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जाहिर है , भेजा है तो छापने के लिए भेजा होगा।लेकिन छापने न छापने का अंतिम निर्णय सम्पादक को करना होता है। हैरत है कि हम अब भी आपसी रंजिशों में बेसुध हैं । क्या हर आदमी गोली खाने के बाद ही समझेगा कि फासीवाद आ चुका है। सिचुएशन को एक्सप्लॉयट करने का काम खरे जी भी कर सकते हैं। उन्हें भी कुछ पुरस्कार मिले होंगे। लौटा दें। कब तक यह तर्क दिया जाता रहेगा कि साहित्य अकादमी सरकार की नहीं है , कि सरकार भी सरकार की नहीं है जनता की है , कि पुरस्कार जनता देती है - सरकार या उसका कोई नुमाइंदा नहीं।हद है। यानी कि लेने की छोड़िए , किसी को पुरस्कार लौटाने तक का हक़ नहीं है? अगर वह किसी भी स्थिति का विरोध करना चाहे। अगर अकादमी इतनी ही आज़ाद है तो वह क्लबर्गी पर एक शोकप्रस्ताव तक पास करने से क्यों मना कर रही है , जो खुद अभिषेक जी ने हमें बताया है। मैं उदय प्रकाश के फैसले का स्वागत करता हूँ। |
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