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और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!

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और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!


पलाश विश्वास

सबसे पहले हमारी अत्यंत आदरणीया लेखिका अनिता भारती जी की अपील,जिसका  हम तहे दिल से समर्थन करते हैं।

सभी साथियों से अपील है कि इस बार 14 अप्रैल को बाबा साहेब के जन्मदिन पर "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को एक बार फिर, दुबारा से खुद पढें, दूसरों को भी पढने के लिए प्रेरित करें. और सबसे अच्छा तो यह रहेगा कि इस बार 14 अप्रैल को हम इस किताब को एक दूसरे को गिफ्ट दें और बाबासाहेब के जन्मदिन को सेलिब्रेट करें।


बाबा साहेब द्वारा लिखी "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" समता प्रकाशन ( नागपुर ) से प्रकाशित है. जिसकी कीमत 20 रुपये है. किताब में कुल पृष्ठ संख्या 96 है. किताब का पहला संस्करण 1936 में इंगलिश में प्रकाशित हुआ. 1944 में यह हिन्दी में छपी. वर्तमान में जो किताब मेरे पास है वह 16 फरवरी 2004 का संस्करण है. यह किताब महात्मा गांधी द्वारा की गई आलोचना तथा प्रतिउत्तर सहित है.


हमारे हिसाब से हर  भारतीय के लिए इस देश के ज्वलंत सामाजिक यथार्थ को जानने समझने महसूस करने और उसका मुकाबला करने के लिए यह अध्ययन अनिवार्य है।जो अंबेडकर के अनुयायी हैं,उनके कहीं ज्यादा उन लोगों के लिए जिन्हंने अभी अंबेडकर को पढ़ा ही नहीं है और जो अंबेडकरी आंदोलन के शायद विरोधी भी हों।


भारतीय लोकगणराज्य की मुख्य समस्या वर्णवर्चस्वी नस्ली जाति व्यवस्था है,जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में होती है।


भारतीय लोकतंत्र,राष्ट्र,राजकाज, शिक्षा, राजनीति, कानून व्यवस्था, अर्थशास्त्र कुछ भी जाति के गणित के बाहर नहीं है।


बाबासाहेब अंबेडकर ने इस महापहेली को सुलझाने की अपनी ओर से भरसक कोशिश की और उसका एजंडा भी दिया।जिसे अंबेडकरी आंदोलन भुला चुका है।लेकिन अतीत और वर्तमान के दायरे से बाहर भारत को भविष्य की ओर ले जाना है तो इस परिकल्पना की समझ विकसित करना हर भारतीय नागरिक के लिए अनिवार्य है।


जातिभेद के उच्छेद बिना हम न भारत के संविधान को समझ सकते हैं और न संसाधनों और अवसरो के न्यायपूर्ण बंटवारे का तर्क, न समता और सामाजिक न्याय का मूल्य और न भारतीयता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति धम्म।


गौरतलब है कि कोई एक प्रकाशक नहीं है इस कालजयी रचना का। हर भाषा में यह रचना उपलब्ध है।


नेट पर अंबेडकर डाट आर्ग खोलकर अंग्रेजी के पाटक तुरंत इसे और अंबेडकर के दूसरे तमाम अति महत्वपूर्ण ग्रंथ बांच सकते हैं।


अंबेडकरी संगठनों ने अपने प्रकाशनों से जाति उच्छेद विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया हुआ है तो नवायना जैसे प्रकाशन ने हाल में मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना के साथ भी "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को नये सिरे से प्रकाशित किया है।


अरुंधति की प्रस्तावना पर जिन्हें आपत्ति है,वे इसके बिना भी जाति उच्छेद का पाठ ले सकते हैं।


यकीन मानिये कि हर भारतीय अगर कम से कम एकबार जाति उच्छेद पढञ लें और गंभीरता के साथ उस पर विवेचन करें तो हमें तमाम समस्याों को नये सिरे से समझने और सुलझाने में मदद मिलेगी।


आखिर हम कितना गहरा खोदेंगे?


कल ही फेसबुक पर भाजपाई केसरिया रामराज उर्फ उदित राज का पोस्टर लगा वोट के लिए। इन रामराज को मैं जानता रहा हूं। दलित मुद्दों पर लंबे अरसे से उनकी सक्रियता और खासकर धर्मांतरण के जरिये बाबासाहेब के बाद देशभर में हिंदुत्व के खिलाफ सबसे ज्यादा हलचल मचाने वाले उदित राज को बिना संवाद पूर नवउदारवादी दो दशकों से देखता रहा हूं।


रामदास अठावले और राम विलास पासवान अपने ही खेल में जहां हैं,वहीं सत्ता से बाहर उनका कोई वजूद है ही नहीं।


उनके उलट,उदित राज कहीं सीमित लक्ष्य के साथ एक निश्चित रणनीति के साथ मोर्चा बांधे हुए थे।इधर उनसे थोड़ी बहुत बात हुई भी।


इस फेसबुकिया पोस्टर पर बेहद शर्मिंदगी इस परिचय के कारण महसूस हुई,जो राम विलास और रामदास के खुल्ले खेल से कभी हुई नहीं।मेरे दिलोदिमाग में वही इलीहाबाद के मेजा के युवा साथी रामराज है,जिनसे ऐसी उम्मीद तो नहीं ही थी।


मैंने शर्म शर्म लिखा तो पोस्टर दागने वाले सज्जन ने सीधे मुझे पंडितजी संबोधित करते हुए पूछ डाला कि शर्मिंदगी क्यों।


मैंने जवाब भी दे दिया कि जिस हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय जाति उच्छेदित  भारत के बाबासाहेब के सपने को पुनर्जीवित करने की आस जगायी उदितराज ने,अब वे उसी फासिस्ट हिंदुत्व के सिपाहसालार बन गये।


हालांकि यह सिरे से बता दूं कि निजी बातचीत में उदित राज मानते रहे हैं कि जाति उन्मूलन असंभव है।धर्मांतरण का उनका तर्क भी बाबासाहब का अनुकरण है।


उदितराज मानते रहे हैं कि अंबेडकरी आंदोलन को हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय होना चाहिए।अब भी अंबेडकर के अनेक अनुयायी हैं जो बुद्धम् शरणम् गच्छामि के प्रस्थानबिंदू से बात शुरु और वह अंत करते हैं।


उदितराज सामाजिक सांस्कृतिक अंबेडकरी आंदोलन मसलन बामसेफ के सख्त खिलाफ रहे हैं तो बहन मायावती के सर्वजनहिताय सोशल इंजीनियरंग का भी वे लगातार विरोद करते रहे हैं।वे अंबेडकरी आंदोलन को सुरु से विशुद्ध राजनीति मानते रहे हैं।


धर्म,राजनीति और पहचान के सवाल पर उनके मतामत सीधे हिंदुत्व के विरुद्ध रहे हैं।


इसे इसतरह समझिये कि अगर बाबासाहेब संघ परिवार में शामिल हो जाते तो अंबेडकरी आंदोलन का क्या होता आखिर।


बाबासाहेब ने संविधान रचना के बाद देश का कानून मंत्री होते हुए वर्णवर्चस्वी  नस्ली वंशवादी कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और अपनी अलग पार्टी बनायी।


तो बाबासाहेब के नाम जापते हुए जो लोग संघ परिवार में शामिल हो रहे हैं और अपने अपने हिसाब से वे हमें अंबेडकरी मिशन में होने का यकीन दिलाते रहे हैं तो उनके एकमुश्त केशरिया होने पर अपनी समझ पर हमें शर्म तो आनी ही चाहिए।


यहीं नहीं,हमने तीन राम संघ के हनुमान वाले आनंद तेलतुंबड़े के आलेख का लिंक देते हुए अपील की दलितों को कम से कम ऐसे लोगों को वोट देना नहीं चाहिए जो अंबेडकरी आंदोलन से विश्वासघात कर चुके हैं।


इस पर प्रतिक्रिया आयी कि आप न पंडित जी हैं और न इमाम।आप फतवा जारी नहीं कर सकते।


फिर पूछा गया कि आप कौन होते हैं,ऐसी अपील जारी करने वाले।


हम भारत के आम नागरिकोंं में से एक हैं,जाहिर हैं।हम उस मूक बहिस्कृत भारत की भी धूल हैं,जिनके लिए बाबासाहेब अंबेडकर मर मिटे।


अब जब जनादेश कुरुक्षेत्रे उनकी जयंती के ढोल ताशे फिर मुखर हैं लेकिन बाबासाहेब का भारत अब भी मूक है।


तीनों अंबेडकरी रामों के अलावा राजनीतिक यथास्थिति बनाने के जिम्मेदार तमाम मौकापरस्त दलबदलुओं. चुनाव मैदान में खड़े विज्ञापनी माडलों,घोटालों के रथी महारथी, मानवाधिकार के युद्धअपराधी,दागी हत्यारों और बलात्कारियों और कारपोरेट तत्वों को बाहुबलियों और धनपशुओं के साथ खारिज करने की भी अपील जरुरी है।


हम चाहे नोटा का इस्तेमाल करें या वोट ही न दें,जनादेश पर फर्क तो पड़ेगा नहीं।


तो सचेत जनता अगर इन तत्वों को पहले ही खारिज कर दें दल मत निरपेक्ष होकर तो चाहे सरकार जिसकी बनें,लोकतंत्र फिरभी बहाल रहेगा और उस लोकतंत्र में हक हकूक की लड़ाई जारी रहेगी।


अन्यथा उपरोक्त श्रेणियों के राजनेता भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जनगण दोनों को बाट लगाकर अपने हिस्से का भारत बनायेंगे और हमारा भारत कौड़ी के मोल बेच देंगे।


इसके अलावा अरुंधति के 2004 में दियेगये पूरे व्याख्यान को कल हमने पैरा पैरा या वाक्यांश में तोड़कर अपने वाल पर चिपका दिया,जिसपर बेशुमार लाइक भी हुआ।


अरुंधति ने 2004 साल में ऱाजग के भारत उदय के नारे पर जो मुद्दे उठाये थे,आज रामावली के नीचे छुपाये खूनी आर्थिक एजंडे के धर्मोन्मादी ब्रांड इंडिया समय के भी संजोगवश मुद्दे वहीं हैं। इस पूरे आलेख पर संवाद की गुंजाइश है।इसीलिए यह आलेख।


इसीलिए यह आलेख क्योंकि चुनाव मैदान में आमने सामने डटे कौरवी वंश के कुरु पांडवों के जनसंहारी एजंडा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।


दोनों पक्ष बाशौक एक दूसरे पर अपना अपना एजंडा चुराने का आरोप लगा सकते हैं,जो इस महासमर का एकमात्र सच है।


वह सच यह है कि जनादेश का अनुमोदन जो हो रहा है,उसका असली मकसद देहाती कृषि भारत का सफाया है।


उत्पादन प्रणाली का ध्वंस है।


जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक और मानवाधिकारों से बेइंतहा  बेदखली है।


प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों की खुली लूट खसोट है।


भारत बेचो अभियान है।


अबाध कालाधन,अबाध भ्रष्टाचार और अबाध विदेशी पूंजी है।


लोक गणराज्य और लोककल्याणकारी राज्य का संविधान समेत विसर्जन है।


आरक्षण समेत सरकारी क्षेत्र और सरकारी नौकरी का पटाक्षेप है।


निरंकुश कुल्ला खुल्ला बाजार है और निरंकुश कैसिनो कार्निवाल छिनाल वित्तीय पूंजी का बार डां. आइटम थीमसांग है।


चुनाव घोषमापत्र तो ट्रेलर है,पिक्चर अभी बाकी है।


दोनों हमशक्ली डुप्लीकेट हैं।चाहे राम चुने श्याम अंजामे गुलिस्तान कब्रिस्तान से बेहतर न होगा।


अरुंधति ने यूपीए के उत्थान के ब्रह्म मुहूर्त पर जो लिखा था,आज उसके अवसान अवसाद समय में भी सच किंतु वही है।

भारत में एक नये तरह का अलगाववादी आन्दोलन चल रहा है। क्या इसे हम 'नव–अलगाववाद' कहें? यह 'पुराने अलगाववाद' का विलोम है। इसमें वे लोग जो वास्तव में एक बिलकुल दूसरी अर्थ–व्यवस्था, बिलकुल दूसरे देश, बिलकुल दूसरे ग्रह के वासी हैं, यह दिखावा करते हैं कि वे इस दुनिया का हिस्सा हैं। यह ऐसा अलगाव है जिसमें लोगों का अपेक्षाकृत छोटा तबका लोगों के एक बड़े समुदाय से सब कुछ– जमीन, नदियाँ, पानी, स्वाधीनता, सुरक्षा, गरिमा, विरोध के अधिकार समेत बुनियादी अधिकार–छीन कर अत्यन्त समृद्ध हो जाता है। यह रेखीय, क्षेत्रीय अलगाव नहीं है, बल्कि ऊपर को उन्मुख अलगाव है। असली ढाँचागत समायोजन जो 'इंडिया शाइनिंग' को, 'भारत उदय' को भारत से अलग कर देता है। यह इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को सार्वजनिक उद्यम वाले भारत से अलग कर देता है।


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 6 अप्रैल 2004 को दिये गये आई.जी. खान स्मृति व्याख्यान का सम्पूर्ण आलेख है।[1] यह पहले हिन्दी में 23–24 अप्रैल 2004 कोहिन्दुस्तानमें प्रकाशित हुआ (अनुवाद: जितेंद्र कुमार), और फिर अंग्रेजी में 25 अप्रैल 2004 को द हिन्दूमें।


एक सिलसिला सा पूरा हुआ. अरुंधति रॉयका यह व्याख्यान पढ़ते हुए आप पाएंगे कि चीजें कैसे खुद को दोहरा रही हैं. यह व्याख्यान एक ऐसे समय में दिया गया था जब भाजपा के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार चुनावों में थी, कहा जा रहा था कि भारत का उदय हो चुका है, लोग अच्छा महसूस कर रहे हैं. लोग सोच रहे थे कि एनडीए के छह सालों के शासन ने तो पीस डाला है, एक बार फिर से कांग्रेस को मौका दिया जाना चाहिए. कांग्रेस जीती भी. लेकिन आज, दस साल के बाद कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने तो पीस कर रख दिया, भाजपा को मौका दिया जाना चाहिए. हवाओं और लहरों की बड़ी चर्चा है. लेकिन इस व्याख्यान को इस नजर से भी पढ़ा जाना चाहिए, कि क्या भारत में होने वाले लगभग हरेक चुनाव इसी तरह की झूठी उम्मीदें बंधाते हुए नहीं लड़े जाते. हर बार एक दल उम्मीदें तोड़ता है और दूसरे से उम्मीदें बांध ली जाती हैं. अगला चुनाव (या बहुत हुआ तो उससे अगला या उससे अगला) चुनाव आते आते ये दल आपस में भूमिकाएं बदल लेते हैं- और जनता ठगी जाती रहती है. क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!

http://basantipurtimes.blogspot.in/2014/04/blog-post_7167.html

http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_8.html


इसी प्रसंग में मशहूर कलमकार लाल्टू का लिखा भी पढ़ लेंः

कट्टरपंथ की जमीन कैसे बनती है? आगामी चुनावों में नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सुविधापरस्ती के गठजोड़ से निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और संघ परिवार की जड़ें और मजबूत होने की संभावनाएं लोकतांत्रिक सोच रखने वाले सभी लोगों के लिए चिंता का विषय हैं। औसत भारतीय नागरिक घोर सांप्रदायिक न भी हो, पर बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के प्रति उदासीनता से लेकर सांप्रदायिक आधार पर गढ़े गए राष्ट्रवाद में व्यापक आस्था हर ओर दिखती है। आखिर तमाम तरह की मानवतावादी कोशिशों और धरती पर हर इंसान की एक जैसी संघर्ष की स्थिति की असीमित जानकारी होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि दुनिया के तमाम मुल्कों में लोग संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच के बंधन से छूट नहीं पाते! इस जटिलता के कई कारणों में एक, शासकों द्वारा जनता से सच को छिपाए रख उसे राष्ट्रवाद के गोरखधंधे में फंसाए रखना है। इतिहास का ऐसा नियंत्रण महंगा पड़ता है।


पिछले पचास सालों से गोपनीय रखी गर्इं दो सरकारी रिपोर्टों पर डेढ़ साल पहले चर्चाएं शुरू हुई थीं। इनमें से एक, 1962 के भारत और चीन के बीच जंग पर है। दूसरी, आजादी के थोड़े समय बाद हैदराबाद राज्य को भारतीय गणराज्य में शामिल करने के सिलसिले में हुए ऑपरेशन पोलो नामक पुलिस कार्रवाई पर है। पहली रिपोर्ट को लिखने वाले भारतीय सेना के दो उच्च-अधिकारी ब्रूक्स और भगत थे। दूसरी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के करीब माने जाने वाले पंडित सुंदरलाल की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने तैयार की थी। पहली रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा अब सार्वजनिक हो चुका है। दूसरी रिपोर्ट आज भी गोपनीय है, हालांकि अलग-अलग सूत्रों से उसके कई हिस्से सार्वजनिक हो गए हैं।


हमारे अपने अतीत के बारे में बहुत सारी जानकारी हमें चीनी स्रोतों से मिलती है। प्राचीन काल से दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंध रहे हैं। इन सब बातों के बावजूद भारत में चीन के बारे में सोच शक-शुबहा पर आधारित है। भारत-चीन संबंधों पर हम सबने इकतरफा इतिहास पढ़ा है। हम यही मानते रहे हैं कि चीन एक हमलावर मुल्क है। हम शांतिप्रिय हैं और चीन ने हमला कर हमारी जमीन हड़प ली। ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल इस विषय पर लंबे अरसे से शोध करते रहे और उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में इस पर आलेख छापे। सीमा विवाद पर भारत के दावे से वे कभी पूरी तरह सहमत नहीं थे। चूंकि हम लोग चीन को हमलावर के अलावा और किसी नजरिए से देख ही नहीं सकते, उनके आलेखों पर कम ही लोगों ने गौर किया। अब रिपोर्ट उजागर होने पर यह साबित हो गया है कि मैक्सवेल ने हमेशा सही बात की थी।


जर्मन लोग आज तक यह सोच कर अचंभित होते हैं कि एक पूरा राष्ट्र यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी सोच का शिकार कैसे हो गया? विनाश के जो पैमाने तब तैयार हुए और दूसरी आलमी जंग में इनके मित्र देश जापान पर एटमी बमों की जो मार पड़ी, उससे उबरने में कई सदियां लगेंगी। वैसी ही ताकतें भारत में भी अपनी जड़ें जमाने में सफल हो रही हैं और अगर वे सफल होती गर्इं तो अगले दशकों में दक्षिण एशिया का हश्र क्या होगा, यह सोच कर भी भय होता है।


फासीवादी, नाजी, हिंदुत्ववादी, तालिबानी और ऐसी दीगर ताकतें झूठ और हिंसा के जरिए अमानवीयकरण की स्थिति में जी रहे लोगों को बरगलाने में सफल होती हैं। कैसी भी राजनीतिक प्रवृत्ति वाले दलों की हों, सरकारें सच को छिपा कर ऐसी स्थितियां पैदा करने में मदद करती हैं कि भुखमरी और सामाजिक अन्यायों के शिकार लोग झूठे राष्ट्रवादी गौरव में फंसे मानसिक रूप से गुलाम बन जाएं। लोग यह देखने के काबिल नहीं रह जाते कि सत्ता में आते ही कट्टरपंथी ताकतें आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला करेंगी। शिक्षा में खासतौर पर इतिहास, राजनीति विज्ञान और साहित्य जैसे विषयों में आमूलचूल बदलाव कर संकीर्ण सांप्रदायिक और मानव-विरोधी सोच को डालने की कोशिश करेंगी।


फिर आनंद तेलतुंबड़े को पढ़ लें।


आंबेडकर की विरासत

हालांकि आंबेडकर ने हिंदू धर्म में सुधारों के विचार के साथ शुरुआत की थी जिसका आधार उनका यह खयाल था कि जातियां, बंद वर्गों की व्यवस्था हैं [कास्ट्स इन इंडिया]. यह घेरेबंदी बहिर्विवाह और अंतर्विवाह के व्यवस्था के जरिए कायम रखी जाती है। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि अगर अंतर्विवाहों के जरिए इस व्यवस्था से मुक्ति पा ली गई तो इस घेरेबंदी में दरार पड़ जाएगी और जातियां वर्ग बन जाएंगी। इसलिए उनकी शुरुआती रणनीति यह बनी थी कि दलितों के संदर्भ में हिंदू समाज की बुराइयों को इस तरह उजागर किया जाए कि हिंदुओं के भीतर के प्रगतिशील तत्व सुधारों के लिए आगे आएं। महाड में उन्होंने ठीक यही कोशिश की है। हालांकि महाड में हुए कड़वे अनुभव से उन्होंने नतीजा निकाला कि हिंदू समाज में सुधार मुमकिन नहीं, क्योंकि इनकी जड़ें हिंदू धर्मशास्त्रों में गड़ी हुई थीं। तब उन्होंने सोचा कि इन धर्मशास्त्रों के पुर्जे उड़ाए बगैर जातियों का खात्मा नहीं होगा [एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट]। आखिर में, अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने वह तरीका अपनाया जो उनके विचारों के मुताबिक जातियों के खात्मे का तरीका था: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना वक्त बीत जाने के बाद, आज इस बात में कोई भी उनके विश्लेषण के तरीके की कमियों को आसानी से निकाल सकता है। लेकिन जातियों का खात्मा आंबेडकर की विरासत के केंद्र में बना रहा। इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया वह दलितों को सशक्त करने के लिए किया ताकि वे उस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष कर सकें, जो उनकी निगाह में 'स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे' को साकार करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट थी। चूंकि मार्क्सवादियों के उलट वे यह नहीं मानते थे कि इतिहास किसी तर्क के आधार पर विकसित होता है, कि इसकी गति को कोई नियम नियंत्रित करता है, इसलिए उन्होंने वह पद्धति अपनाई जिसे व्यवहारवाद कहा जाता है। इसमें उनपर कोलंबिया में उनके अध्यापक जॉन डिवी का असर था।


व्यवहारवाद एक ऐसा नजरिया है जो सिद्धांतों या विश्वासों का मूल्यांकन, व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करने में मिली कामयाबी के आधार पर करता है। यह किसी विचारधारात्मक नजरिए को नकारता है और सार्थकता, सच्चाई या मूल्य के निर्धारण में बुनियादी कसौटी के रूप में व्यावहारिक नतीजों पर जोर देता है. इसलिए यह मकसद की ईमानदारी और उसको अमल में लाने वाले के नैतिक आधार पर टिका होता है। आंबेडकर का संघर्ष इसकी मिसाल है। अगर इस आधार से समझौता कर लिया गया तो व्यवहारवाद का इस्तेमाल दुनिया में किसी भी चीज़ को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है। और आंबेडकर के बाद के आंदोलन में ठीक यही हुआ। दलित नेता'आंबेडकरवाद' या दलित हितों को आगे ले जाने के नाम पर अपना मतलब साधने में लगे रहे। भारत की राजनीति का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि एक बार अगर आप पैसा पा जाएं तो आप अपने साथ जनता का समर्थन होने का तमाशा खड़ा कर सकते हैं। एक बार यह घटिया सिलसिला शुरू हो जाए तो फिर इसमें से बाहर आना मुमकिन नहीं। इसी प्रक्रिया की बदौलत एक बारहवीं पास आठवले करोड़ों रुपए की संपत्ति जुटा सकता है, और उस आंबेडकर की विरासत का दावा कर सकता है जो बेमिसाल विद्वत्ता और दलितों-वंचितों के हितों के प्रति सर्वोच्च प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। करीब करीब यही बात दूसरे रामों और उनके जैसे राजनीतिक धंधेबाजों के बारे में भी कही जा सकती है। उनका सारा धंधा आंबेडकर और दलित हितों की तरक्की के नाम पर चलता है।

दलित हित क्या हैं?

अपने निजी मतलब को पूरा के लिए बेकरार ये सभी दलित हितों की पुकार मचाते हैं. दलित नेताओं में यह प्रवृत्ति तब भी थी जब आंबेडकर अभी मौजूद ही थे. तभी उन्होंने कांग्रेस को जलता हुआ घर बताते हुए उसमें शामिल होने के खिलाफ चेताया था. जब कांग्रेस ने महाराष्ट्र में यशवंत राव चह्वाण के जरिए दलित नेतृत्व को हथियाने का जाल फैलाया तो आंबेडकरी नेता उसमें जान-बूझ कर फंसते चले गए. बहाना यह था कि इससे वे दलित हितों की बेहतर सेवा कर पाएंगे. उन्होंने जनता को यह कहते हुए भी भरमाया कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ सहयोग किया था. भाजपा उस हजार चेहरों वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक धड़ा है, जो हिंदुत्व पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. उसने संस्कृति और धर्म का यह अजीब घालमेल जनता को भरमाने के लिए किया है. यह भाजपा अंबडकरियों के लिए सिर्फ एक अभिशाप ही हो सकती है. असल में अनेक वर्षों तक यह रही भी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आरएसएस ने समरसता (समानता नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य) का जाल दलित मछलियों को फंसाने के लिए फेंका और इसके बाद अपनी सख्त विचारधारा में थोड़ी ढील दी. दिलचस्प है कि दलित हितों के पैरोकार नेता, शासक वर्ग (और ऊंची जातियों) की इन पार्टियों को तो अपने ठिकाने के रूप में पाते हैं लेकिन वे कभी वामपंथी दलों पर विचार नहीं करते हैं, जो अपनी अनगिनत गलतियों के बावजूद उनके स्वाभाविक सहयोगी थे. इसकी वजह सिर्फ यह है कि वामपंथी दल उन्हें वह सब नहीं दे सके, जो भाजपा ने उन्हें दिया है.


तो फिर दलित हितों का वह कौन सा हौवा है, जिसके नाम पर ये लोग यह सारी करतब करते हैं? क्या वे यह जानते हैं कि 90 फीसदी दलितों की जिंदगी कैसी है? कि भूमिहीन मजदूरों, छोटे-हाशिए के किसानों, गांवों में कारीगरों और शहरों में झुग्गियों में रहने वाले ठेका मजदूरों और शहरी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टर में छोटे मोटे फेरीवाले की जिंदगी जीने वाले दलित किन संकटों का सामना करते हैं? यहां तक कि आंबेडकर ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में यह महसूस किया था और इस पर अफसोस जताया था कि वे उनके लिए कुछ नहीं कर सके. आंशिक भूमि सुधारों के पीछे की पूंजीवादी साजिशों और हरित क्रांति ने गांवों में पूंजीवादी संबंधों की पैठ बना दी, जिसमें दलितों के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं थे. इन कदमों का दलित जनता पर विनाशकारी असर पड़ा, जिनके तहत अंतर्निर्भरता की जजमानी परंपरा को नष्ट कर दिया गया. देहातों में पहले से कायम ऊंची जातियों के जमींदारों को बेदखल करके उनकी जगह लेने वाले, सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी शूद्र जातियों के धनी किसानों द्वारा क्रूर उत्पीड़न के लिए दलितों को बेसहारा छोड़ दिया. ब्राह्मणवाद का परचम अब उन्होंने अपने हाथों में ले लिया था. बीच के दशकों में आरक्षण ने उम्मीदें पैदा कीं, लेकिन वे जल्दी ही मुरझा गईं. जब तक दलितों को इसका अहसास होता कि उनके शहरी लाभान्वितों ने आरक्षणों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है, कि नवउदारवाद का हमला हुआ जिसने आरक्षणों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. हमारे राम इन सब कड़वी सच्चाइयों से बेपरवाह बने रहे और बल्कि उनमें से एक, उदित राज, ने तो आरक्षण के एक सूत्री एजेंडे के साथ एक अखिल भारतीय संगठन तब शुरू किया, जब वे वास्तव में खत्म हो चुके थे. जनता को आरक्षण के पीछे छिपी शासक वर्ग की साजिश को दिखाने के बजाए, वे शासक वर्ग की सेवा में इस झूठे आसरे को पालते-पोसते रहने को तरजीह देते हैं. क्या उन्हें यह नहीं पता कि 90 फीसदी दलितों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें जमीन चाहिए, सार्थक काम चाहिए, मुफ्त और उचित और बेहतर शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य की देखरेख चाहिए, उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जरूरी ढांचे चाहिए और जाति विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्था चाहिए. ये हैं दलितों के हित, और अफसोस इस बात है कि किसी दलित राम द्वारा उनकी दिशा में बढ़ना तक तो दूर, उनको जुबान तक पर नहीं लाया गया है.

भाजपाई राम के हनुमान

यह बात एक सच्चाई बनी हुई है कि ये राम दलित हितों के नाम पर सिर्फ अपना फायदा ही देखते हैं. उदित राज इनमें से सबसे ज्यादा जानकार हैं, अभी कल तक संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ हर तरह की आलोचनाएं करते आए हैं जो अगर कोई देखना चाहे तो उनकी किताब 'दलित्स एंड रिलिजियस फ्रीडम' में यह आलोचना भरी पड़ी है. उन्होंने मायावती को बेदखल करने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं और नाकाम रहने के बाद अब वे उस भाजपा की छांव में चले गए हैं, जो खुद उनके ही शब्दों में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है. दलितों के बीच उनकी जो कुछ भी थोड़ी बहुत साख थी, उसका फायदा भाजपा को दिलाने के लिए वे हनुमान की भूमिका अदा कर रहे हैं. दूसरे दोनों राम, पासवान और आठवले ने उदित राज के उलट भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने का फैसला किया है. वे दलितों में अपने छोटे-मोटे आधारों के बूते बेहतर सौदे पाने की कोशिश कर रहे हैं: पासवान को सात सीटें मिली हैं, जिनमें से तीन उनके अपने ही परिवार वालों को दी गई हैं, और आठवले को उनकी राज्य सभा सीट के अलावा एक सीट दी गई है. बीते हुए कल के कागजी बाघ आठवले नामदेव ढसाल के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जो बाल ठाकरे की गोद में जा गिरे थे. उस बाल ठाकरे की गोद में, जो आंबेडकर और आंबडेकरी दलितों से बेहद नफरत करता था. ये काबिल लोग अपने पुराने सहयोगियों द्वारा 'दलितों के अपमान' (अपने नहीं) को भाजपा के साथ हाथ मिलाने की वजह बताते हैं. आठवले का अपमान तब शुरू हुआ जब उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. उन्हें तब शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई जब उन्होंने दलितों द्वारा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के लिए दी गई भारी aकुर्बानी को नजरअंदाज कर दिया और विश्वविद्यालय के नाम को विस्तार दिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था. और न ही उन्हें तब शर्मिंदगी महसूस हुई जब उन्होंने दलित उत्पीड़न के अपराधियों के खिलाफ दायर मुकदमों को आनन-फानन में वापस ले लिया. ये तो महज कुछ उदारण हैं, पासवान और आठवले का पूरा कैरियर दलित हितों के साथ ऐसी ही गद्दारी से भरा हुआ है.


अब वे भाजपा के राम की सेवा करने वाले हनुमान की भूमिका निभाएंगे. लेकिन यह मौका है कि दलित उनके मुखौटों को नोच डालें और देख लें कि उनकी असली सूरत क्या है: एक घटिया बंदर!


अब कुछ फेसबुकीय प्रतिक्रियाएं।

अब जब दलित समाज अम्बेडकर को पढने, सराहने, मानने और अपने जीवन में उतारने लगा है तो आपको क्यों लगता है कि वह अम्बेडकर को भक्तिभाव से देखता है । और अगर वह देखता भी है तो इसमें क्या बुरा है? अम्बेडकर के प्रति भकितभाव तथाकथित धार्मिक भक्तिभाव जैसा नही है जी. इस भकितभाव में चेतना, संधर्षशीलता, ब्राह्मणवाद का विरोध, सामाजिक न्याय और समानता जैसे मू्ल्यवान मूल्य है.

हमारे दौर के लिए एक आंबेडकर | पत्रकार Praxis

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Faqir Jayबहेलिये चिड़िया को सिखाने चले है कि उसे अपने घोसले को कैसे बरतना चाहिए .एक फिल्म है सलमान खान की-- बॉडीगार्ड .(बुद्धिजीवी न होने के कारण मै सस्ती हिंदी फिल्मे देखता हूँ ).उसका एक डायलाग याद आता है --बस एक अहसान करना ,मुझपर न अहसान करना .एक उर्दू शेर भी है --अहसान न करते तो बड़ा अहसान होता


Farook ShahAnita ji, अरुंधती जी का काम अभी तक प्रोपर देखा नहीं है इसलिए उसके बारे में टिप्पणी नहीं. पर अम्बेडकर को बचाये रखने की जरूरत है. और साझा तरीकों से प्रयास हो ये भी मूवमेंट के व्याप और परिणामों के लिए जरूरी है. हम देख रहे हैं कि बाबा साहब को हमारे अन्दर से भी नकारने के सूर सुनाई दे रहे हैं और उनके सिद्धांतों की विरुद्ध सिद्धांत भी गड़े जा रहे हैं. ऐसे में बहुत सारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है.


आनंद तेलतुम्बडे शायद भूल रहे है कि गैर-दलितों/सवर्णों को दलित मुद्दों पर लिखने से रोका नहीं गया है. वे पहले भी लिखते रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे. लेकिन अंबेडकर की एक महत्वपूर्ण किताब की भूमिका लिखना और उसके साथ इन्साफ ना करना एक बिलकुल ही अलग चीज है!

विवाद के पीछे अरुंधती का माओवादी समर्थक होना उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि उनका सवर्ण पृष्ठभूमि से होना और उसे स्वीकार ना करना. उनका दावा है कि वह जाति-विहीन है! सवाल यह भी है कि अरुंधती का जाति के मुद्दे से जुड़ने का अनुभव रहा है या नहीं? सवाल यह भी है कि अरुंधती ने जो लिखा है उसमें जाति की वजह से सवर्णों को मिलने वाले फायदे पर चुप्पी क्यों है? दलित कैमरा को लिखे अपने जवाबी पत्र में भी अरुंधती अपनी पोजीशन को स्वीकार नहीं करना चाहती. वह स्वीकार नहीं करना चाहती कि उन्हें एक दलित से अधिक अवसर क्यूँ दिये जा रहे हैं? किताब पर आउटलुक और दूसरी जगह आये लेखों में 'अनाईलेशन ऑफ़ कास्ट' की बात नहीं हो रही, बल्कि 'द डॉक्टर एंड द सेंट' कि बात हो रही है! अंबेडकर को इस्तेमाल किया गया है और इसके खिलाफ विरोध के स्वर तो उठेंगे ही...


अनुवादक का यह कहना कि आनंद का लेख "सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है" यह दर्शाता है कि अनुवादक या तो राउंडटेबल इंडिया के लेखों और दलित कैमरा का अरुंधती को लिखा पत्र नहीं पढ़ा है या फिर वह जानबूझकर एक ख़ास विचारधारा को हम पर थोप रहे हैं!



http://www.patrakarpraxis.com/2014/04/blog-post_8.html

— with Anita Bharti and 6 others.


Himanshu Kumar

17 hrs·

यहाँ दो बच्चों के चित्र हैं .पहला नौ महीने का पाकिस्तानी बच्चा है जिस पर हत्या का आरोप लगाया गया है .

जज साहब उसे ज़मानत पर रिहा करते समय कागज़ात पर नौ महीने के बच्चे का अंगूठा लगवा रहे हैं .

दूसरा चित्र भारत के दंतेवाड़ा के गोम्पाड गाँव के डेढ़ साल के बच्चे सुरेश का है . इस बच्चे का हाथ सीआरपीएफ ने काट दिया .

आज तक किसी को सज़ा नहीं हुई . मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में है . मेरे अलावा बाकी के सभी आवेदकों का सरकार अपहरण कर चुकी है .

भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को सोचना चाहिए कि किस तरह का लोकतंत्र चाहिए दोनों देशों में .

अपनी हालत पर ध्यान दो .

अल्लाह और राम के नाम पर हुकूमतें चुनना बंद करो .

अपने हालात बदलने की कोशिश करो .




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