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लेकिन पता नहीं बिरसा के आदिवासी दर्शन से लोगों को इतनी चिढ़ क्यों है? भारतीय संसद में अंबेडकर के समर्थन में आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के मूलनिवासी होने का दावा हम न जाति विमर्श में न वर्ग संवाद में समझ सकते हैं।

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लेकिन पता नहीं बिरसा के आदिवासी दर्शन से लोगों को इतनी चिढ़ क्यों है?

भारतीय संसद में अंबेडकर के समर्थन में आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के मूलनिवासी होने का दावा हम न जाति विमर्श में न वर्ग संवाद में समझ सकते हैं।


पलाश विश्वास

आदिवासियों का साम्राज्यवाद के विरुद्ध,सामंतवाद के विरुद्ध महासंग्राम हमारे इतिहास के सबसे उज्ज्वल अध्याय हैं,जिनसे न जुड़ पाने की वजह से मुक्त बाजार में हम आज इतने असहाय हैं।


भारतीय संसद में अंबेडकर के समर्थन में आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के मूलनिवासी होने का दावा हम न जाति विमर्श में न वर्ग संवाद में समझ सकते हैं।


मुक्त बाजार के परिदृश्य में पूंजी समर्थक विचारधारा,संगठन,समाज और संसकृति का ही विकास संभव है।अबाध आवारा पूंजी के हितों के माफिक है हिंदुत्व का यह पुनरुत्थान।


जबकि इसके मुकाबले सिरे से विचारधाराएं और आंदोलन अदृश्य है।


बंगाल में वाम अवसान के बाद ही केसरिया ताज महल की नींव बनने लगी है।जबकि हिंदू महासभा की राजनीति का गढ़ अखंड बंगाल था।भारतीय जनसंघ की स्थापना भी बंगाल के श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही की थी।


लेकिन वाम विचारधारा और आंदोलन की वजह से बंगाल की जमीन पर 1977 से लेकर ममता बनर्जी के उत्थान के दरम्यान हिंदुत्व की खेती नहीं हो सकी।


विचारधारा का मुकाबला विचारधारा से ही संभव है।


संगठन का मुकाबला संगठन से ही संभव है।


राज्यतंत्र की समझ के बिना सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से रचनाकर्म करना असंभव है तो इतिहासबोध से लैस वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सौंदर्यबोध के बिना किसी भी तरह का मूल्यांकन नाजायज है।




राज्यतंत्र की समझ के बिना सामाजिक यथार्थ की दृष्टि के बिना व्यवस्था के खिलाफ हर लड़ाई विचलन के लिए अभिशप्त है।


व्यक्ति को न विचारधारा के खिलाफ और न संगठन के खिलाफ कोई हथियार बनाया जा सकता है। आदिक्रांति के जनक स्पार्टकस और गौतम बुद्ध भी संस्थागत संगठन और आंदोलन के जरिये गुलामी के तंत्र को तोड़ने में कामयाब हुए,व्यक्तिगत करिश्मे की वजह से नहीं।


तंत्र के खिलाफ सुनियोजित संगठनात्मक संस्थागत जनांदोलन की जमीन तैयार किये बिना किसी मसीहा की जादू की छड़ी या करिश्माई मंत्र से व्यवस्था परिवर्तन की दिशा का निर्माण नहीं कर सकते।


तिलिस्म जो बन गया है,उसे तोड़े बिना दिशाएं गायब ही रहेंगी और इस रात की सुबह असंभव है।


जिस मंडल क्रांति के गर्भ से कमंडल का जन्म हुआ, उसमें पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था ही नहीं थी।मंडल के तहत आरक्षण पिछड़े वर्गों के लिए है। पिछड़े वर्गं में अल्पसंख्यक और सवर्ण दोनों शामिल हैं।


लेकिन राजनीति ने अदर बैकवर्ड कम्युनिटीज को अदर बैकवर्ड कास्च बनाकर देश में हिंदुत्व का पुनरूत्थान रच दिया।


इसी तरह अंबेडकर की लड़ाई अस्पृश्यता के विरुद्ध थी। सामाजिक न्याय और समता के लिए उनकी लड़ाई थी।लेकिन वे अपने को वर्किंग क्लास का नेता कहते थे।


अपने समूचे लेखन में उन्होंने सिर्फ जाति उन्मूलन की बात की है,जाति पहचान की बात कभी नहीं की।


उन्होंने शिड्युल्ड कास्ट एसोसिएशन के जरिये कांग्रेस और मुस्लिम लीग की राजनीति से इतर मूक बहुसंख्यजनता को अलग पहचान दी लेकिन वे तब भी डिप्रेस्ड क्लास की ही बात कर रहे थे।


अंबेडकर का सारा जीवन जाति के अंत के लक्ष्य को समर्पित था।जब उन्हें हिंदू धर्म में ऐसा असंभव लगा तो उन्होंने धर्मान्तरण के लिए जाति व्यवस्था के हिंदुत्व को तिलांजलि दे दी।


But the world owes much to rebels who would dare to argue in the face of the pontiff and insist that he is not infallible.


-Babasaheb Ambedkar


In the fight for Swaraj you fight with the whole nation on your side...[but to annihilate the caste], you have to fight against the whole nation—and that too, your own. But it is more important than Swaraj. There is no use having Swaraj, if you cannot defend it. More important than the question of defending Swaraj is the question of defending the Hindus under the Swaraj. In my opinion, it is only when Hindu Society becomes a casteless society that it can hope to have strength enough to defend itself. Without such internal strength, Swaraj for Hindus may turn out to be only a step towards slavery. Good-bye, and good wishes for your success.


-B.R. Ambedkar


अंबेडकर के इस वक्तव्य में साफ जाहिर है कि अगर भारत में स्वराज कायम करना है तोजाति विहीन हिंदू समाज की स्थापना के बिना ऐसा असंभव है।


आज जाति वर्चस्व का जो आलम है,उसका तार्किक परिणाम ही हिंदू राष्ट्र है।


भारत राष्ट्र इस अमोघ नियति का शिकार इसलिए हो रहा है क्योंकि 15 अगस्त, 1947 से भारतीय राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर कदम जाति को मजबूत बनाता रहा है।


विडंबना तो यह है हजारों साल से जो जाति बहिस्कृत समुदायों को गुलाम बनाये रखने में कामयाब है,उस गुलामी का सिलसिला तोड़ने के लिए अपने आवार मसीहा संप्रदाय की अगुवाई में आजादी के ख्वाहिश में अंबेडकर के नाम उसी जाति को अपना वजूद मानकर सामाजिक न्याय और समता का अभियान चला रहे हैं लोग।


मुंबई में आज हरिचांद ठाकुर का जन्मोत्सव मनाया जा रहा है,जो नील विद्रोह के नेता थे और जाति अस्मिता के बिना वर्चस्ववादी ब्राह्मणधर्म को तोड़ने के लिए जिन्होंने मतुआ आंदोलन को जन्म दिया।


उनका मुख्य नारा भूमि सुधार था,जो आदिवासी और किसान विद्रोहों की विरासत के ही मुताबिक था।


हरिचांद ठाकुर की लड़ाई अस्मिता की लड़ाई नहीं थी और न महात्मा ज्योतिबा फूले की।वे राजनीति नहीं कर रहे थे और न सत्ता समीकरण के मुताबिक मौसम बेमौसम रंग बदलने वाले गिरगिट थे वे।


हरिचांद ठाकुर और ज्यतिबा फूले दोनों बहुसंख्य जनता के सशक्तीकरण के लिए शिक्षा आंदोलन चला रहे थे।


संजोग से बंगाल में जो प्रगतिशील आंदोलन नवजागरण मार्फत शुरु हुआ,वह भी ईश्वरचंद्र विद्यासागर के शिक्षा आंदोलन से प्रारंभ हुआ।


औपनिवेशिक शासन और सामंतवाद से लड़ने के लिए अस्मिता राजनीति के बजाय भारतीय जन गण के लगभग अपढ़ और पढ़े लिखे भी,पुरखों ने अस्मिताओं की बजाय कमजोर तबकों,पिछड़ों,अस्पृश्यों के सशक्तीकरण का आंदोलन चलाया।


अय्यंकाली का केरल में कृषि समाज को एकजुट करके चलाया गया कृषि हड़ताल की तो दूसरी कोई नजीर भी नहीं है।


चुआड़ विद्रोह के बारे में लिखा बहुत कम उपलब्ध है।इस पर गौरीपद चटर्जी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक मिदनापुरःफोररनर्स आफ इंडियाज फ्रीडम स्ट्रगल है।हमने नंदीग्राम सििंगुर जनविद्रोह के दौरान 2007 में कुछ दस्तावेज डेनिश नार्वे डच आर्काइव से निकालकर अपने ब्लागों पर कुछ लेख लिखे थे। तब जिस प्लेटफार्म में ब्लागिंग हती थी,वह अब हैं ही नहीं,वे दस्तावेज हासिल नहीं कर सकते।नये सिरे से खोज करनी होगी।लेकिन आप चाहे तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें।इसका लिंक इस प्रकार हैः

http://books.google.co.in/books?id=75-a8FSPmvQC&pg=PA6&lpg=PA6&dq=First+Chuar+Rebellion+(1767.)&source=bl&ots=rEFYEp4Gz5&sig=ALlEcA2uUT823OsrvqBqAgohVng&hl=en&sa=X&ei=QwQiU6bqJ4aYrgfG8IDIDg&ved=0CCgQ6AEwAA#v=onepage&q=First%20Chuar%20Rebellion%20(1767.)&f=false


चुआड़ विद्रोह शामिल लोग सभी जातियों और धर्मों के भारतीयराजे रजवाड़े महाराष्ट्र से लेकर पूर्वी बंगाल,असम, मध्यभारत, आंध्र बिहार,झारखंड और ओड़ीशा तक ईस्टइंडिया कंपनी के खिलाप लड़ रहे थे।


खासकर बंगाल,ओड़ीशा,झारखंड और बिहार में तो चुआड़ विद्रोह ने ईस्टइंडिया कंपनी की नाक में दम कर दिया था।


इन बागियों को चोर चूहाड़ अपराधी बताकर और उनके विद्रोह को चुआड़ यानी चूहाड़ विद्रोह बताकर बेररहमी से दबाया गया।बागियों के थोक दरों पर सूली पर चढ़ा दिया गया।फांसी पर लटकाया गया। लेकिन भारतीय इतिहास में इस विद्रोह की कोई चर्चा ही नहीं है।


Warren Hastings failed to quell the Chuar uprisings. The district administrator to Bankura wrote in his diary in 1787 that the Chuar revolt was so widespread and fierce that temporarily, the Company's rule had vanished from the district of Bankura. Finally in 1799 the Governor General, Wellesley crushed these uprisings by a pincer attack. An area near Salboni in Midnapore district, in whose mango grove many rebels were hung from trees by the British, is still known by local villagers as "the heath of the hanging upland", Phansi Dangar Math. Some years later under the leadership of Jagabandhu the paymaster or Bakshi (of the infantry of the Puri Raja), there was the well-known widespread Paik or retainer uprising in Orissa. In 1793 the Governor General Cornwallis initiated in the entire Presidency of Bengal a new form of Permanent Settlement of revenue to loyal landlords. This led to misfortunes for the toiling peasantry: in time they would protest against this as well.


आदिवासी विद्रोहों को आदरणीया महाश्वेता देवी ने कथा साहित्य का विषय बना दिया।उनका अरण्येर अधिकार उपन्यास कम दस्तावेज ज्यादा है। वरना हिंदी और बांग्ला और दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग वीरसा मुंडा के बारे में वैसे ही अनजान होते जितने सिधो कान्हों, टांट्या भील,तीतूमीर के बारे में।


हमारा जो मुख्य मुद्दा है वह यह है कि आजादी के बाद तक तेभागा और खाद्य आंदोलन और यहां तक कि नक्सलबाड़ी जनविद्रोह में जो समूचा कृषि समाज संघठित प्रतिरोध संघर्ष में एकताबद्ध रहा,वह पराधीन भारत में किसानों और आदिवासियों का सम्मिलित कृषि समाज रहा है,जिसमें शूद्रों और अछूतों और मुसलमानों की नेतृत्वकारी विरासत थी,उसे हम कहां छोड़ आये।


वह दरअसल छूटा नहीं,अस्मिता जाति पहचान वर्ग विमर्श के घटाटोप में बिखरता चला गया और हमें इसका होश ही नहीं रहा।


सरेराह चलते चलते धोती लंगोट उतर गयी,हमें पता ही न चला।


आज हिंदुत्व पुनरुत्थान के इस मुक्तबाजारी जायनवादी समय में हमें अगर मुकाबले में कहीं खड़ा होना है,तो अपनी उस गौरवशाली विरासत में प्रतिरोध की जमीन खोजनी होगी।


चूहों की मातबरी में कम से कम  परिवर्तन या क्रांति असंभव है,इस बुनियादी तथ्य को दिमाग में तौल लें और फिर मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और उसके मद्देनजर अपनी भूमिका तय करें,तभी हम कुछ कर सकते हैं।


आम लोगों को सत्ता,राजनीति,राष्ट्र,समाज और अर्थव्यव्स्था में हो रहे बदलाव के बारे में सही सही सूचना ही नहीं हो पाती।इसलिए वे भाव वादी तरीके से सोच रहे होते हैं।


जैसे अभिनव सिन्हा की टीम ने एक बड़ी पहल की जाति विमर्श को फोकस करने के सिलसिले में। लेकिन जिस तबके को संबोधित किया जाना है,उनकी मानसिक तैयारी के बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं।


यह ऐसा ही है कि जैसे किसी सर्जन ने मरीज को आपरेशन थियेटर में ले जाकर जीवनदायी प्रणालियों को एक्टिवेट किये बिना ,एनेस्थेशिया दिये बिना सीधे दिमाग की चीरफाड़ शुरु कर दी हो।


ऐसे चिकित्सकों की इन दिनों बेहद भरमार है।


जाति पहचान के जरिये सशक्तीकरण के फायदे पाने वाली जातियों के नाम गिना दीजिये तो बाकी छह हजार जातियों की जाति अंधता का औचित्य पानी की कतरह सरल हो जायेगा।


हमारे हिसाब से तो भ्रष्टाचार की जड़ है यह जाति व्यवस्था और उसकी विशुद्धता का सिद्धांत।वर्णवर्चस्वी इंतजामात में भ्रष्टाचार का कारखाना है और ऴंशवादी वायरल से बचता वनहीं कोई छोटा या बड़ा। जाति और विवाह के जटिल प्रबंधकीय खर्च के लिए ही बेहिसाब अकूत संपत्ति अर्जित करने की जरुरत होती है।


बंगाल में 35 साल के वाम शासन से और जो हुआ हो,उससे इतना तो जरुर हुआ है कि वैवाहिक संबंधों में जाति धर्म या भाषा का टंटा खत्म है और दहेज न होने की वजह से सार्वजनिक जीवन में तमाम समस्याओं और आर्थिक बदहाली के बावजूद लोग तनावरहित आनंद में हैं।


जहां जाति का बवंडर ज्यादा है,वहां अंधाधुंध कमाने की गरज बाकायदा कन्यादायी पिता की असहाय मजबूरी है।उत्तर भारतीय परिवार और समाज में ज्यादा घना इस जाति घनघटाों की वजह से ही हैं।


और समझ लीजिये कि आपकी पहचान का फायदा उठाकर कैसे कैसे लोग आपके मत्थे पर बैछकर हग मूत रहे हैं और आप तनिक चूम करें कि चूतड़ पर डंडे बरसने लगे।


जाति राजनीति की वजह से आप प्लेटो में परोसे जाने वाले मुर्ग मुसल्लम को रहमोकरम पर हैं।


आप जाति उन्मूलन कर दीजिये।विवाह संबंधों को खुल्ला कर दीजिये,भ्रष्टाचार की सामाजिक जड़ें खत्म हो जायेंगी।


आदरणीय एके पंकज ने जो सवाल किया है,उसके जवाब में हमारे प्रगतिशील पाखंड का भंडा फूट जाता है और बदलाव मुहिम की कलई भी खुल जाती है।आखिर ऐसा क्यों होता है कि हम बिरसा को सुनते हुए भगत सिंह से मिलने लगते हैं और भगत सिंह के बाद अगली मुलाकात चे से होती है, फिर उत्सुकता से भगत सिंह और चे दोनों बिरसा के उलगुलान की कहानी सुनकर एक ही साथ बोल पड़ते हैं 'इंकलाब-जिंदाबाद!'इसी के साथ अम्बेडकर भी सॉलिडारिटी में आ खड़े होते हैं, लेकिन पता नहीं बिरसा के आदिवासी दर्शन से लोगों को इतनी चिढ़ क्यों है?

आपके पास इस यक्ष प्रश्न का कोई जवाब हो तो जरुर दें।डरें नहीं, गलत जवाब पर आपका सर नहीं फूटने वाला है क्योंकि राजा विक्रमादित्य के साथ ही वेताल का भी अवसान हो गया है।

आदरणीय हिमांशु कुमार जी ने जो लिखा है,एकदम सही लिखा है।

आज़ाद भारत में सोनी सोरी ,अपर्णा मरांडी , दयामनी बारला ,आरती मांझी ही क्यों जेल में डाली जा रही हैं .


आखिर आदिवासी औरतें ही भारतीय राष्ट्र की शत्रु क्यों मानी जा रही हैं ?


ये कैसा समाज है ,ये कैसा विकास है , ये कैसी राजनीति है ?


दिक्कत की बात यह है कि कमोबश यह सब हमें स्वीकार भी है . (4 photos)PhotoPhotoPhoto

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Tribal and Agrarian movement for land rights in context to united Bengal, Bihar, Orissa
**http://ashim22.tripod.com/id19.html

        Social movements are generally conceived as the manifestation of collective behavior.
        The study of this historicity of the social movements is extremely important in order to have an insight into the present structural arrangements of it as well as its future orientations.
        "the tribal communities who with a sensitivity born of isolation and with a relatively intact mechanism of social control revolted more often and far more violently than any other community including peasants of India.''
        British colonialism made a very excellent use of this situation and added some more dimensions in it. Through the enactment of the Permanent Settlement Regulations Act in 1793 it introduced the concept of private property in land which was unknown in Indian history. As a result of this most of the erstwhile adivasi rajas or chieftains were converted into zamindars or landlords and the common peasants were transformed into serfs or rayats. Instead of payment of nominal subscription to the Mughal emperors, British rule made the payment of land revenue a compulsion. The responsibility of revenue collection was vested with the zamindars. The burden of this proved to be enormous for the peasants and a large number of them were forced to sell their lands, only to become landless labourers. The moneylenders, liquor vendors and other people from outside the region exploited this situation Hence a new class of absentee landlords was also created.
        The land question here requires some more attention. The adivasis of this region conceived of themselves as natural owners of the land, which they have reclaimed by extensive labour. Moreover, land and the forest were not merely viewed as means of production in their custom. They were rather, culturally and religiously, associated with the land and forest. So, they could hardly tolerate their alienation from the land and the forest as created by the British agrarian policies.
Phase of Agrarian Movement (1765 -1845)
        "True agrarian movements have arisen whenever urban interests have encroached, in fact, or in seeming, upon vital rural interests."
        Hence agrarian movements take place whenever urban penetration occurs in the rural areas. It may be through the influence of urban values, (as for example, interdependence, individualism etc.) or through the acquisition of better lands in the rural area, imposition of land revenue, land tax and so on.
The major peasant uprisings of this phase are as following:
        1. First Chuar Rebellion (1767.)
        2. Dhalbhum Rebellion (1769 -1774)
        3. Tilka Majhi's War (1780--1785)
        4. Pahadia Revolt (1788 -1791)
        5. First Tamar Rebellion (1795)
        6. Second Chuar Rebellion (1798-1799)
        7. Nayek Hangama (1806 -1826)
        8. Second Tamar Rebellion (1820)
        9. Kol Insurrection (1831 -1832)
        10. Ganga Narayan's Movement (1832 -1833)
        British encroachment into the Jharkhand region started in the year 1765 after receiving the 'Dewani' of Bengal, Bihar and Orissa.At its initial stage colonial administrators were basically interested in collecting land revenues from this region which was quite inaccessible due to its heavy hilly and forest covers.Apart from this the British administrators had to face another difficulty and that was concerning the attitude of the indigenous communities who refused to pay land revenues, as this was not be fitting to their customs.Hence payment of land revenue and that too in a compulsory manner was the basic reason behind the uprisings of this phase, especially those prior to 1793, the year in which the Permanent Settlement Regulation Act was enacted.
        The Permanent Settlement Act of 1793 brought certain administrative changes, which much more directly undermined the customs of the adivasi communities of this region.Firstly, the payment of land revenue by the cultivators to their chiefs were customarily guided but the Permanent Settlement Act
        Secondly, the law and order of this region was maintained by the 'ghatwals' or the pykes under the command of the local chiefs who were well informed of the customs and local cultures of the people.These pykes enjoyed gifts of lands from their chiefs for the service rendered by them.
        Thirdly, due to strict revenue assessment most of the local chiefs were found in huge arrears and their estates were auctioned to meet the revenue balances.The indigenous communities had a traditional organic relationship with their chiefs and could not bear the system that eventually led to their extinction. Finally, and most importantly, the estates of the local chiefs in arrears were auctioned, and in most of the cases, these were purchased by the outsiders, mostly non-adivasi zamindars.
  • Hence, the Permanent Settlement Act of 1793 marginalised the peasantry economically and also drove them towards a state of cultural alienation.The traditional economic and political organisations of the indigenous people centering on the autonomous village community were undermined.
  • The second Chuar Rebellion of 1798-1799, later on the Kol Insurrection of 1831-1832 and the Ganga Narayan's uprising of 1832-1833most prominently showed this trend. In all these the adivasi communities especially the Bhumijs of the Jungle Mahal and adjacent areas of the Chotanagpur plateau region participated in large numbers.
Phase of Consolidation (1845-1920)
These outsiders were mostly the zamindars, moneylenders, etc. created by the British rule, and they used to exploit the peasantry severally.
The major uprisings of the second phase are as under:
1. The Santhal Insurrection (1855)
2. The Sipoy Mutiny (1857)
3. Sardari Agitation or Mulkui Larai (1858-1895)
4. Kherwar Movement (1874)
5. The Birsa Munda Movement (1895-1900)
6. Tana Bhagat Movement (1914-1919)
This was most prominent in the Santhal Insurrection, Kherwar Movement and Birsa Munda Movement. The first two, being predominantly participated by the Santhals tried to establish the Santhal Raj while the Birsa Munda Movement went for the Munda Raj under the leadership of Birsa Munda.
http://ashim22.tripod.com/id19.html

Sudhir Suman

आन्दोलनकारी आदिवासी महिलाओं के गीत सुनिए और उन गीतों पर पढ़िए रामजी भाई के विचार

tab geet upload naheen kar paya tha ab geet bhee suniye महिला सशक्तीकरण का माले मॉडल राबर्टसगंज। सोनभद्र जिले का जिला मुख्यालय। अवसर था भाकपा(माले) के जिला ईकाइ के सम्मेलन का। सम्मेलन समाप्त हो चुका था और सम्मेलन में हिस्सा लेने आये...

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  • Faisal Anurag JAHAN TAK MUJHE PATA HAI PALASH A. K. RAI NE BIRSA SE LENIN KAA NAARA DIYA AUR JHARKHAND KI RAAJNEETI KO BADAL SAA DIYA.AB BHI BIRSA MUNDA KAA RAAJNEETIK DARSHAN PAR KAAM KARANE WAALE HAZARON HAIN JO TAMAAM TARAH KE SANGHRON ME LAGE HUYE HAIN.

  • 16 minutes ago· Like

  • Palash Biswas It ,makes no difference until we stand united.

  • S.r. Darapuri shared Amalesh Prasad Yadav's photo.
  • एक बहस तलब मुद्दा.एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के एक कारण:-  नोएडा में एक एनजीओ संचालक से बातचीत हो रही थी। एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के कारणों पर। संचालक महोदय ने एक अजीब कारण की चर्चा की। ''एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़के सवर्ण लड़कियों से शादी कर लेते हैं। यह भी एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण है। एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़कों का संस्‍कार एससी/एसटी/ओबीसी समाज और परिवार को नहीं मिल पाता है।क्‍या इससे एससी/एसटी/ओबीसी का विकास बाधित होता है?'' आप अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं।

  • एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के एक कारण:-

  • नोएडा में एक एनजीओ संचालक से बातचीत हो रही थी। एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के कारणों पर। संचालक महोदय ने एक अजीब कारण की चर्चा की। ''एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़के सवर्ण लड़कियों से शादी कर लेते हैं। यह भी एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण है। एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़कों का संस्‍कार एससी/एसटी/ओबीसी समाज और परिवार को नहीं मिल पाता है।क्‍या इससे एससी/एसटी/ओबीसी का विकास बाधित होता है?'' आप अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं।


Amalesh Prasad Yadav

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एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के एक कारण:-

नोएडा में एक एनजीओ संचालक से बातचीत हो रही थी। एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन के कारणों पर। संचालक महोदय ने एक अजीब कारण की चर्चा की। ''एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़के सवर्ण लड़कियों से शादी कर लेते हैं। यह भी एससी/एसटी/ओबीसी के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण है। एससी/एसटी/ओबीसी के टैलेंटेड लड़कों का संस्‍कार एससी/एसटी/ओबीसी समाज और परिवार को नहीं मिल पाता है।क्‍या इससे एससी/एसटी/ओबीसी का विकास बाधित होता है?'' आप अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं।


सरदार पटेल जिन्दा होते तो 70 आदिवासी गाँवो को खदेड़कर 2500 करोड़ की प्रतिमा बनाने का कडा विरोध करते..

Jayantibhai Manani

इस पोस्ट को 847 shares किये गए है और 199 लोगो ने लाइक किया है. इस की वजह है आदिवासियो की होनेवाली दुर्गति के विरुद्ध सोसियल मिडिया में उठ रही आवाज ही है..अगर सरदार पटेल जिन्दा होते तो 70 आदिवासी गाँवो को खदेड़कर 2500 करोड़ की प्रतिमा बनाने का कडा विरोध करते.. और इस बजेट को बच्चो के कुपोषण हटाने के लिए इस्तेमाल करवाते... गुजरात में प्रति 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. जिस में 100 आदिवासी बच्चो में से 88 बच्चे, 100 एससी बच्चो में से 75 बच्चे और 100 ओबीसी बच्चो में से 46 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है..इस पोस्ट को 847 shares किये गए है और 199 लोगो ने लाइक किया है. इस की वजह है आदिवासियो की होनेवाली दुर्गति के विरुद्ध सोसियल मिडिया में उठ रही आवाज ही है..     अगर सरदार पटेल जिन्दा होते तो 70 आदिवासी गाँवो को खदेड़कर 2500 करोड़ की प्रतिमा बनाने का कडा विरोध करते.. और इस बजेट को बच्चो के कुपोषण हटाने के लिए इस्तेमाल करवाते... गुजरात में प्रति 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. जिस में 100 आदिवासी बच्चो में से 88 बच्चे, 100 एससी बच्चो में से 75 बच्चे और 100 ओबीसी बच्चो में से 46 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है..    प्रोजेक्ट की हकीकत यह कि सरदार पटेल की आकृति वाली एक साठ मंजिला इमारत बनाई जा रही है, जिसकी ऊंचाई 182 मीटर होगी. अमेरिका की टर्नर कन्सट्रक्शन और माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स भवन निर्माण की कंपनियां हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में भवन निर्माण का जाल खड़ा कर रखा है. इन कंपनियों में जहां टर्नर कंस्ट्रक्शन मुख्य निर्माण कंपनी है वही मीनहार्ट्ज तथा माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स डिजाइन और आर्किटेक्ट फर्म हैं.    मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के बारे में अपनी वेबसाइट पर जो आधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके अनुसार यह मूर्ति तकनीकी तौर पर यह एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची ईमारत होगी, जिसमें अंदर पहुंचकर कोई भी व्यक्ति विस्तृत सरदार सरोवर का नजारा देख सकता है.    इस इमारत की शक्ल एक इंसान जैसी होगी, जो सरदार वल्लभ भाई पटेल होंगे. जाहिर है मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक सरदार पटेल की प्रतिमा के बहाने सरदार सरोवर के आसपास एक पर्यटन केन्द्र विकसित कर रही है. व्यापार और कारोबार को राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में पेश करके मोदी गुजरात में पर्यटन कॉरीडोर विकसित करने की आधारशिला रख रहे हैं.    टेण्डर में घोषित 2 हजार, 60 करोड़ की इस मूल परियोजना के प्रचार के लिए 3 करोड़ का अलग से टेण्डर निकाला गया है, जिसका इस्तेमाल परियोजना के पूरा होने से पहले इस मनोरंजन पार्क को दुनियाभर में डिजिटल मीडिया के जरिए प्रचारित करना है. अगर यह परियोजना मनोरंजक पार्क के रूप में प्रचारित की जाती, तो शायद देश और दुनिया के लिए सरदार पटेल का यह विशाल लौह भवन इतना चर्चा का विषय नहीं बन पाता.    बहरहाल, उन्होंने जैसे चाहा, वैसे आने वाले इतिहास की व्याख्या कर दी और दुनिया उस 'सरदार के सपनों का सौदागर'को मोदीनामा मान जोर-शोर से प्रचार कर रही है. <a href=

प्रोजेक्ट की हकीकत यह कि सरदार पटेल की आकृति वाली एक साठ मंजिला इमारत बनाई जा रही है, जिसकी ऊंचाई 182 मीटर होगी. अमेरिका की टर्नर कन्सट्रक्शन और माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स भवन निर्माण की कंपनियां हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में भवन निर्माण का जाल खड़ा कर रखा है. इन कंपनियों में जहां टर्नर कंस्ट्रक्शन मुख्य निर्माण कंपनी है वही मीनहार्ट्ज तथा माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स डिजाइन और आर्किटेक्ट फर्म हैं.

मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के बारे में अपनी वेबसाइट पर जो आधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके अनुसार यह मूर्ति तकनीकी तौर पर यह एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची ईमारत होगी, जिसमें अंदर पहुंचकर कोई भी व्यक्ति विस्तृत सरदार सरोवर का नजारा देख सकता है.इस इमारत की शक्ल एक इंसान जैसी होगी, जो सरदार वल्लभ भाई पटेल होंगे. जाहिर है मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक सरदार पटेल की प्रतिमा के बहाने सरदार सरोवर के आसपास एक पर्यटन केन्द्र विकसित कर रही है. व्यापार और कारोबार को राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में पेश करके मोदी गुजरात में पर्यटन कॉरीडोर विकसित करने की आधारशिला रख रहे हैं.

टेण्डर में घोषित 2 हजार, 60 करोड़ की इस मूल परियोजना के प्रचार के लिए 3 करोड़ का अलग से टेण्डर निकाला गया है, जिसका इस्तेमाल परियोजना के पूरा होने से पहले इस मनोरंजन पार्क को दुनियाभर में डिजिटल मीडिया के जरिए प्रचारित करना है. अगर यह परियोजना मनोरंजक पार्क के रूप में प्रचारित की जाती, तो शायद देश और दुनिया के लिए सरदार पटेल का यह विशाल लौह भवन इतना चर्चा का विषय नहीं बन पाता.बहरहाल, उन्होंने जैसे चाहा, वैसे आने वाले इतिहास की व्याख्या कर दी और दुनिया उस 'सरदार के सपनों का सौदागर'को मोदीनामा मान जोर-शोर से प्रचार कर रही है.





आदिवासी साहित्य - Adivasi Literature

Yesterday· Edited

उनके मार्क्सवाद, गांधीवाद, लोहियावाद के लिए हम लड़ते हैं, लड़ रहे हैं, लेकिन क्या वे हमारे आदिवासी दर्शन की बात भी करते हैं? दुनिया के आदिवासी साहित्य ने इसका जवाब दिया है. अब लोग भारतीय आदिवासी साहित्य से सुनना चाहते हैं. आदिवासी लेखकों क्या तुम तैयार हो?


- Gladson DungdungPhoto: उनके मार्क्सवाद, गांधीवाद, लोहियावाद के लिए हम लड़ते हैं, लड़ रहे हैं, लेकिन क्या वे हमारे आदिवासी दर्शन की बात भी करते हैं? दुनिया के आदिवासी साहित्य ने इसका जवाब दिया है. अब लोग भारतीय आदिवासी साहित्य से सुनना चाहते हैं. आदिवासी लेखकों क्या तुम तैयार हो?    - Gladson Dungdung

S.r. Darapuri shared Lalajee Nirmal's photo.
1995 में एक वार्तालाप के दौरान मैंने भी कांशी राम से यह पूछा था कि आप दलितों के लिए विशेष क्या कर रहे हैं क्योंकि आप भी उन्हें आरक्षित सीटों तक ही सीमित कर देते हैं. अब तो आप के पास पैसा भी है और सामान्य सीट पर सवर्ण वोटों के बट जाने के कारण दलित वोटों से उसे जीतना आसान होता है तो आप को दलितों को सामान्य सीट पर लड़ाना चाहिए. इस पर उन्होंने कहा कि दलितों के पास पैसा नहीं होता जबकि सवर्णों के पास पैसा होता है. मतलब यह कि कोई गरीब दलित कभी चुनाव नहीं लड़ सकता.
वर्तमान में पैसे वाले दलित ही बसपा का टिकट खरीद कर चुनाव लड़ते हैं परन्तु गरीब कार्यकर्ता का कभी नंबर नहीं आता.इस महान देश में क्या १०-२० दलित भी सक्षम नही है जो सामान्य निर्वाचन क्षेत्रो से चुनाव लड़ सके |देश के मुख्य राजनैतिक दल यह पहल क्यों नही कर रहे है |एक तरफ उनकी सोच है कि दलित सक्षम हो रहे है इसलिए आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए ,दूसरी तरफ आप दलितों को आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रो से ही बाधे रखना चाहते है |आपका यह दोहरा मापदंड अब नही चलने वाला हम ६०-७० के दलित नही है |अम्बेडकर महासभा ने एक अभियान के तहत राजनैतिक दलों से यह जानना चाहा  है कि  जिन राजनीतिज्ञों को आप सक्षम समझते है उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रो से अपना उम्मीदवार क्यों नही बना रहे |इस मुद्दे पर आज बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और  उत्तर प्रदेश विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष मान.स्वामी प्रसाद मौर्या से अम्बेडकर महासभा के पदाधिकारियो ने गंभीर मंत्रणा की |
इस महान देश में क्या १०-२० दलित भी सक्षम नही है जो सामान्य निर्वाचन क्षेत्रो से चुनाव लड़ सके |देश के मुख्य राजनैतिक दल यह पहल क्यों नही कर रहे है |एक तरफ उनकी सोच है कि दलित सक्षम हो रहे है इसलिए आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए ,दूसरी तरफ आप दलितों को आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रो से ही बाधे रखना चाहते है |आपका यह दोहरा मापदंड अब नही चलने वाला हम ६०-७० के दलित नही है |अम्बेडकर महासभा ने एक अभियान के तहत राजनैतिक दलों से यह जानना चाहा है कि जिन राजनीतिज्ञों को आप सक्षम समझते है उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रो से अपना उम्मीदवार क्यों नही बना रहे |इस मुद्दे पर आज बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष मान.स्वामी प्रसाद मौर्या से अम्बेडकर महासभा के पदाधिकारियो ने गंभीर मंत्रणा की |
Satya Narayan
स्‍तालिन की पुण्‍यतिथि 5 मार्च के अवसर पर
यह अफ़सोस की बात है कि आज आम घरों के नौजवानों और मज़दूरों में से भी बहुत कम ही ऐसे हैं जो स्तालिन और उनके महान कामों और विश्व क्रान्ति में उनके योगदान के बारे में जानते हैं। बुर्जुआ झूठे प्रचार के चलते बहुतों के मन में झूठी धारणाएँ बैठी हुई हैं। बहुतेरे प्रगतिशील बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी निरन्तर और चौतरफ़ा बुर्जुआ प्रचार के कारण पूर्वाग्रह ग्रस्त और भ्रमित हैं। लेकिन क्रान्तिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि स्तालिन को ठीक से समझा जाये और सही पक्ष में खड़ा हुआ जाये। स्तालिन का नाम और उनके काम क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के बीच की विभाजक रेखा बन चुके हैं।
http://www.mazdoorbigul.net/archives/2694
स्तालिन: पहले समाजवादी राज्य के निर्माता - मज़दूर बिगुल
mazdoorbigul.net
मज़दूर वर्ग के पहले राज्य सोवियत संघ की बुनियाद रखी थी महान लेनिन ने, और पूरी पूँजीवादी दुनिया के प्रत्यक्ष और खुफ़ि‍या हमलों, साज़िशों, घेरेबन्दी और फ़ासिस्टों के हमले को नाकाम करते हुए पहले समाजवादी राज्य का निर्माण करने वाले थे जोसेफ़ स्तालिन।...
S.r. Darapuri
Will these selfish Dalit leaders listen to Dr. Ambedkar?
On the same issue of scavenging, Dr. Ambedkar makes scathing critique of the social order where a section of people have to do such demeaning and humiliating jobs. While claims are made about the development and 'concern for all communities' the conditions of dalits in Gujarat are abysmal, temple entry is opposed at places, there is low rate of conviction for anti dalit atrocities, there is prevalence of manual scavenging still prevalent and this receives glorification from Modi. There is denial of access for water to the main sump at places. Cases of intimidation of dalits wanting to convert to Buddhism have been reported from Gujarat. These are few of the phenomenon prevalent in the Laboratory of Hindu rashtra, Gujarat. What should one say of leadership of dalits who compromise the values of Dr. Ambedkar, the values of long term goals of social justice and annihilation of caste for their short term greed for electoral power for their own self? There is a need for introspection by these leaders and their followers about the opportunism and lack of principles of such people in the positions of leadership of the communities.
Contemporary Dalit Politics and Ambedkar's Goal of Caste Annihilation | TwoCircles.net
twocircles.net
Ambedkar was committed to annihilation of caste and was totally opposed to the concept of Hindu nationalism, as propounded by RSS-BJP.


Satya Narayan

क्या 'आम आदमी'पार्टी से मज़दूरों को कुछ मिलेगा ?

(बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा लुधियाना के मजदूरों में वितरित एक पर्चा)

http://www.mazdoorbigul.net/archives/5000

क्या 'आम आदमी'पार्टी से मज़दूरों को कुछ मिलेगा ? - मज़दूर बिगुल

mazdoorbigul.net

17 फरवरी को भारतीय पूंजीपतियों के राष्ट्रीय संगठन सी.आई.आई. की मीटिंग में केजरीवाल ने असल बात कह ही दी। उसने कहा कि उसकी पार्टी पूंजीपतियों को बिजनेस करने के लिए बेहतर माहौल बनाकर देगी। विभिन्न विभागों के इंस्पेक्टरों द्वारा चेकिंग...


समकालीन दलित राजनीति और अम्बेडकर का जाति उन्मूलन का लक्ष्य

समकालीन दलित राजनीति और अम्बेडकर का जाति उन्मूलन का लक्ष्य

राम पुनियानी

गत 28 फरवरी 2014 को लोक जनशक्ति पार्टी (एल.जे.पी.)के अध्यक्ष रामविलास पासवानअपनी पार्टी सहित, राजग गठबंधन में शामिल हो गये। ये वही पासवान हैं, जो 12 साल पहले, गुजरात में कत्ल-ओ-गारतशुरू होते ही राजग गठबंधनसे यह कहते हुये बाहर हो गये थे कि गुजरात में हो रही हिंसा वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। ताकि ऐसा न लगे कि वे थूक कर चाट रहे हैं इसलिये उनके पुत्र ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के मामले में क्लीनचिट मिल गयी है और इसलिये राजग में शामिल होने में कुछ भी गलत नहीं है। कुछ दिन पहले, एक अन्य दलित नेता उदित राज भी भाजपा में शामिल हो गये थे। उन्होंने इस आश्वाशन पर भाजपा की सदस्यता ली कि उन्हें लोकसभा का टिकिट दिया जाएगा। महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया के रामदास अठावले राजग का हिस्सा बन गये और उन्हें राज्यसभा के टिकिट से नवाजा गया। ऐसे कई अन्य दलित नेता हैं जो या तो भाजपा के सदस्य हैं या उन दलों से जुड़े हुये हैं, जो कि राजग गठबंधन में शामिल हैं। इन सभी नेताओं का यह दावा रहा है कि वे डॉक्टर बी.आर. अम्बेडकर के अनुयायी हैं। अम्बेडकर जाति के उन्मूलन के हामी थे और वे उस हिन्दू राष्ट्रवाद के कड़े विरोधी थे, जिसकी अवधारणा भाजपा-आरएसएस ने दी है।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय देश में तीन तरह के राष्ट्रवाद अस्तित्व में थे: भारतीय राष्ट्रवाद, मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद।भारत के अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रवाद के समर्थक और अनुयायी थे। अधिकांश हिन्दू और अधिकांश मुसलमान, दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे। सामाजिक फिज़ा में सांप्रदायिकता घोलने का काम श्रेष्ठी वर्ग ने किया, जिसमें शामिल थे राजे-रजवाड़े, जमींदार और दोनों धर्मों की ऊँची जातियों के समृद्ध लोग। अंग्रेजों ने बड़ी कुटिलता से धार्मिक राष्ट्रवाद की आग को जलाए रखा। मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अलगाववाद की राह पकड़ ली और पाकिस्तान का निर्माण उनकी प्रमुख माँग बन गयी। हिन्दू राष्ट्रवादी, धार्मिक राष्ट्रवादके तो समर्थक थे परन्तु पाकिस्तान उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनका कहना था कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है। असल में इस दावे में कोई दम नहीं है क्योंकि प्राचीनकाल मेंराष्ट्र की अवधारणाही नहीं थी। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा आधुनिक है। शायद इसलिये अपनी पुस्तक ''पार्टिशन ऑफ इण्डिया''के संशोधित संस्करण में, अम्बेडकर ने पाकिस्तान के निर्माण का इस आधार पर पुरजोर विरोध किया कि उससे हिन्दू राजकी स्थापना की राह प्रशस्त हो सकती है। उन्होंने लिखा,

''अगर हिन्दू राज स्थापित होता है तो वह इस देश के लिये एक बहुत बड़ा संकट होगा। हिन्दू चाहे जो भी कहें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु यह एक तथ्य है कि हिन्दू धर्म, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिये खतरा है। वह प्रजातंत्र का दुश्मन है। हमें हिन्दू राज को रोकने के लिये हर संभव प्रयास करने चाहिए''

(पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इण्डिया, पृष्ठ 358)।

यहाँ अम्बेडकर जिस हिन्दू धर्म की बात कर रहे हैं, वह ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म है जो कि संघ परिवार के हिन्दुत्व का वैचारिक आधार है।

अम्बेडकर ने दलित आंदोलन की नींव रखी। उन्होंने अनुसूचित जाति फेडरेशन का निर्माण किया और उसके बाद रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया की आधारशिला रखी। सन् 1952 के आम चुनाव, जिनमें पहली बार भारत के सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार मिलने वाला था, के पहले, अनुसूचित जाति फेडरेशन ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से गठबंधन कर लिया। अनुसूचित जाति फेडरेशन के घोषणापत्र में ''किसी भी प्रतिक्रियावादी पार्टी जैसे हिन्दू महासभा या जनसंघ के साथ गठबंधन की संभावना को सिरे से नकारा गया था'' (अम्बेडकर के गायकवाड़ को पत्र, पृष्ठ 280-296, गोपाल गुरू द्वारा इकोनोमिक एण्ड पालिटिकल वीकली,दिनाँक 16 फरवरी 1991 में उद्धृत)। अम्बेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जनसंघ-हिन्दू महासभा का अंतिम और दूरगामी एजेण्डा हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है और यह भी कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना, धर्मनिरपेक्ष प्रजातान्त्रिक भारतके विरूद्ध है। अम्बेडकर का दलितों के लिये मन्त्र था ''शिक्षा प्राप्त करो, संगठित हो और संघर्ष करो''। वे जाति के उन्मूलनके हामी थे और स्वंतत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों के समर्थक। वे इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि केवल प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में ही शिक्षा प्राप्त करना, संगठित होना और संघर्ष करना संभव हो सकता है। इसलिये उन्होंने हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दलों से किसी भी प्रकार के समझौते की बात कभी सोची ही नहीं।

अब क्या हो रहा है? पिछले कुछ सालों में देश में एक नया दलित नेतृत्व उभरा है जो एक ओर अम्बेडकर से विचारधारा के स्तर पर जुड़ा रहना चाहता है तो दूसरी ओर, अपनी और अपने परिवार की चुनावी महत्वाकांक्षाओं को भी पूरा करना चाहता है। इसलिये ये नेता बिना किसी संकोच के सांप्रदायिक पार्टियों की गोदी में बैठ रहे हैं। महान कवि नामदेव ढसाल ने शिवसेना की सदस्यता ले ली थी, जिसने अम्बेडकर की पुस्तक ''रिडल्स ऑफ हिन्दुइज्म''के प्रकाशन पर भारी हंगामा मचाया था। रामदेव अठावले भी सांप्रदायिक ताकतों के साथ हैं, जिन्होंने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दिलवाई है। उदित राज ने भी हिन्दू राज की पार्टी को गले लगा लियाहै और रामविलास पासवान ने बेशर्मी से भाजपा के साथ जुड़ने का निर्णय लिया है। जाहिर है कि उनके इस निर्णय के पीछे दबे-कुचलों की भलाई का उद्देश्य नहीं है। उन्होंने स्वयं की राजनैतिक महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये यह निर्णय लिया है। सांप्रदायिक दलों के साथ जुड़ने से दलित नेताओं को भले ही कुछ समय के लिये फायदा हो जाए परन्तु ऐसा करके वे हिन्दुत्व-हिन्दू राज की राजनीति को मजबूती देंगे। यह वह राजनीति है जो जाति और लिंग के पदानुक्रम में विश्वास करती है

भाजपा की दलितों से जुड़े मुद्दों पर क्या सोच है, इसे केवल एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हाल में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा लिखित पुस्तक ''कर्मयोग''को वापस ले लिया गया। इस पुस्तक में मोदी ने लिखा है,

''मुझे यह विश्वास नहीं है कि वे (वाल्मीकि) इस काम को केवल अपनी आजीविका चलाने के लिये करते आये हैं। अगर ऐसा होता तो वे यह काम पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं करते…किसी न किसी समय,किसी न किसी को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि पूरे समाज व ईश्वर की प्रसन्नता की खातिर यह काम करना उनका (वाल्मीकि) कर्तव्य है। यह काम उन्हें ईश्वर द्वारा सौंपा गया है और सफाई का यह काम वे सदियों से एक आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के बतौर करते आ रहे हैं। यह पीढि़यों से चल रहा है। यह विश्वास करना असंभव है कि उनके पूर्वज कोई अन्य काम या व्यवसाय शुरू नहीं कर सकते थे।''

सफाई के कार्य के इसी मुद्दे को लेकर डॉ. अम्बेडकर ने उस सामाजिक व्यवस्था की कड़ी आलोचना की जो किसी एक तबके के लोगों को ऐसे घिनौने व अपमानजनक काम करने पर मजबूर करती है। यद्यपि विकास और 'सभी समुदायों की फिक्र'के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं परन्तु सच यह है कि गुजरात में दलितों की हालत बहुत खराब है। कई जगह उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है और उनके विरूद्ध हिंसा के मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। हाथों से मैले की सफाई का काम अभी भी जारी है और मोदी उसे महिमामंडित कर रहे हैं। दलितों को कई स्थानों पर पानी के स्त्रोतों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। गुजरात में कई दलितों के बौद्ध धर्म अपनाने की खबरें भी आती रही हैं। ये तो हुई हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला गुजरात की बात। परन्तु हम उन दलित नेताओं के बारे में क्या कहें0 जो डा. अम्बेडकर के मूल्यों से समझौता कर रहे हैं और राजनैतिक सत्ता हासिल करने की खातिर सामाजिक न्याय और जाति उन्मूलन के अपने दूरगामी लक्ष्य को भुला बैठे हैं। इन नेताओं को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। ऐसे नेताओं के अनुयायियों को भी यह विचार करना होगा कि वे आखिर कब तक इतने घोर अवसरवादी और सिद्धान्तविहीन लोगों को अपना नेता मानते रहेंगे। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

About The Author

Ram Puniyaniwas a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.


Jagadishwar Chaturvedi

अरविंद केजरीवाल ने जिन सवालों से प्रचार अभियान आरंभ किया है उससे वे नायक बनकर सामने आ रहे हैं और उनकी राष्ट्रीय बढत को मोदी रोक नहीं सकते। जैसा दृश्य बन रहा है उसमें आम आदमी पार्टी को एक बडी राजनीतिक ताकत के रुप में उभारने में मोदी के आक्रामक प्रचार अभियान की प्रच्छन्न रुप से बडी भूमिका है। मोदी की वर्चुअल इमेज तो केजरीवाल के सामने टिम टिम दीपक जैसी है।

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Himanshu Kumar

हिमालय में हूँ . मिट्टी और बांस से बनी हुई कुटिया के भीतर बैठा हूँ .


खिड़की के बाहर बर्फ से ढकी हुई पहाडियां दीख रही हैं .


घर के पीछे एक पहाड़ी नदी कल कल करती हुई बह रही है .


कुछ समय इधर ही रह कर लिखने पढ़ने में शान्ति से समय गुज़ारूंगा .

Unlike·  · Share· 6 hours ago·


महाराष्ट्रातील सत्तासंघर्षाची दिशा

Sunil Khobragade

March 3, 2014 at 9:41pm

भारतीय सत्तासंघर्ष सद्यस्थितीत अशा एका बिंदूवर येऊन पोहचला आहे की जेथून कल्याणकारी राज्याची प्रस्थापना या भारतीय संविधानाच्या  सर्वोच्च संकल्पाचा कडेलोट करणारे दोन मार्ग सुरु होतात. एक मार्ग कल्याणकारी राज्याच्या प्रस्थापनेचे उद्दिष्ट ठोकरुन लावून धर्मप्रवण व्यक्तीमानस, धर्माधिष्ठीत समाजरचना आणि धर्मसंम्मत अनैतिक आचार याद्वारे अधिकाधिक दुःखनिर्मिती करत तात्काळ विनाशाकडे नेणारा आहे.तर,दुसरा मार्ग कल्याणकारी राज्याच्या प्रस्थापनेसाठी आवश्यक उपाययोजना न करता भय, भूक, दास्यता, भ्रष्टाचार कायम ठेऊन थोड्या धीम्या गतीने विनाशाकडे नेणारा आहे. कोणत्याही मार्गाने गेले तरी भारतीय संविधानाने हमी दिलेल्या दर्जा आणि संधीची समानता, सामाजिक, आर्थिक आणि राजनैतिक न्याय, आचार,विचार, श्रद्धा, उपासना यांचे स्वातंत्र्य आणि सन्मानाचे जीवन जगण्याचा अधिकार या राष्ट्रसंकल्पाचा कडेलोट अटळ आहे. या स्थितीत भारताच्या निर्माणकर्त्यांनी परिश्रमपूर्वक निर्माण केलेले सार्वभौम, धर्मनिरपेक्ष, लोकशाही गणराज्य वाचविण्यासाठी इतर कोणता मार्ग उपलब्ध आहे काय? यावर विचार करणे आवश्यक आहे. प्रश्न संपूर्ण देशाला विनाशापासून वाचविण्याचा आहे.परंतु, याची सुरुवात मात्र कोणत्यातरी एका प्रदेशापासून करावी लागेल. सत्ताधारी आणि विरोधी म्हणून ओळखले जाणारे प्रमुख राजकीय  पक्ष व त्यांच्या छायेत खुरटत वाढणारे ' सत्तातुरांना न भयं न लज्जा ' या नीतीने वाटचाल करणारे व्यक्तिकेंद्री प्रादेशिक पक्ष या संविधानशत्रूंपासून देशाला  वाचविण्याचा प्रारंभिक प्रयोग भारतीय पुनर्निर्माण चळवळीची आधारभूमी असलेल्या  महाराष्ट्र राज्यात यशस्वी झाला तर त्याची पुनरावृत्ती  इतर राज्यांमध्येही करता येऊ शकते. महाराष्ट्र ही भारतीय पुनर्निर्माण चळवळीचे जनक कांतीबा जोतिराव फुले,छत्रपती शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर या महापुरुषांची आणि  लोकहितवादी, आगरकर यासारख्या सुधारकांची जन्मभूमी आणि कर्मभूमी आहे. भारत नावाचा देश कसा असावा/ कसा असेल ? याचा दस्तावेज विद्वतशिरोमणी महाराष्ट्रपुत्र डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी तयार केला आहे.हे पाहता भारत देशाला विनाशापासून वाचविण्याची जबाबदारी महाराष्ट्रातील जनतेनेच घेतली पाहिजे. यासाठी आधी महाराष्ट्र मग शेषराष्ट्र ही भूमिका घेऊन राष्ट्रनिर्माते डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या वारसांनी भारताच्या संविधानशत्रूंना पराभूत करण्याची सुरुवात महाराष्ट्रापासूनच केली पाहिजे.भारताचे संविधानशत्रू असलेले सत्ताधारी आणि विरोधी म्हणून ओळखले जाणारे प्रमुख पक्ष व त्यांच्या दिंडीत सामील झालेले प्रादेशिक राजकीय पक्ष अत्यंत प्रबळ आहेत. प्रचंड धनशक्ती, संपूर्ण भारतातील जनतेचा बुद्धिभेद करणारी विक्राळ माध्यमशक्ती, बंधुभाव नष्ट करणारी जहाल कुटिलता,  जनतेला त्राही-त्राही करुन सोडणारी निष्ठुर  निर्दयता या सर्व दुर्गुणांचा समुच्चय या  धन आणि धर्म नियंत्रित पक्षांमध्ये झाला आहे. त्यामुळे या संविधानघातकी पक्षासूरांचा मुकाबला करण्यासाठी थेट मैदानात उतरण्याबरोबरच छत्रपती शिवरायांच्या गनिमी काव्याचा वापर करणे गरजेचे आहे. या संविधानघातकी पक्षासूरांचे निर्दालन करण्याचे मार्ग कोणकोणते असतील,यासाठी कोणत्या तंत्रांचा वापर करावा लागेल, भारतीय संविधानाने आखून दिलेल्या संसदीय मार्गानेच या संविधानघातकी पक्षासूरांना कसे पराभूत करता येईल, भारतीय संविधानाने भारतातील जनतेला दिलेल्या एक व्यक्ती, एका व्यक्तीला एक मत आणि एका मताचे एक मूल्य या भिमास्त्राचा वापर करुन संविधानघातकी पक्षासूरांचे कसे दहन करता येईल याची गुरुकिल्ली आंबेडकरवादी तत्वज्ञानविद्येत आहे. मात्र, आजपर्यंत ही विद्या वापरण्याचे कौशल्य अर्जित करण्याकडे दुर्लक्ष केल्यामुळे संविधानशत्रू बलवान झाला आहे.  एक व्यक्ती, एका व्यक्तीला एक मत आणि एका मताचे एक मूल्य या भिमास्त्राचा वापर करण्याच्या विद्येत जनता पारंगत झाल्यास संविधानघातकी  पक्षांसूरांना आणि त्यांच्या वळचणीखाली मूळ धरलेल्या संविधानशत्रूंना पळता भूई थोडी होईल. संविधानाने भारतीय जनतेच्या हातात दिलेल्या भिमास्त्राचा यशस्वी वापर सर्वप्रथम महाराष्ट्रात करायचा आहे हे आपण वर म्हटले आहे. यासाठी  महाराष्ट्राचे सत्ताकारण,महाराष्ट्राच्या सत्ताकारणावर परिणाम करणारे घटक,या घटकांची उपयोगिता आणि उपद्रवमूल्य यांचा वापर करून  संविधानप्रेमी घटकांना निष्प्रभ करण्याचे महाराष्ट्रातील सत्ताधारी  व विरोधी पक्षांचे तंत्र,महाराष्ट्राच्या राजकारणातील धार्मिक व जातीय अंतर्विरोध,जातीय आणि धार्मिक संख्याबळ व त्यांचे भौगोलिक स्थान व त्याआधारे करता येऊ शकणारे प्रयोग,सत्ताधारी व विरोधी पक्षांचा पाडाव करण्यासाठी आत्मसात करावयाची कौशल्ये आणि नष्ट करावयाचे अवगुण इत्यादीसारख्या अनेक घटकांची परखड चर्चा,चिकित्सा,समीक्षा करण्याची आणि नवीन प्रमेये मांडण्याची आवश्यकता आहे.ही चर्चा,चिकित्सा,समीक्षा आणि नवीन प्रमेये म्हणजे महाराष्ट्राची सत्ता हस्तगत करण्याची गुरुकिल्ली ठरणार आहे.

महाराष्ट्राचे सत्ताकारण

महाराष्ट्रातील सत्तासंघर्षात ब्राह्मण आणि मराठे हे दोन मुख्य अक्ष राहिले आहेत.इतर जाती या दोन अक्षाच्या अवतीभवती केंद्रित राहिल्या आहेत.छत्रपति शिवाजी महाराजांनी कुणबी-कुळवाडी,महार,रामोशी,कोळी आणि धर्मांतरित मुसलमान या जातींचे संघटन करून खानदानी मुसलमान + ब्राह्मण यांच्या अभद्र युतीला शह दिला व शुद्रातीशुद्रांच्या हातात राजसत्ता खेचून आणली.शतकभराच्या शिवराज्यानंतर ब्राह्मणांनी पेशवाईच्या रूपाने शिवरायाच्या समीकरणाला शह देऊन ब्राह्मणराज्य पुन्हा प्रस्थापित केले. यानंतर जवळपास दीडशे वर्षे मराठे महाराष्ट्राच्या सत्तास्पर्धेतून बाहेर फेकले गेले होते.एकोणविसाव्या शतकाच्या अखेरच्या दशकापासून इंग्रजांसोबत सनदशीर मार्गाने सुरु झालेल्या राजकीय लढ्यावर  गोखले,रानडे,टिळक,केळकर या ब्राह्मण नेत्यांनी कब्जा केला होता. विसाव्या शतकाच्या प्रारंभी मराठा-कुणबी व इतर ब्राह्मणेत्तर जातीमध्ये थोडीफार राजकीय जागृती सुरु झाली.ब्राह्मणजातीय राजकारणाला शह देण्यासाठी छत्रपति शाहू महाराजांच्या पुढाकाराने भास्करराव जाधव व श्रीपतराव शिंदे यांच्या नेतृत्वाखाली मराठ्यांनी ' ऑल इंडिया मराठा लीग" नावाने मराठ्यांची पहिली राजकीय संस्था १९१७ साली स्थापन केली.त्याच वर्षी मराठेत्तर जातींनी अण्णासाहेब लठ्ठे यांच्या नेतृत्वाखाली "डेक्कन रयत एसोसिएशन" नावाची राजकिय संस्था  स्थापन केली.सुरुवातीच्या काळात ' ऑल इंडिया मराठा लीग" आणि "डेक्कन रयत एसोसिएशन" या दोन्ही संगठना परस्पर सहकार्याने सत्यशोधकी विचारांचे ब्राह्मणविरोधी राजकारण करीत असत.या काळात भास्करराव जाधव,दिनकरराव जवळकर,केशवराव जेधे या प्रमुख मराठा नेत्यांनी महाराष्ट्राच्या राकारणात प्रभाव निर्माण केला. मराठा नेतृत्वाखाली काम करणाऱ्या पक्षांना त्यावेळेस ब्राह्मणेत्तर पक्ष या नावाने संबोधले  जाई.या दोन्ही संगठनानी राजकीय राखीव जागांची जोरदार मागणी केली. या संगठनाच्या संघर्षामुळेच १९१९ च्या मोंटेग्यू-चेम्सफर्ड सुधारणा कायद्याअन्वये मराठा व तत्सम इतर जातींना मुंबई विधानमंडळामध्ये राखीव जागा देण्यात आल्या.  

सन १९३० साली ब्राह्मणेत्तर पक्ष कॉंग्रेसमध्ये विलीन झाला. या काळात कॉंग्रेस पक्षावर शंकरराव देव, नरहर विष्णू गाडगीळ,नरसिंह केळकर या ब्राह्मण नेत्यांची पकड होती.केशवराव जेधे यांच्या नेतृत्वाखाली ब्राह्मणेत्तर पक्ष कॉंग्रेसमध्ये विलीन झाल्यानंतर कॉंग्रेसमधील ब्राह्मण नेतृत्व आणि मराठा नेतृत्व अशी सत्तास्पर्धा महाराष्ट्राच्या राजकारणात सुरु झाली.केशवराव जेधे,  भास्करराव जाधव,नाना पाटील,शंकरराव मोरे या मराठा नेत्यांनी ब्राह्मणी वर्तुळात बंदिस्त झालेल्या कॉंग्रेस पक्षाला मराठा जातीमध्ये लोकप्रिय केले.याचा परिणाम म्हणून १९३६ मध्ये महाराष्ट्रात केवळ ४५९१५ एवढी सदस्यसंख्या असलेल्या  कॉंग्रेस पक्षाचे १९३७ मध्ये १,५६,८९४ इतके सदस्य झाले. मराठा जातीच्या सहभागामुळे  मुंबई प्रांतिक विधीमंडळात कॉंग्रेसचे १७५ पैकी ८८ सदस्य निवडून आले. परंतु मुंबई प्रांताचे मुख्यमंत्री मात्र बाळ गंगाधर खेर या ब्राह्मण नेत्यास करण्यात आले.यापुढील काळात मराठा व ब्राह्मण नेत्यांमधील सत्तासंघर्ष आणखी तीव्र झाला.कॉंग्रेसवर शंकरराव देव,बाळ गंगाधर खेर,मोरारजी देसाई या ब्राह्मण नेत्यांचे प्रस्थ निर्माण झाले.यामुळे केशवराव जेधे,शंकरराव मोरे,तुळसीदास जाधव, दि.बा.पाटील,गोविंदराव पवार या मराठा नेत्यांनी  कॉंग्रेसमधून बाहेर पडून १९४८ साली शेतकरी कामगार पक्षाची स्थापना केली.मात्र लवकरच त्यांच्यामध्ये मतभेद झाल्याने शेवटी ऑगस्ट १९५४ मध्ये केशवराव जेधे कॉंग्रेस पक्षात परत आले.या कालावधीत यशवंतराव चव्हाण यांच्या रूपाने मराठा जातीतील प्रबळ नेतृत्वाचा उदय झाला.मोरारजी देसाई आणि जवाहरलाल नेहरू यांच्यातील सुप्त संघर्षामुळे नेहरूंनी यशवंतराव चव्हाण यांना झुकते माप दिल्यामुळे कॉंग्रेसमध्ये पुन्हा मराठा विरुद्ध ब्राह्मण असा सत्तासंघर्ष सुरु झाला.या सत्तासंघर्षात यशवंतराव चव्हाण यांचा विजय होऊन १ नोव्हेंबर १९५६ मध्ये मुंबई राज्याचे मुख्यमंत्रीपद त्यांना देण्यात आले.मराठा नेतृत्वाने कॉंग्रेसमधील देव-देसाई-खेर या ब्राह्मण नेतृत्वाला शह  दिल्यामुळे ब्राह्मणांनी एस.एम.जोशी,श्री.अ.डांगे आणि प्र.के.अत्रे या कॉन्ग्रेसेत्तर नेतृत्वाला प्रस्थापित करण्यासाठी ब्राह्मण,सी.के.पी,महार व मराठेत्तर जाती यांना संयुक्त महाराष्ट्र समितीच्या झेंड्याखाली एकत्र आणून मराठा नेतृत्वाला  शह देण्याचा प्रयत्न केला परंतु तो यशस्वी  झाला नाही. मराठा नेतृत्वाने ब्राह्मण नेतृत्वावर मात करण्याचे  मुख्य कारण  राजकीय असण्यापेक्षा वैचारिक आणि सांस्कृतिक स्वरूपाचे आहे ही बाब प्रामुख्याने लक्षात घेतली पाहिजे.मराठा राजकारणाची मुहूर्तमेढ रोवणारे मराठा नेतृत्व क्रांतीबा फुल्यांच्या कट्टर ब्राह्मणविरोधी सत्यशोधक तत्वज्ञानाच्या मुशीत घडले होते.ब्राह्मणांनी मराठ्यांना क्षत्रिय मानण्यास नकार दिल्याची,खालच्या जातीचे,शुद्र ठरविल्याची खंत मराठा नेत्यांच्या नेणीवेतून पुसली गेली नव्हती.कॉंग्रेसमध्ये सामील झाल्यानंतरसुद्धा मराठा नेत्यांचा हा ब्राह्मणविरोध कायम होता.मराठेत्तर शुद्र जातीमध्येही सत्यशोधक तत्वज्ञान रुजलेले असल्यामुळे मराठ्याच्या ब्राह्मण नेत्रुत्वविरोधी भूमिकेला महाराष्ट्रातील जैन,माळी इत्यादी जातींचाही पाठींबा लाभला.यामुळेच मराठ्यांना ब्राह्मण नेतृत्वाला महाराष्ट्राच्या सत्तास्पर्धेतून निर्णायकरित्या दूर करता आले.१९६० नंतरच्या काळात महाराष्ट्रातील सत्तासंघर्ष मराठा विरुद्ध ब्राह्मण या अक्षावरून मराठा विरुद्ध मराठेत्तर जाती या अक्षावर स्थिरावले आहे.साठोत्तरी काळात मराठा नेतृत्व अधिकाधिक कर्मठ हिंदुत्ववादी बनत गेले आहे.आजमितीस अस्तित्व पणाला लाऊन हिंदुत्वाचे संरक्षण करण्यात मराठा जात सर्वात पुढे आहे.मात्र मराठ्यांच्या हिंदुत्वसंरक्षक वैचारिक भूमिकेचा  विरोध करण्यासाठी मराठेत्तर जाती पुढे येत नाहीत कारण या जातीसुद्धा ( सी.के.पी.म्हणजेच कायस्थ प्रभू,पाठारे प्रभू ,वंजारी,धनगर,आगरी,भंडारी इत्यादी ) हिंदुत्वसंरक्षक आहेत.यामुळे महाराष्ट्राचे सत्ताकारण वैचारिक भुमिकेच्या विरोधाऐवजी निव्वळ राजकीय भूमिकेच्या विरोधावर अधिष्ठित झाले आहे.मराठा जातीसामुहाकडे भौतिक साधनाचा निर्विवाद कब्जा असल्यामुळे केवळ राजकीय भूमिकेच्या विरोधाच्या आधारे मराठा नेतृत्वावर वर्चस्व प्रस्थापित कारणे  दुरापास्त आहे.या स्थितीत महाराष्ट्रातील सत्तास्पर्धा हिंदुत्व संरक्षक सत्ताधारी जातीसमूह विरुद्ध हिंदुत्व विरोधक जाति-धर्म समूह  या तात्त्विक विरोधाच्या पातळीवर अधिष्ठित करणे अत्यावश्यक आहे.    

चन्द्रशेखर करगेती with Rajiv Nayan Bahuguna and 19 others

बल हर दा,


बताओ तो उत्तराखण्ड के सुलगते सवाल क्या-क्या हैं ?


क्या अब भी तुम्हारी जुगत केवल और केवल, सत्ता पाने को संघर्ष और अनुत्तरित सवाल तक ही सीमीत है ?


जवाब देना हो दाज्यू आगे लोकसभा चुनाव भी है और राज्य में पंजाबी और उर्दू अकादामियां भी घोषित हो गयी है !


ग्वेल ज्यु, जाने कुमाऊंनी और गढवाली को अकादमी रूपी उडयार कब मिलेगा ? सवाल तो और भी बहुत से हैं दाज्यू, पहले इसका तो जवाब दे दो ?

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