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রবীন্দ্রনাথের রথের রশি মনে পড়ছে কী? অভিনীত হচ্ছেতো, কালের রথের চাকা দলিত মুসলমান ঐক্যের ঠেলাতে নড়ছে বলেইতো মনে হচ্ছে... এবারে কী বলেন কবি? পুরোহিতের থেকে আলাদা কিছু?

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বাঙালিরা খুব আদিখ্যেতা করেই বলেন, জীবনে যখনই যেখানেই সংকট---সেখানেই বুঝি রবীন্দ্রনাথ সংকটহরণ কবি। তাঁর কথাগুলোই বুঝি দিশা দেখিয়ে দেয়। তা গুজরাটের ঘটনাক্রম দেখে শোনে সেই বাঙালি বাবু-বাবুনিদের--রবীন্দ্রনাথের রথের রশি মনে পড়ছে কী? অভিনীত হচ্ছেতো, কালের রথের চাকা দলিত মুসলমান ঐক্যের ঠেলাতে নড়ছে বলেইতো মনে হচ্ছে... এবারে কী বলেন কবি? পুরোহিতের থেকে আলাদা কিছু?


রবীন্দ্রনাথের রথের রশি এর চিত্র ফলাফল


রবীন্দ্রনাথের রথের রশি এর চিত্র ফলাফল


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समाज और राष्ट्र के मनुष्यकल्याणे बहुजन हिताय नवनिर्माण, समता और न्याय का मिशन ही धम्म

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संघम् शरणम् गच्छामि! पलाश विश्वास

Next: Manoranjan Byapari · দানা মাঝি ভাই আমাকে ক্ষমা করো । তোমার কাধে ওই শব ওটা আমার ই।আমিই মৃত দেহ হয়ে গেছি বলে এখনো আগুন হয়ে জ্বলে উঠতে পারিনি । ধারালো কুঠার হাতে নামতে পারিনি পথে ।আমি এখন বাজারে যাচ্ছি ।মরে চিত্তির হয়ে থাকা তেলাপিযা কিনে এনে তেল তেলে ঝোল খেয়ে বড় আরামে বউ পাশে নিয়ে শোব । আমি বড় সুখে আছি।তোমার দুঃখে কাদব সেই সময় নেই আমার । আমাকে ক্ষমা করো ভাই ।আমি আর মানুষ নেই ।মানুষের দুঃখ কষ্ট
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संघम् शरणम् गच्छामि!

पलाश विश्वास

बोधगया धम्म संदेश के तहत हिंदुत्व में निष्णात धम्म और पंचशील और बुद्धमय भारत को नवजागरण आंदोलन में बदलना भारत में सक्रिय तमाम अंबेडकरी आंदोलनकारियों, बहुजन संगठनों और बौद्ध संगठनों का साझा कार्यक्रम बने तो शायद हम फासिज्म के मुकाबले ,अधर्म और नरसंहार के मुकाबले राष्ट्र और समाज को ब्राह्मणवादी निरंकुश रंगभेदी नस्ली सत्ता के शिकंजे से रिहा कर सकते हैं।


अधर्म के फासिस्ट राजकाज,राजकरण,राजनय और नरमेधी राजधर्म के मुकाबले के लिए धम्म ही एकमात्र रास्ता आम जनता और बहुजनों के लिए बचा है,इस पर हम सिलसिलेवार चर्चा जो कर रहे हैं,वह हवा हवाई वैचारिक कवायद नहीं है बल्कि उसे जमीनी हकीकत में बदलकर विध्वंस और विनाश के मुकाबले खड़ा होने की जरुरत है।


हम इतिहास से सबक लें तो भारत की आजादी के बाद भारत के ब्राहमणवादी सत्ता वर्चस्व के विपरीत तमाम एशियाई देशों में व्यापक जन आंदोलनों ने विभिन्न देशों के विश्वभर में सक्रिय बुद्ध धम्म संघों और संप्रदायों के समन्वय की प्रक्रिया निरंतर तेज की है और 1950 में ही श्रीलंका के कोलंबो में हुए विश्व बौद्ध सम्मेलन में विश्व बौद्ध संघ की स्थापना हो गयी।


भारत में धम्म और पंचशील को बहुजनों ने त्यागकर ब्राह्मणवादी  वर्चस्व की व्यवस्था में खुद को हिंदू दर्ज करा लिया है और इसीलिए अब उनका कोई वजूद रहा नहीं है और वे वास्तव में जी जीकर या मर मरकर नर्क जी रहे हैं।


भारत में अबतक बौद्ध संगठन अलग अलग सक्रिय रहे हैं लेकिन बाकी देशों के मुकाबले बौद्ध संगठनों का आपसी समन्वय कम रहा है।मिथ्या अहंकार,निजी स्वार्थ,मिथ्या विपश्यना में बौद्ध संघों,विहारों,मठों,संस्थानों और बहुजन अंबेडकरी संगठनों की सामाजिक निष्क्रियता और सम्यक दृष्टि के वैज्ञानिक इतिहासबोध का अभाव इसके बड़े कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण है ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व के सनातन छलावे के तहत ब्राह्मणवाद के पुनरूत्थान में बहुजनों के वानरसेना में तब्दील हो जाना।जो इस रंगभेदी नरसंहारी संस्कृति की असल ताकत भी है।


यह सबसे बड़ी समस्या है तो ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के मुकाबले फिर धम्मचक्र प्रवर्तन ही प्रतिरोध और समाधान दोनों हैं। आम जनता के जिंदा बचने का एक ही रास्ता है ढाई हजार साल पहले  हुई सामाजिक क्रांति का वह धम्मचक्र प्रवर्तन।


इसी प्रसंग और संदर्भ में बौद्ध संगठनों की समन्वय समिति का गठन और बोधगया में धम्म संसद का आयोजन भविष्य की कार्य योजना के तहत संवैधानिक लड़ाई के एजंडा के साथ बौद्ध संगठनों का राष्ट्रीय संगठन और समन्वय बहुत खास इसीलिए है।


तथागत गौतम बुद्ध ने जिस ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाज और राष्ट्र के चरित्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए धम्म और पंचशील की सम्यक दृष्टि से बौद्ध संघों की संस्थागत संरचना के तहत ज्ञान विज्ञान सम्मत सामाजिक  क्रांति को अंजाम दिया,आज का समाजिक यथार्थ फिर वही ब्राह्मणवादी अधर्म और नरमेधी फासिस्ट राजकाज है।


साफ जाहिर है कि जनांदोलनों के लिए इस निरंकुश ब्राह्णमवादी नस्ली  सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का एकमात्र विकल्प फिर वही तथागत गौतम बुद्ध का धम्म है और धम्म चक्र के प्रवर्तन के तहत बौद्ध विहारों,मठों और संघों को फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्रों, विश्वविद्यालयों में तब्दील करके ही  हिंदुत्व की निरंकुश संस्थागत सत्ता और एकाधिकार नस्ली  वर्चस्व को खत्म करके समता और न्याय संभव है।वरना नहीं।


गौरतलब है कि बोधगया धम्म संदेश में सबसे ज्यादा जोर बुद्धिस्ट पर्सनल ला और बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट पर है क्योंकि बौद्धों के लिए हिंदू पर्सनल ला और हिंदू मैरेज एक्ट लागू होने से संवैधानिक और कानूनी तौर पर तमाम बौद्ध हिंदू ही माने जायेंगे और धर्म दीक्षा का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि जनसंख्या में धर्मांतरित बौद्ध भी विष्णु के अवतार तथागत गौतम बुद्ध की तरह हिंदू ही बने रहेंगे।वैसे ही वे हिंदू बने हुए हैं और हिंदुओं की तरह ही जात पांत की नर्क जी रहे हैं।धर्मदीक्षा बेमतलब हो गयी अंदर बाहर इसी हिंदुत्व अस्मिता की निरंतरता के लिए।पहले इसे समझ लें।फिर धर्म दीक्षा।


बौद्ध संगठनों की समन्वय समिति सुप्रीम कोर्ट में यह कानूनी लड़ाई लड़ रही है। भारतीय बौद्ध संगठनों की राष्ट्रीय समन्वय समिति की भविष्य की कार्य योजना के तहत भारतीय संविधान की धारा -25 उपखंड बी के भाग दो के तहत बौद्धों की स्वतंत्र पहचान  और संवैधानिक मान्यता दिलाना समिति का मुख्य एजंडा है।


पुरातत्व विभाग को सौंपे गये तमाम बुद्ध धम्म के धर्म स्थलों को बुद्ध धर्म के अनुयायियों को सौंपने के लिए आंदोलन राष्ट्रीय बौद्ध धम्म संसद के एजंडा में खास तौर पर शामिल है।इसके तहत बौद्ध स्मारकों को पुरातत्व विभाग से भिक्षु संघ को हस्तांतरित करने  के लिए समिति संवैधानिक लड़ाई कर रही है।इसके लिए धम्म संसद ने बुद्ध विहार (Buddhist Monastery Bill) विधेयक लाकर कानूनी हक की मांग की है।


विडंबना है कि संघम् शरणम् गच्छामि का मतलब अब ब्राहमणधर्म के हिंदुत्व के संस्थागत संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शरण में जाना हो गया है।


जाहिर है कि जबतक आरक्षण है,तब तक हिंदुत्व का यह तिलिस्म अटूट है क्योंकि आरक्षण की वजह से गैर हिंदू तमाम समुदाय अनुसूचित होने का लाभ उठाने से चूकते नहीं हैं और लगातार हिंदुत्व को मजबूत करते हुए ब्राहमणवादी सत्ता और राष्ट्र को निरंकुश बना रहे हैं।


विडंबना है कि अल्पसंख्यकों के धर्म के बजाय बहुसंख्यकों के धर्म हिंदुत्व से जुड़कार लाभ का इकलौता सौदा अनुसूचित तमगा है,जिसे छोड़कर कोई बौद्ध हो नहीं सकता।


तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है।


तथागत गौतम बुद्ध का धम्म दुःखों से भागने के लिए दिव्य ईश्वर के अनुसंधान में समाधि नहीं है,बल्कि दुःखों के निराकरण का विज्ञान है।


तथागत गौतम बुद्ध का धम्म मानव कल्याण,बहुजन हिताय समर्पित सामाजिक सक्रियता की निरंतरता का यथार्थ है और समानता और न्याय की परिकल्पना है,जिसे संघों की शरण में जाकर ज्ञान विज्ञान की सम्यक दृष्टि,सही गलत को समझकर पंचशील अनुशीलन की प्रज्ञा के तहत अंजाम देना है।


जैसा कि बहुप्रचारित है,उसके विपरीत सच यह है कि बुद्ध के धम्म का अवसान नहीं हुआ है बल्कि बुद्ध धम्म का विश्वभर में विस्तार हुआ है और भारत से बाहर सर्वत्र बुद्ध धम्म का विकास की निरंतरता जारी है क्योंकि बाकी दुनिया में ब्राह्मणवाद की अटूट संघीय जाति व्यवस्था की संस्थागत संरचना ने संघों और भिक्षुओं  का विनाश नहीं किया है।


बुद्ध धम्म विश्वभर में मनुष्य और प्रकृति, समस्त जीवों और जीवन चक्र के हित में सत्य, शांति,अहिंसा,प्रेम,करुणा,बंधुता,भ्रातृत्व,मैत्री का पर्यावरण आंदोलन है।


बुद्धमय भारत के अवसान को ब्राह्मणवादी इतिहासकार अपनी जीत का परचम लहराते हुए बुद्ध के धम्म का अवसान बता रहे हैं। बुद्धमय भारत के अवसान की नींव पर तामीर हुआ है ब्राह्मण धर्म का नस्ली हिंदुत्व का पुनरुत्थान,मुक्तबाजारी नरसंहारी सैन्य राष्ट्र और असमानता, अन्याय, असहिष्णुता, घृणा, हिंसा, नरसंहार, मिथ्य़ा,शत्रुता, विवाद, आतंक, युद्ध और गृहयुद्ध का राजकाज,राजधर्म,राजकरण और राजनय।


इतिहास और विचारधारा ,माध्यमों और विधाओं की मृत्युघोषणा जैसे वर्चस्वी साम्राज्यवादी रंगभेद का शंखनिनाद है,वैसे ही भारत में धम्म के अवसान का ऐलान ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व के तिलिस्म में बदलने का सच है।जो किसी वसंत के वज्रनिनाद से भी बदला नहीं है।जो धम्म क्रांति के बिना बदलेगा भी नहीं।


विडंबना है कि बुद्धधम्म की सामाजिक क्रांति की नींव जो संघ है,ब्राह्मणधर्म के हिंदुत्व के संस्थागत संघ ने धम्म को पंथ में बदलकर,उपासना और आस्था और निष्क्रिय विपाश्यना में बदलकर उसी संघ का हिंदुत्वकरण कर दिया है।


संघ का मतलब अब ब्राह्मणवाद का संस्थागत संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है तो धम्म और पंचशील का न कोई संघ बचा है और न कोई संस्था है।


बुद्धमय भारत का हश्र यह बुद्धमय भारत का अवसान है जो हिंदू राष्ट्र में तब्दील है। लेकिन यह बुद्धधम्म का अवसान नहीं है और संस्थागत संघों के पुनर्निर्माण के तहत हम बुद्धमय भारत फिर बना सकते हैं।इसलिए बौद्ध अनुयायी ही नहीं,भारत के समस्त उत्पीड़ित वंचित बहुजनों को तथागत गौतम बुद्ध की तरह संगठित करना होगा और वह संगठन भी संस्थागत संघ संरचना बनाना होगा।कोई और विकल्प है नहीं।


इस कर्मकांडी तंत्र मंत्र यंत्र पंथ और निष्क्रिय विपाश्यना में भारत में बुद्ध धर्म के ज्ञान विज्ञान के केंद्र बने बिहार,मठ और संघों की विश्वविद्यालयी संरचना का ढहता जाना ही बुद्धमय भारत का अवसान है।बुद्धधम्म का अवसान यह कतई नहीं,नहीं है।


बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ता और सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।


बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।जिसे तथागत बुद्ध के धम्म प्रवर्तन के मार्ग पर संस्थागत बौद्धसंघों,विहारों,मठों,विश्वविद्यालयों को पुनर्जीवित करके ही तैयार किया जा सकता है। मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।



भारत में बौद्ध संगठनों के लिए और उनके समन्वय समिति के लिए संघ संरचना बनाने की यह सबसे बड़ी चुनौती है तो सच यही है कि  बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।संगठन और व्यक्ति के स्तर पर पंचशील की यह अग्निपरीक्षा है।



समझ लें कि भारतीय इतिहास में बहुजनों और प्रजाजनों के हकहकूक की लड़ाई और उनके वर्गीय ध्रूवीकरण के आंदोलन को तथागत बुद्ध ने जिसतरह ज्ञान विज्ञान और समाजिक यथार्थ की सम्यक दृष्टि के तहत सत्य और अहिंसा के मार्ग पर सामाजिक क्रांति में तब्दील कर दिया,वह दरअसल समाज और राष्ट्र का पुनर्निर्माण है।


बुद्धमय भारत के अवसान की पृष्ठभूमि में मनुस्मृति अनुशासन की निरंतरता ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व अस्मिता के तहत समता और न्याय आधारित समाज और राष्ट्र के विखंडन का अटूट सिलसिला है और उसका नतीजा यह अभूतपूर्व हिंसा, आतंक, घृणा, युद्ध और गृहयुद्ध का घना अंधियारा है कटकटेला।


ब्राहमण धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मणों का रंगभेदी नस्लवादी कर्मकांडी हिंदुत्व बाकी लोगों ने हिंदुत्व के नाम अंगीकार किया है जबकि इतिहास और यथार्थ में हिंदू धर्म दरअसल ब्राह्मणधर्म है और इसकी सबसे बड़ी संस्था जाति व्यवस्था है।


जातिव्यवस्था की वंशगत असमान लेकिन दूसरे किसी न किसी से उंची हैसियत के हिंदुत्व के तहत गैरब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद को जो हिंदुत्व मान लिया,वहीं समानता और न्याय का अंत है।जिसके तहत सारे गैर ब्राह्मण ब्राह्मणों के गुलाम हैं।


बोधगया में आदरणीय भिक्खु भंतों से हमारी यही चर्चा रही है कि बोधिसत्व बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर के लाखों अनुयायियों ने जो धर्म दीक्षा ली है,वे अबतक 22 प्रतिज्ञाओं के बावजूद ब्राह्मण धर्म का ही पालन कर रहे हैं जाति का परित्याग किये बिना जबकि बाबासाहेब ने इसी जाति व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए ही धर्म दीक्षा का विकल्प चुना है।


बोधगया में आदरणीय भिक्खु भंतों से हमारी यही चर्चा रही है कि जाति बनी हुई है तो धर्म दीक्षा का मतलब क्या है।धर्म दीक्षा से पहले जाति उन्मूलन अनिवार्य है वरना धर्म दीक्षा भी वैदिकी कर्मकांड है।


दरअसल भारत में तथागत बुद्ध के धम्म का वास्तविक संकट जो मनुस्मृति अनुशासन की निरंतरता के साथ जारी है,वह यही है कि जाति के दायरे में कैद है धम्म और 22 प्रतिज्ञाओं के तहत धम्म और पंचशील से धर्मांतरित बौद्धों का कोई नाता नहीं है।


वे अनुसूचित बने रहकर हिंदुत्व के संघीय संस्थागत ढांचे की शरण में बने रहकर हिंदुत्व का लाभ उठाने के चक्कर में खुद को बौद्ध भी नहीं दर्ज कराते और भारत में जनगणना में बौद्धों की संख्या जो दर्ज हुई है,वह धर्मदीक्षा के तहत नवबौद्धों की संख्या से काफी कम है।


जाहिर है कि भारत में बौद्ध संगठनों के लिए और उनके समन्वय समिति के लिए संघ संरचना बनाने की यह सबसे बड़ी चुनौती है तो सच यही है कि  बुद्ध का धम्म ही उत्पीड़ितों, वंचितों, शरणार्थियों, बहुजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, गैरहिंदुओं, दलितों, पिछड़ों.पीड़ितों निरंकुश सत्ताऔर सैन्यराष्ट्र के अधर्म का प्रतिरोध विकल्प है।मुक्ति मार्ग है यह एकमात्र।संगठन और व्यक्ति के स्तर पर पंचशील की यह अग्निपरीक्षा है।



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Manoranjan Byapari · দানা মাঝি ভাই আমাকে ক্ষমা করো । তোমার কাধে ওই শব ওটা আমার ই।আমিই মৃত দেহ হয়ে গেছি বলে এখনো আগুন হয়ে জ্বলে উঠতে পারিনি । ধারালো কুঠার হাতে নামতে পারিনি পথে ।আমি এখন বাজারে যাচ্ছি ।মরে চিত্তির হয়ে থাকা তেলাপিযা কিনে এনে তেল তেলে ঝোল খেয়ে বড় আরামে বউ পাশে নিয়ে শোব । আমি বড় সুখে আছি।তোমার দুঃখে কাদব সেই সময় নেই আমার । আমাকে ক্ষমা করো ভাই ।আমি আর মানুষ নেই ।মানুষের দুঃখ কষ্ট

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দানা মাঝি ভাই আমাকে ক্ষমা করো । তোমার কাধে ওই শব ওটা আমার ই।আমিই মৃত দেহ হয়ে গেছি বলে এখনো আগুন হয়ে জ্বলে উঠতে পারিনি । ধারালো কুঠার হাতে নামতে পারিনি পথে ।আমি এখন বাজারে যাচ্ছি ।মরে চিত্তির হয়ে থাকা তেলাপিযা কিনে এনে তেল তেলে ঝোল খেয়ে বড় আরামে বউ পাশে নিয়ে শোব । আমি বড় সুখে আছি।তোমার দুঃখে কাদব সেই সময় নেই আমার । আমাকে ক্ষমা করো ভাই ।আমি আর মানুষ নেই ।মানুষের দুঃখ কষ্ট আমাকে বিচলিত করে না ।তা করলে আমার ধারালো কুঠার আজ বিদ্যুত চমকাতো।দক্ষের মুন্ডটা আজ লোটাত পায়ের কাছে । প্রিয় শয্যা ফেলে আজ নটরাজ নৃত্যে কাপাতাম মেদিনী ।ভাই আমি আজ আর বেচে নেই ।তাই কিছুই পারিনা আর।তোমার কাধে ওই শব ওটা আমার ই শব ।পচা গলা সমাজের শব ।


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अनिवार्य संस्कृत के मुकाबले पालीभाषा शिक्षा लोकतंत्र का सवाल क्यों है? पलाश विश्वास

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अनिवार्य संस्कृत के मुकाबले पालीभाषा शिक्षा लोकतंत्र का सवाल क्यों है?

पलाश विश्वास

भारत में सत्ता विमर्श सीधे तौर पर रंगभेद का सौंदर्यशास्त्र है तो जाति व्यवस्था श्रीमद्भागवत के गीतोपदेश या मनुस्मृतिविधान ही नहीं है,यह सीधे तौर पर रंगभेद है।


भारत में बिखराव,असहिष्णुता,तनाव,अलगाव,असंतोष,विभाजन के कारण जाति भेद जरुर नजर आते हैं लेकिन जातियों का यह गणित कुल मिलाकर विशुध रंगभेद है।


समाज के जातियों में बंट जाने की वजह से नस्ली विखंडन का शिकार होकर देशी नस्ल  दीगर विदेशी नस्ल की गुलाम बन जाती है और उसे इस नस्ली वर्चस्व का अहसास अपनी जाति की पहचान में कैद हो जाने की वजह से कभी नहीं होता।


गौरतलब है कि मनुस्मृति और गीतोपदेश दोनों के मुताबिक जाति व्यवस्था देशी नस्ल पर ही लागू है जबकि विदेशी विजेता नस्ल विशुध वर्ण है।सुसंस्कृत।


जाति उन्मूलन की लड़ाई इसीलिए रंगभेद के खिलाफ लड़ाई है।

चूंकि सत्तातंत्र पुरोहिती रंगभेद है और पुरोहिती भाषा देवभाषा संस्कृत है तो अनिवार्य संस्कृत के हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले के लिए एकदम जमीनी स्तर पर पाली भाषा की शिक्षा फौरी जरुरत है।इसके बिना समता और न्याय के लक्ष्य असंभव है।


इस मुक्तबाजारी नरसंहारी रंगभेद की अनिवार्य देवभाषा के पुरोहिततांत्रिक वर्चस्व के विरुद्ध तथागत गौतम बुद्ध के धम्म की लोक भाषा पाली की शिक्षा अनिवार्य है।बोधगया धम्म संदेश में पाली की शिक्षा का एजंडा भी शामिल है।


जन्म जन्मांतर,पाप पुण्य,कर्म फल,धर्म कर्म का सारा फंडा देवभाषा के पुरोहिती मिथक और तिलिस्म हैं जो देवभाषा संस्कृत में लिखे धर्मग्रंथों के मार्फत वैदिकी साहित्य के नाम विशुद्ध रंगभेद का कारोबार है।


इसी वैदिकी विशुद्ध रंगभेद का मुकाबला तथागत गौतम बुद्ध ने लोकभाषा पाली में धम्म प्रवर्तन से करके समता और न्याय के आधार पर समाज और राष्ट्र का पुनर्निर्माण मानव कल्याण और बहुजन हिताय की सर्वोच्च प्राथमिकता की सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा से किया।संस्कृतभाषी देवमंडल के सत्ता आधिपात्य के खिलाफ हुई इस जनक्रांति की जनभाषा चूंकि पाली है तो आज पाली हमारी भाषा होनी चाहिए।


तथागत गौतम बुद्ध की यह धम्मक्रांति बोधिसत्व बाबासाहेब डां.भीमराव अंबेडकर मुताबिक न जीवन शैली है और न आस्था या उपासना पद्धति,यह सामाजिक क्रांति है और इसी सामाजिक क्रांति,समता और न्याय  के लक्ष्य के साथ उनके रचे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में फिर वही तथागत गौतम बुद्ध का धम्म है।


शुरु से हमारी दिलचस्पी भाषा और साहित्य में रही है और हम बाकी सारी चीजें छोड़ते चले गये एक के बाद एक।


इतिहास,भूगोल और अर्थशास्त्र को शुरु में नजरअंदाज किया तो विज्ञान और गणित से भी नाता टूट गया।


माध्यमों और विधाओं को साधने की कोशिश में जिंदगी बिता दी और अब लगता है कि हम भाषा और साहित्य भी समझ नहीं सके हैं,सीखने की बात रही दूर।


क्योंकि हम संस्कृत की कोख से निकले रंगभेदी सौंदर्यबोध और वर्चस्ववादी व्याकरण की शुद्धता के मुताबिक माध्यमों और विधाओं में यूं ही भटकते रहे हैं।लोक,बोलियों,जन और गण की जड़ों में पैठे बिना साहित्य और भाषा का पाठ अाधा अधूरा है।अप्रासंगिक।


इतिहास, भूगोल,अर्थशास्त्र, विज्ञान और गणित पर भी शास्त्रीय पुरोहिती वर्चस्व विश्वव्यापी है और सत्ता विमर्श की भाषाओं संस्कृत,ग्रीक,लैटिन और हिब्रू का ही विश्वभर में तमाम भाषाओं, बोलियों,विषयों,माध्यमों और विधाओं पर रंगभेदी वर्चस्व है। विशुद्धता का यह रंगभेद मुक्तबाजार का विज्ञान और हथियार दोनों है तो अंध राष्ट्रवाद का मनुष्यविरोधी प्रकृतिविरोधी फासिज्म भी।


पश्चिमी भाषाओं के तमाम प्रतिमान और मिथक ग्रीक और लातिन कुलीनत्व है तो जायनी विश्वव्यवस्था  और मनुष्यताविरोधी प्रकृतिविरोधी युद्धतंत्र की भाषा हिब्रू है तो विशुध रंगभेद की देवभाषा संस्कृत है।


ये चारों भाषाएं पुरोहिती वर्चस्व की क्रमकांडी भाषाएं हैं और इन्ही में मर खप गयी हैं दुनियाभर की बोलियां,लोकभाषाएं और इन्हीं की कोख से जनमती रही है अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगीज,स्पेनिश,खड़ी बोली  जैसी सत्ता विमर्श की भाषाएं।


इसी रंगभेद में दफन है जनता का इतिहास और जनता की विरासत,मोहनजोदारो हड़प्पा से लेकर तथागत गौतम बुद्ध का धम्म भी।


भारत ही नहीं,दुनियाभर में इतिहास की निरंतरता से जुड़ने के लिए द्रविड़ भाषा तमिल जानना अनिवार्य है तो जन,गण और लोक की गहराइयों में पैठने के लिए पाली जानना अनिवार्य है और हम ये दोनों भाषाएं नहीं जानते तो समझ लीजिये कि हम बुड़बकै हैं।


पहले पाली की बात करें तो ढाई हजार साल पहले किसी राजकुमार सिद्धार्थ ने शाक्य गण की लोकपरंपरा के तहत विवाद में पराजित होने के बाद स्वेच्छा से राजमहल छोड़कर बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद जो धम्मचक्र प्रवर्तन किया,उसके तहत वे न  ईश्वर थे और न पुरोहित और उनकी भाषा जनता की बोली पाली थी,जो वैदिकी सत्ता की भाषा संस्कृत के वर्चस्व के खिलाफ सीधे जनपदों के अंतःस्थलों में जन जन के जुबान की भाषा थी।


तथागत गौतम बुद्ध ज्ञान विज्ञान की बात कर रहे थे जनभाषा पाली में,जिसे हम धम्म कहते हैं। उनके देशना सत्य की खोज के लिए मार्गदर्शन हैं जो पाली में दिये गये।


मोहनजोदारो और हड़प्पा की द्रविड़ सभ्यता की भाषा तमिल और द्रविड़ समुदायों और भाषाओं के दक्षिण भारत से गायपट्टी,पूर्व और पूर्वोत्तर के अछूत अनार्यों के अलगाव और पाली के अवक्षय के कारण ही देवभाषा और देवमंडल का यह सर्वव्यापी वर्चस्व है।


भारत ही नहीं,दुनियाभर में इतिहास की निरंतरता से जुड़ने के लिए द्रविड़ भाषा तमिल जानना अनिवार्य है तो जन,गण और लोक की गहराइयों में पैठने के लिए पाली जानना अनिवार्य है और हम ये दोनों भाषाएं नहीं जानते तो समझ लीजिये कि हम बुड़बकै हैं।



भारतीय भाषाओं के अपभ्रंश से विकसित होने तक पाली जनता की बोली थी तो बुद्धमय भारत में धम्म और राजकाज की भाषा पाली थी,जिसमें पाल वंश के बंगाल में पतन होने तक शूद्र और अस्पृश्य जनता का साहित्य और इतिहास,रोजनामचा, जिंदगीनामा था।कर्मकांड की भाषा संस्कृत न राजभाषा थी और न जनता की बोली।


सातवीं से लेकर ग्यारहवीं सदी का इतिहास तम युग क्यों कहलाता है और उस तम युग में पाली भाषा और बुद्धमय भारत का अवसान क्यों है,इसपर शोध जरुरी है।


वैदिकी संस्कृति और वैदिकी राजकाज की देवभाषा संस्कृत अब मुक्तबाजार का अनिवार्य उत्तर आधुनिक  पाठ है तो धर्म और कर्म भी है- जबकि बुद्धमय भारत की राजभाषा,धम्म की भाषा और लोकभाषा पाली की विरासत सिरे से लापता है और उसका इतिहास और साहित्य भी उसीतरह लापता है जैसे मोहनजोदारो और हड़प्पा की नगर सभ्यता का साहित्य,उनकी भाषा और उनका इतिहास।


हम आपको बार बार याद दिलाते हैं कि भारत का विभाजन दो राष्ट्रों के सिद्धांत के बहाने मोहनजोदारो और हड़प्पा की विरासत का विभाजन है।


इसे समझने के लिए रंगभेद के भूगोल को समझना बेहद जरुरी है और रंगभेदी वर्चस्व की देवभाषाओं संस्कृत,ग्रीक,लैटिन,हिब्रू और उनके महाकाव्यों,मिथकों,इतिहास,पवित्र ग्रंथों,देवदेवियों के साझा भूगोल और इतिहास को समझने की जरुरत है जो यूरेशिया में केंद्रित है और पाषाणयुग से ताम्रयुग तक मनुष्यता की विकासयात्रा के दरम्यान यही सनातन आर्य संस्कृति ने अपने सौंदर्यबोध,विशुद्धता और व्याकरण से दुनियाभर की दूसरी नस्लों को उनकी जमीन,विरासत,भाषा और पहचान से बेदखल किया है।


द्रविड़ अनार्य भूगोल सिर्फ पूर्वी भारत या दक्षिण भारत या दंडकारण्य नहीं है,इस अश्वेत अशुद्ध अनार्य भूगोल में एशिया के अलावा अफ्रीका और लातिन अमेरिका और अमेरिका तो है ही बल्कि मोहनजोदारो और हड़प्पा की नगर सभ्यता के विध्वंस से पहले मध्य एशिया और यूरोप से भी द्रविड़ों और अनार्यों की बेदखली से शुरु हुई यह वैदिकी सभ्यता और बाल्टिक सागऱ पार फिन लैंड से लेकर सोवियत साइबेरिया  और पश्चिम एशिया में भी बिखरे हैं फिन अनार्य द्रविड़,जो हमारी तरह अश्वेत भी नहीं है।


महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मध्यएशिय़ा के इतिहास में पित्तलयुग अध्याय में पेज नंबर 63 मे लिखा हैः


ताम्रयुग में अनौ और ख्वारेज्मसे सप्तनद तक मुंडा द्रविड़ जाति की प्रधानता थी।पित्तलयुग में आर्यों और शकों के पूर्वज सारे उत्तरापथ और दक्षिणापथ में फैले।मुस्तेर और मध्य पाषाणयुगीन मानव केसंबंध में हम निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कह सकते।मध्य पाषाणयुगीन मानव,हो सकता है,नव पाषाणयुग के मुंडा द्रविड़ के ही पूर्वज हों,जो कि नव पाषाणयुग के प्रारंभ में ही यूरोप की ओर भागने के लिए मजबूर हुए।ऐसी अवस्था में मुंडा द्रविड़ वंश के लोग भूमध्यीय वंश के होने के कारण दक्षिण या दक्षिण पूुर्व से मध्य एशिया में घुसे होंगे।पित्तलयुग में मध्यएशिया खाली करके जाने वाले हिंदू यूरोपीय वंश की एक शाखा को फिर हम उनके पूर्वजों की भूमि में लौटते देखते हैं।ये ही शकों और आर्यों के जनक थे।इनके आने के बाद मुंडा द्रविड़ लोगों का क्याहुआ,शायद वहां भी वही इतिहास पहले ही दोहरा दिया गया ,जो कि भारत में पीछे हुआ,अर्थात कुथ मुंडा द्रविड़ पराधीन होकर वहीं रह गये और विजेताओं ने उन्हें आत्मसात कर लिया।कुछ लोगों ने पराधीनता स्वीकार न करके खाली पड़ी हुई जमीन पर आगे खिसक गये।


महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मध्यएशिय़ा के इतिहास में पित्तलयुग अध्याय में पेज नंबर 63 मे लिखा हैः


अल्ताई से सिङक्याङ तक फैले मुंडा द्रविड़ जातियों के इन्ही भागे हुए अवशेषों को आज हम वोल्गा के उत्तर वनखंडों में रहने वाली कोमी और बाल्टिक के पूर्वी तट परबसनेवाली एस्तोनी और फिनलैंड में बसनेवाली फिन जाति के रुप में पाते हैं।किसी समय मास्को और लेनिनग्राद का सारा भूभाग उसी जाति का था,जिसकी शाखाएं वर्तमान कोमी ,एस्तोनी और फिन हैं।फिन भाषा का द्रविड़ भाषा से संबंध भी इसी बात की पुष्टि करता है कि शकार्यों और द्रविड़ों के संघर्ष के परिणामस्वरुप उनका एक भाग जो उत्तर की ओर भागा,वही फिन जाति है।इस प्रकार,मुंडा द्रविड़ कहने की जगह हम नवपाषाणयुग की मध्यएशियाई प्राचीन जाति को फिनो द्रविड़ कह सकते हैं।


गौरतलब है महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने फिनो द्रविड़ नृतत्व पर यह अध्ययन भारत की आजादी से पहले कर लिया था और इस अध्ययन के लिए उनके स्रोत ग्रंथ

पश्चिमी  देशों के साथ साथ सोवियत नृतत्वेत्ताओं के लिखे ग्रंथ भी थे।




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প্রিয় স্বজন, ভারত এখন শ্মশান ভূমি। দানা মাঝির কাঁধে আমাদের শব দেহ। ক্রমাগত চলছে এই মৃতের মিছিল। মুজফরনগর, হায়দ্রাবাদ, উনা, কালাহান্ডি একেরপর এক বিরামহীন শবের মিছিল।

Next: अस्पतालों में जिंदगी से खिलवाड़ आमरी अग्निकांड के हादसे के बाद भी कोलकाता के तमाम बड़े अस्पतालों के पास फायर लाइसेंस नहीं हैं। देश के बाकी राज्यों और महानगरों के अस्पतालों में तहकीकात की जाये तो पता चल सकता है कि चिकित्सा के नाम पर जुतगृह के इस भारत व्यापी नेटवर्क में मरीजों और डाक्टरों को जिंदा जलाने का महोत्सव है। एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास हस्तक्षेप संवाददाता
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প্রিয় স্বজন,
ভারত এখন শ্মশান ভূমি। দানা মাঝির কাঁধে আমাদের শব দেহ। ক্রমাগত চলছে এই মৃতের মিছিল। মুজফরনগর, হায়দ্রাবাদ, উনা, কালাহান্ডি একেরপর এক বিরামহীন শবের মিছিল। আমরা একেবারে খাদের কিনারায় দাঁড়িয়ে আছি।

এবার থামাতে হবে এই শ্মশানের গান। বাঁচতে হলে একেবারে বাঁচার মত বাঁচো। নতুবা তফাৎ যাও।

Dalit-Bahujan Solidarity Movement, West Bengal এর পক্ষ থেকে আমরা এই শ্মশান যাত্রাকে রুখে দেবার জন্য ডাক দিয়েছি। ইতি মধ্যে নানা সংগঠনের সাথে আমাদের আলোচনা হয়েছে। সংগঠিত হয়েছে দীপ্ত মিছিল।

এবার আমরা এই স্বাধিকার আন্দোলনকে একটি পরিকল্পিত রূপ দিতে চাই। স্বাধিকার আন্দোলনের পক্ষে গঠন করতে চাই একটি কোর কমিটি। প্রতি জেলা থেকে পেতে চাই দৃঢ়চেতা বলিষ্ঠ কর্মী ও নেতা।

আমরা আন্দোলনকে আরো তীব্রতর করে তোলার জন্য আগামী মাসের দ্বিতীয় সপ্তাহে প্রত্যেক জেলার কর্মীদের নিয়ে একটি আলোচনা সভার আয়োজন করতে চাইছি।

আপনাদের সুচিন্তিত মতামত দিন। 
জয় ভীম, জয় ভারত 
Dalit-Bahujan Solidarity Movement, West Bengal

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अस्पतालों में जिंदगी से खिलवाड़ आमरी अग्निकांड के हादसे के बाद भी कोलकाता के तमाम बड़े अस्पतालों के पास फायर लाइसेंस नहीं हैं। देश के बाकी राज्यों और महानगरों के अस्पतालों में तहकीकात की जाये तो पता चल सकता है कि चिकित्सा के नाम पर जुतगृह के इस भारत व्यापी नेटवर्क में मरीजों और डाक्टरों को जिंदा जलाने का महोत्सव है। एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास हस्तक्षेप संवाददाता

Next: बंगाल,असम और पूर्वोत्तर में उग्रवाद के भरोसे हिंदुत्व के एजंडे को अंजा देने का खतरनाक खेल मीडिया में जनसुनावाई पर रोक के लिए हस्तक्षेप पर अंकुश ममता ने कहा : कल्पना कीजिए कि बीएसएफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है, जो देश और राज्य को तोड़ना चाहते हैं। एक सांसद (भाजपा के) केंद्र को उनके (नारायणी सेना के) पक्ष में पत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि उसे भारतीय सेना में शामिल किया जाये। उनक�
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अस्पतालों मेंजिंदगी से खिलवाड़
आमरी अग्निकांड के हादसे के बाद भी कोलकाता के तमाम बड़े अस्पतालों के पास फायर लाइसेंस नहीं हैं।


देश के बाकी राज्यों और महानगरों के अस्पतालों में तहकीकात की जाये तो पता चल सकता है कि चिकित्सा के नाम पर जुतगृह के इस भारत व्यापी नेटवर्क में मरीजों और डाक्टरों को जिंदा जलाने का महोत्सव है।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
हस्तक्षेप संवाददाता

कोलकाता।अस्पतालों और निजी चिकित्सा संस्थानों के नानाविध गोरखधंधे अक्सर बेपर्दा होते रहते हैं।इस सिलसिले  में पुराने किस्सों को हम दोहरा नहीं रहे हैं लेकिन मुर्शिदाबाद के सरकारी अस्पताल में ताजा अग्निकांड में मरीजों की मौत ने फिर कोलकाता में आमरी अस्पताल की याद ताजा कर दी है।गौरतलब है कि  मुर्शिदाबादमेडिकल कॉलेज अस्पताल मेंआज आग लग जाने के बाद मची भगदड़ में दो महिलाओं और एक बच्ची की मौत हो गयी और सात अन्य घायल हो गये। जिससे मरीजों और उनके तीमारदारों के बीच दहशत फैल गयी। मृत दोनों महिलाएं नर्सें हैं।

मुर्शिदाबाद जिले के बहरमपुर स्थित मुर्शिदाबाद मेडिकल कॉलेज अस्पताल में शनिवार को भयावह आग लग जाने से दो नर्सिंग सहायक और एक नवजात शिशु की मौत हो गयी। हालांकि शिशु की मौत आग की वजह से होने के संबंध में संशय बना हुआ है।
गौरतलब है कि खास कोलकाता में आमरी अस्पताल में आग से 92 लोगों की मौत हुई थी।

इस अग्निकांड के बाद तहकीकात से यह खुलासा हो गया है कि निजी अस्पतालों में और हेल्थ हब में कानून ताक पर रखने का जो नेटवर्क है,उससे कहीं ज्यादा हैरतअंगेज कोलकाता और जिला शहरों के अस्पतालों में मरीजों और डाक्टरों की सुरक्षा में लापरवाही का आलम है।

जाहिर है कि केंद्र या राज्य सरकार अस्पतालों की सेहत सुधारने के लिए कोई बड़ा कदम उठाने के बजाये दुर्घटनाओं को सिरे से रफा दफा करने का शार्ट कट ही अपनाती हैं और इसके नतीजे इतने खतरनाक हैं कि आमरी अग्निकांड के हादसे के बाद भी कोलकाता के तमाम बड़े अस्पतालों के पास फायर लाइसेंस नहीं हैं।

गौरतलब है कि है कि वर्ष 2010-11 में मुर्शिदाबाद अस्पताल को तुरत फुरत  मेडिकल कॉलेज का रूप दिया गया था। यहां निर्माण कार्य अभी भी चल रहा है। इसी हफ्ते बर्दवान जिले के कटवा में स्थित सबडिवीजनल अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर में आग लग गयी थी। गौरतलब है कि वर्ष 2011 में कोलकाता के ढाकुरिया स्थित आमरी अस्पताल में आग लगने से 92 लोगों की मौत हो गयी थी।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निर्देश पर गठित विशेष जांच दल ने मौके का मुयायना किया और इसके बाद जांच टीम की मुखिया चंद्रिमा भट्टाचार्य ने इस अग्निंकांड के पीछे गहरी साजिश होने का आरोप लगाया है।



कोलकाता के सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों पीजी अस्पताल से लेकर मेडिकल कालेज तक में अग्निकांड से निपटने की कोई व्यवस्था है ही नहीं है और न इन बड़े सरकारी अस्पतालों के पास कानूनी तौर पर अनिवार्य फायर लाइसेंस हासिल हैं।

देश के बाकी राज्यों और महानगरों के अस्पतालों में तहकीकात की जाये तो पता चल सकता है कि चिकित्सा के नाम पर जुतगृह के इस भारत व्यापी नेटवर्क में मरीजों और डाक्टरों को जिंदा जलाने का महोत्सव है।

गौरतलब है कि भारत में आपदा प्रबंधन की कोई संरचना अभी बनी ही नहीं है और बाढ़, भूस्खलन भुखमरी,सूखा ,भूकंप हर साल आम नागरिकों के रोजमर्रे की जिंदगी को कयामत में तब्दील कर देती है।राहत सहायत की रस्म अदायगी के बाध फिर अगले साल के दुर्गा पूजा और गणेशोत्सव या ईद की तरह हम आपदाओं का इंतजार करते हैं।

भारतभर में शहरीकरण की अंधी दौड़ में महानगरों से लेकर जिला शहरों में बेदखली का सबसे चामत्कारिक फंडा अग्नकांड है।दिल्ली, मुंबई ,कोलकाता,चेननई की बस्तियों में हर साल होने वाले अग्निकांड का सच यही है।

साजिश की थ्योरी के मद्देनजर रफा दपा हो रहे इस मामले में दहशतजदा आम जनता का अस्पताली रोजनामचे पर गौर करें।शनिवार सुबह 11.50 बजे के करीब अस्पताल की दूसरी मंजिल पर स्थित मेडिसिन विभाग में आग लगने से अस्पताल में अफरातफरी फैल गयी। देखते ही देखते आग, नवजात शिशुओं के वार्ड और एमआरआइ विभाग में फैल गयी। दहशत में आये रोगी खिड़की तोड़कर नीचे छलांग लगाने लगे। भारी अफरातफरी में मरीज स्लाइन की बोतल हाथों में लेकर भागने लगे। स्थानीय लोगों ने पहले बचाव कार्य में हाथ बंटाया।

महिलाओं और उनके नवजात बच्चों को उतारा गया। अस्पताल के चीफ मेडिकल ऑफिसर सुभाशीष साहा ने बताया कि अब तक मिली जानकारी के मुताबिक आग से दो महिलाओं की मौत हुई है। दोनों नर्सिंग सहायक थीं। जानकारी के मुताबिक धुएं की वजह से उनकी मौत हुई है। एक नवजात शिशु की भी मौत हुई है। लेकिन उसकी मौत के पीछे आग ही वजह थी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। धुएं की वजह से 18 अन्य लोग बीमार हो गये हैं। साहा ने कहा कि दहशत की वजह से स्थिति ज्यादा गंभीर हो गयी।

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल सरकार ने मुर्शिदाबादमेडिकल कॉलेज अस्पताल मेंआग की सीआईडी जांच का आदेश दिया है। राज्य सचिवालय नबान्न से जारी एक विग्यप्ति में आज बताया गया, सीआईडी से घटना में साजिश की संभावना पर गौर करने को कहा गया है।

मुख्य चिकित्सा अधिकारी एस साहा ने कहा, 'अस्पताल मेंआग लग गयी। जिसमें दो लोगों के मरने की खबर है। आग पर काबू पा लिया गया है। घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।' उन्होंने कहा कि आग लगने का कारण एसी यूनिट थी। आग लगने के तुरंत बाद मरीजों को अस्पताल मेंआते देखा गया जबकि कुछ बच्चों को अस्पताल के वार्ड से बाहर लाया गया।



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बंगाल,असम और पूर्वोत्तर में उग्रवाद के भरोसे हिंदुत्व के एजंडे को अंजा देने का खतरनाक खेल मीडिया में जनसुनावाई पर रोक के लिए हस्तक्षेप पर अंकुश ममता ने कहा : कल्पना कीजिए कि बीएसएफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है, जो देश और राज्य को तोड़ना चाहते हैं। एक सांसद (भाजपा के) केंद्र को उनके (नारायणी सेना के) पक्ष में पत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि उसे भारतीय सेना में शामिल किया जाये। उनक�

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बंगाल,असम और पूर्वोत्तर में उग्रवाद के भरोसे हिंदुत्व के एजंडे को अंजा देने का खतरनाक खेल

मीडिया में जनसुनावाई पर रोक के लिए हस्तक्षेप पर अंकुश

ममता ने कहा : कल्पना कीजिए कि बीएसएफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है, जो देश और राज्य को तोड़ना चाहते हैं। एक सांसद (भाजपा के) केंद्र को उनके (नारायणी सेना के) पक्ष में पत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि उसे भारतीय सेना में शामिल किया जाये। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हर घर में जाकर गायों की गिनती कर रहे हैं। हम इस तरह की चीजें बर्दाश्त नहीं करेंगे।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

हस्तक्षेप संवाददाता

बंगाल में चरम  राजनीतिकरण का नतीजा समाज,परिवार और राष्ट्र के विघटन की दिशा में परमगति प्राप्त करने लगा है।बंगाल में मीडिया पर अंकुश रघुकुल रीति की तरह मनुस्मडति शासन है और आम जनता की सुनवाई मीडिया में भी नहीं है।हस्तक्षेप में हम जनसिनवाई को प्राथमिकता देते हैं तो बंगाल में हस्तक्षेप पर बी अंकुश लगने लगा है।


पुलिस प्रशासन और जीआरपी तक के माध्यम से हस्तक्षेप संवाददाता की गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कोशिस हो रही है।दूसरी तरफ विपक्ष के हाशिये पर चले जाने की वजह से लोकतांत्रिक माहौल खत्म सा है।


समूचे पूर्वोत्तर और असम में उग्रवादी गतिविधिया राजनीति का अनिवार्य अंग रही है और इसीके तहत केंद्र और राज्य सरकारे वहां उग्रवादी संगठनों का इस्तेमाल करती रही है।मसलन असम जैसे संवेदनसील राज्य में अस्सी के दशक से सत्ता की राजनीति अल्फा के कब्जे में है और असम में अल्फा के हवाले राजकाज है जिससे बार बार असम नानाविध हिंसक घटनाओ का शिकार है।


सबसे खतरनाक बात यह है कि अब अल्फा की राजनीति हिंदुत्व के एजंडे में शामिल है जिसके निशाने पर तमाम आदिवासी,दलित,शरणार्थी और गैर असमी समुदाय हैं और हिंदुत्व के एजंडे तको अमल में लाने के लिए असम को पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों की तरह संवेदनशील बनाये रखने की राजनीति केंद्र और राज्य सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है जो केसरिया आंतकवाद की गुजरात अपसंस्कृति और अपधर्म का विस्तार है।


बंगाल में गोरखा लैंड आंदोलन को बढ़ावा देने की राजनीति पर उत्तर बंगाल का सत्ता विमर्श अस्सी के दशक से असमिया अल्फा राजनीति का विस्तार रहा है।


अब गोरखालैड पर केसरिया सुनामी का रंग चढ़ गया है और बंगाल का सत्ता वर्ग भी उसे नियंत्रित करने में नाकाम है।उत्तर बंगाल के आदिवासियों में अलगाव की राजनीति को भी हिंदुत्व की राजनीति से जोड़ दिया गया है और कामतापुरी आंदोलन को अब सीधे तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन हासिल है।


दूसरी ओर,त्रिपुरा में वाम मोर्चा का गठ ढहाने में दक्षिण पंथी राजनीति फेल हो जाने से वहां फिर नेल्ली नरसंहार की स्थितियां बनाने के लिए उग्रवादियों को केंद्र की शह पर राजनीति की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जा रही है।


यह कवायद पूरे् असम समेत पूर्वोत्तर में अस्सी के दशक से जारी है और वहां नरसंहार की वारदातों के पीछ सबसे बड़ी वजह यह है।


अब बंगाल में केसरिया एजंडा के लिए वही खतरनाक खेल दोहराया जा रहा है।सीमा सुरक्षा बल कामतापुरी अलगाववादी आंदोलन की नारायणी सेना को अंध राष्ट्रवाद की आड़ में प्रशिक्षण देने लगी है।इसकी बंगाल में तीखी प्रतिक्रिया होने की वजह से फिलहाल प्रशिक्षण स्थगित है लेकिन इस घटना से बंगाल के केसरियाकरण के लिए असम और पूर्वोत्तर की तर्ज पर उग्रवादियों की मदद से केसरिया आतंकवाद के भूगोल में बंगला को शामिल करने के हिंदुत्व एजंडा का खुलासा हो गया है।


मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नेबीएसएफ के ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन की नारायणी सेना को प्रशिक्षण दिये जाने के संदर्भ में केंद्र पर बांटने की राजनीति करने का आरोप लगाया है।


ममता ने कहा : कल्पना कीजिए कि बीएसएफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है, जो देश और राज्य को तोड़ना चाहते हैं। एक सांसद (भाजपा के) केंद्र को उनके (नारायणी सेना के) पक्ष में पत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि उसे भारतीय सेना में शामिल किया जाये। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हर घर में जाकर गायों की गिनती कर रहे हैं। हम इस तरह की चीजें बर्दाश्त नहीं करेंगे।


हांलाकि  बीएसएफ ने आरोपों को 'बेबुनियाद'बता कर खारिज कर दिया है.




गौरतलब है कि सीमा सुरक्षा बल के जवानों द्वारा नारायणी सेना को प्रशिक्षण दिये जाने पर तृणमूल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय ने कहा कि यह बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ षडयंत्र है।

तृणमूल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पूर्व रेल मंत्री  मुकुल राय का आरोप है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कामतापुरी आंदोलन का इस्तेमाल करने के नजरिये से नारायणी सेना को सीमा सुरक्षा बल के मार्फत प्रशिक्षित कर रही है।


अब देखना है कि इस खतरनाक खेल का ममता बनर्जी कैसे मुकाबला करती है।क्योंकि यह राज्यसरकार और बंगाल के सत्ता दल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है और कानून और व्यवस्था कीजिम्मेदारी भी उसीकी है।


इसी सिलसिले में मीडिया पर अंकुश के लिए पुलिस और जीआरपी का इस्तेमाल करके मीडिया की गतिविधियों में हस्तक्षेप का खेल भी संघी एजंडा का खतरनाक आयाम है।मुख्यमंत्री को तत्काल इसपर कार्रवाी करनी होगी वरना बंगाल में भी हालात असम और पूर्वोत्तर जैसा बना देने में हिंदुत्व राजनीति कोई कसर नहीं छोड़ रही है।


इसी सिलसिले में वामदलों से और सत्ता दल से खारिज नेताओं को भाजपा में खास भूमिका देने से भी परहेज नहीं कर रहा है संग परिवार।


मसलन नंदीग्राम नरसंहार मामले में माकपा से बहिस्कृत पूर्व माकपा सांसद लक्ष्मण सेठ को बाजपा में शामिल करके मेजिनीपुर के संवेदनशील इलाकों के केसरियाकरण की रणनती संघ परिवार की है जहां पिछले विधान सभा चुनाव में कट्टर संघी नेता दिलीपर घोष खड़कपुर से चुनाव जीत चुके हैं और उन्ही दिलीप घोष की पहल पर भारत की आजादी के गांधीवादी आंदोलन के गढ़ शहीद मातंगिनी हाजरा के तमलुक से लोकसभा उपचुनाव में लक्ष्मण सेठ को भाजपा प्रत्याशी बनाया जा रहा है।


पूर्व रेल मंत्री  मुकुल राय का कहना है कि भाजपा बंगाल में विभाजन की राजनीति उकसाने का काम कर रही है। सीमा सुरक्षा बल द्वारा कूचबिहार में ऐसे संगठन के लोगों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जो बंगाल का विभाजन कर अलग राज्य बनाने की मांग कर रहे हैं। यह साबित करता है कि भाजपा अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कोई भी कदम उठा सकती है। इसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। इसके खिलाफ तृणमूल पूरे राज्य में प्रचार अभियान चला कर लाेगों को जागरूक करेगी।


दूसरी तरफ बंगाल में विपक्ष के सांसदों और विधायकों को तोड़ने और पालिकाओं और जिला परिषदों से विपक्ष को बेदखल करने की सत्तादल की राजनीति की वजह से ममता बनर्जी विपक्ष के निशाने पर हैं और संघ परिवार के इस खतरनाक खेल से निबटने के लिए बंगाल में किसी तरह की राजनीतिक मोर्चाबंदी नहीं है।ममता लोकतांत्रिक वाम विपक्ष को हाशिये पर लाने के लिए हरसंभव जतन कर रही है और बंगाल में विपक्ष के सफाये की वजह से उग्रवादियों की मदद से संघ परिवार का अल्फाई एजंडा बंगाल में तेजी से अमल में आ रहा है।जिस ओर न सत्ता पक्ष का ध्यान है और न वाम लोकतांत्रिक विपक्ष का।


राजनीतिक सत्ता संघर्ष के खेल में संघ परिवार गुपचुप बेहद खतरनाक तरीके से अल्फाई केसरिया आतंकवाद के एजंडे को बंगाल में लागू कर ही है कुलेआम।


इसी बीच मालदा में एक कार्यक्र में वाम नेतृत्व ने ममता बनर्जी की जमकर खिंचाई की है लेकिन वाम नेतृत्व ने उत्र बंगाल में उग्रवाद और संघी एजंडे पर अभी मौन है। बहरहाल, पूरे राज्य  में माकपा के अंदर पार्टी छोड़ने की स्थिति है, उसके लिए माकपा के वरिष्ठ नेता विमान बोस ने तृणमूल को लताड़ा है।


रविवार को मालदा जिला पार्टी कार्यालय में एक पत्रकार सम्मेलन में उन्होंने कहा कि राज्य की सत्ताधारी  तृणमूल कांग्रेस की जो नीति है, उससे यह स्थिति अभी समाप्त नहीं होगीष इसके लिये इंतजार करना होगा।


माकपा के वरिष्ठ नेता विमान बोस का आरोप है कि  तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी पूरे राज्य में एक पार्टी और एक नेता की नीति पर चल रही है।

उनके अनुसार ही सबकुछ होगा। यह नीति पूरे राज्य में सत्ता के केंद्रीकरण को जन्म देगा। विमान बोस के मुताबिक वर्ष 1977 में जब माकपा राज्य की सत्ता में आयी थी तब माकपा सरकार के सत्ता के विकेंद्रीकरण की नीति अपनायी थी।


विमान बोस के मुताबिक माकपा सरकार के समय कइ पंचायत समिति, नगरपालिका, जिला परिषद विरोधी पार्टी के अधीन थे। माकपा सरकार अपने कार्यकाल में कभी भी विरोधी दलों के अधीन नगरपालिका और जिला परिषदों पर कब्जा नहीं किया। उस जिला परिषद या नगरपालिका की कभी भी आर्थिक सहायता नहीं रोकी। वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस माकपा सरकार के ठीक विपरीत रास्ते पर चल रही है। विरोधी दलों के अधीन नगरपालिका, जिला परिषद, ग्राम पंचायत, पंचायत समितियों पर तृणमूल कब्जा कर रही ह।. इसके अतिरिक्त आर्थिक भी रोक दी गयी है।

उन्होंने कहा कि तृणमूल जिस नीति पर चल रही वह पूरी तरह से अगणतांत्रिक और अनैतिक है।जबरन दखल की राजनीति कर तृणमूल कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की नहीं बल्कि राज्य के आमलोगों का अपमान कर रही है।

पत्रकारों को संबोधित करते हुए विमान बसु ने कहा कि तृणमूल कांग्रेस देश के संविधान को नहीं मान रही है। इन्हें रोकने के लिये राज्य की जनता तैयार हो रही है। गणतंत्र की समाधि बनाने पर नागरिक कभी भी चुप नहीं बैठेंगे। गणतंत्र की रक्षा के लिये नागरिकों को ही सामने आना होगा।


विडंबना यह है कि तृणमूल काग्रेस से निबटने के चक्कर में वामनेतृत्व संघ परिवार के खतरनाक एजंडे को सिरे से नजरअंदाज कर रहा है।


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Yet another Partition resolution passed by West Bengal Assembly! Palash Biswas

Previous: बंगाल,असम और पूर्वोत्तर में उग्रवाद के भरोसे हिंदुत्व के एजंडे को अंजा देने का खतरनाक खेल मीडिया में जनसुनावाई पर रोक के लिए हस्तक्षेप पर अंकुश ममता ने कहा : कल्पना कीजिए कि बीएसएफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है, जो देश और राज्य को तोड़ना चाहते हैं। एक सांसद (भाजपा के) केंद्र को उनके (नारायणी सेना के) पक्ष में पत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि उसे भारतीय सेना में शामिल किया जाये। उनक�
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Yet another Partition resolution passed by West Bengal Assembly!

Palash Biswas

Image result for Partition of Bengal resolution 1947

It is the final partition,excuse me!

Yet another Partition resolution passed by West Bengal Assembly!


As the West Bengal part of United Bengal Assembly passed the partition of Bengal resolution culminating in the partition of India against East Bengal`s majority resolution rejecting partition,the West Bengal Assembly on Monday passed a resolution for renaming the state as 'Bangla' in Bengali and 'Bengal' in English, weeks after a proposal in this regard was put forward by Chief Minister Mamata Banerjee. 


Finally, Bengal is divided and East Bengal is deleted!

 

West Bengal might not be renamed as Bengal as the geography of West Bengal does not represent Bengal at all and historically,East Bengal was known as Banga which is now Bangladesh.


The Bangaj represented the negroid humanity and Banga was a little part of the negroid Dravid demography worldwide whereas West Bengal was mainly ruled from Gaura which gradually became the part of the Aryawart ruled by Aryans as soon as the demise of Buddhist Bengal with the fall of Pal Dynasty when the Sen Dynasty led by King Ballal Sen injected Brahminism in the veins of Non Aryan,dravid negroid Bengal.


Those Bangaj,specifically those from Banga later East Bengal and latest Bangladesh had been discarded by the earlier West Bengal resolution of partition which triggered the infinite holocaust for the negroid dravid Non Aryan demography across the political borders.


Even after partition most of the divided,degenerated Bangaj demography known as refugees have been scattered countrywide as the bleeding consequence of partition of India and they have to sacrifice everything as the price of Indian freedom for which they have been discarded from the history and geography of Bengal.


Despite the partition,both part of Bengal share the same history if not the geography and the tradition of Bengali culture and identity could not be divided even after partition.


Yes,it is the final partition to execute the resolution passed in 1947.

Reference:

Partition of Bengal (1947)

From Wikipedia, the free encyclopedia

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यह आतंकवादी केसरिया सुनामी ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान है और हिंदुत्व का अवसान है।

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यह आतंकवादी केसरिया सुनामी ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान है और हिंदुत्व का अवसान है।

राष्ट्रवादी देश भक्त तमाम ताकतों को एकजुट होकर हिंदुत्व के नाम जारी इस नरसंहारी अश्वमेध के घोड़ों को लगाम पहनाने की जरुरत है।वरना देश का फिर बंटवारा तय है।

यह बेशर्म रंगभेद ब्राह्मणधर्म की मनुस्मृति राज की बहाली का फासिज्म है।हिंदुत्व का पुनरुत्थान किसी भी सूरत में नहीं है।हिंदु बहुसंख्य और भारत के गैर ब्राह्मण तमाम समुदाय इसे अच्छी तरह समझ लें तो देश और हिंदुत्व दोनों का कल्याण है।इस लिहाज से हिंदुत्व के हित में यही है कि ब्राह्मण धर्म के एकाधिकारी कारपोरेट मुक्तबाजारी पुनरुत्थान के मुकाबले हिंदुत्व की बुनियाद तथागत के धम्म की ओर लौटा जाये।


हमलावरों ने सिंधु सभ्यता,उसके इतिहास और भूगोल का जो विनाश किया वह सिलिसिला उस सभ्यता के वंशजों किसानों और मेहनतकशों के नरसंहार का कार्यक्रम है और ये तमाम समुदाय कभी इस हमवलावर नरसंहारी संस्कृति का प्रतिरोध नहीं कर सके सिर्फ इसलिए कि उत्पादक और मेहनकश तमाम समुदाय हजारों जातियों और लाखों उपजातियों में तबसे लेकर अब तक बंटे हुए हैं और सत्तावर्ग के खिलाफ उनका वर्गीयध्रूवीकरण हुआ नहीं है,जिसके लिए जाति उन्मूलन अनिवार्य है।इसलिए तथागत गौतम बुद्ध के धम्म के मार्फत जाति का विनाश और वर्गीय ध्रूवीकरण से ही मुक्ति और मोक्ष दोनों संभव है।


पलाश वि श्वास

कल रात डेढ़ बजे के करीब 1975 से हमारे मित्र लखनऊ के विनय श्रीकर और भडा़सी बाबा यशवंत का फोन आया और उनका आदेश है कि भड़ासी सम्मेलन में नई दिल्ली पहुंचु।इससे पहले हमारे फिल्मकार मित्र राजीव कुमार दिल्ली जाने का न्यौता दे चुके हैं।ब्राह्मणवादी कारपोरेट मीडिया में पीड़ित वंचित पत्रकारों को संगठित करने का ऐतिहासक काम भड़ासी यशवंत ने किया है और आज अगर देशभर के वंचित उत्पीड़ित पत्रकार जन प्रतिबद्धता के मोर्चे पर गोलबंद हो जाये तो बहुत कुछ हो सकता है।


छात्रों,युवाओं और महिलाओं की मोर्चाबंदी से फासिज्म के राजकाज के प्रतिरोध की जो जमीन बनी है,वह पत्रकारिता के मोर्चे से और पकने लगेगी,इसकी पूरी संभावना है।


मुश्किल है कि इतना कम वक्त रह गया है कि टिकट का इंतजाम मुश्किल लग रहा है।हो गया तो नई दिल्ली में पुराने मित्रों के साथ रिटायर हो जाने के बाद पहली बार बैठकी का मौका मिलेगा।फिर मौका मिले न मिले,कह नहीं सकते।यशवंत कितना गंभीर है ,इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है हालांकि उसमें नेतृत्व और संगठन की अद्भुत क्षमता है।पत्रकारिता की वानरसेना केसरिया सुनामी के मुकाबले के लिए गोलबंद हो तो इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता।फिलहाल हम सभी अकेले हैं।


सुबह हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी जी का फोन आया और उन्होंने सूचित किया कि वे हरस्तक्षेप के लिए पैसा भेज रहे हैं और अमलेंदु से बात करेंगे।गुरुजी ने पैसे भेजने का वायदा बहुत पहले किया है लेकिन अबतक भेजा नहीं है।हमने निवेदन किया कि उनका आशीर्वाद हमारे लिए काफा हैं।वे सिर्फ अपने शिष्यों को अपने इस गुरुभाई की मुहिम में शामिल होने का निर्देश जारी कर दें तो हमारी मुश्किलें आसान हो सकती हैं।


फिर बौद्ध संगठनों की समन्वय समिति के संयोजक आशाराम गौतम से अलग से बात हुई।उनसे होने वाली बातचीत का ब्यौरा हम बाद में देते रहेंगे।


गुरुजी ने आश्वस्त किया कि हम सही दिशा में जा रहे हैंं।

उनका मानना है कि हस्तक्षेप की बड़ी भूमिका बदलाव की जमीन तैयार करने में हैं और वे हमारे साथ हैं।


गुरुजी ने भी माना कि मौजूदा अंध राष्ट्रवाद की आतंकवादी केसरिया सुनामी का हिंदुत्व से कुछ लेना देना नहीं है और दरअसल यह ब्राह्मणधर्म पुनरुत्थान है और हिंदुत्व का अवसान है।


हमारे गुरुजी का मानना है कि राष्ट्रविरोधी राजकाज और राजधर्म को हिंदुत्व कहना आत्मघाती है और हिंदुत्व विरोधी मुहिम धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील मुहिम से हम ब्राह्मणवादियों के हाथ मजबूत कर रहे हैं।


इससे पहले हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े से भी हमारी इस सिलसिले में विस्तार से बातें हुई हैं।


गुरुजी और आनंद दोनों मौजूदा मनुस्मृति फासिज्म के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध के धम्म को अधर्म के धतकरम की सुनामी पर अंकुश लगाने का एकमात्र विकल्प मानते हैं।हमारे बाकी साथी इस मुहिम में हमारा साथ देंगे,उम्मीद यही है।


गुरुजी ने हस्तक्षेप मे लगे उनके पुराने आलेख का हवाला देकर बताया कि राष्ट्रवादी देश भक्त तमाम ताकतों को एकजुट होकर हिंदुत्व के नाम जारी इस नरसंहारी अश्वमेध के घोड़ों को लगाम पहनाने की जरुरत है।


उनने फिर कहा कि इतिहास में भारत में एकीकरण बार बार होता है और फिर संक्रमणकाल में देश के बंटवारे के हालात हो जाते हैं।उनके मुताबिक हम उसी संक्रमण काल से गुजर रहे हैं और वक्त रहते अधर्म के इस बंदोबस्त के खिलाफ हम सारे देशवासियों को गोलबंद न कर सकें तो भारत का टुकड़़ा टुकड़ा बंटवारा तय है।


गुरुजी ने भी माना कि तथागत गौतम बुद्ध का समता और न्याय का आंदोलन और सत्य, अहिंसा, करुणा ,बंधुत्त, मैत्री ,सहिष्णुता,पंचशील,अहिंसा की सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा से हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।उन्होंने दो टुक शब्दों में कहा कि गौतम बुद्ध का धम्म धर्म नहीं है,सामाजिक क्रांति है और इसके राजनीतिक इस्तेमाल के खिलाफ भी उन्होंने सचेत करते हुए जाति धर्म नस्ल निर्विशेष भारतरक्षा के लिए मानवबंधन का एकमात्र रास्ता बताया।


राजकाज में केसरिया आतंक के वर्चस्व और अलगाववादी और उग्रवादी गतिविधियों को राजकीय समर्थन को गुरुजी ने बंटवारे का सबसे बड़ी खतरा बताया।


गुरुजी ने कहा कि उत्पादक मेहनतकश शक्तियों को शूद्र और अस्पृश्य बनाने की मनुस्मृति व्यवस्था की बहाली के कार्यक्रम को वे हिंदुत्व का एजंडा मानने को तैयार नहीं हैं।उनके मुताबिक यह हिंदुत्व के सत्यानाश का एजंडा है और इसे नाकाम रने के लिए बहुसंख्य हिदू ही पहल करें तो देश को फिर फिर बंटवारे से बचाया जा सकता है।


हिंदुत्व के नाम अधर्म का यह पूरा कार्यक्रम इतिहास और विरासत के खिलाफ है और इसका अंजाम देश का फिर फिर बंटवारा है और केंद्र में फासिज्म के राजकाज से हम विध्वंस के कगार पर हैं,इसलिए तथागत गौतम बुद्ध की समामाजिक क्रांति के तहत धम्म के अनुशीलन और पंचशील की बहाली से जाति उन्मूलन के जरिये हम इस रंगभेदी नरसंहार का सिलसिला रोक सकते हैं और इसलिए ब्राह्मणवाद विरोधी सभी शक्तियों के एकजुट होने की अनिवार्यता है।


गुरुजी का आदेश शिरोधार्य है और हम अपनी कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।


कश्मीर,दंडकारण्य और पूर्वोत्तर में सैन्यराष्ट्र के रंगभेदी दमन,उग्रवादियों को असम और पूर्वोत्तर के बाद बंगाल में भी सत्ता समर्थित ब्राह्मणी नारायणी सेना को भारतीय सेना में शामिल करने जैसे संघी उपक्रम से बेपर्दा है तो दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, किसानों,मेहनतकशों और स्त्रियों के खिलाफ अतयाचार,उत्पीड़न के रोजनामचे के मद्देनजर हमें हकीकत की जमीन पर खड़ा होना ही चाहिए।


तमाम सामाजिक उत्पादक शक्तियों की व्यापक एकता के बिना हम इस फासिज्म के मुकाबले की स्थिति में कहीं भी,किसीभी स्तर पर नहीं है और न हो सकते हैं।जबकि उसकी सारी रणनीति मिथ्या हिंदुत्व के नाम पर आम जनता का ध्रूवीकरण की है।हम उलटे वर्गीयध्रूवीकरण का रास्ता छोड़कर जाति युद्ध का विकल्प चुनकर हिंदुतव के इस मिथ्या तिलिस्म में कैद हो रहे हैं और मुक्ति की राह खो रहे हैं।ब्राह्मण धर्म के खिलाफ सभी गैर ब्राह्मणों का वर्गीय ध्रूवीकरण मुक्ति का इकलौता रास्ता है।


इसी सिलसिले में भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो के अवसान के बाद आज के हिंदुत्व के सफर पर गौर करना जरुरी है।इस पर आप चाहेंगे तो हम सिलसिलेवार ब्यौर भी पेश करते रहेंगे।


वैदिकी सभ्यता में मूर्ति पूजा और धर्मस्थलों का कोई उल्लेख नहीं है।तथागत गौतम बुद्ध के धम्म प्रवर्तन के बाद जो संघीय ढांचा संघम् शरणं गच्छामि से बना,उसके तहत ही मूर्तियों और उपासनास्थलों की रचनाधर्मिता के साथ साथ ब्राह्मणधर्म का जनवादी कायाकल्प ही हिंदुत्व है,जिसके तहत अभिजातों के धर्म अधिकार की तर्ज पर प्रजाजनों की आस्था और उपासना के अधिकार को मान्यता दी गयी और पुरोहितों ने इसके एवज में उन्हें अपना जजमान बना दिया और धार्मिक कर्मकांड के एकाधिकार को उपसना स्थलों,धर्म स्थलों,मंदिरों से लेकर कुंभ मेले तक के आयोजन के तहत कठोर मनुस्मृति अनुशासन के तहत कमोबेश लोकतांत्रिक बना दिया लेकिन शूद्रों, महिलाओं और अछूतों को शिक्षा के अधिकार के साथ ही धर्म के अधिकार से वंचित ही रखा।


मूर्ति पूजा और मंदिरों के दूर से दर्शन के पुरोहित तंत्र के तहत उनका हिंदुत्वकरण कर दिया और इसी क्रम में गौतम बुद्ध की सांस्कृति क्रांति को प्रतिक्रांति में तब्दील कर दिया।इसके साथ ही पितरों को पिंडदान का अनुष्ठान के जरिये एकाधिकारी पितृसत्ता की तरह स्त्री को दासी और शूद्र और फिर क्रय विक्रय योग्य उपभोक्ता सामग्री में तब्दील करके उसकी हैसियत और आजीविका संस्थागत वेश्यावृत्ति में तब्दील कर दी और पितृतंत्र में मिथ्या देवीत्व थोंपकर सत्तावर्ग की महिलाओं को गुलाम बना दिया।तबसे सामाजिक रीति रिवाज,संस्कृति और धर्म के नाम पर स्त्री आखेट जारी है और भारत में जाति धर्म निरपेक्ष स्त्री उत्पीडन का महिमामंडन धर्म है।


हिंदुत्व का यह तामझाम न वैदिकी संस्कृति है और न धर्म और भारतीय दर्शन परंपरा के आध्यात्म के मुताबिक भी यह दासप्रथा,देवदासी प्रथा नहीं है।यह सीधे तौर पर एकाधिकारवादी ब्राह्मणधर्म का विस्तार है,जिसका चरमोत्कर्ष मुक्तबाजार है।


वैदिकी संस्कृति के अवसान के बाद वर्ण व्यवस्था केंद्रित ब्राह्मण धर्म के जरिये सत्तावर्ग ने उत्पादक समुदायों के साथ महिलाओं को जो अछूत और शूद्र बनाकर रंगभेदी राष्ट्र और समाज का निर्माण किया उसके खिलाफ गैरब्राह्मणों की गोलबंदी का आंदोलन ही धम्म प्रवर्तन है और इस आंदोलन में क्षत्रिय राजाओं की बड़ी भूमिका थी।जिन्होंने बुद्धमय भारत बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई।गौतम बुद्ध के धम्म को दलित आंदोलन में तब्दील करके हम गैरब्राह्मणों के वर्गीय ध्रूवीकरण के आत्म धवंस में निष्णात हैं और सामाजिक क्रांति में अवरोध बने हुए हैं।


गणराज्य कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ के बुद्धत्व और उनके धम्म को राजधर्म सम्राट अशोक और कनिष्क जैसे राजाओं ने बनाया तो भारत बौद्धमय बना।सामाजिक गोलबंदी के इस इतिहास को हमने नजरअंदाज किया।इसी इतिहास विस्मृति की वजह से न हम वीपी सिंह के मंडल आयोग लागू करते वक्त उनका साथ दे सकें और न अर्जुन सिंह के साथ खड़े हो सकें।गैरब्राह्मणों के वर्गीय ध्रूवीकरण का राकस्ता बंद करके बहुजनों ने ही ब्राह्मणधर्म के इस पुनरूत्थान का मौका बनाया और आखिरकार बहुजन ही इस ब्राह्मणी नरमेधी अश्वमेध की वानरसेना और शिकार दोनों हैं।


फिरभी,इन विसंगतियों के बावजूद सच यह भी है कि गौतम बुद्ध के धर्म प्रवर्तन के बाद उन्हीं के मूल्यों को आत्मसात करके हिंदुतव की सहिष्णु विरासत बनी और धम्म की नींव पर हिंदू धर्म का आधुनिकीकरण और एकीकरण हुआ।रंगभेद और विभाजन की यह नरसंहारी संस्कृति हिंदुत्व की विकास यात्रा और इतिहास के खिलाफ है।मूर्तियां सबसे प्राचीन बौद्ध हैं और उपासना स्थल भी प्राचीनतम बौद्ध बिहार,स्तूप और मठ हैं।


यही नहीं, वैदिकी देवताओं के स्थान पर इंद्र,वरुण,रुद्र,अग्नि जैसे वैदिकी देवताओं के स्थान पर हिंदुत्व का पूरा देवमंडल भारत की विविधता और बहुलता की विरासत है।आदिदेव शिव अनार्य है और इसमें कोई विवाद नहीं है।वैदिकी काल में अदिति को छोड़कर किसी देवी का उल्लेख नहीं मिलता और हिंदुत्व देवमंडल में दुर्गा काली से लेकर तमाम देवियां जनजाति,द्रविड़,अनार्य,खश देवियों का हिंदुत्वकरण चंडी अवतार में हैं। कालीघाट को सतीपीठ में तब्दील करने से लेकर तमाम सतीपीठ बौद्ध बंगाल में होने का मतलब एकीकरण की यह परंपरा तीन सौ चार सौ साल पहले तक चली है।तो पुराण सारे के सारे इसी देवमंडल को प्रतिष्ठित करने के लिहाज से लिखे गये हैं।


गौरतलब है कि विष्णु का अवतार तथागत गौतम बुद्ध नहीं हैं बल्कि इसका उल्टा है कि तथागत गौतम का अवतार विष्णु है।बोधगया में विष्णुपद की प्रतिष्ठा भी बौद्धमय भारत में हिंदुत्व की नींव होने का प्रमाण है।विष्णुपद की गया में प्रतिष्ठा के तहत ही तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति पिंडदान में तब्दील है। पुरात्तव पर ब्राह्मणों का एकाधिकार होने के कारण पुराअवशेषों की सारी व्याख्याएं ब्राह्मणवादी है।


इसी तरह साकेत अयोध्या में तब्दील है तो हड़प्पा और सिंदधु घाटी की सभ्यता का हिंदुत्वकरण हुआ है।पुराअवशेषों को ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक विरासत बताने के उपक्रम का खंडन अभीतक नहीं हुआ है जैसे बुद्ध काल की प्रतिमाओं को हिंदू देवमंडल में शामिल करने की मिथ्या को हम इतिहास बताते हैं जबकि बौद्धमय भारत से पहले ब्राह्मण धर्म के समय भी उन देव देवियो का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा है।


हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के हिंदुत्वकरण का सिलसिला अब भी जारी है।मसलन बंगाल में शैव और कापालिक अनार्य द्रविड़ सभ्यता की विरासत है और अब उन्हें हम हिंदू बता रहे है।एकदम ताजा उदाहरण वैदिकी कर्म कांड,ब्राह्मणवाद और पुरोहित तंत्र के खिलाफ बंगाल में दो सौ साल का पहले शुरु हुआ मतुआ आंदोलन का हिंदुत्वकरण है।हरिचांद ठाकुर भी अब परमब्रह्म हैं।तथागत का अवतार,या बोधिस्तव बताते,तो हमें अपनी विरासत की जमीन से जुड़ने का मौका मिलता।यही हश्र संत रविदास का हिंदुत्व है।बाकी देवत्व विरोधी संत परंपरा का भी इसीतरह ब्राह्मणीकरण हुआ जबकि वे सारे संत ब्राहम्मण दर्म के खिलाफ ही तजिंदगी लड़ते रहे।यही हमारी विरासत है।


बंगाल में 1911 की जनगणणा में भी शूद्र और अटूतों की गिनती हिंदुओं से अलग हुई थी,लेकिन मतुआ आंदोलन के हिंदुत्वकरण से यह पूरी आबादी हिंदू दलित और अछूत में तब्दील हो गयी और उनके रंगभेदी सफाये के तहत ही भारत विभाजन हुआ क्योंकि भारत में बहुजन आंदोलन की कोख की तरह द्रविड़़ अनार्य बंगाल की बौद्धमय विरासत है।भारत के विभाजन के लिए ही बंगाल विभाजन हुआ।बंगाल का हिंदुत्वकरणा हुआ और बंगाल में तबसे लेकर ब्राह्मणवादी एकाधिकार जीवन के हर क्षेत्र में है।मतुआ आंदोलन भी ब्राह्मणधर्म के शिकंजे में कैद वोटबैंक है अब।


अब जैसे भारत विभाजन के लिए बंगाल विभाजन का प्रस्ताव बंगाल के ब्राह्मणवादी जमींदारों का कारनामा है और दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत ब्राह्मणवादियों के साथ सत्ता में भागेदारी के लिए मुसलमानों का बहुजन समाज से अलगाव के तहत भारत विभाजन और बंगाल के द्रविड़वंशज अनार्य असुर शूद्रों और अछूतों के सफाये की निरंतरता है,उसीके आधार पर विश्वव्यापी द्रविड़ नृवंश के इतिहास भूगोल से सफाये के लिए बंगाल विधानसभा में बंटवारे का फिर निर्णायक प्रस्ताव पूर्वी बंगाल की बंगभूमि को इतिहास और भूगोल से मिटाने का उपक्रम बंगाल नामकरण पश्चिम बगाल का पश्चिम बंगाल विधान सभा का प्रस्ताव है।फिर संविधान संशोधन की प्रकिया पूरी होने का इंतजार बिना इतिहास और भगोल का यह बंटवारा है।


यह बेशर्म रंगभेद ब्राह्मणधर्म की मनुस्मृति राज की बहाली का फासिज्म है।हिंदुत्व का पुनरुत्थान किसी भी सूरत में नहीं है।हिंदु बहुसंख्य और भारत के गैर ब्राह्मण तमाम समुदाय इसे अच्छी तरह समझ लें तो देश और हिंदुत्व दोनों का कल्याण है।इस लिहाज से हिंदुत्व के हित में यही है कि ब्राह्मण धर्म के एकाधिकारी कारपोरेट मुक्तबाजारी पुनरुत्थान के मुकाबले हिंदुत्व की बुनियाद धम्म की ओर लौटा जाये।


इसे समझने के लिए इतिहास की यह बुनियादी समझ जरुरी है कि भारतवासियों के धार्मिक विश्वास अनुष्ठानों की विरासत तीसरी दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व की सिंधु सभ्यता,मोहनजोदाड़ो हड़प्पा की संस्कृति के पुरात्तव अवशेषों से शुरु होती है,जो कुल मिलाकर इस भारत तीर्थ में विभिन्न न्सलों की मनुष्यता की धाराओं के विलय की प्रक्रिया की निरंतरता है,जैसे अछूत बहिस्कृत महाकवि रवींद्र नाथ टैगोर नें भारतीय राष्ट्रीयता की सर्वोत्तम व्याख्या अपनी कविता भारत तीर्थ में की है।


तीसरी दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व की सिंधु सभ्यता,मोहनजोदाड़ो हड़प्पा की संस्कृति के विभाजन की बात हम बारा बार करते हैं तो इसका आशय यह है कि ब्राह्मण वर्गीय आधार पर एकाधिकारवादी संरचना में संस्थागत तौर पर संगठित है और राष्ट्रीय स्वयं संघ इसी रंगभेदी संरचना का उत्तर आधुनिक संस्थागत स्वरुप है।


इसके विपरीत भारत में बहुसंख्य गैरब्राह्मणों का वर्गीय ध्रूवीकरण हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो के अवसान के बाद किसी भी कालखंड में नहीं हुआ है तो ब्राह्मण वर्चस्व और एकाधिकार के सत्तावर्ग के खिलाप बाकी प्रजाजनों का कोई वर्ग कभी बना नहीं है और ऐसा कभी न बने इसके लिए तमाम गैरब्राह्मण हजारों जातियों,लाखों उपजातियों और गोत्रों में बांट दिये गये हैं और प्रजाजन हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो के बाद से लगातार जाति युद्ध में एक दूसरे को खत्म करने पर आमादा रहे हैं और सहस्राब्दियों से भारत राष्ट्र का रंगभेदी स्वरुप तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति के बावजूद जस का तस है क्योंकि इतिहास में हम कभी जाति के तिलिस्म को तोड़ नहीं पाये हैं।


गौरतलब है कि सिंधु सभ्यता,मोहनजोदाड़ो हड़प्पा की संस्कृतिकृषि आधारित उन्नततर सभ्यता की नींव पर वैश्विक वाणिज्य और विश्वबंधुत्व के रेशम पथ पर उन्नीत सभ्यता रही है.जिसने कांस्य और विविध धातुकर्म और अन्यशिल्पों के विकासके साथ साथ पकी हुई ईंटों के नगरों का निर्माण कर लिया था।


खानाबदोश यूरेशिया से आनेवाले हमलावर असभ्य और बर्बर थे उनकी तुलना में और वे पढ़ना लिखना भी नहीं जानते थे।इसके विपरीत सिंधु सभ्यता में लेखन कला उत्कर्ष पर थी।


हमलावरों ने सिंधु सभ्यता,उसके इतिहास और भूगोल का जो विनाश किया, वह सिलिसिला उस सभ्यता के वंशजों किसानों और मेहनतकशों के नरसंहार का कार्यक्रम है और ये तमाम समुदाय कभी इस हमवलावर नरसंहारी संस्कृति का प्रतिरोध नहीं कर सकी सिर्फ इसलिए कि उत्पादक और मेहनकश तमाम समुदाय हजारों जातियों और लाखों उपजातियों में तबसे लेकर अब तक बंटे हुए हैं और सत्तावर्ग के खिलाफ उनका वर्गीयध्रूवीकरण हुआ नहीं है,जिसके लिए जाति उन्मूलन अनिवार्य है।इसलिए तथागत गौतम बुद्ध के धम्म के मार्फत जाति का विनाश और वर्गीय ध्रूवीकरण से ही मुक्ति और मोक्ष दोनों संभव है।


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India – Citizenship Act should include refugees from persecuted minorities

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India – Citizenship Act should include refugees from persecuted minorities

V SURYANARAYAN

GEETA RAMASHESHAN

ADRIFT:
THE HINDU
ADRIFT: "According to sources, there are nearly 30,000 Malaiha Tamils in the refugee camps scattered throughout Tamil Nadu. They have absolutely no moorings in Sri Lanka." Picture shows a group of Tamil refugees at Tiruchi airport returning to Sri Lanka, in 2015. — PHOTO: M. SRINATH

The new citizenship legislation should include refugees from persecuted minorities of all denominations who have made India their home

On July 19, 2016, the government introduced a Bill to amend certain provisions of the Citizenship Act, 1955. The Bill has now been referred to the joint select committee of Parliament. The object of the proposed Bill is to enable Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians who have fled to India from Pakistan, Afghanistan and Bangladesh without valid travel documents, or those whose valid documents have expired in recent years, to acquire Indian citizenship by the process of naturalisation. Under the Bill, such persons shall not be treated as illegal immigrants for the purpose of the Citizenship Act. In another amendment, the aggregate period of residential qualification for the process of citizenship by naturalisation of such persons is proposed to be reduced from 11 years to six years. A large number of people who would otherwise be illegal immigrants can now heave a sigh of relief if the Bill goes through as they would be eligible to become citizens of the country.

Not inclusive enough

The Citizenship (Amendment) Bill, 2016, owes its genesis to the assurance given by the Prime Minister that Hindus from these three countries who have sought asylum in India would be conferred Indian citizenship. But since singling out Hindus alone could be discriminatory, the Bill has extended the right to acquire citizenship to other religious minorities living in the three countries.

V. Suryanarayan, Geeta Ramaseshan

The Bill, when passed, would be of immense benefit to the Chakmas and Hajongs of Bangladesh displaced because of the construction of the Kaptai Dam who have been refugees for nearly 65 years. The Supreme Court in Committee for C.R. of C.A.P. v. State of Arunachal Pradesh directed the Government of India and Arunachal Pradesh to grant citizenship to eligible persons from these communities and to protect their life and liberty and further prohibited discrimination against them.

Though India has not enacted a national refugee law, the three principles underlying India's treatment of refugees was spelt out in Parliament by Jawaharlal Nehru in 1959 with reference to Tibetan refugees. They include: refugees will be accorded a humane welcome; the refugee issue is a bilateral issue; and the refugees should return to their homeland once normalcy returns there.

The proposed Bill recognises and protects the rights of refugees and represents a welcome change in India's refugee policy. But it would have been appropriate if the Bill had used the term "persecuted minorities" instead of listing out non-Muslim minorities in three countries. To give an example, the Ahmadiyyas are not considered Muslims in Pakistan and are subject to many acts of discrimination. Other groups include members of the Rohingyas, who being Muslims are subjected to discrimination in Myanmar and have fled to India. Such a gesture would also have been in conformity with the spirit of religious and linguistic rights of minorities guaranteed under our Constitution. Unfortunately the Bill does not take note of the refugees in India from among the Muslim community who have fled due to persecution and singles them out on the basis of religion, thereby being discriminatory.

The case of the Malaiha Tamils

Yet another disappointing feature of the Bill is that it does not provide citizenship to the people of Indian origin from Sri Lanka who fled to Tamil Nadu as refugees following the communal holocaust in July 1983. The Indian Tamils, or Malaiha (hill country) Tamils as they like to be called, are descendants of indentured workers who were taken by the British colonialists in the 19th and 20th centuries to provide the much-needed labour for the development of tea plantations. The British gave an assurance that the Indian workers would enjoy the same rights and privileges accorded to the Sinhalese and the Sri Lankan Tamils. But soon after independence, by a legislative enactment the Indian Tamils were discriminated and rendered stateless. In the protracted negotiations that took place between New Delhi and Colombo on the thorny issue of stateless people, Nehru maintained that except for those who voluntarily opted for Indian citizenship, the rest were the responsibility of Sri Lanka (then Ceylon). Sri Lanka, on the other hand, argued that only those who fulfilled the strict qualifications prescribed for citizenship would be conferred citizenship, and the rest were India's responsibility.

Nehru's principled stance was abandoned by Lal Bahadur Shastri and Indira Gandhi when they entered into two agreements with Colombo in 1964 and 1974, respectively. New Delhi agreed to take back 6,00,000 people of Indian origin with their natural increase as Indian citizens, while Sri Lanka agreed to give citizenship to 3,75,000 with their natural increase. The wishes of the Indian Tamils in Sri Lanka were not ascertained. To the ruling elite in Colombo and New Delhi the people of Indian origin became an embarrassing set of statistics. Important national leaders — C. Rajagopalachari, K. Kamaraj, V.K. Krishna Menon, P. Ramamurthy and C.N. Annadurai — opposed the agreement as inhuman, but their views were brushed aside by the Central government in order to befriend the Government of Sri Lanka.

The ethnic fratricide in 1977, 1981 and 1983, which affected the plantation areas, convinced many people of Indian origin that they could not live amicably with the Sinhalese. They never subscribed to the demand for a separate state of Tamil Eelam; in fact, the hill country was relatively tranquil during the protracted ethnic conflict. Even then, they were subjected to vicious attacks by some lumpen sections of the Sinhalese population. They sold all their belongings, came to India as refugees, with the hope of acquiring Indian citizenship and permanently settling down here.

A point of no return

According to informed sources, there are nearly 30,000 Malaiha Tamils in the refugee camps scattered throughout Tamil Nadu. They have absolutely no moorings in Sri Lanka. Their children have intermarried with the local people and are well integrated into Tamil society. The young have availed of educational facilities, but are unable to get jobs commensurate to their qualifications because they are not Indian citizens. The refugees in Kottapattu camp, near Tiruchi, with whom we interacted, told us: "Come what may, we will not go back to Sri Lanka."

All these refugees qualify for Indian citizenship by registration under Article 5 of the Citizenship Act of 1955. However their plea for citizenship has been negated citing a Central government circular that Sri Lankan refugees are not entitled for Indian citizenship. In a communication dated November 21, 2007 to the Special Commissioner for Rehabilitation, the Secretary to the Government of Tamil Nadu mentioned that there are strict instructions from the Government of India "not to entertain applications of Sri Lankan refugees for the grant of Indian citizenship". We submit, in the light of recent developments, the above-mentioned circular of the Central government must be immediately withdrawn.

The tragedy of the Malaiha Tamils, a majority of whom are Dalits, must be underlined.

Immigrants, even those who are termed illegal, are entitled to equal protection before the law and the various rights that flow from Article 21. This was stressed by the Supreme Court in National Human Rights Commission v. State of Arunachal Pradesh while addressing the rights of Chakma refugees. If such immigrants are granted citizenship, the natural progression would mean that they enjoy the benefits of rights guaranteed under Article 19 besides others such as access to the public distribution system, right to participate in the political process, right to secure employment and other rights all of which currently are inaccessible to them. The Bill recognises this in its objects and reasons by referring to the denial of opportunities and advantages to such persons. The Bill therefore should not restrict itself to minorities from Afghanistan, Pakistan and Bangladesh but should include refugees from persecuted minorities of all denominations who have made India their home.

V. Suryanarayan is founding Director and former Senior Professor, Centre for South and Southeast Asian Studies, University of Madras; Geeta Ramaseshan is an advocate at the Madras High Court.

http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/citizenship-without-bias/article9026942.ece


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फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह इसीलिए भारत हुआ अमेरिका

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फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका

The Hitler Speech They Don't Want You To Hear - YouTube

Video for the hitler▶ 10:00

https://www.youtube.com/watch?v=G57GKUtWzNs

Oct 24, 2012 - Uploaded by EuropeanWatchman3

http://www.youtube.com/user/NorthwestFreedomhttp://www.northwestfront.orghttp://www.northwestfront.net .


पलाश विश्वास

हिटलर को जानने के लिए इतिहास का सबक अभीतक कमसकम भारतवासियों के लिए पर्याप्त नहीं है।वैसे भी हम भारतवासी इतिहास और विरासत,सामाजिक यथार्थ और राजनीतिक वास्तव,अर्थव्यवस्था और मातृभाषा,लोकसंस्कृति और पुरखौती की जड़ों से कटकर मुक्तबाजार के अंतरिक्ष में त्रिशंकु हैं।


जगत मिथ्या और माया की मृगतृष्णा के बारे में भारतीय दर्शन परंपरा और आध्यात्म की धर्मनिरपेक्षता,चार्बाक दर्शन और लोकगणराज्यों की जमीन से हमारा अब कोई नाता नहीं है।क्रयशक्ति हासिल करके अपनी मजहबी, जाति, नस्ल, भाषा के आधार पर हम निराधार नागरिक हैं.जिन्हें हर हाल में सत्ता से जुड़े रहना है और राष्ट्र हमारे लिए कल्पतरु है जिसके दोहन से मनोकामना दूर हो सकती है।


आस्था भी हमारे लिए ईश्वर से सौदेबाजी का फंडा है।


बहरहाल,हिटलर को समझने का आसान तरीका है कि यू ट्यूब पर उपलब्ध चार्ली चैपलिन की कालजयी फिलम द डिक्टेटर देख लें।फिर हमारे राष्ट्रनेता कल्कि महाराज की मंकी बातें सुनते रहे तो बोध,विवेक और प्रज्ञा की मनुष्यता से साक्षात्कार हो सकता है जो दरअसल ईश्वर का दर्शन है।


सत्य से बड़ा ईश्वर कुछ होता नहीं है और मनुष्य से बड़ा सत्य कुछ होता नहीं है।फासिज्म दरअसल ईश्वर और मनुष्य की सत्ता का निरंतर निषेध पर आधारित नरसंहार की संस्कृति है जो अश्वमेधी हमलावर है और उसके सारे कर्म कांड आस्था और धर्म के विरुद्ध मनुष्यता और ईश्वर के प्रति अनास्था है।


भारतीय दर्शन परंपरा से लेकर वैदिकी साहित्यभंडार में इसके अनंत प्रसंग और संदर्भ है।यह राष्ट्रीयता के नाम पर राष्ट्र और विखंडन है जो सत्तावर्ग का शेयर बाजार है और यही शेयर बाजार मुक्त बाजार और हिंदुत्व का सैन्य राष्ट्र है,जो ईश्वर, प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति,लोकतंत्र और मनुष्यता के विरुद्ध निरंतर युद्ध,गृहयुद्ध हैं।


हमारे तमाम राष्ट्रनेता इन आत्मघाती युद्धों के रंगबिरंगे सिपाहसालार हैं,जो पल दर पल राष्ट्र और समाज,मनुष्यता और प्रकृति का सर्वनाश के कार्यक्रम को इतिहास और विरासत, धर्म और आस्था,सत्य और संस्कृतिके विरुद्ध अधर्म का कटकटेला अंधियारा कारोबार है।


हिटलर शाही के नतीजे सिर्फ जर्मनी,जापान और इटली को भुगतने पड़े हों,ऐसा भी नहीं है।समूची दुनिया को इसका नतीजा भुगतना पड़ा है।विश्वयुद्ध से लेकर बंगाल की भुखमरी तक और भारत विभाजन तक।

हम आत्मध्वंस के चरमोत्कर्ष पर हैं।


फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका


हुआ दरअसल यह है कि भारतऔर अमेरिकाने आपसी सामरिक संबंधों को बढ़ावा देते हुए एक बड़े साजो-सामान आदान-प्रदान करार पर हस्ताक्षर किए हैं। इससे दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे की सुविधाओं एवं ठिकानों का उपकरणों की मरम्मत एवं आपूर्ति को सुचारू बनाए रखने के लिए उपयोग कर सकेंगे। इस अहम रक्षा समझौते से जुड़ीं खास बातें. रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एवं अमेरिकीरक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) पर हस्ताक्षर किए।दावा है कि इससे दोनों देशों के संयुक्त सैन्य अभियानों की दक्षता में इजाफा होगा।


हम यह नजरअंदाज कर रहे हैं कि हम भारतीयों की तरह अमेरिकियों के ख्वाब भी खतरे में हैं।अमेरिका में भी लोकतंत्र खतरे में हैं।


हम तेल युद्ध और अरब वसंत के बाद भारतीय उपमहादेश में वैश्विक युद्धस्थल के स्थानांतरण का भयानक सच नजरअंदाज कर रहे हैं।


दरअसल यही ब्रह्मणधर्म का पुनरूत्थान है।

दरअसल यही मनुस्मृति फासिज्म का राजकाज है।

दऱअसल यही हिंसा,घृणा,वैमनस्य और आतंक की केसरिया सुनामी है।


हम देख नहीं पा रहे हैं कि विश्वशांति और मनुष्यता और प्रकृति के खिलाफ युद्ध अपराधी जार्ज बुश ने मध्यपूर्व को तबाह करने के बाद भारतीयउपमहाद्वीप को अमेरिकी उपनिवेश बनाने की रणनीति के तहत भारत को अमेरिका का उपनिवेश बनाया है।


हम यह भी जाहिर है कि देख नहीं पा रहे हैं कि भारत में विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य और अभूतपूर्व हिंसा का यह प्रकृतिविरोधी पर्यावरण दरअसल परमाणु विध्वंस का रचनाकर्म अरब वसंत है जो सीधे वाशिंगटन के व्हाइट हाउस और पेंटागन से आयातित है और भारतीय इतिहास में,संस्कृति में,धर्म में,आस्था और आध्यात्म में,लोकसंस्कृति में,भारतीय दर्शन में इसके लिए कोई जगह नहीं है और इसीलिए अमेरिका परस्त ब्राह्मणधर्म और मनुस्मृति राज के फासिस्ट झंडावरदारों को अमेरिकी हितों के मुताबिक भारत का इतिहास बदलने और शिक्षा और संस्कृति के केसरियाकरण की इतनी जल्दबाजी है।


हम देख नहीं पा रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपतियों के भारतविरोधी नीतिगत सिद्धांतों और उनकी भारतविरोधी राजनय का इतिहास।


हम यह भी  देख नहीं पा रहे हैं कि तेल अबीब  के समर्थन से व्हाइट हाउस की लड़ाई में जीतने वाले मैडम हिलेरी या डोनाल्ड ट्रंप के भारतविरोधी चरित्र और जायनी युद्ध में भारत के  पार्टनर बने रहने के नतीजे भारत के लिए कितने खतरनाक होंगे।


इस करार के बाद भारत के दस दिगंत सत्यानाश में चाहे ट्रंप जीते या मैडम हिलेरी,कोई फर्क उसीतरह नहीं पड़ेगा जैसे जार्ज बुश के बाद लगातार दो कार्यकाल में अश्वेत राष्ट्रपति बाराक ओबामा के व्हाइट हाउस निवास से अमेरिकी हितों के मुताबिक भारतीय हितों की बलि चढ़ाने के सिलसिले में कोई अंतर नहीं आया।


इस पर तुर्रा यह कि ओबामा ने हर कदम पर भारत में फासिज्म के राजकाज का समर्थन किया है।जाहिर है कि इस करार के बाद अमेरिकी हितों के मुताबिक ही भारत में ब्राह्मणवादी फासिज्म का शिकंजा और मजबूत होने वाला है।


अमेरिकी मदद से भारतीय जनता पर सैन्य दमन का कहर टूटने वाला है।

दरअसल अमेरिका बना भारत ही अब कयामत का असल मंजर है।


अभी कल परसो हमारे पुरातन पाठकों के फोन आये कि अमेरिका से सावधान छपा कि नहीं।पिछले दो दशक के दौरान भारतभर में लोग हमसे यह सवाल करते रहे हैं।


इसका सीधा मतलब है कि करीब दस साल तक देशभर में लघु पत्रिकाओं और अखबारों में,पंफलेट तक में छपे मेरे इस औपन्यासिक साम्राज्यवाद विरोधी अभियान और संवाद से बड़े पैमाने पर लोगों का जुड़ाव रहा होगा।इसके बावजूद आज भारत अमेरिका है।इस आत्मध्वंसी करार के बाद भारत राष्ट्र के अलग संविधान बेमायने हैं क्योंकि सत्तावर्ग के हित अमेरिकी हित हैं।यह ऐसा ही है जैसे कि भारत में सहस्राब्दियों से विदेशी हमलावरों के साथ नत्थी हो जाने की रघुकुल रीति अटूट है।


इस सिलसिले में मशहूर फिलमकार आनंद पटवर्दन की टिप्पणी गौरतलब हैः

The news is horrifying. India - USA agree to share military bases ! Modi and gang are surrendering our sovereignty piece by piece. USA destroyed Pakistan by creating Islamic jihad. Now it has acquired a new bali ka bakra.


गौरतलब है कि चीन के सरकारी मीडिया ने आज कहा है कि भारत की ओर से अमेरिका के गठबंधन से जुड़ने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वे चीन, पाकिस्तान और यहां तक कि रूस को भी 'नाराज' कर सकते हैं। ये प्रयास भारत को एशिया में भूराजनीतिक शत्रुताओं के केंद्र में लाकर नई दिल्ली के लिए 'रणनीतिक परेशानियां' पैदा कर सकते हैं। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर द्वारा साजो सामान संबंधी विशद समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने से पूर्व लिखे गए एक संपादकीय में सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने कहा कि यदि भारत अमेरिकाकी ओर झुकाव रखता है तो वह अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता खो रहा है।


दुनियाभर में अपने अपने हितों के मुताबिक अमेरिकी हितों में भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता के विलय की प्रतिक्रया हो रही है।


सत्य यह है कि अमेरिका भारत को स्वतंत्रता के तुरंत बाद से लगातार अस्थिर करता रहा है।साठ के दशक से अमेरिकी खुफिया एजंसी सीआईए का नेटवर्क भारत में बना हुआ है और विघटनकारी तमाम गतिविधियों में खासतौर पर सत्तर और अस्सी के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में हुए नरसंहारी उत्पातों के पीछे भारत के अमेरिकीकरण में अपना विकास और वैभव की तलाश में राष्ट्रद्रोही सत्तावर्ग की पंचमवाहिनी के सहयोग से अमेरिका की निर्णायक भूमिका रही है।


सत्य यह है कि अमेरिका भारत का मित्र कभी नहीं रहा है और न अमेरिका भारत का मित्र हो सकता है।अपनी डूबती हुई युद्धक अर्थव्यवस्था को संकटमुक्त करने के लिए खाड़ी युद्धसमय से अमेरिका ने भारतीय लोकतंत्र,अर्थव्यवस्था और राष्ट्र व्यवस्था पर अपना शिकंजा कस लिया है और तबसे नवउदारवाद और मुक्तबाजार की आड़ में राजकाज दरअसल वाशिंगटन से चल रहा है और भारत सरकार सूबेदारी की भूमिका में है।समूचा सत्तावर्ग और राजकरण पंचमवाहिनी में तब्दील है।


सत्य यह है कि राष्ट्रद्रोह सत्ता संस्कृति है,जिसे अंध राष्ट्रवाद के जरिये जनगण की आस्था सो जोड़कर ब्राह्मणधर्म का यह मनुस्मृति जायनी द्वैत पुनरूत्थान पर्यावरण ग्लोबल वार्मिंग है।यही फिर धर्मोन्मादी मुक्तबाजार है।


सत्य यह है कि नीतिगत फैसलों से लेकर वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री तक की नियुक्तियों के पीछे,सत्ता परिवरितन के पीछे,राजकरण के पीछे,अर्थव्यवस्था के वित्तीय प्रबंधन के पीछे,योजनाओं और बजट बनाने के पीछे,आम नागरिकों की गोपनीयता खत्म करके उनकी निरंतर निगरानी के पीछे, देश भर में दमन उत्पीड़न और जल जमीन जंगल से बेदखली अभियान के पीछे, सैन्य टकरावों के पीछे,रक्षा तैयारियों के पीछे,भारतीय राजनय के पीछे अमेरिकी हाथ है।


भारत में फिर गुलामवंश का राजकाज फासिज्म है।इतिहास गवाह है कि गुलाम सत्तावर्ग के इस राष्ट्रद्रोह की वजह से भारत बार बार गुलाम होता रहा है।विदेशी हुकूमत में सत्ता वर्ग को कभी कोई तकलीफ हुई नहीं है और न होगी।


इसीलिए भारत में सत्ता नाभिनाल से जुड़े कारपोरेट मीडिया,प्रबुद्ध पढ़ा लिखा तबका,राजनीति,माध्यमों और विधाओं की ओर से  पिछले 25 साल से भारत अमेरिका मैत्री का महिमामंडन होता रहा है और समाज का उपभोक्ताकरण इस हद तक हो गया है कि भारतीय मूल्यों ,भारतीय परंपराओं और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध इस जघन्यतम राष्ट्रद्रोह अब हिदुत्व का संगठित संस्थागत जनसंहारी स्वरुप है।


समूचा राष्ट्र इस वक्त परमाणु भट्टी में तब्दील है।भारत अमेरिका परमाणु समझौते के बाद बाकी परमाणु शक्तियों से समझौते के तहत देश के चप्पे चप्पे में मनुष्य और प्रकृति के विध्वंस के लिए परमाणऩु चूल्हे लग रहे हैं और इस हिंदुत्व एजंडा को अंजाम देने के लिए करीब पांच हजार साल की भारतीय सभ्यता और संस्कृति.,धर्म कर्म दर्शन आध्यात्म,आस्था और लोकसंस्कृति,सहिष्णुता,विविधता,बहुलता,धम्म चक्र,काल चक्र,हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो की सभ्यता,रेशम पथ का विश्वबंधुत्व,सत्य अहिंसा और प्रेम की लोकसंस्कृति,करुणा,बंधुत्व और शांति की बलि दी जा रही है।


हजारों साल के विलय और एकीकरण से मनुष्यता की विविध धाराओं के भारततीर्थ में फिर कुरुक्षेत्र है और हर नागरिक चक्रव्यूह में निहत्था मारा जा रहा है।हमारे सारे समुद्रतट अब रेडियोएक्टिव हैं तो भोपाल गैस त्रासदियों का सिलसिला मुक्तबाजार है।परमाणु चूल्हों के लिए संस्कृतियों के साझा चूल्हा खत्म करके हम भारत में अमेरिकी वसंत का महोत्सव मना रहे हैं और सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा,अविनश्वर आत्मा परमात्मा,द्वैतवाद और अद्वैतवाद,सर्वेश्वरवाद की परंपरा में नरनारायण की हत्या लीला अबाध पूंजी के अमेरिकी हितों की रासलीला है।


विडंबना है कि देशभक्तों,राष्ट्रवादियों,स्वयंसेवियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं,भारत के धर्मनिरपेक्ष ताकतों,जनपक्षधर मोर्चा,जनांदोलनों,मीडिया,पढ़ा लिखा तबका, संगठित ट्रेड यूनियनों,बहुजनों के अंबेडकरी संस्थानों,स्वदेश और स्वायत्तता के झंडेवरदारों,आस्था के कारोबारियों और हिंदुत्व की वानर सेनाओं,भारतीय साम्यवादियों,गांधीवादियों और समाजवादियों ने इस दुश्चक्र के खिलाफ अभीतक आवाज नहीं उठायी और किसानों को सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ रही है तो युवाजनों के हाथ पांव काट दिये गये हैं।तो श्रमजीवी जनगण और स्त्रियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।अभूतपूर्व सामंती पितृसत्ता का बवंडर है तो मनुस्मृति अनुशासन के तहत ब्राह्मणधर्म का पुनरूत्थान के साथ विशुध अमेरिकीकरण है।


हम भारत को देख नहीं रहे हैं।हम लहूलुहान आम जनता की रोजमर्रे की नरकयंत्रणा से बेपरवाह वातानुकूलित सत्तावर्ग के प्रजाजन अमेरिकी हितों को पाकिस्तान और चीन के खिलाफ अमेरिकी छायायुद्ध के तहत सिरे से नजरअंदाज करते हुए खुशी खुशी अमेरिका बन जाने का महोत्सव मना रहे हैं और देश के हर हिस्से में युद्ध और गृहयुद्ध,अत्याचार,दमन,उत्पीड़न,सैन्य शासन,धर्मोन्माद,अभूतपूर्व हिंसा,रंगभेदी जाति युद्ध के कयामती मंजर से बेखबर हैं क्योंकि हम अब अमेरिका और इजराइल के रणनीतिक युद्धक पार्टनर है,जिसकी तार्किक परिणति यह ताजा करार है जिसे हम भारत के महाशक्ति बन जाने के दिवास्वप्न में महिमामंडित कर रहे हैं और राष्ट्र और समाज.प्रकृति और मनुष्यता पर कसते हुए सामंती साम्राज्यावादी शिकंजे से बेपरवाह हैं।इसके बावजूद हम लोक गणराज्य हैं।


भारत की आजादी के बाद से त्ताकील अमेरिका और सोवियत संघ से समान दूरी बनाये रखने की भारत की राजनयिक परंपरा रही है और 1971 के बंग्लादेश संकट के समय भारत के खिलाफ हिंद महासागर में अमेरिकी सातवें नौसैनिक बेड़े की आक्रामक बढ़त के हालात में सोवियत संघ से मैत्री समझौते पर दस्तखत के बावजूद श्रीमती इंदिरा गाधी ने भारतीय विदेश नीति और राजनय की निर्गुट परंपरा बनायी रखी।


सोवियत संघ के साथ गहराते मैत्री संबंधों के बावजूद भारतीय राजनय निर्गुट बनी रही।यहां तक कि जनता पार्टी की भारी जीत की वजह से इंदिरा गांधी की सत्ता से बेदखली के बाद जनता सरकार में विदेश मंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने भी विदेश नीति और राजनय के मामले में भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।


इसके अवाला 1962 के सीमा संघर्ष के बाद बेहद बिगड़े हुए भारत चीन द्विपाक्षिक संबंधों को सुधारने में भी अटल जी की ऐतिहासिक भूमिका रही है।


बल्कि खाड़ी युद्ध के वक्त जब राजनीतिक अस्थिरता के मध्य अभूतपूर्व भुगतान संकट में भारत को सोना तक गिरवी रखना पड़ा,तब समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशकर ने भारत की निर्गुट राजनय और विदेश नीति को पहलीबार तिलांजलि दी और उसके बाद से लगातार अमेरिकी हितों के मुताबिक राष्ट्रद्रोह के राजकाज का सिलसिला जारी है।


खाड़ी युद्ध के दौरान इराक के महाविनाश के लिए अमेरिकी युद्धक विमानों को भारत में भरने की इजाजत देकर समाजवादी आंदोलन के ताबूत में आखिरी कीलें ठोंक दी थी समाजवादी चंद्रशेखर ने और उनके राजकाज के दौरान उत्पन्न भुगतान संतुलन के खुल्ला दरवादजे से  अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक के ऋण की शर्त के मुताबिक अमेरिका ने नवउदारवाद और मुक्तबाजार के ईश्वर डा. मनमोहन सिंह को भारत का वित्तमंत्री बनाकर भारत में अमेरिकी उपनिवेश की स्थापना कर दी।


इसीके साथ अमेरिकीपरस्ती का अनंत राष्ट्रद्रोह भारत का राजकाज है और ब्राह्मणधर्म के पुनरूत्थान के बाद यह अमेरिकापरस्ती सीधे तौर पर मनुस्मृति राज है जो जायनी विश्वव्यवस्था के सिक्के का दूसरा पहलू है।


हांलाकि विपक्ष के नेता राजीव गांधी के कड़े विरोध के कारण अमेरिकी युद्धक विमानों को भरत में ईंधन भरने की इजाजत चंद्रशकर ने हफ्तेभर में वापस ले ली थी।


अमेरिकी उपनिवेश की स्थापना में चंद्रशेखर के युद्ध अपराध का खास तात्पर्य इंदिरा गांधी के हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाये रखने की राजनय के मद्देनजर समझें तो इसका ऐतिहासिक मतलब समझ में आ सकता है।


गौरतलब है कि जिस तरह आपरेशन ब्लू स्टार की परिणति बतौर राष्ट्र को इंदिरागांधी की हत्या और उसी सिलसिले में सिख नरसंहर के भयावह दौर से गुजरना पड़ा, खाड़ी युद्ध में इराक के बचाव के लिए मास्को उड़ जाने वाले और चंद्रशेखर के अमेरिकापरस्त फैसलों को पलट देने वाले राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने के बहाने उसीतरह अचानक  आत्मघाती बम धमाके में प्राण गवांने पड़े।


अमेरिकी हितों के खिलाफ हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाये रखने के पक्षधर भारत के दो दो प्रधानमंत्रियों की हत्या का रहस्य अभी तक अनसुलझा है।इन दोनों की हत्या के बाद बिना प्रतिरोध भारत अमेरिकी उपनिवेश है तो इस भरत अमेरिकी सैन्य सहयग संधि का आशय हमें इंदिरा गांधी की दियागो गार्सिया नीति की रोशनी में समझने की जरुरत है।


विडंबना यह है कि इंदिरा गांधी ने हंद महासागर क्षेत्र के दियागो गार्सिया में अमेरिकी सैनिक अड्डा न बनने देने की नीति पर अडिग रहकर अपना बलिदान कर दिया लेकिन बाद में भारते के राष्ट्रद्रोही राष्ट्रनेताओं ने भारत की सरजमीं को ही अमेरिका में तब्दील कर दिया।


फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका



मीडिया के मुताबिक इस अहम रक्षा समझौते से जुड़ीं खास बातें

  • रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एवं अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) पर हस्ताक्षर किए।

  • इससे दोनों देशों के संयुक्त सैन्य अभियानों की दक्षता में इजाफा होगा।

  • अमेरिका अपने स्तर पर भारत के साथ रक्षा व्यापार एवं टेक्नोलॉजी को बढ़ाने पर सहमत हुआ है।

  • यह भारत को उस स्तर के बराबर ले जाएगा, जो अमेरिका के नजदीकी सहयोगी एवं भागीदारों को प्राप्त है।

  • बड़े रक्षा सहयोगी के दर्जे से वे पुरानी बाधाएं खत्म हो गई हैं, जो रक्षा, रणनीतिक सहयोग के आड़े आते थे.

  • इस रणनीतिक सहयोग में सह-उत्पादन, सह-विकास परियोजनाएं एवं अभ्यास शामिल हैं।

  • इससे व्यावहारिक संबंध एवं आदान-प्रदान के लिए अवसर का सृजन होगा।

  • रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा कि अमेरिका रक्षा उपकरणों के भारत के प्राथमिक स्रोतों में से एक है और उसने अपने कई अहम मंचों को साझा किया है।

  • कार्टर ने कहा कि यह दर्जा अमेरिका और भारत के पिछले साल के रक्षा संबंध के मसौदे की सफलता पर आधारित है।

  • जून में पीएम मोदी की यात्रा के दौरान अमेरिका ने भारत को एक 'बड़े रक्षा साझेदार' का दर्जा दिया था।


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सुप्रीम कोर्ट में ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत,सिंगुर में जमीन अधिग्रहण रद्द क्या बेदखल किसानों को जमीन वापस मिलेगी? क्या भारत में गैरकानूनी जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा? जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला रुकेगा? एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास हस्तक्षेप संवाददाता

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सुप्रीम कोर्ट में ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत,सिंगुर में जमीन अधिग्रहण रद्द

क्या बेदखल किसानों को जमीन वापस मिलेगी?

क्या भारत में गैरकानूनी जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा? जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला रुकेगा?

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

हस्तक्षेप संवाददाता

क्या किसानों को जमीन वापस मिलेगी?


क्या भारत में गैरकानून जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा?


सिंगुर जमीन अधिग्रहण मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद बंगाल के राजनीतिक समीकरण में वामपंथियों के और ज्यादा हाशिये पर चले जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल ये हैं।


बंगाल की अग्निकन्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के राजनीतिक जीवन की शायद यह सबसे बड़ी जीत है जो दो दो बार विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतने से भी बड़ी जीत है।यह जीत जल जगंल जमीन की लड़ाई में शामिल जनपक्षधर ताकतों की भी ऐतिहासिक जीत है।


सुप्रीम कोर्ट ने सिंगूर में जमीन अधिग्रहण को गलत ठहराया है और जमीन अधिग्रहण पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने फैसले में कहा कि सिंगूर में जमीन अधिग्रहण गलत है। कानूनी रूप से यह जमीन अधिग्रहण सही नहीं था। लिहाजा राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) ऐसे जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती।


सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को 12 हफ्तों में किसानों की जमीन को वापस लौटाने का आदेश दिया है।


सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने लेफ्ट सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा था कि लगता है सरकार ने प्रोजेक्ट के लिए जिस तरह जमीन का अधिग्रहण किया वह तमाशा और नियम कानून को ताक पर रखकर जल्दबाजी में लिया गया फैसला था, वहीं टाटा ने मामले को 5 जजों की संवैधानिक पीठ को भेजे जाने की मांग की थी।


सिंगुर जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में सड़क पर उतरकर जो लड़ाई ममता ने शुरु की थी और सत्ता में आने के बाद सिंगुर के किसानों को छिनी हुई जमीन वापस करनेे की जो कानूनी कवायद उन्होंने जारी रखी लगातार,उसमें उन्हें आज भारी जीत हासिल हुई है।


भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कोलकाता हाई कोर्ट के आदेश को ख़ारिज करते हुए सिंगुरमें नैनो प्रोजेक्ट के लिए टाटा मोटर्स के जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया है।


जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया में गड़बड़ी पाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अधिगृहित ज़मीनें किसानों को अगले 12 हफ्तों के भीतर लौटा दी जाए।


अदालत के मुताबिक ज़मीन अधिग्रहण कलेक्टर ने भूखंडों के अधिग्रहण के संबंध में किसानों की शिकायत की ठीक से जांच नहीं की।


आजादी के बाद से अब तक जमीन अधिग्रहण का कुल मिलाकर किस्सा यही है।न कहीं जन सुनवाई होती है और ने बेदखल किसानों की किसी भी स्तर पर न्याय मिलता है।एकतरफा जमीन अधिग्रहण अबाध पूंजी निवेश का मुक्तबाजारी खेल बन गया है जिससे आम नागरिकों के जल जंगल जमीन के हकहकूक खत्म हो गये हैं।


जमीन अधिग्हण के बाद पूरे दस साल बीत गये हैं और सिंगुर की उपजाऊ जमीन अब कंक्रीट का खंडहर है,जहां से नैनो प्रोजेक्ट की वापसी हो चुकी है और टाटा मोटर्स के लिए विवादास्पद तरीके से जबरन जमीन हासिल करने की वजह से 35 साल के वाम शासन का अवसान हो गया है।


इसी बीच ममता बनर्जी लगातार दूसरी दफा विधानसभा चुनाव जीतकर बंगाल की सर्वेसर्वा बन चुकी है और इस अदालती फैसलेे के बाद बंगाल में वाम पक्ष की वापसी की संभावना और मुश्किल हो चुकी है।


गौरतलब है कि उद्योग और कारोबारी जगत के जबर्दस्त दबाव के बावजूद ममता बनर्जी सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन की विरासत जी रही हैं और उनकी सरकार अब भी जबरन जमीन अधिग्रहण के खिलाफ है।जबकि सिंगुर को बंगाल में उद्योगों के लिए कब्रगाह कहा जा रहा है।ममता की जमीन अधिग्रहण विरोधी नीति की वजह से बंगाल में पूंजी निवेश नहीं हो रहा है,इसके बावजूद ममता ने अपनी नीति नहीं बदली है।


इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों को उनकी छिनी हुई जमीन वापस मिल सकेगी और यह जमीन वापस मिल भी गयी तो कंक्रीट के खंडहर में तब्दील उस जमीन पर वे कब तक दोबारा पहले की तरह साल में तीन बार सोने की फसल फैदा कर सकेंगे।

अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगीकरण की अंधी दौड़ और विकास के बहाने आम जनता को जल जंगल जमीन से बेदखल करने के अभियान पर क्या इस फैसले के लागू हो जाने का कोई असर पड़ेगा और सिंगुर की तरह देशभर में जबरन अपनी जमीन से बेदखल लोगों को क्या उनके हक हकूक की बहाली के साथ जमीन वापस मिलेगी।


अभी लंबी कानूनी लड़ाई बाकी है।

फिरभी यह कहना ही होगा कि सत्ता में आने के बाद जिसतरह ममता बनर्जी ने किसानों को सिंगुर में जमीन वापस दिलाने की कानूनी लड़ाई जीत ली है,इससे जल जंगल जमीन की लड़ाई में जीत का नया सिलसिला बन ही सकता है।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सिंगुरमसले पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि तत्‍कालीन वाममोर्चा सरकार ने जमीन अधिग्रहण मामले में टाटा कंपनी को फायदा पहुंचाया था। कोर्ट ने कहा कि अधिग्रहण का फैसला कानून के मुताबिक सही नहीं था।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के सिंगुरमसले के फैसले को ग़लत बताया और कहाकि 997 एकड़ की जिस जगह का अधिग्रहण सरकार ने टाटा के नैनो प्लांट के लिए किया था वो सही नहीं था। सरकार ने अपनी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल कर प्राइवेट पक्ष को फायदा पहुंचाया।


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सिंगुरमें भूमि अधिग्रहण के बारे में उच्चतम न्यायालय के फैसले को एतिहासिक जीत बताया। ममता ने यहां राज्य सचिवालय में संवाददाताओं के साथ बातचीत में कहा, सिंगुरपर उच्चतम न्यायालय का फैसला एतिहासिक जीत है।


ममता बनर्जी नेआंदोलन के दौरान  सिंगुरके जमीन से बेदखल आंदोलनकारी किसान की बेटी तापसी मलिक को श्रद्धांजलि दी जो कि भूमि अधिग्रहण के विरोध में गठित कृषि जमी रक्षा समिति के अभियान में सबसे आगे थी। इस 18 वर्षीय लड़की का अधजला शव 18 दिसंबर 2006 को परियोजना स्थल के निकट मिला था।


जाहिर है कि इस फैसले से टाटा मोटर्स को करारा झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया कि किसानों की जमीन 12 हफ्ते मे वापस की जाए। साथ ही दिया हुआ मुआवजा भी किसान सरकार को वापस नही करेंगे। वहीं इस फैसले के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि फैसले के बाद मेरी आंखों में खुशी के आंसू हैं। मुझे पूरा यकीन है कि आज सिंगुरमें जश्न मनाया जाएगा। 2 सितंबर को सिंगुरके हर ब्लॉक में जश्न मनाएंगे।



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সিঙ্গুরের বাইরে বেদখল চাষিরা কবে জমি ফেরত পাবেন বা ক্ষেত মজুরদের কি হবে বা সত্যিই কি লাঙগল যার জমি তাঁরই? পলাশ বিশ্বাস

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সিঙ্গুরের বাইরে বেদখল চাষিরা কবে জমি ফেরত পাবেন বা ক্ষেত মজুরদের কি হবে বা সত্যিই কি লাঙগল যার জমি তাঁরই?

পলাশ বিশ্বাস

সিঙ্গুর জয়ী।সিঙ্গুরে জমি অধিগ্রহণ অবৈধ।লাঙল যার,জমি তাঁর।

ভারতের সর্বোচ্চ আদালতের রায় বেনজির।


জনগণের রায়কে একেবারে খারিজ করে দিয়ে উন্নয়নের নামে সিঙ্গুরে জমি অধিগ্রহণ অবৈধ যদি হয়,এই নিরিখে,এই নজিরে সুপ্রিম কোর্টের এই রায়ে জোর জবরদস্তী সারা ভারতে উন্নয়নের নামে যে ভাবে জমি অধিগ্রহণকরা হয়েছে  এবং সিঙ্গুরের আগেও স্বাধীনতার পর বাংলায় যত জমি চাষীদের আপত্তি সত্বেও অধিগ্রহণ করা হয়েছে,সর্বক্ষেত্রে সেই অধিগ্রহণও রদ করতে হয়।


বিশেষ করে যে ভাবে স্বাধীনতার পর থেকেই আদিবাসী ও দলিতদের জল জমি জঙ্গল ও জীবন জীবিকা থেকে উত্কাত করার একচেটিয়া আক্রমণের গণসংহার অভিযান এই রাযের আগে ও পরেও চলছে ও চলবে


মনে রাখা দরকার যে সুপ্রীম কো্র্টের রায়ের পর পর মমতা ব্যানার্জির জয়ের আনন্দে চোখের জল মোছার আগে বা বিজয় উত্সব পালনের আগেই বাজার ও শিল্পমহলকে আশ্বস্ত করতে হয়ছে যে বাংলায় এই রায়ে লগ্নির পরিবেশ বিঘ্নিত হবে না


চাষীদের এই ঐতিহাসিক রায় সিঙ্গুরে সীমাবদ্ধ থেকে যাওযারই সম্ভাবনা যেমন বেশি,তেমনই ক্ষেত মজুরদের অধিকারের লড়াইটাও বাকী থেকে যাওয়ার আশন্কা অনেক বেশি।বাকী বাংলা ও ভারতবর্ষের চাষীদের দজমি ফেরতের লড়াইও ঠিক তমন ভাবেই কছিন ও দীর্ঘতর।


জল জমি জঙগলের অধিকারের জন্য এখনো দীর্ঘ আইনী লড়াই বাকী আছে। যেমন সিঙ্গুরের ক্ষেত্রেও জমি মালিকেরা হয়ত জমি ফেরত পাবেন,দশ বছর অনাবাদ জমির ক্ষতিপূরণ হিসেবে তাঁদের জমির ক্ষতিপূরণের টাকা তাঁদের হাতেই থাকছে বা যারা চেক ভাঙাননি বা যারা আদৌ ক্ষতিপূরণ নেননি,তাঁদেরও ক্ষতিপূরণ মিলবে।


এই মামলায় জমি মালিকেরা জমি মালিকদের শুনানি হয়েছে এবং রায় তাঁদের পক্ষেই আপাতত। আপাতত যেহেতু সুপ্রিম কোর্টেই টাটাদের শুনানি এখনো চলছে এবং সুপ্রীম কোর্টের উচ্চতর বেন্চে এই রায়ের আপিলের শুনানির পর শেষ রায় কি হবে,এখনই বলা মুশকিল।সে যা হোক,রায় উলটে গেলেও শ্রীমতী মমতা ব্যানার্জির নেতৃত্বে সিঙ্গুরে মা মাটি মানুষের জয় এসেছে নিশ্চিতভাবেই এবং প্রস্তুতি যদি মুখ্যমন্ত্রী করে থাকেন ত সুপ্রীম কোর্টের রায় মোতাবেক শেষ রায় আসার আগেই বেদখল চাষিরা তাঁদের জমি ফেরত পাবেন।


জমির চরিত্র যেহেতু বদলে গেছে,যেহেতু তিন ফসলী ঔ জমি এখন কংক্রীটের খন্ডহর,তাই জমি ফেরত পেলেও ঔ জমিতে চাস আবাদ নূতনকরে হবেকিনা বা ঔ জমি নিয়ে জমি মালিকরা শেষ পর্যন্ত কি করবেন বা কি করতে পারেন,এই সমস্ত প্রশ্নের উত্তর এখনই মিলবে না।এককথায় সিঙ্গুর আজ জয়ী।


কিন্তু যারা প্রথম থেকে সিঙ্গুরে জমি ফেরত পাওয়ার লড়াইয়ে আন্দোলনের সিংহ ভাগে ছিলেন সেই লাঙল যাদের,যারা প্রকৃতপক্ষে জমি চাষ করেন ,সেইসব ক্ষেত মজুররা কি পেলেন,এই রায়ে সে কথা জানা গেল না।তাঁদের কোনো শুনানি হয়নি।তাঁরা জমি ফেরত ত পাচ্ছেন না,ক্ষতিপূরণের আদেশ ও তাঁদের জন্য হয়নি।


জমি আন্দোলনের নেত্রী ও বর্তমান বাংলার মুখ্যমন্ত্রী মমতা ব্যানার্জি তাঁদের জন্য যদি পৃথক কোনো ব্যবস্থা করার কথা ভেবে থাকেন এবং সেই পরিকল্পনা বাস্তবায়িত করেন ত সর্বার্থে এই রায়ে লাঙল যার ,জমি তার তত্ব প্রতিষ্ঠিত হয়


যথার্থই এই  রায়ের রাজনৈতিক তাত্পর্য্য আইনি গুরুত্বের চাইতে অনেক গুণ বেশি।সুপ্রিম কোর্টের রায় শেষ পর্যন্ত সব মামলার শুনানি,আপীলের শুনানির পর কি দাঁড়ায় এবং কত তাড়াতাড়ি চাষিরা তাঁদের জমি ফেরত পাবেন বা ক্ষেত মজুরদের জন্য মমতা ব্যানার্জি কিছু করতে পারেন কি পারেন না,তার চাইতে বড় কথা হল উন্নয়নের পুঁজিবাদী পন্থা অবলম্বন করে অন্ধ নগরায়ণ ও শিল্পায়ণে গুরুত্ব দিয়ে,বাম নেতৃত্ব ও সরকার যে ঐতিহাসিক ভূল করেছিল,ভূমি সংস্কারের ও কৃষি ভিত্তিক উন্নযনের পথ ত্যাগ করে তাঁরাও যে মুক্ত বাজারের নবউদারবাদী অর্থনীতিতে রাজনৈতিক মতাদর্শ এবং সারা ভারতে বামপন্থার প্রাসঙ্গিকতা  বিসর্জন দিয়ে আত্মহত্যা করেছেন সেই তত্ব নির্ণায়ক ভাবে এই রায়ে প্রমাণিত হল


উন্নযণের স্বার্থে নয়,জনগণের স্বার্থেও নয়,বামপন্তী নেতৃত্ব ও বাম সরকার সরাসরি হার্মাদ বাহিনী হয়ে জোর জবরদস্তী চাষিদের তাঁদের জমি থেকে বেদখল করেছেন ব্যাক্তি ও করপোরেট পুঁজির স্বার্থে।


গণহত্যার রক্তে রাঙানো ঔ লাল ঝান্ডার পতপত করে ওড়া আরো মুশকিল


সেই অর্থে এই রায়ের ফলে ভারতে বামপন্থীদের রাজনৈতিক অস্তিত্বই বিপন্ন হয়ে পড়ল এবং জল জমি জহ্গলের লড়াইয়ে নেতৃত্ব করার অদিকার তাঁরা যেমন হারাল,মেহনতী মানুষের হাত থেকে লাল ঝান্ডা কেড়ে নিয়ে তাঁদের লড়াই থেকে চিকরকালের মত বামপন্থীরা বিচ্ছিন্ন হয়ে গেল এবং বাংলায় নিকট ভবিষ্যতে তাঁদের ফিরে আসার যেমন সম্ভাবনা রইল না,তেমনই মমতা ব্যানার্জির প্রতিপক্ষ বলে আর কিছু থাকল না


সারা ভারতে জমি আন্দোলনে নেতৃত্ব দিতে মমতা ব্যানার্জি ইচ্ছুক কিনাএটা এখন বড় প্রশ্ন।সুপ্রিম কোর্টের এি রায়ে তিনি নিঃসন্দেহ ভারতবর্ষে জমি আন্দোলনের সব থেকে বড় নেতা হিসেবে প্রতিষ্ঠিত হলেন কিন্তি শধু সিঙ্গুরের চাষীদের জমি ফেরতের লড়াইযের বাইরে তিনি বাংলায় অন্যত্র বা সারা দেশে বেআইনী জমি অধিগ্রহণের বিরুদ্ধে জনগণের নেতৃত্ব দিতে পারবেন কি না সেই প্রশ্ন বামপন্থীরা আবার চাষিদের,মেহমনতী মানুষদের,সর্বহারাদের নেতৃত্ব দিতে পারবেন কিনা,একই রকম ঘোরতর জটিল প্রশ্ন,যার উত্তর আপাতত নেই।



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अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है अरुण कुकसाल

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अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है 
अरुण कुकसाल
'पलायन एक चिंतन अभियान'के तहत 14-15 अगस्त, 2016 को कोटी-कनसार में 'पहाड़: संस्कृति, साहित्य और लोग'गोष्ठी से इतर-

क्षम्य है, उदार है,
सरल, सदाबहार है,
षान्त, सौम्य, दत्तचित, 
ये वृक्ष देवदार है।
-सुभाष तराण

कनसार, डाक बंगले की बाहरी दीवार पर इसके बनने का सन् 1898 लिखा है। और डाक बंगले के बैठक कक्ष में ये कविता पोस्टर कल ही आया है। पर मन कहता है, नहीं, ये कविता तो सन् 1898 और उससे भी आदि समय से यहीं विराजमान है। ये कविता इस बात की गवाह है कि पिछले 118 सालों सेे ये देवदार के पेड इस बंगले की सुरक्षा में अनवरत मुस्तैद खड़े हैं। देवदार के पेडों से निनारूओं के समवेत स्वर भोर, दोपहर और सांय इस कविता का गायन करते हैं।
मसूरी-षिमला पैदल मार्ग के हर 5 पांच किमी. के दायरे में अंग्रेजों ने डाक बंगले बनाये। और हम क्या चीज हैं कि आज उन डाक बंगलों की मरम्मत करने की सार्मथ्य भी नहीं है, हमारे पास। पर मंत्री जी रुकेगें तो डाकबंगलों में ही। हनक और धमक खोखली ही सही, दिखाने में क्या जाता है। एक बार सोचो तो, उत्तराखण्ड में अंग्रेजों की बनायी सारी इमारतों को एक तरफ रख दें तो हमारे पास....... अब तो टिहरी का घंटाघर भी नहीं बचा है। 
जब भी डाकबंगले में कोई जलसा होता है, बुर्जुग षम्सी गूजर को खबर हो जाती है। वह भोर में दूध ले कर हाजिर हो जाता है। इलाका क्या यहां के चप्पे-चप्पे से वह वाकिफ है। पैदाइष ही यहीं हुयी। परदादा की उंगली पकड़कर सहारनपुर से इस ओर आना-जाना जो षुरू हुआ अब उसके नाती-पोतों तक उसी लय-ताल से जारी है। गूजरों के 500 से ज्यादा पषु पल रहे हैं, कोटी-कनसार के जंगलों में। हम पहाड़ियों की तरह दन्न बनकर फल देने जाड़ों में मैदान चले जायेगें। वो तो फिर गरमी की आहट होते ही वापस आते हैं। हम पहाड़ी गए तो गए ऊपर से जीवन भर गरियायेगें पहाड़ को।
सुबह के नाष्ते में समय लग रहा है। पर बातचीत का नाष्ता षुरू हो चुका। मित्रों में बहस जारी है। हिमाचल और उत्तराखण्ड सरकार टौंस नदी पर किसाऊ डैम बनायेगें, बल। 236 मीटर ऊंचे इस बांध से 660 मेगावाट बिजली बनने का दावा है। क्वानू क्षेत्र के कोटा, मैलोत और मंज गांव की सैकडों हैक्टयर सिंचित जमीन पाताल हो जायेगी तब। धान का कटोरा कहा जाता है इस इलाके को। जब मक्का खेतों में खड़ा होता है तो हाथी भी छुप जाय उसमें। इतना घना और ऊंचा। पलायन करना यहां लोग जानते नहीं। पर अब डैम के लिए जबरदस्ती खदेडे़ जायेंगे। डैम किसलिए, बिजली बनाने, न भाई दिल्ली को पानी पहुंचाना है। लोकल लोग डैम विरोध में तेल लगाये लठ्ठों को उठाने को तैयार हो रहे हैं। यही तो गेम है। विरोध जितना तीखा और तीव्र होगा सौदेबाजी उतनी ही हाई लेबिल की होगी।
वक्ताओं के व्याख्यानों में गरमी आने लगी है। ये बात और है कि बारिष की वजह से बाहर के लान से उठकर डाकबंगले के बरामदे में गोष्ठियारों को सिमटकर बैठना पड़ रहा है। फायदा हुआ, मित्रों में अपनत्व की बयार घुटने और कंधे बार-बार छूनेे से बड़ गयी है। बोला जा रहा है कि राज्य बनने के बाद 32 हजार किमी. सडकें बनी पर 32 लाख लोग भी पहाड़ को टाटा/बाय-बाय कह गये हैं। मान लो इन्हीं नयी सडकों से यदि वे सब गये हैं तो 1 किमी. पर 100 आदमी। 1 साल में 2 लाख और 1 दिन में 548 लोग पहाड़ी मुल्क छोड़ गये हैं। 'बेडु पाको बारह मासा, काफल पाको चैता'पर नाचने वाले ठैरे। पर पहाड़ में ठहरना। बबा रे ! और सुन लो भाई-बहिनों, इन 16 सालों में 57 हजार हैक्टयर कृषि भूमि कम होने वाली हुयी पहाड़ में। बंदर बे-दखल कर रहे हैं, किसानों को खेतों से, जैसे कि हम पहाड़ी, बंदरों के खैयकर रहे हांे।
आदमी की सार्मथ्य उसकी 'संस्कृति, साहित्य और लोग'की षक्ल को रचता है। सार्मथ्य आती है, आर्थिक सम्पन्नता से। तो भाईओं और बहिनों, पहाड़ में पल नहीं पाये तो पलायन पा गये हम। अब तुम कुछ भी करो और कहो उसकी धार तो पलायन की ओर ही जायेगी। सर्वत्र वही सुनाई और दिखाई देगा। पहाड़ी संस्कृति का संकटचैथ अगर पंजाबी करवाचैथ में तब्दील हो गया तो उसमें करवाचैथ के पैसे की चमाचम ही तो है।.........जारी

Arun Kuksal's photo.
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Yashodhara Ray Chaudhuri সকালের দিকের ব্রেকিং নিউজ বিকেলের খবরের তোড়ে হারিয়ে যায়। বিকেলে যা ঘটেছে ঐতিহাসিক। সকালে খাল থেকে তোলা ১২ বছরের ধর্ষিতার মৃতদেহটি ঐতিহাসিক নয় কারণ কলকাতার লোকের বাম অঙ্গ ডান অঙ্গ দুইই পড়ে গেছে বহুদিন ধরেই । দিল্লি যেভাবে নির্ভয়ার জন্য নেমেছিল সেভাবে আর কলকাতাবাসী নামতে পারে না।

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Yashodhara Ray Chaudhuri

সকালের দিকের ব্রেকিং নিউজ বিকেলের খবরের তোড়ে হারিয়ে যায়। বিকেলে যা ঘটেছে ঐতিহাসিক। সকালে খাল থেকে তোলা ১২ বছরের ধর্ষিতার মৃতদেহটি ঐতিহাসিক নয় কারণ কলকাতার লোকের বাম অঙ্গ ডান অঙ্গ দুইই পড়ে গেছে বহুদিন ধরেই ।
দিল্লি যেভাবে নির্ভয়ার জন্য নেমেছিল সেভাবে আর কলকাতাবাসী নামতে পারে না।

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