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खलंगा युद्ध और गोरखा राज....?

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खलंगा युद्ध और गोरखा राज....?
कुछ मित्र आज बैठकर टांग-खिंचाई रहे थे...अरे यार नेपाल -1 का कैसा रिपोर्टर है जो नेपाली/गोरखाली नहीं जानता. मैंने आखिर कहा आप क्या जानते हो. तो जोशी बोले - नालापानी में इतना बड़ा झलसा होता है हर साल...उसके बारे में बताओ. तुझे कुछ पता तो होता नहीं है, यार मेरी पत्रकारिता को चुनौती थी यह मजबूरी भी थी अब झेलो इस लेख को-
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि नेपाल नरेश पृथीनारायण द्वारा सन 1765 में अपने सेनापति अमर सिंह थापा के सानिध्य में कुमाऊ के कई हिस्सों को जीत लिया गया था तत्पश्चात उनके पुत्र 1771 में राज संभालने के पांच बर्ष पश्चात् स्वर्ग सिधार गए थे उनके पुत्र राणा रण बहादुर तब बाल्यावस्था में थे और उनकी पत्नी राज लक्ष्मी व उनके भाई बलबहादुर सिंह ने सारा साम्राज्य संभाला.
इसी दौरान रमा और धरणी (गढ़वाल नरेश के दूत) नेपाल यात्रा पर गए और वहां के राजपुरोहित की पुत्री को विवाह ले आये. जिससे श्रीनगर दरवार में कोहराम मच गया और राजा के फैसले ने शांत गढ़ राज्य में गोरखा आक्रमण को न्यौता दे डाला.
ज्यादा विस्तृत हो जाएगा लेकिन सन्दर्भ बस यह लिखना पड रहा है ..हस्ती दल चौतरिया और सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में नेपाली सेना कुमाऊ अल्मोड़ा रौंदती हुई रामगंगा पार आ पहुंची लेकिन राजा की मृत्यु का समाचार सुनकर वापस लौट गई तब राणा रण बहादुर मात्र 19 बर्ष के थे. 
लेकिन पुन: 1792 में नेपाली सेना (30-35) हजार सैनिक) तराई भावर को रौंदते हुए गढ़वाल के लंगूर इलाके में प्रवेश कर गए तब तक श्रीनगर दरवार के मुंह लगे मंत्रियों की कूटिनीति के शिकार हुए महाबगढ़ के गढ़पति भंधौ असवाल को भी ठीक लोधी रिखोला भड की मौत की तरह ये धोखे से मरवा चुके थे 
गढ़वाल नरेश इस आक्रमण के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि तब तक यह राज छिन-भिन्न की स्थिति में था. आखिर 25 हजार सालाना नजराने के बाद हस्ती दल चौतरिया और सेनापति अमर सिंह थापा वापस लौटे लेकिन जाते जाते लंगूर परगना हरदेव जोशी (कुमाऊ) को हस्तगत कर गए जो तराई भावर के सिग्गडी में जा बेस थे. अगले बर्ष नजराना न पहुँचने से खफा फिर 1794 में आक्रमण हुआ लेकिन उसे गढ़वाल राजा ने नाकाम कर दिया पुन: 1797 में दो तरफ़ा आक्रमण किया गया एक ग्वालदम के रास्ते तो दूसरा भावर के रास्ते लेकिन अस्वालों के अधीन भैंरो गढ़ी पर नेपाली सेना विजयी न पा सकी जबकि दूसरी तरफ ग्वालदम से हुए आक्रमण में नेपाली सेना श्रीनगर तक चढ़ आई थी लेकिन बहुमूल्य उपहारों के साथ राजा प्रधुमन शाह ने उन्हें डेढ़ लाख की धनराशी और 12 लोग गुलामों के रूप में देकर विदा किया और तीन माह से भैरों गढ़ी पर ढेर डाले नेपाली सेना को आखिर बिना विजयी के वापस लौटना पड़ा.
सन 1802 में आये बिनाश्कारी भूकंप ने गढ़वाल के एक तिहाई हिस्से को बुरी तरह तहस नहस कर दिया था ..मौका मिलते ही हस्ती दल चौतरिया व सेनापति अमर सिंह थापा ने चौतरफा आक्रमण कर दिया .. 
हरिद्वार लांघती एक टुकड़ी देहरादून के लिए दूसरी ग्वालदम जोशीमठ से श्रीनगर के लिए तीसरी तराई लांघते हुए भैंरों गढ़ी होते हुए और चौथी कांडी-कच्याली होते हुए ऋषिकेश के लिए निकल पड़ी इस युद्ध में गोरखा सेना को सबसे ज्यादा जान हानि भैरों गढ़ी में ही हुयी जिसके गढ़पति भजन सिंह असवाल को आखिर लम्बी लड़ाई के बाद अपनी शहादत देनी पड़ी.
कथा लम्बी है इसलिए पूरा विवरण ठीक नहीं है . आखिर जनवरी 1804 में राजा प्रद्युमन शाह को मौत के घाट उतारने के बाद गोरखा राज एक क्षत्र पूरे गढ़वाल पर हो गया जिसमें हिमाचल नाहन भी शामिल था.
अब आते हैं इनके राज-काज के तरीके पर. औरतों बच्चों को बेचने के लिए हरिद्वार का घाट सबसे मुफीद जगह थी. जो ज्यादा जोर अजमाइश करते उन्हें बेरहमी से क़त्ल किया जाता रहा .आखिर ब्रिटिश फ़ौज ने 29 मई 1814 में खलंगा किले पर घेराबंदी करने की योजना बनाई.ब्रिटिश फ़ौज के मेजर जनरल गिलेस्पी के नेतृत्व में 3,513 जवानों ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्हें विफलता हासिल हुई जबकि उस समय सेनापति अमर सिंह थापा श्रीनगर उनका पुत्र रणजोर सिंह नाहन का राज-काज देख रहे थे .और खलंगा (नालापानी किला) उनके पोते बलबहादुर सिंह थापा को हस्तगत था, गोरखा सेना ने न सिर्फ अंग्रेजी सेना को भारी नुक्सान पहुंचाया बल्कि स्थानीय जनता में भी खूब मारकाट मचाई. उनके गुप्तचरों का मत था कि स्थानीय लोगों ने ही अंग्रेजो को यहाँ बुलाया है.कहते हैं कि मेजर कैली व मेजर लुडलो ने जब किले में फतह की तो उन्होंने लिखा-"the hole area was a slaughter house strewed with the bodies of dead and wonded, and the dissevered limbs of those who has been torn to pieces by the bursting of the shells."
बेहद भयावह इस काल में गोरखा राज्य ने जो जुल्म किये उनका कई जगह इतिहासकारों और स्थानीय चारणों ने खूब वर्णन किया. असफलता हासिल हिते देख आखिर मेजर जनरल गिलेस्पी द्वारा दिल्ली से और फ़ौज के लिए रिक्वेस्ट की गई. आखिर चार डिविजन जनरल ओछटरलनी द्वारा देहरादून के लिए मार्च की गई जिनमें मिस्टर फेजर थर्ड डिविजन (14 अक्तूबर 1814), लेफ्ट. कर्नल मओवि 53रेजिमेंट के साथ सहारनपुर होते हुए , लेफ्ट. कर्नल यंग तिमली होते हुए और मेजर कैली व लुडलो मोहन्ड होते हुए देहरादून पहुंचे. 1 नवम्बर को पुन: किले परधावा बोला गया लेकिन सेना उसे भेद न पाई. साल के घनघोर जंगलों से आच्छादित इस किले तक पहुँचने के गोपनीय रास्ते यहाँ के ग्रामीणों तक को पता नहीं थे जिसके कारण ऐसी दिक्कतें आई. तीन महीने की घेराबन्धी के बाद आखिर 4 दिसम्बर को बलबहादुर थापा तब किले से रुक्सत हुए जब वहां राशन और पानी नहीं रहा. कुछ औरतों और बच्चों के साथ निकले बलबहादुर यमुना पारकर जौन्ठ गढ़ पहुंचे..अब तक गढ़वाली एकत्र हो गए थे और उन्होंने उन्हें यहाँ से खदेड़ा जबकि दूसरी और कर्नल एक हजार सैनिकों के साथ इनका पीछा करता रहा. बलबहादुर और उनके सिपाही महिलाओं सहित जब जौनसार स्थित बैराठगढ़ पहुंचे तो उन्हें जौंसारियों द्वारा घेराबन्धी कर मार डाला गया. और इस तरह इस दुखद गोरखा राज का अंत हुआ.


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