क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं?
आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी
अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं हैं और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है।
पलाश विश्वास
अभी आज का रोजनामतचा शुरु कर रहा हूं इस यक्ष प्रश्न का सामना करते हुए जैसे कि संघ परिवार का दावा है कि भारत में रहने वाला हर कोई हिंदू है,क्या हम अपने बेशर्म आत्म समर्पण से इस दावे को ही सही साबित नहीं कर रहे हैं?
ईमानदारी से हम अपनी अपनी दिलोदिमाग में झांक लें और राजनीतिक तौर पर सही सही पादते रहने के बावजूद क्या भीतर ही भीतर हिंदुत्व की अस्मिता हमारी प्रतिबद्धता पर हावी तो नहीं हो रही है।
ईमानदारी से हम अपनी आत्मालोचना करें कि कहां कहां हमारी कथनी और करनी में फर्क है।
हिंदुत्वकरण के इस मुद्दे को हमने अपनी तमाम कहानियों का कथ्य बनाया हुआ है ।कम से कम पचास प्रकाशित कहानियों में।दोनों प्रकाशित संग्रहों अंडे सेंते लोग और ईश्वर की गलती में।हालांकि हमारी कहानियां इस काबिल भी न समझी गयीं कि कोई उसे तवज्जो दें।
हमने अस्सी के दशक में सिखों के नरसंहार और यूपी के शहरों में मंडल कमंडल दंगों में हिंदुत्व का वह वीभत्स चेहरा देखा है जो आदरणीय विभूति नारायण राय के भोगे हुए यथार्थ के तहत पीएसी के आक्रामक हिंदुत्व से कम भयावह नहीं है।
मेरठ में हमने हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार के वक्त देखा कि कैसे हिंदुत्व अचानक सर्वग्रासी हो जता है।हमने नंगा परेड के जरिये हिंदुत्व की पहचान और आक्रामक धार्मिक नारों के मध्य महीनों शहर को जलते देखा है।कर्फ्यू की रातों और सैन्य हवाले शहर देखे हैं।हवाओं में इंसानी गोश्त की बदबू और सड़ांध झेली हैं और इंसानी हड्डियों की आग में जलकर चिटखने की आवाजें भी सुनी हैं।
सर्वग्रासी हिंदुत्व का वह मंजर हमने झेला है और वही खूंखार चेहरा सर्वग्रासी हिंदुत्व का हमारे वजूद,हमारे दिलो दिमाग के विरुद्ध मुक्त बाजारी विकास के अवतार में है। वह हिंदुत्वकरण अब समरसता है।पीपीपी माडल मेकिंग इन है।
फिर हमने बिजनौर और बरेली जैसे अमन चैन के शहरों और तमाम जनपदों और गांवों तक को धू धू दंगों की आग में जलते हुए देखा है कि कैसे हिंदुत्व सर्वग्रासी हुआ जाता है और वहीं,उसी कोख में हमने नवउदारवाद को जनमते पनपते और भारत गणराज्य,लोकतंत्र,नागरिकता,संप्रभुता और भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय कृषि,भारतीय कारोबार और भारतीय उद्योग धंधों,रोजगार आजीविका,जल जंगल जमीन आसमान और समूची कायनात को निगलते हुए हुए देखा है।
हमने अमेरिका से सावधान अधूरा छोड़ा सन 2000 के आसपास लेकिन तब से अब तक लिखा मेरा सबकुछ अमेरिका से सावधान में ही समाहित है।
उसके बाद मैंने तथाकथित रचनात्मक लेखन तो किया ही नहीं है और प्रिंट मीडिया में समकालीन तीसरी दुनिया और समयांतर के सिवाय कहीं कुछ लिखा नहीं है और न कालजयी बनने की अधूरी यात्रा के लिए मुझे अफसोस है।हालांकि कुछ मित्र नेट से लेकर इधर उधर मुझे इस बीच छापते रहे हैं लेकिन मैंने रोजनामचे के सिवायअलग लिखा नहीं है और न आगे लिखने का इरादा है क्योंकि विज्ञापनों के बीचखाली जगह भरने के लिए दूसरों के मुद्दों पर लिखना मेरे लिए कतई संभव नहीं है।
अमेरिका से पुस्तकाकार छापने में भी मेरी दिलचस्पी इसलिए नहीं है कि मैं गिरदा का असल चेला हूं जो अपने समय के मुखातिब होने के अलावा कुछ भी सोचकर लिखता न था और न अपने लिखे का कोई रिकार्ड रखता था।
मेरा सरोकार समकालीन यथार्थ से टकराने का कार्यभार है,जिसके लिए मैं अपने प्रति अपने समय के मुकाबले ज्यादा जिम्मेदार हूं।
मैं अपने समय को संबोधित कर रहा हूं।भविष्य को मैं हरगिज संबोधित नहीं कर रहा हूं और भविष्य के लिए मेरे लिखे की शायद कोई प्रासंगिकता नहीं है।
आज लंबे समय के बाद अपने युवा तुर्क ,अपने बेहद प्यारे मित्र अभिषेक श्रीवास्तव से लंबी बातचीत की और उससे साफ साफ कह दिया कि अब टीम बनाने ,मोर्चा जमाने की जिम्मदारी तुम लोगों की है।मेरा कभी भी फुलस्टाप समझो।
इक्कीसवीं सदी में मैंने जो कुछ भी लिखा है,वह सारा का सारा गुगल की प्रापर्टी है,जिसे एक क्लिक से गुगल कभी भी डिलीट कर सकता है।मेरे अंत के साथ मेरे लिखे का भी नामोनिशान खत्म।
कोई रोजनामचा कहीं नहीं बचेगा और न बचाना मेरा कोई मकसद है।क्योंकि हम तो सिर्फ अपने समय के मुखातिब हैं।
अभिषेक से मैंने कहा,जब तक मेरा समय है,मैं हूं।फिरभी लड़ाई थमनी नहीं चाहिए।मेरे सीने में न सही,किसी न किसी के सीने में आग जलनी चाहिए।वह आग फिर दावानल बनाना चाहिए जो इस सीमेंट के जंगल को जलाकर खाक कर दें और फिर नये सिरे से इस कायनात में हरियाली बहाल कर दें।
अभिषेक को सुबह सुबह बहुत बुरा लगा होगा यकीनन।हम अपने साथियो की सीमाओं को जानते हुए भी उनसे जरुरत से ज्यादा अपेक्षा कर रहे है।
हमारी बुरी आदत है कि जैसे हम हमारे समय के बेहतरीन कवि और मेरे भाई नित्यानंद गायेन से कहता रहता हूं कि कविताओं के अलावा और भी लिखा करो।फिर जब वह सिलसिलेवार सेल्फी पोस्ट करता रहता है तो भयानक कोफ्त होता है कि कवि को क्या हो गया है कि वह उदयप्रकाश और नंदीअवतार कवि बन रहा है।कविताएं पोस्ट करने की जगह आत्ममुग्ध कविताएं पोस्ट कर रहा है।
उसका लिखा हर पंकित पढ़ रहा हूं और उम्मीदों के खिलाफ उसकी आत्ममुग्धता से नाराज हो रहा हूं।हो सकता है कि मेरे इस सार्वजनिक टिप्पणी पर वह मुझे अपना भाई मानने से ही इंकार कर दें लेकिन उसकी बुरी आदत छुड़ाये बिना बड़े भाई होने का मतलब तो सधता नहीं है। सारे बच्चे हमारे इस बूढापेसे चिढ़ते हैं।
गुरु गोविंद सिंह ने सिखों से कभी कहा था कि एक से सवा लाख लड़ाउं।तब से सिखों ने कभी आत्मसमर्पण नही किया है।गुरु के उन तमाम बंदों को हमारा सलाम।
अब तो लगता है कि भारत के 120 करोड़ आवाम के सर्वव्यापी हिंदुत्व के मुकाबले हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चाबंद 120 लोग भी नहीं है और इस हालात को बदलने के लिए हर एक करोड़ के हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा एक एक जनपक्षधर लड़ाके को।वाहेगुरु के बंदों ने जो मिसाल कायम की है,उससे भी बड़ी चुनौती यह है।
दरअसल हम जनमजात हिंदू है।हम न बौद्ध बन सकें है बाबासाहेब की तरह और न गुरु के पंथ को अपनाकर योद्धा बन सके हैं।
हमारी नस नस में हिंदुत्व हैं।हमारी प्रगतिशीलता और हमारी प्रतिबद्धता पर यह हिंदुत्व कितना हावी हो रहा है,यह मुद्दा समचे अस्सी और नब्वे के दशक में मुझे परेशान करता रहा है।
आज फिर उसी यक्ष प्रशन के मुकातिब नये सिरे से हूं कि कहीं हम मन ही मन अपने जाने अनजाने भारत के हिंदू राष्ट्र बनने का इंतजार तो नहीं कर रहे हैं और सिर्फ अपना धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील तमगा बचाने की कवायद तो नहीं कर रहे हैं।
वरना हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चे पर गिने चुने आवाजें तो आ भी रही हैं,लेकिन जमीन पर मुकाबले की कोई तैयारी है नहीं।
कटु सत्य यह है कि तमाम इतिहासबोध,वैज्ञानिक सोच और अत्याधुनिक तकनीक के बावजूद हम न हिंदुत्व के शिकंजे से मुक्त हो पाये हैं और न जाति व्यवस्था और वर्ण वर्चस्व के तिलिस्म को तोड़ पाने की कोई पहल कर पाये हैं।
समता,स्वतंत्रता,समाजवाद और सामाजिक न्याय के दिलफरेब नारों के बावजूद भीतर से हम वहीं हिंदू ही रह गये।
निरकुंश संघ परिवार की अशवमेधी दिग्विजयी जययात्रा की पूंजी यही है कि हम अभी जनमोर्चे में बहुसंख्य बहुजनों को खांटी हिंदुओं की तरह अस्पृश्य ही मान रहे हैं और अब भी उन्हें संबोधित करने की कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं,जो संघ परिवार अपने हिंदू साम्राज्यवाद के एजंडा के मुताबिक जरुरत के हिसाब से पल छिन पल छिन कर रहा है।
इसीकारण मैं फिर आठवें और नवें दशक के दौर में लौटते हुए यह सोचने को फिर मजबूर हो रहा हूं कि आखिर हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान में हमारी भूमिका की भी तो चीरफाड़ होनी चाहिए।
जाहिर सी बात है कि हम अपने मित्रों उदयप्रकाश, देवेंद्र,संजीव जैसे कथाकारों की तरह कथा बांचने की कला में दक्ष कभी नहीं रहे और न हम अपनी बात कहीं संप्रेषित कर पाये हैं।
अब भी यह निहायत असंभव है कि मौजूदा हालात में मेरी बात आम लोगों तक पहुंचे।
जिन तक पहुंच रही है,जो संजोगवश मेरी चिंता से सहमत या असहमत हैं,वे कृपा पूर्वक अपनी बात रखें,तो शायद इस विषय पर हम चर्चा चला सकें जो हमारे हिसाबसे बहेद महत्वपूर्ण मुद्दा है,और भारतीय जनमानस की गुलामी का स्थाईभाव भी।
क्या हम सारे लोग असल में हिंदुत्व की ही पैदल फौज में शामिल हैं?
आर्थिक मुद्दों पर मौकापरस्त चुप्पी निरंकुंश फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा बनने नहीं देगी।
मेरे पिता पुलिन बाबू की प्रतिबद्धता के मुकाबले मेरी प्रतिबद्धता पासंग भर नहीं है।बिना इलाज कराये रीढ़ में कैंसर लिये बिना आगे पीछे सोचे मरते दम सतत्तर साल की जर्जर शरीर के साथ तरोताजा दिलोदिमाग के साथ वे सिर्फ अपने लोगों के हक हकूक लिए लड़ते रहे।हम ऐसा हरगिज नहीं कर सकते।
उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए कभी संसाधनों की चिंता नहीं हुई।जरुरत पड़ी तो अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया।जबकि वे सिरफ कक्षा दो पास थे।उनकी सारी गतिविधियां जनता के लिए जनता के मध्य थी।वे हवाओं में तीरदांजी नहीं करते थे।
उनके उलट हम अभीतक सिर्फ हवाओं में कलाबाजी खा रहे हैं और जनता से कोई संवाद है ही नहीं।
हम उनसे बेहतर हालत में होते हुए भी उनके मुकाबले एक मुकम्मल जिंदगी अपने लोगों के लिए जी नहीं सकें है।हमने अपने पुरखों की हजारों साल की आजादी की लड़ाई जारी रखने कि लिए अबतक कुछ भी नहीं किया है। इस जिंदगी को न हम सेलीब्रेट कर सके हैं।
हमारे लंबे समय के साथी मुंबई के मनोज मोटगरे ने पूछा है कि हम इसका खुलासा करें कि अस्मिताओं के तिलिस्म का मतलब क्या है,हम इसका खुलासा करें।
हो सकता है कि अहिंदी भाषी अपने पाठकों को समझाने लायक भाषा अभी हम बना नहीं पाये हैं।लेकिन यह भारी नाकामी है कि हम जो लिख बोल रहे हैं,अपने सबसे काबिल मित्रों तक वह बात कहीं पहुंच ही नहीं रही है।
मनोज का आग्रह है कि हम इस पर लिखें कि हमें करना क्या चाहिए।
यह लिखने का मामला दरअसल हैं नहीं।यह संगठन का मामला है।संगठन के मंच पर ही इसपर बात की जा सकती है और हमारे पास फिलहाल न कोई संगठन है और न होने के आसार हैं।
हम मीडिया और दूसरे माध्यमों में,सार्वजनिक मचों पर सामाजिक यथार्थ को ही संबोधित कर सकते हैं।वह हम अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अपनी औकात और समझ के दायरे से बाहर जाकर करने की कोशिस यथासाध्य कर भी रहे हैं। उसमें भी हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आर्थिक मुद्दे हैं।
जिनके पास संगठन हैं वे व्यक्ति केंद्रित संगठन हैं।
संघ परिवार के राष्ट्रीय स्वयंसेवक की तरह संस्थागत कोई संगठन मुकाबले में नहीं है,जो विचारधारा और हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक नेतृत्व बनाता है और नाकाम नेतृत्व को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकता है।
संघ परिवार के मिशन के लिए व्यक्ति कतई महत्वपूर्ण नहीं है।संगठन के चेहरे भी उसके कभी सार्वजनिक होते नहीं हैं।व्यक्ति को तवज्जो वह निश्चित रणनीति के तहत देता है और मकसद हासिल करते ही उसे फिर परदे में बिठा देता है।
यही संघ की अपराजेय बढ़त का असली राज है कि वह अपने मिशन के लिए कुछ भी कर सकता है,जो हम कर ही नहीं सकते।कुछ भी नहीं कर सकते दरअसल फासीवाद के खिलाफ वातानुकूलित नारेबाजी या कुछ खास इलाकों में मामूली हलचल मचाने के अलावा।पूरी की पूरी 120 करोड़ की आबादी को संबोधित करने की हमारी कोई योजना नहीं है।उनकी है और वे उसे बखूब अमल में ला रहे हैं।हम सिर्फ तमाशबीन हैं।
मेरी समझ से एक उदाहरण काफी है,संघ परिवार के कैडरबेस के मुकाबले जिनके कैडरबेस की चर्चा सबसे ज्यादा होती है,उन वामपंथियों के संगठनों में भी जाति और वर्ण वर्चस्व नंगा सच है।
हालत यह है कि कामरेड महासचिव की पत्नी अगले महासचिव बनने की सबसे बड़े इने गिने दावेदारों में हैं।
बहुजन बामसेफ को कैडरबेस कहने से अघाते नहीं है,धन वसूली, मसीहा निर्माण और भयादोहन के अलावा उस कैडर बेस का इस्तेमाल अभी हुआ नहीं है।
उस बामसेफ को भी चुनावी राजनीति में स्वाहा कर दिया है मसीहा संप्रदाय ने और बहुजन तकते रहे गये संगठन के नाम अपना सबकुछन्योच्छावर करके लुटे पिटे।
हम कैसे इस फासीवादी उभार का मुकाबला करें कि भारत में फासीवादी मुक्तबाजारी राष्ट्रद्रोही धर्मोन्मादी सत्ता की असली शक्ति संस्थागत संगठन है और उसके मुकाबले हमारा कोई संस्थागत संगठन हैइच नहीं।विचारधारा काफी नहीं होती,विचारधारा को अमल में लाने के लिए संघ परिवार की तरह,जिन देशों में क्रांति हुई हैं,वहां की तरह राष्ट्रीय संगठन,संस्थागत लोकतांत्रिक संगठन कोई हमारे पास नहीं है। और न हम अपना वजूद किसी संगठन में समाहित करने को तैयार हैं।विचारधारा के लिए भी नहीं।
आप राय दें जरुर।आपकी राय का इंतजार है।
ताजा स्टेटसः फिलहाल कोई जवाब लेकिन आया नहीं है,हमें इस सन्नाटा के टूटने का इंतजार है।