क्यों नहीं पूरा हुए स्वतंत्रता संघर्ष के वादे !
h.l Dusadh
'भारत की आजादी इसकी जनता के लिए एक ऐसे युग की शुरुआत थी,जो एक नए दर्शन से अनुप्राणित था .1947 में देश ने अपने आर्थिक पिछड़ापन , भयंकर गरीबी , करीब-करीब निरक्षरता , व्यापक तौर पर फैली महामारी , भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की . 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेसिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था : शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था,स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था . भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना तथा राष्ट्रीय राजसत्ता को विकास और सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था.यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आँख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए.इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय ,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विभिन्नताएं मौजूद हैं . भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते और जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.'
मित्रों, उपरोक्त पंक्तियां सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चन्द्र-मृदुला और आदित्य मुखर्जी की 'आजादी के बाद के भारत 'से हैं जिसमें उन्होंने स्वाधीनोत्तर भारत के शासकों से देश की क्या प्रत्याशा थी , इसका नक्शा खींचा . बहरहाल आजादी के इतने वर्षों का सिंहावलोकन करने पर आप खुद महसूस करेंगे कि स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा करने में हमारे शासक बुरी तरह विफल रहे.इस लिहाज से पंडित नेहरु,इंदिरा गाँधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह,अटल बिहारी वाजपेयी,जय प्रकाश नारायण,ज्योति बासु इत्यादि महानायकों को महान कहने में हमारा विवेक कहीं से बाधक बनता है. ये स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा करने में इसलिए विफल रहे क्योंकि इन्होने भारत की भाषाई, धार्मिक-संस्कृतक, क्षेत्रीय, सामाजिक और लैंगिक विविधता (diversity) को सम्मान देने प्रति यथेष्ट गंभीरता नहीं दिखाई . बहरहाल जो काम अतीत के महानायक नहीं कर सके वह मोदी जैसे महान राष्ट्रवादी करके दिखायेंगे , आज के दिन ऐसी प्रत्याशा करना क्या उचित नहीं होगी?