उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह
पलाश विश्वास
उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह।
पंतजलि के विज्ञापनी बहारमध्ये योग गुरु बाबा रामदेव प्रकट होकर अभयदान दे रहे हैं टीवी न्यूज में,इलेक्शन से पहले जनता ने सिलेक्शन कर लिया है।बाबा सच कह रहे होंगे।लेकिन योगगुरु के अनेक रंग बिरंगे अवतार मीडिया में सोशल मीडिया में फर्जी मोदी सुनामी रचने के खेल में रमे हुए हैं।बंगाल में वाम शासन के दरम्यान हर चुनाव से पहले परिवर्तन सुनामी का हश्र हमने देखा है।लेकिन जब परिवर्तन आया दरअसल,तब मीडिया ने उसे तुल नहीं दिया।फिर परिवर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार बनने के बाद लाल रंग को मिचा देने पर आमादा मीडिया ने तो नंदीग्राम सिंगुर भूमि आंदोलन के दौरान सरकारी भोंपू की भूमिका निभाते हुए वामदलों को ात्मघत के लिे मजबूर कर दिया।अमर्त्यसेन की अगुवाई में तमाम अर्थसास्त्री और बांग्ला सांस्कृतिक बाजारु आइकन सिविल सोसाइटा का पालाबदल भी तदनुसार हुआ और सितारों का जमावड़ा भी।मायावती,अखिलेश,जयललिता के असंख्यउदाहरण तो हैं ही,जिन्हें चुनावी बहसों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ा जब उन्होंने सत्ता शिखर को स्पर्श किया।और तो और पिछले लोकसभा चुनाव में भी हालात कांग्रेस के एकदम खिलाफ थे और मजा देखिये कछपुतली प्रधानमंत्री ने नेहरु गांधी वंश की वैशाखी के सहारे पूरे दस साल भारत पर राज कर लिया।
ध्या देने योग्य बाते हैं कि शेयर सूचकांक सांढ़ों के जबर्दस्त हमवले से छलांगा मारकर ऊपर चढ़ तो रहा है,विदेशी निवेशकों की आस्था तो अटूट है,पर रुपये की गिरावट थमी नहीं है।मुनाफा वसूली के खेल में अक्सर ही बाजार डांवाडोल है।वैश्विक इशारों का हवाला देकर दलाली का धंधा जोरों पर है।लेकिन अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। अमेरिकी हित दांव पर हैं।ऱूस में भी पुनरूत्थान होने लगा है और एक ध्रूवीय कारपोरेट विश्व व्यवस्था मध्यपूर्व के तेल संसाधनों को फतह करने के बाद समूचे एशिया पर विजयध्वज फहराने के लिए मोदी वंदना में लगी है।ध्यान से सुने जो रामधुन है,उसमें संघी स्वर कम है,यांकी सुर ज्यादा मुखर है और जायनी तड़का तो लाजवाब है। फास्टफूड जंक है,दुनिया जानती है,जहरीला यह रसायन जायके में बुसंद है जरुर,लेकिन जुलाब बनकर कहर कब बरपायेगा ठिकाना नहीं है।
बाजार के दिग्गज बढ़ चढ़कर सांढ़भाषा बोल रहे हैं कि सेनसेक्स में लंबी छलांग कि आस लगाइये।लगाइये बाजी और हो जाइये मालामाल क्योंकि मोदी तो आ ही गये हैं।दीपक पारेख जैसे बैंकिंग सुपर आइकन ऐलान कर रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सुधारों के ज्वार से अर्थव्यवस्था बम बम होगी।
हर हर महादेव अब हर हर मोदी है।हिंदुत्व तो गया तेल लेने।महादेव किनारे कर दिया गये, मटिया दिये गये तो अटल आडवाणी जोशी जसवंत हरिन की औकात क्या।भागवत जी भागवत पुराण की तरह मोदी पुराण रचने लगे हैं। चित्रकथा में नये ईश्वर अवतरित है और प्राचीन देवदेवी मंडल खारिज है।देव देवी भी अब विज्ञापनी माडल है।
2007 में हमने अपने ब्लाग में लिखा था जो आज उसका चरमोत्कर्ष है।
Monday, September 24, 2007 11:44 PM
Create Icons to Escalate Killingfields!Space is the Next Battlefield.Man made Calamities Play Havoc and Consumer Carnival Continues
http://breakingnewsstream.blogspot.in/2014/03/create-icons-to-escalate.html
विज्ञापनी सितारे सीधे अब आपके संसदीय प्रतिनिधि होंगे।इस चुनाव का कुल जमा नतीजा यह है।पार्टीबद्ध सितारों के जलवे को देखते रहिए,चकाचौंध होते रहिये,गला रेंते जाते वक्त जोर का झटका धीरे से लगेगा।
मंडल बनाम कमंडल महायुद्ध कुरुक्षेत्र का अंतिम विलाप है।इस शोकगाथा में आत्मद्वंसी महाविनाश के बाद विधवाओं और संतानहारी माताओं की यंत्रणा के अथाह सागर के सिवाय कुछ हात नहीं लगेगा।महारथी के रथ के पहिये जमीन में धंस गये हैं।महाभारत और रामायण नये सिरे से रचे जा रहे हैं।
प्रक्षेपण प्रक्षेपित समय का सबसे बड़ा सच है।
इसके विपरीत,चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा की अनिवार्य जनादेश भविष्यवाणी के विपरीत,रोज रोज के चूहादौड़ के परिदृश्य में आज रविवारी इकानामिक टाइम्स में शाफ साफ लिक दिया गया है कि भाजपा को बमुश्किल दो सौ सीटें मिल सकती हैं।बाकी बहत्तर कारपोरेट इंडिया के सरदर्द का सबब है।वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे।पूरे देश में गुजरात माडल के विकास की परिकल्पना को साकार करने में कितना सहयोग करेंगे और कितना अड़ंगा डालेंगे,उनकी चिंता यही है।
जिस तरह से संघी और भाजपाई मौलिक पात्रों को दरकिनार करके चित्र विचित्र किस्म के गैरसंघी सांसद भाजपाई टिकट पर चुनकर आयेंगे,हालांकि व्हिप भरोसे उनकी ईमानदारी पर कोई चिंता नहीं जतायी गयी है।
मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर अभी द महीने का वक्त बाकी है,अंतिम फैसला आने को।ख्याली पुलाव और गाजर के हलवा का सही वक्त है यह।दिल्ली में तो फलों के साथ साथ सब्जियों का रस भी खूब मिलता है।धूप बस आगे बहुत कड़ी होनी है।लू भी होगी भयानक।एसी गाड़ी से घना घना चड़ने उतरने वाले अपनी अपनी सेहत का ख्यल करें।मौसम की मार किसपर कितनी भारी होगी,ऐसी कुंडला बांचने वाला विशेषज्ञों का बाजार भी शायद गर्म हो जाये। हमारे क्रांति दर्शी मित्रों का इस क्षेत्र में भयानक भविष्य है।
कल देर रात हमें अपने भावुक मित्र एचएल दुसाध का फेसबुकिया लेख पढ़कर खूब संतोष हुआ।वे अबतक भाजपा के एजंडा में डायवर्सिटी पंच करने की लड़ाई घनघोर लड़ रहे थे।अब उन्होंने लिखा है कि पारो हो या चंद्रमुखी,कोई फर्क नहीं है यारो।उन्होंने बहुजनों को चेतावनी दी है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है।वैसे वे अकेले बहुजन होंगे शायद,जो ऐसा लिख पा रहे हैं।
अब वामपंथी हाशिये का एक गजब नतीजा निकल रहा है। देश भर में पढ़े लिखे मुसलमान और ध्रमस्थलों से राजनीति करने वाले मुसलमान भी भयमुक्त हने के लिहाज से केसरिया बन रहे हैं।दरअसल भय की इतनी बेनजीर अभिव्यक्ति आजाद भारत में कभी देखी नहीं गयी है।धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील मोर्चे का नाकाम होने का यह ज्वलंत प्रमाण है।अस्पृश्यता मुक्त होने की कोशिश में अस्पृश्यता के सबसे बड़े कारोबारी शायद मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए राजा युधिष्ठिर की तरह सियासी शतरंज की बाजी पर अपनी द्रोपदी को दांव पर लगा बैठे हैं।अब इस द्रोपदी का कृष्ण कौन होगा,ओबामा,नितानहु,अंबानी या कोई और,इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा।
लेकिन मित्रों,जो तय हो गया है,वह यह है कि खिचड़ी भाजपा ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व के एजंडे को अमली जामा पहनाने के लिए हिंदुत्व के एजंडे को बनारसी के घाट पर गंगा आरती के साथ गंगा में ही विसर्जित कर दिया है। जैसे सत्ता की चाबी खोजने के चक्कर में अंबेडकर अनुयायियों ने अंबेडकर को ही मूर्ति बना दिया,उसी तरह मोदी ही गोवलकर हैंं।मोदी ही हेगड़ेवार।मोदी ही शंकराचार्य और मोदी ही बाबा रामदेव।बीच के सारे लग मध्यवर्ती हो गये।उन्हें क्या कहा जाये,लिख दें तो मानहीनि हो जायेगी।आप ही समझ लें।
वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है।
वामपंथ के अवसान पर जो बल्लियों पर लुंगी डांस कर रहे थे,वे तय करें कि अब मोदी की जीत का जश्न वे कैसे मनायेंगे।
हमें तो राहत है कि अगर मोदी के प्रधानमंत्रित्व से इस देश को कमंडल से निष्कृति मिल जाये,तो अच्छा ही है।
लेकिन मामला इतना आसान नहीं है।
हिंदू राष्ट्र भले ही अब नहीं बने लोकिन जो कारपोरेट अधर्म राज जनसंहारी बनने को तय है, उसका हश्र हिंदू राष्ट्र से भी भयानक होगा।
जाहिर है कि उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह।
जाहिर है कि उठो,जमींदोज आम लोगों कब्रिस्तान और स्मशान में मृत आत्माों का आवाहन करो।
जाहिर है कि उठो,मूक भारत के जनगण,इस खतरे का मुकाबलो करने के लिए गोलबंद हो जाओ तहस नहस हो जाने से पहले।
हो सकता है कि यह आखिरी कुरुक्षेत्र हो और आखिरी महाभारत भी।
शतरंज के खिलाड़ी में सत्यजीत राय ने टाम आल्टर का बखूब इस्तेमाल किया है।हिंदी फिल्मों के दर्शक इन टाम आल्टर से खूब परिचित है।लेकिन निर्देशक के तयदायरे से बाहर उनकी विशुद्ध हिंदुस्तानी जुबान में बुनियादी मसलो को संबोधित करने वाले एक मातर टीवीशो का फैन हो गया हूं।
चांदनी चौक पर चुनावी चाय की चुस्की लेते हुए उन्हे देखकर कायल हो गा था।आज दोपहर जेएनयू में युवा छात्रों से बतियाते उनके तेवर से घायल बी हो गया हूं।
मुझे खुशी है कि विचारधाराों के नाम इतनी धोखाधड़ी के बाद जेएनयू के छात्र जिन्हें विजारधारा जुगाली के दर्मान रोटी की शक्ल के बारे में आकार प्रकार समेत सिलसिलेवार बताना पड़ता था,चुनावी चाय की चुस्की लेते हुए टामभाी से रोटी रोजी के सवाल से ही जूझते रहे।उनका लघभग कोरस में कहना था कि रोटी का सवाल बुनियादी है।रजगार के सवाल बुनियादी है।बेसिक जरुरतों के तमाम सवाल बुनियादी है। वे संबोधित होने ही चाहिए।वे संबोधित हों तो विचारधारा अपने आप साकार होने लगेगी।
वामपंऎतियों के पंरपरागत गढ़ में वे कह रहे थे जो सवाल वामपंथ को करने थे वे अरविंद केजरीवाल पूछ रहे हैं।
इसके साथ ही वे कह रहे थे कि भारतीय जन गण के गुस्से को एकदम कारपोरेट तरीके से मैनेज किया है अरविंद केजरीवाल ने।
वे बीस साल के सुदारों पर चर्चा कर रहे थे।चिंता जता रहे थे मुद्दों के हाशिये पर जाने का।
लेकिन वे विचारधारा की अनिवार्यता की जुगाली करने से अब बाज आ रहे हैं और चाहते हैं कि मुद्दे फोकस हो और बात रोटी से शुरु हो।
क्या हमारे विद्वत जन इल लड़के लड़कियों की आवाज सुन रहे हैं?
उठो,जमीन से निकलने का वक्त है यह!
साथी सत्यनारायण जी ने इस पोस्टर के साथ लिखा है
हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि 'देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!'
हम सहमत तो हैं साथी सत्यनारायण जी,हम इलाहाबाद में जारी शहीदेआजम की विचारधारा पर पर्चा भी इस आलेक के अंत में दे रहे हैं,लेकिन इंक्लाब के लिए अस्मिताओं में खंडित विखंडित भारतीयबहुसंख्य जनगण को गोलबंद करने की रमनीति भी आपकी ओर से चाहते हैं।
कवि नीलाभ अरसे बाद हमारे टाइम लाइन में दाखिल हुए और लिखा गौरतलब। आज धूमिल की पंक्तियों से बात शुरु करने के बाद उनका लिखा शेयर कर रहा हूं कि जिस लोकगणराज्य की बात हम कर रहे हैं वहां गणतंत्र की मृत्युशय्या का जश्न हम लोग कैसे मनाने लगे हैं।
आज सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो बेसाख़्ता ग़ालिब का एक मिसरा याद हो आया --
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो
सुर्ख़ियों में सबसे बड़ी ख़बर यह थी कि नेता लोग धड़ा-धड़ भा.ज.पा. में शामिल हो रहे हैं. यानी मोदी की बहार हो-न हो दल-बदलुओं की बहार है. भा.ज.पा. सोचती है कि इस तरह वह जनता के सामने अपनी मक़बूलियत साबित कर सकेगी. नेता सोचते हैं कि इस तरह वे अपनी गोटी लाल कर लेंगे. यानी जनता को दोनों ही मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि इस तरह उनकी चालबाज़ी रंग ले आयेगी.
ऐसे में दो ख़याल आये. पहला ख़याल अपने एम.ए. के सहपाठी और पुराने कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी का आया. जनार्दन बरसों पहले 1968-69 में कांग्रेस में शामिल हुआ था और चाहे कांग्रेस जिस भी हाल में रही, उसने कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा. कांग्रेस और जनार्दन से मतभेदों की बावजूद मैं जनार्दन की इस निष्ठा का एहतराम करता हूं. वह "इश्क़े-बुतां" में उम्र काटने के बाद "आख़िरी वक़्त मुसलमां होने" में यक़ीन नहीं रखता. जनार्दन जैसे लोग कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दलों में भी होंगे और हमें उनका भी अभिनन्दन करना चाहिये.
दूसरा ख़याल यह आया कि हो-न हो अरविन्द केजरीवाल ही की बात सही होती जान पड़ती है कि जो भी तब्दीली इन चुनावों के सबब से हो, वह साल-दो साल से ज़्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगी. और ऐन मुमकिन है कि फिर चुनाव हों.
तब क्या इन दल-बदलुओं की गति उस चमगादड़ जैसी नहीं होगी जो पंचतन्त्र की कथा में पक्षियों और पशुओं की लड़ाई में कभी अपने पंख दिखा कर पक्षियों में शामिल होता था और कभी स्तनपायी होने के नाते पशुओं की तरफ़. और बिल-आख़िर न पक्षियों में जगह पा सका, न पशुओं में. उसकी नियति में उलटा लटकना ही लिखा था.
क्या हमारी जनता इन दल-बदलुओं का हश्र वैसा ही नहीं करेगी ?
पत्रकार, कलाकार, रंगदार, सिपहसालार, सरमायेदार, इजारेदार, सलाहकार, वफादार, गद्दार, नम्बरदार,
हो गए सब सेवादार, करके जय-जयकार...
क्या महंगाई-दंगाई दोनों की सरकार इस बार?
बाबू नफा-नुकसान की यह सियासत है बड़ी मजेदार @ चाय की गुमटी पर बड़े मियां कहत रहीं. (साथी असलम के वाल से)
मोहन क्षोत्रिय जी के इशारे पर गौर करें कि कैसे अंध राष्ट्रवादी सुनामी रचने का बिंब संयोजन गढ़ा जा रही है किंवदंतियों के कारखानों में।
#किंवदंतियांबन रही हैं, प्रसारित की जा रही हैं...
...कि बड़ा मगरमच्छ बचपन में छोटे मगरमच्छों के साथ खेला करता था.
खेलता रहा होगा, भाई ! अपन किस आधार पर खंडन करें? कर ही नहीं सकते ! ठीक है न?
हिमांशु जी ने सिलसिलेवार ब्यौरा देकर साबित किया है कि अफसाने की हकीकत लेकिन कुछ और है
गुजरात में दुग्ध क्रन्ति १९७३ में वी जे कुरियन की अगुवाई में शुरू हुई . तब तक भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था .
गुजराती व्यापारी कई सौ सालों से देश विदेश में व्यापार करते हैं . मैंने गुजरात के आदिवासी इलाकों में सन १९ ८० से जाना शुरू कर दिया था .
मैंने गुजरात के आदिवासियों के बीच १९८९ से १९९१ के बीच सघन काम किया है .
गुजराती किसान उस समय भी देश के अन्य किसानों के मुकाबले उन्नत ही थे .
तब गुजरात के गांधीवादी कार्यकर्ता झीना भाई दर्जी के साथ मुझे काम करने का मौका मिला था .
झीना भाई, नारायण देसाई, चुन्नी भाई वैद्य और हजारों गांधीवादी और सर्वोदय कार्यकर्ता गाँव गाँव में सहकारिता शराबबंदी और खादी व ग्रामोद्योग का काम करते रहे हैं .
तब मोदी नाम के किसी व्यक्ति को कोई नहीं जानता था .
मोदी का नाम गुजरात में मुसलमानों के बड़े जनसंहार के बाद मशहूर हुआ .
अपने ऊपर लगे खून के दाग धोने के लिये मोदी ने पहले से ही विकसित गुजराती किसानों और गुजराती विकास को अपनी कारगुजारी बताना शुरू कर दिया .
यह एक चालाक हरकत है .
मैंने गुजरात में साइकिल से दौरा किया था .
गुजरात में वन वन अधिकार क़ानून के बाद आदिवासियों को उन ज़मीनों के पट्टे मिलने चाहिये थे जिन पर वह पहले से खेती कर रहे थे .
लेकिन मोदी सरकार ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों के आवेदनों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया .
इतना ही नहीं उल्टा मोदी ने गुंडा गर्दी कर के आदिवासी किसानों की ज़मीनों को छीनना भी शुरू कर दिया . किसानो की पिटाई करवानी शुरू कर दी गई .
मैंने अपनी साईकिल यात्रा के दौरान इन किसानो से मिलकर उनकी आपबीती प्रकाशित भी करी थी .
अपनी यात्रा में मेरी मुलाकात सभी तरह के लोगों से हुई कई अधिकारियों ने अपना नाम ना बताने की बात कह कर बताया कि मोदी ने दो लाख एकड़ ज़मीने बड़े कारखानेदारों को दे दी हैं .
ई टीवी को एक लाख दो हजार एकड़ जमीन दी है .
सानंद विश्वविद्यालय को बंद कर के विश्वविद्यलय की ज़मीन टाटा को नैनो कार बनाने के लिये दे दी गई है .
बडौदा अहमदाबाद हाई वे के दोनों तरफ छह किलोमीटर की ज़मीने मोदी ने उद्योगों के लिये रिजर्व कर दी हैं .
गुजरात आज कल उद्योगपतियों का स्वर्ग बना हुआ है .
उन्हें सारे टैक्सों में छूट है . वे जैसा चाहे प्रदूषण फैला सकते हैं . जितना चाहे नदियों को गन्दा कर सकते हैं . जितना चाहे हवा में प्रदूषण फैला सकते हैं .
उनके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं के घर पर पुलिस पहुँच जाती है . मेरी मुलाकात ऐसे कई कार्यकर्ताओं से हुई .
गुजरात में मज़दूर अपनी बुरी हालत के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते .
तो अगर आप पैसे वाले हैं तो गुजरात में आइये . मुफ्त की ज़मीन लीजिए .टैक्स मत दीजिए . प्रदुषण फैलाइए . मजदूरों को सताइए . मोदी का गुणगान कर दीजिए और उन्हें खुश कर दीजिए .
अब ये मोदी माडल भाजपा देश में बेचने निकली है .
अगर इस देश के युवा को यही माडल चाहिये जिसमे सारी ज़मीने उद्योगपतियों की हो जाएँ .
जहां सरकार को कल्याणकारी कार्यक्रम के लिये कोई टैक्स भी ना मिले .
जहां ये उद्योगपति हमारी हवा और पानी को गन्दा कर दें .
करोड़ों किसान बेज़मीन होकर शहरों के बाहर गंदी बस्तियों में कीड़े मकोडों की तरह रहने और बेरोजगारी, भूख और बीमारी से मरने को मजबूर हो जायें .
कुछ लोगों के मज़े के लिये पूरे देश को मरने के लिये मजबूर कर देने वाला यह विकास . यह घोर असमानता पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था . इस विनाश को अंजाम देने वाली राजनीति अगर हमे स्वीकार है तो फिर हमें कोई नहीं बचा सकता .
लेकिन इस सब को स्वीकार करने के साथ ही भगत सिंह, गांधी, मार्क्स, वेद कुरान बाइबिल ग्रन्थ साहब सब को जला देना .
क्योंकि इन सब ने तो हमें सबकी समानता ,प्रकृति के साथ साहचर्य और मिल कर रहना सिखाया था.
मोदी का माडल हर धर्म और हर अक्लमंदी के विरुद्ध है .
दयानंद पांडेय ने भी खूब लिखा है
मोदी के प्रधान मंत्री पद की राह में सिर्फ़ तीन अड़ंगे हैं। एक उन का सांप्रदायिक चेहरा, दूसरे अरविंद केजरीवाल, तीसरे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। बा्की दो से बह पार भले पा लें पर राजनाथ सिंह उन के दुर्योधन पर शकुनी की तरह सवार हैं। लगता है उन को कहीं का नहीं छोड़ेंगे। आडवाणी की आह अपनी जगह है। जसवंत सिंह, सूर्य प्रताप शाही तक खुले आम रोते,आंसू बहाते घूम रहे हैं। दल बदलुओं के लाक्षा्गृह अलग हैं।
चन्द्रशेखर करगेती ने जो उत्तराखंड के बारे में लिखा है,वह देशव्यापी परिदृश्य है।हर दल हर नेता भाजपा कांग्रेस की राजनीति की निरंतरता जारी रखने के लिए उनकी जमींदारी के कारिंदे और लठैत बने मचरगश्ती कर रहे हैं।
ये चुनाव हैं या पांच साल की मुँह दिखाई ?
उत्तराखण्ड में दो तरह के लोकसभा चनाव हो रहें हैं, एक तरफ काँग्रेस-भाजपा अपने मजबूत कार्यकर्ताओं की टीम और धनबल के चलते एक दूसरे से सीधे मुकाबले में चुनाव लड़ रहें है ! अपने राष्ट्रीय दल होने के रुतबे के चलते वे इस आम चुनाव को उसी अनुरूप एक दूसरे के खिलाफ लड़ेंगे !
वहीं दुसरी और राज्य में अपनी नाममात्र की उपस्थिति होने के बावजूद जनवादी होने का स्वयंभू तमगा टाँगने वाले माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी, उपपा पार्टी जैसी पार्टियाँ राज्य के किसी भी एक जिले में अपनी सशक्त उपस्थिति ना होने के बावजूद भी ऐसे ख़म ठोक रहें हैं जैसे ये चुनाव ना होकर जनता के बीच अपना चेहरा दिखाने की प्रदर्शनी भर हो ?
भाजपा ने जिन नेताओं को लोकसभा में प्रत्यासी के तौर पर टिकट दिया हैं, वे राज्य राजनीति के वही घिसे पिटे चेहरे हैं जिन्हें जनता बरसो से देखती आ रही है, जो चुनाव दर चुनाव अपने क्षेत्र की जनता को नारों की भांग घोटकर पिलाते आयें हैं, स्थितियाँ ना तब बदली थी और ना अब बदलने वाली हैं, क्योंकि ये नेता वही हैं जो कभी उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के घोर विरोधी थे,और राज्य निर्माण इनकी पार्टी की नीति में नहीं था, और राज्य बना तो इनके राज में इतने घोटाले हुए कि शायद वे अपने आपमें किसी भी नवोदित राज्य के गिनीज रिकॉर्ड में स्थान पा सकते हैं ? अगर इन प्रत्यासियों की राज्य की प्रगति में अगर मूल्यांकन किया जाय तो जितना बजट इन्हें उपलब्ध करवाया गया था, उतने में शायद पहले से ही राज्य के जिले में मौजूद जन सुविधाओं के बराबर तहसील स्तर पर नयी जनसुविधाओं को विकसित किये जा सकते थे,राज्य को गर्त में धकेलने ये प्रत्यासी जिम्मेदार हैं, उससे उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता हैं l राज भले ही कोश्यारी जी का रहा हो या खंडूरी जी का या निशंक का, इनके राजकाल अगर राज्य चर्चा में रहा तो केवल कुर्सी की उठापटक को लेकर, आगे भी इन घिसे पीटे और सत्ता लोलुप चेहरों से कोई उम्मीद बेमानी होगी !
उपरोक्त परिस्थियों में जहाँ अन्य दल आपसी समझोते के तहत भाजपा-कांगेस के चेहरे से सत्ता के लिए की जाने वाली नोटंकी को बेनकाब कर सकती थी, लेकिन अपने तुच्छ अहम के चलते छोटे दलों के मुखिया अपनी हठधर्मिता और झूठी पार्टी लाइन के दंभ के चलते इन तेरह सालों में काँग्रेस-भाजपा को लगातार मौक़ा देते गये हैं कि ये दोनों दल बारी-बारी से इन दलों की आपसी सर फुट्टवल का लाभ उठाकर सत्तासीन हो जाये, यों कहा आये कि काँग्रेस भाजपा अपने चुनावी प्रत्यासियों की योग्यता के चलते सत्तासीन ना होकर छोटे दलों की आपसी फूट के कारण सत्तासीन हुए हैं l
राज्य के माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी पार्टी, उपपा के नेतृत्व में इतनी भी समझ व सुझबुझ नहीं कि वे एक बार आपस में बैठकर राज्य को बर्बादी से बचाने के लियें एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर सामूहिक रूप से काँग्रेस-भाजपा से मुकाबला कर सके,और नहीं तो कभी एक साथ बैठकर मुद्दों पर चर्चा कर इस दिशा में कोई प्रयास कर सके ? ये तेरह साल, साल दर साल बीतते गये, और इन फुटकर नेताओं के पास काँग्रेस-भाजपा को सिवाय अपने भाषणों में कोसने के अलावा और कोई उपलब्धि दर्ज कराने को नहीं है !
ये लोससभा चुनाव भी संपन्न हो जाएगा, हम एक बार फिर इन फुटकर पार्टियों के फुटकर नेतृत्व को चुनाव में अपनी अपनी छद्म उपस्थिति दर्ज करा कर कुछेक हजार गिनती के वोट पर सिमटते हुए देखेंगे और चुनाव बाद अपनी असफलता का ठीकरा जतना के सर पर फोड़ते हुए देखेंगे, जैसे जनता ही इनकी ठेकेदारी लिए हुए हैं !
तो हे मठाधीशों जब तक जनता के मुद्दों पर अलग अलग मुँह से बांग देने के बजाय एक साथ नहीं आओगे , काँग्रेस-भाजपा आपने हमारे ना चाहते हुए भी जनता की छाती पर मूंग डालते रहेंगे, जब तक जनता को निस्वार्थ विकल्प नहीं मिलेगा वह काँग्रेस-भाजपा से त्रस्त होने के बावजूद भी वोट उन्हें ही देती रहेगी, क्योंकि वोट करना उसकी आदत बन गया है !
अब यह राज्य के माकपा, भाकपा,भाकपा (माले), उक्रांद (ऐरी), उक्रांद (पी), आम आदमी पार्टी, उपपा के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वे इस लोकसभा जनता के जीतने लायक वोट हासिल करते हैं या एक बार फिर अँगूठा देखते हैं
23 मार्च को इलाहाबाद में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के ८४ वे शहादत दिवस पर बांटा जाने वाला पर्चा