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सोए हुए लोगों के बीच…

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सोए हुए लोगों के बीच…

हिंदी के इस कवि के जनगीत न जाने हम में से कितने लोगों ने स्कूलों से लेकर आंदोलनों तक गाए। गाते रहे और आज भी गा रहे हैं, लेकिन सबसे दुखद पहलू ये है कि पूछने पर हम में से ही ज़्यादातर लोग 'जवाब दर सवाल है, इंक़लाब चाहिए'के इस रचयिता का नाम भी नहीं जानते हैं। 1938 में जन्मे और 2000 में दुनिया से कूच कर गए, शलभ श्रीराम सिंह के रचे पर शायद कभी भी उतनी बात नहीं हुई, जितनी हो सकती थी। कामरेड नछत्तर सिंह जैसी अजब कविता से लेकर दिल्लियां जैसी मारक रचना करने वाले इस कवि की रचनाओं को याद करने का यह एक अहम समय है…ऐसे समय में पूरा देश की मज़हबी उन्माद से लेकर पूंजीवादी धोखे की अफ़ीम में मदमस्त है…किसी को कुछ सही-ग़लत समझ नहीं आ रहा है…ऐसे वक़्त में जब दरअसल हम इतनी नींद में हैं कि जागने का भ्रम हो रहा है…इस जैसी कविताओं की बहुत ज़रूरत है…पढ़िए कि डॉ. दाभोलकर से लेकर तीस्ता सेतलवाड़ तक वो कौन लोग हैं…और आखिर क्यों अपनी ज़िंदगी ख़तरे में डाल कर लड़ रहे हैं…दरअसल कई बार ज़िंदगी हमेशा की तरह छोटी ही होती है, लोग इसलिए बड़े हो जाते हैं…क्योंकि वो अपने विचार और मक़सद को ख़ुद की ज़िंदगी से बड़ा बना लेते हैं…

मॉडरेटर की टिप्पणी

 

सोए हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे

urlसोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
परछाइयों से नीद में लड़ते हुए लोग
जीवन से अपरिचित अपने से भागे
अपने जूतों की कीलें चमका कर संतुष्ट
संतुष्ट अपने झूठ की मार से
अपने सच से मुँह फेर कर पड़े
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें

सोते हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पहाड़ों की ऊँचाई से बेख़बर
समन्दरों की गहराई से नावाकिफ़
रोटियों पर लिखे अपने नाम की इबारत नहीं पढ़ सकते
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है
Solace
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
चुरा न ले जाए इनका चित्र
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे

 

ShalabhShriRamSinghशलभ श्रीराम सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद ज़िले के मसोदा गांव में 5 नवम्बर, 1938 को हुआ और देहांत 22 अप्रैल, 2000 को…इनका लिखा सबसे मशहूर गीत 'इंक़लाब चाहिए'जनवादी आंदोलनों की जान है।

http://hillele.org/2015/07/17/8066/

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