिक दल अपना अपना वोटबैंक मजबूत करने के मकसद से राजनीति करते रहे,शरणार्थी समस्या सुलझाने की कोशिश ही नहीं हुई।

1960 के दशक में बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ असम में हुए दंगो के बाद से लगातार पुलिन बाबू शरणार्थियों की नागरिकता की मांग करते रहे लेकिन वे शरणार्थियों का कोई राष्ट्रव्यापी संगठन बना नहीं सके।वे 1960 में असम के दंगाग्रस्त इलाकों में शरणार्तियों के साथ थे।अस्सी के दशक में भी बिना बंगाल के समर्थन के विदेशी हटाओ के बहाने असम से गैर असमिया समुदायों को खदेडने के खिलाफ वे शरणार्थियों की नागरिकता के सवाल को मुख्य मुद्दा मानते रहे हैं।

शरणार्थी समस्या सुलझाने के मकसद से अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर वे 1969 में भारतीय जनसंघ में शामिल भी हुए तो सालभर में उन्हें मालूम हो गया कि संघियों की कोई दिलचस्पी शरणार्थियों को नागरिकता देने में नहीं है।

हमें अनुभवों से अच्छीतरह मालूम है कि शरणार्थियों को बलि का बकरा बनाने की राजनीति की क्या दशा और दिशा है।लेकिन राजनीति यही रही तो हम शरणार्थी आंदोलन के केसरियाकरण को रोकने की स्थिति में कतई नही हैं।जो अंततः बंगाल में केसरियाकरण का एजंडा भी कामयाब बना सकता है।वामपंथी इसे रोक नही सकते।

बाकी राजनीतिक दलों के विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के किलाफऱ लामबंद हो जाने के बाद असम और बंगाल में ही नहीं बाकी देश में भी इस मुद्दे पर धार्मिक ध्रूवीकरण का सिलसिला तेज होने का अंदेशा है।

कानूनी और तकनीकी मुद्दों को सुलझाकर तुरंत विभाजनपीड़ितों की नागरिकता देने की सर्वदलीय पहल हो तो यह धार्मिक ध्रूवीकरण रोका जा सकता है।

The Citizenship (Amendment) Bill, 2016

Security / Law / Strategic affairs

The Citizenship (Amendment) Bill, 2016

Highlights of the Bill

  • The Bill amends the Citizenship Act, 1955 to make illegal migrants who are Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians from Afghanistan, Bangladesh and Pakistan, eligible for citizenship.

  • Under the Act, one of the requirements for citizenship by naturalisation is that the applicant must have resided in India during the last 12 months, and for 11 of the previous 14 years.  The Bill relaxes this 11 year requirement to six years for persons belonging to the same six religions and three countries.

  • The Bill provides that the registration of Overseas Citizen of India (OCI) cardholders may be cancelled if they violate any law.

Key Issues and Analysis

  • The Bill makes illegal migrants eligible for citizenship on the basis of religion. This may violate Article 14 of the Constitution which guarantees right to equality.

  • The Bill allows cancellation of OCI registration for violation of any law. This is a wide ground that may cover a range of violations, including minor offences (eg. parking in a no parking zone).

Read the complete analysis here

http://www.prsindia.org/billtrack/the-citizenship-amendment-bill-2016-4348/



--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार पलाश विश्वास

Previous: शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तक

नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार पलाश विश्वास

$
0
0

नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार

https://www.youtube.com/watch?v=8S53ESH-JWE

पलाश विश्वास

इजराइल की तरह सर्जिकल स्ट्राइक के लिए चित्र परिणाम

भारत अमेरिका भले बन नहीं पाया हो,अमिरीकी उपनिवेश मुकम्मल बन गया है।विडंबना यह है कि वह अमेरिका अब गहरे संकट में है और डालर से नत्थी भारतीय अर्थव्यवस्था का अंजाम क्या होगा,अगर अमेरिका की पहल पर तृतीय विश्वयुद्ध शुरु हो गया,इस पर हमने सोचा नहीं है।अमेरिका इजराइल के शिकंजे में है।ट्रंप और हिलेरी दोनों इजराइल के उम्मीदवार हैं और जो भी जीते,जीत इजराइल की है और हार अमेरिकी गणतंत्र की है।जीत रंगभेद की है।नतीजा महान अमेरिका का पतन है।इजराइल की तैयारी नई विश्व व्यवस्था बनाने की है और संघ परिवार उसका सच्चा साझेदार है।इसके नतीजे क्या क्या हो सकते हैं,इस पर अभी से सोच लीजिये।

मसलन अभी टाटा संस का जो संकट है,वह अध्ययन और शोध का मामला है। टाटा मोटर्स का कारोबार इस मुक्त बाजार में जैसा बेड़ा गर्क हुआ कि नैनो झटके से टाटा का अंदर महल जिस तरह बेपर्दा हो गया है,उससे साफ जाहिर है कि चुनिंदा एकाध कंपनियों की दलाली का कारोबार भले मुक्तबाजार में आसमान की बुलंदियां छू लें, बाकी सभी भारतीय घरानों, कंपनियों, मंझौले और छोटे उद्योगों और व्यवसाइयों का बंटाधार है।खुदरा बाजार तो अब सिरे से बेदखल है और उत्पादन प्रणाली ठप है।

ग्लोबल कंपनियों को खुला बाजार के बहाने भारत में कारोबार का न्यौता देने से भारतीय बाजार से बेदखल होने लगी है देशी कंपनियां।सेक्टर दर सेक्टर यही हाल है।टाटा का किस्सा टाटा समूह का निजी संकट नहीं है।इस संकट के मायने बुहत गहरे हैं।घाव किसी एक को लगा है,यह समझकर बाकी लोग अपना ही जख्म चाटने लगे हैं।

सेवा क्षेत्र के दम पर अर्थव्यवस्था को फर्जी आंकड़ों और तथ्यों के सहारे पटरी पर रखना बेहद मुश्किल है।

टाटा के संकट से उद्योग और कारोबार जगत को खतरे की घंटी सुनायी नहीं पड़ी तो आगे चाहे ट्रंप जीते या फिर मैडम हिलेरी तृतीय विश्व युद्ध हो गया और डालर खतरे में हुआ तो कयामत ही आने वाली है।

इस बीच भारत के प्रधानमंत्री ने परंपरागत भारतीय विदेशनीति और राजनय को तिलांजलि देखकर एक तीर से दो निशाने साधन का करतब जो किया है,वह भी कम हैरत अंगेज नहीं है।इसे उनकी मंकी बात समझ लेना ऐतिहासिक भूल होगी।तेलअबीब और नागपुर के मुख्यालयों में नाभिनाल का संबंध है।अमेरिकी चुनाव में दोनों मुख्य उम्मीदवार ट्रंप और हिलेरी के पीछे तेल अबीब है।तेलअबीब के दोनों हाथों में लड्डू है।उस लड़्डू के हिस्से की दावेदारी का यह नजारा है,ऐसा समझना भी गलत होगा।

अब कोई गधा भी इतना नासमझ नहीं होगा कि इजराइल के सर्जिकल हमलों का असल मतलब क्या है।इजराइल कहां हमला करता है और किनकेखिलाफ हमला करता है।एक झटके से फलीस्तीन पर दशकों से होरहे हमलों को भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने जायज बता दिया है,जिसे भारत हमेशा नाजायज बताता रहा है।भारत की गुटनिरपेक्ष राजनय का मुख्य फोकस फलस्तीन को बारत का समर्थन है और फलीस्तीनी जनता पर इजराइली हमलों का विरोध भी है।

भारत की इसी गुट निरपेक्ष राजनय की वजह से  पाकिस्तान खुद को कितना ही इस्लामी साबित करें,अरब देशों में से किसी ने अब तक भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है।पाकिस्तान तो पहले से घिरा हुआ है तो इजराइलके पक्ष में फलीस्तीन की खिलाफत करके अरब देशों को पाकिस्तान के पाले में धकेलने का इस राजनयिक  सर्जिकल स्ट्राइक का आशय बहुत खास है।

जाहिर सी बात है कि खिचड़ी कुछ और ही पक रही है।

तेलअबीब और नागपुर का यह टांका नई विश्व्यवस्था पर काबिज होने की तैयारी है।अमेरिका का अवसान देर सवेर हुआ तो विश्वव्यवस्था भी नई होगी और इस गलतफहमी में न रहे कि रुश को सोवियत संघ है और पुतिन कोई लेनिन।रूस पर भी दक्षिणपंथी नस्लवाद का शिकंजा है।रूस हो या न हो,नई विश्वव्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल और उसका साझेदार संघ परिवार है,जो ग्लोबल हिंदुत्व को नई विश्वव्यवस्था की एकमात्र आस्था बनाने पर आमादा है।

गुजरात नरसंहार के वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि उस मामले में अभियुक्त इतना पाक साफ निकल जायेगा कि वही देश का प्रधानमंत्री होगा।लगभग यही परिदृश्य अमेरिका में है।ट्रंप के हक में गोलबंदी फिर तेलअबीब और नागपुर का हानीमून है।जैसे 2103 में भी मोदी के प्रधानमंत्रित्व का ख्वाब किसी को नही आया,वैसे ही मीडिया और विश्व जनमत को धता बताने वाले घनघोर रंगभेदी ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की आशंका अब भी लोकतांत्रिक ताकतों को नहीं है।

फासिज्म की चाल इसीतरह होती है कि कब मौत की तरह घात लगाकर वह देस काल परिस्थिति पर काबिज हो जाये,उसका अंदाजा कभी नहीं लगता।

जगजाहिर है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्वव्यवस्था पर अमेरिका काबिज है।खाड़ी युद्ध से ही मध्यएशिया का युद्धस्थल हिंद महासागर में स्थांनातरित करने की कवायद शुरु हो चुकी थी।क्योंकि तेल अमेरिका के पास कम नहीं है।फालतू तेल और जलभंडार मध्यएशिया से लूटने की उनकी रणनीति जो है सो है,उनका असल मकसद दक्षिण एशिया के अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं और तेजी से पनप रहे दक्षिण एसिया के उपभोक्ता बाजार उनके खास निसाने पर है।युद्धक अर्थव्यवस्था के लिए यह हथियारों का सबसे बड़ा बाजार भी है।

जेपी के आंदोलन को समर्थन के जरिये राजा रजवाड़ों की स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के विलय से बनी जनता पार्टी के आपातकाल के अवसान के बाद से अबतक दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संग पिरवार समेत तमाम अमेरिका परस्त तत्वों ने भारत को अमेरिका बनाने की कोशिश में इस महादेश को सीमाओं के आर पार अमेरिकी उपनिवेश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

इंदिरा गांधी के अवसान के बाद कांग्रेस पर भी उन्हीं तत्वों का वर्चस्व हो गया है।शुरुआत 1977 की ऐतिहासिक हार के बाद 1980 में सत्ता में इंदिरा की वापसी के बाद इंदिराम्मा और संघ सरसंचालक देवरस की एकात्मता से हुई जिसे सिखों के नरसंहार के जरिये संघ समर्थन से भारी बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचने के बाद 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अयोध्या के विवादित मंदिर मस्जिद धर्मस्थल का ताला खोलकर अंजाम तक पहुंचाया।

फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बहाने वाम और संघ दोनों के समर्थन से बनी वीपी सिंह के राजकाज के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद मंडल के खिलाफ कमंडल हाथों में लेकर जो आरक्षण विरोधी आंदोलन चालू हुआ, उसीके नतीजतन भगवान श्रीराम का रावणवध कार्यक्रम फिर शुरु हो गया।

इसी सिलसिले में भारत में सोवियत संघ के विघटन के बाद वाम राजनीति का हाशिये पर चला जाना भी बहुत प्रासंगिक है।

सोवियत समर्थक वाम राजनीति ने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का साथ दिया तो आपातकाल का अंत होते न होते आपातकाल के तुरंत बाद सत्ता की राजनीति में दक्षिणपंथ वापंथ एकाकार हो गया।सोवियत समर्थक धड़ा हालाकिं 1977 के बाद भी गाय और बछड़े की तरह उस इंदिराम्मा से जुड़ा रहा जो सत्ता में वापसी के लिए गुपचुप संघ परिवार के हिंदुत्व की लाइन पकड़ चुकी थी।बंगाल में सत्तामें भागेदारी की मलाई खाने के लिए सोवियत समर्थक फिर माकपाई मोर्चे में भी शामिल हो गये।

इंदिरा के अवसान के बाद राजीव गांधी के राजकाज के पीछे भाजपा की परवाह किये बिना संघ परिवार का हाथ रहा है।लेकिन वाम राजनीति की कोई दिशा बनी नहीं।तीन राज्यों की सत्ता की राजनीति में उलझकर खत्म होती गयी वामपंथी विचारधारा और पूरा देश दक्षिणपंथी अमेरिकापरस्ती के शिकंजे में फंसता गया।

1989 में मंडल आयोग के बहाने वीपी की सरकार गिराकर फिर बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार के जरिये संघ परिवार का प्रत्यक्ष राजकाज  की बुनियाद बन गयी।डा.मनमोहन सिंह के ऩवउदारवादी अवतार से भारत के मुक्त बाजार बनते जाने के नरसिम्हाकाल और मनमोहक समय के अंतराल में भारतीय राजनीति से वाम का सफाया हो गया तो मुख्ट राजनीति के कांग्रेस केंद्रित और भाजपाकेंद्रित दोनों धड़े अमेरिकापरस्त हो गये।सरकार चाहे जिस किसी की हो,राजकाज वाशिंगटन का जारी रहा है।राजनीति चाहे जो रही हो,आर्थिक नीतियां अमेरिकी हितों के मुताबिक बनती बिगड़ती रही है।संसद में बहुमत हो या नहीं,सारे कायदे कानून सुधार के समाजवादी नारों के साथ अर्थव्यवस्था को बंटाधार करने के लिए सर्वदलीय सहमति से बनते बिगड़ते रहे और राजनीति धार्मिक ध्रूवीकरण की हो गयी।

सत्तर के दशक से जारी धार्मिक ध्रूवीकरण का परिणाम यह अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है जो अंततः मुक्तबाजार का कार्यक्रम है।जिसका भारतीय वामपंथ ने किसी बी स्तर पर कोई विरोध नहीं किया तो अंततः फासिज्म का यह कारोबार निर्विरोध सर्वदलीय सहमति से फलता फूलता रह गया है और नतीजतन राजनीति भी अब कारपोरेट है और ग्रामप्रधान भी अब करोडों में खेलता है।इस पेशेवर राजनीति से विचारधारा या जनप्रतिबतिबद्धता की उम्मीद करने से बेहतर है मर जाना।भारतीय किसान थोक दरों पर खुदकशी करके यही साबित कर रहे हैं।

अब लगता है कि घटना क्रम जिस तेजी से बदलने लगा है और अर्थव्यवस्था का जिस तेजी से बंटाधार होने लगा है,किसानों और आम मर्द औरतों के अलावा उद्योग और कारोबार जगत के वातानुकूलित लोगों के लिए भी आखिरी विकल्प वही है।


इसी सिलसिले में बहुत कास बात यह है कि अब संघ परिवार देश जीतने के बाद दुनिया जीतने के फिराक में है।इसी वजह से नागपुर और तेल अबीब का यह नायाब गठबंधन है तो ट्रंप के समर्थन में ग्लोबल हिंदुत्व की जय जयकार है।


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो! देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के! पलाश विश्वास

$
0
0

हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो!

देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के!

पलाश विश्वास

हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो!

देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के!

औद्योगीकरण के बहाने स्मार्ट भारत के लिए सबसे सीधा रास्ता विनिवेश का है।खेती में मरघट है और किसानों की खुदकशी आम है तो औद्योगिक ढांचा चरमरा रहा है और उत्पादन लगातार गिर रहा है।भारत का बाजार विदेशी कंपनियों के हवाले हैं।जिस चीन के बहिस्कार का नाटक है,सबसे ज्यादा मुनाफे में वे ही चीनी कंपनियां है।जाहिर है कि अच्छे दिन सचमुच आ गये हैं।बहरहाल किनके अच्छे दिन हैं और किनके बुरे दिन,यह समझ पाना टेढ़ी खीर है।अब केंद्र सरकार भी अपने पीएसयू ( पब्लिक सेक्टर यूनिट) के लिए बड़ा सेल लाने पर विचार कर रही है।जाहिर है कि भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों,उनके अधीन राष्ट्र की बेशकीमती संपत्ति और इन कंरपनियों के नियंत्रित प्रबंधित सारे संसाधनों को एकमुश्त निजी कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों के हवाले करने जा रही है।देशभक्ति यही है।

रोजगार सृजन का यह अभूतपूर्व उपक्रम बताया जा रहा है।सरकारी कंपनियों यानी सरकारी क्षेत्रों के बैंकों,जीवन बीमा निगम,भारतीय रेलवे जैसी कंपनियों की जमा पूंजी विनिवेश में लगाकर,यानी इन कंपनियों में लगगी आम जनता और करदाताओं के खून पसीने की कमाई विदेशी और देशी, निजी और कारपोरेट कंपनियों केहित में शेयर बाजार में हिस्सेदारी खरीदने के दांव पर लगाकर सरकारी कंपनियों को ठिकाने लगाने के  इस महोत्सव से व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन का दावा किया जा रहा है।सरकारी कंपनियों को,देशी उत्पादन इकाइयों को छिकाने लगाकर मेहनतकशों और कर्मचारियों के हकहकूक छीनकर कैसे रोजगार का सृजन होगा,खुलासा नहीं है।

विभिन्न मंत्रालयों के सचिवों के साथ नई विश्वव्यवस्था के परिकल्पित कल्कि अवतार ने सिसिलेवार बैटक करके मैजिक शो  के बीच देश की सरकारी कंपनियों के खजाने को खोलकर लोककल्याण और भारत निर्माण का यह विनिवेश किया है।कल्कि महाराज की दलील है कि सरकारी कंपनियां पूंजी पर बैठी हैं,इस पूंजी का निवेश कर दिया जाये तो अच्छे दिन आ जायेंगे और हर युवा हाथ को रोजगार मिलेगा।देश में दूध घी की नदियां बहने लगेंगी।सरकारी कंपनियों की इस पूंजी से सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपर उनमें काम कर रहे मेहनतकशों और कर्मचारियों की रोजी रोटी छीन ली जाये तो देशी विदेशी कंपनियों की दिवाली घनघोर मनेगी,जो उन्हेंने इस देश की सेना को विदेशी कंपनियों के हाथों देश हारने की दीवाली काबतौर समर्पित किया है।

जाहिर है कि दिवाली सेना को समर्पित करके युद्धोन्माद का ईंधन फूल टंकी भर लेने के बाद मां काली की पूजा के तहत अब उसी फर्जी औद्योगीकरण के शहरीकरण अभियान के तहत सरकारी कंपनियां,सरकारी संपत्ति और आम जनता के संसाधन विदेशी हितों की बलि चढ़ाने का कार्यक्रम जारी है।देश को देशभक्त सरकार का यह तोहफा है कि केंद्र सरकार अपनी 22 लिस्टेड और अनलिस्टेड कंपनियों की नियंत्रण हिस्सेदारी बेचने पर विचार कर रही है।

आम जनता के अच्छे दिनों के आयात निर्यात की इस बुलेट परियोजना के तहत दावा यह है कि  इससे सरकार को 56,500 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य (डिसइनवेस्टमेंट टारगेट) हासिल करने में मदद मिलेगी।

फिलहाल विनिवेश की इस ताजा लिस्ट में बड़ी सरकारी कंपनियां जैसे कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, भारत अर्थमूवर्स शामिल हैं। बाकी कंपनियों के कर्मचारी अफसर धीरज रखें,अबकी दफा नहीं तो बहुत जल्द उनका भी काम तमाम है।

इस घोषित लिस्ट के अलावा सरकार स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL)के तीन प्लांट्स और अनलिस्टेड कंपनी सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में भी अपनी हिस्सेदारी बेचने की योजना बनाई है।

गौरतलब है कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में घाटे में चल रहे 74 में से 26 सरकारी पीएसयू को बंद करने की सलाह दी है। वहीं, पांच पीएसयू को लॉन्ग टर्म लीज या मैनेजमेंट कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर देने का सुझाव दिया गया है। तीन सब्सिडियरी फर्म को पैरेंट पीएसयू में मिलाने और दो को जस-का-तस बनाए रखने की सिफारिश की है।

सातवें वेतन आयोग और वन रैंक, वन पेंशन लागू करने से भले ही सरकार के खजाने पर दबाव बढ़ा हो लेकिन कालेधन के खुलासे और स्पेक्ट्रम की नीलामी से मिलने वाली राशि से चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे की भरपाई में बड़ी मदद मिलेगी।इन दोनों स्रोतों के बाद अब सरकार की नजरें विनिवेश पर हैं। पहली छमाही में कर राजस्व संग्रह मिला-जुला रहते देख वित्त मंत्रालय की कोशिश है कि दूसरी छमाही में विनिवेश के माध्यम से राशि जुटाई जाए।

गनीमत है कि विदेशी कंपनियों को इस तरह भारतीय कंपनियों, भारत की संपत्ति और संसाधनों को हासिल करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह को ई पलाशी का युद्ध नहीं लड़ना पड़ रहा है।देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता उन्हें धनतेरस के उपहार की तरह सप्रेम भेंट दिया जा रहा है।आम जनता देश के भीतर विदेशी कंपनी के हाथों देश को बेचे जाते देखकर खामोश रहे,इसके लिए उनका ध्यान भटकाने के लिए युद्ध और गृहयुद्ध का माहौल बनाये रखना जरुरी है ताकि लाखों ईस्टइंडिया कंपनी के हाथों देश का चप्पा चप्पा बेच सकें देशभक्तों की सरकार।

इस कारपोरेट धनतेरस कार्निवाल के लिए डिपार्टमेंट ऑफ इनवेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट (दीपम) ने कैबिनेट नोट जारी किया है। दावा यह है कि सार्वजनिक कंपनियों का कूटनीतिक विनिवेश (स्ट्रैटेजिक डिसइनवेस्टमेंट) होने जा रहा है। इसकी प्रक्रिया शुरू हो गई है।गौरतलब है कि इस लिस्ट में ऐसी कंपनियां भी शामिल हैं, जो मुनाफे में चल रही हैं। वहीं कुछ ऐसी भी हैं, जो मुनाफे में नहीं हैं लेकिन उनके पास काफी संपत्ति है।

संसद के बजट सत्र से पहले ही विनिवेश का यह नील नक्शा तैयार है और हमेशा की तरह संसद को बाईपास करके कैबिनेट ने सरकारी कंपनियों में हिस्सा बेचने से संबंधित विनिवेश प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है और आगे होने वाले विनिवेश की रुपरेखा तय कर दी है,जिसका इस देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधि विरोध करेंगे,इसकी कोई आशंका भी नहीं है।  इस फैसले के तहत 50 पीएसयू में स्ट्रैटेजिक विनिवेश होगा। इस मामले में अब कंपनी दर कंपनी फैसला लिया जाएगा।

गौरतलब है कि इससे पहले नीति आयोग ने मुनाफे में चल रही सरकारी कंपनियों (पीएसयू) में स्ट्रैटेजिक डिसइनवेस्टमेंट के सुझाव वाली रिपोर्ट दी थी। उसी के आधार पर यह योजना बनाई गई है। आयोग ने उन कंपनियों की पहचान की थी, जिन्हें बेचा जा सकता है। वह इस मामले में दीपम के साथ मिलकर काम करेगा। प्लानिंग के तहत सरकार अनलिस्टेड कंपनियों से पूरी तरह बाहर निकल जाएगी। वह पूरी कंपनी निवेशकों को बेच देगी। वहीं, लिस्टेड कंपनियों में केंद्र सरकार अपनी हिस्सेदारी 49 पर्सेंट से कम करेगी। इससे कंपनी पर उसका नियंत्रण खत्म हो जाएगा।

कैबिनेट बैठक में महंगाई भत्ते में 2 फीसदी की बढ़ोतरी को मंजूरी मिल गई है। इसके अलावा कैबिनेट ने कीमतों को काबू में रखने के लिए चीनी पर स्टॉक होल्डिंग लिमिट की मियाद 6 महीने के लिए बढ़ा दी है।रोजगार भले छीनजाये।सर पर चाहे चंटनी की तलवार लटकी रहे।बचे खुचे अफसरों और कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के अलावा इस तरह के तमाम क्रयक्षमता बढ़ाने वाले वियाग्रा की आपूर्ति होती रहेगी,ताकि संगठित सरकारी क्षेत्र में विनिवेश के खिलाप कोई चूं बी न कर सकें।

बहरहाल 1991 के बाद 1916 तक ट्रेड युनियनों के लिए विनिवेश के सौजन्य से सपरिवार विदेश दौरे और दूसरी किस्म की मौज मस्ती की गुंजाइस बहुत कम हो गयी है और कामगार कर्मचारी हितों की लड़ाई और आंदोलन की विचारधारा अब विशुध चूं चूं का मुरब्बा है,जो आयुर्वेद का वैदिकी चमत्कार है।

बहरहाल वित्त मंत्री मशहूरकारपोरेट वकील अरुण जेटली ने गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक के बाद जानकारी देते हुए मीडिया मार्फत कहा है कि  कि किस पीएसयू का रणनीतिक विनिवेश होगा यह तय करने का काम डिपार्टमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट (डीअाईपीएएम) को सौंपा गया है। वही विनिवेश के लिए न्यूनतम मूल्य तय करेगा। उन्होंने बताया कि सरकारी कंपनियों में रणनीतिक हिस्सेदारी की बिक्री के जरिए 20,500 रुपए जुटाने की योजना है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए सरकार विनिवेश में जल्दबाजी में नहीं करेगी।

विनिवेश के इस खेल में आपका बीमा प्रीमियम और उसका भविष्य भी दांव पर है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की जीवन बीमा निगम कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने सरकार द्वारा एनबीसीसी के 2,218 करोड़ रुपये के विनिवेश के तहत 50 प्रतिशत से अधिक शेयरों की खरीद की है। एनबीसीसी की पिछले सप्ताह आयोजित बिक्री पेशकश में भागीदारी के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की निर्माण कंपनी में एलआईसी की हिस्सेदारी बढ़कर 8.11 प्रतिशत हो गई है। एनबीसीसी द्वारा शेयर बाजारों को दी गई जानकारी के अनुसार ओएफएस के दिन उसके नौ करोड़ शेयरों की पेशकश में से 54.08 प्रतिशत या 4.86 करोड़ शेयर खरीदे।

मीडिया के मुताबिक ओएफएस के न्यूनतम मूल्य 246.50 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से एलआईसी ने एनबीसीसी के 4.86 करोड़ शेयरों की खरीद के लिए करीब 1,200 करोड़ रुपये का निवेश किया। सरकार ने संस्थागत और खुदरा निवेशकों को एनबीसीसी की 15 प्रतिशत हिस्सेदारी बिक्री के जरिये 2,218 करोड़ रुपये जुटाए हैं। इस साल अप्रैल से सरकार बिक्री पेशकश के जरिये तीन कंपनियों में विनिवेश से 8,632 करोड़ रुपये जुटा चुकी है। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से 56,500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है।

विनिवेस हर मुश्किल आसान क्यों है,इसकी दलील यह है कि वित्त वर्ष 2016-17 के लिए सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य जीडीपी का 3.5 प्रतिशत रखा है। चालू वित्त वर्ष में रक्षा क्षेत्र में वन रैंक वन पेंशन तथा सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के चलते सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ा है।इसके बावजूद केंद्र ने राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को सहजता से हासिल करने की ओर बढ़ रहा है। सिर्फ सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें ही लागू होने से चालू वित्त वर्ष में सरकार के खजाने पर एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का बोझ पड़ा है।हालांकि सरकार को काले धन की घोषणा होने और स्पेक्ट्रम की नीलामी से अतिरिक्त आय जुटाने में मदद मिली है। घरेलू काले धन के लिए आय घोषणा योजना से सरकार को लगभग 30,000 करोड़ रुपये मिलने का अनुमान है लेकिन चालू वित्त वर्ष में इसमें से मात्र आधी राशि ही आएगी।इसी तरह स्पेक्ट्रम की नीलामी से भी सरकार को 65 हजार करोड़ रुपये से अधिक राजस्व मिलने का अनुमान है लेकिन यह पूरी राशि भी सरकार को इसी साल में नहीं मिलेगी। ऐसे में अब सरकार की नजर विनिवेश पर है।

गौरतलब है कि आम बजट में सरकार ने विनिवेश से 56500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है लेकिन अप्रैल से अगस्त के दौरान पहले पांच महीने में इससे महज 3182 करोड़ रुपये ही जुटाए जा सके हैं जो बजटीय लक्ष्य का मात्र नौ प्रतिशत हैं।


चालू वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों में की प्रगति देखें तो सरकार 533,904 करोड़ रुपये के राजस्व घाटे में से 76.4 प्रतिशत यानी 407,820 करोड़ रुपये का इस्तेमाल हो चुका है। वैसे पहली छमाही में राजस्व प्राप्तियों के संबंध में प्रदर्शन मिला-जुला रहा है।


परोक्ष कर संग्रह के मामले में सरकार का प्रदर्शन ठीक रहा है लेकिन प्रत्यक्ष कर संग्रह पर अर्थव्यवस्था की सुस्ती का असर दिख रहा है। चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से सितंबर के दौरान परोक्ष कर संग्रह 4.08 लाख करोड़ रुपये रहा है जो बजट अनुमानों का 52.5 प्रतिशत है। इसी तरह प्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर भी सरकार ने पहली छमाही में 3.27 लाख करोड़ रुपये का शुद्ध संग्रह किया है जो बजटीय अनुमान का मात्र 38.65 प्रतिशत है।

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में इजराइल, साझेदार संघ परिवार

Next: हिंदू हो या मुसलमान, शरणार्थियों की खैर नहीं। मजहबी दंगाई सियासत के लिए नागरिकता ब्रह्मास्त्र! विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो। सेना को समर्थन का मतलब,अबाध पूंजी के लिए यु�
$
0
0

हस्तक्षेप के संचालन में छोटी राशि से सहयोग दें



Read More

पोस्ट्स नेविगेशन





--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

हिंदू हो या मुसलमान, शरणार्थियों की खैर नहीं। मजहबी दंगाई सियासत के लिए नागरिकता ब्रह्मास्त्र! विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो। सेना को समर्थन का मतलब,अबाध पूंजी के लिए यु�

$
0
0

हिंदू हो या मुसलमान, शरणार्थियों की खैर नहीं।

मजहबी दंगाई सियासत के लिए नागरिकता ब्रह्मास्त्र!

विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों  को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो।

सेना को समर्थन का मतलब,अबाध पूंजी के लिए युद्ध गृहयुद्ध के कारोबार और नागरिकों के कत्लेआम को समर्थन!

पलाश विश्वास

विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो।यह सीधे तौरपर पूर्वी बंगाल के  हिंदू विभाजनपीड़ितों को नागरिकता से वंचित रखने का स्थाई जमींदारी बंदोबस्त है।

हम खुद पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार से हैं,जिनकी नागरिकता,आरकक्षण और मातृभाषा के अधिकार के लिए मेरे पिता आजीवन आखिरी सांस तक लड़ते रहे हैं।हम हर हाल में देश भर में जारी नागरिकता के लिए शरणार्थी आंदोलन के साथ हैं।लेकिन सारी राजनीति शरणार्थियों के खिलाफ है जो शरणार्थियों को शतरंज का मोहरा बनाने के बाद हिंदुत्व की पैदल सेना बनाने पर आमादा है।यह मारे लिए निजी तौर पर बहुत बड़ा संकट है।

हम शरणार्थियों की बिना शर्त नागरिकता देने की मांग करते रहे हैं।जैसे पश्चिम पाकिस्तान के शरणार्थियों को नागरिकता मिली है,वैसे ही।

हम 2003 के नागरिकता संशोधन कानून को सिरे से रद्द करने की मांग इसीलिए करते हैं क्योंकि इसका मकसद मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने और हिंदू बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता का मसला हिंदू मुसलमान विवाद से नत्थी करने का उपक्रम है जिसके तहत न मुसलमानों को नागरिकता मिलनी है और न हिंदू विभाजनपीड़ितों को।

दोनों पक्ष इस साजिश को समझ लें तो बेहतर है।हमारे पुरखे इस साजिस को समझ नही पराये तो हम भारत पाकिस्तान विवाद से निकल नहीं पा रहे हैॆं और इस साजिश के तहत देश के चप्पे चप्पे पर पाकिस्तान बना रहा है दंगाई राजनीति।यह अनवरत युद्ध है।अनंत गृहयुद्ध है।बेलगाम आत्मध्वंस है।खून की नदियां हैं।इस हिसा की कोई सीमा नहीं है।सीमाओं के आर पार लहू का सैलाब है।आइलान की लाशें हैं।आगजनी,हिसां,कत्लेआम और बलात्कार कार्निवाल नतीजे हैं।

2003 के इस काला शैतानी कानून की पेचदगी किसी संशोधन से खत्म नहीं होती है,इसलिए 1955 के नागरिकता कानून को बहाल करके सबसे पहले विभाजन पीड़ितों को नागरिकता देना जरुरी है।1971 के बाद जो लोग आये हैं,उनकी नागरिकता का मसला भी 1955 के कानून के तहत संभव है,उस कानून में संशोधन के जरिये हिंदू मुसलमान विवाद से हिंदू विभाजनपीड़ितों की समस्या सुलझेगी नहीं।

इसके उलट भारत विभाजन का इतिहास हूबहू दोहराया जा रहा है।

बंगाल में दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत हिंजदुस्तान पाकिस्तान बनाने की राजनीति फिर उसी मजहबू सियासत के जरिये नागरिकता के सवाल पर हिंदुओं और मुसलमानों में बंगाल,त्रिपुरा और असम में सीधे टकराव के हालात बना रही है।

इसके विपरीत पश्चिम पाकिस्तान से आये विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के बारे में कोई विवाद नहीं रहा है।उन्हें बिना शर्त नागरिकता दी गयी तो पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता 2003 के कानून के जरिये छिनी क्यों गयी और जब फिर हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का दावा है तब क्यों मुसलमानों को नागरिकता का सवाल बीच में क्यों खड़ा कर दिया जा रहा है।यह चुनावी समीकरण समझना जरुरी है।

जाहिर है कि बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण से पूरे देश का केसरियाकरण और हिंदू राष्ट्र का आरएसएस के एजंडा को पूरा करने की यह सर्वदलीय राजनीति है और महिलाओं को संसद और विधानसभा में आरक्षण हर कीमत पर रोकने की तर्ज पर यह पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता छीन लेने की सर्वदलीय राजनीति है।असम और बंगाल में दंगे हुए तो दूसरे राज्यों से आये इन राज्यों में बसे लोगों को भी इस दंगे की आग से बचाना मुश्किल होगा।जिसका असर देश विदेश में भारी पैमाने पर होना है।राजनीति सिर्फ यूपी जीतने की सोच रही है।बाकी देश दुनिया की उसे कोई परवाह नहीं है और न इंसानियत और न मजहब से उसका कोई नाता है।

आज इंडियन एक्सप्रेस की सबसे बड़ी खबर नागरिकाता संशोधन विधेयक के सिलसिले में हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों में कौन असल दुश्मन है,इसपर असम सरकार के एक खास मंत्री हिमंत विश्व शर्मा का यह जिहादी बेमिसाल बयान है।जो भोपाल में फर्जी मुठभेड़ से ज्यादा खतरनाक है।यहां लाशों की गिनती भी असंभव है।

असम में प्रस्‍तावित नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 का विरोध जारी है। इस विधेयक में बांग्‍लादेश, पाकिस्‍तान और अफगानिस्‍तान से आने वाले अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है।विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने के मुद्दे पर पूर्वोत्तर राज्य असम की राजनीति में उबाल आ गया है। केंद्र की भाजपा सरकार ने जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया था।असम में भी भाजपा की सरकार है।

कृपया गृहयुद्ध के आवाहन की इस युद्ध घोषणा पर गौर करें।भाजपा के नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रैटिक एलाएंस के संयोजक हेमंत विश्व शर्मा ने राज्य के लोगों से कहा है कि अपना दुश्मन चुन लीजिए, या तो 1.5 लाख या 55 लाख लोग।

हेमंत प्रदेश में सरकार में बेहद प्रभावशाली  मंत्री भी हैं। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में शर्मा के इन बयानों को लिखा है। आंकड़ों पर सफाई नहीं दी हालांकि हेमंत ने इन आंकड़ों को धर्म विशेष से नहीं जोड़ा है, लेकिन उन्होंने यहा जवाब उस समय दिया जब वह विपक्ष के असम की नागरिकता विधेयक पर जवाब दे रहे थे।उन्‍होंने बिल का विरोध करने वालों से पूछा कि किस समुदाय ने असमिया लोगों को अल्‍पसंख्‍यक बनाने की धमकी दी है।

नागरिकता (संसोधन) बिल के जरिए पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में जुल्‍म सह रहे हिंदुओं, बौद्धों, जैन, सिख और पारसियों को नागरिकता देने का प्रस्‍ताव है। हिंदू और मुसलमान माइग्रेंट में भेद करने की नीति क्‍या भाजपा की है, इस सवाल शर्मा ने कहा, "हां, हम करते हैं। साफतौर पर हम करते हैं। देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ था। इसलिए यह नई चीज नहीं है। जब हम डिब्रूगढ़ या तिनसुखिया जाते हैं तो हमें अच्‍छा लगता है क्‍योंकि वहां पर बहुसंख्‍या में हैं। लेकिन जब आप धुबड़ी या बारपेटा जाते हैं,तब आपको ऐसा नहीं लगता।

Choose your enemy, Hindu or Muslim migrants: Assam BJP minister Himanta Biswa Sarma

Sarma seemed to be referring to Hindu and Muslim migrants as he was replying to queries on the opposition to the Citizenship (Amendment) Bill in Assam.

TATING THAT it is his party's policy to differentiate between Hindu and Muslim migrants, Assam Minister and convenor of the BJP's North East Democratic Alliance (NEDA) Himanta Biswa Sarma on Tuesday asked the people of the state to choose their enemy — "the 1-1.5 lakh people or the 55 lakh people?"

Although there are no official figures of Hindu or Muslim migrants from Bangladesh in Assam, political groups often claim that the state has about 55 lakh Bangladeshi migrants. The reference to "1-1.5 lakh" people, however, does not match any known figure.

"The whole thing is that we have to decide who our enemy is. Who is our enemy, the 1-1.5 lakh people or the 55 lakh people? The Assamese community is at the crossroads. We could not (save) 11 districts. If we continue to remain this way, six more districts will go out (of our hands) in the 2021 Census. In 2031, more (districts) will go out," said Sarma, pressing for the Bill.

While Sarma referred to "11 districts", the 2011 Census identified nine districts as areas with Muslim majority, up from six in 2001.

साभारः इंडियन एक्सप्रेस

इस सरकारी अल्फाई बयान से असम के अलावा बाकी भारत पर भी अल्फाई राजकाज का असर समझा जा सकता है।सीधे तौर पर मुसलमानों को निशाना बांधकर चांदमारी का मामला कश्मीर घाटी में जो चल रहा है,जैसे यूपी और बाकी भारत में फर्जी मुठभेडो़ं का खेल है,आदिवासियों के खिलाफ सैन्य अभियान है और उसे बहुसंख्य जनता का अंध समर्थन है,ऐसे मुश्किल हालात में करीब दस करोड़ विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीनने की बेशर्म जिहाद का असल मकसद मुसलमानों की चांदमारी है और उन विभाजनपीड़ितों के नागरिक और मानवाधिकार का निषेध है,यह समझना पीड़ितों और शरणार्थियों दोनों के लिए समझना मुश्किल है।

फिलहाल यूपी का कुरुक्षेत्र लड़ने के लिए संघ परिवार का यह जिहाद अनिवार्य है,यह बात तो समझ में आती है।लेकिन वामदलों,तृणमूल कांग्रेस और कांग्राेस की धर्मनिरपेक्षता का अस मकसद क्या है,यह समझ से परे है।

बहरहाल विभाजन के बाद अब भी दुनिया की सबसे बड़ी मुसलमान आबादी भारत में है।कश्मीर में मुसलमानों का बहुमत है और असम,यूपी,बिहार,महाराष्ट्र,बंगाल जैसे अनेक राज्यों में मुसलमानों के समर्थन के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती।

ऐसे हालात में मजहबी सियासत की इस खतरनाक चाल से देश के भीतर असंख्य पाकिस्तान बनाने का यह उपक्रम है।जिसका नजारा असम और बंगाल में साफ साफ दीख रहा है।

भारत में हजरत बल संकट,गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस का खामियाजा बांग्लादेश और दुनियाभर के हिंदुओं को भुगतना पड़ा है।

बांग्लादेश में अब भी दो करोड़ हिंदू हैं,जिनपर लगातार हमले होते जा रहे हैं।हाल में ये हमले बहुत तेज हो गये है।अबी एक फेसबुक पोस्ट को लेकर बांग्लादेश में हिंदुओं पर जगह जगह हमले हो रहे हैं।

असम और बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण की राजनीति का क्या असर होना है,यह समझने वाली बात है जबकि असम में राजकाज अल्फाई है।

दूसरी ओर,बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार विभाजनपीडितों को नागरिकता देने के खिलाफ हैं।मुसलमान वोट बैंक वामदलों से छीनकर वे मुख्यमंत्री बनी हैं।बागाल में दुर्गोत्सव से पहले लगभग हर जिले में हालात दंगाई थे।

अब भी बंगाल के हर जिले में हिंदू मुसलमान टकराव की राजनीति चल रही है और वामदलों को हाशिये पर रखकर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस खुलकर वोटबैंक की यह राजनीति कर रही हैं।वामदलों की राजनीति मुसलमान वोट बैंक छीने की राजनीति है और विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थियों के लिए मरीचझांपी नरसंहार है।

2003 के नागरिकता संशोधन कानून का बंगाल के किसी राजनेता ने विरोध नहीं किया था।उस वक्त वामदलों का शासन था।संसदीय समिति के अध्यक्ष कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी थे।पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों की तब किसी ने परवाह नहीं की।अब मुसलमानों को नागरिकता देने की मांग करते हुए तृणमूल कांग्रेस,कांग्रेस और वामदल नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रही हैं।जाहिर है कि केंद्र और असम सरकार के ताजा बयान का लक्ष्य सिर्फ असम नहीं है।वे बंगाल में और बाकी देश में भी हिंदू विभाजनपीड़ितों के एकमात्र तरणहार खुद को साबित करने लगे हैं।

मुसलमान वोटबैंक हर कीमत पर दखल में रखने की होड़ में शामिल कांग्रेस,तृणमूल कांग्रेस और वामदलों की राजनीति के मुकाबले संघ परिवार का यह तुरुप का पत्ता है ,जिसके तहत सीधे मुसलमानों को दुश्मन करार दिया जा रहा है।जबकि बंगाल का कोई रोजनीतिक दल विभाजनपीड़ित हिंदू शरणार्थियों के पक्ष में नहीं है।हिंदुओं का पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में ध्रूवीकरण का यह संघ परिवार का अभूतपूर्व मौका है।जिसे बाकी दल जानबूझकर अंजाम तक पहुंचा रहे हैं।

बांग्लादेश में बंगाल और असम और बाकी भारत में मुसलमानविरोधी इस मजहबी सियासत का वहां के दो करोड़ हिंदुओं पर क्या असर होगा या लगातार हमलों की वजह से वे बांग्लादेस में रह सकेंगे या नहीं,इसे लेकर किसी राजनीतिक पक्ष को कोई सरदर्द नहीं है और उनकी मजहबी सियासत का अंतिम लक्ष्य सत्ता है।

बहरहाल,बंगाल में नौ करोड की आबादी में अगर सात करोड़ बंगाली हैं तो चार करोड़ लोग पूर्वी बंगाल से आये शरणार्थी हैं।बंगाल सरकार में उनका कोई मंत्री नहीं है।वाम जमाने में जो भूमि सुधार मंत्रालय रहा है,ममता बनर्जी भूमि आंदोलन की नेता बतौर सत्ता में दोबारा आने के बाद उसे खत्म कर रही हैं।अब भूमि सुधार निषेध है।

1971 में इंदिरा मुजीब समझौते के तहत बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद होने के साथ साथ इंदिरा गांधी ने केंद्र सरकार का पुनर्वास मंत्रालय बंद कर दिया है लेकिन तब से लेकर अब तक सीमापार से आनेवाले शरणार्थियों की तुलना में भारत में जल जंगल जमीन से बेदखल विस्थापितों की संख्या कई गुणा ज्यादा है,जिनके पुनर्वास का कोई बंदोबस्त नहीं है।

बंगाल में लेकिन पुनर्वास मंत्रालय अभीतक है,जिसे अब ममता बनर्जी खत्म कर रही हैं।चुस्त प्रशासनके नाम पर ममता बनर्जी अनुसूचितों के मंत्रालय पर ताला लगाने की तैयारी कर रही हैं।ये सारे कदम शरणार्थियों और अनुसूचितों के खिलाफ हैं।

ऐसे में शरणार्थियों के केसरियाकरण का असर कितना व्यापक होगा,इसका अदाजा लगा लीजिये।मजहबी सियासत के लिए नागरिकता कानून ब्रह्मास्त्र बन गया है जिसके बलि 2003 से अबतक हिंदू शरणार्थी होते रहे हैं और अब सुरासुर संग्राम है और असुरों का सफाया तय है तो समझ लीजिये कि हिंदू हो या मुसलमान,शरणार्थियों की खैर नहीं।क्योकि सत्तापक्ष दोनों के खिलाफ दोनों में दंगे कराने की तैयारी में है।

इसके तहत संघ परिवार विभाजनपीड़ितों का एकमुश्त हिंदुत्वकरण कर रही है तो असम और बंगाल समेत पूरे पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में गुजरात और खस्मीर जैसे हालात पैदा करके सत्ता पर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रही है।  नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 के जरिये विभाजनपीड़ितों की 2003 के कानून के तहत छिनी नागरिकता वापस करने का जो उपक्रम है,उसमें भारत में बाहर से आने वाले गैरमुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता देने के प्रावधान है जो संवैधानिक ढांचे के मुताबिक समानता के मौलिक अधिकार के खिलाफ है तो अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ भी है।

संघ परिवार ने इस रणनीति के तहत इस विधेयक के खिलाफ वामदलों,तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस समेत धर्मनिरपेक्ष दलों को लामबंद कर दिया है तो संघ परिवार के दावे के मुताबिक राज्यसभा में बहुमत न होने की वजह से इस विधेयक के पारित होने की संभावना बहुत कम है।दूसरी तरफ लोकसभा में बहुमत और राज्यसभा में जोड़ तोड़ के तहत यहकानून पास हो गया तो इसकी तकनीकी खामियों की वजह से इसे लागू करना बहुत मुश्किल है।

राष्ट्र का सैन्यीकरण देश को विदेशी पूंजी के हवाले करने के लिए अनिवार्य है।ताकि अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली,जल जगंल जमीन आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार और पर्यावरण से बेदखली के खिलाफ कोई प्रतिरोध न हो।

इसीलिए माहौल यह बनाया गया है कि सिर्फ सैनिकों को हम शहीद मानने लगे हैं और नागरिकों की शहादत हमारे लिए बेमतलब है।सेना को हम तीज त्योहारों के सात जोड़कर धर्मोन्मादी युद्धोन्माद का कार्निवाल मना रहे हैं।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के मार्फत अंधाधुंध अबाध विदेशी पूंजी की घुसपैठ से किसानों की थोक आत्महत्या के बाद खुदरा बाजार बेदखल है और विदेशी पूंजी के मुकाबले उद्योग और कारोबार जगत में देशी कंपनियां हिंदुस्तानी बाजार से बेदखल हो रही है।टाटा संस के विवाद में डोकोमो का किस्सा भी नैनो से नत्थी है।जिससे टाटा समूह का बेड़ा गर्क हुआ है।इनी गिनी दो चार कंपनियों को छोड़ दें,तो बाकी भारतीय कंपरनियों की टाटा जैसी दुर्गति तय है।

जाहिर है कि शहादत का सिलसिला सीमाओं पर ही नहीं,खेतों खलिहानों पर ही नहीं,उद्योग और कारोबार के हर सेक्टर में शुरु हो गया है।

इसके बावजूद राजनीतिक नेतृत्व जो अंध राष्ट्रवाद का आवाहन करके निरंकुश पितृसत्ता के फासिज्म के तहत मजहबी सियासत के तहत सेना का राजनीतिकरण पर आमादा है और सेना के साथ खड़े होने की भावुक अपीलें जारी कर रहा है,उसका सीधा मतलब है कि सेना को नहीं,बल्कि हम उनके युद्ध और गृहयुद्ध के कारोबार का समर्थन करें।यह कुल मिलाकर अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के प्रबल दावेदार डोनाल्ड ट्रंप की ही राजनीति का ग्लोबीकरण है,जो इजराइल का मुसलमानों के खिलाफ जिहाद है।हम अमेरिका और इजराइल के पार्टनर हैं तो हमारी राजनीति भी अमेरिका और इजराइल की राजनीति है।राजनय का अंजाम भी वही है।जो युद्ध सीरिया के बहाने तीसरा विश्वयुद्ध में तब्दील होने जा रहा है,हम भारत को उसी युद्ध में जानबूझकर शामिल कर रहे हैं तो तीसरे विश्वयुद्ध के महाविनाश के हिस्सेदार बी होंगे हम।मुसलमानों के खिलाफ खुला जिहाद भारत में अरब वसंत का अबाध प्रवाह बन चुका है।

याद करें कि हम पहले ही लिख चुके हैं कि हम यह भी नहीं देख रहे हैं कि अमेरिका परमाणु युद्ध की तैयारी में है और भारत उनके लिए सिर्फ बाजार है।इस बाजार पर कब्जे के लिए वह कुछ भी करेगा।

जाहिर है कि हम यह देख नहीं रहे हैं कि दो दलीय संसदीय तंत्र में जनता के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने का कोई विकल्प है ही नहीं।राष्ट्रीय नेतृत्व जो हम चुनते हैं वह देश की एकता ,अखंडता और संप्रभुता की निर्विकल्प समाधि है।अमेरिकी चुनाव में यह बहुत कायदे से साबित हो रहा है।तथाकथित राष्ट्रीय नेतृत्व न राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और न जनता का, वह कुलमुिलाकर गुजरात नरसंहार या सिखों के नरसंहार या बाबरी विध्वंस के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण का अनचाहा चुनाव नतीजा है।भारत में ऐसा बार बरा होता रहा है और अमेरिका में अबकी दफा यह खुल्ला खेल फर्ऱूखाबादी है।

अरबपति डोनाल्ड ट्रंप को रूस का समर्थन है और इजराइल का भी समर्थन है।मुसलमानों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करने वाले इस धनकुबेर को अमेरिकी मतदाता सिरे से नफरत करते हैं।लेकिन अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बाराक ओबामा की विदेश मंत्री बतौर आइसिस को जन्म देनेवाली हिलेरी के ईमेल से पर्दाफाश हो गया है कि वे अमेरिका के खिलाफ युद्ध कर रही आतंकवादी संस्थाओं को लगातार पैसा और हथियार देती रही हैं।

पिछले 23 अक्तूबर तक बारह प्वाइंट से आगे चल रही हिलेरी अब ट्रंप से एक प्वाइंट पीछे हैं।यानी अमेरिकी जनता हिलेरी को भी राष्ट्रपति पद पर देखना नहीं चाहती।इस बीच कुछ राज्यों में चुनाव पहले से शुरु हो जाने से करीब दो करोड़ वोट पड़ चुके हैं और वहां दोबारा मतदान नहीं हो सकता।

समझा जा सकता है कि इन वोटों से हिलेरी को बढ़त मिली हुई है।अब नतीजा चाहे जो हो,अमेरिकी जनता हिलेरी या ट्रंप में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर है जबकि दोनों अमेरिकी हितों के खिलाफ हैं।

जाहिर है कि दो दलीय संसदीय प्रणाली लोकतंत्र के लिए ब्लैकहोल की तरह है।हमारे यहां उस तरह दो दलीय लोकतंत्र नहीं है।चुनाव में असंख्य पार्टियां केंद्र और राज्यों में सत्ता संघर्ष में शामिल हैं।लेकिन सही मायने में सत्ता के ध्रूवीकरण को देखें तो हमारे यहां भी दो दलीय संसदीय प्रणाली है।

भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे के विकल्प हैं।बाकी दल उनके पक्ष विपक्ष में उनके साथ या विरोध में हैं।तीसरा कोई पक्ष भारत में भी नहीं है।वामपक्ष या बहुजन पक्ष या समाजवादी खेमा भाजपा और कांग्रेस के साथ सत्ता में केंद्र या राज्य में साझेदारी तो कर सकता है,लेकिन राजकाज और राष्ट्रीय नेतृत्व फिर कांग्रेस या भाजपा का है,जिनका कोई विकल्प नहीं है।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हम अपना आइना देख सकते हैं कि कैसे राष्ट्रविरोधी ताकतों के हाथों लोकतंत्र का दिवाला निकलता है।

हमने पहले ही लिखा है कि मुश्किल यह है कि हमारी राजनीति जितनी अंध है, उससे कुछ कम हमारी राजनय नहीं है।हम दुनिया को अमेरिकी नजर से देख रहे हैं और हमारी कोई दृष्टि है ही नहीं।हमें अमेरिकी कारपोरेट हितों की ज्यादा चिंता है,भारत या भारतीय जनता के हितों की हमें कोई परवाह नहीं है।

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

২৬শে নভেম্বর “সংবিধান জাগৃতি অভিযান” Saradindu Uddipan

Previous: हिंदू हो या मुसलमान, शरणार्थियों की खैर नहीं। मजहबी दंगाई सियासत के लिए नागरिकता ब्रह्मास्त्र! विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो। सेना को समर्थन का मतलब,अबाध पूंजी के लिए यु�
$
0
0

২৬শে নভেম্বর "সংবিধান জাগৃতি অভিযান" 

Saradindu Uddipan

November 3 at 6:41am
ভারতের সংবিধান গণতন্ত্রের ইতিহাসে সর্ববৃহৎ এবং সর্বশ্রেষ্ঠ সংবিধান। এই সংবিধানের জন্য ভারতের ২৯টি রাজ্য, ৭টি কেন্দ্র শাসিত অঞ্চল, ২২টি মূখ্য ভাষা, ১৭০০র বেশি মাতৃভাষা, ৭টি মূখ্য ধর্ম এবং ৬৭৪৮টির বেশি জাতি গোষ্ঠীর বিভিন্নতা থাকা সত্ত্বেও এ দেশের মানুষ সংঘবদ্ধ নাগরিক হিসেবে নিজেদের জীবন উপভোগ করছেন। ভারতের সংবিধানের ভিত এমন ভাবে গড়ে তোলা হয়েছে যে যাতে প্রত্যেক নাগরিক নিজ নিজ ক্ষেত্রে অর্থনৈতিক, সামাজিক, ধর্মীয়, বৌদ্ধিক ও সাংস্কৃতিক স্বাধীনতা উপভোগ করতে পারে। এই সংবিধান দেশের প্রত্যেক নাগরিককে ধর্ম, জাতি, লিঙ্গ, ভাষা এবং আঞ্চলিকতার উর্দ্ধে এসে সদ্ভাবনার সাথে জীবন অতিবাহিত করার মৌলিক অধিকার প্রদান করেছে।

কিন্তু অত্যন্ত বেদনার সাথে জানাচ্ছি যে, দেশে একটি ফ্যাসিবাদী শক্তি কায়েম হওয়ার পরে প্রতিনিয়ত এই সংবিধানের অবমাননা চলছে।

সংসদীয় গণতন্ত্রে যে জনকল্যাণকারী নির্ণয় সংসদের অভ্যন্তরে নেওয়ার কথা তার সমস্তটাই ভ্রষ্টাচারী নেতা ও পুঁজিবাদী সংগঠনের দ্বারা সংসদের বাইরে নেওয়া হচ্ছে। শাসকবর্গ অসমানতা এবং বর্বরতাপূর্ণ ব্যবস্থা কায়েম করার জন্য সংসদীয় গণতন্ত্র, ভারতীয় সংবিধান এবং জনগণের বিরুদ্ধে ভয়ঙ্কর ষড়যন্ত্রে লিপ্ত হয়েছে। এরা বিশ্বের সর্বশ্রেষ্ঠ গণতন্ত্রকে মনুবাদী বিচারধারা এবং ব্রাহ্মন্যবাদী একনায়কতন্ত্র এবং ফ্যাসিবাদের যূপকাষ্ঠে বলি চড়াতে চাইছে। এদের কাজকর্মে প্রমানিত হচ্ছে যে এই অমানবিক পুঁজিবাদ–ব্রাহ্মন্যবাদ দেশদ্রোহী গাটবন্ধন ভারতীয় সংবিধানকে নিজেদের কব্জায় নিয়ে ফেলেছে। 
এমন বিকট পরিস্থিতিতে ভারতের একজন গণতন্ত্র প্রেমী সচেতন নাগরিক হিসেবে সংবিধান তথা সংসদীয় গণতন্ত্র বাঁচানোর জন্য সর্বশক্তি নিয়ে এগিয়ে আসা প্রয়োজন।

এই ভয়ঙ্কর পরিস্থিতি উপলব্ধি করে আমরা ন্যাশনাল সোশাল মুভমেন্ট অব ইন্ডিয়ার পক্ষ থেকে আগামী ২৬শে নভেম্বর এক ঐতিহাসিক "সংবিধান জাগৃতি অভিযান"এর ডাক দিয়েছি। 
সমতা, স্বতন্ত্রতা, ন্যায় এবং বন্ধুত্বপূর্ণ জীবনযাপনের জন্য সকলকে একত্রিত হয়ে এই ঐতিহাসিক "সংবিধান জাগৃতি অভিযান"মহামিছিলে বিপুল সমাবেশ ঘটিয়ে ভারতীয় সংবিধানের শত্রু ও বিশ্বাসঘাতকদের সমুচিত জবাব দেবার জন্য আহ্বান জানাচ্ছি। আমাদের বিশাল উপস্থিতি এবং সোচ্চার প্রতিবাদে রাষ্ট্রের বিরুদ্ধে এই ষড়যন্ত্র ধ্বংস হবে বলে বিশ্বাস রাখি। 
জয় ভীম, জয় ভারত

পুনশ্চ ঃ সকাল ১১টায় ওয়াই চ্যানেল থেকে এই পদযাত্রা শুরু হবে। র‍্যালি শেষ হবে রেডরোড অবস্থিত বাবা সাহেব ডঃ বি আর আম্বেদকরের মূর্তির পাদদেশে। আপনারা জাতীয় পতাকা এবং সংবিধানের প্রতিলিপি নিয়ে এই মহার‍্যালিতে যোগ দিন।

Image may contain: text and one or more people
-- 
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख भोपाल एनकाउंटर का विरोध-राजीव यादव की सरकारी हत्या का प्रयास

$
0
0

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख भोपाल एनकाउंटर का विरोध-राजीव यादव की सरकारी हत्या का प्रयास



हस्तक्षेप के संचालन में छोटी राशि से सहयोग दें


Add us to your address book


http://www.hastakshep.com/donate-to-hastakshep

https://www.facebook.com/hastakshephastakshep

https://twitter.com/HastakshepNews


आपको यह संदश इसलिए मिला है क्योंकि आपने Google समूह के "हस्तक्षेप.कॉम" समूह की सदस्यता ली है.
इस समूह की सदस्यता समाप्त करने और इससे ईमेल प्राप्त करना बंद करने के लिए, hastakshep+unsubscribe@googlegroups.com को ईमेल भेजें.

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख मध्य प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ का गुजरात मॉडल, न्यायिक जाँच जरूरी – एनएपीएम

Next: Emergency Injected to kill freedom of Expression! Palash Biswas Image result for freedom of expression in india Bhopal encounter seems to be yet another tragedy to push on the alarm for emergency and thus,emergency injected to kill the freedom of expression. NDTV goes off air just because it exposed the truth of the fake encounter now trended to finish off the minorities who remain stranded in India as the largest Muslim Population as Two Hundred million Hindus also coincidentally remain stranded in Bangladesh after partition of India and then,liberation of Bangladesh.It is similar case of minority execution across the border. Bangladesh media is free to publish the news of minority persecution and we may share every report day to day. Bangaldesh already overlapped India in wellness index and gender gap index,let there be a freedom of expression index,I am afraid ,we have to lag far behind. I had been associated with Indian Express group of newspapers for twenty five years and I know
$
0
0

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख मध्य प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ का गुजरात मॉडल, न्यायिक जाँच जरूरी – एनएपीएम


हस्तक्षेप के संचालन में छोटी राशि से सहयोग दें





Add us to your address book


http://www.hastakshep.com/donate-to-hastakshep

https://www.facebook.com/hastakshephastakshep

https://twitter.com/HastakshepNews


आपको यह संदश इसलिए मिला है क्योंकि आपने Google समूह के "हस्तक्षेप.कॉम" समूह की सदस्यता ली है.
इस समूह की सदस्यता समाप्त करने और इससे ईमेल प्राप्त करना बंद करने के लिए, hastakshep+unsubscribe@googlegroups.com को ईमेल भेजें.
--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

Emergency Injected to kill freedom of Expression! Palash Biswas Image result for freedom of expression in india Bhopal encounter seems to be yet another tragedy to push on the alarm for emergency and thus,emergency injected to kill the freedom of expression. NDTV goes off air just because it exposed the truth of the fake encounter now trended to finish off the minorities who remain stranded in India as the largest Muslim Population as Two Hundred million Hindus also coincidentally remain stranded in Bangladesh after partition of India and then,liberation of Bangladesh.It is similar case of minority execution across the border. Bangladesh media is free to publish the news of minority persecution and we may share every report day to day. Bangaldesh already overlapped India in wellness index and gender gap index,let there be a freedom of expression index,I am afraid ,we have to lag far behind. I had been associated with Indian Express group of newspapers for twenty five years and I know

Next: एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है? हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस �
$
0
0

Emergency Injected  to kill freedom of Expression!

Palash Biswas

Image result for freedom of expression in india

Bhopal encounter seems to be yet another tragedy to push on the alarm for emergency and thus,emergency injected to kill the freedom of expression. NDTV goes off air just because it exposed the truth of the fake encounter now trended to finish off the minorities who remain stranded in India as the largest Muslim Population as Two Hundred million Hindus also coincidentally remain stranded in Bangladesh after partition of India and then,liberation of Bangladesh.It is similar case of minority execution across the border.

Bangladesh media is free to publish the news of minority persecution and we may share every report day to day. Bangaldesh already overlapped India in wellness index and gender gap index,let there be a freedom of expression index,I am afraid ,we have to lag far behind.

I had been associated with Indian Express group of newspapers for twenty five years and I know how the group means for Goenka Award.The award was rejected by a Times of India journalist as it had to be handed over by Prime Minister.I understand the implications!

The journalist had no objection to get the award but he objected against the Prime Minister who  spoke, NOT to forget Emergency!

He meant it and it is an emergency all the way as the nation is reduced to the Gas Chamber and concentration camp of some Hitler invoked as Kalki Maharaj Manu Maharaj!

Hillary or Trump,whoever is going to be the President of America,the demise of America is just a matter of time as both destroy the American Democracy.In such global situation while India has to play a greater role,we have a leadership which invokes emergency.

We already have the experience of emergency and this prime minister representing the institutionalized fascism is nothing in comparison the Mrs Indira Gandhi.What emergency did to Mrs Gandhi,it is already become the history. RSS which opposed emergency,now seems to be instrumental to revoke emergency yet again to accomplish the declared agenda to make in Hindu India within 2020 and Hindu world within 2030.

The nation has already witnessed different type of Mahabharat Mushal Parv Tamaha played in Safai Dynasty which ended in an alliance of CM Akhilesh Yadav and RSS regime as the ideologically claimed to be socialist power brokers should sustain the CM office. as well as dynasty rule.

Human right activists have been thrashed in Lucknow to win the RSS backing in UP elections and it is becoming a self destructive trend as all political parties use Hindutva or Muslim Card to destroy democracy.

It is emergency as media reports!

An Inter-ministerial committee of the Information and Broadcasting (I&B) Ministry has recommended that a Hindi news channel be taken off air for a day after it concluded that the broadcaster had revealed "strategically-sensitive" details while covering the Pathankot terrorist attack.

The ministry may now ask the channel NDTV India to be taken off air for a day on November 9, according to sources, in what would be the first order against a broadcaster over its coverage of terrorist attacks.

Efforts to reach the channel for its comments could not materialise.

The matter pertains to the coverage of the Pathankot terror attack by the channel where the committee felt that "such crucial information" could have been readily picked by terrorist handlers and had the potential to "cause massive harm not only to the national security, but also to lives of civilians and defence personnel."

When the operation was on in January this year, it allegedly revealed information on the ammunition stockpiled in the airbase, MIGs, fighter-planes, rocket-launchers, mortars, helicopters, fuel-tanks, etc, "which was likely to be used by the terrorists or their handlers to cause massive harm, the sources said.

Official sources said that as the content appeared to be violative of the programming norms, a show cause notice was issued to the channel.

In its reply, the channel replied that it was a case of "subjective interpretation" and the most of the information they had put out was already in public domain in print, electronic and social media.

The committee, in its order, however observed that the channel "appeared to give out the exact location of the remaining terrorists with regard to the sensitive assets in their vicinity" when they telecast in real time.

The panel expressed "grave concern" that this was a matter of national security and that the channel had revealed sensitive details like location of ammunition depot vis-a-vis the space where the terrorists were holed up, location of school and residential areas.

"Such crucial information could have been readily picked by their handlers, which had the potential to cause massive harm not only to the national security, but also to lives of civilians and defence personnel," the committee said, disagreeing with the channel's contention that similar content was carried by newspapers.


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है? हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस �

Previous: Emergency Injected to kill freedom of Expression! Palash Biswas Image result for freedom of expression in india Bhopal encounter seems to be yet another tragedy to push on the alarm for emergency and thus,emergency injected to kill the freedom of expression. NDTV goes off air just because it exposed the truth of the fake encounter now trended to finish off the minorities who remain stranded in India as the largest Muslim Population as Two Hundred million Hindus also coincidentally remain stranded in Bangladesh after partition of India and then,liberation of Bangladesh.It is similar case of minority execution across the border. Bangladesh media is free to publish the news of minority persecution and we may share every report day to day. Bangaldesh already overlapped India in wellness index and gender gap index,let there be a freedom of expression index,I am afraid ,we have to lag far behind. I had been associated with Indian Express group of newspapers for twenty five years and I know
$
0
0

एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है?

हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस देश में लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।देश बेचो गिरोह की हर हरकत के पर्दाफाश की आजादी अनिवार्य है।

हम पांचजन्य या समाना पर भी रोक के पक्ष में नहीं हैं और न हम सत्ता पक्ष के तमाम अखबारों या टीवी चैनलों को बंद कराने की मुहिम छेड़ रहे हैं।सत्ता पक्ष के लोगों को अपना पक्ष रखने का जितना अधिकार है,विपक्ष को और आम नागरिकों को भी अपना पक्ष रखनेका उतना ही हक है।


पलाश विश्वास

केबल टीवी नेटवर्क (नियमन) कानून के तहत प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कहा है कि "भारत भर में किसी भी मंच के ज़रिये NDTVइंडिया के एक दिन के प्रसारण या पुन: प्रसारण पर रोकलगाने के आदेश दिए गए हैं... यह आदेश 9 नवंबर, 2016 को रात 12 बजकर 1 मिनट से 10 नवंबर, 2016 को रात 12 बजकर 1 मिनट तक प्रभावी रहेगा..."

राष्ट्रीय सुरक्षा का यह अभूतपूर्व युद्धाभ्यास है।तो सवाल यह है कि एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है? इसी बीच एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने सूचना और प्रसारण की अंतर-मंत्रालयीन समिति के अभूतपूर्व फैसले की कठोर निंदा की है और मांग की है कि एनडीटीवीहिंदी का एक दिन का प्रसारण रोकने के आदेश परतत्काल रोकलगाई जाए। न्यूज चैनलों की संस्था बीईए ने भी इस फैसले को वापस लेने की मांग करते हुए कहा कि यह बोलने की आजादी के खिलाफ है।हम कहां खड़े हैं?

भारत में फासीवाद की मौजूदा स्थिति पर सिद्धांत वादी लोग बाकायदा अपना विमर्श जारी रख सकते हैं तो जो लोग मानते हैं कि अभी आपातकाल नहीं है,उनकी भी बलिहारी।जैसे फोर जी मोबाइल नेटवर्क में चौबीसों घंटे बने रहने के बावजूद विज्ञान और तकनीक की सारी सुविधाओं से लैस मुक्त सेक्स के मुक्तबाजार में दुनियाभर की हर जरुरी गैरजरुरी सूचनाओं से लैस होकर हर किस्म का मजा लेने के बावजूद लोग आदिम सभ्यता के अपढ़ कबीलाई लोगों की तरह अंध भक्ति,अंध विश्वास और बर्बर उपासना पद्धतियों और आस्थाओं के तिलिस्म में कैद मनुष्यता को जाति धर्म की लाखों लाख दड़बों में बांटकर स्वजनों के खून से नहाकर ही राष्ट्रवादी बनते हैं।फिर उस राष्ट्रवाद का खूनी दरिया व्हाट्सअप पर प्रसारित करते हैं।लेकिन आधुनिकताम ज्ञान की सीमा विज्ञान और तकनीक का दायरा भी नहीं है,एंट्रोयड ऐप्प हैं।अपनी ही इद्रियों को साधन की दक्षता जो हमारे पुरखों में थी,जाहिर है,हम जैसे जडो़ से कटे लोगों की वह दक्षता भी नहीं है।

होती तो क्या वजह है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान के बावजूद उदारता, भाईचारा, विमर्श का लोकतंत्र और वैज्ञानिक दृष्टि,वैज्ञानिक पद्धति,इतिहासबोध,सौदर्यबोध जैसी कोई बात अत्याधुनिक प्राविधि के बावजूद नहीं होती।धर्मांधता के सिवाय वजूद नहीं।

धर्म को जो मिथकों में कैद करके नरसंहारी उत्सव में बहुसंख्य आम जनता को वंचित करने के शास्त्रीय मनुस्मृति अनुशासन  के समर्थक ऐसे कबीलाई सांप्रादायिक लोगों के लिए आध्यात्म में मनुष्यता के उत्कर्ष के बजाय धर्म के नाम रंगभेद,मानविक मूल्यों की रक्षा के लिए अनिवार्य  बुनियादी मानवाधिकार और नागरिक अधिकार के जाति धर्म पहचान के रंगभेद के आधार पर दमन का जो धर्मांध पक्ष है,युद्धोन्मादी  बहुमत है राष्ट्र का,वहां फासीवाद लोगों की समझ में बहुत आसानी से ऩहीं आ सकता भले ही उनमें हमारे आदरणीय कामरेड महासचिव भी शामिल हो,जिनका जनप्रतिबद्ध संप्रदाय भी पार्टीबद्ध ऊंची जातियों का वर्चस्व है।

जाहिर है कि यह मामला सिर्फ किसी एनडीटीवी पर रोक का नहीं है।

दरअसल यह मामला उस विचारधारा के विष बीज का रक्त बीज बनकर समाज के लिए रग रग में कैंसर बन जाने का नाइलाज मर्ज है,जो हिटलर की आत्मा के भारतीय संस्कृति में प्रतिस्थापित हो जाने के बाद से एक अनंत सिलसिला है,जिसका नतीजा अनंत घृणा और हिंसा की आत्मघाती विचारधारा के तहत भारत विभाजन की घटना है और मनुस्मृति समर्थकों के सत्ता वर्चस्व का स्थाई बंदोबस्त और देश को बेचते रहने की उनकी अबाध स्वतंत्रता है।

इसी फासीवादी राजकाज के तहत आदिवासी भूगोल में असुर राक्षस दैत्य दानव वध का अटूट सिलसिला सलवा जुड़ुम है और इसी सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी, सिखों का नरसंहार,बाबरी विध्वंस का राममंदिर आंदोलन मार्फत सत्ता अपहरण है,गुजरात में धर्मोन्मादी दंगा है।कलबुर्गी,पनेसर ,दाभोलकर,रोहित वेमुला की हत्या है।नेताजी और अंबेडकर का बहिस्कार है।अखंड अलंघ्य सर्वशक्तिमान सर्वत्र सर्वव्यापी पितृसत्ता है।स्त्री के विरुद्ध देश के इंच इंच पर बलात्कार कार्निवाल है।अस्पृस्यता का आचरण है।जल जंगल जमीन आजीविका से बेदखली है और इस फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हमारा अखंड मौन है।मनुस्मृति दहन भी रस्म अदायगी है।सत्ता पाखंड है।

पठानकोट में राष्ट्रीय सुरक्षा दांव पर लगाने के लिए अगर प्रतिबंध का कारण है तो बाकी माध्यमों पर वह प्रतिबंध क्यों नहीं है जिन सबने वही खबर उसीतरह छापा प्रसारित किया? इतना गंभीर यह मामला है तो टोकन प्रतिबंध ही क्यों है,राष्ट्रद्रोह की सजा इतनी कम क्यों है? गौरतलब है कि सरकार ने साफ साफ़ कहा कि वह फ़ौज की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेगी। अब यदि एनडीटीवीने जो  कुछ दिखाया है तो दूसरे चैनलों ने भी ऐसा ही कुछ दिखाया है, लेकिन बाकी परकोई एक्शन लिया गया या नहीं, इसकी अभी तक कोई जानकारी नहीं है तो अकेले एक टीवी चैनल को सजा का मतलब गधे को भी समझ में आनी चाहिए।

यह फिर किस किस्म का लोकतंत्र है जहां दावा लोकशाही का है लेकिन किसी फौजी हुकूमत की तरह पुलिस और फौज कुछ भी करें,उसकी आलोचना करना राष्ट्रद्रोह है।जहां देश की सुरक्षा के नाम पर आजादी के बाद से लेकर अबतक हर रक्षा सौदे में दलाली के खाये रुपयों से ही सत्ता पर दखल का एकाधिकार बहाल रखने की मारामारी है और अब तो डीफेंस में भी एफडीआई है।

राष्ट्र की सुरक्षा विदेशी कंपनियों,विदेशी एजंसियों के हवालेकर देने वाले राष्ट्रभक्तों के राज में निजी और विदेशी हितों के लिए जनता के उत्पीड़न दमन मानागरिक और मानवाधिकार हनन के लिए सेना और पुलिस के इस्तेमाल की आलोचना करना राष्ट्रद्रोह है तो समज लीजिये कि भारत को इसतरह पाकिस्तान बनाने वाले कौन लोग हैं।

जगजाहिर हकीकत यह है कि यह प्रतिबंध भोपाल मुठभेड़ का सच एनडीटीवी के वीडियो फुटेज की सजा है,जो पठानकोट का समाचार साझा करनेवाले बाकी मीडिया का सच नहीं है।फर्जी मुठभेड़ की कोरी बकवास की धज्जियां उड़ाने का यह बदला है।

क्योंकि अकेले एनडडीटीवी हिंदी ने बहुजन बहुसंख्य आम जनता की भाषा और बोली में फासिज्म के राजकाज की मुठभेड़ विधा को बेपर्दा कर दिया,जिसपर पर्दा डालने के लिए संघी समाजवादियों ने लखनऊ में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बेरहमी से पीटा।रवीश कुमार के कार्यक्रम से पहले से ही नाराजगी थी।

सिर्फ वजह यही नहीं है।गुस्सा बस्तर के सच उजागर करने,नियमागिरि की भाषा बोलने वाले मीडिया पर भी है।असहिष्णुता के सवाल उठाने वाले मीडिया को यूपी चुनाव से पहले सबक सिखाने का यह राजकाज है।

इस फासिज्म के राजकाज के खिलाफ बुलंद होती हर आवाज,हर चीख को खामोश करने की यह आसान दहशतगर्दी है कि बाजार में कोई एक बड़ी दुकानको लूट लो तो हफ्तावसूली फिर दस्तूर है। समूचा सत्ता का राजनीतिक वर्ग माफिया है।

बहरहाल हमने आपातकाल के दौरान अखबारों का सेंसर देखा है तो बिहार में डा. जगन्नाथ मिश्र के जमाने में भी वही करतब का सामना किया है।हम प्रेसीडेंट निक्सन के जमाने का वाटरगेट कांड भी जानते हैं और मैडम हिलेरी की कथा जो अमेरिकी प्रेस से आ रही है,उस पर भी नजर रखे हुए हैं।

हम खाड़ी युद्ध के दौरान सरकारी पक्ष का मीडिया हो जाने के कारण मध्यपूर्व ही नहीं ,दुनियाभर में मची तबाही से भी वाकिफ हैं और अच्छी तरह समझते हैं कि सिर्फ सरकारी पक्ष का भोंपू मीडिया बन जाये तो यह इंसानियत के लिए कितना बड़ा खतरा है।जिसका खामियाजा हर देश भुगत रहा है जबकि इंसानियत शरणार्थी सैलाब है।

इंदिरा गांधी  के आपातकाल के पीछे बैरिस्टर सिद्धार्थशंकर राय थे और इस आपातकाल के पीछे सिर्फ नागपुर मुख्यालय ही नहीं,तेलअबीब का वह तंत्र मंत्र यंत्र भी है जो अमेरिका पर काबिज है और हम उसी अमेरिका के उपनिवेश हैं।तो बार बार विभाजन के इस सिलसिले को रोकने के लिए सत्ता जमींदारी के स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ आजादी पसंद तरक्कीपसंद हर किसी का उठ खड़ा होना लाजिमी है,जिनमें तनिको इंसानियत बाकी है।

हम विरोध में हैं क्योंकिहम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।इसलिए हम एनडीवी के कायल न होते हुए भी उसके प्रसारण पर रोक का विरोध  करते हैं।

हम विरोध में हैं क्योंकि लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र प्रेस बेहद जरुरी है।हम इंदिरा गांधी के आपातकाल और जगन्नाथ मिश्र के प्रेस विधेयक का हश्र जानते हैं और हम यह भी जानते हैं कि प्रेस की आजादी खत्म करके हुक्मरान अपनी कब्र खुद खोद रहे हैं।

अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी भारत में प्रेस आजाद रहा है तो आजाद भारत में प्रेस परबेड़िया डालने वाले ही अपनी अपनी खैर मनायें और सुधर जाये ,यही लोकतंत्र के हित में और उनके राजनीतिक भविष्य के भी हित में यही है।

सूचनाएं आजाद न हो,विचारों को कैद कर लिया जाये और सवालों पर पाबंदी हो,यह आपातकाल नहीं है तो क्या है,इसे समझने लायक हमारी विद्वता नहीं है।

बहुसंख्य जनता को जिस निर्मम दमन उत्पीड़न और नस्ली भेदभाव की कत्लेआम संस्कृति से नागरिक और मानवाधिकार से वंचित करने के लिए मिथकीय अंध राष्ट्रवाद के युद्धोन्माद के तहत राष्ट्र को सैन्य राष्ट्र बनाकर चुनिंदा समुदायों और चुनिंदा भूगोल का सफाया सुनियोजित तरीके से होता है,उसे हम फासीवाद के सिवा क्या कह सकते हैं,कमसकम हमारी अल्पबुद्धि के बाहर है।

सिर्फ सरकारी और सत्तापक्ष की सूचनाएं प्रकाशित हों,प्रसारित हों और बाकी जरुरी तमाम सूचनाएं,जनसुनवाई और आम जनता की रोजमर्रे की तकलीफें,पीड़ितों वंचितों की चीखें निषिद्ध हों,कुलीन शुद्ध और भद्र माध्यमों और विधाओं के लिए सबकुछ खुला हो और जनपदों के गरीब देहाती अछूतों बहुजनों की अशुद्ध अभद्र लोक पर प्रतिबंध हो,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चुनिदां पक्ष की हो,जिसमें न बहुलता हो और न सहिष्णुता हो,ऐसे लोकतंत्र के लिए हमारे पुरखों ने पीढ़ी दर पीढी अनंत शहादतें दीं,इसका हमें यकीन नहीं है।

हमारे पास सूचनाएं विविध माध्यमों से आती हैं।हम टीवी के समाचारों और कार्यक्रमों के मुक्तबाजार में सूचना व्यभिचार और अखबारों के सिरे से केशरियाकरण के खिलाफ हैं,लेकिन हम उन्हें पसंद नहीं करते या नहीं देखते या नहीं पढ़ते या वे हमारी विचारधारा या हमारे पक्ष और हमारे हितों के खिलाफ हैं या वे कारपोरेट हैं या उनका मालिक या संपादक अमुक अमुक हैं,तो क्या हम अपने नापसंद के सारे अखबारों और टीवी चैनलों के बंद करने की किसी कोशिश का समर्थन करेंगे?

यकीनन हम ऐसा नहीं कर सकते।इसलिए एनडीटीवी से सहमत हों या न हों,हम एनडीवी के पक्ष में नहीं,लोक गणराज्य भारत में नागरिकों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के हक में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में हैं।यह लड़ाई किसी रवीश कुमार या बरखा दत्त के पक्ष में नहीं है बल्कि हम अपने ही मौलिक अधिकारों के पक्ष में है।

एनडीटीवी प्रकरण पर अपने अपने राज्यों में नागरिकों और मानवाधिकारों का दमन करके नस्ली भेदभाव और दंगाई सियासत के तहत लोगों को बांटने की राजनीति करने वाले मौकापरस्त सत्ता सौदागरों के गठबंधन के साथ कमसकम हम नहीं हैं।वे भी कल्कि महाराज के अलग अलग रंग और मुख हैं।

हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस देश में लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।देश बेचो गिरोह की हर हरकत के पर्दाफाश की आजादी अनिवार्य है।

हम रवीश कुमार के कायल हों या न हों,हम बरखा दत्त या प्रणय राय के कारपोरेट संबंधों के खिलाफ हों या न हों,एनडीटीवी पर यह प्रतिबंध भारत में लोकतंत्र पर कुठाराघात है और हम हर कीमत पर इसके खिलाफ हैं।

हम पांचजन्य या समाना पर भी रोक के पक्ष में नहीं हैं और न हम सत्ता पक्ष के तमाम अखबारों या टीवी चैनलों को बंद कराने की मुहिम छेड़ रहे हैं।सत्ता पक्ष के लोगों को अपना पक्ष रखने का जितना अधिकार है,विपक्ष को और आम नागरिकों को भी अपना पक्ष रखनेका उतना ही हक है।

हम टीवी पर करीब दस साल से खबरें देखते नहीं हैं।हम अखबार जरुर पढ़ते हैं।बचपन से यह आदत है।लेकिन हम टीवी के साथ पैदा नहीं हुए हैं।नैनीताल से एमए पास करने के बाद हमें दूरदर्शन का मिला।इसलिए कुछ चुनिंदा फिल्में घर बैठे देख लेने के अलावा इसका कोई उपयोग नहीं है।पाकिस्तानी या बांग्लादेशी ड्रामा इसलिए देखता था कि हम इन देशों में कबी गये नहीं हैं।फिर वे भारत के अंग रहे हैं और हमारे पुरखों की जिंदगी के हिस्से भी रहे हैं।उनमें और हममें कितना फर्क है,यह समझने की यह कवायद रही है।फिलहाल हम जिंदगी पर तुर्की के सीरियल देखते हैं सिर्फ इसलिए कि तुर्की से हमारा इतिहास जुडा़ है और उस देश को समझने का यह मौका है।

बहुत पहले दूरदर्शन पर आजतक देखा करते थे।प्रणय राय और विनोद दुआ हमारे हीरो रहे हैं उनदिनों के।बीच के वर्षों में टीवी रंगीन हो जाने पर खबरें भी हम देख लिया करते थे।अब पिछले दशक में भाषाई चैनलों में ज्योतिष,भूतबाधा और शापिंग के बीच खबरेंखोजना मुश्किल है और लगातार ब्राउज करने के बाद चौबीसों घंटे कुछ खास किस्म की कबरों की पुनरावृत्ति के अलावा हम वहां कुछ देखते नहीं हैं।अंग्रेजी चौनलों में लाउडस्पीकरों और पैनलों के शोर शराबे में जाने की इच्छा नहीं होती।आर्थिक चैनल इसलिए देखते नहीं है कि वहां सारे आंकड़े और विश्लेषण भयंकर गड़बड़ है।

हमारे यहां वर्षों से हिंदी एनडीवी कैबिल पर नहीं है और हमने डिश अभी लगाया नहीं है।अंग्रेजी एनडीटीवी हमने राडिया टेप्स के बरखा बहार के बाद देखना छोड़ दिया है।फिरभी यूट्यूब के जरिये जितना संभव है,रवीश कुमारे के कार्यक्रम देख लेता हूं।रवीश कुमार की अपनी जो सीमा है,वह हम करीब 36 साल तक कारपोरेट मीडिया का हिस्सा बने रहने के कारण बखूब जानते हैं।धनबाद में पत्रकारिता के चार साल में ही 1980 से लेकर 1984 के दौरान हम समझ गये थे कि यह बनिया की दुकान है और बनिये से डरकर आपका वजूद बचेगा नहीं।बनिया के अखबार को अपना अखबार न मानते हुए दैनिक जागरण और दैनिक अमरउजाला में हम लगातार जनता का पक्ष लेते रहे हैं और मालिकों से जब तब टकराते रहे हैं।

इसके बाद हमने पच्चीस साल इंडियन एक्सप्रेस समूह में बिता दिये,जहां पत्रकारों को बाकी समूह से ज्यादा आजादी है और हमें कभी अपने कहे या लिखे के लिए किसीने टोका नहीं।यहां मौनेजमेंट विशुध कारपोरेट है।किसी के होने न होने का कोई मतलब नहीं है।एक सिस्टम है,जिसमें रहकर आपकी औकात कल पुर्जे की तरह है।सिस्टम आपका जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकती है,लेकिन उस सिस्टम का इस्तेमाल करना एकदम असंभव है चाहे आप प्रभाष जोशी,ओम थानवी, अरुण शौरी,कुलदीप नैयर,शेखर गुप्ता,एस निहाल सिंह,वर्गीज,राजकमल झा जैसे कितने ही नायाब पत्रकार और लेखक हों,इस हिसाब से हमारा भाव तो कौड़ियों के मोल का नहीं है।

इस सिस्टम में चुने हुए मुद्दे पर चुने हुए मौके पर चुने हुए पक्ष में कुछ भी कहना या बोलना होता है।स्वतंत्र पत्रकारों के लिए भी यही स्थिति है।जिनका पैनल इसी हिसाब से तय होता है।सिस्टम से बाहर किसी को पैनल में जगह नहीं मिलती चाहे आप कितने बड़े तोप हों।एक से बढ़कर एक पत्रकार लेखक फ्रिज में होते हैं,जिनका इस्तमेमाल मौके के मुताबिक ही होता है।मीडिया कारपोरेट है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की कौन मालिक है और किस कंपनी के शेयर कितने हैं।

हम रवीश के कायल इसलिए हैं कि इस सिस्टम में जब भी उन्हें मौका मिलता है,वे अपने निशाने से चुकते नहीं हैं।जाहिर है कि हम उनसे उम्मीद नहीं कर सकते कि वे हर मुद्दे पर उसी तेवर में बोले,जैसी उनकी प्रतिभा और दक्षता है।अपनी सीमा वे बखूब समझते हैं और उसी सीमा के बीतर रहकर जिन मुद्दों पर उन्हें मौका मिलता है,वे सतह के नीचे तक पहुंच जाते हैं।एनडीटीवी पर रोक की असल वजह यही रवीश कुमार हैं तो इस रवीश कुमार के साथ खड़ा होना जरुर है क्योंकि वह हमारी लोक जमीन का है।

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

कभी ना कहना फासीवाद! पलाश विश्वास

Previous: एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है? हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस �
$
0
0

कभी ना कहना फासीवाद!

पलाश विश्वास

भक्तजनों के लिए खुशखबरी है कि भारत अमेरिकी उपनिवेश के मुक्तबाजार में तब्दील होने के बावजूद हिंदू राष्ट्र नहीं बन सका लेकिन अमेरिका में हिंदुत्व की जयजयकार है क्योंकि जैसे पाकिस्तान का मतलब हिंदुतस्तान के किलाफ फौजी इस्लामी हुकूंत की तर्ज पर हिंदुत्व का मतलब मुसलमानों,दलितों और बहुजनों, शरणार्थियों और मेहनतकशों का एकमुश्त सफाया है तो नागपुर मुख्यालय और तेलअबीब के जायनी हिंदुत्व गठजोड़ की वजह से 2020 और 2030 से पहले ही अमेरिका हिंदू राष्ट्र बनने जा रहा है।

अमेरिका में अंतिम चरण के चुनाव प्रचार में डेमोक्रैट उम्मीदवार हिलरी क्लिंटन और रिपब्लिकन ट्रंपके बीच अब इकॉनमी अहम मसला बन गई है। वहीं, शनिवार को ट्रंपके बेटे के एक आरती में हिस्सा लेने से उनके कैंपेन में हिंदूप्रतीकों के इस्तेमाल का एक और घटक जुड़ गया है।ग्लोबल हिंदुत्व का यही हमारा राष्ट्रवाद है।जिसे सार्वभौम बनायेंगे महान धर्मयोध्दा डोनाल्ड ट्रंप।

अब इसकी कोई क्यों चिंता करें कि  डोनाल्ड ट्रंपने कहा है कि अमेरिका इस वक्त नौकरियों की सबसे बड़ी चोरी से जूझ रहा है और ये नौकरियां भारत और चीन में जा रही हैं।दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लेकर वोटरों के वोट निर्णायक हैं,यह बातभी अर्थव्यवस्था से बेखबर हम भारतीयों की समझ में नहीं आने वाली है।

बहरहाल, हर हाल में बाजी नागपुर तेल अबीब गठबंधन के हक में है।क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप जीते तो अमेरिका में मुसलमानों का सफाया है और मैडम हिलेरिया जीतीं तो दुनियाभर में मुसलमानों का सफाया है।बहरहाल राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार विवादों के कारण डोनाल्ड ट्रंपको ज्यादा नुकसान हुआ है, हिलेरी को कम। अमेरिका का अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा ये तो आठ नवंबर को होने वाले मतदान के नतीजे आने पर पता चलेगा। फिलहाल हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रंपउन निर्णायक मतदाताओं को आखिरी पलों में रिझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आखिरी पलों में किसी पार्टी के पक्ष में वोट डालने का मन बनाते हैं।

हिलेरी अपनी मामूली चुनावी सर्वेक्षण बढ़त के साथ बियोंस और केरी पेरी की सप्ताहांत पॉप कार्यक्रमों की मेजबानी कर रही हैं वहीं ट्रंप ने लोवा, मिनेसोटा, मिशिगन, पेन्नसीलवानिया, वर्जीनिया, फ्लोरिडा, उत्तर कैरोलिना और न्यू हैम्पशायर होते हुए कई शहरों का तूफानी दौरा शुरू किया है। ताजा स्तित यही है कि रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंपने डेमोक्रेट हिलेरी क्लिंटन के मुकाबले अपनी स्थिति को लगातार मजबूत किया है। मतदान के लिए 48 घंटे से भी कम का समय रह जाने पर कहा नहीं जा सकता कि सेहरा किसके सिर पर बंधेगा।

मजा यह है कि ट्रंपलगातार भारतीय मूल के वोटरों का दिल जीतने में लगे हुए हैं। इसके लिए ट्रंप हिंदूसंगठनों के कार्यक्रम में शामिल होने से लेकर मोदी सरकार की तारीफ करने तक, हसंभव कोशिश कर रहे हैं। पर हफिंगटन पोस्ट और सीवोटर का सर्वे ट्रंपकी इस आकांक्षा को धूमिल कर रहा है। हालिया सर्वे के मुताबिक भारतीय मूल के वोटरों की पसंद हिलरी क्लिंटन हैं, न कि ट्रंप। सर्वे के मुताबिक भारत और अमेरिका, दोनों जगह रहने वाले ज्यादातर भारतीय हिलरी क्लिंटन के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं।

यही नहीं,ट्रंपलगातार भारतीय मूल के वोटरों का दिल जीतने में लगे हुए हैं। इसके लिए ट्रंप हिंदूसंगठनों के कार्यक्रम में शामिल होने से लेकर मोदी सरकार की तारीफ करने तक, हसंभव कोशिश कर रहे हैं। पर हफिंगटन पोस्ट और सीवोटर का सर्वे ट्रंपकी इस आकांक्षा को धूमिल कर रहा है। हालिया सर्वे के मुताबिक भारतीय मूल के वोटरों की पसंद हिलरी क्लिंटन हैं, न कि ट्रंप। सर्वे के मुताबिक भारत और अमेरिका, दोनों जगह रहने वाले ज्यादातर भारतीय हिलरी क्लिंटन के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं।

इस चुनाव नतीजे से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है और हालाते जैसे बन रहे हैं,भारत हो या न हो,अमेरिका का हिंदू राष्ट्र बनना तय है।अमेरिका और रूस की मेहरबानी से हिंदू ग्लोब का एजंडा भी बहुत मुश्किल नहीं है।यही हमारा वाम दक्षिण राष्ट्रवाद है तो यही अब अंबेडकरी मिशन का बहुजन राष्ट्रवाद भी है।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गूंगों बहरों का संवैधानिक अधिकार भले हों,हकीकत में जब हम अपने हक हकूक के लिए भी लड़ने के लिए तैयार नहीं है तो लिखने बोलने की आजादी हमें क्यों चाहिए!कभी ना कहना फासीवाद!

एकदम ताजा खबर यह है कि  रिपब्लिकन प्रत्‍याशी डोनाल्‍ड ट्रंप ''भारतीय संप्रभुता और परंपराओं के प्रति सम्‍मानजनक रुख रखेंगे लेकिन दुनिया भर में  ऐसी सरकारों का समर्थन नहीं करेंगे जहां महिलाओं को दबाया जाता है और उनके प्रति सम्‍मानजनक नजरिया नहीं रखा जाता।'' यह पहेली बूझनेजैसी बात ट्रंप के चुनाव अभियान की प्रमुख केलीएन कोनवे ने NDTV से खास बातचीत में कही।वही एनडीटीवी जिसपर एकदिन का प्रतिबंद लगा है।लेकिन लगता है कि ट्रंप ने इस प्रतिबंध के बारे में अपने उच्च विचार प्रकट नहीं किये हैं।भारत में भी लोग कमोबेश खामोश हैं।

मुश्किल यह है कि भारत की संस्कृति कभी नरसंहार की संस्कृति नहीं रही है।विदेशी नस्लों ने मूलनिवासियों को बार बार पराजित किया है लेकिन उनका वह अश्वमेधी वैदिकी हिंसा उत्तर अमेरिका मध्य अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में काबिज श्वेत विदेशियों की अनंत रंगभेदी नरसंहार के मुकाबले निहायत शाकाहारी है।वैज्ञानिक तथ्यों से प्रामाणित है कि अटूट वर्ण व्यवस्था और वंशगत जन्मजात जाति व्यवस्था के बावजूद,लगातार विदेशी नस्लों की घुसपैठ के बावजूद तथागत गौतम बुद्ध की क्रांति से पहलसे कोई दो हजार साल पहले भारतीय जनता के खून में एकत दूसरे से कोई फर्क नहीं है।

गोरापन की अंधी दौड़ चाहे जितनी अश्लील और उत्कट है,दुनियाभर में सारे भारतीय अश्वेत हैं।अमेरिका की तरह भारत में श्वेत बिरादरी कोई नहीं है हांलांकि रक्त की शुद्धता हमारा धर्म कर्म है लेकिन हमारा लोकसंसार सहिष्णुता और बहुलता का निरंतर महोत्सव है जो अब भी मुक्त बाजार का कार्निवाल पर भारी है।

हमारी मातृभाषाएं और जनपदों की बोलियां अभी विलुप्त नहीं हुई है।जाहिर है कि इसीलिए हिंदू राष्ट्र या इस्लामी राष्ट्र भारत उसी तरह नहीं बन सकता जैसे महान सम्राट अशोक और सम्राट कनिष्क के  बुद्धमय भारत भी कभी धर्मराष्ट्र नहीं रहा है।हमारा यह लोकसंसार ही हिंदू राष्ट्र के खिलाफ है।

मुश्किल यह है कि सिंधु सभ्यता की निरंतरता अभी जारी है।सालाना रावणवध और असुरवध के बावजूद उनके अनार्य वंशज अब भी भारत के बहुजन हैं जिनका आर्यों ने यथासंभव हिंदुत्वकरण कर दिया है और जो हिंदू हीं बने,वे आदिवासी भी हजारों साल से अपने वदूद,जल जंगल जमीन की लडा़ई जारी रखे हुए हैं।

वैदिकी काल में भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बना।ब्राह्मण धर्म के वर्चस्व के बावजूद भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बना।

मुहम्मद गोरी के भारत विजय के बाद पलाशी के युद्ध तक करीब सात सौ साल के इस्लामी निरंकुश राजकाज के दौरान भी भारत इस्लामी राष्ट्र नहीं बना और न हिंदुओं का सफाया हुआ।

दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत के दौरान न हम अंग्रेज बने और न छिटपुट धर्मांतरण के बावजूद यूरोप और अमेरिका की तरह भारत ईसाई बना।

भारतीय लोकतंत्र में पद और गोपनीयता की शपथ किसी धर्मस्थल पर नहीं ली जाती और स्वतंत्र भारत का घोषित लक्ष्यभी न्याय और समता है तो पांच साल का चुनाव जीतकर कौन माई का लाल इसे धर्म राष्ट्र बना सकता है!

फिरभी धर्मराष्ट्र के नाम राम की सौगंध में जो देशभक्ति का जन्म हुआ है,उससे हजारों साल की सहिष्णुता और विविधता बहुलता निशाने पर है और यह हमलावर राष्ट्रवाद हिंदुत्व का एजंडा है।जिसे केंद्रित पक्ष विपक्ष की राजनीति है और उसी राजनीतिक समीकरण के मद्देनजर राष्ट्रवाद की नई परिभाषा है।देशभक्ति का यह अभूतपूर्व नरसंहारी सौदर्यबोध है जिसके शिकंजे में सारे माध्यम और विधायें हैं।

कभी ना कहना फासीवाद!मेहनतकश आम जनता के हाथ पांव सर काट लिये जायें,आदिवासी भूगोल में कत्लेआम हो जाये,देश के चप्पे चप्पे पर बेलगाम स्त्री आखेट जारी हो,जनता बुिनियादी जरुरतों और सेवाओं की क्या कहें गैस चैंबर में कैद अनाज और हवा पानी के भी मोहताज हो जाये और इंडिया गेट पर किसी लापता छात्र की मां और बहन को पुलिस घसीटें,पीटे,बेइज्जत करें,दलितों बहुजनों पर अत्याचारों की सुनामी जारी रहे,जल जंगल जमीन मानवाधिकार आजीविका रोजगार नागरिकता से अनंत बेदखली अश्वमेध के बावजूद कभी ना कहना फासीवाद!

क्योंकि बहुमत का राज है।क्योंकि बहुमत का धर्मराष्ट्र बनाने का पवित्र एजंडा का यह राजकाज है और रक्त की शुद्धता का रंगभेदी वर्चस्व का अनुशासन हमारा राष्ट्रवाद है।आम जनता के हकहकूक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक हैं।पीड़ित उत्पीड़ित दमन और नरसंहार के शिकार अल्पसंख्यक और बहुजनों की नागरिकता संदिग्ध हैं,इसलिए वे और उनके साथ खड़े तमाम लोग राष्ट्रद्रोही है।कभी ना कहना फासीवाद!

क्योंकि तुर्की  जैसे आधुनिक राष्ट्र जहां धर्म इस्लाम है लेकिऩ आधुनिकता अमेरिका और यूरोप के टक्कर की है,जहां भाषा की लिपि रोमन,आटोमन,वैजंतिया और यूरोपीय साम्राज्यवाद के शिकंजे से आजाद होने के बाद रोमन लिपि में हैं और जहां स्त्री यूरोप और अमेरिका की तरह आजाद है लेकिन ग्रामीण समाज और जनपदों की संस्कृति कमोबेश शक आर्य अतीत की तरह सामाजिक और पारिवारिक तौर पर अटूट है।वहां भी फेसबुक,ट्वीटर और तमाम सोशल मीडिया प्रतिबंधित हो गया है राष्ट्र की सुरक्षा के बहाने और सैन्य अभ्युत्थान के बाद अखबार और टीवी पर सेंसरशिप है तो सैकडो़ं पत्रकार गिरफ्तार है।सबकुछ वहां भी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हो रहा है।कभी ना कहना फासीवाद!

गौरतलब है कि तुर्की या तुर्किस्तान यूरेशिया में स्थित एक देश है। इसकी राजधानी अंकारा है। इसकी मुख्य- और राजभाषा तुर्की भाषा है। ये दुनिया का अकेला मुस्लिम बहुमत वाला देश है जो कि धर्मनिर्पेक्ष है। ये एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है।भारत की तरह लोकगणराज्य तुर्की में हालात ये हैं कि तुर्कीकी सरकार ने जुलाई में ताख्तापलट की कोशिश में शामिल होने के शक में 10 हजार से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है। इन सभी के खिलाफ अमेरिका में बसे धार्मिक नेता फतुल्लाह गुलेन के साथ रिश्तों के शक में कार्रवाई की गई है।

ताख्तापलट की कोशिश के पीछे तुर्कीकी सरकार गुलेन को ही जिम्मेदार मानती है। जिन लोगों को नौकरी से निकाला गया है उनमें ज्यादातर एकेडमिक्स, टीचर या हेल्थ वर्कर हैं। इतना ही नहीं, 15 मीडिया आउटलेट्स को भी बंद कर दिया गया है। तुर्कीके विश्वविद्यालयों में रेक्टर पद के लिए चुनाव होते थे, लेकिन सरकार ने अब चुनाव को खत्म कर दिया गया है।तो क्या हम तुर्की की तरह भारत में भी हूबहू वहीं करें?गौरतलब है कि  तुर्कीसरकार ने अपनी जांच में ये पाया कि बर्खास्त अधिकारी और मीडिया संस्थान अमेरिका समर्थित धर्मगुरु फतुल्ला गुलेन को समर्थन देते थे।

इससे पहले तुर्कीसरकार पहले भी एक लाख से ज्यादा कर्मचारियों को या तो निलंबित या बर्खास्त कर दिया है।यह सबकुछ राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हो रहा है।

गौरतलब है कि सीरिया के युद्ध में तुर्की भी बेहद उलझ गया है।सीरिया युद्ध की वजह से वहां आंतरिक सुरक्षा को लेकर सत्ता पक्ष और आम जनता के बीच टकराव को जो नतीजा है,हम उसी तरफ बढ़ रहे हैं।कभी ना कहना फासीवाद!

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मीसा लागू करके जिन देशभक्त संघियों को इंदिरा गांधी के आपातकाल में गिरफ्तार किया गया था,सत्तर के दशक के जेपी आंदोलन से लेकर सिखों के नरसंहार ,गुजरात नरसंहार के रामजन्मभूमि आंदोलनके मुक्तबाजार में वे ही अब राष्ट्र के कर्णधार हैं और वे भी इंदिरा के आपातकाल को लागू कर रहे हैं और उनका राष्ट्रवादी भी मैडम हिलेरी और डोनाल्ड ट्रंप ,राष्ट्रपति पुतिन के मुसलमान विरोधी तेलअबीब का राष्ट्रवाद है और यही 2020 तक हिंदू राष्ट्र और 2030 तक हिंदू ग्लोब बनाने का पवित्र एजंडा है तो आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप का शुद्धिकरण हो गया है और हिंदुत्वकरण से लेकर जायनीकरण की वैदिकी रस्म अदायगी भी हो गयी है और यही राष्ट्र की सुरक्षा में है तो देशभक्तो,कभी ना कहना फासीवाद!

मनुस्मृति अनुशासन का हिंदुत्व लागू करने का यह आपातकाल है,जिसे कमारेड लोग फासीवाद मानने को तैयार नहीं हैं और मनुस्मृति दहनका उत्सव माने वाले दलित और बहुजन भी इस फासीवादी आपातकाल के किलाफ मोर्चाबंद लोगों की जाति और धरम की शिनाक्त करते हुए अपना बहुजन राष्ट्रवाद को उसीतरह भगवा राष्ट्रवाद में एकाकार करने में लगा है,जैसे बाबासाबहेब अंबेडकर और उनके एजंडा का भगवाकरण हुआ है।कभी ना कहना फासीवाद!

तुर्की जब सोशल मीडिया पर रोक लगा सकता है राष्ट्रहित में और सैकडो़ं पत्रकार को गिर्फतार कर सकता है तो किसी कारपोरेट टीवी चैनल के प्रसारण पर एक दिन के प्रतिबंध के खिलाफ मोर्चाबंदी बहुजन राष्ट्रवाद के खिलाफ भी है क्योंकि निशाने पर जो पत्रकार है वह न ओबीसी है और न दलित और नही आदिवासी।कभी ना कहना फासीवाद!

सारे अखबार और सारे टीवी चैनल और समूचे सोशल मीडिया पर जबतक सेंसर लागू नहीं हो जाता तबतक हम इंतजार करेंगे इस फैसले का कि यह राष्ट्रहित में माओवाद आतंकवाद दमन के लिए,मुसलमानों के सफाये के लिए अनिवार्य है या नहीं।हमारे मौलिक अधिकार हो या न हों,हमारे नागरिक और मानवाधिकार बहाल रहे या न रहे,लोक गणराज्यभारत का वजूद कायम रहे या न रहे,देशभक्त नागरिकों को चुप ही रहना है।सेना और पुलिस क्योंकि राष्ट्र के सेवक हैं और राष्ट्र के संसाधने से उनका रक्षाकवच है तो सरकार चाहे उसका जैसा इस्तेमाल करें,हमारे लिए खामोसी से बेहतर कुछ नहीं है क्योंकि गूंगे बहरे का कोई दुश्मन होता नहीं है,हम गूंगे बहरे बने रहे तो बेहतर।कभी ना कहना फासीवाद!

क्योंकि भारत 2020 तक हिंदू राष्ट्र बने या न बने,अमेरिका अखंड नस्ली श्वेत वर्चस्व का आयुर्वेदिक विशुद्ध हिंदू राष्ट्र में तब्दील होने जा रहा है चाहे मैडम हिलेरी जीते या फिर डोनाल्ड ट्रंप।अमेरिकी अखबार और मीडिया सत्तापक्ष के साथ है दस्तूर के मुताबिक इसलिए कागज पर अभी मैडम हिलेरी की बढ़त बनी हुई है।लेकिन मुसलमानों का काम तमाम करने के वायदे के साथ श्वेत वर्चस्व के कु क्लास क्लान गिरोह के शिकंजे में फंसा अमेरिकी बहुमत दक्षिणपंथी अति राष्ट्रवादी डोनाल्ड ट्रंप के साथ है और अच्छे दिन के सुनहले ख्वाब के साथ वे अमेरिका फतह कर रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ घृणा करने वाले तमाम धर्मांध लोग उनके साथ हैं।कभी ना कहना फासीवाद!

ट्रंप टैक्स घटाने की बात कर रहे हैं जैसे हमारे यहां टैक्स घटाने का जीएसटी समेत तमाम कर सुधार लागू है।वे आउटसोर्सिंग के खिलाफ हैं और अमेरिकी हाथों को भारत और चीन से छीनकर रोजगार देने का वायदा कर रहे हैं।उन्हें भी इजराइल का साथ मिला है और ग्लोबल हिंदुत्व सिर्फ उन्हीं के साथ है।कभी ना कहना फासीवाद!


जाहिर है कि अरबपति डोनाल्ड ट्रंप से बड़ा देशभक्त ओबामा या अमेरिका का कोई दूसरा राष्ट्रपति नहीं है।मध्ययुग के दौरान यूरोप के धर्मयुद्ध के वे महान नाइट हैं जो यूरोप की तर्ज पर अमेरिका को इस्लाम मुक्त करने के धर्मयोद्धा हैं और हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक इस्लाम का सफाया हिंदुत्व का एजंडा है तो वे हिंदुत्व के भी धर्म युद्ध है।कभी ना कहना फासीवाद!

दूसरी तरफ, ताजा ईमेल लीक के मुताबिक मैडम हिलेरी का इजराइल के लिए  सीरिया के विनाश के एजंडा का खुलासा भी हो गया है।तेलयुद्ध के सच का खुलासा भी सामने है।ट्विन टावर का सच भी उजागर होने लगा है।आईसिस को अमेरिकी हथियार और पैसों के बारे में भी सारे सबूत समाने आ रहे हैं।फिरभी अमेरिकी माडिया और सत्ता वर्ग और दुनियाभर के धर्मनिरपेक्ष लोग डोनाल्ट ट्रंप जैसे राष्ट्रवादी के बजाय अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था की महानायिका के पक्ष में हैं।इसके बावजूद अंध राष्ट्रवाद के जीतने की प्रबल संभावना है।

गनीमत है कि अमेरिका में मुसलमानों के वोट भारत के निर्णायक मुसलमान वोट बैंक के आसपास नहीं है।अमेरिका के सारे मुसलमान एकमुशत ट्रंप के खिलाफ वोट करें तो भी उन्हें हराना मुश्किल है।

जिन शरणार्थियों के खिलाफ ट्रंप का जिहाद है,वे हालांकि अमेरिका में करोडो़ं की तादाद में हैं,लेकिन उनमें से ज्यादातर नागरिकता से वंचित हैं और नागरिक होंगे तो भी राष्ट्रपति चुनाव में उनके मताधिकार नहीं है।

शरणार्थी भी ट्रंप का कुछ बिगाड़ नहीं सकते।

अश्वेत मेहनतकश बिरादरी और पेशेवर नौकरीपेशा लोग जो ओबामा की जीत की जमीन बने रहे हैं,डोनाल्ड के अंध राष्ट्रवाद और सुनहले ख्वाबों के जाल में उलझ गये हैं।तो जाहिर है कि हिटलर के अवतार अमेरिका में कल्कि महाराज बनने को है।चूंक यह अखंड राष्ट्रवाद की जीत है।कभी ना कहना फासीवाद!

सोवियत संघ के पतन के बाद ऱूस और सोवियत के टूटे तमाम हिस्सों में इन्हीं राष्ट्रवादियों का वर्चस्व हैं।दक्षिणपंथी पराक्रम अब विश्वव्यापी है।रूस के राष्ट्रपति महामहिम पुतिन इस अंध राष्ट्रवाद के सबसे बड़े ईश्वर हैं इन दिनों जो सीरिया संकट के बहाने अरब दुनिया में अमेरिकी व्रचस्व तोड़ने के युद्ध को तीसरे विश्वयुद्ध में बदलने की तैयारी भी कर रहे हैं और उनका खुल्ला समर्थन डोनाल्ड ट्रंप को है।

कोनवे से जब ट्रंप के भारतीय-अमेरिकियों तक पहुंच के बारे में पूछा गया तो कोनवे ने कहा, ''हिंदू अमेरिकी उनके आंदोलन का हिस्‍सा बनने के इच्‍छुक हैं।''

पिछले महीने न्‍यू जर्सी में हिंदू रिपब्लिकन कोएलिशन के एक प्रोग्राम को संबोधित करते हुए ट्रंप ने NDTV से कहा, ''मैं हिंदुओं का बहुत सम्‍मान करता हूं।मेरे कई मित्र हिंदू हैं। वे बेहतरीन उद्यमी होते हैं। '' जब उनसे पूछा गया कि केवल हिंदू ही क्‍यों तो ट्रंप ने जवाब दिया, ''बेहद ईमानदारी से कहूं तो मैं भारत का बेहद सम्‍मान करता हूं। वास्‍तव में मेरा बिजनेस (रियल एस्‍टेट) भारत में रहा है जोकि बेहद सफल रहा है। वह अद्भुत देश है।''

हिलेरी क्लिंटन के कंवेंशन भाषण में रेडिकल इस्‍लामिक आतंकियों को ''निश्चित दुश्‍मन'' करार देने के बारे में कोनवे का कहना है, ''वे निश्चित दुश्‍मन ही नहीं बल्कि बर्बर हत्‍यारे हैं। पूरी दुनिया में आतंक का साम्राज्‍य बनाना चाहते हैं और हमारी भूमि ओरलैंडो और सैन बर्नारडिनो में भी ऐसा ही कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।''


डोनाल्‍ड ट्रंप की विदेश नीति के बारे में कोनवे ने कहा, ''हम इन गलत व्‍यापार समझौते पर पुनर्विचार करेंगे और अपने देश में नौकरियों को फिर से लाएंगे। इस संबंध में हमारे ज़ेहन में मेक्सिको और चीन हैं।''

यह सारा खेल राष्ट्र और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर बेरोकटोक जारी है।बहुमत को बाकी जनता को रौंदने का यह अखंड राष्ट्रवाद है।सत्तावर्ग के हितों का यह राष्ट्रवाद है।रंगभेदी वर्चस्व का यह राष्ट्रवाद है।लोकतंत्र के बहाने सैन्यराष्ट्र का यह राष्ट्रवाद अब भूमंडलीय और सार्वभौम है ,जिसमें अमेरिका रूस और भारत के साथ साथ तुर्की जैसे राष्ट्र भी एकाकार है।

किसे मालूम था कि हिटलर का यह राष्ट्रवाद भूमंलीय उदारवाद के दौर में इतना सार्वभौम,इतना सर्वशक्तिमान सर्वत्र हो जायेगा,कभी ना कहना फासीवाद!

मीडिया के मुताबिक डोनाल्ड ट्रंप ने अपने प्रचार के दौरान सभ्यता की हर हद, हर सीमा पार कर दी है और फिर भी उनके समर्थन में कम से कम 42 फीसदी अमेरिकी खड़े हैं।अश्वेत वोटर और महिलाएं हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में है। और पुरुषों का झुकाव ट्रंप के पक्ष में है। ट्रंप को मिडिल क्लास का जोरदार समर्थन मिल रहा है। पहली बार राष्ट्रपति चुनाव में इतनी गंदी जुबान का इस्तेमाल किया गया है। एक ओर व्यक्तिगत मुद्दे हावी, आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर चर्चा नहीं हो रही है।न्यूयॉर्क टाइम्स के सीबीएस न्यूज सर्वे के मुताबिक हिलेरी क्लिंटन को 47 फीसदी और डोनाल्ड ट्रंप को 45 फीसदी जनता की पसंद है। वहीं पाइवथट्रीएट के सर्वे के मुताबिक 67 फीसदी जनता की पसंद बन हिलेरी क्लिंटन आगे चल रही है और 32.3 फीसदी जनता की पसंद डोनाल्ड ट्रंप है।

हिलेरी क्लिंटन पर निजी सर्वर से सरकारी ईमेल भेजने का आरोप है और ये ईमेल हिलेरी ने अमेरिका की विदेश मंत्री रहते हुए किए थे। निजी सर्वर से सरकारी ईमेल भेजना सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक माना गया है। हिलेरी पर गोपनीयता की शपथ का उल्लंघन करने का आरोप है, लेकिन जुलाई में ईमेल मामले की जांच बंद कर दी गई थी। जुलाई में एफबीआई ने कहा था कि हिलेरी के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला है। इस दौरान, ट्रंप ने सरकार पर आरोप लगाया कि वो हिलेरी को बचा रही है।

ई-मेल मामले की दोबारा जांच शुरू होने से डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की लोकप्रियता कम हुई है, और लोकप्रियता के मामले में ट्रंप, हिलेरी के काफी करीब आ गए हैं। हालांकि अब हिलेरी क्लिंटन ने ईमेल मामले को लेकर आक्रामक रूख अपना लिया है। उन्होंने एक प्रचार रैली के दौरान मामले की जांच कर रही एफबीआई और इसके डायरेक्टर जेम्स कॉमी के खिलाफ तीखी टिप्पणी की। हिलेरी क्लिंटन ने इस बात पर सवाल उठाया कि एफबीआई इस मामले को तब क्यों सामने ला रही है जब चुनाव में हफ्ते भर का ही समय बचा है।

उधर, रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनल्ड ट्रंप इस ईमेल विवाद को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने से चूक नहीं रहे हैं। ट्रंप का कहना है कि जब हिलेरी क्लिंटन अपने ईमेल नहीं संभाल सकतीं तो वो देश क्या संभालेंगी।


भारतीय मीडिया के मुताबिक अगर अमेरिकी चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप जीतते हैं तो भारत को कुछ फायदे होने की उम्मीद जानकार कर रहे है। जानकारों की माने तो ट्रंप आतंकवाद के मुद्दे पर सख्ती बरतेंगे। ट्रंप ने हाल ही में बयान जारी कर कहा था कि पाकिस्तान शायद सबसे खतरनाक देश है। और वह अगर चुनाव जीतते है तो पाकिस्तान को मिलने वाली आर्थिक सहायता में कटौती करेंगे। भारत-अमेरिका संबंधों को घिसे-पिटे ढर्रे से बाहर निकालेंगे। एशिया में सत्ता संतुलन भारत के पक्ष में बढ़ेगा और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध छेड़ सकते हैं। जिसके  चलते चीन के नुकसान से भारत को फायदा हो सकता है।

वहीं अगर ट्रंप की जीत से भारत को काफी नुकसान होने की भी उम्मीद बाजार लगा रहा है। कश्मीर मुद्दे पर राय नहीं होगी और कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता की पेशकश हो सकती है। आउटसोर्सिंग को लेकर सख्त हो सकते है। वहीं भारतीय आईटी कंपनियों को धक्का लग सकता है। इमिग्रेशन और आउटसोर्सिंग के पॉलिसी बदलने का भी डर हो सकता है। एच-1बी वीजा नियमों में बदलाव से कंपनियों के मुनाफे पर असर होने की पूरी उम्मीद है। ट्रंप के डर से पिछले 10 दिनों में आईटी इंडेक्स 5.5 फीसदी नीचे टूटे है।

अगर इस चुनाव में हिलेरी राष्ट्रपति बनती हैं तो भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि  जानकारों का कहना है कि हिलेरी भारत को लेकर काफी दोस्ताना है और अमेरिका- भारत के संबंध एक दायरे में ही रहने की उम्मीद है। भारत को हिलेरी के साथ काम करना आसान होगा।

कभी ना कहना फासीवाद!


मशहूर फिल्मकार आनंद पटवर्ध्धन ने अपने स्टेटस में प्रोफेसर शाह आलम खान का जो मंतव्य लगाया है,उसपर भी तनिक गौर करें तो बेहतर!


Uncanny Resemblance?

Adolf Hitler had worked as a "causal laborer" in Munich in 1913, a fact, which was repeated off, and on, many times during his rule in Germany. A fact, which he believed, helped him in "connecting" to the masses of Germany (uncanny?). Please note that they never had tea vendors in Germany, otherwise…..

Once established, which most historians believed happened by end of his second year (uncanny?), Hitler's party workers protested against music by Gustav Mahler and Felix Mendelssohn, who were subsequently banned from performing in Germany (and yes, Gustav was from the neighboring Austria and a jew!).

The Nazi censorship slowly engulfed newspapers and the radio with the newspaper Straight Path and its editor Fritz Gerlich being the first to be banned. Fritz Gerlich had a doctorate and harbored a beard (Uncanny? ..Hmmm). It is even more uncanny to know that on December 5, 1930, Joseph Goebbels, the Propaganda Minister of Hitler had himself gone and disrupted the screening of the premier of the movie, All Quiet on the Western Front, a movie based on a novel which was very unpopular with the Nazis.

By 1935 Hitler had realized that to be fully controlling the German mind, it was essential to control the Universities. In this respect he suppressed universities with had significant communists in academic positions (uncanny?). The academicians and students at the Munich University particularly organized what was called The White Rose, a non-violent, intellectual group of anti-Nazis. One student of this group was twenty one year old Sophie Scholl, who was convicted of sedition and later killed by the Nazis (surely uncanny na?).

After coming to power in 1933, Hitler used radio to widely broadcast his speeches. What is uncanny is the fact that the Ministry of Propaganda ran his speeches on a weekly basis on radios throughout Germany! I am not sure what these weekly programs were called but were surely the voice from the Fuehrers heart!

We are told that Hitler was a vegetarian although the reasons for him turning vegetarian remain obscure. In 1934 the Nazi government issued a decree banning kosher meat in Germany (uncanny if you live in Haryana?). And even more uncanny is the fact that Hitler stressed on cleanliness of the nation as one of the first few drives the Nazi regimen took over after coming to power in 1933. It was aimed at increasing tourism in the Third Reich! He believed that the tourists should praise the Nazi Germany for its cleanliness, orderliness and cultural vitality!

And finally how can we talk of Hitler, Nazis and the Third Reich without mentioning mob lynching. Yes, mob lynching, as we know! The Russelsheim massacre involved the lynching of six American airmen by the people of Russelsheim, a town in the Gross-Gerau district of Central Germany. What is worth mentioning is the fact that the people of Russelsheim killed the six airmen with sticks, stones, hammers and shovels (uncanny na?); no guns were used!

So even as my indulgence in Nazi history grows, I can only hope that I discover less and less of the uncanny resemblances, of lesser and novel atrocities, of lesser suppression of expression and of course less of fascism!

We surely don't want to tread that path!

There was once a nanny-goat who said,

In my cradle someone sang to me:

"A strong man is coming.

He will set you free!"

The ox looked at her askance.

Then turning to the pig

He said,

"That will be the butcher."

Bertolt Brecht

Prof. Shah Alam Khan


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No respite at all united we stand united rock solid!Nandini Sundar and Archna Prasad accused in murder case as Rohit Vemula and Najib denied justice and NDTV makes a hero of Kalluri!Brakha stand with madam Hillary!Palash Biswas

$
0
0

No respite at all united we stand united rock solid!Nandini Sundar and Archna Prasad accused in murder case as Rohit Vemula and Najib denied justice and NDTV makes a hero of Kalluri!Brakha stand with madam Hillary!

Palash Biswas

No respite at all united we stand united rock solid!

Social media is playing a role and the the NDTV stand off proved it well as Turkey banned social media to sustain the system.On the other hand Chinese super fireball great wall is further strengthen.


Meanwhile,in India where the voice of the masses,screams of the victims have no space at all and we witnessed surprising apathy of the sc,st and obc communities during NDTV stand off just because in general Indian media is as much as corporate as it defends the cause of the Manusmriti rule of the hegemony and it is always got up game to select the opposition as well to chose and sustain compromising opposition with radical gesture.


Nevertheless,Ravish Kumar is not credited in untouchable humanity and we should understand the point very well as Dr.Ambedkar rightly said that we represent the warring camps in his first sppeech to the constitutional assembly.

Hence,it is rather very tough to unite all social forces as well as the marginalised sections of humanity.NDTV episode put the hegemony on backfoot and it struck a respectable deal to save its face.


The next day,prominent social activists Delhi University Professor Nandini Sundar and Jawaharlal Nehru University's Archana Prasad among 10 people accused in the murder of a villager in Chhattisgarh.


Mind you,recently,the Salawa Judum Police in Chhatishgargh burnt the effigies of social activists including Nandini sundar and Himanshu kumar.


During NDTV stand off,India gate inflicted with unprecedented smog in the greatest Gas chamber,the Indian capital,India Gate witnessed human right being raped in open daylight as the Mother and Sister of the abducted JNU student Najib have been thrashed and dragged with demonstrating students and citizens.


The Rohit Vemula victim family is still denied justice.Justice denied in hundreds of cases of killings,genocides,rapes and gang rapes with apartheid.


Mind you,we could not generate resistance to ensure justice for the underclasses and right to expression remains irrelevant to the majority Bahujan masses in India which have been denied right to education under Manusmriti rule for thousnds of years and are still excluded in all sorts of mediums.genres and media as well.


They speak their grievances with anger and to some extent hatred against the hegemony in all formats of social media.


The passions should be understood in its proper reference and context with inclusive fraternity,tolerance to sustain diversity rooted in our culture which denies to be a Hindu nation with all its might.


Until we support the underclasses,we may not connect the bahujan masses and would have no respite from the governance of fascism ,the infinite business of darkness,brutality and genocide culture of apartheid and patriarchy.


We might be diverted so easily.They would create similar stand offs time to time to engage ourselves and we would forget the basic issue of inclusion as the system remains based on exclusion and excommunication and the economy is exclusively elite.


No wonder,Ms Sundar has been named in a complaint by the wife of Shamnath Baghel, who was killed by Maoists last Friday in his village in Maost-hit Bastar.


"It is absurd, bizarre and patently malafide. I haven't been in Bastar in months," said the 48-year-old activist professor.


It is not unprecedented as the activists have been accused of murder, conspiracy and rioting, said senior police officer SRP Kalluri, adding that "strongest possible action" will be taken against those guilty.


Sedition is the name of the national game which invokes false nationalism on the name of the security and internal security of the nation whereas the hegemony has put national ans public resources of the nation,unity integrity and sovereignty of the nation  on sale and plays Trump to define the phenomenon in national interest.


We may not break the Tilism,the Magic House without including the majority which is branded Hidnu and misused as armed forces of Hindutva to confirm their caste and religion in accordance to vote bank equations with eternal elections round the years!


"We don't go by feelings, we go by facts, we will take action based on what facts we have," Mr Kalluri told NDTV.Kalluri is well known to lead the Salwa Judum in Adivasi demography and has been involved in persecution of Soni Sori and many more cases.


We fought for the constitutional fundamental right and opposed one day ban against NDTV. Look! The stand off is resolved and NDTV makes a hero of someone like Kalluri!


 What next we might expect from NDTV?As Barkha Dutta camped in United States of America to support madam Hillari who created the menace well known as ISIS.


We were not fighting for any TV channel.They would ban their pets first and then they would ban the social media,mailing blogs, whatsup, Face Book, Twiter and everything to execute Mnusmriti rule against the Bahujan which has a more vocal share in social media. 


Hence,it was a red alarm!


The show continues as the Free Market of genocide,infinite refugee influx within would continue as it is the central theme of AFSPA and Salwa Judum!


No respite at all united we stand united rock solid!


Mind you,it is accused that Baghel was killed by Maoists with sharp weapons on Friday at his village around 450 km from state capital Raipur. He had been leading a campaign against Maoist activities since April and had recently formed the "Tangiya (axe) group".


"The victim's wife has alleged that Nandini and other workers held meetings in the area and that was provocative. There were threats received that Baghel will be eliminated if he doesn't mend his ways," Mr Kalluri said on NDTV live to justify the fabricated story and the ban is withdrawn and we have to understand the in depth deal struck by Pranab Roy.


What a setting?


Baghel and other villagers had reportedly complained in May against Ms Sundar.


The police officer alleged that Ms Sundar went to the village in June using a fake name - Richa Keshav. "She did accept it and said she didn't want to disclose her name," said the officer.


"We don't need any interference or guidance, Bastar knows to handle its own problems. We don't like any kind of interference," he asserted.


Ms Sundar has accused the police officer of forcing Baghel's wife to file a complaint against her.


"This is clear vendetta. Mr Kalluri has been specifically targeting activists," she told NDTV, alleging that Mr Kalluri is worried about being implicated in a case that the activists have been fighting for years.


Ms Sundar, an activist, heads the sociology department at the university and has worked extensively in Maoist-hit regions like Bastar. It was on her petition that the Supreme Court banned the state-backed anti-Maoist militia Salwa Judum, calling the force unconstitutional.


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

কোথায় গেল বাংলার তথাকথিত বিদ্বজ্জন, যারা বড়লোকের মাতাল ছেলে মরে গেলে রাস্তায় গলা ফাটায় ? শরদিন্দু উদ্দীপন

$
0
0

কোথায় গেল বাংলার তথাকথিত বিদ্বজ্জন, যারা বড়লোকের মাতাল ছেলে মরে গেলে রাস্তায় গলা ফাটায় ?
শরদিন্দু উদ্দীপন

দলিত-বহুজন স্বাধিকার আন্দোলন

গত ৩রা নভেম্বর দলিত-বহুজন স্বাধিকার অভিযানের অন্যতম কর্মী প্রশান্ত রায়ের কাছ থেকে জানতে পারি কাঁচড়াপাড়ার এই নির্মম দলিত হত্যাকাণ্ডের ঘটনা। হত্যাকাণ্ডের বিরুদ্ধে বিচারের দাবী জানিয়ে আমাদের একটি প্রতিনিধি দল ভাই প্রশান্তের নেতৃত্বে নিহত ২৬ বছরের যুবক গুরজু বাঁশফোড়ের পরিবারের সাথে দেখা করতে যান। গুরজুদের পরিবার সহ আরো প্রায় ৭০০ দলিত পরিবারের বাস উত্তর ২৪ পরগণার কাঁচড়াপাড়ার পুরানো ডাকাত কালী মন্দিরের পাশের বস্তিতে। এই বর্বরচিত হত্যাকান্ডের পরে আমাদের কর্মী প্রশান্ত রায় যে রিপোর্টই ফেসবুকে প্রকাশ করেছিল তা এখানে তুলে ধরছি।

প্রশান্ত রায়ের রিপোর্টঃ 
আবার পশ্চিমবঙ্গে নির্মম দলিত হত্যাঃ 
গুজরাটের উনার স্মৃতি ফিরে এলো পশ্চিমবঙ্গে।হরিয়ানা, গুজরাট, বিহার নয়, খোদ পশ্চিমবঙ্গে একজন তরতাজা ২৬ বছরের প্রতিবাদী দলিত যুবককে প্রকাশ্য দিবালোকে পিটিয়ে পিটিয়ে নির্মম ভাবে হত্যা করছে, আর আসে-পাশের সব লোক দাঁড়িয়ে দেখছে।গত ২- রা নভেম্বর বেপরোয়া গাড়ি চালানোর প্রতিবাদ করায় নৃশংসভাবে খুন হতে হয় গুরজু বাঁশফোড়কে।কাঁচড়াপাড়া চড়াপাড়া পুরানো ব্লকে ডাকাতকালী মন্দিরের পাশে তাঁর ঘর। এখানে ৬৫০/৭০০ দলিত পরিবারের বাস।এরা অধিকাংশ পরিবার দিনমজুরের কাজ ও জঞ্জাল সাফাইয়ের কাজ করেন।দলিত সম্প্রদায়ের যুবক গুরজু বাঁশফোড় দিন মজুরের কাজ ছাড়াও জঞ্জাল সাফাইয়ের কাজ করতেন।এই ঘটনার সঙ্গে জড়িত তৃনমূলের নেতা অমিত।এই দিন তাকে জনবহুল পাড়ার মধ্যে একটু আস্তে বাইক চালাতে বলেছিলেন নিহত দলিত যুবক গুরজু বাঁশফোড়। এরপর গাড়ি থেকে নেমে রাস্তা থেকে চুলের মুঠি ধরে পাশে টেনে নিয়ে প্রথমে বেপরোয়া লাথি, ঘুষি মারা হয়।তারপর পাশে থাকা লোহার রড দিয়ে পিটিয়ে পিটিয়ে থেঁতলা করা হয়। রক্তে ভেসে যেতে থাকে সারা শরীর। এরপর নিথর দেহ টেনে -হেঁচড়ে ময়লা ফেলার গাড়ির মধ্যে ঢুকিয়ে বার বার মাথায় আঘাত করতে থাকে এবং ছোট জাত গুলিকে কুকুরের মতো মারা উচিৎ বলে চিৎকার করতে থাকে।মৃত্যু নিশ্চিত করে ময়লা ফেলা গাড়ির ঢাকনা বন্ধ করে চলে যায়।অমিত স্থানীয় তৃনমূলের নেতা হওয়ায় ভয়ে কেউ এগিয়ে আসেনি। বেশ কিছুক্ষন পর এলাকার মানুষ গুরজুকে ময়লা ফেলার গাড়ি থেকে উদ্ধার করে কল্যানী জে. এন. হাসপাতালে নিয়ে গেলে চিকিৎসকরা তাঁকে মৃত বলে জানায়।
এভাবে পশ্চিমবঙ্গে একের পর এক দলিত হত্যা, দলিত নারী ধর্ষন ও নির্যাতন বেড়ে চলেছে।মাঝদিয়া থেকে কাটোয়া, বাসন্তী এরকম অসংখ্য উদাহরন রয়েছে।সাম্প্রতিক কালে বাইরের রাজ্যের দলিতরা তাদের প্রতি খুন-ধর্ষন-নির্যাতন হলে রাস্তায় নেমে প্রতিবাদের ঝড় তুললেও পশ্চিমবঙ্গের দলিতরা একেবারে নিরব।প্রথমে বীজপুর থানার পুলিশ ডায়েরি লেখার ব্যাপারে গড়িমশি করলে সেভ ডেমোক্রেসি ও আমাদের কিছু সদস্যের বলিষ্ঠ প্রতিবাদে তারা বিষয়টি নিয়ে গুরুত্ব দেয়।পশ্চিমবঙ্গে আনেক গুলি দলিত সংগঠন থাকলেও তাদের এখানে দেখা যায়নি।হয়তো তাঁরা এই পৈশাচিক ঘটনাটা জানেন না, বা জেনেও এড়িয়ে গেছেন।যারা বলেন পশ্চিমবঙ্গে জাত-পাত নেই, তারা মূর্খের স্বর্গে বাস করেন।পশ্চিমবঙ্গে জাত-পাতের শিকড় অনেক গভীর।আগামী দিনে পশ্চিমবঙ্গের দলিত-মূলনিবাসীরা যদি ঐক্যবদ্ধ না হয়, তাহলে তাদের পরিনাম অতি ভয়ংকর।
নিহত দলিত যুবক গুরজু- র পরিবার সীমাহীন আতঙ্কে ----:
কাঁচড়াপাড়ার চড়াপাড়ায় নির্মম ভাবে খুন হওয়া ২৬ বছরের দলিত যুবক গুরজু বাঁশফোড়ের পরিবার সহ ৬৫০/৭০০ দলিত পরিবার সীমাহীন আতঙ্কে রয়েছে। গতকাল বিকালে আমাদের একটা প্রতিনিধি দল গিয়ে ঐ পরিবারের সঙ্গে দেখা করে।তাদের চোখে-মুখে আতঙ্ক।অপরিচিত কারোর সঙ্গে কথা বলতে ভয় পাচ্ছে, কারন খুনি অমিত কাঁচড়াপাড়ার হেবিওয়েট নেতাদের কাছের মানুষ। বিগত এক বছরে ঐ অঞ্চলে তিন-চারটি নৃশংস খুনের ঘটনা ঘটে গেছে। তাই তারা পুনরায় আক্রমণের ভয়ে বোবা ও বধির হয়ে আছে। এলাকায় কোন পুলিশ ক্যাম্প বসানো হয়নি। আমাদের প্রতিনিধি দল নিহত গুরজু'র পরিবারকে ঐ অঞ্চলে একটা " প্রতিবাদী মৌন মিছিল"করার কথা বলেন কিন্তু তারা রাজি হয়নি। অবশেষে অন্তত মোমবাতি জ্বালিয়ে নিরব প্রতিবাদের কথা বলায় তারা ভেবে দেখবো বলেছেন।এটা হলে আমরা বাইরের থেকে প্রচুর লোক জড় হবো বলে তাদের আশ্বাস দিয়েছি। আসলে মানুষ যে কত অসহায় এবং কত গরিব তা ঐ অঞ্চলে গেলে বোঝা যায়, অনুভব করা যায়।ঐ অঞ্চলে শাসক দলের দাদারা প্রকাশ্যে ৩/৪ টি চোলাই ঠেক চালাচ্ছে, প্রকাশ্যে জুয়ো-সাট্টা চালাচ্ছে, রাস্তা দিয়ে মেয়েরা হাঁটলে শ্লীলতাহানী চলছে।বলতে গিয়ে মার খেয়েছে বিজু বাঁশফোড়, ভরত বাঁশফোড়, মোংলা বাঁশফোড়ের মতো যুবক ছাত্ররা।তাই ভয়ে এখন সবাই নিরব।নিহত গুরজু বাঁশফোড়ের মায়ের অভিব্যক্তি --- " আমার এক ছেলেকে হারিয়েছে, কিন্তু আরেক ছেলেকে হারাতে চাইনা"। বাবা শুধু কেঁদেই চলছে, কিছু বলতে পারছে না।শুধু এটুকুই বলছে --" আমার ছেলের খুনির বিচার কি হবে বাবু" ? গুরজুর ভাই সঞ্জয় মূলত আমাদের সঙ্গে কথা বলছিল।তার মনের গভীরে যেন এক ভূমিকম্প বয়ে যাচ্ছে কিন্তু কিছু বলতে পারছে না, আবার সহ্যও করতে পারছে না। চোখ ফেটে ঝর ঝর করে জল গড়িয়ে পড়ছে বার বার। তার কথায় --" আমি কোনো প্রতিবাদ করলে দুমাস পরে দেখবেন আমার লাস রেল লাইনের ধারে পড়ে আছে -- তখন আপনারা কিছু করতে পারবেন ? আর অমিতকে বেশীদিন জেলে রাখতে পারবে না, ও ঠিক বেরিয়ে যাবে "। ঘটনাটা অতিব বাস্তব।কারন পুলিশ অত্যন্ত লঘু ধারায় কেস দিয়েছে-- যা আমাদের অবাক করেছে।গুরজুর পরিবার ও পাড়ার লোক আমাদের ক্যামেরায় ছবি তুলতেও ভয় পাচ্ছে -- নাজানি আবার কি আক্রমণ নেমে আসে এই আসংঙ্কায়।শুধু গুরজুর ভাই সঞ্জয় আমাদের সঙ্গে একটা ছবি তুলতে স্বীকার হয়েছে।এই স্বাধীন গনতান্ত্রিক ভারতবর্ষে কি সীমাহীন পাশবিক ভয়ে কতগুলি দলিত পরিবার দিন কাটাচ্ছে তা ভাবলেও অবাক লাগে।সত্যি কি দলিতরা এখনো স্বাধীনতা পেয়েছে ?

Saradindu Uddipan's photo.
Saradindu Uddipan's photo.
-- 
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

মোদির মাদারী খেলঃ Saradindu Biswas

$
0
0

মোদির মাদারী খেলঃ Saradindu Biswas
আমি বিশ্বাস করি রিজার্ভ ব্যাংকের কাছে ন্যুনতম এই তথ্য আছে যে এ পর্যন্ত সরকারী ছাপাখানাতে কত ৫০০ এবং ১০০০ টাকার নোট ছাপানো হয়েছে। এই সমস্ত টাকাই রাষ্ট্রের সম্পদ। এর যে পরিমাণ টাকা দেশের বাজারে, মানুষের দৈনন্দিন জীবনে কাজে লাগছে সবটাই সাদা। এমনকি যে টাকাটি বাজারে না খাটিয়ে সাধারণ মানুষ নানা কারণে জমা করে রেখেছে সেটিও অবৈধ নয়। যে পরিমাণে টাকা বিদেশের ব্যাংকে বিভিন্ন নামে জমা হয়ে আছে সে টাকাও ভারতের সম্পদ। তার একটি ঘষা পয়সাও জাল নয়। 
কথা হল আয়ের সাথে সংগতিহীন ভাবে যারা টকা জমিয়ে রেখেছে, সরকারকে ট্যাক্স দিচ্ছেনা সেই বিপুল পরিমাণের টাকা কালো। এই টাকাকে যে ভাবেই হোক সরকার বিশেষ পদক্ষেপ নিয়ে সরকারী কোষাগারে ফেরত আনা সমর্থন যোগ্য। তা সে সার্জিকাল অপারেশন করে হোক আর বিশেষ বাহিনী গঠন করে হোক রাষ্ট্রের সম্পদ সরকারী কোষাগারে ফিরিয়ে আনা রাজধর্ম।

মোদি কি সেটা করলেন?
একেবারে না।
যে বিপুল পরিমাণের সাধারণ মানুষ, প্রান্তিক চাষি, ঠিকা শ্রমিক, মহিলা গৃহকর্মী একটু মাথাগোঁজার ঠাই বানানোর জন্য, মেয়ের বিয়ের জন্য তিলেতিলে টাকা জমা করে রেখেছেন, যে বিপুল পরিমাণের মানুষ এখনো ব্যাংকে একাউন্ট খুলতে পারেনি তাঁরা এখন কী করবেন?

কালোটাকা ধরার নামে এতো কালোবাজারিদের সুযোগ করে দিলেন মোদি ভাই।

মোদির ঘোষণার সাথে সাথে শুরু হয়ে গেছে বাজারী খেল। যারা ৫০০ টাকা ভাঙ্গিয়ে বাজার করতে চেয়েছিলেন তাদের খালি হাতে বাড়ি ফিরতে হয়েছে। ৫০০টাকার নোট দিলে ১কিলো মুরগীর মাংস পাওয়া গেছে। সব থেকে বিপদে পড়েছেন সেই মানুষটি যার এখনো কোন ব্যাঙ্ক একাউন্ট নেই।

৫০০ আর ১০০০ টাকার পরিবর্তে যে ২০০০ টাকার নোট বাজারে আসবে তার জালি কারবার বন্ধ হবে তো মোদি ভাই? 
ঐ টাকায় কি গান্ধীর জল ছাপ থাকবে (যদিও আমি মনে করি ভারতীয় টাকায় গান্ধীর ছবি থাকা উচিৎ নয়, অশোকস্তম্ভ থাকা উচিৎ) না কি গোলওয়ার্কার বা শ্যামাপ্রসাদ ঢুকবে?

এই মাদারী খেল বন্ধ করুন মোদি সাহেব। কালোটাকা ধরতে গেলে মূরোদ চাই। একটি নিকম্মা ধাপ্পাবাজের দ্বারা সেই রাজধর্ম পালন সম্ভব নয়।

Image may contain: 2 people
--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!
Viewing all 6050 articles
Browse latest View live




Latest Images