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चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना

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चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना

चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना


आनंद स्वरूप वर्मा

16वीं लोकसभा के लिये चुनाव की सरगर्मी अपने चरम पर है और 7 अप्रैल से मतदान की शुरुआत भी हो चुकी है। इस बार का चुनाव इस दृष्टि से अनोखा और अभूतपूर्व है कि समूची फिजा़ं में एक ही व्यक्ति की चर्चा है और वह है नरेंद्र मोदी। भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी जिन्हें बड़े जोर-शोर से प्रधानमंत्री पद के लिये आगे किया गया है। इनके मुकाबले में हैं कांग्रेस के राहुल गांधी और एक हद तक 'आम आदमी पार्टी'के अरविंद केजरीवाल। केजरीवाल ने अभी कुछ ही दिनों पहले अपनी पार्टी बनायी है और देखते-देखते उनकी हैसियत इस योग्य हो गयी कि वह राष्ट्रीय राजनीति में जबर्दस्त ढंग से हस्तक्षेप कर सकें। कांग्रेस और भाजपा के बीच भारतीय राजनीति ने जो दो ध्रुवीय आकार ग्रहण किया था उसे तोड़ने में 'आप'ने एक भूमिका निभायी है और दोनों पार्टियों के नाकारापन से ऊबी जनता के सामने नए विकल्प का भ्रम खड़ा किया है। केजरीवाल पूरी तरह राजनीति में हैं लेकिन एक अराजनीतिक नजरिए के साथ। उनका कहना है कि वह न तो दक्षिणपंथी हैं, न वामपंथी और न मध्यमार्गी। वह क्या हैं इसे उन्होंने ज्यादा परिभाषित न करते हुये लगभग अपनी हर सभाओं, बैठकों और संवाददाता सम्मेलनों में बस यही कहा है कि वह प्रधानमंत्री बनने के लिये नहीं बल्कि देश बचाने के लिये चुनाव लड़ रहे हैं। जिस तरह से सुब्रत राय शैली में चीख-चीख कर वह अपने देशभक्त होने और बाकी सभी को देशद्रोही बताने में लगे हैं उससे उनकी भी नीयत पर संदेह होता है। वैसे, आम जनता की नजर में अपनी कार्पोरेट विरोधी छवि बनाने वाले केजरीवाल ने उद्योगपतियों की एक बैठक में कह ही दिया कि वह पूंजीवाद विरोधी नहीं हैं और न पूंजीपतियों से उनका कोई विरोध है। उनका विरोध तो बस 'क्रोनी कैपीटलिज्म'से है। बहरहाल, इस टिप्पणी का मकसद मौजूदा चुनाव को लेकर लोगों के मन में पैदा विभिन्न आशंकाओं पर विचार करना है।

 समूचे देश में इस बार गजब का ध्रुवीकरण हुआ है। अधिकांश मतदाता या तो मोदी के खिलाफ हैं या मोदी के पक्ष में। चुनाव के केंद्र में मोदी हैं और सभी तरह के मीडिया में वह छाए हुये हैं। जिस समय इंडिया शाइनिंग का नारा भाजपा ने दिया था या जब 'अबकी बारी-अटल बिहारी'का नारा गूंज रहा था उस समय भी प्रचार तंत्र पर इतने पैसे नहीं खर्च हुये थे जितने इस बार हो रहे हैं। जो लोग मोदी को पसंद करते हैं वे भाजपा के छः वर्ष के शासनकाल का हवाला देते हुये कहते हैं कि क्या उस समय आसमान टूट पड़ा था? पूरे देश में क्या सांप्रदायिक नरसंहार हो रहे थे? क्या नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था? नाजी जर्मनी की तरह क्या पुस्तकालयों को जला दिया गया था और बुद्धिजीवियों को देश निकाला दे दिया गया था? ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था। फिर आज इतनी चिंता क्यों हो रही है? तमाम राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी एक राजनीतिक दल है और अगर वह चुनाव के जरिए सत्ता में आ जाती है तो क्या फर्क पड़ने जा रहा है? किसी के भी मन में इस तरह के सवाल उठने स्वाभाविक हैं। हालांकि जो लोग यह कह रहे हैं वे भूल जा रहे हैं कि उसी काल में किस तरह कुछ राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में हास्यास्पद पाठ रखे गये और ईसाइयों को प्रताड़ित किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने भले ही 'राजधर्म'की बात कह कर अपने को थोड़ा अलग दिखा लिया हो पर केंद्र में अगर उनकी सरकार नहीं रही होती तो क्या नरेंद्र मोदी इतने आत्मविश्वास से गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम कर सकते थे? तो भी, अगर सचमुच कोई राजनीतिक दल चुनाव के जरिए जनता का विश्वास प्राप्त करता है (भले ही चुनाव कितने भी धांधलीपूर्ण क्यों न हों) तो उस विश्वास का सम्मान करना चाहिए।

 लेकिन यह बात राजनीतिक दलों पर लागू होती है। मोदी के आने से चिंता इस बात की है कि वह किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक दल का लबादा ओढ़कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे फासीवादी संगठन के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव मैदान में है। 1947 के बाद से यह पहला मौका है जब आर.एस.एस. पूरी ताकत के साथ अपने उस लक्ष्य तक पहुँचने के एजेंडा को लागू करने में लग गया है जिसके लिये 1925 में उसका गठन हुआ था। खुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में चित्रित करने वाले आर.एस.एस. ने किस तरह इस चुनाव में अपनी ही राजनीतिक भुजा भाजपा को हाशिए पर डाल दिया है इसे समझने के लिये असाधारण विद्वान होने की जरूरत नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी को अगर अपवाद मान लें तो जिन नेताओं को उसने किनारे किया है वे सभी भाजपा के उस हिस्से से आते हैं जिनकी जड़ें आर.एस.एस. में नहीं हैं। इस बार एक प्रचारक को प्रधानमंत्री बनाना है और आहिस्ता-आहिस्ता हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा पूरा करना है। इसीलिये मोदी को रोकना जरूरी हो जाता है। इसीलिये उन सभी ताकतों को किसी न किसी रूप में समर्थन देना जरूरी हो जाता है जो सचमुच मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोक सकें।

 इस चुनाव में बड़ी चालाकी से राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। अपनी किसी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी ने यह नहीं कहा कि वह राम मंदिर बनाएंगे। अगर वह ऐसा कहते तो एक बार फिर उन पार्टियों को इस बात का मौका मिलता जिनका विरोध बहुत सतही ढंग की धर्मनिरपेक्षता की वजह है और जो यह समझते हैं कि राम मंदिर बनाने या न बनाने से ही इस पार्टी का चरित्र तय होने जा रहा है। वे यह भूल जा रही हैं कि आर.एस.एस की विचारधारा की बुनियाद ही फासीवाद पर टिकी हुयी है जिसका निरूपण काफी पहले उनके गुरुजी एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड'पुस्तक में किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 'भारत में सभी गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी और हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरवगान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा।'इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं कि 'वे (मुसलमान) विदेशी होकर रहना छोड़ें नहीं तो विशेष सलूक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनके कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे-यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं।'

भाजपा के नेताओं से जब इस पुस्तक की चर्चा की जाती है तो वह जवाब में कहते हैं कि वह दौर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का था और उस परिस्थिति में लिखी गयी पुस्तक का जिक्र अभी बेमानी है। लेकिन 1996 में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधिकारिक तौर पर इस पुस्तक से पल्ला झाड़ते हुये कहा कि यह पुस्तक न तो 'परिपक्वगुरुजी के विचारों का और न आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह और बात है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही 1940 में गोलवलकर आरएसएस के सरसंघचालक बने। काफी पहले सितंबर 1979 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने एक साक्षात्कार में गोलवलकर की अन्य पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स' के हवाले से बताया था कि गोलवलकर ने देश के लिये तीन आंतरिक खतरे बताए हैं-मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट।

गोलवलकर की पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड' 1939 में लिखी गयी थी लेकिन आज नरेन्द्र मोदी के मित्र और भाजपा के एक प्रमुख नेता सुब्रमण्यम स्वामी गोलवलकर के उन्हीं विचारों को जब अपनी भाषा में सामने लाते हैं तो इसका क्या अर्थ लगाया जाय। 16 जुलाई 2011 को मुंबई से प्रकाशित समाचार पत्र डीएनए में 'हाउ टु वाइप आउट इस्लामिक टेरर'शीर्षक अपने लेख में उन्होंने 'इस्लामी आतंकवाद' से निपटने के लिये ढेर सारे सुझाव दिये हैं और कहा है कि अगर कोई सरकार इन सुझावों पर अमल करे तो भारत को पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सकता है। अपने लेख में उन्होंने लिखा है कि 'इंडिया यानी भारत यानी हिन्दुस्तान हिन्दुओं का और उन लोगों का राष्ट्र है जिनके पूर्वज हिन्दू थे। इसके अलावा जो लोग इसे मानने से इनकार करते हैं अथवा वे विदेशी जो पंजीकरण के जरिए भारतीय नागरिक की हैसियत रखते हैं वे भारत में रह तो सकते हैं लेकिन उनके पास वोट देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।'

गौर करने की बात है कि गोलवलकर और सुब्रमण्यम स्वामी दोनों इस पक्ष में हैं कि जो अपने को हिन्दू नहीं मानते हैं उनके पास किसी तरह का नागरिक अधिकार नहीं होना चाहिए। अपने इसी लेख में सुब्रमण्यम स्वामी ने सुझाव दिया कि काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी मस्जिद को हटा दिया जाय और देश के अन्य हिस्सों में मंदिरों के पास स्थित अन्य 300 मस्जिदों को भी समाप्त कर दिया जाय। उन्होंने यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की मांग करते हुये कहा है कि संस्कृत की शिक्षा को और वंदे मातरम को सबके लिये अनिवार्य कर दिया जाय। भारत आने वाले बांग्लादेशी नागरिकों की समस्या के समाधान के लिये उनका एक अजीबो-गरीब सुझाव है। उनका कहना है कि 'सिलहट से लेकर खुल्ना तक के बांग्लादेश के इलाके को भारत में मिला लिया जाय'।

आप कह सकते हैं कि सुब्रमण्यम स्वामी को आर.एस.एस या नरेंद्र मोदी से न जोड़ा जाय। लेकिन जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में एक अत्यंत सांप्रदायिक लेख लिखने और 'हेडलाइंस टुडे'चैनल के पत्रकार राहुल कंवल को बेहद आपत्तिजनक इंटरव्यू देने के बाद ही उन्हें दोबारा भाजपा में शामिल कर लिया गया और जैसा कि वह खुद बताते हैं, उनके सुझाव पर ही पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया। राहुल कंवल को उन्होंने जो इंटरव्यू दिया था उसमें उन्होंने कहा कि 'भारत में 80 प्रतिशत हिन्दू रहते हैं। अगर हम हिन्दू वोटों को एकजुट कर लें और मुसलमानों की आबादी में से 7 प्रतिशत को अपनी ओर मिला लें तो सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं। मुसलमानों में काफी फूट है। इनमें से शिया, बरेलवी और अहमदी पहले से ही भाजपा के करीब हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि मुसलमानों का समग्र रूप से कोई एक वोट बैंक है। आप खुद देखिए कि पाकिस्तान में किस तरह बर्बरता के साथ शिया लोगों का सफाया किया गया। हमारी रणनीति बहुत साफ होनी चाहिए। हिन्दुओं को एक झंडे के नीचे एकजुट करो और मुसलमानों में फूट डालो।'यह इंटरव्यू 21 जुलाई 2013 का है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने आगे कहा है कि 'अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो निश्चित तौर पर अयोध्या में राममंदिर का निर्माण होगा। इस मुद्दे पर पीछे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। हम कानूनी रास्ता अख्तियार करेंगे और मुसलमानों को भी मनाएंगे। मंदिर का मुद्दा हमेशा भाजपा के एजेंडे पर रहा है।'

डीएनए में प्रकाशित लेख के बाद हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों के अंदर तीखी प्रतिक्रिया हुयी क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि हॉर्वर्ड से ली है और वहां वह अभी भी एक पाठ्यक्रम पढ़ाने जाते हैं। हॉर्वर्ड अकादमिक समुदाय ने स्वामी के लेख को अत्यंत आक्रामक और खतरनाक बताते हुये इस बात पर शर्मिंदगी जाहिर की कि उनके विश्वविद्यालय से जुड़ा कोई व्यक्ति ऐसे विचार व्यक्त कर सकता है। विश्वविद्यालय ने फौरी तौर पर यह भी फैसला किया कि इकोनॉमिक्स पर जिस समर कोर्स को पढ़ाने के लिये स्वामी वहां जाते हैं उस कोर्स को हटा दिया जाय। बाद में एक लंबी बहस के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वामी के उस लेख वाले अध्याय पर पर्दा डाल दिया गया लेकिन इस विरोध को देखते हुये डीएनए अखबार ने अपनी वेबसाइट पर से स्वामी के लेख को हटा दिया।

किसी राजनीतिक दल के रूप में भाजपा के आने अथवा भाजपा के किसी प्रत्याशी के प्रधानमंत्री बनने से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है! लेकिन यहाँ मामला कुछ और है।

अभी जो लोग नरेन्द्र मोदी को लेकर चिंतित हैं उनकी चिंता पूरी तरह वाजिब है।

'समकालीन तीसरी दुनिया अप्रैल 2014 का संपादकीय

 

About The Author

आनंद स्वरूप वर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व विदेश नीति के एक्सपर्ट हैं। समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक हैं।

देश कंगाल और नेता मालामाल

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देश कंगाल और नेता मालामाल

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


देश कि जनता भूखी है ये आजादी झूठी है। यह नारा आज से 50 साल पहले महाराष्ट्र के मशहूर चित्रनाट्यकार अन्ना भाऊ साठे ने लगाया था। उन्होंने अनेक सफल फिल्मों का चित्रनाट्य लिखा, परंतु विडंबना देखिये वे  खुद गरिबी की मौत दिवंगत हुए।लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनावों के लिए मनोनयन दाखिल करने वाले उम्मीदवारों की संपत्ति का ब्यौरा देखिये तो समझ में आ जाये कि जनता कैसे कंगाल है और नेता किस कदर मालामाल है। लोकसभा चुनावों के साथ ओडीशा में विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं और दांतों में उंगलियां दबाने लायक बात यह है कि कालाहाडी की भुखमरी के लिए मशहूर ओडीशा के विधानसभा चुनावों में दस बीस नहीं,बल्कि 103 करोड़पति उम्मीदवार हैं।सारे मूर्धन्य राजनेताओं की संपत्ति में बिना कहीं पूंजी लगाये दुगुणी चौगुणी बढ़ोतरी हो गयी है पिछले पांच साल के दौरान। अब वे मतदाता हिसाब लगायें जो उन्हें वोट डालकर अपना भाग्य विधाता बनाते हैं कि इन नेताओं की बेहिसाब संपत्ति और आय के मुकाबले पिछले पांच साल के दौरान उन्हें क्या मिला और क्या नहीं मिला।


जाहिर है कि लोकसभा चुनावों में जनादेश बनाने के लिए चुनाव प्रचार  अभियान जितना तेज हो रहा है,हर ओवर के अंतराल में जो मधुर जिंगल से हम मोर्चाहबंद होते हैं, फिर ऐन चुनावमध्ये जो आईपीएल कैसिनों के दरवाजे खुलने हैं,जो हवाई यात्राएं तेज हो रही है,जो पेड न्यूज का घटाटोप दिलोदिमाग को व्याप रहा है,उतनी ही तेजी से विदेशी पूंजी के अबाध प्रवाह और निवेशकों की अटूट आस्था बजरिये शेयरों में सांढ़ों की धमाचौकड़ी की तरह चुनाव खर्चों में बेहिसाब कालाधन की बेइंतहा खपत हो रही है और यह धन किसी स्विस बैंक खाते से भी नहीं आ रहा है,जिसे रोका जा सकें। वह कालाधन अगर वोट कारोबार में खप जाता तो बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के कालाधन वापसी अभियान के रुक जाने का खतरा था।जो कालाधन चुनाव में लगा है ,वह इसी देश की बेलगाम अर्थव्यवस्था की रग रग से निकल रही है और जिसे नियंत्रित करने में स्वायत्त चुनाव आयोग भी सिरे से नाकाम है।भ्रष्टाचार को बाकी बेसिक अनिवार्य मुद्दों के मुकाबले मुखय मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रही राजनीति का यह असली चेहरा है जो कोयला घोटाले की तरह काला ही काला है।


गौरतलब है कि सोमवार से से शुरु हो रहे लोकसभा चुनावों में तीस हजार करोड़ रुपये खर्च होने का फिलहाल अंदाजा है।आवक और मांग की सुरसाई प्रवृत्ति के मुताबिक यह रकम आखिरकार कितनी होगी कहना मुश्किल है।मौजूदा हालात में सीएमएस के सर्वे के मुताबिक चुनावों पर खर्च होने वाले इन तीस हजार करोड़ रुपये का दो तिहाई ही कालाधन है।लोकतंत्र को अर्ततंत्र में बदलकर नेता जो मालामाल हो रहे हैं और जनता जो कंगाल हो रही है,उसका ताजातरीन सबूत यह है।


अबकी दफा विज्ञापनी तमाम चमकदार चेहरे चुनाव मैदानों में हैं।कालाधन से चलने वाले कारोबार से जुड़े तमाम ग्लेमरस लोग खास उनम्मीदवार है जिनके पास अकूत संपत्ति है और कोई नहीं जानता कि जीत की बाजी जीतने के लिए आखिर अपने अपने हिस्से का कालाधन देश विदेश से  खोदकर कहां कितना वे लगा देंगे। फिलहाल सीएमएस के आकलन को ही सही मान लिया जाय तो अबकी दफा चुनाव कार्निवाल में होने वाला खर्च सारे रिकार्ड ध्वस्त करने जा रहा है।इस खर्च में सरकारों की ओर से वोट बैंक समीकरण साधने के लिए मतदान प्रक्रिया शुरु होने से पहले आचार संहिता के अनुपालन के साथ जो रंग बिरंगी खैरात बांटी गयी,उसे सफेद धन मान लिया  जाये,तो यह खर्च तीस हजार करोड़ से कईगुणा ज्यादा हो जायेगी। अपने अपने हित साधन के लिए कंपनियां मुफ्त में अपने जो साधन संसादन लगा रही हैं,वह भी हिसाब से बाहर है।पार्टियों की सांगठनिक कवायद का भी कोई हिसाब नहीं है।हार निश्चित हर क्षेत्र के उन उम्मीदवारों,जिनकी अमूमनजमानत जब्त हो जाती है या ऐन तेण प्रकारेण जो वोट काटने के लिए मैदान में होते हैं, उनकी कमाई और बचत का भी कोई लेखा जोखा नहीं होता।


सीएमसी के मुताबिक राजनीति दलों की ओर से आठ दस हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं तो निजी तौर पर खर्च की जाने वाली रकम भी दस से लेकर तेरह हजार करोड़ रुपये हैं।


शेयर बाजार की उछाल, सोने की तस्करी से लेकर हजार तौर तरीके के मार्फत देश विदेश से इतनी बड़ी रकम बाजार में खपने जा रही है।समझा जाता है कि अकेले शेयर बाजार मार्फत पांच हजार करोड़ रुपये चुनावों में कपने वाले हैं।अब चर्बीदार नेताओं की सेहत का राज समझ लीजिये।



Statement on Loksabha Elections by eminent writers

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Statement on Loksabha Elections by eminent writers


As India heads towards another general election soon we, the undersigned, would like to warn the people of India about the rising danger of bigotry, communal divide, organised violence on and hatred for sections of people in the country.


At a time when conflicts are on the increase worldwide and both the global and national economy are in deep crisis due to falling incomes, rising inflation and unemployment there is a search for a 'messiah', a superman who will save us all and restore lost glory or take us towards new ones very soon.


We have been subjected to a media blitz in recent times to convince us that Narendra Modi is the man we need now. This corporate media campaign has already overawed the Bhartiya Janta Party to surrender before the 'Strongman of Gujarat'.  He is being portrayed as a man who has the solution for all the complex economic, social and cultural challenges the country faces today. Modi's infamous role in the massacre of over 3000 Muslims in his state in 2002 is being brushed aside and he is promoted as morally 'fit enough' to lead the nation. False statistical claims, full of half-truths, are being used to present Gujarat as a model that all of India should follow to attain high economic growth. The voices of reason critical of Modi within his own party are being ignored and even attacked to silence them. Narendra Modi is being portrayed as the 'tough man' who is capable of taking hard decisions.


The history of the last century tells us that in similar situations, people of different nations have, in their desperation to find a way out, often opted for such 'tough men'. The results have been disastrous for them. A yearning for 'hard decisions' makes us surrender our collective wisdom as well as conscience to such men, who then proceed to rob us of our humanity. This desire for toughness and a hard state has led to the rise of fascist regimes and genocides in the past. The people of Italy, Germany and other countries of Europe have paid a very high price for their folly and the world is yet to fully recover from their misadventures. Generations have suffered an abiding sense of   guilt for a decision taken by their predecessors. 


Added to it is the fact that The Rashtriya Swyamsevak Sangh (RSS) is now actively promoting Narendra Modi as the next prime minister. RSS is an organization, which has been propagating the idea of India as a Hindu Rashtra, a super identity under which all other identities, religious or cultural, are subsumed. India's strength lies in the confidence that identities of various shapes, sizes and colours have enjoyed over the millennia, a history that forms the very basis of the modern idea of India.


It is precisely this willingness to accept and celebrate diversity that has prevented India from going the way some of her neighbor countries have gone.  Any attempt to homogenize India by the brute force of numbers will lead to permanent discord, perpetual violence and the ultimate disintegration of the entity we now recognize as India. The idea of India inevitably includes plurality, mutual respect, accommodation and vital diversity and that idea faces a real threat today.

We do need governments, which can take firm decisions to safeguard and ensure the material wellbeing of the people, especially, the most vulnerable sections among them. And yet we also need to take care that we do not fall into the trap of simplistic claims of there being instant solutions to any national problem. We do need to reiterate the values that constitute the very idea of India, an idea, which promises the smallest of identities a space and a rightful stake in the nation. A person like Narendra Modi, who is a permanent source of anxiety and insecurity for very large sections of our society, cannot and should not be allowed to lead India.


This upcoming Lok Sabha election will again be a test for people of India: are we strong enough to reject the idea of a hard state and a hard leader? Are we sensitive enough not to support an ideology that renders invisible large sections of the population or people?  Can we prevent the politics of hatred and contempt for democracy from triumphing over the great Indian tradition of tolerance and brotherhood?



U R Ananthamurthy             
Namwar Singh               
Ashok Vajpeyi                       
Apoorvanand

The business interests of Nandan Nilekani The Infosys co-founder owns a stake in the IT firm, as do his wife Rohini, daughter Jahnavi and son Nihar

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The business interests of Nandan Nilekani

The Infosys co-founder owns a stake in the IT firm, as do his wife Rohini, daughter Jahnavi and son Nihar

The business interests of Nandan Nilekani
Photo: Hemant Mishra/Mint
Nandan Nilekani, the former chief executive officer and co-chairman ofInfosys Ltd, who recently quit as chairman of the Unique Identification Authority of India, is the Congress candidate from Bangalore South constituency in Karnataka. This is the first time he is contesting an election. Nilekani, who recently declared his net worth to be about Rs.7,700 crore, owns a stake in Infosys, as do his wife Rohini, daughter Jahnavi and son Nihar. Nilekani and his wife also manage R Tehmurasp Investment Co. Pvt. Ltd. Rohini Nilekani heads Arghyam, a Bangalore-based public charitable foundation that funds organizations implementing and managing groundwater and sanitation projects. She is also a director on the board of Sanghamithra Rural Financial Services, a microfinance company. Nilekani did not respond to an email query seeking comment.
Click below for a graphic on the holdings of the Nikelani family.
Over the next month and a half, while voters elect a new government for India, Mint will profile the business interests of prominent politicians using data from the corporate affairs ministry's database.




From Infosys (NYSE: INFY) To Parliament: Can Two Wealthy Tech Executives Revolutionize Indian Politics By Running For High Office

on April 02 2014 2:47 PM


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Harkening back to Ross Perot's independent, memorable and largely self-financed run at the U.S. presidency in 1992 and 1996, the current elections in India feature two very wealthy former tech executives who are seeking seats in the New Delhi Parliament, canvassing for votes on the premise of their business successes, corporate governance, transparency and opposition to corruption. V. Balakrishnan and Nandan Nilekani, former senior executives at information technology-outsourcing giant Infosys Ltd. (NYSE:INFY), are running for seats in the southern tech hub city of Bangalore.

Indians have witnessed a long stream of actors, actresses, musicians, athletes and other celebrities running for Parliament over the decades, but Indian media speculated that this election marks the first time that two such prominent technology executives (a wholly new kind of "celebrity" and public figure) have taken the leap into the rough-and-tumble of the country's politics.

Nilekani, 58, a billionaire and former chief executive and co-founder of Infosys, is running as a member of the Congress Party in Bangalore-South. Balakrishnan, 50, Infosys' former chief financial officer and a multi-millionaire in his own right, is challenging for a seat in Bangalore-Central as a member of the upstart Aam Aadmi Party, an anti-corruption third party formed in November 2012. Neither has ever held public office before.

Nilekani quit Infosys five years ago to form the Aadhar Project, a biometric endeavor set up for the government to count and identify every person in the nation, while Balakrishnan resigned late last year, one of many Infosys executives who left the firm in the wake of the return of co-founder Narayana Murthy to the executive chairmanship last summer.

According to reports in Indian media, Balakrishnan and Nilekani, two figures who are as well known in Bangalore as movie stars and athletes, have adopted the common touch in their campaigns – by, among other things, wearing ordinary clothes and personally meeting with people on the streets and literally knocking on doors in their constituencies. They also have a vast array of former business colleagues providing digital/technical assistance on their journeys to political power. In addition, unlike many Indian political candidates, both ex-tech gurus have opened up their bank books to the public to reveal their wealth – Nilekani and his wife carry a net worth of some $1.26 billion, tied up mostly in Infosys shares, which reportedly makes him the wealthiest parliamentary candidate in India. As with Perot and New York City Mayor Mike Bloomberg, such wealth supposedly precludes the temptation of bribes and corruption.

Vivek Wadhwa, an Indian-American technology entrepreneur and a fellow at the Rock Center for Corporate Governance at Stanford Law School, praised the entry of the ex-Infosys heavyweights into India's political jungle. "I think this is a very good thing to have professionals in government," Wadhwa said in an interview. "The difference between the celebrities and business executives such as these is that the executives are ethical and competent. They aren't doing this for ego, but to clean up the corrupt government and bring the same standards of governance with which they ran their companies to the country."

But neither Nilekani nor Balakrishan is a shoo-in for election. As in the United States, dislodging incumbent lawmakers in India is quite difficult.

Nandan Nilekani: A Billionaire Novice

Despite his enormous wealth, Nilekani faces stiff opposition from the incumbent MP of Bangalore South, Ananth Kumar, a former aviation minister and member of the right-wing Bharatiya Janata Party, who has occupied the seat for five straight terms. Nilekani is playing up his middle-class background as a way of overcoming the gulf between the average Indian and someone who has more money than they will ever see in a hundred lifetimes. "Every one of you deserves the same chance that I got, and my mission is to expand job opportunities for India's young people," Nilekani told a crowd of cheering students at a local college. "I want to impact India's future, I want to push through transformation at a much faster pace. If half a million people [in my constituency] vote for me, I can."

Regarding his wealth, Nilekani boasted: "I haven't made any money illegally [nor] hid it in investments outside the country. Nothing is hidden in someone else's bank account." That one quote represented an extraordinary statement by an aspiring lawmaker in a country where literally hundreds of MPs have faced (or are facing) a multitude of criminal charges, ranging from accepting bribes all the way up to murder. "For 29 years, I was with Infosys. Then I spent five years for the Aadhar Project. The next few years will be for politics of change," Nilekani spelled out to Indian broadcaster NDTV.

Nilekani's wife, Rohini, has joined him on the campaign circuit, but only after some personal soul-searching. "It was a very difficult decision [for him to quit business and join politics] because obviously it is a game-changer for the city [of Bangalore] and the country, but it is very hard at a personal level. But the right thing to do is to support him. And then I didn't look back," Rohini told the CNN-IBN network.

Nilekani has stated that his three core policy issues are educational reforms, power and electrical generation infrastructure improvements and women's safety. He also addressed the challenges posed by India's rapid urbanization. "Problems in [metropolitan areas]… across the country are generic, as they are a result of relentless migration from towns and villages" he told the Indo-Asian News Service. "Rapid urbanization and lack of timely investment in civic amenities have made existing infrastructure inadequate. I intend to address these issues head on and find solutions as I am a problem-solver."

And if one needs technological proof of the interest that Nilekani's candidacy has drawn, consider that Google (NASDAQ: GOOG) itself said that over the past few weeks, "Nilekani" has been searched on its portal more than any other politician or party in the southern Indian state of Karnataka, which includes Bangalore.

Jonah Blank, Ph.D., a senior political scientist at the RAND Corp. and an expert on South Asian affairs, praised Nilekani.

"[He] has already proven that he takes public service very seriously indeed: the Unique Identification Authority [Aadhar] project-- which he created and administered-- may do more to improve the lives of millions of impoverished citizens than any government program in many years," her said. "Nilekani is definitely in a different category than most businessmen-turned-politicos. His Unique Identification Authority program aims to give the poorest citizens a way to receive official payments, rations and other benefits without paying rapacious and corrupt middlemen. In today's political climate, that should serve his prospects well."

Nilekani has also gained the support of a number of prominent Karnataka literary figures (a strong endorsement in a region of India that greatly reveres men and women of letters). India Today reported that Girish Karnad, the author and longtime critic of right-wing Hindu nationalists, even campaigned for Nilekani, by knocking on doors with Rohini. "We have never had a candidate like Nandan before in Bangalore," Karnad said. "He has created a great company in Infosys, a platform in Aadhar and brings many skill-sets needed to change politics. We must all support him." Other literary personages embracing Nilekani include the writer K. Marulasiddappa, movie actor Mukhya Mantri Chandru and writer G.K Govind Rao.

Nilekani has criticized his opponent, the incumbent Ananth Kumar, by alleging the latter focuses too much on foreign policy issues rather than topics that directly affect voters in Bangalore. "He keeps talking about Line of Control issues [border disputes between India and Pakistan in Kashmir], about Maldives [islands], and about 'national security', rather than about Bangalore," Nilekani thundered. "National security matters, but is he not concerned about the day-to-day economic security of our people, of our women and children? Why aren't we talking about the very basic water problems, transport issues, the issues with jobs in the constituency? As the sitting MP of this constituency, isn't he responsible for these issues?"

A debate between the candidates last week descended into chaos and had to be scrapped after supporters from both sides verbally attacked one another over a number of minor issues, including what language the parley should be conducted in (English or Kannada, the native tongue of Karnataka). Things deteriorated shortly thereafter into a screaming match and near physical violence.

V. Balakrishnan: An Anti-Corruption Multi-Millionaire

Balakrishnan, who said he quit the business world because he was excited by the rise of the AAP and its potential of enacting real change in the country, called corruption "the biggest tax that Indians have to pay." He also faces a formidable opponent, the incumbent BJP official P. C. Mohan. Rejecting both Congress and BJP as representing vested interests who do not address the needs of the public, Balakrishnan declared on the campaign trail: "If India gets clean, honest politicians, governance itself is not rocket science." In an interview with NDTV television network, Balakrishnan compared his former life as a top executive with his new aspirations in politics. "Ultimately, whether it is corporate world or politics, you have a set of stakeholders and you have to appeal to them, understand the issues and try and solve it to the maximum extent. That is what it is all about," he said.

According to the Financial Express, Balakrishnan employs a relatively small campaign team of 15 to 20 core staff-members (including some former Infosys employees) and has established a website and social media campaign. Balakrishnan's campaign apparently combines high-tech with common-touch humility (he has, for example, promised not to bombard voters with a high-pressure social media messages, an apparent dig at Nilekani).

Indeed, on his rather simple website, Balakrishan states that his principal platforms comprise booting out corruption and establishing clean governance (mirroring the AAP's basic party line), without going into much detail. "The current political [parties want the] status quo," said a statement on the website. "AAP is unconventional but provides an alternative."

Citizen Matters, a local Bangalore newspaper, reported that Balakrishnan has the support of numerous unpaid young volunteers, including students, techies and entrepreneurs, evoking an air of informality and dedication. Virtually all of them hammer away at the message of AAP founder Arvind Kejriwal that India must eliminate corruption.

Balakrishan also noted that the private sector must create jobs for India rather than the state. "Government is incapable of creating jobs," he told Citizen Matters. "We need to create at least 1.2 crore [12 million] jobs per year [in India], therefore we need 10 lakh [1 million] jobs a month. Once upon a time our growth rate was close to 8 to 10 percent [per annum], but today we grow at 5 percent. We need [the] participation of private parties and a transparent ecosystem, where honest enterprises can start their own business and flourish and create job opportunities."

Balakrishnan also referred to his personal blessings in life. "I [have] everything in life. I have enough money, but I wanted to do something beyond Infosys," he said.  "I want to clean the system. I don't need money, power but I want to change the system."

But Balakrishnan's opponent in the race, Mohan, shrugged off his rival's sterling corporate background, saying the enormous popularity of BJP leader and prime ministerial candidate Narendra Modi will trump any challengers. "Today, all sections of [the] people want Narendra Modi as prime minister of this country... even the IT sector also, they are going to vote for BJP," Mohan said.

The Press Trust of India reported that Balakrishnan faces long odds of winning the Bangalore-Central seat. Not only must he defeat the entrenched incumbent, Mohan of BJP, but he also must tackle the Congress candidate, youth wing chief Rizwan Arshad, who reportedly was handpicked by Congress leader Rahul Gandhi himself.

Separately, the candidates' former boss and mentor, Infosys executive chairman Narayana Murthy, has wished Balakrishnan and Nilekani well in their political endeavors, but has refused to endorse either man, nor will he campaign for them. In an interview on CNN-IBN television, Murthy said: "I think getting into politics is also entrepreneurial… We must salute [Balakrishnan and Nilekani] because we need changes and innovations even in politics." But he added: "I am apolitical… I have to treat every political party with equal respect."

Sumit Ganguly, professor of political science and director of the Center for American and Global Security at the Indiana University School of Global and International Studies in Bloomington, commented in an interview that both Balakrishnan and Nilekani are "respected and able" men. "I suspect that they chose to [run for political office] because they felt that they could make a difference in the quality of governance," Ganguly noted. "Also, bear in mind that Nilekani is already the brains behind the unique ID program in the country. He may have gotten a taste of what it is like to wield political power." Ganguly added he thinks that the public could support them on the basis of name recognition alone. "However, their ability to stay in government will depend in considerable measure upon their ability to deliver once in office," he said.

Wadhwa noted that, as reflected by the emergence of the AAP as a viable third party, the outrage over corruption and incompetence in India has reached a tipping point. "Indian politics badly needs an upgrade. People are fed up of having their leaders steal from them all the time and treat them with disdain," Wadhwa said. "I hope [either] Balakrishnan [or] Nilekani rise to the level of prime minister one day."

Blank concluded that both Nilekani and Balakrishnan will likely benefit from a popular anger at entrenched politicians who seem to care little for their constituents. "This is an election in which incumbents are running scared," he added.

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कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं , सर भी बहुत - फैज़ अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना। आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .

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कटते भी चलो बढ़ते भी चलो

बाज़ू भी बहुत हैं , सर भी बहुत

- फैज़

अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।


आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .

पलाश विश्वास

रबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जानेवाले जायेंगे

कुछ अपनी सज़ा का पहुँचेंगे कुछ अपनी जज़ा ले जायेंगे


ऐ ख़ाकनशीनो, उठ बैठो, वह वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख़्त गिराए जाएँगे, जब ताज उछाले जाएँगे


अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएँगे


कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं, सर भी बहुत

चलते भी चलो के अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे


ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो, चुप रहनेवालो, चुप कब तक

कुछ हश्र तो उनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएँगे

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


गिरदा,शेखर और हमारी टीम नैनीताल समाचार के शुरुआती दिनों में जब रिपोर्ताज पर रात दिन हर आंखर के लिए लड़ते भिड़ते थे,गरियाते थे हरुआ दाढ़ी, पवन, भगतदाज्यू, सखादाज्यू, उमा भाभी से लेकर राजीव दाज्यू तक टेंसन में होते थे कि आखिर कुछलिका जायेगा कि अंक लटक जायेगा फिर,तब गिरदा ही काव्यसरणी में टहलते हुए कुछ बेहतरीन पंक्तियां मत्ते पर टांग देते थे,फिर मजे मजे में हमारे कहे का लिखे में सुर ताल छंद सध जाते थे।


उन दिनों हम साहिर और फैज़को खूब उद्धृत करते थे।पंतनगर गोली कांड की रपट हम लोगों ने  फैज़ से ही शुरु की थी।तब हमारा लेखन रचने से ज्यादा अविराम संवाद का सिलसिला ही था,जिसमें कबीर से लेकर भारतेंदु और मुक्तिबोध कहीं भी आ खड़े हो जाते थे।शायद इस संक्रमण काल में हमें  उन्हीं रोशनी के दियों की अब सबसे बेहद जरुरत है।


आज सुबह सवेरे अनगिनत सेल्फी से सजते खिलते,अरण्य में आरण्यक अपने नयन दाज्यू ने अलस्सुबह के घन अंधियारे में यह दिया अपने वाल पर जला दिया।उनका आभार कि फिर एकबार रोशनी के सैलाब में सरोबार हुए हम और हमारे आसपास यहीं कहीं फिर गिरदा भी आ खड़े हो गये।


मुझे बेहद खुशी है कि वैकल्पिक मीडिया का जो ांदोलन समकालीन तीसरी दुनिया के जरिये शुरु हुा,उसकी धार बीस साल के आर्थिक सुधारों से कुंद नहीं हुई।अप्रैल अंक में संपादकीय अनिवार्य पाठ है तो मार्च अंक में मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के मद्देनजर अभिषेक श्रीवास्तव,विद्याभूषण रावत,सुबाष गाताडे और विष्णु खरे के आलेख हमारी दृष्टि परिष्कार करने के लिए काफी हैं।

इनमें विद्याभूषण रावत सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे न सिर्फ बेहतरीन लिखते हैं बल्कि जाति पहचान के हिसाब से विशुद्ध दलित हैं।वे अंबेडकरी आंदोलन पर व्यापक विचार विमर्श के खिलाफ नहीं है,हालांकि वे भी मानते हैं कि अंबेडकर के लिखे परर किसी नये प्रस्तावना की आवश्यकता नहीं है।


उन विद्याभूषण रावत ने अपने आलेख में साफ साफ लिखा हैः

दलित आंदोलन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि बाबा साहेब आंबेडकर के बाद वैचारिक तौर पर सशक्त  और निष्ठावान नेतृत्व उनको नहीं मिल पायाहांलांकि आम दलित कार्यकर्ता अपने नेताओं के ऊपर जान तक कुर्बान करने को तैयार हैं।आज यदि ये सभी नेता मजबूत दिकायी देते हैं तोइसके पीछे मजबूर कार्यक्रता भी हैं जो अपने नेता के नामपर लड़ने मरने को तैयार हैं।सत्ता से जुड़नाराजनैतिक मजबूरी बन गयी है और इसमेंसारा नेतृत्व आपस में लड़ रहा है।अगर हम शुरु से देखेंतो राजनैतिक आंदोलन के चरित्र का पता चल जायेगा।बाबासाहेब ने समाज के लिे सब कुच कुर्बान किया।उन्होंने वक्त के अनुसार अपनी नीतियां निर्धारित कींलेकिन कभी अपने मूल्य से समझौता नहीं किया।लेकिन बाबासाहेब के वक्तभी बाबू जगजीवन राम थे।हालांकि उनके समर्थक यह कहते हैं कि बाबूजी ने सरकार में दलित प्रतिनिधित्व को मजबूत किया लेकिन अंबेडकरवादी जानते हैं कि उनका इस्तेमालआंबेडकर आंदोलन की धार कुंद करने के लिए किया गया।


रावतभाई ने बड़े मार्के की बात की है कि एक साथ तीन तीन दलित राम के संघी हनुमान बन जाने के विश्वरिकार्ड का महिमामंडन सत्तापरिवर्तन परिदृश्य में सामाजिक न्याय और समता के लक्ष्य हासिल करने केे लिए सत्तापक्ष में दलितों की भागेदारी बतौर ककांग्रेस जगजीवन काल को दोहराने की तर्ज पर किया जा रहा है।


जबकि भाजपा के देर से आये चुनाव घोषणापत्र में राममंदिर का एजंडा अपनी जगह है।हिंदू राष्ट्र के हिसाब से सारी मांगे जस की तस है।अब बाकी बहुजनों से अगर दलित नेतृत्व सीधे कट जाने की कीमत अदा करते हुए सत्ता की चाबी हासिल करने के लिे यह सब कर रहे हैं और मजबूर कार्यकर्ता उसे सही नीति रणनीति बतौर कबूल कर रहे हैं,तो बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


जबकि दूसरो का मानना कुछ और हैः,मसलन


''आज की तारीख में गैर-भाजपावाद, गैर-कांग्रेसवाद के मुकाबले ज्‍यादा ज़रूरी है'': यूआर अनंतमूर्ति, प्रेस क्‍लब की एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में एक सवाल का जवाब

(बुद्धिजीवियों के राजनैतिक हस्‍तक्षेप की बॉटमलाइन)

अब दलितों को यह तय करना है कि सत्ता की चाबी के लिए केसरिया चादर ओढ़कर बाकी जनता से उसे अलहदा होना है या नहीं।गैरभाजपावाद के मुकाबले उसे भाजपावाद का समर्थन करना है या नहीं।

गौरतलब है कि भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को शामिल करते हुए लोगों से इन्हें पूरा करने का वायदा किया है ।

क्या यह घोषणापत्र बहुजनहिताय या सर्वजनहिताय जैसे सिद्धांतों के माफिक हैं, क्या जाति व्यवस्था बहाल रखने वाले हिंदुत्व को तिलांजलि देकर गौतम बुद्ध के धम्म का अंगाकार करने वाले बाबासाहेब के अंबेडकरी आंदोलन का रंग नीले के बदल अब केसरिया हो जाना चाहिए,क्यों कारपोरेट फासिस्ट सत्ता की चाबी संघ परिवार में समाहित हुए बिना मिल नहीं सकती ,ऐसा मूर्धन्य दलित नेता,दलितों के तमाम राम ऐसा मानते हैं?

गौरतलब है कि मक्तबाजार के जनसंहारी अश्वमेध और दूसरे चरण के सुधारों के साथ अमेरिकी वैश्वकि व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता जताने में गुजरात माडल को फोकस करने में भी इस घोषणापत्र में कोई कोताही नहीं बरती गयी है।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सोमवार को लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा-पत्र जारी किया। घोषणा पत्र में अर्थव्यवस्था व आधारभूत संरचना को मजबूत करने और भ्रष्टाचार मिटाने पर जोर दिया गया है। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के मतदान के दिन घोषणा पत्र जारी करते हुए कहा कि हमने घोषणा पत्र में देश के आर्थिक हालात को सुधारने की योजना बनाई है। जहां तक आधारभूत संरचना का सवाल है, विनिर्माण में सुधार महत्वपूर्ण है। साथ ही इसका निर्यातोन्मुखी होना भी जरूरी है। बीजेपी का ब्रांड इंडिया तैयार करने का वादा। हमें ब्रांड इंडिया बनाने की जरूरत है। बीजेपी ने एक भारत श्रेष्‍ठ भारत का नारा दिया है।


जैसा हम लगातार लिखते रहे हैं,जिस पर हमारे बहुजन मित्र तिलमिला रहे हैं,जैसा कि अरुंधति ने लिखा है,जैसा रावत भाई,आनंद तेलतुंबड़े और आनंद स्वरुप वर्मा समेत तमाम सचेत लोग लिखते रहे हैं,कारपोरेट धर्मोन्मादी इस जायनी सुनामी का मुक्य प्रकल्प हिंदूराष्ट्र का इंडिया ब्रांड है। यानी कांग्रेस के बदले अब शंघी भारत बेचो कारोबार के एकाधिकारी होंगे।

इस पर अशोक दुसाध जी ने मंतव्य किया है।सब का लिखा एक ही जैसा है ?! अरूंधती राय जैसा ! अरूंधती एक सफल मार्केटींग एक्जक्यूटिव है जो अम्बेडकर को अंतराष्ट्रीय स्तर पर बेचना चाहती हैं.


गौरतलब है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी एवं अन्य नेताओं द्वारा आज यहां पार्टी मुख्यालय में जारी किए गए 52 पन्नों के घोषणापत्र में सुशासन और समेकित विकास देने का भी वायदा किया गया है। एक पखवाड़े के विलम्ब से जारी घोषणापत्र में कहा गया है कि भाजपा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए संविधान के दायरे में सभी संभावनाओं को तलाशने के अपने रूख को दोहराती है। राम मंदिर मुद्दे को शामिल करने पर पार्टी के भीतर मतभेदों की खबरों के बारे में पूछे जाने पर घोषणापत्र समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि यदि आप अपनी सोच के हिसाब से कुछ लिखना चाहते हैं तो आप ऐसा करने को स्वतंत्र हैं।


जोशी ने कहा कि उन्होंने कहा कि हम जितनी जल्दी ऐसा करेंगे, उतना ही शीघ्र अधिक से अधिक रोजगार का सृजन होगा। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर भाजपा के वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी केवल खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ है। वैसे यह एफडीआई का विरोध नहीं करती, क्योंकि इससे रोजगार का सृजन होगा।


इसी सिलसिले में गौर करे कि तीसरी दुनिया के अपने आलेख में विद्याभूषण रावत ने साफ साफ लिख दिया है कि दलित आंदोलन को केवल सरकारी नौकरियों और चुनावों की राजनीति तक सीमित कर देना उसकी विद्रोहातमक धार को कुंद कर देना जैसा है।आंबेडकर को केवल भारत का कानून मंत्री और भारत का संविधान निर्माता तक सीमित करके हम उनके क्रांतिकारी सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के वाहक की भूमिकाको नगण्य कर देते हैं।


रावत भाई ने साफ साफ बता दिया है कि हमें किस अंबेडकर की जरुरत है।मौजूदा बहस का प्रस्थानबिंदू यही है।साफ साफ लिखने के लिए आभार रावत भाई।



हिमांशु जी ने फिर तलवार चला दी है,आजमा लें कि वार निशाने पर हुआ कि नहीं।

अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि सभी इंसान बराबर नहीं होते बल्कि हमारे धर्म को मानने वाले श्रेष्ठ होते हैं और विधर्मी हीन और घृणित होते हैं .


आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि हर देश के नागरिक एक जैसे नहीं होते बल्कि हमारे देश के नागरिक श्रेष्ठ हैं और पड़ोसी देश के नागरिक हीन और घृणित हैं .


अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि देशभक्ति का मतलब है कि हम विधर्मी को मार डालें


अगर आप को देशभक्त बनना है तो कहिये कि देशभक्ति का अर्थ है कि हम अपने पड़ोसी देश को धूल में मिला दें


अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि विधर्मी और पड़ोसी देश को मिटाने वाला सिपाही ही सबसे बड़ा देशभक्त है


अगर आप को देशभक्त बनना है तो सेना और बंदूकों के गुण गाइए .


अगर आप यह सब नहीं करेंगे तो फिर आप पाकिस्तानी एजेंट , नक्सलवादी ,विदेशी पैसों से पलने वाले छद्म सेक्युलर गद्दार कहलाये जायेंगे .


आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .


अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।


अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।



प्रचंड नागका धन्यवाद कि उनकी त्वरित प्रतिक्रिया सबसे पहले मिली


लेफ्ट हो या राइट चाहे फ्रंट हो या साइड एवरीव्हेयर ऑन ब्राह्मण इट केन बी एप्लाइड । व्हाट !



डॉ आंबेडकर सभी प्रकार के ब्राह्मण चाहें वे प्रगतीशीलता का लबादा ओढ़ें हों या सनातनी के चोले में हों , चाहें वे ब्राह्मणवाद का लेफ्ट से पिछवाड़ा धोते हों या ब्राह्मणवाद का राइट से पिछवाड़ा धोते हों हमेशा से दुखती रग रहे हैं । आंबेडकर और आंबेडकरवादी ब्राह्मणों के विभिन्न नामों और बहानों से ब्राह्मणवाद कायम रखने का कोई भी मंसूबा कभी भी पूरा नहीं होने देंगे । यह भी उतना ही सच है कि चाहे कोई भी विदेशी भारत का शासक रहा हो भारत पर ब्राह्मणों का कब्जा और भारत के लोगों पर ब्राह्मणों की पकड़-चंगुल हमेशा रही है । सभी तरह के ब्राह्मण अपनी-अपनी तरकीबों से आंबेडकर और आंबेडकरवाद पर आलोचना और हमला करते रहे हैं । यह इतिहास और वर्तमान से सिद्ध है कि कोई भी ब्राह्मण कभी भी बहुजन हितैषी कभी नहीं रहा और न हो सकता है क्योंकि उसके लिए पहले ब्राह्मण-ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणी ग्रंथों और ब्राह्मणी वर्चस्व को दफनाना होगा जिसके लिए कोई भी ब्राह्मण कभी भी तैयार नहीं हो सकता नाटक जरूर कर सकता है । सफलता हाथ न लगती देखकर अब वे चाणक्य की कुटिल नीति का इस्तेमाल कर भ्रम पसराना चाहते हैं और मूर्ख बहुजन उस भ्रम का शिकार हो सकते हैं । हमें आंबेडकर की तलब है पर कौन से आंबेडकर की ! यह भ्रम पसराने की उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है । डॉ आंबेडकर तो केवल डॉ आंबेडकर हैं और उसमें ये बदमाश उस आंबेडकर को ग्रहण करना और हमें ग्रहण करवाना चाहते हैं जो उन्हें मुफीद हो जिससे उनका जरा भी नुकसान न होता हो और ब्राह्मणवाद को जरा भी चोट न पहुँचती हो । बहुजनों को डॉ आंबेडकर बिना काट-छांट के अपनी संपूर्णता में ही चाहिये । ब्राह्मणों को और उनके मतिमंद पिछलग्गू बहुजनों का यहाँ प्रवेश निषिद्ध है ।


नाग जी लंबे अरसे से अंबेडकर आंदोलन से जुड़े हैं।जाहिर सी बात यह है कि वे हमसे बेहतर ही जानते होंगे कि अंबेडकर क्या हैं, अंबेडकरी आंदोलन क्या है और संपूर्ण अंबेडकर क्या हैं।


गनीमत है कि हमारे लोगों का गाली खजाना तो कुछ कमतर है जबकि मोदी के खिलाफ लिखनेवालों को मादर..,बहन...के अलावा चमचा,गुलाम,कमीने, मुसल..के कुत्ते,कांग्रेस के पिल्ले, मुलायम के पट्ठे आदि का बेधडक इस्तेमाल बताता है कि मोदी की साइबरसेना संस्कृतिहीन है। यदि आपलोगों को कुछ गालियां मिली हों तो यहां पर जोड़ सकते हैं।


मुश्किल तो यह है कि जब हम चाहते हैं कि उनके जैसे लोग हमारी बंद आंखे खोल दें कि असल में हम अंबेडकरी राह से भटक कहां रहे हैं और हमारे उस संपूर्ण अंबेडकर का क्या हुआ,तब वे बाकी लोगों की तरह ब्राह्ममों को कोसने लगे।


विडंबना तो यह है कि जिस ब्राह्मणवाद को वे कोस रहे हैं,उसी ब्राह्मणवाद के कब्जे में हैं अंबेडकर और उनके अनुयायी।बहुजन पुरखों के जनांदोलन की समूची विरासत।


विडंबना तो यह है कि जिस ब्राह्मणवाद को वे कोस रहे हैं,मुक्त बाजार का कारपोरेट राज वे ही चला रहे हैं,राष्ट्र और व्यवस्था भी उन्हींके हाथों में,धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सिपाहसालार भी वे,मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था ब्राह्मणवादी वर्णवर्चस्वी एकाधिकारवादी नस्ली आधिपात्य का उत्तरआधुनिक तिलिस्म है,अंबेडकरी आंदोलन के ठेकेदारों ने अंबेडकर को अगवाकर वहीं कैद कर दिया है अपने ही चौतरपा सत्यानाश के लिए जनादेश फिरौती वास्ते।


अंबेडकर को आजाद कराये बिना जाहिर सी बात है कि बहुजनों की खैर है ही नहीं।


इतिहास को देखे तो जाति व्यवस्था में बंटा है सिर्फ भारतीय कृषिजीवी समाज।जल जंगल जमीन और पूरे कायनात में है जिनकी नैसर्गिक आजीविका।


अब उस कृषि के खात्मे के बाद जाति व्यवस्था के शिकार लोगों का कोई वजूद भी है या नहीं और उस मूक जनता की आवाज अंबेडकर की कोई प्रासंगिकता इन बेदखल कत्लगाह में इंतजारी वध्यों को बचाने के सिलसिले में है या नहीं,शहरीकरण और औद्योगीकरण के दायरे से बाहर देहातदेश में यह सबसे बड़ा सवाल है,जहां अंबेडकरी संविधान का कोई राज है ही नहीं।


अंबेडकरी आंदोलन से बाहर है बहुजनों की यह अछूत दुनिया।जो भारतीय लोकतंत्र का ऐसा अखंड गलियारा है,जो वोटकाल में खुलता है और अगले चुनाव तक फिर बंद हो जाता है।


अंबेडकरी आंदोलन की दस्तक भी इसी अवधि में सबसे तेज सुनायी देती है जब तमाम मृतात्माओं का आवाहन तमाम किस्म की साजिशों को अंजाम देने के लिए नापाक इरादों के पेंचकश पेशकश हैं।जिनके बहाने ब्राह्मणी वंशवादी नवब्राह्ममों के सत्ता सिंहासन के वारिसान की खूनी जंग में जाने अनजाने शामिल होने को मजबूर हैं अचानक वोटर सर्वशक्तिमान।


इस दुनिया में सजावटी अंबेडकर मूर्तियां भी आरक्षित डब्बों की तरह नजर नहीं आतीं।


फिर मुक्त बाजार में संरक्षण आरक्षण तो सिर्फ क्रयशक्ति को मिल सकता है,बहुजनों,वंचितों,दलितों को नहीं,इस सच का समना हमने किया ही नहीं है।


विडंबना तो यह है कि  जिस सत्ता की चाबी से हकहकूक के ताला खुलने थे,वह चाबी भी उस सोशल इंजीनियरिंग की वोटबैंकीय समीकरण की फसल है,जिसके मालिक मनुव्यवस्था के धारक वाहक पुरोहिती कर्मकांडी ब्राह्मण ही हैं।बाकी बहुजन आंदोलन और राजनीति उसके हुक्मपाबंद यजमान।


विडंबना तो यह है कि  जिस अंबेडकर की बात वे कर रहे हैं,उन्हें फासिस्ट ब्राह्मणधर्म के हिंदू राष्ट्र का सबसे बड़ा हथियार बना चुके हैं अंबेडकरी मिशन और राजनीति के लोग।


विडंबना तो यह है कि  हम तो इस काबिल भी नहीं कि दो चार लोग हमारी सुन लें,लेकिन वे अंबेडकरी मसीहा जिनके कहे पर लाखों करोड़ों लोग मर मिटने को तैयार हैं,वे सारे के सारे ब्राह्मणी संघ परिवार के कारिंदे और लठैत बन चुके हैं।


हमारी तो औकात ही क्या है,बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें जो दलाली और भड़वागिरि में अव्वल होते हुए दूसरों को दलालों और भड़वों को पहचानने की ट्रेनिंग दे रहे हैं।


बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें  जो सरे बाजार अंबेडकर बेचकर अंबेडकरी जनता को कहीं का नहीं छोड़ रहे हैं।


बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें जो मुक्त बाजार में कारपोरेट हिंदुत्व के औजार में तब्दील हैं,ऐसे औजार जो बहुजनों का गला रेंतने में रबोट से भी ज्यादा माहिर हैं।


मुंह पर अंबेडकरनाम जाप, गले में पुरखों की नामावली और हाथों में तेज छुरी,ऐसे सुपारी किलर के बाड़े में कैद हैं अंबेडकरी जनता।पवित्र गोमाता गोधर्म की रक्षा के लिए जिनकी बलि चढ़ायी जानी है।


हालत कितनी खतरनाक है,इसे हमारे अग्रज आनंद स्वरुप वर्मा ने समकाली तीसरी दुनिया के संपादकीय में सिलसिलेवार बताया है और हस्तक्षेप पर भी वह संपादकीय लगा है।


सबसे खतरनाक बात तो यह है कि इस हिंदुत्व एजंडे को पूरा करने में लगा है अंबेडकरी आंदोलन और जब हम इस आंदोलन की चीड़फाड़ के जरिये फासिस्ट ब्राह्मणवादी नस्ली कारपोरेटराज के मुक्तबाजार के खिलाफ बाबासाहेब और उनके जाति उन्मूलन के एजंडे पर खुली बहस चाहते हैं तो हमीं को ब्राह्मण बताया जा रहा है।


पहले हमारे अग्रज आनंद स्वरुप वर्मा ने जो लिखा है उस पर भी गौर करेंऔर ख्याल करें कि जाति से वे भी सवर्ण नहीं हैं लेकिन उनकी सोच जाति अस्मिता में कैद कभी रही नहीं है और इसीलिए उनकी दृष्टि इतनी साफ हैः


मोदी के आने से चिंता इस बात की है कि वह किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक दल का लबादा ओढ़कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे फासीवादी संगठन के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव मैदान में है। 1947 के बाद से यह पहला मौका है जब आर.एस.एस. पूरी ताकत के साथ अपने उस लक्ष्य तक पहुँचने के एजेंडा को लागू करने में लग गया है जिसके लिये 1925 में उसका गठन हुआ था। खुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में चित्रित करने वाले आर.एस.एस. ने किस तरह इस चुनाव में अपनी ही राजनीतिक भुजा भाजपा को हाशिए पर डाल दिया है इसे समझने के लिये असाधारण विद्वान होने की जरूरत नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी को अगर अपवाद मान लें तो जिन नेताओं को उसने किनारे किया है वे सभी भाजपा के उस हिस्से से आते हैं जिनकी जड़ें आर.एस.एस. में नहीं हैं। इस बार एक प्रचारक को प्रधानमंत्री बनाना है और आहिस्ता-आहिस्ता हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा पूरा करना है। इसीलिये मोदी को रोकना जरूरी हो जाता है। इसीलिये उन सभी ताकतों को किसी न किसी रूप में समर्थन देना जरूरी हो जाता है जो सचमुच मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोक सकें।

इस चुनाव में बड़ी चालाकी से राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है।अपनी किसी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी ने यह नहीं कहा कि वह राम मंदिर बनाएंगे। अगर वह ऐसा कहते तो एक बार फिर उन पार्टियों को इस बात का मौका मिलता जिनका विरोध बहुत सतही ढंग की धर्मनिरपेक्षता की वजह है और जो यह समझते हैं कि राम मंदिर बनाने या न बनाने से ही इस पार्टी का चरित्र तय होने जा रहा है। वे यह भूल जा रही हैं कि आर.एस.एस की विचारधारा की बुनियाद ही फासीवाद पर टिकी हुयी है जिसका निरूपण काफी पहले उनके गुरुजी एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड' पुस्तक में किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 'भारत में सभी गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी और हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरवगान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा।' इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं कि 'वे (मुसलमान) विदेशी होकर रहना छोड़ें नहीं तो विशेष सलूक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनके कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे-यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं।'

भाजपा के नेताओं से जब इस पुस्तक की चर्चा की जाती है तो वह जवाब में कहते हैं कि वह दौर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का था और उस परिस्थिति में लिखी गयी पुस्तक का जिक्र अभी बेमानी है। लेकिन 1996 में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधिकारिक तौर पर इस पुस्तक से पल्ला झाड़ते हुये कहा कि यह पुस्तक न तो 'परिपक्व' गुरुजी के विचारों का और न आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।यह और बात है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही 1940 में गोलवलकर आरएसएस के सरसंघचालक बने। काफी पहले सितंबर 1979 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने एक साक्षात्कार में गोलवलकर की अन्य पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स'के हवाले से बताया था कि गोलवलकर ने देश के लिये तीन आंतरिक खतरे बताए हैं-मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट।

पूरा आलेख यहां देखेंः


चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना

http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2014/04/06/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%87


इसी बीच भाजपा से आरक्षण आधारित संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण डायवर्सिटी मांगने वालों के लिए बुरी खबर है।अंबरीश कुमार ने लिखा हैः

अब आरक्षण के सवाल पर भाजपा कांग्रेस को घेरने की कवायद शुरू हो गई है। यह पहलसर्वजन हिताय संरक्षण समिति उप्रके अध्यक्ष शैलेन्द्र दुबेने की जो प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ उत्तर प्रदेश में बड़ा आन्दोलन कर चुकेहैं और उस दौर में भाजपा के नेताओं का पुतला भी फूंका गया था। इस बारे में संविधान संशोधन बिल का भाजपा ने समर्थन किया था। इस वजह से अगड़ी जातियां भाजपा के विरोध में खड़ी गई थीं। अब यह जिन्न अगर बोतल से बाहर आया तो भाजपा के लिये दिक्कत पैदा हो सकती है।

शैलेन्द्र दुबे ने कहा- पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये राज्य सभा में पारित 117वें संविधान संशोधन बिल को वापस कराने के लिये सर्वजन हिताय संरक्षण समिति ने भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से कल लखनऊ में मिलकर उन्हें ज्ञापन दिया। समिति ने यह माँग की कि वे इस बाबत अपने चुनाव घोषणा-पत्र में दल की नीति स्पष्ट करें।

पूरी रपट कृपया हस्तक्षेप पर देखें।


अभी इस बहस में भागेदारी के लिए मौजूदा परिदृश्य को समझने का दिलोदिमाग जरुरी है। इस सिलसिले में आनंद तेलतुंबड़े का यह विश्लेषण बेहद प्रासंगिक हैः

आंबेडकर की विरासत

हालांकि आंबेडकर ने हिंदू धर्म में सुधारों के विचार के साथ शुरुआत की थी जिसका आधार उनका यह खयाल था कि जातियां, बंद वर्गों की व्यवस्था हैं [कास्ट्स इन इंडिया]. यह घेरेबंदी बहिर्विवाह और अंतर्विवाह के व्यवस्था के जरिए कायम रखी जाती है। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि अगर अंतर्विवाहों के जरिए इस व्यवस्था से मुक्ति पा ली गई तो इस घेरेबंदी में दरार पड़ जाएगी और जातियां वर्ग बन जाएंगी। इसलिए उनकी शुरुआती रणनीति यह बनी थी कि दलितों के संदर्भ में हिंदू समाज की बुराइयों को इस तरह उजागर किया जाए कि हिंदुओं के भीतर के प्रगतिशील तत्व सुधारों के लिए आगे आएं। महाड में उन्होंने ठीक यही कोशिश की है। हालांकि महाड में हुए कड़वे अनुभव से उन्होंने नतीजा निकाला कि हिंदू समाज में सुधार मुमकिन नहीं, क्योंकि इनकी जड़ें हिंदू धर्मशास्त्रों में गड़ी हुई थीं। तब उन्होंने सोचा कि इन धर्मशास्त्रों के पुर्जे उड़ाए बगैर जातियों का खात्मा नहीं होगा [एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट]। आखिर में, अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने वह तरीका अपनाया जो उनके विचारों के मुताबिक जातियों के खात्मे का तरीका था: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना वक्त बीत जाने के बाद, आज इस बात में कोई भी उनके विश्लेषण के तरीके की कमियों को आसानी से निकाल सकता है। लेकिन जातियों का खात्मा आंबेडकर की विरासत के केंद्र में बना रहा। इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया वह दलितों को सशक्त करने के लिए किया ताकि वे उस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष कर सकें, जो उनकी निगाह में 'स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे'को साकार करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट थी। चूंकि मार्क्सवादियों के उलट वे यह नहीं मानते थे कि इतिहास किसी तर्क के आधार पर विकसित होता है, कि इसकी गति को कोई नियम नियंत्रित करता है, इसलिए उन्होंने वह पद्धति अपनाई जिसे व्यवहारवाद कहा जाता है। इसमें उनपर कोलंबिया में उनके अध्यापक जॉन डिवी का असर था।


व्यवहारवाद एक ऐसा नजरिया है जो सिद्धांतों या विश्वासों का मूल्यांकन, व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करने में मिली कामयाबी के आधार पर करता है। यह किसी विचारधारात्मक नजरिए को नकारता है और सार्थकता, सच्चाई या मूल्य के निर्धारण में बुनियादी कसौटी के रूप में व्यावहारिक नतीजों पर जोर देता है. इसलिए यह मकसद की ईमानदारी और उसको अमल में लाने वाले के नैतिक आधार पर टिका होता है। आंबेडकर का संघर्ष इसकी मिसाल है। अगर इस आधार से समझौता कर लिया गया तो व्यवहारवाद का इस्तेमाल दुनिया में किसी भी चीज़ को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है। और आंबेडकर के बाद के आंदोलन में ठीक यही हुआ। दलित नेता'आंबेडकरवाद'या दलित हितों को आगे ले जाने के नाम पर अपना मतलब साधने में लगे रहे। भारत की राजनीति का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि एक बार अगर आप पैसा पा जाएं तो आप अपने साथ जनता का समर्थन होने का तमाशा खड़ा कर सकते हैं। एक बार यह घटिया सिलसिला शुरू हो जाए तो फिर इसमें से बाहर आना मुमकिन नहीं। इसी प्रक्रिया की बदौलत एक बारहवीं पास आठवले करोड़ों रुपए की संपत्ति जुटा सकता है, और उस आंबेडकर की विरासत का दावा कर सकता है जो बेमिसाल विद्वत्ता और दलितों-वंचितों के हितों के प्रति सर्वोच्च प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। करीब करीब यही बात दूसरे रामों और उनके जैसे राजनीतिक धंधेबाजों के बारे में भी कही जा सकती है। उनका सारा धंधा आंबेडकर और दलित हितों की तरक्की के नाम पर चलता है।

दलित हित क्या हैं?

अपने निजी मतलब को पूरा के लिए बेकरार ये सभी दलित हितों की पुकार मचाते हैं. दलित नेताओं में यह प्रवृत्ति तब भी थी जब आंबेडकर अभी मौजूद ही थे. तभी उन्होंने कांग्रेस को जलता हुआ घर बताते हुए उसमें शामिल होने के खिलाफ चेताया था. जब कांग्रेस ने महाराष्ट्र में यशवंत राव चह्वाण के जरिए दलित नेतृत्व को हथियाने का जाल फैलाया तो आंबेडकरी नेता उसमें जान-बूझ कर फंसते चले गए. बहाना यह था कि इससे वे दलित हितों की बेहतर सेवा कर पाएंगे. उन्होंने जनता को यह कहते हुए भी भरमाया कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ सहयोग किया था. भाजपा उस हजार चेहरों वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक धड़ा है, जो हिंदुत्व पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. उसने संस्कृति और धर्म का यह अजीब घालमेल जनता को भरमाने के लिए किया है. यह भाजपा अंबडकरियों के लिए सिर्फ एक अभिशाप ही हो सकती है. असल में अनेक वर्षों तक यह रही भी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आरएसएस ने समरसता (समानता नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य) का जाल दलित मछलियों को फंसाने के लिए फेंका और इसके बाद अपनी सख्त विचारधारा में थोड़ी ढील दी. दिलचस्प है कि दलित हितों के पैरोकार नेता, शासक वर्ग (और ऊंची जातियों) की इन पार्टियों को तो अपने ठिकाने के रूप में पाते हैं लेकिन वे कभी वामपंथी दलों पर विचार नहीं करते हैं, जो अपनी अनगिनत गलतियों के बावजूद उनके स्वाभाविक सहयोगी थे. इसकी वजह सिर्फ यह है कि वामपंथी दल उन्हें वह सब नहीं दे सके, जो भाजपा ने उन्हें दिया है.


तो फिर दलित हितों का वह कौन सा हौवा है, जिसके नाम पर ये लोग यह सारी करतब करते हैं? क्या वे यह जानते हैं कि 90 फीसदी दलितों की जिंदगी कैसी है? कि भूमिहीन मजदूरों, छोटे-हाशिए के किसानों, गांवों में कारीगरों और शहरों में झुग्गियों में रहने वाले ठेका मजदूरों और शहरी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टर में छोटे मोटे फेरीवाले की जिंदगी जीने वाले दलित किन संकटों का सामना करते हैं? यहां तक कि आंबेडकर ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में यह महसूस किया था और इस पर अफसोस जताया था कि वे उनके लिए कुछ नहीं कर सके. आंशिक भूमि सुधारों के पीछे की पूंजीवादी साजिशों और हरित क्रांति ने गांवों में पूंजीवादी संबंधों की पैठ बना दी, जिसमें दलितों के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं थे. इन कदमों का दलित जनता पर विनाशकारी असर पड़ा, जिनके तहत अंतर्निर्भरता की जजमानी परंपरा को नष्ट कर दिया गया. देहातों में पहले से कायम ऊंची जातियों के जमींदारों को बेदखल करके उनकी जगह लेने वाले, सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी शूद्र जातियों के धनी किसानों द्वारा क्रूर उत्पीड़न के लिए दलितों को बेसहारा छोड़ दिया. ब्राह्मणवाद का परचम अब उन्होंने अपने हाथों में ले लिया था. बीच के दशकों में आरक्षण ने उम्मीदें पैदा कीं, लेकिन वे जल्दी ही मुरझा गईं. जब तक दलितों को इसका अहसास होता कि उनके शहरी लाभान्वितों ने आरक्षणों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है, कि नवउदारवाद का हमला हुआ जिसने आरक्षणों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. हमारे राम इन सब कड़वी सच्चाइयों से बेपरवाह बने रहे और बल्कि उनमें से एक, उदित राज, ने तो आरक्षण के एक सूत्री एजेंडे के साथ एक अखिल भारतीय संगठन तब शुरू किया, जब वे वास्तव में खत्म हो चुके थे. जनता को आरक्षण के पीछे छिपी शासक वर्ग की साजिश को दिखाने के बजाए, वे शासक वर्ग की सेवा में इस झूठे आसरे को पालते-पोसते रहने को तरजीह देते हैं. क्या उन्हें यह नहीं पता कि 90 फीसदी दलितों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें जमीन चाहिए, सार्थक काम चाहिए, मुफ्त और उचित और बेहतर शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य की देखरेख चाहिए, उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जरूरी ढांचे चाहिए और जाति विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्था चाहिए. ये हैं दलितों के हित, और अफसोस इस बात है कि किसी दलित राम द्वारा उनकी दिशा में बढ़ना तक तो दूर, उनको जुबान तक पर नहीं लाया गया है.

भाजपाई राम के हनुमान

यह बात एक सच्चाई बनी हुई है कि ये राम दलित हितों के नाम पर सिर्फ अपना फायदा ही देखते हैं. उदित राज इनमें से सबसे ज्यादा जानकार हैं, अभी कल तक संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ हर तरह की आलोचनाएं करते आए हैं जो अगर कोई देखना चाहे तो उनकी किताब 'दलित्स एंड रिलिजियस फ्रीडम'में यह आलोचना भरी पड़ी है. उन्होंने मायावती को बेदखल करने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं और नाकाम रहने के बाद अब वे उस भाजपा की छांव में चले गए हैं, जो खुद उनके ही शब्दों में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है. दलितों के बीच उनकी जो कुछ भी थोड़ी बहुत साख थी, उसका फायदा भाजपा को दिलाने के लिए वे हनुमान की भूमिका अदा कर रहे हैं. दूसरे दोनों राम, पासवान और आठवले ने उदित राज के उलट भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने का फैसला किया है. वे दलितों में अपने छोटे-मोटे आधारों के बूते बेहतर सौदे पाने की कोशिश कर रहे हैं: पासवान को सात सीटें मिली हैं, जिनमें से तीन उनके अपने ही परिवार वालों को दी गई हैं, और आठवले को उनकी राज्य सभा सीट के अलावा एक सीट दी गई है. बीते हुए कल के कागजी बाघ आठवले नामदेव ढसाल के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जो बाल ठाकरे की गोद में जा गिरे थे. उस बाल ठाकरे की गोद में, जो आंबेडकर और आंबडेकरी दलितों से बेहद नफरत करता था. ये काबिल लोग अपने पुराने सहयोगियों द्वारा 'दलितों के अपमान' (अपने नहीं) को भाजपा के साथ हाथ मिलाने की वजह बताते हैं. आठवले का अपमान तब शुरू हुआ जब उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. उन्हें तब शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई जब उन्होंने दलितों द्वारा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के लिए दी गई भारी कुर्बानी को नजरअंदाज कर दिया और विश्वविद्यालय के नाम को विस्तार दिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था. और न ही उन्हें तब शर्मिंदगी महसूस हुई जब उन्होंने दलित उत्पीड़न के अपराधियों के खिलाफ दायर मुकदमों को आनन-फानन में वापस ले लिया. ये तो महज कुछ उदारण हैं, पासवान और आठवले का पूरा कैरियर दलित हितों के साथ ऐसी ही गद्दारी से भरा हुआ है.








सबसे ज्यादा विवेचनीय समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित अनिल चौधरी के लिखा यह मंतव्य हैः


दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे ऐसी दो पुंजीपरस्त पार्टियों की हवा बना कर होता है जिनकी वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक यात्रा अमूमन अलग होती है। वे एक दूसरे पर लगातार प्रचारात्मक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो चलाये रखते हैं लेकिन 'नव-उदारवादी'प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की मूल व्यवस्थाओं पर साथ खड़े होने से गुरेज नहीं करते। उनके बीच का पफर्क पेप्सी और कोका कोला के बीच के पफर्क जैसा होता है और उनके बीच की प्रतिस्पर्ध और झगड़े भी उन दोनों कंपनियों की प्रतिस्पर्ध की तर्ज पर ही होते हैं और नतीजे भी एक जैसे ही निकलते हैं। यानी कि किसी भी तीसरे प्रतिद्वंद्वी का सफाया और भोजन-पानी व्यापार पर दो अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व, जिसके शायद तमाम निवेशकों का पैसा दोनों ही कंपनियों में लगा होगा। जिन लोगों ने पेप्सी और कोक दोनों का सेवन किया होगा वे बता पायेंगे कि दोनों के स्वाद में दस पफीसद से ज्यादा का पफर्क न होगा। ठीक इसी तरह दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में भी दो मुख्य पार्टियों के बीच का फर्क भी शायद दस पफीसद से ज्यादा का नहीं रहता और वह भी विचारधरा और कार्यक्रम के आधार पर न आधरित होकर कार्यप(ति पर अध्कि आधरित होता है। साथ ही किसी तीसरे प्रतिद्वंद्वी या नव-उदारवाद विरोधी् दलों के लिए संसदीय प्रक्रिया में कोई जगह नहीं बचती और मतदाता अपने को असहाय पाता है।

अमेरिका की दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में अभी हाल में हुए चुनावों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। युद्ध-विरोधी् जन-आंदोलन रहे हों या ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जन-उभार, चुनावों पर उनका कोई असर नहीं पड़ पाता। सत्ता हमेशा रिपब्लिकन से डेमोक्रेट और डेमोक्रेट से रिपब्लिकन के बीच झूलती रहती है और पूंजीतंत्रा की सेवा करती है।

हमारे संसदीय प्रजातंत्रा में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है। पिछले तीन दशकों में धीरे-धीरे कुछ ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, जिसमें दो पुंजीपरस्त पार्टियां- कांग्रेस और बीजेपी दो ध्रुवों के रूप में स्थापित की गईं। बीजेपी अपने पूर्वजन्म ;जनसंघद्ध के जमाने से 'मुक्त व्यापार'की झंडाबरदार रही और अमेरिका तथा इजरायल को भारत का स्वाभाविक मित्रा मानने वाली पार्टी रही है। लेकिन पांच से अध्कि साल तक सत्ता में रहने के बावजूद अपने इस वैचारिक एजेंडे को वह ज्यादा मूर्त रूप नहीं दे सकी। आज कोई भी स्पष्ट देख सकता है कि 'मुक्त व्यापार'की नीतियों और उनका विस्तार करने का सेहरा कांग्रेस के ही सिर बंध हुआ है। भारत की विदेशनीति को अमेरिकापरस्त और इजरायलपक्षीय बना देने की कवायद भी कांग्रेस के नेतृत्व ने ही बखूबी अंजाम दी है। वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक भूमिकाओं की भिन्नता के बावजूद वर्तमान गवाह है कि 'संघ परिवार'के इन दोनों सपनों को कांग्रेस ने अपनी ध्रोहर को दरकिनार कर अंजाम दिया है। बीजेपी के भारत को एक 'हार्डस्टेट' ;पुलिसिया राष्ट्रद्ध के रूप में स्थापित करने के सपने को भी साकार करने में पिछले दस वर्षों का कांग्रेसी शासन बड़ी शिद्दत से लगा हुआ दिखाई देता है। दस पफीसद का जो पफर्क बताया जाता है, इन दोनों के बीच वह 'सांप्रदायिकता'के मामले को लेकर है। सन 2004 तक यह पफर्क कुछ हद तक दिखता था लेकिन पिछले दस वर्षों के आचरण ने इसे भी धुमिल कर दिया है।

कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकारों का रिकार्ड 'सांप्रदायिकता'के मोर्चे पर अत्यंत निराशाजनक रहा है। पूर्व के जघन्य सांप्रदायिक अपराधें/नरसंहारों पर कार्रवाई करने की मंशा या संकेत भी कांग्रेस सरकार ने नहीं दिये। इन वर्षों में हुए सांप्रदायिक हमलों और घटनाओं में कांग्रेस शासन ने कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। भविष्य में सांप्रदायिकता को सीमित रखने के लिये कानून बनाने की चर्चा तो चली लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने इस मुद्दे पर वह तत्परता नहीं दर्शायी जो उसने 'भारत-अमेरिका परमाणु समझौते'या 'खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश'के मुद्दे पर दिखाई।

फिर भी समूचा पुंजीतंत्रा, उसके संस्थान और उसका मीडिया कांग्रेस और बीजेपी को संसदीय राजनीति के दोध्रुवीय के रूप में स्थापित करने और किसी तीसरे की संभावनाओं को जड़ से खारिज करने में ओवरटाइम लगा हुआ है। पिछले दो दशकों में एनडीए और यूपीए, क्रमशः बीजेपी और कांग्रेस रूपी खंबों पर तने दो तंबुओं की तरह स्थापित हुए हैं। संसदीय व्यवस्थाएं इस तरह से अनुकूलित हैं कि सत्ता के खेल में बने रहने के लिए अन्य पार्टियों के लिए इन दोनों तंबुओं में से एक में घुसना अनिवार्य हो गया है। इसी के चलते पिछले दो दशकों से इन दोनों में से कोई भी पार्टी खुद की सरकार बनाने के लिए चुनाव में नहीं उतारती बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के लिए चुनाव लड़ती है और सरकार बनाने का न्योता प्राप्त करना उसका उद्देश्य होता है। एक बार वह मिल जाने के बाद अन्य दलों का उसके तंबू में शामिल होना स्वतः ही शुरू हो जाता है। इस तरह संसदीय राजनीति में दोध्रुवीय प्रवृत्ति जड़ पकड़ती जा रही है।


इसी सिलसिले में राजीवनयन दाज्यू ने रंगभेदी क्रिकेट कैसिनो पर जो लिखा है,राजनीति के लिए भी वह मौजू है।हम न क्रिकेट खेलते हैं और न राजनीति।

धन्यवाद देता हूँ की मुझे क्रिकेट खेलना तो क्या , देखना भी नहीं आता . ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशों को यह फिरंग रोग लगा दिया . चीन , जापान , अमेरिका , जर्मनी आदि महा शक्तियों को इससे कुछ लेना देना नहीं है . लेकिन भारत समेत पाकिस्तान , सीलोन , बंगला देश आदि इस ना मुराद खेल के पीछे अपना धन और समय बर्बाद करते हैं . सब नंगे भूके हैं , लेकिन एक दुसरे को क्रिकेट में हराने के लिए उन्मादित हैं . शुक्र है की कल भारत हार गया , और मैं रात भर पटाखों की धमक के आतंक से बच गया . मित्र ने मेरे रात्रि विश्राम और योगक्षेम की शानदार व्यवस्था की थी , जिसके फलस्वरूप ( और भारत की हार के भी ) रात आराम से गुजरी और अल सुबह उठ गया

हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने खूब लिखा है

देश गहरे संकट में है, संसद मे गुंडे और नचनियों की पह्ले ही भरमार होने लगी है. राज्य सभा जो चुने हुए विवेक सम्पन्न लोगों की सभा के रूप में परिकल्पित हुई थी, जनमत जुटाने में असफल घुसपैठियों का अड्डा बन गयी है. प्रजातंत्र पैसा फैंको, तमाशा देखो बन गया है. जनता के लिए एक ही विकल्प रह गया है कि वह किस खाई में गिरे, मोदी, मुलायम, राहुल, मायावती, सब के सब किसी न किसी बहाने जनमत को खरीदने या बरगलाने में लगे हैं. आर.एस.एस. का मुखौटा मोदी कम बड़ा खतरा नहीं है. विकास तो जैसा होगा, उससे अधिक चौड़ी खाई मुह बाये खड़ी रहेगी. पता नहीं इस देश की अगली पीढ़ी का क्या होगा?

अगली पीढी की हालत भले ही जस की तस रहे पर उसे यह तो सिखाया ही जायेगा 'गर्व से कहो कि हम मनुष्य नहीं हैं हिन्दू हैं.

पहचान की राजनीति सुभाष गाताडे


और राजीवनयन बहुगुणा का यह रामवाण भी

क्रूर और कायर संघी तभी तक दहाड़ते हैं , जब तक सामने वाला विनम्र हो . इनसे सख्ती से पेश आओ . गाली का जवाब गाली और गोली का जवाब गोली से दो . सबको याद होगा , की इमर जेंसी में किस तरह जेल जाते ही सर संघ चालक दत्ता त्रय देवरस ने इंदिरा गांधी को लिखित माफ़ी नामा दे कर विनय पत्रिका भेजी थी . यह भी सभी को विदित है की १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान इन्होने किस तरह अंग्रेजों से मिल कर देश के साथ गद्द्दारी की . हिंसक व्यक्ति हमेशा डर पोक होता है . बिना सुरक्षा के लघु शंका भी नहीं जा सकता . ये देश के टुकड़े टुकड़े करें , इससे पहले इन पर क़ाबू पाओ

नीलाभ अश्क का लिखा यह भी देख लेंः

दोस्तो,

सियासत में बड़े-बड़े चक्कर हैं, दांव-पेंच हैं. अब यही देखिये कि हमारे लोकतन्त्र की यह ख़ासियत ही कही जायेगी कि उसने शरीर और आत्मा को अलग-अलग करने का नायाब साधन खोज निकाला है. यह यहीं हो सकता है कि सिंहासन पर कोई बैठा हो और उसकी हरकतों को संचालित करने वाली डोरियां किसी और के हाथ में हों. यह कोई गोरख-धन्धा नहीं है, बात अभी के अभी साफ़ हुई जाती है.


आप ने अगर कल की सबसे महत्वपूर्ण ख़बर पर ध्यान दिया हो तो आपको यह पहेली समझ में आ जायेगी. मेरा इशारा आध-पौन घण्टे तक चले उस घटनाक्रम की तरफ़ है जब भा.ज.पा. के अध्यक्ष ने "अबकी बार भा.ज.पा. सरकार" का नारा बुलन्द किया, मगर जल्द ही उन्हें क़दम पीछे खींच कर तब्दीली करनी पड़ी और नया नारा "अबकी बार मोदी सरकार" जारी करना पड़ा. क्या मोदी सरकार भा.ज.पा. सरकार नहीं है ? अगर है तो नारे को वापस लेने की शरमिन्दगी भा.ज.पा. अध्यक्ष को क्यों उठानी पड़ी ? और अगर मोदी सरकार भा.ज.पा. सरकार नहीं है तो वह किस दल की सरकार है ? क्योंकि मोदी तो किसी राजनैतिक दल का नाम नहीं है.


दरअसल, यह बात खुल कर सामने आ गयी है कि इस बार नरेन्द्र मोदी की हवा को देख कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने फ़ैसला किया है कि लगे हाथ अपनी गोटी लाल कर ली जाये. आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में सीताराम येचुरी ने भी इसकी ओर इशारा किया है. पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी और रा.स्व.सं. के सर्वेसर्वा सरसंघचालक मोहन भागवत के बीच हुई बैठक में ग़ालिबन इसी रणनीति पर सहमति बनी है.


क्या मोदी को ख़ुद यह नहीं सन्देश देना चाहिये कि वे एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में गठित राजनैतिक दल के एक प्रत्याशी हैं और उसी घोषणा-पत्र के तहत चुनाव लड़ रहे हैं जो भा.ज.पा. ने जारी किया है ? या फिर क्या नरेन्द्र मोदी का कोई और -- सम्भवत: रहस्यमय -- एजेण्डा है ?


अद्वैतवाद के सब से बड़े प्रतिनिधि देश में यह द्वैतवाद कितने लोगों की आंखों में धूल झोंक सकेगा यह देखने की बात है. पर इतना तय है कि यह पहला चुनाव होगा जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भा.ज.पा. ने यह संकेत दे दिया है कि आत्मा कौन है और शरीर कौन. या असली चेहरा किसका है और मुखौटा किसका.


अगर जनता को जनार्दन माना जाये तो लिखावट साफ़ है -- पहले आत्मा फिर परमात्मा, और यह पहेली अबूझ नहीं.


केसरिया मुलम्मे में लिपटा खूनी आर्थिक एजंडा

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केसरिया मुलम्मे में लिपटा खूनी आर्थिक एजंडा

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



राम मंदिर तो बहाना है।बाकी जनता पर हर किस्म का हर्जाना है।धर्मराष्ट्र में कारपोरेट जजिया अफसाना है।सन 1991 में सुधारों के ईश्वर मनमोहन के अवतार से पहले मंडल प्रतिरोधे निकल पड़ा था रामरथ,जो लखनऊ में केसरिया और नई दिल्ली में तिरंगे की युगलबंदी के तहत बाबरी विध्वंस को कामयबा तो रहा,लेकिन न राम मंदिर बना और न रथयात्री थमी। गौर से देखें तो इस रथ के घोड़े दिग्विजयी अश्वमेधी घोड़े हैं,जिनका असली मकसद जनपदों को कुचलना है।जन गण का सफाया है।संसाधनों से बेदखली है।वर्णी नस्ली कारपोरेट एकाधिकारवादी वर्चस्व है।असल में बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अगर छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक एजेंडे में बड़ा अंतर नहीं है। दोनों दलों ने वृद्धि को गति देने, मुद्रास्फीति पर शिकंजा कसने, रोजगार सृजन, कर प्रणाली में सुधार तथा निवेशक अनुकूल माहौल को बढ़ावा देने के अलावा राजकोषीय मुद्दों से प्रभावी तरीके से निपटने का वादा किया है।


मजे की बात तो यही है कि आर्थिक सुधार के मोर्चे पर कांग्रेस और भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में कोई मौलिक फर्क  है  ही नहीं। सरकार चाहे जिसकी बने,राज कारपोरेट निरंकुश होगा।आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने और रोजगार के अवसर बढ़ाने को उच्च प्राथमिकता देने का वायदा करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) ने कहा है कि यदि वह सत्ता में आई तो महंगाई पर लगाम लगाएगी, कर व्यवस्था में सुधार करेगी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करेगी पर मल्टीब्रांड खुदरा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को कारोबार की छूट नहीं दी जाएगी। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा आज यहां जारी पार्टी के 'चुनाव घोषणापत्र-2014Ó में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार पर 'कर आतंकवाद एवं अनिश्चितता'फैलाने तथा 10 वर्षो के रोजगारविहीन विकास की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया गया है। भाजपा ने ऊंची मुद्रास्फीति (महंगाई दर) पर अंकुश लगाने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष की स्थापना करने, राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करने तथा बैंकों के वसूल नहीं हो रहे कर्जों (एनपीए) की समस्या से निपटने के लिए बैंकिंग क्षेत्र में सुधार को आगे बढ़ाने का वायदा किया है।



नमोपा ने भाजपा को हाशिये पर रख दिया है और हिंदुत्व का कारपोरेट अवतार अवतरित है।नये पुराण,नये उपनिषद,नये वेद रचे जा रहे हैं।धर्मोन्माद नरसंहार के लिए वध्यभूमि को पवित्रता देता है क्योंकि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने सोमवार को पार्टी के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आने पर देश में सुशासन लाने का वादा किया। वहीं पार्टी ने 'ब्रांड इंडिया' का संकल्प लिया। भाजपा की ओर से जारी घोषणा-पत्र के बाद मोदी ने कहा कि पार्टी का लक्ष्य मजबूत और एकीकृत भारत का निर्माण करना है, जिसे विश्व का सम्मान हासिल हो।



रामंदिर की आड़ में आक्रामक हिंदू राष्ट्र के पताकातले गिलोटिन कतारबद्ध है और खून की नदियां बहेंगी।मामला धर्मनिरपेक्षता बनाम साप्रदायिकता जबरन इरादतन बनाया जा रहा है ताकि ध्रूवीकृत जनता के जनादेश से दूसरे चरण के नरमेधी सुधारों को हरी झंडी मिल जाये।


संघ परिवार देशभक्ति का ठेकेदार है।अहिंदू तो क्या वे हिंदू भी जो आस्था में अंध नहीं हैं और दिलो दिमाग के दरवाजे खोलकर सहमति के विवेक और असहमति के साहस के साथ जीवनयापन करते हैं,नागरिक और मानवाधिकारों की बात करते हैं,धम्म और पंचशील की भारतीयता में आस्था रखते हैं,वर्णी लस्ली भेदभाव के विरुद्ध संघ परिवार के नजरिये से वे देश के गद्दार हैं।लेकिन भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में संवेदनशील रक्षा क्षेत्र को निजी और विदेशी पूंजी के लिए कोल देने की जो राष्ट्रद्रोही उदात्त घोषणा हुई है,उसका असली तात्पर्य भारत अमेरिकी परमाणु संधि का अक्षरशः क्रियान्वयन है,जो मनमोहनी नीतिगत विकलांगकता की वजह से अब भी हुआ नहीं है।



तो दूसरी ओर, बगावत के दमन और आतंक के विरुद्ध परतिबद्धता का संकल्प है और उसके साथ समान नागरिक संहिता के साथ धारा 370 के खात्मे का ऐलान।


इसका भी सीधा मतलब अमेरिका और इजराइल की अगुवाई में रणनीतिक पारमाणविक जायनी युद्धक साझे चूल्हे की आग में भारत के नागरिकों के मानवाधिकार का ओ3म नमो स्वाहा है।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून,आतंकवाद निरोधक कानून और सलवा जुड़ुम जैसे कार्यक्रम के जरिये भारतीय जनगण के विरुद्ध अविराम युद्ध घोषणा का संकल्पत्र है यह चुनाव घोषणापत्र।


विरोधाभास सिर्फ एक है और नहीं भी है। खुदरा कारोबार के अलावा बाकी सभी हल्कों में अबाध प्रत्यक्ष निवेश की प्रतिबद्धता है नमोमय ब्रांड इंडिया की।छिनाल पूंजी अर्थव्यवस्था की धूरी है तो खुदरा कारोबार में एफडीआई रोके जाने का सवाल ही नहीं उठता।


यूपीए दो ने खुदरा कारोबार विदेशी पूंजी के लिए पहले ही खोल दिया है।भले ही अरविंद केजरीवाल ने इस फैसले को उलट दिया है लेकिन अर्थ विशेषज्ञों और कारपोरेट नीति निर्धारकों के कहे पर गौर करें तो इस फैसले को राज्य सरकारें भी उलट नहीं सकतीं।जैसे भारत अमेरिका परमाणु समझौता अब रद्द नहीं हो सकता,यूं समझिये कि नमो घोषमाप्तर् का वादा छोटे कारोबारियों को मोर्चाबद्ध करके नमोसुनामी का सृजन भले कर दें,इस देश में अबाध विदेशी छिनाल  पूंजी परिदृश्य में खुदरा बाजार के आजाद बने रहने के कोई आसार है ही नहीं। यह मतदाताओं के साथ सरासर धोखाधड़ी है पोजीं नेटवर्कीय राममंदिर फर्जीवाड़े की तरह ।


दरअसल राममंदिर संकल्प और खुदरा कारोबार में एफडीआई निषेध दोनों वोटबैंक साधने के यंत्र तंत्रमंत्र हैं।राममंदिर धर्मोन्मादी वर्चस्ववादी नस्ली वर्णी राष्ट्रवाद का महातिलिस्म है तो खुदरा कारोबार केसरिया वोटबैंक का प्राण भंवर।दोनों की पवित्रतापर आधारित है हिंदूराष्ट्र का हंसता हुआ वास्तु बुद्ध।लेकिन दोनों मुद्दे दरअसल हाथी के दांत हैं।दिखाने के और तो खाने के और।


जाहिरा तौर पर रामंदिर बनाने की संभावना के संवैधानिक रास्ते तलाशने की बात की गयी है।ऐसे आंतरिक सुरक्षा की फर्जी मुठभेड़ संस्कृतिकल्पे मोसाद सीआईए मददपुष्ट मानवाधिकारहनन के वास्ते रंग बिरंगे कानून और अभियान हैं,वैसे ही राम मंदिर निर्माण कल्पे संविधान का कायाकल्प भी केसरिया होना जरुरी है तो दूसरी ओर,ध्यान देने वाली बात है कि भारत सरकार संवैधानिक प्रावधानों और संसदीय गणतंत्र की परंपराओं के विपरीत भारत की संसद या भारत की जनता के प्रति कतई जिम्मेदार नहीं है।


राजनीति सीधे तौर पर कारपोरेट लाबिंग का नामांतर है तो नीति निर्धारण संसद को हाशिये पर रखकर,आईसीयू में डालकर विशेषज्ञता बहाने असंवैधानिक भी है और  कारपोरेट भी।


मौद्रिक नीतियां सीधे बाजार के दबाव में तथाकथित स्वायत्त रिजर्व बैंक द्वारा तय होती हैं,जिनपर भारत सरकार का कोई नियंत्रण है ही नहीं और वित्तीयनीतियां भी वित्तीय पूंजी के हिसाब से होती है।


रेटिंग एजंसियां विदेशभूमि से भारत की आर्थिक सेहत तय करती हैं।


परिभाषाएं और मनचाहे आंकड़े दिग्भ्रामक हैं।


आर्थिक सुधारों का पूरा किस्सा यही है।


कारपोरेट लाबिइंग के मार्फत कैबिनेट में फैसला और कारपोरेट लाबििंग के मार्फत ही सर्वदलीय सहमति से उनका संसदीय अनुमोदन।


तमाम अल्पमत और खिचड़ी सरकारों ने बिन विचारधारा आर्थिक सुधारों की निरंतरता जारी रखा हुआ है।जो कार्यक्रम अति संवेदनशील है,उसके लिए भारत सरकार के शासकीय आदेश से लेकर अध्यादेश तक प्रावधान हैं।


अध्यादेश का अंततः संसदीय अनुमोदन होना अनिवार्य है और अध्यादेश को अदालत में चुनौती दी भी जा सकती है।लेकिन शासकीय आदेश दशकों तक बिना संसदीय अनुमोदन के बहाल और कार्यकारी रह सकते हैं।


सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून,पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थी निषेध शासकीय आदेश 1971 इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।


फिर संसद के अनुमोदन के बिना दूसरे देशों से संधि,समझौता और अनुबंध का मामला है,जिसमें संसद की कोई भूमिका ही नहीं होती।


तमाम वाणिज्यिक समझौते भारतीयसंसद के दायरे के बाहर हैं।


वैसे भी अमेरिकी दांव खुदरा कारोबार के भारतीय बाजार पर है और मोदी इसके लिए रजामंद हैं और इसी रजामंदी के तहत उन्हें अमेरिकी समर्थन हैं।


मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी संघ परिवार।


जाहिर है कि संसदीय फ्रेम के बाहर सर्वशक्तिमान धर्मोन्मादी कारपोरेट प्रधानमंत्री अंततः संघ परिवार के भी नियंत्रण में नहीं होंगे।हमे नहीं मालूम कि संघ में ऐसे कौन विष्णु भगवान हैं जो किसी भस्मासुर को आइना दिखाने के लिए मोहिनी अवतार ले सकें।


संघी साइबार अभियान में जो करोड़ों युवा दिलोदिमाग रात दिन चौबीसों घंटे निष्णात हैं,उनके लिए रोजगार के मोर्चे पर संघी नमो चुनाव गोषमापत्र खतरे की घंटी है।रोजगार कार्यालय भारत सरकार के शरणार्थी मंत्रालय की तरह खत्म होने को हैं।


यानी सरकार की तरफ से किसी को भी नौकरी नहीं मिलने वाली है।


यानी निजीकरण और विनिवेश मार्फत सरकारी क्षेत्र का अवसान।रोजगार कार्यालयों को कैरियर सेंटर बना दिया जायेगा।


जब रिक्तियां ही खत्म हैं और आवेदनों से नौकरियां नहीं मिलनेवाली हैं,सारी नियुक्तियां ठेके पर होनी है,नियोक्ताओं की जरुरत के मुताबिक ऊंची फीस वे चुनिंदा संस्थानों में कैंपस रिक्रूटिंग के माध्यम से होनी है तो जैसे कि आम तौर पर कैरियर सेंटरों और कोचिंग सेंटरों में होता है,वहीं होना है।


इसमें संघ परिवार की ओर से मंडल से लेकर अंबेडकर के खाते पूरी तरह बंद करने के दरवाजे खुल जायेंगे और दलित असुरों का स्वर्गवास का अंजाम भी यही होगा।


स्वरोजगार और स्वपोषित रोजगार में कोई फर्क नहीं है।सत्तादल की स्वयंसेवकी ौर एनजीओ समाजकर्म भी आखिरकार स्वरोजगार है।बाकी उद्यम के लिए बड़ी एकाधिकार पूंजी के खुले बाजार में क्या भविष्य है और कितने युवा हाथों,दिलों और दिमागों के लिए वहां कितनी गुजािश बन सकेंगी,यह देखने वाली बात है।



गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी ने कहा है, "इस मुद्दे पर कोई कोताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। यदि मुझे अपने घोषणा-पत्र को दो शब्दों में परिभाषित करना पड़े, तो मैं कहूंगा- सुशासन और विकास।"


तो विकास का उनका मतलब गुजरात है।


जाहिर है किगुजरात के मुख्यमंत्री ने सच ही कहा कि वह भाजपा की तरफ से दी गई जिम्मेदारी को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।उन्होंने यह भी कहा कि वह निजी तौर पर अपने लिए कुछ नहीं करेंगे और न ही बदले की भावना से कोई काम करेंगे।


इससे पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने घोषणा-पत्र जारी करते हुए कहा कि इसमें अर्थव्यवस्था व आधारभूत संरचना को मजबूत करने और भ्रष्टाचार मिटाने पर जोर दिया गया है। जोशी ने कहा, "हमने घोषणा-पत्र में देश के आर्थिक हालात को सुधारने की योजना बनाई है। जहां तक आधारभूत संरचना का सवाल है, विनिर्माण में सुधार महत्वपूर्ण है। साथ ही इसका निर्यातोन्मुखी होना भी जरूरी है। हमें 'ब्रांड इंडिया' बनाने की जरूरत है।"



भाजपा ने सोमवार को घोषणापत्र जारी किया जिसमें कहा गया है कि वह अर्थव्यवस्था के पुनरूद्धार तथा रोजगार सृजन के लिये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का स्वागत करेगी। भाजपा के घोषणापत्र में कहा गया है, बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र को छोड़कर उन सभी क्षेत्रों में एफडीआई की अनुमति होगी जहां रोजगार एवं संपत्ति सृजन, बुनियादी ढांचा तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी एवं विशेषीकृत विशेषज्ञता की जरूरत है। वहीं कांग्रेस ने कहा कि बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति देने के संप्रग के निर्णय से कृषि अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव आएंगे और किसानों को बेहतर रिटर्न मिलेगा।


भविष्य की आर्थिक योजनाओं का अनावरण करते हुए भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कहा है, 'कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने देश को 10 वर्षो तक रोजगार विहीन वृद्धि के दौर में फंसा रखा है। भाजपा वृहद आर्थिक पुनरोद्धार के तहत रोजगार सृजन और उद्यमशीलता के लिए अवसरों के निर्माण को उच्च प्राथमिकता देगी। कृषि क्षेत्र के संदर्भ में इसमें घोषणा पत्र में 'एकल राष्ट्रीय कृषि बाजार'  के सृजन और कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने का वायदा किया गया है। कर प्रणाली में सुधार के संदर्भ में पार्टी ने कहा है कि संप्रग सरकार ने देश में 'कर आतंकवाद' और 'अनिश्चितता' की स्थिति पैदा कर दी है। इससे न केवल व्यवसायी वर्ग चिंतित है बल्कि निवेश का माहौल बिगड़ गया है तथा देश की साख पर भी बट्टा लगा है।'


कर सुधार का वादा करते हुए भाजपा ने कहा है कि उसकी कर नीति में कर व्यवस्था को वैर-भाव से मुक्त व कर वातावरण को सहज बनाने पर ध्यान होगा। पार्टी कर विवाद निपटान व्यवस्था को दुरूस्त करेगी, माल एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने में सभी राज्यों को साथ लेगी और निवेश बढ़ाने के लिए कर-प्रोत्साहन देगी।



पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया है, कांग्रेस ऐसे निवेश माहौल को लेकर प्रतिबद्ध है जो एफडीआई को आकषिर्त करने वाला तथा उसके अनुकूल हो। कर सुधारों के मुद्दे पर भाजपा तथा कांग्रेस वस्तु एवं सेवा कर :जीएसटी: को क्रियान्वित करने का वादा किया है। हालांकि, भाजपा घोषणापत्र में प्रत्यक्ष कर संहिता :डीटीसी: मुद्दे पर चुप है जो आयकर कानून 1961 का स्थान लेगा।


कांग्रेस ने सत्ता में आने के एक साल बाद जीएसटी के साथ-साथ डीटीसी को एक साल के भीतर क्रियान्वित करने का वादा किया है। आम सहमति के अभाव में दोनों कर सुधार विधेयक संसद में लंबित हैं। दोनों दलों ने राजकोषीय मजबूती तथा फंसे कर्ज के संदर्भ में बैंकिंग क्षेत्र में सुधार का संकल्प जताया है। शहरी ढांचागत सुविधा में सुधार पर कांग्रेस ने 100 शहरी संकुल गठित करने की मांग की है वहीं भाजपा की इतनी ही संख्या में नये शहर स्थापित करने की योजना है।


असल नौटंकी तो यह है कि भाजपा के घोषणा पत्र को अपने घोषणा पत्र की कापी बताते हुए कांग्रेस ने भाजपा पर तीखा हमला किया है। पार्टी ने भाजपा पर उसके घोषणा पत्र के मुद्दों को चोरी करने का आरोप लगाया है। पार्टी मतदान के दिन घोषणा पत्र जारी करने के लिए भाजपा की शिकायत चुनाव आयोग से करेगी। घोषणा पत्र में राम मंदिर मुद्दा शामिल करने के लिए कांग्रेस आयोग में आपत्ति भी दर्ज कराएगी।

गांवों में इंटरनेट सुविधाओं, स्वास्थ्य, सबको मकान, शिक्षा, आर्थिक सुधार और इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर कांग्रेस ने भाजपा पर उसके घोषणा पत्र की नकल का आरोप लगाया है। पार्टी प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, भाजपा ने ऐसी अंधी नकल की है कि कांग्रेस घोषणा पत्र की तारीख तक नहीं बदली।


दरअसल, भाजपा के घोषणा पत्र में मुरली मनोहर जोशी ने जो प्रस्तावना लिखी है उसमें 26 मार्च की तारीख है। कांग्रेस का घोषणा पत्र इसी दिन जारी हुआ था। उन्होंने कहा, भाजपा ने हर गांव को इंटरनेट से जोड़ने और हर राज्य में एम्स बनाने की बात कही है। जबकि, संप्रग सरकार इन पर काम भी शुरू कर चुकी है। सबको मकान देने की बात भी कांग्रेस ने पहले कही है।


आर्थिक सुधारों को लेकर भी पार्टी ने जो अपने घोषणा पत्र में कहा है, भाजपा ने शब्दों को बदल कर उन्हें दोहराया भर है। बुनियादी ढांचे को लेकर कांग्रेस के विजन पत्र में जो कहा गया है भाजपा ने उसे भी कापी पेस्ट कर दिया है। हमने वादा किया था कि कांग्रेस 10 लाख की आबादी वाले शहरों में हाईस्पीड ट्रेन चलाएगी। वेस्टर्न-ईस्टर्न फ्रेट कॉरीडोर पूरा करेगी। जलमार्ग का विस्तार किया जाएगा। भाजपा ने सिर्फ नाम बदला है और कहा है कि वह स्वर्णिम चतुर्भुज बुलेट ट्रेन लेकर आएगी।


टीम राहुल के अहम सदस्य माने जाने वाले जयराम रमेश ने भी दावा किया कि भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल कुछ योजनाएं तो 10 साल से मौजूद हैं। कांग्रेस की विधि इकाई के प्रमुख केसी मित्तल ने भाजपा पर चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों की अवहेलना का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पहले चरण का मतदान शुरू होने के बाद घोषणा पत्र जारी करने को लेकर वे आयोग से भाजपा की शिकायत करेंगे।


कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा द्वारा उर्दू और मदरसों को सहायता देने की बात पर चुटकी लेते हुए कहा, 'मुझे खुशी है कि भाजपा जैसी पार्टी भी मदरसों को मदद की बात कर रही है, यह देश के लिए शुभ संकेत है।'


राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा, 'मुझे मालूम था कि इन लोगों में राम के प्रति निष्ठा नहीं है। 2004 में भी इन्होंने कहा था कि विशाल मंदिर बनाया जाएगा, फिर बात करनी छोड़ दी।'



রামমন্দির হাতির দাঁত,আসল লক্ষ্য সংস্কারি নরমেধ লক্ষ্যপুরণ,আখেরে আম্বেজডকরের শবযাত্রা আবার!

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রামমন্দির হাতির দাঁত,আসল লক্ষ্য সংস্কারি নরমেধ লক্ষ্যপুরণ,আখেরে আম্বেজডকরের শবযাত্রা আবার!


केसरिया मुलम्मे में लिपटा खूनी आर्थिक एजंडा

এক্সকেলিবার স্টিভেন্স বিশ্বাস

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

রামমন্দির হাতির দাঁত,আসল লক্ষ্য সংস্কারি নরমেধ লক্ষ্যপুরণ!

ভস্মাসুর বধের জন্য বিষ্ণু মোহিনী রুপ ধারণ করেছিলেন, মোহন ভাগবতে বিষ্ণু অবতারে মোহিনী রুপান্তরের প্রতীক্ষায় থাকূন এবার


ভারতবর্ষে ভারতসরকার সংবিধান ও সংসদীয় গণতন্ত্রির রীতি নীতি বিরুদ্ধে ভারতের সংসদের প্রতি বা ভারতীয় জনগণের প্রতি কোনও দাযবদ্ধাতায় এই মুক্তবাজার সময়ে বাংদা নেই

রাজনীতি বিশুদ্ধ কারপোরেট লবিইং

নীতি নির্ধারণ কারপরেট

আইন প্রণয়ণ কারপোরেট লবিইং মার্ফত কর্পোরেট কেবিনেট ফয়সলা অনুযায়ী ফের করপোরেট লবিইং মার্ফত সর্বদলীয় অনুমোদন

ভারত সরকার গভর্ণমেংট অর্ডার জারী করে উদ্বাস্তু রেজিস্ট্রেশন বন্দ্ধ করেছে 1971 সালে


ভারত সরকারের শাসমাদেশ অনুযায়ী আফপসা লাগু 1958 থেকে

করোরেট আধার প্রকল্প বিনা সংসদীযঅনুমোদনে

অন্যদেশের সঙ্গে বাণিজ্যিক,পর্তিরক্ষা দ্বিপাক্ষিক সন্ধির অনুমোদন ভারতীয সংসদের অনুমতি ছাড়া

মোদী সরকার হলে সঙ্ঘ পরিবার তাকে কতটা নিযন্ত্রিত করে দেখার চিজ

1991 সালে মনমোহন অবতারের পূর্বেই রামরথে ধর্মোন্মাদী জাতীযতাবাদী বর্ণবিদ্বেষী জাতি আধিপাত্যিক উন্মাদনায় আর্থিক সংস্কার অভিযান শুরু

বাবরি ধ্বংস হল,রামমন্দির অথৈ জলে

আবার রামমন্দির অর্থাত দ্বিতীয় দফার সংস্কারের প্রতিশ্রুতি

সংসাক্র মানে বিদেশী অবাধ পুঁজি,এফডিআই রাজ

বেনিয়া ভোটার কুল রক্ষা করতে আপাতত খুচরোয় আপত্তি,অথচ মার্কিন সমর্থনের অন্যতম শর্ত ইহাই

বুঝুন এবার ঠ্যালা

এবার এমপ্লয়মেন্ট দপ্তর লোপাড করার জাদু

কেরিযার সিন্টার কোচিং সেন্টারে চাকরির সন্ধান

প্রাইভেটাইজেশন

সংরক্ষণ বাতিল

আখেরে আম্বেজডকরের শবযাত্রা আবার

ভারতে লোকসভা নির্বাচনের শুরুর দিনই অযোধ্যায় বাবরি মসজিদের স্থানে রামমন্দির প্রতিষ্ঠার প্রতিশ্রুতি দিয়ে দিল্লিতে সোমবার বিজেপির নির্বাচনী ইশতিহার প্রকাশ করেন দলের প্রবীণ নেতা মুরলি মনোহর যোশী।



বিজেপির কট্টরপন্থী নেতা হিসাবে পরিচিত মুরলি মনোহর যোশির স্বাক্ষরিত ৫২ পৃষ্ঠার ইশতেহারে বলা হয়েছে,সাংবিধানিক নিয়মের মধ্যে থেকেই বাবরি মসজিদের স্থানে রামমিন্দর প্রতিষ্ঠা করা হবে।


ইশতিহারে দলটির পররাষ্ট্রনীতির অংশে বলা হয়েছে, ক্ষমতায় এলে প্রতিবেশী দেশগুলোর সঙ্গে বন্ধুত্বপূর্ণ সম্পর্ক বজায় রাখার প্রতিশ্রুতি দেয়া হয়েছে। তবে প্রয়োজনে কঠোর পদক্ষেপ নিতেও দ্বিধা করবে না দলটি।




এছাড়া গ্রামীণ শিক্ষা ও কর্মসংস্থানের উপরও জোর দেয়াসহ আরো কতগুলো উন্নয়নের প্রতিশ্রুতি দিয়েছে বিজেপি।



এর মধ্যে রয়েছে,বিদেশ থেকে কালো টাকা ফেরত আনার প্রতিশ্রুতি,প্রতিটি রাজ্যে এইমস তৈরির প্রস্তাব ও কর ব্যবস্থার সরলীকরণ।



অভিন্ন দেওয়ানি বিধির ক্ষেত্রেও সুর নরম করা হয়েছে।সংবিধানের ৩৭০ ধারা সরাসরি বাতিল নয়,তা নিয়ে আলোচনার দাবি জানানো হয়েছে।



ইশতাহারে আট দফা উন্নয়নের মডেল রাখা হয়েছে।নতুন মূল স্লোগান-এক ভারত,শ্রেষ্ঠ ভারত।



একইসঙ্গে রাখা হয়েছে সর্বাত্মক উন্নয়নের প্রতিশ্রুতিও।খুচরো ব্যবসায় প্রত্যক্ষ বিদেশি বিনিয়োগের অনুমতি দেওয়া হবে না বলেই জানিয়ে দেওয়া হয়েছে ইশতাহারে।তবে বিনিয়োগ টানতে কর কাঠামো সংস্কারের আশ্বাস দেওয়া হয়েছে।



ইউপিএ সরকারকে কটাক্ষ করে ইশতাহারে দেওয়া হয়েছে নীতিপঙ্গুত্ব এবং দুর্নীতি দূরীকরণ এবং শাসন ব্যবস্থায় সংস্কারের প্রতিশ্রুতি।বিচারবিভাগীয় ও নির্বাচনী ব্যবস্থায় সংস্কারের প্রতিশ্রুতিও রাখা হয়েছে।

প্রত্যাশামতোই উন্নয়নের আশ্বাস দিয়ে নির্বাচনী ইশতাহার প্রকাশ করল দেশের প্রধান বিরোধী দল বিজেপি। তবে রামমন্দিরের মতো উগ্র হিন্দুত্বের ইস্যুকে একেবারে বাতিল করে দেওয়া হয়নি। বলা হয়েছে সাংবিধানিক কাঠামোর মধ্যেই রামমন্দির প্রতিষ্ঠা করা হবে। গ্রামীন শিক্ষা ও কর্মসংস্থানে জোর দেওয়া হয়েছে। বুলেট ট্রেন চালাতে রেলে চতুর্ভুজ প্রকল্পের প্রতিশ্রুতি দেওয়া হয়েছে।


বিদেশ থেকে কালো টাকা ফেরত আনার প্রতিশ্রুতি দেওয়া হয়েছে। প্রতিটি রাজ্যে এইমস তৈরির প্রস্তাব। কর ব্যবস্তার সরলীকরণের প্রতিশ্রুতি। খুচরো ব্যবসা ছাড়া বিদেশী বিনিয়োগ স্বাগত জানানো হয়েছে।


অভিন্ন দেওয়ানি বিধির ক্ষেত্রেও সুর নরম করা হয়েছে। সংবিধানের ৩৭০ ধারা সরাসরি বাতিল নয়, তা নিয়ে আলোচনার দাবি জানানো হয়েছে। দিল্লিতে আজ বিজেপির নির্বাচনী ইশতাহার প্রকাশ করেন দলের প্রবীণ নেতা মুরলি মনোহর যোশী।


ইশতাহারে আট দফা উন্নয়নের মডেল রাখা হয়েছে। নতুন মূল স্লোগান- এক ভারত, শ্রেষ্ঠ ভারত। একইসঙ্গে রাখা হয়েছে সর্বাত্মক উন্নয়নের প্রতিশ্রুতি। খুচরো ব্যবসায় প্রত্যক্ষ বিদেশি বিনিয়োগের অনুমতি দেওয়া হবে না বলেই জানিয়ে দেওয়া হয়েছে ইশতাহারে। তবে বিনিয়োগ টানতে কর কাঠামো সংস্কারের আশ্বাস দেওয়া হয়েছে। ইউপিএ সরকারকে কটাক্ষ করে ইশতাহারে দেওয়া হয়েছে নীতিপঙ্গুত্ব এবং দুর্নীতি দূরীকরণ এবং শাসন ব্যবস্থায় সংস্কারের প্রতিশ্রুতি। বিচারবিভাগীয় ও নির্বাচনী ব্যবস্থায় সংস্কারের প্রতিশ্রুতিও রাখা হয়েছে।


Economic Times puts it straight.Just see

PURE POLITICS

BJP Manifesto Promises Reform, Development

Ram temple at Ayodhya makes a comeback

OUR POLITICAL BUREAU NEW DELHI


BJP slammed the Congress-led government on a host of issues like price rise, growing unemployment, corruption, internal and external security, and overall policy paralysis in its manifesto while promising participative and inclusive democracy and development of all through e-governance and reforms in various sectors . The much-awaited BJP manifesto released on Monday also underlines the party's longstanding commitment to building the Ram temple at Ayodhya, Uniform Civil Code and abrogation of Article 370 that gives special status to Jammu and Kashmir .


The BJP opposition to foreign direct investment in multi-brand retail while welcoming it in other sectors was the most talked about issue of the document . "Barring the multi-brand retail sector, FDI will be allowed in sectors wherever needed for job and asset creation, infrastructure and acquisition of niche technology and specialised expertise. BJP is committed to protecting the interest of small and medium retailers, SMEs and those employed by them," the party said .


In the same breath it promised to make the functioning of Foreign Investment Promotion Board (FIPB) more efficient and investor-friendly, an indication that the party is not against foreign capital in other areas . Though the party's stand on a host of issues were outlined in the manifesto, the stamp of BJP's prime ministerial candidate Narendra Modi was stamped all over it. The policies and programmes mentioned in the manifesto revolve around his views and agenda . Speaking on the occasion, Modi said, "The manifesto reflects our commitments and goals. We will move forward on two issues- good governance and development. Development should be all inclusive, it should reach everybody and should be welcomed by all." He defined good governance as one where government thinks about poor and the oppressed and hears their woes .


राम मंदिर तो बहाना है।बाकी जनता पर हर किस्म का हर्जाना है।धर्मराष्ट्र में कारपोरेट जजिया अफसाना है।सन 1991 में सुधारों के ईश्वर मनमोहन के अवतार से पहले मंडल प्रतिरोधे निकल पड़ा था रामरथ,जो लखनऊ में केसरिया और नई दिल्ली में तिरंगे की युगलबंदी के तहत बाबरी विध्वंस को कामयबा तो रहा,लेकिन न राम मंदिर बना और न रथयात्री थमी। गौर से देखें तो इस रथ के घोड़े दिग्विजयी अश्वमेधी घोड़े हैं,जिनका असली मकसद जनपदों को कुचलना है।जन गण का सफाया है।संसाधनों से बेदखली है।वर्णी नस्ली कारपोरेट एकाधिकारवादी वर्चस्व है।असल में बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अगर छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक एजेंडे में बड़ा अंतर नहीं है। दोनों दलों ने वृद्धि को गति देने, मुद्रास्फीति पर शिकंजा कसने, रोजगार सृजन, कर प्रणाली में सुधार तथा निवेशक अनुकूल माहौल को बढ़ावा देने के अलावा राजकोषीय मुद्दों से प्रभावी तरीके से निपटने का वादा किया है।


मजे की बात तो यही है कि आर्थिक सुधार के मोर्चे पर कांग्रेस और भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में कोई मौलिक फर्क  है  ही नहीं। सरकार चाहे जिसकी बने,राज कारपोरेट निरंकुश होगा।आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने और रोजगार के अवसर बढ़ाने को उच्च प्राथमिकता देने का वायदा करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) ने कहा है कि यदि वह सत्ता में आई तो महंगाई पर लगाम लगाएगी, कर व्यवस्था में सुधार करेगी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करेगी पर मल्टीब्रांड खुदरा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को कारोबार की छूट नहीं दी जाएगी। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा आज यहां जारी पार्टी के 'चुनाव घोषणापत्र-2014Ó में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार पर 'कर आतंकवाद एवं अनिश्चितता'फैलाने तथा 10 वर्षो के रोजगारविहीन विकास की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया गया है। भाजपा ने ऊंची मुद्रास्फीति (महंगाई दर) पर अंकुश लगाने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष की स्थापना करने, राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करने तथा बैंकों के वसूल नहीं हो रहे कर्जों (एनपीए) की समस्या से निपटने के लिए बैंकिंग क्षेत्र में सुधार को आगे बढ़ाने का वायदा किया है।



नमोपा ने भाजपा को हाशिये पर रख दिया है और हिंदुत्व का कारपोरेट अवतार अवतरित है।नये पुराण,नये उपनिषद,नये वेद रचे जा रहे हैं।धर्मोन्माद नरसंहार के लिए वध्यभूमि को पवित्रता देता है क्योंकि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने सोमवार को पार्टी के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आने पर देश में सुशासन लाने का वादा किया। वहीं पार्टी ने 'ब्रांड इंडिया' का संकल्प लिया। भाजपा की ओर से जारी घोषणा-पत्र के बाद मोदी ने कहा कि पार्टी का लक्ष्य मजबूत और एकीकृत भारत का निर्माण करना है, जिसे विश्व का सम्मान हासिल हो।



रामंदिर की आड़ में आक्रामक हिंदू राष्ट्र के पताकातले गिलोटिन कतारबद्ध है और खून की नदियां बहेंगी।मामला धर्मनिरपेक्षता बनाम साप्रदायिकता जबरन इरादतन बनाया जा रहा है ताकि ध्रूवीकृत जनता के जनादेश से दूसरे चरण के नरमेधी सुधारों को हरी झंडी मिल जाये।


संघ परिवार देशभक्ति का ठेकेदार है।अहिंदू तो क्या वे हिंदू भी जो आस्था में अंध नहीं हैं और दिलो दिमाग के दरवाजे खोलकर सहमति के विवेक और असहमति के साहस के साथ जीवनयापन करते हैं,नागरिक और मानवाधिकारों की बात करते हैं,धम्म और पंचशील की भारतीयता में आस्था रखते हैं,वर्णी लस्ली भेदभाव के विरुद्ध संघ परिवार के नजरिये से वे देश के गद्दार हैं।लेकिन भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में संवेदनशील रक्षा क्षेत्र को निजी और विदेशी पूंजी के लिए कोल देने की जो राष्ट्रद्रोही उदात्त घोषणा हुई है,उसका असली तात्पर्य भारत अमेरिकी परमाणु संधि का अक्षरशः क्रियान्वयन है,जो मनमोहनी नीतिगत विकलांगकता की वजह से अब भी हुआ नहीं है।



तो दूसरी ओर, बगावत के दमन और आतंक के विरुद्ध परतिबद्धता का संकल्प है और उसके साथ समान नागरिक संहिता के साथ धारा 370 के खात्मे का ऐलान।


इसका भी सीधा मतलब अमेरिका और इजराइल की अगुवाई में रणनीतिक पारमाणविक जायनी युद्धक साझे चूल्हे की आग में भारत के नागरिकों के मानवाधिकार का ओ3म नमो स्वाहा है।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून,आतंकवाद निरोधक कानून और सलवा जुड़ुम जैसे कार्यक्रम के जरिये भारतीय जनगण के विरुद्ध अविराम युद्ध घोषणा का संकल्पत्र है यह चुनाव घोषणापत्र।


विरोधाभास सिर्फ एक है और नहीं भी है। खुदरा कारोबार के अलावा बाकी सभी हल्कों में अबाध प्रत्यक्ष निवेश की प्रतिबद्धता है नमोमय ब्रांड इंडिया की।छिनाल पूंजी अर्थव्यवस्था की धूरी है तो खुदरा कारोबार में एफडीआई रोके जाने का सवाल ही नहीं उठता।


यूपीए दो ने खुदरा कारोबार विदेशी पूंजी के लिए पहले ही खोल दिया है।भले ही अरविंद केजरीवाल ने इस फैसले को उलट दिया है लेकिन अर्थ विशेषज्ञों और कारपोरेट नीति निर्धारकों के कहे पर गौर करें तो इस फैसले को राज्य सरकारें भी उलट नहीं सकतीं।जैसे भारत अमेरिका परमाणु समझौता अब रद्द नहीं हो सकता,यूं समझिये कि नमो घोषमाप्तर् का वादा छोटे कारोबारियों को मोर्चाबद्ध करके नमोसुनामी का सृजन भले कर दें,इस देश में अबाध विदेशी छिनाल  पूंजी परिदृश्य में खुदरा बाजार के आजाद बने रहने के कोई आसार है ही नहीं। यह मतदाताओं के साथ सरासर धोखाधड़ी है पोजीं नेटवर्कीय राममंदिर फर्जीवाड़े की तरह ।


दरअसल राममंदिर संकल्प और खुदरा कारोबार में एफडीआई निषेध दोनों वोटबैंक साधने के यंत्र तंत्रमंत्र हैं।राममंदिर धर्मोन्मादी वर्चस्ववादी नस्ली वर्णी राष्ट्रवाद का महातिलिस्म है तो खुदरा कारोबार केसरिया वोटबैंक का प्राण भंवर।दोनों की पवित्रतापर आधारित है हिंदूराष्ट्र का हंसता हुआ वास्तु बुद्ध।लेकिन दोनों मुद्दे दरअसल हाथी के दांत हैं।दिखाने के और तो खाने के और।


जाहिरा तौर पर रामंदिर बनाने की संभावना के संवैधानिक रास्ते तलाशने की बात की गयी है।ऐसे आंतरिक सुरक्षा की फर्जी मुठभेड़ संस्कृतिकल्पे मोसाद सीआईए मददपुष्ट मानवाधिकारहनन के वास्ते रंग बिरंगे कानून और अभियान हैं,वैसे ही राम मंदिर निर्माण कल्पे संविधान का कायाकल्प भी केसरिया होना जरुरी है तो दूसरी ओर,ध्यान देने वाली बात है कि भारत सरकार संवैधानिक प्रावधानों और संसदीय गणतंत्र की परंपराओं के विपरीत भारत की संसद या भारत की जनता के प्रति कतई जिम्मेदार नहीं है।


राजनीति सीधे तौर पर कारपोरेट लाबिंग का नामांतर है तो नीति निर्धारण संसद को हाशिये पर रखकर,आईसीयू में डालकर विशेषज्ञता बहाने असंवैधानिक भी है और  कारपोरेट भी।


मौद्रिक नीतियां सीधे बाजार के दबाव में तथाकथित स्वायत्त रिजर्व बैंक द्वारा तय होती हैं,जिनपर भारत सरकार का कोई नियंत्रण है ही नहीं और वित्तीयनीतियां भी वित्तीय पूंजी के हिसाब से होती है।


रेटिंग एजंसियां विदेशभूमि से भारत की आर्थिक सेहत तय करती हैं।


परिभाषाएं और मनचाहे आंकड़े दिग्भ्रामक हैं।


आर्थिक सुधारों का पूरा किस्सा यही है।


कारपोरेट लाबिइंग के मार्फत कैबिनेट में फैसला और कारपोरेट लाबििंग के मार्फत ही सर्वदलीय सहमति से उनका संसदीय अनुमोदन।


तमाम अल्पमत और खिचड़ी सरकारों ने बिन विचारधारा आर्थिक सुधारों की निरंतरता जारी रखा हुआ है।जो कार्यक्रम अति संवेदनशील है,उसके लिए भारत सरकार के शासकीय आदेश से लेकर अध्यादेश तक प्रावधान हैं।


अध्यादेश का अंततः संसदीय अनुमोदन होना अनिवार्य है और अध्यादेश को अदालत में चुनौती दी भी जा सकती है।लेकिन शासकीय आदेश दशकों तक बिना संसदीय अनुमोदन के बहाल और कार्यकारी रह सकते हैं।


सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून,पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थी निषेध शासकीय आदेश 1971 इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।


फिर संसद के अनुमोदन के बिना दूसरे देशों से संधि,समझौता और अनुबंध का मामला है,जिसमें संसद की कोई भूमिका ही नहीं होती।


तमाम वाणिज्यिक समझौते भारतीयसंसद के दायरे के बाहर हैं।


वैसे भी अमेरिकी दांव खुदरा कारोबार के भारतीय बाजार पर है और मोदी इसके लिए रजामंद हैं और इसी रजामंदी के तहत उन्हें अमेरिकी समर्थन हैं।


मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी संघ परिवार।


जाहिर है कि संसदीय फ्रेम के बाहर सर्वशक्तिमान धर्मोन्मादी कारपोरेट प्रधानमंत्री अंततः संघ परिवार के भी नियंत्रण में नहीं होंगे।हमे नहीं मालूम कि संघ में ऐसे कौन विष्णु भगवान हैं जो किसी भस्मासुर को आइना दिखाने के लिए मोहिनी अवतार ले सकें।


संघी साइबार अभियान में जो करोड़ों युवा दिलोदिमाग रात दिन चौबीसों घंटे निष्णात हैं,उनके लिए रोजगार के मोर्चे पर संघी नमो चुनाव गोषमापत्र खतरे की घंटी है।रोजगार कार्यालय भारत सरकार के शरणार्थी मंत्रालय की तरह खत्म होने को हैं।


यानी सरकार की तरफ से किसी को भी नौकरी नहीं मिलने वाली है।


यानी निजीकरण और विनिवेश मार्फत सरकारी क्षेत्र का अवसान।रोजगार कार्यालयों को कैरियर सेंटर बना दिया जायेगा।


जब रिक्तियां ही खत्म हैं और आवेदनों से नौकरियां नहीं मिलनेवाली हैं,सारी नियुक्तियां ठेके पर होनी है,नियोक्ताओं की जरुरत के मुताबिक ऊंची फीस वे चुनिंदा संस्थानों में कैंपस रिक्रूटिंग के माध्यम से होनी है तो जैसे कि आम तौर पर कैरियर सेंटरों और कोचिंग सेंटरों में होता है,वहीं होना है।


इसमें संघ परिवार की ओर से मंडल से लेकर अंबेडकर के खाते पूरी तरह बंद करने के दरवाजे खुल जायेंगे और दलित असुरों का स्वर्गवास का अंजाम भी यही होगा।


स्वरोजगार और स्वपोषित रोजगार में कोई फर्क नहीं है।सत्तादल की स्वयंसेवकी ौर एनजीओ समाजकर्म भी आखिरकार स्वरोजगार है।बाकी उद्यम के लिए बड़ी एकाधिकार पूंजी के खुले बाजार में क्या भविष्य है और कितने युवा हाथों,दिलों और दिमागों के लिए वहां कितनी गुजािश बन सकेंगी,यह देखने वाली बात है।



गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी ने कहा है, "इस मुद्दे पर कोई कोताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। यदि मुझे अपने घोषणा-पत्र को दो शब्दों में परिभाषित करना पड़े, तो मैं कहूंगा- सुशासन और विकास।"


तो विकास का उनका मतलब गुजरात है।


जाहिर है किगुजरात के मुख्यमंत्री ने सच ही कहा कि वह भाजपा की तरफ से दी गई जिम्मेदारी को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।उन्होंने यह भी कहा कि वह निजी तौर पर अपने लिए कुछ नहीं करेंगे और न ही बदले की भावना से कोई काम करेंगे।


इससे पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने घोषणा-पत्र जारी करते हुए कहा कि इसमें अर्थव्यवस्था व आधारभूत संरचना को मजबूत करने और भ्रष्टाचार मिटाने पर जोर दिया गया है। जोशी ने कहा, "हमने घोषणा-पत्र में देश के आर्थिक हालात को सुधारने की योजना बनाई है। जहां तक आधारभूत संरचना का सवाल है, विनिर्माण में सुधार महत्वपूर्ण है। साथ ही इसका निर्यातोन्मुखी होना भी जरूरी है। हमें 'ब्रांड इंडिया' बनाने की जरूरत है।"



भाजपा ने सोमवार को घोषणापत्र जारी किया जिसमें कहा गया है कि वह अर्थव्यवस्था के पुनरूद्धार तथा रोजगार सृजन के लिये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का स्वागत करेगी। भाजपा के घोषणापत्र में कहा गया है, बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र को छोड़कर उन सभी क्षेत्रों में एफडीआई की अनुमति होगी जहां रोजगार एवं संपत्ति सृजन, बुनियादी ढांचा तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी एवं विशेषीकृत विशेषज्ञता की जरूरत है। वहीं कांग्रेस ने कहा कि बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति देने के संप्रग के निर्णय से कृषि अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव आएंगे और किसानों को बेहतर रिटर्न मिलेगा।


भविष्य की आर्थिक योजनाओं का अनावरण करते हुए भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कहा है, 'कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने देश को 10 वर्षो तक रोजगार विहीन वृद्धि के दौर में फंसा रखा है। भाजपा वृहद आर्थिक पुनरोद्धार के तहत रोजगार सृजन और उद्यमशीलता के लिए अवसरों के निर्माण को उच्च प्राथमिकता देगी। कृषि क्षेत्र के संदर्भ में इसमें घोषणा पत्र में 'एकल राष्ट्रीय कृषि बाजार'  के सृजन और कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने का वायदा किया गया है। कर प्रणाली में सुधार के संदर्भ में पार्टी ने कहा है कि संप्रग सरकार ने देश में 'कर आतंकवाद' और 'अनिश्चितता' की स्थिति पैदा कर दी है। इससे न केवल व्यवसायी वर्ग चिंतित है बल्कि निवेश का माहौल बिगड़ गया है तथा देश की साख पर भी बट्टा लगा है।'


कर सुधार का वादा करते हुए भाजपा ने कहा है कि उसकी कर नीति में कर व्यवस्था को वैर-भाव से मुक्त व कर वातावरण को सहज बनाने पर ध्यान होगा। पार्टी कर विवाद निपटान व्यवस्था को दुरूस्त करेगी, माल एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने में सभी राज्यों को साथ लेगी और निवेश बढ़ाने के लिए कर-प्रोत्साहन देगी।



पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया है, कांग्रेस ऐसे निवेश माहौल को लेकर प्रतिबद्ध है जो एफडीआई को आकषिर्त करने वाला तथा उसके अनुकूल हो। कर सुधारों के मुद्दे पर भाजपा तथा कांग्रेस वस्तु एवं सेवा कर :जीएसटी: को क्रियान्वित करने का वादा किया है। हालांकि, भाजपा घोषणापत्र में प्रत्यक्ष कर संहिता :डीटीसी: मुद्दे पर चुप है जो आयकर कानून 1961 का स्थान लेगा।


कांग्रेस ने सत्ता में आने के एक साल बाद जीएसटी के साथ-साथ डीटीसी को एक साल के भीतर क्रियान्वित करने का वादा किया है। आम सहमति के अभाव में दोनों कर सुधार विधेयक संसद में लंबित हैं। दोनों दलों ने राजकोषीय मजबूती तथा फंसे कर्ज के संदर्भ में बैंकिंग क्षेत्र में सुधार का संकल्प जताया है। शहरी ढांचागत सुविधा में सुधार पर कांग्रेस ने 100 शहरी संकुल गठित करने की मांग की है वहीं भाजपा की इतनी ही संख्या में नये शहर स्थापित करने की योजना है।


असल नौटंकी तो यह है कि भाजपा के घोषणा पत्र को अपने घोषणा पत्र की कापी बताते हुए कांग्रेस ने भाजपा पर तीखा हमला किया है। पार्टी ने भाजपा पर उसके घोषणा पत्र के मुद्दों को चोरी करने का आरोप लगाया है। पार्टी मतदान के दिन घोषणा पत्र जारी करने के लिए भाजपा की शिकायत चुनाव आयोग से करेगी। घोषणा पत्र में राम मंदिर मुद्दा शामिल करने के लिए कांग्रेस आयोग में आपत्ति भी दर्ज कराएगी।

गांवों में इंटरनेट सुविधाओं, स्वास्थ्य, सबको मकान, शिक्षा, आर्थिक सुधार और इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर कांग्रेस ने भाजपा पर उसके घोषणा पत्र की नकल का आरोप लगाया है। पार्टी प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, भाजपा ने ऐसी अंधी नकल की है कि कांग्रेस घोषणा पत्र की तारीख तक नहीं बदली।


दरअसल, भाजपा के घोषणा पत्र में मुरली मनोहर जोशी ने जो प्रस्तावना लिखी है उसमें 26 मार्च की तारीख है। कांग्रेस का घोषणा पत्र इसी दिन जारी हुआ था। उन्होंने कहा, भाजपा ने हर गांव को इंटरनेट से जोड़ने और हर राज्य में एम्स बनाने की बात कही है। जबकि, संप्रग सरकार इन पर काम भी शुरू कर चुकी है। सबको मकान देने की बात भी कांग्रेस ने पहले कही है।


आर्थिक सुधारों को लेकर भी पार्टी ने जो अपने घोषणा पत्र में कहा है, भाजपा ने शब्दों को बदल कर उन्हें दोहराया भर है। बुनियादी ढांचे को लेकर कांग्रेस के विजन पत्र में जो कहा गया है भाजपा ने उसे भी कापी पेस्ट कर दिया है। हमने वादा किया था कि कांग्रेस 10 लाख की आबादी वाले शहरों में हाईस्पीड ट्रेन चलाएगी। वेस्टर्न-ईस्टर्न फ्रेट कॉरीडोर पूरा करेगी। जलमार्ग का विस्तार किया जाएगा। भाजपा ने सिर्फ नाम बदला है और कहा है कि वह स्वर्णिम चतुर्भुज बुलेट ट्रेन लेकर आएगी।


टीम राहुल के अहम सदस्य माने जाने वाले जयराम रमेश ने भी दावा किया कि भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल कुछ योजनाएं तो 10 साल से मौजूद हैं। कांग्रेस की विधि इकाई के प्रमुख केसी मित्तल ने भाजपा पर चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों की अवहेलना का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पहले चरण का मतदान शुरू होने के बाद घोषणा पत्र जारी करने को लेकर वे आयोग से भाजपा की शिकायत करेंगे।


कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा द्वारा उर्दू और मदरसों को सहायता देने की बात पर चुटकी लेते हुए कहा, 'मुझे खुशी है कि भाजपा जैसी पार्टी भी मदरसों को मदद की बात कर रही है, यह देश के लिए शुभ संकेत है।'


राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा, 'मुझे मालूम था कि इन लोगों में राम के प्रति निष्ठा नहीं है। 2004 में भी इन्होंने कहा था कि विशाल मंदिर बनाया जाएगा, फिर बात करनी छोड़ दी।'



আর্থিক বৃদ্ধি ও নতুন চাকরির সুযোগ তৈরিকে সব চেয়ে বেশি গুরুত্ব দেওয়া হয়েছে বিজেপির ইস্তাহারে। মোদীর দল যে ভাবে মূল্যবৃদ্ধিকে লাগাম পরানো, কর ব্যবস্থার সরলীকরণ, বিনিয়োগের পক্ষে সহায়ক পরিবেশ গড়ে তোলার কথা বলেছে তাতে উল্লসিত শিল্পমহল। মনমোহন সিংহ সরকারের নীতিপঙ্গুত্ব নিয়ে হতাশ শিল্পমহল নরেন্দ্র মোদীর থেকে এমন ইতিবাচক বার্তা শোনারই আশা করছিল। কিন্তু প্রত্যাশার বেলুন চুপসে দিয়েছে খুচরো ব্যবসায় বিদেশি লগ্নি নিয়ে বিজেপির বিরোধিতা।

ইস্তাহারে স্পষ্ট ভাষায় জানিয়ে দেওয়া হয়েছে, আর সব ক্ষেত্রে বিদেশি লগ্নির দরজা খোলা থাকলেও, বিজেপি বহু ব্র্যান্ডের খুচরো ব্যবসায় বিদেশি লগ্নির ছাড়পত্র দেবে না। অর্থাৎ, ওয়ালমার্ট, টেসকো, ক্যারেফোর-এর মতো বিদেশি বহুজাতিক সংস্থাগুলিকে এ দেশে সুপার মার্কেট খোলার অনুমতি দেওয়া হবে না। বস্তুত বিজেপির বিরোধিতা সত্ত্বেও মনমোহন-সরকারের জমানায় এই ছাড়পত্র দেওয়া হয়েছিল। তারা সরকারে এলে সেই ছাড়পত্র প্রত্যাহার করা হবে বলে জানিয়েছে বিজেপি।

বণিকসভাগুলি আজ বিজেপি-র কাছে এই অবস্থান বদলের অনুরোধ জানিয়েছে। ফিকি-র সভাপতি সিদ্ধার্থ বিড়লা বলেন, "বহু ব্র্যান্ডের খুচরো ব্যবসায় বিদেশি লগ্নির বিরোধিতা নিয়ে বিজেপির অবস্থানে আমরা হতাশ। আশা করি, এই সিদ্ধান্ত ফের পর্যালোচনা করা হবে।"একই সুরে অ্যাসোচ্যাম-এর সভাপতি রানা কপূর বলেছেন, "আমরা বিজেপিকে এই সিদ্ধান্ত বদলের জন্য বোঝানোর চেষ্টা করব।"বিজেপি-র আপত্তির মূল বিষয় ছিল, বহুজাতিক সংস্থাগুলি এ দেশে এসে পাড়ায় পাড়ায় সুপার মার্কেট খুলে চাল-ডাল-তেল-মশলা-শাকসব্জি বিক্রি করতে শুরু করলে মুদির দোকানগুলি উঠে যাবে। এই কৃষকদেরও ক্ষতি হবে। ওই ছোট ব্যবসায়ীরা বিজেপি-র ভোটব্যাঙ্ক।

অ্যাসোচ্যাম সভাপতির দাবি, "খুচরো ব্যবসায় বিদেশি লগ্নি এলে অর্থনীতির ভালই হবে, আর তা মুদির দোকানগুলির ক্ষতি না করেই।"সিআইআই সভাপতি অজয় শ্রীরামের মত, "কৃষকরা ভাল দাম পাবেন। ক্রেতারাও লাভবান হবেন। এতে তাই সকলের লাভ।"

এমন নয় যে মনমোহন সরকারের ছাড়পত্র পেয়ে ইতিমধ্যেই এক গুচ্ছ বিদেশি সংস্থা এ দেশে নিজেদের বিপণি খুলে ফেলেছে। তা হলে বিজেপি-র সরকার গঠন হলে যদি সেই ছাড়পত্র তুলে নেওয়া হয়, তাতে সমস্যা কোথায়?

শিল্পমহলের যুক্তি, এ দেশে খুচরো ব্যবসার বাজারের পরিমাণ প্রায় ৫০ হাজার কোটি ডলার। শুধু যে বিদেশি সংস্থাগুলি ভারতে আসতে চাইছে তা নয়, এ দেশের সুপার মার্কেট সংস্থাগুলিও বিদেশি সংস্থার সঙ্গে গাঁটছড়া বাঁধতে চাইছে। এই সংস্থাগুলি সমস্যায় পড়বে। সব চেয়ে বিপদে পড়বে ব্রিটিশ সংস্থা টেসকো। ওই সংস্থা ইতিমধ্যেই টাটা গোষ্ঠীর ট্রেন্ট সংস্থার সঙ্গে বিপুল অঙ্কের চুক্তি করে ফেলেছে। সরকারি ছাড়পত্রও আদায় হয়ে গিয়েছে। আবার ফ্রান্সের ক্যারেফোর সংস্থাও এ দেশের একটি সংস্থার সঙ্গে যৌথ ব্যবসায় নামার জন্য কথাবার্তা চালাচ্ছে। বিজেপি সরকারে এসে গোটা নীতিই বদলে ফেললে এ সব লগ্নির প্রস্তাব প্রশ্নের মুখে পড়বে।

শিল্পমহল আশা করছে, এই ধরনের আর্থিক নীতিগত বিষয়ে নতুন সরকার সম্পূর্ণ উল্টো অবস্থান নিলে আখেরে যে ক্ষতিই হবে, তা নরেন্দ্র মোদীও বুঝবেন। কিছু দিন আগে ছোট ব্যবসায়ীদের মঞ্চে গিয়ে মোদী বিদেশি লগ্নির পক্ষে সওয়াল করেছিলেন। তাতেও কিছুটা আশার আলো দেখছে বণিকসভাগুলি।

মনমোহন সরকারের জমানায় কর নীতি নিয়ে আতঙ্ক ছড়িয়েছিল শিল্পমহলে। যে ভাবে ভোডাফোনের মতো পুরনো ব্যবসায়িক চুক্তিতে কর আদায় করার চেষ্টা হয়েছিল, তাতেও অস্বস্তি বাড়ে। আজ এই দু'টি বিষয়েই বিজেপির ইস্তাহার স্বস্তির বার্তা দিয়েছে। এত দিন মূলত বিজেপি শাসিত রাজ্যগুলির আপত্তিতেই পণ্য-পরিষেবা কর আটকে ছিল। কিন্তু ইস্তাহারে প্রতিশ্রুতি দেওয়া হয়েছে, ক্ষমতায় এলে বিজেপি এই কর ব্যবস্থা চালু করতে উদ্যোগী হবে।  ইস্তাহারে পরমাণু নীতি পুনর্বিবেচনার কথাও বলেছে বিজেপি।

আশায় বুক বাঁধলেও শিল্পমহলের জন্য কাঁটাও আছে বিজেপির ইস্তাহারে।

http://www.anandabazar.com/national/%E0%A6%AE-%E0%A6%A6-%E0%A6%B6-%E0%A6%B2-%E0%A6%AA-%E0%A6%B8%E0%A6%96-%E0%A6%AF-%E0%A6%95-%E0%A6%9F-%E0%A6%96-%E0%A6%9A%E0%A6%B0-%E0%A7%9F-%E0%A6%AC-%E0%A6%A6-%E0%A6%B6-%E0%A6%B2%E0%A6%97-%E0%A6%A8-1.19290

বিজেপির মুখে নেই গোর্খাল্যান্ড, চাপে মোর্চা

নিজস্ব সংবাদদাতা

শিলিগুড়ি ও নয়াদিল্লি,৮ এপ্রিল, ২০১৪, ০৩:৩৩:৫৪ee e print

সকাল থেকে নজর ছিল বিজেপির ইস্তাহার প্রকাশ অনুষ্ঠানের দিকে। ইস্তাহার প্রকাশের পরে দেখা গেল, সেখানে তেলঙ্গানা-সীমান্ধ্র প্রসঙ্গ আছে। আছে ছোট রাজ্যের পক্ষে সওয়ালও। নেই শুধু গোর্খাল্যান্ড প্রসঙ্গ! আর তাতেই দিনের শেষে পাহাড়ে রীতিমতো চাপে গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার নেতারা। দার্জিলিঙের বিষয়টি আলাদা ভাবে না থাকায় মোর্চার অন্দরেও প্রশ্ন উঠে গিয়েছে।

গোর্খাল্যান্ড-প্রসঙ্গ না থাকা নিয়ে মোর্চাকে বিঁধে পাহাড়ে বিরোধী শিবিরের অভিযোগ, মোর্চা এবং বিজেপি আরও একবার ধোঁকা দিতে চাইছে। সোমবার শিলিগুড়িতে রাজ্যের বিরোধী দলনেতা সূর্যকান্ত মিশ্রও বিজেপি এবং মোর্চাকে কটাক্ষ করেতে ছাড়েননি। তাঁর দাবি, তৃণমূলের সঙ্গে পিছনের রাস্তা দিয়ে ভোট পরবর্তী জোট গড়ার রাস্তা খোলা রাখতে চাইছে বিজেপি। তাই গোর্খাল্যান্ড প্রসঙ্গটি বাদ দিয়েছে তারা।

এই পরিস্থিতিতে শুধু মোর্চা নেতৃত্ব নন, চাপে পড়েছেন পাহাড়ে বিজেপির প্রার্থী সুরিন্দর সিংহ অহলুওয়ালিয়া নিজেও। বিরোধী-তির সামাল দিতে অহলুওয়ালিয়া বলেন, "বিষয়টি নিয়ে দলের কেন্দ্রীয় নেতৃত্বের সঙ্গে কথা হয়েছে। পরবর্তীতে ইস্তাহারের সংযোজনা বার হবে। সেখানে উল্লেখ থাকবে গোর্খা, আদিবাসী, দার্জিলিং জেলা এবং ডুয়ার্সের বাসিন্দাদের দীর্ঘদিনের দাবিগুলি বিজেপি সহানুভূতির সঙ্গে খতিয়ে দেখবে এবং সেই মতো ব্যবস্থা নেবে।"মোর্চার সাধারণ সম্পাদক রোশন গিরিও বলেন, "পরবর্তী সময়ে সংযোজনা হিসাবে বিষয়টি ইস্তাহারে থাকবে বলে জানানো হয়েছে।"

কিন্তু কেন রাখা হল না গোর্খাল্যান্ড প্রসঙ্গ? বিজেপি নেতাদের যুক্তি, এর আগে যত গুলি পৃথক রাজ্য গঠন করেছে বিজেপি, তাতে রাজনৈতিক ঐকমত্য ছিল। কিন্তু গোর্খাল্যান্ডের পরিস্থিতি অন্য রকম। দলের এক নেতার রসিকতা, "গোর্খাল্যান্ডের উল্লেখ না থাকায় তো মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় খুশি হবেন!"

বিজেপির অনেকেই আবার এর মধ্যে অন্তর্কলহের গন্ধ পাচ্ছেন। গত বার গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার সমর্থন নিয়ে যখন যশোবন্ত সিংহ পাহাড়ে প্রার্থী হয়েছিলেন, তখন কিন্তু ইস্তাহারে গোর্খাল্যান্ডের উল্লেখ ছিল। এখন সুষমা স্বরাজের ঘনিষ্ঠ নেতা সুরিন্দর সিংহ অহলুওয়ালিয়া প্রার্থী বলেই কি মোদী তাতে বাদ সাধলেন? কেন না, ইস্তাহারে এই উল্লেখ থাকলে অহলুওয়ালিয়ার সুবিধাই হতো।

মোদী শিবিরের নেতাদের অবশ্য বক্তব্য, ইস্তাহারের পরতে পরতে বলা রয়েছে, পাহাড় এলাকার উন্নয়নের জন্য মোদী কী ভাবে এগোতে চান। তার জন্য বিশেষ সহযোগিতারও আশ্বাস দেওয়া হয়েছে। সেখানকার প্রত্যাশা পূরণের কথা বলা হয়েছে। ফলে নির্দিষ্ট ভাবে দার্জিলিঙের উল্লেখ না থাকলেও কিন্তু আসলে পাহাড়ের সমস্যা নিয়ে মোদীর কী ভাবনা, তা লিপিবদ্ধ করা হয়েছে ইস্তাহারে।

যদিও তাতে চিঁড়ে ভিজছে না পাহাড়ের বিরোধীদের। দার্জিলিঙের সিপিআরএম নেতা গোবিন্দ ছেত্রী জানান, বিজেপি যে বিষয়টি নিয়ে ভাবছে না, তা স্পষ্ট। সে কারণেই তাঁরা সমর্থন দেননি। উল্লেখ্য, গত ২০ মার্চ বিজেপি প্রার্থী সুরেন্দ্র সিংহ অহলুওয়ালিয়া গোবিন্দবাবুদের সমর্থন চেয়েছিলেন। কিন্তু সিপিআরএম তাঁকে ফিরিয়ে দিয়েছে।

অখিল ভারতীয় গোর্খা লিগের সাধারণ সম্পাদক প্রতাপ খাতি বলেন, "মোর্চা এখনও পর্যন্ত মিথ্যার রাজনীতি করছে। এ বারও তারা তাই করছে। তেলঙ্গানা শব্দটি যদি বিজেপি ইস্তাহারে রাখতে পারে, তবে গোর্খাল্যান্ড কেন থাকছে না?"পাহাড়ে তৃণমূলের সাধারণ সম্পাদক এন বি খাওয়াস বলেন, "২০০৯ সালে বিজেপি মানুষকে বোকা বানিয়েছিল। আবার বানাল। এমনকী তাদের ইস্তাহারে পাহাড় নিয়ে একটি বাক্যও ব্যয় করা হয়নি।"

বাদ গিয়েছে বাংলাকে আলাদা প্যাকেজ দেওয়ার বিষয়টিও। দলের নেতাদের মোদী জানিয়েছেন, ইস্তাহারে সব রাজ্যের উন্নয়নের বিষয়ে তাঁর দৃষ্টিভঙ্গী বর্ণনা করাই ছিল লক্ষ্য। আলাদা করে কোনও রাজ্যের জন্য প্যাকেজ ঘোষণা করা ইস্তাহারের লক্ষ্য হতে পারে না। মোদী শিবিরের নেতাদের মতে, কংগ্রেসের মতো পাইয়ে দেওয়ার রাজনীতিতে তাঁরা বিশ্বাসী নন। তা সত্ত্বেও যে সব রাজ্য পিছিয়ে রয়েছে, সেই বিষয়গুলি খতিয়ে দেখার প্রতিশ্রুতি দেওয়া হয়েছে ইস্তাহারে। স্পষ্ট বলা হয়েছে, উন্নয়নের নিরিখে দেশের পশ্চিম প্রান্তের তুলনায় পূর্ব প্রান্ত অনেক পিছিয়ে রয়েছে। ফলে ক্ষমতায় এলে দেশের পূর্ব প্রান্তের উন্নয়নের উপরেই সবথেকে বেশি জোর দেওয়া হবে।

বিজেপি নেতা রবিশঙ্কর প্রসাদের বক্তব্য, "এর আগে পূর্বাঞ্চলের সমস্যাগুলিকে নিয়ে জোট বেঁধে কাজ করার চেষ্টা করেছেন মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়, নীতীশ কুমার, নবীন পট্টনায়কের মতো মুখ্যমন্ত্রীরা। ঘটনাচক্রে এই তিন জনই এনডিএ-র পুরনো শরিক। আমাদের ইস্তাহারে বলা আছে, রাজ্যগুলিকে নিয়ে একটি আঞ্চলিক পরিষদ গঠনের কথা। বিশেষ করে যে সব রাজ্যের সমস্যাগুলি একই ধরনের।"

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অবশেষে প্রকাশ করা হলো বিজেপির নির্বাচনি ইশতাহার

সাংবিধানিক, আর্থিক, সামাজিক ও হিন্দুত্ববাদের বিতর্কিত ইস্যুগুলিকে রেখেই একটা সার্বিক ভারসাম্য রাখার চেষ্টা করা হয়েছে বিজেপির নির্বাচনি ইশতাহারে৷ বিদেশি বিনিয়োগকে স্বাগত জানানো হলেও ঢালাও অনুমতি দেয়া হবে না৷

ইশতাহার প্রকাশ অনুষ্ঠানে নরেন্দ্র মোদী

অবশেষে ৭ই এপ্রিল, সোমবার প্রকাশ করা হলো প্রধান বিরোধীদল বিজেপির ৫২ পাতারনির্বাচনি ইশতাহার ২০১৪৷ বিজেপি নেতৃত্বের কাছে সবারই প্রশ্ন ছিল, ইশতাহার প্রকাশে এত দেরির কারণ কী? বিভিন্ন নেতা বিভিন্ন ব্যাখ্যা দিয়ে প্রশ্নটা এড়িয়ে যাবার চেষ্টা করেন৷ কেউ বলেন, মূল ইস্যুগুলিতে সংখ্যাগরিষ্ঠ নেতারা একমত হলেও সব নেতাদের মতে অভিন্নতা আনতে বারংবার তা স্ক্রিনিং করা হয়, পর্যালোচনা করা হয়, তাতেই এই বিলম্ব৷ বিজেপি নেতাদের কেউ কেউ বলেন, নির্বাচনি প্রচারের কাজে নেতারা ব্যস্ত থাকার দরুন এই বিলম্ব৷

সোমবার প্রথম পর্বের ভোটগ্রহণ অনুষ্ঠিত হয়েছে

কিন্তু ভেতরের খবর হলো, বিজেপির শরিক দলগুলির নেতাদের দাবি ছিল, ইশতাহার শুধু বিজেপি-কেন্দ্রিক হবে কেন? এটা কি শুধু বিজেপির ইশতাহার, নাকি বিজেপি নেতৃত্বাধীন এনডিএ জোটেরইশতাহার? যদি এনডিএ জোটের ইশতাহার হয়, তাহলে অন্যান্য দলের নীতি ও কর্মসূচিকে ব্রাত্য করা হবে কেন? জোট-সরকার গঠিত হলে শরিক দলের পছন্দ-অপছন্দের কথা তাতে কেন থাকবে না ? শরিক দলগুলির দাবি, বিজেপির গোঁড়া হিন্দুত্ববাদী ইস্যুগুলিকে উদার করতে হবে৷ এই নিয়ে মতান্তর দেখা দেয়ার ফলে এই বিলম্ব৷

অবশেষে, বিতর্কিত ও গোঁড়া হিন্দুত্ববাদী ইস্যুগুলির সঙ্গে একটা ভারসাম্য বজায় রেখে বিজেপি প্রকাশ করলো ইশতাহার৷ যেমন, সাংবিধানিক কাঠামোর মধ্যে রাম মন্দির নির্মাণ, সংবিধানের যে ধারা অনুযায়ী জম্মু-কাশ্মীর বিশেষ সুযোগ সুবিধা পায়, আলাপ আলোচনার মাধ্যমে সেই ৩৭০ নং ধারার বিলোপ, সন্ত্রাস দমন, অভিন্ন দেওয়ানি বিধি চালু করা, মাদ্রাসাগুলির আধুনিকীকরণ, গো-হত্যা নিবারণ, ওয়াকফ বোর্ডের স্বশক্তিকরণ, উর্দু ভাষার উন্নতি ইত্যাদি৷

  • ভারতের নির্বাচন ২০১৪

  • জনগণের সরকার

  • ভারতের সংসদের মেয়াদ পাঁচ বছর৷ পার্লামেন্টে দুটি কক্ষ রয়েছে৷ উচ্চকক্ষকে বলা হয় রাজ্যসভা আর নিম্নকক্ষ লোকসভা হিসেবে পরিচিত৷ নিম্নকক্ষে যে দল বা জোট সংখ্যাগরিষ্ঠতা পায় তারাই দেশের পরবর্তী প্রধানমন্ত্রী নির্বাচন করে৷

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এছাড়া ইশতাহারকে বলা যায়, মোটামুটি চর্বিত চর্বণ৷ অর্থনৈতিক অ্যাজেন্ডায় ভরতুকি বন্ধের কথা সরাসরি বলা হয়নি৷ বলা হয়নি রাষ্ট্রায়ত্ত ক্ষেত্রের বিলগ্নীকরণ বা বেসরকারিকরণের কথা৷ পাশাপাশি কর্মসংস্থান বাড়াতে বাজার অর্থনীতিকেও পাখির চোখ করা হয়নি৷ আর্থিক সংস্কারের কথা বলা হলেও তার মধ্যে আছে 'যদি' বা 'কিন্তু'৷ বিদেশি বিনিয়োগকে স্বাগত জানানো হলেও খুচরো ব্যবসায় প্রত্যক্ষ বিদেশি লগ্নি নয়৷ গড়ে তোলা হবে অর্থনৈতিক জাতীয়তাবাদের বুনিয়াদ৷ খাদ্য সুরক্ষা আইনবহাল থাকবে, তবে তার বাস্তবায়নে যাতে দুর্নীতি ঢুকতে না পারে, তার জন্য প্রশাসনিক কঠোর পদক্ষেপ গ্রহণ করা হবে৷ শিল্প ও অবকাঠামো নির্মাণের জন্য অধিগ্রহণ করা হবে স্রেফ অ-চাষযোগ্য জমি৷ খাদ্য উৎপাদনের কথা মাথায় রেখে৷ কৃষিজীবীদের স্বার্থ সুরক্ষিত রেখে তাদের লাভজনক ক্ষতিপূরণ দিয়ে৷

কর ব্যবস্থার সরলীকরণসহ ইশতাহারে আট-দফা উন্নয়নের মডেল তুলে ধরা হয়৷ দেয়া হয় সর্বাত্মক উন্নয়নের প্রতিশ্রুতি৷ কেন্দ্রের বর্তমান মনমোহন সিং সরকারকে কটাক্ষ করে নীতি-পঙ্গুত্ব এবং দুর্নীতি দূর করার পাশাপাশি বিচার বিভাগ এবং নির্বাচন কমিশনের সংস্কারের ওপর জোর দেয়া হয়৷ ইশতাহার প্রকাশের পর বিজেপির প্রধানমন্ত্রী পদপ্রার্থী নরেন্দ্র মোদী মন্তব্য করেন, ইশতাহার প্রকাশ নিছক একটা আনুষ্ঠানিক বিষয় নয়, এটা দলের ও সরকারের লক্ষ্যও দিশা নির্দেশ, সুশাসন ও বিকাশ যার মূলমন্ত্র৷

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आखिर हम कितना गहरा खोदेंगे: अरुंधति रॉय

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आखिर हम कितना गहरा खोदेंगे: अरुंधति रॉय

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/08/2014 08:21:00 PM


एक सिलसिला सा पूरा हुआ. अरुंधति रॉय का यह व्याख्यान पढ़ते हुए आप पाएंगे कि चीजें कैसे खुद को दोहरा रही हैं. यह व्याख्यान एक ऐसे समय में दिया गया था जब भाजपा के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार चुनावों में थी, कहा जा रहा था कि भारत का उदय हो चुका है, लोग अच्छा महसूस कर रहे हैं. लोग सोच रहे थे कि एनडीए के छह सालों के शासन ने तो पीस डाला है, एक बार फिर से कांग्रेस को मौका दिया जाना चाहिए. कांग्रेस जीती भी. लेकिन आज, दस साल के बाद कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने तो पीस कर रख दिया, भाजपा को मौका दिया जाना चाहिए. हवाओं और लहरों की बड़ी चर्चा है. लेकिन इस व्याख्यान को इस नजर से भी पढ़ा जाना चाहिए, कि क्या भारत में होने वाले लगभग हरेक चुनाव इसी तरह की झूठी उम्मीदें बंधाते हुए नहीं लड़े जाते. हर बार एक दल उम्मीदें तोड़ता है और दूसरे से उम्मीदें बांध ली जाती हैं. अगला चुनाव (या बहुत हुआ तो उससे अगला या उससे अगला) चुनाव आते आते ये दल आपस में भूमिकाएं बदल लेते हैं- और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 6 अप्रैल 2004 को दिये गये आई.जी. खान स्मृति व्याख्यान का सम्पूर्ण आलेख है।[1] यह पहले हिन्दी में 23–24 अप्रैल 2004 कोहिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ (अनुवाद: जितेंद्र कुमार), और फिर अंग्रेजी में 25 अप्रैल 2004 को द हिन्दू में।

हाल ही में एक नौजवान कश्मीरी दोस्त मुझसे कश्मीर की जिन्दगी के बारे में बात कर रहा था। राजनैतिक भ्रष्टाचार और अवसरवाद के दलदल, सुरक्षा–बलों के बेरहम वहशीपन और हिंसा में डूबे समाज की अधूरी संक्रमणशील सीमाओं के बारे में बता रहा था, जहाँ आतंकवादी, पुलिस, खुफिया अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, व्यवसायी और पत्रकार भी एक–दूसरे के रू–ब–रू होते हैं और आहिस्ता–आहिस्ता एक–दूसरे में तब्दील हो जाते हैं। वह अन्तहीन खून–खराबे, लोगों के लगातार 'गायब'होने, फुसफुसाहटों, भय, अनसुलझी अफवाहों के बीच जीने के बारे में और जो सचमुच हो रहा है, जो कश्मीरी जानते हैं कि हो रहा है और जो हम बाकियों को बताया जाता है कि हो रहा है, इसकी आपसी असम्बद्धता के बीच जीने के बारे में बता रहा था। उसने कहा, 'पहले कश्मीर एक धन्धा था, अब वह पागलखाना बन चुका है।'

जितना अधिक मैं उसकी टिप्पणी के बारे में सोचती हूँ, उतना ही ज्यादा मुझे यह वर्णन पूरे हिन्दुस्तान के लिए उपयुक्त जान पड़ता है। यह मानते हुए कि कश्मीर और – मणिपुर, नगालैण्ड और मिजोरम के – उत्तर-पूर्वी राज्य उस पागलखाने के दो अलग-अलग खण्ड हैं जिनमें इस पागलखाने के ज्यादा खतरनाक वार्ड हैं। लेकिन, हिन्दुस्तान के बीचोबीच भी, जानकारी और सूचना के बीच, जो हम जानते हैं और जो हमें बताया जाता है उसके बीच, जो अज्ञात है और जिसका दावा किया जाता है उसके बीच, जिस पर पर्दा डाला जाता है और जिसका उद्घाटन किया जाता है उसके बीच, तथ्य और अनुमान के बीच, 'वास्तविक'दुनिया और आभासी दुनिया के बीच जो गहरी खाई है, वह ऐसी जगह बन गयी है जहाँ अन्तहीन अटकलों और सम्भावित पागलपन का साम्राज्य फैला हुआ है। एक जहरीला घोल है जिसे हिला–हिला कर खौलाया गया है और सबसे ज्यादा घिनौने, विध्वंसक राजनैतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया गया है।

हर बार जब कोई तथाकथित आतंकवादी हमला होता है, सरकार थोड़ी–बहुत या बिना किसी छानबीन के, इसकी जिम्मेवारी किसी के सर पर मढ़ने के लिए दौड़ पड़ती है। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी, संसद भवन पर 13 दिसम्बर 2001 का हमला या छत्तीसिंहपुरा (कश्मीर) में मार्च 2000 को तथाकथित आतंकवादियों द्वारा सिखों का जनसंहार इसके कुछ बड़ी–बड़ी मिसालें हैं। (वे तथाकथित आतंकवादी, जिन्हें बाद में सुरक्षा–बलों ने मार गिराया, बाद में निर्दोष साबित हुए। बाद में राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि खून के फर्जी नमूने डीएनए जाँच के लिए पेश किये गये थे।[2] इनमें से हर मामले में जो साक्ष्य सामने आये, उनसे बेहद बेचैन कर देने वाले सवाल उभरे और इसलिए मामले को फौरन ताक पर धर दिया गया। गोधरा का मामला लीजिए–जैसे ही घटना घटी, गृहमंत्री ने घोषणा की कि यह आई.एस.आई. का षड्यंत्र है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि यह पेट्रोल बम फेंक रहे मुसलमानों की भीड़ का काम था।[3] गम्भीर सवाल अनसुलझे रह जाते हैं। अटकलों का कोई अन्त नहीं है। हर आदमी जो जी चाहे मानता है, लेकिन घटना का इस्तेमाल संगठित साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के लिए किया जाता है।

11 सितम्बर के हमले की घटना के इर्द–गिर्द बुने गये झूठ और प्रपंच का उपयोग अमरीकी सरकार ने एक नहीं, बल्कि दो देशों पर हमला करने के लिए किया–और ऊपरवाला ही जाने आगे–आगे होता है क्या? भारत सरकार इसी रणनीति का इस्तेमाल करती है–दूसरे देशों के साथ नहीं, बल्कि अपने ही लोगों के खिलाफ।

पिछले एक दशक के अर्से में पुलिस और सुरक्षा–बलों द्वारा मारे गये लोगों की गिनती हजारों में है। हाल में मुम्बई के कई पुलिसवालों ने प्रेस के सामने खुले तौर पर स्वीकार किया कि अपने ऊँचे अधिकारियों के 'आदेश'पर उन्होंने कितने 'गैंगस्टरों'का सफाया किया।[4] आन्ध्र प्रदेश में औसतन एक साल में तकरीबन दो सौ 'चरमपन्थियों'की मौत 'मुठभेड़'में होती है।[5] कश्मीर में, जहाँ हालात लगभग जंग जैसे हैं, 1989 के बाद से अनुमानतः 80 हजार लोग मारे जा चुके हैं। हजारों लोग गायब हैं।[6] 'गुमशुदा लोगों के अभिभावक संघ' (एपीडीपी) के अनुसार अकेले 2003 में तीन हजार से अधिक लोग मारे गये हैं, जिनमें से 463 फौजी हैं।[7] 'अभिभावक संघ'के अनुसार अक्टूबर 2002 में जब से मुफ्ती मोहम्मद सरकार 'मरहम लगाने'के वादे के साथ सत्ता में आयी, तब से 54 लोगों की हिरासती मौत हुई है।[8] प्रखर राष्ट्रवाद के इस युग में जब तक मारे गये लोगों पर गैंगस्टर, आतंकवादी, राजद्रोही, या चरमपन्थी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है, उनके हत्यारे राश्ट्रीय हित के धर्मयोद्धाओं के तौर पर छुट्टा घूम सकते हैं और किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होते। अगर यह सच भी होता (जो कि निश्चय ही नहीं है) कि हर आदमी जो मारा गया है वह सचमुच गैंगस्टर, आतंकवादी, राजद्रोही, या चरमपन्थी था–तो यह बात हमें सिर्फ यही बताती है कि इस समाज के साथ कोई भयंकर गड़बड़ी है जो इतने सारे लोगों को ऐसे हताषा–भरे कदम उठाने पर मजबूर करता है।

भारतीय राज्य–व्यवस्था में लोगों को उत्पीड़ित और आतंकित करने की तरफ जो रुझान है उसे 'आतंकवाद निरोधक अधिनियम' (पोटा) को पारित करके संस्थाबद्ध और संस्थापित कर दिया गया है, जिसे दस राज्यों ने लागू भी कर दिया है। पोटा पर सरसरी निगाह डालने से भी यह पता चल जायेगा कि वह क्रूरतापूर्ण और सर्वव्यापी है। यह ऐसा अनगिनत फंदों वाला और सर्वसमावेशी कानून है जो किसी को भी अपनी गिरफ्त में ले सकता है–विस्फोटकों के जखीरे के साथ पकड़े गये अल–कायदा का कार्यकर्ता भी और नीम के नीचे बाँसुरी बजा रहा कोई आदिवासी भी। पोटा की हुनरमन्दी की खासियत यह है कि सरकार इसे जो बनाना चाहे, यह बन सकता है। जीने के लिए हम उनके मोहताज हैं जो हम पर राज करते हैं। तमिलनाडु में राज्य सरकार इसका इस्तेमाल अपनी आलोचना का दम घोंटने के लिए करती है।[9] झारखण्ड में 3200 लोगों को, जिनमें ज्यादातर गरीब आदिवासी हैं और जिन पर माओवादी होने का आरोप लगाया गया है, पोटा के तहत अपराधी ठहराया गया है।[10] पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस कानून का उपयोग उन लोगों के खिलाफ किया जाता है जो अपनी जमीन और आजीविका के अधिकार के हनन का विरोध करने की जुर्रत करते हैं।[11] गुजरात और मुम्बई में इसे लगभग पूरे तौर पर मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता र्है।[12] गुजरात में, 2002 के राज्य प्रायोजित जनसंहार के बाद, जिसमें अनुमानतः 2000 मुसलमान मारे गये और डेढ़ लाख बेघर कर दिये गये, 287 लोगों पर पोटा लगाया गया, जिनमें 286 मुसलमान और एक सिख है।[13] पोटा में इस बात की छूट दी गयी है कि पुलिस हिरासत में हासिल बयान कानूनी सबूत के तौर पर माने जा सकते हैं। हकीकतन, पोटा निजाम के तहत, पुलिसिया छानबीन की जगह पुलिस यातना ले लेती है। यह ज्यादा त्वरित, ज्यादा सस्ता है और शर्तिया नतीजे पैदा करने वाला है। अब कीजिए बात सरकारी खर्च घटाने की।

मार्च 2004 में, मैं पोटा पर हो रही जनसुनवाई में मौजूद थी।[14] दो दिनों तक लगातार हमने अपने इस अद्भुत लोकतन्त्र में हो रही घटनाओं की लोमहर्षक गवाहियाँ सुनीं। मैं यकीनन कह सकती हूँ कि हमारे पुलिस थानों में सब कुछ होता है–लोगों को पेशाब पीने पर मजबूर करने, उन्हें नंगा करने, जलील करने, बिजली के झटके देनें, सिगरेट के जलते हुए टोटों से जलाये जाने, गुदा में लोहे की छड़ें घुसेड़ने से ले कर पीटने और ठोकरें मार–मार कर जान ले लेने तक।

देश भर में पोटा के आरोपित सैकड़ों लोग, जिनमें कुछ बहुत छोटे बच्चे भी शामिल हैं, कैद करके जमानत के बिना, विशेष पोटा अदालतों में, जो जनता की छानबीन से परे हैं, सुनवाई के इन्तजार में हिरासत में रखे गये हैं। पोटा के तहत धरे गये अधिकतर लोग एक या दो अपराधों के दोषी हैं। या तो वे गरीब हैं–ज्यादातर दलित और आदिवासी। या फिर वे मुसलमान हैं। पोटा आपराधिक कानून की इस माने हुए नियम को उलट देता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक दोषी नहीं है, जब तक उसका अपराध सिद्ध नहीं हो जाता। पोटा के तहत आपको तब तक जमानत नहीं मिल सकती जब तक आप साबित नहीं कर देते कि आप निर्दोष हैं और वह भी उस अपराध के सिलसिले में जिसका औपचारिक आरोप आप पर नहीं लगाया गया है। सार यह है कि आपको यह साबित करना होगा कि आप निर्दोष हैं भले ही आपको उस अपराध का सान–गुमान भी न हो जो फर्जिया तौर पर आपने किया है। और यह हम सब पर लागू होता है। तकनीकी तौर पर हम एक ऐसा राष्ट्र हैं, अपराधी ठहराये जाने का इन्तजार कर रहा है।

यह मानना भोलापन होगा कि पोटा का 'दुरुपयोग'हो रहा है। इसके विपरीत इसका इस्तेमाल ठीक–ठीक उन्हीं कारणों से किया जा रहा है, जिसके लिए यह बनाया गया था। असल में तो अगर मलिमथ समिति की सिफारिशों को लागू किया जाये तो पोटा जल्दी ही बेकार हो जायेगा। मलिमथ समिति ने सिफारिश की है कि किन्हीं सन्दर्भों में सामान्य आपराधिक कानून को पोटा के प्रावधानों के मुताबिक ढाला जाय।[15] इसके बाद कोई अपराधी नहीं रहेगा, सिर्फ आतंकवादी होंगे, साफ-सुथरा हल है, झंझट बचेगा।

जम्मू–कश्मीर और अनेक पूर्वोत्तर राज्यों में आज 'सैन्य बल विशेष अधिकार अधिनियम'न केवल सेना के अफसरों और कमीशन–प्राप्त जूनियर अधिकारियों को, बल्कि गैर–कमीशन–प्राप्त जूनियर अधिकारियों को भी किसी व्यक्ति पर हथियार रखने या कानून–व्यवस्था में गड़बड़ी फैलाने के सन्देह में बल–प्रयोग (यहाँ तक कि मार भी डालने) की इजाजत देता है।[16] सन्देह में! किसी भी भारतवासी को इस बारे में कोई भ्रम नहीं हो सकता कि इसका क्या मतलब होता है। सुरक्षा बलों द्वारा यातना, गुमशुदगी, हिरासत में मौत, बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की जो घटनाएँ दर्ज की गयी हैं, वे आपका खून जमा देने के लिए पर्याप्त हैं। इस सब के बावजूद, अगर हिन्दुस्तान को अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी और खुद अपने मध्यवर्ग के बीच एक वैध लोकतन्त्र की छवि बनाये रखने में सफल है, तो यह एक जीत ही है।

'सैन्य बल विशेष अधिकार अधिनियम'उस अधिनियम का और भी कठोर प्रारूप है, जिसे लॉर्ड लिनलिथगो ने भारत छोड़ो आन्दोलन से निपटने के लिए 15 अगस्त 1942 को पारित किया था। 1958 में इसे मणिपुर के कुछ हिस्सों में लागू किया गया, जिन्हें 'अशांत क्षेत्र'घोषित किया गया था। 1965 में पूरा मिजोरम, जो तब असम का हिस्सा था, 'अशांत'घोशित कर दिया गया। 1972 में इस अधिनियम के तहत त्रिपुरा भी आ गया। और 1980 के आते–आते पूरे मणिपुर को 'अशांत'घोषित कर दिया गया।[17] इससे ज्यादा और कौन–से सबूत चाहिए कि दमनकारी कदम उल्टा नतीजा देते हैं और समस्या को सुलझाने के बजाय उलझा देते हैं?

लोगों का उत्पीड़न करने और उनका सफाया कर देने की इस अशोभन उत्सुकता के साथ–साथ भारतीय राज्य–व्यवस्था में उन मामलों की छानबीन करके उन्हें अदालतों तक पहुँचाने न्याय देने की लगभग प्रकट अनिच्छा भी दिखाई देती है, जिनमें भरपूर साक्ष्य मौजूद हैं: 1984 में दिल्ली में तीन हजार सिखों का संहार, 1993 में मुम्बई में और 2002 में गुजरात में मुसलमानों का संहार (आज तक किसी को सजा नहीं), कुछ साल पहले जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर की हत्या, 12 वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शंकर गुहा नियोगी की हत्या–इसके चन्द उदाहरण हैं।[18] जब पूरी राज्य मशीनरी ही आपके खिलाफ खड़ी हो, तो चश्मदीद गवाहियाँ और ढेर सारे प्रामाणिक सबूत तक नाकाफी हो जाते हैं।

इस बीच, बड़ी पूँजी से निकलने वाले अखबारों में उल्लसित अर्थषास्त्री हमें बताते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर अभूतपूर्व है, अप्रत्याशित है। दुकानें सामानों से अटी पड़ी हैं। सरकारी गोदाम अनाज से भरे हुए हें। इस चकाचौंध से बाहर कर्ज में डूबे किसान सैकड़ों की तादाद में आत्म–हत्या कर रहे हैं।[19] देश भर से भुखमरी और कुपोषण की खबरें आ रही हैं, फिर भी सरकार ने अपने गोदामों में 6 करोड़, 30 लाख टन अनाज सड़ने दिया।[20] एक करोड़ 20 लाख टन अनाज निर्यात करके घटायी गयी दरों पर बेचा गया जिन दरों पर भारत सरकार भारत के गरीब लोगों को नहीं देना चाहती थी।[21] सुप्रसिद्ध कृषि अर्थषास्त्री उत्सा पटनायक ने सरकारी आँकड़ों के आधार पर भारत में तकरीबन सौ वर्षों की अन्न उपलब्धता और अन्न की खपत की गणना की है। उन्होंने हिसाब लगाया है कि 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों और 2001 के बीच वार्षिक अन्न उपलब्धता घट कर द्वितीय विश्वयुद्ध के वर्षों से भी कम हो गयी है, जिनमें बंगाल के अकाल वाले वर्ष शामिल हैं, जिसमें 30 लाख लोगों ने भुखमरी से जानें गँवा दी थीं।[22] जैसा कि हम प्रोफेसर अमर्त्य सेन की कृतियों से जानते हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भूख से हुई मौतों को अच्छी नजर से नहीं देखतीं। इस पर 'स्वतंत्र समाचार माध्यमों'में नकारात्मक टीका–टिप्पणी और आलोचना होने लगती है।[23]

लिहाजा, कुपोषण और स्थायी भुखमरी के खतरनाक स्तर आजकल पसन्दीदा आदर्श हैं। तीन साल से कम उम्र के 47 फीसदी हिन्दुस्तानी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और 46 फीसदी की विकास रुक गया है।[24] उत्सा पटनायक अपने अध्ययन में बतलाती है कि भारत के लगभग 40 फीसदी ग्रामवासियों की अन्न की खपज उतनी ही है जितनी कि उप–सहारा अफ्रीका के लोगों की खाते हैं।[25] आज ग्रामीण भारत में एक औसत परिवार हर साल 1990 के दशक के आरम्भिक वर्षों की तुलना में 100 किग्रा कम अनाज खाते हैं।[26] 

लेकिन भारत के शहरों में, जहाँ कहीं भी आप जायें–दुकान, रेस्टोरेंट, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, जिम्नेजियम, हॉस्पिटल–हर जगह आपके सामने टीवी के पर्दे होंगे, जिनपर चुनावी वादों के पूरे हो चुके दिखेंगे। भारत चमक रहा है, 'फील गुड'कर रहा है। आपको महज किसी की पसलियों पर पुलिसवाले के बूटों की धमक पर अपने कान बन्द करने हैं, महज गन्दगी, झोपड़–पट्टियों, सड़कों पर चीथड़ों में जर्जर टूटे हुए लोगों से अपनी निगाहें हटानी हैं और उन्हें टीवी के किसी दोस्ताना पर्दे पर डालनी हैं, और आप उस दूसरी खूबसूरत दुनिया में दाखिल हो जायेंगे। बॉलीवुड की हरदम ठुमके लगाती, कमर मटकाती, नाचती–गाती दुनिया, तिरंगा फहराते और 'फील गुड'करते, स्थायी रूप से साधन–सम्पन्न और हरदम खुश हिन्दुस्तानियों की दुनिया। दिनों–दिन यह कहना मुश्किल होता जा रहा है कि कौन–सी दुनिया असली है और कौन–सी दुनिया आभासी। पोटा जैसे कानून टेलीविजन स्विच के मानिन्द हैं। आप इनका प्रयोग गरीब, तंग करने वाले, अवांछित लोगों को पर्दे पर से हटाने के लिए कर सकते हैं।

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भारत में एक नये तरह का अलगाववादी आन्दोलन चल रहा है। क्या इसे हम 'नव–अलगाववाद'कहें? यह 'पुराने अलगाववाद'का विलोम है। इसमें वे लोग जो वास्तव में एक बिलकुल दूसरी अर्थ–व्यवस्था, बिलकुल दूसरे देश, बिलकुल दूसरे ग्रह के वासी हैं, यह दिखावा करते हैं कि वे इस दुनिया का हिस्सा हैं। यह ऐसा अलगाव है जिसमें लोगों का अपेक्षाकृत छोटा तबका लोगों के एक बड़े समुदाय से सब कुछ– जमीन, नदियाँ, पानी, स्वाधीनता, सुरक्षा, गरिमा, विरोध के अधिकार समेत बुनियादी अधिकार–छीन कर अत्यन्त समृद्ध हो जाता है। यह रेखीय, क्षेत्रीय अलगाव नहीं है, बल्कि ऊपर को उन्मुख अलगाव है। असली ढाँचागत समायोजन जो 'इंडिया शाइनिंग'को, 'भारत उदय'को भारत से अलग कर देता है। यह इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को सार्वजनिक उद्यम वाले भारत से अलग कर देता है।

यह ऐसा अलगाव है जिसमें सार्वजनिक तन्त्र, उत्पादक सार्वजनिक सम्पदा, पानी, बिजली, परिवहन, दूरसंचार, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा, प्राकृतिक संसाधन–वह सारी सम्पदा जिसे, यह माना जाता है कि, जनता की नुमाइन्दगी करने वाले भारतीय राज्य को धरोहर की तरह सँजो कर रखना चाहिए, वह सम्पदा जिसे दशकों के अर्से में सार्वजनिक धन से निर्मित किया और सुरक्षित रखा गया है–उसे राज्य निजी निगमों को बेच देता है। भारत में 70 प्रतिशत आबादी–70 करोड़ लोग–ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है।[27] उनकी आजीविका प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। इन्हें उनसे छीन लेना और थोक में निजी कम्पनियों को बेचना बर्बर पैमाने पर बेदखल करने और कंगाल बना देने की शुरुआत है।

इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड कुछेक व्यापारिक घरानों और बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जागीर बनने की ओर बढ़ रहा है। इन कम्पनियों के प्रमुख कार्याधिकारी (सीईओ) इस देश को, इसके तन्त्र और इसके संसाधनों, इसके संचार माध्यमों और पत्रकारों के नियन्ता होंगे। लेकिन जनता के प्रति उनकी देनदारी शून्य होगी। वे पूरी तरह से–कानूनी, सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक रूप से–जवाबदेही से बरी होंगे। जो लोग कहते हैं कि भारत में कुछ प्रमुख कार्याधिकारी प्रधानमन्त्री से ज्यादा ताकतवर हैं, वे जानते हैं कि वे क्या कह रहे हैं।

इस सब के आर्थिक आशयों से बिलकुल अलग, भले ही यह वह सब हो जिसका गुण–गान होता है (जो यह नहीं है)–चमत्कारिक, कार्यकुशल, अद्भुत–क्या इसकी राजनीति हमें स्वीकार है? अगर भारतीय राज्य अपनी जिम्मेदारियों को मुट्ठी भर निगमों के यहाँ गिरवी रखने का फैसला करता है तो क्या इसका मतलब यह है कि चुनावी लोकतन्त्र की रंगभूमि पूरी तरह अर्थहीन है? या अब भी इसकी कोई भूमिका रह गयी है?

'मुक्त बाजार' (जो दरअसल मुक्त होने से कोसों दूर है) को राज्य की जरूरत है और बेतरह जरूरत है। गरीब देशों में जैसे–जैसे अमीर और गरीब लोगों के बीच असमानता बढ़ती जाती है, राज्य का काम भी बढ़ता जाता है। अकूत मुनाफा देने वाले 'प्यारे सौदों'की गश्त पर निकली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकासशील देशों में राज्य मशीनरी की साँठ–गाँठ के बिना इन सौदों को तय नहीं कर सकतीं, न इन परियोजनाओं को चला सकती हैं। आज कॉर्पोरेट भूमण्डलीकरण को गरीब देशों में वफादार, भ्रष्ट, सम्भव हो तो निरंकुश सरकारों के अन्तर्राष्ट्रीय संघ की जरूरत है ताकि अलोकप्रिय सुधार लागू किये जा सकें और विद्रोह कुचले जा सकें। इसे कहा जाता है 'निवेश का अच्छा माहौल बनाना।' 

जब हम वोट डालते हैं, तब हम चुनते हैं कि राज्य की उत्पीड़नकारी दमनकारी शक्तियाँ हम किस पार्टी के हवाले करना चाहेंगे।

फिलहाल भारत में हमें नव–उदारवादी पूंजीवाद और साम्प्रदायिक नव–फासीवाद की, एक–दूसरी को काटती, खतरनाक धाराओं के बीच से रास्ता बनाना है। जहाँ 'पूँजीवाद'शब्द की चमक अभी फीकी नहीं पड़ी है, वहीं 'फासीवाद'शब्द का इस्तेमाल अक्सर लोगों को खिझा देता है। हमें अपने आप से पूछना होगा: क्या हम इस शब्द का सटीक प्रयोग कर रहे हैं? क्या हम परिस्थिति को बढ़ा–बढ़ा कर देख रहे हैं? क्या हमारे रोजमर्रा के अनुभव फासीवाद सरीखे हैं? 

जब कोई सरकार कमोबेश खुले–आम ऐसे जनसंहार का समर्थन करती है जिसमें किसी एक अल्पसंख्यक समुदाय के दो हजार लोग बर्बरतापूर्वक मार दिये जाते हैं, तो क्या यह फासीवाद है? जब उस समुदाय की औरतों के साथ सरे–आम बलात्कार होता है और उन्हें जिन्दा जला दिया जाता है, तो क्या यह फासीवाद है? जब सर्वोच्च सत्ता इस बात की गारण्टी करती है कि किसी को इन अपराधों की सजा न मिले, तो क्या यह फासीवाद है? जब डेढ़ लाख लोग अपने घरों से खदेड़ दिये जाते हैं, दड़बों में बन्द कर दिये जाते हैं और आर्थिक और सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिये जाते हैं, तो क्या यह फासीवाद है? जब देश भर में नफरत के शिविर चलाने वाला सांस्कृतिक गिरोह, प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, कानूनमन्त्री, विनिवेशमन्त्री की प्रशंसा और सम्मान का पात्र बन जाता है, तो क्या यह फासीवाद है? जब विरोध करने वाले चित्रकारों, लेखकों, विद्वानों और फिल्म–निर्माताओं को गाली दी जाती है, उन्हें धमकाया जाता है और उनकी कृतियों को जलाया, प्रतिबन्धित और नष्ट किया जाता है, तो क्या यह फासीवाद है?[28] जब सरकार एक फरमान जारी करके स्कूलों की इतिहास की पाठ्य–पुस्तकों में मनमाने परिवर्तन कराती है, तो क्या यह फासीवाद है? जब भीड़ प्राचीन ऐतिहासिक दस्तावेजों के अभिलेखागार पर आक्रमण करती है और उसमें आग लगा देती है, जब हर छुटभैया नेता पेशेवर मध्यकालीन इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता होने का दावा करता है, जब कष्ट साध्य विद्वत्ता को आधारहीन लोकप्रिय दावेदारी के बल पर खारिज कर दिया जाता है, तो क्या यह फासीवाद है?[29] जब हत्या, बलात्कार, आगजनी और भीड़ के न्याय को सत्ताधारी पार्टी और उससे दाना–पानी पाने वाले बौद्धिकों का गिरोह सदियों पहले की गयी वास्तविक या झूठी ऐतिहासिक गलतियों का समुचित प्रतिकार कह कर जायज ठहराता है, तो क्या यह फासीवाद है? जब मध्यवर्ग और ऊँचे तबके के लोग एक क्षण को रुक कर च्च–च्च करते हैं और मजे से फिर अपनी जिन्दगी में रम जाते हैं, तो क्या यह फासीवाद है? जब इस सबकी सरपरस्ती करनेवाले प्रधानमन्त्री को राजनीतिज्ञ और भविष्य द्रष्टा कह कर उसकी जय–जयकार की जाती है तब क्या हम भरे–पूरे फासीवाद की बुनियाद नहीं रख रहे होते?

उत्पीड़ित और पराजित लोगों का इतिहास बहुत हद तक अनलिखा रह जाता है–यह सच्चाई सिर्फ सवर्ण हिन्दुओं पर लागू नहीं होती। अगर ऐतिहासिक भूलों को सुधारने के राजनैतिक रास्ते पर चलना ही हमारा चुना हुआ रास्ता है तो निश्चय ही भारत के दलितों और आदिवासियों को हत्या, आगजनी और बेलगाम कहर बरपा करने का अधिकार है? 

रूस में कहा जाता है कि अतीत अनुमान से परे है। भारत में, स्कूली पाठ्य–पुस्तकों के साथ हुई छेड़–छाड़ के अनुभव से हम जानते हैं कि यह बात कितनी सच है। अब सभी 'छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी'बस यही उम्मीद लगाये रखने की हालत में पहुँचा दिये गये हैं कि बाबरी मस्जिद खुदाई में पुरातत्व–विदों को राम मन्दिर का कोई अवशेष नहीं मिलेगा। अगर यह सच भी हो कि भारत की हर मस्जिद के नीचे कोई–न–कोई मन्दिर है तो फिर मन्दिर के नीचे क्या था? शायद किसी और देवी–देवता का कोई और हिन्दू मन्दिर। शायद कोई बौद्ध स्तूप। बहुत करके कोई आदिवासी समाधि। इतिहास सवर्ण हिन्दूवाद से शुरू नहीं हुआ, हुआ था क्या? कितना गहरे हम खोदेंगे? कितना उलटेंगे–पलटेंगे। ऐसा क्यों हुआ कि एक तरफ मुसलमान जो सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से इस देश का अटूट अंग है, बाहरी और आक्रमणकारी कहे जाते हैं और क्रूरता से निशाना बनाये जाते हैं, जबकि सरकार विकास अनुदान के लिए ठेकों और कॉर्पोरेट सौदों पर उस हुकूमत के साथ करार करने में व्यस्त है जिसने सदियों तक हमें गुलाम बनाये रखा। 1876 से 1902 के बीच, भयंकर अकालों के दौरान लाखों हिन्दुस्तानी भूख से मर गये, जबकि अंग्रेज सरकार राशन और कच्चे माल का निर्यात करके इंग्लैण्ड भेजती रही। ऐतिहासिक तथ्य मरने वालों की संख्या सवा करोड़ से तीन करोड़ के बीच बताते हैं।[30] बदला लेने की राजनीति में इस संख्या की भी तो कोई जगह होनी चाहिए। नहीं होनी चाहिए क्या? या फिर प्रतिशोध का मजा तभी आता है जब उसके शिकार कमजोर और अशक्त हों और आसानी से निशाना बनाये जा सकते हों?

फासीवाद को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। और इतनी ही कड़ी मेहनत 'निवेश का बेहतर माहौल बनाने'के लिए करनी पड़ती है। क्या दोनों साथ–साथ बेहतर काम करते हैं? ऐतिहासिक रूप से, कॉर्पोरेशनों को फासीवाद से किसी तरह से गुरेज नहीं रहा है। सीमेन्स, आई.जी. फारबेन, बेयर, आईबीएम और फोर्ड ने नाजियों के साथ व्यापार किया था।[31] हमारे पास भी बिलकुल हाल का उदाहरण सीआईआई (कनफेडेरेशन ऑफ इण्डियन इण्डस्ट्री, भारतीय उद्योग संघ) का है, जिसने 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद राज्य सरकार के आगे घुटने टेक दिये थे।[32] जब तक हमारे बाजार खुले है, एक छोटा–सा घरेलू फासीवाद अच्छे सौदे के रास्ते में रुकावट नहीं बनेगा।

यह दिलचस्प है कि जिस समय तत्कालीन वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह भारत के बाजार को नव–उदारवाद के लिए तैयार कर रहे थे, लगभग उसी समय लालकृष्ण आडवानी साम्प्रदायिक उन्माद को हवा देते हुए और हमें नव-फासीवाद के लिए तैयार करते हुए अपनी पहली रथ-यात्रा पर निकले हुए थे।[33] दिसम्बर 1992 में उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद को तहस–नहस कर दिया। 1993 में महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार ने एनरॉन के साथ बिजली खरीद के सौदे पर हस्ताक्षर किये। यह भारत में पहली निजी बिजली परियोजना थी। एनरॉन समझौता विध्वसंक साबित होने के बावजूद भारत में निजीकरण के युग की शुरुआत कर गया।[34] अब जब कांग्रेस चारदीवारी पर बैठ कर रिरिया रही है, भारतीय जनता पार्टी ने उसके हाथ से मशाल छीन ली है। सरकार के दोनों हाथ मिल कर अभूतपूर्व जुगलबन्दी कर रहे हैं। एक थोक के भाव देश बेचने में व्यस्त है, जबकि दूसरा ध्यान बँटाने के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कर्कश, बेसुरा राग अलाप रहा है। पहली प्रक्रिया की भयावह निर्ममता दूसरी प्रक्रिया के पागलपन में सीधे जा मिलती है।

आर्थिक रूप से भी यह जुगलबन्दी एक कारगर नमूना है। मनमाने निजीकरण से पैदा होनेवाले अकूत मुनाफों (और 'इण्डिया शाइनिंग'की कमाई) का एक हिस्सा हिन्दुत्व की विशाल सेना–आर.एस.एस., विहिप, बजरंग दल और बेशुमार दूसरी खैराती संस्थाओं और ट्रस्टों को मदद पहुँचाता है जो स्कूल, अस्पताल और सामाजिक सेवाएँ चलाते हैं। देश भर में इन संगठनों की दसियों हजार शाखाएँ फैली हुई हैं। जिस नफरत का उपदेश ये वहाँ देते हैं, वह पूँजीवादी भूमण्डलीकरण के हाथों निरन्तर बेदखली और दरिद्रता का शिकार लोगों की अनियन्त्रित कुण्ठा से मिल कर गरीबों द्वारा गरीबों के विरुद्ध हिंसा को जन्म देती है। यह इतना कारगर पर्दा है जो सत्ता के तन्त्र को सुरक्षित और चुनौतीरहित बनाये रखता है।

बहरहाल, जनता की हताशा को हिंसा में बदल देना ही हमेशा काफी नहीं होता। 'निवेश का अच्छा माहौल'बनाने के लिए राज्य को अक्सर सीधा हस्तक्षेप भी करना पड़ता है। हाल के वर्षों में, पुलिस ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों में शामिल लोगों पर, जिनमें ज्यादातर आदिवासी थे, कई बार गोलियाँ चलायी हैं। झारखण्ड में नगरनार; मध्यप्रदेश में मेंहदी खेड़ा; गुजरात में उमर गाँव; उड़ीसा में रायगढ़ और चिल्का और केरल में मुतंगा में लोग मारे गये हैं। लोग वन भूमि में अतिक्रमण करने के लिए मारे जाते हैं और उस समय भी जब वे बाँधों, खदान खोदने वालों और इस्पात के कारखानों से वनों की रक्षा कर रहे होते हैं। दमन–उत्पीड़न चलता ही रहता है, चलता ही रहता है। जम्बुद्वीप टापू, बंगाल; मैकंज ग्राम, उड़ीसा। पुलिस द्वारा गोली चलाने की लगभग हर घटना में जिन पर गोली चलायी गयी होती है उन्हें फौरन उग्रवादी करार दे दिया जाता है।]35]

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जब उत्पीड़ित जन उत्पीड़ित होने से इन्कार कर देते हैं तब उन्हें आतंकवादी कह दिया जाता है और उनके साथ वैसा ही सलूक होता है। आतंक के विरुद्ध युद्ध के इस युग में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में 181 देशों ने इस साल मतदान किया। अमरीका तक ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया। भारत मतदान से बाहर रहा।[36] मानवाधिकार पर चैतरफा हमले के लिए मंच तैयार किया जा रहा है।

इस हालत में, आम लोग एक अधिकाधिक हिंसक होते राज्य के हमलों का मुकाबला कैसे करें?

अहिंसक सिविल नाफरमानी की जगह सिकुड़ गयी है। अनेक वर्षों तक संघर्ष करने के बाद कई जन प्रतिरोध आन्दोलनों की राह बन्द हो गयी है और वे अब ठीक ही महसूस कर रहे हैं कि दिशा बदलने का वक्त आ गया है। वह दिशा क्या होगी, इस पर गहरे मतभेद हैं। कुछ लोगों का मानना है कि हथियारबन्द संघर्ष ही एकमात्र रास्ता बचा है। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़ कर, जमीन की विशाल पट्टियाँ, झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के पूरे–पूरे जिले उन लोगों के नियन्त्रण में हैं जो इस विचार के हामी हैं।[37] दूसरों ने अधिकाधिक मात्रा में यह मानना शुरू कर दिया है कि उन्हें चुनावी राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए–व्यवस्था के भीतर घुस कर अन्दर से उसको बदलने की कोशिश करनी चाहिए। (क्या यह कश्मीरी अवाम के सामने मौजूद विकल्पों जैसी नहीं है?) याद रखने की बात यह है कि जहाँ दोनों के तरीके मूल रूप से अलग–अलग हैं, वहीं दोनों एक बात पर सहमत हैं कि अगर इसे मोटे शब्दों में कहें तो अब बहुत हो गया। या बास्ता।

भारत में इस समय ऐसी कोई बहस नहीं हो रही, जो इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसका नतीजा, देश के जीवन को बदल कर रख देगा–चाहे बेहतरी की तरफ बदले, चाहे बदतरी की तरफ। अमीर, गरीब, शहरी, ग्रामीण–हरेक के लिए। 

हथियारबन्द संघर्ष राज्य की ओर से की गयी हिंसा को बड़े पैमाने पर उकसा देता है। कश्मीर और समूचे पूर्वोत्तर राज्यों को इसने जिस दलदल की ओर धकेल दिया है, उसे हमने देख लिया है। तो हम क्या वहीं करें, जो प्रधानमन्त्री की सलाह है कि हमें करना चाहिए? विरोध छोड़ दें और चुनावी राजनीति के अखाड़े में दाखिल हो जायें? रोड शो में शामिल हो जायें? निरर्थक गाली–गलौज के कर्कश आदान–प्रदान में भाग लें, जिसका एकमात्र उद्देश्य उस मिली–भगत और सम्पूर्ण सहमति पर पर्दा डालना है जो तकरार में जुटे इन लोगों के बीच वैसे पहले से ही लगभग पूरी तरह मौजूद है? हमें भूलना नहीं चाहिए कि हर महत्वपूर्ण मुद्दे–परमाणु बम, बड़े बाँध, बाबरी मस्जिद विवाद और निजीकरण–पर बीज कांग्रेस ने बोये और फिर भाजपा ने उसकी घिनौनी फसल काटने के लिए सत्ता सँभाली।

इसका यह मतलब नहीं है कि संसद का कोई महत्व नहीं है और चुनावों को नजरअन्दाज कर देना चाहिए। अलबत्ता, एक फासीवादी प्रवृत्ति वाली खुल्लम–खुल्ला साम्प्रदायिक पार्टी और एक अवसरवादी साम्प्रदायिक पार्टी के बीच सचमुच अन्तर है। निश्चय ही, जो राजनीति खुले तौर पर गर्व के साथ नफरत का प्रचार करती है, उसमें और काँइयेपन से लोगों को आपस में लड़ाने वाली राजनीति में सचमुच अन्तर है।

लेकिन यह सही है कि एक की विरासत ने ही हमें दूसरी की भयावहता तक पहुँचाया है। इन दोनों ने मिल कर उस वास्तविक विकल्प को क्षरित कर दिया है जो संसदीय लोकतन्त्र में मिलना चाहिए। चुनावों के गिर्द रचा गया उन्माद और मेले–ठेले का माहौल संचार माध्यमों में केन्द्रीय स्थान इसलिए ले लेता है, क्योंकि हर आदमी पक्के तौर पर जानता है कि जीते चाहे जो कोई, यथास्थिति मूल रूप से कतई नहीं बदलने जा रही है। (संसद में जोरदार बहस–मुबाहसे और आवेग–भरे भाषणों के बाद भी पोटा को हटाने की प्राथमिकता किसी पार्टी के चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं बनी। वे सभी यह जानते हैं कि उन्हें इसकी जरूरत है, इस रूप में या उस रूप में)।[38] चुनाव के दौरान या विपक्ष में रहते हुए वे जो भी कहें, केन्द्र या राज्य की कोई भी सरकार, कोई भी राजनैतिक दल–दक्षिणपन्थी, वामपन्थी, मध्यमार्गी या हाशिये का–नव–उदारवाद के अश्वमेध के घोड़े को नहीं पकड़ सका है। 'भीतर'से कोई क्रान्तिकारी बदलाव नहीं आयेगा।

व्यक्तिगत रूप से मैं नहीं मानती कि चुनावी अखाड़े में उतरना वैकल्पिक राजनीति का रास्ता है। ऐसा किसी किस्म के मध्यवर्गीय नकचढ़ेपन के कारण नहीं–कि 'राजनीति गन्दी चीज है'या 'सभी नेता भ्रष्ट हैं'–बल्कि इसलिए कि मेरा मानना है कि महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ कमजोर जगहों से नहीं, बल्कि मजबूत जगहों से लड़ी जानी चाहिए।

नव–उदारवाद और साम्प्रदायिक फासीवाद के दोहरे हमले का निशाना गरीब और अल्पसंख्यक समुदाय बन रहे हैं। जैसे–जैसे नव–उदारवाद गरीब और अमीर के बीच, 'इण्डिया शाइनिंग'और भारत के बीच खाई को चौड़ा करता जा रहा है, वैसे–वैसे मुख्यधारा की किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए गरीब और अमीर दोनों के हितों का प्रतिनिधित्व करने का नाटक करना अधिकाधिक हास्यास्पद होता जा रहा है, क्योंकि एक के हितों का प्रतिनिधित्व दूसरे की कीमत पर किया जा सकता है। सम्पन्न भारतीय के नाते मेरे 'हित' (अगर मैं साधने की सोचूँ तो) आन्ध्र प्रदेश के गरीब किसानों के हितों से मुश्किल से ही मेल खायेंगे।

गरीबों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनैतिक पार्टी गरीब पार्टी होगी। उसके पास धन की बहुत कमी होगी। आजकल बिना धन के चुनाव लड़ना सम्भव नहीं है। कुछेक मशहूर सामाजिक कार्यकर्ताओं को संसद में भेज देना तो दिलचस्प है, लेकिन राजनैतिक रूप से सार्थक नहीं है। यह प्रक्रिया इस लायक नहीं है कि उसमें अपनी सारी उर्जा खपा दी जाए। व्यक्तिगत करिश्मा, व्यक्तित्व की राजनीति क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं ला सकती।

लेकिन गरीब होना कमजोर होना नहीं हैं। गरीबों की ताकत सरकारी इमारतों या अदालती दरवाजों के भीतर नहीं है। वह तो बाहर, खेतों, पहाड़ों, घाटियों, सड़कों और इस देश के विश्वविद्यालयों के परिसरों में है। वहीं बातचीत करनी चाहिए। वहीं लड़ाई छेड़ी जानी चाहिए।

अभी तो ये जगहें दक्षिणपन्थी हिन्दू राजनीति के हवाले कर दी गयी हैं। उनकी राजनीति के बारे में आपके विचार जो भी हों, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वे इन जगहों पर मौजूद हैं और कड़ी मेहनत कर रहे हैं। जैसे–जैसे राज्य अपनी जिम्मेवारियों से मुँह मोड़ कर स्वास्थ्य, शिक्षा और आवष्यक सार्वजनिक सेवाओं को आर्थिक संसाधन देना बन्द करता जा रहा है, वैसे–वैसे संघ परिवार के सिपाही उन क्षेत्रों में दाखिल होते गये हैं। घातक प्रचार करती अपनी हजारों शाखाओं के साथ–साथ वे स्कूल, हस्पताल, दवाखाने, एम्बुलेंस सेवाएँ, दुर्घटना राहत निकाय भी संचालित करते हैं। वे शक्तिहीनता के बारे में जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि लोगों, खासकर शक्तिहीन लोगों की न सिर्फ रोजमर्रा की, सीधी–साधी व्यावहारिक जरूरतें होती हैं, बल्कि उनकी भावनात्मक, आध्यात्मिक, मनोरंजनपरक आवश्यकताएँ और इच्छाएँ भी होती हैं। उन्होंने ऐसी घिनौनी कुठाली बनायी है जिसमें गुस्सा, हताशा, रोजमर्रा की जिल्लत– और बेहतर भविष्य के सपने–सब एक साथ पसाये जा सकते हैं और खतरनाक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं। इस बीच, परम्परागत मुख्यधारा का वामपन्थ अब भी 'सत्ता हथियाने'के सपने देख रहा है, लेकिन समय की पुकार को सुनने और कदम उठाने के सिलसिले में अजीब कड़ापन और अनिच्छा प्रदर्शित कर रहा है। वह अपनी ही घेरेबन्दी का शिकार हो गया है और पहुँच से बाहर ऐसे बौद्धिक स्थान में सिमट गया है जहाँ प्राचीन बहसें ऐसी आदिकालीन भाषा में चलायी जा रही हैं, जिसे नाममात्र के लोग ही समझ सकते हैं।

संघ परिवार के हमले के सामने चुनौती का थोड़ा–बहुत आभास पेश करने वाली एकमात्र ताकत वो जमीनी प्रतिरोध आन्दोलन हैं, जो छिटपुट तौर पर पूरे देश में चल रहे हैं और 'विकास'के प्रचलित नमूने के कारण हो रही बेदखली और मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ लड़ रहे हैं। इनमें से अधिकांश आन्दोलन एक–दूसरे से अलग–थलग हैं और 'विदेशी पैसे पानेवाले एजेण्ट'होने के निरन्तर आरोप के बावजूद, उनके पास पैसे या संसाधन नहीं हैं। वे आग से जूझने वाले महान योद्धा हैं। उनकी पीठ दीवार से सटी हुई है; लेकिन उनके कान धरती की धड़कन सुनते हैं; वे जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं। अगर वे इकट्ठा हो जायें, अगर उनकी मदद की जाये, तो वे बड़ी ताकत बन सकते हैं। उनकी लड़ाई को, जब भी वह लड़ी जायेगी, आदर्शवादी लड़ाई होना होगा, कठोर विचारधारात्मक नहीं।

ऐसे समय, जब अवसरवाद की तूती बोल रही है, जब उम्मीद दम तोड़ती लग रही है, जब हर चीज रूखी–सूखी सौदेबाजी हो गयी है, हमें सपने देखने का साहस जुटाना होगा। रोमांस पर फिर से दावेदारी करनी होगी। न्याय में, स्वतन्त्रता में और गरिमा में विश्वास का रोमांस। सबके लिए। हमें एकजुट हो कर लड़ाई लड़नी होगी और उसके लिए हमें समझना होगा कि यह दैत्याकार पुरानी मशीन कैसे काम करती है। कौन कीमत चुकाता है, किसे फायदा होता है।

देश भर में छिटपुट चलने वाले और अलग–अलग मुद्दों की लड़ाई अकेले लड़ने वाले अनेक प्रतिरोध आन्दोलनों ने समझ लिया है कि उनकी किस्म की विशेष हित वाली राजनीति, जिसका कभी समय और जगह थी, अब काफी नहीं है। चूँकि अब वे हाशिये पर आ गये हैं, इसलिए अहिंसक प्रतिरोध की रणनीति से मुँह मोड़ लिया जाय, यह मुनासिब नहीं होगा। लेकिन यह गम्भीर आत्म–निरीक्षण करने की जरूरत की तरफ इशारा करता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम लोग जो लोकतन्त्र को फिर से हासिल करना चाहते हैं, वे अपने चाल–चलन और काम करने के तरीके में समतावादी और जनतान्त्रिक हैं। अगर हमारे संघर्ष को उन आदर्शों पर खरा उतरना है तो हमें उन अन्दरूनी नाइन्साफियों को खत्म करना होगा जो हम दूसरों पर ढाते हैं, महिलाओं पर ढाते हैं, बच्चों पर ढाते हैं। मिसाल के लिए जो साम्प्रदायिकता से लड़ रहे हैं, उन्हें आर्थिक अन्याय पर आँख नहीं बन्द करनी चाहिए। जो लोग बड़े बाँध या विकास की परियोजनाओं के खिलाफ लड़ रहे हैं, उन्हें साम्प्रदायिकता से या अपने क्षेत्र में जातीय दमन से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए, भले ही तात्कालिक रूप से उन्हें अपनी फौरी मुहिम में कुछ नुकसान उठाना पड़े। अगर तदबीर के तकाजे और मौकापरस्ती हमारी आस्था के आड़े आ–जा रही है, तब हममें और मुख्यधारा के नेताओं में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। अगर हम न्याय चाहते हैं तो यह न्याय और समानता सबके लिए होनी चाहिए, न कि कुछ खास समुदायों के लोगों के लिए, जिनके पास हितों को ले कर कुछ पूर्वाग्रह है। इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता है। हमने अहिंसक प्रतिरोध को 'फील गुड'के राजनैतिक अखाड़े में सिकुड़ जाने दिया है, जिसकी सबसे बड़ी सफलता संचार माध्यमों के लिए फोटो खिंचाने के अवसर हैं और सबसे कम सफलता उपेक्षा है।

हमें प्रतिरोध की रणनीति का मूल्यांकन करके उस पर तुरन्त विचार करना होगा, वास्तविक लड़ाइयाँ छेड़नी होंगी और असली नुकसान पहुँचाना होगा। हमें याद रखना है कि दाण्डी मार्च बेहतरीन राजनैतिक नाटक ही नहीं था, वह ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक आधार में सेंध लगाना था।

हमें राजनीति के अर्थ की पुनर्व्याख्या करनी होगी। 'नागरिक समाज'की पहलकदमियों का 'एनजीओकरण'हमें विपरीत दिशा में ले जा रहा है।[39] वह हमें अराजनैतिक बना रहा है। हमें 'फण्ड'और 'चन्दे'का मोहताज बना रहा है। हमें सिविल नाफरमानी के अर्थ की पुनःकल्पना करनी होगी।

शायद हमें जरूरत है लोकसभा के बाहर एक चुनी हुई छाया–संसद की, जिसके समर्थन और अनुमोदन के बगैर संसद आसानी से नहीं चल सकती। ऐसी संसद जो एक जमींदोज नगाड़ा बजाती रहती है, जो समझ और सूचना में साझेदारी करती है (जो सब मुख्यधारा के समाचार–माध्यमों में उत्तरोत्तर अनुपलब्ध हो रहा है)। निडरता से, लेकिन अहिंसात्मक तरीके से हमें इस मशीन के पुर्जों को बेकार बनाना होगा, जो हमें खाये जा रही है।

हमारे पास समय बहुत कम है। हमारे बोलने के दौरान भी हिंसा का घेरा कसता जा रहा है। हर हाल में बदलाव तो आना ही है। वह खून से सना हुआ भी हो सकता है या खूबसूरती में नहाया हुआ भी। यह हम पर मुनहसिर है।


संदर्भ और टिप्पणियां

1.    14 फरवरी 2003 को आई. जी. खान की हत्या पर, देखें पार्वती मेनन, 'ए मैन ऑफ कम्पैशन,'फ्रंटलाइन (इण्डिया), 29 मार्च–11 अप्रैल, 2003। इण्टरनेट पर उपलब्ध: http://www.frontlineonnet.com/fl2007/stories/20030411400.htm  (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

2.    हिना कौसर आलम और पी.बालू, 'जे एण्ड के (जम्मू एण्ड कश्मीर) फजेज डीएनए सैम्पल्स टू कवर अप किलिंग्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया, 7 मार्च 2002।

3.    देखें कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, 'गोधरा,'और वरदराजन द्वारा सम्पादित 'गुजरात'में ज्योति पुनवाणी, 'द कारनेज ऐट गोधरा।'

4.    सोमित सेन, 'शूटिंग टर्न्स स्पॉटलाइट ऑन एनकाउण्टर कॉप्स,'टाइम्स ऑफ इण्डिया, 23 अगस्त 2003।

5.    डब्ल्यू चन्द्रकान्त, क्रैकडाउन ऑन सिविल लिबर्टीज ऐक्टिविस्ट्स इन दि ऑफिंग?', द हिन्दू, 4 अक्टूबर 2003, जिसमें लिखा है:
पुलिस के प्रतिशोध के डर से अनेक कार्यकर्ता गुप्तवास में चले गये हैं। उनके भय बेबुनियाद नहीं हैं, क्योंकि राज्य की पुलिस मनमाने डंग से मुठभेड़ें करती रही है। जहाँ पुलिस नक्सलवादी हिंसा के आँकड़े अक्सर जारी करती है, वह अपनी हिंसा के शिकार लोगों का जिक्र करने से गुरेज करती है। आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमेटी ने, जो पुलिस द्वारा की गयी हत्याओं का लेखा–जोखा रख रही है, 4000 से ज्यादा मौतों की फेहरिस्त पेश की है जिनमें से 2000 पिछले महज आठ वर्षों में की गयी हैं।
के.टी. संगमेश्वरन, 'राइट्स ऐक्टिविस्ट्स अलेज गैंगलॉर्ड–कॉप नेक्सस,'द हिन्दू, 22 अक्टूबर 2003।

6.    जम्मू कश्मीर कोअलिशन फॉर सिविल सोसाइटी के अध्ययन, स्टेट ऑफ ह्यूमन राइट्स इन जम्मू ऐण्ड कश्मीर बीटविन 1900–2006 (श्रीनगर 2006), में अनुमान प्रकट किया गया है कि 1990 और 2004 के बीच जम्मू और कश्मीर में मरने वालों की असली तादाद 70,000 से अधिक थी, जबकि भारत सरकार ने 1990 से 2005 तक सिर्फ 47,000 मृतकों की सूचना दी। देखें, ऐजाज हुसैन, 'मुस्लिम, हिन्दू प्रोटेस्ट्स इन इण्डियन कश्मीर,'एसोसिएट प्रेस, 1 जुलाई 2008; डेविड रोहडे, 'इण्डिया ऐण्ड कश्मीर सेपेरेटिस्ट्स बिगिन टॉक ऑन एंण्डिंग स्ट्राइफ,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 23 जनवरी 2004, पृ.ए8; डोएचे–प्रेस एजेन्तुर, 'थाउजेण्ड्स मिसिंग, अनमार्क्ड ग्रेव्ज टेल कश्मीर स्टोरी,' 7 अक्टूबर 2003।

7.    लापता लोगों के माता–पिता के संगठन (एपीडीपी), श्रीनगर की अप्रकाशित रिपोर्ट।

8.    देखें एडवर्ड ल्यूस, 'कश्मीरीज न्यू लीडर प्रॉमिसेज ''हीलिंग टच'', फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 28 अक्टूबर 2002, पृ. 12।

9.    रं मार्सेलो, ऐण्टी–टेरेरिज्म लॉ बैक्ड बाई इण्डियाज सुप्रीम कोर्ट, फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन) 17 दिसम्बर 2003, पृ. 2।

10.    पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल), 'ए प्रिलिमिनेरी फैक्ट फाइण्डिंग ऑन पोटा केसेज इन झारखण्ड,'डेल्ही इण्डिया, 2 मई 2003। इण्टरनेट पर उपलब्ध: http://pucl.org/Topics/Law/2003/poto–jharkhand.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

11.    'पीपुल्स ट्रिब्यून हाइलाइट्स मिसयूज ऑफ पोटा', द हिन्दू, 18 मार्च 2004।

12.    'पीपुल्स ट्रिव्यूनल।''ह्यूमन राइट्स वॉच आस्क सेन्टर टू रिपील पोटा'द हिन्दू, 18 मार्च 2004 भी देखें।

13.    देखें लीना मिश्रा, '240 पोटा केसेज, ऑल अगेंस्ट माइनॉरिटीज,'टाइम्स ऑफ इण्डिया, 15 सितम्बर 2003 और 'पीपुल्स ट्रिब्युनल हाइलाइट्स मिसयूज ऑफ पोटा,' 18 मार्च 2004। टाइम्स ऑफ इण्डिया ने पेश की गयी गवाही की गलत सूचना दी। जैसा कि प्रेस ट्रस्ट का लेख दर्ज करता है, गुजरात में,'सूची में एकमात्र गश्ैरमुस्लिम एक सिख है, लिवरसिंह तेजसिंह सिकलीगर, जिसका उल्लेख उसमें सूरत के एक वकील हसमुख ललवाला पर जानलेवा हमला करने के लिए हुआ था और जिसने अप्रैल (2003) में सूरत की पुलिस हिरासत में कथित रूप से फाँसी  लगा ली थी।'गुजरात पर देखें, रॉय, 'डेमोक्रेसीः हू इज शी ह्वेन शी इज ऐट होम?' (हिंदी में:लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है)।

14.    देखें, पीपल्स ट्रिब्युनल ऑन पोटा ऐण्ड अदर सिक्यूरिटी लेजिसलेशन्ज, द टेरर ऑफ पोटा (नई दिल्ली, इण्डिया, 13–14 मार्च 2004)। इण्टरनेट पर उपलब्ध http://www.sabrang.com/pota.pdf (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

15.    'ए प्रो–पुलिस रिपोर्ट,'द हिन्दू, 20 मार्च 2004। ऐमनेस्टी इण्टरनेशनल, 'इण्डियाः रिपोर्ट ऑफ दी मलिमथ कमिटी रिफॉर्म्स ऑफ द क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम: सम कमेंट्स,' 19 सितम्बर 2003 (एएसए 20/025/2003)।

16.    'जे एण्ड के (जम्मू एण्ड कश्मीर) पैनल वॉण्ट्स ड्रेकोनियन लॉज विदड्रॉन,'द हिन्दू, 23 मार्च 2003। साउथ एशियन ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन सेन्टर (एसएएचआरडीसी), 'आर्म फोर्सेज स्पेशल पावर्स ऐक्ट: ए स्टडी इन नैशनल सिक्यूरिटी टिरिनी,'नवम्बर 1995, http://www.hrdc.net/sahrdc/resources/armed_forces.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

17.    'ग्रोथ ऑफ ए डीमन: जेनिसिस ऑफ दी आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स ऐक्ट, 1958'और सम्बन्धित दस्तावेज, मणिपुर अपडेट्स। इण्टरनेट पर उपलब्ध है, देखें, http://www.geocities.com/manipurupdate/December_features_1.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

18.    देखें, एडवर्ड ल्यूस, 'मास्टर ऑफ ऐम्बिग्विटी,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 3–4 अप्रैल 2004, पृ. 16। 31 मार्च 2007 को चन्द्रशेखर प्रसाद की हत्या। देखें, ऐन्ड्रयू नैश, 'ऐन इलेक्शन ऐट जेएनयू,'हिमाल, दिसम्बर 2003।

19.    पी. साइनाथ, 'नियो–लिबरल टेरेरिज्म इन इण्डिया: दी लार्जेस्ट वेव ऑफ सुइसाइड्स इन हिस्ट्री,'काउण्टरपंच, फरवरी 2009। इण्टरनेट पर उपलब्धः http://www.counterpunch.org/sainath02122009.html

20.    एन.ए. मजूमदार, एलिमिनेट हंगर नाओ, पॉवर्टी लेटर, बिजनेस लाइन, 8 जनवरी 2003।

21.    'फूडग्रेन एक्सपोर्ट मे स्लो डाउन दिस फिष्ष्स्कल (इयर),'इण्डिया बिजनेस इनसाइट, 2 जून 2003, 'इण्डिया–ऐग्रिकल्चर सेक्टर: पैराडॉक्स ऑफ प्लेंटी,'बिजनेस लाइन, 26 जून 2001, रणजीत देवराज, 'फार्मर्स प्रोटेस्ट अगेन्स्ट ग्लोबलाइजेशन,'इण्टर प्रेस सर्विस, 25 जनवरी 2001।

22.    उत्सा पटनायक, 'फॉलिंग पर कैपिटा अवेलिबिलिटी ऑफ फूडग्रेन्स फॉर ह्यूमन कन्जंप्शन इन द रिफॉर्म्स पीरियड इन इण्डिया,'अखबार, (2 अक्टूबर 2001)। इण्टरनेट पर उपलब्धः http://indowindow.virtualstack.com/akhabar/article.php?article=44category=3&issue=12 (29 मार्च 2009 को देखा गया।) पी. साइनाथ, 'हैव टॉर्नाडो, विल ट्रैवल,'द हिन्दू मैग्जीन, 18 अगस्त 2002। सिल्विया नसर, 'प्रोफइल: द कॉन्शेन्स ऑफ द डिस्मल साइन्स,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 9 जनवरी 1994 पृ. 3-8। मारिया मिश्रा, 'हार्ट ऑफ स्मगनेस: अनलाइक बेल्ज्यिम, ब्रिटेन इज स्टील कम्प्लेसेंटली इगनोरिंग द गोरी क्रुऐलिटीज ऑफ इट्स एम्पायर,'द गार्जियन, (लन्दन) 23 जुलाई 2002, पृ. 15। उत्सा पटनायक, 'ऑन मेजरिंग, ''फैमिन''डेथ्स: डिफ्रेंट क्राइटीरिया फॉर सोशयलिज्म ऐण्ड कैपिटलिज्म,'अखबार, 6 (नवम्बर–दिसम्बर 1999)। इण्टरनेट पर उपलब्धः http://www.indowindow.com/akhabar/article.php?article= 74&category=8&issue=9 (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

23.    अमर्त्य सेन, 'डेवेलपमेन्ट ऐज फ्रीडम' (न्यूयॉर्क: अल्फ्रेड ए, नॉफ, 1999)

24.    'द वेस्टेड इण्डिया,'द स्टेट्समैन (इण्डिया), 17 फरवरी 2001। 'चाइल्डब्लेन,'द स्टेट्समैन (इण्डिया), 24 नवम्बर 2001।

25.    उत्सा पटनायक, 'द रिपब्लिक ऑफ हंगर ऐण्ड अदर एसेज,' (गुड़गाँव: थ्री एसेज कलेक्टिव, 2007)।

26.    प्रफुल्ल बिदवई, 'इण्डिया एडमिट्स सीरियस अग्रेरियन क्राइसिस,'सेण्ट्रल क्रॉनिकल (भोपाल), 9 अप्रैल 2004।

27.    रॉय, पॉवर पोलिटिक्स, द्वितीय संस्करण, पृ. 13।

28.    उदाहरण के लिए देखें, रणदीप रमेश, 'बांग्लादेशी राइटर गोज इनटू हाइडिंग', द गार्जियन (लन्दन), 27 नवम्बर 2007, पृ. 25, यह देशनिकाला प्राप्त और 2004 से कलकत्ता में रह रही लेखिका तसलीमा नसरीन के बारे में है, रणदीप रमेश, 'बैण्ड आर्टिस्ट मिसेज डेल्हीज फर्स्ट आर्ट शो,'द गार्जियन (लन्दन), 23 अगस्त 2008, पृ. 22। यह निष्कासित चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के बारे में है, और सोमिनी सेनगुप्ता, 'ऐट ए यूनिवर्सिटी इन इण्डिया, न्यू अटैक्स ऑन ऐन ओल्ड स्टाइल: इरोटिक आर्ट,'न्यूयॉर्क टाइम्स, 19 मई 2007, पृ. B7। यह महाराजा शिवाजीराव विश्वविद्यालय के छात्रों की प्रदर्शनी के बारे में। अरुंधति रॉय, 'तसलीमा नसरीन ऐण्ड ''फ्री स्पीच,'''नई दिल्ली, इण्डिया 13 फरवरी 2008 भी देखें, इण्टरनेट पर उपलब्ध http://www.zmag.org/znet/viewArticle/166646 (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

29.    शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने जेम्स डब्ल्यू. लेन की पुस्तक 'शिवाजी: हिन्दू किंग इन इस्लामिक इण्डिया (ऑक्सफोर्डः ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 2003) की 'सभी प्रतियों को जलाने का आह्वान'किया। देखें, 'मॉकरी ऑफ द लॉ,'द हिन्दू 3 मई 2007। प्रफुल्ल बिदवई, 'मेक्कार्थी, वेयर आर यू?'फ्रंटलाइन (इण्डिया); 10–23 मई 2003, इसमें विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर के खिलाफ चलाये गये अभियान के बारे में लिखा गया है; और अनुपमा कटकम, ''पॉलिटिक्स ऑफ वैण्डलिज्म, फ्रंटलाइन (इण्डिया), 17–30 जनवरी 2004, पुणे स्थित भण्डारकर संस्थान पर हमले के बारे में।

30.    देखें, माइक डेविस, लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स: एल निन्यो फैमिन्स ऐण्ड द मेकिंग ऑफ द थर्ड वल्र्ड (न्यूयॉर्क: वर्सो, 2002) 'टेबल पी 1: एस्टिमेटेड फैमिन मोर्टैलिटी,'पृ. 7।

31.    दूसरे स्रोतों के अलावा, देखें एडविन ब्लेक, आईबीएम ऐण्ड द होलोकॉस्ट: द स्ट्रैटिजिक अलायन्स बिटवीन नाजी जर्मनी ऐण्ड अमेरिकाज मोस्ट पावरफुल कॉर्पोरेशन (न्यूयॉर्क: थ्री रिवर्स प्रेस, 2003)। 

32.    'फॉर इण्डिया इनकॉर्पोरेटेड, साइलेंस प्रोटेक्ट्स द बॉटम लाइन, टाइम्स ऑफ इण्डिया, 17 फरवरी 2003। 'सीआईआई अपोलोजाइजेज टू मोदी,'द हिन्दू, 7 मार्च 2003।

33.    आडवाणी ने 25 सितम्बर 1990 को सोमनाथ से यात्रा शुरू की थी। 2005 में उन्होंने कहा कि उनकी 15 साल पहले की ऐतिहासिक राम रथ यात्रा तभी पूरी मानी जायेगी जब अयोध्या में मन्दिर बन जायेगा। देखें, विशेष सम्वाददाता, 'यात्रा कम्पलीट ओनली आफ्टर टेम्पल इज बिल्ट, सेज आडवाणी,'द हिन्दू, 26 सितम्बर 2005।

34.    देखें रॉय, पावर पॉलिटिक्स, द्वितीय संस्करण, पृ. 35–86।

35.    अन्य स्रोतों के साथ, देखें निर्मलांग्शु मुखर्जी, 'ट्रेल ऑफ द टेरर कॉप्स,'जेडनेट, 17 नवम्बर 2008। इण्टरनेट पर उपलब्ध http://www.zmag.org/zspace/nirmalangshumukherji (29 मार्च 2009 को देखा गया)।

36.    22 दिसम्बर 2003 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में 'आतंकवाद से लड़ाई में मानवाधिकारों और आधारभूत स्वतन्त्रताओं की रक्षा'के प्रस्ताव से अपने–आप को अलग रखने वाला भारत अकेला देश था।AA/RES/58/187 (अप्रैल 2004)।

37.    देखें, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, इण्डियाज नक्सलाइट्स मेकिंग एफर्ट्स टू स्प्रेड टू न्यू एरियाज,'बीबीसी वर्ल्ड वाइड मॉनिटरिंग, 4 मई 2003 और 'माओइस्ट कॉल फ्रीजेज झारखण्ड, नेबर्स,'द स्टेट्समैन (इण्डिया), 15 जून 2006।

38.    कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग सरकार ने 2004 में पोटा को रद्द कर दिया क्योंकि वह अत्यन्त क्रूर पाया गया था, और कहा कि उसका दुरुपयोग हुआ था और वह उलटे नतीजे देने वाला था, लेकिन फिर सरकार ने 'अवैध गतिविधि निरोधक अधिनियम में संशोधनों के रूप में और भी कड़ा आतंककारी कानून लागू कर दिया। संशोधन 15 दिसम्बर 2008 को संसद में पेश किये गये और अगले ही दिन स्वीकार कर लिये गये। लगभग कोई बहस नहीं हुई। देखें प्रशान्त भूषण, 'टेरेरिज्म: आर स्ट्रौंगर लॉज द आन्सर?'द हिन्दू, 1 जनवरी 2009।

39.    देखें अरुंधति रॉय, ऐन ऑर्डिनरी पर्सन्स गाइड टू एम्पायर में 'पब्लिक पावर इन द एज ऑफ एम्पायर' (नई दिल्ली: पेंगुइन बुक्स, इण्डिया 2005)। अरुंधति रॉय, 'पब्लिक पावर इन द एज ऑफ एम्पायर, (न्यूयॉर्क सेवन स्टोरीज प्रेस, 2004) में भी प्रकाशित।

संकीर्ण राष्ट्रवाद की जमीन

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संकीर्ण राष्ट्रवाद की जमीन

लाल्टू 

कट्टरपंथ की जमीन कैसे बनती है? आगामी चुनावों में नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सुविधापरस्ती के गठजोड़ से निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और संघ परिवार की जड़ें और मजबूत होने की संभावनाएं लोकतांत्रिक सोच रखने वाले सभी लोगों के लिए चिंता का विषय हैं। औसत भारतीय नागरिक घोर सांप्रदायिक न भी हो, पर बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के प्रति उदासीनता से लेकर सांप्रदायिक आधार पर गढ़े गए राष्ट्रवाद में व्यापक आस्था हर ओर दिखती है। आखिर तमाम तरह की मानवतावादी कोशिशों और धरती पर हर इंसान की एक जैसी संघर्ष की स्थिति की असीमित जानकारी होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि दुनिया के तमाम मुल्कों में लोग संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच के बंधन से छूट नहीं पाते! इस जटिलता के कई कारणों में एक, शासकों द्वारा जनता से सच को छिपाए रख उसे राष्ट्रवाद के गोरखधंधे में फंसाए रखना है। इतिहास का ऐसा नियंत्रण महंगा पड़ता है।

पिछले पचास सालों से गोपनीय रखी गर्इं दो सरकारी रिपोर्टों पर डेढ़ साल पहले चर्चाएं शुरू हुई थीं। इनमें से एक, 1962 के भारत और चीन के बीच जंग पर है। दूसरी, आजादी के थोड़े समय बाद हैदराबाद राज्य को भारतीय गणराज्य में शामिल करने के सिलसिले में हुए ऑपरेशन पोलो नामक पुलिस कार्रवाई पर है। पहली रिपोर्ट को लिखने वाले भारतीय सेना के दो उच्च-अधिकारी ब्रूक्स और भगत थे। दूसरी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के करीब माने जाने वाले पंडित सुंदरलाल की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने तैयार की थी। पहली रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा अब सार्वजनिक हो चुका है। दूसरी रिपोर्ट आज भी गोपनीय है, हालांकि अलग-अलग सूत्रों से उसके कई हिस्से सार्वजनिक हो गए हैं।

हमारे अपने अतीत के बारे में बहुत सारी जानकारी हमें चीनी स्रोतों से मिलती है। प्राचीन काल से दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंध रहे हैं। इन सब बातों के बावजूद भारत में चीन के बारे में सोच शक-शुबहा पर आधारित है। भारत-चीन संबंधों पर हम सबने इकतरफा इतिहास पढ़ा है। हम यही मानते रहे हैं कि चीन एक हमलावर मुल्क है। हम शांतिप्रिय हैं और चीन ने हमला कर हमारी जमीन हड़प ली। ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल इस विषय पर लंबे अरसे से शोध करते रहे और उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में इस पर आलेख छापे। सीमा विवाद पर भारत के दावे से वे कभी पूरी तरह सहमत नहीं थे। चूंकि हम लोग चीन को हमलावर के अलावा और किसी नजरिए से देख ही नहीं सकते, उनके आलेखों पर कम ही लोगों ने गौर किया। अब रिपोर्ट उजागर होने पर यह साबित हो गया है कि मैक्सवेल ने हमेशा सही बात की थी।

रिपोर्ट में भारत की जिस 'फॉरवर्ड पॉलिसी'को गलत ठहराया गया है, उसका सीधा मतलब यही होता है कि भारतीय फौज ने घुसपैठी छेड़छाड़ कर चीन को लड़ने को मजबूर किया। अक्तूबर 1962 की उस जंग के कुछ महीने पहले तक चीन ने कई तरीकों से कोशिश की कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर बातचीत हो, पर भारत का निर्णय यह था कि हमारी इकतरफा तय की गई सीमाओं पर कोई बातचीत नहीं हो सकती।

यह सबको पता था कि दोनों देशों के बीच बहुत सारा इलाका बीहड़ क्षेत्र है, जहां सैकड़ों मीलों तक कोई नहीं रहता, और सीमा तय करना आसान नहीं है। बीसवीं सदी के पहले पांच दशकों में चीन की हालत बड़ी खराब थी और खासकर पश्चिमी सीमाओं तक नियंत्रण रख पाना उनके लिए संभव न था, इसलिए उपनिवेशवादी बर्तानवी अफसरों ने जान-बूझ कर भी चीन की सीमा को पीछे की ओर हटाया हुआ था। भारत ने स्थिति का पूरा फायदा उठाते हुए 'फॉरवर्ड पॉलिसी'के तहत घुसपैठ की। आखिर जंग हुई, जिसमें भारत को शिकस्त मिली।

आज भी सीमा विवाद पर भारत सरकार का रवैया बदला नहीं है। अपनी दक्षिणी सीमा पर लगे तमाम मुल्कों में भारत ही एक ऐसा देश है, जिसके साथ चीन सीमा विवाद सुलझाने में विफल रहा है। जबकि आज अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की मदद से और जीपीएस तकनीक के द्वारा यह संभव है कि चप्पे-चप्पे तक जमीन मापी जा सके और सीमा सही-सही तय की जा सके। सही और गलत क्या है, इस पर बहस हो सकती है। पर जब सरकार पचास सालों तक अपनी गलतियों को नागरिकों से छिपा कर रखती है तो यह गंभीर चिंता का विषय है।

हैदराबाद राज्य के भारत में विलय के इतिहास के भी शर्मनाक अध्याय हैं। हैदराबाद के निजाम के शासन में शहर हैदराबाद के बाहर रियासत में बेइंतहा पिछड़ापन था। जमींदार (जो तकरीबन सभी हिंदू थे) रिआया पर मध्य-काल की तरह अत्याचार करते थे। इसी का परिणाम था कि तेलंगाना में उग्र साम्यवादी आंदोलन फैला और आजादी के दौरान और तुरंत बाद के वर्षों में इसने जनयुद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली।

निजाम के सलाहकारों में इस्लामी कट्टरपंथियों की अच्छी तादाद थी। हैदराबाद राज्य ने भारत या पाकिस्तान में विलय होने की जगह आजाद मुल्क रहना चाहा। सरदार पटेल के गृहमंत्री रहने के दौरान सिख और मराठा बटालियन की फौजें भेज कर पांच दिनों की लड़ाई के बाद हैदराबाद का भारत में विलय कर लिया गया।

निजाम की ओर से लड़ने वाले रजाकारों की संख्या पांच हजार थी। रजाकारों ने क्रूरता से 'भारत में विलय के समर्थकों'का दमन किया। पर यह कम लोग जानते हैं कि भारतीय फौजें हैदराबाद के मुसलमानों के साथ कैसे पेश आर्इं। जब पंडित सुंदरलाल समिति ने जांच की तो पता चला कि अड़तालीस हजार मुसलमानों की हत्या की गई थी, जिनमें से अधिकतर निर्दोष थे। बलात्कार और लूट की इंतिहा न थी। चूंकि यह रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं है, इसलिए इस आंकड़े की सच्चाई पर सवाल उठ सकते हैं। पर यह रिपोर्ट क्यों छिपाई जा रही है?

ऐसी कई बातें हैं, जहां सरकार का रवैया लोगों से सच छिपाने का है। इन दो रिपोर्टों का उल्लेख प्रासंगिक है। कहा जा सकता है कि हमारा देश गरीब है और ऐसी जानकारी जिससे लोगों में सरकार के प्रति आस्था कम हो, उसे गोपनीय ही रहने दिया जाए तो बढ़िया है। पर अगर हमारे पास संसाधनों की कमी है तो हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम सभी जरूरी बातों का खुलासा करें ताकि सामूहिक और लोकतांत्रिक रूप से ऐसे निर्णय लिए जाएं जो सबके हित में हों। सच यह है कि अगर हम अपने पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद सुलझा लें तो हमारा सामरिक खर्च बहुत कम हो जाएगा और हम शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी मुद्दों पर उचित ध्यान दे पाएंगे। इसी तरह अतीत की गलतियों को हम मान लें तो समुदायों के बीच बेहतर संबंध पनपेंगे और देश सर्वांगीण उन्नति की ओर बढ़ेगा।

इसके विपरीत ऐसा राष्ट्रवाद जो हमें भूखे और कमजोर रह कर पड़ोसी मुल्कों के साथ वैमनस्य का संबंध बनाए रखने को मजबूर करता है, जो लघु संप्रदायों परहुए जुल्मों को नजरअंदाज करता है, वह हमारे हित में कतई नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि हम पड़ोसी मुल्कों के सामने घुटने टेक दें या लघु संप्रदायों की खामियों को अनदेखा करें। पर सच को छिपा कर और झूठ के आधार पर लोगों को भड़काए रख कर देश में स्थिरता और संपन्नता कभी नहीं आ सकती।

आज हम लगातार ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं कि इस तरह का संकीर्ण राष्ट्रवाद लोगों के मन में घर करता जा रहा है। ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि तथ्यों को सामने लाने का औचित्य कम ही दिखता है। एक ओर नफरत की लहर में डूबे लोग हैं, दूसरी ओर उनको सुविधापरस्त लोगों का साथ मिल रहा है। पूंजी के सरगना, जिनको मानवता से कुछ भी लेना-देना नहीं है, खुलकर ऐसे नेतृत्व का समर्थन कर रहे हैं जो देश को निश्चित रूप से विनाश की ओर धकेल देगा।

एक ऐसा मुख्यमंत्री जो स्वयं जेल जाने से बाल-बाल बचता रहा है, जिसके मंत्रिमंडल में रहे एक शख्स को आजीवन कारावास मिला हुआ है; राज्य के पूर्व पुलिस प्रमुख और उसके सहयोगी जेल में बंद हैं, वह झूठे विकास का नारा देकर और ऊलजलूल झूठी बातें कर लोगों का समर्थन जुटाने में सफल हो रहा है।

पहली नजर में ये बातें एक दूसरे से अलग लगती हैं। पर सचमुच ये एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक बड़े देश का नागरिक और मुख्य-धारा के साथ होने में एक झूठे गर्व का अहसास होता है जो हमें अप्रिय सच को जानने से दूर ले जाता है। जब तक यह अहसास सीमित रहता है और सामूहिक जुनून में नहीं बदलता, तब तक कोई समस्या नहीं है। जिस तरह का जुनून और सांप्रदायिकता नरेंद्र मोदी के समर्थन में सक्रिय हैं, उसका उदाहरण बीसवीं सदी के यूरोप के इतिहास में है। तकरीबन नब्बे साल पहले इसी तरह की घायल राष्ट्रीयता की मानसिकता के शिकार इटली और जर्मनी के लोगों ने क्रमश: फासीवादियों और नाजी पार्टी के लोगों को जगह दी। इनके सत्ता पर काबिज होने के बाद उन मुल्कों का क्या हश्र हुआ वह हर कोई जानता है।

जर्मन लोग आज तक यह सोच कर अचंभित होते हैं कि एक पूरा राष्ट्र यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी सोच का शिकार कैसे हो गया? विनाश के जो पैमाने तब तैयार हुए और दूसरी आलमी जंग में इनके मित्र देश जापान पर एटमी बमों की जो मार पड़ी, उससे उबरने में कई सदियां लगेंगी। वैसी ही ताकतें भारत में भी अपनी जड़ें जमाने में सफल हो रही हैं और अगर वे सफल होती गर्इं तो अगले दशकों में दक्षिण एशिया का हश्र क्या होगा, यह सोच कर भी भय होता है।

फासीवादी, नाजी, हिंदुत्ववादी, तालिबानी और ऐसी दीगर ताकतें झूठ और हिंसा के जरिए अमानवीयकरण की स्थिति में जी रहे लोगों को बरगलाने में सफल होती हैं। कैसी भी राजनीतिक प्रवृत्ति वाले दलों की हों, सरकारें सच को छिपा कर ऐसी स्थितियां पैदा करने में मदद करती हैं कि भुखमरी और सामाजिक अन्यायों के शिकार लोग झूठे राष्ट्रवादी गौरव में फंसे मानसिक रूप से गुलाम बन जाएं। लोग यह देखने के काबिल नहीं रह जाते कि सत्ता में आते ही कट्टरपंथी ताकतें आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला करेंगी। शिक्षा में खासतौर पर इतिहास, राजनीति विज्ञान और साहित्य जैसे विषयों में आमूलचूल बदलाव कर संकीर्ण सांप्रदायिक और मानव-विरोधी सोच को डालने की कोशिश करेंगी।

आज कुछ सच छिपाए जा रहे हैं तो कल बिल्कुल झूठ बातों को सच बना कर किताबों में डाला जाएगा और बच्चों को वही पढ़ने को मजबूर किया जाएगा। विरोधियों के साथ हिंसक रवैया अपनाने में इन ताकतों को कोई हिचक नहीं। ऐसी सभी ताकतों के खिलाफ और सच को सामने लाने के लिए आवाज बुलंद करना जरूरी है। इसलिए सिर्फ चुनावी पटल पर मोदी और संघ परिवार का विरोध पर्याप्त नहीं; देश के इतिहास, वर्तमान और भविष्य के साथ जुड़े हर सच को उजागर करने की मांग साथ-साथ करनी होगी।

और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!

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और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!


पलाश विश्वास

सबसे पहले हमारी अत्यंत आदरणीया लेखिका अनिता भारती जी की अपील,जिसका  हम तहे दिल से समर्थन करते हैं।

सभी साथियों से अपील है कि इस बार 14 अप्रैल को बाबा साहेब के जन्मदिन पर "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को एक बार फिर, दुबारा से खुद पढें, दूसरों को भी पढने के लिए प्रेरित करें. और सबसे अच्छा तो यह रहेगा कि इस बार 14 अप्रैल को हम इस किताब को एक दूसरे को गिफ्ट दें और बाबासाहेब के जन्मदिन को सेलिब्रेट करें।


बाबा साहेब द्वारा लिखी "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" समता प्रकाशन ( नागपुर ) से प्रकाशित है. जिसकी कीमत 20 रुपये है. किताब में कुल पृष्ठ संख्या 96 है. किताब का पहला संस्करण 1936 में इंगलिश में प्रकाशित हुआ. 1944 में यह हिन्दी में छपी. वर्तमान में जो किताब मेरे पास है वह 16 फरवरी 2004 का संस्करण है. यह किताब महात्मा गांधी द्वारा की गई आलोचना तथा प्रतिउत्तर सहित है.


हमारे हिसाब से हर  भारतीय के लिए इस देश के ज्वलंत सामाजिक यथार्थ को जानने समझने महसूस करने और उसका मुकाबला करने के लिए यह अध्ययन अनिवार्य है।जो अंबेडकर के अनुयायी हैं,उनके कहीं ज्यादा उन लोगों के लिए जिन्हंने अभी अंबेडकर को पढ़ा ही नहीं है और जो अंबेडकरी आंदोलन के शायद विरोधी भी हों।


भारतीय लोकगणराज्य की मुख्य समस्या वर्णवर्चस्वी नस्ली जाति व्यवस्था है,जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में होती है।


भारतीय लोकतंत्र,राष्ट्र,राजकाज, शिक्षा, राजनीति, कानून व्यवस्था, अर्थशास्त्र कुछ भी जाति के गणित के बाहर नहीं है।


बाबासाहेब अंबेडकर ने इस महापहेली को सुलझाने की अपनी ओर से भरसक कोशिश की और उसका एजंडा भी दिया।जिसे अंबेडकरी आंदोलन भुला चुका है।लेकिन अतीत और वर्तमान के दायरे से बाहर भारत को भविष्य की ओर ले जाना है तो इस परिकल्पना की समझ विकसित करना हर भारतीय नागरिक के लिए अनिवार्य है।


जातिभेद के उच्छेद बिना हम न भारत के संविधान को समझ सकते हैं और न संसाधनों और अवसरो के न्यायपूर्ण बंटवारे का तर्क, न समता और सामाजिक न्याय का मूल्य और न भारतीयता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति धम्म।


गौरतलब है कि कोई एक प्रकाशक नहीं है इस कालजयी रचना का। हर भाषा में यह रचना उपलब्ध है।


नेट पर अंबेडकर डाट आर्ग खोलकर अंग्रेजी के पाटक तुरंत इसे और अंबेडकर के दूसरे तमाम अति महत्वपूर्ण ग्रंथ बांच सकते हैं।


अंबेडकरी संगठनों ने अपने प्रकाशनों से जाति उच्छेद विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया हुआ है तो नवायना जैसे प्रकाशन ने हाल में मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना के साथ भी "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को नये सिरे से प्रकाशित किया है।


अरुंधति की प्रस्तावना पर जिन्हें आपत्ति है,वे इसके बिना भी जाति उच्छेद का पाठ ले सकते हैं।


यकीन मानिये कि हर भारतीय अगर कम से कम एकबार जाति उच्छेद पढञ लें और गंभीरता के साथ उस पर विवेचन करें तो हमें तमाम समस्याों को नये सिरे से समझने और सुलझाने में मदद मिलेगी।


आखिर हम कितना गहरा खोदेंगे?


कल ही फेसबुक पर भाजपाई केसरिया रामराज उर्फ उदित राज का पोस्टर लगा वोट के लिए। इन रामराज को मैं जानता रहा हूं। दलित मुद्दों पर लंबे अरसे से उनकी सक्रियता और खासकर धर्मांतरण के जरिये बाबासाहेब के बाद देशभर में हिंदुत्व के खिलाफ सबसे ज्यादा हलचल मचाने वाले उदित राज को बिना संवाद पूर नवउदारवादी दो दशकों से देखता रहा हूं।


रामदास अठावले और राम विलास पासवान अपने ही खेल में जहां हैं,वहीं सत्ता से बाहर उनका कोई वजूद है ही नहीं।


उनके उलट,उदित राज कहीं सीमित लक्ष्य के साथ एक निश्चित रणनीति के साथ मोर्चा बांधे हुए थे।इधर उनसे थोड़ी बहुत बात हुई भी।


इस फेसबुकिया पोस्टर पर बेहद शर्मिंदगी इस परिचय के कारण महसूस हुई,जो राम विलास और रामदास के खुल्ले खेल से कभी हुई नहीं।मेरे दिलोदिमाग में वही इलीहाबाद के मेजा के युवा साथी रामराज है,जिनसे ऐसी उम्मीद तो नहीं ही थी।


मैंने शर्म शर्म लिखा तो पोस्टर दागने वाले सज्जन ने सीधे मुझे पंडितजी संबोधित करते हुए पूछ डाला कि शर्मिंदगी क्यों।


मैंने जवाब भी दे दिया कि जिस हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय जाति उच्छेदित  भारत के बाबासाहेब के सपने को पुनर्जीवित करने की आस जगायी उदितराज ने,अब वे उसी फासिस्ट हिंदुत्व के सिपाहसालार बन गये।


हालांकि यह सिरे से बता दूं कि निजी बातचीत में उदित राज मानते रहे हैं कि जाति उन्मूलन असंभव है।धर्मांतरण का उनका तर्क भी बाबासाहब का अनुकरण है।


उदितराज मानते रहे हैं कि अंबेडकरी आंदोलन को हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय होना चाहिए।अब भी अंबेडकर के अनेक अनुयायी हैं जो बुद्धम् शरणम् गच्छामि के प्रस्थानबिंदू से बात शुरु और वह अंत करते हैं।


उदितराज सामाजिक सांस्कृतिक अंबेडकरी आंदोलन मसलन बामसेफ के सख्त खिलाफ रहे हैं तो बहन मायावती के सर्वजनहिताय सोशल इंजीनियरंग का भी वे लगातार विरोद करते रहे हैं।वे अंबेडकरी आंदोलन को सुरु से विशुद्ध राजनीति मानते रहे हैं।


धर्म,राजनीति और पहचान के सवाल पर उनके मतामत सीधे हिंदुत्व के विरुद्ध रहे हैं।


इसे इसतरह समझिये कि अगर बाबासाहेब संघ परिवार में शामिल हो जाते तो अंबेडकरी आंदोलन का क्या होता आखिर।


बाबासाहेब ने संविधान रचना के बाद देश का कानून मंत्री होते हुए वर्णवर्चस्वी  नस्ली वंशवादी कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और अपनी अलग पार्टी बनायी।


तो बाबासाहेब के नाम जापते हुए जो लोग संघ परिवार में शामिल हो रहे हैं और अपने अपने हिसाब से वे हमें अंबेडकरी मिशन में होने का यकीन दिलाते रहे हैं तो उनके एकमुश्त केशरिया होने पर अपनी समझ पर हमें शर्म तो आनी ही चाहिए।


यहीं नहीं,हमने तीन राम संघ के हनुमान वाले आनंद तेलतुंबड़े के आलेख का लिंक देते हुए अपील की दलितों को कम से कम ऐसे लोगों को वोट देना नहीं चाहिए जो अंबेडकरी आंदोलन से विश्वासघात कर चुके हैं।


इस पर प्रतिक्रिया आयी कि आप न पंडित जी हैं और न इमाम।आप फतवा जारी नहीं कर सकते।


फिर पूछा गया कि आप कौन होते हैं,ऐसी अपील जारी करने वाले।


हम भारत के आम नागरिकोंं में से एक हैं,जाहिर हैं।हम उस मूक बहिस्कृत भारत की भी धूल हैं,जिनके लिए बाबासाहेब अंबेडकर मर मिटे।


अब जब जनादेश कुरुक्षेत्रे उनकी जयंती के ढोल ताशे फिर मुखर हैं लेकिन बाबासाहेब का भारत अब भी मूक है।


तीनों अंबेडकरी रामों के अलावा राजनीतिक यथास्थिति बनाने के जिम्मेदार तमाम मौकापरस्त दलबदलुओं. चुनाव मैदान में खड़े विज्ञापनी माडलों,घोटालों के रथी महारथी, मानवाधिकार के युद्धअपराधी,दागी हत्यारों और बलात्कारियों और कारपोरेट तत्वों को बाहुबलियों और धनपशुओं के साथ खारिज करने की भी अपील जरुरी है।


हम चाहे नोटा का इस्तेमाल करें या वोट ही न दें,जनादेश पर फर्क तो पड़ेगा नहीं।


तो सचेत जनता अगर इन तत्वों को पहले ही खारिज कर दें दल मत निरपेक्ष होकर तो चाहे सरकार जिसकी बनें,लोकतंत्र फिरभी बहाल रहेगा और उस लोकतंत्र में हक हकूक की लड़ाई जारी रहेगी।


अन्यथा उपरोक्त श्रेणियों के राजनेता भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जनगण दोनों को बाट लगाकर अपने हिस्से का भारत बनायेंगे और हमारा भारत कौड़ी के मोल बेच देंगे।


इसके अलावा अरुंधति के 2004 में दियेगये पूरे व्याख्यान को कल हमने पैरा पैरा या वाक्यांश में तोड़कर अपने वाल पर चिपका दिया,जिसपर बेशुमार लाइक भी हुआ।


अरुंधति ने 2004 साल में ऱाजग के भारत उदय के नारे पर जो मुद्दे उठाये थे,आज रामावली के नीचे छुपाये खूनी आर्थिक एजंडे के धर्मोन्मादी ब्रांड इंडिया समय के भी संजोगवश मुद्दे वहीं हैं। इस पूरे आलेख पर संवाद की गुंजाइश है।इसीलिए यह आलेख।


इसीलिए यह आलेख क्योंकि चुनाव मैदान में आमने सामने डटे कौरवी वंश के कुरु पांडवों के जनसंहारी एजंडा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।


दोनों पक्ष बाशौक एक दूसरे पर अपना अपना एजंडा चुराने का आरोप लगा सकते हैं,जो इस महासमर का एकमात्र सच है।


वह सच यह है कि जनादेश का अनुमोदन जो हो रहा है,उसका असली मकसद देहाती कृषि भारत का सफाया है।


उत्पादन प्रणाली का ध्वंस है।


जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक और मानवाधिकारों से बेइंतहा  बेदखली है।


प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों की खुली लूट खसोट है।


भारत बेचो अभियान है।


अबाध कालाधन,अबाध भ्रष्टाचार और अबाध विदेशी पूंजी है।


लोक गणराज्य और लोककल्याणकारी राज्य का संविधान समेत विसर्जन है।


आरक्षण समेत सरकारी क्षेत्र और सरकारी नौकरी का पटाक्षेप है।


निरंकुश कुल्ला खुल्ला बाजार है और निरंकुश कैसिनो कार्निवाल छिनाल वित्तीय पूंजी का बार डां. आइटम थीमसांग है।


चुनाव घोषमापत्र तो ट्रेलर है,पिक्चर अभी बाकी है।


दोनों हमशक्ली डुप्लीकेट हैं।चाहे राम चुने श्याम अंजामे गुलिस्तान कब्रिस्तान से बेहतर न होगा।


अरुंधति ने यूपीए के उत्थान के ब्रह्म मुहूर्त पर जो लिखा था,आज उसके अवसान अवसाद समय में भी सच किंतु वही है।

भारत में एक नये तरह का अलगाववादी आन्दोलन चल रहा है। क्या इसे हम 'नव–अलगाववाद' कहें? यह 'पुराने अलगाववाद' का विलोम है। इसमें वे लोग जो वास्तव में एक बिलकुल दूसरी अर्थ–व्यवस्था, बिलकुल दूसरे देश, बिलकुल दूसरे ग्रह के वासी हैं, यह दिखावा करते हैं कि वे इस दुनिया का हिस्सा हैं। यह ऐसा अलगाव है जिसमें लोगों का अपेक्षाकृत छोटा तबका लोगों के एक बड़े समुदाय से सब कुछ– जमीन, नदियाँ, पानी, स्वाधीनता, सुरक्षा, गरिमा, विरोध के अधिकार समेत बुनियादी अधिकार–छीन कर अत्यन्त समृद्ध हो जाता है। यह रेखीय, क्षेत्रीय अलगाव नहीं है, बल्कि ऊपर को उन्मुख अलगाव है। असली ढाँचागत समायोजन जो 'इंडिया शाइनिंग' को, 'भारत उदय' को भारत से अलग कर देता है। यह इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को सार्वजनिक उद्यम वाले भारत से अलग कर देता है।


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 6 अप्रैल 2004 को दिये गये आई.जी. खान स्मृति व्याख्यान का सम्पूर्ण आलेख है।[1] यह पहले हिन्दी में 23–24 अप्रैल 2004 कोहिन्दुस्तानमें प्रकाशित हुआ (अनुवाद: जितेंद्र कुमार), और फिर अंग्रेजी में 25 अप्रैल 2004 को द हिन्दूमें।


एक सिलसिला सा पूरा हुआ. अरुंधति रॉयका यह व्याख्यान पढ़ते हुए आप पाएंगे कि चीजें कैसे खुद को दोहरा रही हैं. यह व्याख्यान एक ऐसे समय में दिया गया था जब भाजपा के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार चुनावों में थी, कहा जा रहा था कि भारत का उदय हो चुका है, लोग अच्छा महसूस कर रहे हैं. लोग सोच रहे थे कि एनडीए के छह सालों के शासन ने तो पीस डाला है, एक बार फिर से कांग्रेस को मौका दिया जाना चाहिए. कांग्रेस जीती भी. लेकिन आज, दस साल के बाद कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने तो पीस कर रख दिया, भाजपा को मौका दिया जाना चाहिए. हवाओं और लहरों की बड़ी चर्चा है. लेकिन इस व्याख्यान को इस नजर से भी पढ़ा जाना चाहिए, कि क्या भारत में होने वाले लगभग हरेक चुनाव इसी तरह की झूठी उम्मीदें बंधाते हुए नहीं लड़े जाते. हर बार एक दल उम्मीदें तोड़ता है और दूसरे से उम्मीदें बांध ली जाती हैं. अगला चुनाव (या बहुत हुआ तो उससे अगला या उससे अगला) चुनाव आते आते ये दल आपस में भूमिकाएं बदल लेते हैं- और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!

http://basantipurtimes.blogspot.in/2014/04/blog-post_7167.html

http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_8.html


इसी प्रसंग में मशहूर कलमकार लाल्टू का लिखा भी पढ़ लेंः

कट्टरपंथ की जमीन कैसे बनती है? आगामी चुनावों में नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सुविधापरस्ती के गठजोड़ से निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और संघ परिवार की जड़ें और मजबूत होने की संभावनाएं लोकतांत्रिक सोच रखने वाले सभी लोगों के लिए चिंता का विषय हैं। औसत भारतीय नागरिक घोर सांप्रदायिक न भी हो, पर बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के प्रति उदासीनता से लेकर सांप्रदायिक आधार पर गढ़े गए राष्ट्रवाद में व्यापक आस्था हर ओर दिखती है। आखिर तमाम तरह की मानवतावादी कोशिशों और धरती पर हर इंसान की एक जैसी संघर्ष की स्थिति की असीमित जानकारी होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि दुनिया के तमाम मुल्कों में लोग संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच के बंधन से छूट नहीं पाते! इस जटिलता के कई कारणों में एक, शासकों द्वारा जनता से सच को छिपाए रख उसे राष्ट्रवाद के गोरखधंधे में फंसाए रखना है। इतिहास का ऐसा नियंत्रण महंगा पड़ता है।


पिछले पचास सालों से गोपनीय रखी गर्इं दो सरकारी रिपोर्टों पर डेढ़ साल पहले चर्चाएं शुरू हुई थीं। इनमें से एक, 1962 के भारत और चीन के बीच जंग पर है। दूसरी, आजादी के थोड़े समय बाद हैदराबाद राज्य को भारतीय गणराज्य में शामिल करने के सिलसिले में हुए ऑपरेशन पोलो नामक पुलिस कार्रवाई पर है। पहली रिपोर्ट को लिखने वाले भारतीय सेना के दो उच्च-अधिकारी ब्रूक्स और भगत थे। दूसरी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के करीब माने जाने वाले पंडित सुंदरलाल की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने तैयार की थी। पहली रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा अब सार्वजनिक हो चुका है। दूसरी रिपोर्ट आज भी गोपनीय है, हालांकि अलग-अलग सूत्रों से उसके कई हिस्से सार्वजनिक हो गए हैं।


हमारे अपने अतीत के बारे में बहुत सारी जानकारी हमें चीनी स्रोतों से मिलती है। प्राचीन काल से दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंध रहे हैं। इन सब बातों के बावजूद भारत में चीन के बारे में सोच शक-शुबहा पर आधारित है। भारत-चीन संबंधों पर हम सबने इकतरफा इतिहास पढ़ा है। हम यही मानते रहे हैं कि चीन एक हमलावर मुल्क है। हम शांतिप्रिय हैं और चीन ने हमला कर हमारी जमीन हड़प ली। ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल इस विषय पर लंबे अरसे से शोध करते रहे और उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में इस पर आलेख छापे। सीमा विवाद पर भारत के दावे से वे कभी पूरी तरह सहमत नहीं थे। चूंकि हम लोग चीन को हमलावर के अलावा और किसी नजरिए से देख ही नहीं सकते, उनके आलेखों पर कम ही लोगों ने गौर किया। अब रिपोर्ट उजागर होने पर यह साबित हो गया है कि मैक्सवेल ने हमेशा सही बात की थी।


जर्मन लोग आज तक यह सोच कर अचंभित होते हैं कि एक पूरा राष्ट्र यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी सोच का शिकार कैसे हो गया? विनाश के जो पैमाने तब तैयार हुए और दूसरी आलमी जंग में इनके मित्र देश जापान पर एटमी बमों की जो मार पड़ी, उससे उबरने में कई सदियां लगेंगी। वैसी ही ताकतें भारत में भी अपनी जड़ें जमाने में सफल हो रही हैं और अगर वे सफल होती गर्इं तो अगले दशकों में दक्षिण एशिया का हश्र क्या होगा, यह सोच कर भी भय होता है।


फासीवादी, नाजी, हिंदुत्ववादी, तालिबानी और ऐसी दीगर ताकतें झूठ और हिंसा के जरिए अमानवीयकरण की स्थिति में जी रहे लोगों को बरगलाने में सफल होती हैं। कैसी भी राजनीतिक प्रवृत्ति वाले दलों की हों, सरकारें सच को छिपा कर ऐसी स्थितियां पैदा करने में मदद करती हैं कि भुखमरी और सामाजिक अन्यायों के शिकार लोग झूठे राष्ट्रवादी गौरव में फंसे मानसिक रूप से गुलाम बन जाएं। लोग यह देखने के काबिल नहीं रह जाते कि सत्ता में आते ही कट्टरपंथी ताकतें आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला करेंगी। शिक्षा में खासतौर पर इतिहास, राजनीति विज्ञान और साहित्य जैसे विषयों में आमूलचूल बदलाव कर संकीर्ण सांप्रदायिक और मानव-विरोधी सोच को डालने की कोशिश करेंगी।


फिर आनंद तेलतुंबड़े को पढ़ लें।


आंबेडकर की विरासत

हालांकि आंबेडकर ने हिंदू धर्म में सुधारों के विचार के साथ शुरुआत की थी जिसका आधार उनका यह खयाल था कि जातियां, बंद वर्गों की व्यवस्था हैं [कास्ट्स इन इंडिया]. यह घेरेबंदी बहिर्विवाह और अंतर्विवाह के व्यवस्था के जरिए कायम रखी जाती है। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि अगर अंतर्विवाहों के जरिए इस व्यवस्था से मुक्ति पा ली गई तो इस घेरेबंदी में दरार पड़ जाएगी और जातियां वर्ग बन जाएंगी। इसलिए उनकी शुरुआती रणनीति यह बनी थी कि दलितों के संदर्भ में हिंदू समाज की बुराइयों को इस तरह उजागर किया जाए कि हिंदुओं के भीतर के प्रगतिशील तत्व सुधारों के लिए आगे आएं। महाड में उन्होंने ठीक यही कोशिश की है। हालांकि महाड में हुए कड़वे अनुभव से उन्होंने नतीजा निकाला कि हिंदू समाज में सुधार मुमकिन नहीं, क्योंकि इनकी जड़ें हिंदू धर्मशास्त्रों में गड़ी हुई थीं। तब उन्होंने सोचा कि इन धर्मशास्त्रों के पुर्जे उड़ाए बगैर जातियों का खात्मा नहीं होगा [एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट]। आखिर में, अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने वह तरीका अपनाया जो उनके विचारों के मुताबिक जातियों के खात्मे का तरीका था: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना वक्त बीत जाने के बाद, आज इस बात में कोई भी उनके विश्लेषण के तरीके की कमियों को आसानी से निकाल सकता है। लेकिन जातियों का खात्मा आंबेडकर की विरासत के केंद्र में बना रहा। इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया वह दलितों को सशक्त करने के लिए किया ताकि वे उस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष कर सकें, जो उनकी निगाह में 'स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे' को साकार करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट थी। चूंकि मार्क्सवादियों के उलट वे यह नहीं मानते थे कि इतिहास किसी तर्क के आधार पर विकसित होता है, कि इसकी गति को कोई नियम नियंत्रित करता है, इसलिए उन्होंने वह पद्धति अपनाई जिसे व्यवहारवाद कहा जाता है। इसमें उनपर कोलंबिया में उनके अध्यापक जॉन डिवी का असर था।


व्यवहारवाद एक ऐसा नजरिया है जो सिद्धांतों या विश्वासों का मूल्यांकन, व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करने में मिली कामयाबी के आधार पर करता है। यह किसी विचारधारात्मक नजरिए को नकारता है और सार्थकता, सच्चाई या मूल्य के निर्धारण में बुनियादी कसौटी के रूप में व्यावहारिक नतीजों पर जोर देता है. इसलिए यह मकसद की ईमानदारी और उसको अमल में लाने वाले के नैतिक आधार पर टिका होता है। आंबेडकर का संघर्ष इसकी मिसाल है। अगर इस आधार से समझौता कर लिया गया तो व्यवहारवाद का इस्तेमाल दुनिया में किसी भी चीज़ को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है। और आंबेडकर के बाद के आंदोलन में ठीक यही हुआ। दलित नेता'आंबेडकरवाद' या दलित हितों को आगे ले जाने के नाम पर अपना मतलब साधने में लगे रहे। भारत की राजनीति का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि एक बार अगर आप पैसा पा जाएं तो आप अपने साथ जनता का समर्थन होने का तमाशा खड़ा कर सकते हैं। एक बार यह घटिया सिलसिला शुरू हो जाए तो फिर इसमें से बाहर आना मुमकिन नहीं। इसी प्रक्रिया की बदौलत एक बारहवीं पास आठवले करोड़ों रुपए की संपत्ति जुटा सकता है, और उस आंबेडकर की विरासत का दावा कर सकता है जो बेमिसाल विद्वत्ता और दलितों-वंचितों के हितों के प्रति सर्वोच्च प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। करीब करीब यही बात दूसरे रामों और उनके जैसे राजनीतिक धंधेबाजों के बारे में भी कही जा सकती है। उनका सारा धंधा आंबेडकर और दलित हितों की तरक्की के नाम पर चलता है।

दलित हित क्या हैं?

अपने निजी मतलब को पूरा के लिए बेकरार ये सभी दलित हितों की पुकार मचाते हैं. दलित नेताओं में यह प्रवृत्ति तब भी थी जब आंबेडकर अभी मौजूद ही थे. तभी उन्होंने कांग्रेस को जलता हुआ घर बताते हुए उसमें शामिल होने के खिलाफ चेताया था. जब कांग्रेस ने महाराष्ट्र में यशवंत राव चह्वाण के जरिए दलित नेतृत्व को हथियाने का जाल फैलाया तो आंबेडकरी नेता उसमें जान-बूझ कर फंसते चले गए. बहाना यह था कि इससे वे दलित हितों की बेहतर सेवा कर पाएंगे. उन्होंने जनता को यह कहते हुए भी भरमाया कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ सहयोग किया था. भाजपा उस हजार चेहरों वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक धड़ा है, जो हिंदुत्व पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. उसने संस्कृति और धर्म का यह अजीब घालमेल जनता को भरमाने के लिए किया है. यह भाजपा अंबडकरियों के लिए सिर्फ एक अभिशाप ही हो सकती है. असल में अनेक वर्षों तक यह रही भी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आरएसएस ने समरसता (समानता नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य) का जाल दलित मछलियों को फंसाने के लिए फेंका और इसके बाद अपनी सख्त विचारधारा में थोड़ी ढील दी. दिलचस्प है कि दलित हितों के पैरोकार नेता, शासक वर्ग (और ऊंची जातियों) की इन पार्टियों को तो अपने ठिकाने के रूप में पाते हैं लेकिन वे कभी वामपंथी दलों पर विचार नहीं करते हैं, जो अपनी अनगिनत गलतियों के बावजूद उनके स्वाभाविक सहयोगी थे. इसकी वजह सिर्फ यह है कि वामपंथी दल उन्हें वह सब नहीं दे सके, जो भाजपा ने उन्हें दिया है.


तो फिर दलित हितों का वह कौन सा हौवा है, जिसके नाम पर ये लोग यह सारी करतब करते हैं? क्या वे यह जानते हैं कि 90 फीसदी दलितों की जिंदगी कैसी है? कि भूमिहीन मजदूरों, छोटे-हाशिए के किसानों, गांवों में कारीगरों और शहरों में झुग्गियों में रहने वाले ठेका मजदूरों और शहरी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टर में छोटे मोटे फेरीवाले की जिंदगी जीने वाले दलित किन संकटों का सामना करते हैं? यहां तक कि आंबेडकर ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में यह महसूस किया था और इस पर अफसोस जताया था कि वे उनके लिए कुछ नहीं कर सके. आंशिक भूमि सुधारों के पीछे की पूंजीवादी साजिशों और हरित क्रांति ने गांवों में पूंजीवादी संबंधों की पैठ बना दी, जिसमें दलितों के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं थे. इन कदमों का दलित जनता पर विनाशकारी असर पड़ा, जिनके तहत अंतर्निर्भरता की जजमानी परंपरा को नष्ट कर दिया गया. देहातों में पहले से कायम ऊंची जातियों के जमींदारों को बेदखल करके उनकी जगह लेने वाले, सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी शूद्र जातियों के धनी किसानों द्वारा क्रूर उत्पीड़न के लिए दलितों को बेसहारा छोड़ दिया. ब्राह्मणवाद का परचम अब उन्होंने अपने हाथों में ले लिया था. बीच के दशकों में आरक्षण ने उम्मीदें पैदा कीं, लेकिन वे जल्दी ही मुरझा गईं. जब तक दलितों को इसका अहसास होता कि उनके शहरी लाभान्वितों ने आरक्षणों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है, कि नवउदारवाद का हमला हुआ जिसने आरक्षणों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. हमारे राम इन सब कड़वी सच्चाइयों से बेपरवाह बने रहे और बल्कि उनमें से एक, उदित राज, ने तो आरक्षण के एक सूत्री एजेंडे के साथ एक अखिल भारतीय संगठन तब शुरू किया, जब वे वास्तव में खत्म हो चुके थे. जनता को आरक्षण के पीछे छिपी शासक वर्ग की साजिश को दिखाने के बजाए, वे शासक वर्ग की सेवा में इस झूठे आसरे को पालते-पोसते रहने को तरजीह देते हैं. क्या उन्हें यह नहीं पता कि 90 फीसदी दलितों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें जमीन चाहिए, सार्थक काम चाहिए, मुफ्त और उचित और बेहतर शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य की देखरेख चाहिए, उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जरूरी ढांचे चाहिए और जाति विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्था चाहिए. ये हैं दलितों के हित, और अफसोस इस बात है कि किसी दलित राम द्वारा उनकी दिशा में बढ़ना तक तो दूर, उनको जुबान तक पर नहीं लाया गया है.

भाजपाई राम के हनुमान

यह बात एक सच्चाई बनी हुई है कि ये राम दलित हितों के नाम पर सिर्फ अपना फायदा ही देखते हैं. उदित राज इनमें से सबसे ज्यादा जानकार हैं, अभी कल तक संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ हर तरह की आलोचनाएं करते आए हैं जो अगर कोई देखना चाहे तो उनकी किताब 'दलित्स एंड रिलिजियस फ्रीडम' में यह आलोचना भरी पड़ी है. उन्होंने मायावती को बेदखल करने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं और नाकाम रहने के बाद अब वे उस भाजपा की छांव में चले गए हैं, जो खुद उनके ही शब्दों में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है. दलितों के बीच उनकी जो कुछ भी थोड़ी बहुत साख थी, उसका फायदा भाजपा को दिलाने के लिए वे हनुमान की भूमिका अदा कर रहे हैं. दूसरे दोनों राम, पासवान और आठवले ने उदित राज के उलट भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने का फैसला किया है. वे दलितों में अपने छोटे-मोटे आधारों के बूते बेहतर सौदे पाने की कोशिश कर रहे हैं: पासवान को सात सीटें मिली हैं, जिनमें से तीन उनके अपने ही परिवार वालों को दी गई हैं, और आठवले को उनकी राज्य सभा सीट के अलावा एक सीट दी गई है. बीते हुए कल के कागजी बाघ आठवले नामदेव ढसाल के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जो बाल ठाकरे की गोद में जा गिरे थे. उस बाल ठाकरे की गोद में, जो आंबेडकर और आंबडेकरी दलितों से बेहद नफरत करता था. ये काबिल लोग अपने पुराने सहयोगियों द्वारा 'दलितों के अपमान' (अपने नहीं) को भाजपा के साथ हाथ मिलाने की वजह बताते हैं. आठवले का अपमान तब शुरू हुआ जब उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. उन्हें तब शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई जब उन्होंने दलितों द्वारा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के लिए दी गई भारी aकुर्बानी को नजरअंदाज कर दिया और विश्वविद्यालय के नाम को विस्तार दिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था. और न ही उन्हें तब शर्मिंदगी महसूस हुई जब उन्होंने दलित उत्पीड़न के अपराधियों के खिलाफ दायर मुकदमों को आनन-फानन में वापस ले लिया. ये तो महज कुछ उदारण हैं, पासवान और आठवले का पूरा कैरियर दलित हितों के साथ ऐसी ही गद्दारी से भरा हुआ है.


अब वे भाजपा के राम की सेवा करने वाले हनुमान की भूमिका निभाएंगे. लेकिन यह मौका है कि दलित उनके मुखौटों को नोच डालें और देख लें कि उनकी असली सूरत क्या है: एक घटिया बंदर!


अब कुछ फेसबुकीय प्रतिक्रियाएं।

अब जब दलित समाज अम्बेडकर को पढने, सराहने, मानने और अपने जीवन में उतारने लगा है तो आपको क्यों लगता है कि वह अम्बेडकर को भक्तिभाव से देखता है । और अगर वह देखता भी है तो इसमें क्या बुरा है? अम्बेडकर के प्रति भकितभाव तथाकथित धार्मिक भक्तिभाव जैसा नही है जी. इस भकितभाव में चेतना, संधर्षशीलता, ब्राह्मणवाद का विरोध, सामाजिक न्याय और समानता जैसे मू्ल्यवान मूल्य है.

हमारे दौर के लिए एक आंबेडकर | पत्रकार Praxis

www.patrakarpraxis.com

Faqir Jayबहेलिये चिड़िया को सिखाने चले है कि उसे अपने घोसले को कैसे बरतना चाहिए .एक फिल्म है सलमान खान की-- बॉडीगार्ड .(बुद्धिजीवी न होने के कारण मै सस्ती हिंदी फिल्मे देखता हूँ ).उसका एक डायलाग याद आता है --बस एक अहसान करना ,मुझपर न अहसान करना .एक उर्दू शेर भी है --अहसान न करते तो बड़ा अहसान होता


Farook ShahAnita ji, अरुंधती जी का काम अभी तक प्रोपर देखा नहीं है इसलिए उसके बारे में टिप्पणी नहीं. पर अम्बेडकर को बचाये रखने की जरूरत है. और साझा तरीकों से प्रयास हो ये भी मूवमेंट के व्याप और परिणामों के लिए जरूरी है. हम देख रहे हैं कि बाबा साहब को हमारे अन्दर से भी नकारने के सूर सुनाई दे रहे हैं और उनके सिद्धांतों की विरुद्ध सिद्धांत भी गड़े जा रहे हैं. ऐसे में बहुत सारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है.


आनंद तेलतुम्बडे शायद भूल रहे है कि गैर-दलितों/सवर्णों को दलित मुद्दों पर लिखने से रोका नहीं गया है. वे पहले भी लिखते रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे. लेकिन अंबेडकर की एक महत्वपूर्ण किताब की भूमिका लिखना और उसके साथ इन्साफ ना करना एक बिलकुल ही अलग चीज है!

विवाद के पीछे अरुंधती का माओवादी समर्थक होना उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि उनका सवर्ण पृष्ठभूमि से होना और उसे स्वीकार ना करना. उनका दावा है कि वह जाति-विहीन है! सवाल यह भी है कि अरुंधती का जाति के मुद्दे से जुड़ने का अनुभव रहा है या नहीं? सवाल यह भी है कि अरुंधती ने जो लिखा है उसमें जाति की वजह से सवर्णों को मिलने वाले फायदे पर चुप्पी क्यों है? दलित कैमरा को लिखे अपने जवाबी पत्र में भी अरुंधती अपनी पोजीशन को स्वीकार नहीं करना चाहती. वह स्वीकार नहीं करना चाहती कि उन्हें एक दलित से अधिक अवसर क्यूँ दिये जा रहे हैं? किताब पर आउटलुक और दूसरी जगह आये लेखों में 'अनाईलेशन ऑफ़ कास्ट' की बात नहीं हो रही, बल्कि 'द डॉक्टर एंड द सेंट' कि बात हो रही है! अंबेडकर को इस्तेमाल किया गया है और इसके खिलाफ विरोध के स्वर तो उठेंगे ही...


अनुवादक का यह कहना कि आनंद का लेख "सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है" यह दर्शाता है कि अनुवादक या तो राउंडटेबल इंडिया के लेखों और दलित कैमरा का अरुंधती को लिखा पत्र नहीं पढ़ा है या फिर वह जानबूझकर एक ख़ास विचारधारा को हम पर थोप रहे हैं!



http://www.patrakarpraxis.com/2014/04/blog-post_8.html

— with Anita Bharti and 6 others.


Himanshu Kumar

17 hrs·

यहाँ दो बच्चों के चित्र हैं .पहला नौ महीने का पाकिस्तानी बच्चा है जिस पर हत्या का आरोप लगाया गया है .

जज साहब उसे ज़मानत पर रिहा करते समय कागज़ात पर नौ महीने के बच्चे का अंगूठा लगवा रहे हैं .

दूसरा चित्र भारत के दंतेवाड़ा के गोम्पाड गाँव के डेढ़ साल के बच्चे सुरेश का है . इस बच्चे का हाथ सीआरपीएफ ने काट दिया .

आज तक किसी को सज़ा नहीं हुई . मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में है . मेरे अलावा बाकी के सभी आवेदकों का सरकार अपहरण कर चुकी है .

भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को सोचना चाहिए कि किस तरह का लोकतंत्र चाहिए दोनों देशों में .

अपनी हालत पर ध्यान दो .

अल्लाह और राम के नाम पर हुकूमतें चुनना बंद करो .

अपने हालात बदलने की कोशिश करो .



क्या हालात सच में हमारे पक्ष में हैं?क्या हम सच में आजाद हैं?

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क्या हालात सच में हमारे पक्ष में हैं?क्या हम सच में आजाद हैं?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



क्या हालात सच में हमारे पक्ष में हैं?


आज हम इस भ्रम  में जी रहे है कि हम आजाद हैं। क्या हम सच में आजाद है? हम कमा तो रहे हैं मगर दूसरों के लिए मजदूर बनके ।मजदूरी की औकात के सिवाय इस मुक्त बाजारु अर्थव्यवस्था में आम आदमी आम औरत के हिस्से में कुछ नहीं है। कांग्रेस और भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में युद्धरत प्रतिपक्ष है।पूरा देश नमोमय बनने को तैयार है और अब भारत उदय के बाद ब्रांड इंडिया की बारी है। जनादेश चाहे कुछ हो,सरकार चाहे किसी की  हो,खूनी आर्थिक एजंडा ही सार्वभौम संकल्पपत्र है जो कारपोरेट राज में सत्ता का पारपत्र है।


हिंदू राष्ट्र की बुनियादी अवधारणा गैरहिंदुओं के लिए नागरिक अधिकारों का निषेध है।गैर हिंदू महज विधर्मी नहीं है। यह समझने वाली बात है। गैरहिंदू में शमिल वे तमाम लोग हैं जो इस वक्त हिंदू राष्ट्र के सिपाहसालार और पैदलसेनाें हैं। ग्रहांतरवासी देवों देवियों  के हाथों बेदखल है देश और पूरी अर्थव्यवस्था उन्हीं के नियंत्रण में है।वे छिनाल पूंजी कालाधन के कारोबारी है और शेयर बाजार में सांढ़ों की दौड़ से जाहिर है कि वित्तीय पूंजी,विदेशी पूंजी और विदेशी निवेशकों के हाथ में हमारा रिमोट कंट्रोल है। दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं हमारे चुनकर संसदीय लोकतंत्र चलाने वाले तमाम भावी जनप्रतिनिधि।


विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों को तरजीह,खुदरा कारोबार से लेकर रक्षा क्षेत्र तक में अबाध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश,अंधाधुंध विनवेश,ठेका मजदूरी के मार्फत पढ़े लिखे कुशल और दक्ष नागरिक बहुराष्ट्रीय पूंजी और कारपोरेट इंडिया के बंधुआ मजदूरों में तब्दील है तो ब्रांड इंडिया के देश बेचो अभियान के तहत जल जंगल जमीन से बेदखल विस्थापन के शिकार लोग भी तमाम तरह की रंग बिरंगी कारपोरेट जिम्मेदारी और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के ताम झाम के बावजूद बाजार में अपना वजूद कायम रखने के लिए महज बंधुआ मजदूर हैं।


वोट डालने के अलावा मतदान समय से पहले और बाद भारतीय नागरिकों के हक हूक सिरे से लापता हैं। भारत सरकार न संसद और जनता के प्रति जवाबदेह हैं। नीति निर्धारण कारपोरेट है तोकारपोरेट लाबिइंग से राजकाज। आम जनता का किसी बिंदू पर कोई हस्तक्षेप नहीं है। वोट डालने के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया से फारिग नागरिकों के मौलिक अधिकार तक खतरे में हैं।नागरिको के सशक्तीकरण के लिए जो कारपोरेट प्रकल्प असंवैधानिक आधार है,उसके तहत हम अपनी पुतलियां और आंखों की छाप कारपोरेट साम्राज्यवादी तंत्र को खुली निगरानी के लिए सौंप ही चुके हैं।आप को चूं तक करने की इजाजत नहीं है।


कर प्रणाली बदलकर वित्तीय घाटा राजस्व घाटा का सारा बोझ आम लोगों पर डालने की तैयारी है।निजी कंपनियों को बैंकिंग लाइसेंस देने के मार्फत अब पूंजी जुटाने के लिए कारपोरेट इंडिया को पब्लिक इश्यु भी जारी करने की जरुरत नहीं है।जो शेयर बेचे जायेंगे वे सरकारी क्षेत्र के बचे हुए उपक्रम ही होंगे तो खरीददार भी भारतीय जीवन बीमा निगम और स्टेट बैंक आफ इंडिया जैसे संस्थान, जिन्हें तबाह किया जाना है। बीमा, पेंशन,भविष्यनिधि तक बेदखल है और अब जमा पूंजी भी सीधे बाजार में आपकी इजाजत के बिना।ऊपर से प्रत्यक्ष कर संहिता और जीएसटी की तैयारी है।एफडीआई तो खुलेआम है।


इस अर्थ तंत्र में बंधुआ बने आम नागरिकों के हकहकूक मारने के लिए एक तरफ तो संवैधानिक रक्षाकवच तोड़े जा रहे हैं,पांचवीं और छठीं अनुसूचियां लागू नहीं है। प्रकृति औरपर्यावरणपर कुठाराघात है और अंधाधुंध निजीकरण से सरकारी नियुक्तियां खत्म हो जाने की वजह से आरक्षण की कोई प्रासंगिकता ही नहीं है। रोजगार दफ्तरों को कैरियर काउंसिलिंग सेंटर बनाकर आम जनता को किसी भी तरह की नौकरी से वंचित करने का खुला एजंडा है। कैंपस रिक्रूटिंग से हायर और फायर होना है बंधुआ मजदूरों का और नियोक्ता का सारा उत्तरदायित्व सिर से खत्म है।


जो मीडिया कर्मी मोदी सुनामी बनाने के लिए एढ़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, मजीठिया के हश्र को देखकर भी वे होश में नहीं है।वैसे मीडिया में स्थाई नौकरियां अब हैं ही नहीं। वेतनमान लागू होता ही नहीं है।श्रम कानून कहीं लागू है ही नहीं।न किसी कस्म की आजादी है।पेड न्यूज तंत्र में लगे इन बंधुआ मजदूरों की छंटनी भी आम है।नौकरी बनी रही तो कूकूरगति है। अब पूरे देश के अर्थ तंत्र का,उत्पादन इकाइयों का यही हश्र हो ,इसकी हवा और लहर बनाने में मीडिया के लोग जान तक कुर्बानकरने को तैयार हैं।


नवउदारवादी जमाने में किसान और खेत,देहात और जनपदों का सफाया है।विस्थापन और मृत्यु जुलूस रोजमर्रे की जिंदगी है।कल कारखाने कब्रिस्तान बन गये है। शैतानी औद्योगिक  गलियारो और हाईवे बुलेट ट्रेन  नेटवर्क में देहात भारत की सफाये की पूरी तैयारी है औरकहीं से कोई प्रतिवाद प्रतिरोध नहीं है।


फिरभी हम आजाद हैं। आजादी काजश्न मना रहे हैं हम।


क्या हालात सच में हमारे पक्ष में हैं?


आज हम इस भ्रम  में जी रहे है कि हम आजाद हैं। क्या हम सच में आजाद है?


असली जिम्मेदार कौन है?ईश्वर की मृत्युघोषणा से पहले अमेरिका ने नया ईश्वर गढ़ दिया है,जिसे मंदिर में बसा रहे हैं हम।

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असली जिम्मेदार कौन है?ईश्वर की मृत्युघोषणा से पहले अमेरिका ने नया ईश्वर गढ़ दिया है,जिसे मंदिर में बसा रहे हैं हम।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


कभी आपने सोचा है कि कौन है असली जिम्मेदार इस महंगे दौर के लिए ? चादर उतनी ही है,फैलाते रहने की कसरत में लेकिन रात दिन की कसरत है।हमारी क्रयशक्ति के दायरे से बाहर क्यों हैं तमाम जरुरी चीजें,बुनियादी जरुरतें और सेवााएं?क्या बढ़ती हुई आबादी इसकी मूल वजह  है या संसाधनों की लूट खसोट या बेदखली का अनंत सिलसिला और यह अंधा आत्मघाती शहरीकरण है जिम्मेदार,जिसकी चकाचौंध में जल जंगल जमीन आजीविका नौकरी नागरिकता और तमाम हकहकूक से निरंतर खारिज कर दिये जाने के बाद हमारी इंद्रियों में कामोत्तेजना के सिवाय कोई अहसास ही नहीं है,खून का दरिया चारों तरफ है और हम हरियाले हुए जाते हैं, वधस्थल पर जश्न में जुनून की हद तक शामिल हैं हम इसतरह कि गला रेंता जा रहा है और किसी को कोई खबर तक नहीं  है ?क्या है कोई साजिस गहरी सी गहराती हरवक्त और हम बेखबर?


इन हालात के लिए हम और हमीं सवाल पूछे अपने आइने से मुखातिब होकर कम से कम एक दफा कि आखिरकार  हम जिम्मेदार किसे ठहराएंगे?


देश जो बेचा जा रहा है,उसके खिलाफ हम मौन हैं और धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी ध्रूवीकरण के हम मुखर सैनिक हैं।


हम फिर फिर देश बेचो कारोबार के सरगना चुन रहे हैं बार बार।बार बार।


आत्महत्या करते किसानों की लाशें हमारे ख्वाबों में हमें मृतात्माओं का सामना करने के लिए मजबूर नहीं करतीं।


अपनों की चीखें हमें बेचैन नहीं करती।


सूखी नदियों की रुलाई हमारी दम नहीं घोंटती।


जख्मी घाटियों का दर्द हमारे हिस्से का दर्द नहीं।

कब्रिस्तान बने देहात हमारा दोहात नहीं।

यह मृत्यु उपत्यका हमारा देश नहीं ।

ग्रहांतरवासी शासक तबके के अलगाववादी समूह में चर्बीदार बनने की आपाधापी में हम भूल गये कि मनुष्यता और प्रकृति दोनों खतरे में हैं तो आखिरकार मारे तो हम भी जायेंगे।


शौतानी वैश्विक  हुकूमत के गुलाम हैं हम।


आजादी का जश्न मना रहे हैं हम। गुरुवार को देश में इकानब्वे लोकसभा चुनावों में भारी मतदान के पैमाने से हम उस जम्हूरियत की सेहत तौल रहे हैं,जिसका वजूद पहले से ही खत्म है।


हकीकत तो यह है बंधु, हमारे मताधिकार की औकात बता दी है अमेरिका ने।पांचवे हिस्से के मतदान से पहले अमेरिका में विजय पताका फहरा दिया गया है नमोमय ब्रांड इंडिया का।जिन रेटिंग एजंसियों को भारत की वृद्धि दर और वित्तीय घाटा पर चेतावनियां जारी करने से फुरसत नहीं थीं, पेशेवर नैतिकता और मुक्त बाजार के नियमों के विपरीत,राजनयिक बाध्यताओं के प्रतिकूल मोदी की जीत में भारत उदय की घोषणाएं कर रही हैं।


पलक पांवड़े बिछाकर नमो प्रधानमंत्री का इंतजार हो रहा है,उस अमेरिका में जहां कल तक अवांछित थे नमो।


जैसे कि गुजरात का नरसंहार क्या तारीख के पन्नों से सिरे से गायब हो चुका है या मानवाधिकार के अमेरिकी पैमाने भारत में अमेरिकी वसंत के कमल खिलाने के लिए सिरे से बदल दिये गये हैं,सोचना आपको यह है।


बशर्ते कि नाक आपकी सही सलामत हो,तो सूंघ सकें तो सूंघ लीजिए डियोड्रेंट और जापानी तेल में निष्णात साजिश की उस सड़ांध को जिसके तहत नईदिल्ली के साउथ ब्लाक में एक अर्थशास्त्री वित्त मंत्री का अवतार हुआ और अमेरिकी व्हाइट हाउस और पेंटागन के इशारे पर वे लगातार दस बरस तक भारत के ईश्वर बने रहे हैं।


अमेरिकी संस्थाओं ने बाकायदा बिगुल बजाकर उस ईश्वर की मृत्युघोषणा कर दी,जो जनसंहारी एजंडे को उनके जायनी एजंडे के तहत राजनीतिक बाध्यताओं के कारण उनकी तलब के मुताबिक प्रत्याशित गति और कार्यान्वयन की दिशा देने में फेल कर गये।तब उन्हें अपाहिज बताया गया और भारत में चुनाव प्रक्रिया पूरी होना तो दूर,कायदे से एक तिहाई भारत में मतदान होने से पहले ही भगवान की मौत का फतवा जारी हो गया।


हाल यह कि गोल्डमन सैक्स, एचएसबीसी और सिटी ग्रुप समेत दर्जन भर से ज्यादा वैश्विक वित्तिय कंपनियां भारत के आम चुनावों में गहरी रुचि दिखा रही हैं ।हमें इसमें साजिस की बू नहीं आ रही है।


हम गदगद है कि  वे संभावित नतीजों और उनसे होने वाले आर्थिक प्रभावों का भी आकलन कर रही हैं।वे संभावित नतीजों और उनसे होने वाले आर्थिक प्रभावाों का भी आकलन कर रही हैं। भारत के चुनावों में इन बड़ी कंपनियों की रुचि की मुख्य वजह यह है कि भारत पिछले एक-दो दशकों में राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक बड़े केंद्र के रूप में उभरा है। भारतीय चुनाव में गहरी रचि ले रही फर्मों में बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच, नोमुरा, बाक्र्लेज, यूबीएस, सीएलएसए, बीएनीपी पारिबा, आरबीएस, डॉयचे बैंक, क्रेडिट सुइस, मार्गन स्टैनली और जेपी मॉर्गन शामिल हैं।


समझ लीजिये कि इसका मतलब क्या है और किसके हित कहां दांव पर हैं।


सबस बड़ी बात यह है कि आबादी के कारण भारत एक बड़ा बाजार है ही ।बड़े बाजार के अलावा अमेरिकी नजरिये से भारत की कोई औकात है ही नहीं।


उत्पादन प्रणाली या उत्पादन के लिहाज से नहीं,सेवा और असंगठित क्षेत्र के हिसाब से भारत देश अगले कुछ दशकों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।यह शर्मशसार करने वाली बात है और हम बल्ले बल्ले हुए जा रहे हैं।


मुक्त बाजार के समीकऱमों के हिसाब से  देश के नेतृत्व में बदलाव और नीतियों में तब्दीली का दुनिया भर पर सीधा असर होगा।


इनमें से ज्यादातर कंपनियों,और खासकर अमेरिकी कंपनियों  का मानना है कि बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस दौड़ में सबसे आगे चल रहे हैं और वह कारोबारी जगत के लिए अनुकूल रुख रखते हैं। यह बात इन कंपनियों द्वारा अपने और अपने ग्राहकों के काम के लिए कराए गए आंतरिक विश्लेषणों और सर्वेक्षणों में सामने आई है।


दूसरी ओर, हम अभी ध्रूवीकरण के खेल में मजे ले रहे हैं।बालीवूड की फिल्मों में अब वह मजा रहा नहीं है,और विवाह मंडप छोड़ती दुल्हनों, बाप तय करने की उलझन में फंसी माताओं के आईपीएल कैसिनो में दाखिल होने से पहले देश भर में अखंड सिनेमा है मीडिया का, जसके मसाले बालीवूड के मुकाबले रसीले है ज्यादा। हत्या, अपराध, बलात्कार, हिंसा, क्रांति, जिहाद,अदालत, पुलिस और कानून,धर्म,प्रवचन, परिवार,सेक्स, मनोरंजन, सितारे,जोकर और बंदर से लेकर कुत्तों तक का हैरतअंगेज हंगामा है।


ट्रेलर चलने के दौरान ही फिल्म का क्लाइमेक्स का खुलासा करके नाइट विद कपिल के कहकहे सिरे से हाइजैक कर लिया अमेरिका ने।



फिर साबित हुआ कि जनता के वोट से इस देश में कुछ भी नहीं होता।जनादेश रेडीमेड है। जिसे अमली जामा पहनाने की रस्म भर है यह वोट जश्न जिसमें कमाने वाले कमा लेंगे,मारे जाने वाले मारे जायेंगे और होगा वहीं जो खुदा की मर्जी है।होइहें सोई जो राम रचि राखा।


गौरतलब है कि अमेरिका के प्रभावशाली समाचारपत्र दि वाशिंगटन पोस्ट ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को सलाह दी है कि भारत को बेशक उनकी नीति पर चलने की जरूरत है, पर उन्हें पूर्वाग्रह वाले बड़बोलेपन की बजाय अपनी सफलता पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।अखबार ने अपने संपादकीय में मोदी और भाजपा को लेकर तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी आलोचकों की आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए कहा कि उन्होंने मुस्लिमविरोधी बड़बोलापन छोड़ दिया है। मोदी के सरकार बनाने पर लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण और धार्मिक उन्माद बढ़ने की आशंकाओं से इन्कार करते हुए अखबार ने कहा कि भारत की राजनीतिक संस्कृति ऐसे उग्रतावाद को हावी होने से रोकने में सक्षम है। अखबार ने कहा कि मोदी को लेकर आशंकाएं नई नहीं हैं। वर्ष 1998 में जब भाजपा ने पहली बार सरकार संभाली थी तब भी ऐसी ही आशंकाएं व्यक्त की गई थीं।


अखबार ने अमेरिका के ओबामा प्रशासन द्वारा मोदी की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने पर प्रशंसा की है और कहा है कि यह सोचना सही है कि मोदी सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ाने की बजाय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के वायदे पर काम करेगे। द वाशिंगटन पोस्ट ने मोदी को करिश्माई और कठोर परिश्रमी बताते हुए कहा कि उनके वादे भारत में बहुत बड़े बदलाव के सूचक है जबकि पिछले दशक में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के अप्रभावी नेतृत्व के कारण भारत की हालत खस्ता हो गई है।


अखबार ने मोदी की तमाम कमियों को भी गिनाया है लेकिन कहा है कि उनके सकारात्मक पहलू ज्यादा हैं। अखबार ने उनके पहले शौचालय फिर देवालय वाले बयान को उद्धृत करते हुए कहा कि इससे पता चलता है कि वह सांप्रदायिक एवं मुस्लिम विरोधी रुख छोड़ चुके हैं।




मजे की बात है कि इन्हीं परिस्थितियों में संघ परिवार से भी हिंदुत्व के उग्र प्रवक्ता शिवसेना ने सोमवार को कहा कि अमेरिका भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता नरेंद्र मोदी के भारत के अगले प्रधानमंत्री बनने की संभावना से डरा हुआ है। शिवसेना के मुखपत्र `सामना` के संपादकीय में कहा गया है कि अमेरिका ने हाल ही में अपनी चिंता जताई है कि अगर मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आ गई तो अल्पसंख्यक और मुसलमान कुचल दिए जाएंगे।


अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक मसले पर इस संपादकीय में अमेरिका की आलोचना करते हुए कहा गया है कि भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है।उन्होंने कहा कि अमेरिका को किसने इसके चुनाव और आंतरिक मसले पर बोलने का अधिकार दिया है? अमेरिका को देश के आंतरिक मसले पर बोलने का हक नहीं है।


“নির্বাচনে ঠিক হতে যাচ্ছে সমস্যাপূর্ণ মানুষগুলির উপর মিলিটারি ছাড়বে কে।” — অরুন্ধতী রায়

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"নির্বাচনে ঠিক হতে যাচ্ছে সমস্যাপূর্ণ মানুষগুলির উপর মিলিটারি ছাড়বে কে।"— অরুন্ধতী রায়

৩০ মার্চ  ২০১৪ জর্জিয়া স্ট্রেইটে ভারতের প্রখ্যাত লেখিকা অরুন্ধতী রায়  এর একটি সাক্ষাৎকার প্রকাশিত হয়। আমেরিকার ভ্যানকুভারে এপ্রিলের ১ তারিখে একটি পাবলিক লেকচার দেওয়ার জন্য নিউইয়র্কে অবস্থান করছিলেন তিনি। নিউইয়র্ক থেকে টেলিফোনে সাক্ষাৎকারটি দেন তিনি। সাক্ষাৎকারে ভারতের নির্বাচন, কর্পোরেটদের নিয়ন্ত্রণ, প্রধান দুই দলের রাজনীতি, ভারতে ধনী-গরীবের অসমতা, দলগুলির রাজনৈতিক কৌশল, আন্না হাজারে, ভারতের এলিটদের অসমতা নিয়ে কথা না বলা ইত্যাদি বিষয়ে কথা বলেন। তাঁর কথায় ভারতের রাজনীতির অনেক গুরুত্বপূর্ণ দিক উঠে এসেছে। অরুন্ধতী রায় মনে করেন, ভারতের কর্পোরেট শক্তি চায় নরেন্দ্র মোদীকে প্রধানমন্ত্রী হিসাবে দেখতে। তিনি মনে করেন, নরেন্দ্র মোদী প্রধানমন্ত্রী হলে ভারতের গ্রামের গরীব জনগোষ্ঠীর উপর সেনাবাহিনী ছেড়ে দিবেন।
অরুন্ধতী রায়; ছবি. সঞ্জয় কাক; সৌজন্য: pcp.gc.cuny.edu

সাক্ষাৎকার: চার্লি স্মিথ

ভারতীয় লেখিকা অরুন্ধতী রায় সারা পৃথিবীকে জানাতে চান তার দেশ সে দেশের সবচেয়ে বড় কর্পোরশনগুলির নিয়ন্ত্রণে আছে।
অরুন্ধতী নিউইয়র্ক থেকে জর্জিয়া স্ট্রেইটকে ফোনে বলেন, "সব সম্পদ খুব অল্প সংখ্যক হাতে জমা হয়েছে। এবং এই অল্প সংখ্যক কর্পোরেশন এখন দেশ চালায় এবং কোনো কোনো ক্ষেত্রে তারা রাজনৈতিক দলগুলিকেও নিয়ন্ত্রণ করে। তারা মিডিয়াও চালায়।"
দিল্লীর এই ঔপন্যাসিক এবং লেখিকা বলেন, মধ্যবিত্তদের কথা বাদ দিলে, এর ফলে ভারতের শত শত লক্ষ গরীব মানুষের উপর মারাত্মক ক্ষতিকর প্রভাব পড়ছে।
অরুন্ধতী স্ট্রেইটের সাথে এপ্রিলের ১ তারিখ সন্ধ্যা আটটায় অনুষ্ঠিত একটি পাবলিক লেকচারের ব্যাপারে কথা বলেন। পাবলিক লেকচারটি হয়েছিল নেলসন স্ট্রিট এবং বারার্ডের কোণায় সেইন্ট অ্যান্ড্রু'স উয়ীসলী ইউনাইটেড চার্চে। তিনি বলেন এটা হবে তাঁর প্রথম ভ্যানকুভার ভ্রমণ।
গত কয়েক বছর ধরে তিনি গবেষণা করে দেখেছেন ভারতের বড় বড় কর্পোরেশনগুলি–যেমন রিলায়েন্স, টাটা, এসার, এবং ইনফোসাইস–কীভাবে তারা মার্কিন যুক্তরাষ্ট্র ভিত্তিক রকফেলার ফাউন্ডেশন এবং ফোর্ড ফাউন্ডেশনের মত কৌশল অবলম্বন করছে।
তিনি বলেন, রকফেলার ফাউন্ডেশন এবং ফোর্ড ফাউন্ডেশন দীর্ঘদিন যুক্তরাষ্ট্র সরকারের স্টেট ডিপার্টমেন্টে, সেন্ট্রাল ইন্টেলিজেন্স এজেন্সিতে  এবং পরে কর্পোরেট উদ্দেশ্য নিয়ে অতীতে অনেক কাজ করেছে।
তিনি বলেন, এখন ভারতীয় কোম্পানিগুলি জনগণের এজেন্ডা নিয়ন্ত্রণ করার জন্য দাতব্য ফাউন্ডেশনগুলির মাধ্যমে টাকা বিতরণ করছে। এই পদ্ধতিকে তিনি বলেন 'পারসেপশন ম্যানেজমেন্ট'বা 'উপলব্ধির জায়গা নিয়ন্ত্রণ'। এই পদ্ধতির মধ্যে পড়ে বেসরকারী সংস্থাগুলিকে চ্যানেলিং ফান্ড প্রদান, চলচ্চিত্র এবং সাহিত্য উৎসব এবং বিশ্ববিদ্যালয়।
তিনি আরো উল্লেখ করেন যে টাটা গ্রুপ এটা গত কয়েক দশক ধরে করছে কিন্তু অন্যান্য বড় সংস্থাগুলি এই ব্যাপারটি অনুসরণ করতে শুরু করেছে।
পাবলিক ফান্ডিং-এর জায়গা নিচ্ছে ব্যক্তিগত সম্পত্তিঅরুন্ধতী রায়ের মতে, এ সবকিছুর উদ্দেশ্য আসলে অসমতা বাড়িয়ে তোলে এমন নিওলিবারেল পলিসির সমালোচনাকে চাপা দেওয়া।
আস্তে আস্তে তারা কী কী কাজ হবে তা নির্ধারণ করে। তারা জনগণের চিন্তা-ভাবনা নিয়ন্ত্রণ করে। ফলে জনগণের জন্য নির্ধারিত স্বাস্থ্যখাত এবং শিক্ষাখাতের টাকা সেসব খাত থেকে বাদ পড়ে যায়। এসব বড় বড় কর্পোরেশনগুলি এনজিওদের ফান্ড দিয়ে এবং অন্যান্য অর্থনৈতিক কার্যক্রমের মাধ্যমে ঔপনিবেশ আমলে মিশনারিরা যা করত তাই করে। আর নিজেদের দাতব্য সংস্থা হিসাবে প্রতিষ্ঠা করে। কিন্তু তারা আসলে পৃথিবীকে কর্পোরেট-পুঁজির মুক্ত বাজারে পরিণত করার কাজটা করে।
অরুন্ধতী রায় ১৯৯৭ সালে দি গড অব স্মল থিংস-এর জন্য বুকার পুরস্কার পান। তখন থেকে তিনি যেসব খনির উত্তোলন এবং বিদ্যুৎ প্রকল্প গরিবদের উচ্ছেদ করে তার বিরুদ্ধে আন্দোলনের মাধ্যমে ভারতের গুরুত্বপূর্ণ সমাজ-সমালোচক হিসাবে কাজ করে আসছেন।

হাজারে তাঁর সাদা টুপি এবং প্রথাগত ভারতীয় সাদা পোশাকে সারা পৃথিবীর কাছে আধুনিক দিনের মহাত্মা গান্ধী হিসেবে স্বীকৃতি পেয়েছেন। কিন্তু অরুন্ধতী দুজনকেই বলেন 'মারাত্মক বিরক্তিকর'। তিনি হাজারের কথা বলেন, তার পিছনের কর্পোরেট সমর্থকদের জন্য তিনি 'এক ধরনের মাসকট'।



ভারতের বিভিন্ন প্রদেশে নকশাল আন্দোলনের মাধ্যমে যেসব দারিদ্র্যপীড়িত গ্রামীণ জনগোষ্ঠী তাদের নিজস্ব জীবনধারা রক্ষা করতে হাতে অস্ত্র তুলে নিয়েছেন তিনি তাদের নিয়েও লেখালেখি করেছেন।
তিনি বলেন, প্রতিবাদ আন্দোলনে মানুষ যে সাহস এবং বিচক্ষণতা দেখায় আমি তার প্রশংসা করি। এবং সেখান থেকেই আমার বোঝাপড়া তৈরি হয়।
তাঁর মনোযোগের প্রধান একটি বিষয় হলো কীভাবে ফাউন্ডেশনের ফান্ড পাওয়া এনজিওগুলি "জনগণের আন্দোলন নষ্ট করে দেয়… রাজনৈতিক ক্রোধকে নিঃশেষ করে এবং তাদেরকে একটি কানাগলিতে নিয়ে যায়।"
তিনি বলেন, নির্যাতিত জনগোষ্ঠীকে বিভক্ত করে রাখাটা খুব গুরুত্বপূর্ণ। এটা পুরো কলোনিয়াল-গেম, এবং বৈচিত্র্যের কারণে ভারতে এটা খুব সহজ।
অরুন্ধতী পুঁজিবাদের উপর একটি বই লিখছেন২০১০ সালে তিনি যখন বলেন কাশ্মীর ভারতের সাথে অবিচ্ছেদ্য না তখন তাঁর বিরুদ্ধে রাষ্ট্রদ্রোহের অভিযোগ আনার চেষ্টা করা হয়েছিল। উত্তরাঞ্চলের এই প্রদেশটি অনেকদিন ধরেই ভারত এবং পাকিস্তানের অভ্যন্তরীণ বিরোধের মূল বিষয় হয়ে আছে।
অরুন্ধতী স্ট্রেইটকে বলেন, এই ব্যাপারে কিছু পুলিশী তদন্ত হওয়ার কথা ছিল কিন্তু তা আর হয়নি। ভারতে এরকম হয় আসলে। তারা মনে করে আপনার মাথার ওপর এইসব ঝুলিয়ে রাখলে তা কাজ করবে এবং আপনি আরো সাবধানী হয়ে যাবেন।
স্পষ্টতই এই ব্যাপারটি তাঁকে চুপ করাতে পারে নি। তাঁর সামনের বই ক্যাপিটালিজম: এ ঘোস্ট স্টোরি'তে তিনি দেখিয়েছেন কীভাবে ভারতের ১০০ জন ধনী ব্যক্তি দেশের নিত্য ব্যবহার্য পণ্যের এক-চতুর্থাংশ নিয়ন্ত্রণ করেন।
২০১২ সালে একই নামে তাঁর লেখা দীর্ঘ একটি প্রবন্ধ থেকে তিনি বইটি লিখছেন। এই প্রবন্ধটি ভারতের আউটলুক ম্যাগাজিনে প্রকাশিত হয়েছিল।
অরুন্ধতী লিখেছেন, ভারতে আইএমএফ পরবর্তী তিনশ মিলিয়ন মধ্যবিত্ত এবং বাজার নিম্নমানের একটা পৃথিবীতে বাঁচে। সেখানে মরে যাওয়া নদী, শুকিয়ে যাওয়া কুয়া, শূন্য হয়ে যাওয়া পাহাড় এবং উচ্ছেদ হয়ে যাওয়া বনভূমির ভিতর বাঁচতে হয় তাদের।
এই প্রবন্ধে দেখানো হয়েছে কীভাবে ফাউন্ডেশনগুলি ভারতের নারীবাদী সংস্থাগুলিকে নিয়ন্ত্রণ করে, কীভাবে নিজেদের মনের মত থিঙ্ক-ট্যাঙ্কগুলি পরিচালনা করে। দেখানো হয়েছে কীভাবে ভারতে 'দলিত'সম্প্রদায় থেকে স্কলার নির্বাচিত করে। পশ্চিমে 'দলিত'সম্প্রদায়কে অস্পৃশ্য হিসাবে উল্লেখ করা হয়।

যখন উত্তেজিত হিন্দু জনতা হত্যাকাণ্ড চালাচ্ছিল তখন পুলিশ নিষ্ক্রিয়ভাবে ঘটনাস্থলে দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়ে দেখছিল। কয়েক বছর পরে, পুলিশের একজন সিনিয়র কর্মকর্তা স্বীকার করেছিলেন মোদী খোলাখুলিভাবে সেই হত্যাকাণ্ড অনুমোদন করেছিলেন। যদিও মোদী বারবার এই অভিযোগ অস্বীকার করেছেন।



উদাহরণ হিসাবে তিনি দেখিয়েছেন, রিলায়েন্স গ্রুপের অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশনের একটি নির্ধারিত লক্ষ্য আছে। তা হলো, অর্থনৈতিক পুনর্গঠনের পক্ষে ঐকমত্য অর্জন করা।
অরুন্ধতী বলেন, অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশন পারমাণবিক, বায়োলজ্যিকাল এবং রাসায়নিক হুমকির পাল্টা ব্যবস্থা কী হবে তা নির্ধারণ করে।
তিনি এখানে দেখিয়েছে অবজার্ভার রিসার্চ ফাউন্ডেশনের পার্টনারদের মধ্যে আছে রেথিওন এবং লকহীড মার্টিনের মত অস্ত্র তৈরিকারক প্রতিষ্ঠান।
আন্না হাজারে একটি কর্পোরেট মাসকটের ডাক দিয়েছিলেনস্ট্রেইটের সাথে ইন্টারভিউতে অরুন্ধতী দাবি করেন, খুব বিখ্যাত 'ইন্ডিয়া অ্যাগেইন্সট করাপশন'ক্যাম্পেইন হলো আরেকটি কর্পোরেট অনধিকারচর্চার উদাহরণ।
অরুন্ধতী রায়ের মতে, এই আন্দোলনের নেতা আন্না হাজারে আন্তর্জাতিক পুঁজির সামনের দিক হিসাবে কাজ করেছেন। আর এর উদ্দেশ্য ছিল যে কোনো ধরনের স্থানীয় বাঁধা সরিয়ে ভারতের সম্পদে প্রবেশ করার সুযোগ অর্জন করা। হাজারে তাঁর সাদা টুপি এবং প্রথাগত ভারতীয় সাদা পোশাকে সারা পৃথিবীর কাছে আধুনিক দিনের মহাত্মা গান্ধী হিসেবে স্বীকৃতি পেয়েছেন। কিন্তু অরুন্ধতী দুজনকেই বলেন 'মারাত্মক বিরক্তিকর'। তিনি হাজারের কথা বলেন, তার পিছনের কর্পোরেট সমর্থকদের জন্য তিনি  'এক ধরনের মাসকট'।
অরুন্ধতীর দৃষ্টিতে, 'স্বচ্ছতা'এবং 'আইনের শাসন'শব্দ দুটি কর্পোরেশনের জন্য স্থানীয় ক্যাপিটাল একত্রিত করার চাবিকাঠি। আর আইনকে পাশ কাটিয়ে সে উদ্দেশ্য পূরণই পরবর্তীতে কর্পোরেটের মূল আগ্রহ।
তিনি বলেন, এটা মোটেই আর্শ্চযের বিষয় না যে অধিকাংশ প্রভাবশালী ভারতীয় পুঁজিবাদীরা জনগণের মনোযোগ রাজনৈতিক দুর্নীতির দিকে সরাতে চাইবে, যেমন সাধারণ ভারতীয়রা ভারতের অর্থনীতির ধীরগতি নিয়ে চিন্তা করবে। আসলে, এই সাধারণ চিন্তাটিই প্রতিবাদে পরিণত হয় যখন মধ্যবিত্ত বুঝতে শুরু করে ধীরগতির অর্থনীতির চাকা থেমে গেছে।
অরুন্ধতী বলেন, প্রথমবারের মত মধ্যবিত্তরা কর্পোরেশনগুলির দিকে তাকিয়ে ছিল এবং বুঝতে পেরেছিল তারা আসলে মারাত্মক দুর্নীতির উৎস। আগে যেখানে তাদেরকে উপাসনা করত। তখন ইন্ডিয়া এগেইন্সট করাপশন আন্দোলন শুরু হয়। আর এর স্পটলাইট তখনই ঘুরে পড়ল সবচেয়ে আকর্ষণীয় জায়গায়–রাজনীতিবিদ আর কর্পোরেশনগুলি এবং কর্পোরেট মিডিয়া এবং সবাই এটার উপর হুমড়ি খেয়ে পড়লো এবং তাদের ২৪ ঘণ্টার কভারেজ দিল।
আউটলুকে তাঁর প্রবন্ধটি দেখিয়েছে হাজারের সাথে প্রভাবশালী ব্যক্তিবর্গের সম্পর্ক, অরবিন্দ কেজরিওয়াল এবং কিরণ বেদী। এই দুজনই যুক্তরাষ্ট্রের দেয়া ফান্ডের মাধ্যমে এনজিও চালান।
তিনি আউটলুকে লিখেছেন, অকুপাই ওয়ালস্ট্রিট আন্দোলন যেমন প্রাইভেটাইজেশন, কর্পোরেট ক্ষমতা অথবা অর্থনৈতিক পুনর্বিন্যাসের বিরুদ্ধে বলেছে, আন্না হাজারের আন্দোলন প্রাইভেটাইজেশন, কর্পোরেট ক্ষমতা অথবা অর্থনৈতিক পুনর্বিন্যাসের বিরুদ্ধে একটি কথাও বলেনি।
নরেন্দ্র মোদী ডানপন্থীদের রক্ষাকারী
অরুন্ধতী রায় স্ট্রেইটকে বলেন, কর্পোরেট ভারত নরেন্দ্র মোদীকে ভারতের পরবর্তী প্রধানমন্ত্রী হিসাবে চাচ্ছে কারণ বর্তমান ক্ষমতায় থাকা কংগ্রেস পার্টি বাড়তে থাকা প্রতিবাদ আন্দোলনের বিরুদ্ধে যথেষ্ট নির্মম থাকতে পারেনি।
তিনি বলেন, আমার মনে হয় সামনের নির্বাচনে ঠিক হতে যাচ্ছে সমস্যাজনক মানুষের ওপর মিলিটারি ছাড়বে কে।
বিভিন্ন প্রদেশে সশস্ত্র বিদ্রোহ বড় ধরনের খনন কাজ এবং অবকাঠামোগত প্রকল্পে বাঁধা দিয়েছে। এই প্রকল্পগুলি বাস্তবায়িত হলে অনেক বেশিসংখ্যক মানুষকে স্থানান্তরিত হতে হত।
এই ধরনের অনেক শিল্পোন্নয়ন ২০০৪ সালে স্বাক্ষরিত হওয়া আন্ডারস্ট্যান্ডিং স্মারকলিপির বিষয় ছিল।
ইন্ডিয়ার মাওবাদী গেরিলা যোদ্ধাদের সঙ্গে কথা বলছেন অরুন্ধতী রায়
হিন্দু জাতীয়তাবাদী বিজেপি কোয়ালিশনের প্রধান ২০০২ সালে ভারতের গুজরাট রাজ্যে যখন মুসলমানদের উপর গণহত্যা চালায় তখন তিনি গুজরাটের মুখ্যমন্ত্রী ছিলেন। এই ঘটনার পর মোদী সবার কাছে নিন্দিত হয়ে ওঠেন। সরকারি হিসাবেই নিহতের সংখ্যা ১০০০ পেরিয়ে গিয়েছিল। কিন্তু অনেকেই দাবি করে থাকেন প্রকৃত সংখ্যা আরো বেশি ছিল।
যখন উত্তেজিত হিন্দু জনতা হত্যাকাণ্ড চালাচ্ছিল তখন পুলিশ নিষ্ক্রিয়ভাবে ঘটনাস্থলে দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়ে দেখছিল। কয়েক বছর পরে, পুলিশের একজন সিনিয়র কর্মকর্তা স্বীকার করেছিলেন মোদী খোলাখুলিভাবে সেই হত্যাকাণ্ড অনুমোদন করেছিলেন। যদিও মোদী বারবার এই অভিযোগ অস্বীকার করেছেন।
এই পাশবিকতা এতটা মারাত্মক ছিল যে আমেরিকান সরকার তখন মোদীকে যুক্তরাষ্ট্রের ভ্রমণকারীর ভিসা দিতেও অস্বীকৃতি জানায়।
অরুন্ধতীর মতে, কিন্তু এখন তিনি অনেক ইন্ডিয়ান এলিটের কাছে প্রিয় রাজনৈতিক ব্যক্তিত্ব।  এ ওয়াল স্ট্রিট জার্নাল রিপোর্টে বলা হয়েছে মোদী যদি প্রধানমন্ত্রী হয় তাহলে যুক্তরাষ্ট্র তাঁকে ভিসা দিতে প্রস্তুত।
তিনি বলেন, কর্পোরেশনগুলি মোদীকে সমর্থন দিচ্ছে কারণ তারা মনে করে মনমোহন এবং কংগ্রেস সরকার ছত্তিশগড় এবং উড়িষ্যার মত জায়গায় মিলিটারি পাঠানোর মত সাহস দেখাতে পারে নি।
অরুন্ধতী মোদীর কথা বলেন, পলিটিশিয়ান হিসাবে মোদী পরিস্থিতির চাহিদা অনুযায়ী অবস্থান পাল্টাতে পারেন।
অরুন্ধতী বলেন, খোলাখুলিভাবে সাম্প্রদায়িক বিদ্বেষ ছড়ানো স্যাকারিন জাতীয় লোক থেকে তিনি কর্পোরেট লোকের স্যুট পরেছেন এবং এখন মুখপাত্রের ভূমিকায় থাকার চেষ্টা করছেন। কিন্তু তিনি আসলে তা করতে পারছেন না।
অরুন্ধতী কংগ্রেস এবং বিজেপিকে সমান্তরালে দেখেনভারতের জাতীয় রাজনীতি দুটি দল দ্বারা নিয়ন্ত্রিত, কংগ্রেস এবং বিজেপি।
কংগ্রেস সবসময় একটু বেশি সেক্যুলার অবস্থান নেয় এবং মুসলমান, শিখ, খ্রিস্টান এসব সংখ্যালঘুদের জন্য যারা আরেকটু বেশি সুবিধা চায় তাদের দ্বারা সমর্থিত হয়। আমেরিকার বিবেচনায় কংগ্রেস ডেমোক্রেটিক পার্টির মত।
বিজেপি হলো ডানপন্থী দলগুলির কোয়ালিশন এবং তারা জোর করেই প্রতিষ্ঠা করতে চায় ভারত হলো একটি হিন্দু রাষ্ট্র। পাকিস্তানের বিরুদ্ধে দলটি সবসময়ই কঠোর ভূমিকা পালন করে। এভাবে বিবেচনা করলে বিজেপিকে ভারতের রিপাবলিকান হিসেবে দেখা যেতে পারে।
কিন্তু যুক্তরাষ্ট্রের বাম ঘরানার বিশ্লেষক র‍্যালফ নাডের এবং নোয়াম চমস্কি কাজের ক্ষেত্রে ডেমোক্র্যাট এবং রিপাবলিকানদের মধ্যে খুব সামান্য পার্থক্যই দেখতে পান। অরুন্ধতী বলেন, বিজেপি থেকে কংগ্রেসের বড় কোনো পার্থক্য নেই। আমি প্রায়ই বলি যেটা বিজেপি দিনে করে সেটা কংগ্রেস রাতে করেছে। তাদের অর্থনৈতিক পলিসিতে কোনো পার্থক্য নেই আসলে।
তিনি বলেন, যেখানে বিজেপির সিনিয়র নেতারা মুসলমানদের বিরুদ্ধে হিন্দু জনতার সহিংসতাকে ঢালাওভাবে মদদ দিচ্ছিল, ১৯৮৪ সালে ইন্দিরা গান্ধী প্রধানমন্ত্রী থাকাকালে দিল্লীতে শিখদের উপর আক্রমণ ও হত্যাকাণ্ডে কংগ্রেস একই ধরনের ভূমিকা পালন করেছিল।
অরুন্ধতীর মতে, এই সহিংসতা ছিল গণহত্যা এবং এমনকি আজও কেউ এর জন্য শাস্তি পায় নি। ফলে, প্রতিটা দলই একে অপরকে সাম্প্রদায়িক সহিংসতার অভিযোগে অভিযুক্ত করতে পারে।
আর এখনো সহিংসতায় ক্ষতিগ্রস্তদের ক্ষতিপূরণের জন্য কোনো কার্যকরী উদ্যোগ নেয়া হয়নি।
তিনি বলেন, দোষীদের সাজা পাওয়া উচিৎ। সবাই জানে তারা কে। কিন্তু তাদের শাস্তি হবে না। এটাই ভারতে হয়। লিফটে একজন মহিলাকে হয়রানি করার জন্য অথবা কাউকে খুন করলে আপনি হয়ত জেলে যাবেন কিন্তু আপনি যদি কোনো গণহত্যার অংশ হয়ে থাকেন তাহলে আপনার শাস্তি না হওয়ার সম্ভাবনা খুবই বেশি।
সুজানা অরুন্ধতী রায় (জন্ম. ২৪ নভেম্বর ১৯৬১)
তিনি স্বীকার করেছেন যে রাষ্ট্র হিসাবে ভারতের ধারণা করাতে দুই প্রধান দলের মধ্যে কিছু পার্থক্য আছে।
উদাহরণ হিসেবে বলা যায়, বিজেপি হিন্দু ভারতে তাদের বিশ্বাসের ব্যাপারে খোলামেলা… যেখানে বাকি সবাই দ্বিতীয় শ্রেণীর নাগরিক।
তাঁর অবস্থান পরিষ্কার করে অরুন্ধতী বলেন, হিন্দু অনেক বড় এবং ভারি একটা শব্দ এক্ষেত্রে। আমরা আসলে কথা বলছি উচ্চবর্ণের হিন্দু জাতি নিয়ে। আর কংগ্রেস বলে যে তাদের একটি সেক্যুলার ভিশন আছে, কিন্তু আসল খেলা গণতন্ত্র যেভাবে কাজ করে সে জায়গাটাতে। এক সম্প্রদায়কে অন্য সম্প্রদায়ের বিরুদ্ধে উসকে দিয়ে সবাই ভোট ব্যাংক তৈরি করতে ব্যস্ত। আর অবশ্যই বিজেপি এই খেলায় বেশি আগ্রাসী।
অসমতা বর্ণপ্রথার সাথে সম্পর্কিতদি স্ট্রেইটের প্রশ্ন ছিল, আন্তর্জাতিক খ্যাতিসম্পন্ন লেখক যেমন সালমান রুশদী এবং বিক্রম শেঠ অথবা শাহরুখ খানের মত ভারতের গুরুত্বপূর্ণ ফিল্মস্টার অথবা বচ্চন পরিবার কেন জোর দিয়ে ভারতে এই অসমতার বিরুদ্ধে কথা বলে না?
অরুন্ধতী জবাবে বলেন, বেশ, আমি মনে করি আমরা আসলে এমন একটি দেশ যার এলিটদের শুধু অতিরিক্ত আত্ম-পরিতৃপ্তি এবং অতিরিক্ত আত্ম-বিবেচনা আছে।
অরুন্ধতী বলেন, অসমতার ব্যাপারটি মেনে নেয়ার ব্যাপারে হিন্দু ধর্মের বর্ণপ্রথা ভারতীয় এলিটদের বদ্ধমূল করে রেখেছে। অনেকটা স্বর্গ থেকে আসা জিনিসের মত।
তাঁর মতে, ধনীরা বিশ্বাস করে, উচ্চশ্রেণীর মানুষদের যেসব অধিকার আছে, নিম্নশ্রেণীর মানুষের সে অধিকার নেই।
কানাডীয় অ্যাকটিভিস্ট এবং লেখক নাওমি ক্লেইনের কিছু ধারণার সাথে কর্পোরেট ক্ষমতার ব্যাপারে অরুন্ধতী রায়ের কথার মিল পাওয়া যায়।
নাওমি সম্পর্কে অরুন্ধতী বলেন, অবশ্যই আমি নাওমিকে ভালোভাবে চিনি। আমি মনে করি তিনি চমৎকার একজন চিন্তক এবং অবশ্যই তিনি আমাকে অনুপ্রাণিত করেছেন।
১৯৯২ সালের ক্লাসিক একটি কাজ এভরিবডি লাভস এ গুড ড্রাউট: স্টোরিজ ফ্রম ইন্ডিয়া'স পুওরেস্ট ডিস্ট্রিক্ট এর লেখক সাংবাদিক পালাগাম্মি সাইনাথের কাজের প্রশংসা করেন অরুন্ধতী রায়।
তিনি বলেন, ভারতে গণমাধ্যমের মালিকানার মনোযোগ সমাজের উপর কর্পোরেট প্রভাবের ব্যপ্তির বিষয়টি প্রকাশের ব্যাপারে সাংবাদিকদের কাজ কঠিন করে তুলেছে।
অরুন্ধতী রায়ের নয়াদিল্লীর বাড়ি কৌটিল্য মার্গ। বিজেপি মহিলা মোর্চার বিক্ষোভে ক্ষতিগ্রস্ত ফুলের টব। কাশ্মীর ইস্যুতে অরুন্ধতীর মন্তব্যে বিক্ষোভ।
অরুন্ধতী বলেন, ভারতে আপনি যদি একজন ভালো সাংবাদিক হন তাহলে আপনার জীবন সবসময়ই ঝুঁকির মধ্যে। কারণ মিডিয়া এমনভাবে সাজানো, সেখানে আপনার জন্য কোনো জায়গা নেই।
মিডিয়াতে বিতর্কিত বক্তব্যের কারণে বিভিন্ন সময়ে তাঁর বাড়ির বাইরে উত্তেজিত জনতাকে প্রতিবাদ করতে দেখা গেছে।
তিনি বলেন, সেসময় তাদেরকে আমাকে আক্রমণ করার চেয়ে টিভি ক্যামেরার সামনে পারফর্ম করাতে বেশি আগ্রহী মনে হয়। ভারতে মানবাধিকার কর্মীদের অফিস বিক্ষোভকারীরা ভেঙে দিয়েছে এবং অনেকে মার খেয়েছেন, অনেককে হত্যা করা হয়েছে অবিচারের বিরুদ্ধে কথা বলার জন্য।
অরুন্ধতী বলেন, রাষ্ট্রদ্রোহের অভিযোগে অথবা আইনবিরোধী কার্যক্রম প্রতিরোধ আইন ভাঙার জন্য ভারতের জেলে কয়েক হাজার রাজনৈতিক বন্দি আটক রয়েছেন।
এই কারণে তিনি বলেন, এটা বিশ্বাস করা সত্যিই পরিহাসের ব্যাপার কারণ ভারতে নিয়মিত নির্বাচন হয়, এটা একটা গণতান্ত্রিক দেশ।
অরুন্ধতী বলেন, সেখানে একটাও কোনো সিঙ্গেল প্রতিষ্ঠান নেই যেখানে সাধারণ একজন মানুষ ন্যায়বিচার আশা করতে পারে। কোনো স্থানীয় আদালতেও না, কোনো একজন স্থানীয় রাজনৈতিক প্রতিনিধির কাছেও না। সবগুলি প্রতিষ্ঠান ভিতর থেকে শূন্য, শুধু বাইরের আবরণটা রয়েছে। সুতরাং নির্বাচনের এই উৎসবের সময়ে সবাই নিজেদের ভিতরের বাষ্পটাকে ছেড়ে দিয়ে ভাবতে পারে তাদের জীবন নিয়ে তাদের কিছু বলার আছে।
সবশেষে তিনি বলেন, কর্পোরেশনগুলিই প্রধান দলগুলিকে ফান্ড দেয় এবং তাদের কাজ নির্ধারণ করে দেয়।
অরুন্ধতী বলেন, আমাদের মালিক এবং আমাদের চালায় অল্প কয়েকটি কর্পোরেশন, যারা চাইলেই তাদের ইচ্ছামত ভারতকে বন্ধ করে দিতে পারে।
অনুবাদ: মৃদুল শাওন
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চার্লি স্মিথ
চার্লি স্মিথ
চার্লি স্মিথ- চার্লি স্মিথ জর্জিয়া স্ট্রেইটের একজন সম্পাদক। তিনি ২০০৫ সাল থেকে এ দায়িত্বে আছেন। তার আগে তিনি বার্তা সম্পাদক হিসাবে কাজ করতেন।
জর্জিয়া স্ট্রেইট- জর্জিয়া স্ট্রেইট কানাডার একটি সংবাদ ও বিনোদন ভিত্তিক সাপ্তাহিক পত্রিকা। এটা কানাডার ব্রিটিশ কলম্বিয়ার ভ্যানকুভার থেকে প্রকাশিত হয়। জর্জিয়া স্ট্রেইট প্রকাশ করে ভ্যানকুভার ফ্রি প্রেস পাবলিশিং হাউজ। জর্জিয়া স্ট্রেইট প্রথম শুরু হয় ১৯৬৭ সালে। পিয়েরে কউপে, মিল্টন আক্রন, ড্যান ম্যাকলয়েড, স্ট্যান পার্কস্কি এবং আরো কয়েকজন মিলে জর্জিয়া স্ট্রেইট পত্রিকাটি শুরু করেন।

आधार नही है संविधान के मुताबिक। फिरभी विधानसभा प्रस्ताव के विपरीत बंगाल सरकार का आधार अभियान तेज।

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आधार नही है संविधान के मुताबिक। फिरभी विधानसभा प्रस्ताव के विपरीत बंगाल सरकार का आधार अभियान तेज।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


पश्चिम बंगाल सरकार आधार की अनिवार्यता के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रही है। बंगाल विधानसभा में सर्वदलीय आधार विरोदी प्रस्ताव भी वाम समर्थन से सत्तापक्ष ने ही पास करवाया। लेकिन इसके बावजूद आधार परियोजना को खारिज करने की मांग बंगाल से अभी तक नहीं उठी है।इस पर तुर्रा यह कि अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की जनगणना परियोजना के तहत बंगाल में जिस आधार का काम सबसे ज्यादा सुस्त रहा है,वह बाकायदा नागरिकों को बायोमैट्रिक पहचान दर्ज कराना अनिवार्य बताते हुए आम चुनाव से पहले आधार फोटोग्राफी तेज कर दी गयी है,जबकि बंगाल सरकार अपनी तरफ से डिजिटल राशनकार्ड का कार्यक्रम अलग से चला रही है।आधार व्यस्तता और आसन्न चुनाव की वजह से अनिवार्य डिजिटल राशन कार्ड बनाने का काम हालांकि रुका हुआ है।


गौर करें कि पश्चिम बंगाल विधानसभा ने यह मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया कि केंद्र को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम से आधार कार्ड को जोड़ने का अपना फैसला तुरंत वापस लेना चाहिए।न विधानसभा में पारित प्रस्ताव में और न सरकारी या राजनीतिक तौर पर किसी ने आधार परियोजना को खत्म करने की कोई मांग उठायी है।इसलिए आधार प्रकल्प स्थगित तो हो सकता है,खत्म नहीं हो सकता।राज्य सरकार के मौजूदा युद्धस्तरीय आधार अभियान की जड़ें दरअसल अधूरे सर्वदलीय विधानसभा प्रस्ताव में ही है,जिसमें कहा गया था कि राज्य के केवल 15 फीसदी लोगों को ही आधार कार्ड मिल पाया है ऐसे में 85 फीसदी लोग नौ सब्सिडी वाले सिलेंडर नहीं ले पाएंगे। प्रस्ताव के मुताबिक केंद्र ने सीधे ही संबंधित बैंकों में सब्सिडी पहुंचाने के लिए आधार कार्ड डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम से जोड़ दिया है।


प्रस्ताव के अनुसार इस फैसले से आम जनता भारी परेशानी में आ जाएगी। संसदीय कार्य मंत्री पार्थ चटर्जी ने सदन में यह प्रस्ताव रखा था। विपक्ष के नेता सूर्य कांत मिश्रा ने यह कहते हुए इसका समर्थन किया कि आधार कार्ड से जुड़े कई मुद्दे अब भी अनसुलझे हैं।  


अब दरअसल आधार का अधूरा काम पूरा करके राजकाज पूरा करने का ही दावा कर रही है राज्य में सत्तारूढ़ मां माटी मानुष की सरकार अपने नागरिकों की निजता,गोपनीयता और संप्रभुता का अपहरण करते हुए।


डिजिटल राशनकार्ड प्रकल्प राज्य सरकार का है और प्रतिपक्ष को भी इस पर ऐतराज नहीं है।तो जाहिर है कि आधार परियोजना की बायोमेट्रिक डिजिटल प्रक्रिया पर तकनीकी तौर पर न सत्ता पक्ष को और न विपक्ष को कोई एतराज है। कांग्रेस और भाजपा तो पंजीकृत डिजिटल नागरिकता के पैरोकार हैं ही,वामपक्ष ने भी देश में कहीं इस परियोजना का विऱोध नहीं किया है।


जाहिर है कि बंगाल विधानसभा में पारित आधार विरोधी प्रस्ताव राज्यसरकार के निर्विरोध आधार अभियान से सिरे से गैर प्रासंगिक हो गया है।लेकिन अब तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो बार बार कहती रही हैं कि आधार गैरजरुरी है और भारी प्रचार के मध्य आधार विरोदी सर्वदलीय प्रस्ताव जो विधानसभा में पारित हो गया है,उससे नागरिकों में बारी विभ्रम की स्थिति है।मीडिया में एकतरफ तो असंवैधानिकता के आधार पर नागरिक सेवाओं  के लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खबर है तो दूसरी तरफ गैस एजंसियों की ओर से नकद सब्सिडी के लिए बैंक खाते आधार से लिंक कराने का कटु अनुभव है और दूसरे राज्यों में तमाम अनिवार्य सेवाओं से आधार को अनिवार्य बनाने का भोगा हुआ यथार्थ सच।


सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना बंगाल शायद एकमात्र राज्य है,जहां आम नागरिक आधार को फालतू और आईटी कंपनियों के मुनाफे का फंडा मानते हैं।नंदन निलेकणि के चुनाव मैदान में उतर जाने से लोग आधार प्राधिकरण के अस्तित्व को भी मानने को तैयार नहीं है।लेकिन फिर भी लोग आधार फोटोग्राफी की कतार में खड़े सिर्फ राज्य सरकार की नोटिस में इसे अनिवार्य बताये जाने के कारण हो रहे हैं।दूसरी ओर, लोगों को राजनीतिक अस्थिरता की वजह से जोखिम उठाने की हिम्मत भी नहीं हो रही है क्योंकि न जाने केंद्र में कौन सी सरकार बनें और नई संसद में कौन सा कानून बन जाये।जनगणना दस साल में एक बार होती है तो जनसंख्या रजिस्टर में अपने आंकड़े दर्ज करवा रहे हैं लोग आधार विरोध के बावजूद।



गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ऐसे तमाम नोटिफिकेशन तुरंत वापस लेने के आदेश दिए, जिनमें सरकारी सर्विस की सुविधा पाने के लिए आधार कार्ड जरूरी किया गया है। कोर्ट ने एक बार फिर साफ कहा कि आधार कार्ड किसी भी सरकारी सेवा को पाने के लिए जरूरी नहीं है। इस बाबत सर्कुलर तमाम विभागों को तुरंत जारी करने को कहा गया।


सुप्रीम कोर्ट ने यूआईडीएआई (यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया) से भी कहा कि वह आधार कार्ड की कोई भी जानकारी किसी भी सरकारी एजेंसी से शेयर नहीं करे। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी. एस. चौहान की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि बायोमेट्रिक या अन्य डेटा किसी भी अथॉरिटी से शेयर नहीं किया जा सकता। आरोपियों का डेटा भी तभी साझा किया जा सकता है, जब आरोपी खुद लिखित में इसकी सहमति दे।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि सरकारी सेवाओं के लिए आधार कार्ड अनिवार्य नहीं होगा। उस मामले में हाई कोर्ट के पूर्व जज और अन्य की ओर से अर्जी दाखिल कर कहा गया था कि सरकार कई सेवाओं में आधार कार्ड अनिवार्य कर रही है। ऐसे में सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि आधार कार्ड अनिवार्य न हो।


नमो ब्रांडिंग की धूम, अब की बार सैन्य राष्ट्र की पुलिसिया सरकार

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नमो ब्रांडिंग की धूम, अब की बार सैन्य राष्ट्र की पुलिसिया सरकार


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


नमो ब्रांडिंग की धूम, अब की बार सैन्य राष्ट्र की पुलिसिया सरकार। यूपाए की सरकार ने दस साल के राजकाज से भारत राष्ट्र का सैन्यीकरण कर दिया है।आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के लिए इसी सैन्य राष्ट्र के लिए पुलिसिया सरकार के लिए जनादेश निर्माण की कवायद में मार्केटिंग की हर चमकदाक कोरियाग्राफी के साथ नमो ब्रांडिंग की धूम मची है।


इस एम्बुश मार्केटिंग का असर मीडिया और इंरनेट पर सबसे ज्यादा दीख रहा है।नमो सुनामी का असली रसायन यह है।


तेइस करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर को केसरिया बनाने में सबसे ज्यादा जोर है नमोटीम का और बाकी लोग जो इस कवायद में जुटे हैं,एनजीओ विशेषज्ञता और सरकारी साधनों से महाबली कांग्रेस इस प्रतियोगिता में नमो ब्रिगेड से काफी पीछे हैं।


हाल यह है कि नये वोटरों को प्रभावित करने में नमोमंत्र जाप अखंड है।लेकिन बाजार से बाहर जो असली भारत है,उसे संबोधित करने में कितनाी कामयाबी इस विज्ञापनी अश्वमेध से मिल पायेगी,यह 16 मई से पहले जानने  का कोई उपाय नहीं है।


सैन्य राष्ट्र मुकम्मल बना देने के बावजूद सरकार के मानवीय चेहरा दिखाते रहने की कांग्रेसी विकलांगता की काट हिंदू राष्ट्र का नस्ली तिलिस्म है,जहां जायनवादी हिटलरी जनसंहार संस्कृति विचारधारा है,जो मुक्त बाजार और छिनाल पूंजी के सबसे ज्यादा माफिक है।


नमो एजंडा के तहत हिंदुत्व के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के तहत जो ध्रूवीकरण की कारपोरेट राजनीति है और उसमें भी जो अराजनीति का मसाला तड़का है,वह संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना में राजकाज पुलिसिया है और इसकी मुकम्मल तस्वीर गुजरात से छत्तीसगढ़ तक में सलवा जुड़ुम के इतिहास में बाकायदा दर्ज है।


हिंदू राष्ट्र के मुताबिक देश का मौजूदा संविधान बदला जाना है।कर प्रणाली सिरे से खत्म हो जानी है और करपद्धति के नाम पर जो भगवा अर्थतंत्र है,वह अंबानी से लेकर अडानी,बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर इंडिया इनकारपोरेशन को निनानब्वे फीसद कर राहत और राजस्व प्रबंधन, वित्तीय प्रणाली और मौद्रिक नीतयों का सारा बोझ बहुसंख्य निनानब्वे फीसद मूक जनता पर लादने का अंतिम लक्ष्य है।


बिना फासीवाद,बिना नाजीवाद, बिना धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद बिना प्रतिरोध यह लक्ष्य हासिल हो ही नहीं सकता। विनिवेश हो या कालाधन को सफेद बनाने का खेल,श्रम कानून,कानून व्यवस्था व न्याय प्रणाली के साथ आरक्षण खत्म करने की तैयारी हो या वित्तीय,लंपट पूंजी छिनाल पूंजी को हरसंभव छूट, नागरिक और मानव अधिकारों के सिरे से सफाये के लिए सैन्य राष्ट्र के जनता के विरुद्ध युद्धघोषणा ही काफी नहीं है।


होती तो कारपोरेट साम्राज्यवाद का पहला विकल्प फिर कांग्रेस ही होती।


पुलिसिया सरकार की मुठभेड़ संस्कृति के बिना देश के चप्पे चप्पे में गुजरात माडल लागू किया ही नहीं जा सकता,इसीलिए कारोबार व उद्योग जगत के नाम पर नस्ली सत्ता बनिया वर्गकी पहली पसंद नमो पार्टी के प्रधानमंत्री नमो हैं।इसलिए देशभर में अब की बार नमो सरकार की ऐसी आक्रामक ब्रांडिंग है।


देश बेचो अभियान के लिए,जल जंगल जनमीन से अबाध बेदखली के लिए वंचितों आदिवासियों के दिये गये संवैधानिक रक्षाकवच को किरचों में बिखेर देना अनिवार्य है।अनिवार्य है सलवा जुड़ुम। नागरिक अधिकारों का निषेध अनिवार्य है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून  अनिवार्य  है।विधर्मियों के साथ साथ प्राकृतिक ऐश्वर्य वाले इलाकों में नागिरक मानवाधिकार का निषेध  अनिवार्य  है।


गौर करें,संघी नारा है,बहुत हुआ मानवाधिकार,अबकी बार मोदी सरकार।इसी तरह संघ की विचारधारा का प्रस्तान बिंदू विधर्मियों के लिए नागरिक अधिकारों का निषेध है।


खास बात तो यह है कि नमो ब्रांडिंग में नमो सुपरमाडल है।नमो ईश्वर है।घर घर मोदी है। भाजपा सरकार नहीं,अबकी दफा नमो सरकार है।इन जुमलों में संघ परिवार की भारत के संविधान के साथ साथ संसदीय प्रणाली, लोक गणराज्य, संघीय ढांचा और लोकतंत्र को एकमुश्त तिलांजलि देने की परिकल्पना बेनकाब है।


मार्केटिंग की खास पद्धति के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तरह एकमेव व्यक्ति केंद्रित चुनाव प्रचार अभियान है,जो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व है। यह सीधे तौर पर अमेरिकी राष्रपति प्रणाली को स्थापित करने की शुरुआत है, लेकिन अमेरिका के विपरीत संसद के प्रति और जनता के प्रति पुलिसिया सरकार का उत्तरदायित्व सुनिश्चित किये बिना।खास बोत तो यह है कि आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा अपने चुनाव अभियान समिति के प्रमुख नरेंद्र मोदी की बड़े स्तर पर ब्रांडिंग करने की तैयारी में है। जातीय समीकरण, पृष्ठभूमि और आकांक्षाओं आदि के मुताबिक मोदी को अलग-अलग जगहों पर आइकन बनाकर पेश किया जाएगा। पार्टी ने इसके लिए राज्य स्तर पर माइक्रो फीडबैक के आधार पर ब्रांडिंग मॉडल तैयार किया है।

इसका मकसद है-चौक-चौराहों से लेकर चायपान की दुकान और फाइव स्टार होटल से लेकर फ्लाइट,ट्रेन व बसों तक में मोदी को सुर्खियों में रखना।


मजे की बात तो यह है कि भारत में कालाधन की चुनाव प्रणाली से प्रधानतक बन जावने वाले लोगो की दिन दूनी रात चौगुणी प्रगति तय है।राजनेताों की माली हालत में सुधार के तमाम किस्से देश की कंगाली और आम लोगों की बदहाली के बरअक्स समझ लीजिये। बेरोजगार राजनेताओ का बैंक बैलेंस करोड़ों अरबों में है जबकि अच्छे खास कामकाज, कारोबार,नौकरी में लगे बहुसंख्य आम लोगों की कमाई जिंदगी की बेसिक जरुरते पूरी करने में नाकाफी है।


इसके विपरीत अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा जो अपना दूसरे कार्यकाल पूरा करने वाले हैं,उनकी आय में कमी की खबर है। भ्रष्टाचार जहां गौरवशाली राजनीति संस्कृति है,वहां राष्ट्पति प्रणाली संसदीय अंकुश के बिना लागू हुई तो क्या होना है,समझ लीजिये।


अबकी दफा चुनाव खर्च के सारे रिकार्ड टूट रहे हैं।तीस हजार करोड़ से ज्यादा का चुनाव प्रचार खर्च है।जो आयोग को दर्ज किये जाएंगे।अघोषित खर्च कितना होगा,उसका कोई अंदाजा नहीं है।चुनाव पूर्व केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से दिये गये थोक विज्ञापनों, राहत, छूट, पैकेज,भत्ता,अनुदान,कथित विकास प्रकल्प,पुरस्कार,सम्मान,आदि का कोई हिसाब तो बनता ही नहीं है। इस पर तुर्रा यह है कि इस अंधाधुंध रकम का ज्यादातर हिस्सा कालाधन है। चुनाव प्रचार और विज्ञापनों में नमो ब्रांडिंग की लागत जाहिर है,सबसे ज्यादा है।सिर्फ नमो होर्डिंग में ही ढाई हजार करोड़ फूंके जा रहे हैं।मीडिया में जारी विज्ञापनों, हवाई दौरों,रैलियों और कारकारवां का खर्च हिसाब लगा लीजिये तो लोकतंत्र उत्सव का माजरा और नजारा दोनों साफ हो जायेंगे।


India in an economic rut: Narendra Modi's 'transformative leadership' image gives him an edge


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http://economictimes.indiatimes.com/articleshow/33665634.cms?utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst



अब अंबेडकरी हुए नमो भी।विकल्प जो हम चुनने लगे,सारा देश गुजरात और इस गुजरात देश में संस्कृति सलवा जुड़ुम!

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अब अंबेडकरी हुए नमो भी।विकल्प जो हम चुनने लगे,सारा देश गुजरात और इस गुजरात देश में संस्कृति सलवा जुड़ुम!

पलाश विश्वास


विकल्प जो हम चुनने लगे,सारा देश गुजरात और इस गुजरात देश में संस्कृति सलवा जुड़ुम!इस आलेख के शुरु में ही यह साफ कर देना चाहेइ कि हम चुनाव के प्रहसन के खिलाफ जरुर हैं,जनादेश के कारपोरेट हस्तक्षेप के भी विरुद्ध हैं हम,लेकिन हम जितना विरोध कारपोरेट नरसंहार और वैदिकी हिंसा का करते हैं,उससे भी ज्यादा विरोध हमारा माओवादी हिंसा से है।


हमारी आदरणीया लेखिका अरुंधति राय के राष्ट्र के सैन्यीकरण, कारपोरेट साम्राज्यवाद संंबधी विचारों को अद्यतन समाजवास्तव को समझने के लिए हम जरुरी भी मानते हैं और हम यह भी जरुरी मानते हैं कि लोग बाबासाहेब के जातिभेद उच्छेद पर उनकी सामयिक प्रस्तावना को अवश्य पढ़ें।


हम उनके हालिया इंटरव्यूसकल से सहमत है कि इस चुनाव में हम यह तय करे जा रहे हैं कि देश का राज अंबानी चलायेंगे या टाटा।अमेरिकी पत्रिका स्ट्रेट को दिये गये उनके इंटरव्यू से बी हम सहमत है कि जनादेश निर्माण की प्रक्रिया में हम दरअसल तय यह कर रहे हैं कि निःशस्त्र जनता के विरुद्ध युद्ध के लिए सेना उतारने का आदेश कौन जारी करें।


इस इंटरव्यू का उपलब्ध बांग्ला अनुवाद हमने अपने बांग्ला ब्लाग में लगाया है।हिंदी में कोई अनुवाद हमारे फिलाहाल सामने नहीं है।


इसी बीच आनंद तेलतुंबड़े ने साफ साफ अरुंधति के अंध अंबेडकर वाद पर सवालिया निशान दागते हुए पूछा है कि अंबेडकर की हमें जरुरत तो है लेकिन किस अंबेडकर की।हमने भी इस पर लिखा है।


माओवादी आंदोलन को अरुंधति क्रांतिकारी आंदोलन मानती है हालांकि वह भी माओवीद हिंसा की निंदा करती हैं।


हम शुरु से कहते रहे हैं कि दरअसल माओवादी हिंसा अंततः कारपोरेट हिसां ही है।


हमने सिर्फ लिखा ही नहीं,दंडकारण्य में माओवादी इलाकों में खुली सभाओं में बार बार ऐसा कहा है और यह भी कहा है कि माओवादी हिंसा का शिकार कारपोरेट हित कभी नहीं हुआ।


नौकरी में लगे बहुजनों के जिगर के टुकड़े काट दिये जायें,राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाये,इससे कारपोरेट हितों पर कोई असर होता नहीं है।सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान तो शतरंज के मोहरे हैं।उनके जीने मरने पर न भारत सरकार या राज्यसरकारों पर काबिज लोगों और न कारपोरेटघरानों को कुछ आता जाता है।


बंगाल में भी सत्तर के दशक में कारपोरेट और पूंजी के ठिकानों पर एक पटाखा भी फूटने का कोई इतिहास नहीं है,जबकि बंगाल में सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन सर्वव्यापी था और उसका असर इतना व्यापक था कि बांग्लादेश की सरजमीं पर भारतीय सेना पाकसेना और रजाकारों के खिलाफ लड़ रही थी,तो अपने ही देश में नक्सलियों के खिलाफ।


हकीकत में बांग्लादेश में भारत के सैन्य हस्तक्षेप में देरी इसी वजह से हुई,सैन्यदस्तावेज इसकी पुष्टि करते हैं।


आपको बता दें कि आदिवासी इलाकों में न भारत का संविधान लागू है, न कानून का कोई शासन है। कानून ताक पर कारपोरेट योजनाएं अबाधित तौर पर चलाने के लिए बेदखली जरुर अविराम है।


भूमि अधिग्रहण कानून,खनन अधिनियम,पर्यावरण कानून,समुद्रतट सुरक्षा कानून,संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार,पांचवीं और छठी अनुसूचियों,पेसा के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी वहां लागू नहीं होते।


राजनीति वहां सिर्फ वोट मांगने चुनाव मौसम में दस्तक देती है और लोकतंत्र में आदिवासियों की कोई हिस्सेदारी है ही नहीं।


देशभर में ज्यादातर आदिवासी गांव राजस्व गांव बतौर पंजीकृत नहीं है।एकबार अपने गांव से हटने पर वे वहां वापस नहीं जा सकते।


विकास परियोजनाओं के नाम पर कारपोरेट हितों में आदिलवासियों के इन गांवों को मिटाने का सबसे भारी कार्यभार है सैन्य राष्ट्रवाद का।


अब माओवादी हिंसा के बाद माओवादी गुरिल्ले मुटभेड़ में मारे न जाये तो उन्हें पकड़ना मुश्किल है।वे मौके से फौरन नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। लेकिन प्रतिक्रिया में जो सघन सैन्य अभियान आदिवासी इलाकों में जारी रहता है,उसके चलते एकमुश्त बीसियों गांव खाली हो जाते हैं और कारोपोरेट गुलशन का कारोबार यूं ही आसान हो जाता है।


सारे माओवादी इलाकों में यह खेल साल भर चलता रहता है।


छत्तीसगढ़ और दूसरे आदिवासी इलाकों इस चुनावी माहौल में आदिवासी जनता की बेदखली का यह खूनी खेल फिर जारी है।


माओवाद से निपटने में सिरे से नाकाम राष्ट्र निरपराध आदिवासियों को माओवादी तमगा लगाकर समूची आदिवासी जनता के खिलाफ निरंतर दमन चक्र चला रही है ,जिसे बाकी देश आर्थिक सुधार और विकास समझते हैं लेकिन वह आदिवासियों का चौतरफा सत्यानाश है।


बहुजनों में आदिवासियों को शामिल करने की डींग हांककर अपनी अपनी दुकानें चलाने वाले अंबेडकरी मसीहा संप्रदाय को इन आदिवासियों के जीने मरने से कोई लेना देना नहीं है।

अंबेडकर जयंती है।ढोल ताशे का शोर बहुत है।सरकारी अवकाश है और फूलो की बहार है।अंबेडकर जयंती के मौके पर आज बंबई शेयर बाजार, नैशनल स्टाक एक्सचेंज, मुद्रा विनिमय बाजार और ऋण बाजार बंद हैं।


केंद्र ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में सोमवार को छुट्टी की घोषणा की है जिससे करीब 50 लाख केंद्रीय कर्मियों को विस्तारित सप्ताहांत मिला है। कार्मिक मंत्रालय द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन में कहा गया है, पूरे भारत में औद्योगिक प्रतिष्ठानों सहित केंद्र सरकार के सभी कार्यालयों में सोमवार 14 अप्रैल 2014 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में अवकाश रखने की घोषणा की गई है। मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि केंद्रीय कर्मियों के लिए 14 अप्रैल को छुट्टी अनिवार्य नहीं होती।


जो है नहीं ,वह है अंबेडकरी आंदोलन।जो है वह है,भारतीय कृषि समाज और जाति व्यवस्था में बंटे कृषि समाज का नख शिख भगवाकरण।


नमो ब्रांडिंग की धूम है।सैन्य राष्ट्र में पुलिसिया सरकार के लिए जनादिश निर्मिते वास्ते प्रायोजित सुनामी है।लठैतो कारिंदों की बांस बांस छलांग है।


भाजपा में उदित राज के समाहित हो जाने के बावजूद नेट पर इंडियन जस्टिस पार्टी है।दिल्ली में वोट पड़ने से पहले तक जिसके बैनर में यूपी के नेक्स्ट सीएम बतौर उदित राज की तस्वीर थी। ईवीएम में किस्मत तालाबंद हो जाने के बाद नेक्स्ट सीएम का नारा गायब है।


अब बिहार में नेक्स्ट सीएम रामविलास पासवान का नारा है।कुल मिलाकर अंबेडकरी आंदोलन का चेहरा यही है।


ठगे रह गये तीसरे दलित राम,जो संघ परिवार के प्राचीनतम हनुमान हैं,जिन्हें महाराष्ट्र का सीएम कोई नहीं बता रहा।नये मेहमानों का भाव कुछ ज्यादा ही है।

मनुस्मृति का स्थाई बंदोबस्त कायम रखने के लिए वैश्विक जायनवादी व्यवस्था से सानंद नत्थी हो जाने वाले संघ परिवार बाबासाहेब के संविधान को बदलने के लिए नमो पार्टी लांच कर चुकी है भाजपा को हाशिये पर रखकर और अमेरिकी राष्ट्रपति की तर्ज पर नमो प्रधानमंत्रित्व का चेहरा आकाश बाताश में भूलोक,पाताल और अंतरिक्ष में सर्वत्र पेस्ट है।बहुजनों के संवैधानिक रक्षाकवच से लेकर बाबासाहेब के लोककल्याणकारी राज्य का पटाक्षेप है।

मजा तो यह है कि संघ जनसमक्षे नीला नीला हुआ जा रहा है तो नीला रंग अब केसरिया है।नाजी फासीवाद हिंदू राष्ट्र के लिए उतना जरुरी भी नहीं है।हम चाहे जो कहे ,हकीकत यह है कि आजादी के बाद वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्तावर्ग ने भारत को हिंदू राष्ट्र ही बनाये रखा है।सवर्ण राष्ट्र।जहां दलितों,आदिवासियों,पिछड़ों,मुसलामान समेत तमाम विधर्मियों और नस्ली तौर पर विविध अस्पृश्य भूगोल के वाशिंदों के न नागरिक अधिकार हैं और न मानवाधिकार।हिंदू राष्ट्र का एजंडा आक्रामक राष्ट्रवाद धर्मोन्मादी है।कांग्रेस का हिंदू राष्ट्र और संघी हिंदूराष्ट्रवाद में बुनियादी फर्क इस आक्रामक धर्मोन्माद का है और बाकी हमशक्ल कथा है।जो राम है वही श्याम।जो नागनाथ है,वही सांप नाथ।फासिस्ट नाजी कायाकल्प और पुलिसिया सरकार नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के साथ साथ लोकतंत्र और सभ्यता के बुनियादी वसूलों को खत्म करके जल जंगल जमीन नागरिकता रोजगार प्रकृति और पर्यावरण से बहुसंख्य भारतीयों को बेदखल करने और क्रयशक्तिविहीन वंचितों के सफाये का नस्ली एजंडा है।


फिर मजा देखिये कि नमो पार्टी के भावी प्रधानमंत्री के ओबीसी मुख से अंबेडकर वंदना वंदेमातरम कैसे समां बांध रही है।राहुल पर अटैक करके मोदी ओबीसी कह रहे हैं कि सारे अधिकार अंबेडकर ने दिये हैं।सौ टका सच है।बरोबर।


कोई उनसे पूछे,उन हक हकूक के बारे में जैसे अंबेडकर के बनाये श्रम कानूनों को बहाल रखने की उनकी ओर से गारंटी क्या है।


वैश्विक छिनाल पूंजी,वित्तीय पूंजी और कालाधन की जो मुक्तबाजारी ताकतें हैं,वे सारी की सारी गुजरात माडल पर बल्ले बल्ले क्यों  हैं।क्योंकि पांचवी और छठी अनुसूचियों का वजूद ही मिटा दिया है गुजरात माडल ने।


कच्छ से लेकर सौराष्ट्र तक कारपोरेट कंपनियों को पानी के मोल पर जमीन तोहफे में दी गयी है।नैनो के लिए सानंद कृषि विश्वविद्यालय की सरकारी जमीन की खैरात दी गयी तो कच्छ में अनुसूचित जनजातियों को पिछड़ा बनाकर पांचवीं और छठीं अनुसूचियों की हत्या करके बिना जनसुनवाई,बिना उचित मुआवजा जमीन अधिग्रहण हुआ।


जो शहरीकरण और औद्योगीकरण की फसल खेती को चाट गयी,उसमें खून पसीने की कोई कीमत ही नहीं है।


गुजरात नरसंहार से भी बड़ी उपलब्धि तो नमो ब्रांडेड हिंदुत्व का यही है कि उसने गुजरात माडल में श्रम कानूनों को बिना जहर मार डाला।


जैसे नये अर्थतंत्र के तहत बाबासाहेब के राजस्व प्रबंधन के सिद्धांत के विपरीत पूंजी को करमुक्त बनाने का करमुक्त भारत का प्रकल्प है और जैसे संसाधनों के राष्ट्रीयकरण के बाबासाहेबी सिद्धांत के विपरीत कांग्रेस भाजपा का देश बेचो ब्रांड इंडिया साझा चूल्हा है।

इन्हीं अंबेडकरी ओबीसी विकल्प में संसाधनों और अवसरों का न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए सौदेबाजी के गुल खिला रहे हैं अंबेडकरी तमाम मनीषी,जिनके हाथों में कमंडल आया ही मंडल असुर के वध के लिए।

हम कहें तो हिंदुत्ववादी और अंबेडकरी अंध भक्त समुदाय हमें अरुंदति और आनंद तेलतुंबड़े की तरह हमें भी ब्राह्मण और कम्युनिस्ट करार देंगे तो गौर करे संघी ब्राह्मण कट्टर हिंदुत्व के प्रवक्ता डा.मुरली मनोहर जोशी के बयान पर जो कल तक अटल आडवाणी के साथ संघ परिवार के ब्रहामा विष्णु महेश की त्रिमूर्ति में शामिल है।नमो सुनामी की वजह से वाराणसी से बेदखल अप्रत्याशित कानपुर में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विस्थापित वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने रविवार को कहा कि भारत में  मोदी नहीं, बल्कि भाजपा की लहर है।

मीडिया द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक लहर है, जोशी ने कहा कि मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में इसके एक प्रतिनिधि हैं। उन्हें देशभर में पार्टी और इसके नेताओं से सहयोग मिलता है। मदद मोदी की नहीं, भाजपा की है।इस पर तुर्रा यह कि ब्राह्मण शिरोमणिजोशी ने कहा कि अगर भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए लोकसभा चुनाव जीतती है तो गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के रूप में लागू नहीं किया जाएगा। जोशी ने कहा कि पूर्व भाजपा नेता जसवंत सिंह को बाड़मेर संसदीय क्षेत्र से टिकट देने से इनकार करने का निर्णय, एक सामूहिक निर्णय नहीं था।

गौर करें,अहमदाबाद में भीमराव अंबेडकर की 123वीं जयंती पर नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी पर हमला बोलते हुए कहा कि वह कानून लागू करने और लोगों को अधिकार देने का श्रेय लेकर संविधान के मुख्य निर्माता का 'अपमान'कर रहे हैं ।


मोदी ने कहा, 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन दिनों कांग्रेस पार्टी के शहजादे, मुझे नहीं पता क्यों, बार-बार यह कहकर बाबा साहब अंबेडकर का अपमान कर रहे हैं कि कांग्रेस ने यह या वह अधिकार दिया है ।'उन्होंने कहा, 'हमें सभी अधिकार और कानून अंबेडकर ने दिए हैं ।'


प्रधानमंत्री पद के भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा, 'यदि कोई दावा करता है कि उसने देश के लिए कोई अधिकार या कानून दिया है तो वह अंबेडकर का अपमान कर रहा है । जो संविधान को नहीं जानते, वे आज राजनीतिक कारणों से इन चीजों का श्रेय ले रहे हैं ।'मोदी की टिप्पणी ऐसे समय आई है जब राहुल गांधी और कांग्रेस ने दावा किया है कि संप्रग सरकार ने देश के लोगों को सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा दी है ।


यही नहीं,बीबीसी के मुताबिक अंबेडकर जयंती पर सोमवार को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक चुनावी रैली में उन्होंने गांधी नेहरू परिवार पर निशाना साधते हुए कहा, "एक ही परिवार के तीन लोगों को भारत रत्न मिला और तुरंत मिला लेकिन डॉ. अंबेडकर के निधन के 40 साल बाद उन्हें भाजपा के सहयोग वाली सरकार ने भारत रत्न दिया."


नरेंद्र मोदी

नरेंद्र मोदी ने की दलितों को लुभाने की कोशिश

भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. अंबेडकर को 1990 में भारत रत्न दिया गया और उस समय देश में राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा की सरकार थी जिसका नेतृत्व वीपी सिंह कर रहे थे और भाजपा का उसे समर्थन प्राप्त था.

मोदी ने कहा, "अगर बाबा साहब अंबेडकर न होते तो मेरे जैसा अति पिछड़े परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति आज इस जगह पर खड़ा न होता. ये बाबा साहब अंबेडकर की कृपा है जो मैं आज आपके सामने खड़ा हूं."

अपने भाषण से जहां उन्होंने दलितों को लुभाने की कोशिश की, वहीं एक फिर कांग्रेस और यूपीए सरकार पर निशाना साधा.

भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में दलितों को लुभाने के लिए रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर चुकी है जबकि दलित नेता उदित राज पार्टी के टिकट पर दिल्ली से किस्मत आज़मा रहे हैं.

मोदी ने अंबेडकर जयंती पर उत्तर प्रदेश में रैली कर अंबेडकर की तारीफ़ की है जहां दलित वोट बैंक को बहुजन समाज पार्टी के पीछे लामबंद माना जाता है.



आपको याद दिला दें कि 2009 में भाजपा का भारत उदय नारा था प्राइम मिनिस्टर वेटिंग लौहपुरुष लाल कृष्ण आडवाणी के हक में तब भी हवाें केसरिया थीं।


तब भी विज्ञापनी बहार थी बदस्तूर और कांग्रेस के हक में कहीं कोई पत्ता भी खड़क नहीं रहा था।लेकिन पुणे में ब्राह्मण सभा ने शंकराचार्यों की अगुवाई में फैसला किया कि कांग्रेस को जिताना है।


जिन कालाधन और बेहिसाब संपत्ति के आरोपों में घिरे, औषधि में मिलावट से लेकर श्रम कानूनों के उल्लंघन मामले में यूपीे जमाने में बेतरह फंसे बाबा रामदेव का वरदहस्त सबसे घना घनघटा छाया नमोअभियान पर योगाभ्यास सहज की तरह है,उन बाबा रामदेव की अगुवाई में हरिद्वार में तब कारपोरेट मीडिया प्रधानों,शंकराचार्यो ने आडवाणी के हिंदुत्व के सिरे सेखारिज करके मनमोहनी जनादेश की रचना की थी।

ब्राह्मणसभा जैसे जाति संगठनों,क्षत्रपों,अस्मिताओं,परमआदरणीय शंकराचार्य और जनता की अदालत सजाने वाले कारपोरेटमीडिया के नक्षत्रों का आचरण चमकदार विज्ञापनी चरित्रों के जैसा ही है कि कोई ठिकाना नहीं कि उनकी मधुचंद्रिमा ठीक किस शुभमहूर्त पर प्रारंभ होती है और कब अप्रत्याशित पटाक्षेप हो जाये।


जाहिर है कि यहां नमोमय भारत का फैसला अमेरिका ने पांचवें हिस्से के भारत के मतदान में खड़ा होते न होते कर दिया है।अमेरिकी फतवा के खिलाफ कोई बोल ही नहीं रहा है।


सैमदादा के खिलाफ खड़े होने में फट जाती है सबकी।

सारे फतवे पर भारी है सैम दादा।

मध्य भारत के खनिज इलाकों में बहुराष्ट्रीयछिनाल पूंजी का सबसे बड़ा दांव है।आदिवासियों के विस्थापन और कत्लेआम,संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों की हत्या,भूमि पर आदिवासियों के हक पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना के तहत विकास की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए इसी इलाके में खास तौर पर गुजरात माडल का विकास लागू करना है।


जैसे कि कच्छ समेत पूरे गुजरात में कारपोरेट कंपनियों को भूदान करके मोदी अब नवउदारवाद के मौलिक ईश्वर के बाद कारपोरेट तोते के प्राण और नमो भारत के हिंदू राष्ट्र के नये ईश्वर बनकर वैदिकी हिंसा सर्वस्व अश्वमेधी सभ्यता के मर्यादा पुरुषोत्तम है,जिसने अपनी सीता का भी वहीं हैल किया जो राम ने किया था जैसे कि अनुसूचित समुदायों को गुजरात में कायदे कानून ताक पर रखकर बेदखल किया गया है,बाकी देश में भी वहीं तय है और इसी से सधेंगे अमेरिकी हित।


छिनाल पूंजी बदनाम हुई नाचने लगी है शेयर सूचकांक में।

इस विजय का उत्सव सोनी सोरी के भाई को पीटकर सलवाई पुलिस ने मनाया। चूंकि सोनी सोरी के बहाने बागी कथित माओवादी आदिवासी जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मुख्यधारा के साथ खड़ी हो गयी,तो स्थाई बंदोबस्त का तिस लिस्म टूट ही जाना है।

यक्ष प्रश्न है छत्तीसगढ़ी नमो सरकार का,सोनी सोरी नक्सली है और तुम लोग एक नक्सली की मदद क्यों कर रहे हो ?.

बाकी संवाद से पहले माननीय हिमांशु कुमार की जुबानी वाकया जो हुआ,उसपर गौर जरुर करें और समझ लें कि नागरिक और मानवाधिकार की हत्या के उदात्त घोषमा के साथ जो हिंदू राष्ट्र का कारपोरेट एजंडा अमेरिकी तत्वावधान में अमल में आना है,जनादेश पर ईवीएम मुहर पड़ते ही ,उसके आखिर नजारे क्या क्या होंगे।

हिमांशु कुमार जी ने लिखा हैः

आज आदिवासी पत्रकार और सोनी सोरी के भतीजे लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी के भाई रामदेव के साथ सीआरपीएफ ने सिपाहियों ने मारपीट और गाली गलौज करी और उन्हें छह घंटे से ज़्यादा बंधक बना कर रखा .

.

सोनी सोरी खबर मिलते ही उनकी मदद के लिए दौडी .

सीआरपीएफ वालों का कहना था कि सोनी सोरी नक्सली है और तुम लोग एक नक्सली की मदद क्यों कर रहे हो .

सिपाहियों की शिकायत यह थी कि आप जैसे नक्सली समर्थकों के कारण सीआरपीएफ वाले मारे जाते हैं .

सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी ने सीआरपीएफ के इन सिपाहियों को आदिवासियों के जल जंगल ज़मीन की लूट , राजनीतिज्ञों की इसमें मिलीभगत और गरीब सिपाहियों को इसमें मरने के लिए झोंक दिया जाने के बारे में समझाया .

लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी ने सिपाहियों को समझाने की कोशिश करी कि हम लोग संसाधनों की लूट के कारण होने वाली हिंसा की तरफ ही देश का ध्यान खींच रहे हैं . इससे ही आप लोगों की जान बचेगी .

अंत में सीआरपीएफ वालों ने लिंगा कोडोपी और रामदेव को आज़ाद कर दिया .आज आदिवासी पत्रकार और सोनी सोरी के भतीजे लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी के भाई रामदेव के साथ सीआरपीएफ ने सिपाहियों ने मारपीट और गाली गलौज करी और उन्हें छह घंटे से ज़्यादा बंधक बना कर रखा .   .  सोनी सोरी खबर मिलते ही उनकी मदद के लिए दौडी .    सीआरपीएफ वालों का कहना था कि सोनी सोरी नक्सली है और तुम लोग एक नक्सली की मदद क्यों कर रहे हो .    सिपाहियों की शिकायत यह थी कि आप जैसे नक्सली समर्थकों के कारण सीआरपीएफ वाले मारे जाते हैं .    सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी ने सीआरपीएफ के इन सिपाहियों को आदिवासियों के जल जंगल ज़मीन की लूट , राजनीतिज्ञों की इसमें मिलीभगत और गरीब सिपाहियों को इसमें मरने के लिए झोंक दिया जाने के बारे में समझाया .    लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी ने सिपाहियों को समझाने की कोशिश करी कि हम लोग संसाधनों की लूट के कारण होने वाली हिंसा की तरफ ही देश का ध्यान खींच रहे हैं . इससे ही आप लोगों की जान बचेगी .    अंत में सीआरपीएफ वालों ने लिंगा कोडोपी और रामदेव को आज़ाद कर दिया .Himanshu Kumar's photo.



इसके साथ ही युवा पत्रकार अभिषेक का यह रसीला मंतव्य भी बहसतलब है।·

पिछले कुछ दिनों की घटनाएं, उनकी मीडिया कवरेज, जनधारणा का निर्माण और ''लहर'' का आकलन करने पर समझ आता है कि मामला अब नरेंदरभाई के प्रधानमंत्री बनने का नहीं रह गया है। उनका प्रधानमंत्री बनना देश के लिए एक रस्‍म अदायगी ही होगा, न बने तो उनके लिए निजी तौर पर आत्‍मघाती।

असल मसला यह है कि जो प्रक्रिया उन्‍हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए पिछले दिनों इस समाज में कई स्‍तरों पर चलाई गई है, उसने एक इकाई के रूप में नागरिक समाज का विवेकहरण कर के उसे अंधकूप में धकेल दिया है। तकरीबन पूरा मध्‍यवर्गीय शहरी समाज फिलहाल ''मॉब साइकोलॉजी'' यानी भीड़-चेतना से संचालित होता दिख रहा है। पिछले दिनों मेरे पास और कई मित्रों के पास आए धमकी भरे फोन कॉल/ चैट इनबॉक्‍स में मिली गालियां/ आलोक धन्‍वा से लेकर प्रो. उमेश राय और केजरीवाल के साथ हुई बदसलूकी/ सीएसडीएस जैसे संस्‍थानों में सत्‍ता परिवर्तन/ सिद्धार्थ वरदराजन जैसे बड़े अंग्रेज़ी पत्रकारों की बेरोजगारी/ पड़ोस के पनवाड़ी से लेकर अपने-अपने हनुमानों के बदले हुए तल्‍खी भरे सुर- सब बताते हैं कि यह समाज बिना नरेंदरभाई के भी फासीवाद (अपनी पसंद का पर्याय ढूंढ लें) के लिए तैयार है।

ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस देश की सत्‍ता पर काबिज कोई नेता फासीवाद नहीं ला रहा, बल्कि फासिस्‍ट हो चुका समाज फासिज्‍म को राजकीय वैधता दिलवाने के लिए एक नेता चुनने का अभियान चला रहा है। इसे क्‍लासिकल शब्‍दावली में reverse-bonapartism कह सकते हैं। यह खेल बड़ा दिलचस्‍प है क्‍योंकि जैसा समाज पिछले एक साल में झूठ, फ़रेब, हत्‍याओं, बलात्‍कारों, धमकियों, साजिशों और बेईमानियों से मिलकर बना है, वह कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और भाजपा तीनों के लिए बराबर काम का है। ऐसे में हमारे जैसे अल्‍पसंख्‍यकों को 16 मई तक और उसके बाद खतरा नरेंदरभाई या उनके गुर्गों से उतना नहीं है, जितना अपने पड़ोसियों/सहयात्रियों/परिजनों से है।

मोहल्‍ले में, गली में, बस में, कभी भी कोई भी आपसे लपट सकता है। अपने सामान की सुरक्षा स्‍वयं करें...।

इसी संदर्भ में छोटे मोदी के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता लेनिन रघुवंशी का यह मंतव्यभी देख लें।

खाप पंचायतों को समर्थन करने वाले व आरक्षण विरोधी संगठन (यूथ फॉर इक्वलिटी) के आरक्षण विरोधी बैठक में हिस्सा लेने वाले अरविन्द केजरीवाल के सन्दर्भ में इटली में घटित 22-29 अक्टूबर, 1922 की घटना का जिक्र करना बहुत प्रासंगिक है। इटली की सिविल सोसाइटी के लगभग तीस हजार लोगों ने रोम की सड़को और संसद को घेर लिया। इन्हें इटली के उद्योगपतियों का समर्थन था। इसके बाद वहां के राजा ने चुनी हुई सरकार की जगह मुसोलिनी को सत्ता सौंप दी। यह यूरोप के अधिनायक तंत्र के विस्तार की दिशा में निर्णायक कदम था। इसकी परिणति दूसरे विश्व युद्ध में हुई, जिसमें 6 करोड़ लोग मारे गये। तो क्या आप भी भारत में ऐसा करने के पक्ष में है? ये तो महात्मा गांधी जी का रास्ता नहीं है। ये तो महात्मा गांधी और उनके मूल्यों से गद्दारी होगी। फिर आम पार्टी व अरविन्द केजरीवाल दिल्ली से करीब पर हुए मुजफ्फरनगर दंगे पर कुछ नही बोले। क्यों?http://lenin-shruti.blogspot.in/2014/04/blog-post.html

Articles of/on/by Lenin & Shruti: बहुलतावादी बनारसीपन को बचाने के लिए पाती

lenin-shruti.blogspot.com

आपने बहुत ही सारगर्भित writeup लिखा है. कृपया मेरी बधाई स्वीकार करें.शुभकामनाओं के साथ, हर्षदेव

Himanshu Kumar

Yesterday at 5:52pm·

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कल हिमाचल के एक गाँव के नौजवानों के साथ बाबा साहब की जयंती मनाने पर चर्चा हुई .

तय हुआ कि जात पात मुक्त भारत बनाने के बारे में बातचीत करी जाए .

गाँव के ही युवा दोस्त साहिल के हमराह आस पास के पहाड़ी गाँव में जनता को इस कार्यक्रम की सूचना देने गया .

खूब ऊंची ऊंची चढ़ाईयां चढी .

धुप खूब चमकदार है लेकिन सामने ही बर्फ से ढके पहाड़ हैं इसलिए हवा ठंडी आती है .

दलित बस्ती के मकान भी बिलकुल अन्य जाति के लोगों जैसे ही पक्के और शानदार बने हुए हैं .

साहिल ने कहा कि ये सब कोटे की वजह से हुआ है .

इन सब के लड़के अब नौकरी करने लगे हैं इसलिए इनके मकान भी पक्के बन गए हैं .

यह देख कर मुझे जाति आधारित आरक्षण के पक्ष में एक और सबूत हासिल हुआ .

जाति तोडो दिलों को जोड़ो ..  कल हिमाचल के एक गाँव के नौजवानों के साथ बाबा साहब की जयंती मनाने पर चर्चा हुई .    तय हुआ कि जात पात मुक्त भारत बनाने के बारे में बातचीत करी जाए .     गाँव के ही युवा दोस्त साहिल के हमराह आस पास के पहाड़ी गाँव में जनता को इस कार्यक्रम की सूचना देने गया .    खूब ऊंची ऊंची चढ़ाईयां चढी .     धुप खूब चमकदार है लेकिन सामने ही बर्फ से ढके पहाड़ हैं इसलिए हवा ठंडी आती है .    दलित बस्ती के मकान भी बिलकुल अन्य जाति के लोगों जैसे ही पक्के और शानदार बने हुए हैं .     साहिल ने कहा कि ये सब कोटे की वजह से हुआ है .    इन सब के लड़के अब नौकरी करने लगे हैं इसलिए इनके मकान भी पक्के बन गए हैं .    यह देख कर मुझे जाति आधारित आरक्षण के पक्ष में एक और सबूत हासिल हुआ .    जाति तोडो दिलों को जोड़ो .

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अब कुछ प्रासंगिक वक्तव्यों पर जरुर गौर करें

कवि अशोक कुमार पांडे ने लिखा है


हापुड़ में एक आयोजन में हमने मनु स्मृति वगैरह पर टिपण्णी कर दी. एक साहब लगे धर्म सिखाने. पूछे वेद पढ़े हैं. वेद पढ़ के आइये फिर बहस करेंगे. हमने पूछा बाबा साहब को पढ़े हैं, मार्क्स को पढ़े हैं. पढ़ के आइये तब बहस करेंगे.

एके पंकज का मंतव्य है

जिसे चाहे जीता लें, दावे के साथ कह रहे हैं - चुनावी जनता फिर हारेगी.

संसद को तो संघर्शशील जनता ही अपदस्थ करेगी. हमेशा-हमेशा के लिए.

सांपनाथ, नागनाथ और अब आपनाथ, ये सभी इस लूटतंत्र के ही चेले-चपाटी हैं.


उज्ज्वल भट्टाचार्य

"वास्तविक रुप मेँ देखा जाए तो मैला प्रथा बिल्कुल भी अनुचित नहीँ है।और जो भी लोग मैला ढोने मेँ संलग्न हैँ वो इसलिए नहीँ हैँ कि उनके पास कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीँ है।अपितु इसलिए ऐसा कर रहे हैँ क्योँकि मैला ढोने पर उन्हेँ आत्मिक शान्ति और प्रसन्नता का आभास होता है।ईश्वर ने उन्हेँ इसी काम के लिए बनाया है."

- कर्मयोग, नरेंद्र मोदी


मोहन क्षोत्रिय

अब तो मुझे संदेह होने लगा है कि नक्सलों (माओवादियों) की कोई वैचारिक-सामाजिक अभिप्रेरणा कभी रही भी थी !

विवेकशून्य धारावाहिक हत्याओं के चलते आदिवासियों के बीच भी वे अपनी बची-खुची विश्वसनीयता को खो देंगे ! ‪#‎निरपराध_निहत्थे‬लोगों की हत्याएं ‪#‎धुर_दक्षिणपंथी‬ताक़तों को ही मज़बूत कर सकती हैं. यह उदाहरण है‪#‎अति_वाम_और_धुर_दक्षिणपंथ_के_गंठजोड़‬का ! दर असल यह वामपंथ को बदनाम करता है ! जो इस गंठजोड़ के लाभार्थी हैं, उन्हें वामपंथियों के खिलाफ़ ज़हर उगलने का मौक़ा देता है. जिन व्यापक समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करने का यह दम भरता है, उनके ही जीवन को और दुखमय बनाता है, उनकी जान को जोखिम में डालता है!

इस तरह के अमानवीय कृत्यों की भर्त्सना होनी चाहिए. मैंने पहले भी कई बार कहा है कि यह क्रांतिकारिता नहीं है, बल्कि क्रांति के नाम पर बचकाना उग्रवादी मर्ज़ है. सारतः यह आत्मघाती क्रिया ही है !

फिर यह खबर

मीडिया जगत की बड़ी खबर सामने आ रही है. नरेंद्र मोदी और रजत शर्मा के बीच अनैतिक डील होने के विरोध में इंडिया टीवी के प्रधान संपादक कमर वहीद नकवी ने इस्तीफा दे दिया है. नकवी के इस्तीफे से रजत शर्मा और इंडिया टीवी के मंसूबे को झटका तो लगा ही है, नरेंद्र मोदी-रजत शर्मा के बीच की अनैतिक डील की भी पुष्टि हो गई है.


इस डील के बारे में बताया जा रहा है कि रजत शर्मा ने केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनवाने के वास्ते पाजिटिव मीडिया कंपेन करने का निर्णय लिया है. बदले में मोदी और भाजपा की तरफ से रजत शर्मा को भांति भांति तरीके से ओबलाइज किया गया और किया जाएगा. कमर वहीद नकवी ने जब देखा कि इंडिया टीवी और रजत शर्मा अब नरेंद्र मोदी के भोंपू बन चुके हैं तो उन्होंने इस्तीफा देना उचित समझा. हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी के प्रति वैचारिक विरोध रखने के कारण कई पत्रकारों को नौकरियां छोड़नी पड़ी या उन्हें नौकरी छोड़ने को मजबूर किया गया.


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फिर यह खबर

अंबेडकर के सपनों को साकार करेंगे मोदी?

http://zeenews.india.com/hindi/blog/modi-would-fulfill-ambedkars-dream_142.html


तमाम सर्वे बताते हैं कि देश की सत्ता बदलने वाली है। जनता सत्ता की चाबी नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंपना चाहती है। इस लोकसभा चुनाव में मोदी के बूते भाजपा को जबर्दस्त सफलता की उम्मीद है। इस उम्मीद को पूरा करने के लिए समाज के सभी तबकों का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। अगड़ी जातियों, पिछड़ा वर्ग के अलावा दलितों ने भी मोदी में भरोसा जताया है। अब सवाल यह उठता है कि अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्या आजादी के 67 साल बाद भी हाशिए पर पड़े 20 करोड़ दलितों का उत्थान हो पाएगा? यानी मोदी बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर के सपनों को साकार कर पाएंगे?


अंबेडकर की 123वीं जयंती के अवसर पर उनके सिद्धांतों और विचारों का जिक्र करना लाजिमी है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के समूल नाश को माना था। उनका कहना था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार। उन्होंने कहा था कि जातिवादी समाज के समूल नाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।

अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं, लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते। अंबेडकर समग्र समाज की उन्नति चाहते थे। उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझा तथा उसको बढ़ावा दिया।


आजादी के बाद देश में करीब 60 सालों तक कांग्रेस का शासन रहा है, परन्तु दलित हमेशा उपेक्षा की शिकार रही है। दलितों का बड़ा तबका आज भी आर्थिक और राजनैतिक रूप से समृद्ध नहीं हो पाया है। हालांकि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 15 प्रतिशत सीटें दलितों के लिए आरक्षित की गई हैं। इन आरक्षित सीटों की बदौलत दलित नेता राजनीति के मुख्यधारा से जरूर जुड़े, लेकिन दलित समाज जाति प्रथा जैसे दंश से बाहर निकालने में असर्मथ रहे। दलितों के दिग्गज नेताओं में राम विलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती ने राष्ट्रीय राजनीति में अहम छाप छोड़ी है। इतना ही नहीं ये नेता यदाकदा केंद्रीय सरकार का हिस्सा भी रहे हैं। लेकिन इन्होंने भी न तो आर्थिक रूप से और ना ही सामाजिक रूप से अपने समाज को ऊपर उठाने में कोई कारगर कदम उठाया, सिर्फ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए दलितों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। अंबेडकर की कसमें खाने वाले ये नेता सत्ता से चिपके रहकर सिर्फ दलितों को ठगने का काम किया है।


हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन आज भी छुआछूत की प्रथा जारी है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में दलितों को प्रवेश नहीं करने दिया जाता है, दलित समुदाय के दुल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता, होटलों में दलितों के लिए अलग से बर्तन रखे जाते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहा था कि सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी भारत के लिए चुनौती है। दलितों और पिछड़ों की जिंदगी में जो भी बदलाव आए हैं, वो सिर्फ आरक्षण की वजह से हैं। आरक्षण के चलते दलितों को सरकारी नौकरियों और राजनीति में जगह देनी पड़ी है। देश में जिस रफ्तार से कई क्षेत्रों का निजीकरण हुआ है, उससे सरकारी नौकरियां घटकर नगण्य रह गई हैं। प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण नहीं है। क्या ऐसे में दलितों और शोषितों के उत्थान की कल्पना की जा सकती है? शिक्षा का भी निजीकरण कर दिया गया है। प्राइमरी स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में निजीकरण का बोलबाला है जिससे दलित तबका अर्थ के अभाव में शिक्षा से भी वंचित रह जाता है। फिर भी चुनावों में उनके मुद्दे सियासी चर्चा और चुनावी वादों में ज्यादा नजर नहीं आ रहे हैं।


अब तक ठगा सा रहने वाला दलित तबका इस बार नरेंद्र मोदी से आस लगाए बैठा है। पिछड़ी जाति से आने वाले मोदी अगर देश की बागडोर संभालते हैं तो उनके ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी शोषितों और दलितों के कल्याण के लिए कारगर कदम उठाने की होगी। भारत तभी विकसित देश कहलाने का हक रखेगा, जब तक निचला तबका आजादी का स्वाद न चख ले। निश्चित रूप से इस चुनावी साल का यह बड़ा सवाल है, 'मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अगर देश की सत्ता में आती है तो भाजपा के घोषणा पत्र 'एक भारत श्रेष्ठ भारत'के तहत नरेंद्र मोदी सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से पिछड़े दलितों को समानता का अधिकार दिला पाएंगे और क्या ऐसा कर के नरेंद्र मोदी दलितों के मसीहा बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के सपनों को साकार कर पाएंगे?'


(The views expressed by the author are personal)


When Easing Limits Isn't Enough

BJP's declaration that it will further liberalize FDI norms, except in multi-brand retailing, makes little difference to foreign investors. What matters more is making the investing process simpler

G Seetharaman



   Few reforms impacting the corporate sector in India have been extrapolated as much in recent times to discern the government's intent to drive growth as foreign direct investment (FDI) in multi-brand retail. Ever a political hot potato, it has also provided for much grandstanding among political parties. The Congress-led United Progressive Alliance (UPA) government in late 2012 allowed foreign retailers like Walmart, Tesco and Carrefour to own up to 51% in multi-brand outlets in India, which was subsequently okayed by parliament.

But the move came with riders like a minimum FDI of $100 million, mandatory sourcing of 30% of items from local small and medium companies, and 50% of the foreign retailer's investment in backend infrastructure. The Centre also mandated that the retailer had to seek the state government's approval.

Touch and Go

While Congress-ruled states like Andhra Pradesh, Himachal Pradesh and Maharashtra toed the Centre's line, the reform attracted vociferous opposition from the likes of West Bengal chief minister Mamata Banerjee and Uttar Pradesh chief minister Akhilesh Yadav, on the grounds that it is not in the interest of farmers and mom-and-pop stores. The retail industry accounts for over a fifth of India's gross domestic project and for under a tenth of its employment. Formerly Congress-ruled states like Delhi, which the Aam Aadmi Party ruled for 49 days, and Rajasthan, where the Bharatiya Janata Party is in power, retracted their approvals after the Congress was defeated in state elections late last year.

   While BJP's prime ministerial candidate and Gujarat chief minister Narendra Modi appeared to back the proposal recently — in February at an event in Delhi he urged traders to face up to global challenges — BJP has been opposed to it, with its president Rajnath Singh saying the party would reverse the UPA's decision once in power. So it did not really come as a shock to many supporters of the reform when BJP in its election manifesto said it is open to FDI in all sectors but multibrand retail. "BJP is committed to protecting the interest of small and medium retailers, SMEs and those employed by them," says the manifesto. So far, reportedly only Tesco, the UK's largest retailer, has shown interest, with a plan to pick up 50% in Trent Hypermarket, a Tata group company, and an initial investment of $110 million. A day after BJP released its manifesto Walmart said it would continue to focus on and expand its cash-and-carry operation.

   While several key infrastructure segments like highways, ports, airports and power already have 100% FDI, demands for a hike in FDI limits from 26% to 49% in insurance, pension and defence are still pending. FDI is allowed through the automatic or ap-proval route. The government in July 2012 relaxed FDI limits in 12 sectors, including telecom and single-brand retail, both of which have 100% FDI. Saurabh Mukherjea, chief executive, institutional equities, Ambit Capital, feels FDI is not the burning issue it was a decade ago. "It is not central to the debate on economic reforms anymore. Moreover, FDI inflows have been steady in recent years," he says.

Sectoral Hurdles

India attracted inflows of $28 billion in 2013, a growth of 17% over 2012, according to the United Nations Conference on Trade and Development. The figure is the second lowest, after South Africa's, among the BRICS (Brazil, Russia, India, China, South Africa) economies (see FDI Inflows...), though South Africa registered the highest growth among them, of 126% on a low base, to $10 billion in 2013.

   Rashesh Shah, chairman and CEO, Edelweiss group, admits that raising FDI limits in insurance and defence will have a big positive psychological impact on investors. "But it is only the first of measures that should be taken to encourage investors. After FDI, we have to ensure all the approvals for a project or a venture are given quickly," he adds. According to the Reserve Bank of India (RBI), half of the infrastructure projects worth 150 crore or more each and awarded by the central government are stuck due to regulatory hurdles and sector-specific problems.

   Some RBI statistics in an August 2013 report are startling. Less than a third of 576 special economic zones approved so far are operational; just over a fifth of the targeted 50,621 km of road projects have been awarded in the 2008-13 period; just four of the planned 16 ultra mega power projects (of 4,000 MW and above) have been awarded; and under the New Exploration and Licensing Policy for exploration of crude oil and natural gas, under half of the 251 blocks allotted have reported discoveries but only six are operational. Foreign investors can pick up 100% in these sectors, save some exceptions, so FDI limits are clearly not the problem here.

Fixing the Infra Mess

"You haven't really seen the [FDI] floodgates opening in what is being billed as the world's biggest PPP [public-private partnership] opportunity," says Vinayak Chatterjee, chairman and managing director of Feedback Infra, a consultancy. India plans to spend about 50 lakh crore on infrastructure in the 12th Five-Year Plan (2012-17), with about half of it coming from the private sector, up from over a third in the previous plan. Mukherjea says the key issues to be tackled in infrastructure are "coal shortage, the finances of state electricity boards [SEBs] and bailing out independent power producers who have signed long-term power-purchase agreements at sub-optimal tariffs".

   Demand for coal has been growing at twice the rate as the growth of domestic production and Coal India, which accounts for four-fifths of the coal produced here, has struggled to meet its targets, which has made India the third largest importer of coal. This has increased the cost of power producers, which have been demanding a hike in tariffs to make their projects viable. SEBs are worse off, with the government having to intervene in 2012 to clear a recast of their 1.9 lakh crore debt. Indian banks' woes have been increasing, too, with gross non-performing assets (NPAs) growing every year since 2008. In 2012, their gross NPAs grew at nearly three times the rate of growth in advances.

   If foreign investors are turned away by the inefficiency of Indian regulators and stateowned companies, the sheer venality of government bodies coupled with India Inc's disregard for rules is not making them any keener on India. Irregularities in the allocation of 2G spectrum and coal blocks, the losses to the government from which have been pegged at tens of thousands of crores, have led to CEOs, politicians and bureaucrats coming under scrutiny, with some like former telecom minister A Raja, Unitech and DB Realty chiefs, Sanjay Chandra and Shahid Balwa, even spending time in jail. The increased scrutiny of the Comptroller and Auditor General, the judiciary and activists have made bureaucrats and ministers wary of signing off on contentious projects, adding them to a worrying backlog of files.

   The other scary bogeyman for foreign companies has been the taxman. British telecom company Vodafone group has been embroiled in a dispute with the Indian government over the latter's demand of 20,000 crore in retroactive taxes, interest and penalties in relation to Vodafone's acquisition of a majority stake in what is now its Indian arm in 2007. But this did not stop the company from buying Piramal Enterprises' 11% stake in Vodafone India for 8,900 crore on Thursday, to fully control the Indian unit. Even Nokia and Royal Dutch Shell are battling tax demands by the government.

Time for Haste

While it is a no-brainer that these problems need to be sorted out forthwith, any delays in passing the Insurance Amendment Bill in parliament to hike the FDI limit in insurance from 26% to 49%, which will then be followed in the pension sector, too, could dampen investor sentiment at a time when the International Monetary Fund has projected India's GDP growth to improve from 4.6% in 2013-14 to 5.4% in 2014-15 and 6.4% the year after. Vighnesh Shahane, chief executive of IDBI Federal Life Insurance, believes hiking the FDI limit in insurance is the most logical route to increasing insurance penetration in the country.

   Life insurance penetration, which is the premium underwritten in a year as a proportion of the GDP, has been falling since 2009 in India and was 3.17% in 2012. "The insurance industry is in need of long-term capital to expand. It's not as profitable as it used to be," says Shahane. IDBI Federal is a threeway joint venture between IDBI Bank, Federal Bank and Belgian insurer Ageas. "While banking, which is a more strategic sector, has 74% FDI, I don't understand why we have had only 26% FDI in insurance," adds Janmejaya Sinha, chairman, Asia Pacific, Boston Consulting Group.

   Defence production, where the government allowed FDI of more than 26% on a case-to-case basis last year, is another sector ripe for foreign investment. Since the sector was opened up to the private sector in 2001, progress has been painfully slow. MV Kotwal, president, heavy engineering at Larsen & Toubro, says FDI in defence cannot be viewed only in commercial terms given the sensitive nature of the sector. "FDI in defence should be increased to 49% on a selective basis provided the right level and type of technology comes along with it." L&T's joint venture with Airbus Defence and Space, inked in 2009, is expected to be commercially operational in a year. Other private players in the defence sector include Mahindra & Mahindra, Tata group and Ashok Leyland.

   While foreign institutional investors (FII), hopeful of a Narendra Modi-led government in May, have pumped in over $4.5 billion in Indian equities in 2014, pushing the Sensex to record highs, Sinha believes short-term FII flows should be substituted by long-term FDI, which is a better indicator of the health of the economy. But for that to happen, the next government should do a lot more than just increase FDI limits.

What Makes India Unattractive

Hurdles in coal production (Coal India has pegged shortage at 350 million tonnes by 2016-17) and the resultant impact on power and other sectors; inability of independent power producers to get higher tariffs

Stress in the banking sector, with gross non-performing assets rising every year since 2008; growth figure at an alarming 46% in 2012

Lack of transparency and corruption in allocation of resources, as evidenced by the 2G spectrum and coal block scams

Retroactive tax demands by the government from companies like Vodafone, Nokia and Royal Dutch Shell


"We should substitute short-tem FII inflows with long-term FDI"

Janmejaya Sinha

chairman, Asia Pacific, Boston Consulting Group




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Suman Layak & Rahul Sachitanand


Raat ke bitalam ho, dinke bitalam ho Tebeo amaar moner manush ailo na Chasnala khoni te marad amar duiba gelo go

Folk song on the Chasnala mine disaster when many miners died after water flooded a shaft

Great disasters spawn great art. In 1975, in Chasnala, near Dhanbad in southern Bihar, 372 miners perished in a coal mine belonging to the Indian Iron and Steel Company (Iisco). An explosion caused the collapse of a coal roof at the mine, flooding it and drowning the workers as water gushed into the mine at seven million gallons per minute. Their bodies, buried in debris and water, were never recovered.

   The lament of the miner-widow, who waits for her man to come back home through night and a day, and then suffers from a lack of closure, was immortalizedby folk singer Ajit Pandey. In 1979 Yash Chopra also used this accident for his movie Kaala Patthar with Amitabh Bachchan in the lead. A decade before the Chasnala calamity, the Dhori mines, also near Dhanbad, had seen a disaster when a fire killed 375 miners.

   Those were times when mine accidents were common. In fact, the Oscar winning 1941 movie How Green Was My Valley also shows the daily grind of coal miners in England co-habiting with the daily fear of accidental death in a mine. And back in the '60s the Bee Gees wrote the song "New York Mining Disaster 1941"— whilst no mining disaster took place in New York in 1941, the song was apparently inspired by a mining accident in Wales in 1966 when a huge pile of coal waste collapsed on a school, killing 144 people, mostly children.

   In the Chasnala case, 36 years later in 2012, two officers of Iisco were convicted for criminal negligence in the incident and handed sentences for a year each in jail. So much for speedy justice; but the belated sentencing supported the premise that the accident could have been prevented. Two other co-accused in the case had passed away years before the verdict.

Lackadaisical Attitude

Today India has moved on from those mining disasters. Southern Bihar is now Jharkhand and Iisco was merged into Steel Authority of India in the mid-2000s. Coal mining too has changed. Mine safety has improved vastly. Almost all coal is now mined in highly mechanized open-cast mines. In case of underground mine accidents, rescue has become a smart act. Even back in 1989, when 65 miners were trapped in Mahabir coal mines in West Bengal, a special capsule was used to rescue the miners one by one. However, what have not changed are accidental industrial deaths. Young men still do not come home from work, dying in harness. As India built large bridges, concrete skyscrapers and urban transport systems, workers have continued to die in these newer areas while mines have become safer. And it often concerns the top Indian companies. Larsen & Toubro, India's premier engineering and construction company, saw a spate of accidents at its projects a year ago. Between July 2011 and February 2013 at least six accidents led to an equal or more number of deaths. Tata Steel saw a worker die and 10 others injured after a gas chamber blast in November 2013. And these two companies have been working on safety for decades.

However, industrial deaths are only a part of the problem. Safety is an issue across sectors from aviation to automobiles and generic medicine. Just a month and a half back the US FAA (Federal Aviation Administration) downgraded India's air safety ratings after it found its counterpart Directorate General of Civil Aviation did not have enough officials to oversee the safe running of flights. An unhappy coincidence was that on the same day, January 31, UK-based safety body Global NCAP said that the top five popular Indian small cars have all scored zeroes in their safety crash tests.

   In end-March, the governor of Haryana, Jagannath Pahadia, and eight others on a small plane taking off from Chandigarh airport, had a narrow escape when their plane caught fire. While the governor and his entourage escaped unharmed, this incident only added to the woes of an industry already roiled by safety concerns. In Mumbai alone, there have been 13 incidents — half of them mid-air near misses — in the first three months of 2014, according to DGCA data.

   In mid-March Reuters reported that after the US Food and Drug Administrator banned import of drugs from many Indian companies, US physicians have started avoiding India-made medicines.

   So what explains the unsafe, lackadaisical Indian in a country where hazard lurks around every corner?

Blood on the Roads

Prasad Menon, who heads the safety steering committee at the Tata group, has an explanation. "Safety has very low priority in all our lives. It is poorly understood and gets no importance at home and no importance on the roads." Menon, who led Tata Power before retiring as managing director and Tata Chemicals before that, adds that people carry this attitude to their work place. "Youngsters seem to have a complete disregard for safety and this shows."

   According to the ministry of road transport and highways, 139,091 died in road accidents in 2012 — the latest year for which data is available — compared with 118,239 in 2008. The situation is so grim that, for the first time in the country's political history, a party — Congress — has included road safety in its election manifesto. Congress has pledged to launch a national road transport safety programme with the aim of reducing fatalities by 50% in the next five years.

   Every year some 4,000 people die on the railway tracks in and around Mumbai, the victim of a burgeoning city saddled with an overburdened suburban railway system that transports 550 people in a carriage meant for 200 at peak hour. "Today the situation is grave," says RA Venkitachalam, vice-president, Public Safety Mission for Underwriters Laboratories or UL, a provider of safety solutions. "Indians are used to living with risk and everyone believes they can take that one chance."

   Sunil Duggal, chief operating officer of Vedanta Resources group company Hindustan Zinc Ltd (HZL), recalls the police stopping him when he was travelling in Jaipur recently with his seat-belt fastened in the rear seat. The policemen wanted to know why he was wearing the belt, told him that they do not enforce the seat belt rule for the rear seat and asked him to unfasten it and relax!

   According to data from the ministry of road transport and highways, there was an accident every minute in 2011, which claimed one life every three minutes. A total of 497,000 road accidents were reported in 2011, which was less than the number of accidents reported in 2010. However, the number of deaths at 142,485 was an increase of 7,000 over the previous year. Contrary to popular belief, only 1.5% of the accidents are caused by defective roads — over three-quarters were due to driver error. According to estimates from an IIT-Delhi report, road accidents contribute to a 2% loss of GDP.

   Dinesh Kumar Gupta, executive vicepresident at Larsen & Toubro, echoes Menon's view when he says the apathetic attitude to safety — crossing rail tracks, jaywalking and the like — is ingrained in the average Indian right from his youth days when he carelessly climbed trees and ran through the streets.

Low Penalties

This drive for shortcuts is what, feels Satish Khanna, a former pharma sector honcho who now has turned an active investor, is the bane of the Indian pharma industry that has been found wanting again and again by the US regulators. "It is not a question of money or a question of management bandwidth. The shortcuts are in terms of time [taken to complete a task]. However, now with large Indian companies seeing their market capitalization tumble, the realization is hitting home. Shortcuts can save time today but cost a lot tomorrow," Khanna says.

   But come to industrial safety or safety at the workplace and the same lackadaisical attitude persists — this time from the management.

   VB Sant, director general of National Safety Council, a non-profit organization started by the Union ministry of labour, says there is often poor commitment from management on safety, with many of them preferring to not wear safety gear. "They talk a lot but walk little of it," says Sant, "as managers and supervisors are always in a hurry to show results in quantity."

   Sanjay Kedia, managing director of Marsh India, an insurance brokerage and safety and risk advisory firm, feels that the perceived value of human life in India is low. "Any form of penalty or compensation is low under any of the acts or settlements through courts," he says. So a few lives lost in a construction project mean very little in terms of compensation to be paid to the next of kin when compared with the total cost of a project. Kedia adds that the competition in the insurance market ensures low premiums.

   "In a developed country, after an accident, the company itself is responsible for loss of business over a month or even 40 days and insurance kicks in only if loss of business extends beyond that. In India this exclusion is usually 5-7 days, so there is little incentive to invest in safety," Kedia adds.

   Menon of Tata says that disparities between laws for contract and permanent staff with regards to occupational health and safety — only recently redressed —contributed to poor safety numbers. "If you're setting up a new factory with a lot of unskilled manpower, ensuring they comply with safety norms is a challenge," he says.

   Sant also says there are very few factory inspectors with the government today (1,400 inspectors for over 2.71 lakh functional factories) and most of them fill their inspection reports with procedural violations while not taking note of real issues.

Simple Solutions

If there is an abundance of wrong attitude on safety in India, it is matched by a scarcity — of data. Most of the government data available with the ministry of labour and the labour bureau website have been updated up to 2010. The Directorate General, Factory Advice Service and Labour Institutes (DGFASLI) mostly also works with the same set. And this data covers under 5% of India's workforce, which works in factories of large companies and are on their permanent rolls. Contractor-workers often bear the brunt of accidents but their deaths are rarely on the records.

   Major problems often have straightforward solutions. At Tata Steel, it came down to building a few changing rooms. When Tata Steel, India's second largest steel producer in 2006-07, was trying to coax its female plant employees to wear western clothes to make its plant in Jamshedpur safer, it faced stiff opposition. It was a culture issue that had no easy fixes even as loose Indian wear —primarily sarees — remained a danger.

   In the end, it came down to an American consultant taking a chance and speaking directly to these ladies to find a solution. He faced a language barrier but, having been stonewalled by the managers, he wanted to take one last chance and speak directly with the women. As it turned out, the women did not want to come from home in shirts and trousers and at the plant there were no secluded changing rooms for them. Otherwise, they were happy to change into western work-clothes once inside the plant.

   The consultant was from the American company DuPont, which operates in areas like foodgrain and chemicals, but had a beginning in gunpowder. The business of gunpowder needed stringent safety norms that led the company to spin off its safety department as a separate service. Safety services are clearly in big demand — Du-Pont started with a couple of people and today has a few hundred.

MNCs Show the Way

Anupam Jaiswal, DuPont's business leader for sustainable solutions, says company research points out that around 3 lakh unsafe acts lead to one fatality. The key is to stop the small unsafe acts. Jaiswal points out that in DuPont employees are subject to strict rules that may seem unnecessary to others. For instance, they are forbidden from using autorickshaws, not allowed to travel on highways after 9 pm and the company keeps track of even off-the-job injuries suffered by employees. If that seems stretching things too far, Jaiswal actually delights in talking about how the company insists that all employees must use seatbelts in cars when travelling.

   "Three of us reached Delhi from Mumbai and none of the taxis there had seatbelts in the back seat. So we took three taxis and all of us sat in the passenger seat in front," says Jaiwsal by way of illustration of the almost maniacal obsession with safety. DuPont has spread its safety gospel to many other companies, including Hindustan Unilever and Indian Oil, and the team devising solutions for these companies has grown from two people in 2005 to around 240 today.

   MNCs in India have already set new standards for safety and exposure to international safety norms have also helped. Duggal of HZL (a public sector undertaking before Vedanta founder Anil Agarwal acquired it) was with Ambuja Cements after Swiss cement giant Holcim had acquired it. "They insisted that we conform to Swiss safety norms," he says.

   That was Duggal's first brush with international safety rules. At Holcim US, for instance, each construction worker needs to complete a minimum of 14 hours' safety training before receiving a safety certificate that allows them to work onsite.

   Duggal points out that the mandarins at Directorate General of Mines Safety headquartered in Dhanbad are often unaware of international safety norms for mechanized mining and the company has to educate them. HZL still operates underground mines that have been moving towards mechanization after the Vedanta takeover. It helps that Vedanta also operates mines (iron ore, copper, zinc) in overseas geographies from Australia to Ireland and South Africa. Expanding overseas clearly helps and Gupta recalls how L&T — which has aspirations of becoming a truly multinational engineering and construction giant — began focusing even more sharply on safety after it started seeking business from outside India at the beginning of the last decade. As Tata group's Menon points out: "Indian companies are now globalizing and they find themselves benchmarked with global peers."

Knee-jerk Reactions

While penalties and fines are necessary — for instance, they have worked really well in cases of drink-driving in Mumbai — the carrots of safety consciousness are also visible. Especially to companies, many of which embrace them after a bad year. Jaiswal of DuPont feels that after adopting safety norms and precautions the construction and infrastructure companies have seen fatal accidents drop by 90% and productivity go up by 35%. Menon of Tatas says: "More than any amount of regulation, it is peer pressure that will compel companies to improve their safety record," he adds.

   But MNCs are not flawless either. In Bangalore, Swedish power gearmaker ABB, has had its missteps with safety norms and has spent the past few years trying to fix a rocking boat. In an interview to a business magazine in 2009, Gary Steel, the firm's global head of HR and sustainability, admitted the firm woke up late, but made significant improvements. He ordered a safety audit to make the firm's operations more secure.

   "ABB India's focus on safety and culture extends across employees, contractors and subcontractors too," says Amit Patil, its head of health and safety. Rather than relying on lagging indicators (history of past accidents), the firm is trying to focus more on leading indicators — near misses which indicate trouble around the corner. "People think before acting, find unsafe environments and report it," he adds. "Line managers are responsible for audits and it isn't left to safety managers."

   Near-miss is a term that owes its origin to civil aviation. Just like the factories inspectors, at DGCA too there is a manpower issue. But much is at stake now and a senior DGCA official said: "DGCA will soon complete the hiring of flight safety inspectors [the shortage of such officers was one key reason for the downgrade], paying them up to 10 lakh a month, after which they will undergo training. The entire process will take two months after which DGCA will approach FAA apprising them of its actions to address the safety concerns and look to regain the Category 1 ranking."

   India and Indians take shelter under the emerging markets umbrella for many metrics, but it is struggling to keep safety in this list at a time when the demand is to upgrade to developed world standards.

   The Global NCAP results indicate an increasing gap between India and other countries — both developed and emerging. "There is no reason for low-cost cars not to meet minimum global safety standards," says David Ward, general secretary, Global NCAP. "Latin America is beginning to apply more stringent safety standards — Brazil is making air bags mandatory this year — and China too is tightening the screws. Three years ago, all the cars tested got zero stars, but in the latest round all of them were five-star rated."

Shooting Costs

Ward's tests have met with a mixed response. Some makers such as Nissan, he says, were openly hostile to the findings, while others, for example Volkswagen, took a more positive view of things by phasing out a model which fared poorly in the tests.

   Maruti chairman RC Bhargava says that Global NCAP's tests take a simplistic view of auto safety. "Small cars, which people want to upgrade to, are inherently safer than the two wheelers they gave up," he says. And then it goes back to the cost argument. He says car manufacturers such as Maruti cannot pass on safety costs (the addition of ABS or airbags in low-end models) to consumers. "Adding these safety features increases costs and in a tough market, it is difficult."

   Ward of Global NCAP counters Bhargava: "When consumers get interested, the whole market dynamic changes." He adds, "Indians know a good deal…it is not true that they are not interested in safety."

   Ravishankar Rajaraman, manager, safety group for JP Research, a road and automotive safety research firm, says: "People don't have correct information on safety norms — for example occupants on the back seat not using seat belts can harm those sitting in the front seats in case of an impact." His firm has worked on the Mumbai-Pune Expressway, where there have been 213 deaths between the Octobers of 2013 and 2014, and discovered that drivers asleep at the wheel and over-speeding were the biggest culprits. The solutions may appear nobrainers, but they are not really that cut and dried. After all, telling a corporate honcho not to drive or be driven at night is one thing, telling a truck driver expected to deliver his consignment at a city port at the crack of dawn is quite another.

   — With bureau inputs


Safety has very low priority in all our lives. It is poorly understood and gets no importance at home and no importance on the roads"

Prasad Menon, Chairman, Tata Safety Steering Committee









Small cars, which people upgrade to, are inherently safer than the two-wheelers they gave up"

RC Bhargava,

Chairman, Maruti Suzuki

read the article and share your views on economictimes.com









The apathetic attitude to safety is ingrained in the average Indian right from his youth"

Dinesh Kumar Gupta,

executive V-P, Larsen & Toubro





Getting women working on the shop floor to slip into shirts and trousers rather than

their traditional attire is a big step forward toward making factories safer



Insurance cover for business loss starts within 5-7 days of an accident in India, so there is little incentive to invest in safety"

Sanjay Kedia,

MD Marsh India



सवर्ण-बहुल गाँव में मतदान का एक दिन

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सवर्ण-बहुल गाँव में मतदान का एक दिन

सवर्ण-बहुल गाँव में मतदान का एक दिन

संजीव कुमार

सीवान (बिहार)। बुद्ध की ज्ञान भूमि गया से 50 किमी पूर्व में स्थित चारों दिशाओं से पक्की सड़क से जुड़ा नवादा शहर से 5 किमी पश्चिम में बसा सिसवां गाँव में 90% से अधिक आबादी भूमिहारों और ब्राह्मणों की है। इस गाँव की गिनती हमेशा से जिले के सबसे अधिक आबादी वाले संपन्न गांवो में होती रही है। यहाँ लगभग ढाई हजार से भी अधिक मतदाता नामांकित हैं। तीन दशक पूर्व तक इस गाँव में कुछ मुसहर, कहार जैसे दलित जातियों के लोग भी इस गाँव में रहते थे। पर आज उनपर सूअर पालने, गन्दा रहने और गाँव को गन्दा करने का आरोप लगाकर उन्हें गाँव से कुछ दूरी पर पूर्व और पश्चिम दिशा में गाँव के नदी और नहर किनारे पृथक कर बसाया जा चुका है। इस गाँव में बिजली, टेलीफोन, पुस्तकालय, स्वस्थ्य केंद्र, आदि सत्तर के दशक से ही उपलब्ध है पर वहीँ से 200-300 मीटर की दूरी पर नदी किनारे जातीय भेदभाव का परिचायक मुसहरों की उस बस्ती में आज भी बिजली का एक बल्व तक नहीं है। कहने को तो बहुत कुछ है इस गाँव के बारे में पर फ़िलहाल चुनाव का माहौल है, इसलिए चुनाव के बारे में बात हो तो बेहतर हो।

10 अप्रैल को यहाँ नवादा में चुनाव होना था। 27 वर्ष का हो गया हूँ पर घर से बाहर दिल्ली में पढ़ाई करने के कारण आज तक कभी मतदान नहीं किया था। पहली बार लगा कि अगर इस बार मतदान नहीं किया तो मुझे शायद मुझसे मतदान का हक़ छीन लिया जाना चाहिए, आखिर हमारा विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज खुद ही अपना गला घोंटने को तत्पर जो दिख रहा है। हूँ तो विद्यार्थी और वो भी सेल्फ-फाय्नेंसड, हजार रूपये खर्च कर मतदान करना महंगा लग रहा था पर क्या करें मन जो नहीं मान रहा था। 10 अप्रैल को सुबह लगभग पांच बजे गाँव पहुंचा तो सफ़र से थका आँख को नींद लग गई। मतदान तो 7 बजे से ही शुरू हो गया था पर मुझे मतदान केंद्र पहुंचते- पहुंचते तक़रीबन आठ साढ़े आठ बज गए। मतदान केंद्र जाने से पहले मैंने मुसहरों की उस बस्ती में जाना अधिक जरूरी समझा जहाँ के लोग मुझे कुछ वर्षों से आशा की नजर से देखा करते थे। मैंने वहां जाकर लोगों को जितना जल्दी हो सके मतदान करने को कहा, पर ज्यादातर लोग खेतों में मजदूरी करने जा चुके थे और दोपहर तक ही लौटते।

इधर मतदान केंद्र पर धड़ल्ले से मतदान हो रहा था। बहुत कम ही मतदाता दिख रहे थे जिन्होंने एकल मतदान का प्रयोग किया हो। सभी अपने वोट को अंत के लिए बचाकर जितना जल्दी हो सके किसी प्रकार की कोई अशान्ति होने से पहले गाँव से बाहर रहने वाले अपने भाई, बहन या गाँव के किसी भी हम उम्र के बदले मतदान कर रहे थे। वैसे इसमें गाँव की औरतें, मर्दों से आगे थी या यूँ कहें कि उन्हें आगे करवाया जाता था ताकि मतदान अधिकारी ज्यादा विरोध नहीं कर पायें। आखिर भारत जैसे पुरुष-प्रधान देश में नारियों को अबला का सम्मान मिलने का उन्हें और उन्हें यह सम्मान देने वाले पुरुषों को इसका कुछ तो फायदा मिलना ही चाहिए। एक-एक मतदाता अपनी पांचो उंगली स्याही से रंगाने के बाद भी दम नहीं ले रहे थे, आखिर भगवन ने उन्हें 10 उंगली जो दी थीं। और अगर भगवन का दिया दस उंगली भी कम पड़े तो वैज्ञानिकों की लेबोरेटरी से दूर गाँव की ओपन लेबोरेटरी से इजात घरेलु नुस्खे कब काम आयेंगे। एक से अधिक मतदान देने का पहला देशी मन्त्र है अंगुली पर स्याही लगते ही अंगुली को अपने बालों में घुसा कर रगड़ दीजिये और फिर बाहर जाकर पपीते के दूध से स्याही पूरी तरह छुड़ा कर दोबारा मतदान के लिए तैयार हो जाइये। अब मतदान अधिकारी भी क्या करें? एक तो वो अपने घर से सैकड़ों मील दूर थे, खाना पानी के लिए स्थानीय ग्रामीणों पर ही निर्भर थे और ऊपर से सवर्णों का गाँव जो लड़ने झगड़ने में कभी पीछे नहीं रहते। ऐसे गाँव में मतदान अधिकारीयों को भी बल तभी मिल पता है जब गाँव के मतदाता बंटे हुए हों या कम से कम कुछ लोग बोगस (दूसरे के नाम पे मतदान) मतदान का विरोध करने वालें हों। हालाँकि इस गाँव के मतदाता मुख्यतः दो उम्मीदवारों (जदयु और बीजेपी) में लगभग बराबर बंटे हुए थे पर दोनों पक्ष ने आपसी समझौता कर लिया था और दोनों पक्ष ही अपने अपने उम्मीदवार को बोगस मतदान करने में धड़ल्ले से जुटे थे।

वैसे गाँव के बाहर रहने वालों का अनुपात गाँव के दलितों और मुसहरों में सबसे अधिक था पर बोगस मतदान के मामले में उनका योगदान नगण्य था। गाँव के मुसहर और दलित बोगस तो छोडिये, वो तो अपने खुद के मताधिकार के प्रयोग से डरते थे। कल तक वो गाँव के सवर्णों से डरते थे तो आज पुलिस और रक्षाकर्मियों से डरते थे। आज तक ये लोग सवर्णों के अधिपत्य से स्वतंत्र नहीं हो पाये हैं। आज इनके वोटों का कुछ भाग एक तीसरे यादव वर्ण के उम्मीदवार को जा भी रहा है तो वो सिर्फ इसलिए कि गाँव का ही एक सवर्ण उस यादव उम्मीदवार से पैसे लेकर उन दलितों से उसे मत दिलवा रहा है। गाँव के आधे से अधिक दलित और मुसहर उस एक सवर्ण की बात इस लिए मान रहे हैं क्योंकि वो सवर्ण उनके लिए महाजन है और गाँव का ज्यादातर दलित और मुसहरोंने उससे कर्ज ले रखा है। हालाँकि कुछ ऐसे मुसहर थे जो स्वतंत्र रूप से भी राजद के उस यादव उम्मीदवार को ही अपना वोट देना चाहते थे। लेकिन गरीबी की मार ने इन दलितों को उनके मतदान केन्द्रों से हजारों मील दूर दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता आदि शहरों में धकेल दिया था। जो बचे-खुचे गाँव में ही रह गए थे, पर वो तो सवर्णों की तरह पाने घरवालों के बदले उनका मतदान तो दे नहीं सकते थे। डरते जो थे, अब सताए हुए वर्ग पर तो हर कोई हाथ साफ़ करना चाहता है फिर चाहे वो गाँव के सवर्ण हो या शुराक्षकर्मी या फिर मतदान कर्मी।

वैसे इस गाँव के मतदाताओं के झुकाव और समर्थन को मैं वर्गीकृत कर सकूँ तो एक वर्गीकरण साफ़ झलकता है जिसमे तीस वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर मतदाता बीजेपी के समर्थक हैं जबकि जदयू के ज्यादातर समर्थक चालीस और पचास को पार किये हुए हैं। कुछ परिवार तो ऐसे दिखे जिसमें पिता ने जद यू को मत दिया पर नवयुवक बेटे ने बीजेपी को। वैसे ये वर्गीकरण वहां दलितों पर लागू नहीं हो सकता है क्योंकि इनके हर उम्र वर्ग के मतदाता बीजेपी विरोधी है। जो लोग जद यू के समर्थक हैं वो अपनी मर्जी से मतदान नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने सवर्ण मालिकों के आधिपत्य में वो मतदान कर रहे हैं जबकि ज्यादातर दलित नवयुवक रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर हैं।

लगभग तीन बज चुके थे और मतदाताओं की भीड़ लगभग नगण्य हो चुकी थी। उधर गाँव के पास ही दो अन्य सवर्ण बहुल गाँव से बीजेपी के उम्मीदवार को थम्पीइंग मतदान की सूचना मतदान केंद्र के पास जमावड़ा लगाये लोगों के मोबाइलों पर आ रही थी। ज्यादातर लोग विचलित नजर आ रहे थे। आखिर गाँव के इज्जत का सवाल था। इज्जत? हाँ भाई, जिला का सबसे बड़ा सवर्ण बहुल गाँव और मतदान के मामले में पीछे ! आखिर गाँव के दोनों खेमे (बीजेपी और जदयू) में वोटों का बटवारा कर थम्पीइंग मतदान करने का गुप्त समझौता हो गया। तीसरा उम्मीदवार का समर्थक? उसमें तो एक ही सवर्ण था जिसने सौ से डेढ़ सौ वोट के लिए राजद उम्मीदवार से पैसे लिए थे और वो टारगेट वह मुसहरों और दलितों के वोट के सहारे पूरा कर चुका था। लेकिन एक और रोड़ा था, ??

मेरे द्वारा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ गुजरात के डेवलपमेंट मॉडल पर चलाये जा रहे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के विद्यार्थियों के समग्र अभियान की खबर गाँव वालों को पहले से थी। मतदान के दिन एकाएक मुझे देखकर मतदान केंद्र पर जमे बीजेपी के समर्थक सबसे अधिक आशंकित थे। लोग मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने किसको मतदान किया, जिस पर मेरे एक ही जवाब था "उसको जो बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के सबसे करीब हो"। मामला साफ़ था, मैं उस तीसरे उम्मीदवार का समर्थन कर रहा था जिसे दलितों का ही कुछ वोट मिला था। लोग मेरे ऊपर व्यंगात्मक रूप से समाज-विरोधी (वर्ण-विरोधी) होने का आरोप लगा रहे थे पर साथ ही साथ मेरे शिक्षा के स्तर का सम्मान भी कर रहे थे और मेरे द्वारा मोदी विरोधी अभियानों का भी सम्मान कर रहे थे। वो इस बात का भी सम्मान कर रहे थे कि मैं किसी एक खास उम्मीदवार को मतदान करने का आग्रह किसी से नहीं कर रहा था। उन्हें ये भी पता चल गया था कि जब मैं सुबह दलितों की बस्ती में गया था तो वहां के दलितों ने मुझसे यह सलाह मांगी कि वो किस मतदान करें तो मैंने उन्हें सलाह देने से मना कर दिया था और उनसे कहा कि ये अधिकार उनका है और ये फैसला उनको ही लेना है। मैंने सिर्फ उनसे इतना ही कहा कि गुजरात में मोदी जी की सरकार दलितों और आदिवासियों के लिए ही सर्वाधिक घातक रही है।

खैर, इधर मतदान केंद्र पर बीजेपी और जद यू के समर्थक मुझसे राजनीतिक बहस के बहाने या किसी कार्य के बहाने मुझे उलझाने की कोशिश में लगे थे। अब तक गाँव के लोगो ने गाँव के दो में से एक बूथ के सभी मतदान कर्मियों और शुराक्षकर्मियों से तालमेल बना लिया था। मैंने भी स्थिति भांप ली थी और लगातार मतदान केंद्र का चक्कर लगा रहा था। शुरक्षाकर्मी मुझे देखते ही भड़क जा रहे थे। इस बीच उनसे मेरी तीन चार बार झड़प हो चुकी थी। वो सभी लोगों को तो बिना रोके टोके मतदान केंद्र के अन्दर आने जाने दे रहे थे पर मुझे मतदान केंद्र के आस पास देखते ही चौकन्ने होकर मुझे केंद्र से दूर करने लगते थे। उसी दौरान मैंने मतदान भवन की खिड़की से थम्पीइंग होते देख लिया। इस बार मैं बेधड़क मतदान केंद्र में घुस गया और सुरक्षाकर्मियों समेत मतदान कर्मियों पर बरस पड़ा। खतरा देख सुरक्षाकर्मी मुझे मतदान केंद्र के अन्दर ही रहकर सब कुछ पर निगाह रखने को कहने लगे। पर बीजेपी और जद यू दोनों के समर्थक इससे होने वाले नुकसान को भांप गए। गाँव के कुछ लोग मेरे ऊपर हावी होने की कोशिश की पर समझदार लोगों ने मुझे समझा बुझाकर मनाने की कोशिश की। पर जब मैंने किसी की न सुनी तो गाँव वालों का साथ पाकर सुरक्षाकर्मी मेरे पर हावी होने लगे और मुझे जबरदस्ती मतदान केंद्र से बाहर करने लगे।

इस बीच ना जाने कहाँ से गाँव के कुछ लोग मेरे समर्थन में भी खड़े हो गए थे। मैंने इलेक्शन कमीशन के जिला कार्यालय में घटना की सूचना फ़ोन से दे दी और दस मिनट के अन्दर तीन गाड़ी सुरक्षाकर्मी और मतदान अधिकारी आ गए और मतदान खत्म होने के बाद ही वहां से गए। पर सवाल ये उठता है कि अगर मतदान केंद्र के अन्दर बैठ सभी मतदान कर्मी मिले हो तो कोई कितना रोक सकता है। मैं रात की ट्रेन पकड़ कर ही दिल्ली आ गया पर बाद में फ़ोन पर पता चला कि अतिरिक्त सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद भी कुछ अनुचित मतदान हुए थे। हुआ यूं कि सुरक्षाकर्मी  वोटिंग मशीन के पास तो होते नहीं थे जिसका फायदा उठाकर मतदान पीठासीन अधिकार एक एक मतदाता के वोटिंग मशीन के पास जाने के बाद लगातार दस दस बार वोटिंग नियंत्रण मशीन दबाकर उन्हें दस दस वोट देने दिया।

खींच-तान कर गाँव में लगभग 50% मतदान हुआ। पूरे गाँव में शर्मिंदगी की लहर है कि ढाई हजार से ऊपर मतदाता होने के वावजूद गाँव से सिर्फ 1226 वोट ही पड़ पाए जबकि पड़ोस के ही एक अन्य सवर्ण बहुल गाँव में कुल 1900 मतदाता में से पंद्रह सौ से भी अधिक मतदान हुआ। गाँव के लोग इस बात से शर्मिंदा हैं कि वो भूमिहार समाज को और अपने उम्मीदवार गिरिराज सिंह को क्या मुंह दिखायेंगे। पर मैं इस बात से शर्मिंदा हूँ कि क्या यही है हमारी दुनियां का सबसे मजबूत लोकतंत्र?

About The Author

संजीव कुमार, लेखक रंगकर्मी व सामाजिक कार्यकर्ता हैं व छात्रों के मंच "भई भोर"व "जागृति नाट्य मंच"के संस्थापक सदस्य हैं।

पिंक रेवोल्युशन- एक बार फिर राजनीति में पहचान से जुड़े मुद्दे

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पिंक रेवोल्युशन- एक बार फिर राजनीति में पहचान से जुड़े मुद्दे

पिंक रेवोल्युशन- एक बार फिर राजनीति में पहचान से जुड़े मुद्दे

मजबूत नेता नहीं होता तानाशाहीपूर्ण और एकाधिकारी

 -राम पुनियानी

विघटनकारी राजनीति के पुरोधाओं ने यह वायदा किया था कि इस (2014) चुनाव में वे केवल विकास और सुशासन से जुड़े मुद्दों पर बात करेंगे। परन्तु यह शायद केवल कहने भर के लिये था। जहाँ गुजरात के विकास, मजबूत नेता, सुशासन आदि के बारे में जमकर प्रचार किया जा रहा है वहीं ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों को यह एहसास हो गया है कि इस प्रचार का गुब्बारा कभी भी फूट सकता है क्योंकि कई अध्ययनों और रपटों से यह सामने आया है कि गुजरात में हालात वैसे नहीं हैं, जैसे कि बताए जा रहे हैं। लोगों को यह भी समझ में आ रहा है कितानाशाहीपूर्ण और एकाधिकारी नेतामजबूत नेता नहीं होता। मजबूत नेता वह होता है जो सबको साथ लेकर चलता है। अतः, अब इन ताकतों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है कि वे एक बार फिर पहचान और आस्था से जुड़े मुद्दों पर वापस लौटें।

मांस और बीफ के निर्यात में वृद्धि के मुद्दे को लेकर यूपीए-2 सरकार पर हल्ला बोलते हुये नरेन्द्र मोदी ने 3 अप्रैल 2014 को एक सभा में भाषण देते हुये कहा कि भारत में ''पिंक रेवोल्युशन''की खातिर मवेशियों को काटा जा रहा है। पिंक रेवोल्युशन से आशय मांस व बीफ के व्यापार व निर्यात से है। हमारे देश में बीफ (गौमांस) भक्षण एक अत्यंत संवेदनशील धार्मिक मुद्दा है। परन्तु इसके बाद भीभारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक बन गया है और उसने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया है। केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की ताजा रपट के अनुसार, भारत ने 2012-13 में 18.9 लाख टन बीफ का निर्यात किया, जो कि पांच वर्ष पहले के आंकड़े से 50 प्रतिशत ज्यादा है। ''आधिकारिक रूप से से देश में गौवध पर प्रतिबंध है इसलिये हमारे देश में बीफ, मुख्यतः भैंस का मांस होता है। भैंसों के मामले में भी सिर्फ नरों और अनुत्पादक मादाओं का वध किया जाता है'', पशुपालन विभाग के एक अधिकारी ने कहा।

गौमांस, भारत की खानपान सम्बंधी परंपरा का अंग रहा है। वैदिक काल में यज्ञों के दौरान गायों की बलि दी जाती थी। जैसे-जैसे खेती का विकास होता गयागौवध पर प्रतिबंध लगाये जाने लगे क्योंकि कृषि कार्य के लिये बैलों की जरूरत होती थी। अमेरिका में एक बड़ी सभा में बोलते हुये स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ''आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राचीन संस्कारों के अनुसार, जो हिन्दू गौमांस नहीं खाता वह अच्छा हिन्दू नहीं माना जाता था। कुछ मौकों पर उसके लिये बैल की बलि देकर उसका भक्षण करना आवश्यक माना जाता था।'' (शेक्सपियर क्लब, पसाडेना, कैलिफोर्निया में 'बौद्ध भारत'विषय पर 2 फरवरी 1900 को बोलते हुये, द कंपलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद, खंड-3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृष्ठ 536)।

यही बात रामकृष्ण मिशन, जिसकी स्थापना स्वामी विवेकानंद ने ही की थी, द्वारा प्रकाशित अन्य अनुसंधानात्मक पुस्तकों से भी सिद्ध होती है। उनमें से एक में कहा गया है, ''वैदिक आर्य, जिनमें ब्राह्मण भी शामिल थे, मछली, मांस और यहां तक कि गौमांस भी खाते थे। किसी भी प्रतिष्ठित मेहमान को सम्मान देने के लिये गौमांस परोसा जाता था। यद्यपि वैदिक आर्य गौमांस खाते थे तथापि दुधारू गायों को नहीं मारा जाता था। गाय के लिये एक शब्द प्रयोग किया जाता था 'अघन्य' (कभी नहीं मारी जा सकने वाली)। परन्तु अतिथि के लिये एक शब्द था 'गोघ्न' (वह जिसके लिये गौवध किया जाता है)। केवल सांडों, दूध न देने वाली गायों और बछड़ों का वध किया जाता था'' (सी कुन्हन राजा, 'वैदिक कल्चर', सुनीति कुमार चटर्जी व अन्य द्वारा संपादित ''द कल्चरल हैरीटेज ऑफ़ इंडिया''खंड-1 में उद्धत, द रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता, 1993, पृष्ठ 217)। इतिहासविद् डी एन झा द्वारा किए गये अनुसंधान से भी यह जाहिर होता है कि भारत में गौमांस भक्षण की परंपरा थी। यही बात डाक्टर पांडुरंग वामन काने ने अपने बहुखंडीय ग्रंथ ''भारतीय धर्मग्रंथों का इतिहास''में कही है जिसमें वे वेदों से उद्धृत कर लिखते हैं, 'अथो अनम व्या गौ' (गाय सचमुच एक भोजन है)।

कृषि आधारित समाज के उदय के साथ गाय को एक पवित्र पशु का दर्जा दे दिया गया। इसका कारण स्पष्ट था। खेती में बैलों की जरूरत होती थी और गौवध से बैलों की कमी हो जाने का खतरा था। आमजनों को गायों को मारने से रोकने के लिये उसे धर्म से जोड़ दिया गया। अक्सर यह दुष्प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम बादशाहों ने भारत में गौमांस भक्षण की परंपरा शुरू की। यह सही नहीं है। सच तो यह है कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुये, मुस्लिम बादशाहों ने भी गौवध पर प्रतिबंध लगाए। बाबर की अपने पुत्र हुमायूँ को लिखी वसीयत (जिसे राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है) इस तथ्य को सिद्ध करती है।

''पुत्र, इस हिंदुस्तान देश में कई धर्म हैं। अल्लाह का शुक्रिया अदा करो कि उसने हमें यहां का राज दिया। हमें अपने दिल से सभी भेदभाव मिटा देने हैं और हर समुदाय के साथ उसकी रस्मों-रिवाजों के अनुरूप न्याय करना है। इस देश के लोगों के दिलों को जीतने के लिये और प्रशासन के कार्य से उन्हें जोड़ने के लिये गौवध से बचो…'' (मूल से अनुवाद राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा)।

इस प्रचार में कोई दम नहीं है कि भारत में गौमांस भक्षण मुगल बादशाहों ने शुरू किया। सच यह है कि अंग्रेजों ने भारत में सबसे पहले गौवध और गौमांस भक्षण की परंपरा शुरू की। उन्होंने  सेना के बैरकों में खटीकों की नियुक्ति की जिनका काम गायों को काटकर सेना के लिये गौमांस का प्रदाय सुनिश्चित करना था। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के कारण धर्म के नाम पर राजनीति शुरू हुई और गाय और सुअर, सांप्रदायिक हिंसा भड़काने और धार्मिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करने के औजार बन गए। गौवध के नाम पर कई बार देश के विभिन्न इलाकों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की है। केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर, देश के सभी राज्यों में गौवध पर प्रतिबंध है।  वर्तमान में गौवध करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है और इसलिये, जिसे हम बीफ कहते हैं, वह मुख्यतः भैंस का मांस होता है। अभी हाल में गोहाना में कुछ दलितों को इस आरोप में जान से मार दिया गया था कि उन्होंने गाय की चमड़ी के लिये उसकी हत्या की है।

गौमांस कई समुदायों के खानपान का हिस्सा रहा है, विशेषकर दलितों और आदिवासियों के व दक्षिण भारत के निवासियों के। मटन की बढ़ती कीमत के कारण, बीफ, गरीबों के लिये प्रोटीन का समृद्ध स्त्रोत है यद्यपि कुछ लोग इसके स्वाद के खातिर भी इसे खाते हैं। अभी हाल में मैं पूर्वी यूरोप गया था। मैंने देखा कि हमारे दल में शामिल एक हिन्दू परिवार के रोजाना के भोजन में बीफ अवश्य सम्मिलित रहता था।

प्रश्न यह है कि क्या हमें अपनी पसंद का भोजन करने की स्वतंत्रता है या नहींयूपीए-2 पर पिंक रेवोल्यूशन  लाने का आरोपदरअसलइस मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण करने का प्रयास है। भाजपा के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर यह दावा कर रहे हैं कि बीफ के निर्यात को प्रोत्साहन देने की नीति के कारण हमारे देश में दूध के उत्पादन और खेती पर बुरा असर पड़ रहा है। सरकार की वर्तमान नीतियों में कोई भी कमी हो परन्तु एक बात स्पष्ट है और वह यह है कि हमारा दुग्ध उत्पादन लगातार बढ़ रहा है और अगर कृषि उत्पादन में कमी आ रही है तो उसका कारण मवेशियों की घटती संख्या नहीं है। इस तरह के दावे करने वालों को पहले अध्ययन करना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि जो लोग मवेशी पालते हैं, उनमें से अधिकांश गरीब और नीची जातियों के होते हैं और वे दूध न देने वाले बूढ़े मवेशियों का बोझा नहीं उठा सकते। खाद्य व अर्थशास्त्र का प्राकृतिक चक्र, बीफ उत्पादन में वृद्धि के लिये जिम्मेदार है और इस मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण नहीं किया जाना चाहिए। हमें अपनी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को आगे ले जाना है। पशुपालन, कृषि से जुड़ा हुआ व्यवसाय है और उसका साम्प्रदायिकीकरण, हमारे प्रजातांत्रिक समाज के मूल्यों के विपरीत है।   (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 

About The Author

Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.

वर्गीय हितों को साधने में किया जाता है जाति का इस्तेमाल

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वर्गीय हितों को साधने में किया जाता है जाति का इस्तेमाल

वर्गीय हितों को साधने में किया जाता है जाति का इस्तेमाल

HASTAKSHEP

अम्बेडकर के 'जाति का खात्मा'पर परिचर्चा के संदर्भ में – भाग-1

पार्थ सरकार

हाल ही में पटना में अम्बेडकर के 'जाति का खात्मा' लेक्चर पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसके आयोजकों में प्रमुख 'जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी' थी जो जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रेरित संगठन है और इसने बोध गया महंत के सामंती वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष को नेतृत्व दिया था जो उल्लेखनीय है। जाति विरोधी व महिला अधिकारों के आंदोलनों में भी इस संगठन की सक्रिय भागीदारी रही है। अम्बेडकर के इस भाषण पर परिचर्चा में कम्युनिस्ट सेन्टर ऑफ इण्डिया के साथी ने अपने विचार रखे जिस पर कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं हुईं।अम्बेडकर का मामला बहुत ही संवेदनशील बन गया है और उनके विचारों पर कोई नकारात्मक टिप्पणी करना मधुमक्खी के खोते में हाथ डालने जैसा है। हम यहां अपने साथी द्वारा दिए गए भाषण के मुख्य बिन्दुओं को रख रहे हैं और जगह-जगह विस्तार से कुछ और बातों को भी रखेंगे। (अतिरिक्त बातें या टिप्पणियां बड़े कोष्ठकों (square brackets) में रखी गई हैं। कहने की जरूरत नहीं कि समयाभाव में कुछ बातें नहीं कही जा सकी थीं)

            हम अम्बेडकर के उक्त भाषण की पृष्ठभूमि बता दें। अम्बेडकर को पंजाब में काम कर रहा 'जात-पात तोड़क मण्डल'की ओर से 1936 में 'जाति का खात्मा'नामक विषय पर लाहौर में होने वाले सम्मेलन में अध्यक्षता करने के लिए बुलाया गया था। अम्बेडकर ने इस अवसर के लिए अपने अध्यक्षीय भाषण की तैयारी की और इसे जात-पात तोड़क मण्डल के पास भेज दिया। इसे पढ़कर मेजबानों को लगा कि इससे हंगामा हो जाएगा और यह उनके अधिकतर लोगों को मान्य नहीं होगा। अम्बेडकर भी अड़ गए और अंततोगत्वा यह सम्मेलन नहीं हुआ। अम्बेडकर ने अपने भाषण को छपवा दिया और इसकी प्रतियों की खूब बिक्री हुई। भारत में जाति का जो जकड़न उस समय था उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि यह भाषण क्रांतिकारी था और यह जातीय भावनाओं पर कुठाराघात करता था। आज इस भाषण की फिर से बहुत चर्चा हो रही है और कई जगह से इसके छपने की खबर मिली है। हमारे वक्ता ने इस पर सवाल उठाया कि अचानक इस पर आज इतना ध्यान फिर क्यों दिया जा रहा है। हालांकि उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला।

            अम्बेडकर के इस भाषण की एक प्रमुख प्रस्थापना यह थी — ''मैं इस बात को जरूर कह सकता हूं कि इस बात से संत राम जी वाकिफ हैं और वे इस बात को मानेंगे कि उनके एक पत्र के जवाब में मैने लिखा था कि जाति व्यवस्था को तोड़ने का असली तरीका अंतर्जातीय खान-पान व अंतर्जातीय विवाह आयोजित करने में नहीं है बल्कि उन धार्मिक धारणाओं को खत्म करने में है जिस पर जाति टिकी हुई है —।'' (भाषण अंग्रेजी में है और अनुवाद हमारा है। यह भाषण कलम्बिया यूनिवर्सिटी, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रकाशित किया गया है। पृष्ठ संख्या 6 से)

     इस प्रस्थापना को एक तरह से पूरे भाषण का सार बताते हुए हमारे वक्ता ने कहा कि जाति तोड़ने के लिए धार्मिक धारणाओं पर हमला करने पर अम्बेडकर द्वारा बल दिया जाना उस समय निहायत ही जरूरी था। जाति को धार्मिक अनुमोदन (sanctification)  मिला हुआ था। शास्त्रों की सत्ता पर चोट, मनुस्मृति पर चोट करना जरूरी था क्योंकि यह विचारधारात्मक संघर्ष था। विचारों के क्षेत्र में मनुस्मृति की सत्ता को चुनौती दिया जाना दिमाग को मुक्त करता था और जाति के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करता था। इस बात पर जोर देते हुए भी हमारे वक्ता ने कहा कि समस्या का समाधान यदि केवल धर्म के खिलाफ संघर्ष में खोजा जाए या फिर धर्म परिवर्तन में खोजा जाए तो यह गलत होगा। उन्होंने कहा कि इस भाषण के 20 साल बाद अपने जीवन के अंतिम दिनों में अम्बेडकर'बुद्धम शरणम् गच्छामिकरते हैं लेकिन जाति समस्या बनी ही रह जाती है। हमारी ही धरती से गए सम्राट अशोक की संतान, महेन्द्र एवं संघमित्र ने श्री लंका के लोगों को बौद्ध तो बना लिया लेकिन वहां भी जाति व्यवस्था है। इसी तरह हमारे देश में इस्लाम व ईसाई धर्म के मानने वालों के बीच भी जाति पाई जाती है। वक्ता ने अरूंधति राय के 'God of Small Things' (छोटी चीजों के देवता) की चर्चा की जिसमें लेखक ने केरल के सिरियाई क्रिश्चनों द्वारा अपने को ब्राह्मण मानने का जिक्र किया है और दिखाया है कि उनमें वैसा ही हैवानियत वाला ब्राह्मणवाद पाया जाता है।

¹यह बहुत ध्यान देने योग्य बात है कि अम्बेडकर के भाषण में एक सिरे से हिन्दू धर्मशास्त्रों की सत्ता को खारिज किया गया और इसके लिए उन्होंने बहुत तर्क दिए हैं। उन्होंने शास्त्रों के तर्कसंगत पुनर्विवेचन (reinterpretation)को गलत बताया है। बहुधा धर्म की सत्ता को आधुनिक जगत में पुनःस्थापित करने के लिए ऐसा किया जाता है। अम्बेडकर ने इस चेष्टा की आलोचना की है। यह हिन्दू पुनरूत्थानवाद के खिलाफ भी जाता है। यह एक प्रगतिशील बात है।

इसके साथ यह भी कहा जाना चाहिए कि अम्बेडकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे धर्म-विरोधी नहीं हैं। वे अंग्रेज विद्वान बर्क को उद्धृत कर धर्म की जरूरत की बात करते हैं। इसीलिए अम्बेडकर दूसरे धर्म की शरण में चले जाते हैं।

यहां इस बात को कह देने की जरूरत है कि वक्ता ने अम्बेडकर के भाषण के सार को पकड़ा और धर्म को प्रधान चीज बताते हुए उनके उदाहरणों पर टिप्पणी नहीं की जो गलत थे। मसलन, अम्बेडकर आयरलैण्ड की लड़ाई में कैथोलिक धर्म का हाथ देखते हैं और वहां के प्रांत अल्स्टर की आयरलैण्ड की स्वतंत्रता में दिलचस्पी नहीं होने की वजह उनका प्रोटेस्टेंट होना बताते हैं। बात क्या है? अलस्टर प्रांत में बड़े पैमाने पर इंग्लैण्ड और स्कॉटलैण्ड के लोगों को बसाया गया और वह प्रांत केवल धार्मिक दृष्टि से अलग नहीं था बल्कि वहां की राष्ट्रीयता भी अलग थी और ब्रिटेन द्वारा बसाए गए वहां के लोग होने के नाते ये ग्रेट ब्रिटेन का भाग बने रहना चाहते थे। आयरलैण्ड का संघर्ष राष्ट्रीय स्वतंत्रता का संघर्ष रहा है।

            जाति के धार्मिक अनुमोदन (sanctification) को सबसे बड़ी चीज मानते हुए अम्बेडकर ने धर्मशास्त्रों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष को ही जाति तोड़ने का तरीका माना है। उनकी बात धर्म परिवर्तन तक जाती है। हमारे वक्ता इसे अम्बेडकर की समझ का गलत पक्ष बताते हुए जाति के अस्तित्व के गैर-धार्मिक पक्ष (secularity of caste existence) पर जोर दिया। हां, वास्तविकता के धरातल पर देखें तो हम पाते है कि अम्बेडकर ने भी जरूर महाड़ में अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन छेड़ा जो धार्मिक नहीं था और उन्होंने मजदूर आंदोलनों में भी भागीदारी की। जाति के गैर-धार्मिक पक्ष पर बोलते हुए वक्ता ने जाति के विभिन्न तरह के इस्तेमाल की बातें रखीं। कई लेखक आज के दिन में (और अपने विश्व विकास रिपोर्ट, 2001 में विश्व बैंक भी) जाति को सामाजिक पूंजी (social capital) के रूप में चित्रित करते हुए तिरूफर में गुंडर जाति के लोगों द्वारा अपने ही जातीय सम्बंधों द्वारा बड़ा निर्यातक व्यवसायी समूह बनाने का जिक्र किया है, तमिलनाडू के नदारों का भी जिक्र किया है। जाति का इस्तेमाल वोट के समय खासा दिखता है और जनतांत्रिक राजनीति में जाति का खूब इस्तेमाल होता है। जातिवाद की परिघटना का जिक्र यहां होना जरूरी है जिसके तहत जाति का इस्तेमाल वर्गीय हितों को साधने में किया जाता है जाति के घरेलू बाजार का इस्तेमाल डॉक्टर, वकील कैसे करते हैं यह आसानी से देखा जा सकता है। आज किसी जाति को किसी तरह के काम करने की रोक नहीं है जैसा कि पुराने भारत में था और हम सामाजिक गतिशीलता भी देख सकते हैं। जाति व्यवस्था के इन बदले रूपों की चर्चा करने पर हमें इसके गैर-धार्मिक पक्ष दिखाई पड़ते हैं और जिसे अम्बेडकर को मानने वाले प्रखर बुद्धिजीवी, आनंद तेलतुम्बडे ने बड़े ही सटीक ढंग से ''जाति का बने रहना या डटे रहना'' (the persistence of caste) कहा है (उनकी एक पुस्तक इसी नाम से प्रकाशित हुई है)। वक्ता ने तेलतुम्बड़े द्वारा इसी किताब में की गई टिप्पणी का जिक्र किया जिसमें वे विचार करते हैं कि जाति आज जिस रूप में पाई जाती है उससे जाति शब्दावली का प्रयोग ही बेमानी सा लगता है। लेकिन इसको छोड़ा भी नहीं जा सकता वक्ता का कहना था कि जाति जिस रूप में आज है और जैसे बदलाव उसमें आए हैं उसे धार्मिक चश्मे से नहीं देखा जा सकता और न ही धर्म के खिलाफ लड़ाई उसका समाधान है। उसे उसके गैर-धार्मिक धरातल पर परास्त करना होगा। जाति के खिलाफ लड़ाई धर्म के खिलाफ संघर्ष भी रहा है। पेरियार का द्रविड़ आंदोलन अनिश्वरवादी था, बिहार के रोहतास के क्षेत्र में पिछड़ी जातियों में 'अर्जक समाज'का बोलबाला रहा है जिसने जाति विरोधी लड़ाई में धर्म विरोध भी किया। फिर आज जाति भी रह गई और लोग फिर से धार्मिक कर्मकाण्ड कर रहे हैं। वक्ता ने बात को रखते हुए अपने पूर्व वक्ता से पूछा कि आपने तो जाति विरोधी आंदोलन में भागीदारी की थी और जाति संरचना को तोड़ने का भी काम किया। टूटा क्या और बना क्या रह गयाजाति व्यवस्था के इस पक्ष पर ध्यान देना जरूरी है जिसे तेलतुम्बडे 'जाति का डटे रहनाकहते हैं जबकि वे उसमें यहां बदलाव तक देखते हैं कि इस शब्दावली को बेमानी तक मानने की सोचते हैं।

¹हम यहां पर तेलतुम्बडे को उद्धृत करना चाहेंगे ताकि उनकी बात उनकी जुबानी सुन ली जाए। वे अपनी पुस्तक 'जाति का बने (डटे) रहना'में लिखते हैं — ''बेशक जातीय स्थिति आज इतनी संश्लिष्ट बन गई है कि जाति शब्दावली का प्रयोग करना बेमानी साबित होने लगा है, और यह बेहतर होगा कि जल्दी उसे (किसी दूसरी शब्दावली से) परिस्थापित करने का सोचा जाए।'' (अनुवाद हमारा है। अंग्रेजी मूल में – " Indeed, the caste situation today has become so complex that the caste idiom is proving increasingly futile, and the earlier one thinks of substituting it the better". p. 51)

            लेकिन फिर भी विश्लेषण के लिए जाति शब्दावली का प्रयोग आज भी छोड़ा नहीं जा सकता। वे आगे लिखते हैं– ''तथापि एक विश्लेषणात्मक कोटि के रूप में जाति को खारिज कर देना गलत होगा। जरूरत इस बात की है कि वर्तमान में पाई जाने वाली जातीय गत्यात्मकता की समझदारी को तेज किया जाए।''– " To think, however, of discarding caste as an analytical category altogether would be counterproductive. What is needed is to sharpen the understanding of caste dynamics as they now exist." p.51)]

            जाति व्यवस्था में आए बदलावों पर जब ध्यान दिया जाएगा तो आज उसके खिलाफ की लड़ाई को हमें गैर-धार्मिक धरातल पर यानी भौतिक दुनिया में लड़ना पड़ेगा। वक्ता ने कहा कि आज दलितों के साथ जो अत्याचार हो रहे हैं उसका भी स्वरूप बदल गया है। जातीय हिंसाबेइज्जतीबंधन सवर्ण जाति के लोगों के हाथों उनके लिए रोजमर्रे का व्यक्तिगत मामला था। लेकिन आज ये अत्याचार दलितों के व्यक्तिगत रोजमर्रे के जीवन से हट कर दलितों के खिलाफ सामूहिक हिंसा के रूप में दिखाई पड़ते हैं उनकी बढ़ी हुई दावेदारी की प्रतिक्रिया के रूप में दिखाई पड़ते हैं। पहले यह सवर्णों के साथ उनके रिश्तों में देय था, आज वे स्वतंत्र हैं और इसीलिए उनकी दावेदारी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से सामूहिक रूप से कहर बरपाया जाता है।

¹चूंकि हम तेलतुम्बडे की बात करते आ रहे हैं तो इस मसले पर भी हम उनके विचार को सामने रखना चाहेंगे। वे भी ऐसा ही सोचते हैं, फिर भी उनका निवारण अम्बेडकर के निवारण के करीब दिखता है जब वे लिखते हैं — ''(जातीय अत्याचार को रोकने के लिए) कई तरह की रणनीति अपनाई जा सकती है, वह इस पर निर्भर करती है कि कहां और कैसे इस प्रक्रिया को रोकने की बात होती है। यह उसके स्रोत में भी हो सकता है — यानी जातीय विचारधारा के स्तर पर। यदि कोई दूसरी विचारधारा से इसके धार्मिक मायाजाल को उतार फेंके या दूसरा उपाय लगाया जाए तो अत्याचारों को अंजाम देने वाले सम्भावित लोगों के दिमाग पर असर डाला जा सकता है। यह क्लासकीय जाति विरोधी आंदोलन की उस रणनीति से मेल खाता है जिसने जाति की जड़ को हमारे धर्मशास्त्रों में बताया और उसका सामना किए।''यहां हम इसकी अंग्रेजी भी दे दे रहे हैं — "There may be several strategies to accomplish it (the expression of caste in terms of atrocities) , depending on where and how one decides to block the process. It may be at its source – at the level of caste ideology. If one could strip it of its religious mystQue with a counter-ideology, or by any other means, atrocities may be prevented by impacting the mindsets of their potential perpetrators. This is akin to the strategy of the classical anticaste movement that diagnosed the roots of caste as lying in the scriptures and set out to confront them." (ibid. p.51).

            फिर भी आगे वे लिखते हैं कि — ''उसके भौतिक रूप में भी अत्याचार से निपटा जा सकता है।  दलितों के खिलाफ अत्याचार केवल उनकी सापेक्षिक कमजोरी के कारण है — संख्यागत, भौतिक और सामाजिक। इस कमजोरी को कैसे खत्म किया जा सकता है? रणनीतिक विकल्प के ये रूप हो सकते हैं कि दलितों को अपने को अंदर से ताकतवर बनाना होगा या फिर उनकी ताकत की बाहर से सम्पूर्ति करनी होगी।''यहां फिर हम इसका अंग्र्रेजी अनुवाद दे रहे हैं –       " One can also tackle atrocity in its physical form. The root reason for atrocities against dalits is simply their relative weakness – numerical, physical and social. How is this weakness to be removed? The strategic options could be in terms of strengthening dalits from within or supplementing their strength from without." p.51]

            हमारे वक्ता ने दलितों द्वारा इज्जत के लिए संघर्ष की बात की जो बिहार जैसे प्रांतों में कम्युनिस्ट (व नैक्सलाइट) आंदोलन द्वारा संचालित हुआ। अत्याचारों के खिलाफ प्रतिहिंसा करके भी उन्होंने अपनी ताकत का इजहार किया जिससे प्रतिगामी शक्तियां सहम गईं। यहां हम फिर यह कहना चाहेंगे कि अम्बेडकर के भाषण के सार को हमारे वक्ता ने विचारधारात्मक संघर्ष में बताया था जो हिन्दू धर्मशास्त्रों व मनुस्मृति की सत्ता को खारिज करता था और उनका कहना था कि यह दिमाग को जातीय बंधन से मुक्त करते हुए संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करता था। मार्क्सवादी होने के नाते सामाजिक जीवन में विचारों के महत्त्व को हम कैसे नकार सकते हैं। जाति के खिलाफ विचारधारात्मक संघर्ष की आज भी जरूरत है और वह शायद धर्मशास्त्रों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष से आगे बढ़कर आधुनिक जनवादी विचारों के क्षेत्र की चीज बन गई है। हमारे वक्ता ने इसी दृष्टि से यह भी कहा कि किस तरह से निम्न जातियों का जातीय संघर्ष ब्राह्मणवाद का शिकार हो जाता है। इतिहास में हमने देखा है कि किस तरह से विभिन्न जातियों ने 1931 के सेंसस में अपने को क्षत्रिय गिनाया, किस तरह से जनेऊ धारण कर उन्होंने जातीय क्रमबंधता में अपने को द्विज की कोटि में लाने के प्रयास किए और इस तरह से ऊँची जातियों के वर्चस्व का सामना किया। ये संघर्ष अपने अंतर्य में जातीय उत्पीड़न व दर्जेबंदी के खिलाफ होते हुए भी जातीय व्यवस्था का निषेध तक नहीं पहुंचते थे और अंदर से जाति के खिलाफ की ही लड़ाई थे और इस तरह से ब्राह्मणवाद के लिए जगह छोड़ जाते थे। ताजा उदाहरण के रूप मे वक्ता ने बताया कि यह निम्न जातियों में देखा जाता है कि समृद्धि आने पर बहु-बेटियों को घर की चहारदीवारी के अंदर धकेल दिया जाता है। जिन जगहों पर हिन्दू रीति-रिवाजों के खिलाफ संघर्ष हुआ और नास्तिकता तक बातें गईं वहां संघर्ष करने वाली पिछड़ी जातियों के लोगों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के बाद आज फिर से हिन्दू धर्म का बोलबाला दिखाई पड़ता है। फिर ऐसी लड़ाइयां, जो निर्दिष्ट जातीय कामों के खिलाफ थीं, भी ब्राह्मणवादी व्यवहार के लिए गुंजाइश छोड़ देती थी। जैसा कि रविदास लोगों द्वारा मरे हुए गोमांस का सेवन बंद करना गाय का चमड़ा छीलने के उनके परम्परागत काम को छोड़ने के साथ भी जुड़ा हुआ रहा है। यह एक प्रगतिशील आंदोलन रहा है और विद्रोह भी। प्रेमचंद के उपन्यास 'कर्मभूमि'में इसका अच्छा साहत्यिक वर्णन मिलता है। फिर भी एक बात तो है कि गोमांस से परहेज करना सवर्ण हिन्दू परम्पराओं को मानने के बराबर है और इस तरह से यह ब्राह्मणवाद के लिए जगह देता है इसी तरह से हिन्दू रीति-रिवाजों को मानना हिन्दू समाज में दाखिले का एक उपाय रहा है और हम पाते हैं कि ऐसे लोगों को हिन्दू समाज के अंदर लाने के लिए हिन्दूवादी ताकतों द्वारा इस तरह के भी अभियान चलाए गए हैं। अमृत लाल नागर की पुस्तक 'नाच्यो बहुत गोपाल'में इसका अच्छा वर्णन मिलता है। ऐसे में आधुनिक जनवादी आधार पर जाति विरोधी संघर्ष को चलाना बहुत जरूरी है।

जारी…..

About The Author

पार्थ सरकार। लेखक कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (सीसीआई) से जुड़े हुए हैं। उनका यह आलेख पटना के संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर के जरिए हम तक पहुँचा है।

पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

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पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है जातीय उत्पीड़न

HASTAKSHEP

अम्बेडकर के 'जाति का खात्मा'पर परिचर्चा के संदर्भ में- भाग-2

पार्थ सरकार

'जात पात तोड़क मंडल'के सम्मेलन में अपने प्रस्तावित अध्यक्षीय भाषण में अम्बेडकर इस बात को रेखांकित करते हैं कि क्या सामाजिक सुधार के पहले हम राजनीतिक सुधार कर ले सकते हैं। उनका कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता। जातीय विषमता के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति की बात पर उन्होंने प्रश्नचिन्ह उठाया था। इस पर हमारे वक्ता ने कहा कि सामाजिक सुधारों की बात करना जरूरी तो था लेकिन एक कम्युनिस्ट होने के नाते सामाजिक सुधार व राजनीतिक सुधार के बीच कोई वरीयता वाली बात से वे सहमत नहीं हैं। कम्युनिस्ट लोग क्रांतिकारी मुकाम को हासिल करने के क्रम में सामाजिक सुधारों को भी अंजाम देते हैं और उसके लिए संघर्ष चलाते हैं, मसलन- बिहार में इज्जत की लड़ाई लड़ी गई या अन्य जगहों पर जाति विरोधी आंदोलन चलाए गए। राजनीतिक सत्ता लेने के बाद हम उन सारी चीजों को करते हैं जो सत्ता लिए बिना नहीं कर सकते। दलितों को समानता का हक दिलाने में उस समय 'जमीन जोतने वालोंका नारा बहुत ही कारगर होता। यह बिना क्रांतिकारी बदलाव का नहीं हो सकता था और क्रांति राजनीतिक सत्ता लेने के साथ सम्बंधित है

¹यहां हम इस बात का जिक्र कर देना चाहेंगे कि हर कम्युनिस्ट पार्टी के पास एक न्यूनतम कार्यक्रम होता है और एक अधिकतम कार्यक्रम होता है। इसके अलावा वह अपने लिए फौरी कार्यभारों का भी फेहरिस्त रखता है। कई चीजों को क्रांति द्वारा ही हल किया जा सकता है, जैसे 'जमीन जोतने वालों'की बात हमने कही (इस नारे के मुकम्मल अर्थ में न कि गैर-मजरूआ व सीलिंग से फाजिल जमीन के बंटवारे में। हम यहां जमीन के मुकम्मल फनर्वितरण की बात कर रहे हैं)। यह राजनीतिक सत्ता के साथ जुड़ा हुआ है और नए सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के निर्माण के साथ जुड़ा हुआ है। तो जो जातीय शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष हो सकते थे उन्हें किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी को अपने फौरी कार्यभारों में लेना चाहिए था और हम कह सकते हैं कि कई कार्यभारों को लिया गया जिससे जातीय उत्पीड़न पर चोट किया गया। इसीलिए हमारे लिए सामाजिक सुधार और राजनीतिक सुधार के बीच वैसी कोई तीखी क्रमबद्धता नहीं है जैसा कि अम्बेडकर रखते हैं। यहां कह देना चाहिए कि सामाजिक सुधारों के बारे में उस समय के कांग्रेस के नेताओं के विचारों के बारे में हम कोई अच्छा मत नहीं रखते और उनकी इसके प्रति उदासीनता को समझ सकते हैं। यहां फिर हम अम्बेडकर की चिन्ता को समझ सकते हैं और वहां तक वे बिल्कुल जायज बात कह रहे थे।

जाति जिन मौजूदा रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है उसका भारत के विकास के रास्ते से सम्बंध है। भारत ने कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं देखा। यहां पूंजीवाद का विकास धीमी, क्रमिक गति से हुआ जिसने यहां के मेहनतकशों के लिए अपार दुःख लाया। इसे हम मार्क्सवादी-लेनिनवादी लहजे में पूंजीपति-जमींदार रास्ता कहते हैं या जर्मनी के का जो प्रांत ऐसे विकास का प्रतीकी उदाहरण रहा है उसके नाम पर प्रशियाई रास्ता (Prussian Path)  कहते हैं। यह रास्ता पुराने (अर्ध-सामंती) बंधनों को धीरे-धीरे चटकाता है और उन्हें पूंजीवादी तर्ज पर ढाल भी देता है। जाति के साथ ऐसा ही हुआ। जातीय दर्जेबंदी के आधार पर जो जमीन की मिल्कियत थी वह कमोबेश बनी रही। भूमिहीन दलित जातियां बंधनों से मुक्त तो हुई लेकिन उनका अधिकांश हिस्सा मजदूर बना। इसी तरह से जातीय गोलबंदी का फायदा चुनावों में और व्यवसाय में लिया गया जिसकी चर्चा कर दी गई है। आरक्षण के द्वारा भी जातियों में वर्ग विभेद पैदा हुए। इन बदलावों में क्रमिक रूप से यह भी हुआ कि भारत में जमीन की मिल्कियत धीरे-धीरे पिछड़ी जातियों के हाथों में आती जा रही है और वे गांवों में नया मालिक वर्ग बन रहे हैं। जाति श्रम-विभाजन का अनमनीय रूप रहा है। इसीलिए जातीय श्रम-विभाजन को तोड़ दूसरे श्रम विभाजन में शरीक होना एक प्रगति का कदम है और इसमें जरूर इजाफा हुआ है। यह सामाजिक गतिशीलता (social mobility) जाति व्यवस्था को कमजोर करने का एक बड़ा साधन है। पूंजीवादी विकास के साथ दस्तकारी (artisanship) के कई रूपों का विलोप होता जा रहा है क्योंकि मशीनें इसका स्थान ले लेती हैं और यह भी जातीय श्रम विभाजन को तोड़ता है। विडम्बना यह है कि यह उन जातियों को मुफलिसी व कंगाली की स्थिति में भी धकेल देते हैं। और यह उन्हें कमजोर बनाता है और जातीय दंश उन्हें तब ज्यादा झेलना पड़ता है।

¹ यहां हम अपने लेख — 'जाति का सवाल'में से कुछ उद्धरण देना चाहेंगे-

अपने एक लेख में मार्क्स कहते हैं कि मध्य युग में सम्पत्ति, व्यापार, व्यक्ति सभी राजनीतिक होते थे- यानी राजनीति निजी क्षेत्रों की लाक्षणिकता होती थी। (हेगेल के न्याय के दर्शन की आलोचना में योगदान से) हम जानते हैं कि भूदास वास्तव में एक तरह से जमींदार की सम्पत्ति होते थे तथा वे कई तरह के बंधनों से बंधे होते थे। इसी तरह जमींदार अपने आप में न्यायाधीश व सेनापति भी होता था। इस तरह उससे भूदासों का रिश्ता सीधे-सीधे राजनीतिक होता था। हम पाते हैं कि वर्ग ''एस्टेट''के रूप में अपने को पेश करते थे और राजनीतिक गुणों से विभूषित होते थे। इस तरह जब हम प्राक्-पूंजीवादी या सामंती दुनिया के समाज में विद्यमान ऐसे रूपों पर विचार करते हैं तो हमें अधिरचनात्मक तत्वों को भी अपने आकलन में लेना होगा। जाति के साथ भी ऐसा ही है। जजमानी संबंध जैसे सम्बंध जाति व्यवस्था के अवयव रहे हैं। जजमानी संबंधों के तहत लोगों को कई तरह के जातीय कार्यभारों का निर्वहन करना पड़ता था, जो ग्राम समुदाय के अंदर श्रम विभाजन की व्यवस्था थी और यह व्यवस्था अपरिवर्तनीय और सख्त थी। इस तरह से इस श्रम विभाजन के तहत लोग एक दूसरे से उत्पादन की प्रक्रिया में जुड़े होते थे — जातीय कार्यभार उत्पादन संबंध ही थे। इन जातीय कार्यभारों का निर्वहन कुछ नियमों के तहत होता था (ऊँच-नीच या दर्जेबंदीवाली व्यवस्था, अनुलंघ्घनीय वंशानुगत काम, छुआछूत, सजातीय विवाहद्ध और यह परम्परागत व्यवहार व रीति-रिवाज से परिचालित होता था ;धार्मिक अनुशंसा, अनुमोदन)। इस तरह जाति व्यवस्था अपने में आधार व अधिरचना दोनों के अवयवों को समाहित करती थी। इस व्यवस्था की अपनी विचित्रताओं में एक यह भी है कि शोषकों व शोषितों के क्रम-अनुक्रम को सटीक ढंग से बताना मुश्किल होता है यद्यपि यह एक दर्जेबंदी वाली शोषक व्यवस्था (hierarchical system) है और इसके तहत निचले पायदान पर आने वाली जातियों का ऊँची जातियों द्वारा शोषण होता था। हम पाते हैं कि इस श्रम विभाजन ने मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के विभाजन को गहरा और चिरकालिकप्रायः बना दिया। इसने जाति व्यवस्था के भेदों को,इस श्रम विभाजन से उत्पन्न विभेदों को बढ़ा दिया और सख्त बना दिया। जाति व्यवस्था वाले समाज के नियमों की संहिता मनुस्मृति ने इसीलिए इस विभेद पर जोर डाला। जाति व्यवस्था के अंतर्गत लोगों के समूहों को खास कामों में बांधे रखने की प्रथा अनमनीयवंशानुगत व परम्परा तथा धर्म द्वारा अनुमोदन प्राप्त (sanctified) रही है। यह एक घृणास्पद व्यवस्था है जो मानव क्षमताओं के विकास को रोकती है और सम्पूर्णता में समाज विकास में बड़ी बाधा पेश करती है। (अम्बेडकर ने अपने उपरोक्त भाषण में बहुत अच्छी तरह से जाति के दुर्गुणों और उसके प्रगति विरोधी चरित्र पर टिप्पणी की है)

आज के दिन में यदि हम उत्पादन संबंधों की बात करें तो हम पाएंगे कि जजमानी संबंधों के तहत श्रम विभाजन द्वारा काम की परम्परा समाप्त हो गई है। लेकिन इसकी समाप्ति कोई क्रांतिकारी रूपांतरण द्वारा नहीं हुई है। आज जजमानी संबंधों के खत्म होने की बात के लिए किसी 'अध्ययन'पर आधारित होने की बात नहीं रह गई है। यह तो सबको साफ है। फिर भी हम एक अध्ययन पर आधारित होकर इसकी समाप्ति पर थोड़ा गौर करेंगे। वह है ''स्लेटर अध्ययनों''के 2008 का चक्र। अंग्रेज प्रोफेसर स्लेटर द्वारा 1881 में तमिलनाडु के कुछ गांवों में इस अध्ययन की शुरुआत की गई थी और इसके कई चक्र चले हैं। ये अध्ययन बताते हैं कि कैसे क्रमिक रूप में इन संबंधों में बदलाव आया है और श्रम विभाजन का पूंजीवादी ढांचे पर रूपांतरण हुआ है। तमिलनाडु के इरूवेलपट्टु गांव का हाल में किया गया अध्ययन बताता है कि यह गांव अब एक तरह से दो जातियों का गांव हो गया है। तरह-तरह की सेवा देने वाली जातियां इस गांव को छोड़ चुकी हैं। दलित जातियां हैं जो आज अपनी दावेदारी कर रही हैं और उन पर जमींदार का साया नहीं है। यहां दासता (debt bondage) खत्म है। खेतिहर मजदूरी तो ये करते ही हैं पर साथ ही गैर-कृषि मजदूरी का महत्त्व बढ़ रहा है। आज भी पुराने जमींदारी खानदान के पास सबसे ज्यादा खेत है और वह प्रभावशाली भी है लेकिन पुराने आश्रित और आश्रयदाता (patron and client) के संबंध अब नहीं हैं। अध्ययन बताता है कि ''लोहार अब ताला बनाता है, बढ़ई के पास फर्निचर पॉलिश करने का व्यवसाय है। दोनों बाहर हैं। धोबी अभी भी पैसे के बदले आइरनिंग का काम कर देगा, लेकिन धोने का नहीं। गांव के ये भूतपूर्व सेवा देने वाले लोग अभी भी पैसे के बदले अपने विशेष रीति-रिवाज का काम कर देंगे लेकिन अब आपसी निर्भरता पर आधारित सेवा की आम प्रथा समाप्त हो गई है।''इसी तरह का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्ययन यान ब्रीमन का है। उन्होंने विभिन्न समयों में गुजरात आकर शोध करके अनाविल ब्राह्मणों व हलपतियों (एक दलित जाति) के बीच के रिश्ते को दिखाया है। आज हलपतियों की इन पर व्यक्तिगत निर्भरता नहीं है लेकिन आज भी वे मुख्यतः खेतिहर मजदूरी करते हैं और अनाविलों के यहां ही करते हैं। इस तरह के बदलावों को समझने के लिए जरूरी है कि हम भारत के विकास के रास्ते को समझें। आज रुपए-पैसे या माल-मुद्रा के संबंधों ने पुराने संबंधों की जगह ले ली हैं।

इस तरह के बदलाव का एक मतलब यह भी होता है कि ऊपर से यह लग सकता है कि दलित व निचली जातियां जातियों के रूप में ही आज निचले पायदान पर खड़ी हैं। नहीं, वे आधुनिक मजदूर-मेहनतकश के रूप में वहां खड़ी हैं। आज उनके और उनके मालिकों के बीच का संबंध स्वतंत्र मजदूर व मालिक का है। निस्संदेह पूंजीवाद प्राक्-पूंजीवादी अधिरचनात्मक अवयवों का प्रयोग अपने हित में करता है। आर्थिक रूप से पूंजीवादी रूपांतरण तो हो जाता है लेकिन अधिरचनात्मक अवयवों का प्रयोग बंद नहीं होता। जातीय उत्पीड़न पूंजीवादी शोषण प्रणाली को चलाने में मददगार होता है लेकिन मजदूरों को जातीय उत्पीड़न के तमाम अवयव कहीं से भी अपने नए संबंधों में देय नहीं लगता। इसीलिए हम पाते हैं कि पिछली सदी के 70 व 80 के दशकों में तथा 90 के दशक के पूर्वार्ध में इज्जत का सवाल बड़े पैमाने पर जुझारू संघर्षों के केन्द्र में रहा और नक्सली आंदोलन ने इन संघर्षों की अगुवाई की। सामंती निर्भरता के संबंधों को खत्म करने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आज भी जातीय भेदभाव व उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष एक फौरी कार्यभार बना हुआ है।ह्

भारत में हुए पूंजीवादी बदलाव ने जातियों में वर्ग विभाजन कर दिया है और आज यह एक प्रभावी हकीकत है। ऐसे में जब भी हम जातीय सवाल को लेते हैं तब दृष्टिकोण की बात सामने आती है कि हम इसे पूंजीवादी सुधारवादी नजरिए से लेते हैं या फिर सर्वहारा क्रांतिकारी दृष्टिकोण से। सर्वहारा दृष्टिकोण इस बात को कहता है कि हर प्रकार के शोषण-उत्पीड़न का विरोध कर ही सर्वहारा अपने को मुक्त कर सकता है। इसीलिए वह जातीय उत्पीड़न के खिलाफ भी उतनी ही तल्खी से जूझता है और उसे अपने संघर्ष का अंग बनाता है। बुर्जुआ सुधारवादी तरीका दलित व पिछड़ी जातियों को सम्पत्तिवान व समृद्ध बनाने का झांसा देते हुए जाति के खात्मे का बात करता है। प्रश्न यह है कि क्या पूंजीवाद के अंतर्गत ऐसा हो सकता है? क्या बहुसंख्या गरीबी में नहीं रहती है और लोग लगातार उजड़ते नहीं हैं और सर्वहाराकरण नहीं होता है? लेकिन आज के दिन में 'भोपाल घोषणापत्र'जैसी मुहिम चलाकर दलित पूंजीवाद की पैरोकारी की जाती है। दलित पूंजीपति के बन जाने से उन जातियों से आए सर्वहारा का जातीय उत्पीड़न खत्म नहीं हो जाता। यह आम अनुभव की बात है। दूसरी बात जो बसपा जैसी तथाकथित दलित पार्टियों द्वारा फैलाई जाती है वह यह है कि दलितों की शक्ति उनके वोट में है और वोट में चमत्कारी गुण है जो उनके लिए मुक्तिदायी हो सकता है। यह चुनावी भ्रम दलित जातियों को संघर्ष से मुंह फेरने को कहता है और वस्तुतः राज्य संरक्षण की ओर उन्हें मुखातिब करता है।

इसी संदर्भ में हमारे वक्ता ने जातीय उत्पीड़न के खिलाफ दलित जातियों के प्रतिरोध की शानदार बात को सामने रखा। उन्होंने कहा कि दलित को केवल दबे-कुचले के रूप में देखना गलत है। ऐसा करना उनके प्रति एक सदाशयता वाली मानसिकता को दिखाता है। दलित जबरदस्त प्रतिरोध भी करते हैं और इसी में वे अपनी दावेदारी करते हैंकिसी के मुंहताज नहीं रहते।

वक्ता ने स्थानीय अम्बेडकर हॉस्टल के छात्रों और ऊँची जातियों की बहुलता वाले दूसरे हॉस्टल के लड़कों के बीच लड़ाई की बात की। सवर्ण लड़कों के उत्पीड़न का प्रतिरोध अम्बेडकर हॉस्टल के लड़के बहादुरी से करते हैं और वक्ता से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि वे दबने वाले नहीं हैं। इसके विपरीत यदि हम उन्हें केवल संरक्षण की जरूरत वाले मानते हैं तो अन्याय करते हैं। एक ऐसे राज्य के आश्रित के रूप में उन्हें देखते हैं जो सर्वथा दलित विरोधी है, जो जातीय उत्पीड़न के मामलों में कानून के राज के नाम पर शोषितों-उत्पीडि़तों के खिलाफ काम करता है। दलित जातियों के लोगों के जनसंहार के मामले और पुलिस-प्रशासन से लेकर कोर्ट-कचहरी के फैसले हमारे विचारों का अनुमोदन करते हैं। जब दलित जातियों के लोग बगावत का रास्ता लेते हैं तो उनके साथ जिस नृशंस तरीके से निपटा जाता है वह हम खूब जानते हैं। दलित जातियों को संविधानपरस्त बनाया जाता है जिस संविधान ने जातीय संरचनाओं को नया जीवन दिया है, जिसने चुनावों की प्रक्रिया में जातीय गोलबंदी को प्रोत्साहित कर जाति को नया जीवन दिया है। राज्य ने आरक्षण का प्रावधान कर एक तरफ तो जनतंत्रीकरण जरूर किया है लेकिन दूसरी तरफ दलित जातियों की बहुसंख्या को शोषण-उत्पीड़न झेलने को मजबूर बना दिया है। इसी बहुसंख्या के राज की बात सर्वहारा क्रांतिकारी करते हैं और उन्हें संविधानपरस्ती के रास्ता से अलग करते हैं।

हमारे वक्ता ने इसी दृष्टि से अम्बेडकर को प्रतीक  (icon) बनाए जाने की बात की थी। उन्होंने राज्य के इस प्रयास के पीछे के मंसूबे की बात कही थी जो दलितों को क्रांतिकारी संघर्ष से अलग कर संविधानपरस्त बनाता है। उस संविधान के प्रति आस्था रखने वाला बनाता है जिसे एक अत्यंत सीमित निर्वाचन समूह (electorate) के आधार पर चुनी हुई संविधान सभा ने बनाया था। कहने की जरूरत नहीं कि इस संविधान सभा में जमींदारों व पूंजीपतियों के ही प्रतिनिधियों का बोलबाला हो सकता था। दलित जातियों को क्रांतिकारी संघर्ष का रास्ता छोड़ राज्य संरक्षण का रास्ता दिखाने की प्रेरणा देने के लिए अम्बेडकर का आज इस्तेमाल हो रहा है। इसीलिए हमारे वक्ता ने अम्बेडकर से आगे जाने की बात कही। उन्होंने धार्मिक शास्त्रों की सत्ता को चुनौती देने से आगे बढ़कर जाति के गैर-धार्मिक वस्तुगत अस्तित्व की ओर ध्यान दिलाया जो आज बदले रूप में अपने को पेश करता है। उन्होंने भारत के प्रशियाई रास्ते से हुए पूंजीवादी विकास की ओर ध्यान दिलाया जिसने जाति व्यवस्था को अपनी जरूरतों के हिसाब से ढाला है और इसका इस्तेमाल अपने हित में करता है। ऐसे में जाति के खिलाफ की लड़ाई इसकी विशिष्टताओं के खिलाफ का संघर्ष भी है। दलितों की बहुसंख्या आज मजदूरी करती है और मजदूर के रूप में उनका संघर्ष उन्हें पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति तक ले जाता है। यह क्रांतिकारी सत्ता तक दलितों को ले जाने की बात है। फौरी जाति विरोधी हमारे कार्यभार इसी मंजिल की प्राप्ति हेतु हैं और इन दोनों कार्यभारों को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करना गलत है। इसीलिए अम्बेडकर के जनतंत्रवादी लड़ाई से, विचारधारात्मक स्तर पर धर्मशास्त्रों के खिलाफ संघर्ष से हमें आज आगे बढ़कर इस काम के लिए अपनी तैयारी करनी होगी। यह वस्तुगत परिस्थितियों के खिलाफ बगावत का रास्ता है और इसके लिए उस मुक्तिदायी रास्ते को चुनना पड़ेगा जो भारतीय पूंजीवाद को जड़-मूल से उखाड़कर उसके बदले एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करता हो जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होगा।

जारी….

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