क्या बाहैसियत पूरबिया,पूर्वोत्तरी गैरनस्ली बंगाली हम हिंदू नही है या मोदी का हिंदुत्व सिर्फ फरेबहै?
बंगविजय का एजंडा मोदी की,संघ परिवार की सर्वोच्च प्राथमिकता है और बंगाली हिंदुओं को शरणार्थी बताकर अहिंदुओ को देश निकालने के अल्टीमेटम बजरिये बंगाल में धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण केसरिया राजनीति है ।जबकि हकीकत यह है कि गैरनस्ली बंगालियों को ही नहीं,पूरब के बिहार ओड़ीशा,दंडकारण्य,सारे पूर्वोत्तर के लोगों और देवभूमि हिमालय के वाशिंदों के साथ रंगभेदी भेदभाव का हिंदू राष्ट्र बना रहा है संघ परिवार।
नए नियम के अनुसार 31 दिसंबर 2009 से पहले भारत में आए पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक देश में नागरिकता के लिए ऑनलाइन की जगह हाथ से लिखे आवेदन भी दे सकते हैं।
तो 1947 के बाद आये भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को चुनाव पूर्व मोदी के वायदे के बावजूद नागरिकता क्यों नहीं?
पलाश विश्वास
बंगविजय का एजंडा मोदी की,संघ परिवार की सर्वोच्च प्राथमिकता है और बंगाली हिंदुओं को शरणार्थी बताकर अहिंदुओं को देश निकालने के अल्टीमेटम बजरिये बंगाल में धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण केसरिया कारपोरेट राजनीति है ।
जबकि हकीकत यह है कि गैरनस्ली बंगालियों को ही नहीं,पूरब के बिहार ओड़ीशा,दंडकारण्य,सारे पूर्वोत्तर के लोगों और देवभूमि हिमालय के वाशिंदों के साथ रंगभेदी भेदभाव का हिंदू राष्ट्र बना रहा है संघ परिवार।
ভারত ভাগের বলি পূর্ব বাংলার শরণার্থিরা কি হিন্দু নয়?
পাকিস্তান আফগানিস্তান থেকে যারা পাঁচ বছর আগেও এসেছেন সেই হিন্দু ও শিখদের নাগরিকত্ব,আর বাংলাভাষী মানেই বাংলাদেশি,অনুপ্রবেশকারি?
মোদ্দাকথা বুঝতে হলে,স্বাধীনতার আগের ইতিহাসে ও ভারতভাগের প্রেক্ষাপটে ফিরে যেতে হয়,বাংলা শুধু নয়,অসম সহ পুর্বোত্তর ভারত,বিহার , উড়ীষ্যা সহ গোটা এই অনার্য বিজাতীয় ভূগোলের বিরুদ্ধে বৈষম্য ও বন্চনার ইতিহাসে হিন্দু মুসলমান নির্বিশেষ সমস্ত জনগণই দিল্লীর একচেটিয়া ক্ষমতাদখলকারি আর্য হিন্দুদের গণসংহারের নিশানায়।
1947 के भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के शरणार्थी विदेसी घुसपैठिया और उनको देश निकाले का फतवा फिर भी गनीमत है कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार ने पाकिस्तान से आने वाले हिंदू और सिख शरणार्थियों की लंबे समय से चली आ रही मांग को मानते हुए उन्हें यहां की नागरिकता पाने के नियम में कई राहत देने की घोषणा की है। यह सुविधा पाकिस्तान के अलावा अफगानिस्तान के भी लोगों को समान रूप से मिलेगी। होम मिनिस्टर राजनाथ सिंह ने गुरुवार को इस पर अपनी मंजूरी दी।
नए नियम के अनुसार 31 दिसंबर 2009 से पहले भारत में आए पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक देश में नागरिकता के लिए ऑनलाइन की जगह हाथ से लिखे आवेदन भी दे सकते हैं।ये अब अपने आवेदन पासपोर्ट के साथ दे सकते हैं। गृह मंत्रालय की ओर से जारी बयान के अनुसार, "ऑनलाइन आवेदन जमा करने में दिक्कतों का सामना कर रहे योग्य आवेदक अपने आवेदन अपने पासपोर्ट के साथ सामान्य तरीके से दे सकते हैं।"
बयान के अनुसार, "आवेदक का दीर्घ अवधि वीजा (एलटीवी) हालांकि जिलाधिकारी, कलेक्टर और उपायुक्त कार्यालय में आवेदन जमा किए जाने तक वैध रहना चाहिए।" कहा गया है कि नागरिकता नियम 2009 के नियम 38 के तहत संबंधित अधिकारियों के सामने दायर की गए हलफनामे पर प्रमाणपत्र की अस्वीकृति के बदले में विचार किया जाएगा।
इसमें यह भी कहा गया है कि माता-पिता के पासपोर्ट पर भारत आए अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे नागरिकता के लिए आवेदन भारत में उनके निवास के नियमित होने पर दे सकते हैं। बयान के अनुसार, "भारत में जन्म लेने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे भारत में उनके रिहायश के नियमित होने जाने पर बिना पासपोर्ट के नागरिकता के लिए आवेदन दे सकते हैं। इन बच्चों को संबंधित जिलों में नियमन के लिए विदेशी पंजीयन कार्यालय (एफआरओ) में पंजीयन कराना होगा।"
तो 1947 के बाद आये भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को चुनाव पूर्व मोदी के वायदे के बावजूद नागरिकता क्यों नहीं?
ध्वनि ही मेरे अस्तित्व की गूंज अनुगूंज बनाती है।वह गूंज अनुगूंज इस कायनात में हमनस्लहमशक्ल इंसानों के दिलोदिमाग में रच बसकर इंसानियत और कायनात की बेहतरी और खासतौर पर दुनियाभर मजहब नस्ल कौम वतन के दायरे तोड़कर इंसानियत और कायनात के हक हकूक का कोई काम करें,यशी तमन्ने का मतलब मेरा जीना मेरा मरना है।
इसी लिहाज से मुझे हर वक्त शब्दों के जरिये उन ध्वनियों को आकार देने की कसरत करनी होती है।
जबतक ध्वनियों से लैस इंसानियत और कायनात के हक में मजबूती से मोरचाबंद हो पाते हैं मेरे लफ्ज,मैं जिंदा हूं वरना समझो कि मेरा इंतकाल हो गया।फिर किसी खोज खबर की जरुरत है नहीं।
इस बदतमीजी के लिए इंसानियत और कायनाते के दुश्मनों की नजर में मेरा वजूद शायद खतरनाक भी हो और इसी लिए मुझे न सही मेरे लफ्जों की हत्या की हर मुमकिन कोशिशें होनी हैं बशर्ते कि उसमें लड़ने और ङालात बदलने का ,फिजां में बहारों का अंजाम देने का दम हो।
माटी से जनमा हूं।जनम से जन्मजात हिंदू हूं,अस्पृश्यहूं और शरणार्थी परिवार से हूं।जनम से मेरे लिए भारत विभाजन का सिलसिला और वही खूनखराबा, वही जलजला वतननिकाला का अब भी जारी है।
यह हादसा मेरी जिंदगी का सच है।हकीकत का मुकम्मल मंजर।
इस महादेश के चप्पे चप्पे में वतन दर वतन जो कातिलों की जम्हूरियत का फसाना है,हकीकत का यह लहूलुहान मंजर वहां उस हादसे के शिकार लोगों का अफसाना है।
इसे वही समझ सकता है,जिनके जख्मों से अभी रिसता है खून।
हमने बार बार काश्मीर के अलगाववादियों से बातचीत करने की कोशिश की।वे बात करने को तैयार नहीं हैं।
उनका कहना है कि पहले आप काश्मीर के भारत में विलय का विरोध करो और काश्मीर की आजादी के सवाल उठाओ,तब बात होगी वरना नहीं।
काश्मीर मसले को सुलझाने में भारत राष्ट्र की सत्ता और राजनीति के सरदर्द का सबब भी यही है,जिसे काश्मीर के चप्पे चप्पे में फौजी हुकूमत के जरिये शायद हम हल नहीं कर सकते।
हमने पूर्वोत्तर भारत में कई बार यात्राएं कीं।
अपने मित्र जोशी जोजफ की फीचर फिल्म इमेजिनेरी लाइंस के बाहैसियत संवाद लेखक शूटिंग के लिए कोहिमा से बस तीन किमी दूर मणिपुर के सेनापति जिले के मरम वैली के नागा गांव में डेरा डाला जहां नागा लोग अपने ही गांव को स्वदेश मानते हैं और बाकी देश दुनिया उनके लिए विदेश है।
मणिपुर, गुवाहाटी,आगरतला से लेकर पूर्वोत्तर के संवेदनशील इलाकों में बाहैसियत एक सामाजिक कार्यकर्ता और प्रोफ्सनल पत्रकार हमने उन तत्वों से संवाद करने की कोशिश की जिनका युद्ध भारत राष्ट्र के खिलाफ जारी है।
वे कहते हैं कि भारत की सत्ता हेजेमनी पूर्वोत्तर के लोगों को भारत का नागरिक मानती नहीं है,दोयम दर्जे की गैरनस्ली प्रजा मानती है।गुलाम मानती है और फौजी ताकत के जरिये हमें भारत में बनाये रखना चाहती है।
खालिस्तान आंदोलन अभी मरा नहीं है।
भारत में उस आंदोलन का दमन हो गया है।
जिन विकसित देशों के साथ सैन्यगठबंधन के जरिये विदेशी पूंजी के हितों में भारत सरकार ने अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध जारी रखा है सलवाजुड़ुम आफसा संस्कृति के तहत,उन्ही राष्ट्रों में बेखौफ भारत विरोधी हरकतें जारी रखे हुए हैं।
आतंक के खिलाफ ग्लोबल अमेरिकी युद्ध के सर्वोच्च सिपाहसालार अमेरिकी अश्वेत राष्ट्रपति बाराक हुसैन ओबामा की नाक के नीचे और शायद उन्हीके संरक्षण में जारी हैं भारत विरोधी खातिलाना गतिविधियां।
और सारी साजिशें वाशिंगटन में ही रची जाकती हैं और वहीं से उन्हें अंजाम दिया जाता है।लेकिन उसके खिलाफ सबकुछ जानबूझकर गुलाम सरकारें खामोश रही हैं और आस पड़ोस में युद्ध छायायुद्ध के खेल में अमेरिका और इजराइल के साथ रक्षा सौदों का कमीशन खाती रही हैं।खा भी रही हैं।खाती रहेंगी अनंतकाल।यही राष्ट्रीय सुरक्षा का स्थाई बंदोबस्त है मस्त धर्मोन्मादी।बरोबर।बरोबर।
विदेशों में सिख अब भी मास्टर तारा सिंह की आवाज बुलंद कर रहे हैं कि बंटवारे में हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला,मुसलमान को पाकिस्तान मिला,सिखों को क्या मिला।
वे सिखों को अलग कौम मानते हैं और मानते हैं कि भारत में सिखों का दमन हो रहा है और यह भी मानते हैं कि मनुस्मृति शासन और हिंदू राष्ट्र के दारक वाहकों के साथ मिलकर सिखों की मौजूदा राजनीति सिखों की शहादत की विरासत के साथ गद्दारी कर रही है। वे खालिस्तान का ख्वाब पूरा करने के लिए रोज नई स्कीमें बना रहे हैं और भारत सरकार और उसकी खुफिया एजंसियों को इसकी जानकारी होनी ही चाहिए।
हमें तामिलनाडु और तामिलनाडु के बाहर द्रविड़नाडु के झंडेवरदारों से भी संवाद करते रहने का मौका मिलता रहता है जो पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन के तहत नई दिल्ली के आर्य प्रभुत्व को तोड़ने का सपना पालते हैं।
यह हकीकत है।इसे छुपाने से देश की एकता अखंडता बचेगी नहीं।
हमें, इस देश के नागरिकों को इस हकीकत के बारे में पता होना चाहिए ताकि लोगों के गिले शिकवे तकलीफों का ख्याल करते हुए अनसुलझे मसलों को हल करके हम इस देश की एकता और अखंडता की रक्षा कर सकें।
हमें माफ कीजियेगा।
पाकिस्तान के हिस्से में जो बांग्लाभाषी भूगोल काटकर फेंक दिया गया दिल्ली में सत्ता हस्तांतरण के बाद पंजाब के विभाजन के साथ साथ,सबसे मलिटेंट दो कौमों की सत्ता हासिल करने की संभावना को सिरे से काटकर,वह हिस्सा पाकिस्तान में बहुत दिनों तक नहीं रहा।
गौरतलब है कि भारत के हिस्से में आये टुकड़ा टुकड़ा बंगाली भूगोल ने फिलवक्त तक अलग देश की मांग उठायी नहीं है।जबकि गैरनस्ली इन बंगालियों को भारत की सरकार और राजनीति बाकायदा भारत का नागरिक भी मानने से इंकार करते हुए उनके थोक देश निकाले के इंतजाम में लगी हुई हैं।
गौरतलब है कि बांग्ला राष्ट्रीयता के झंड तले इस्लामी राष्ट्रवाद को खारिज करते हुए उस बांग्ला भूगोल ने भारतीय सेना और भारत सरकार की मदद से आजादी हासिल कर ली 1971 में।
अभूतपूर्व खून खराबा बलात्कार के दस दिगंतव्यापी उत्सव के मध्य मातृभाषा के नाम दी गयी लाखों शहादतों का नाम है बांग्लादेश,जो अब भी आस पड़ोस में भारत का एकमात्र मित्रदेश है।
जहां की सरकार भारत मित्र है,विपक्ष का उसपर यह महाभियोग है।इसी के केंद्रित चल रही है वहां तख्तापलट की तमाम साजिशें,जो भारत को मालूम है।
उनको आजादी मिल गयी लेकिन उनकी आजादी की कीमत पर भारत विभाजन के शिकार पूर्वीबंगाल के शरणार्थियों से वसूल कर रहा है संघ परिवार।
वे हिंदू शरणार्थी, जो नोआखाली दंगों के अविराम हादसों के कारण राष्ट्रनेताओ को उनको भारत में कभी भी कैसे भी चले आने के खुले आह्वान के बाद 1947 के बाद भारत चले आये,भारत विभाजन के शिकार पूर्वीबंगाल के उन शरणार्थियों से वसूल कर रहा है संघ परिवार।
भारत सरकार की ओर से देशभर के जंगलों,आदिवासी इलाकों में,दंडकारम्यऔर अंडमान द्वीपसमूह में भी पुनर्वास कालोनियों में बसाये भारत विभाजन के बलि उन पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को बांग्लादेश की आजादी की कीमत चुकानी पड़ रही है।
पीढ़ियों से भरत में रहने वाले जनमजात ये भारतीय नागरिक हिंदुत्व के स्वयंभू झंडेवरदार संघ परिवार के निशाने पर हैं ।
संघ परिवार की सरकार ने 2003 में 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन करके प्रवासी भारतीयों को दोहरी नागरिकता का खुल्ला खजाना देने के बहाने हमें भारत की नागरिकता से बेदखल कर दिया।
तब बंगाल के सत्तातबके की राजनीति की सर्वदलीय सहमति से वह कानून अभी संसद में पेश हुआ भी नहीं था और पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वहां सत्ता पर काबिज उत्तराखंड की पहली भाजपाई सरकार ने वहां 1950 से बसे पुनर्वासित बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भारतीय नागरिक बनने सेइंकार कर दिया गया।स्थाई निवासी प्रमाणपत्र में जो नागरिकता का कालम था,उसमें लिख दिया गया कि भारतीय नागरिक नहीं है।
गौरतलब है कि इसके खिलाफ बंगारी शरणार्थियों के हक में उत्तराखंड में जबर्दस्त आंदोलन सभी समुदायों और गैरभाजपा राजनीति ने किया तो स्थाई निवास प्रमाणपत्र का वह विवादास्पद कालम ही हटा दिया गया लेकिन बंगालियों की नागरिकता का मामला लंबित है।जिसे इसबार संघ परिवार सत्ता में आकर निपटायेगी यकीनन।
इसीलिए बजरंगी ब्रिगेड के कारिंदे रोज रोज दिनेशपुर में मेरे पिता पुलिन बाबू की मूर्ति तोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं,ताकि बंगाली इलाकों से बंगालियों को बेदखल किया जा सकें।
तभी से उत्तर प्रदेश के हर जिले में बसे बंगाली शरमार्तियों को मूलनिवासी सर्टिफिकेट दिया नहीं जा रहा है और उनको नौकरी चाकरी मिल नहीं रही है।
तभी से ओड़ीशा में लगातार वहां हर जिले में बसाये गये बंगाली हिंदू शरमार्तियों को देश निकाला का हुक्म फतवा जारी हुआ है क्योंकि उनको जिस जमीन पर बसायी गयी है वे आदिवासी इलाकों में हैं।
और उस बेशकीमती जमीन से आदिवासियों की तरह शरणार्थियों को जल जमीन जंगल से बेदखल किये बिना मुकम्मल कारपोरेट राज कायम हो नहीं सकता,अबाध पूंजी के लिए प्रकृति और पर्यावरण के महाविध्वंस का महोत्सव हो नहीं सकता।
तब कोई डा. मनमोहन सिंह राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे जिन्होंने एकमात्र आवाज उठायी थी कि पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देनी होगी।
किसी बंगाली राजनीतिक नेता ने नहीं,जिनने भाजपाइयों को उनके कारपोरेट केसरिया एजंडा को अंजाम देने में शुरु से लेकर अबतक पूरी मदद देने का पुण्यकर्म किया है।
गौरतलब है कि जिस संसदीय समिति ने बिना किसी जनसुनवाई इस जनविरोधी विधेयक को संसद में पेश करने की अनुमति दी,उसके चेयरमैन तब कांग्रेस के बड़े नेता और अब मननीय महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी थे।
वह कानून सविधान के फ्रेम वर्क से बाहर मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीयकानून का उल्लंघन करते हुए,पुराने बिन बदले संवैधानिक प्रावधानों,राष्ट्रनेताओं के वायदों का ,भारत सरकार के अपने ही फैसलों का निर्मम उल्लंघन करते हुए शंग परिवार के कारपोरेटकेसरिया एजंडा के तहत पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता के मसले को सुलझाये बिना बिना बहस पास हो गया।
फिर इस नागरिकता संशोधन के खिलाफ में खड़े होने वाले डा. मनमोहन सिंह भारत प्रधानमंत्री रहे,जो संजोग से खुद शरणार्थी हैं और भारत विभाजन के शिकार भी।
उनने भी 2005 साल के संशोधन के जरिये संघी प्रावधानों को ही मजबूत किया।
मजे की बात तो यह है कि नागरिकता संशोधन के जरिये पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों को नागरिकता से बेदखल करने की मुहिम के पितृपुरुष वही लौह पुरुष हैं जो बाबरी विध्वंस आंदोलन के सर्वेसर्वा लालकृष्ण आडवानी जी है और जो सिंध से आने वाले खुद भारत विभाजन के शिकार हिंदू शरणार्थी हैं।
गौरतलब है कि जो नमो महाराज के ग्लोबल उत्थान और कारपोरेट बंदोबस्त के हिसाब से अनफिट होने की वजह से पुरातन अटल ब्रिगेड के साथ सुधारों के ही इंताजामत के ग्लोबल हिंदुत्व के जायनी इंतजाम के तहत प्रधानमंत्री बनते बनते रह गये।
हमें उनकी व्यथा कथा से पूरी सहानुभूति है।जैस उनने बाकी देश के साथ किया,उससे बड़ा अन्याय हालांकि शंगियों ने उनके साथ अभीतक नहीं किया है।
खास बात यही है कि पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता की माग संसद में उठाने वाले एकमात्र शरणार्थी सांसद,उन डा. मनमोहन सिंह ने लालकृष्ण आडवाणी के नक्शेकदम पर चलते हुे 2005 में फिर नागरिकता संसोदन कानून पास किया और उसमें भी उनने अपनी ही पुरानी मांग पर कतई गौर नहीं किया।संघी नक्शेकदम पर चले वे।
और उनके जनसंहारी राजकाज के सुधार अश्वमेध के दौरान माननीय प्रणवमुखर्जी की अगुवाई में देश भर में बंगाली शरणार्थियों को ही नहीं,बल्कि बंगाल से बाहर बसने वाले और रोजगार के लिए बंगाल से बाहर जाने वाले पश्चिम बंगाल निवासियों को भी बांग्ला में बोलते ही बांग्लादेशी करार देकर सीमापार डिपोर्ट करने का अभियान जोर शोर से चला।चल रहा है।चलता रहेगा।
जैसे भारत में बंगाल के बाहर बांग्ला में बोलना अपराधकर्म हो ,राष्ट्रद्रोह हो।
अब सत्ता हस्तांतरणके बाद वह सिलसिला मोदी के चुनावी वायदों में हिंदुओं को नागरिकता देने के ख्याली पुलाव के बावजूद तेज हो गया है।
हिंदुत्व के फरेब का असली चेहरा बेपर्दा हो रहा है जो जितना हिंदुओं के खिलाप है,उतना ही मुसलमानों और दूसरे तमाम धर्मों के खिलाफ है और जिसका देश दरअसल अमेरिका है या इजराइल।
यही नहीं,पश्चिम बंगाल में भी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान सत्ता समीकरण में विपक्ष में वोट डालने वालों को चुन चुनकर सत्ता की राजनीति ने उनकी नागरिकता खत्म करने की पुरजोर मुहिम चलायी और लाखों लोगों के नाम न केवल वोटर लिस्ट से काट दिये गये बल्कि हर जिले के डीएम ने ऐले संदिग्ध बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराये ।
उनमें से ज्यादातर लोग गिरफ्तारी के डर से इधर उधर हो गये हैं और जो बाकी भाग नहीं पाये,वे धर लिये गये और कहीं सैकड़ों तो कही हजारों की तादाद में बंगाल के हर जिले में जेल में सड़ रहे हैं और उन्हें जेल में रखने की भी अब जगह नहीं है।
विडंबना यह भी कि भारत के कानून और न्याय के मुताबिक सालों से उन्हें अभीतक अदालत में पेश करके अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने का मौका नहीं दिया गया।राजनीति कि दृ्ष्टि से बंगाल में उनकी हैसियत पक्ष विपक्ष के शत्रु या मित्र है।
हालांकि वे लोग फिर भी बेहतर हैं कि जेल में हैं और अभी विदेशी साबित नहीं किये जा सके हैं।कम से कम उनका देश निकाला अभी हुआ नही है,जैसे कि बंगाल से बाहर ।
गौरतलब है कि वे सारे लोग मुसलमान नहीं हैं और ज्यादातर हिंदू हैं,जिन्हें शरणार्थी बताते हुए अघाती नहीं है भाजपा।
मजे की बात यह भी है कि भाजपा के इस दावे से गदगद निखिल भारत शारणार्थी आंदोलन करने वाले नेता कार्यकर्ता अपने साइट में सोशल मीडिया में संघ परिवार की गोद में बैठे अपनी तस्वीरें पोस्ट करने से फूले नहीं समाते।अपना वोटबैंक संघ परिवार के हवाले सौंपकर मुसलमान असुरक्षित सौदेबाज नेताओं की तरह बंगाली शरणार्थी नेता भी संघ परिवार के जनसंहारी एजंडा से अपने लोगों को बचा लेगे,ऐसे आसार कतई नहीं है।
পাকিস্তান আফগানিস্তান থেকে যারা পাঁচ বছর আগেও এসেছেন সেই হিন্দু ও শিখদের নাগরিকত্ব,আর বাংলাভাষী মানেই বাংলাদেশি,অনুপ্রবেশকারি?
মোদ্দাকথা বুঝতে হলে,স্বাধীনতার আগের ইতিহাসে ও ভারতভাগের প্রেক্ষাপটে ফিরে যেতে হয়,বাংলা শুধু নয়,অসম সহ পুর্বোত্তর ভারত,বিহার , উড়ীষ্যা সহ গোটা এই অনার্য বিজাতীয় ভূগোলের বিরুদ্ধে বৈষম্য ও বন্চনার ইতিহাসে হিন্দু মুসলমান নির্বিশেষ সমস্ত জনগণই দিল্লীর একচেটিয়া ক্ষমতাদখলকারি আর্য হিন্দুদের গণসংহারের নিশানায়।
পলাশ বিশ্বাস
হিন্দুত্বের ধুয়ো তুলে লোকসভা ভোটে মতুয়া ও উদ্বাস্তুদের ভোট দখল করে বিজেপি দু দুটো আসন জিতেছিল,ইতিহাস।
হিন্দুত্বের দোহাই দিয়ে ধর্মান্ধ মেরুকরণের হাই ওয়ে হয়ে বিজেপির নীল নক্শা এখন বাংলা দখলের।দলে দলে দল মত নির্বিশেষ বাঙালি এখন গৌরিক পতাকা হাতে বিজেপির ছাদনাতলায়।
আবার বাংলা ভারত ভাগের ইতিহাসের মুখোমুখি।
বাংলা এবং বাঙালির মনে নেই,ভারত ভাগে যেমন ভাগ হয়েছিল বাংলা তেমনিই ভাগ হয়েছিল পান্জাব।
যুদ্ধ স্তরে শিখ ও পান্জাবিদের পুনর্বাসন শেষ হল,ক্ষতিপুরণ মিলল জনে জনে,উদ্বাস্ত হয়ে ভারতে সীমানায় ঢোকা মাত্রেই তাঁরা ভারতের নাগরিকত্ব,অথচ সন সাতচল্লিশের সমস্ত বাঙালি উদ্বাস্তুদের পুনর্বাসন হল না।
তাঁরা বাংলায় ও বাংলার বাইরে বেনাগরিক দিনমজুর বস্তিবাসী।
নামকা ওযাস্তে ট্রান্জিট ক্যাম্পে ডোল দিয়ে পচিয়ে রাখার পর যত্রকিন্চিত ছড়িয়ে দিয়ে সারা দেশে আদিবাসীবহুল জঙ্গল এলাকায় আন্দামান থেকে উত্তরাখন্ড,দন্ডকারণ্য থেকে দক্ষিন ভারতে যাদের পুনর্বাসন দেওয়া হল, তাঁদের অধিকাংশকে নাগরিকত্ব দেওয়া হয়নি।
তাঁরা সংরক্ষণ বন্চিত,রাজনৈতিক প্রতিনিধিত্ব বন্চিত এবং মাতৃভাষা শিক্ষার ও তাঁদের অধিকার নেই।
তাঁরা ক্ষতিপুরণ পাননি কস্মিনকালে।
আজ জমি অতিশয় মহার্ঘ্য।
আদিবাসীদের যেমন বেদখল করা হচ্ছে জল জমি জঙ্গল থেকে,তেমনি উদ্বাস্তু এলাকার জমি কয়েক দশক পরে অতি মহার্ঘ্য।
সেই জমি দখলের লক্ষ্যে নূতন নাগরিকত্বা সংশোধনী,যার ঔচিত্য
নিয়ে মাননীয় ড. অশোক মিত্রকে পর্যন্তকলম ধরতে হল।
বিজেপি ঔ আইন প্রণয়ন করে সবার আগে উত্তরাখন্ডে 1950 সাল থেকে পুন্রবাসিত উদ্বাস্তুদের বেনাগরিক ঘোষণা করে।উড়ীষ্যায় নোয়াখানি দাঙ্গার শিকার উদ্বাস্তুদেরও বিদেশি বলে চিন্হিত করা হয়েছে।উত্তরপ্রদেশে চাকরির জন্য অনিবার্য মুলনিবাসী সার্টিপিকেট কোনো বাঙালিকে দেওয়া হচ্ছেনা।দিল্লী ও মুম্বাইয়ে বাংলায় কথা বললেই বাংলাদেশি।
বাংলার সমর্থনে সে যাত্রায় উত্তরাখন্ডে উদ্বাস্তু বিতাড়ন ঠেকানো গেলেও সারা ভারতবর্ষে বিতাড়ন অভিযান,এমনকি এই পশ্চিম বঙ্গেও থেমে থেমে চলছে।
মোদী মহারাজ খুল্লমখুল্লা বলেছিলে যে যারা সাতচল্লিশের পর এসেছেন,বাক্স প্যাঁটরা গুছিয়ে রাখুন,ইলেক্শানের পরে তাঁদের বাংলাদেশে ফেরত পাঠানো হবে।পরে তিনি ঘোষণা করেন যে হিন্দু উদ্বাস্তুরা শরণার্থী এবং মুসলমানেরা অনুপ্রবেশকারি।
বিজেপি লাগাতার প্রচার চালিয়ে যাচ্ছে,যে হিন্দু উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্ব দেওয়া হবে।
আবার নাগরিকত্ব সংশোধনী আনছে বিজেপি।
নূতন আইনে পাঁচ বছর আগেও পাকিস্তান ও আফগানিস্তান থেকে যে শিখ ও হিন্দুরা ভারতে বসবাস করছেন তাঁদের ঢালাও নাগরিকত্ব দেওয়া হচ্ছে।
কিন্তু পূর্ব বাংলা থেকে আগত ভারত বিভাজনের বলি হিন্দুদের জন্য় এই আইনে নগরিকত্বের ব্যাবস্থা নেই।
একই ভাবে পশ্চিমবঙ্গে মতুয়াদের নাগরিকত্ব নিয়ে ফের সংশয়ের সৃষ্টি হয়েছে। কেন্দ্র সরকার নাগরিকত্ব বিল সংশোধন করতে যাওয়ায় এই সংশয় স্পষ্ট হয়েছে। সংসদের আগামী অধিবেশনে একটি সংশোধনী বিল পেশ করতে চলেছে বিজেপি নেতৃত্বাধীন নরেন্দ্র মোদি সরকার। কিন্তু প্রস্তাবিত খসড়া বিলে এদেশে বসবাসকারী বাংলাদেশি উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্ব দেয়ার কোনো বার্তা নেই তাতে।
ঐ খসড়া বিলকেই আইন করার গ্রীন সিগন্যাল দিয়ে দিয়েছেন স্বরাষ্ট্র মন্ত্রী রাজনাথ সিংহ এবং বলা বাহুল্য বিজেপির কথা মত বাঙালি হিন্দু শরণারথীদের নাগরিকত্ব দেওয়া এবং মুম্বাই থেকে উড়িয়ে এনে বাবুল সুপ্রিয়কে মন্ত্রী করে বাঙালির মাথায় কাঁঠাল ভাঙ্গা এক কথা নয়।
প্রসঙ্গতঃ ভোটব্যান্কের নিরিখেই বাঙালি হিন্দুদের নাগরিকত্বের প্রশ্ন বিবেচনা করা বাঙালিদের অভ্যাস যেহেতু বাঙালিরা রাজনীতি ছাড়া কিছুই বোঝে না আজকাল।তাই বীর বিক্রমে বলা হচ্ছে, উত্তর ২৪ পরগণা, দক্ষিণ ২৪ পরগণা, নদিয়া, হাওড়া, হুগলি, বর্ধমান এবং কোলকাতায় বসবাসকারী নাগরিকত্বহীন মানুষদের বড় অংশই মতুয়া সম্প্রদায়ভুক্ত। সব রাজনৈতিক দলই এই মতুয়াদের সমর্থন পেতে জোরালো প্রচেষ্টা শুরু করেছে।
সামনেই বনগাঁ লোকসভা কেন্দ্রের উপনির্বাচন। এই কেন্দ্রের অন্তর্গত ৭টি বিধানসভা ক্ষেত্রই তপশিলি জাতির জন্য সংরক্ষিত। উপনির্বাচনে জয় পরাজয় অনেকটাই নির্ভর করবে মতুয়া ভোটের উপরই।
গত লোকসভা ভোটের প্রচারে নরেন্দ্র মোদি বাংলাদেশি অনুপ্রবেশকারীদের বিরুদ্ধে কঠোর মনোভাব নিয়েছিলেন। তিনি অনুপ্রবেশকারীদের পোটলা-পুটলি বেঁধে দেশ ছাড়ার জন্য তৈরি থাকার হুঁশিয়ারি দিয়েছিলেন। পরে অবশ্য মতুয়া ভোটের কথা মাথায় রেখে খানিকটা বদলে যান তিনি।
নরেন্দ্র মোদি পরবর্তীতে ঘোষণা করেছিলেন, 'মতুয়ারা ভারতমাতার নামে স্লোগান দেন। তা সত্ত্বেওও তাদের অনেকেই আজও ভোটাধিকার পান নি কেন? আমরা ক্ষমতায় এলে মতুয়াদের নাগরিকত্ব দেয়ার ব্যবস্থা করব। অন্য দলগুলো এদের নিয়ে শুধু রাজনীতিই করে।'
পশ্চিমবঙ্গের বিজেপি'র একমাত্র বিধায়ক শমিক ভট্টাচার্যও দাবি করেছেন, একমাত্র বিজেপিই পারে উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্ব দিতে। কেন্দ্রীয় বিজেপি নেতা সিদ্ধার্থ নাথ সিং বলেছেন, উদ্বাস্তুদের জন্য মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের সরকার কিছুই করছে না।
বনগাঁর প্রয়াত এমপি কপিলকৃষ্ণ ঠাকুর অবশ্য মোদির বক্তব্যকে সেই সময় নস্যাৎ করে ঠাকুর বাড়িতে সাংবাদিক সম্মেলন করে বলেছিলেন, 'নরেন্দ্র মোদি 'মতুয়া'শব্দের অর্থই জানেন না। উনি কাকাতুয়ার মত শেখান বুলি আওড়াচ্ছেন। মোদি যে উক্তি করেছেন, আমি তার তীব্র প্রতিবাদ করছি। উনি ভোটে চমক সৃষ্টি করার জন্যই এসব কথা বলছেন।'
কপিল বাবু আরো বলেছিলেন, 'এতদিন এসব কথা বলেননি কেন মোদি? মতুয়াদের সম্পর্কে উনি কিচ্ছু জানেন না। কি কাজ করবেন উনি, এসবের মানেটা কী? কথাটা ভেক।'
হিন্দু উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্বের দাবিতে দীর্ঘদিন আন্দোলন করে চলেছে বাংলাদেশ উদ্বাস্তু উন্নয়ন সংসদ। ওই সংগঠনের প্রেসিডেন্ট বিমল মজুমদারের অভিযোগ, 'বিজেপি কোনো দিনই আমাদের জন্য কিছু করবে না। আগের বিজপি নেতৃত্বাধীন এনডিএ সরকারই আইন করে আমাদের নাগরিক হওয়া আটকে দিয়েছে।'
বিমল বাবুর মন্তব্যেই স্পষ্ট হয়েছে বিজেপি সম্পর্কে তাঁদের বর্তমান মনোভাবের বিষয়টি। শুধু তাই নয়, কেন্দ্রের প্রস্তাবিত নাগরিকত্ব সংশোধন খসড়া বিলে বাংলাদেশি উদ্বাস্তুদের বিষয়টি না থাকায় মতুয়াদের ঠাকুর বাড়ির ছেলে সুব্রত ঠাকুর বলেছেন, নাগরিকত্বের দাবিতে আমরা শিগগিরই আন্দোলন শুরু করব।
বিজেপির বিরুদ্ধে প্রতিশ্রুতি ভাঙার অভিযোগে মতুয়ারা সরব হওয়ায় উদ্বাস্তু, নাগরিকত্ব ইস্যুতে ব্যাকফুটে চলে যাচ্ছে বিজেপি। অন্যদিকে, একই ইস্যু নিয়ে সিপিএম এবং তৃণমূল কংগ্রেস মতুয়াদের প্রতি সহমর্মিতা জানিয়ে ভোট বাক্সে ফায়দা তোলার চেষ্টা করছে। মতুয়ারা অবশ্য বরাবরই তৃণমূল কংগ্রেসের ওপর আস্থা রেখেছেন। অন্যরা চাইছেন যেভাবেই হোক তৃণমূলের এই ভোটব্যাঙ্কে ভাগ বসাতে।
ইতিপূর্বে খবর ছিল,ভারতের আসাম রাজ্য সরকার গত ৪৩ বছর ধরে সেখানে বসবাসরত অমুসলিম বাংলাদেশীদের নাগরিকত্ব দিতে যাচ্ছে। কংগ্রেসি রাজ্য সরকার বুধবার এ-সংক্রান্ত একটি প্রস্তাব অনুমোদন করেছে বলে ভারতের টাইমস অব ইন্ডিয়া পত্রিকা গতকাল বৃহস্পতিবার জানিয়েছে।
বলা বাহুল্য,অসমেও অমুসলিমদের নাগরিকত্ব হচ্চে না।
অথচ ঐ প্রতিবেদনে বলা হয়, ধর্মীয় নির্যাতন ও বৈষম্যের শিকার হয়ে ১৯৭১ সালের ২৫ মার্চের পর আসামে প্রবেশ করা লোকদের বিদেশি হিসেবে চিহ্নিত করা হবে না।
যদিও আসামে ঠিক কতজন উদ্বাস্তু রয়েছে, তা জানা যায়নি। তবে ধারণা করা হচ্ছে তাদের সংখ্যা হবে ৮৫ লাখ। তাদের বেশিরভাগই হিন্দু। বাকিরা বৌদ্ধ, গারো, রাজবংশী, আদিবাসী উপজাতি ও বিষ্ণুপ্রিয়া মনিপুরি। এসব উদ্বাস্তু বাংলাদেশ সংলগ্ন আসাম, পশ্চিমবঙ্গ ও ত্রিপুরায় বাস করছে।
আসামের বন ও পরিবেশমন্ত্রী রকিবুল হোসেন টাইমস অব ইন্ডিয়াকে বলেন, এসব লোক বিদেশি হিসেবে চিহ্নিত হবে না। তারা বিচার ও শিক্ষার মতো মৌলিক অধিকার পাবে, তারা বহিষ্কারের হুমকিতে পড়বে না, এবং গুজরাট ও রাজস্তানে একই ধরনের পরিস্থিতির শিকার লোকজনকে যেভাবে নাগরিকত্ব দেয়া হয়েছে, তাদেরকেও দেয়া হবে।
উল্লেখ্য, ১৯৮৫ সালে তদানীন্তন প্রধানমন্ত্রী রাজীব গান্ধীর উপস্থিতিতে অল আসাম স্টুডেন্টস ইউনিয়ন ও কেন্দ্রীয় সরকারের মধ্যে স্বাক্ষরিত আসাম চুক্তিতে ১৯৭১ সালের ২৪ মার্চের মধ্যরাতের পর থেকে আসামে প্রবেশকারী প্রত্যেক ব্যক্তিকে বহিষ্কারের কথা বলা হয়েছিল। বিদেশিবিরোধী ছয় বছরের আন্দোলনের পর ওই চুক্তি স্বাক্ষরিত হয়েছিল।
তাহলে কি ওপার বাংলা থেকে আসা উদ্বাস্তুরা আদৌ হিন্দু নন,অন্ততঃ সঙ্গ পরিবারের নজরে?
মোদ্দাকথা বুঝতে হলে,স্বাধীনতার আগের ইতিহাসে ও ভারতভাগের প্রেক্ষাপটে ফিরে যেতে হয়,বাংলা শুধু নয়,অসম সহ পুর্বোত্তর ভারত,বিহার , উড়ীষ্যা সহ গোটা এই অনার্য বিজাতীয় ভূগোলের বিরুদ্ধে বৈষম্য ও বন্চনার ইতিহাসে হিন্দু মুসলমান নির্বিশেষ সমস্ত জনগণই দিল্লীর একচেটিয়া ক্ষমতাদখলকারি আর্য হিন্দুদের গণসংহারের নিশানায়।
প্রসঙ্গতঃ উল্লেখ্য,সত্তরের দশকে অন্যতম উল্লেখযোগ্য ছবি ছিল গরম হাওয়া। ১৯৪৭ সালে ভারত ভাগের ওপর তৈরি ছবি পরিচালনা করেছিলেন এমএশ সাথ্যু। তার দশক পর সেই ছবি আবার মুক্তি পেতে চলেছে।
ইশান আর্য প্রযোজিত ছবি মুক্তি পেয়েছিল ১৯৭৪ সালে। ঠিক চল্লিশ বছর পর আগামী শুক্রবার মুক্তি পেতে চলেছে গরম হাওয়া। যদিও আবার নতুন করে সাম্প্রদায়িক সমস্যা উসকে দেওয়ার অশঙ্কায় প্রথমে ছবির মুক্তিতে ছাড়পত্র দিতে চায়নি সেন্সর বোর্ড। দেশের মোট ৮টি শহরের ৭০টি প্রেক্ষাগৃহে পুণরায় মুক্তি পাচ্ছে গরম হাওয়া।
সাম্প্রদায়িক শক্তিগুলোকে রাষ্ট্রক্ষমতা সঁপে দেওয়ার পর এি সিনেমাটি দেখা অতি আবশ্যক।
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