I stand rock solid with my dear friends.
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तो क्या अब सिर्फ होक चुंबन?
जब होक कलरव देहमुक्ति आंदोलन में हो जाये तब्दील तो न समाज ,न व्यवस्था और न देश महादेश बदलने के आसार हैं,बाजार को क्या तकलीफ है भाई?
सांस्कृतिक महाझटके से मध्ययुगीन बर्बर असभ्य सांप्रदायिक धर्मांध समय बदलेगा नहीं!
पलाश विश्वास
जब होक कलरव देहमुक्ति आंदोलन में हो जाये तब्दील तो न समाज ,न व्यवस्था और न देश महादेश बदलने के आसार हैं,बाजार को क्या तकलीफ है भाई?
बाजार के कार्निवाल में बाजार प्रायोजित आंदोलन में कोई वज्रगर्भ जनांदोलन राह खोता नजर आये तो सत्तर के दशक की बची खुची पीढ़ी को तनिक तकलीफ होती है,तो इस पिछड़ेपन के लिए हम माफी चाहते हैं पहले से ही।
सांस्कृतिक महाझटके से मध्ययुगीन बर्बर असभ्य सांप्रदायिक धर्मांध समय बदलेगा नहीं!नवनाजी गैसचैंबर से मुक्ति का मार्ग किसी चुंबन से निकलता है तो हम तजिंदगी उस चुंबन के मोहताज रहेंगे।अगर सार्वजनिक स्थानों पर देहमिलन से हमारी बुनियादी सारी समस्याओं का समाधान हो जाये तो सभी सार्वजनिक स्तलों को लविंग पार्क में तब्दील करने और सभी फुटपाथों को शयनकक्ष में बदले दें यकीनन।
हम नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के हक में हैं और रहेंगे।
हम गोमुख से लेकर गंगासागर तक की यात्राओं के दौरान तीर्थस्थलों की धूल फांकने के बावजूद धार्मिक कर्मकांड से कभी नहीं जुड़े रहे हैं और हमेशा धर्मांध फतवों के खिलाफ रहे हैं।
हम मानते हैं कि आस्था निजी मामला है,निजी जीवन शैली है और उसमें न किसी का हस्तक्षेप होना चाहिए और न वह हमारी पहचान होनी चाहिए और हमारी राष्ट्रीयता तो कभी नहीं।कभी नहीं।
हम इसीलिए तो संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के विरुद्ध हैं।
नरेंद्र भाई मोदी इन दिनों फिल्म स्टारों के मुकाबले ज्यादा खूबसूरत नजर आते हैं और अरविंद केजरीवाल तक उनकी बोली की मुरीद हो गये हैं।भाजपा के खिलाफ लव जिहाद बतर्ज दिल्ली का किला वह दखल लेने को तैयार जरुर दिख रहे हैं,लेकिन भ्रष्टाचार और कालाधन विरोधी अतीती महाविद्रोह का,बाकी बचे खुचे आम आदमी का, उनके आरक्षणविरोधी यूथ फार इक्लवैलिटी की तरह संघ परिवार में विलीन होना समय का इंतजार है ,बस।जबकि छात्र युवा अल्प समय के लिए उन्हीके दीवाना होकर उनको देश की बागडोर तक सौंपने को तैयार थे।
हमें संघ परिवार से कोई खास ऐतराज नहीं होता अगर वह ग्लोबल हिंदुत्व के तहत नवनाजीवाद का कारोबार न कर रहा होता और हिंदू राष्ट्र के नाम पर मुक्त बाजारी विध्वंस के लिए देश भर में धर्म और आस्था के नाम पर अभूतपूर्व हिंसा और घृणा का माहौल बनाये बिना लोकतांत्रिक तौर तरीके से त्ता की राजनीति कर रहा होता।
संघ परिवार जो धार्मिक आस्था को ही राष्ट्रीयता में तब्दील कर रहा है और देस भर में नस्ली आधिपात्यवादी मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है कालाधन और विदेशी पूंजी के लिए,अमेरिकी हितों में युद्ध महायुद्ध गृहयुद्ध के लिए,गैर नस्ली जनसंक्या के सफाये के लिए,हमें उसकी तकलीफ है और हम यकीनन उसके विरोध में होंगे।हैं।लेकिन यह निजी आस्था और धर्म के विरुद्ध मामला नहीं है।
राजनीति और राजकाज का धर्म से नाता तोड़कर ही मध्ययुगीन अंधकार से निकलकर लोकतंत्र का विकास हुआ,क्रातियां हुई हैं ,पूंजी का विकास हुआ और आधुनिक उत्पादन प्रणाली बजरिये संचार क्रांति मार्फत आधुनिक ग्लोबल दुनिया का कायाकल्प हुआ है,मिथकों और धर्म ग्रंथों को इतिहास बनाने के पक्षधर लोगों को वह इतिहास शायद हड़प्पा और मोहंजोदोड़ो के इतिहास की तरह कत्लकाबिल लगेगा और वे ऐसा करेंगे भी।
इस देश में भी गौतम बुद्ध ने दुनिया में सबसे पहले रक्तहीन क्रांति की समता,भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय के लिए।वर्गहीन शोषणविहीन जातिहीन समाज की स्थापना भी हुई थी।लोकिन वह इतिहास भी संघ परिवार का इतिहास यकीनन नहीं है।
उनका इतिहास धर्मयुद्ध है और उनका देश एक अनंत कुरुक्षेत्र हैं।जहां उनके नस्ली पक्ष के अलावा बाकी जनसंख्या वध्य कुरुवंश है।यही वध संस्कृति ही संघ परिवार की स्वदेशी विचारधारा हैऔर एजंडा भी।
जिसकी परिणति लेकिन महाविनाश है।हमें उस धर्म से,उस अधर्म से भी कोई लेना देना नहीं है।बजरंगी या मौलवी फतवों के हम उतने ही खिलाफ हैं जितने दूसरे लोग।
होक कलरव होक चुंबन के सिलसिले में बता दें,हम अपनी प्रिय लेखिका तसलिमा नसरीन की धर्महीन वर्गहीन नारीमुक्ति मानवमुक्ति के पक्ष में रहे हैं लेकिन उनकी देहगाथा में कभी शामिल नहीं रहे हैं।
पुरुषतंत्र के खिलाफ उनका जिहाद जितना तीखा है और चाबुक की तरह भाषा और शैली की जो उनकी अभिव्यक्ति है,वे इस महादेश में हमारे मुद्दों की सबसे बड़ी प्रवक्ता हो सकती थीं,लेकिन नहीं हैं।
वे जिस मैमनसिंह जनपद से आयी हैं,दलित आत्मकथा बतर्ज निजी अभिज्ञता के अलावा उनके विद्रोह में उस जनपद की कोई गूंज नहीं है।
देहगाथा में जनपद गायब हैं।
इसीलिए हमारी लोकप्रिय लेखिका तसलिमा नसरीन बांग्लादेशी साहित्यधारा की बौद्धमय विरासत के बजाय पश्चिमबंगीय सुनील संप्रदाय की देहगाथा की धारा में अपनी परिपूर्ण धार के बावजूद निष्णात हो गयी हैं।
तसलिमा नसरीन अंततः जनपदों के विपरीत महानगरीय उत्तरआधुनिक ग्लोबल लेखिका हैं,बांग्लादेशी कतई नहीं, जो नारी अस्मिता की बात तो करती हैं लेकिन वह नारी निश्चित तौर पर महानागरिक है,श्रमिक नारी नहीं है।
जो तसलिमा खुद को दूर द्वीपवासिनी की तरह महसीूस करने को अभिशप्त हैं और उसके भालो आछि भालो थेको उथाल पाथाल भावावेग है,वह अब बांग्लादेश को किसी भी कोण से स्पर्श नहीं करता।
तो इसकी वजह धर्माध फतवाराज है नहीं,उसके खिलाफ तो बांग्लादेश सड़कों पर जीवन मरण का युद्ध लड़ रहा है जनम से और जो लोग इस लड़ाई में शामिल हैं,वे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हैं लेकिन वे भी तसलिमा को आवाज दे नहीं सकते तो ऐसा उनकी कोई मजबूरी भी नहीं है।
तसलिमा दरअसल उनके मुद्दों को अभिव्यक्ति नहीं देती है और बांग्लादेश या बांग्लादेश के बाहर राष्ट्रतंत्र को बदलने के लिए,वैश्विक जनसंहारी बंदोबस्त को खत्म करने के लिए तसलिमा सीधे जनता के हक में कोई आवाज उठा नहीं पा रही हैं और न वह जनता की लेखिका हैं।इसे तसलिमा समझ पाती है या नहीं,हम नहीं जानते।
सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी उनकी लज्जा के शुरु से समर्थक हैं और संघ परिवार ने तसलिमा के उपन्यास लज्जा का,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न की कथा का भारतके अल्पसंख्यकों के खिलाप धार्मिक ध्रूवीकरण के लिए इस्तेमाल किया है ।
अब जबकि बंगाल दखल संघ परिवार की सर्वोच्च प्राथमिकता है तो धार्मिक ध्रूवीकरण के सिलसिले में फिर लज्जा उनकी पूंजी है जबकि नागरिकता संसोधन कानून बतर्ज मौहन भागवत फिर कोलकाता से दहाड़ रहे हैं कि बांग्लादेशी मुसलमानों को सीमापार खदेड़ दिया जाये।
तो बांग्लादेशी कौन है कौन नहीं,सन 1971 से अब तक जो नही पहचान पाये,अब कैसे पहचानेगे और किस किसको निकालेंगे,कौन जाने। बांग्लादेशी के नाम पर तो अब तक हिंदू भारत विभाजन के शिकार विस्थापित अस्पृश्य बंगाली शरणार्थियों को ही खदेड़ा जाता रहा है और आगे भी वहीं होना है।जिसका बंगाल में विरोध नहीं होता।
अब तसलिमा भारत में संघ परिवार की संरक्षित मेहमान हैं और बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता और वहां लोकतंत्र की लड़ाई में उनका यह मौजूदा अवस्थान बांग्लादेश की सड़कों पर लड़ी जा रही लड़ाइयों में उन्हें जनता के हक हकूक के हक में तो यकीनन खड़ा कर ही नहीं सकता।
मुझे निजी तौर पर बेहद अफसोस है क्योंकि तसलिमा को निजी तौर पर जानता हूं और उसके दिलो दिमाग को पढ़ सकता हूं मैं।वह भले अत्यधिक उच्च अवस्थान से हमें फील करें या नहीं,हम अपने मोर्चे पर उन्हें हमेशा चाहते रहे हैं।लेकिन बाजार और सत्ता ने हर दूसरी नारी की तरह अपनी सबसे प्रियविद्रोहिनी तसलिमा नसरीन का भी कारोबार सजा दिया है।भले तसलिमा को इसका अहसास हो न हो।
मुझे निजी तौर पर बेहद अफसोस है बतौर लेखिका तसलिमा नसरिन इस महादेश का कभी वैसा प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती ,जैसा नवारुण दा या अखतरुज्जमान इलियस करते रहे हैं।
दरअसल,वह खुद सुनील गंगोपाध्याय धारा की एक मुक्तबाजारी उत्पाद में तब्दील हो गयी हैं,जिसकी रचनात्मकता से देहगाथा की खुशबू के अलावा निर्वाचित कालम की वह धार सिरे से गायब हो गयी है। यह मुद्दों से भटकाव का सबसे त्रासद उदाहरण है ज्वलंत।
वरना जो देश दुनिया की सबसे ताकतवर लेखिका थीं,वह एक अदद मंदाक्रांता सेन भी बन नहीं सकीं और उनके स्वदेश में जो स्थान बेगम सूफिया कमाल या फिर सेलिना हुसैन का है,उससे उनका अवस्थान एकदम उलट हो गया है और वह तो अपनी महाश्वेता दी,आशापूर्णा देवी को छू ही नहीं सकीं।न इस्मत चुगताई को और न कुर्तउलएल हैदरको।न अमृता प्रीतम को।न इंदिरा गोस्वामी या प्रतिभाराय को।
मैं जानता हूं कि अंततः तसलिमा नसरीन का सरोकार हर नारी से है और वे मानती हैं कि नारी को बंधुआ जीवनयंत्रणा से मुक्त किये बिना समता सामाजिक न्याय और मानवाधिकार के चर्चे फिजूल हैं,लेकिन अपने साहित्य में वे इसे मुद्दा बना सकी हैं ,ऐसा मुझे नहीं लगता।
बल्कि उनकी जैसी प्रखर विद्रोह की अनुपस्थिति के बावजूद सेलिना हुसैन और दूसरी बांग्लादेशी लेखिकाओं की रचना में जमीन जनपद की नारी के मुद्दे ज्यादा मुखर हैं।
जाहिर है कि देहगाथा बाजार का विमर्श है और देहमुक्ति न नारी मुक्ति है और न मेहनतकशों का मुक्तिमार्ग, यह तो मुक्त बाजार है विनियंत्रित,जहां देह अंततः कमोडिटी है।
यह जो मैं लिख रहा हूं इसका धर्म और नैतिकता से कोई मतलब भी नहीं है,मैं मुद्दों से भटकाव के माइंड कंट्रोल तकनीक के बारे में बता रहा हूं।
आज ऐसा मुझे इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि घर,ससुराल होकर नैनीताल के शिखरों से लेकर राजधानी नईदिल्ली की मेट्रो यात्रा से लौटकर देख रहा हूं कि जो छात्र होक कलरव कहकर सड़कों पर थे,वे अब होक चुंबन के लिए लड़ रहे हैं।
हम न चुंबन के खिलाफ रहे हैं और न प्रेम के।
हमें तो विवाह से पहले या बाद में पत्नी के सिवाय किसी नारी से प्रेम की प्रतीक्षा का भा अधिकार न था,सार्वजनिक चुंबन तो दूर की बात है।
हम तो हिमपाती रातों में अपने हसीन से हसीन सपने में किसी चुंबन की आहट से वंचित रहे हैं और हमारे उस साठ के,सत्तर के दशक में किसानों के जीवन मरण के जनविद्रोह से रोमांस के चरमोत्कर्ष में तब्दील नक्सल विद्रोह के वसंत के वज्रनिनाद में भी किसी चुंबन का कोई स्परश रहा है या नहीं,कभी मालूम ही नहीं पड़ा।
हमारा जीवन तो गुलमोहर के लाल रंग का धूप छांव है,जहां प्रेम है या नहीं है,इस अहसास से भी हम वंचित रहे हैं।
इसलिए आज की पीढ़ियां अगर अगिनखोर बजाय चुंबनखोर और सारवजनिक सहवास के अधिकार के लिए सड़क पर होक चुंबन के नारे लगाते हुए देहमुक्ति का कार्निवाल मनाये,तो हमें शायद इसपर टिप्पणी का अधिकार भी नहीं है।
क्योंकि किसी नीरा से प्रेम तो क्या उसके स्पर्श की स्पर्धा का दुस्साहस भी हमारी पीढ़ी का आचरण नहीं रहा है।
अपवादों से समय और समाजवास्तव का रेखंकन होता लेकिन नहीं है।
हम तो कोलकाता से 14 अक्तूबर को सीमा आरपार होक कलरव की ध्वनि प्रतिध्वनियों से सराबोर निकले थे और बार बार यह देश दुनिया को बतला जतला रहे थे,पाशे आछि यादवपुर,साथे आछे यादवपुर शहबाग और जिनका नारा रहा है, जमात संघी भाई भाई,दुईएर एक रशिते फांसी चाई या फिर सीपीएम तृणमूल इतिहासेर भूल।
चुंबन के शोर में होक कलरव के मुद्दे गायब हो रहे हैं,हमें बस इतनी सी चिंता हैं और हम छात्रों के शब्दों में नीति पुलिस या नैतिकता के ताउ भी नहीं हैं।बल्कि हमें कोई नारी प्रकाश्य में या गोपन अंतराल में चूमना चाहें,तो हम तो धन्य हो जायेंगे।
जबकि अब हमारे लिए वसंत कहीं नहीं हैं और हम अपने को खून की नदियों के मध्य डूबते खत्म हो रहे कायनात के साथ खड़े पा रहे हैं,जहां किसी चुंबन या प्रेम पर्व या तसिलमा जैसी नारीवादियों के चितकोबरा देहमुक्ति के बजाये इस समाजवास्तव और राष्ट्रतंत्र को ,इस निरंकुश जनसंहारी मुक्त बाजार के सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान परिदृश्य को बदलने की सबसे बड़ी जरुरत हमारे सिरदर्द का सबब है।
हम अपने बच्चों के साथ हैं और रहेंगे।
हम तो उनके आंदोलनों के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने को तैयार हैं और उनके खिलाफ,उनकी मर्जी के खिलाफ पीढ़ियों के अनुशासन,परंपराओं,लोकरिवाज का भी अनुशासन नहीं लादना चाहते,धर्म और नैतिकता के प्रवक्ता तो हम खैर हो नहीं सकते।
हम जिंदगी भर अपना प्रेम अपने दिल के सबसे निचले सतह पर छुपा दबाकर जी गये और किसी से कह भी नहीं सकें कि आई लव यू या किसी को स्पर्श भी कर नहीं सकें तो क्या हमारे बच्चों को चुंबन और प्रेम और सहवास के अधिकार नहीं होने चाहिए।
लेकिन इसे बुनियादी मुद्दा बनाने के खिलाफ हम है और अंततः यह देहगाथा का उन्मुक्त बाजार है,जिसके नशे में दिशाहीन हैं युवा पीढ़ियां।फिर भी इसी दिशाहीन युवा फीढ़ियों पर दांव लगाने के सिवाय चारा भी तो कुछ दूसरा नहीं है।
चूंकि हम दशकों से देखते रहे हैं कि छात्र युवा अस्मिताओं के आर पार समाज देश राष्ट्रव्यवस्था को बदलने के लिए मरने मारने के संकल्प के साथ सड़कों पर उतरते हैं,शहादत देते हैं ,हंसते हंसते और व्यवस्था के शिकार हो जाते हैं ,राजनीति हर बार उनका गलत इस्तेमाल अपने हित में कर लेती है।
और देश तो क्या समाज जहां का तहां,उसी दलदल में फंसा रहता है।
चूंकि हम देहमुक्ति की बात नहीं कर रहे हैं,पुरुषवर्चस्व के इस आधिपात्यवादी मुक्तबाजारी बर्बर असभ्य समय में जो नवनाजीवाद के शिकंजे में है यह महादेश और यह दुनिया,उसको मुक्त करने के लिए होक कलरव के हक में खड़े हैं।
चुंबन का ऐसा जोरदार झटका हमारी उम्र और सेहत के खिलाफ है।
हमारी मानें तो तो बाजार को क्या तकलीफ होनी चाहिए सार्वजनिक चुंबन और सार्वजनिक सहवास से,बाजार तो धारीदार उन्मुक्त विकाससूत्र के कारोबार के लिए तमाम संस्कृतियों, मातृभाषाओं, परंपराओं,लोक और जनपदों को तहस नहस कर रहा है और न उसका धर्म से कोई नाता है और नैतिकता से।
बाजार तो धर्मांध संघ परिवार के कंधे पर रखकर बंदूक ही नहीं प्रक्षेपास्त्र भी दाग रहा है इस महादेश के चप्पे चप्पे में जनता के खिलाफ।सुधार,स्वदेश,विकास,संस्कृति,राष्ट्रीयता के नाम।
हमारे बच्चे शायद भूल रहे हैं कि सीमाओं के आर पार जो सत्ता वर्ग बाजार प्रभुत्व है,व्यवस्था उन्हीं की है और उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अबाध पूंजी,गैर जरुरी जनसंख्या का विनाश और बलगाम मुनाफा है।
आप कीजिये चुंबन,सरेआम कपड़े उतारकर एक दूसरे से बीच सड़क में एकाकार हो जाते रहिए,बाजार आपको धारीदार सुगंधित मदहोशी नशीला विकास सूत्र थमा देगा।
हम भी कोई ऐतराज नहीं कर रहे हैं और चाहते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर आंदोलन हो रहा था,उन मुद्दों को भूले नहीं,भले ही चुंबन प्रेम के अधिकार आपको हों।लेकिन आप नशेड़ी बनकर बीच सड़क पर कुछ भी करेंगे,भले हम आपको रोकें न रोकें,मां बाप और स्वजनों की जनपदीय दिलोदिमाग पर क्या उसका असर होता है,बाजार के शब्दों में कहे कि कितना बड़ा सांस्कृतिक झटका आप दे रहे हैं और आपका समाज इस जोर के झटके के लिए कितना तैयार,परिपक्व और बालिग है,इसपर भी तनिक सोच लीजिये,तो बेहतर।
চুমুর মতো চমৎকার জিনিস আর হয় না. দিন দুপুরে চুমু খাব, প্রকাশ্যে খাব, একশ লোককে দেখিয়ে চুমু খাব -- এরকম একটি আন্দোলন চলছে এখন ভারতে. কেরালা থেকে কলকাতায়.
ছেলে মেয়েদের রাস্তায়-নদীর পাড়ে-পার্কে ঘনিষ্ঠ হয়ে বসতে দেখলেই পুলিশ এসে ঝামেলা করে. প্রেম করা যেন অন্যায়. ভালবাসা টালবাসা চলবে না. প্রেম, চুমু, হাত ধরে হাঁটা--এসব নাকি অশ্লীল. যৌনতা অশ্লীল. ভায়োলেন্স কি অশ্লীল? আমার মনে হয় না কেউ বলবে ভায়োলেন্স অশ্লীল.
রাস্তা ঘাটে মানুষকে অসম্মান কর, অকথ্য ভাষায় গালি দাও, যৌন হেনস্থা কর, মারো, গরিব পকেটমারকে সবাই মিলে মারতে মারতে মেরেই ফেল, কিছুই অশ্লীল নয়. অশ্লীল সেই দৃশ্য যখন তুমি ভালোবেসে কারো হাত স্পর্শ করবে, ভালোবেসে কারো ঠোঁটে চুমু খাবে.
ভালবাসা অপরাধ. চারদিকে ঘৃণার জয়জয়কার.
সেদিন টুইটারে লিখেছিলাম আমার বয়ফ্রেন্ড আমার চেয়ে কুড়ি বছরের ছোট। খবরটা লুফে নিলো মিডিয়া। অথচ কত খবরই তো দিই টুইটারে, আমার পুরস্কার পাওয়ার খবর, অনারারি ডকটোরেট পাওয়ার খবর, আমার কীনোট স্পীচ দেওয়ার খবর, আমার স্ট্যাণ্ডিং ওভেশন পাওয়ার খবর। এসব খবরে মিডিয়ার উৎসাহ নেই মোটেও। আমার প্রেমিক এবং স্বামী নিয়ে মিডিয়ার উৎসাহ বরাবরই অবশ্য প্রবল। যাই হোক, যা বলছিলাম। আমার চেয়ে কুড়ি বছরের ছোট প্রেমিকের খবরখানা টুইটারে দিয়ে একধরণের পুলক বোধ করছিলাম। পুরুষের মতো কোনও আচরণ করা মেয়েদের মানায় না। তাই পুরুষের মতো আচরণ করে, বয়সে ছোট এক সঙ্গী নির্বাচন করে, দেখতে চাইছিলাম সমাজ কী বলে। যথারীতি তেলে বেগুনে জ্বলে উঠলো। আর এদিকে আমাকে টেক্কা দিয়ে ৬৭ বছর বয়সী রেলমন্ত্রী ধুমধাম করে বিয়ে করে বসলেন তাঁর চেয়ে প্রায় চল্লিশ বছরের ছোট এক মেয়েকে। কোথায় কুড়ি আর কোথায় চল্লিশ। আমি তো নেহাতই বয়ফ্রেন্ড অবধি। আর উনি রীতিমত বিয়ে করলেন, রীতিমত গায়ে হলুদ করে, প্রচুর গয়না গাটি আর লাল বেনারসি পরে সাজানো কনেকে, আর নিজে মাথায় পাগড়ি টাগড়ি চাপিয়ে। কোনও ৬৭ বছর বয়সী মহিলার কি সাধ্য আছে ২৯ বছর বয়সী কোনও ছেলেকে এভাবে ধুমধাম করে বিয়ে করার? মন্ত্রীর বিয়েতে যেভাবে সমাজের নারীপুরুষ উৎসব করলো, এমন জমকালো উৎসব কি করবে প্রায় সত্তর বছর বয়সী মহিলা আর কুড়ির কোঠায় বয়স এমন কোনও ছেলের বিয়েতে? অনেকে বলবে, পুরুষ ধনী এবং প্রভাবশালী হলে গোড়ালির বয়সী মেয়েদের বিয়ে করা সম্ভব। আমার প্রশ্ন, বাংলাদেশের কোনও ধনী এবং প্রভাবশালী মহিলার পক্ষে কি সম্ভব গোড়ালির বয়সী ছেলেদের বিয়ে করা? সম্ভব তো নয়ই, বরং লোকে তাকে পুরুষখেকো ডাইনি বলে গালি দিয়ে সব্বনাশ করবে, একঘরে করবে, বলা যায় না জ্যান্ত জবাই হয়ে যেতে পারে সেই মহিলা।
জানি অনেকে বলবে, বুড়ো পুরুষের শরীরে শুক্রাণু তৈরি হয়, সুতরাং তাদের পক্ষেও ঋতুময়ী মেয়েদের গর্ভবতী করা সম্ভব, আর ওদিকে রজঃশ্রাব বন্ধ হওয়া নারীর পক্ষে সম্ভব নয় গর্ভবতী হওয়া। কিন্তু কম লোকই জানে বুড়ো পুরুষের শরীরে শুক্রাণু তৈরি হয় বটে, তবে শুক্রাণুর সংখ্যাটা বেজায় কম, এবং শুক্রাণুর চেহারা-চরিত্র মোটেই সুবিধের নয়। যুবকের শুক্রাণু আর বৃদ্ধের শুক্রাণুতে বিস্তর তফাৎ। বৃদ্ধের শুক্রাণুতে গর্ভবতী হওয়া টগবগে যুবতীদের পক্ষেও খুব সহজ নয়, হয় বছরের পর বছর লেগে যায় গর্ভবতী হতে, অথবা কাউকে গর্ভবতী করার ক্ষমতাই রাখে না ওসব ভাঙা, নষ্ট, রুগ্ন, ক্ষুদ্র শুক্রাণুগুলো। শুধু তাই নয়, পুরুষের শরীরে টেস্টোস্টেরন হরমোন কমে যায় বুড়ো বয়সে, আর সে কারণেও বুড়োদের ঔরসে সন্তান জন্ম নিলে ক্রোমোজমের জটিল সমস্যা নিয়ে সে সন্তান জন্মানোর আশংকা থাকে। সুতরাং যারা বলে পুরুষ বুড়ো হলেও সন্তান বিশেষ করে সুস্থ সন্তান উৎপাদনে সম্ভব, তারা খুব নির্ভুল কথা কিন্তু বলে না।
প্রেম কোনও বয়স মানে না, প্রাপ্ত বয়স্ক যে কোনও বয়সের মানুষের মধ্যে প্রেম ঘটতে পারে, আমরা জানি। তাহলে পুরুষ আর নারীর মধ্যে শুধু পুরুষকেই বয়সে বড় হতে হবে কেন! আর ভালবাসা প্রধান হলে, সন্তান জন্মটা প্রধান নাও হতে পারে। অনেক নারী-পুরুষ সন্তান নেবে না, এই শর্তেই একত্রবাস করে অথবা বিয়ে করে। আজকাল এই শর্তটি দিন দিন জনপ্রিয় হচ্ছে। সে ক্ষেত্রে ৬৭ বছর বয়সী মহিলা আর ২৯ বছর বয়সী যুবকের মধ্যে প্রেম বা প্রেমের কোনও বিয়ে নিয়ে কারও আপত্তি করা উচিত নয়, কিন্তু মানুষ আপত্তি করে। পুরুষের চেয়ে নারীর যৌনক্ষমতা বেশি, এ বিষয়ে আমার কোনও সংশয় নেই। অথচ যে কাণ্ড করে ৬৭ বছর বয়সী পুরুষ সমাজে আদৃত হয়, সেই একই কাণ্ড করে ৬৭ বছর বয়সী মহিলা সমাজে ঘৃণিত হয়। নারী-পুরুষের মধ্যে যে ভয়াবহ বৈষম্য সৃষ্টি করেছে আমাদের সমাজ, সেটির ছোট্ট একটি উদাহরণ এটি।
প্রাকইসলাম আরবে মেয়েদের যে স্বাধীনতা ছিল, ইসলাম এসে ধীরে ধীরে সেটি কেড়ে নেয়। চৌদ্দশ বছর আগে চল্লিশ বছর বয়সী বিধবা খাদিজা, কাড়ি কাড়ি সন্তানের মা, ২৫ বছর বয়সী যুবককে পছন্দ করে বিয়ে করেছিলেন। আজকের আরবে আধুনিক খাদিজাদের সেই সাধ্য বা সাহস নেই। খাদিজার মৃত্যুর পর ইসলামের মহানবী প্রায় ডজন খানিক বিয়ে করেছিলেন, তাঁর চেয়ে প্রায় পঞ্চাশ বছরের ছোট এক মেয়েকেও বিয়ে করেছিলেন। মহানবীর শিষ্যরা মহানবীর এই বয়সে ছোট কাউকে বিয়ে করার ব্যাপারটি অনুসরণ করে চলেছে। মহানবী যে তাঁর চেয়ে পনেরো বছরের বড় এক বিধবাকে বিয়ে করেছিলেন, সেটি অনুসরণ করতে নবীর প্রেমে দিওয়ানা কোনও ধর্মান্ধ মুসলমানও কিন্তু আগ্রহী নয়।
বাংলাদেশের রেলমন্ত্রী সিলডেনাফিল সাইট্রেট অথবা ভায়াগ্রার ওপর নির্ভর করবেন যথেষ্ট, অনুমান করি। ভায়াগ্রা সেবনেরও একটা সীমা আছে। সব শরীরে ভায়াগ্রা সয় না। বিশেষ করে রক্তচাপ, হৃদপিণ্ড, কিডনি, লিভার ইত্যাদিতে কোনও সমস্যা থাকলে ভায়াগ্রা সেবন নিষিদ্ধ। রেলমন্ত্রী একটি জলজ্যান্ত যু্বতী শরীর নিয়ে খেলবেন। খেলায় পারদর্শী না হলেও খেলবেন। কারণ তিনি পুরুষ। তাঁর যাকে ইচ্ছে তাকে নিয়ে যেমন ইচ্ছে তেমন খেলা করার অধিকার আছে। গোটা পৃথিবীটাই পুরুষের খেলার মাঠ। মেয়েটি যৌনতৃষ্ণায় কাতরাবে। চরম হতাশায় নিমজ্জিত হবে। কিন্তু পুরুষের সংসার- খাঁচায় বন্দি হয়ে থাকতে সে বাধ্য হবে। কারণ সে একটা খেলনা। একটা যৌনখেলনা। একটা ডেকোরেশন পিস। সুখী না হয়েও সুখী সুখী ভাব করবে। সমাজের বেশির ভাগ মেয়েরা যা করে। সুখী নয়, অথচ সুখী বলে নিজেকে মনে করে। অথবা দুঃখকেই, না-পাওয়াকেই, পরাধীনতাকেই সুখ বলে, পাওয়া বলে, স্বাধীনতা বলে ভাবে। ভাবতে শিখেছে ছোটবেলা থেকেই। নতুন করে এর বিপরীত কিছু শেখা সম্ভবত অধিকাংশ মেয়ের পক্ষেই আর সম্ভব নয়। পুরুষেরা জন্ম থেকেই যা শিখেছে তা হল, তারা প্রভু, তারা সুপিরিওর, তারা জানে বেশি, বোঝে বেশি, তাদের জন্য সমাজ, তাদের জন্য জগত, তারা শাসন করবে, তারা ভোগ করবে। এটি না শিখতে এবং এর বিপরীত কিছু শিখতে অধিকাংশ পুরুষই রাজি নয়।
মনে করতে চাই না কিন্তু বারবারই পুরুষেরা মনে করিয়ে দেয় 'ইট'স এ ম্যান'স ম্যান'স ম্যান'স ওয়ার্ল্ড'।
এক. পদ্মা সেতুর দুর্নীতির অভিযোগ থেকে অব্যাহতি দিয়ে অভিযুক্ত সবাইকে 'ক্লিন সার্টিফিকেট' দিয়েছে দুদক। ২০ মাসের দীর্ঘ তদন্তে দুদক নাকি কিছুই খুঁজে পায়নি। এদিকে অক্টোবরের ৮ তারিখে দুদক থেকে দায়মুক্তির সার্টিফিকেট পেয়ে যান সাবেক স্বাস্থ্যমন্ত্রী রুহুল হক। সরকারদলীয় আরেক সংসদ সদস্য আসলামুল হকও পান একইরকম দায়মুক্তির সনদ। রেলের কালো বিড়ালরাও অনেক আগেই দুদক থেকে দায়মুক্ত। সর্বশেষ রেলের জিএম ইউসুফ আলী মৃধাও দুদকের পাঁচ মামলা থেকে অব্যাহতি পেয়েছেন। এ যেন অদ্ভুত এক 'দায়মুক্তির কমিশন'! যেখানে শেয়ার কেলেঙ্কারির নায়করা দুদকের ধরাছোঁয়ার বাইরেই থাকে। সোনালী ব্যাংকের 'রাজনৈতিক পরিচালক' সুভাষ সিংহ রায় আর জান্নাত আরা হেনরীদের এখন আর পালিয়ে থাকতে হয় না। দায়মুক্তির সনদ পাওয়া যত সহজ, মুক্তিযুদ্ধের ভুয়া সনদও এখানে ততই সস্তা। মুক্তিযুদ্ধের ভুয়া সনদধারী চার সচিবের দুর্নীতিতে দুদকের যেন কিছুই করার নেই। কাগজে-কলমে দুদক স্বাধীন হলেও বাস্তবে এ কাগুজে বাঘের করুণ পরাধীনতার গল্প আজ মানুষের মুখে মুখে।
দুই. এবার পত্রিকার খবর পড়ে একটু আশ্চর্যান্বিতই হলাম! গত ৩০ অক্টোবর সরকারি প্রতিষ্ঠান সম্পর্কিত সংসদীয় কমিটি দুদকের বিরুদ্ধে চরম ক্ষোভ প্রকাশ করেছে। কারণ হলো, বেসিক ব্যাংকের অর্থ আত্দসাৎকারীদের বিষয়ে দুদক নাকি ইচ্ছাকৃতভাবে নিষ্ক্রিয় রয়েছে। জালিয়াতকারীরা নাকি বেসিক ব্যাংকের টাকা বস্তায় ভরে নিয়ে গেছে। বাংলাদেশ ব্যাংক তথ্য-প্রমাণ দিয়ে দুদককে নথি পাঠালেও দুদক কোনো পাত্তাই নাকি দিচ্ছে না। এ নিয়ে সংসদীয় কমিটির সভাপতি শওকত আলী জানান, জালিয়াতরা সাড়ে চার হাজার কোটি টাকার বেশি আত্দসাৎ করেছে। তারা দুদককে নথি পাঠালেও দুদক কোনো কর্ণপাত করেনি। দুদকের এ কর্মকাণ্ডে বাংলাদেশ ব্যাংকও হতাশ। বেসিক ব্যাংকের পরিচালনা পরিষদের বিরুদ্ধে ব্যবস্থা নিতে দুদক অযথা কেন মাথা ঘামাবে, যেখানে স্বয়ং অর্থমন্ত্রীই চার হাজার কোটি টাকাকে কোনো টাকাই মনে করেন না বলে প্রকাশ্যে ঘোষণা দেন।
তিন. ৫ জানুয়ারির নির্বাচনের পর দুদক জনমনে কিছুটা হলেও আশার সঞ্চার করেছিল। নির্বাচনের ঠিক ১০ দিনের মাথায় হঠাৎ করেই দুদক সক্রিয় হয়ে ওঠে। সরকারের নয়জন মন্ত্রী-এমপির বিপুল পরিমাণ সম্পদের অনুসন্ধানের ঘোষণা দেয়। কিন্তু ধীরে ধীরে দুদক তাদের বিরুদ্ধে ব্যবস্থা নেওয়ার বদলে দায়মুক্তির সার্টিফিকেট দেওয়া শুরু করে। দুদকের দাবি, তারা এসব মন্ত্রী-এমপির হলফনামায় দেওয়া তথ্যের কোনো সত্যতাই খুঁজে পায়নি। অথচ হলফনামায় দেওয়া তথ্য স্বয়ং ব্যক্তির নিজের হাতেই দেওয়া তথ্য। তারপরও দুদক এটাকে প্রমাণ করতে পারল না কেন? দুর্নীতিবাজদের শাস্তির বদলে পুরস্কার দিল দুদক। দুদক যেন দাগ-ময়লা পরিষ্কার করার একটা অত্যাধুনিক প্রযুক্তি!
চার. ইতিমধ্যে পদ্মা সেতুর দুর্নীতি মামলার সবাইকে সসম্মানে খালাস দেওয়া হয়েছে। সরকারের সাবেক দুই মন্ত্রী-প্রতিমন্ত্রী ও সরকারদলীয় হুইপের ভাইকে বাদ দিয়েই তখন মামলাটা করা হয়েছিল। যদিও সচিবসহ তিন সরকারি কর্মকর্তা মামলায় অভিযুক্ত হলেও সেই মন্ত্রণালয়ের মন্ত্রী তার কিছুই জানতেন না বলে জানানো হয়েছিল। ২০১২ সালের ৩০ জুন দুর্নীতির 'বিশ্বাসযোগ্য' প্রমাণ মিলেছে জানিয়ে চুক্তি বাতিল করে বিশ্বব্যাংক। ওই বছরের ডিসেম্বরে সাতজনের বিরুদ্ধে মামলা করে দুদক। গত ৩ সেপ্টেম্বর কোনো প্রমাণ পায়নি বলে দুদক সবাইকে দায়মুক্তি প্রদান করে। আগামী বছরের ১৩ এপ্রিল কানাডার আদালতে এ মামলার আনুষ্ঠানিক বিচার শুরু হচ্ছে।
এদিকে এ মামলার শেষ না দেখেই দ্রুত তদন্তের সমাপ্তি ঘোষণা করল দুদক। দুদক অবশ্য এর সব দায় চাপাল বিশ্বব্যাংক ও কানাডা পুলিশের ঘাড়ে। দুদক বলছে, তারা কোনো তথ্য-প্রমাণ দুদককে দেয়ইনি। যদিও এ বিষয়ে বেশ কিছু ই-মেইল বার্তা দিয়ে দুদককে সব দুর্নীতির বিবরণ দিয়েছিল বিশ্বব্যাংক। এসব তথ্য-প্রমাণের ভিত্তিতেই যেখানে কানাডায় মামলা হলো, সেখানে আমাদের দুদক নাকি কিছুই খুঁজে পেল না! মনে থাকার কথা, কানাডার প্রাক-বিচার শুনানিতে বাংলাদেশের একাধিক রাজনীতিবিদ জবানবন্দি দিয়ে এসেছেন। তারা সেখানে গিয়ে অনেক কিছুই বলে এসেছেন। দুদক তাদের একটু জিজ্ঞাসাবাদ করলে অনেক তথ্যই পেয়ে যেত।
পাঁচ. এর আগে রমেশের ডায়েরিকে 'বাজারের ফর্দের' সঙ্গে তুলনা করেছিল দুদক। সুরঞ্জিতের এপিএসের গাড়ি চালকের পেশা ও সামাজিক মর্যাদা নিয়ে তার সাক্ষ্যকে অগ্রহণযোগ্য বলেছিল তারা। দুদকের তদন্তে বিশ্বব্যাংক অসন্তুষ্ট হয়ে চিঠি দেওয়ার পরও দুদক বলেছিল, 'দুদকের তদন্তে বিশ্বব্যাংক খুশি'। বিশ্বব্যাংকও তৎক্ষণাৎ চিঠিটি গণমাধ্যমে প্রকাশ করে। এই চিঠি এখনো তাদের ওয়েবসাইটে আছে। দুদক শুধু সত্য আড়ালের চেষ্টাই করেনি, বরং তার রাজনৈতিক চরিত্রের প্রকাশও ঘটাতে আমরা দেখেছি। যে কারণে বিশ্বব্যাংকের তদন্ত দলকে তারা বলেছিল, 'মন্ত্রীর বিরুদ্ধে মামলা হলে রাজনৈতিক সমস্যা বা হট্টগোল দেখা দেবে'। জবাবে বিশ্বব্যাংকের গ্যাব্রিয়েল মোরেলো ওকাম্পো লিখেছিলেন, 'যে রাজনৈতিক পরিচয়ই হোক না কেন, তাকে ছাড় দেওয়া হলে তদন্তকে মোটেই স্বচ্ছ ও নিরপেক্ষ বলা যাবে না'। দুদকের বিরুদ্ধে কিছু বলতে গিয়ে হুমকিও পেতে হয়েছে সুধীজনের। গত ২৮ মে দুদক টিআইবিকে হুমকি দিয়ে বলে, 'সময় হলে টিআইবির মুখোশ উম্মোচন করা হবে'।
ছয়. আসলে দুদকের ২০১৩ সালের হয়রানিমূলক সংশোধিত আইনেই রয়েছে ক্ষমতার অপব্যবহারের যতসব কলাকৌশল। আইনি দুর্বলতার কারণে একদিকে প্রভাবশালীরা অব্যাহতি পাচ্ছেন, আরেকদিকে বিরোধীদের মামলা দিয়ে হয়রানি করা হচ্ছে। আইনের ফাঁকফোকর দিয়ে দুর্নীতিবাজদের বের করে আনার পথঘাট সবই অসাধু কর্মকর্তারা বাতলে দিচ্ছেন। সংশোধিত দুদক আইন ২০১৩-এর ২২ ধারায় কমিশন অভিযুক্তের বক্তব্য শুনে সন্তুষ্ট হয়ে তাকে অব্যাহতি দিতে পারে। সেক্ষেত্রে ওই ব্যক্তির অভিযোগ নথিভুক্ত করা বা চূড়ান্ত প্রতিবেদন দিলেও কারও কিছু বলার নেই। তাই এ বিধানের সুযোগ নিয়ে কোনো ধরনের ব্যাখ্যা বা জবাবদিহি ছাড়াই দুদক প্রভাবশালীদের গণহারে দায়মুক্তির সার্টিফিকেট দিয়ে দিচ্ছে। অন্যদিকে এ আইনের ১৯(১)(ক) ধারায় শপথের মাধ্যমে সাক্ষীকে জিজ্ঞাসাবাদের বিধান সংশোধন করে 'শপথ গ্রহণ' অঙ্কটুকু বাদ দেওয়া হয়েছে। সাক্ষ্যকে দুর্বল করা হয়েছে, আর এটা গ্রহণ করা বা না করার একচ্ছত্র ক্ষমতা দেওয়া হয়েছে দুদক কর্মকর্তাদের। এর ফলে একদিকে সরকারি প্রভাবশালীদের বক্তব্য বিনাবাক্যে মেনে নেওয়া হচ্ছে, অন্যদিকে বিরোধীদের বক্তব্য গ্রহণ না করে তাদের বিরুদ্ধে মামলা করা হচ্ছে। তাই দুদক আইন এখন অনেকটাই নিবর্তনমূলক আইনে রূপ নিয়েছে।
সাত. বিগত কেয়ারটেকার সরকারের আমলে প্রধান দুই রাজনৈতিক দলের নেতানেত্রীর বিরুদ্ধে দায়ের করা মামলা থেকে সরকার ঢালাওভাবে তাদের নিজেদের বিরুদ্ধে দায়ের করা কয়েক হাজার মামলা প্রত্যাহার করে নিয়েছে। অন্যদিকে বিরোধী দলের একটি মামলাও প্রত্যাহার করা হয়নি। বরং সরকার দুদককে দিয়ে বিরোধী দলের পুরনো মামলা সচল করেছে এবং নতুন করে দুদককে দিয়ে বিরোধী দলের নেতাদের বিরুদ্ধে নতুন নতুন দুর্নীতির মামলা রুজু করিয়েছে। সরকার তার দুর্নীতি ও অর্থনৈতিক অস্বচ্ছতা-লুটপাট আড়াল করতে দুদককে একটি সাক্ষীগোপাল সংস্থায় পরিণত করেছে।
আট. সরকার এখন নিজস্ব অর্থায়নে পদ্মা সেতু বাস্তবায়নের ঘোষণা দিয়েছে। বিশ্বব্যাংকের ঋণচুক্তিতে দাতারা ২৯১ কোটি ডলারের মধ্যে ২৩৫ কোটি ডলার দশমিক ৭৫ শতাংশ সার্ভিস চার্জে দিতে সম্মত ছিল। তাও আবার ১০ বছর পর থেকে ঋণ শোধ করতে হতো। আর এখন আমাদের নিজেদের বৈদেশিক মুদ্রার রিজার্ভ ভেঙে এ সেতু তৈরি করতে হবে। আমাদের কোটি কোটি প্রবাসীর হাড়ভাঙা খাটুনির রেমিট্যান্সের টাকা দিয়ে দুর্নীতির খেসারত দিতে হবে। আসলে দোষ দুদকের নয়, সব দোষ আমাদের জনগণের! না হলে দুর্নীতি দমনকারীরা কেমন করে দুর্নীতির পৃষ্ঠপোষক হয়ে ওঠে? দুর্নীতিবাজরা কী করে গণহারে পেয়ে যায় দায়মুক্তির সার্টিফিকেট? আবুলরা কী করে পেয়ে যায় দেশপ্রেমিকের সার্টিফিকেট?
লেখক : সুপ্রিমকোর্টের আইনজ্ঞ ও সংবিধান বিশেষজ্ঞ
हम क्यों मनायें संविधान दिवस?
क्योंकि लोकतंत्र को बचाने के लिए,जल जंगल जमीन,नागरिकता और आजीविका जैसे बुनियादी हकों के लिए भारतीय संविधान पर बहस बेहद जरुरी!
पलाश विश्वास
आज मध्य कोलकाता में बंगाल के जनसंगठनों,अल्पसंख्यक संगठनों,कर्मचारी संगठनों,सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक अति महत्वपूर्ण सभा बौद्ध तीर्थांकुर मंदिर के सभा कक्ष में हुई और 26 जनवरी को भारतीय संविधान की 65वीं वर्षगांठ पर गौतमबुद्ध के दिखाये मत और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को प्रस्थानबिदू मानकार नवउदारवादी विध्वंसक जनसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध के बतौर देशव्यापी जन जागरण के लिए भारतीय संविधान और भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी मुद्दों को लगातार संबोधित करने का संकल्प लिया गया।
खास बात तो यह है कि इस मौके पर आनंद तेलतुंबड़े ने पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का खुलासा करते हुए साफ साफ तौर पर बता दिया कि संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष बाबासाहेब जरुर थे,लेकिन यह संविधान उनका रचा हुआ नहीं है।इसकी अनेक सीमाएं हैं।
तेलतुंबड़े ने अपनी विशिष्ट शैली में संविधान की उन सीमाओं और उनके अतर्विरोधों का खुलास करते हुए सामाजिक और जनआंदोलन के सिलसिले में बुनियादों मुद्दों को केंद्रित अस्मिताओं के आरपार सामाजिक और संभव हुआ तो जनांदोलन के रचनात्मक तौर तरीके ईजाद करने और लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने की जरुरत बतायी।
तेलतुंबड़े ने कहा कि इतिहास और पृष्ठभूमि को छोड़ दें तो मौजूदा समाज वस्तव यह है कि सत्ता वर्ग के चंद लोगों को छोड़कर आम जनता संवैधानिक और लोकतांत्रिक हकहकूक से वंचित है।
तेलतुंबड़े ने कहा कि नवउदारवादी विचारधारा का आधार ही यह है कि ताकतवर तबके के लोगों को ही जीने का हक है और बाकी लोग देश दुनिया के लिए गैर जरुरी है।
तेलतुंबड़े ने साफ किया कि इसका लिए बुनियादी परिवर्तन जरुरी है और राज्यतंत्र में बदलाव बिना बुनियादी परिवर्तन नहीं होंगे।इसके लिए सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक बनाये गये संविधान में भी जरुरी परिवर्तन होने चाहिए।
उन्होंने अंबेडकरी एजंडा के बुनियादी मुद्दे जाति उन्मूलन को सामाजिक आंदोलन की सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए नवउदारवादी जनसंहारी संस्कृति में जातिव्यवस्था, मनुस्मृति शासन और आर्थिक सामाजिक बहिस्कार को वैधता देने के तत्र का खुलासा भी किया।उन्होंने आरक्षण केद्रित अंबेडकर विमर्श को खारिज करते हुए कहा कि अस्मिता राजनीति सत्ता वर्ग के सत्ता समीकरण के माफिक है और यह कुल मिलाकर कारपोरेट तंत्र को मजबूत ही करती है।
इसपर कर्मचारी संगठनों के नेताओं ने आर्थिक सुधारों,विनवेश, अबाध पूंजी प्रवाह,प्रत्यक्ष पूंजी निवेश,निजीकरण और विनियंत्रण के सुधार खेल में आरक्षण के गैर प्रासंगिक हो जाने और संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकारों के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन पर भी खुली चर्चा की।हल्दिया,मेदिनीपुर और कोलकाता के कर्मचारी नेताओं न कासतौर पर अपनी बातें रखीं।
तेलतुंबड़े सभा के दूसरे सत्र में पहुंचे लेकिन इससे पहले युवा साथियों ने सुबह के सत्र में यह सवाल उठा दिया था कि जिस संविधान को बाबासाहेब अंबेडकर स्वयं खारिज कर चुके हों तो उसे बचाने की क्या जरुरत पड़ी है।
उत्तर 24 परगना से आये एकदम युवा सामाजिक कार्यकर्ता शिशिर राय ने लाखों के तादाद में चल रहे संगठनों के कामकाज के तौर तरीके की चीड़फाड़ की और जमीनी स्तर पर जनजागरण की बात करते हुए संविदान के महिमामंडन के औचित्य पर तीख सवाल भी दागे।
ले.कर्नल सिद्धार्थ बर्वे और लेफ्टिनेंट कर्नल मजुमदार ने संघटन और आंदोलन के पुराने अनुभवों का हवाला देते हुए जमीनी स्तर के विकेंद्रित सामूहिक लोकतांत्रिक नेतृत्व की जरुरत पर खास प्रकाश डाला।तो कांथी मेदिनीपुर से आत्मनिरीक्षण पत्रिका के संपादक और इंडियान सोशल मूवमेंट के ईस्ट्रन जोन के सह संयोजकतपन मंडल ने सांगाठनिक मुद्दों पर खुली चर्चा की।भुवनेश्वर से आये आदिवासी दलित मूलनिवासी संगठन के उज्जवल विश्वास और बंगाल में मूलनिवासी समिति के पीयूष गायेन ने सामाजिक आंदोलन के भूगोल पर प्रकाश डाला।
मैंने स्पष्ट भी कर दिया कि हमारा मकसद संविधान का बचाव करना नहीं है और न संविधान का महिमामंडन करना है।इस कारपोरेट धर्मांध समय में लोकतंत्र के लिए जगह निकालने के लिएसंविधान पर बहस केंद्रित होनी ही चाहिए।
हमने साफ कर दिया कि अगर जनता समझती है कि यह संविधान उनके हक हकूक की हिफाजत में कहीं खड़ा नहीं होता तो जनता उस संविधान को बदल डाले ,लेकिन हम कारपोरेट असंवैधानिक देशद्रोही ताकतों को भारत के संविधान और लोकतंत्र से खिलवाड़ की इजाजत नहीं देंगे।
फिर तेलतुंबड़े के वक्तव्य के बाद संचालक शरदिंदु उद्दीपन ने प्रस्ताव रखा कि हमारा जनजागरण का मकसद वही बुनियादी परिवर्तन है और राज्यतंत्र में बदलाव है।जिसके तहत हम बाबा साहेब के सपनों का संविधान और राज्यतंत्र का निर्माण कर सकें।लेकिन हम राष्ट्रविरोधी बाजार की शक्तियों और उनके दलालों की ओर से संवैधानिक प्रावधानों के तहत मनुष्य और प्रकृति के हित में जो प्रावधान किये गये हैं ,उसको खत्म करके संविधान के प्रावधानों के खिलाफ कारपोरेट हित में जनसंहारी संस्कृति के तहत आर्थिक सुधारों को लागूकरने के मकसद से सारे कायदे कानून बदल कर भारतीय लोकतंत्र और संविधान को बदलने की इजाजत नहीं दे सकते।
फिलहाल हमें इसी संविधान के तहत ही व्यवस्था परिवर्तन की मुहिम चलानी होगी।इस पर सभा में सहमतिव्यक्त की गयी।
बांग्ला के प्रख्यात लेखक और पूर्व आईपीएस अधिकारी नजरुल इस्लाम ने अपने निजी अनुभवों का हवाला देकर साफ किया कि संविधान का हर स्तर पर उल्लंघन हो रहा है और लाकतांत्रिक प्रणाली दांव पर है।लोकतंत्र न हो तो किसी भी परिवर्तन की कोई संभावना नहीं बनती।इसलिए लोकतंत्र को संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही बचाने का कार्यभार बनता है।
गौरतलब है कि सेवा में रहते हुए नजरुल ने बंगाल के वोटबैंक राजनीति के तहत मुसलमानों को लगातार वंचित किये जाने का खुलासा करते हुए मुसलिमदेर की करणीय पुस्तक ही नहीं लिखी,बल्कि उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक मूलनिवासीदेर कि करणीय लिखकर बंगाल में वंचितों की व्यापर गोलबंदी करने की मुहिम शुरु की है और अब उनके संगठन का बंगाल के हर जिले में मजबूत नेटवर्क है।
जनमुक्ति के लिए नजरुल साहेब अंबेडकरी आंदोलन को तेज करने की जरुरत बताते रहे हैं और आज भी उन्होंने इस सिलसिले में प्रकाश डाला।
खास बात है कि अंबेडकरी आंदोलन के दुकानदारों की खुली आलोचना और भारतीय संविधान के सच का खुलासा के बावजूद अंबेडकरी धारा के जनसंगठनों ने महसूस किया कि संविधान के महिमामंडन से कारपोरेट समय का मुकाबला नहीं किया जा सकता क्योंकि भारतीय संविधान का पिछले पैसठ सालों से सिर्फ सत्ता वर्ग के हित में ही इस्तेमाल हुआ,नागरिक और मानवाधिकारों के हितों में नहीं और न ही बहिस्कृत बहुसंंख्य जनसमुदायों के भूगोल में यह संविधान या कानून का राज कहीं लागू है।
खास बात यह कि इस सभा में शामिल लोगों ने देशव्यापी शिक्षा आंदोलन का समर्थन भी किया है और देशभर में विभिन्न जनसंगठनों की ओर से चलाये जा रहे सभी तरह के जनपक्षधर आंदोलनों और सभी जनसमूहों को साथ लेकर चलने पर सहमति जतायी है।
खास बात यह कि परंपरागत बहुजन आंदोलन की तरह किसी भीतर तरह की अस्मिता या शब्दावली का इस्तेमाल किये बिना अस्मिताओं रके आरपार जाति उन्मूलनके एजंडे के तहत बुनियादी मुद्दों और आम जनता के हक हकूक के लिए निकरंतर जन जागरण अभियान पर सहमति हुई है।
गौर तलब है कि इस सभा का कोई अध्यक्ष न था और हर संगठन और हर व्यक्ति को अपनी राय रखने और दूसरों के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया देने की छूट थी।कोई मंच कहीं नहीं था बल्कि हम लोग एक दूसरे से सीधे हमारे मुद्दों पर संवाद कर रहे थे।
कोलकाता सिख संगत और मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने आपबीती बताते हुए सवाल किये अगर देश में संविधान लागू है तो पीढ़ियों से न्याय से वंचित क्यों हैं वंचित बहुसंख्य लोग और खासकर आदिवासी।
सिखसंगत के नेता और पंजाबी के साहित्यकार जगमोहन गिल ने भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक हक हकूक के बारे में लगातार व्यापक जनजागरण जारी रखने की बात की।
बैंक कर्मचारियों के नेता सुरेश राम जी ने कहा कि 26 नवंबर को इस मुहिम की शुरुआत होगी।उन्होंने जाति उन्मूलन के आंदोलन पर फोकस किया और कहा कि जाति को खत्म किये बिना बहुसंख्य जनत की गोलबंदी नही हो सकती और हमें इस पर फोकस करना चाहिए।
बेंगल बुद्धिष्ट सोसाइटी के अरुण बरुआ इस आयोजन को संगठित करने में लगे थे लेकिन वे भी अपने विचार व्यक्त करने से चूके नहीं।
दलित मुस्लिम फ्रेंडशिप के एमएन अब्दुससमाद और अब्दुल मनासी ने भी नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए अस्मिता आरपार सामाजिक आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।
मुर्शिदाबाद से आये पत्रकार हेनाद्दीन,न्यू बैरकपुर अंबेडकर मिशन के विराट चंद्र सेन, मेदिनीपुर के कर्मचारी नेता अरुप चौधरी,बाहाला के अलक विश्वास,मतुआ आधारभूमि वनगांव के गोपाल चंद्र हालदार
ग्रामीण अंचलों से आयी महिलाओं ने कांथी की एडवोकेट मिसेज बर्मन,बारुईपुर महिलामंडल की दुलाली सिंहा और सुनीता विश्वास कीअगुवाई में कहा कि अगर भारतीय संविधान लागू है तो स्त्री आज भी क्यों शूद्र और दासी है और लोकतांत्रिक समाज और देश में उनका सही स्थान क्यों नहीं है।
मेदिनीपुर,उत्तर और दक्षिण 24 परगना और हुगली जैसे ग्रामीण इलाकों से महिलाएं आयीं और उन्होंने सामाजिक बदलाव के सिलसिले में अपनी भूमिका पर बातें भी सिलसिलेवार कीं।
हमने भी उनसे वायदा किया कि देश व्यापी परिवर्तन के सामाजिक आंदोलन में हम न केवल युवाजनों और स्त्री की व्यापक भागेदारी चाहते हैं बल्कि हम स्त्री नेतृत्व में ही नये सिरे से शुरुआत करना चाहते हैं।
इस सभा में भारत देश में देश बेचो ब्रिगेड के माफिया राज में लोकतंत्र के लिए जगह बनाने के लिए संविधान पर नये सिरे से बहस शुरु करने संवैधानिक प्रावधानों और अधिकारों के तहत जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका के हक में सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता पर सहमति जताई गयी।
खास बात है कि आज ही के दिन छत्तीसगढ़ के साढ़े छह सौ गांवों के प्रतिनिधियों ने राजधानी रायपुर में संवैधानिक व लोकतांत्रिक हक हकूक के लिए 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का संकल्प किया है।तो ओड़ीशा के हर जिले में संविधान दिवस मनाने की तैयारी जोरों पर है।झारखंड और बिहार के साथियों ने वायदा किया है कि वे पीछे नहीं रहेेंगे।
देश भर में समान मुफ्त शिक्षा के लिए शिक्षा यात्रा कश्मीर से कन्याकुमारी और पंजाब से लेकर अरुणाचल मणिपुर तक जारी है तो संविधान दिवस भी देशभर मनाया जायेगा।
इसीतरह बाकी जनांदोलन मसलन सोलह मई के बाद कविता जैसे सामाजिक चेतना आंदोलनोऔर पर्यावरण आंदोलनों को भी साथ ले चलने पर सहमति हुई है।
मुंबई,नागपुर और बाकी महाराष्ट्र में भी तैयारियां चल रहीं हैं।
भारत की राजधानी नई दिल्ली में 26 नवंबर की शाम भारतीय संविधान और लोकतंत्र के लिए मोमबत्तियां जलायी जायेंगी तो कोलकाता में कालेज स्कवायर से लेकर कोलकाता मैदान के मेयोरोड पर अंबेडकर मूर्ति तक पदयात्रा निकलेगी।
जिलों,नगरों,कस्बों और गांवों में जो कार्यक्रम देशभर में होने हैं,उनकी रुपरेखा उन क्षेत्रों में सक्रिय संगठन तैयार करेंगे औरकार्यक्रमों का आयोजन भी वे ही करेंगे।
यह सारा कार्यक्रम एकदम जमीनी स्तर से आयोजित होंगे जिसमें केंदि्रीय स्तर पर किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
अंत में बोले बैंक अधिकारी जयप्रकाश चौधरी और खूब बोले।
26 नवंबरको भारतीय संविधान की
65वीं वर्षगांठ पर
हम क्यों मनायें संविधान दिवस?
क्योंकि लोकतंत्र को बचाने के लिए,जल जंगल जमीन,नागरिकता और आजीविका जैसे बुनियादी हकों के लिए भारतीय संविधान पर बहस बेहद जरुरी!
पलाश विश्वास
आज मध्य कोलकाता में बंगाल के जनसंगठनों,अल्पसंख्यक संगठनों,कर्मचारी संगठनों,सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक अति महत्वपूर्ण सभा बौद्ध तीर्थांकुर मंदिर के सभा कक्ष में हुई और 26 नवंबरको भारतीय संविधान की 65वीं वर्षगांठ पर गौतमबुद्ध के दिखाये मत और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को प्रस्थानबिदू मानकार नवउदारवादी विध्वंसक जनसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध के बतौर देशव्यापी जन जागरण के लिए भारतीय संविधान और भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी मुद्दों को लगातार संबोधित करने का संकल्प लिया गया।
खास बात तो यह है कि इस मौके पर आनंद तेलतुंबड़े ने पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का खुलासा करते हुए साफ साफ तौर पर बता दिया कि संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष बाबासाहेब जरुर थे,लेकिन यह संविधान उनका रचा हुआ नहीं है।इसकी अनेक सीमाएं हैं।
तेलतुंबड़े ने अपनी विशिष्ट शैली में संविधान की उन सीमाओं और उनके अतर्विरोधों का खुलास करते हुए सामाजिक और जनआंदोलन के सिलसिले में बुनियादों मुद्दों को केंद्रित अस्मिताओं के आरपार सामाजिक और संभव हुआ तो जनांदोलन के रचनात्मक तौर तरीके ईजाद करने और लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने की जरुरत बतायी।
तेलतुंबड़े ने कहा कि इतिहास और पृष्ठभूमि को छोड़ दें तो मौजूदा समाज वस्तव यह है कि सत्ता वर्ग के चंद लोगों को छोड़कर आम जनता संवैधानिक और लोकतांत्रिक हकहकूक से वंचित है।
तेलतुंबड़े ने कहा कि नवउदारवादी विचारधारा का आधार ही यह है कि ताकतवर तबके के लोगों को ही जीने का हक है और बाकी लोग देश दुनिया के लिए गैर जरुरी है।
तेलतुंबड़े ने साफ किया कि इसका लिए बुनियादी परिवर्तन जरुरी है और राज्यतंत्र में बदलाव बिना बुनियादी परिवर्तन नहीं होंगे।इसके लिए सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक बनाये गये संविधान में भी जरुरी परिवर्तन होने चाहिए।
उन्होंने अंबेडकरी एजंडा के बुनियादी मुद्दे जाति उन्मूलन को सामाजिक आंदोलन की सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए नवउदारवादी जनसंहारी संस्कृति में जातिव्यवस्था, मनुस्मृति शासन और आर्थिक सामाजिक बहिस्कार को वैधता देने के तत्र का खुलासा भी किया।उन्होंने आरक्षण केद्रित अंबेडकर विमर्श को खारिज करते हुए कहा कि अस्मिता राजनीति सत्ता वर्ग के सत्ता समीकरण के माफिक है और यह कुल मिलाकर कारपोरेट तंत्र को मजबूत ही करती है।
इसपर कर्मचारी संगठनों के नेताओं ने आर्थिक सुधारों,विनवेश, अबाध पूंजी प्रवाह,प्रत्यक्ष पूंजी निवेश,निजीकरण और विनियंत्रण के सुधार खेल में आरक्षण के गैर प्रासंगिक हो जाने और संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकारों के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन पर भी खुली चर्चा की।हल्दिया,मेदिनीपुर और कोलकाता के कर्मचारी नेताओं न कासतौर पर अपनी बातें रखीं।
तेलतुंबड़े सभा के दूसरे सत्र में पहुंचे लेकिन इससे पहले युवा साथियों ने सुबह के सत्र में यह सवाल उठा दिया था कि जिस संविधान को बाबासाहेब अंबेडकर स्वयं खारिज कर चुके हों तो उसे बचाने की क्या जरुरत पड़ी है।
उत्तर 24 परगना से आये एकदम युवा सामाजिक कार्यकर्ता शिशिर राय ने लाखों के तादाद में चल रहे संगठनों के कामकाज के तौर तरीके की चीड़फाड़ की और जमीनी स्तर पर जनजागरण की बात करते हुए संविदान के महिमामंडन के औचित्य पर तीख सवाल भी दागे।
ले.कर्नल सिद्धार्थ बर्वे और लेफ्टिनेंट कर्नल मजुमदार ने संघटन और आंदोलन के पुराने अनुभवों का हवाला देते हुए जमीनी स्तर के विकेंद्रित सामूहिक लोकतांत्रिक नेतृत्व की जरुरत पर खास प्रकाश डाला।तो कांथी मेदिनीपुर से आत्मनिरीक्षण पत्रिका के संपादक और इंडियान सोशल मूवमेंट के ईस्ट्रन जोन के सह संयोजकतपन मंडल ने सांगाठनिक मुद्दों पर खुली चर्चा की।भुवनेश्वर से आये आदिवासी दलित मूलनिवासी संगठन के उज्जवल विश्वास और बंगाल में मूलनिवासी समिति के पीयूष गायेन ने सामाजिक आंदोलन के भूगोल पर प्रकाश डाला।
मैंने स्पष्ट भी कर दिया कि हमारा मकसद संविधान का बचाव करना नहीं है और न संविधान का महिमामंडन करना है।इस कारपोरेट धर्मांध समय में लोकतंत्र के लिए जगह निकालने के लिएसंविधान पर बहस केंद्रित होनी ही चाहिए।
हमने साफ कर दिया कि अगर जनता समझती है कि यह संविधान उनके हक हकूक की हिफाजत में कहीं खड़ा नहीं होता तो जनता उस संविधान को बदल डाले ,लेकिन हम कारपोरेट असंवैधानिक देशद्रोही ताकतों को भारत के संविधान और लोकतंत्र से खिलवाड़ की इजाजत नहीं देंगे।
फिर तेलतुंबड़े के वक्तव्य के बाद संचालक शरदिंदु उद्दीपन ने प्रस्ताव रखा कि हमारा जनजागरण का मकसद वही बुनियादी परिवर्तन है और राज्यतंत्र में बदलाव है।जिसके तहत हम बाबा साहेब के सपनों का संविधान और राज्यतंत्र का निर्माण कर सकें।लेकिन हम राष्ट्रविरोधी बाजार की शक्तियों और उनके दलालों की ओर से संवैधानिक प्रावधानों के तहत मनुष्य और प्रकृति के हित में जो प्रावधान किये गये हैं ,उसको खत्म करके संविधान के प्रावधानों के खिलाफ कारपोरेट हित में जनसंहारी संस्कृति के तहत आर्थिक सुधारों को लागूकरने के मकसद से सारे कायदे कानून बदल कर भारतीय लोकतंत्र और संविधान को बदलने की इजाजत नहीं दे सकते।
फिलहाल हमें इसी संविधान के तहत ही व्यवस्था परिवर्तन की मुहिम चलानी होगी।इस पर सभा में सहमतिव्यक्त की गयी।
बांग्ला के प्रख्यात लेखक और पूर्व आईपीएस अधिकारी नजरुल इस्लाम ने अपने निजी अनुभवों का हवाला देकर साफ किया कि संविधान का हर स्तर पर उल्लंघन हो रहा है और लाकतांत्रिक प्रणाली दांव पर है।लोकतंत्र न हो तो किसी भी परिवर्तन की कोई संभावना नहीं बनती।इसलिए लोकतंत्र को संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही बचाने का कार्यभार बनता है।
गौरतलब है कि सेवा में रहते हुए नजरुल ने बंगाल के वोटबैंक राजनीति के तहत मुसलमानों को लगातार वंचित किये जाने का खुलासा करते हुए मुसलिमदेर की करणीय पुस्तक ही नहीं लिखी,बल्कि उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक मूलनिवासीदेर कि करणीय लिखकर बंगाल में वंचितों की व्यापर गोलबंदी करने की मुहिम शुरु की है और अब उनके संगठन का बंगाल के हर जिले में मजबूत नेटवर्क है।
जनमुक्ति के लिए नजरुल साहेब अंबेडकरी आंदोलन को तेज करने की जरुरत बताते रहे हैं और आज भी उन्होंने इस सिलसिले में प्रकाश डाला।
खास बात है कि अंबेडकरी आंदोलन के दुकानदारों की खुली आलोचना और भारतीय संविधान के सच का खुलासा के बावजूद अंबेडकरी धारा के जनसंगठनों ने महसूस किया कि संविधान के महिमामंडन से कारपोरेट समय का मुकाबला नहीं किया जा सकता क्योंकि भारतीय संविधान का पिछले पैसठ सालों से सिर्फ सत्ता वर्ग के हित में ही इस्तेमाल हुआ,नागरिक और मानवाधिकारों के हितों में नहीं और न ही बहिस्कृत बहुसंंख्य जनसमुदायों के भूगोल में यह संविधान या कानून का राज कहीं लागू है।
खास बात यह कि इस सभा में शामिल लोगों ने देशव्यापी शिक्षा आंदोलन का समर्थन भी किया है और देशभर में विभिन्न जनसंगठनों की ओर से चलाये जा रहे सभी तरह के जनपक्षधर आंदोलनों और सभी जनसमूहों को साथ लेकर चलने पर सहमति जतायी है।
खास बात यह कि परंपरागत बहुजन आंदोलन की तरह किसी भीतर तरह की अस्मिता या शब्दावली का इस्तेमाल किये बिना अस्मिताओं रके आरपार जाति उन्मूलनके एजंडे के तहत बुनियादी मुद्दों और आम जनता के हक हकूक के लिए निकरंतर जन जागरण अभियान पर सहमति हुई है।
गौर तलब है कि इस सभा का कोई अध्यक्ष न था और हर संगठन और हर व्यक्ति को अपनी राय रखने और दूसरों के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया देने की छूट थी।कोई मंच कहीं नहीं था बल्कि हम लोग एक दूसरे से सीधे हमारे मुद्दों पर संवाद कर रहे थे।
कोलकाता सिख संगत और मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने आपबीती बताते हुए सवाल किये अगर देश में संविधान लागू है तो पीढ़ियों से न्याय से वंचित क्यों हैं वंचित बहुसंख्य लोग और खासकर आदिवासी।
सिखसंगत के नेता और पंजाबी के साहित्यकार जगमोहन गिल ने भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक हक हकूक के बारे में लगातार व्यापक जनजागरण जारी रखने की बात की।
बैंक कर्मचारियों के नेता सुरेश राम जी ने कहा कि 26 नवंबर को इस मुहिम की शुरुआत होगी।उन्होंने जाति उन्मूलन के आंदोलन पर फोकस किया और कहा कि जाति को खत्म किये बिना बहुसंख्य जनत की गोलबंदी नही हो सकती और हमें इस पर फोकस करना चाहिए।
बेंगल बुद्धिष्ट सोसाइटी के अरुण बरुआ इस आयोजन को संगठित करने में लगे थे लेकिन वे भी अपने विचार व्यक्त करने से चूके नहीं।
दलित मुस्लिम फ्रेंडशिप के एमएन अब्दुससमाद और अब्दुल मनासी ने भी नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए अस्मिता आरपार सामाजिक आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।
मुर्शिदाबाद से आये पत्रकार हेनाद्दीन,न्यू बैरकपुर अंबेडकर मिशन के विराट चंद्र सेन, मेदिनीपुर के कर्मचारी नेता अरुप चौधरी,बाहाला के अलक विश्वास,मतुआ आधारभूमि वनगांव के गोपाल चंद्र हालदार
ग्रामीण अंचलों से आयी महिलाओं ने कांथी की एडवोकेट मिसेज बर्मन,बारुईपुर महिलामंडल की दुलाली सिंहा और सुनीता विश्वास कीअगुवाई में कहा कि अगर भारतीय संविधान लागू है तो स्त्री आज भी क्यों शूद्र और दासी है और लोकतांत्रिक समाज और देश में उनका सही स्थान क्यों नहीं है।
मेदिनीपुर,उत्तर और दक्षिण 24 परगना और हुगली जैसे ग्रामीण इलाकों से महिलाएं आयीं और उन्होंने सामाजिक बदलाव के सिलसिले में अपनी भूमिका पर बातें भी सिलसिलेवार कीं।
हमने भी उनसे वायदा किया कि देश व्यापी परिवर्तन के सामाजिक आंदोलन में हम न केवल युवाजनों और स्त्री की व्यापक भागेदारी चाहते हैं बल्कि हम स्त्री नेतृत्व में ही नये सिरे से शुरुआत करना चाहते हैं।
इस सभा में भारत देश में देश बेचो ब्रिगेड के माफिया राज में लोकतंत्र के लिए जगह बनाने के लिए संविधान पर नये सिरे से बहस शुरु करने संवैधानिक प्रावधानों और अधिकारों के तहत जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका के हक में सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता पर सहमति जताई गयी।
खास बात है कि आज ही के दिन छत्तीसगढ़ के साढ़े छह सौ गांवों के प्रतिनिधियों ने राजधानी रायपुर में संवैधानिक व लोकतांत्रिक हक हकूक के लिए 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का संकल्प किया है।तो ओड़ीशा के हर जिले में संविधान दिवस मनाने की तैयारी जोरों पर है।झारखंड और बिहार के साथियों ने वायदा किया है कि वे पीछे नहीं रहेेंगे।
देश भर में समान मुफ्त शिक्षा के लिए शिक्षा यात्रा कश्मीर से कन्याकुमारी और पंजाब से लेकर अरुणाचल मणिपुर तक जारी है तो संविधान दिवस भी देशभर मनाया जायेगा।
इसीतरह बाकी जनांदोलन मसलन सोलह मई के बाद कविता जैसे सामाजिक चेतना आंदोलनोऔर पर्यावरण आंदोलनों को भी साथ ले चलने पर सहमति हुई है।
मुंबई,नागपुर और बाकी महाराष्ट्र में भी तैयारियां चल रहीं हैं।
भारत की राजधानी नई दिल्ली में 26 नवंबर की शाम भारतीय संविधान और लोकतंत्र के लिए मोमबत्तियां जलायी जायेंगी तो कोलकाता में कालेज स्कवायर से लेकर कोलकाता मैदान के मेयोरोड पर अंबेडकर मूर्ति तक पदयात्रा निकलेगी।
जिलों,नगरों,कस्बों और गांवों में जो कार्यक्रम देशभर में होने हैं,उनकी रुपरेखा उन क्षेत्रों में सक्रिय संगठन तैयार करेंगे औरकार्यक्रमों का आयोजन भी वे ही करेंगे।
यह सारा कार्यक्रम एकदम जमीनी स्तर से आयोजित होंगे जिसमें केंदि्रीय स्तर पर किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
अंत में बोले बैंक अधिकारी जयप्रकाश चौधरी और खूब बोले।
Bharat will not be swachh unless the caste ethos is completely eradicated.
Anand Teltumbde (tanandraj@gmail.com) is a writer and civil rights activist with the Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai.
Narendra Modi's theatrics seem unstoppable. Within the last six months that he has been prime minister, he has engaged in too many of them but achieved very little of the acchhe din he promised the people. On Teachers' Day, he cancelled the customary holiday for schoolkids and made them come to school to listen to him on television. On Gandhi Jayanti he again cancelled the commemoratory national holiday and made people wield jhadoos to launch theSwachh Bharat Abhiyan. While most of his theatrics evoked mild controversies, this one, potentially the most controversial and problem-ridden, seems to have gone well with most people – probably because Modi was doing a Gandhi here; because he anticipated some of the scepticism and quashed it; because the issue was too important for the image of India as a "great nation" to create controversies. But beyond all this, the main reason for the silence was the collective ignorance of the causality of unclean India being rooted in the caste culture and, more so, the need for its eradication through the annihilation of caste.
Causality of Uncleanliness
There is little doubt that India stands out in the world as a uniquely unclean country. There is no official index of uncleanliness to compare countries but few may dispute that the ubiquity of filth is almost unique to India. Uncleanliness is uncritically attributed to poverty. Whether it is at the individual level or at the level of the country, poverty results in the lack of basic sanitation infrastructure and operating wherewithal to maintain cleanliness. Since India has widespread poverty, its filth is also tacitly linked with it. But this association does not hold. There are poorer countries than India but, in terms of cleanliness, they still look better than her. It is commonplace in India to observe people defecating all around public toilets wherever they exist. Cleanliness is more of a cultural matter than poverty.
The poor have to labour in conditions of filth. As landless labourers they work in muddy fields, as non-farm workers working in construction or in extraction industries, they labour in a still more mucky and dusty environment. But still they maintain a functional cleanliness. The poor obviously cannot have cleanliness identified with riches but they innately know the importance of functional hygiene and cleanliness. One can easily see this in the homesteads of the poorest of the poor in villages and tribal hamlets. Even in urban slums, this is largely true; despite many odds, the poor maintain a functional cleanliness within their hutments. The reason behind this is that they just cannot afford the cost of falling sick because of lack of hygiene and cleanliness. The filth gets basically produced in the civic realm and it is disproportionately contributed by the rich. This could be associated with the disproportionate damage done by the rich countries to the global environment.
What then explains the uncleanliness of India? The answer lies in Indian culture which is nothing but caste culture. This culture externalises the responsibility of maintaining cleanliness to a particular caste. It stigmatises work as unclean and workers as untouchables. Although the crude form of untouchability may not be pervasively practised today, it does exist to a significant extent as shown by an Action Aid Survey of 50 villages conducted in 2000, and the survey in 2009 by the Ahmedabad-based Navsarjan Trust and the Robert F Kennedy Center for Justice and Human Rights, which covered Modi's Gujarat. More than untouchability, a caste ethos is pervasively reflected in the behaviour of Indians. This ethos, which effectively "casteises" and genders various tasks, persists despite the spread of education, globalisation and urbanisation. While the world over people have imbibed a "civic sense" and primarily bear the responsibility to maintain cleanliness, only secondarily relying upon sanitary workers, in India, people derive a sense of (upper-caste) superiority in littering the place, expecting it to be cleaned by the lower-caste scavenger. If a small community of these scavengers, treated worse than shit and exploited to the hilt, is vested with the responsibility of clearing the filth generated by 1,250 million people with impunity, the country is destined to remain unclean. It is akin to a small band of kshatriyas being given the responsibility of defence, which gave India a history of slavery, or a small brahmin caste with a monopoly of knowledge, which left India ignorant and backward.
Muted Casteism
It follows that unless this caste culture is eradicated and people themselves internalise the responsibility towards cleanliness, no amount of campaigns is going to succeed. Surprisingly, there is no mention of the c word in Modi's mission, which smacks of the usual denial mode of the elite that castes no longer exist – they are a non-issue. It will never occur to Modi that his act of beginning the cleanliness drive from the Valmiki Colony actually reinforced the association between Valmikis and scavenging. Gandhi had also paternalistically done the same; without speaking against castes, he just displayed his mahatmahood by living among the Bhangis of Delhi. Modi actually borrows his snippets of wisdom from Gandhi when he writes about Valmikis:
I do not believe that they [valmikis] have been doing this job just to sustain their livelihood. ... At some point of time, somebody must have got the enlightenment that it is their duty to work for the happiness of the entire society and the Gods; that they have to do this job bestowed upon them by Gods; and that this job of cleaning up should continue as an internal spiritual activity for centuries (Karmyog, collection of speeches by Modi, pp 48-49).
These "spiritual" remarks expectedly met with harsh condemnation from dalits in Tamil Nadu, who burnt his effigies in different parts of the state. But even after two years he repeated the same remark while addressing a conference ofsafai karmacharis, saying, "A priest cleans a temple every day before prayers; you also clean the city like a temple. You and the temple priest work alike." In mimicking Gandhi, Modi only betrayed his monumental ignorance of Ambedkar's attack on Gandhi's packaging of the ugly reality of castes with religio-spiritual humbug, which by now is known even to schoolchildren. Modi is also blissfully ignorant about the contemporary Safai Karmachari Andolan's struggle to abolish dry latrines wherein, apart from civil society, the Indian Railways figure as the major culprit. And, the horrific episode at Savanur in Karnataka, where the safai karmacharis, in their desperation, protested against their harassment by pouring human excreta over their heads in public. Like castes, the government has been in perpetual denial mode about the issue of dry latrines or the plight of manual scavengers. The only viable meaning of Modispeak is to serve the RSS (Rashtriya Swayamsevak Sangh) strategy of brahminising dalits so as to neutralise their anti-brahminism and realise its Hindutva agenda.
The main motivation behind this swachh Bharat campaign is basically the supremacist obsession of the Bharatiya Janata Party, which had misled it in the past to declare that India was shining in 2004 when 60% of its population was defecating in the open. It should be said to the credit of Modi that he has foregrounded this standing shame and decided to construct 12 crore toilets at an estimated cost of Rs 1.96 lakh crore during his current tenure. But even here he had a sleight of hand, relying majorly upon neo-liberal philanthropy, i e, corporate social responsibility. As he skilfully sidetracked government responsibility in creating sanitation infrastructure, he has evaded it even in creating operational jobs by invoking Gandhian spirituality to ask people to put in voluntary labour of a minimum two hours a week. If that is what is needed for a swachh Bharat, the estimated voluntary labour will be equivalent of 40 million jobs as against the less than 18 million currently in the entire public sector. If one views this idea from a feasibility perspective, it smacks of the usual governmental assertion, high on rhetoric and low on results.
Goebbelesque Rhetoric
Undoubtedly, Narendra Modi, more than any other prime minister, has impressed a cross-section of people, particularly his foreign audiences. However, there is not much of credible evidence as yet, either before or after he became prime minister, of having delivered what he promised or claimed to deliver. A multibillion rupee Goebbelesque campaign during the last Lok Sabha elections projected Gujarat under Modi as an epitome of development and won him the prime minister's post but the truth was otherwise. Gujarat was, at best, a middling state on most developmental parameters. There was nothing spectacular about it except for the autocratic governance of its chief minister and the red-carpet welcome it accorded to corporate honchos. The much flaunted vibrancy of Gujarat was confined to these two factors. From the viewpoint of the masses, it was as good or as bad as many other states, and certainly worse than some. While any meaningful observation on Modi's performance as the prime minister over just the six odd months that have gone by may be erroneous, all the dazzle, dynamism and captivating oratory with which he has mesmerised people to see him as an extraordinary leader, here as well as abroad, reminds us of his tenure in Gujarat, high on rhetoric and low on results.
As the chief minister of Gujarat, he had launched a similar campaign, "Nirmal Gujarat" in 2007, and made tall claims. But his record on waste management and pollution in Gujarat has been appalling. Rohit Prajapati, a Gujarat-based environmental activist, has provided succinct details making use of the facts in the "Report of the Task Force on Waste to Energy", dated 12 May 2014, by the Planning Commission (http://sacw.net/article9679.html).
Notwithstanding all this, Modi should be given credit for highlighting the issue of toilets and cleanliness, when those who governed over the last 60 years slept over the fact of India defecating in the open. He deserves commendation even though he creates little confidence in the accomplishment of this mission. As proposed, it is going to be one more mega opportunity for corporate investment. The biggest flaw of Modi's mission so far is that he has totally missed the point if he really meant business. He must understand that India cannot be swachh without the caste ethos being completely eradicated.
সর্বনাশা গেরুয়া সুনামির কবলে মতুয়ারা এবং সারা ভারতের উদ্বাস্তুরাও বেনাগরিক হয়ে থাকতে অভিশপ্ত,কথা রাখলেন না নমো মহারাজ৷
পলাশ বিশ্বাস
সর্বনাশা গেরুয়া সুনামির কবলে মতুয়ারা এবং সারা ভারতের উদ্বাস্তুরাও বেনাগরিক হয়ে থাকতে অভিশপ্ত,কথা রাখলেন না নমো মহারাজ৷
আমার বাবার সঙ্গে আমার রাজনীতি নিয়ে কোনো কথা হত না,কারণ উদ্বাস্তু সমস্যা নিয়ে নারায়ণ দত্ততেওয়ারি,কেসি প্নত,ইন্দিরাগান্ধী,অটল বিহারী বাজপেয়ী ও অন্নান্য রাজনেতিক নেতাদের মুখোপেক্ষী হয়েছিল বাঙালি উদ্বাস্তু আন্দোলন৷
বাংলার বাইরে ছড়িয়ে ছিটিয়ে থাকা উদ্বাস্তুদের শাসক জোটের সঙ্গে তালে তাল মিলিয়ে চলা ছাড়া গতি ছিল না কোনোদিন,আজও নেই৷
অথচ আমি চিরদিনই জেনে এসেছি উদ্বাস্তু সমস্যার জন্য এই শাসক শ্রেণীই সবচেয়ে বেশি দায়ী৷
তাঁরা নানা সমস্যায় ফেলে বাংলার বাইরে বেনাগরিক করে রেখে,মাতৃভাষা ,সংরক্ষণ থেকে আমাদের বন্চিত করে আমাদের শুধু ভোট ব্যান্ক করে রেখেছে৷
আমরা পৃথক উত্তরাখন্ড রাজ্য সমর্থন করেছিলাম৷ বাবাও করেছিলেন এবং তার সবচেয়ে বড় কারণ হল প্রশাসনিক সুবিধা এবং ছোট বিধানসভা এলাকায় আমাদের রাজনৈতিক প্রতিনিধেত্বের আশা৷
নূতন রাজ্য হওয়ায় প্নতনগর গদরপুর বিধানসভা এলাকা থেকে পর পর দুবার এমএলএ নির্বাচিত হন বহুসংখ্য বাঙালি ভোটে দিনেশপুর অন্চলের বাঙালি উদ্বাস্তু সন্তান প্রেমানন্দ মহাজন৷
কিন্তু গত নির্বাচনে ঔ এলাকার অর্ধেক ভোটারদের ফেলে দেওয়া হল রুদ্রপুরে৷ ফলে প্রেমানন্দ প্রবল জনপ্রিয়তা সত্বেও হেরে যান৷
সিতারগন্জ থেকে বাঙালি এমএএলএ হন এবার কিরণ মন্ডল বিজেপির টিকিটে৷
তিনি তত্কালীন মুখ্যমন্ত্রী বিজয় বহুগুণার জন্য সিট ছেড়ে কংগ্রেসে গিয়ে মন্ত্রী সমান নিগম অধ্যক্ষ হয়েছেন ,কিন্তু কার্যতঃ উত্তরাখন্ড বিধানসভায় বাঙালিদের প্রতিনিধিত্ব নেই৷
শক্তিফার্ম এলাকায় বাঙালিদের ভুমিধারি হক দেওয়ার ওয়াদা করে বিজয় বহুগুণা মুখ্যমন্ত্রিত্ব শেষ পর্যন্ত রক্ষা করতে পারেননি,এবম এখন নূতন মুখ্যমন্ত্রীর কোনো ইন্টারেস্ট নেই বহুগুণার কথা রেখে বাঙালিদের জন্য কিছু করার৷
অন্যদিকে বাঙালি ভোটে বিজেপির ভগত সিংহ কোশ্যারি নৈনীতালের এমপি ,যেমন তেওয়ারি পন্তরা হয়েছিলেন৷
অথচ উত্তরাখন্ডের প্রথম বিজেপি সরকারই সর্বপ্রথম নাগরিকত্ব সংশোধনী আইন পাশ হওযার অনেক আগেই 2003 সালে৷
উত্তরাখন্ডে বাঙালিদের নাগরিকত্বের দাবিতে উত্তরাখন্ডের আন্দোলনকে সেদিন পশ্চিম বাংলা সমর্থন করেছিল,তাই বিতাড়ন স্থগিত ছিল৷
রাজ্যে কংগ্রেস সরকারের পতনের পর নূতন বিজেপি সরকার সেই পুণ্য কর্মটি এবার সমাধা করতেই পারে৷
নাগরিকত্ব আইনও প্রণযন করে ঔ বিজেপি৷বাঙালি উদ্বাস্তুদের সারা দেশ থেকে বিতাড়িত করা বিজেপির এজেন্ডা৷
বাংলাদেশে সংখ্যালঘু নিপড়ন ও ভারত ভাগের সঙ্ঘ পরিবারের হিন্দুত্ববাদী গপ্পোর সঙ্গে বাঙালি তফসিলী উদ্বাস্তুদের জীবন মরণের কোনো সম্পর্ক নেই৷
সাম্প্রদায়িক উস্কানি ও মুসলিম বিদ্বেষে গেরুয়া মেরুকরণ ও মনুস্মৃতি শাসনের করপোরেট রাজই বিজেপির মতাদর্শ,অথচ তাঁদের চরম লক্ষ্যউদংবাস্তুদের জ্যান্ত মেরে ফেলা৷
মালকানগিরি তে নদে বাসী বিশ্বাস,অরবিন্দ ঢালি ও পরে নারায়ণ বিশ্বাস,বোধ হয়,এমএলএ হওয়ার পর সেই রাজ্যের ঔ এলাকা এখন আদিবাসিদের জন্য সংরক্ষিত বিধানসভা এলাকা এবং উড়ীষা বিধানসভায় বাঙালি উদ্বাস্তু প্রতিনিধিত্বের জমানা শেষ৷
উড়ীষ্যার নওরঙদেওপুর জেলা ও সারা ভারতে বিজেপি রাজে নূতন করে উদ্বাস্তু বিতাড়নের জোর প্রস্তুতি চলছে৷
আবার নাগরিকত্ব সংশোধনী আইন পাশ করতে চলেছে নমো সরকার৷অথচ বাংলাদেশ থেকে যেসব উদ্বাস্তু ভারতে আসছেন তাদের নাগরিকত্ব দেওয়ার কথা বলেন মোদি। রাহুল সিনহা বলেন, প্রতিবেশী দেশ বাংলাদেশের মানুষ এবং সার্বভৌমতের প্রতি যথেষ্ট ভালোবাসা ও সম্মানবোধ আছে নরেন্দ্র মোদির। বিজেপি সবসময়ই প্রতিবেশী দেশের সঙ্গে সুসম্পর্কে আগ্রহী।
সারা ভারত দাপিয়ে হিন্দুদের শরণার্থী ও মুসলিমদের অনুপ্রবেশকারি বলে জোর গৈরিক মেরুকরণ ও বাংলা দখলের ছক কষে ফেলা সত্বে এই নূতন আইনে ভারত ভাগের বলি বাহালি উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্বের কোনো ব্যবস্থা নেই,অথচ উদ্বাস্তু নেতারা গাডকরির সঙ্গে ফটো তুলে বিশ্বাস করে বসে আচেন এবার তাঁদের নরক যন্ত্রণা শেষ হচ্ছে৷
অথচ কেন্দ্রের এই সিদ্ধান্ত পশ্চিমবঙ্গের রাজনীতিতে বড়সড় ছাপ রাখতে পারে৷ পশ্চিমবঙ্গের দুই ২৪ পরগনা, নদিয়া, হাওড়া, হুগলি, বর্ধমান এবং কলকাতায় বসবাসকারী নাগরিকত্বহীন এই মানুষদের বড় অংশই মতুয়া সম্প্রদায়ভুক্ত, সব দলই যাদের সমর্থন পেতে মরিয়া৷
আসল কথা হল,বিজেপির নীতিগত অবস্থান,ভারতে অবৈধভাবে যেসব বাংলাদেশী অভিবাসী রয়েছেন তাদের উদ্বাস্তু মর্যাদা দেয়ার বিপক্ষে বিজেপি।
বিজেপির জাতীয় মুখপাত্র সিদ্ধার্থ সিং শনিবার কলকাতায় সাংবাদিকদের বলেন, ব্যবসা বা অন্য কোনও উদ্দেশ্য নিয়ে যেসব বাংলাদেশী বেআইনিভাবে ভারতে এসেছেন তাদের কোনভাবেই উদ্বাস্তুর মর্যাদা দেয়া হবে না।
বিজেপির নির্বাচনী ইশতেহারেও সেকথা বলা হয়েছে বলে তিনি জানান।
লোকসভা নির্বাচনের সময় শ্রীরামপুরে এক জনসভায় বিজেপির প্রধানমন্ত্রী পদপ্রার্থী নরেন্দ্র মোদি বলেছিলেন, তারা ক্ষমতায় এলে বাংলাদেশীদের ফেরত পাঠাবেন। সেজন্য বাংলাদেশী অভিবাসীদের বাক্স-পেটরা বেঁধে তৈরি থাকতে বলেছেন।
অথচ লোকসভা নির্বাচনের সময়কালীন বিজেপির সভাপতি রাজনাথ সিং পশ্চিমবঙ্গে এক নির্বাচনী জনসভায় দাঁড়িয়ে বলেছেন, বাংলাদেশ থেকে অত্যাচার করে মানুষ তাড়িয়ে দেয়া হবে, এতে আমরা চুপ করে বসে থাকতে পারি না। ১৯৭১ সালের পর থেকে যারা ভারতে এসেছেন তাদের বাংলাদেশে ফেরত পাঠানো হবে।
বাংলাদেশীদের তাড়ানোর ব্যাপারে মোদি যে কথা বলেছেন তারও ব্যাখ্যা দিয়েছে অমিত শাহের আগের বিজেপি সভাপতি। তিনি জানিয়েছেন, মোদিজি কাউকে আঘাত করতে চাননি। ভারতে দীর্ঘদিন ধরে যারা বসবাস করছে তারাও এদেশের মানুষ কিন্তু যাদের ভিসা-পাসপোর্ট নেই তাদের থাকতে দেয়া হবে না।
বহিরাগতদের অনুপ্রবেশকে ভারতের পশ্চিমবঙ্গ রাজ্যে নানা সমস্যার অন্যতম বলে নির্বাচনী প্রচারে এসে সরব হয়েছিলেন নরেন্দ্র মোদি।
বিজেপি ক্ষমতায় এলে অনুপ্রবেশ ঠেকাতে কঠোর পদক্ষেপ করা হবে বলে হুঁশিয়ারিও দিয়েছিলেন তিনি। নির্বাচনের পর সেই কাজেই মোদির সরকারকে সাহায্যের হাত বাড়িয়ে দিয়েছে তার পার্টি।
অনুপ্রবেশ ঠেকাতে সীমান্তে বিজেপির বিশেষ সেল গঠন
পশ্চিমবঙ্গে অনুপ্রবেশ ও জঙ্গি আনাগোনা ঠেকাতে সীমান্তে নজরদারির জন্য রাজ্য বিজেপি বিশেষ সেল গঠন করেছে। কেন্দ্রীয় স্বরাষ্ট্র মন্ত্রণালয়ের পাশাপাশি ওই সব এলাকায় সমান্তরাল নজরদারি চালাবে দলের বিশেষ কমিটি। যে কমিটিগুলির মাথায় আছেন দলে যোগ দেওয়া প্রাক্তন সেনা ও পুলিশকর্তারা।
আরএসএস এই ধরনের কমিটির সাহায্যে সারা বছর সীমান্তে নজর রাখে বলে বিভিন্ন সময়ে শোনা গেলেও কোনো রাজনৈতিক দলের তরফে এমন কমিটি গড়ে নজরদারি চালানোর কথা অতীতে শোনা যায়নি। বিজেপি প্রকাশ্যেই এই কমিটি গড়ার কথা জানাচ্ছে।
এ বিষয়ে বাড়তি উদ্যোগ নিয়ে লোকসভা ভোটের আগেই কেন্দ্রীয় স্তরে ও সব রাজ্যে সিকিউরিটি সেল তৈরি করেন মোদি। সম্প্রতি পশ্চিবঙ্গে বিজেপির শীর্ষ নেতৃত্ব সেই টিম গঠনের কাজ শুরু করেছেন।
সেলের আহ্বায়ক রাজ্য পুলিশের প্রাক্তন আইজি শঙ্করনাথ মুখোপাধ্যায়৷ তবে পুরো কমিটি এখনও তৈরি হয়নি৷ শঙ্করনাথ ইতিমধ্যে বনগাঁ, বসিরহাট ও মুর্শিদাবাদের সীমান্ত এলাকায় গিয়ে মানুষের সঙ্গে কথা বলে এসেছেন৷ গত সপ্তাহে দিল্লি গিয়ে কেন্দ্রীয় নিরাপত্তা সেলের প্রভারী বা সর্বাধিনায়ক প্রাক্তন লেফট্যানান্ট জেনারেল এন এস মালিককে এই সংক্রান্ত প্রাথমিক রিপোর্ট দিয়েছেন তিনি৷
জাতীয় নিরাপত্তা সেলের আহ্বায়ক পি চন্দ্রশেখর রাও পেরালার ভাষ্য মতে, 'পশ্চিমবঙ্গ, বিহার, আসাম ও উত্তর-পূর্বাঞ্চলের সীমান্তে বেআইনি অনুপ্রবেশ নিয়ে কেন্দ্রীয় সরকার খুবই উদ্বিগ্ন৷ সেই কারণে সীমান্ত এলাকায় নজরদারি রাখতে স্থানীয় মানুষকে সচেতন করার জন্য দল এই সেল তৈরি করেছে৷ কমিটির সদস্যরা সীমান্তে যাচ্ছে৷'পেরালা জানিয়েছেন, দিন দশেকের মধ্যে তিনি এ রাজ্যে আসবেন৷ যেতে পারেন কয়েকটি সীমান্ত এলাকাতেও৷ তারপর দিল্লি ফিরে দলের সভাপতি অমিত শাহ ও কেন্দ্রীয় স্বরাষ্ট্র দপ্তরকে রিপোর্ট দেবেন তিনি৷
লোকসভা ভোটের প্রচারে এসে মোদি বেআইনি অনুপ্রবেশকারীদের বাংলাদেশে ফেরানোর হুঁশিয়ারি দিয়েছিলেন। মোদির বক্তব্যের তখনই কড়া জবাব দিয়েছিলেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়৷ তোপ দেগেছিল বাম ও কংগ্রেস শিবিরও৷ তারা বলেছিল, মোদি আসলে উদ্বাস্তু মানুষদের দেশ থেকে তাড়াতে চাইছেন৷ বিজেপির তৎকালীন প্রধানমন্ত্রী পদপ্রার্থীর অবশ্য নিজের বক্তব্যের ব্যাখ্যা দিয়ে বলেছিলেন, তিনি উদ্বাস্তু বা শরণার্থীদের নয়, অনুপ্রবেশকারীদের উদ্দেশ্যে হুঁশিয়ারি দিয়েছিলেন।
দলীয় সূত্রে জানা গেছে, নিরাপত্তা টিমের কর্তাদের সঙ্গে মোদি, অমিত শাহ ও স্বরাষ্ট্র মন্ত্রণালয়ের পদস্থরা দফায় দফায় বৈঠক করে সেলের কর্ম পদ্ধতির রূপরেখা ঠিক করেছেন৷ বিজেপির সিদ্ধান্ত, সীমান্ত এলাকার মানুষকে অনুপ্রবেশ, জঙ্গি ও গরু পাচারের মতো সমস্যা নিয়ে সচেতন করতে এবং সেদিকে কড়া নজর রাখতে শিবির করবে৷ দলের রাজ্য সভাপতি রাহুল সিনহার কথায়, 'অভ্যন্তরীণ নিরাপত্তার বিষয়ে যাবতীয় তথ্য সংগ্রহ করে সেল আমাদের রিপোর্ট পাঠালে আমরা কেন্দ্রীয় সরকারকে তা জানিয়ে দেব৷'
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Targeting Nehruvian Legacy?
Ram Puniyani
The debates about India's partition, Gandhi murder and policies of Nehru have been a matter of ceaseless debates. Each political tendency has their own interpretation of these events, which in a way are landmarks of sorts in modern Indian History. As such the phenomenon of Partition of India and assassination of Gandhi are interwoven in the sense that Godse held Gandhi responsible for appeasement of Muslims. Godse constructed his story around warped understandings of the events of the time to create the ground for murder of the Mahatma. These views are shared by many Hindu nationalists, who are in and around RSS-BJP. Now with the ascendance of BJP to the seat of power many of its leaders are coming out more boldly with Hindu nationalist interpretation of the events, but a twist is being added. This twist is apparent in the article by a BJP leader from Kerala in the RSS mouth piece Kesari. This article indirectly suggests that Nathuram Godse should have killed Jawaharlal Nehru instead of Mahatma Gandhi, as according to him the real culprit was Nehru and not Gandhi.
The BJP leader who wrote this is B Gopalkrishnan. He says "If history students feel Godse aimed at the wrong target, they cannot be blamed. Nehru was solely responsible for the partition of the country." What does one make of it? Is it the official RSS line? To be on the safe side RSS spokesperson Manmohan Vaidya has distanced the RSS from the statement of its leader. Still it is not difficult to guess that there may be prevalence of such thinking within the RSS circles on the lines of the author of RSS mouthpiece article. This Kesari article is significant as it is trying to shift the blame from Gandhi to Nehru. It may not be too difficult to understand the reason for the same. Before we have a look at who was responsible for partition, let's try to understand why the blame is being shifted from the Mahatma to Nehru. Recently Narendra Modi launched Swachh Bharat Abhiyan (Clean India campaign) on 2nd October as a tribute to the father of the nation, Gandhi. This move has two shrewd aims. One is to appropriate Gandhi for the politics of Hindu nationalism; two is to reduce Gandhi's contribution to mere cleanliness and hygiene. This over projection of cleanliness associated with Gandhi as such dwarfs the major contribution of Gandhi, Hindu Muslim unity and national integration in the deepest possible sense.
Nehru's staunch and principled commitment to Indian nationalism, pluralism, secularism and scientific temper make him a figure totally unacceptable to Hindu nationalists, as Hindu nationalism stands for the values totally opposed to these. So the attempts like this article are planned attempts for tasting of waters by throwing up Nehru's name as the culprit for the partition tragedy.
As such Gandhi, Nehru and Patel were the most prominent leaders of the anti colonial freedom movement. Gandhi was the central pillar, who built up the anti-British-Indian nationalist mass movement, gave it solid foundations and then gradually became the moral guide for the same. He passed the major mantle of his responsibilities to Nehru and Patel. Most of the times Hindu nationalists, Hindu Mahasabha-RSS, were critical of Gandhi's efforts for Hindu Muslim unity. The Muslim communal stream, Muslim League looked at Congress as a party representing Hindus alone. The truth is that majority of people from all religions were with the Gandhi led movement for Indian nationalism. It is only after 1940s that more Muslims started shifting to Muslim League due to the rise of communalism.
Gandhi was criticized by both communal streams, Hindu communal stream criticized him for appeasing Muslims, and Muslim communalists called him a Hindu representative. Partition was due to multiple factors. The first and foremost of these was the machination of British policy of 'divide and rule' which strengthened the communal streams-Muslim and Hindu both. Secondly British had an agenda of colonial masters. They perceived that a united India will be a power in its own right, more likely to ally with Soviet Union in global bipolar world. Their perception was due to the presence of a significant Left wing in the Indian National Congress led by Nehru himself.
Partition tragedy was multi layered phenomenon, which cannot be reduced to a single incident. Many such incidents had their own impact on the totality of the phenomenon of course. We need to see the deeper differences between the Indian nationalists on one hand and Religious nationalists (Muslim League-Hindu Mahasabha) on the other and the clever role of British in partitioning the nation. That should be central to understanding the process, rather than putting the blame on any single individual.
As per the perception of Hindu communal stream so far it was supposed to be Gandhi who was responsible for partition and for appeasement of Muslims, now this stream is trying to shift the blame on to Nehru as they need Gandhi as an icon, though freed from his core virtues of truth and non violence, reduced to mere 'cleanliness man'. In no way they can appropriate Nehru, as Nehru lived after Independence to nurture the values of Indian nationalism, pluralism, liberalism and diversity, the principles which were the cementing factors of Indian national movement, the biggest ever mass movement in the World. So this Keasri, RSS mouthpiece article and the façade of its being disowned!
People of world are horrified with the images of genocide by the IS (Islamic State). Human civilization is knocked down. Same situation is in Palestine, where the Zionist Israeli force is massacring people. The Yazidi ethnicity IS wants to eliminate through making genocide apart from massacring on Shite sect and Kurd nationals, belongs to Zoroastrian religious community. And which religion do the IS believe in in the name of Islam? They have nothing to do with the existence or non-existence of Allah or something like that, but they just want to satisfy their sectarianism and feudalism. What is that barbarianism? It is the same reality that exists in America, Israel, Arab, Indo-Pak-Afghan-Bangla South Asia, Myanmar, Russia, China and rest of the world. It is not only making split among human race on superstitious basis, but also systematic extermination of a community. Do the people love this religion named object which make them forget the human nature and be monster? Zionism in Israel, Islamism in Middle East and elsewhere, Buddhism in Myanmar and Christianism in America and Europe do not show human identity, rather it only shows how much inhuman the human named object may be. Of course, common people are just target of that.
The truth is what we saw an Imperialism (US) and an Expansionism (Pakistan) bringing up a Taliban, giving rise to Islamist Fundamentalism, while at the same time the top mastermind US storing Christian religion-ism to call for a Crusade later on. First this side carried massacre, systematic communal extermination, devastation, then that side. Who is the scarified animal in between? That is people, who don't have any oppressive-deceitful idea of religion. In Bangladesh Islamic Sharia is being practiced on state level, children are forced to take religious education, the children who deny obeying that, are tortured severely. Restriction is being imposed on women, Islamization is going on in education, culture and all the spheres. Though, as result of Muslims being driven out from India and Hindus driven out form Bangladesh, eighty percent of people here belong to Muslim sect, even then, Islamization did not happen. To speak the truth, even a hundred years before there was no Sharia among the Muslims and nor there was any Brahminism among the Hindus among Ninety percent people of Bangladesh. All those were among the kings and monarchs and Jaminders (Feudal big land lord). They used to force people to obey those, also to obey them and they said to people that Allah or God selected them as King. If people don't have faith on that, they will not be permitted to stay in that kingdom. As weapon of making split in society, they created caste-ism and as belonged to lower caste, common people suffered discrimination since centuries after centuries.
Naturally human are materialist. Human know that they must do production, otherwise society and human race will not survive. In work, act, thinking and idea, they do not manifest idealism, nor does the ruling class believe that superstition a single bit, but they pretend and remain pretending. They create anti character among people. The weakness people have is that they do not consume what they produce, but the bourgeoisie, kings, Jaminders big owners consume that. As result, human wants self-satisfaction in imagination. This is called romanticism. Religion-ism creates such things in social economic system which divide society on religious basis. It happened in India time and again, Indian society was divided sometimes on the basis of Islamism, sometimes on the basis of Hinduism. It resulted in creation of sectarian India, Pakistan and later Bangladesh. The formation of society was such that in one place this Jaminder of this religious community, while in other place that Jaminder of other religious community used carry exploitation of people and additionally religious oppression over people. This is a critical problem. Otherwise, sectarian India or Pakistan would not have borne. On the other side, the Communist Party did not lead India in liberation due to its leaders' embracing revisionist line.
Fundamentalist activity in Bangladesh and BJP'S coming into power in India is a bad sign. Imperialism is the highest stage of capitalism and last phase of exploitative society, which is in death bed now. But until it dies, it will continue to spread smell of rotting. Until its end, human has to see this horror.
The aim of religion-ism is to meet material interest; to meet an interest by terrifying people with blindness, superstition, and super naturalism and after death life. It can be done better in a comparatively backward society, for instance feudalism. But when in fact world has crossed the stage of feudalism and reached the imperialism that is the last stage of capitalism, it can't return totally to feudalism. This is why it takes the form of fascism. Fascism is the most reactionary dictatorship of monopoly bourgeoisie. They are the extremist section of the bourgeoisie who make a hoax among people like Islam. Its basis is feudalist romanticism. That is feudalist sectarianism, a feudal ideology to carry extra exploitation over people. Therefore, religion-ism is feudalist romanticist and fascist.
The farce in the name of trial of old Pro Pakistani Islamist war criminals has become clear. Those who misguided the Shahbagh movement are now being beaten by their own master Awami League. Everybody understood, only they didn't because of their class character. They are higher middle class and easily can be bought by giving some opportunities. With the Islamists, Now Awami League has colluded, which anytime can burst into biting each other.
The jump of bourgeoisie parties regardless of close to Islamists, to the feet of Sushoma Swaraj when she came in Bngladesh in a visit that is carrying a new conspiracy against people. The Awami League is bound to India. Interestingly, in Bangladesh the party that was mostly pleased with the winning of power by BJP in India, was BNP, which most of the times are closer to Islamists. Because against India they are not going get extra support from Chinese Imperialism as China is thinking Islamists a problem. So, BNP needs Indian support, and on the other side, they want to prove to China that they are not Islamist. JP is keen to utilize whatever opportunity is there. US and European imperialists at this moment don't like the Islamist fascism, but any time they can make the Islamists puppet, and hatch a scheme to make Bangladesh an Afghanistan. There are many left in name Islamist fascist in Bangladesh like Farhad Majhar. Many are followers of Mowlana Vasani. The founder of Bangladesh Communist Movement Comrade Siraj Sikder had said that in the name of Islamic socialism, Mowlana vasani was a petit bourgeoisie feudalist socialist. Siraj Sikder very correctly unmasked religion-ism as feudalist based fascism.
Though the Islamists of Bangladesh are recently fallen in crisis due to government suppression, they, by utilizing the social and state opportunities they get, may rise again, which may create communal riot, even genocide that will create the situation of Pre partition India in the whole South Asia, create counter communal riot, counter genocide, while people will be animal of sacrifice who don't have any ultra aspiration for religion, but just want to develop humanity as human being. If revolutionary process is not carried forward, not only it will not be possible to confront any form of fascism, but no advance of society is possible. We have to carry materialism among people, explain and popularize that. We should clear the fear of people about after death life. Where will human go after death? According to the law of transformation of material world, human also will take this or that form: flower, birds, river, something artistic! Surely more developed something will be born. All these are the wonders of universe, what human are coming to know slight by slight through science and materialism, and that process of knowledge in its each step is being hindered by religion-ism that claim that only God has the right to know, human are His servant, human cannot know etc. This is why establishing of materialism is a fierce struggle, a part of the struggle to establish communist trend society too.
There are difference between religion and belief in super natural force. Religion is an organized system that was created during the feudal time. Christianism, Hinduism, Buddhism etc religions are not built in a day, but for many centuries. Sectarian clashes, occupying other's states and expansion of empire was done under the banner of religion. That Abbasian and Umaiyans had shed blood in Asia and Europe for many centuries, made fratricide and took the lives of hundreds of thousands of people had nothing to do with religion. The horrifying image we see in Mahavarat and Karbala was result of internal contradiction of monarchy: the main point was who will be king. The sword of Ashoka took innumerable people's blood before he embraced Buddhism. The Islamist atrocities of Aurongojev arose from the greed of confining power in the hands of narrow sect by suppressing other sects of the whole India, as a result of that, after two hundred years, India was officially divided.
Feudalist interest lies in sucking the blood of people. The feudal kings, monarchs, Jaminders (big land lords) and Jotedars (Small land lords) are the exploiting classes against peasants who are serf in feudalism. Peasants' Lands, families and everything are properties of Jaminders except a piece of land they are allotted to till for their own, which makes the difference from ancient slave. In the society of religion-ist, there are even full slave whom the owners may kill too. And the half of society: women are slaves of men.
Therefore, it does not matter whether religion-ists asks to worship to God or to Supreme spirit, but in its essence there is material interest: sectarianism, monarchy, and feudalism, above all endless exploitation of people. This is why it took the form of fascism. It wants to take human back to decadent past of the old days by taking feudalism as the basis. If we want to build a communist-trend society, we must fight against those. Those who don't want to fight against that are making trick. They are deceiving people. We must smash all types of hoax and deception.
यह देखा गया है कि जब कभी भी मैं बसपा के बारे में कोई आलोचना करता हूँ तो बहुत से दोस्त मुझ से विकल्प के बारे में पूछते हैं। मैं उन की जानकारी के लिए अपना हाल का आलेख "दलित बनाम बहुजन"पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ
पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। बहुजन अवधारणा के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की सख्या 85% है। उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए।
वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएँ भी लगती हैं। परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता में बाँधने का सूत्र क्या है। क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शुद्र होने का सूत्र है या कुछ और? अछूत और शुद्र असंख्य जातियों में बँटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं। वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त है जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं। उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं। पिछड़ी जातियाँ आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं। वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही किये जा रहे हैं। अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाढ्य जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है। इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियाँ दलितों पर अत्याचार करती हैं। ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव। अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता। यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में भी देखा गया है।
अब अगर दलित और पिछड़ा का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि दलितों के अन्दर भी सम्पन्न और गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है। पिछड़ों के अन्दर अगड़ा पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है। पिछले कुछ समय से दलित और पिछड़े वर्ग के सम्पन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही प्राप्त की है। इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। इसी विभाजन को लेकर अति- दलित और अति -पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है। इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है। इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अज्लाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा मुहाज (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है।
अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़े पिछड़े दो वर्ग हैं जिन के अलग-अलग आर्थिक और राजनीतिक हित हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी हैं। अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है उसे उठाया है। इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है। हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है। अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है। इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है। अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर। यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्यायें एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है। बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं।
अतः इन अति पिछड़े तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए। जाति और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है। इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीऍफ़) ने अपने एजेंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत: (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने। सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किए जाने; (2) अति पिछड़ी हिन्दू व मुस्लिम जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग के 27% कोटे में से में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) उ0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा (8) रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई किये जाने और आतंकवाद/ साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा किये जाने की मांग भी उठाई है। इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से पार्टी ने अपने संविधान में दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं।आइपीएफ, बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित राजनीति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है जैसा कि डॉ. आंबेडकर का भी निर्देश था।
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