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पहले दिन से बंद होने की अफवाह के बावजूद जनसत्ता सही सलामत रीढ़ के साथ जारी है,फिक्र न करें पलाश विश्वास

Previous: क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं? आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं हैं और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है। पलाश विश्वास
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पहले दिन से बंद होने की अफवाह के बावजूद जनसत्ता सही सलामत रीढ़ के साथ जारी है,फिक्र न करें

पलाश विश्वास

इन दिनों अजब संशय में हूं।मुझे क्या लिखना है,इस बारे में मैं बचपन से बहुत साफ हूं।मुझे किनके लिए लिखना है,इस बारे में मेरा जेहन साफ रहा है।मेरा लेखन इसलिए जनरल आडियेंस को संबोधित नहीं है।इसी लिए मैं मुख्यधारा में लिखता भी नहीं हूं।


मैं बदलाव के पक्षधर ताकतों और बहुजनों को संबोधित कर रहा हूं करीब दो दशकों से।मुझे बाकी लोगों की सहमति असहमति की उतनी परवाह नहीं है,जितनी की इस बात की मैं जिनके लिए,जिनके मुद्दों पर लिख रहा हूं,उन तक मेरा लिखा पहुंचता है या नहीं।


इधर तमाम मुद्दों पर हमारे मोर्चे पर,खासतौर पर मेरे देश भर से मेरे साथ सक्रिय रहने वालों की चुप्पी से मैं बेहद बेचैन हूं और अभिषेक श्रीवास्तव के सुझाव के मुताबिक पिछले दो दिनों से कुछ समय के लिए कुछ भी न लिखने का अभ्यास कर रहा था।


मेरे रिटायर होने के एक साल रह गये हैं और मुझसे पहले मेरे इलाहाबाद जमाने से 1979 से मित्र शैलेंद्र रिटायर करेंगे।तो हमारे संपादक को भी रिटायर हो जाना है।इसलिए मैं चाहता हूं कि प्रोफेशनल तरीके से मैं सालभर रिटायर हो जाने की प्रक्रिया पूरी करुं ताकि मुझे बाद में पछतावा नहीं हो।रिटायर होने के बाद की अनिश्चितताओं की वजह से अपने आप को समेटना भी अब जरुरी लग रहा है।


अब भी सेहत ठीक नहीं है।दवाएं चल रही है।लेकिन बाकी बचे वक्त सिक लिव लेने का कोई इरादा नहीं है।इसी बीच परसो सविता के बड़े भाई के निधन की खबर आयी।हम उन्हें पिछले जाड़ों में देख आये हैं।सविता बिजनौर जाना चाहती हैं लेकिन रेलवे की किसी श्रेणी में उनके लिए टिकट नहीं मिल रहा है और मैंने चूंकि तय किया है कि सालभर में कोलकाता से बाहर नहीं जाना है और मैं उनके साथ जा नहीं रहा हूं,तो बिना कन्फर्म टिकट उन्हें भेजना भी असंभव है क्यों कि वे भी अस्वस्थ हैं।इसमें पेंच यह है कि 13 और 14 अप्रैल को उनका सांस्कृतिक कार्यक्रम है और तब तक उन्हें हर हालत में लौटना है।बसंतीपुर और बिजनौर दोनों जगह से तत्काल काटकर उन्हें सही वक्त पहुंचाने की कोई गारंटी दे नहीं रहा है।


सविता बाबू बेहत भावुक और संवेदनशील हैं और जब वह भावनाओं में बह निकलती हैं तो मुकम्मल जलजला होती हैं।दो दिनों से वह जलजला झेल रहा हूं।


मजे की बात है कि मेरे अत्यंत प्रिय मित्र अभिषेक के सुझाव पर अमल कर ही रहा था,लेकिन जनसत्ता के इने गिने दिनों के बारे में उसकी टिप्पणी पर लिखना मेरे लिए जरुरी हो गया है।मैं अपनी खाल बचाने के लिए मुद्दों से सीधे टकराने को अभ्यस्त नहीं रहा हूं।


चूंकि मैं नियमित तौर पर हस्तक्षेप में लिख रहा हूं और हस्तक्षेप के माध्यम से ही तमाम मुद्दों को संबोधित कर रहा हूं तो हस्तक्षेप पर लगी इस टिप्पणी में अपना पक्ष साफ करना जरुरी मानता हूं।


सबसे पहले मैं आदरणीय प्रभाष जोशी का पूरा सम्मान करते हुए और उनके अनुयायियों की भावनाओं का भी सम्मान करते हुए स्पष्ट करना चाहता हूं कि भाषा और शैली मेरे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।ऐसा होता तो मैं उदय प्रकाश को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानता।


बसंतीपुर आंदोलनकारियों का गांव है और मेरे पिता आजीवन आंदोलनकारी रहे हैं।ताराचंद्र त्रिपाठी की पकड में आने से पहले,नैनीताल जीआईसी में दाखिल होने से पहले मैं कक्षा दो से देशभर की शरणार्थी समस्या पर पिता के पत्रव्यवहार का लेखक रहा हूं क्योंकि पिता को हिंदी लिखने की आदत नहीं रही है।बांग्ला में तब जो मैं लिखा करता था ,वहां भी भाषा से बड़ा सवाल मद्दों और उनपर हमारे पक्ष का रहा है।


सन अस्सी में धनबाद के दैनिक आवाज से दुर्घटनावश पत्रकारिता शुरु करते न करते कामरेड एके राय आयोजित प्रेमचंद जयंती पर मुझे अचानक अपने प्रियकवि मदन कश्यप की गैरहाजिरी में हजारों कोयला मजदूरों और आम लोगोें की सभा को संबोधित करते हुए आयोजकों के दिये विषय प्रेमचंद की भाषा और शैली पर बोलना पड़ा। उस आयोजन में महाश्वेतादी मुख्य अतिथि थीं और उसी आयोजन में मेरी उनसे पहली मुलाकात है।


मुख्य वक्ता बतौर बोलते हुए महाश्वेता देवी ने कहा कि उनके लिए भाषा और शैली का कोई निर्णायक महत्व नहीं है ,अगर किसी के लेखन में जनपक्षधरता साफ साफ नहीं हो,मुद्दों पर उनका पक्ष गोलमोल मौकापरस्त हो और तमाम चुनौतियों को मंजूर करते हुए रीढ़ की हड्डी सही सलामत रखकर वह सन्नाटा तोड़ने की हिम्मत नहीं करता।बाद में अख्तरुज्जमान इलियस,माणिक बंदोपाध्याय और नवारुण दा ने मेरी इस समझ को पुख्ता किया है।


इसलिए जनसत्ता पर चर्चा  के वक्त उसकी भाषा से शुरुआत मैं गलत प्रस्थानबिंदू मानता हूं।हमारा स्पष्ट मानना है कि पत्रकारिता की भाषा और तेवर के मामले में रघुवीर सहाय का योगदान सबसे ज्यादा है।


विडंबना यह है कि लोग इसका कोई श्रेय उन्हें और दिनमान टीम को देने को तैयार नहीं है।जनसता की जो टीम जोशी जी ने बनायी उनमें से बड़े से बड़े लोगों से लेकर शैलेंद्र और मेरे जैसे लोग पत्रकारिता में आये तो रघुवीर सहाय की वजह से ही और उनने ही तमाम लोगों को पत्रकार बनाया।


भाषा और दूसरे प्रतिमानों के बजाय अखबार की संपादकीय नीति हमारे लिए ज्यादा मह्तवपूर्ण है क्योंकि यह सीख मेरे पिता की है जो आंखर बांचने की हालत में आते न आते विभिन्न भाषाओं के अखबारों के संपादकीय का पाठ मुझसे रोजाना बाबुलंद आवाज में करवाते थे।


वे बांग्ला के किंवदंती पत्रकार तुषार कांति घोष के मित्र थे लेकिन उनने मुझे कभी तुषार बाबू का लिखा संपादकीय पढ़ने को कहा नहीं।इसके बजाय वे विवेकानंद मुखोपाध्याय के दैनिक बसुमति में लिखे हर संपादकीय को मेरे लिए अनिवार्य पाठ बनाये हुए थे।


इस मुद्दे पर चर्चा से पहले यह बता दूं कि मेरठ में दैनिक जागरण में काम करते हुए जनसत्ता में मेरा नियमित आना जाना रहा है।मंगलेश डबराल को में इलाहाबाद से 1979 से जानता रहा हूं और जनसत्ता के उन लोगों को भी छात्र जीवन से जानता रहा हूं जो तब रघुवीर सहाय जी के साथ दिनमान में थे।


प्रभाष जी ने जब मुझे कोलकाता के लिए बुलाया तो अमर उजाला में सारे लोग मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने के खिलाफ थे।


जनसत्ता में काम कर चुके मेरे सहकर्मी सुनील साह ने कहा कि जोशी जी को एक बड़े ताले की तलाश है,जिस दिन मिल जायेगा,बंद कर देंगे।


देश पाल सिंह पवार ने जरुर कहा कि जनसत्ता का उपसंपादक भी दूसरे अखबारों के प्रधानसंपादक से कम नहीं होता।


एक मात्र अखबार के मालिक अशोक अग्रवाल ने मुझसे तुंरत इस्तीफा लिखवा लिया ताकि मैं लौटकर अमर उजाला न आ जाउं।



वीरेनदा मुझे जबरन कोलकाता भेजने पर उतारु थे।बोले तू जा तो सही,अच्छा न लगे तो लौटती गाड़ी से निकल आना।


मजे की बात है कि जनसत्ता के संपादकीय में मैं अपने पुराने मित्रों से कोलकाता रवानगी से पहले जब मिला तो सब यही सवाल करते रहे कि जोशी जी के कहे मुताबिक बिना नियुक्तिपत्र कोलकाता जा तो रहे हो,पछताओेगे।


जैसे सविता बाबू बिजनौर चलने की जिद में आज कह गयी कि तुम जान क्यों देते हो जनसत्ता के लिए, हो तो वही उपसंपादक और जनसत्ता से तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला।यह अलग बात है कि उनने खुद जनसत्ता छोड़ने की सोचने की भी इजाजत मुझे नहीं दी।मुझसे तब भी कोलकाता आने से पहले दिल्ली में मित्रों ने कहा कि कलकत्ता में जनसत्ता चलेगा नहीं।


रायटर के पुराने पत्रकार का घर मैंने सोदपुर के अमरावती में जिस मकान को अपना पहला डेरा बनाया,उसके बगल में है,उनने जनसत्ता में हूं,सुनते ही कहा कि टाइम्स का हिंदी अखबार कोलकाता में बंद हो गया,एक्सप्रेस का चलेगा नहीं।


पहले दिन से आज भी रोजाना कोलकाता में अफवाह उड़ती रही है कि जनसत्ता बंद हो रहा है।लेकिन जनसत्ता अब भी डंके की चोट पर चल रहा है।


एक्सप्रेस समूह के निवर्तमान सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी के प्रधानसंपादकत्व समय में कोलकाता में आते ही पहले जनसत्ता के संपादकीय विभाग को देखकर पूछा,व्हाटइज दिस।


लोगों ने बाताया कि यह जनसत्ता है तो उनने सार्वजनिक तौर पर ऐलान कर दिया कि वी हैव टू क्लोज दिस।तब से लेकर आज तक प्रभाषजी के कार्यकाल से लेकर सीईओ हैसियत से और अब एक्सप्रेस से हटने के बाद प्रभाषजी के इतंकाल के बाद भी वे जनसत्ता और प्रभाष जी के खिलाफ बोल रहे हैं।


दिल्ली में और दिल्ली से बाहर जो प्रभाष जी के महिमामंडन में आगे रहे हों,उनने कभी सीईओ शेखर गुप्ता का मुकाबला किया है या नहीं हम नहीं जानते।अब जब वे सीईओ नहीं है तो लोगों के बोल फूट रहे हैं।


भाषा के नाम पर प्रभाष जोशी के महिमामंडने के नाम पर इस तथ्य को झुठलाया जा रहा है कि तमाम भारतीय अखबारों में जनसत्ता की रीढ़ अब भी सही सलामत है और इस वजह से ही मैंने मित्रों की असहमति के बावजूद और ओम थानवी से न अपने न बनने के बावजूद प्रभाष जी के भाषा और तेवर के मामले में अनूठे योगदान के बाद भी बार बार ओम थानवी को बेहतर संपादक माना है।क्योंकि भाषा शैली हमारे लिए मुद्दा नहीं है,सामाजिक यथार्थ और उनसे टकराने का कलेजा हमारा निकष है।


अभिषेक ने ताजा अखबार की जो गलतियां गिनायी हैं,वे तकनीकी हैं और संपादकीय विभाग के किसी न किसी साथी की चूक की वजह से ऐसा हुआ होगा।इसके लिए जनसत्ता में सबकुछ गड़बड़ चला रहा है,कहना गलत होगा।


मैं जब भी अखबार का प्रभारी रहा हूं,मैेंने हमेशा अपनी उपस्थिति में ऐसी गलती की लिए अपनी जिम्मेदारी मानी है।ऐसा होता रहता है,लेकिन अखबार का मूल स्वर में जबतक परिवर्तन नहीं होता तब तक जनसत्ता के शुभेच्छुओं को चिंतित होने की जरुरत नहीं है।


बाकी अग्रेंजी वर्चस्व वाले घरानों के अखबारों में बिना अपवाद भाषायी अखबारोें को बंद कराने या दुर्गति कराने के जो भी करतब होते हैं,जनसत्ता के खिलाफ वह शुरु से होता रहा है।दस साल पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मंच से हिंदी के तमाम आदरणीयों  की उपस्थिति  मैंने यह कहा था कि हिंदीवालों को अपनी विरासत की पहचान नहीं है और हिंदी वालों को परवाह नहीं है कि जनसत्ता को जानबूझकर हाशिये पर डाला जा रहा है।


आज भी मैं वहीं वक्तव्य दोहरा रहा हूं।



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