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दलित बहुजन राजनीतीं की ओर

Next: গৌরিক বাংলায় মুসলিমদের কি করণীয়,সাচার কিমিটির রিপোর্টের পর বাম হারিয়ে,নজরুল ইসলামকে তোয়াক্কা না দেবার পর এবার অন্ততঃ ভাবুন যেহেতু বাংলায় কথা বলা মুসলমানদের নাগরিকত্বে এখন অনুপ্রবেশকারির তকমা সাঁটা এবং পরিবর্তন জমানায় ভোটব্যান্ক রাজনীতির পেয়াদা মুসলিমরা সেই তিমিরেই এই মা মাটি মানুষ সরকারের রাম রাজত্বের সীতায়ণেও! বাংলায় টানা সাত দশক যাবত অখন্ড মনুস্মৃতিরাজ, পদ্মঅদৃশ্য রামরাজত্ব,যারই মুখর বিস্তার সারা ভারতবর্ষে! আমি তুচ্ছাতিতুচ্ছ উদ্বাস্তু সন্তান,বাংলার বৌদ্ধকালীন ঐতিহ্য, বাংলার কৃষক আন্দোলন,বাংলার স্বাধীনতা সংগ্রাম,বাংলার মুসলিম লীগ প্রত্যাখ্যান,বাংলার ভাষা আন্দোলন,ওপার বাংলায় বাংলা ভাষার জন্য লাখো লাখো প্রাণ,ও লাখো নারীর ইজ্জত কুরবানি,এবং হরিচাঁদ গুরুচাঁদের আন্দোলন, ফজলুল হক ও যোগেন্দার নাথ মন্ডলের কথা মনে রেখে শুধু একবার নজরুল ইসলামের মুসলিমদের কি করণীয়,এবং মুলনিবাসীদের কি করণীয় বই দুটি পড়ে দেখুন।
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मसीहियत बदला लेने में नहीं बल्कि माफ़ करने में विश्वास करती है, इसलिए तुम भी उन्हें माफ़ कर दो

हिन्दू तालिबान -26

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दलित बहुजन राजनीतीं की ओर
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दलित सेना से निकाले जाने के बाद मेरे लिए अगला स्वाभाविक ठिकाना बहुजन समाज पार्टी और उस जैसी सोच रखने वाले संस्था ,संगठन थे ,मैं अपने आपको अब वैचारिक रूप से इन्हीं के करीब पाता था ,मैंने सोच रखा था कि किसी दिन अगर मैं सक्रीय राजनीती का हिस्सा बनूँगा तो उसकी शुरुआत बसपा से ही होगी ,बसपा उन दिनों मेरे लिए एक सामाजिक आन्दोलन थी ,मेरे एक मित्र आर पी जलथुरिया के घर बहुजन संगठक नामक अख़बार आता था ,मैं उसे नियमित रूप से पढता था ,बसपा सुप्रीमों मान्यवर कांशी राम के प्रति मन में बहुत अधिक सम्मान भी था ,उनके द्वारा सोयी हुयी दलित कौमों को जगाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का मैं प्रशंसक और समर्थक था, तिलक तराजू और तलवार को जूते मारने की बात मुझे अपील करती थी. उस वक़्त का मीडिया आज जितना ही दलित विरोधी था ,मान्यवर मीडिया के इस चरित्र का बहुत ही सटीक और सरल विश्लेषण करते हुए कहते थे कि मीडिया कभी भी बहुजन समर्थक नहीं हो सकता है ,उसमे बनिए का पैसा और ब्राहमण का दिमाग लगा हुआ है ,अगर हम देखें तो हालात अब भी जस के तस ही है ,अभी भी अधिकांश मीडिया हाउस के मालिक वैश्य है और संपादक ब्राह्मण .
कांशीराम को तत्कालीन मीडिया अक्सर एक अवसरवादी और जातिवादी नेता के रूप में पेश करता था ,अवसरवाद पर बोलते हुए उन्होंने एक बार कहा था - हाँ मैं अवसरवादी हूँ और अवसर ना मिले तो मैं अवसर बना लेता हूँ समाज के हित में .....और वाकई उन्होंने बहुजनों के लिए खूब सारे मौके बनाये ,उनके द्वारा दिए गए नारों ने उन दिनों काफी हलचल मचा रखीथी ,मनुवाद को उन्होंने जमकर कोसा ,जयपुर में हाईकोर्ट में खड़े मनु की मूर्ति को हटाने के लिए भी उन्होंने अम्बेडकर सर्कल पर बड़ी मीटिंग की ,हम भीलवाडा से पूरी बस भर कर लोग लाये ,मान्यवर की पुस्तक 'चमचा युग 'भी पढ़ी ,उसमे चमचों के विभिन्न प्रकार पढ़ कर आनंद आया, चमचों का ऐसा वर्गीकरण शायद ही किसी और ने किया होगा ,वाकई कांशीराम का कोई मुकाबला नहीं था .बाबा साहब आंबेडकर के बाद उन्होंने जितना किया ,उसका आधा भी बहन कुमारी कर पाती तो तस्वीर आज जितनी निराशाजनक तो शायद नहीं होती ,पर दलित की बेटी दौलत की बेटी बनने के चक्कर में मिशन को ही भुला बैठी ...
मुझे मान्यवर से 5 बार मिलने का अवसर मिला ,उनकी सादगी और समझाने के तरीके ने मुझे प्रभावित किया ,वे जैसे थे ,बस वैसे ही थे ,उनका कोई और चेहरा नहीं था ,तड़क भड़क से दूर ,मीडिया की छपासलिप्सुता से अलग ,लोगों के बीच जा कर अपनी बात को समझाने का उनका श्रमसाध्य कार्य मेरी नज़र में वन्दनीय था ,मैं उनकी बातों और नारों का तो दीवाना ही था ,ठाकुर ब्राहमण बनिया को छोड़ कर सबको कमेरा बताना और इन्हें लुटेरा बताने का साहस वो ही कर सकते थे ,ये मान्यवर कांशीराम ही थे जिन्होंने कांग्रेस को सांपनाथ ,भाजपा को नागनाथ ,जनता दल को सपोला और वामपंथियों को हरी घास के हरे सांप निरुपित किया था ,बसपा सपा गठबंधन सरकार के शपथ ग्रहण के वक़्त लगा नारा -'मिले मुलायम कांशीराम,भाड में जाये जय श्रीराम 'उस वक़्त जितना जरुरी था , आज भी उसकी उतनी ही या उससे भी अधिक जरुरत महसूस होती है .
चूँकि मेरा प्रारम्भिक प्रशिक्षण संघी कट्टरपंथी विचारधारा के साथ हुआ इसलिए चरमपंथी विचारधारा मुझे तुरंत लुभा लेती थी ,उदारवादी और गांधीवादी टाइप के अम्बेडकरवादियों से मुझे कभी प्रेम नहीं रहा ,समरसता ,समन्वयन और भाईचारे की फर्जी बातों पर मेरा ज्यादा यकीन वैसे भी नहीं था ,इसलिए मान्यवर जैसे खरी खरी कहने वाले व्यक्ति को पसंद करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी ,एक और बात जो उनकी मुझे पसंद आती थी वो यह थी कि वे कभी किसी की चमचागिरी नहीं करते दिखाई पड़े ,याचक सा भाव नहीं ,बहुजनों को हुक्मरान बनाने की ललक और उसके लिए जीवन भर का समर्पण ..इसलिए मैं सदैव ही कांशीराम को पसंद करता रहा और आज भी अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ उन्हें आदर देता हूँ .
मेरी उनसे आखिरी मुलाकात चित्तोडगढ के डाक बंगले में हुयी ,वे गाड़िया लोहारों के सम्मलेन को संबोधित करने आये थे ,उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूँ की राजस्थान में कोई मेघवाल मुख्यमंत्री बने ,मैं उन्हें राजा बनाने आया हूँ ,लेकिन मान्यवर की इस इच्छा को परवान चढाने के लिए बसपा कभी उत्सुक नहीं नज़र आई ,जो लीडरशिप इस समुदाय से उभरी शिवदान मेघ ,भोजराज सोलंकी अथवा धरमपाल कटारिया के रूप में ,उसे भी किसी न किसी बहाने बेहद निर्ममता से ख़तम कर दिया गया ,मैंने देखा कि ज्यादातर प्रदेश प्रभारी बहन जी उतरप्रदेश से ही भेजती है ,जिनका कुल जमा काम राजस्थान से पार्टी फण्ड ,चुनाव सहयोग और बहन जी के बर्थ डे के नाम पर चंदा इकट्ठा करना रहता है .,
जब तक मान्यवर कांशीराम जिंदा और सक्रिय रहे, तब तक बसपा एक सामाजिक चेतना का आन्दोलन थी ,उसके बाद वह जेबकतरों की पार्टी में तब्दील होने लगी ,जिधर नज़र दौड़ाओ उधर ही लुटेरे लोग आ बैठे ,बातें विचारधारा तथा मिशन की ..और काम शुद्ध रूप से लूट- पाट ,सेक्टर प्रभारी से लेकर बहनजी तक जेब गरम ही बसपा का ख़ास धरम हो गया ,धन की इस वेगवान धारा में विचारधारा कब बह कर कहाँ जा गिरी ,किसी को मालूम तक नहीं पड़ा ,आज भी यह प्रश्न अनुतरित है कि बसपा नमक विचारधारा का आखिर हुआ क्या ?
तिलक तराजू और तलवार को चार चार जूते मारने वाले उन्हीं तिलकधारियों के जूते और तलुवे चाटने लग गए ,बसपा का हाथी अब मिश्रा जी का गणेश था ,मनुवाद को कोसने वाले अब ब्राहमण भाईचारा सम्मेलनों में शंखनाद कर रहे थे और पूरा बहुजन समाज बहनजी की इस कारस्तानी को सामाजिक अभियांत्रिकी समझ कर ढपोरशंख बना मूक दर्शक बना हुआ था ,किसी की मजाल जो दलित समाज की नयी नवेली इस तानाशाह के खिलाफ सवाल उठाने की हिम्मत करता ?बसपा अब द्विजों को जनेऊ बांटने का गोरखधंधा भी करने लगी थी ,दलितों को बिकाऊ नहीं टिकाऊ होने की नसीहत देने वाली पार्टी के चुनावी टिकट सब्जी मंडी के बैगनों की भांति खुले आम बिकने लगे ,पैसा इकट्ठा करना ही महानतम लक्ष्य बन चुका था ,बर्थ डे केक ,माथे पर सोने का ताज़ और लाखों रुपए की माला पहन कर बहनजी मायावती से मालावती बन बैठी ,बहुजन समाज स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगा ,सामाजिक परिवर्तन के एक जन आन्दोलन का ऐसा वैचारिक पतन इतिहास में दुर्लभ ही है ,मैं जिस उम्मीद के साथ बसपा में सक्रिय हुआ ,वैसा कोई काम वहां था ही नहीं ,वहां कोई किसी की नहीं सुनता है ,बहन जी तो कथित भगवानों की ही भांति अत्यंत दुर्लभ हस्ती है ,कभी कभार पार्टी मीटिंगों में दर्शन देती ,जहाँ सिर्फ वो कुर्सी पर बिराजमान होती और तमाम बहुजन कार्यकर्ता उनके चरणों में बैठ कर धन्य महसूस करते ,बसपा जैसी पार्टी में चरण स्पर्श जैसी ब्राह्मणवादी क्रिया नीचे से ऊपर तक बेहद पसंद की जाती है ,जो जो चरनागत हुए वो आज तक बहन जी के शरानागत है ,शेष का क्या हाल हुआ ,उससे हर कोई अवगत है ,जो भी बहन जी को चमकता सितारा लगा ,उसकी शामत आ गयी ,बोरिया बिस्तर बन्ध गए ,सोचने समझने की जुर्रत करने वाले लोग गद्दार कहे जा कर मिशनद्रोही घोषित किये गए और उन्हें निकाल बाहर किया गया ,हालत इतने बदतर हुए कि हजारों जातियों को एकजुट करके बनी 'बहुजन समाज पार्टी 'सिर्फ 'ब्राहण चमार पार्टी 'बन कर रह गयी ,
मान्यवर कांशीराम रहस्यमय मौत मर गए और धीरे धीरे बसपा भी अपनी मौत मरने लगी ,उसका मरना जारी है ..सामाजिक चेतना के एक आन्दोलन का इस तरह मरना निसंदेह दुख का विषय है पर किया ही क्या जा सकता है ,जहाँ आलोचना को दुश्मनी माना जाता हो और कार्यकर्ता को पैसा उगाहने की मशीन ,वहां विचार की बात करना ही बेमानी है ,मैं बसपा का सदस्य तो रहा और मान्यवर ने मुझे राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लिए भी नामित किया ,लेकिन मैं कभी भी आचरण से बसपाई नहीं हो पाया ,मुझमे वो क्षमता ही नहीं थी ,यहाँ भी लीडर नहीं डीलर ही चाहिए थे ,जिन कारणों ने पासवान जी से पिंड छुड्वाया ,वे ही कारण बहनजी से दूर जाने का कारण बने ,दरअसल जिस दिन कांशीराम मरे ,उस दिन ही समाज परिवर्तन का बसपा नामक आन्दोलन भी मर गया ,मेरे जैसे सैंकड़ो साथियों के सपने भी मर गए ,उस दिन के बाद ना मुझे बसपा से प्यार रहा और ना ही नफरत .................( जारी )
- भंवर मेघवंशी 
आत्मकथा 'हिन्दू तालिबान 'का छब्बीसवा सर्ग

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