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सरहदों पर फिजां जब कयामत हो,दिशाओं में नफरत की आग हो समुंदर जब शरणार्थी सैलाब हो और सारे पहाड़ नंगे हो सिरे से मुल्कों पर दहशतगर्दों का जब राज हो सरहदों के आर पार यूं समझ लेना हालात बेहद मुश्किल है,बेहद मुश्किल हालात न इंसानियत की कोई खैर है और न कायनात की कोई खैर फिर ये ही समझ लो भाइयों कि निशाने पर काश्मीर है कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ! पलाश विश्वास

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सरहदों पर फिजां जब कयामत हो,दिशाओं में नफरत की आग हो

समुंदर जब शरणार्थी सैलाब हो और सारे पहाड़ नंगे हो सिरे से

मुल्कों पर दहशतगर्दों का जब राज हो सरहदों के आर पार

यूं समझ लेना हालात बेहद मुश्किल है,बेहद मुश्किल हालात

न इंसानियत की कोई खैर है और न कायनात की कोई खैर

फिर ये ही समझ लो भाइयों कि निशाने पर काश्मीर है

कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!

पलाश विश्वास


वे हर हाल में 2020 तक असनी सियासती बाजीगरी से,सुनामियों से और मुक्त बाजार की ताकतों के दम पर मजहबू मुल्क बना लेंगे।चूंकि हम दरअसल किसी मजहब के हक में खड़े नहाों होते तो उसीतरह हम किसी मजहब के खिलाफ भी नहीं है।तन्हा तन्ही इंसान के हक में जो खड़ा है मजहब,तन्हा तन्हा इंसान खीखातिर है अमन चैन का वास्ता जो मजहब,उस मजहब से कोई बैर भी नहीं है।न हुआ बुतपरस्त तो क्या,नहीं है यकीन किसी रब पर तो क्या,इंसानियत के यकीन से हमारी भी दुश्मनी कोई नहीं है।


वे हर हाल में 2030 तक मजहबी दुनिया बना लेगे।बना भी लें।हमें कोई हर्ज नहीं।एतराज तो बस इसी का है कि जो ऐलान कर रहे हैं ऐसे जिहादी उनके न दिल हैं कहीं और न इरादे उनके कोई मजहबू हैं।मुक्त बाजार के फरिश्ते वे सारे शैतान की आलमी हुकूमत के कारिंदे हैं और नफरत की जंग में वे दुनिया फतह करना चाहते हैं।


फतह कर भी लें कोई दुनिया,हमारा भी क्या।हम तो भइये, कारोबारी हैं और न सियासती हैं हम और न मजहबू हैं हम।

किसी के जुनून का कोई इलाज बी नहीं है हमारे यहां।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर गैर मजहबी लोगों के सफाया का इंतजाम करने लगे हैं।

सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर इंसानियत का नामोनिशान मिटाने में लगे हैं।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर कायनात की धज्जियां उड़ाने में लगे हैं।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर दिलो में जो मुहब्बत है लबाबलब,मुहब्बत की उन घाटियों को तबाह करने लगे हैं और जहां भी खिला हो कोई फूल,उसे बेरहमी से रौदने लगे हैं।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर वे इंसानी हसरतों,ख्वाहिशों और ख्वाबों के कत्ल का कारोबार चला रहे हैं।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर रंजिशों के सौदागर हैं और सरहदों के आर पार मिल जुलकर अमन चैन के खिलाफ कत्लेआम का चाक चौबंद इंतजाम कर रहे हैं।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर आसमान को अब आसमान न रहने देंगे और जमीन को भी जमीन बने रहने की इजाजत नहीं है।जमीन हो या इंसान,सबको वे बधिय़ा बैल बनाने में लगे हैं ताकि शैतानी हुकूमत सही सलामत रहे।


सबसे खतरनाक बात तो असल में यह है कि वे आखिर किसी नदी को खिलकर बहने की इजाजत भी नहीं है और न झरनों में संगीत की इजाजत है और न ग्लेशियरों को जस का तस रहने की इजाजत है और वे जमीन इंच इंच या तो तेलकुंआ बना रहे हैं या डूब में शामिल कर रहे हैं सारी कायनात या चप्पे चप्पे लगा रहे हैं एटमी धमाके,हवाओं को जहरीला भी वे बनावै और  पानियों को रेडियोएक्टिव बनाने का कारनामा बी उन्हीं का,सारी आपदाएं और सारी महामारियां और सारे अकाल दुष्काल उनका कारोबार।


ऐसे लोग किसी मुल्क के नहीं होते।वे रोज सरहद बनाते हैं और रोज सहदों को आग में झोंक देते हैं और न उन्हें परिंदों की उड़ान की परवाह है और न उन्हें तितलियां पसंद हैं।इंद्र धनुष के सारे रंगों को वे मिटाने चले हैं,दुनिया के सारे मजहबों को वे मिटाने चले हैं अपने मजहब के सिवाय।सारे रबों के खिलाफ उनका जिहाद है,अपने रब के सिवाय।हमारे लिए सबसे खतरनाक खतरा यहींच।यहींच।


वरना वे तिजारत में कहीं भी इबादत के मोड में दीख जायेंगे।अमन चैन की सेल्फी में उन्हीं के चेहरे चमकते नजर आयेंगे और विज्ञापनों में तब्दील तमाम सुर्खियों में उन्ही का जलवा और मंकी बातें भी उनकी जलेबियां,वे कही भी सजदे में खड़े पाये जायेंगे।


दोनों हाथ दिशाओं में फैलाये वे दरअसल तबाही का आवाहन कर रहे हैं।वे महाप्रभू हैैं ऐसे,जो नफरतों के बीज बो  रहे हैं और उनकी जुबां से मुहब्बतों की बारेशें हो रही हैं।


क्योंकि 2020 तक मजहबी मुल्क बनाने का इरादा पक्का है।


क्योंकि 2030 तक मजहब दुनिया बनाने का इरादा पक्का है।


वे सारे मजहबों का सफाया भी कर देंगे,मजहब बचेगा नहीं।

वे सारे रबों का सफाया भी कर देंगे,कि रब कहीं बचेगा नहीं।

कि दसों दिशाएं शैतानी हुकूमत के कब्जे में होगी यकीनन,

इंसानियत या कायनात की खैरियत हो न हो,यकीनन।


सरहदों पर फिजां जब कयामत हो,दिशाओं में नफरत की आग हो

समुंदर जब शरणार्थी सैलाब हो और सारे पहाड़ नंगे हो सिरे से

मुल्कों पर दहशतगर्दों का जब राज हो सरहदों के आर पार

यूं समझ लेना हालात बेहद मुश्किल है,बेहद मुश्किल हालात

न इंसानियत की कोई खैर है और न कायनात की कोई खैर

फिर ये ही समझ लो भाइयों कि निशाने पर काश्मीर है।


हम बार बार कह रहे थे कि आधार कोइ प्राइवेसी का मामला नहीं है हरगिज।न यह सिर्फ निगरानी है या कोई सब्सिडी है।हम बार बा कह रहे ते और लिख भी रहे थे कि यह जंग है मुकम्मल इंसानियत के खिलाफ कि खून की नदियां बहाने का रिवाज अब कहीं नहीं है।


फौजी हमलों का का दस्तूर अब कहीं भी नहीं है और न कहीं फौजी जीतते हैं कोई जंग।


तेलकुओं की जंग को हम जंग समझ रहे थे अबतलक।


हम पानियों के फसाद को भी जंग समझ रहे ते अब तलक।


जंग तो दिलोदिमाग के सफाये से शुरु होता है।जंग शुरु से आखिर तक नस्ली है जैसे नस्ली है जात पांत,इकोनामी भी नस्ली है।


नस्ली है सियासत हर मुल्क में जिसे हम मजहबी समझते हैं। मजहब के खिलाफ मजहब को खड़ा करना सियासत है असल।

रब के खिलाफ रबों को खड़ा करना मजहब नहीं,सियासत असल।


हिटलर के पास तकनीक नहीं थी मुकम्मल कि बच गये यहूदी कत्लेआम के बावजूद।कोलबंस भी नहीं था हिटलर कोई और न यूरोप उन दिनों कोई तरबूज थाया कि खरबूज कि अमेरिकाओं की तरह काटकर हजम कर लिया या मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा में दफना दिया हमेशा हमेशा के लिए या इनका या माया बना दिया।


अब जंग आसमान और अंतरिक्ष से लड़ा जाता है और समुंदर की गहराइयों से भी शुरु हो जाती है जंग।जंग जीतने के लिए सरहदों पर फौज भी हो,कोई जरुरी नहीं।मिसाइलें हैं।परमाणु बम भी हैं।


मिसाइलों और परमाणु बमों से खतरनाक है दहशतगर्दी,जिसपर किसी मजहब या मुल्क का ठप्पा लगा होता नहीं है यकीनन।


सबसे खतरनाक तो यह है कि हुकूमत अब दहशतगर्दी है।

सबसे खतरनाक बात यह कि सियासत भी दहशत गर्दी है।


दहशतगर्द सारा कारोबार,यह सारा मुक्त बाजार।

उसका जो हथियार है,वह हुआ आदार निराधार।


कत्लेआम के लिए,दीगर आबादी के सफाये के लिए नाटो का यह चाकचौबंद इंतजाम है आदार निराधार।हम कह रहे हैं बार बार।


अब सबूत भी हैं कि श्रीलंका में कत्लेआम तमिलों का जो हुआ,वह आधार का करिश्मा है।नरसंहार का सबसे नफीस अंदाज है आधार।


बायोमैट्रिक डाटा,एकबार किसी के हवाले हो गया,तो जब चाहे मार दें।फिंगर प्रिंट के बायोमैट्रिक डाटा से तमिलों का सफाया हो गया।

डीएनए प्रोफाइलिंग से किसकिसका सफाया नहीं होगा,रब जाने।


पूरा किस्सा अंग्रेजी में हस्तक्षेप पर चाप दिया है ,पढ़ लें।


सरहदों पर फिजां जब कयामत हो,दिशाओं में नफरत की आग हो

समुंदर जब शरणार्थी सैलाब हो और सारे पहाड़ नंगे हो सिरे से

मुल्कों पर दहशतगर्दों का जब राज हो सरहदों के आर पार

यूं समझ लेना हालात बेहद मुश्किल है,बेहद मुश्किल हालात

न इंसानियत की कोई खैर है और न कायनात की कोई खैर

फिर ये ही समझ लो भाइयों कि निशाने पर काश्मीर है


काश्मीर के लोगों,बाकी मुल्क के लोगों,समझ लो कि बहुत खतरनाक कोई खेल हो रहा है मजहबी मुल्क की खातिर।

कश्मीर को अलग कर दो तो फिर मुल्क मजहबी है।


मजहबी सियासत के कारिंदे मुल्क से कश्मीर को अलहदा करने में लगे हैं।कश्मीर को बांग्लादेश बनाने लगी है मजहबी सियासत।


मजहबी सियासत के कारिंदे खूब हरकत में हैं कश्मीर में।

मुल्कों पर दहशतगर्दों का जब राज हो सरहदों के आर पार

यूं समझ लेना हालात बेहद मुश्किल है,बेहद मुश्किल हालात

न इंसानियत की कोई खैर है और न कायनात की कोई खैर

फिर ये ही समझ लो भाइयों कि निशाने पर काश्मीर है।


फिरभी गनीमत है और शुक्रिया भी है कि हकीकत जो असल है कि

कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!


हमारी औकात पर मत जाइये जनाब कि सौदा मंहगा भी हो सकता है।यूं तो न पिद्दी हूं और न पिद्दी का शोरबा हूं लेकिन दूसरों की तरह अकेला हूं नहीं हूं।


जब भी बोलता हूं ,लिखता हूं,पांव अपने खेतो में कीटड़गोबर में धंसे होते हैं और घाटियों के सारे इंद्रधनुष से लेकर आसमां की सारी महजबिंयां साथ साथ,मेरी हर चीख में कायनात की आवाज है और चीखें भी कोई ताजा लाशे नहीं हैं।हर चीख के पीछे कोई नकोई मोहनजोदोड़ो यापिर हड़प्पा है या इनका या माया है जहां न मजहब है कोई और न सियासत कोई।


आत्ममैथून का भी शौकीन नहीं हूं और न शीमेल हूं कि आगा पीछा खुल्ला ताला।सारी दीवारें हम गिराते रहे हैं और तहस नहस करते रहे हैं सारे तिलिस्म हमीं तो हजारों हजार सालों से।


इंसान की उम्र न देखे हुजूर।हो कें तो इंसानियत की उम्र का अंदाजा

लगाइये।हो सकें तो कायनात की उम्र का अंदाजा भी लगाकर देख लें।बरकतें नियामते  रहे न रहे, रहे न रहे बूतों और बूतपरस्तों का सिलिसिला,कारवां न कभी थमा है और न थामने वाला है।


कुछ यू ही शमझ लें कि बेहतर कि इस कारवां का पहला इंसान भी मैं तो इस कारवां का आखिरी इंसान भी मैं ही तो हूं।


जिसका दिल  बंटवारे पर तड़पे हैं,वो टोबा टेकसिंह मैं ही ठहरा।

रब की सौं,गल भी कर लो कि बंटावारा खत्म हुआ नहीं है अभी।

न कत्ल का सिलसिला खत्म हुआ है कभी,न जख्मों की इंतहा।

मुहब्बत और नफरत के बीच दो इंच का फासला आग का दरिया।


उसी आग के दरिया में डूब हूं यारों,सीने में जमाने का गम है।

जो तपिश है,वह मेरे तन्हा तन्हा जख्म हरगिज नहीं है।

मेरा वजूद मेरे लोगों का सिलसिलेवार सारा जख्म है।

कि पानियों में लगी आग,पानियों का राख वजूद है।


यूं तो न पिद्दी हूं और न पिद्दी का शोरबा हूं लेकिन दूसरों की तरह अकेला हूं नहीं हूं।चीखें भी हरगिज इकलौती हरगिज नहीं होती।

न कोई चीख कहीं कभी दम तोड़ रही होती,चीख भी चीख है।

जुल्मोसितम की औकात बहुत है,सत्ता जुल्मोसितम है

सितम जो ढा रहे हैं,नफरत जो बो रहे हैं,उन्हें नहीं मालूम


कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!


उसी कायनाक की वारिश कह लो,चाहे विरासत कह लो

चीखें हजारों साल की वे वारिशान,विरासतें भी वहीं।

मेरे वजूद की कोई उम्र होन हो,इतिहास मेरी उम्र है।


मैं कोई महाकवि वाल्तेयर नहीं हूं।फिरभी वाल्तेयर के डीएनए शायद हमें भी संक्रमित है कि अपना लिखा हमें दो कौड़ी का नहीं लगता।


कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!

हमें फिर उसी अहसास का इंतजार है

कि इंसान आखिर आजाद है

आजाद है इंसान आखिर!

हम तो बस,दिलों में आग लगाने की फिराक में हैं!


बाकी उस माई के लाल का नाम भी बता देना यारो,जो मां के दूध का कर्जुतार सकै है।जो कर्ज उतार सकै पिताके बोझ का।जो कर्ज उतार सके वीरानगी और तन्हाईकी विरासतों का।जो दोस्तों की नियामतों का कर्ज भी उतार सकै है और मुहब्बत का कर्ज भी।वह रब कौई नहीं है कहीं जो वतन का कर्जउतार सकै है या फिर इंसानियत का कर्ज भी उतारे सके वह और कायनात का भी।कर्जतारु शख्स तो बताइये।


कल ही मैंने बंगाल में बैठकर बंगाली भद्रलोक वर्चस्व  के सीनें पर कीलें ठोंकते हुए बराबर लिख दिया हैः

হিন্দূরাষ্ট্রে হিন্দু হয়ে জন্মেছি,তাই বুঝি বেঁচে আছি

শরণাগত,শরণার্থী,বেনাগরিক. বেদখল

জীবন্ত দেশভাগের ফসল,তাই বুঝি বেঁচে আছি

ওপার বাংলায় লিখলেই মৃত্যু পরোয়ানা হাতে হাতে

এপার বাংলায় লেখাটাই আত্মমৈথুন নিবিড় নিমগ্ণ


বাপ ঠাকুর্দা দেশভাগের সেই প্রজন্মও চেয়েছিল

শেষদিন পর্যন্ত শুধু হিন্দু হয়ে বেঁচে থাকার তাকীদে

দেশভাগ মাথা পেতে নিয়ে তাঁরা সীমান্তের কাঁটাতার

ডিঙ্গিয়ে হতে চেয়েছিল হিন্দুতবের নাগরিক

আজও সেই নাগরিকত্ব থেকে বন্চিত আমরা বহিরাগত

বাংলার ইতিহাসে ভূগোলে চিরকালের বহিরাগত

শরণাগত,শরণার্থী,বেনাগরিক. বেদখল


দেশভাগ তবু শেষ হল না আজও,আজও দেশ ভাগ

হিন্দুরাষ্ট্রে হিন্দুত্বের নামে দেশভাগ,আজও অশ্পৃশ্য

অশ্পৃশ্য ছিল দেশভাগের সময় যারা৤


যাদের কাঁটাতারের সীমান্ত আজও তাঁদের

জীবন জীবিকায় মিলে মিশে একাকার

অরণ্যে দন্ডকারণ্যে আন্দামানে হিমালয়ে

সেই কাঁচাতার আজ গোটা হিন্দুত্বের রাজত্ব

যারা ধর্মান্তরণের ভয়ে দেশভাগ মেনে নিয়েছিল

আজ তাঁরা এই হিন্দু রাষ্ট্রেও ধর্মান্তরিত

অন্তরিণ জীবনে মাতৃভাষা মাতৃদুগ্ধ বন্চিত

দেশভাগের পরিচয়ে মৃত জীবিত আজও অশ্পৃশ্য

आत्ममैथुन का मैं शौकीन नहीं हूं।हालात बदलने के खातिर अगर हमारा लिखा बेमतलब है,तो उसे पढ़ना तो क्या,उसपर थूकना भी नहीं।हम न किसी संपादक के कहे मुकताबिक विज्ञापनों के दरम्यान फीलर बतौर माल सप्लाी करते हैं और न हमें किन्हीं दौ कौड़ी के आलोचकों और फूटी कौड़ी के प्रकाशकों की कोई परवाह है।


हम तो आपके दिलों में आग लगाने की फिराक में है ताकि आपके वजूद को भी सनद हो कि कहीं न कहीं कोई दिल भी धड़का करै है।


हमने प्रभाष जोशी से कहा था,जब उनने मुझसे पूछा था कि क्यों कोलकाता जाना चाहते हो,तो जवाब में हमने कहा था कि हमें हिसाब बराबर करने हैं।


जोशी जी ने न तब और न कभी पलटकर पूछा था कि कौन सा हिसाब,कैसा हिसाब ,किससे बराबर करने हैं हिसाब।


वे मेरे संपादक थे।


अजब गजब रिशता था हमारा भी उनसे।थोड़ी सी मुहब्बत थी,थोड़ी सी इज्जत थी ,नफरत भी थी,दोस्ती हो न हो,दुश्मनी बहुत थी।

हम हुए दो कौड़ी के उपसंपादक और वे हुए हिंदी पत्रकारिता के सर्वे सर्वा,वे रग रग पहचानते थे हम सभी को।हम भी उन्हे चीन्ह रहे थे।


हाईस्कूल पास करते ही 1973 में नैनीताल जीआईसी में दाखिला लेते ही मालरो़ड पर लाइब्रेरी के ठीक ऊपर दैनिक पर्वतीय में रोज कविता के बहाने टिप्पणियां छपवाने से लेकर नैनीताल समाचार और पिर दिनमान होकर रघुवीर सहाय जी की कृपा से पत्रकार बनते हुए एकदिन प्रभाष जोशी की रियासत के कारिंदे बन  जाने की कोी ख्वाहिश नहीं थी हमारी।


मुकाबला हार गया हूंं।बुरी तरह मैदान से बाहर हो गया हूं।जिंदगी फिर नये सिरे से शुरु भी नहीं कर सकता।फिर भी अबभी शेक्सपीअर और वाल्तेअर,ह्युगो,दास्तावस्की काफका और प्रेमचंद और मुक्तिबोध से मुकाबला है हमारा। यकीन करें।


हम पत्रकारिता में भले ही रोज गू मूत छानते परोसते हों,लेकिन साहित्य में जायका हमरी फितरत है अबभी।मौत के बावजूद।


साहित्य में जनपक्षधरता के सिवाय आत्ममैथून की किसी भी हरकत से मुझे सख्त नफरत है।


पंगा मैं न ले रहा होता जिंदगीभर कौड़ी दो कौड़ी के समझौते बी कर लेता,तो शायद जिंदगी कुछ आसान भी होती।


हमारी मजबूरी यह रही कि नैनीताल में हमें गजानन माधव मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस ने दबोच लिया और दीक्षा देने के बाद भी वे ऐसे ब्रह्मराक्षस निकले जो पल चिन पल चिन मेरी हरकतों पर नजर रखते हैं।


किस्मत मैं नहीं मानता और न किसी लकीर का मैं फकीर हूं लेकिन किस्मत कोई चीज होती होगी तो देश के बंटवारे की संतान होने के साथ साथ मेरी किस्मत में उस ब्रह्मराक्षस की दीक्षा लिखी थी कि मं दिलों में आग लगाने वाला जल्लाद बनने की कोशिश में हूं।


उन्हीं ब्रह्मराक्षस,हमारे उन्हीं गुरुजी ने लिखा हैः

१५ अगस्त १९४७ को देश आजाद हुआ था. इन ६८ सालों में हम अजाद (अजाद या किसी की न सुनने वाला और मनमानी करने वाला कुमाउनी ) हो गये हैं. हमारी संसद हुड़्दंगियों के जमावड़े में बदल गयी है. और इसका कारण है हमारी मूल्यहीन राजनीति. हमारी मूल्यहीन न्याय व्यवस्था. मौका देख कर निर्णय लेने की आदत. कुल मिला कर 'अपने सय्याँ से नयना लडइहैं हमार कोई का करिहै कि मनोवृत्ति. जब अढ़्सठ साल में यह हाल है तो शताब्दी तक क्या होगा? देश विदेशी सत्ता से तो मुक्त हुआ पर अपने ही दादाओं ने उसे जकड़ लिया. सत्ता का मोह देशबोध पर हावी हो गया.


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