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अमेरिकी आरक्षण का उत्पाद :सुन्दर पिचाई

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अमेरिकी आरक्षण का उत्पाद :सुन्दर पिचाई

h.l Dusadh

मित्रों,चेन्नई के 43 वर्षीय सुन्दर पिचाई के गूगल का मुख्य कार्यकारी अधिकारी(ceo) बनने पर भारत के कथित जन्मजात मेरिट वालों के गर्व का अंत नहीं है.प्रधानमंत्री  और देश की सियासी व कारोबारी हस्तियों में भी पिचाई को लेकर गर्व का अंत नहीं है.उन्हें लगता है भारत के इस लाल ने अमेरिका जीत ली है.जन्मजात मेरिट वाले तो अपने देश के मेरिटहीन  लोगो का मजाक उड़ाने के लिए फेसबुक पर लिख रहे है-'पिचाई आरक्षण से वहां नहीं पहुंचे हैं.'बहरहाल पिचाई की उपलब्धियों से गर्वित होने वाले पीएम,सियासी और कारोबारी हस्तियों तथा आम उत्साही भारतीयों को शायद पता नहीं कि चेन्नई का छोरा,इंदिरा नुई,दिवंगत कल्पना चावला सहित ढेरों भारतीय मूल के  लोग जो विभिन्न अमेरिका की विभिन्न संस्थाओं के शीर्ष पर पहुंचे हैं, मूलतः  अमेरिकी आरक्षण, जिसका आधार रेसियल और जेंडर डाइवर्सिटी है,का ही प्रोडक्ट हैं.

अमेरिका का लोकतंत्र पूरी दुनिया में आदर्श है तो इसलिए कि वहां के शासकों ने महसूस किया है कि बिना सामाजिक प्रतिनिधित्व के लोकतंत्र को आइडियल नहीं बनाया जा सकता .इसलिए वहां आर्थिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक,शिक्षण,फिल्म,सूचनादि से जुडी सभी संस्थाओं के लोकतांत्रिकरण का प्रावधान किया गया है.इसके तहत वहां की सभी संस्थाओं में वहां की नस्लीय और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन कराया जाता है.अर्थात सभी संस्थाओं में वहां के विभिन्न नस्लीय समूहों और उनकी महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाता है.अतः वहां की सभी संस्थाओं,जिसमें  नासा तक शामिल है,में रसियल और जेंडर डाइवर्सिटी का प्रतिबिम्बन अनिवार्य है.

रेसियल और जेंडर डाइवर्सिटी की अनिवार्यता के कारण वहां फिल्म-मीडिया,विनिर्माण उद्योग,सुचना इत्यादि से जुड़ी तमाम संस्थाओं में ही विभिन्न नस्लीय समूहों को अवसर मिलता है.इस नियम के कारण ही भारत के सवर्ण,जो आरक्षण का घोर विरोध करते हैं,अमेरिका की रेसियल और जेंडर डाइवर्सिटी के कोटे के सौजन्य से अपने देश के लोगों को गर्वित करने का अवसर प्रदान करते हैं,जैसे चेन्नई के छोरे ने किया.आदर्श लोकतान्त्रिक चरित्र से शून्य भारत के नेताओं,कारोबारियों,बुद्धिजीवियों,न्यायधीशों  को पिचाई पर गर्व करने की बजाय शर्म करनी चाहिए कि वे भारत की संस्थाओं में सोशल और जेंडर डाइवर्सिटी के प्रतिबिम्बन में कोई रूचि नहीं लेते.इसलिए भारत का लोकतंत्र विस्फोटित होने की और अग्रसर है.वे भूल जाते हैं कि 2010  में माओवादियों ने २०८ तक लोकतंत्र के मंदिर पर बन्दुक के बल पर अपना झंडा फहराने का एलान कर दिया है.उन्हें इस बात के लिए भी चिंतित होना चाहिए कि शक्ति के स्रोतों में कायदे से सोशल और जेंडर डाइवर्सिटी न लागू होने के कारण ही 10-12 प्रतिशत लोगों का सभी जगह 80-85 % कब्ज़ा है.इसके खिलाफ कभी भी बहुसंख्य आबादी का गुस्सा लावा बनकर फूट सकता है.अतः पिचाई की सफलता पर गर्वित होने के साथ देश के हुक्मरान हर जगह सामाजिक और लैंगिक विविधता का निर्णय लें तो,यह राष्ट्रहित में बेहतर होगा.बहरहाल पिचाई नामक आपका हीरो रेसियल डाइवर्सिटी का ही प्रोडक्ट है,यह बताने के लिए मैंने गूगल के कार्यबल में डाइवर्सिटी से जुड़ा एक मैटर अंग्रेजी में डाला है.29 मई,2014 को गूगल द्वारा जारी यह रिपोर्ट पढने पर शायद आपको उस पिचाई कि सफलता का राज मालूम हो जायेगा,जो वहां 2004  में उपाध्यक्ष(उत्पाद प्रबंधन) के तौर पर ज्वाइन किया था.

Google has published data on the gender and ethnic breakdown of its workforce for the first time, revealing that only 17 percent of technical roles are taken by women.

The balance between the sexes is slightly more even across all roles at Google, with a 30/70 percent split. However, women are much better represented in non-tech roles, at 48 percent, than in other areas at the web giant.

As well as accounting for only 17 percent of tech positions, female staff make up only 21 percent of leadership roles, with men dominating at 79 percent.

On the ethnicity front, Google also shows a leaning towards white males for its most senior positions. Almost three-quarters of leadership roles go to white people, compared with 23 percent Asian, two percent black and one percent Hispanic.

Google does slightly better in tech roles, with 34 percent Asian, but still only two percent Hispanic and one percent black.

Google has admitted it could do better at attracting women and ethnic minorities to the company, an objective the firm says will lead to "better decision-making, more relevant products, and makes work a whole lot more interesting".


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