भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक कहे जाने वाले, राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले को सत्-सत् नमन्..........!
जोतिबाराव गोविंदराव फूले (जन्म– 11 अप्रैल 1827, परिनिर्वाण– 28 नवम्बर 1890), ज्योफतिबा फूले के नाम से प्रचलित 19वीं सदी के एक महान भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। सितम्बर 1873 में इन्होंने महाराष्ट्र में 'सत्य शोधक समाज'नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं व दलितों के उत्थान के लिए इन्होंने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे।
महात्मा ज्योतिबा फूले का जन्म 1827 ई. में पुणे में हुआ था। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे में फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग 'फूले'के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा ने कुछ समय पहले तक मराठी में अध्ययन किया, बीच में पढ़ाई छूट गई और बाद में 21 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। इनका विवाह 1840 में सावित्रीबाई से हुआ, जो बाद में स्वायं एक मशहूर समाजसेवी बनीं। दलित व स्त्री -शिक्षा के क्षेत्र में दोनों पति-पत्नीउ ने मिलकर काम किया।
11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र में सतारा जिले के खानबड़ी गांव में गोविन्द राव माली के घर ज्योतिबा फूले का जन्म हुआ। ज्योतिबा ने बड़ी लगन और मनोयोग से एक मराठी पाठशाला में अपनी पढ़ाई शुरू की। लेकिन उन दिनों जातिवाद, रूढ़िवादिता आदि संकुचित विचारधाराओं के चलते कट्टरपंथी हिन्दुओं के कारण ज्योतिबा को पाठशाला छोड़नी पड़ी। ज्योतिबा अपने परिवार के कार्य में पिता का हाथ बटाने लगे। इसी बीच सन् 1840 में ज्योतिबा का विवाह सतारा जिले के नाय नामक गांव की सावित्री बाई से कर दिया गया। लम्बे प्रयासों के बाद लोगों ने गोविन्द राव को अपने कुषाग्र और प्रतिभाशाली बेटे को आगे पढ़ाने के लिए राजी कर लिया। तीन वर्ष के बाद ज्योतिबा एक बार फिर स्कूल जाने लगे। लेकिन इस बार उन्होंने मराठी के बजाए मिशनरी स्कूल में प्रवेश लिया।
पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासन काल में उन दिनों किसानों-मजदूरों पर क्रूर अत्याचार किये जाते थे। उनके बच्चों के शरीर पर उबलता तेल डाला जाता था। किसानों-जदूरों की पीठ पर शिलाखण्ड रखे जाते थे। किसानों-मजदूरों को जलते तवों पर खड़ा किया जाता था। महिलाओं की स्थिति दयनीय थी। बचपन में शादी हो जाती थी।
पढ़ाई – लिखाई से दूर रखा जाता था। विधवाओं का मुंडन करा दिया जाता था। दलितों – अछूतों की स्थिति पशुओं से भी बदतर थी। पढ़ने – लिखने और पूजा-पाठ करने तथा ईश्वर के दर्शन करने की सख्त मनाही थी। उनको अपनी पीठ के पीछे झाडू बांधकर चलना पड़ता था, ताकि उनके पद चिन्ह मिट जाए। उन्हें जमीन पर थूकने आदि की मनाही थी, इसके लिए वे अपने गले में थूकदान लटका कर चलते थे।
हिन्दू धर्म की ऊंच-नीच और जांत-पांत की इन अमानवीय स्थितियों ने ज्योतिबा के मन को विचलित कर दिया। उन्होंने संकल्प लिया कि वे महिलाओं, पिछड़ों, दलितों और अछूतों को समाज की मुख्य धारा में लाकर राजनैतिक, शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक समानता पर आधारित एक शोषण रहित समाज बनायेंगे। अपने संकल्प को मूर्त्तरूप देने के लिए 1848 में ज्योतिबा ने महिलाओं और अछूतों के लिए पूना में एक विद्यालय खोला। देश में इस प्रकार का यह पहला विद्यालय था।
महिला शिक्षक की कमी को पूरा करने के लिए ज्योतिबा ने पहले स्वयं अपनी पत्नी सावित्री बाई को पढ़ाया। सावित्री बाई ने शिक्षित होने पर विद्यालय में पढ़ाना शुरू कर दिया। सावित्री बाई को देश की 'पहली महिला शिक्षिका'बनने का गौरव प्राप्त है। महिला और अछूतों की पढ़ाई को पाप समझने वाले सनातनी लोगों ने फूले दम्पत्ति को महिला और अछूतों को शिक्षा देने के काम से रोकने के अनेकों प्रयास किये। उन पर पत्थर, गोबर आदि फेंके और गाली दी। पर ज्योतिबा के संकल्प के आगे यह सब बेकार गया। सनातनी लोगों ने अपने अंतिम प्रयास के रूप में ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव को डरा-धमका और समझा-बुझाकर उनके द्वारा ज्योतिबा और सावित्रीबाई को घर से निकलवा दिया। अनेकों कठिनाइयों के कारण फूले दम्पत्ति को अपना विद्यालय बन्द करना पड़ा। लेकिन अपने सुधारवादी ब्राह्मण मित्र सदाशिव बल्लाल गोविन्दे और मुंशी गफ्फार बेग की मदद से ज्योतिबा ने अपना विद्यालय फिर से शुरू कर दिया।एक और ज्योतिबा विद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहे, दूसरी ओर उन्होंने मजदूरों और किसानों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाते हुए, उन्हें वे संगठित करने लगे। ज्योतिबा ने उनको सहकारिता और ट्रस्टीशिप अपनाने के लिए प्रेरित किया।
ज्योतिबा के अनुसार ईश्वर की पूजा के लिए किसी विशेष व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है और नहीं किसी विशेष स्थान मन्दिर आदि की। धर्म-ग्रन्थ ईश्वर द्वारा बनाए नहीं हो सकते। शिक्षा– पुरूष एवं नारी दोनों के लिए जरूरी हैं धर्म का उद्देश्य मात्र आत्मिक विकास करना ही नहीं मानवता की सेवा करना भी है। इन्हीं विचारों को आधार बनाकर ज्योतिबा ने 1873 में 'सत्य शोधक समाज'की स्थापना की। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य-न्याय और मानव अधिकारों के लिए संघर्ष बन गया था।
मजदूरों और किसानों की आवाज को मजबूत और 'सत्य शोधक समाज'के प्रचार करने के लिए जनवरी, 1877 से उन्होंने 'दीनबन्धु'नाम से एक अखबार निकालना शुरू कर दिया। 1882 में बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेश आगरकर ने अपने अखबारों– 'मराठा'और 'केसरी'में कोल्हापुर रियासत और अंग्रेज एजेन्ट के कारनामों का खुलासा किया, इसके दण्ड स्वरूप दोनों को 4 मास की सजा हुई। ज्योतिबा ने दोनों की आर्थिक मदद करवाई तथा रिहाई के बाद जगह-जगह पर तिलक और आगरकर के स्वागत में अनेकों सभाएं आयोजित करवाईं।
1885 में कांग्रेस की स्थापना के समय ज्योतिबा ने अनेक सभाओं में लोगों को, कांग्रेस का प्रचार करते हुए उसके कार्य को समझाया। मार्च, 1888 में महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक ऑफ कनॉट की भारत यात्रा पर पूना में एक भोज का आयोजन किया गया। वहां ज्योतिबा एक गरीब किसान के वेश में पहुँचे और ड्यूक ऑफ कनॉट के सामने साहसपूर्वक भारत की सही तस्वीर रखते हुए कहा कि वे अपनी माँ (महारानी विक्टोरिया) से जाकर कहें कि असली भारत देहात और गांवों में बसता है, यहां के निवासी गरीब ही नहीं, अशिक्षित और अनपढ़ भी है, पहले इन्हें शिक्षित बनाने की आवश्कता है। ज्योतिबा द्वारा समाज के तमाम पिछड़े वर्ग को शिक्षित और जागरूक बनाने के उनके आंदोलन के 40 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में मई, 1888 में बम्बई में एक विशाल जन समुदाय के बीच ज्योतिबा को 'महात्मा'की उपाधि से विभूषित किया गया। ज्योतिबा तब 61 वर्ष के हो चुके थे। जुलाई, 1888 में ज्योतिबा का लकवे के कारण शरीर का दाहिना हिस्सा बेकार हो गया। अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित ज्योतिबा ने बायें हाथ से काम करना शुरू कर दिया। इस दौरान ज्योतिबा ने अपना ग्रन्थ 'सार्वजनिक सत्य धर्म'बायें हाथ से लिखकर पूरा किया।
महात्मा फूले ने लोगों को शिक्षित और जागरूक बनाने के उद्देश्य से अनेकों ग्रन्थ लिखें-
तृतीय रत्न (नाटक) – 1855
ब्राहमणों का चातुर्य – 1869
छत्रपति शिवाजी जीवन वृत्तांत – 1869
गुलामगिरी – 1873
किसान का कोड़ा – 1883
सत्यसार – 1885
ईशारा (चेतावनी) – 1885
अछूतों की कैफियत – 1885
सार्वजनिक सत्य धर्म – 1889
जुलाई, 1888 को लकवे से ज्योतिबा ठीक नहीं हो सके। दिसम्बर, 1888 में उन पर लकवे का दूसरी बार हमला हुआ। इससे ज्योतिबा निढाल हो गए और अन्ततः 28 नवम्बर, 1890 को वे चिर निद्रा में लीन हो गये। एक दिव्य ज्योति परमात्मा में विलीन हो गई। महात्मा फूले के सम्मान में किए गए प्रमुख कार्य-
भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी
महाराष्ट्र विधानसभा के प्रमुख द्वार पर प्रतिमा की स्थापना
महात्मा फूले कृषि विश्वविद्यालय की अहमदाबाद में स्थापना
महात्मा फूले के आंदोलन में सावित्री बाई का सबसे महत्वपूर्ण योगदान तब हुआ, जब उन्होंने अपने पति के निधन के बाद ''सत्य शोधक समाज''का 1891 से लेकर 1897 तक सफल नेतृत्व किया। सावित्री बाई प्रतिभा सम्पन्न लेखिका एवं कवियित्री थीं। उनका पहला कविता संग्रह''काव्य फूले''नाम से 1854 में प्रकाशित हुआ।