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सुसाइड नोट 7 : अन्न के कटोरे में बिखरी किसानों की हड्डियाँ… विनय सुल्तान

Previous: राजीव दाज्यू ने लिखा हैः आज सुबह 5.30 बजे नैनीताल की प्रख्यात मालरोड के ये हाल थे....भारत चीन सीमा की कोई सड़क हो मानो। छिटपुट टूटफूट और पेड़ गिरने से एक व्यक्ति के मरने का समाचार है। अभी ऊँचाई वाले इलाकों की ही स्थिति साफ नहीं है कि कितना नुकसान हुआ, आख़िर यह दर्जनों ट्रक मलबा आसमान से तो नहीं ही गिरा. दूरस्थ क्षेत्रों के न जाने क्या हाल हैं ? अंग्रेज़ बेवकूफ थे क्या ? हे माँ नयना....माँ नन्दा-सुनन्दा 1880 की पुनरावृत्ति न करना माता !
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सुसाइड नोट 7 : अन्न के कटोरे में बिखरी किसानों की हड्डियाँ…
  • विनय सुल्तान
  • ऐसा मत सोचिए कि इन घटनाओं से देश हिल उठेगा या तूफ़ान खड़ा हो जाएगा. वह नहीं होने वाला क्योंकि ये सारी घटनाएं योजना के तहत हो रही हैं. ऐसा नहीं है कि मौत करवाई जा रही है मौत के लिए. बल्कि मौत करवाई जा रही है विकास के लिए. विकास की योजना के तहत यह एक स्वतः घटना है. इसलिए कोशिश हो रही है कि मनुष्य का जो मन है, बुद्धि है वह भुखमरी के बारे में, जनहत्याओं के बारे में उदासीन हो जाए.                                                              -किशन पटनायक                                                                                           (भारत शूद्रों का होगा )

    प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के दौरान जिन मुर्खतापूर्ण सवालों से हर विद्यार्थी को गुजरना पड़ता है उसमें से एक है, "भारत का खाद्यान भण्डार किसे कहा जाता है?'सामने के खांचे में उत्तर लिखा होता है पंजाब. भारत में हरित क्रांति के दौर में जिन दो राज्यों ने सबसे जबरदस्त नतीजे दिए थे वो थे पंजाब और हरियाणा. 1947 से 1978 तक भारत में प्रति यूनिट पैदावार में 30 फीसदी का ईजाफा हुआ. 1978 में 131 मिलियन टन के उत्पादन के साथ ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश बन गया. यह वही दौर था जब स्कूल की किताबों में "भारत एक कृषिप्रधान देश है."की इबारत गहरे अक्षरों में दर्ज की जाने लगी.

    पंजाब भारत के 10.2 फीसदी कपास , 19.5 फीसदी गेंहू और 11 फीसदी चावल का उत्पादन करता है. इस उत्पादन तक पहुंचने के लिए जम कर रासायनिक खाद का इस्तेमाल हुआ. जहां रासायनिक खाद के इस्तेमाल का राष्ट्रीय औसत 90 किग्रा. प्रति हैक्टेयर है, पंजाब में यह आंकड़ा फिलहाल 223 किग्रा पर पहुंच चुका है. . खाद के बेतरतीब इस्तेमाल ना सिर्फ जमीन की उर्वरकता को घटाया है बल्कि फसल की लागत में जबरदस्त ईजाफा कर दिया है. एक दशक की सफलता और खुशहाली के बाद हरित क्रांति का दूसरा चेहरा हमारे सामने आने लगा.

    रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल और बेतरतीब मशीनिकरण का नतीजा यह हुआ कि सबसे ज्यादा गेंहू उपजाने वाले खेत सबसे अधिक कर्ज में चले गए. सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर सतीश वर्मा के अध्यन में सामने आया है कि पिछले एक दशक में किसानों पर कर्ज में 22 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है. एक दशक पहले औसत कर्ज का आंकड़ा 25 हजार पर था वो बढ़ कर 5.26 लाख पर पहुंच गया है. एक तरीके से देखा जाए तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कर्ज पर आधारित हो चुकी है. अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी मूडीज के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में भारत के कृषि क्षेत्र का विस्तार महज दशमलव दो फ़ीसदी रहा है.

    आर्थिक रूप से समृद्ध कहे जाने वाले पंजाब का एक सच यह भी है कि यहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सर्वे की माने तो 2001 से 2011 के बीच पंजाब में 6,926 किसानों ने आत्महत्या की है.यह आंकड़ा महज छह जिलों के सर्वे पर आधारित है. इसमें से 3954 किसान और 2972 खेत मजदूर हैं.

    दक्षिण पंजाब यानी मालवा क्षेत्र के तीन जिलों मानसा, बठिंडा और संगरूर में सर्वाधिक आत्महत्या के प्रकरण सामने आए हैं. मानसा में 1013, बठिंडा में 827 और संगरूर में 1132 किसान एक दशक में ख़ुदकुशी कर चुके हैं. संगरूर के मूनक सबडिविजन का गांव बलारां 1998 से अब तक 93 किसानों की आत्महत्या का गवाह रहा है. मूवमेंट अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन के इंदरजीत सिंह जैजी ने अपनी किताब "डेब्ट एंड डेथ इन रूरल इंडिया"में दावा करते हैं कि मानसा और संगरूर जिले में 1998 से 2008 तक 17 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

    कितना बुरा होता है परदेश में किसी अपने के ना होने की खबर सुनना…. 

    1 जुलाई की रात मैं संगरूर के लिए रवाना हुआ. पंजाब मेल के रद्द होने के कारण जबलपुर जम्मूतवी में भयानक भीड़ थी. चार सामान्य डब्बों के हालात असामन्य बने हुए थे. पैर रखने की जगह नहीं. सामान्य डब्बों का अपना समाजशास्त्र है. हमेशा ये डब्बे रेल के दोनों सिरों पर ही लगाए जाते हैं. एक दोस्त ने मुझे समझाते हुए कहा था, "देखों रेल पटरी से उतरे या फिर कोई और दुर्घटना हो, सबसे ज्यादा चपेट में किनारे के डब्बे आएंगे. अगर ऐसा नहीं है तो एसी के डब्बे सिरे पर क्यों नहीं लगाए जाते? दरअसल जनरल में सफ़र करने वाले लोग देश की सबसे गरीबी जनसंख्या है. इसलिए उनकी मौत से किसी को फर्क नहीं पड़ता.?"

    सुबह चार बजे जाखल जंक्शन पहुंचा. यहां से सुबह पांच बजे में पेशेंजर गाड़ी खुलती है जो संगरूर और दूसरे जिलों के छोटे स्टेशन जाती है. मुझे इसी पेसेंजर से लहरागागा जाना था. एक घंटे का अंतराल होने की वजह से मैं स्टेशन के बाहर चाय पीने चला गया. बाहर के तरफ लगभग सौ से अधिक लोग सोये हुए थे.

    bihar migrants

    ये सब प्रवासी मजदूर थे. गेंहूं की कटाई से धान की रुपाई तक बिहार और पूर्वांचल से आए मजदूर यहां रुकते हैं. ये लोग गिरोह में काम करते हैं. यह प्रति एकड़ गेंहू की कटाई और धान की रोपाई के हिसाब से ठेके लेते हैं. हर सीजन में ये लोग बीस से पच्चीस हजार रूपए और बुक्की(अफीम की डंठल का बुरादा) की लत ले कर घर लौट जाते हैं.

    मैंने चाय पी ही रहा था कि मैंने पास के पेड़ पर बने गट्टे पर बैठा 25 साल का नौजवान कलेजा फाड़ कर रोने लगा. कटिहार के बरसोई का रहने वाला सोनू यहां कुछ पैसा कमाने आया हुआ है. उसका ठेकेदार पड़ोस के गांव का है. ये कुल पंद्रह लोग हैं जो यहां एक साथ कम करते हैं. सोनू को रात 1 बजे खबर मिली कि उनकी मां का देहांत हो गया. उसे यहां से अपने गांव पहुंचने में 24 घंटे से ज्यादा का समय लग जाएगा. शायद वो आखिरी बार अपनी मां का मुंह भी ना देख पाए. परदेश में बैठ कर किसी के मरने की खबर सुनना दुःख को दोगुना कर देती है. यहां कोई अपना नहीं है जिसे आप अपना दुःख बयान कर सकें. सोनू मुझसे रोते हुए कहने लगा, "जानते हैं माई को टीबी था. कह रही थी कि बेटा मत जा. पर हम नहीं रुके. रुक कर करते भी क्या? यहां ना आते तो साल भर खाते क्या?"

    आदमी मर जाता है, और पीछे रह जाती हैं औरते……

    तहसील लहरागागा का गांव गुरए खुर्द. 2008 से अब तक यहां 25 आत्महत्या हो चुकी हैं. सबसे ज्यादा 13 आत्महत्याएं 2013 में हुई थीं जब रबी की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई. मैं गुरजीत सिंह के घर पर था. यहां मेरी मुलाकात उनकी माँ शांति कौर से हुई. गुरजीत ने 9 मार्च को जहर खा कर ख़ुदकुशी कर ली थी. शांति कौर इस पूरे घटानक्रम को इस तरह से पेश करती हैं.

    "सुबह चार बजे की बात रही होगी. गुरूद्वारे में पाठी बोलने लग गया था. मेरी नींद खुली तो देखा कि गुरजीत घर के दरवाजे से बाहर जाने को हो रहा है. मैंने आवाज दी तो बिना मुड़े यह कहता हुआ निकल गया कि बस दस मिनट में आ रहा है. सर्दियों का समय था. अँधेरा काफी रहता है सुबह के वक़्त.

    पांच बजे के लगभग दूध बेचने वाला मक्खन बदहवाश सा घर आया. उसने कहा कि गुरजीत भाई सड़क के पास वाली गली में पड़ा हुआ है. मैं उस समय चाय बनाने की तैयारी कर रही थी. दूध चूल्हे पर छोड़ कर गली की तरफ भागी. वहां जा कर देखा तो गुरजीत पेट पर हाथ रख पर अधलेटा पड़ा हुआ था. पास ही की गई उल्टी से तेज बदबू उठ रही थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

    मैंने पड़ोसी को बुला कर गुरजीत को गाड़ी में डाल कर लहरा के हॉस्पिटल ले जाने लगी. रास्ते में उसका शारीर ठंडा पड़ने लगा. हम लहरा पहुंचते इससे पहले उसकी मौत हो गई."

    मैंने शांति कौर से सवाल किया कि उनके लड़के ने ऐसा कदम क्यों उठाया? उनका जवाब था

    "हमारे पर दस लाख का कर्जा है जी. चार-चार लाख रूपए बैंक से लिए हुए हैं. डेढ़ लाख रूपए आड़तिए के पड़े हुए हैं. पचास हजार रूपए पड़ोसी से कर्ज ले रखा है. हमारे पास छह किले (एकड़) जमीन हैं. कभी 12 किले हुआ करती थी. आधी जमीन बिक गई पर कर्जा वही का वही है."

    हर साल हमें जो किसान आत्महत्या पर जो आंकडे मिलते हैं वो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में दर्ज होते हैं. गुरजीत का मामला इस साल के आंकड़ों में दर्ज नहीं हो पाएगा. मैंने शांति जी से पुलिस शिकायत के बाबत पूछा तो उनका जवाब था
    "हमकों गांव के लोगों ने कहा कि जो हो गया सो हो गया. अब पुलिस में शिकायत करने का कोई फायदा नहीं. वो लोग तुम्हे बेवजह परेशान करेंगे. मैं जनानी जात पुलिस थानों के चक्कर कब तक काटती?'IMG_3169

    शांति जी बात को मेरे स्थानीय गाइड गुरमेल सिंह पूरा करते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि पंजाब पुलिस का रवैय्या आम लोगों के प्रति अच्छा नहीं है. अब इस घटना के बाद ये लोग इन से हजार तरह के सवाल करते. एफआईआर में मृतक के परिजनों के नाम डाल देते. फिर आप घुमते रहिए थाने और विधायक के बंगले पर. पैसे दे कर छूटने के अलावा कोई चारा नहीं हैं. इस लिए ख़ुदकुशी के मामले में अक्सर आदमी थाने जाने से बचता है.

    शांति कौर के परिवार में हरित क्रांति के बाद तीसरी मौत है. उनके शौहर दरबारासिंह कोई 30 साल पहले कर्ज से आजीज आ कर अपने ही खेत में फांसी लगा कर मर गए थे. उस समय शांति कौर की उम्र 30 साल थी. दो लड़के और एक लड़की मां शांति ने हिम्मत नहीं हारी. अपने खेत ठेके पर दे कर खुद दिहाड़ी मजदूरी करने लगीं. जैसे-तैसे तीनों बच्चों को बड़ा किया और शादी की. शांति कौर अब बेफिक्र हो चुकी थीं आखिर उनके दो बेटे जवान और काम करने लायक हो गए थे.

    शांति कौर के बड़े लड़के बूंटा सिंह ने घर की माली हालत सुधारने के लिए ठेके पर खेती करना शुरू किया. शादी हुए तीन साल हो गए थे. दो साल का लड़का सिकंदर कुछ ही साल में स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाएगा. खेती डूबती गई और कर्ज चढ़ता गया. 2003 के मार्च की ग्याहरवीं तारीख को बूंटा सिंह ने पिता की तरह ही फांसी लगा कर जान दे दी. बूंटा सिंह की मौत के बाद सरकार ने सहकारी बैंक का दो लाख का कर्ज माफ़ कर दिया. लेकिन कर्ज को फिर से जानलेवा हद पर पहुंचने में महज एक दशक का समय लगा.

    गुरजीत की बीवी इस घर की तीसरी बेवा हैं. उनकी दो लड़कियों अर्शदीप कौर(14), मंजीत कौर (16) को समय से पहले सायानी हो जाना होगा. शांति कौर की हिम्मत अब जवाब दे चुकी है. वो जिंदा रहने के लिए फिर से उसी तकनीक को अपनाएंगी जो उन्होंने तीस साल पहले अपने पति के इंतकाल के बाद अपनाई थी. शांति कौर कहती हैं ,"आदमी तो मर जाता है सारी आफत हमारे सर छोड़ कर. बच्चों को छोड़ कर हम मर भी नहीं सकती. मैंने दूसरों के खेत में मजूरी करके अपने बच्चे पाले पर कभी कर्ज नहीं लिया."

    1990-91 से 2010-2011 तक भारत में छोटे और सीमान्त किसानों की संख्या 8 करोड़ 35 लाख से बढ़ कर 11 करोड़ 76 लाख पहुंच गई. वहीँ पंजाब में यह आंकड़ा पांच लाख से घट कर 3 लाख 60 हजार पर पहुंच गया. वहीँ बड़े किसानों की संख्या में पांच लाख का ईजाफा देखा गया. अकादमिक विद्वान् इसे 'रिवर्स पैटर्न'का नाम देते हैं. इस रिवर्स पैटर्न के कारणों को सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर एस.एस. गिल कुछ इस तरह समझाते हैं.
    "यह बाजार द्वारा गरीबों पर थोपी गई जिंदा रहने की रणनीति है. 2000 तक छोटे और सीमान्त किसान कुछ ना कुछ मुनाफा कमा लेते थे. अब अपनी जमीनों को किराये पर देना ज्यादा अक्लमंदी का काम साबित हो रहा है."

    ….तीन बेवाओं और तीन नाबालिगों वाले इस परिवार की जमीनें फिर से कोई और जोतेगा और घर की महिलाऐं खेत मजदूर बन जाएंगी.

    खेती करने वाला कोई भी इंसान ऐसा नहीं है जो कर्जे से दबा ना हो….

    संगरूर जिले की सुनाम तहसील का गांव छाजली. यहां हरविंदर दास नाम के 34 वर्षीय किसान के आत्महत्या की थी. मैं गांव की मोड़ पर जब पता पूछने के लिए रुका. यहां गांव के कुछ बुजुर्ग बैठ कर ताश खेल रहे थे. बातचीत के दौरान पता चला कि 1500 घरों वाले इस गांव में इस साल रबी की फसल खराब होने के बाद 9 किसान और खेत मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं.पिछले साल खरीफ की फसल के दौरान यह आंकड़ा 12 था. मैं हरविंदर दास के घर पर था. मुझे देख कर हरविंदर की बीवी सुखजिंदर कौर रोने लग गईं. उनकी आंख के आंसू सूख चुके थे और पलकें बुरी तरह से सूजी हुई थी. इसी 12 जून को हरविंदर ने फांसी लगा कर जान दे दी.

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    मैं हरविंदर के परिवार से बात करने के लिए बैठा हुआ था. हरविंदर के पिता हरबंश दास को दिल्ली से किसी के आने की सूचना मिली. वो अपने घर पर आए. थोड़ी देर मेरे सामने की ख़त पर बैठे रहे. फिर एकाएक उठ कर चल दिए. मुझे याद नहीं पड़ता कि पांच मिनट की हमारी इस मुलाकात में उन्होंने किसी शब्द को बरता हो.

    मेरे सवाल 'क्या हुआ था'का जवाब मंजीत कौर ने कुछ इस तरह से दिया,

    "मैं रात को 12 बजे तक हरविंदर का इन्तेजार करती रही. वो पिछले दो महीने से देर रात आता था. मैं उसे खाना खिलाने के बाद सोती थी. उस दिन घर पर मैं और मेरी बेटी थे. वो छुट्टियों में घर आई हुई थी. "

    मंजीत बता ही रही होती हैं कि हरविंदर की बीवी बयान के इस सिरे को पकड़ कर अपने हिस्से की कहानी बयान करना शुरू कर देती हैं.

    "मुझे उन्होंने दो दिन पहले ही कहा कि छुट्टियाँ हो गई हैं घर चली जाओ. मैंने कहा कि दो-चार दिन में चली जाउंगी. लेकिन वो नहीं माने. सुबह जिद्द करके मुझे मेरे पीहर छोड़ कर आ गए. मुझे अगर पता होता मैं क्यों जाती?"

    इसके बाद मंजीत कौर का बयान फिर शुरू हुआ

    "जब वो आया तो कहने लगा कि खाना अंदर ही रख दो मैं कमरें में खा लूँगा. मैंने उसकी थाली ढक कर अंदर रख दी. सुबह पाठी की आवाज सुन कर जागी. फ्रिज अंदर के कमरे में पड़ा हुआ था. मुझे चाय के लिए दूध लेना था. मैंने दरवाजा बजाया पर उसने खोला नहीं. मैंने सोचा कि देर रात सोया है उसको ना जगाया जाए. मैंने ताजा दूध से चाय बनाई. इस बीच मैंने अपनी बेटी को कूलर में पानी भरने के लिए कहा. रात भर में पानी खत्म हो जाता है. वो सुबह देर तक सोता था तो मैं सुबह कूलर में पानी भर दिया करती थी. 

    बेटी ने जब कूलर में पानी भरने के लिए जाली हटाई तो देखा हरविंदर बिस्तर पर नहीं था. उसने दो-तीन बार आवाज भी लगे पर किसी ने जवाब नहीं दिया. जब उसने अंदर झांक कर देखा तो मेरा बेटा पंखे पर लटका हुआ था."

    इतना कह कर वो रोने लगीं. उनके साथ सुखजिंदर भी रोने लगी. रोते-रोते सुखजिंदर ने बताया कि उनके पति अक्सर उनसे कहा करते कि वो फांसी लगा कर मर जाएंगे. इस बीच हरविंदर के 22 साल के भाई हरजीत दास मुझे आगे की कहानी बयान करने लगे.

    "हम लोगों ने दरवाजा तोड़ने की कोशिश की पर वो टूटा नहीं. फिर हम कूलर को हटा कर खिड़की के रास्ते अंदर दाखिल हुए. तब जा कर भाई की लाश उतारी जा सकी."

    आखिर हरविंदर को अपनी जान क्यों लेनी पड़ी. इस सवाल के जवाब में हरजीत मुझसे कहते हैं-

    "हमारे पास डेढ़ एकड़ जमीन है. पांच साल पहले भाई सुनाम रोड पर वनस्पति तेल बनाने की फैक्ट्री में काम करते थे. तब तक सब ठीक था. फिर अचानक फैक्ट्री बंद हो गई. उस समय भी कई लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली थी. मेरे भाई ने फैक्ट्री बंद होने के बाद ढाई लाख का कर्ज लिया. इससे उसने तूड़ा(चारा) निकालने की मशीन ली. इसमें उसको हर साल घाटा पड़ने लगा. काम होता नहीं था तो रखरखाव के पैसे भी घर से लगने लग गए. सोसाइटी से 70 हजार का कर्ज ले कर हमने पिछले कर्जे का ब्याज भरा था. 

    फैक्ट्री मालिक ने फैक्ट्री में प्लाट काट कर बेचने शुरू कर दिए. भाई ने चार हजार में गार्ड की नौकरी करनी शुरू की थी दो महीने पहले ही. चार हजार की आमदनी में घर का खर्ज भी नहीं चलता तो कर्ज कैसे उतरता. लोग रोज-ब-रोज घर आने लगे. कर्ज उतारने के लिए पैसे नहीं थे. रही-सही कसर बारिश ने पूरी कर दी. जो थोड़ी बहुत उम्मीद थी वो भी टूट गई. जब लोगों की फसल ही बर्बाद हो गई तो तूड़ा मशीन में भी घटा लग गया. कर्ज उतरने की जगह बढ़ता ही जा रहा था. इसी सब से तंग आ कर मेरे भाई ने जान दे दी." 

    इतना कहने के साथ ही हरजीत ने मेरे ऊपर चलते पंखे की तरफ इशारा करते हुए इशारा करते हुए कहा, 'यही वो पंखा जिस पर भाई लटक गया.'मैं सोचने लगा कि हर रात अपनी दो बेटियों के साथ लेटी हुई सुखजिंदर जब इस पंखे को अपने सिर पर चलते देखती होंगी तो यह कितना मनहूस अनुभव रहता होगा.

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    अभी मैं इसी सोच में था कि हरजीत की आवाज आने लग जाती है, "खेती कर रहा कोई भी आदमी जो सिर्फ खेती पर निर्भर है उसके ऊपर कर्जा जरुर है. अब अगर आप पेन बनाते हैं तो उसका दाम भी आप ही तय करेंगे. पर किसान ऐसा आदमी है जो अपनि फसल का दाम तय नहीं कर सकता. हमें आडतिया जितने दाम देगा हमें लेना पड़ेगा. "

    मैं हरविंदर के घर से चलने को हुआ तो उनकी बेवा सुखजिंदर फिर से रोना शुरू कर चुकी थीं. इस बार वो कह रहीं थीं, "मेरा और दो बेटियों का ख़याल नहीं किया तो कोई बात नहीं पर इसने तेरा क्या बिगाड़ा था."उनका इशारा पेट में पल रहे आठ महीने बच्चे की तरफ था. मैं नहीं जनता कि 10 साल की आँचल, 8 साल की परनीत और इस अजन्मे बच्चे के भविष्य का क्या होगा. क्योंकि अगर मुआवजा अगर मिला भी तो वो पिछली देनदारियों के लिए भी पूरा नहीं पड़ने वाला…..

    पिछली कड़ियाँ पढ़ें

    सुसाइड नोट 6: हम कहाँ चाहते हैं कि हमें मुआवजा मिले…

    http://patrakarpraxis.com/?p=2579

    सुसाइड नोट 5: सरकारी योजना हड़पते वक़्त वो हमसे भी गरीब हो जाते हैं…

    http://patrakarpraxis.com/?p=2558

    सुसाइड नोट 4 : कागजों में दफन किसानों की मौत…

    http://patrakarpraxis.com/?p=2526

    सुसाइड नोट 3: 'बस मरना ही हमारे हिस्से है..'

    http://patrakarpraxis.com/?p=2499

    सुसाइड नोट 2 : हाँ यह सच है, लोग गश खा कर गिर रहे हैं….

    http://patrakarpraxis.com/?p=2410

    सुसाइड नोट 1 : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच….

    http://patrakarpraxis.com/?p=2382


1984 massacre of Sikhs took place in the capital of India? How come Narendra Modi has been singled out as the Devil Incarnate as if he personally carried out all the killings during the riots of 2002?"

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"Recently, India's most well-known film script-writer, Salim Khan,M when the Bhagalpur
or Jamshedpur riots under Congress regimes took place?
Do we hear names of earlier chief ministers of Gujarat under whose
charge, hundreds of riots took place in post-Independence India?bbg
Does anyone remember who was in-charge of Delhi's security when the
1984 massacre of Sikhs took place in the capital of India? How come Narendra Modi has been singled out as the Devil Incarnate as if he personally carried out all the killings during the riots of 2002?"
Riots which occurred after indipendence
1947 Bengal ...5,000 to 10,000 dead ...CONGRESS RULE.
1967 Ranchi ...200 DEAD...CONGRESS RULE.
1969 Ahmedabad...512 DEAD...CONGRESS RULE.
1970 Bhiwandi...80 DEAD ...CONGRESS RULE.
1979 Jamshedpur...125 DEAD...CPIM RULE (COMMUNIST PARTY)
1980 Moradabad...2,000 DEAD...CONGRESS RULE.
1983 Nellie Assam ...5,000 DEAD...CONGRESS RULE.
1984 anti-Sikh Delhi...2,733 DEAD ...CONGRESS RULE
1984 Bhiwandi...146 DEAD ...CONGRESS RULE
1985 Gujarat ...300 DEAD...CONGRESS RULE
1986 Ahmedabad...59 DEAD...CONGRESS RULE
1987 Meerut ...81 DEAD ...CONGRESS RULE
1989 Bhagalpur...1,070 DEAD ...CONGRESS RULE
1990 Hyderabad ...300 PLUS DEAD...CONGRESS RULE
1992 Mumbai ...900 TO 2000 DEAD ...CONGRESS RULE
1992 b...176 DEAD...CONGRESS RULE
1992 Surat ...175 DEAD...CONGRESS RULE

বিজেপি শাসিত স্বচ্ছ ভারতের কিছু নমুনা। এ গুলো তো ছোট খাটো। ভবিষ্যতে আরও বড় কেলেঙ্কারি ফাঁস হতে চলেছে বিজেপির।

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Souvik Mondal Sidhu's photo.

বিজেপি শাসিত স্বচ্ছ ভারতের কিছু নমুনা। এ গুলো তো ছোট খাটো। ভবিষ্যতে আরও বড় কেলেঙ্কারি ফাঁস হতে চলেছে বিজেপির।

পশ্চিমবঙ্গ তথা ভারতবর্ষের মহান নেতা জ্যোতি বসুর জন্মদিনের প্রাক্কালে আন্তরিক শ্রদ্ধা !

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পশ্চিমবঙ্গ তথা ভারতবর্ষের মহান নেতা জ্যোতি বসুর জন্মদিনের প্রাক্কালে আন্তরিক শ্রদ্ধা !

Dhiman Sau's photo.

अगर स्टेट ही टैरर में बदल जाये तो आप क्या करेंगे

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अक्षय नहीं रहा : खबरों में जिन्दगी जीने के जुनून में डोर टूटी या तोड़ी गई ?

अगर स्टेट ही टैरर में बदल जाये तो आप क्या करेंगे

अगर स्टेट ही टैरर में बदल जाये तो आप क्या करेंगे। मुश्किल तो यही है कि समूची सत्ता खुद के लिये और सत्ता के लिये तमाम संस्थान काम करने लगे तब आप क्या करेंगे। तो फिर आप जिस तरह स्क्रीन पर तीन दर्जन लोगों के नाम, मौत की तारीख और मौत की वजह से लेकर उनके बारे में सारी जानकारी दे रहे हैं उससे होगा क्या। सरकार तो कहेगी हम जांच कर रहे हैं। और रिपोर्ट बताती है कि सारी मौत जांच के दौरान ही हो रही हैं। इस अंतर्विरोध को भेदा कैसे जाये या यह सवाल उठाया कैसे जाये कि जांच सरकार करवा रही है। जांच अदालत के निर्देश पर हो रही है। जांच शुरु हो गई तो सीएम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन जांच के साथ सरकार ही घेरे में

अक्षय-खबरों में जिन्दगी जीने के जुनून में डोर टूटी या तोड़ी गई ?

"आज तक"के विशेष संवाददाता अक्षय सिंह

आ रही है । एसाईटी और राज्य पुलिस किसी न किसी मोड़ पर टकराते ही हैं। एसआईटी से जुडे अधिकारी रह तो उसी राज्य में रहे हैं, जहां मौतें हो रही हैं। और हर मौत के साथ राज्य की पुलिस को तफ्तीश करनी है । और इसी दायरे में अगर तथ्यों को निकलना है तो कोई भी पत्रकार किस तरह काम कर सकता है। पत्रकार को उन हालातों से लेकर मौत से जुड़े परिवारो के हालातों को भी समझना होगा । सामाजिक-आर्थिक परिस्थियों को भी उभारना होगा ।

और अगर हर मौत राज्य के कामकाज पर संदेह पैदा करती है तो फिर उन दस्तावेजों का भी जुगाड़ करना होगा जो बताये कि मौत के हालात और मौत के बाद राज्य की भूमिका रही क्या। दिल्ली से देखें तो लगता तो यही है कि राज्य के सारे तंत्र सिर्फ राज्य सत्ता के लिये काम कर रहे है यानी सारे संस्थानों की भूमिका सिर्फ और सिर्फ सत्ता के अनुकूल बने रहने की है। तो फिर ग्राउंड जीरो पर जाकर उस सच के छोर को पकड़ा जाये। लेकिन सच इतना खौफनाक होगा कि ग्रांउड जीरो पर जाने के बाद अक्षय खुद ही मौत के सवाल के रुप में दिल्ली तक आयेगा। यह हफ्ते भर पहले की बातचीत में मैंने भी नहीं सोचा। क्योंकि व्यापम में 42वीं और 43वीं मौत के बाद के बाद अक्षय के सवाल ने मुझे भी सोचने को मजबूर किया था कि क्या कोई रिपोर्ट इस तरीके से तैयार की जा सकती है जहां स्टेट टेरर और स्टेट इनक्वायरी के बीच सच को सामने लाने की पत्रकारिता की चुनौती को ही चुनौती दिया जाये।


काफी लंबी बहस हुई थी और अक्षय ने यह सवाल उठाया कि जब हम दिल्ली में बैठकर मध्यप्रदेश के व्यापम की चल रही जांच के दौर में लगातार हो रही संदेहास्पद मौतो पर रिपोर्टिंग को लेकर चर्चा कर रहे हैं तो क्या यह सवाल मध्यप्रदेश के पत्रकारो में नही उठ रहा होगा। और अगर उठ रहा होगा तो क्या सत्ता इतनी ताकतवर हो चुकी है जहां रिपोर्टर की रिपोर्ट सच ना ला पाये। या वह सच के छोर को ना पकड़ सके।

अक्षय याद करो यही सवाल राडिया टेप के दौर में भी तुमने ही उठाया था। और मुझे याद है रात में "बड़ी खबर"करने से ऐन पहले एंकर ग्रीन रुम में मुझे देखकर तुमने पहली मुलाकात में मुझे टोका था कि आप तो पाउडर भी नही लगाते तो फिर आज यहां। मैंने कहा बाल संवारने आया हूं। और उसके बाद तुम्हारा सवाल था कि क्या आज राडिया टेप में आये पत्रकारो का नाम "बड़ी खबर"में दिखायेंगे। और मैंने कहा था। बिलकुल। तब तो देखेंगे। और उस वक्त भी तुमने ही कहा था पत्रकार भिड जाये तो सच रुक नहीं सकता। आज "बड़ी खबर"देखते हैं और "जी बिजनेस"वालों को कहते हैं आप भी देखो। और मैंने कहा था तो पत्रकार यह सोच लें कि खबर उसके इशारे पर रुक जायेगी या दबा दी जायेगी तो संकेत साफ है या तो रिपोर्ट दबाने वाला शख्स पत्रकार नहीं, सिर्फ नौकरी करने वाला है या फिर स्टेट ही टैरर में तब्दील हो चुका है। और मुझे लगता नहीं है कि मौजूदा दौर पत्रकारिता को दबा पाने में सक्षम है

दरअसल अक्षय से संवाद हमेशा तीखा और सपाट ही हुआ। चाहे जी न्यूज में काफी छोटी-मोटी मुलाकातों का दौर रहा हो या आजतक में कमोवेश हर दिन आंखों के मिलने पर किसी खबर को लेकर इशारा या किसी इशारे से खबरों को आगे बढ़ाने का इशारा। जो खबर दबायी जा रही हो। जिस खबर को सत्ता दबाना चाहती हो। जो सत्ता के गलियारे से जुड़ी खबर हो उस खबर को जानना और दिखाने का जुनून अक्षय में हमेशा में था यह तो बात बात में उसकी जानकारी से ही पता लग जाता। लेकिन यह पहली बार उसकी मौत के बाद ही पता चला कि अक्षय खबरों की संवेदनशीलता ही नहीं बल्कि स्टेट टैरर या कहे सत्ताधारियों के उस हुनर से भी सचेत रहता जिससे कवर करने वाली खबरें कही लीक ना हो जायें।

संयोग से अक्षय की मौत की जानकारी उसके परिवार को देने गये तो हम चार पांच सहयोगी थे। लेकिन मुझे ही अक्षय की बहन को यह जानकारी देनी थी कि अब अक्षय इस दुनिया में नहीं रहा। और जैसे ही यह जानकारी उसकी बहन साक्षी को दी, वैसे ही साक्षी के भीतर अक्षय को लेकर पत्रकारिता का वह जुनून फूट पड़ा जिसकी जानकारी वाकई हमे नहीं थी। अक्षय घर में कभी बताकर नहीं गया कि वह किसी स्टोरी को कवर करने जा रहा है। उसने व्यापम को कवर करने की भी जानकारी नहीं दी। मां ने पूछा। तो भी प्रोफेशनल मजबूरी बताकर यह कर टाला कि, हमें जानकारी नहीं देने को कहा जाता है "। अपनी पहचान खुले तौर पर सामने ना आये इसके लिये पहचान भी हमेशा छुपाये रखने के लिये पीटीसी भी नहीं करता। यानी टीवी में काम करते हुये भी अपने चेहरे को स्क्रीन पर दिखाने की कभी कोशिश तो दूर उसके उलट यही कोशिश करता रहा कि स्क्रीन पर न आना पड़े। जिससे खबरों को जुगाड़ने में कभी कही कोई यह ना कह बैठे कि आप तो न्यूज चैनल में काम करते हैं।

और जी न्यूज से डेढ़ बरस पहले आजतक में आने के बाद दीपक शर्मा के साथ जिस तरह की इन्वेस्टिगेंटिग खबरों की तालाश में अक्षय लगातार राजनीतिक गलियारो में भटकता रहा और जिन खबरों को लेकर आया और आजतक पर खुद मैंने उसकी कई खबरों की एंकरिंग की उसमें भी बतौर विशेष संवाददाता भी कभी चैट { चर्चा } करने भी नहीं आया। लेकिन खबर चलने के बाद फोन कर ना सिर्फ खबर के बारे में चर्चा करता बल्कि चर्चा अगली खबर पर शुरु कर देता कि कैसे-किस तरह किस एंगल से खबर के छोर को पकड़ा जाये । और संयोग देखिये मौत की खबर आने से तीन दिन पहले अक्षय का जन्मदिन था और मां-बहन से वादा कर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट तैयार करने निकला था कि लौट कर किसी खास जगह पर चलेंगे। वहीं जन्मदिन सेलीब्रेट करेंगे । और बहन साक्षी यह बताते-बताते रो पड़ी कि पिछले बरस भी एक जुलाई को उसे रिपोर्टिंग के लिये बनारस जाना पड़ा, तब भी यह कहकर निकला कि लौट कर जन्मदिन किसी खास जगह जाकर मनायेंगे। लेकिन जन्मदिन कभी मना नहीं और खबरों में जिन्दगी खोजने के जुनून में जिन्दगी की छोर टूटी या या तोड दी गई यह खबर आनी अभी बाकी है ।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(पुण्य प्रसून वाजपेयी की फेसबुक टाइमलाइन से साभार)

'Mukti Chai' | Cultural evening of resistance | 11th July, 3 pm, Muktangan auditorium (Rashbehari Crossing)

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Mukti Chai

Join us for a people's cultural meeting on 11th July (Saturday) at Muktangan auditorium from 3 pm. For an evening of resistance with songs, speeches and accounts, book readings, film screenings and exchanges.

We demand release of all prisoners of conscience!

11th July (Saturday)
3 pm - 7 pm
Muktangan auditorium, Rashbehari Crossing (Near Kalighat Metro)

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Film Screening:
Prisoners of Conscience. Documentary by Anand Patwardhan 

Words:
Soni Sori
Dr. Binayak Sen
Shubhendu Dasgupta 
Rajeev Yadav (Rihai Manch and AIPF)
Ajay TG (documentary filmmaker, Chhattisgarh PUCL, previously held under UAPA), 
family members of affected political prisoners, lawyers and activists fighting for the release of political prisoners 

Songs of resistance and awakening:
Bipul and Anushree Chakrabarti 
Nitish Roy 
Sushmit Bose 
Swabhav Natok Dol 
Ranjanprasad 
Pratirodher Gaan

The meeting is being held with a goal to bring people together to demand-
- Unconditional release of Chhatradhar Mahato and five others who have been convicted on 11th May and meted out life sentences. The convention will mark two months of that draconian sentence.
- Release of political prisoners elsewhere in India, including people still held under TADA, detained under PSA (in Kashmir), Maruti workers, Muslim youth including the large number of undertrials in Purvanchal (UP) and political activists like Maudany, Communists including Saibaba, Hem Mishra, artists including Kabir Kala Manch and all others
- Scrapping of the draconian UAPA, AFSPA, PSA and the Sedition act

Organized by: Cinema of Resistance, Kolkata

RSVP

মুক্তি চাই! 

ছত্রধর মাহাতো সহ সমস্ত রাজনৈতিক বন্দীদের মুক্তির দাবিতে গণ সাংস্কৃতিক অনুষ্ঠান 

"দাবী-
এই নিরন্ন স্তব্ধ মধ্যরাত্রির রক্তচোষা উদারতায় নীল নক্ষত্রের

কোটি কোটি মশাল জ্বালানো মুক্ত আকাশের নীচে
ভারতবর্ষ নামক এই বিশাল নিখুঁত ভাবে নির্যাতিত
মনুষ্যত্বগ্রাসী জেলখানা থেকে
সমস্ত রাজনৈতিক বন্দী সহ
সমস্ত গরীব মানুষের
শর্তহীন মুক্তি চাই।" 

- 'মানুষের অধিকার', মণিভূষণ ভট্টাচার্য।

সুধী,

আজ থেকে দু'মাস আগে, মেদিনীপুরের সেশন কোর্ট ছত্রধর মাহাতো, সুখশান্তি বাস্কে, সগুন মূর্মু, শম্ভু সোরেন, রাজা সরখেল ও প্রসূন চ্যাটার্জীকে যাবজ্জীবন কারাদন্ড দেয়। অপরাধ 'রাষ্ট্রদ্রোহ'! প্রথম চারজনের বিরুদ্ধে ইউ-এ-পি-এ নামক একটি দানবীয় আইনও ব্যবহার করা হয়। সারা দেশ জুড়েই এই রায়ের বিরুদ্ধে গণতান্ত্রিক, শুভবুদ্ধিসম্পন্ন মানুষ সরব হয়েছেন। আইনের লড়াই-এর পাশাপাশি অন্যান্য ভাবে প্রতিরোধ খাড়া করা ছাড়া আমাদের সামনে আজ পথ নেই। 

কিন্তু ছত্রধর মাহাতোরা একা নন। কাশ্মীর থেকে মণিপুর। ছত্তিসগড় থেকে বিহার। মারুতি কারখানার ১৪৮ জন শ্রমিক থেকে সন্ত্রাসবাদী সন্দেহে অসংখ্য মুসলিম যুবক। জমি লুঠ, জঙ্গল লুঠ, শ্রম লুঠ, দেশ লুঠের বিরুদ্ধে কথা বলার অপরাধে সাংস্কৃতিক কর্মীরাও। ভারতরাষ্ট্রের জেলখানাগুলিতে পচছেন অনেক ছত্রধর মাহাতো আর অনেক মৌলানা মাদানি। অনেক সাইবাবা আর অনেক শচীন মালি। দেশের যে মানুষেরা খেতে ফসল ফলান, কারখানায় ঘাম ঝরান, বা যারা বনের সম্পদকে বহুযুগ ধরে ব্যবহার ও রক্ষা করে বেঁচে আছেন, তাদের বিরুদ্ধে রাষ্ট্রের আক্রমণ আরো সুচারুরূপে প্রাণঘাতী হচ্ছে। দেশের আইন-কানুন অতীতের ধারাবাহিকতা মেনেই যেন আরো বেশি সর্বনেশে হয়ে উঠছে। বিচার-ব্যবস্থাও। 

এই প্রেক্ষিতকে মাথায় রেখেই, 'প্রতিরোধের সিনেমা'র পক্ষ থেকে সমস্ত রাজনৈতিক বন্দীদের মুক্তির দাবিতে আগামী ১১ই জুলাই, মুক্তাঙ্গন প্রেক্ষাগৃহে (বেলা ৩টে থেকে সন্ধ্যে ৭টা) একটি গণ সাংস্কৃতিক অনুষ্ঠানের আয়োজন করা হয়েছে। বক্তব্য রাখবেন ডাঃ বিনায়ক সেন, সোনি সোরি, শুভেন্দু দাশগুপ্ত, রাজীব যাদব, অজয় টিজি ও অন্যান্যরা। গান নিয়ে থাকবেন অনুশ্রী-বিপুল, নীতিশ রায়, সুস্মিত বোস, স্বভাব নাটক দল, রঞ্জন প্রসাদ ও 'প্রতিরোধের গান'। আনন্দ পটবর্ধনের তথ্যচিত্র 'জমির কে বন্দী' (প্রিজনার্স অফ কনশেন্স) প্রদর্শিত হবে। 

আপনার/আপনার সংগঠনের উপস্থিতি অনুষ্ঠানকে সমৃদ্ধ করবে।


Contact Us
FB: facebook.com/corkolkata

ABOUT US: Cinema of Resistance (Kolkata Chapter) organizes an annual film festival, called the Kolkata People's Film Festival, in January. Throughout the year, we organize monthly film screenings in Kolkata and also travel in Kolkata and its neighbouring districts (such as North and South 24 Pargnas, Hooghly, Howrah, Birbhum, Nadia etc.) to screen films and hold discussions/dialogues on invitation from non-funded like-minded groups, unions and organizations. We are particularly interested in screening amongst workers, women, children and young adults, civil society groups and folks in general who are allies of people's movements.

To organize a show in your locality please write to cor.kolkata@gmail.com, or leave a message at9163736863. We will get back to you.

To join our initiative, please contact us in the manner above, or simply turn up at one of our screenings for a face-to-face chat!

An Appeal for volunteer contribution to PMARC: Dalit Media Advocacy Initiative!

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An Appeal for volunteer contribution to PMARC: Dalit Media Advocacy Initiative!

 

Dear Friends

Greetings From PMARC !

 

After a longish spell of more than 11 months, we are again compelled by circumstances to make an open appeal for contribution to all of you to sustain the intervention –Dalits Media Advocacy&'Dalit Media Watch'.

 

From last six month we are facing very crucial situations and again we are under huge debt. Our organizational activities, personal and family life are facing huge crises.

 

Without support from you all, civil society, empowered section of Dalits, Dalits national & International networks & platform it is become very hard for us to continue our intervention . It is responsibility of each one of us as an individual to take up this challenge and do as maximum possible contribution from your end.

 

PMARC is regularly monitoring mainstream media for cases related to Dalits and, disseminating them through our E-Group, "Dalits Media Watch". Most of you are aware about this.

 

This purposeful intervention of PMARC was initiated in January, 2007 and, till date thousands of cases has been registered by NHRC alone, besides other commissions. The registration of cases by NHRC implies that FIR is filed and ensures that the victims get immediate relief/compensation and protection and, that the accused are arrested.

 

It is, however, to be noted that NHRC registered 101 complaints of atrocities and discrimination against Dalits on a single day: 14th September, 2014 and, made us complainants on the basis of our news updates.

 

It is a just an example that how our intervention converting in to the positive results in favor of victims of caste base atrocities and discrimination..

 

To sensitize and make aware mainstream media, civil society, mainstream society about the suffering of Dalits due to caste are objectives of PMARC. These results shows impact of our interventions.

 

'Dalit Media Watch'reaching about 3.5 lakh people in 72 countries on daily basis. Here follows a fact sheet of this intervention during past six months (January to June, 2015):

 

 

Sr.No

Details

Jan

Feb

March

April

May

June

1

News Monitoring English

29 Days

25 Days

30 Days

30.Days

31.Days

30 Days

2

News Monitoring Hindi

-

-

-

30. Days

31.Days

30 Days

3

No of English News Paper monitored

10 per day

10 per day

10 per day

10 per day

10 per day

10 per day

4

No of Hindi News Paper Monitored

-

-

-

13 per day

13 per day

15 per day

5

No. of Channels monitored (E+H)

8

8

8

8

8

10

6

No. of News Monitored in English

684

536

852

840

828

832

7

No. of News monitored in Hindi

-

-

-

696

752

792

8

No. of News selected & circulated in Eng. Per day ( Average)

5.89

5.36

7.1

7

6.6

7.53

9

No. of News selected & circulated in Hindi per day ( Average)

-

-

-

5.8

6

6.6

10

Total News disseminated in English

171

134

213

210

207

208

11

Total News Disseminated in Hindi

-

-

-

174

188

198

12

No of issue based films disseminated

-

-

-

16

30

26

13

No of media articles circulated

10

9

10

8

9

10

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Besides, a program of developing profile of Dalit activists – 'Dalit Speaks' was initiated in the year 2011. So far, we have about 130 such video films being used in mass/social movements. These all film are available on You Tube.

 

Since Jan 2007 PMARC also conducts 150 capacity building workshops( formal& informal) with grass-root activists with the idea of equipping them with necessary skills of media advocacy. We have also developed a complete videography unit. Gradually, over the years, this unit evolved into a small Resource Centre for media professionals/activists, researchers, intellectuals, mainstream media and human rights organizations etc.

 

Many more universities national & International, researchers, national & International human rights commission, organizations are using our data base and resources.

 

PMARC become a core resources center for journalists from mainstream media and intellectuals and we are facilitating them on regular basis.

 

Last year on August 2014 in response of our appeal some of concern individuals has came forward and extended a bit support. We are thankful to an alumni from JNU and now IAS from UP cedar officer has rescued PMARC from huge debt partially. He came forward as a huge relief which made us to continue our intervention.

 

 We are thankful to all our friends and well-wishers who extended support and solidarity which has given a bit relief to relieve from some part of debt.

 

We owe all this to our contributors and users. You all made it possible. It is indeed a comradely enterprise.

 

Now, after a longish spell of more than 11 months, we are again compelled by circumstances to make an open appeal of financial support to all of you to sustain the intervention – Dalits Media Advocacy&'Dalit Media Watch'.

 

We also feel the necessity of sharing our recurring monthly expenses:

 

§  Office rent: Rs15,000 ( Including electic bill)

§  Communication/internet: Rs 10,000

§  Travel (volunteers and audio-visual unit): Rs. 20,000

§  Honorarium (04 persons)

§  Other Expense Rs. 10,000

 

Dear friends !

 

PMARC is an execlusive and only platform working on the issue of Dalits Media Advocacy having strong visible oout comes in hand. Therefore We appeal you all to come forward and join us.

 

Please contribute !!!!!!!!

 

 

Warm regards

 

Arun Khote

 

Our Bank details are:

 

 

 

PEOPLES MEDIA ADVOCACY &RESOURCES CENTRE-PMARC

 

A/C NO. 0302010179713

United Bank of India

IFSC code: UTBI0HZG509

HAZRATGANJ, Lucknow (UP) INDIA

 

 

 

KALPANA BHADRA

 

CORPORATION BANK

A/C NO. 067600101000452

IFSC CODE: CORP0000676


ALAMBAGH BRANCH,
 LUCKNOW (UP) INDIA

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

.Arun Khote
On behalf of
Dalits Media Watch Team
(An initiative of "Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC")

Pl visit On : 
https://jansanskaran.wordpress.com
https://www.facebook.com/DalitsMediaWatch
 

...................................................................
Peoples Media Advocacy & Resource Centre- PMARC has been initiated with the support from group of senior journalists, social activists, academics and  intellectuals from Dalit and civil society to advocate and facilitate Dalits issues in the mainstream media. To create proper & adequate space with the Dalit perspective in the mainstream media national/ International on Dalit issues is primary objective of the PMARC.

सावधान, सरकार आपके हर फ़ोन, मैसेज, ईमेल, नेट ब्राउिज़ंग की जासूसी कर रही है!

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सावधान, सरकार आपके हर फ़ोन, मैसेज, ईमेल, नेट ब्राउिज़ंग की जासूसी कर रही है!

सत्यम

"बेशक यह जानने का कोई तरीका नहीं था कि किसी निश्चित क्षण में आप पर नज़र रखी जा रही है या नहीं। विचार पुलिस कितने-कितने समय पर, या किस प्रणाली पर, किसी व्यक्ति की निगरानी करती थी इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता था। यह भी हो सकता था कि वे हर समय हर किसी पर नजर रखते थे। लेकिन यह तो पक्का था कि वे जब चाहें तब आपकी निगरानी शुरू कर सकते थे। आपको यह मानते हुए जीना और मरना था कि आपकी हर आवाज़ सुनी जा रही है, और अँधेरे के सिवा, हर हरकत पर नज़र रखी जा रही है।"

NSA-Big-Brother-is-Watching-You1अंग्रेज़ लेखक जॉर्ज ऑरवेल की इन पंक्तियों को समाजवादी राज्यों के कथित सर्वसत्तावाद पर चोट करने के लिए बार-बार उद्धृत किया जाता रहा है। मगर सच तो यह है कि ये पंक्तियाँ आज की पूँजीवादी दुनिया की सच्चाई को बयान करती हैं। ऑरवेल ने अपने उपन्यास '1984'में "बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू"की जो तस्वीर पेश की थी वह आज पूँजीवादी देशों पर पूरी तरह लागू होती है। पूरी दुनिया के 'बिग ब्रदर'बनने की कोशिश करते अमेरिका ही नहीं, यूरोप के ज़्यादातर मुल्कों में भी सरकारें बुर्जुआ 'प्राइवेसी'के तमाम उसूलों को धता बताते हुए अपने नागरिकों के निजी जीवन में ताक-झाँक और दखलंदाज़ी करती रहती हैं। आम धारणा के ठीक उलट हकीकत यह है कि पश्चिम के पूँजीवादी देशों में निजी ज़िन्दगी में राज्य का दखल बढ़ता गया है। एक-एक नागरिक का पूरा रिकार्ड सरकारी एजेंसियों के पास होता है और उनकी गतिविधियों पर राज्य हर समय नज़र रखे रहता है। यह सारा कुछ कहने को तो नागरिकों की सुरक्षा के नाम पर होता है लेकिन इसका पहला शिकार नागरिक स्वतंत्रताएँ ही होती हैं। किसी भी तरह की व्यवस्था विरोधी गतिविधियाँ, रैडिकल विचार रखने वाले लोग, परिवर्तनवादी राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी विशेष रूप से इनके निशाने पर होते हैं। अमेरिका में 11 सितंबर 2001 के हमले के बाद आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर तो सभी देशों की सरकारों को मानो नागरिक स्वतंत्रताओं में जब-जैसे चाहे कतर-ब्योंत करने का लायसेंस मिल गया। अमेरिका में कुख्यात पैट्रियट ऐक्ट के तहत बुकस्टोर्स को ऐसे निर्देश दिये गये थे कि वे ख़ास तरह की किताबें और पत्रिकाएँ ख़रीदने वालों की रिपोर्ट दें। अमेरिकी संघीय खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई को किसी भी नागरिक की तलाशी लेने और आपराधिक मंशा का कोई साक्ष्य दिये बिना उसकी सभी गतिविधियों का ब्योरा और उस्तावेज़ हासिल करने के लगभग असीमित अधिकार दे दिये गये हैं।

भारतीय शासक अपने नागरिकों की जासूसी करने के मामले में अमेरिकी प्रशासन के काफ़ी मुरीद रहे हैं और अमेरिकी एजेंसियाँ इस मामले में उनकी मदद भी करती रही हैं। चाहे फोन टैपिंग का मामला हो या कुछ साल पहले पंजाब में बुकसेलर्स को ख़रीदारों की जासूसी करने के निर्देश देने की घटना हो।

लेकिन भारत सरकार सेंट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम (सी.एम.एस.) के ज़रिये जो तैयारी कर रही है उसने देश के नागरिकों की एक-एक निजी गतिविधि पर नज़र रखने के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। सी.एम.एस. के तहत देश में टेलिफोन और इंटरनेट से होने वाले समस्त संचार का सरकार और इसकी एजेंसियों द्वारा विश्लेषण किया जायेगा। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह है कि हम फोन पर जो भी बात करेंगे या मैसेज भेजेंगे, या इंटरनेट पर हम जो भी ईमेल, फेसबुक पोस्ट, ब्लॉग आदि लिखेंगे या जो भी वेबसाइट देखेंगे उसे सरकार की केन्द्रीय निगरानी प्रणाली द्वारा देखा और सुना जायेगा।

यूपीए सरकार द्वारा स्थापित सी.एम.एस. कुछ राज्यों में काम करना शुरू कर चुका है और मोदी सरकार इसे जल्द से जल्द देश भर में लागू करने के लिए काम कर रही है। टेलिकॉम एन्फोर्समेंट, रिसोर्स एंड मॉनिटरिंग (ट्रेम) और सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलिमेटिक्स (सी.डॉट) ने सी.एम.एस. का ढाँचा तैयार किया है और इसका संचालन इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को सौंपा गया है। सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन क़ानून 2008 के द्वारा सरकार ई-जासूसी का अधिकार अपनी एजेंसियों को दे चुकी है और सी.एम.एस. के तहत केन्द्रीय तथा क्षेत्रीय डेटाबेस बनाये जायेंगे जो केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों को सूचनाओं के इंटरसेप्शन तथा निगरानी में मदद करेंगे। अब टेलिकॉम कम्पनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं की मदद लिये बिना ही सरकारी एजेंसियाँ किसी भी नंबर या ईमेल खाते की सारी जानकारी सीधे हासिल कर सकती हैं।

सी.एम.एस. की शुरुआती लागत लगभग 400 करोड़ बतायी गयी थी जो अब बढ़कर 1000 करोड़ पार कर चुकी है। यह टेलिफोन कॉल इंटरसेप्शन सिस्टम (टीसीआईएस) से भी जुड़ा होगा जो वॉयस कॉल, एसएमएस-एमएमएस, फैक्स, सीडीएमए, वीडियो कॉल, जीएसएम और 3जी नेटवर्कों की निगरानी करने में मदद करेगा। जिन एजेंसियों की सी.एम.एस. तक सीधी पहुँच होगी उनमें रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ), केन्द्रीय खुफिया ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए), केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय समेत कुल नौ एजेंसियाँ शामिल हैं। इसके अलावा, रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) 'नेत्र'नाम से एक और ख़ुफ़िया तंत्र विकसित कर रहा है जो मुख्यतः इंटरनेट की जासूसी करेगा। इसके बारे में कोई भी ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया गया है।

दरअसल, भारतीय राज्य द्वारा नागरिकों की जासूसी कोई नयी बात नहीं है। किसी भी प्रकार की जनपक्षधर राजनीति से जुड़े लोग जानते हैं कि उनकी चिट्ठियों को खोलकर पढ़ा जाता है, टेलिफोन सुने और रिकॉर्ड किये जाते हैं, उनके घरों-दफ्तरों पर निगरानी रखी जाती है, पीछा किया जाता है। अंग्रेज़ों के बनाये तमाम क़ानूनों की तरह भारत सरकार ने 1885 के इंडियन टेलिग्राफ़ ऐक्ट के उस प्रावधान को भी बनाये रखा है जिसके तहत किसी भी नागरिक के टेलिग्राम या टेलिफोन को टैप किया जा सकता था। पीयूसीएल की एक याचिका के बाद उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर 1999 में सरकार ने इस क़ानून में सुधार कर कुछ बन्दिशें जोड़ीं लेकिन उनका कोई ख़ास मतलब नहीं है। अमेरिका में फोन टैप करने का आदेश केवल एक जज दे सकता है और वह भी तब जब उसे यह भरोसा हो जाये कि राज्य के पास ऐसा करने के लिए क़ानूनी आधार मौजूद है। जबकि भारत में कोई भी नौकरशाह या पुलिस अधिकारी इसका आदेश दे सकता है। इंग्लैण्ड में भी फोन टैप करने का आदेश नौकरशाहों को है लेकिन इसकी समीक्षा एक स्वतंत्र ऑडिटर और एक न्यायिक ट्रिब्यूनल द्वारा की जाती है। भारत में ऐसे आदेश की समीक्षा भी दूसरे नौकरशाहों यानी आदेश देने वाले अफसर के समकक्षों द्वारा ही की जाती है। दुनिया के दूसरे देशों में गम्भीर अपराधों या सुरक्षा को गम्भीर ख़तरे की स्थिति में भी ऐसे आदेश देने का प्रावधान है, जबकि भारत में आयकर विभाग भी फोन टैप करवा सकता है। ज़मीनी सच्चाई तो यह है कि एक थानेदार भी आपके फोन टैप करवा सकता है। हालाँकि, बढ़ते सामाजिक असन्तोष और पूँजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट के चलते पश्चिम के देशों में भी लम्बे संघर्षों से हासिल किये गये नागरिक अधिकार लगातार छीने जा रहे हैं और इसीलिए वहाँ भी ऐसे खुफ़िया तंत्र विकसित किये गये हैं जो इन क़ानूनी बन्दिशों से किनारा करके बेरोकटोक नागरिकों की जासूसी कर सकें। भारत में तो नागरिक स्वतंत्रताएँ पहले ही बहुत कम हैं और यहाँ नागरिक अधिकार आन्दोलन भी बेहद कमज़ोर है। ऐसे में सी.एम.एस. जैसे खुफ़िया तंत्र के विरुद्ध कोई प्रभावी आवाज़ तक नहीं उठ रही है।

सी.एम.एस. के पूरी तरह सक्रिय होने के बाद क्या होगा इसका अनुमान लगाने के लिए मुम्बई पुलिस द्वारा पिछले साल शुरू किये गये 'सोशल मीडिया हब'के काम से लगाया जा सकता है। इस सेंटर में 20 पुलिस अफसर तैनात हैं जो फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल नटवर्किंग साइटों पर नज़र रखते हैं। पुलिस प्रवक्ता सत्यनारायण चौधरी के मुताबिक ये अधिकारी ख़ास तौर पर इस बात पर नज़र रखेंगे कि नौजवानों के बीच आजकल किन मुद्दों पर चर्चाएँ चल रही हैं और उनका मूड क्या है और इसी के अनुसार क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के इन्तज़ाम किये जायेंगे। कहने की ज़रूरत नहीं कि सभी परिवर्तनकामी आन्दोलनों और जनसंगठनों पर इसकी विशेष निगाह रहेगी और राजनीतिक बहसों तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए इसका इस्तेमाल किया जायेगा। राजधानी दिल्ली में हाल में कई ऐसे धरना-प्रदर्शन हुए जिनकी एकाध दिन पहले योजना बनायी गयी और केवल फोन या फेसबुक के ज़रिये भाग लेने वालों को इसकी सूचना दी गयी, मगर सूचना न देने के बावजूद पुलिस की स्पेशल ब्रांच से उनके पास कार्यक्रम की जानकारी लेने के लिए फोन आने शुरू हो गये। ज़ाहिर है कि दिल्ली पुलिस बिना घोषणा के ही सोशल मीडिया की निगरानी शुरू कर चुकी है। बाल ठाकरे की मौत के बाद मुम्बई को ठप कर देने की आलोचना करने वाली एक फेसबुक पोस्ट के कारण ठाणे की दो युवतियों की गिरफ्तारी आने वाले दिनों का एक संकेत है।

प्रौद्योगिकी की बढ़ती ताकत ने सत्ता के लिए समाज की हर गतिविधि पर नज़र रखना और भी आसान कर दिया है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी दैत्याकार कंपनियाँ इंटरनेट पर लोगों की हर गतिविधि का ब्योरा जुटाने और एक-एक नेट प्रयोक्ता की प्रोफ़ाइल तैयार करने में लगी हुई हैं जिनका इस्तेमाल कारोबार से लेकर विचारों के नियंत्रण और दमन तक किया जा सकता है।

survellianceकुछ वर्ष पहले यूरोपीय संसद की एक जाँच समिति ने एक वर्ष की जाँच-पड़ताल के बाद इस बात की पुष्टि की थी कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश लम्बे समय से दुनिया भर में ई-मेल, फैक्स और फोन सन्देशों को चोरी-छिपे पढ़ते और सुनते रहे हैं। 'एकेलॉन'नामक यह अति गोपनीय विश्वव्यापी जासूसी तंत्र कई दशकों से इस हरकत में लगा हुआ है। इसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड शामिल हैं। इस भण्डाफोड़ के बाद भी अमेरिका बेशर्मी के साथ झूठ बोलता रहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर 11 सितंबर की घटना हुई और इस मामले पर सभी ने चुप्पी साध ली। मगर यह तंत्र पहले से भी ज़्यादा मुस्तैदी से अपना काम कर रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही एकेलॉन का जाल फैलना शुरू हो गया था। संचार माध्यमों के उन्नत होते जाने के साथ अमेरिका ने इसमें जमकर पैसा लगाया ताकि ई-मेल, फैक्स आदि को भी जासूसी के दायरे में लाया जा सके। अभी यूरोपीय देशों में इसकी मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि तीसरी दुनिया के देशों में भी एकेलॉन का अदृश्य जाल ज़रूर फैला होगा। अमेरिका ने सहयोगी देशों की मदद से अनेक देशों में अपने खुफ़िया केन्द्र स्थापित किये हैं जहाँ से वह यूरोप और अमेरिका में कहीं से कहीं भी भेजे जाने वाले सभी ई-मेल और फैक्स संदेशों को बीच में ही पढ़ सकता है और फोन कॉलों को सुनकर रिकार्ड कर सकता है। ऐसे खुफ़िया केन्द्र किसी न किसी छद्म नाम से काम करते हैं। प्रायः किसी तकनीकी संस्थान या रेडियो स्टेशन या ऐसे ही आवरण का इस्तेमाल किया जाता है। ब्रिटेन जैसे देशों में ख़ुद सरकार की मदद से ऐसा किया जा रहा है।

अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई द्वारा चलाये जा रहे कार्निवोर (मांसभक्षी) नामक तंत्र के ज़रिए अमेरिका में किसी नागरिक द्वारा भेजे या प्राप्त किये गये समस्त ई-मेल सन्देश पढ़े जा सकते हैं, वह कौन सी वेबसाइट खोलता है, किस चैट रूम में जाता है, यानी इंटरनेट पर उसकी एक-एक कार्रवाई को बाकायदा दर्ज किया जा सकता है। अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए, जिसकी तर्ज पर भारत में एनआईए बनाया गया है) 'प्रिज़्म'नाम से ऐसा ही ख़ुफ़िया तंत्र चलाती है। सी.एम.एस. को प्रिज़्म की ही तर्ज पर खड़ा किया गया है।

अन्यायी शासक वर्ग हमेशा ही इस आशंका से भयाक्रान्त रहते हैं कि दबे-कुचले लोग एक दिन एकजुट हो जायेंगे और उनके शासन को उखाड़कर फेंक देंगे। सभी अत्याचारी शासक जनता से कटे होते हैं और उन्हें पता नहीं होता कि लोगों के दिलो-दिमाग में क्या चल रहा है। इसीलिए सारी ही शोषक सत्ताएँ लम्बा-चौड़ा ख़ुफ़िया तंत्र खड़ा करती रही हैं ताकि किसी भी बग़ावत को पहले ही कुचल दिया जाये। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि जब जनता जाग उठती है तो सारे ख़ुफ़िया तंत्र और सारी टेक्नोलॉजी धरी की धरी रह जाती है और शोषकों का तख़्ता पलट दिया जाता है।

 

मज़दूर बिगुलजून 2015



अवतार सिंह ‘पाश’ की दो कविताएँ

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अवतार सिंह 'पाश'की दो कविताएँ

 

अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये

आँख की पुतली में 'हाँ'के सिवाय कोई भी शब्द

अश्लील हो

और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है

 

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़

जिसमें उमस नहीं होती

आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है

गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है

और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

 

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम

हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा

हम तो देश को समझे थे क़ुर्बानी-सी वफ़ा

लेकिन 'गर देश

आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है

'गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है

तो हमें उससे ख़तरा है

 

'गर देश का अमन ऐसा होता है

कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह

टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे

कीमतों की बेशर्म हँसी

कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो

तो हमें अमन से ख़तरा है

 

'गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है

कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा

कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी

कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा

अक़्ल, हुक़्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी

मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।

goyaplain

कातिल

 

यह भी सिद्ध हो चुका है कि

इंसानी शक्ल सिर्फ चमचे-जैसी ही नहीं होती

बल्कि दोनों तलवारें पकड़े लाल आंखोंवाली

कुछ मूर्तियां भी मोम की होती हैं

जिन्हें हल्का-सा सेंक देकर भी कोई

जैसे सांचे में चाहे ढाल सकता है

 

लेकिन गद्दारी की सजा तो सिर्फ एक ही होती है

 

मैं रोने वाला नहीं, कवि हूं

किस तरह चुप रह सकता हूं

मैं कब मुकरता हूं कि मैं कत्ल नहीं करता

मैं कातिल हूं उनका जो इंसानियत को कत्ल करते हैं

हक को कत्ल करते हैं

सच को कत्ल करते हैं

देखो, इंजीनियरो! डॉक्टरो! अध्यापको!

अपने छिले हुए घुटनों को देखो

जो कुछ सफेद या नीली दहलीजों पर

टेकने से छिले हैं

अपने चेहरे की ओर देखो

जो केवल एक याचना का बिंब है

हर छिमाही दफ़्तरों में रोटी के लिए

गिड़गिड़ाता बिंब!

हम भिखारियों की कोई सुधरी हुई किस्म हैं

लेकिन फिर भी हर दर से हमें दुत्कार दिया जाता है

अपनी ही नजरों को अपनी आंखों से मिलाओ

और देखो, क्या यह सामना कर सकती हैं?

मुझे देशद्रोही भी कहा जा सकता है

लेकिन मैं सच कहता हूं, यह देश अभी मेरा नहीं है

यहां के जवानों या किसानों का नहीं है

यह तो केवल कुछ ही 'आदमियों'का है

और हम अभी आदमी नहीं हैं, बड़े निरीह पशु हैं

हमारे जिस्म में जोंकों ने नहीं

पालतू मगरमच्छों ने गहरे दांत गड़ाए हैं

उठो, अपने घर के धुओं!

खाली चूल्हों की ओर देखकर उठो

उठो काम करनेवाले मजदूरो, उठो!

खेमों पर लाल झंडे लहराकर

बैठने से कुछ न होगा

इन्हें अपने रक्त की रंगत दो

(हड़तालें तो मोर्चे के लिए सिर्फ कसरत होती हैं)

उठो मेरे बच्चो, विद्यार्थियो, जवानो, उठो!

देखो मैं अभी मरा नहीं हूं

यह एक अलग बात है कि मुझे और मेरे एक बच्चे को

जो आपका भी भाई था

हक के एवज में एक जरनैली सड़क के किनारे

गोलियों के पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है

आपने भी यह 'बड़ी भारी

पुलिस मुठभेड़'पढ़ी होगी

और आपने देखा है कि राजनीतिक दल

दूर-दूर से मरियल कुत्ते की तरह

पल दो पल न्यायिक जांच के लिए भौंके

और यहां का कानून सिक्के का है

जो सिर्फ आग से ही ढल सकता है

भौंकने से नहीं

क्यों झिझकते हो, आओ उठें…

मेरी ओर देखो, मैं अभी जिंदा हूं

लहरों की तरह बढ़ें

इन मगरमच्छों के दांत तोड़ डालें

लौट जाएं

फिर उठें, और जो इन मगरमच्छों की रक्षा करता है

हुक्म देने के लिए

उस पिलपिले चेहरे का मुंह खुलने से पहले

उसमें बन्दूक की नाली ठोंक दें।

 
 

मज़दूर बिगुलअक्‍टूबर  2013

 

इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

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इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

तपीश

आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व 8 अक्टूबर 1965 को इण्डोनेशिया में वहाँ की सेना द्वारा पीकेआई (इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी) के विरुद्ध की गयी सैन्य कार्रवाई में 10 लाख से अधिक कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों को क़त्ल कर दिया गया था और 7 लाख से अधिक को जेलों में ठूस दिया गया था। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले सैन्य जनरल सुहार्तो ने मार्च 1966 में राष्ट्रपति सुकर्ण का तख़्तापलट किया और सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली।

इण्डोनेशिया में हुए 20वीं सदी के इस जघन्यतम नरसंहार पर कॉरपोरेट मीडिया और विश्व के तमाम पूँजीवादी देशों द्वारा अपनायी गयी चुप्पी पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे दस्तावेज़ हैं जिनसे पता चलता है कि यह सब कुछ इण्डोनेशियाई सेना और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मिलीभगत से हुआ था।

पीकेआई (इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी) की स्थापना 1920 में हुई थी और जल्द ही यह विश्व की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों की क़तारों में शामिल हो गयी। इण्डोनेशिया के मज़दूरों-किसानों में इसका व्यापक असर था और साम्राज्यवाद के विरुद्ध यह पार्टी सशस्त्र संघर्ष की अगुआई कर चुकी थी। वर्ष 1965 तक इसके 35 लाख सदस्य थे और अगर इसमें मज़दूरों, किसानों, छात्रों-युवाओं, महिलाओं आदि के सम्बद्ध संगठनों की सदस्य संख्या भी जोड़ दी जाये तो यह 3 करोड़ तक पहुँचती थी, उस समय इण्डोनेशिया की कुल आबादी 11 करोड़ थी।

indonesia2-popupइण्डोनेशिया में उभर रही कम्युनिस्ट ताक़त से अमेरिका काफ़ी बेचैन था। वह पहले ही लाओस, कम्बोडिया और वियतनाम युद्ध में बुरी तरह फँसा हुआ था और वियतनाम के कम्युनिस्ट प्रतिरोध के सामने ख़ुद को विवश महसूस कर रहा था। उधर चीन में कम्युनिस्ट सत्ता मज़बूत हो रही थी और उत्तर कोरिया में भी कम्युनिस्ट सत्ता में आ चुके थे। अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी का 1965 में यह मूल्यांकन बन चुका था कि यदि कुछ न किया गया तो दो से तीन वर्षों के भीतर इण्डोनेशिया की सरकार कम्युनिस्टों के हाथों में आ जायेगी। इधर इण्डोनेशिया के भीतर भी वर्ग संघर्ष तीखा हो रहा था। राष्ट्रपति सुकर्ण भूमि सुधारों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने में टालमटोल का रवैया अपना रहे थे। कम्युनिस्टों ने 1959 के बटाईदार क़ानून और 1960 के मूल कृषि क़ानून के आधार पर किसानों से अपील की कि वे स्वयं ही क़ानून लागू करने के लिए आगे आयें। इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण इलाक़ों में किसानों ने भूमि अधिकार को लेकर लामबन्दियाँ शुरू कर दी।

ग़ौरतलब तथ्य यह है कि सेना के अधिकांश जनरल सामन्ती पृष्ठभूमि से आते थे और कम्युनिस्टों से बेहद घृणा करते थे। वर्ष 1965 में इन जनरलों ने 'काउंसिल ऑफ़ जनरल्स'नाम से एक कार्यसमूह का गठन किया और जनरल यानी की अध्यक्षता में हुई बैठक में देश की राजनीतिक स्थिति पर चिन्ता ज़ाहिर की। इन उच्च सैन्य जनरलों को अमेरिका की सरपरस्ती हासिल थी। वे सुकर्ण को अपदस्थ करने और कम्युनिस्टों को ख़त्म करने की योजना बना चुके थे और अब उन्हें केवल सही मौक़े का इन्तज़ार था। जल्द ही इण्डोनेशिया में सरकार का तख़्तापलट किये जाने की अफ़वाहें फैलने लगीं। सेना के निचली पाँतों के अफ़सर जो सुहार्तो के प्रति वफ़ादारी रखते थे भड़कावे की इस कार्रवाई  की चपेट में आ गये और उन्होंने 30 सितम्बर 1965 को कुछ शीर्ष जनरलों को गिरफ्तार कर लिया। इस दौरान हुई मुठभेड़ में एक जनरल मारा गया। सेना जिस मौक़े का इन्तज़ार कर रही थी, उसे वह मौक़ा मिल गया। तख़्तापलट की इस कोशिश का सारा दोष पीकेआई के मत्थे मढ़ दिया गया और जल्द ही पूरे देश में कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों के सफाये का भयानक ख़ूनी अभियान शुरू कर दिया गया।

महीनों तक पूरे इण्डोनेशिया में सेना के दस्ते, अपराधियों के गिरोह और जुनूनी प्रचार से भड़काये गये मुस्लिम कट्टरपंथियों के झुण्ड कम्युनिस्टों और उनसे किसी भी तरह की सहानुभूति रखने वालों का बर्बरता से क़त्लेआम करते रहे। औरतों, बच्चों, बूढ़ों किसी को नहीं बख्शा गया। प्रगतिशील विचार रखने वाले शिक्षकों, लेखकों, कलाकारों तक को मौत के घाट उतार दिया गया। लोगों के सिर धड़ से अलग करके बांस पर टाँगकर घुमाये गये। रेडक्रॉस इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार लाशों के कारण महीनों तक कई इलाकों में नदियों का पानी लाल रहा और महामारी फैलने का ख़तरा मंडराता रहा। अब ऐसे दस्तावेज़ सामने आ चुके हैं जिनसे साफ है कि सीआईए ने कम्युनिस्टों और उनके हमदर्दों की सूचियाँ मुहैया करायी थीं। लेकिन इस आधी सदी के दौरान इतिहास के इस बर्बरतम जनसंहार पर पर्दा डालकर रखा गया है।

डिस्कवरी और हिस्ट्री चैनल जैसे साम्राज्यवादी भोंपू जो आये दिन स्तालिन और माओ को हत्यारा और तानाशाह घोषित करते रहते हैं वे कभी इस भयानक घटना का ज़िक्र भी नहीं करते। इण्डोनेशिया की साम्राज्यवाद परस्त हुकूमतों ने आधी सदी तक इस घटना का उल्लेख करने तक को अपराध बना दिया था। इसके बारे में न किसी अखबार में लिखा जा सकता था और न ही इसकी जाँच की माँग की जा सकती थी। लेकिन लाखों कम्युनिस्टों का ख़ून धरती में जज़्ब नहीं रह सकता। इण्डोनेशिया में इतिहास के इस ख़ूनी दौर से पर्दा उठने लगा है, ख़ामोशी टूटने लगी है।

indonesiaजनसमर्थन और सांगठनिक विस्तार के नज़रिये से देखा जाये तो इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बेहद मज़बूत पार्टी थी लेकिन विचारधारात्मक तौर पर वह पहले ही ख़ुद को नख-दन्तविहीन बना चुकी थी। असल में 1950 के दशक में ही उसने समाजवादी लक्ष्य हासिल करने का शान्तिपूर्ण रास्ता चुना। वर्ष 1965 तक उसने न सिर्फ़ अपने सशस्त्र दस्तों को निशस्त्र किया बल्कि अपना भूमिगत ढाँचा भी समाप्त कर दिया। विचारधारा के स्तर पर वह पूरी तरह सोवियत संशोधनवाद के साथ जाकर खड़ी हो गयी। उसने इण्डोनेशियाई राज्यसत्ता की संशोधनवादी व्याख्या प्रस्तुत की और दावा किया कि यहाँ के राज्य के दो पहलू हैं – एक प्रतिक्रियावादी और दूसरा प्रगतिशील। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इण्डोनेशियाई राज्य का प्रगतिशील पहलू ही प्रधान पहलू है। यह बात पूरी तरह ग़लत है और अब तक के क्रान्तिकारी इतिहास के सबक़ों के खि़लाफ़ है। राज्य हमेशा से ही जनता के ऊपर बल प्रयोग का साधन रहा है। शोषकों के हाथों में यह एक ऐसा उपकरण है जिसके ज़रिये वह शोषणकारी व्यवस्थाओं का बचाव करते हैं। पूँजीवाद के अन्तर्गत प्रगतिशील पहलू वाले राज्य की बात करना क्रान्ति के रास्ते को छोड़ने के बराबर है। यह राजनीतिक लाइन पहले भी इतिहास में असफल रही है और एक बार फिर उसे ग़लत साबित होना ही था। लेकिन इस ग़लत राजनीतिक लाइन की क़ीमत थी 10 लाख कम्युनिस्टों की मौत और लाखों को काल कोठरी।

सीपीएम जैसे दोगले कम्युनिस्ट तो इस घटना को भूलकर उसी इंडोनेशियाई कम्पनी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में पूँजी निवेश करा रहे थे जिसने इस जनसंहार में मदद की थी। लेकिन सच्चे कम्युनिस्टों को अपने लाखों कम्युनिस्ट भाई-बहनों के क़त्लेआम को कभी भूलना नहीं चाहिए। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को बहे हुए ख़ून के एक-एक क़तरे का हिसाब चुकाना ही होगा।

 

मज़दूर बिगुलजून 2015


सलवा जुडूम का नया संस्करण

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सलवा जुडूम का नया संस्करण

श्वेता

अभी हाल ही में 5 मई को छत्तीसगढ़ के दांतेवाडा ज़िले में महेन्द्र कर्मा के बेटे छवीन्द्र कुमार ने सलवा जुडूम की ही तर्ज पर 'विकास संघर्ष समिति'की घोषणा की। राज्य द्वारा समर्थित और केन्द्र सरकार द्वारा पोषित 2005 में सलवा जुडूम की शुरुआत करते समय महेन्द्र कर्मा ने नक्सलवादियों से निपटने की जो बातें की थीं, कुछ उसी तरह की बातें उनके बेटे ने सलवा जुडूम के नये संस्करण यानी 'विकास संघर्ष समिति'की घोषणा करते समय फिर दोहरायी हैं। वैसे क्या इसे महज़ एक इत्तेफ़ाक समझा जाये कि यह घोषणा नरेन्द्र मोदी के दांतेवाड़ा दौरे के चार दिन पहले की गयी थी! दरअसल 9 मई को प्रधानमन्त्री मोदी ने विकास की लच्छेदार बातों की आड़ में कॉरपोरेटों को मालामाल करने की अपनी सरकार और पार्टी की नीति को आगे बढ़ाते हुए दांतेवाड़ा के एक गाँव में इस्पात प्लाण्ट समेत एक अन्य परियोजना का उद्घाटन किया। ज़ाहिर है इन तमाम परियोजनाओं को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ने और उनके किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को कुचलने की ज़रूरत होगी और इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए नक्सलवाद से निपटने का बहाना बनाकर सलवा जुडूम को एक नये रूप में प्रस्तुत किया गया है।

salwa_judum_1ग़ौरतलब है कि वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार और टाटा तथा एस्सार जैसी कम्पनियों के बीच विकास परियोजनाओं को लेकर हुए समझौते के कुछ दिन बाद ही सलवा जुडूम की भी शुरुआत हुई थी। उस समय भी इन परियोजनाओं के लिए कम्पनियों को ज़मीन मुहैया कराने के लिए राज्य और केन्द्र सरकार ने जमकर सलवा जुडूम का सहारा लिया। सरकारों ने मीडिया के ज़रिये इस झूठ को ख़ूब ज़ोर-शोर से उछाला कि यह नक्सलवाद से निपटने का स्थानीय जनता का स्वतःस्फूर्त आन्दोलन है। बताया गया कि सलवा जुडूम (गोण्डी भाषा में इसका अर्थ शान्ति के लिए अभियान है) स्थानीय लोगों को नक्सलवाद के ख़तरे से वाकि‍फ कराने और उससे निपटने का एक शान्तिपूर्ण जनजागरण अभियान है पर वास्तव में यह जनजागरण अभियान स्थानीय लोगों को उनकी ज़मीन से उजाड़ने का एक बर्बर उपक्रम था। सलवा जुडूम के लिए बाकायदा राज्य सरकार ने 6500 स्पेशल पुलिस अफ़सरों (एसपीओ) की तैनाती की। इनमें से अधिकतर स्थानीय आदिवासी बेरोज़़गार और नाबालिग युवा थे जिन्हें पैसों का झाँसा देकर अपने ही लोगों के खि़लाफ़ लड़ने के लिए तैयार किया गया। इन्हें सुरक्षा बलों द्वारा विशेष सैन्य प्रशिक्षण देने के साथ-साथ हथियारों से लैस किया गया। स्थानीय लोगों पर 'नक्सली'होने का लेबल चस्पाँ करके एसपीओ सुरक्षा बलों के साथ मिलकर उन्हें गिरफ्तार करती। यही नहीं सभी क़ानूनों को ताक पर रखकर उनके घर जला दिये गये, उन्हें बर्बर यातनाएँ दी गयीं, उनकी हत्या की गयी और उनके परिवार की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। अपनी ज़मीन से उजाड़कर इन स्थानीय लोगों को सलवा जुडूम कैम्पों में जाने के लिए मजबूर किया गया। इन कैम्पों की स्थितियाँ जेलों की तरह ही बेहद अमानवीय थीं जहाँ उजाड़े गये लोगों से बेगार कराया जाता। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2005-2009 के बीच 640 गाँवों से लगभग 3.5 लाख स्थानीय लोगो को उजाड़ा गया। करीब 1 लाख लोग अपने गाँव छोड़कर आन्ध्र प्रदेश चले गये।

कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जनवादी संगठनों के हस्तक्षेप के बाद वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन इसके बाद भी सलवा जुडूम अभी तक नये-नये रूपों में जारी है। वर्ष 2009 के बाद यह 'ऑपरेशन ग्रीन हण्ट'के नाम से जारी रहा जिसे कोया कमाण्डों के ज़रिये संचालित किया गया। महेन्द्र कर्मा के बेटे छवीन्द्र कुमार द्वारा 'विकास संघर्ष समिति'की घोषणा भी इसी निरन्तरता की ही एक कड़ी है। सलवा जुडूम के इन सभी रूपों को सरकारी संरक्षण के अलावा उद्योगपतियों, स्थानीय ठेकेदारों की सरपरस्ती भी प्राप्त है। यह अनायास नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की संख्या 21 कम्पनी और बढ़ायी गयी है। सरकारें विकास के नाम पर जितने बड़े पैमाने पर लोगों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रही है उसके परिणामस्वरूप उठने वाले जन असन्तोषों से निपटने की तैयारी के लिए ही लगातार पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में भी बढ़ोतरी की कवायदें की जा रही हैं। दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की हालिया बढ़ोतरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

यहाँ एक और बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। आमतौर पर देखा जाता है कि विकास के नाम पर उजड़ने वाले लोगों के पक्ष में खड़े होने वाली ताक़तों को सरकारें तथा राज्यसत्ता के तमाम अंग विकास विरोधी घोषित करते हैं। कॉरपोरेट मीडिया भी इसी सुर में सुर मिलाकर इस धारणा के पक्ष में जनमत निर्मित करता है। ज़ाहिरा तौर पर पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों के विकास करने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर स्वतन्त्र उत्पादकों को उजाड़ता है और उन्हें सामूहिक श्रम की व्यवस्था के अन्तर्गत ले आता है। हालाँकि सामूहिक श्रम की व्यवस्था होते हुए भी चूँकि निजी सम्पत्ति की व्यवस्था मौजूद रहती है इसलिए मेहनतकशों द्वारा सामूहिक तौर पर सृजित सम्पदा का संकेन्द्रण निजी हाथों में होता चला जाता है। इस तरह व्यापक मेहनतकश आबादी के हिस्से विकास की जूठन ही पहुँच पाती है। सवाल विकास के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का है ही नहीं। मुख्य सवाल तो यह है कि विकास निजी हितों के लिए हो रहा है या बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के हितों को ध्यान में रखकर हो रहा है। पूँजीवाद में निजी हितों के लिए होने वाले विकास की क़ीमत अक्सर ही मेहनतकशों को चुकानी पड़ती है। सलवा जुडूम उसी का ही एक उदाहरण है।

 

मज़दूर बिगुलजून 2015


मुम्बई में 100 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन?

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मुम्बई में 100 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन?

विराट

Source: Express Photo by Dilip Kagda)

Source: Express Photo by Dilip Kagda)

मुम्बई के मलाड़ पश्चिम के मालवानी इलाके में 17 जून की सुबह से लेकर 21 जून की शाम तक ज़हरीली शराब के कारण करीब 100 लोगों की जान चली गयी। घटना होने के बाद 3 लोगों को गिरफ्तार किया गया और 8 पुलिसकर्मियों को सस्पेंड किया गया, हालाँकि यहाँ चलने वाले अवैध ठेकों के बारे में पहले कई बार शिकायत की जा चुकी थी पर पुलिस की साँठगाँठ से इनका कारोबार जारी था। इस हादसे का शिकार लगभग सभी लोग मेहनत-मशक्कत करके गुज़र-बसर करने वाले हैं। पूरी बस्ती में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है।

क्या यह कोई पहला ऐसा मामला है जब जहरीली शराब पीने के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें गयी हैं? रोज़-ब-रोज़ होने वाली मौतों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो यह पहली ऐसी घटना नहीं है जब जहरीली शराब पीने से इतनी बड़ी संख्या में गरीबों की जान गयी है। मुम्बई के ही विक्रोली में 2004 में 100 से अधिक लोगों की, उत्तरप्रदेश में पहले सितंबर 2009 और फिर इसी साल जनवरी में दोनों बार को मिलाकर 70 से अधिक लोगों की इस तरह से मौत हुई, 2011 में पश्चिम बंगाल में लगभग 170, 2009 में गुजरात में 100 से अधिक लोगों की जहरीली शराब पीने से मौतें हुईं। हर बार प्रशासन का रुख एक जैसा ही रहा है; घटना के बाद कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जाता है, कुछ अफसरों का तबादला और निलम्बन होता है और थोड़े ही समय बाद घटना विस्मृति के अंधेरे में खो जाती है।

सवाल यह उठता है कि आखिर इन सभी बेगुनाहों की मौत का असली जिम्मेदार कौन है। क्या इन मौतों के लिए महज़ कुछ व्यक्ति ज़िम्मेदार होते हैं जिनको कि गिरफ्तार कर लिया जाता है? क्या कुछ अफसरों के निलम्बन या तबादले से इन घटनाओं पर अंकुश लग सकता है? इन घटनाओं की बारम्बारता चीख-चीख कर किस ओर संकेत कर रही है? सच्चाई यह है कि इन घटनाओं के लिए यह मानवद्रोही व्यवस्था जिम्मेदार है जिसमें गरीब मज़दूरों की जिन्दगी की कीमत बेहद सस्ती होती है, जहाँ मनुष्य को मुनाफा कमाने के लिए मशीन के एक पुर्जे़ से अधिक कुछ नहीं समझा जाता।

क्या प्रशासन को खतरनाक शराब बनाने वालों के बारे में पता नहीं होता है? झुग्गी बस्तियों में पुलिस की मोटरसाईकिले व गाड़ि‍यां रात-दिन चक्कर लगाती रहती हैं। ये पुलिसवाले यहाँ व्यवस्था बनाने के लिए चक्कर नहीं लगाते हैं बल्कि स्‍थानीय छोटे कारोबारियों और कारखानादारों के लिए गुण्डा फोर्स का काम करते हैं। सारे अपराध, सभी गै़र-कानूनी काम पुलिस की आँखों के सामने होते हैं और सभी काम पुलिसवालों, विधायकों आदि की जेबें गर्म करके उनकी सहमति के बाद ही होते हैं। शक की गुंजाइश के बिना यह कहा जा सकता है कि इस तरह की शराब बनाने के बारे में भी प्रशासन को पूरी जानकारी रहती है। शराब को और अधिक नशीला बनाने के लिए उसमें मेथानोल और यहाँ तक कि पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल होता है। चूंकि यह शराब लैबोरेटरी में टेस्ट करके नहीं बनती और इसकी गुणवत्ता के कोई मानक भी नहीं होते हैं तो ऐसे में जहरीले पदार्थों की मात्रा कम-ज्यादा होती रहती है। इस शराब में अगर जहरीले पदार्थों की मात्रा कम भी रहे तो भी लम्बे सेवन से आँखे खराब होने आदि का खतरा तो बना ही रहता है। जहरीले पदार्थों की मात्रा यदि अधिक हो जाती है तो उसके जो परिणाम होते हैं वो इस घटना के रूप में हमारे सामने हैं।

यह भी हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है कि जब एक मज़दूर को दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तो उसका साथ ही साथ उसका अमानवीकरण भी होता है और शराब व अन्य व्यसन उसके लिए शौक नहीं बल्कि जिन्दगी की भयंकर कठिनाइयों को भुलाने और दुखते शरीर को क्षणिक राहत देने के साधन बन जाते हैं। ऐसे मूर्खों की हमारे समाज में कमी नहीं है जो कहते हैं कि मज़दूरों की समस्याओं का कारण यह है कि वे बचत नहीं करते और सारी कमाई को व्यसनों में उड़ा देते हैं। असल में बात इसके बिल्कुल उलट होती है और वे व्यसन इसलिए करते हैं कि उनकी जिन्दगी में पहले ही असंख्य समस्याएँ है। जो लोग कहते हैं कि बचत न करना गरीबों-मजदूरों की सभी परेशानियों का कारण होता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि जो आदमी 5000-8000 रुपये की कुल आय से कितना बचा सकता है। क्या जो 1000-1500 रुपये वे व्यसन में उड़ा देते हैं उसकी बचत करने से वे सम्पन्नता का जीवन बिता सकेंगे? यहाँ व्यसनों की अनिवार्यता या फिर उन्हें प्रोत्साहन देने की बात नहीं की जा रही है बल्कि समाज की इस सच्चाई पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि एक मानवद्रोही समाज में किस तरह से गरीबों के लिए व्यसन दुखों से क्षणिक राहत पाने का साधन बन जाते हैं। इस व्यवस्था में जहाँ हरेक वस्तु को माल बना दिया जाता है वहाँ जिन्दगी की मार झेल रहे गरीबों के व्यसन की जरूरत को भी माल बना दिया जाता है। गरीब मज़दूर बस्तियों में सस्ती शराबों का पूरा कारोबार इस जरूरत से मुनाफा कमाने पर ही टिका है। इस मुनाफे की हवस का शिकार भी हर-हमेशा गरीब मजदूर ही बनते हैं। यह घटना कोई अनोखी नहीं है और मुनाफे के लिए की गई हत्याओं के सिलसिले की ही एक और कड़ी है।

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ मोदी सरकार के एक साल में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती पर एक नज़र

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चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़
मोदी सरकार के एक साल में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती पर एक नज़र

राजकुमार

मई 2015 में दुनिया के 179 देशों के सर्वेक्षण के आधार पर एक सूची प्रकाशित की गयी जिसे वैश्विक स्तर पर मातृत्व के लिए अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर बनाया गया है। इस सूची में भारत पिछले साल के 137वें स्थान से 3 पायदान नीचे खिसककर 140वें स्थान पर पहुँच गया है। यूँ तो 137वाँ स्थान हो या 140वाँ, दोनों में कोई ख़ास अन्तर नहीं है, लेकिन यह विकास के खोखले नारों के पीछे की हक़ीक़त बयान कर रही है कि देश में आम जनता के जीवन स्तर में सुधार होने की जगह परिस्थितियाँ और भी बदतर हो रही हैं। भारत अब माँ बनने के लिए सुविधाओं के हिसाब से जिम्बाब्वे, बांग्लादेश और इराक़ से भी पीछे हो चुका है। यह आँकड़ा अच्छे दिनों और विकास का वादा कर जनता का समर्थन हासिल करने वाली मोदी सरकार का एक साल पूरा होने से थोड़ा पहले आया है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के रहते "विकास"की हर एक नींव रखी जाने के साथ जनता के लिए और भी बुरे दिन आने वाले हैं।

इसी रिपोर्ट में सर्वेक्षण के आधार पर बताया गया है कि भारत के शहरी इलाक़ों में रहने वाली ग़रीब आबादी में बच्चों की मौत हो जाने की सम्भावना उसी शहर में रहने वाले अमीरों के बच्चों की तुलना में 3.2 गुना (320 प्रतिशत) अधिक होती है (स्रोत-1)। बच्चों के ज़िन्दा रहने की इस असमानता का मुख्य कारण ग़रीब परिवारों में माताओं और बच्चों का कुपोषित होना, रहने की गन्दी परिस्थितियाँ, स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध न होना है तथा महँगी स्वास्थ्य सुविधाएँ है (स्रोत-2)। हक़ीक़त यह है कि भारत में पाँच वर्ष की उम्र पूरी होने से पहले ही मरने वाले बच्चों की संख्या पूरी दुनिया की कुल संख्या का 22 फ़ीसदी है (स्रोत-3)। अप्रैल 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें विटामिन और मिनिरल की कमी है (स्रोत-4)।

healthदेश के अलग-अलग शहरों की बस्तियों और गाँवों में रहने वाली ग़रीब आबादी के बीच कुपोषण और बीमारियों के कारण होने वाली मौतों का मुख्य कारण यहाँ रहने वाले लोगों की जीवन और काम की परिस्थितियाँ होता है। यहाँ रहने वाली बड़ी ग़रीब आबादी फ़ैक्टरियों में, दिहाड़ी पर या ठेला-रेड़ी लगाकर अपनी आजीविका कमाते हैं और इनके बदले में इन्हें जो मज़दूरी मिलती है वह इतनी कम होती है कि शहर में एक परिवार किसी तरह भुखमरी का शिकार हुए बिना ज़िन्दा रह सकता है। समाज के लिए हर वस्तु को अपने श्रम से बनाने वाली मेहनतकश जनता को वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था एक माल से अधिक और कुछ नहीं समझती, जिसे सिर्फ़ ज़िन्दा रहने लायक मज़दूरी दे दी जाती है जिससे कि वह हर दिन 12-16 घण्टों तक जानवरों की तरह कारख़ानों में, दिहाड़ी पर काम करता रहे। इसके अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच इन मज़दूर बस्तियों और गाँवों में रहने वाले ग़रीबों तक कभी नहीं होती। देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर भी लगातार नीचे गिर रहा है।

लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने की जगह पर वर्तमान मोदी सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च किये जाने वाले ख़र्च में भी 2014 की तुलना में 29 फ़ीसदी कटौती कर दी। 2013-14 के बजट में सरकार ने 29,165 करोड़ रुपये स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आवँटित किये थे जिन्हें 2014-15 के बजट में घटाकर 20,431 करोड़ कर दिया गया है (स्रोत-5)। पहले ही भारत अपनी कुल जीडीपी का सिर्फ़ 1.3 फ़ीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर ख़र्च करता है जो ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण-अफ़्रीका) देशों की तुलना में सबसे कम है, भारत के बाद चीन का नम्बर है जोकि अपनी जीडीपी का 5.1फ़ीसदी स्वास्थ्य पर ख़र्च कर रहा है, जबकि दक्षिण-अफ़्रीका सबसे अधिक, 8.3 फ़ीसदी, ख़र्च करता है। डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के ढाँचे पर किये जाने वाले ख़र्च के मामले में भी भारत ब्रिक्स देशों की तुलना में काफ़ी पीछे है। भारत में स्वास्थ्य पर जनता द्वारा ख़र्च किये जाने वाले कुल ख़र्च में से 30 फ़ीसदी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के हिस्से से और बाक़ी 69.5 प्रतिशत लोगों की जेब से ख़र्च होता है। भारत में 10,000 की आबादी पर डॉक्टरों की संख्या 7 है जो ब्रिक्स देशों की तुलना में सबसे कम है। वहीं ब्रिक्स देशों की तुलना में मलेरिया जैसी आम बीमारियों के मामले में भारत में कई गुना अधिक रिपोर्ट होती हैं जिनसे बड़ी संख्या में मरीजों की मौत हो जाती है। भारत में हर साल मलेरिया के 10,67,824 मामले रिपोर्ट होते हैं जबकि चीन और दक्षिण-अफ़्रीका में यह संख्या 5,000 से भी कम है (स्रोत-6)। भारत में कैंसर जैसी बीमारी से हर दिन 1,300 लोगों की मौत हो जाती है, और यह संख्या 2012 से 2014 के बीच 6 प्रतिशत बढ़ चुकी है (स्रोत-7)।

पिछड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण हमारे देश में ग़रीब आबादी अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा, लगभग 70 प्रतिशत, चिकित्सा पर ख़र्च करने के लिए मजबूर है, जबकि श्रीलंका जैसे दूसरे एशियाई देशों में यह सिर्फ़ 30-40 प्रतिशत है। इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन साइंस और विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कम आय वाले लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को चिकित्सा के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं, और 16 फ़ीसदी परिवार चिकित्सा की वजह से ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिये जाते हैं (स्रोत-8)।

यह वर्तमान स्वास्थ्य परिस्थितियों के अनुरूप एक शर्मनाक परिस्थिति है और यह प्रकट करता है कि भारत की पूँजीवादी सरकार किस स्तर तक कॉरपोरेट-परस्त हो सकती है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य-सुविधाओं में कटौती के साथ-साथ बेशर्मी की हद यह है कि सरकार ने फ़ार्मा कम्पनियों को 509 बुनियादी दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट दे दी है, जिनमें डायबिटीज़, हेपेटाइटस-बी/सी कैंसर, फंगल-संक्रमण जैसी बीमारियों की दवाओं के दाम 3.84 प्रतिशत तक बढ़ जायेंगे (स्रोत-9)। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर देखें तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज का ख़र्च काफ़ी अधिक है जो आम जनता की पहुँच से काफ़ी दूर है। इसका मुख्य कारण है कि कोई भी कॉरपोरेट-परस्त पूँजीवादी सरकारें इनके रिसर्च पर ख़र्च नहीं करना चाहती क्योंकि इससे मुनाफ़ा नहीं होगा, और जो निजी कम्पनियाँ इनके शोध में लगी हैं, वे मुनाफ़ा कमाने के लिए दवाओं की क़ीमत मनमाने ढंग से तय करती हैं।

वैसे तो मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में सरकारों से पूँजी-परस्ती की इन नीतियों के अलावा और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचा कितना असंवेदनशील और हत्यारा हो सकता है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य-सुविधा जैसी बुनियादी ज़रूरत भी बाज़ार मे ज़्यादा-से-ज़्यादा दाम में बेचकर मुनाफ़े की हवस पूरी करने में इस्तेमाल की जा रही है (स्रोत-10)। वर्तमान सरकार का एक साल पूरा हो चुका है और जनता के सामने इसकी कलई भी खुल चुकी है कि जनता की सुविधाओं में कटौती करके पूँजीपतियों के अच्छे दिन और विकास किया जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्री, नेता और पत्रकार यह कुतर्क दे रहे हैं कि सरकार क्या करे, पैसों की कमी है इसलिए वर्तमान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवँटित धन में कटौती करनी पड़ रही है। ऐसे लोगों को शायद यह नहीं पता कि पैसों की कमी कहकर सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती करने वाली सरकारें, चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा, हज़ारों करोड़ रुपये बेल-आउट, टेक्स-छूट या लोन में पूँजीपतियों को दान दे चुकी हैं और आज भी दे रही हैं।

Corruption Medical Device Industryअब फ़रवरी 2015 के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी एक रिपोर्ट पर नज़र डालें, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ़ उन्हीं डॉक्टरों को काम पर रखा जाता है जो ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीजों से भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15 हज़ार रुपये दिये जाते हैं और बाक़ी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते हैं। इस रिपोर्ट में "चिन्ता"व्यक्त करते हुए यह भी कहा गया है कि निजी अस्पतालों की कॉरपोरेट लॉबी लगातार सरकार पर Clinical Establishments Act 2010 को हटाकर चिकित्सा क्षेत्र से सभी अधिनियम समाप्त करने और इसे मुनाफ़े की खुली मण्डी बनाने का दबाव बना रही है, और सरकार इन बदलावों के पक्ष में है (स्रोत-11)। वैसे इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि लेखक को यह अनुमान ही नहीं है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में चिकित्सा सुविधाएँ बाज़ार में बिकने वाले अन्य मालों की तरह ही पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया हैं, जिसके लिए बड़े-बड़े अस्पताल और फ़ार्मा कम्पनियाँ खुलेआम मरीजों को लूटते हैं और सच्चाई यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य-सुविधाओं में सरकार द्वारा की जाने वाली कटौतियों का सीधा फ़ायदा निजी अस्पतालों और फ़ार्मा कम्पनियों के मालिकों को ही होगा।

16 मई को जनता के वोटों से चुनकर आयी नयी मोदी सरकार का एक साल पूरा हो गया और देश के करोड़ों ग़रीब, बेरोज़गार लोगों ने अपने बदहाल हालात थोड़े बेहतर होने की जिस उम्मीद में नयी राजनीतिक पार्टी भाजपा को वोट किया था, उसमें कोई परिवर्तन नज़र नहीं आ रहा है। उल्टे पहले से चलायी जा रहीं कल्याणकारी योजनाओं को भी पूँजीवादी "विकास"को बढ़ावा देने के नाम पर बन्द किया जा रहा है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती करके और फ़ार्मा कम्पनियों को दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट देकर सरकार कॉरपोरेट मालिकों की जेबें भरने की पूरी तैयारी में लगी है।

References:

  1. India Ranks Behind Zimbabwe, Bangladesh & Iraq on Global Motherhood Index. NDTV, May 06, 2015
  2. Children of urban poor more likely to die: Report, Business Standard, May 5, 2015
  3. India has highest number of deaths of children under five years of age,TOI, Mar 28, 2015
  4. Around half of Indian kids under 5 are stunted, The Hindu, April 1, 2015
  5. India slashes health budget, already one of the world's lowest, Dec 23, 2014)
  6. Facing Health Crises, India Slashes HealthcarecomDec 25, 2014
  7. In India, 1,300 die of cancer every dayhttp://news.statetimes.in, May 17, 2015
  8. Medical bills pushing Indians below poverty line: WHO, India Today, November 2, 2011
  9. Govt allows pharma cos to hike prices of 509 essential drugs, The Hindu, April 8, 2015
  10. The High Cost of Cancer Drugs and What We Can Do About It, US National Library of Medicine National Institutes of Health Search, Oct 2012
  11. Doctors with conscience speak out, TOI, Feb 22, 2015

 

मज़दूर बिगुलजून 2015


आँखों से झांकते हैं कुछ सवाल... आज नहीं तो कल, इनके जवाब तो हमें देने होंगे..... और ये भी की की हम चुप क्यों थे.... जब ये सवाल उठ रहे थे....

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Kamal Joshi
आज का ज्ञान..
हम जैसे सतत यात्रा करने वालों के लिए एक प्राइवेट बस में निर्देश.....
" हर बसर को है हिदायत, सब्र करना चाहिए......
जब खड़ी हो जाए गाड़ी..तब उतरना चाहिए."

आँखों से झांकते हैं कुछ सवाल...
आज नहीं तो कल,
इनके जवाब तो हमें देने होंगे.....
और ये भी की की हम चुप क्यों थे....
जब ये सवाल उठ रहे थे....

टिकुली की फोटो..
टिकुली से मेरी मुलाकात समदर धार के लिए चढ़ाई करते वक्त हुई..मैंने उसका नाम पूछा पर वो बता नहीं पायी. मेरी भाषा तो समझ गयी थी पर बोल नहीं पाई..शायद कमर पर बहुत बोझ था. पर उसके साथ चल रहे खिलाफ सिह ने बताया इसका नाम टिकुली है...
जैसा नाम खूबसूरत टिकुली वैसे ही सुन्दर थी..उसके कान में कहा की तुम बहुत सुन्दर हो पर वो बिलकुल नहीं शरमाई..जानती थी वो खूबसूरत है..
हम बदिया कोट से समदर जा रहे थे ..थके थे. अपना सामान अपनी पीठ पर नहीं ले जा सकते थे. तय हुआ की अपनी पीठ कुछ सामान कम कर लिया जाए.. और खच्चर से सामान को समदर पहुंचाया जाए.. खच्चर वाले के रूप में खिलाफ सिंह जी से मुलाकात हुई. वो समदर के ही रहने वाले थे. उन्हें घर वापस जाना था तो हमारा सामान रियायत के साथ ले चलने को तैयार हो गए. तब वो टिकुली को लेकर आये....देखते ही मैं उस पर फ़िदा हो गया....माथे पर सफ़ेद निशान..., कर्मठ खच्चर (खच्चरी शब्द भी होता है क्या?)
टिकुली की पीठ पर सामान लादकर चले. रास्ते में बात हुए तो पता चला की इसी खच्चर की कमाई से खिलाफ सिंह जी का परिवार चलता है... और जब उसे पता चला की हम पहाड को और उसके लोगों की स्थितिया समझने पिछले बीस दिन से पैदल पीठ पर सामान ले कर चल रहे हैं. हम गाँव वालों का दिया ही खाते है, अपने पास कुछ नहीं रखते.... ..तो वो पिघल गया...बोला "खच्चर का किराया तो देना होगा पर रात को मेरे घर खा लेना...सो भी सकते हो...." हम नंगों को क्या चाहिए था...रात का खाना और सोने के लिए फर्श.. खिलाफ सिंह ने दोनों का आश्वासन दे दिया 


एक हंसी निश्छल सी....
ये पहाड़ में जीवन की हंसी है.. ये हंसी चेहरे पर आती है बहुत मेहनत करने के बाद...ज़िन्दगी जीने की मेहनत..., पहाड़ को ज़िंदा रखने की मेहनत के बाद..., प्रकृति के बीच उपजी हंसी से मेरी यात्रा की थकान मिटाने के लिए इस बहन को धन्यवाद


अन्नदाता को सलाम...!

Kamal Joshi's photo.

अभी तो बहुत दूर है बराबरी.......!



सरहद ....

काली नदी के किनारे पांगू के पास मिले ये दोस्त. ...., एक भारतीय कहलाता है अर एक नेपाली...
दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते है. एक सी भाषा बोलते हैं ...दोनों एक जैसा ही सोचते हैं..एक से खेल खेलते हैं...एक सी शरारतें करते हैं..और तो और एक ही डंडे से मास्साब की मार खाते है...

दोनों अपनि दोस्त्री नहीं तोड़ना चाहते,,, एक ही जगह एक सी नौकरी करना चाहते हैं...
पर दोनों की चिंताएं भी एक सी हैं.. पीछे वाला पुलिस में ऑफिसर बनाना चाहता है. उसे कोई रुकावट नहीं...पर क्या आगे वाला जो नेपाली है क्या वो भी उसकी तरह पुलिस में भरती हो सकता है. उनका सवाल था.... 
सरहदें क्यों बनाते हैं हम..जब दिल ही सरहद नहीं बनाता...!

Niranjan Pant का कमेंट: Most Nepalis are eligible for Government employment in India
कमेन्ट का जवाब: ... मूल सवाल eligiblity का नहीं...., राजनीती का है इंसानों को बांटने वाली राजनीति का..
ली नदी के किनारे पांगू के पास मिले ये दोस्त. ...., एक भारतीय कहलाता है अर एक नेपाली...
दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते है. एक सी भाषा बोलते हैं ...दोनों एक जैसा ही सोचते हैं..एक से खेल खेलते हैं...एक सी शरारतें करते हैं..और तो और एक ही डंडे से मास्साब की मार खाते है...

दोनों अपनि दोस्त्री नहीं तोड़ना चाहते,,, एक ही जगह एक सी नौकरी करना चाहते हैं...
पर दोनों की चिंताएं भी एक सी हैं.. पीछे वाला पुलिस में ऑफिसर बनाना चाहता है. उसे कोई रुकावट नहीं...पर क्या आगे वाला जो नेपाली है क्या वो भी उसकी तरह पुलिस में भरती हो सकता है. उनका सवाल था.... 
सरहदें क्यों बनाते हैं हम..जब दिल ही सरहद नहीं बनाता...!

Niranjan Pant का कमेंट: Most Nepalis are eligible for Government employment in India
कमेन्ट का जवाब: ... मूल सवाल eligiblity का नहीं...., राजनीती का है इंसानों को बांटने वाली राजनीति का..



कब से बैठा सोचता हूँ मैं गुमसुम.....


The government will convert 90,000 kms of country's national highways into green corridors, for which it is planning to create at least 1,000 contractors responsible for planting trees.


জীবন–জীবিকা মুড়ি ফোটার শব্দে জীবনের ছন্দ

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জীবন–জীবিকা

মুড়ি ফোটার শব্দে জীবনের ছন্দ
www.prothom-alo.com/bangladesh/article/570772

ঠাকুরগাঁওয়ের গিলাবাড়ী ও মহব্বতপুর গ্রাম। গ্রামের মানুষেরা কেউ লাকড়ি কুড়াচ্ছেন, কেউ মুড়ির জন্য শুকাচ্ছেন চাল। কেউবা মাটির খোলায় চাল গরম করছেন। গরম বালুর স্পর্শে তা মুড়মুড় করে ফুটে তৈরি হচ্ছে সুস্বাদু মুড়ি।এ যেন মুড়িরই গ্রাম। মুড়ি ফোটার শব্দে যেন জীবনের ছন্দ আনে।সারা বছর খুব...

निर्दोषों की मौत पर घमंड और अहंकार में चूर शिवराज के मंत्री उड़ा रहे है उनका मज़ाक !

Next: हर राजनयिक कदम,हर विदेश यात्रा से चक्रवर्ती महाराज पाकिस्तान को मजबूत किये जा रहे हैं।शायद हिंदुत्व का एजंडा भी यही होगा।अब रूस भी चीन के बाद।पड़ोसी सारे दुश्मन सिर्फ अमेरिका और इजराइल का भरोसा और हथियारों,रिएक्टरों की बेलगाम खरीद का सिलसिला और अंबानी और अडाणी का कल्याण।Narendra Modi को दूसरा झटका। पहले चीन और अब रूस ने किया पाकिस्तान का समर्थन, फोटो पर क्लिक करके पढ़ें पूरी खबर...
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निर्दोषों की मौत पर घमंड और अहंकार में चूर शिवराज के मंत्री उड़ा रहे है उनका मज़ाक !

Gopal Rathi's photo.

हर राजनयिक कदम,हर विदेश यात्रा से चक्रवर्ती महाराज पाकिस्तान को मजबूत किये जा रहे हैं।शायद हिंदुत्व का एजंडा भी यही होगा।अब रूस भी चीन के बाद।पड़ोसी सारे दुश्मन सिर्फ अमेरिका और इजराइल का भरोसा और हथियारों,रिएक्टरों की बेलगाम खरीद का सिलसिला और अंबानी और अडाणी का कल्याण।Narendra Modi को दूसरा झटका। पहले चीन और अब रूस ने किया पाकिस्तान का समर्थन, फोटो पर क्लिक करके पढ़ें पूरी खबर...

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हिंदुत्व एजंडा की राजनय से हिंदू राष्ट्र का बंटाधार।

मोदी को दूसरा झटका, चीन के बाद अब रूस ने किया पाकिस्तान का समर्थन

प्रधानमंत्री मोदी ने उज्बेक राष्ट्रपति से वार्ता में आतंकवाद, आफगानिस्तान पर चर्चा की।

पलाश विश्वास


जहां जहां संतन ने पांव धर दियो,वहां वहां सत्यानाश।


नेपाल में सार्क शिखर वार्ता फेल और महाभूकंप बजरिये हिंदू राष्ट्र की बहाली के मेगा प्रोजेक्ट से नेपाल हो गया दुश्मन।


बांग्लादेश गये तो देशभर में हिंदत्व लहर जोड़कर अखंड हिंदूराष्ट्र का अलाप ऐसा किया कि बांग्लादेश के बीएनपी जमात इस्लामी कट्टरपंथियों को बांग्ला राष्ट्रीयता की कब्र खोदने का ईंधन देकर बांग्लादेश को भी दुश्मन बना आये।


चीन गये तो गोमांस निर्यात का इंतजाम कर दिया।अंबानी अडाणी के कारोबार के वास्ते इंडियाइंक कीख्वाहिशं को चूना लगाकर खुदरा बाजार से लेकर स्मार्ट सिटी बुलेट ट्रेन सबकुछ चीनी कंपनियों के हवाले कर आये।


नतीजा यह हुआ कि न सीमा विवाद सुलझा और न दूसरे उलझे मसले सुलझे।नाथुला होकर कैलाश मानसरोवर का रास्ता जरुर खुल गया।


बदले में चीन ने पाकिस्तान के हक में संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ वीटो का इस्तेमाल कर दिया।


चीन ने मुंबई हमले के मास्टरमाइंड और लश्कर-ए-तैयबा के कमांडर जकीउर रहमान लखवी की रिहाई को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई की भारत की मांग को वीटो कर दिया ... लखवी की रिहाई को लेकर अमेरिका, रूस, फ्रांस और जर्मनी ने चिंता जताते हुए उसकी फिर से गिरफ्तारी की मांग की थी। ... प्रतिबंध समिति के बाकी सभी सदस्य देशों ने भारत के रुख का समर्थन किया


फलीस्तीन आंदोलन की खिलाफत करते हुए संयुक्त राष्ट्र में इजराइल के खिलाफ मतदान के दौरान अनुपस्थिति का फैसला करके अमेरिका और ब्रिटन की वाहवाही गुजरात नरसंहार पर एक दफा और क्लीन चिट के जरिये लूट तो ली लेकिन समूची अरब दुनिया को बारत का दुश्मन बना डाला और फिर पाकिस्तान को मजबूत बना दिये।


अब वे मध्य एशिया समेत रूस में हिंदुत्व का झंडा फहरा रहे हैं और पूत के पांव इतने पावन कि रूस परंपरागत भारत की मैत्री को तिलांजलि देकर पाकिस्तान के साथ खड़ा हो गया।


गौरतलब है कि 

रूस को भारत का पारंपरिक साथी माना जाता है। चरमपंथ को जाने वाली फंडिंग पर हाल ही में ब्रिस्बेन में आयोजित हुए सम्मेलन में पाकिस्तान के खिलाफ लाए गए भारत के निंदा प्रस्ताव पर रूस के स्टैंड ने नई दिल्ली को असहज स्थिति में ला दिया है।

इस बैठक में जमात-उल-दावा और लश्कर-ए-तय्यबा के खिलाफ पाकिस्तान की ओर से कोई कदम नहीं उठाये जाने पर भारत ने पाक की निंदा किए जाने की मांग की थी। हालांकि भारत की ओर से लाए गए निंदा प्रस्ताव का न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया ने भी विरोध किया लेकिन भारत रूस के स्टैंड को लेकर हैरान है।अतीत में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा काउंसिल में रूसने कश्मीर पर भारत के स्टैंड को लेकर हमेशा से सपोर्टिव रहा है। यहां तक कि उसने कई मौकों पर भारत के पक्ष में वीटो का भी इस्तेमाल किया है। आधिकारिक सूत्रों ने संकेत दिया है कि रूस को भारत के रुख से वाकिफ कराने की कोशिश की जाएगी।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के दौरान रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन से उल्फा में मुलाकात करेंगे। इस सम्मेलन के एजेंडे में ISIS के खतरे और चरमपंथ के खिलाफ अपनाई जाने वाली रणनीति पर सहयोग का मुद्दा रहेगा। पाकिस्तान को लेकर रूस के स्टैंड पर रूस का रुख बेवजह नहीं है।

पिछले साल भारत ने पाकिस्तान को हथियार बेचने के मॉस्को के फैसले पर रूस के सामने अपनी नाखुशी जाहिर की थी। उधर, रूस को यह लगता है कि उसे अफगानिस्तान में ड्रग का कारोबार और अफगान-पाक क्षेत्र में चरमपंथियों से मुकाबले के लिए पाकिस्तान की जरूरत होगी। पुतिन-मोदी की मीटिंग में अफगानिस्तान का मुद्दा भी उठने की संभावना है।भारत रूस से यह आश्वासन चाहता है कि इस्लामाबाद के साथ उसके सैन्य सहयोग से भारत की सुरक्षा चिंताओं का अहित न हो। रूस और पाकिस्तान के सैन्य सहयोग को अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी पर प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जा रहा है।


हर राजनयिक कदम,हर विदेश यात्रा से चक्रवर्ती महाराज पाकिस्तान को मजबूत किये जा रहे हैं।शायद हिंदुत्व का एजंडा भी यही होगा।अब रूस भी चीन के बाद।पड़ोसी सारे दुश्मन सिर्फ अमेरिका और इजराइल का भरोसा और हथियारों,रिएक्टरों की बेलगाम खरीद का सिलसिला और अंबानी और अडाणी का कल्याण।

गौरतलब है कि 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ आगामी 10 जुलाई को रूस में एससीओ शिखर सम्मेलन से इतर मुलाकात करेंगे। सूत्रों के अनुसार रूस के उफा शहर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में भाग लेने जा रहे दोनों प्रधानमंत्री 10 जुलाई को इस बैठक से इतर मुलाकात करेंगे। देखें कि वहां क्या गुल गुलेबहार का आलम होता है। और गुलगुला कैसे बन चल निकलता है।

मोदी और शरीफ की पिछली मुलाकात पिछले साल नवंबर में काठमांडो में दक्षेस शिखर सम्मेलन के समय हुई थी, हालांकि उस दौरान दोनों नेताओं ने कोई द्विपक्षीय बैठक नहीं की थी। रमजान महीने की शुरूआत के मौके पर मोदी ने शरीफ को फोन कर बधाई दी थी और शांतिपूर्ण एवं द्विपक्षीय संबंधों पर जोर दिया था।

टेलीफोन पर बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष को रमजान के मौके पर पाकिस्तानी मछुआरों की रिहाई के भारत के फैसले की भी सूचना दी थी। इस फोन को हाल के दिनों में हुई कुछ तल्ख टिप्पणियों के बाद पाकिस्तान से संपर्क साधने के प्रयास के तौर पर देखा गया। मोदी की ओर से अपने बांग्लादेश दौरे के समय पाकिस्तानी को लेकर आलोचनात्मक टिप्पणी किए जाने और फिर म्यामां में भारत की सैन्य कार्रवाई के बाद दोनों देशों के नेताओं में तल्ख बयानबाजी देखने को मिली थी।

प्रधानमंत्री मोदी ने उज्बेक राष्ट्रपति से वार्ता में आतंकवाद, आफगानिस्तान पर चर्चा की

ताशकंद : भारत और उजबेकिस्तान ने परमाणु ऊर्जा, रक्षा और व्यापार समेत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का निर्णय किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उजबेक राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव के बीच चर्चा के दौरान दोनों देशों ने 'विस्तारित पड़ोस'में बढ़ते आतंकवाद पर साझा चिंता व्यक्त की।

मध्य एशिया एवं रूस की आठ दिवसीय यात्रा के पहले चरण में उजबेकिस्तान पहुंचे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यहां राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव से द्विपक्षीय और अफगानिस्तान सहित महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा की।

बातचीत के बाद दोनो देशों ने विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग के तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किये जिनमें विदेश कार्यालय, संस्कृति और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा देने के लिए समझौता शामिल है।

ताशकंद पहुंचने पर मोदी का उनके उज्बेक समकक्ष शवकत मिरोमोनोविच मिर्जियोयेव ने हवाई अड्डे पर पारंपरिक स्वागत किया। मोदी और करीमोव के बीच हुई बातचीत के दौरान सामरिक, आर्थिक और ऊर्जा क्षेत्रों में संबंधों को बेहतर बनाने के अलावा अफगानिस्तान की स्थिति सहित कई क्षेत्रीय मुद्दों की समीक्षा की गई।

संयुक्त संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, 'मैंने उजबेकिस्तान से अपनी यात्रा शुरू की है जो भारत के लिए इस देश के महत्व को दर्शाता है, न केवल इस क्षेत्र के लिए बल्कि पूरे एशिया के लिए। राष्ट्रपति करीमोव और मैंने भारत और उजबेकिस्तान के बीच कनेक्टिविटी को और बढ़ाने की विभिन्न पहलों पर चर्चा की।

मोदी ने कहा कि अफगानिस्तान की स्थिति सहित अंतरराष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा की गई और इस देश में शांति एवं स्थिरता के महत्व को दोहराया।

इस संदर्भ में मोदी ने कहा, 'हमने दोनों देशों के 'विस्तारित पड़ोस'में बढ़ते उग्रवाद और आतंकवाद के खतरों के बारे में चिंताओं को साझा किया।'दोनों नेता रक्षा और साइबर सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए। मोदी ने कहा, 'हमने सुरक्षा सहयोग और आदान-प्रदान बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की। इस संदर्भ में इस वर्ष बाद में आतंकवाद निरोधी संयुक्त कार्यकारी समूह की बैठक होगी। हमने रक्षा और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग को मजबूत बनाने पर भी सहमति व्यक्त की।'

उन्होंने कहा कि उनकी राष्ट्रपति करीमोव के साथ बातचीरत काफी फलदायक रही और यह संबंधों को और गहरा बनाने की दिशा में था। उन्होंने दोनों देशों के बीच सामरिक साझेदारी निर्मित होने का उल्लेख करते हुए कहा, 'इसमें आर्थिक सहयोग, आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई, क्षेत्र में स्थिरता को बढ़ावा देना और क्षेत्रीय एकात्मकता को प्रोत्साहित करना शामिल है।'दोनों नेताओं ने खनिज संसाधन से सम्पन्न उजबेकिस्तान से यूरेनियम आपूर्ति के बारे में पिछले वर्ष हुए अनुबंध को लागू करने के तौर तरीकों पर भी चर्चा की। दोनों देशों के बीच 2000 मिट्रिक टन येलो केक :यूरेनियम: की आपूर्ति करने संबंधी समझौता हुआ था।

दोनों नेताओं ने कनेक्टिविटी को और आगे बढ़ाने के बारे में विभिन्न पहलों पर चर्चा की। मोदी ने उजबेक राष्ट्रपति को अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन कोरिडोर के बारे में बताया और उजबेकिस्तान के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वह इसका सदस्य बने। मोदी ने उजबेक राष्ट्रपति से अश्काबात समझौते में भारत को शामिल किये जाने के लिए समर्थन मांगा। उजबेकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान और ओमान के बीच यह ट्रांजिट समझौता 2011 में हुआ था। वहीं उत्तर दक्षिण परिवहन कोरिडोर भारत, रूस, ईरान और मध्य एशिया के बीच जहाज, रेल और सड़क मार्ग से माल की आवाजाही से जुड़ा है। 

दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों को बढ़ाने के बारे में चर्चा करते हुए मोदी ने कहा, 'मैंने उन्हें बताया कि उजबेकिस्तान में निवेश करने को लेकर भारतीय कारोबारियों में गहरी रूचि है। उजबेकिस्तान के विविध क्षेत्रों में काफी क्षमताएं हैं।'प्रधानमंत्री ने कहा, 'मैंने उनसे (करीमोव से) आग्रह किया कि भारतीय निवेश को आसान बनाने के लिए प्रक्रियाएं और नीतियां बनाएं। राष्ट्रपति ने मेरे सुझाव पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।'मोदी ने बताया कि राष्ट्रपति करीमोव कृषि, सूचना प्रौद्योगिकी और उर्जा के क्षेत्रों में जारी सहयोग को और गहरा करने के भी समर्थक हैं।

उन्होंने कहा कि संस्कृति और पर्यटन के क्षेत्र में आज हुए समझौतों से दोनों देशों की जनता करीब आयेगी।

उन्होंने कहा, 'हिन्दी और भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने में उजबेकिस्तान का मुकाबला कुछ ही देश कर सकेंगे। कल मैं भारतीयविदों और हिन्दी भाषाविदों के समूह से मिलने को लेकर उत्सुक हूं।'इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उजबेक राष्ट्रपति करीमोव को भारत के 13वीं सदी के महान सूफी कवि अमीर खुसरो की कृति खमसा ए खुसरो की प्रतिकृति तोहफे में दी। उत्तरप्रदेश मे जन्मे खुसरो के पिता उजबेकिस्तान के थे।

मोदी ने कहा, 'कल मैं स्वतंत्रता एवं मानवता के स्मारक और दिवंगत भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के स्मारक पर जाऊंगा। हम ताशकंद और उजबेकिस्तान के लोगों के आभारी है कि उन्होंने हमारे पूर्व प्रधानमंत्री की विरासत का संरक्षण किया।'

मोदी ने कहा, 'यह काफी सार्थक यात्रा रही। इस यात्रा के जरिए आने वाले वर्षों'में अच्छी फसल के बीज बोये गये हैं।'बाद में जारी संयुक्त बयान में कहा गया कि राष्ट्रपति करीमोव और प्रधानमंत्री मोदी ने भारत.उजबेकिस्तान सामरिक संबंधों, विभिन्न क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के साथ आपसी हितों से जुड़े अंतरराष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों समेत व्यापक विषयों पर चर्चा की।

दोनों पक्षों ने राजनीतिक संबंधों, सुरक्षा, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, व्यापार एवं निवेश, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ सांस्कृतिक संबंधों समेत दीर्घावधि द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत बनाने एवं इसका विस्तार करने की बात दोहरायी। राष्ट्रपति करीमोव ने कहा कि भारत के साथ मजबूत संबंध उजबेकिस्तान की विदेश नीति की शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक है। वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने जोर दिया कि भारत और उजबेकिस्तान के बीच मजबूत सामरिक संबंध मध्य एशिया के साथ भारत के जुड़ाव का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है।

संयुक्त बयान के अनुसार, 'दोनों पक्षों ने एक दूसरे के नेतृत्व एवं अन्य स्तर पर आधिकारिक यात्राओं के जरिये नियमित द्विपक्षीय विचार विमर्श एवं राजनीतिक वार्ता को आगे बढ़ाने एवं क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर आपसी द्विपक्षीय समझ को प्रोत्साहित करने पर सहमति जताई। दोनों नेताओं ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सुरक्षा के समक्ष खतरों एवं चुनौतियों का समय पर और पर्याप्त ढंग से सामना करने के महत्व को रेखांकित किया और इस बारे में आतंकवाद निरोध पर उजबेकिस्तान भारत संयुक्त कार्यकारी समूह के ढांचे के तहत कानून अनुपालन एजेंसियों और विशेष सेवाओं के बीच समन्वय को मजबूत बनाने का इरादा व्यक्त किया। दोनों पक्षों ने रक्षा और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति व्यक्त की। दोनों देशों ने निवेश सहयोग और बढ़ाने का भी आह्वान किया। इन्होंने भारतीय कंपनियों द्वारा उजबेकिस्तान में निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाने की भी बात कही जिसमें विशेष आर्र्थिक क्षेत्र 'नावोई', अंग्रेन और जिज्जाख शामिल हैं।

दोनों पक्षों ने फार्मा, हल्का उद्योग, आईटी और संचार जैसे क्षेत्रों में संयुक्त निवेश परियोजनाओं की संभावनाओं का भी जिक्र किया।

शिष्टमंडल स्तर की वार्ता के दौरान दोनों देशों ने सड़क सम्पर्क बढ़ाने के विभिन्न विकल्पों पर भी चर्चा की। दोनों पक्षों ने पर्यटन को द्विपक्षीय सहयोग का महत्वपूर्ण क्षेत्र बताया। दोनों पक्षों ने अफगानिस्तान की स्थिति पर भी चर्चा की और पूरे क्षेत्र में शांति और स्थिरता के लिए इस देश के महत्व को रेखांकित किया। रूस सहित छह देशों की यात्रा के पहले चरण में मोदी यहां पहुंचे हैं। वह ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और शंघाए सहयोग संगठन :एससीओ: की बैठक में भी शामिल होंगे।

उजबेकिस्तान से मोदी कल कजाखस्तान के लिए रवाना होंगे। वह आठ जुलाई को रूस जाएंगे। दस जुलाई को उन्हें तुर्कमेनिस्तान जाना है। वह 11 जुलाई को किर्गिस्तान तथा 12 जुलाई को ताजिकिस्तान में होंगे।

एससीओ शिखर सम्मेलन रूस के उफा में हो रहा है। एससीओ छह देशों यानी चीन, रूस, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान का समूह है, जिसमें भारत को बतौर सदस्य शामिल किया जा सकता है। भारत और उजबेकिस्तान ने दोहराया कि संयुक्त राष्ट्र को वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखने, सामान्य विकास में सहायता करने और अन्तरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने में केन्द्रीय भूमिका निभानी चाहिए। दोनो देशों ने संयुक्त राष्ट्र ढांचे में व्यापक सुधारों का आह्वान करते हुए सुरक्षा परिषद में दोनों तरह की सदस्यता का विस्तार करने की जरूरत बताई। उजबेकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी के प्रति अपना समर्थन दोहराया।

मोदी ने करिमोव को अपनी सहूलियत की किन्ही तारीखों पर भारत का दौरा करने का न्यौता दिया। उन्होंने कहा कि यात्रा की तारीख राजनयिक माध्यमों से तय की जा सकती है।


Narendra Modi को दूसरा झटका। पहले चीन और अब रूस ने किया पाकिस्तान का समर्थन, फोटो पर क्लिक करके पढ़ें पूरी खबर...

This form you should use to file your income tax return

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Have some time spare to file your income tax return!For our readers,this content I post thanks to moneycontrol .com.Hope that it would be quite a guide who happen to be a little confused.We depend on our old lawyer Singh Saheb though and would file the returns consulting him only.IT returns should be on topmost priorities these days.
Palash Biswas
Here you are!

This form you should use to file your income tax return

This form you should use to file your income tax return© Moneycontrol.com This form you should use to file your income tax return

Balwant Jain

So the new income tax forms have been notified by the government. This came after the forms notified earlier in April were withdrawn due to huge protest by the tax payers. Let us now understand the latest requirements as to the forms which you are required to file. I also intend to discuss other relevant matters relating to additional disclosure on bank accounts and foreign travels as originally proposed and modified as per these modified ITR forms.

The government has notified four forms for filing of your income tax returns which are applicable to individual and/or HUF. Let us discuss as to which form you need to file?

Form No ITR 1: This is also known as Sahaj meaning easy. This form can only be filed by an Individual and no other assessee can use this form for filing of their return of income. It is not that every individual can use this form. This form can only be used by a person whose source of income is salary and not business. Even pensioners can use this form. Moreover you can also use this form in case you have any income under the head income from other sources which generally includes interest from various investment products like saving bank account, recurring bank account, fixed deposits with bank and post offices. This form can be used by you even if you have any exempt income in addition to the taxable income from two of the sources discussed above. You cannot use this form in case your agricultural income exceeds Rs. 5,000 in the previous year as the same need to be added to your regular income for the purpose of determining the average rate of tax on which your other income shall be taxed. So you can use this form even if your other exempt income exceeds the threshold of Rs. 5,000. Earlier there was a cap of Rs. 5,000 of exempt income for using this form.

Please note that if you have won any lottery or have any income from horse race in the last year, you cannot use this form. Moreover you can use this form only if you own one house property, so in case you own more than one house, you cannot use this form. This can also not be used in case you have any asset outside India or any income from a source outside India.

In my opinion this is the forms which would be applicable to majority of the tax payers as most of the tax payers are salaried and do not own more than one house property and have only income taxable under the head "Income from other sources" in addition to receiving either salaries or pension.

Form No. ITR 2A : This is a new form introduced from this year. This form can be used by Individual as well as an HUF unlike the form ITR 1 which can only be used by an Individual and who does not have any taxable income under the head "profits and Gains or business or Profession" or "capital Gains". Moreover in case you have any foreign asset outside India or have income from any foreign source you still cannot use this form for filing of your income tax return. It may be noted that you can use this form in case you have more than one house property or have agricultural income exceeding Rs. 5,000. This form is extended version of form No. ITR1 and can be used only if you either do not have business income or capital gains as well as do not own any foreign asset or have foreign income.

Form No ITR 2: This form can be used by Individual as well as an HUF. This form can be used in case you have income taxable under the head Capital Gains in addition to the income taxable under the head "Salaries" and "Income from other Sources". This form can be used by you even in case you have income from lotteries and horse races. This form can also be used by you in case you have agricultural income exceeding Rs. 5,000 or you own more than one house property. However this form cannot be used by you if you have any income taxable under the head "Profits and gains of business or profession" howsoever small the amount taxable under this head.

This form can even be used by the resident tax payers who have any foreign asset or any income from foreign source.

Form No. ITR 4S: This is commonly called Sugam. This form can be filed by any individual or an HUF who has business income which is taxable at certain predefined basis either as certain percentage of your gross receipt/sales or your income is presumed at fixed amount per income yielding asset owned by you like truck etc. So this form can be used, only and only if, your business income is taxable on some presumptive basis. Broadly speaking this form can be filed by a person who is otherwise entitled to file his return of income in ITR 1 but cannot file as he has certain business income taxable at predetermined way. So in case you have capital gains income or agricultural income exceeding Rs. 5,000 or own any foreign asset or have income from any foreign source you cannot use this return to file your return of income. You cannot use this form even if you have income from lottery or horse race.

Requirement of disclosure in respect of passport and bank accounts

The forms notified earlier had provisions for disclosure of foreign travels undertaken with details of expenses incurred by you. However the revised forms have done away with this requirement and you are only required to give details of your passport number.

As regards the other requirements of furnishing details of your bank account the earlier forms had requirement to furnish details of all the bank accounts held during the previous year including the particulars of joint holders and closing balances in those bank account. The revised forms have the requirements to furnish the details of only active bank account and in case there are no transactions in the bank account during the last three year, you do not have to furnish the details of such dormant bank accounts. Moreover you are not required to furnish the details of balances at the year end and the details of the joint holder of the accounts.

However, you are still required to furnish the details of the bank name, IFSC code and account number of all your bank accounts whether saving or current account. It seems you are not required to furnish details of your recurring account or fixed deposits with banks held by you during the year.

The forms to be used by the person who has taxable income under the head profits and gains of business or profession other than on presumptive basis are not yet notified for the current filing.

I am sure the above discussion will help you in determining which form you need to use for filing of your income tax return.

Balwant Jain is a CA, CS and CFP. Presently working as Company Secretary of Bombay Oxygen Corporation Limited. He can be reached at jainbalwant@gmail.com

http://www.msn.com/en-in/money/personalfinance/this-form-you-should-use-to-file-your-income-tax-return/ar-AAc2l3z?ocid=UP97DHP

Commotion in Nepal due to British Army Activities

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  Commotion in Nepal due to British Army Activities

 

Anglo Nepalese War with   Reference to Gurkha Rule over Uttarakhand & Himachal -17

History of Gorkha /Nepal Rule over Kumaun, Garhwal and Himachal (1790-1815) -138   

   History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) -659

 

                          By: Bhishma Kukreti (A History Student) 

 

                      Warning Letter to Nepal by Hastings

 

                Before, rainy season ends, there could not be war. Warren Hastings used that period for consolidating the armed forces at strategic places and arranging necessary war supply.  Along with planning, preparation for future war, Governor General Hastings sent a warning letter to Nepal Court on 14th June 1814 (John Premble).

            Hastings wrote that "Nepal King should compare the aggression of British Officials with the ruthless, non caring methods, deceptive methods of Nepal officials. Nepal should look into attack of Gurkha army on British territory, the killings, suppression of Nepal army on the subjects of British occupied territories. If Nepal government declared that Nepal Government did not hand on these cruel methodologies then Nepal Court should punish the culprits. If Nepal wanted war with the East India Company then there would be more trouble for Nepal. Nepal would be responsible for war. Nepal should remember that whoever tried in India that King lost the war with the Company".

             In July –August 1814, Commander Bradshaw captured those twenty two villages taken by Nepalese army in past.  Gurkha soldiers put poison into well of those villages to dispatch Company soldiers. In August end, Bradshaw captured Kachhurava Police Station from Gurkha army.

            On 12th August 1814, Nepal King sent a letter to Governor General to free the captured land of Nepal and put ultimatum that in case Company did not free the captured territory Nepal would take necessary step for its defense.

 Governor General stopped reacting and communicating with Nepal.

 

** Most of references and details were taken from Dr Dabral

 

Copyright@ Bhishma Kukreti Mumbai, India, bckukreti@gmail.com7/7/2015

History of Garhwal – Kumaon-Haridwar (Uttarakhand, India) to be continued… Part -660

*** History of Gorkha/Gurkha /Nepal Rule over Kumaun, Garhwal and Himachal (1790-1815) to be continued in next chapter 

 

(The History of Garhwal, Kumaon, Haridwar write up is aimed for general readers)

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                    Reference

 

Atkinson E.T., 1884, 1886, Gazetteer of Himalayan Districts …

Hamilton F.B. 1819, An Account of Kingdom of Nepal and the territories

Colnol Kirkpatrik 1811, An Account of Kingdom of Nepal

Dr S.P Dabral, Uttarakhand ka Itihas part 5, Veer Gatha Press, Dogadda

Bandana Rai, 2009 Gorkhas,: The Warrior Race

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