हम चूंकि जाति उन्मूलन के मुद्दे को हिंदू राष्ट्र के कारपोरेट साम्राज्य के खिलाफ बुनियादी और जवाबी एजंडा मानते रहे हैं
पलाश विश्वास
कवि मित्र उदय प्रकाश ने लिखा है कि
ब्रेख़्त की एक कविता कुछ इस तरह थी :
'इतना पोपला हो चुका है उनका मुंह
कि हर आती-जाती हवा
उसमें सीटी बजा जाती है !'
इस समय बहुत-सी सीटियां सुनाई देने लगी हैं.
पिछले दिनों बाबासाहेब बी. आर. आंबेडकर की चर्चित और क्रांतिकारी किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का उन्मूलन) का विस्तृत टिप्पणियों समेतएक नया संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें अरुंधति रॉय की 150 पन्ने की प्रस्तावना भी शामिल है. द डॉक्टर एंड द सेंटशीर्षक वाली इस प्रस्तावना के अलग अलग अंश कारवां, आउटलुक और द हिंदू में छप चुके हैं, अरुंधति का एक साक्षात्कार आउटलुक में आ चुका है और लेखिका ने देश में अनेक जगहों पर इस सिलसिले में व्याख्यान और भाषण दिए हैं. इसी बीच प्रस्तावना के सिलसिले में, और एक गैर-दलित होते हुए आंबेडकर की रचना पर लिखने के अरुंधति के 'विशेषाधिकार' का मुद्दा उठाते हुए कुछ लेखकों और समूहों ने अरुंधति और किताब के प्रकाशक की आलोचना की है. इनके अलावा फेसबुक पर भी इस सिलसिले में अलग अलग बहसें चल रही हैं. अरुंधति ने इनमें से कुछ का जवाब देते हुए एक टिप्पणी जारी की है जिसे यहां पढ़ा जा सकता है.
5 मार्च 2014 को इंडिया हैबिटेट सेंटरमें किताब पर एक बातचीत रखी गई, जिसमें पहले अरुंधति ने एक छोटा सा भाषण दिया और इसके बाद हिंदी के जानमाने कवि असद जैदी के साथ एक संवाद में भाग लिया. पेश है इस संवाद सत्र की रिकॉर्डिंग. साथ में, द डॉक्टर एंड द सेंटके आखिरी हिस्से का अनुवाद. अनुवाद: रेयाज उल हक
हालांकि हम जिस दौर में जी रहे हैं वे उसे कलियुग कहते हैं. राम राज्य में भी शायद बहुत देर नहीं है. चौदहवीं सदी की बाबरी मसजिद को, जो कथित रूप से अयोध्या में 'भगवान राम' की जन्म भूमि पर बनाई गई थी, हिंदू फासीवादियों ने आंबेडकर की बरसी 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया. हम इस जगह पर भव्य राम मंदिर बनाए जाने के खौफ में जी रहे हैं. जैसा कि महात्मा गांधी ने चाहा था, अमीर लोग अपनी (और साथ-साथ हरेक की) दौलत के मालिक बने हुए हैं. चार वर्णों की व्यवस्था बेरोकटोक राज कर रही है: ज्ञान पर बड़े हद तक ब्राह्मणों का कब्जा है, कारोबार पर वैश्यों का प्रभुत्व है. क्षत्रियों ने हालांकि इससे अच्छे दिन देखे हैं, लेकिन अब भी ज्यादातर वही देहातों में जमीन के मालिक हैं. शूद्र इस आलीशान हवेली के तलघर में रहते हैं और घुसपैठ करने वालों को बाहर रखते हैं. आदिवासी अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं. और रहे दलित तो हम उन्हीं के बारे में तो बातें करते आए हैं.
क्या जाति का खात्मा हो सकता है?
तब तक नहीं जब तक हम अपने आसमान के सितारों की जगहें बदलने की हिम्मत नहीं दिखाते. तब तक नहीं जब तक खुद को क्रांतिकारी कहने वाले लोग ब्राह्मणवाद की एक क्रांतिकारी आलोचना विकसित नहीं करते. तब तक नहीं जब तक ब्राह्मणवाद को समझने वाले लोग पूंजीवाद की अपनी आलोचना की धार को तेज नहीं करते.
और तब तक नहीं जब तक हम बाबासाहेब आंबेडकर को नहीं पढ़ते. अगर क्लासरूमों के भीतर नहीं तो उनके बाहर. और ऐसा होने तक हम वही बने रहेंगे जिन्हें बाबासाहेब ने हिंदुस्तान के 'बीमार मर्द' और औरतें कहा था, जिसमें अच्छा नहीं होने की चाहत नहीं दिखती.
हस्तक्षेप में प्रकाशित इस संवाद की पिछली कड़ी पर अनिता भारती जी को लग रहा है कि यह लेख उनके खिलाफ लिखा गया है।ऐसा हरगिज नहीं है।
सुपारी किलर हो गये हैं अस्मिता राजनीति के लोग
उन्होने इस पर लिखा हैः
मुझे Palash Biswasजी के द्वारा लिखे गए लेख पर हैरानी हो रही है. मैने अरुंधति राय के राउंड टेबल इंडिया पर छपे पत्र को पढकर कुछ प्रतिक्रिया अपनी फेसबुक की वाल पर लिखी थी. पता नही क्यों पलाश जी ने मेरे बात का मंतव्य समझे बिना जल्दी जल्दी स मेरे खिलाफ लेख लिख मारा और अब देखा वही लेख हस्तक्षेप में भी छपा हुआ है.. मुझसे अगर आप इस मुद्दे पर बातचीत करने के इच्छुक थे तो मैं भी थी आपसे बातचीत करने में उतनी ही इच्छुक थी और. यह बात मैने अपनी वाल पर भी आपके जबाब में लिखी थी. पर अब देख रही हूँ कि वे अब हमें या मुझे जिसे भी कहो, सुपारी किलर भी बता रहे है उनका एक वाक्य पढिए, जो मेरे अनुसार बहुत ही आपत्तिजनक है- अस्मिता राजनीति के लोग तो अब सुपारी किलर हो गये हैं जो कॉरपोरेटवधस्थल में बहुसंख्यआबादी जिनमें बहिष्कृत मूक जनगण ही हैं,के नरसंहार हेतु पुरोहिती सुपारी किलर बन गये। ।"
अनिता जी,यह वाक्य आपके खिलाफ नहीं है।यह अस्मिता राजनीति करने वालों के लिए है।राजनीति यानी सत्ता की राजनीति।वह आप नहीं कर रही हैं।मैंने तो आपकी टिप्पणी को बतौर सूत्र इस्तेमाल करते हुए एक संवाद की शुरुआत करने कीकोशिश की है।मुझे आपके सरोकार और आपके मंतव्य पर कोई संदेह नहीं है।आपको जो शंकाएं थीं,उसके आधार पर मैंने अपनी बात रखी है।यह संवाद संवादविरोधी राजनीति को चिन्हित किये बिना नहीं हो सकता।मेरा मकसद किसी भी सूरत में आप जैसे अत्यंत प्रतिबद्ध और ईमानदार व्यक्ति के विरोध का नहीं है।हम चाहते हैं कि आप इस विषय पर खुलकर लिखें।आपने बाद में जो मंतव्य किये हैं,वे भी संवाद में शामिल होंगे।आपका लिखा एक एक पंक्ति बहस को खोलेगा।जो बहुजन राजनीति का मौजूदा हाल है,उससे आप जुड़़ी नहीं है और न उसके लिए आप जिम्मेदार है।लेकिन हमारे विमर्श में आपका भारी योगदान है और रहेगा।मैंने जो मुद्दे उठाये हैं,कृपया उन पर गौर करें।आपसे हमने अपनी असहमति बता दी है।हमने अरुंधति के लिखे को भी ब्लाग में डाल दिया है।खास बात तो यह है कि दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह अरुंधति ने बाबासाहेब को गांधी के मुकाबले छोटा नहींं किया है और गांधी से तुलना उन्होंने बाबासाहेब का महत्व रेखांकित करने के लिए ही किया है।इसके अलावा आउट लुक में उन्होंने साफ साफ कहा है कि मौजूदा वक्त अंबेडकर की सबसे ज्यादा आपातकालीन जरुरत है।हम उनके मुद्दे पर गौर न करेंगे तो यह गलत होगा।हमारा कहने का आशय यह है।बाकी मसीहों,दूल्हों और दलबदलू मौकापरस्त चूहों के बारे में सुपारी किलर से ज्यादा कोई सटीक विशेषण हो तो आप बताएं।आप ऎसा कैसे सोच सकती हैं कि मैं आपके खिलाफ लिख भी सकता हूं।आप अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ,हमारे लिए इसीलिए आपके कहे से मैंने यह इस संवाद की शुरुआत की किसी मसीहा या दूल्हे या सुपारी किलर को उद्धृत किये बिना।आपने सत्तावर्ग को कभी समर्थन दिया है और बहुजनों के खिलाफ आपने कुछ लिखा है,इसका मुझे यकीन नहीं है और न मैंने ऎसा कुछ लिखा है।हमने अंबेडकरी आंदोलन का यथार्थ और उसके बाहर देश में जो मौकापरस्त सत्ताचस्पां राजनीति है,उसका खुलासा किया है,आप इससे अपने को जोड़कर हमें शर्मिंदा कर रही हैं।बहस चूंकि आगे जारी रहेगी।आपने जो मंतव्य किया और आपके उठाये मुद्दे पर मैंने जो लिखा,उसपर आगे आप खुलकर लिखें तो हम आलोकित होंगे।
अनिता जी हिसाब से हम इस मुद्दे पर सिरे से बात करें तो ज्यादा बेहतर है और इसे अरुंधति ने खूब रेखांकित किया हैः
तब तक नहीं जब तक हम अपने आसमान के सितारों की जगहें बदलने की हिम्मत नहीं दिखाते. तब तक नहीं जब तक खुद को क्रांतिकारी कहने वाले लोग ब्राह्मणवाद की एक क्रांतिकारी आलोचना विकसित नहीं करते. तब तक नहीं जब तक ब्राह्मणवाद को समझने वाले लोग पूंजीवाद की अपनी आलोचना की धार को तेज नहीं करते.
और तब तक नहीं जब तक हम बाबासाहेब आंबेडकर को नहीं पढ़ते. अगर क्लासरूमों के भीतर नहीं तो उनके बाहर. और ऐसा होने तक हम वही बने रहेंगे जिन्हें बाबासाहेब ने हिंदुस्तान के 'बीमार मर्द' और औरतें कहा था, जिसमें अच्छा नहीं होने की चाहत नहीं दिखती.
अनिता भारती जी का मंतव्य यह भी हैः
पलाश जी आपकी विद्वता से मैं हमेशा प्रभावित रही हूँ पर आपसे सादर अनुरोध है कि बिना जल्दबाजी किए मेरा स्टेटस दूबारा से पढिए और मेरी वाल पर आपके कमेंट पर किया गया मेरा कमेंट भी जरुर पढिए. तब शायद आप मेरी बात समझ पाएं.
मुझे नही लगता कि दलित समाज या उसका कोई बुद्धिजीवी यह चाहेगा कि अम्बेडकर पर उनका 'एकाधिकार' रहे या केवल अम्बेडकर पर वही केवल अपनी 'कलम' चलाएं. हमारी और हमारे समाज की सबसे बडी लडाई तो इसी बात पर है कि डॉ. अम्बेडकर और उनकी विचारधारा को ही क्यों केवल एक सीमित दायरे और समाज में कैद करके देखा जाता है, जबकि उनके विचारों की, उनके दर्शन की और उनके कार्यों की प्रसांगिकता आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी तब थी. आप लोगों को सवाल उठाना या अपने संशय जाहिर करना इतना नागवार गुजरता है कि आप सीधे सीधे आरोपों पर उतर आते है और छूटते ही यह कहते है कि क्या दलितों पर लिखने के लिए दलित होना जरुरी है ? अरे भई आप दलितों पर खूब लिखो, बाबा साहेब पर खूब लिखो, सावित्रीबाई ज्योतिबा पर खूब लिखो, किसने मना किया है. पर शर्त यही है कि आप दलितों को अपना दलित प्रेमी और उनके प्रति सदभावी होने का भरोसा तो जगाओ. ढाई हजार साल से वे आपके जुल्मोसितम और अन्याय के शिकार हो रहे है बिना उफ किये। अगर ऐसे में अब कुछ पढे लिखे दलित अपनी आपके प्रति कुछ शंकाएं, कुछ सवाल, खडा कर रहे है तो ये कुछ गलत तो नही है। यह आपके ऊपर है कि आप उन्हे कैसे संतुष्ट करें. दलित समाज बडा सीधा सादा न्याय प्रिय होता है बहुत जल्दी सब पर भरोसा कर उसे अपना लेता है.
अनिता भारती जी हमारी अत्यंत आदरणीया लेखिका हैं,जातिभेद के उच्छेद विषय पर अरुंधति के लिखने पर उन्हें सख्त एतराज है।अनिता जी का सवाल है कि सवाल यह नही कि अरुंधति क्यों लिख रही है, और अभी ही क्यों लिख रही है जबकि जातिभेद के उच्छेद पर दिया गया भाषण जो की बाद में एक पुस्तक के रुप में बहुत पहले आ चुका है. इस पर वर्षों से चर्चा होती रही है. तमाम साथी जो बाबासाहेब को पढना शुरु करते है, सबसे पहले यही किताब पढते है. अरुंधति के इस पुस्तक को कोट करने या इस पर लिखने से यह किताब ज्यादा महत्वपूर्ण नही हो गई है. यहां यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि क्या जैसे कि अधिकांश अति प्रगतिशील बुद्धिजीवी अम्बेडकर के बरक्स गांधी और मार्क्स को, और उनकी विचाधारा को कहीं अधिक व्यावहारिक, लोकप्रिय, प्रभावशाली, निष्पक्ष, सैद्धांतिक, उपचारपरक, ममाधान करने वाली सिद्ध करते रहे है, क्या अरुंधति ने भी वैसा ही दिखाया है या साबित किया है. क्योंकि दलित, भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा दूध के जले है इसलिए छाछ को भी फुंक फूंक कर पीते है. आशीष नंदी और योगेन्द्र यादव इसके ताजा तरीन उदाहरण है. वैसे मेरा भी एक सवाल है अरुंधति से. जब तब इस देश में दलितों पर जुल्मोसितम की बाढ़ आई रहती है, वे इस पर कब-कब बोली है या उन्होने कितनी बार दलितो की बस्ती का दौरा किया है?
इस पर हमारा कहना है
अनिता जी,आपकी बातें वाजिब है।हकीकत तो यह है कि हमने भी अपने पिता की मौत से पहले,जो कि खुद अंबेडकरवादी के साथ साथ वामपंथी थे और अंबेडकर का पाठ सामाजिक यथार्थ और प्रतिबद्धता की अनिवार्यशर्त मानते थे,हमने अंबेडकर को पढ़ा ही नहीं था।हमने भी दलितों के बीच पहचान के आधार पर 2005 तक जबत हम वामपंथी धारा से जुड़े रहे कोई काम नहीं किया।हम अरुंधति के लिखे का इसलिए स्वागत कर रहे हैं कि राष्ट्र के चरित्र और कारपोरेट साम्राज्यवाद की इतनी अच्छी समझ को वे अंबेडकर से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।हम बहुजन समाज की बात अक्सर करते रहे हैं।आदिवासियों के जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए अरुंधति लगातार आवाज उठाती रही हैं।दलितों को आदिवासियों से अलग करके आप देखें तो लगेगा कि उनके सरोकार बहुजन समाज से जुड़े नहीं है।अगर आदिवासी समाज को आप भारतीय बहुजन समाज का अंग मानती हैं तो उनकी आवाज सुनने में आपको कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
आप निरंतर सक्रिय हैं।हम समझते हैं कि अंबेडकर की प्रासंगिकता के बारे में बाकी लोगों के बनिस्बत आपका नजरिया खुला होना चाहिए।अरुंधति मूलतः लेखिका हैं।आदिवासी मामलों में वह कुछ इलाकों में गयी जरुर हैं,लेकिन वे एक्टिविस्ट नहीं है।आपने जो लिखा है,उसपर हमने गौर किया है।अरुंधति के नाम जाति उन्मूलन के सिलसिले में किये गये सवाल भी हमने देखे हैं और अरुंधति का जवाब भी।हम तो चाहते हैं कि इसपर सार्थक संवाद हो और आप ऎसे संवाद को दिशा देने के लिए अत्यंत सक्षम है।इसी वजह से मैंने यह टिप्पणी सार्वजनिक की है और आपके विस्तत विश्लेषण का इंतजार कर रहे हैं।हम चूंकि जाति उन्मूलन के मुद्दे को हिंदू राष्ट्र के कारपोरेट साम्राज्य के खिलाफ बुनियादी और जवाबी एजंडा मानते रहे हैं तो इस सिलसिले में लगाता लिखने और संवाद का सिलसिला बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
दूसरी बात तो यह है कि आपकी उदारता है कि आप मेरी विद्वता की बात कर रही हैं।मैं कायदे से बेहद जूनियर पत्रकार हूं और शायद अपढ़ भी।अपने सरोकारों की वजह से लेखन के जरिये निरंतर संवादवाद प्रयास की बदतमीजियां जरुर करता रहता हूं और भले लोग नाराज हो जाते हैं।मैं अकादमिक बहस का अभ्यस्त नहीं हूं।प्तरकारिता की शैली में और शायद कभी रचनात्मक लेखन कर चुके होने के कारण एक संवाद शैली के मुताबिक बात करता हूं।मेरी दिलचस्पी किसी पत्रकार की तरह ही अपने के बजाय दूसरों के परिप्रेक्ष और उनकी सम्मति असम्मति के जरिये सार्थक संवाद परिदृश्य बनाने की होती है।
मैं अरुंधति का अंबेडकरी आंदोलन के बारे में लिखना सकारात्मक मानता हूं और टाहता हूं कि देश के बाकी आम और खास नागरिक भी अंबेडकर को पढ़ें ताकि समता और सामाजिक न्याय आधारित समाज की स्थापना के लिए अंबेडकरी जाति उन्मूलन प्रकल्प जो सत्ता की चाबी की कीमत बतौर बंद है,दुबारा खुला जा सकें।हम मानते हैं कि यह न सिर्फ बहुजन समाज बल्कि बहसंख्य निनानब्वे फीसद भारतीय,भारतीयसंविधाऩ,लोक गणराज्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था का वजूद कारपोरेट मनुतंत्र के मुकाबले बहाल रखने के लिए अनिवार्य है।
बल्कि हमें अरुंधति,राम चंद्र गुहा,एडमिरल भागवत,राम पुनियानी,सुभाष गाताडे.आनंद तेलतुंबड़े,आनंद पटवर्द्धन, जैसे लोगों के लिखे,जो सचमुच के विद्वान हैं,पर गौर करना चाहिए और उनकी पृष्ठभूमि के बजाय उनके उठाये मुद्दों की प्रासंगिकता पर संवाद फोकस करना चाहिए।यह बेहद जरुरी भी है।
इसके जवाब में अनिता जी ने लिखा हैः
पहली बात पलाश जी मैं अरुंधति के लेखन का विरोध नही कर रही हूं, मैं केवल अपनी शंकाएं जाहिर कर रही हूँ. इसमें कोई दो राय नही कि जैसा कि आपने उनके बारे में लिखा वह वे सब काम कर रही है. मैं यहां अरुंधति दलित सरोकारों की बात कर रही हूँ और उसपर अपनी बात रख रख रही हूं.
शायद अनिता जी हमारे तर्क से सहमत नहीं हैं कि अंबेडकर सिर्फ दलितों के नेता नहीं थे और भारतीय सामाजिक यथार्त के सिलसिले में वे अब भी आदिवासियों और दलितों को अलग अलग धरातल पर देख रही है,जैसा कि प्रचलित नजरिया है।
मेरी समझ से यह खंडित अस्मिता का विमर्श है,जिससे हम बाहर निकलने में अलग है और हम दलितों की समस्याओं को बाकी देश के साथ जोड़कर देखने में असमर्थ हैं।
अनिता जी आप हमारे लिए अत्यंत आदरणीय हैं लेकिन कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रवक्ता आशीष नंदी और पार्टीबद्ध अराजनीतिक नागरिक समाज प्रतिनिधि योगेंद्र यादव के सरोकारों की तुलना अगर अरुंधति के सरोकार और लेखन से की जाये तो शायद हम अंबेडकरी आंदोलन की प्रासंगिकता और इसके विचलन,जाति उन्मूलन के एजंडा को राष्ट्र के बदलते चरित्र,निरंकुश दमनकारी सैन्य राज्यतंत्र,जल जंगल जमीन की लड़ाई के संदर्भ में रेखांकित कर ही नहीं सकते और अस्मिता आधारित सत्ता चाबी एवं आरक्षण बजरिये मलाईदार तबके के ग्लीबीकरण वैश्विक व्यवस्था समर्थक दृष्टिभंगी में ही अनंत काल तक सीमाबद्ध रहे हम लोग,जो खुद को अंबेडकर अनुयायी समझते हैं।यह शंका और निषेधभाव तो बाकी गैर दलित समुदायों में से किसी को अंबेडकर विचारधारा से जोड़ नहीं पायेगा।अंबेडकरी आंदोलन के लिए हमारी रंग बिरंगी शंकाएं ही हमें गोलबंद होने से रोक रही हैं और खंडित हम सत्तातंत्र में आत्मसात हुए जा रहे हैं।
हिमांशु जी की यह कूकूर कथा सत्ता राजनीति के रथी महारथी प्रतिद्वंद्विता के रूपक बतौर पढ़ लें तो खूब मजा आयेगा।जैसे कुत्तों को राज्यतंत्र की समझ नहीं है वैसे ही सत्ता रेस के घोड़े बिना राज्यतंत्र को समझे अंधी दौड़ में खतम हैं।
होली की पूर्व संध्या पर स्थानीय कसबे का डाग शो देखने का मौका लगा . मेरी मेज़बान ने एक कुत्ता पाला हुआ है जिसे लेकर वो उस डाग शो में जा रही थीं . उन्होंने मुझे भी उसमे आने के लिए आमंत्रित किया.
मुझे उसमे कोई सैद्धांतिक विरोध नहीं दिखा . मैं उनके साथ हो लिया .
ये एक पहाड़ी क़स्बा है . सामने की तरफ बर्फ से ढके पहाड़ है . उनके तले एक छोटी पहाड़ी पर एक छोटे से मैदान में यह शो होने वाला था.
जानवरों के इलाज के सरकारी महकमे ने इसका आयोजन किया था . तीस रुपया देकर कुत्ते और उसके मालिक का नाम लिखा जा रहा था . नाम लिखे कुत्ते को फ्री में रेबीज के इंजेक्शन और पेट के कीड़ों की दवाई मिलने की व्यवस्था करी गयी थी .
आधे से जयादा लोग तो अपने कुत्तों का रजिस्ट्रेशन करवा कर फ्री के इंजेक्शन लगवा कर घर चले गए .
बाकी बचे हुए कुत्तों के मालिक अपने कुत्तों के साथ गर्व के साथ मैदान के चारों तरफ लगे शामियानों में बैठ गए .
घोषणा करने वाले ने इस प्रतियोगिता के जज साहेबान का परिचय दिया . ये लोग फौज में जानवर के डाक्टर लोग थे .
एक कुतिया ने ने जज साहब के हाथ में काट खाया . मैं समझ गया कि इस कुतिया को अब ये जज साहब बिलकुल नहीं जीतने देंगे जबकि मेरी राय में कुतिया ने एक अनजान आदमी को खुद को छूने का विरोध किया था और अपने कुत्ता धर्म का पालन किया था .
कुछ कुत्ते इतना भीड़ भडक्का देख कर बुरी तरह डर रहे थे . मुझे इस बात का पता उनकी दोनों टांगों के बीच से पेट के साथ लगी हुई उनकी पूंछ देख कर लगा .
कई कुत्ता मालिक जज साहब को प्रभावित करने के लिए गेंद फेंक कर अपने कुत्ते को उसे उठा कर लाने के लिए उकसाते थे , लेकिन कुत्ता आपने चरों तरफ इतने गुर्राते हुए कुत्तों को देख कर अपने मालिक के नीचे ही दुबक जाते थे .
कुछ कुत्ते वाकई बहुत बड़े थे . एक बड़ा कुत्ता छोटे कुत्तों के वर्ग में शामिल हो गया . लेकिन दुसरे मालिकों के शोर मचाने पर उसे वापिस भेजना पड़ा .
एक महिला जो अपने रसूख की वजह से जज साहेबान के साथ कुर्सी डाल कर बैठ गयी थी उसके कुत्ते को उसका नौकर लेकर जज साहब के सामने लाया . नौकर ने गेंद फेंकी , कुत्ते ने गेंद की तरफ देखा भी नहीं .
लेकिन जज साहब ने उसी कुत्ते को विजेता घोषित कर दिया .
हम लोग अपना सांत्वना पुरस्कार लेकर घर लौट आये .
Sheeba Aslam Fehmi Correct!
Round Table India - Arundhati Roy replies to Dalit Camera
Arundhati Roy [This is her response to Dalit Camera's 'An...
Upendra Prasadबकवास करने का अरुन्धति राय को एक बहाना चाहिए था. मुस्लिम धनपशुओं को अपने मजहब की जाति व्यवस्था से तो कोई मतलब नहीं, वे हिन्दू जातिव्यव्स्था में मगजमारी किया करते हैं. यह भी उसी मगजमारी की अगली कड़ी से ज्यादा कुछ नहीं रही होगी.
Gopal Yadavअंबेडकर ने कब जाती उन्मूलन की बात की? जाती नहीं रहेगी तो अनुसूचित जाती कह के आरक्षण कैसे लेंगे? मैं तो सबसे बड़ा विद्वान लालू यादव को मानता हूँ जो सीधा कहता है सभी जातिवाद करते हैं मैं क्यों नहीं करूँगा?
Gopal Yadavअंबेडकर नेहरू का बहुत बड़ा चमचा था| दोनो ने मिल कर बहुसंख्यक हिंदुओं के विरोध में दूरगामी क़ानून बनवाए जिसकी आवश्यकता नहीं थी| भारतीय समाज उससे कहीं नहीं सुधरा पर अराजकता बढ़ती ही गयी| हिंदुओं की जनसख्या को रोक कर मुसलमानों को जनसंख्या बढ़ाने देने के लिए ही अंबेडकर और नेहरू ने मिल कर हिंदू विवाह अधिनियम बनवाया और ज़बरदस्ती लागू करवाया, ताकि मुसलमानों को आगे करके बहुसंख्यक पिछड़ों पर निर्बाध रूप से राज कर सकें|
Gopal Yadavअब जबकि पिछड़ों का राज आने लगा तो जातिवाद का विरोध होने लगा| ये जातिवाद का विरोध नहीं कृषक जातियों के राज का विरोध है|
Upendra Prasadजाति व्यवस्था को खत्म करने का सूत्र गीता में है. अम्बेडकर की पुस्तक "एन्निहिलेशन आफ कास्ट" का मानना है कि धार्मिक अवधारणाओं के ऊपर हमारी जाति व्यवस्था खड़ी और और यदि हम इन अवधारणाओं को खंडित करें, तो जातिव्यवस्था अपने आप समाप्त हो जाएगी. इसलिए अम्बेडकर ने एक और किताब लिख डाली, "रिड्ड्ल्स आफ हिन्दुइज्म", जिसमें राम को एक हजार और कृष्ण को दो हजार गालियाँ दे डालीं. मुसलमानों को ये दोनों पुस्तकें "अन्निहिलेशन आफ कास्ट" और ''रिड्डल्स आफ हिन्दुइज्म" बहुत अच्छी लगती हैं, क्योंकि उन्हें भी राम और कृष्ण की निन्दा में मजा आता है. पलाश बिश्वास ने जिस आयोजन की चर्चा की है, पता कीजिए उसमें मुस्लिम पैसा लगा होगा.