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चुनावी सट्टे में सबकुछ दांव पर लगाकर आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं बहुजन?

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चुनावी सट्टे में सबकुछ दांव पर लगाकर आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं बहुजन?


पलाश विश्वास


चुनावी सट्टे में सबकुछ दांव पर लगाकर आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं बहुजन?


जैसा कि जनसत्ता में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लिखा हैः


एक लाख करोड़ रुपए भारत जैसे देश के लिए क्या मायने रखते हैं यह 90 फीसद हिंदुस्तान से पूछिएगा तो वह दांतो तले ऊंगली दबा लेगा। लेकिन देश के ही उस दस फीसद तबके से पूछिएगा जो भारत के 80 फीसद संसाधनों के उपभोग में लगा हुआ है तो वह इसे दांतों में अटकी कोई चीज निकालने वाले टूथ पिक से ज्यादा नहीं समझेगा। ऐसे भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रुपए के वारे-न्यारे खुले तौर पर हो रहे हैं। चुनाव आयोग यानी भारत सरकार का बजट सिर्फ साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए है। बाकी का पैसा कहां से आ रहा है, हवाला है या काला धन इसमें किसी की रुचि नहीं है।


चुनाव को कैसे लोकतांत्रिक धंधे में बदला गया है यह देश भर की हर लोकसभा सीट को लेकर लग रहे सट्टा बाजार की बोली से समझा जा सकता है जहां 60 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का खेल खुले तौर पर हो रहा है। इसमें अभी तक अहम सीट वाराणसी पर दांव नहीं लगा है। उम्मीदवारों के प्रचार का आंकड़ा तीस हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। इस आंकड़े पर चुनाव आयोग की नजर है।



हम पहले ही यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम फिलहाल किसी अंबेडकरी संगठन या राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं हैं।


लेकिन भारतीय कृषि समाज में पैदा होने के कारण उनकी बहुजनविरोधी गतिविधियों से हम अप्रभावित भी नहीं रह सकते।


हमारे अत्यंत आदरणीय पत्रकार लेखक वयोवृद्ध वीटी राजशेखर बहुजन हित की पत्रकारिता में अग्रगण्य हैं। हम लोगों ने बहुत कुछ उनसे सीखा।उनसे दलित वायस के आखिरी दिनों में जब हम बामसेफ के जरिये ही राष्ट्रव्यापी जनांदोलन खड़ा करके वर्ण वर्चस्वी सत्ता वर्ग के जनसंहारी अश्वमेध का प्रतिरोध करने का सपना देख रहे थे और आदरणीय वामन मेश्राम और दूसरे बामसेफ नेता लगातार पुणे समझौते के जरिये पैदा दलालों और भड़वों पर प्रहार कर रहे थे और हम तालियां बजा रहे थे, सत्ता की चाबी पर उनके पहचान अभियान के मुद्दे पर तीखे मतभेद हो गये।


वीटी राजशेखर  मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के कायल हैं और कहते हैं कि वर्ग के आधार पर मेहनतकश जनता गोलबंद नहीं हो सकती,क्योंकि भारत में वर्ग का कोई वजूद है ही नहीं,जाति व्यवस्था का ही स्थाई बंदोबस्त है।


वीटी राजशेखर बार बार बाबा साहेब अंबेडकर को उद्धृत करके बताते रहे कि सत्ता की चाबी हासिल किये बिना बहुजनों को कुछ हासिल हो ही नहीं सकता।


उनके मुताबिक जन्मजात जाति पहचान से जुड़े लोगों को ही गोलबंद किया जा सकता है और मायावती की रणनीति का पुरजोर समर्थन कर रहे थे एकतरफ तो दूसरी ओर वामन मेश्राम के मूल निवासी बामसेफ का भी समर्थन कर रहे थे,जिसका ध्येय सामाजिक सांस्कृतिक क्रांति के मार्फत बहुजनं के लिए आजादी हासिल करना था।इस अंतर्विरोध के लिए राजशेखर जी से हमारी दूरी बढ़ती चली गयी।


फिर जब आदरणीय वामन मेश्राम जी ने ओबीसी की गिनती के लिए देशव्यापी अभियान चलाया,तब भी हममें से ज्यादातर लोग उनके साथ थे।


इससे पहले वामन मेश्राम जी लगातार एक दशक से भी ज्यादा समय तक नागरिकता संशोधन कानून और कारपोरेट आधार प्रकल्प के खिलाफ अभियान चला रहे थे और उनके सौजन्य से हम 2003 से 2011 तक लगातार इन मुद्दों पर देशभर में बहुजनों को संबोधित भी कर रहे थे।


ओबीसी की गिनती का मसला लेकर उन्होंने भारत मुक्ति मोर्चा का गठन किया और तब भी हम और सारे कार्यकर्ता उनके साथ थे।


लेकिन उन्होंने इस अभियान में अपने साथ राजग के तत्कालीन संयोजक शरद यादव,लोजपा के रामविलास पासवान और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए अपने संसदीय निवास पर वैदिकी यज्ञ करा रहे कैप्टेन जय नारायण निषाद को हर रैली में प्रमुख वक्ता बनाते हुए अपने तमाम कार्यकर्ताओं को हाशिये पर रखना शुरु किया।


तब भी हमें वामन मेळ्राम के नेतृत्व से कोई शिकायत नहीं थी। वैसे भी हम तमाम लोग ओबीसी और आदिवासियों के साथ अल्पसंख्यकों को बहुजन आंदोलन में शामिल करने के लिए सिद्धांततः सहमत थे।


मुंबई इकाई के विद्रोह के मुद्दे पर वामन मेश्राम चाहते तो हिसाब पेश करके मामला तत्काल सुलटाया जा सकता था।उन्होंने ऐसा लेकिन नहीं किया। इसी बीच उन्होंने भारत मुक्ति पार्टी का ऐलान मध्य प्रदेश के झबुआ में हुए कथित हमले का हवाला देकर राजनीतिक दल की अनिवार्यता बताते हुए कर दिया।


देश भर में इसकी प्रतिक्रिया हुई।हम लोग बाबासाहेब के कहे मुताबिक सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहे थे,सो जाहिर है कि हम लोग पार्टी से तो नहीं ही जुड़े और बामसेफ से अलग हो गये।


इस मुद्दे पर जो बहस लाजिमी थी ,वह हो नहीं सकी और आरोप प्रत्यारोप का दौर चला।


माननीय कांशीराम जी के बामसेफ खत्म करने के ऐलान के साथ बहुजन समाज पार्टी के गठन के वक्त भी कुछ ऐसा ही हुआ था।


लेकिन विडंबना यह है कि तब कांशीराम जी को गलत बताकर बामसेफ का झंडा उठाने वाले उनकी ही राह पर चल पड़े और कांशीराम जी की बनायी पार्टी के खिलाफ एक और बहुजन पार्टी बना दी।


बहरहाल हम लोगों ने इस विवाद से नाता तोड़ लिया।उन्हें अपना प्रयोग करने के लिए खुल्ला छोड़ दिया।


हमने पहले बामसेफ धड़ों के एकीकरण की कोशिश की तो कार्यकर्ता तो देशभर में तैयार दीखे लेकिन किसी धड़े के नेता को यह मंजूर न था।


हमने इससे सबक सीखा और देश के बदलते चरित्र और मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था के जनसंहारी यथार्थ के मद्देनजर तमाम उत्पादक और सामाजिक शक्तियों को बिना पहचान के, बिना अस्मिता के गोलबंद करने का बीड़ा उठाया।


जाहिर है कि हमारे पुराने नेताओं,साथियों से हमारा नाता टूट गया।


इसे सभी पक्षों ने स्वीकार कर लिया।


अब बहुजन मुक्ति पार्टी के अध्यक्ष बना दिये गये जस्टिस आर के आंकोदिया साहेब ने। पार्टी का संविधान भी उन्होंने तैयार किया और चुनाव आयोग में पार्टी का पंजीकरण उसी संविधान के तहत हुआ।


पार्टी पंजीकृत होते ही आंकोदिया साहब के अध्यक्ष पद से हटने की स्थिति बन गयी।वे उत्तर भारत के तमाम राज्यों के कार्यकर्ताओं के साथ बमुपा से अलग हो गये और हमारी मुहिम में शामिल हो गये।उन्होंने अपने निर्णय का खुलासा सार्वजनिक तौर पर किया और इस संदर्भ में हुए पत्रव्यवहार को बी सार्वजनिक कर दिया।


हमने इस पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की।इकानामिक टाइम्स के समाचार मुताबिक दस हजार सर्वकालीन कार्यकर्ता बामसेफ के हैं।हमने इस दावे का कोई खंडन नहीं किया।


इसी बीच छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता बाहर करने का दावा किया गया और बमुपा वहां जमकर लड़ी।किसी प्रत्याशी की हालांकि जमानत भी नहीं बच सकी।सबसे ज्यादा डेढ़ हजार वोट एक सीट से मिले। हमें इससे कुछ लेना देना नहीं था।


फिर बामसेफ के सर्वकालीन कार्यकर्ताओं में से आधे से ज्यादा निकाल दिये गये,जो अब हमारे मुहिम में शामिल हैं।हमने उन्हें व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की इजाजत नहीं दी।


महाराष्ट्र में मुंबई और नागपुर के लोग तो हमारे साथ थे ही,पुणे,मराठवाड़ा,विदर्भ से भी बड़ी संख्या में कार्यकर्ता जुड़ते रहे।हमने उनकी शिकायतों को सार्वजनिक नहीं किया।


अब बमुपा पश्चिम बंगाल की राज्यइकाई ने इस पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बताते हुए इसके मालिक वामन मेश्राम जी के होने का आरोप लगाते हुए बगावत कर दी है।


हम वामन मेश्राम जी का अत्यंत सम्मान करते हैं।देशभर में बहुजन आंदोलन का नेटवर्क बनाने में वे रात दिन चौबीसों घंटे दौड़े रहे,कांशीराम जी के अलग हो जाने के बाद।बोरकर साहेब और दूसरे लोगों के अलग हो जाने पर भी उन्होंने बामसेफ आंदोलन को नये सिरे से खड़ा किया।


हम यह उम्मीद करते हैं कि 2011 और 2014 के बीच ज्यादातर कार्यकर्ताओं,सर्वकालीन कार्यकर्ताओं के अलग हो जाने की कीमत पर उन्होंने आंदोलन को हाशिये पर रखकर जो राजनीतिक विकल्प बहुजन समाज पार्टी के मुकाबले तैयार किया,उसके नतीजे की वे जरुर समीक्षा करेंगे और चुनाव निपट जाने के बाद वे और उनके समर्थक भी जरुर समीक्षा करेंगे और तब आंदोलन के बिखेर जाने का उन्हें शायद इसका पछतावा भी हो और शायद  वे नये सिरे से राजनीति के बजाय सामजिक और राजनीतिक आंदोलन की अपनी पुरानी लाइन पर लौटें।


लेकिन बमुपा की पश्चिम बंगाल इकाी ने केंद्रीय नेतृत्प पर जो आरोप लगाये हैं,वे अत्यंत गंभीर हैं।इस आरोप को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि वे आंदोलन को निजी जायदाद में तब्दील कर रहे हैं और उनके एजंट कार्यकर्ताओं और राज्यइकाइयों तक को हाशिये पर रखकर खास इलाके के खास पहचान के तहत मनमानी कर रहे हैं।


हम अलग हो जाने के बावजूद वामन मेश्राम जी को बहुजन आंदोलन का बड़ा नेता मानते रहे हैं और उनके योगदान का स्वीकार भी करते रहे हैं।अब उनके खिलाफ यह आरोप वे लोग लगा रहे हैं जो हमें आंदोलन के साथ बने रहने का आग्रह करते रहे हैं।


बेहतर होता कि वे अपना बहुजनों को संबोधित अलगाव का बयान हिंदी और अंग्रेजी में जारी करते।


उनका बांग्ला बयान प्रकाशित प्रसारित होने पर देशभर के कार्यकर्ता जो बांग्ला पढ़ नहीं सकते,वे संपर्क कर रहे हैं  और पूछ रहे हैं कि आखिर हुआ क्या है।


इस सावल का जवाब जाहिर है कि हम नहीं दे सकते।हम उनके आरोप पत्र का हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद अपनी ओर से जारी भी नहीं कर सकते।


हमने माननीय सुकृति विश्वास औऱ उनके साथियों को को खुला पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि वे हिंदी और अंग्रेजी में अपना बयान जारी रखें,तो लोगों को उनका पक्ष समझ में आयेगा।


Palash BiswasSukriti Babu,People from all over India,who aspire for equity and social justice,are puzzled as they may not write or read Bengali.For their behalf,I request you and ur friends,please write in English what happened to Bamcef Politics ie BMP as u worked as the State President in Bengal.What led you to ultimate exit.It must be clarified and you should speak out the truth if possible in Hindi and English as well as soon as possible.We did not support political activism and disassociated ourselves.At that tile you did try to persuade us.Now you are speaking very different langauge.The Bahujan India has every right to listen the story in Hiondi and English right from you.


उन्होंने फिर फिर बांग्ला  बयान पोस्ट करने के अलावा कार्यकर्ताओं को जवाब देने की जरुरत नहीं महसूस की।यह लापरवाह गैरजिम्मेदाराना रवैया है।




आगे इस सिलसिले में पूछताछ करने वालों से हमारा विनम्र निवेदन है कि कृपया दिलीप गायेन,सुकृति विश्वास और पश्चिम बंगाल बहुजन मुक्ति पार्टी से ही वे जवाब तलब करें,हमसे नहीं।क्योंकि इस मसले से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है।


चूंकि कल तक वामन मेश्राम जी हमारे नेता रहे हैं,इसलिए हम उनके खिलाफ लगाये जाने वाले अनर्गल आरोप का विरोध करते हैं और आरोप लगानेवाले लोगों से विनम्र निवेदन करते हैं कि वे अपने आरोप या तो वापस लें और मेश्राम जी से माफी मांग लें या फिर दम हो तो सार्वजनिक तौर पर उन आरोपों को साबित करें और बतायें कि इससे बहुजन समाज को क्या नफा नुकसान है।


आरोप लगाये हैं तो साबित करने की जिम्मेदारी भी लें।हम इस आलेख के साथ बांग्ला में उनके वामनविरोधी बहुजन मुक्ति पार्टी पश्चिम बंगाल इकाई का वक्तव्य का इमेज भी पोस्ट कर रहे हैं।


हमारा निवेदन है कि इस मसले को नजरअंदाज न करें और सुकृति विश्वास और उनके साथियों से जवाब तलब जरुर करें।


इस मसले पर यहीं तक।आगे हमें इस बारे में न कुछ कहना है और न कोई सफाई देनी है।हमारा वामन मेश्राम,बीडी बोरकर या ताराराम मेहना या झल्ली से कोई लेना देना नहीं है।


लेकिन बहुजनों के हितों के मद्देनजर जो भी राजनीति में शामिल होकर बहुजन हित के खिलाफ काम करेंगे,चाहे वे हमारे पुराने मित्र उदित राज हों,या राम विलास पासवान या रामदास अठावले,हम उनकी लोकतांत्रकि तरीके से आलोचना जरुर करते रहेंगे।


वामन मेश्राम जी की राजनीति से हम सहमत नहीं हैं और बामसेफ को बहुजन मुक्ति पार्टी में समाहित करने के उनके फैसले के हम लोग खिलाफ रहे हैं और बाकी मुद्दे बामसेफ के कामकाज हैं।लेकिन इस खातिर हम उनकी भूमिका को सिरे से खारिज नहीं कर सकते।


दरअसल जैसे कि बीडी बोरकर साहेब ने भी सार्वजनिक तौर पर कहा है और इस मसले पर हस्तक्षेप में हमारा आलेख भी छप चुका है कि सत्ता की चाबी को हासिल करने की मान्यवर कांशीराम जी की राजनीति फेल कर गयी है और इसी गलती के चलते पूरा का पूरा बहुजन आंदोलन पटरी से उतर गया है,हम कांशीराम जी की भी कड़ी आलोचना करते हैं और उनकी पहचान की राजनीति को खारिज कर चुके हैं।


हम बाबासाहेब के विचारों, आंदोलन और संविधानपरस्ती को भी मौजूदा राज्यतंत्र और मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था के मद्देनजर नये नजरिये से देख परख रहे हैं और महज प्रासंगिक चीजों को ही लेकर चल रहे हैं।


लेकिन किसी भी सूरत में हम न कांशीराम और न बाबासाहेब की ऐतिहासिक भूमिका पर कोई सवालिया निशान खड़े  कर सकते हैं।


हमारा निवेदन है कि व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप के बजाय बेहतर यही हो कि लोकतांत्रिक संवाद के साथ भारत के बहुजनों के साथ साथ यानी दलितों, पिछडो़ं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ साथ देश की समस्त महिलाओं जो वर्ण व्यवस्था के मुताबिक शूद्र हैं,छात्रों युवाओं कामगारों यानी सामाजिक और उत्पादक शक्तियों को गोलबंद करके फासिस्ट जायनवादी धर्मोन्मादी कारपोरेट जनसंहारी पअश्वमेध के विरुद्ध हम देशव्यापी जनांदोलन खड़ा करके प्रतिरोध का बहुजन एजंडा तैयार करें।


चुनावी सट्टा पर आज जनसत्ता में पुण्य प्रसूण वाजपेयी का जो आसेख छपा है,उसीके मदद्देनजर हमने पूछा है,चुनावी सट्टे में सबकुछ दांव पर लगाकर आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं बहुजन?


बामसेफ बमुपा के बारे में हुई इस बातचीत से इस सवाल की प्रासंगिकता पर आप सोचें तो मेहरबानी है। न सोचें तो पहले की तरह आपकी गालियां हमारे सर माथे।


हकीकत यह है कि हमारे लोग आपस में सर फुटव्वल में मस्त हैं।


हकीकत यह है कि वर्णवर्चस्वी सत्ता को मौजूदा तंत्र में अलग अलग पहचान अस्मिता मध्ये कोई चुनौती दी ही नहीं जा सकती।


हकीकत यह है कि पचासी हो या निनानब्वे अलग अलग हम शून्य प्रतिशत भी नहीं हैं हकीकत की जमीन पर।


सबसे पहले यह सूरत बदलनी चाहिए,जिसके लिए बाबासाहेब हमेशा सामाजिक सांस्कृतिक गोलबंदी पर जोर देते रहे।


बिना गोलबंद हुए राजनीति के जरिये हम एक दूसरे पर वार ही कर रहे हैं और सत्ता तबक एक फीसद होने पर भी बहुमत में हैं और उनका कारपोरेट राज बिना प्रतिरोध हमारे सफाये में लगा हैं।


हम गरदन आगे किये उनके गिलोटिनसमक्षे कतारबद्ध केसरिया हैं।


दलित पिछड़ा आदिवासी मुसलमान क्षेत्रीय पहचान की पार्टियों के जरिये आपसी मारामारी में कोई कितनी ही सीटें हासिल कर लें,एकाध राज्य में सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल भी कर लें,इससे सत्ता का तंत्र मंत्र यंत्र टूटता नहीं है।


हमने वोट चाहे जिसे डाला हो,जनादेश के नतीजे में कोई तब्दीली नहीं होने वाली कांग्रेस और भाजपा के बदले सत्ता में चाहे तीसरा मोर्चा ही क्यों न आ जाये।


पिछले तेइस साल खासकर और आजादी से अबतक हम लगातार अपने कातिलों को चुनते रहे हैं कत्ल होने के लिए।


राष्ट्रीय जनांदोलन के अलावा हमारे लिए कोई विकल्प खुला नहीं है।


याद करें कि हर समस्या के जवाब में,हर चर्चा के अंत में माननीय वामन मेश्राम जी यही कहते रहे हैं,राष्ट्रीय जनांदोलन के अलावा हमारे लिए कोई विकल्प खुला नहीं है।


उस राष्ट्रीय जनांदोलन का क्या हुआ,इस पर जरुर गौर किया जाये।


बेहतर हो कि आपस में लहूलुहान होने से पहले हम बाबासाहेब के कहे मुताबिक खुद को पहले संगठित करना सीखें।


सबसे कम वक्त का सबसे बड़ा धंधा बना '2014 का चुनाव'



Monday, 05 May 2014 10:03

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पुण्य प्रसून वाजपेयी

एक लाख करोड़ रुपए भारत जैसे देश के लिए क्या मायने रखते हैं यह 90 फीसद हिंदुस्तान से पूछिएगा तो वह दांतो तले ऊंगली दबा लेगा। लेकिन देश के ही उस दस फीसद तबके से पूछिएगा जो भारत के 80 फीसद संसाधनों के उपभोग में लगा हुआ है तो वह इसे दांतों में अटकी कोई चीज निकालने वाले टूथ पिक से ज्यादा नहीं समझेगा। ऐसे भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रुपए के वारे-न्यारे खुले तौर पर हो रहे हैं। चुनाव आयोग यानी भारत सरकार का बजट सिर्फ साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए है। बाकी का पैसा कहां से आ रहा है, हवाला है या काला धन इसमें किसी की रुचि नहीं है।


चुनाव को कैसे लोकतांत्रिक धंधे में बदला गया है यह देश भर की हर लोकसभा सीट को लेकर लग रहे सट्टा बाजार की बोली से समझा जा सकता है जहां 60 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का खेल खुले तौर पर हो रहा है। इसमें अभी तक अहम सीट वाराणसी पर दांव नहीं लगा है। उम्मीदवारों के प्रचार का आंकड़ा तीस हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। इस आंकड़े पर चुनाव आयोग की नजर है।

अंगरेजी के सबसे बड़े राष्ट्रीय अखबार में किसी के निधन के शोक संदेश के छोटे विज्ञापन पर खर्च आता है 24 हजार रुपए जो अंदर के एक तय पन्ने पर छपता है। लेकिन राजनीतिक दल या कोई नेता वोट मांगने के लिए अगर पहले पन्ने को ही खरीद लेता है तो तमाम रियायत के बाद भी 70 लाख रुपए से ज्यादा हो जाता है। यह चुनाव आयोग के तय एक उम्मीदवार के प्रचार की बढ़ी हुई रकम है। बावजूद इसके हर कोई खामोश है। पिछले एक महीने में अखबारी और टीवी विज्ञापन का कुल खर्चा सौ करोड़ पार कर चुका है।

आजादी के बाद पहले चुनाव में कुल खर्चा 11 करोड़ 25 लाख रुपए का हुआ था। ताजा चुनाव में यह आंकड़ा 34 हजार करोड़ को पार कर रहा है। दरअसल 1952 में चुनाव आयोग के खर्च में ही चुनाव संपन्न हो गया था। लेकिन अब चुनाव आयोग के खर्चे से दस गुना ज्यादा खर्चा उम्मीदवार कर देते हैं। रुपयों में कैसे चुनावी लोकतंत्र का यह मिजाज बदला है यह समझना भी दिलचस्प है। 1952 में चुनाव आयोग को प्रति वोटर 60 पैसे खर्च करने पड़ते थे। वहीं 2014 में यह 437 रुपए हो चुका है। यानी 1952 में चुनाव आयोग का कुल खर्च साढ़े दस करोड़ हुआ था। उस वक्त 17 करोड़ मतदाता थे। लेकिन आज की तारीख में देश में 81 करोड़ मतदाता हैं और चुनाव आयोग का खर्च साढ़े तीन हजार करोड़ पार कर चुका है। 1952 के चुनाव में सभी उम्मीदवारों ने अपने चुनाव प्रचार पर सिर्फ 75 लाख रुपए खर्च किए थे। इस बार 2014 के चुनाव में उम्मीदवारों का खर्च 30 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज और नेशनल इलेक्शन वाच की मानें तो चुनाव जीतने के लिए हर उम्मीदवार जिस तरह रुपए लुटा रहा है उसने इसके संकेत तो दे ही दिए हैं कि चुनाव सबसे कम वक्त में सबसे बड़े धंधे में बदल गया है। इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि 1952 में जितना खर्च सभी उम्मीदवारों के प्रचार पर आया था जो करीब 75 लाख रुपए था, करीब उतनी ही रकम 2014 में हर उम्मीदवार अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है, इसकी इजाजत चुनाव आयोग दे चुका है। हर उम्मीदवार की प्रचार सीमा 70 लाख रुपए है। लेकिन किसी भी उम्मीदवार से पूछिए तो वह यह कहने से नहीं कतराएगा कि 70 लाख में चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है। यानी पैसा और ज्यादा बहाया जा रहा होगा इससे इनकार नहीं किया जा सकता। एसोशियन फॉर डेमोक्रेटिक रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा चुनाव में औसतन पांच करोड़ तक का खर्च हर सीट पर पहले तीन उम्मीदवार अपने प्रचार में कर ही रहे हैं। बाकियों का औसत भी दो करोड़ से ज्यादा का है। यानी 2014 के चुनाव का जो खर्च 34 हजार करोड़ नजर आ रहा है वह और कितना ज्यादा होगा इसके सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। लेकिन यह रास्ता जा किधर जा रहा है। एक वक्त अपराधी राजनीति में घुसे क्योंकि राजनेता बाहुबलियों और अपराधियों के आसरे चुनाव जीतने लगे थे। अब कारपोरेट या औद्योगिक घराने राजनीति में सीधे घुसेंगे क्योंकि राजनेता अब कारपोरेट की पूंजी पर निर्भर हो चले हैं। यह सवाल इसलिए बड़ा हो चला है क्योंकि जिस तर्ज पर मौजूदा चुनाव में रुपए खर्च किए जा रहे हैं उसके पीछे के स्रोत क्या हो सकते हैं और स्रोत अब सीधे राजनीतिक मैदान में क्यों नहीं कूदे यह सवाल बड़ा हो चला है। बीस साल पहले वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनेताओं के साथ बाहुबलियों और अपराधियों के गठबंधन के खेल को खुले तौर पर माना गया था। रिपोर्ट में इसके संकेत भी दिए गए थे कि अगर कानून के जरिए इस पर रोक नहीं लगाई गई तो फिर आने वाले वक्त में संसद के विशेषाधिकार का लाभ उठाने के लिए अपराधी राजनीति में आने से चूकेंगें नहीं। बीस सालों में हुआ भी यही। पंद्रहवीं लोकसभा में 162 सांसदों ने अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों की पुष्टि की। असर और ज्यादा हुआ तो विधायक से लेकर सांसदों ने भी आपराधिक छवि को तवज्जो दी और मौजूदा राज्यसभा में कुल 232 सांसदों में से 40 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। असल में जितनी बड़ी तादाद में बाकायदा अपने हलफनामे में विधानसभा से लेकर संसद तक में आपराधिक मामले दर्ज करने वाले राजनेता हैं उसमें अब यह सवाल छोटा हो चला है कि साफ छवि के आसरे कौन चुनाव लड़ रहा है। लेकिन अब बड़ा सवाल रुपयों का हो चला है तो रुपए लुटाने वालों की ताकत भी बढ़ती जा रही है। इस बार चुनाव में 400 हेलिकॉप्टर लगातार नेताओं के लिए उड़ान भर रहे हैं। डेढ़ दर्जन से ज्यादा निजी विमान नेताओं के प्रचार में लगे हैं। नेताओ के प्रचार की दूरी नापने के लिए करीब 450 करोड़ रुपए हवा में ही फूंक दिए गए हैं।

इसी तर्ज पर चुनाव प्रचार के अलग-अलग आयामों पर बेहिसाब खर्च हो रहा है। अखबार से लेकर टीवी विज्ञापन और सोशल मीडिया से लेकर तकनीकि प्रचार पर इतने खर्चे कौन और कहां से कर सकता है। अगर राजनेताओं की जीत के आसरे यह अकूत धन लुटाया जा रहा है तो फिर अगला सवाल इस धन को वसूलने का भी होगा। यानी जिस क्रोनी कैपटलिज्म को रोकने की बात मनमोहन सिंह करते रहे और भाजपा ऊंगली उठाती रही और इसी के साए में 2-जी से लेकर कोयला घोटाला तक हो गया, जिसपर तमाम विपक्षी पार्टियों ने संसद ठप किया। सड़क पर मामले को उठाया। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्रोनी कैपटलिज्म यानी कारपोरेट या औद्योगिक घरानों के साथ सरकार या मंत्रियों के व्यापार सहयोग पर रोक लगाएगा कौन। अगर उस पर नकेल कसेगी तो फिर कारपोरेट सत्ता में आने के लिए बेचैन राजनेताओं पर पैसे लुटाएगा क्यों। और अगर देश के विकास का माडल ही कारपोरेट या औद्योगिक घरानों की जेब से होकर गुजरेगा तो फिर राजनेता कितने दिन तक पूंजी के आसरे पर टिकेंगे। एक वक्त अपराधी राजनीति में आए और संसद में सरकार चलाने से लेकर नियम-कायदे बनाने लगे तो फिर अब कारपोरेट या औद्योगिक घराने अपने धंधे के लिए राजनीति में क्यों नहीं आएंगे। और जिस लीक पर देश का लोकतंत्र रुपए की पेटियों के आसरे चल निकला है उसमें राजनेताओं को कमीशन दे कर काम कराने के तौर-तरीके कितने दिन टिकेंगे। राजनीति में सीधे शिरकत करने से कमीशन भी नहीं देना पड़ेगा और धंधे पर टिका विकास का मॉडल भी किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा रफ्तार से चलेगा। सरकार के पास बिना रुपयों के खेल के कौन सा विजन है। यह इस बार चुनाव में न सिर्फ गायब है बल्कि विकास का समूचा विजन ही रुपयों के मुनाफे पर सरपट दौड़ रहा है।


साभार जनसत्ता



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