बहुजनों सावधान!भाजपा-कांग्रेस में नहीं है
बुनियादी फर्क
एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
सोलहवीं लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है.पार्टियां प्रार्थी चयन और गठबंधन की तैयारियों में जुट चुकी हैं.राजनीतिक विश्लेषक भी अगली सरकार की सम्भावना तलाशने में जुट गए हैं.अब तक सामने आये तमाम पूर्वानुमान ही भाजपा को अगली सत्ता का प्रमुख दावेदार बता रहे हैं.इससे उत्साहित भाजपा एक बार फिर औरों से अलग पार्टी होने का दावा करते हुए ऐसा आचरण कर रही मानो 16 मई के बाद वही केंद्र की सत्ता की बागडोर सँभालने जा रही है तथा उसके सत्ता में आते ही संप्रग सरकार के कुशासन से देश मुक्त हो जायेगा.निश्चय ही भाजपा ने वर्तमान में जो आक्रामक चुनाव अभियान शुरू किया है,उसका उसे मनोवैज्ञानिक लाभ मिलेगा.उसके नेतृत्व में अगली सरकार के गठन की सम्भावना देखते हुए वैसे निरपेक्ष मतदाता जो सामान्यतया अपना वोट सत्ता में आनेवाली वाली पार्टी को देना पसंद करते हैं,उसके पक्ष में लामबंद हो सकते हैं.बहरहाल ऐसे निरपेक्ष मतदाताओं में जो बहुजन समाज से हैं,को उसके पक्ष में वोट करने का मन बनाने के पहले यह ध्यान में रखना होगा कि भाजपा के सत्ता में आने से स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है.कारण भाजपा और कांग्रस में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है.
जहाँ तक दोनों पार्टियों में फर्क का सवाल है कांग्रेस महात्मा गाँधी ,पंडित नेहरु और इंदिरा गाँधी की विरासत को आगे बढाने वाली पार्टी है जबकि भाजपा हेडगेवार,श्यामा प्रसाद मुखर्जी,दीन दयाल उपाध्याय के आदर्शों की वाहक है.इसलिए एक धर्मनिरपेक्षता की चैम्पियन तो दूसरी साम्प्रदायिकता की खान है.किन्तु इतनी विराट विपरीतता के बावजूद दोनों में इतनी साम्यता है जिसके सामने इनके बाकी सहयोगी बौने नज़र आएंगे.और वह साम्यता यह है कि दोनों ही विशुद्ध सवर्णवादी हैं;सवर्णों का हित ही इनका चरम लक्ष्य है.इस मामले में इनके कुछ करीब पहुचने की कूवत सिर्फ वामपंथी पार्टियां ही रखती हैं ,जो सर्वहारा के हित की आड़ में बड़ी सफाई से सवर्णों का हितपोषण करती रही हैं.इस लिहाज से कांग्रेस चैम्पियन है जिसने आजाद भारत में सुदीर्घतम अवधि तक राष्ट्र हित की आड़ में सवर्ण-हित साधा है.उसकी ही नीतियों के फलस्वरूप आज अल्पजन सवर्णों का शक्ति के सोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है.अब जहाँ तक भाजपा का सवाल है उसने अबतक महज अनाड़ीपना उग्रता के साथ कांग्रेस का अनुसरण किया है.इसीलिए बहुजन नायक कांशीराम कहा करते थे-'मुझे आडवाणी के विषय में अपने लोगों को समझाना नहीं पड़ता .वह तो काला नाग हैं जिन्हें दूर से ही देखकर हमारे लोग सावधान हो जाते हैं.मुश्किल हमें हरे-पीले पत्तों में छिपे सांपों से है ,जिन्हें दूर से पहचानना मुश्किल है.'कांशीराम जिन सांपों से बहुजन समाज को आगाह करना चाहते थे,वह और कोई नहीं कांग्रेसी और वामपंथी हैं जिन्होंने बेहद शातिराना अंदाज़ में सवर्णवाद का गेम प्लान किया.वैसे तो बौद्धोत्तर भारत का समूर्ण इतिहास ही,इस्लामी और ब्रितानी साम्राज्यवाद की उपस्थिति के बावजूद,सवर्ण केन्द्रित राजनीति का गवाह है.पर, चूंकि मौजूदा लेख भाजपा से संदर्भित है और उसका उदय मंडलोत्तर काल में होता है इसलिए मंडल उत्तर काल की राजनीति में कांग्रेस से उसकी साम्यता ढूँढने का प्रयास करूंगा .
हिन्दू आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) द्वारा जिन शुद्रातिशूद्रों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत करके अशक्त बना दिया गया था उनकी सशक्तिकरण की दिशा में मंडल रिपोर्ट का प्रकाशित होना एक युगांतरकारी कदम था.किन्तु हिन्दू-आरक्षण के सौजन्य से विशेषाधिकारयुक्त और सुविधासंपन्न वर्ग में तब्दील सवर्णों को यह बिलकुल ही रास नहीं आया.उन्होंने इसके प्रतिवाद में आत्मदाह व राष्ट्र की सम्पदा दाह का सिलसिला शुरू किया.किन्तु यह भाजपा के लौह पुरुष आडवाणी थे जिन्होंने यह कह कर कि इससे देश बंट रहा है,मंडल के खिलाफ राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वाधीनोत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन करार दिया था.उस आन्दोलन के फलस्वरूप देश हिन्दू-अहिंदू दो वर्गों में बंटा तथा हजारों करोड़ की संपदा और असंख्य लोगों की प्राणहानि के सहारे संघ का राजनीतिक संगठन सत्ता में आया एवं 12 मई,2004 तक उस सत्ता का उपयोग अपने लक्षित वर्ग के हित में किया.किन्तु मंडलोत्तर काल में भाजपा से पहले कांग्रेस के हाथ में सत्ता आई.
बहरहाल मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के थोड़े अंतराल के बाद जो नरसिंह राव केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए वे आधुनिक चाणक्य के रूप में विख्यात रहे.चूंकि आधुनिक चाणक्य कांग्रेसी कल्चर से दीक्षित थे इसलिए उन्होंने मंडल रिपोर्ट का भाजपाइयों की भांति दृष्टिकटु विरोध न करते हुए उसे लागू भी करवा दिया.पर,चूँकि राव आधुनिक चाणक्य थे इसलिए जिस तरह प्राचीन चाणक्य ने रास्ते में पड़े कुश का समूल नष्ट कर विरोधियों को समूल नष्ट करने की एक नई नीति की मिसाल कायम किया था,उसी तरह सवर्णों के सुख की मखमली राह में कुश बनी आरक्षण का समूल नष्ट करने की उन्होंने परिकल्पना की.इस खास मकसद से ही उन्होंने डब्ल्यूटीओ(विश्व व्यापार संगठन)के सौजन्य से मिले भूमंडलीकरण की आर्थिक–नीति रूपी मट्ठे को 24 जुलाई,1991 को वरण कर लिया.फिर तो उन्होंने भारत के वर्तमान पीएम डॉ मनमोहन सिंह को अपना संगी बनाकर निजीकरण,उदारीकरण,भूमंडलीकरण की गाड़ी तीव्र गति से दौड़ाना शुरू किया , जिसे रोकने की आप्राण चेष्टा दत्तो पन्त ठेंगड़ी और अटल-आडवाणी जैसे रथी-महारथी करते रहे ,पर रुकी नहीं.
कांग्रेसी नरसिंह राव के परिदृश्य से गायब होने के एक अन्तराल बाद सत्ता भाजपाई अटल जी के हाथों में आई.राष्ट्रीयता के उच्च उद्घोषक और स्वदेशी के कट्टर हिमायती अटल जी से उम्मीद थी कि वह बिना बिलम्ब किये नरसिंह राव की देश को गुलाम बनाने तथा बहुजनों के आरक्षण का समूल नष्ट करनेवाली नीतियां पलटकर रख देंगे.किन्तु हुआ उल्टा.राव की नीतियों को पलटने के बजाय उन्होंने दूने वेग से अपने सरकार की गाड़ी उनके बनाये ट्रैक पर दौड़ाया.इस क्रम में अटल जी को अपने लक्ष्य में सफलता मिली.भारत का अल्पजन प्रगति की दौड़ में और आगे निकल गया तो बहुजन और पीछे रह गए.अपनी सफलता से संतुष्ट अटल जी ने इसे 'शाइनिंग इंडिया'का नाम दिया जिसे बहुजन समाज के मतदाताओं ने ख़ारिज का दिया.
भाजपा के जाने के बाद कांग्रेस फिर सत्ता में आई.जिस तरह 2004 के चुनाव में कांग्रेस की सुपर कंट्रोलर सोनिया गांधी ने अटल की देश व बहुजन विरोधी नीतियों को कटघरे में खड़ा किया था उससे उम्मीद थी कि कांग्रेसी डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व काम करने वाली संप्रग सरकार भाजपा की नीतियों को पलट कर देगी.किन्तु जिस तरह अटल जी ने नरसिंह राव को बौना बनाया था कुछ हद तक उसी का एक्शन रिप्ले मनमोहन सिंह ने किया.उन्होंने अटल जी को मात देते हुए 'शाइनिंग इंडिया' (चमकते भारत) को 'इनक्रेडेबल इंडिया'(अतुल्य भारत) में परिणत कर दिया.इस अतुल्य भारत में लखपतियों,करोड़पतियों और अरबपतियों की तादाद ए बेतहाशा बढ़ोतरी हुई ,पर 84 करोड़ लोग 12-20 रूपये--रोजाना पर जीवन निर्वाह करने के लिए विवश रहे.यह बेबस अवाम और कोई नहीं भारत का बहुजन समाज है.
बहरहाल उपरोक्त उद्धरण क्या यह साबित नहीं करते कि भिन्न-भिन्न राजनीतिक संस्कृति में पले कांग्रेस और भाजपा में भारी वैचारिक विरोध के बावजूद सवर्ण-हित में नीतिगत भारी साम्यता है.इस साम्यता की पुष्टि इनके नेता नहीं करते.वे तो एक दूसरे के खिलाफ तीखा प्रहार करते रहते हैं.पर कई ऐसे मौके आये हैं जब दिल की बात फिसल कर उनके जुबान पर आ ही गयी.ऐसा ही एक मौका 2009 में भारतीय वाणिज्य व उद्योग परिसंघ की 80 वीं आम बैठक में आया था जब आडवाणी जी की जुबान फिसल गयी.उस दिन मनमोहन को हिस्ट्री का दुर्बलतम प्रधानमंत्री बताते रहनेवाले आडवाणी जी कहा था-'वे ऐसे साहसी व्यक्ति हैं जिन्होंने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को ही पलट कर रख दिया.भाजपा ने सदा ही निजी उद्योगों का समर्थन किया है.जब पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की पुरानी नीतियों को बदलने का साहस दिखाया तो हमने उनका समर्थन किया.यह तुलना नहीं की जानी चाहिए कि इन दोनों में से किसे इसका श्रेय दिया जाय.वे श्रेय के हकदार हैं,इसलिए हम भी स्वीकार करते हैं.जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो छः साल तक उन्होंने स्थिर व सफल सरकार चलाई.हमने आर्थिक सुधारों को तेज़ और व्यापक बनाने का प्रयास किया.पिछले दो दशकों से देश की अर्थ व्यवस्था उसी दिशा में चल रही है.'
भाजपा के अतिविशिष्ट नेता आडवाणी की उपरोक्त स्वीकारोक्ति के बाद भी अगर किसी को कांग्रेस और भाजपा में साम्यता पर सन्देश है तो उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि पीएम मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में संघ के एक शीर्ष पदाधिकारी ने कहा था,'राष्टहित में कांग्रेस और भाजपा को मिलजुलकर काम करना चाहिए.'संभवतः इन दोनों दलों की बुनियादी साम्यता को ही दृष्टिगत रखकर भाजपा के पूर्व रणनीतिकार सुधीन्द्र कुलकर्णी को लोकसभा चुनाव -2009 के अंतिम चरण के मतदान के पूर्व यह कहने में झिझक नहीं हुई-'भाजपा के लिए कांग्रेस अछूत नहीं है.अगर राष्ट्रहित में यह जरुरी हो जाय कि भाजपा और कांग्रेस साथ काम करें तो हम कांग्रेस के साथ जरुर काम करेंगे.'हालांकि कुलकर्णी जी दो दिन बाद ही अपने बयान से पलट गए थे.बावजूद इसके इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस और भाजपा में व्याप्त परस्पर साम्यता का ही प्रतिबिम्बन उनके बयान में हुआ था.
बहरहाल मित्रों!आज की तारीख में जबकि कांग्रेस की हालत डूबता जहाज जैसी हो गयी है ऐसे में अन्य ठोस विकल्प के अभाव में भाजपा के ही सत्ता में आने की उम्मीद की जा सकती है.लेकिन भाजपाइयों को दावे के बावजूद कहीं से भी राष्ट्र व् बहुजन हित में बेहतर होने के आसार नहीं दिख रहे हैं.ऐसे में एक ही उपाय बाख रहा है,वह यह कि भाजपा को उस आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे के ठोस मुद्दे पर लाने का प्रयास किया जाय,जो अबतक नहीं हुआ.
दिनांक:22 मार्च,2014.
जहाँ तक दोनों पार्टियों में फर्क का सवाल है कांग्रेस महात्मा गाँधी ,पंडित नेहरु और इंदिरा गाँधी की विरासत को आगे बढाने वाली पार्टी है जबकि भाजपा हेडगेवार,श्यामा प्रसाद मुखर्जी,दीन दयाल उपाध्याय के आदर्शों की वाहक है.इसलिए एक धर्मनिरपेक्षता की चैम्पियन तो दूसरी साम्प्रदायिकता की खान है.किन्तु इतनी विराट विपरीतता के बावजूद दोनों में इतनी साम्यता है जिसके सामने इनके बाकी सहयोगी बौने नज़र आएंगे.और वह साम्यता यह है कि दोनों ही विशुद्ध सवर्णवादी हैं;सवर्णों का हित ही इनका चरम लक्ष्य है.इस मामले में इनके कुछ करीब पहुचने की कूवत सिर्फ वामपंथी पार्टियां ही रखती हैं ,जो सर्वहारा के हित की आड़ में बड़ी सफाई से सवर्णों का हितपोषण करती रही हैं.इस लिहाज से कांग्रेस चैम्पियन है जिसने आजाद भारत में सुदीर्घतम अवधि तक राष्ट्र हित की आड़ में सवर्ण-हित साधा है.उसकी ही नीतियों के फलस्वरूप आज अल्पजन सवर्णों का शक्ति के सोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है.अब जहाँ तक भाजपा का सवाल है उसने अबतक महज अनाड़ीपना उग्रता के साथ कांग्रेस का अनुसरण किया है.इसीलिए बहुजन नायक कांशीराम कहा करते थे-'मुझे आडवाणी के विषय में अपने लोगों को समझाना नहीं पड़ता .वह तो काला नाग हैं जिन्हें दूर से ही देखकर हमारे लोग सावधान हो जाते हैं.मुश्किल हमें हरे-पीले पत्तों में छिपे सांपों से है ,जिन्हें दूर से पहचानना मुश्किल है.'कांशीराम जिन सांपों से बहुजन समाज को आगाह करना चाहते थे,वह और कोई नहीं कांग्रेसी और वामपंथी हैं जिन्होंने बेहद शातिराना अंदाज़ में सवर्णवाद का गेम प्लान किया.वैसे तो बौद्धोत्तर भारत का समूर्ण इतिहास ही,इस्लामी और ब्रितानी साम्राज्यवाद की उपस्थिति के बावजूद,सवर्ण केन्द्रित राजनीति का गवाह है.पर, चूंकि मौजूदा लेख भाजपा से संदर्भित है और उसका उदय मंडलोत्तर काल में होता है इसलिए मंडल उत्तर काल की राजनीति में कांग्रेस से उसकी साम्यता ढूँढने का प्रयास करूंगा .
हिन्दू आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) द्वारा जिन शुद्रातिशूद्रों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत करके अशक्त बना दिया गया था उनकी सशक्तिकरण की दिशा में मंडल रिपोर्ट का प्रकाशित होना एक युगांतरकारी कदम था.किन्तु हिन्दू-आरक्षण के सौजन्य से विशेषाधिकारयुक्त और सुविधासंपन्न वर्ग में तब्दील सवर्णों को यह बिलकुल ही रास नहीं आया.उन्होंने इसके प्रतिवाद में आत्मदाह व राष्ट्र की सम्पदा दाह का सिलसिला शुरू किया.किन्तु यह भाजपा के लौह पुरुष आडवाणी थे जिन्होंने यह कह कर कि इससे देश बंट रहा है,मंडल के खिलाफ राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वाधीनोत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन करार दिया था.उस आन्दोलन के फलस्वरूप देश हिन्दू-अहिंदू दो वर्गों में बंटा तथा हजारों करोड़ की संपदा और असंख्य लोगों की प्राणहानि के सहारे संघ का राजनीतिक संगठन सत्ता में आया एवं 12 मई,2004 तक उस सत्ता का उपयोग अपने लक्षित वर्ग के हित में किया.किन्तु मंडलोत्तर काल में भाजपा से पहले कांग्रेस के हाथ में सत्ता आई.
बहरहाल मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के थोड़े अंतराल के बाद जो नरसिंह राव केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए वे आधुनिक चाणक्य के रूप में विख्यात रहे.चूंकि आधुनिक चाणक्य कांग्रेसी कल्चर से दीक्षित थे इसलिए उन्होंने मंडल रिपोर्ट का भाजपाइयों की भांति दृष्टिकटु विरोध न करते हुए उसे लागू भी करवा दिया.पर,चूँकि राव आधुनिक चाणक्य थे इसलिए जिस तरह प्राचीन चाणक्य ने रास्ते में पड़े कुश का समूल नष्ट कर विरोधियों को समूल नष्ट करने की एक नई नीति की मिसाल कायम किया था,उसी तरह सवर्णों के सुख की मखमली राह में कुश बनी आरक्षण का समूल नष्ट करने की उन्होंने परिकल्पना की.इस खास मकसद से ही उन्होंने डब्ल्यूटीओ(विश्व व्यापार संगठन)के सौजन्य से मिले भूमंडलीकरण की आर्थिक–नीति रूपी मट्ठे को 24 जुलाई,1991 को वरण कर लिया.फिर तो उन्होंने भारत के वर्तमान पीएम डॉ मनमोहन सिंह को अपना संगी बनाकर निजीकरण,उदारीकरण,भूमंडलीकरण की गाड़ी तीव्र गति से दौड़ाना शुरू किया , जिसे रोकने की आप्राण चेष्टा दत्तो पन्त ठेंगड़ी और अटल-आडवाणी जैसे रथी-महारथी करते रहे ,पर रुकी नहीं.
कांग्रेसी नरसिंह राव के परिदृश्य से गायब होने के एक अन्तराल बाद सत्ता भाजपाई अटल जी के हाथों में आई.राष्ट्रीयता के उच्च उद्घोषक और स्वदेशी के कट्टर हिमायती अटल जी से उम्मीद थी कि वह बिना बिलम्ब किये नरसिंह राव की देश को गुलाम बनाने तथा बहुजनों के आरक्षण का समूल नष्ट करनेवाली नीतियां पलटकर रख देंगे.किन्तु हुआ उल्टा.राव की नीतियों को पलटने के बजाय उन्होंने दूने वेग से अपने सरकार की गाड़ी उनके बनाये ट्रैक पर दौड़ाया.इस क्रम में अटल जी को अपने लक्ष्य में सफलता मिली.भारत का अल्पजन प्रगति की दौड़ में और आगे निकल गया तो बहुजन और पीछे रह गए.अपनी सफलता से संतुष्ट अटल जी ने इसे 'शाइनिंग इंडिया'का नाम दिया जिसे बहुजन समाज के मतदाताओं ने ख़ारिज का दिया.
भाजपा के जाने के बाद कांग्रेस फिर सत्ता में आई.जिस तरह 2004 के चुनाव में कांग्रेस की सुपर कंट्रोलर सोनिया गांधी ने अटल की देश व बहुजन विरोधी नीतियों को कटघरे में खड़ा किया था उससे उम्मीद थी कि कांग्रेसी डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व काम करने वाली संप्रग सरकार भाजपा की नीतियों को पलट कर देगी.किन्तु जिस तरह अटल जी ने नरसिंह राव को बौना बनाया था कुछ हद तक उसी का एक्शन रिप्ले मनमोहन सिंह ने किया.उन्होंने अटल जी को मात देते हुए 'शाइनिंग इंडिया' (चमकते भारत) को 'इनक्रेडेबल इंडिया'(अतुल्य भारत) में परिणत कर दिया.इस अतुल्य भारत में लखपतियों,करोड़पतियों और अरबपतियों की तादाद ए बेतहाशा बढ़ोतरी हुई ,पर 84 करोड़ लोग 12-20 रूपये--रोजाना पर जीवन निर्वाह करने के लिए विवश रहे.यह बेबस अवाम और कोई नहीं भारत का बहुजन समाज है.
बहरहाल उपरोक्त उद्धरण क्या यह साबित नहीं करते कि भिन्न-भिन्न राजनीतिक संस्कृति में पले कांग्रेस और भाजपा में भारी वैचारिक विरोध के बावजूद सवर्ण-हित में नीतिगत भारी साम्यता है.इस साम्यता की पुष्टि इनके नेता नहीं करते.वे तो एक दूसरे के खिलाफ तीखा प्रहार करते रहते हैं.पर कई ऐसे मौके आये हैं जब दिल की बात फिसल कर उनके जुबान पर आ ही गयी.ऐसा ही एक मौका 2009 में भारतीय वाणिज्य व उद्योग परिसंघ की 80 वीं आम बैठक में आया था जब आडवाणी जी की जुबान फिसल गयी.उस दिन मनमोहन को हिस्ट्री का दुर्बलतम प्रधानमंत्री बताते रहनेवाले आडवाणी जी कहा था-'वे ऐसे साहसी व्यक्ति हैं जिन्होंने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को ही पलट कर रख दिया.भाजपा ने सदा ही निजी उद्योगों का समर्थन किया है.जब पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की पुरानी नीतियों को बदलने का साहस दिखाया तो हमने उनका समर्थन किया.यह तुलना नहीं की जानी चाहिए कि इन दोनों में से किसे इसका श्रेय दिया जाय.वे श्रेय के हकदार हैं,इसलिए हम भी स्वीकार करते हैं.जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो छः साल तक उन्होंने स्थिर व सफल सरकार चलाई.हमने आर्थिक सुधारों को तेज़ और व्यापक बनाने का प्रयास किया.पिछले दो दशकों से देश की अर्थ व्यवस्था उसी दिशा में चल रही है.'
भाजपा के अतिविशिष्ट नेता आडवाणी की उपरोक्त स्वीकारोक्ति के बाद भी अगर किसी को कांग्रेस और भाजपा में साम्यता पर सन्देश है तो उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि पीएम मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में संघ के एक शीर्ष पदाधिकारी ने कहा था,'राष्टहित में कांग्रेस और भाजपा को मिलजुलकर काम करना चाहिए.'संभवतः इन दोनों दलों की बुनियादी साम्यता को ही दृष्टिगत रखकर भाजपा के पूर्व रणनीतिकार सुधीन्द्र कुलकर्णी को लोकसभा चुनाव -2009 के अंतिम चरण के मतदान के पूर्व यह कहने में झिझक नहीं हुई-'भाजपा के लिए कांग्रेस अछूत नहीं है.अगर राष्ट्रहित में यह जरुरी हो जाय कि भाजपा और कांग्रेस साथ काम करें तो हम कांग्रेस के साथ जरुर काम करेंगे.'हालांकि कुलकर्णी जी दो दिन बाद ही अपने बयान से पलट गए थे.बावजूद इसके इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस और भाजपा में व्याप्त परस्पर साम्यता का ही प्रतिबिम्बन उनके बयान में हुआ था.
बहरहाल मित्रों!आज की तारीख में जबकि कांग्रेस की हालत डूबता जहाज जैसी हो गयी है ऐसे में अन्य ठोस विकल्प के अभाव में भाजपा के ही सत्ता में आने की उम्मीद की जा सकती है.लेकिन भाजपाइयों को दावे के बावजूद कहीं से भी राष्ट्र व् बहुजन हित में बेहतर होने के आसार नहीं दिख रहे हैं.ऐसे में एक ही उपाय बाख रहा है,वह यह कि भाजपा को उस आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे के ठोस मुद्दे पर लाने का प्रयास किया जाय,जो अबतक नहीं हुआ.
दिनांक:22 मार्च,2014.