फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय यह, हर चुनरी में लागा दाग!
पलाश विश्वास
Forward Press
फारवर्ड प्रेस के दिसंबर अंक में आपने डॉ. आम्बेडकर पर विशेष सामग्री पढी। अब जनवरी, 2014 में पढिए सावित्री बाई फूले पर विशेष सामग्री। इस बार की कवर स्टोरी प्रसिद्ध दलित लेखिक Anita Bhartiने लिखी है।
नया अंक जल्दी ही स्टॉलों पर उपलब्ध होगा।
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आज का संवाद
फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय यह, हर चुनरी में लागा दाग
Farook Shahइन सब से निर्माण हो गई है कई सारी फर्जी भाषाएँ और उनके व्याकरण. सच का भेष बनाकर घुमती डोलती, सच का भ्रांत दिशाएं निर्मित करने में गैर-इस्तेमाल करती छलने वाली भाषाएँ... आखिर तो ले डूबेगी सब कुछ बचा-खुचा.
Buddhi Lal Pal· 130 mutual friends
Kamal ka sondrya shastra ki khoj ki gai hai..jaise sondrya ka kurupan..badhai
52 minutes ago via mobile· Like
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মহাকাল বিয়ন্ড দ্যা টাইম commented on your post in Conscious Bengal সচেতন বাংলা.
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जय भीम कुरुक्षेत्र भारत commented on your post in Lord Buddha TV.
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Castists have harmed the left movement the most - up to the hilt - do you have any point against it? |
तेइस साल महानगर कोलकाता में हो गये।नैनीताल से उतरकर मैदान में सबसे पहले इलाहाबाद पहुंचा था 1979 में प्राध्यापकी के लिए अंग्रेजी में शोध करने। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गाइड के साथ पटी नहीं तो कवि मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के सुझाव पर उर्मिलेश के साथ जेएनयू में जाकर पूर्वांचल में उनके कमरे में डेरा डालकर खर्च चलाने के लिए दिल्ली में फ्रीलांचिग शुरु की।दिल्ली से मन उकताने लगा तो फिर नैनीताल पहुंच गया। जेएनयू में नया सेशन शुरु होता इससे पहले उर्मिलेश धनबाद पहुंच गये मदन कश्यप से मिलने। लौटा तो मुझे संदेश भेजकर महीने दो महीने धनबाद जाकर आवाज में पत्रकारिता का सुझाव दे डाला। उत्तराखंडी होने के कारण झारखंड और छत्तीसगढ़ से अपनापा था ही और सीधे पहुंच गया धनबाद।पत्रकारिता की शुरुआत कोयला खानों से जो शुरु हुई तो फिर पीछे देखने का मौका ही नहीं मिला।विवाह 1983 में हुआ।सविता धनबाद पहुंच गयी।फिर हम रांची चले गये। वहां से 1984 में मेरठ पहुंचे। वहां से 90 में बरेली।फिर वहां से 1991 में कोलकाता।
लेकिन मेरी दृष्टि तबसे आजतक नही बदली। मेरा अवस्थान नहीं बदला। जैसे अपने गांव बसंतीपुर में अपने खेतों पर खड़ा होकर पूरा का पूरा हिमालय मेरी आंखों में हुआ करता था,आज भी हिमालय मेरी आंखों में है।हिमालय को अलग रखकर मैं किसी विमर्श में शामिल हो ही नहीं सकता। हालांकि हिमालय से आज हजार मील दूर हूं। लेकिन मेरा गांव अब भी हिमालय की तराई में हैं।बसंतीपुर के वे लोग, समूची पीढ़ी अब मेरा अतीत है।
बिना नागा मेरे भाई का फोन आता है सविता को। मुझे भी। एक ही सवाल ,घर कब लौटोगे।पद्दोलोचन या राजीव दाज्यू के इस सवाल का जवाब आज भी मेरे पास नहीं है।
पिताजी पुलिनबाबू की स्मृति में फुटबाल प्रतियोगिता दिनेशपुर में शुरु हो चुकी है।इस बार उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश की भी काफी टीमें हैं। मैं वहां पहुंच ही नहीं सकता। हालांकि बंगाल और कोलकाता में मेरा कुछ भी नहीं है।
आज ही राजीव नयन बहुगुणा के फेसबुक पोस्ट पर मैंने लिखाः
ऎसी तस्वीरे पोस्ट न करें ।वक्त बहुत संदेहमय है।किसी दिन आप पर भी छुआछूत का आरोप लग जाये तो फिर सफाई देते रहियेगा और सुनवाई कहीं नहीं होगी।नयनदाज्यू,हम बेहद खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं।जहां संवेदनाएं और सारे कला माध्यम यौनगंधी हो गये हैं।हम सब लोग बिग बास के पात्र हैं।
पहाड़ से मेरा संवाद कुछ इसीतरह का अविराम जारी है।
लेकिन अपने गांव में अपने खेत पर खड़े हिमालय को आंखों में भरने का सपना पूरा करनेकी मोहलत शायद जिंदगी अब कभी न दे। सविता की तबीयत खराब रहने लगी है। मैं तो अपने कामकाज में इतना व्यस्त रहता हूं कि अच्छी बुरी सेहत का कोई अहसास नहीं होता।
आज के विमर्श से इस प्रस्तावना का संबंध है भी और नहीं भी है।
दिल्ली में जनसुनवाई के मार्फत देश की पहली सरकार बन रही है।जबकि कारपोरेट राज के कायाकल्प की सारी तैयारियां चाकचौबंद हैं।
जुड़वां ईश्वर की प्रणप्रतिष्ठा हो गयी है।
मोदी ने गर्जना रैली में दस हजार चायवालों को वीआईपी बना दिया।
लोकपाल के जरिये भ्रष्टाचार के मुद्दे को खत्म करने में कामयाबी के बाद दिल्ली में खारिज कांग्रेस ने आप की सरकार बनवाकर लोकसभा चुनावों में सत्ता बेदखल होने के बावजूद फिर सत्ता में वापसी के तमाम दरवाजे और खिड़कियां खोल दी हैं।
इसके जवाब में जन पक्षधरता के मोर्चे पर यथास्थिति बनी हुई है।
आज की पारमाणविक रासायनिक जैविक बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक वैश्विक युद्ध तंत्र के प्रतिरोध के सवाल पर हमारे मुकाबले के मोर्चे पर अब भी मध्ययुगीन ढाल तलवार,तीर कमान, भाले का विमर्श चल रहा है। जैसे हम इक्कीसवीं सदी में नहीं,अब भी बीसवीं सदी में जी रहे हैं। हमारे तौर तरीके, हमारे मुद्दे,हमारे मुहावरे अति उच्चतकनीकी दक्षता के बावजूद अब भी सामती हैं। हम उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के विचारों,विमर्श और मानसिकता में जी रहे हैं।
संवाद के सारे आयोजन सत्ता पक्ष की ओर से है और उन्हीं के प्रवक्ता बतौर लोग लिख बोल चल रहे हैं। जनादेश उन्ही की रचना है,जिसे हम मौलिक और असली मानकर जस्न मना रहे हैं। जनसुनवाई उन्हीं के पक्ष को मजबूत बनाने की परिक्लपना है और फिक्स्ड मैच जीत लेने के उत्साह में हैं हम।जबकि बदल कुछ भी नहीं रहा है।बदलाव का सपना ही मर गया है। सपनों की लाशें ठोते हुए हम सारे लोग फर्जी संवाद,फर्जी जनमत जनादेश,फर्जी जनांदोलन और फर्जी विमर्श का दुस्समय जी रहे हैं और खुशफहमी हैं कि परिवर्तन हो रहा है।कबंधों की कोई दृष्टि होती नहीं है।कबंध सिर्फ जिंदा लोगों को काटकर उन्हें भी कबंद बना देने की परिकल्पना में जीते हैं।
संघ परिवार के तौर तरीको को देख लें या कांग्रेस के गिर गिरकर उठ खड़े होकर सबकुछ अपने नियंत्रण में रखने की दक्षता समझ लें।
मसलन गैर जरुरी और बेहद खतरनाक वैक्सीन कार्यक्रम,एड्स कारोबार सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार है इन दिनों।
सबसे ज्यादा संवाद, सबसे ज्यादा संदेश कारपोरेट प्रायोजित कार्यक्रमं में हैं जबकि हम संवाद के लिए तैयार हैं ही नहीं। सत्ता वर्ग और कारपोरेट तबका गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता के बावजूद,राजनीति अस्थिरता और अल्पमत सरकारों के बावजूद लोकतांत्रिक तौर तरीका का दिकावा करते हुए निरंकुश अश्वमेध अभियानजारी रखे हुए हैं।जनांदोलनों से हमें बेदखल कर दिया उन्होंने ।जो भी आंदोलन जारी है,उनकी फंडिंग से चल रहा है उनका ही हित साधने के लिए।हमारी भाषाओं,माध्यमों, विधाओं, लोक, मुहावरों पर भी उन्हीं का कब्जा है।
आपस में घमासान करने वाले जनपक्षधर तबको से निवेदन है कि इस युद्धक बंदोबस्त में प्रतिरोध की बात रही दूर,आत्मरक्षा के लिए हम क्या कर पा रहे हैं।
हम जनशत्रुओं के विरुद्ध कोई मोर्चा पिछले बीस साल के दौरान कोल नहीं सके हैं। जितने मोर्चे खोले गये हैं सब जनपक्षधर तबकों ने एक दूसरे के खिलाफ को खोले हैं। हम असहाय अपने ही लोगों के वार से अपनों को लहूलुहान होते देख रहे हैं, मरते खपते देख रहे हैं।
हमारे विमर्श राजधानी केंद्रित हैं और जनपद और देहात कही ंहै ही नहीं।
हमारे दृष्टि में कोई हिमालय है नहीं,कोई समुंदर नहीं है,कोई महाअरण्य भी नहीं और न कोई रण है या रेगिस्तान। हम अपने इतिहास और भूगोल से बेदखल स्वार्थी पीढियों का जमावड़ा हैं।
जिन सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी से बदलाव का ख्वाब हम देख सकते हैं,कारपोरेट हित साधने के लिए अलग अलग अस्मिता और पहचान के तहत वे सारी की सारी आपसी मारकाट में उलझी हुई हैं।यह महज निजी विवादों का निपटारा का मामला नहीं है,घनघोर समाजाजिक विखंडन का मामला है जिससे सिर्फ मुक्त बाजार उन्मुक्त होता है।
हमारे पास कोई भाषा नहीं है।कोई मुहावरा नहीं है।कोई माध्यम नहीं है।जो हम इस खंड विखंड देश को देश बेचने वाले सौदागरो ं सेबचा सकें या बचाने की सोच भी सकें।सार विद्वतजन,सारी मेधायें बस इसी कवायद में लगी है कि इस देश को कितने और टुकड़ों में बांटा जा सकें ताकि पूरा देश हिमालय, पूर्वोत्तर,मध्य़भारत या तमाम आदिवासी इलाकों की तरह अनंत वधस्थल में तब्दील हो सकें।
सीआईए नाटो की आधार परियोजना,अमेरिकी खुफिया निगरानी,विनिवेश, बेरोजगारी, मंहगाई मूल्यवृद्धि, जरुरी बुनियादी सेवाओं को क्रयशक्ति से नत्थी करने की कवायद, जल जंगल जमीन आजीविकाऔर नागरिकता से बेदखली,तबाह कृषि और आत्महत्या करे किसान, मजूरों के कटे हाथ, ठेके पर नौकरी,भूमि सुधार जैसे मुद्दों के बजाय आइकनों की चर्चा में हम मशगुल हैं। व्यक्ति केंद्रिक मुद्दे हैं सारे के सारे। पूरे देश को एक नक्शे के तहत जोड़ने की कोई पहली ही नहीं हो पा रही है।
हमसे तो वे लोग बेहतर थे,जिनकी हम नालायक संताने हैं। उन पुरखों को भी तो हम आपसे में लड़ने के सबसे अचूक हथियार बना चुके हैं।
हमारे विध्वंस के सारे इंताजाम हम ही कर रहे हैं। हमीं तो।
हम हर चुनरी में दाग खोज रहे हैं।
अब कोई चुनरी ही बच नहीं रही जिसमें दाग न हो।
और तो और वह घर भी नहीं बचा,जहा वापस लौटने की चिंता है।
बहुत कम लिखा है।हमसे बेहतर लिखने,बेहतर बोलने वाले लाखों करोड़ हैं और हमें हमें उनकी बंद जुबान खोलने की चाबी की तलाश है। कलम और उंगलियों पर जो कंडोम लगा है, उसमें अभिव्यक्ति कैद हो गयी है हमेशा के लिए। हम कम ही लिख रहे हैं।इसे कुछ ज्यादा ही आप समझेंगे ,इसी उम्मीद के साथ आज के लिए बस इतना ही।
AAP on course to form govt in Delhi, Arvind Kejriwal promises to deliver
Dipankar Ghose , Aditi Vatsa : New Delhi, Sun Dec 22 2013, 22:33 hrs
People at a majority of places said 'yes' to formation of government with the support from Congress, said Kejriwal.
The Arvind Kejriwal-led Aam Aadmi Party (AAP) looks set to stake claim to form the government in Delhi, with a meeting scheduled with Lieutenant Governor Najeeb Jung on Monday afternoon. Party officials said the AAP's senior leadership would announce the decision prior to the meeting.
Kejriwal himself seemed to indicate that a government would be formed. "We will deliver whatever assurances we have made in ourmanifesto. It was prepared after wide consultations and a lot of thought went into it. Moreover, the people of Delhi are expecting much more from us and we will perform," he said, addressing a jan sabha in New Delhi area where he beat incumbent Chief Minister Sheila Dikshit by 25,864 votes.
He, however, added that a final decision would be taken after collection of data on the opinion of the people from all over the city.
While collation of data of the party's "referendum" was conducted through Sunday evening, sources indicated that the "people's response has been overwhelmingly in favour of forming a government with outside support from the Congress".
"At the jan sabhas, and in the messages that we have received, people have by and large been supportive of AAP forming the government," said party leader Manish Sisodia.
Addressing another jan sabha in Sarojini Nagar, his last for the day, Kejriwal said, "I am leaving you with one promise... if we form the government, five people will not take decisions in a closed room. We will come to you over and over again, and ask you what you want."
Following charges that the AAP would not be able to fulfill its poll promises, Kejriwal said, "I do not say that God has given brains only to us to solve all the problems. Koi jadu ki chhadi nahi hai (there is no magic wand). But I know that if the people of Delhi stand together, we can do anything. People used to tell us that we can't do anything. But even now, there is a long road ahead. Abhi safai aur vikas karna hai (We have to clean the system and focus on development)."
Surendra Grover
फेसबुक ने ज़ुबानों को कुछ नए आयाम दिए हैं.. अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता पूरे तौर पर दी है.. इतनी दे दी है कि छोटे - बड़े का लिहाज़ मुरव्वत यहाँ कोई मायने नहीं रखता.. अनुभवों के मायनों से किसी को मतलब नहीं.. गाली गलौच और धमकियों की भाषा आम हो चुकी है.. वाह मार्क जुकरबर्ग वाह..
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Narain Singh Rawat and 18 others like this.
Shyam Kumarआज्ञाकारी, चाटुकारि , आदर्श वादी , पैरछुवो वादी संस्कृति से उन्मुक्ति के लिये फेसबुक का शुक्रिया।
2 hours ago via mobile· Like· 2
Ashish Sagar Dixitदिल से निकली सही बात ये हमारे संस्कारो का पतन ही है
Amiita Agarwal Hmmmmm .... Everyone should follow their maryada , lihaaj , bada - chota - umaar ka kayda ....
about an hour ago via mobile· Like· 3
Palash Biswasऎसा वही लोग कर रहे हैं,जिन्हें निजी जीवन में भी संवाद और संयम,मातृभाषा ौर माध्यमों के ुपयोग का न अभ्यास है और न तहजीब।
Sudha Raje
जानबूझकर मौन रहा जो वही समय का पापी है ।
और बताने वाला खंडित सच को केवल हत्यारा ।
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छुपा लिया है जिसने सच का दस्तावेज़ किताबों में ।
सुधा देखना घर से दर- दर धुँआ बनेगा अंगारा ।
मौन जानकर मौन रहा जो नेत्रहीन लोचनवाला
वही देखना वही नोंच लेगा अपने दृग दोबारा ।
काल कर्म की कठिन कसौटी केवल निर्मम सत्य सुधा ।
मृत्यु उन्हें भी तो आयेगी समर अभी बाकी सारा
Copy right
सुधा राजे
©®
Palash Biswasसुधा,तुम्हें मालूम हो या नहीं,लेकिन हमें मालूम है कि तुम हमारे परिवार में हो।पहाड़ों में तो खासकर अपने कुमाय़ूं में सबसे अपनों के साथ यानी इजा बाज्यू के साथ भी तो हम तू संबोधन से बात करते हैं।इसीलिये बेहिचक तुम्हें तुम संबोधित करता हूं।देशना यह किसी विमर्श विवाद का विषय न बन जाये।हम चाहते हैं कि हमारे रोजाना संवाद के विषयपर तुम अपने कवित्व का थोड़ा सहयोग दो तो हमें विषय विस्तार को काव्यात्मक ढग से खोलने में भारी मदद मिल सकेगी।तुम समर्थ हो इसीलिए।
Sudha Raje
एक महा विद्वान की पोस्ट पर एक ""शराब पीने वाली स्त्री को एक तथाकथित विदवान ""बिना लायसेंस वाली वेश्यायें ""
कह रहे हैं ।
अगर आप सबने हमारे विगत दो महीनो के लेख पढ़े होंगे तो हमने
""नशा और शराब को सख्त मना किया है स्त्री के लिये और नशा करने वाले पुरुष पर किसी भी हालत में कतई तक भी विश्वास ना करने को कहा है ।
किंतु
सवाल ये है कि भारत की बङी आबादी जो जंगलों में रहती है
पहाङो और रेतीलों में रहती है
वहाँ वनवासी और खानाबदोश
मजे से बिना किसी भेदभाव के
शराब पीते और नाचते गाते हैं ।
और उनमें उतनी सभ्यता नहीं कि वे जाम बनाये
मगर वहाँ औरतों पर शोषण अत्याचार नगण्य हैं ।
वे मजे से रहती है और नाचती गाती जोङियाँ सुख से मेहनतकश जीवन जीती हैं ।
गाँवों में प्रौढ़ महिलायें हुक्का बीङी और भाँग खूब पीती है और कतई उनको कोई बदचलन या वेश्या नहीं कहता है ।
पुरुषों के साथ नाचना गाना मेला उत्सव जाना ये सब बाते भारत के वनवासी जीवन का अनिवार्य अंग है ।
तो सोचने वाली बात है
कि
आधपनिकता के नाम पर जो महिलायें शराब नशा करतीं हैं और पुरुषों के बीच हँसती गाती दोस्ती यारी की बातें बराबरी की बातें करतीं है ।
वे पीठ पीछे उन्ही मंडली वालों द्वारा ""क्या समझी ""
जाती हैं???
ग़ौर करें सोच को जब तक आपके सामने व्यक्त ना किया जाये आप सामने वाले को भला मानुष और खुले मन का साफ इंसान समझतीं रहेगी वह यार यार कहके बात करता रहेगा कंधे पर सिर पर पीठ पर हाथ रखकर गले लगाकर अनुमति का दायरा बढ़ाता रहेगा ।
आप
मॉडर्निटी के चक्कर में सब अवॉईड करती रहोगी
और शराब पीने के बाद उसी मंडली में से कुछ तथाकथित लोग उस हँसने बतियाने शऱाब पीने वाली लङकी को ""बिना लायसेंस वाली वेश्या ""भी समझ लेंगे ।
यही अंतर है
भारतीय और बल्कि एशियाई समाज में ""जितना नगरीकरण और तकनीकी जीवन होता जाता है मर्दवादी सोच उतनी ही गिरती चली जाती है।
एक
समय जींस पहननेवाली लङकी को चालू समझा जाता था ।
आप समझें या न समझें भारतीय मर्दवादी समाज जितना नौकरीपेशा पुरुष वर्ग लेखक शिक्षक धार्मिक नेतृत्व समुदाय घटिया सोचता है उतना कोई नहीं ।
आज भी गाँवों की मेहनतकश दलित और वनवासी महिलायें बङी संख्या में शराब बनाती बेचती पीती पिलाती है उनकी आजीविका का साधन तेंदूपत्ता बीङी महुआ शराब गाँजा भाँग अफीम है।
इसी से सोच का पता चलता है ।
बङी संख्या में पारंपरिक परिवारों में महिलायें पान खातीं है
किंतु
आजके महानहरों में जहाँ हर दूसरे तीसरे की जेब में गुटखा सिगरेट बीङी होता है ।पान की दुकान पर जमघट लगा रहता है ।
पान खाने वाली स्त्री बस ऑटो दफतर कहीं दिख जाये तो सबकी भवों पर बल पङ पङ जाते हैं चालू लगने लगती है वह।
ये है पढ़ा लिखा नगरीय मर्दवादी मुख्य समाज
जो मानता है कि अपनी मरजी से ज़ीने का हक़ सिर्फ उसको है ।
स्त्रियाँ सिर्फ पुरुषों के बनाये नियमों पर ही चल सकतीं हैं।
गज़ब!
ये कि ये ही लोग दफतर घर बाहर महिला को
शराब सिगरेट पान नशा ऑफर करके खुलकर जीने पीने नाचने गाने को हक बताते हैं।
सोचो लङकियो!!
जब कहीं पार्टी में आईन्दा ऐसा ऑफर मिले तब ग़ौर देना कि वहाँ लोग समझ क्या रहे हैं।
©सुधा राजे
Like· · Share· 9 hours ago·
Sudha Raje, Vishwas Meshram and 24 others like this.
Sudha Rajeये अगर उलट दें कि दादी नानी माँ काकी की उमर की स्त्री अट्ठारह बीस साल के लङके को पटाये कि सहमत हो??? और अगर उस पर आरोप लगे कि वह दुष्टा है तो कह दे कि सहमति ले ली थी!!!!!! क्योंकि कुदरतन तो स्त्री बिना सहमति के पुरुष को यूज कर ही नहीं सकती न!!!!!
25 minutes ago via mobile· Like· 1
Anju Mishra Bahut sundar...
Ye mansikta kab badlegi..
22 minutes ago via mobile· Like· 1
Sudha Rajeसब औरते जब एक साथ खङी होगी स्त्री के हक़ और हमले शोषण छल के खिलाफ
20 minutes ago via mobile· Like
Rakesh Kumar Mind blowing!
15 minutes ago via mobile· Like
Nityanand Gayen
उठते देखा
ढलते देखा
अपना रुख बदलते देखा
लड़ते देखा
फिर मैदान से भागते देखा
तुम्हें योद्धा कहूँ
या रणछोड़ ..
चलो ....कुछ नही कहना
यहाँ मौजूद हैं
वीरों के वीर
जिनके पास हैं
नैतिकता , ईमानदारी , सत्य के प्रवचन
सिर्फ औरों के लिए
गिरगिट ने पहचान लिया था इन्हें
मुझसे पहले
अच्छा ....अब ठीक है
मैं बोका निकला इस बार भी
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Palash Biswasमोर्चे पर जमने की बारी आपकी भी है,प्रिय नित्यानंद गायेन।
S.r. Darapuri and Anu Ramdas shared a link.
The Other Side Of The Story | Debarshi Dasgupta
Anu Ramdas
sangeeta's side of the story in a mainstream magazine:
'"The treatment of Sangeeta by Devyani Khobragade is tantamount to keeping a person in slavery-like conditions or keeping a person in bondage."
Urmilesh Urmil
मीडिया मंथन(21 दिसम्बर, शनिवार) के ताजा एपिसोड में इस बार हमने तमाशे पर दबती खबरों पर चर्चा की। चर्चा के दौरान के दो चित्र।
Like· · Share· about an hour ago·
Palash Biswasउर्मिलेश भाई,आपकी लेखकीय &मता के मद्देनजर आपसे और कारगर पहल की उम्मीद है।हम अपने मोर्चे पर हमेशा आपके िंतजार में हैं।
Sunil Khobragade
http://www.canarytrap.in/2013/12/19/was-devyani-khobragades-domestic-help-a-spy/
Was Devyani Khobragade's domestic help a Spy? | Canary Trap
Like· · Share· 26 minutes ago·
Uttam Sengupta
There is certainly much more than meet the eyes. But two things are clear. One, the inefficiency and incompetence of the Indian Foreign Service and MEA. Two, their arrogance. I have heard many Indians complain about the rudeness of Indian missions abroad. Fathers of several abandoned wives of NRIs in Punjab keep complaining about the indifference they faced at these missions. I find it difficult to sympathise with our diplomats.
T N Ninan: Diplomacy, then & now
Like· · Share· 18 hours ago·
Ak Pankaj
वैसे खुर्शीद के जाने का प्रतिशोध हम उस लड़की से नहीं ले सकते जिसने उन पर आरोप लगाया। उल्टे उस लड़की को बचाना ज़रूरी है। क्योंकि यह ख़ुर्शीद को भी मंज़ूर नहीं होता कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली कोई लड़की सिर्फ इसलिए प्रताड़ित की जाए कि उसने इसे मुद्दा बनाया। फिर दुहराने की इच्छा होती है कि हमारे समाज में लड़कियां अब भी बहुत अरक्षित हैं और उनका बचाव करके ही हम ख़ुर्शीद अनवर को बचा सकते हैं। दुर्भाग्य से हमारे बीच बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो ऐसी पीड़ित लड़कियों और उनके आरोपों का इस्तेमाल हथियार की तरह करते हैं जिसका नतीजा ख़ुर्शीद जैसे संवेदनशील लोगों की मौत में होता है। अच्छा होता कि इस मामले की करीने से जांच होती और ख़ुर्शीद उस न्याय को स्वीकार करने के लिए, ज़रूरी होने पर अपने हिस्से की सज़ा काटने के लिए भी, बचे होते। लेकिन फिलहाल यह हालत है कि ख़ुर्शीद तो सारे कठघरे तोड़कर चले गए हैं और वे लोग कठघरे में हैं जो बिल्कुल फ़ैसले सुनाने पर आमादा थे।
खुर्शीद अनवर पर मेरी यह टिप्पणी आज जनसत्ता में आई है। कठघरों के पार ख़ुर्शीद जनसत्ता के संपादक थानवी जी के घर ख़ुर्शीद अनवर के साथ एक बहुत प्यारी और लंबी मुल...See More
Priya Darshan
खुर्शीद अनवर पर मेरी यह टिप्पणी आज जनसत्ता में आई है।
कठघरों के पार ख़ुर्शीद
जनसत्ता के संपादक थानवी जी के घर ख़ुर्शीद अनवर के साथ एक बहुत प्यारी और लंबी मुलाकात वह इकलौती थाती है जो हम दोनों ने साझा की थी। मेरे सकुचाए हुए स्वभाव के बावजूद ख़ुर्शीद अनवर की गर्मजोशी में कुछ ऐसा था जिसने औपचारिकता के अक्षांश-देशांतर मिटा दिए थे। बाद में उन्हें क़रीब से देखता और एक लगाव महसूस करता रहा। हर रंग के कठमुल्लेपन के ख़िलाफ़ और हर तरह की प्रगतिशीलता के हक़ में जैसे उन्होंने एक जंग छे...Continue Reading
Palash Biswasपढ़ ली है।सहमत।
Samit Carr via Alok Tiwari
Alok Tiwari likes a link.
स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी ने कहा, जवान रहने के लिए कई सांसद लेते हैं दवा: और बाबा रामदेव जी के आयुर्वेद को गाली देते हैं,
स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी ने कहा, जवान रहने के लिए कई सांसद लेते हैं दवा | PrabhatKhabar.com :...
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Surendra GroverMedia Darbar
क्यों नहीं राजनीतिक दल अपने खातों और चुनाव प्रबंधन सहित विभिन्न खर्चों को सूचना के अधिकार के तहत लाना चाहते हैं. इस खेल में सारी पार्टियां और उसके कथित साफ-सुथरी छवि के ईमानदार नेता शामिल है...
Read more: http://mediadarbar.com/25229/conscious-of-losing-everything-if-he-did/
सबकुछ गंवा के होश में आए तो क्या किया…मीडिया दरबार « मीडिया दरबार
Like· · Share· 42 minutes ago·
Jagadishwar Chaturvedi
दारु और मिठाई की लत बेहद ख़तरनाक होती है । यह अंततः शरीर खा जाती है ।
Like· · Share· about an hour ago·
Bodhi Sattva and 21 others like this.
Asshok Upadhyay prabhu..naa daaru pilayee naa mithayee khilayee aapne..
43 minutes ago via mobile· Like
Basant Rawat Tabhi to kai jati he..sir.
38 minutes ago via mobile· Like
Prabhat Pandeyकिसी भी लत की लत का हमला शरीर पर ही होता है.
Basant Rawat Lekin jitna bhi jina he man se man ko mar kar nahi...soon let ..kya fark padta he...kisi ko bhi mar ke aap khush nahi reh sakte to man ko mar kese khush rahege..
26 minutes ago via mobile· Like
Palash Biswasबहुत सही पर्यवे&ण है।खासकर बंगाल में हर मोहल्ले में,हर गली में मिठाई और दारु की दुकाने हैं।
BBC World News
A long winter for Christians in the Middle Easthttp://www.bbc.co.uk/news/magazine-25463722
Like· · Share· 2135· about a minute ago·
Reservation in Private Sector: An Overview of the Proposition- Dr. Anand Teltumbde
* |
http://toanewdawn.blogspot.in/2012/07/reservation-in-private-sector-overview.html
Ak Pankaj
उन सारी स्त्रियों का बलात्कार नहीं हुआ जो 'कृष्ण'की रासलीला में बंशी की 'धुन पर मदहोश'होकर आया करती थीं.
Like· · Share· Yesterday at 4:57pm·
Surendra Grover
कामरेड का अर्थ वामपंथी होना कत्तई नहीं बल्कि "कामरेड" एक ऐसा संबोधन है जो सारे भेद मिटा देता है..
कुछ लोग 'कामरेड'संबोधन से ही जल भुन जाते हैं! दरअसल वो वामपंथ के अंखमुदवा आलोचक होते हैं और 'कामरेड'शब्द को वामपंथ से ही जोड़के देखते हैं! दोस्त 'कामरेड'शब्द उस बराबरी का नाम है जो समाज में बने संबोधन के पदानुक्रम का विरोध करता है! इसका मतलब होता है साथी या दोस्त जो आया ही था मिस्टर, मिसेज, मी लार्ड, माय लेडी जैसे विभेदकारी संबोधनों को समाप्त करने के लिए! ये स्पेनिश शब्द है जो फ्रेंच रेवोलुशन में मशहूर हुआ! 'कामरेड'होने के लिए आपका वामपंथी होना कोई शर्त नहीं मेरे भाई!
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Rajiv Nayan Bahuguna, चन्द्रशेखर करगेती and 15 others like this.
Main Uddin Comrade means "friend", "colleague", or "ally". The word comes from French camarade and this French word has it roots in the Spanish term camarada.
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Main Uddin A comrade can be socially or politically close, a closeness that is found at the etymological heart of the word comrade. In Spanish the Latin word camara, with its Late Latin meaning "chamber, room," was retained, and the derivative camarada, with the...See More
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Gladson Dungdung added 4 new photos to the album Development or Destruction?
Today, we had a meeting in Okba village of Basia block comes under Gumla district in Jharkhand. The Power Grid Corporation of India has cut down thousands and thousands of old trees of the Adivasis, their land was also captured and harvest was also destroyed. The most unfortunate part is they were neither informed nor consented. The govt promised them to provide adequate compensation but they're still waiting for it. Today, we have decided to start another mass movement against the injustice done to the villages in the name of growth and development. The authority also didn't plant a single tree after cutting thousands of those. You can also join us. We'll be having a mass public programme near the project office of PGCOI at Sisai on 10th of January, 2014.
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Thekkemeppilly Vijayakumar and 12 others like this.
Nilim Dutta Wanton deforestation is unambiguously 'destruction'.
Baswant Vithabai very bad...!
Virendra Yadav
जो वन्दे मातरम की हुंकार भरते हैं और देश भर में भारत माता का जयकारा लगाते हैं वही मुम्बई में क्यों भारत को इंडिया बना कर 'वोट फार इंडिया ' का नया नारा देते हैं ? लगता है कि मुम्बई ने 'इंडिया शायनिंग ' की याद तो ताज़ा कर दी है, लेकिन अंजाम भुला दिया है . नहीं ?
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Jagadish RoyMrityunjoy Roy
https://www.youtube.com/watch?v=JiRVPTC1l5A&feature=c4-overview
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Sudha Raje
एक स्त्री हज़ारों कारणों से आत्महत्या कर लेती है ।
और हमारा अनुभव है कि लगभग हर स्त्री कम से कम दो चार बार सोच लेती है जीवन में मरना है ।
और शायद एक दो बार बार प्रयास भी करती है ।
किंतु
पुरुष की आत्महत्या के क्या क्या कारण हो सकते हैं??
1-गरीबी
2-प्रेम में जोङे से मरना या प्रेम में धोखा
3-अपराध में फँसकर निकल पाने का मार्ग ना होना
4-कर्ज और व्यापार की असफलता
5-नपुंसकता और विवाह में नाकामी
6-पत्नी की बेवफ़ाई
7-घरवालों से कलह
8-परीक्षा में फेल
9-अप्राकृतिक अत्याचार का शिकार होते रहने की दुर्दशा
10-सदमा
11-अंतरात्मा का पापबोध
12-गुस्सा धमकी और ब्लैकमेलिंग
13-कैरियर में नाकामी
14-अकेलापन ऊब और उपेक्षा
15-बदनामी अपयश
और????????
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Prakash K Ray
It is great to hear from Arvind Kejriwal that Aam Aadmi Party's government in Delhi will stop the 'donation' system in the private schools and review their fees. Other items on the agenda rock as well.
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Uday Prakash, Yogesh Kumar Sheetal, Shree Prakash and 47 others like this.
Shama Zehra Zaidi private schools should pay service tax and that money be used to improve government schools. the same policy should be adopted for private hospitals.
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मनुरंजन मनु His own children reading in a public school with a fee upto 15000 rs...
Sree Reddy Good eduaction is wealth. Nobody can grab or destroy it. That s why parents put their children in good private schools to ensure good education and good future. Government / municipality administred schools in urban areas are pathetic. In olden days, few decades there used to be good government schools. Not any more. Government should invest in quality education and provide well educated and qualified teachers.
Manish Chiranjiv Koi Revenue generation ka bhi programme hai kya? Apart from taxing...
Jayantibhai Manani shared Dilip C Mandal's photo.
पूर्व प्रधानमंत्री वीपीसिंह का नाम सुनकर तथाकथित उच्चजातीय बुध्धिजीवियो का फेस बिगड़ जाता है क्योकि देश के 54% ओबीसी समुदाय को प्रशासन की नौकरियो में संवैधानिक 27% आरक्षण के द्वारा प्रशासनिक सता में सामाजिक भागीदारी देती मंडल कमीशन की सिफारिस को 7 अगस्त 1990 में लागु करने की घोषणा कियी थी.
वी. पी. सिंह के प्रधानमंत्री रहने के दौरान विश्व इतिहास की दो महान विभूतियों बाबा साहब आंबेडकर और नेलसन मंडेला को भारत रत्न दिया गया. इसलिए जाहिर है कि वी.पी. सिंह महान बुद्धिजीवियों की नजर में विलेन हैं. एक और कारण है, जो जगजाहिर है.
Like· · Share· Yesterday at 9:35am·
Sudha Raje shared Pran Chadha's photo.
खुद ही कुछ कहे
नमस्कार
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खुर्शीद अनवर की आत्महत्या और कुछ सवाल
मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।
अपूर्वानंद
आखिर खुर्शीद अनवर ने ज़िंदगी से बाहर छलांग लगा ली। यह असमय निधन नहीं था। यह कोई बहादुरी नहीं थी। और न बुजदिली। क्या यह एक फैसला था या फैसले का अभाव? अखबार इसे बलात्कार के आरोपी एक एनजीओ प्रमुख की आत्महत्या कह रहे हैं। क्या उन्होंने आत्महत्या इसलिए कर ली कि उनपर लगे आरोप सही थे और उनके पास कोई बचाव नहीं था? या इसलिए कि ये आरोप बिलकुल गलत थे और वे इनके निरंतर सार्वजनिक प्रचार से बेहद अपमानित महसूस कर रहे थे? आज खुर्शीद की सारी पहचानें इस एक आरोप के धब्बे के नीचे ढँक जाने को बाध्य हो गई हैं: कि वह एक संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता थे,कि इंसानों से मजहब की बिना पर की जाने वाली नफरत उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त थी, कि वे भाषा के मुरीद थे और भाषा से वे खेल सकते थे, कि वे उर्दू के माहिर थे लेकिन उनके दफ्तर में आप हिंदी साहित्य का पूरा जखीरा खंगाल सकते थे, कि गायत्री मंत्र का उर्दू अनुवाद करने में उन्हें किसी धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकताके सिद्धांत का उल्लंघन नहीं जान पड़ता था क्योंकि वह उनके लिए पाब्लो नेरुदा या नाजिम हिकमत या महमूद दरवेश की शायरी की तरह की एक बेहतरीन शायरी थी, कि भारत के लोकगीतों और लोकसाहित्य को इकट्ठा करने, उसे सुरक्षित करने में उनकी खासी दिलचस्पी थी, कि इस्लामी कट्टरपंथियों पर हमला करने में उन्हें ख़ास मज़ा आता था और यहाँ उनकी जुबान तेजाबी हो जाती थी, कि वे हाजिरजवाब और कुशाग्र बुद्धि थे, कि वे एक यारबाश शख्स थे, कि अब किसी उर्दू शब्द की खोज में या अनुवाद करते हुए उपयुक्त भाषा की तलाश में वह नंबर अब मैं डायल नहीं कर पाऊंगा जो मुझे ज़ुबानी याद था, कि यह मेरा जाती नुकसान है और एक बार बलात्कार का आरोप लग जाने के अब इन सब का कोई मतलब नहीं।
क्यामैं एक 'बलात्कारी'का महिमामंडन कर रहा हूँ?क्या मैं नहीं जानता कि महान फिल्मकार या लेखक या कलाकार या शिक्षक या पत्रकार या न्यायविद या धार्मिक गुरु या धर्मनिरपेक्ष योद्धा होना अपने आप में इसकी गारंटी और गवाही नहीं कि आप बलात्कार नहीं कर सकते? कि बलात्कार पर बात करते समय अभियुक्त के इन उज्ज्वल चारित्रिक पक्षों को उसकी वकालत में हाजिर नहीं किया जाना चाहिए ? कि मुमकिन है ठीक इसी के कारण आप ताकतवर हो गए हों और उस जुर्म का मौक़ा आपको मिल गया हो? कि बलात्कार पर बात करते समय आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को बलपूर्वक किनारे किया जाना चाहिए ताकि वह अभियोक्ता को आपके मुकाबले हेय साबित न कर सके ?
इसीलिए पिछले दो महीने से, जबसे फेसबुक की दुनिया में पहले अनाम, लेकिन स्पष्ट सकेतों के साथ और बाद में सीधे-सीधे खुर्शीद पर यह आरोप लगने लगा जिसने एक मुहिम की शक्ल ले ली कि उन्होंने अपने घर पर एक नशे में लगभग बेहोश लड़की के साथ बलात्कार किया तो उनके करीबी दोस्तों ने भी उनके साथ कोई रहम नहीं किया। उन्हें लगातार कहा कि अगर उन पर अभियोग लगा है तो उन्हें कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए ही खुद को निरपराध साबित करना होगा।
लेकिनयह अभियोग कहाँ था? एक सी.डी. में जो मधु किश्वर के दफ्तर में लड़की के मित्रों की मौजूदगी में उनके द्वारा तैयार की गई, जिसमें 'घटनाक्रम'को तैयार करने में 'घटनास्थल'पर उपस्थित और अनुपस्थित मित्रों ने ही नहीं, खुद मधु किश्वर ने भी इशारे किए।फिर कोई दो महीने तक यह सीडी अलग-अलग हाथों घुमाई और दिल्ली और उसके बाहर भी दिखाई गई। मधु किश्वर खुद खामोश रहीं, लेकिन उन्होंने सीडी तैयार करके कुछ नौजवानों के हाथ में दे दी, बिना यह ख्याल किए कि उसमें लड़की और अभियुक्त की पहचान साफ़ जाहिर है और उसकी पहचान को सार्वजनिक करना एक दंडनीय अपराध है। इस बात को वे नातर्जुबेकार नौजवान न जानते होंगे लेकिन बलात्कार के आरोप के प्रसंग में क्या सावधानी बरतनी है, इस सी.डी. को सार्वजनिक करने के क्या नतीजे हो सकते हैं, इससे मधु नावाकिफ होंगी, यह मानना मुश्किल है।
मधु यह जानती होंगी कि बलात्कार या यौन-हिंसा के खिलाफ नए कानून में ऐसी घटना की शिकायत करने के लिए 'पीड़ित'को पुलिस में जाने की ज़रूरत नहीं है। यह सही है कि पारिवारिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से 'पीड़ित'इसे आगे न ले जाना चाहे, लेकिन किसी 'जुर्म'की खबर को न्याय प्रक्रिया से छिपा कर रखना कितना न्यायसंगत है, इस पर कम से कम मधु किश्वर को विचार करना होगा। यह माना जा सकता है कि लड़की के मित्र इस कानूनी पहलू से अनजान हों और अपनी समझ में इस सीडी के जरिए जन समर्थन एकत्र करके उस लड़की की मदद कर रहे हों। यह भी ठीक है कि ऐसी स्थिति में 'पीड़ित'को हर तरह का सहारा दिए जाने की आवश्यकता है और उसे रपट दर्ज करने की हिम्मत बंधाना ज़रूरी है। लेकिन ऐसा करते समय वे भूल गए कि न्याय का तकाजा यह है कि वे लड़की की पहचान ही नहीं अभियुक्त की पहचान भी उजागर न होने दें। इसलिए भी कि इसके दो पक्ष हैं ( हालाँकि मैं जानता हूँ कि अब किसी भी मामले का सिर्फ एक ही पक्ष होता है और ने को उसे मानना होता है वरना वह भी अभियुक्त की श्रेणी में डाल दिया जा सकता है) और वे दूसरे पक्ष के बारे में कुछ नहीं जानते। तीसरे, क्या वे यह सोच रहे थे कि खुर्शीद इतने ताकतवर थे कि बिना अभियान के उन्हें कठघरे में खड़ा करना मुमकिन न था? क्या फेसबुक पर और सीडी के जरिए अभियान चलाना एक विवेकपूर्ण निर्णय था और क्या खुर्शीद का खुद उस बहस में उलझ जाना एक विवेकपूर्ण निर्णय था ? सावधानी और सतर्कता के साथ लड़की में विश्वास पैदा करने की कोशिश की जानी चाहिए थी ।
दुर्भाग्ययह है कि आरोप लगाने वाले और उस पर यकीन करने वाले मधु किश्वर के पास गए। मधु ने भी बस सी.डी. तैयार की और छुट्टी पा ली। लेकिन उन्हें दरअसल अपने पास पहुंचे लोगों को यह कहना चाहिए था कि बलात्कार-जैसे आरोप के प्रसंग में वे न्याय की प्रक्रिया में विश्वास ही नहीं करतीं, वे पुलिस पर भी भरोसा नहीं करतीं, इसलिए उन सबको मदद के लिए कहीं और जाना चाहिए। यहइसलिए कि पिछले साल जुलाई में जब उनके भाई पर एक पुरुष ने बलात्कार का आरोप लगाया था तो उन्होंने अपने संगठन को परेशानी से बचाने और अपने भाई के करियर को बचा लेने के लिए, किसी भी जांच और न्याय की प्रक्रिया से बचने के लिए पुलिस को घूस देकर अपने भाई को उस यंत्रणादायक प्रक्रिया से बाहर निकाल लिया जिससे होकर ऐसे मामले के खुर्शीद जैसे हर अभियुक्त को गुजरना पड़ता है और चाहिए।यह सब किसी और ने नहीं मधु किश्वर ने खुद ईमानदारी से इस साल तीन जनवरी को Putting the Cart before the Horse:Self-Defeating Demands of Anti Rape Agitationists नामक लेख में बताया है। उनका ख्याल है कि उनके भाई पर आरोप लगाने वाला डेविड उन्हें ब्लैकमेल कर रहा था और उनके भाई निर्दोष थे। क्या यही तर्क खुर्शीद के परिजन खुर्शीद के पक्ष में इस्तेमाल कर सकते हैं?
ऐसा जान पड़ता है कि मधु ने इसे लेकर कोई अभियान नहीं चलाया, लेकिन जब उन्हें टीवीचैनल पर बुलाया गया तो सीडी में दिए गए बयान को उन्होंने बार-बार तथ्य की तरह पेश किया।उन्होंने बार-बार कहा कि इस प्रसंग में तथ्य सिर्फ उनके पास हैं। फिर वे कई बार झूठ भी बोलीं। सीडी में किया गया वर्णन तथ्य है कि नहीं, इसकी अभी जांच होनी है। घटना की रात और सुबह के और भी गवाह हो सकते हैं अगर अभियुक्त को आप छोड़ भी दें। मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।
नए बलात्कार और यौन हिंसा क़ानून पर लिखते हुए अभियुक्त के जिन अधिकारों की उन्होंने वकालत की थी, इस प्रसंग में वे स्वयं उन्हें भूल गईं। फिर बयान की रिकॉर्डिंग कराने में भी उन्होंने असावधानी बरती। लड़की अकेले बयान नहीं दे रही है। उसके साथ सात-आठ अन्य लोग भी हैं जिनमें से कुछ घटना स्थल पर नहीं थे। इसे बयान दर्ज करने का सही तरीका किसी तरह नहीं माना जा सकता। खुद मधु किश्वर भी बीच-बीच में कई इशारे कर रही हैं। अगर बयान लेना ही था तो हर किसी के बयान को किसी दूसरे प्रभाव से बचाए जाने की सख्त ज़रूरत थी। खुद मधु को बयान के बीच-बीच में बोलने और घटना को परिभाषित करने की आवश्यकता भी नहीं थी। मेरे ख्याल से अन्य सब के बयान अलग-अलग लिए जाने चाहिए थे। यदि मधु के पास इतना वक्त न था तो उन्हें किसी और धैर्यवान और जिम्मेदार व्यक्ति के पास 'पीड़ित'और उसके मित्रों को भेजना चाहिए था। मेरे पास यह मानने का कारण नहीं है कि मधु ने खुर्शीद के खिलाफ कोई साजिश रची। लेकिन यह साफ़ है कि उन्होंने अनधिकार और गलत तरीके से रिकॉर्डिंग की, वक्तव्य को प्रभावित किया और सी.डी. या डीवीडी को सार्वजनिक कर दिया। यह मुजरिमाना लापरवाही थी और इस सीडी ने पूरे भारत में एक विषाक्त माहौल तैयार किया और अभियुक्त ही नहीं स्वयं लड़की के बारे में भी घातक पूर्वग्रह गहरे होने दिए। इसके सहारे खुर्शीद और 'पीड़ित'का जो चरित्र हनन किया गया उसका प्रतिकार करने का कोई उपाय उनके पास नहीं था। एक्टिविस्ट दंभ के कारण मधु ने इस संवेदनशील मसले में जो भयंकर लापरवाही बरती और फिर टीवी पर वे जो झूठ बोलीं उसके आधार पर वे खुर्शीद की आत्महत्या के लिए वातावरण बनाने की गुनहगार ज़रूर हैं।वे एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान( सीएसडीएस) में प्रोफ़ेसर हैं। अपनी इस हैसियत और दफ्तर का जो दुरुपयोग उन्होंने किया उसके लिए उनका संस्थान उनसे जवाब-तलब करेगा या नहीं, कानून उनके इस कृत्य को किस निगाह से देखेगा यह दीगर बात है। वे खुद अपनी आत्मा में झाँक कर देखें कि परवर्ती घटना क्रम के लिए वे कितनी जवाबदेह हैं। इस मौत के दाग को अपने दामन से वे छुड़ा नहीं सकतीं।
बाद में खुर्शीद ने पुलिस और फिर अदालत में इस सम्बन्ध में सोशल मीडिया के प्रमाणों के आधार पर मानहानि का मुकदमा दर्ज भी किया जिसकी पहली सुनवाई के पहले ही टीवी चैनलों( खासकर इंडिया टीवी) और फेसबुक योद्धाओं ने इस सी.डी. के आधार पर पहले ही खुर्शीद को अपराधी घोषित कर दिया। खुर्शीद इस सार्वजनिक संगसारी को बर्दाश्त न कर सके और मारे गए।
इस तरह मधु के साथ ये चैनल और सारे फेसबुकयोद्धा इस आत्महत्या के लिए परिस्थिति तैयार करने के दोषी ठहरते हैं।
कहना होगा कि सब कुछ अभी तक आरोप था और न्याय का तकाजा था कि अभियोक्ता और अभियुक्त दोनों के दावों का सख्ती से इम्तहान करके ही इस नतीजे पर पहुंचा जाए कि अपराध हुआ या नहीं। खुर्शीद को इस प्रक्रिया के पहले आरोप से जैसे बरी नहीं किया जा सकता वैसे ही अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे ही जैसे उनकी खुदकुशी न उनको निर्दोष साबित करती है और न मुजरिम। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपराध के अनुपात में ही दंड का निर्धारण होता है और दंड का उद्देश्य अभियुक्त को नष्ट करना नहीं होता।
बलात्कार जैसे आरोप के प्रसंग में सामाजिक और सांस्कृतिक कुंठाओं को ध्यान में रखते हुए अत्यंत संवेदनशीलता और सतर्कता के साथ काम करने ज़रूरत है। ऐसा हर प्रसंग लोगों में अश्लील दिलचस्पी पैदा करता है, जिसमें वे 'घटना'के एक-एक ब्योरे में चटखारा लेना चाहते हैं और इसमें न्याय की आकांक्षाकहीं नहीं होती। यह भी कि अपराध का अन्वेषणकरने की योग्यता हममें से हर किसी के पास नहीं। कितनी भी गई-गुजरी हो, जाँच की योग्यता और अधिकार पुलिस के पास ही है और हमारा काम उसकी मदद करना है और उसे हर साक्ष्य मुहैया कराना है। हम जानते हैं कि ताकतवर अभियुक्त के आगे साक्ष्य की रक्षा कठिन काम है और वह हमें करना चाहिए। लेकिन इससे अलग किसी भी सार्वजनिक माध्यम से इस प्रसंग पर फैसलाकुन तरीके से चर्चा करते रहना कहीं से जिम्मेदाराना काम नहीं है और इससे जांच और न्याय की प्रक्रिया दूषित हो जाती है। यानी हर इन्साफपसंद की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे हर मामले में उत्तेजना पैदा करने से परहेज करे और अंतिम मंतव्य देने से बचे।
हर अभियोगऔर अपराध अपने आप में एक अलग घटना है और उसकी परीक्षा उसी तरह की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति एके गांगुलीका नाम लिए बिना जब उनके द्वारा किए गए यौन-दुर्व्यवहार की घटना का वर्णन उस लॉ-इंटर्न ने किया तो वह यही सोच रही थी कि इस एक अविचारित कृत्य से उनके बाकी काम नकार नहीं दिए जा सकते। अभियोजन की और न्याय की प्रक्रिया में सिर्फ अभियोक्ता का ही नहीं, अभियुक्त का यकीन भी ज़रूरी है। इसके लिए उसे हर प्रकार के बाहरी और अतिरिक्त प्रभाव से बचाने की ज़रूरत है। तुलना असंगत लग सकती है लेकिन सार्वजनिक माध्यम से किसी को आतंकवादी घोषित कर देना और बलात्कारी घोषित कर देना एक जैसा ही है।
पिछले दो सालों में नाम लेने और शर्मिंदा करने की जो राजनीति और प्रवृत्ति विकसित हुई है वह बस इससे संतुष्ट हो जाती है कि किसी 'ताकतवर'को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत कर दिया गया है। उसकी रुचि इंसाफ में है, ऐसा नहीं दिखाई देता। उसी तरह मीडिया इसी सामाजिक प्रवृत्ति का शिकार है। खुर्शीद अनवर इस शर्मिंदगी की मुहिम के शिकार हो गए।
लेकिन खुर्शीद अनवर की आत्महत्या पर कुछ और कहना ज़रूरी है। खुर्शीद की आत्महत्या के फौरी कारण कुछ रहे हों, वे उस जीवन पद्धति के शिकार हुए जो उनकी थी। क्यों खुर्शीद ने अनर्गल फेसबुक को अपना अनिवार्य संसार बना लेना पसंद किया?क्यों महफ़िलों और नई-नई दोस्तियों में खुद को डुबो कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की कोशिश की?एक ऐसा व्यक्ति जो सिर्फ सार्वजनिक काम ही करता है क्यों एक स्तर पर इतना अकेला और अरक्षित महसूस करने लगता है? क्यों खुर्शीद को इस घटना के प्रकाशित होते ही अपनी नारीवादी मित्रों के पास जाने और उनसे साझा करने का भरोसा नहीं रहा? क्या वे यह मान बैठे थे कि वे अपनी राजनीति के आगे एक पुरुष मित्र की सुनवाई ही नहीं करेंगी? राजनीतिक शुभ्रता और मानवीयता में क्या न पाटने वाली खाई पैदा हो गई है? क्यों हम सब जो सार्वजानिक मसलों पर साथ काम करते हैं एक दूसरे की जाती ज़िंदगी में कोई इंसानी दिलचस्पी नहीं रखते?क्यों हमारा साथी अवसाद में डूबता रहता है और हम हाथ नहीं बढ़ा पाते? क्यों हम सब जो खुद को सामाजिक प्राणी कहते हैं, दरअसल अलग-अलग द्वीप हैं?घनघोर सार्वजनिकता और निविड़ एकाकीपन के बीच क्या रिश्ता है? क्यों हम सिर्फ अपने साथ रहने का साहस नहीं जुटा पाते? क्यों हमें लगातार बोलते रहने की मजबूरी मालूम पड़ती है? क्यों और कैसे हम खुद को हर मसले पर बात करने और राय देने के लायक मानते हैं?क्यों कटुता,आक्रामकता, मखौलबाजी, घृणा और सामान्य तिरस्कार हमारी सामाजिक भाषा को परिभाषित करते हैं?
यही सवाल मैं खुर्शीद अनवर से, जो फेसबुक-संसार के अन्यतम सदस्य थे और खुद जिन पर अक्सर कड़वाहट और आक्रामकता हावी हो जाती थी, पूछता था।
क्यों हम सब इतने क्रूर हो गए हैं कि किसी व्यक्ति को घेर लेने में हमें उपलब्धि का कुत्सित आनंद मिलने लगता है?क्यों हम न्याय के साधारण सिद्धांत को भूल जाते हैं जो कसूर साबित होने तक किसी को मुजरिम नहीं मानता? यह सवाल सिर्फ इस प्रसंग में नहीं, गलत समझे जाने का खतरा उठा कर भी तरुण तेजपाल या न्यायमूर्ति गांगुली के मामले में हमें खुद से पूछना चाहिए। जो शोमा चौधरी की लगभग ह्त्या ही कर बैठे थे, उन्हें भी।
खुर्शीद अनवर एक खूनी पवित्रतावादी धर्म-युद्ध की मानसिकता का सामना नहीं कर पाए। यह मौत किसी साजिश का नतीजा नहीं थी। यह घटना अविवेकपूर्ण, चिर-उत्तेजना में जीने वाले समाज के किसी भी सदस्य के साथ हो सकती है।खुर्शीद खुद को इससे अलग नहीं कर सके और हम भी खुर्शीद को इससे नहीं बचा पाए।
(Expanded version of an article published in Jansatta on 22/12/2013)
खुर्शीद अनवर प्रकरण : मुसीबत में फँस सकती हैं मधु किश्वर !
Posted by: Amalendu Upadhyaya 5 hours agoin खोज खबरLeave a comment
नई दिल्ली। बलात्कार पीड़िता लड़की को न्याय दिलाने के नाम पर मरहूम खुर्शीद अनवर के खिलाफ तीन महीने कैंपेन चलाने के मामले में एनजीओ साम्राज्ञी मधु किश्वर धारा 306 की अभियुक्त बन सकती हैं।
हमने इस संबंध मेंआरुषि मर्डर केसमें नूपुर तलवारके अधिवक्ता मनोज सिसौदियासे जब बात की तो उनका साफ कहना था कि मधु किश्वरपर दफा 306और कथित अभियुक्त व कथित पीड़िता दोनों के डिफेमेशन का साफ मामला बनता है। उन्होंने बताया कि मधु किश्वर या किसी अन्य को कथित पीड़िता का बयान रिकॉर्ड करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है और ऐसा करके मधु किश्वर व उनके सहयोगियों ने साफ तौर पर पुलिस के काम में हस्तक्षेप किया है और पुलिस को स्वतः इसकी जाँच करनी चाहिए।
श्री सिसौदिया ने कहा कि जब कथित पीड़िता स्वयं पुलिस में शिकायत करने की इच्छुक नहीं थी तो यह संदेह बनता है कि पता नहीं किन परिस्थितियों में उसका बयान चोरी-छिपे रिकॉर्ड किया गया। यह भी हो सकता है कि उस सीडी के जरिए दुष्प्रचार करके कथित पीड़िता और कथित अभियुक्त दोनों को ही ब्लैकमेल किया जा रहा हो। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि कथित पीड़िता का छल के साथ बयान रिकॉर्ड कर लिया गया हो।
मामला इसलिए भी गंभीर है कि कथित पीड़िता का वीडियो रिकॉर्ड मधु किश्वर ने किया था तो वह बिना मधु की सहमति के दूसरे लोगों तक कैसे पहुँचा जिन्होंने पूरे तीन महीने तक उस वीडियो का प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा किजब बयान रिकॉर्ड कर लिया गया था और कथित पीड़िता पुलिस में शिकायत दर्ज करना नहीं चाहती थी तो उस वीडियो का प्रदर्शन करना पीड़िता की भी अवमानना है।
वरिष्ठ अधिवक्ता मनोज सिसौदिया
वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि मीडिया अदालत नहींहै और उसे इस प्रकार का प्रसारण करने का कोई अधिकार नहीं है, यदि मृतक की हत्या नहीं हुई है और उसने आत्महत्या की है तो इंडिया टीवी के जिम्मेदार लोगों, मधु किश्वर और सीडी केजरिए दुष्प्रचार करने वाले लोगों पर पुलिस जाँच के बाद मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने का भादस की धारा 306 का मुकदमा बन सकता है।यह जाँच का विषय है। उन्होंने कहा कि अब कानून को अपना काम करने देना चाहिए और मीडिया ट्रायल बंद किया जाना चाहिए।
उधर मरहूम खुर्शीद अनवर के भाई प्रो. अली जावेद ने भी कहा है किपिछले तीन महीने से एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर कुछ लोगों ने उसे (खुर्शीद) को बलात्कारी घोषित कर दिया था, जहां उसने बार-बार कहा था कि कम से कम उसके खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत तो दर्ज कराओ।
इस प्रकरणमें ध्यान देने की बात यह है एकमात्र कानूनी प्रक्रिया सिर्फ खुर्शीद अनवर द्वारा ही अपनाई गई। उन्होंने पुलिस में भी शिकायत दर्द कराई थी और अदालत में भी अवमानना का मुकदमा किया था। जबकि कथित पीड़िता का वीडियो जगह-जगह प्रदर्शित करने वाले लोगों ने पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई। अब अगर यह बात मान भी ली जाए कि पीड़िता किसी भी दबाव में पुलिस में शिकायत दर्ज कराना नहीं चाहती थी तो सवाल उठता है कि क्या पीड़िता उक्त वीडियो का जगह-जगह प्रदर्शन करवाने के लिए सहमत थी? यदि हाँ तो वह पुलिस में शिकायत दर्ज कराना क्यों नहीं चाहती थी और यदि नहीं तो कथित बूँद के कार्यकर्ता किस हैसियत से उक्त वीडियो का प्रदर्शन कर रहे थे ?क्या यह उक्त पीड़िता के साथ छल नहीं है?