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अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा।

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अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा।


इस आलेख को बामसेफ औरर बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


पलाश विश्वास


मुंबई और नागपुर के एकीकरण सम्मेलनों में देशभर के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों के फैसले के तहत पटना में राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन करके नया संविधान लागू करके अंबेडकरी आंदोलन को नयी दिशा देने की हमारी घोषणा अब निरर्थक हो गयी है।


वहां ताराराम मैना के बामसेफ धड़े का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा है।


ऐसा संदेश देशभर में प्रसारित करने और बामसेफ एकीकरण के कार्यक्रम को अपना तीन साल का समयबद्ध कार्यक्रम बताते हुए उसे पूरा कर लेने के दावे के साथ हो रहे इस सम्मेलन ने तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की नयी शुरुआत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।उनकी साख को जबर्दस्त चोट पहुंचायी है।


कार्यकर्ता अंबेडकरी आंदोलन के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से एकजुट हुए,न कि किसी व्यक्ति या धड़े के एजंडे के मुताबिक,इसे साफ करने के मकसद से पटना सम्मेलन से अलग रहने का फैसला सर्व सहमति से हुई है।


मैंने निजी तौर पर लगातार सभी पक्षों से संवाद करते हुए पुरातन मित्रों के गालीगलौज के बीच चीजों को सुधारने का हरसंभव प्रयत्न किया है।


लेकिन तीस साल से बामसेफ आंदोलन में शामिल लोग निश्चय ही हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं,वे जैसा उचित समझ रहे हैं,कर रहे हैं।


इसी बीच मुंबई में एकीकरण समिति की बैठक मुंबई में हो गयी और पटना न जाने का फैसला हुआ है।अब अगर समिति पटना जाने का फैसला भी कर लें,तो मैं पचना नहीं जा रहा हूं।


अब बामसेफ जिन्हें चलाना है,चलायें,जिन्हें न चलाना हो,न चलायें,जिन्हें राजनीति करके सत्ता में हिस्सेदारी करनी हैं,करें,अब बामसेफ की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है मेरे लिए।


हम बचपन से वामपंथी आंदोलनों और विचारधारा से जुड़े रहे हैं। लेकिन शरणार्थी समस्या के संदर्भ में हमारे वामपंथी मित्रों की अजब तटस्थता ने हमें 2007 से पहले कभी न पढ़े अंबेडकर को पढ़ने और सही मायने में भारतीय से आमने सामने टकराने का मौका मिला।


2005 में बामसेफ की और से नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध सम्मेलन में शामिल होने के बावजूद हमें अपने वामपंथी मित्रों से अनुसूचित शरणार्थियों,आदिवासियों और नगरों महानगरों में गंदी बस्तियों में रहने वाले सर्वहारा आम जनता के हक हकूक की लड़ाई शुरु करने की उम्मीद थी।लेकिन निरंतर संवाद के बावजूद नतीजा नहीं निकला।


इसी बीच माननीय वामन मेश्राम की अगुवाई में मूलनिवासी बामसेफ ने नागरिकता संशोधन कानून और आधार योजना पर हमारा समर्थन कर दिया। हमने 2007 से लेकर वामन मेश्राम के राजनीतिक दल बनाने के फैसले से पहले गुलबर्गा सम्मेलन तक बामसेफ के मंच से देशभर में इन मुद्दों को लेकर बहुजन जनता को संबोधित किया।हमें यह मौका देने के लिए मैं पुराने साथियों का आभारी हूं।


अब बंगाली शरमार्थी आंदोलन भी अपने हिसाब से अलग चलाया जा रहा है और उससे मेरा कोई लेना देना नहीं है।लेकिन निराधार आधार और बायोमेट्रिक डिजिटल नाटो सीआईए योजना के खिलाफ हमारी मुहिम बतौर एक मामूली पत्रकरा लेखक जारी रहेगी।


दरअसल मैं बामसेफ के तमाम धड़ों के, धड़ों से बाहर के सभी साथियों का आभारी हूं कि उनकी वजह से मैं भरतीय यथार्थ के संदर्भ में अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को जान सका,जिनके बिना मेरा यह निमित्त मात्र आम आदमी का जीवन निश्चय ही अधूरा रहता।


मैं एक अस्पृश्य विस्थापित शरणार्थी किसान परिवार का सदस्य हूं।पढ़ा लिखा मैं बना अपने किसान पिता की अथक कोशिशों के कारण।जनांदोलनों में मेरी निरंतर हिस्सेदारी भी उनकी ही विरासत की वजह से। बाकी मेरा समाज को,परिवार को या राष्ट्र को कोई योगदान नहीं है।


पेशेवर नौकरी में भी मैं बुरी तरह असफल नगण्य पत्रकार हूं। रचनाकर्म की किसी ने नोटिस कभी ली नहीं है।


इसका मुझे अफसोस नहीं हैं।


बामसेफ में होने और फिर बामसेफ के खास धड़े से अलग हो जाने की वजह से हुई गालीगलौज का लक्ष्य बन जाने का भी मुझे कोई अफसोस नहीं है।


मैं आभारी हूं कि मामूली प्रतिभा,मामूली हैसियत के बावजूद देशभर में लोग अब तक मुझे पढ़ते रहे हैं,सुनते रहे हैं।


मुझे अयोग्य होने  के बावजूद आपने जो प्यार और समर्थन दिया.वह मेरे बाकी जीवन का रसद है।


पिछले कई दिनों से देशभर से मित्रों के आ रहे फोन का मैंने कोई जवाब नहीं दिया है। मैं भहुत असमंजस में था कि अब क्या करना चाहिए।


मैं राजनेता नहीं हूं।मुझे चुनाव नहीं लड़ना है।न मुझे वोट बैंक साधने हैं।इसलिए किसी समीकरण की मुझे परवाह कभी नहीं रही है।


पेशेवर जीवन में भी मैंने कभी किसी समीकरण की परवाह नहीं की।


जो मुझे हमारी जनता के हित में लगा,आजतक वही बोलता लिखता रहा हूं।वही करता रहा हूं।


देश में जो हालात हैं, नियुक्तियां सिरे से बंद हैं और सारी नौकरियां ठेके पर  हैं।रिक्तियां भरी नहीं जा रही हैं।कंप्यूटर की जगह अब रोबोट ले रहे हैं।


कर्मचारियों के वजूद का ही भारी संकट है।उनके हाथ पांव निजीकरण,ग्लोबीकरण,उदारीकरण और मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था ने काट दिये हैं।


जुबान तालाबंद है,जो बामसेफ की चाबी से खुलनी नहीं है।


आरक्षण को लेकर देशभर में गृहयुद्ध परिस्थितियां हैं। लेकिन जब स्थाई नौकरियां किसी भी क्षेत्र में हैं ही नहीं,जब नियुक्तियां हो नहीं रही है,मनुष्य के बदले रोबोट और कंप्यूटर सारे काम कर रहे हैं,तब आरक्षण को सिरे से गैरप्रासंगिक बना देने में कोई कसर बाकी नहीं रह गयी है।


लेकिन विडंबना है कि अब ब्राह्मणों को भी आरक्षण चाहिए।सबको आरक्षण चाहिए।मुसलमानों का कल्याण भी आरक्षण से।


कल सुबह सोदपुर से रवाना होकर करीब चार बजे के करीब मैं आईआईटी खड़गपुर में प्रसिद्ध विद्वान,लेखक और तकनीक व प्रबंधन विशेषज्ञ आनंद तेलतुंबड़े के स्कूल आफ मैनेजमेंट स्थित चैंबर में पहुंचा।देशभर के मित्रों से अगले कार्यभार तय करने के सिलसिले में थी यह मुलाकात।


मैं आनंद जी को लगातार पढ़ता रहा हूं लेकिन उनसे संवाद का कोई मौका अब तक बना नहीं था।संजोग बना तो चला गया। अंबेडकरी आंदोलन प्रसंग में लगभग ढाई घंटे तक हमारी बात होती रही।


इस मुलाकात की वजह से यह अनिवार्य आलेख थोड़ा विलंबित हो गया।


अब जो लोग हमारे आवेदन पर पटना जाने का कार्यक्रम बना रहे थे,उन्हें बताना बेहद जरुरी है कि जैसे बामसेफ के बाकी दो सम्मेलन नागपुर और लखनऊ में हो रहे हैं,वैसी ही एक और बामसेफ सम्मेलन पटना में हो रहा है।


हम अपना आवेदन वापस ले रहे हैं और अब पटना,लखनऊ या नागपुर जाने या न जाने का फैसला उनका है।


हम कहीं नहीं जा रहे हैं।क्योंकि अब हम कहीं नहीं हैं।


तेलतुंबड़े जी ने बाकायदा आंकड़े और तथ्य देकर साबित किया है कि सन 1997 से आरक्षण लगातार घटते घटते अब शून्य पर है।


जबकि बेरोजगारी के आलम में दिशाहीन देश के करोड़ों युवाओं को आपस में लड़ाने के लिए सरकारे निरंतर आरक्षण का कोटा बढ़ा रही हैं,आरक्षण लेकिन किसी को मिल ही नहीं रहा है।


सवर्णों की क्या कहे,आरक्षण की लड़ाई में पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और तमाम दलित समुदाय अब एक दूसरे के खिलाफ अपने अपने समूह के हितों केलेए लामबंद हैं।


निराकार ईश्वर की आस्था में जैसे भक्तजनों में मारामारी है वैसे ही निराकार आरक्षण को लेकर भारतीय जन गण एकदूसरे को लहूलुहान कर रहे हैं।


तेलतुंबड़े बाकायदा लिस्टेड कारपोरेट कंपनी पेट्रो नेट के कारपोरेट हेड बचौर सीआईआई की उस समिति में थे,जिसे निजी क्षेत्र में आरक्षण लागूकरने पर विचार करना था।


उस समिति की कार्यवाही का हवाला देते हुए तेलतुंबड़े ने बताया कि मुक्त बाजार में कंपनियों को कर्मचारियों की जरुरत ही नहीं है।कर्मचारी अब नियुक्त नहीं किये जाते,हायर किये जाते हैं। कर्मचारी जिस कंपनी के लिए काम कर रहे होते हैं,वे वहां ठेके पर भी नहीं होते बल्कि वे दूसरी कंपनियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये लोग हैं।


जब कर्मचारी किसी कंपनी के हैं ही नहीं तो उनको आरक्षण कंपनियां कैसे दे सकती हैं?निरंतर विनिवेश से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का हाल भी यही है।


अब अंबेडकरी आंदोलन या तो आरक्षण बचाओ का प्रायय बन गया है या फिर सत्ता में भागेदारी का।या विशुद्ध जाति अस्मिता का।जातियां रहेंगी तो तो जाति वर्चस्व भी रहेगा। जाति से बाहर जो लोग हैं मसलन आदिवासी,उन्हें बहुजन कहकर गले लगाने से  ही वे जाति अस्मिता के नाम पर आपके साथ खड़े नहीं हो सकते।अंबेडकरी आंदोलन में आदिवासियों की अनुपस्तिति की सबसे बड़ी वजह यही है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि अंबेडकर विमर्श का बुनियादी मुद्दा जाति उन्मूलन है।जाति को मजबूत करके आप अंबेडकर के अनुयायी हो ही नहीं सकते।बल्कि अनजाने उनके अनुयायी हैं,जिनका विरोध अंबेडकर आंदोलन का घोषित लक्ष्य है।




अब जबकि सरकारी गैरसरकारी कंपनियों,प्रतिष्ठानों,केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अधीन संगठित क्षेत्रों और असंगठित क्षेत्र में बेहद असुरक्षित हैं कर्मचारी और उनके पांव के नीचे कोई जमीन है ही नहीं।जुगाड़ बाजी से वे हवाई जिंदगी जी रहे हैं।


तो ऐसे कर्मचारियों को विचारधारा के नाम पर गोलबंद कैसे किया जा सकता है,देशभर के मित्र लगातार यह सवाल पूछ रहे थे।


हम संगठित क्षेत्र में पहल के जरिये फिरभी चाह रहे थे कि शायद मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में निरंकुश आर्थिक अश्वमेधी अभियान के प्रतिरोध की शुरुआत कर पाये हम।


लेकिन बामसेफ बहुसंख्यक  कार्यकर्ताओं को कारपोरेट राजनीति में ही भविष्य दीख रहा है और उनके इस मानस को हम बदल नहीं सकते।जो लोग निरंतर तानाशाही में जीने मरने के अभ्यस्त हैं,उन्हें रातोरात संस्तागत लोकतांत्रिक संगठन सके लिए सक्रिय किया ही नहीं जा सकता।


 बाकी जो लोग अब भी सामाजिक राजनीतिक आंदोलन की बात करते हैं,वे अब भी उदारीकऱण,ग्लोबीकरण और निजीकरण बायोमेट्रिक डिजिटल जमाने से पहले के समय में जी रहे हैं।


उनका मोड बदलना असंभव है। वे प्रोग्राम्ड हैं।


वे सारे लोग डीएक्टिवेटेड फेसबुक प्रोफाइल हैं,जिनसे संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


आंदोलन बहुत दूर की बात है। किन्ही दो अंबेडकरी संगठन के लोग एक साथ बैठ भी नहीं सकते।


हम कहीं भी अंबेडकरी आंदोलन के विभिन्न संगठनों की राज्यवार बैठक कर पाने में असमर्थ हैं।संगठन निर्माण की प्रक्रिया तो बहुत दूर की बात है।


ऐसे में पटना बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के गर्भपात के बाद इस सिरे से गैरप्रासंगिक हो गये बामसेफ का टैग धारण किये हुए आगे कोई प्रगति असंभव हैं,यह साबित हो गया है।


बल्कि इस टैग  की वजह से बामसेफ और अंबेडकरी आंदोलन से बाहर जो संगठन जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता की लड़ाई लडड रहे हैं,उनसे हमारा कोई संवाद नहीं हो पा रहा है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि राष्ट्र,समाज और अर्थ व्यवस्था अब ठीक उसीतरह नहीं है,जैसे कि बाबासाहेब अंबेडकर से लेकर मान्यवर कांशीराम ने देखा है।


अंबेडकर को ईश्वर या बोधिसत्व या उससे भी कुछ बनाकर हम उन्हें भी मुक्त  बाजार का सचिन तेंदुलकर ही बना रहे हैं।


देश काल परिस्थिति के मुताबिक तमाम विचारधाराओं और आंदोलन को जड़ता तोड़कर आगे बढ़ना पड़ा है।


लेकिन अबेडकर के अनुयायी नये संदर्भो,और नये प्रसंगों में अंबेडकर की प्रासंगिकता पर विचार करने के लिए कतई तैयार नहीं है,यह आत्मघाती है।


जैसा कि विजय कुजुर और भास्कर वाकड़े जैसे हमारे तमाम आदिवासी साथी मानते हैं कि लडाई के बिना कोई विकल्प है ही नहीं और भाववादी चिंतन और कर्म से हम अपने ही अंधकार में फिर पिर कैद हो रहे हैं,भावनात्मक मुद्दों के बजाय एकदम वस्तुनिष्ठ तरीके से अंबेडकरी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की तैयारी है।


इस सिलसिले में इच्छुक साथियों से आगे भी विचार विमर्श होता रहेगा।


बाकी अंबेडकर अनुयायियों की तरह मुक्त बाजार को हम बहुजनों का स्वर्ण युग नहीं मानते।


मुक्त बाजार में फालतू मनुष्यों का मार देना ही राष्ट्र का मुख्य कार्यभार है।


इसमें बहुजनों को सत्यानाश और मृत्यु के अलाव कुछ हासिल नहीं होना है।


इस पर मैं और आनंद तेलतुंबड़े शत प्रतिशत सहमत हैं।


इस अवस्थान के बाद अब अगर हमारे मित्र हमें अबंडकर आंदोलन से हमेशा के लिए बहिस्कृत कर दें तो भी हमें इसकी कोई परवाह नहीं है।


बहरहाल मेरे जीवन के बामसेफ अध्याय का यही पटाक्षेप हैं।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे देश के हालात और दूसरे मुद्दों पर जरुर बात कर सकता हैं,लेकिन बामसेफ के बारे में मुझे भविष्य में कुछ भी कहना नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है और न ही इसका एकीकरण संभव है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि अगर मुक्त बाजार के जायनवादी तंत्र यंत्र से टकराना है तोअब बामसेफ के आगे सोचना है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि जो सहमत हैं,उनका स्वागत है।बाकी लोगों का आभार।


मैंने बामसेफ एकीकरण अभियान से जुड़े साथियों को निरंतर अपना पक्ष बताया है और यह मेरा कोई आकस्मिक फैसला नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि एकीकरण प्रक्रिया की तार्किक परिणति है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ का एकीकरण असंभव है और इसीलिए कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की एकता के लिए भी बामसेफ के अलग अलग धड़ों समेत समूचे बामसेफ आंदोलन से अलगाव जरूरी है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि हमारा लक्ष्य चूंकि बामसेफ नहीं,मुक्त बाजार व्यवस्था के विरुद्ध,जनसंहार संस्कृति के विरुद्ध निनानब्वे फीसद जनता की चट्टानी गोलबंदी है,इसलिए अतीत से भावात्मक नाता ख्तम करने का यह मौजूं वक्त है।


मैंने अपने फैसले की सूचना साथियों को दे दी है और इस पर पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं है।


इस आलेख को बामसेफ और बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


तेलतुंबड़े और देशभर में दूसरे समविचारी मित्रों से संवाद उनकी सहमति से मैं आप सबके साथ शेयर करता रहूंगा।


अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून

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अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


पलाश विश्वास

http://antahasthal.blogspot.in/

अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


मेरी दादी शांति देवी थीं बहती हुई मधुमती अबाध जो बहती रही अबाध जैशोर के कुमोर डांगा में छोड़े हुए गांव और खेतों से लेकर  नैनीताल की तराई में बसे शरणार्थी गांव में,तब तक जबतक वे जीती रहीं सन सत्तर तक।जबकि तेभागा की लड़ाई आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों के जनज्वारों के मार्फत अपनी निरंतरता में कहलाने लगा नक्सलबाड़ी आंदोलन।भूमि युद्ध लेकिन खत्म है दोस्त।


दादी की झोली में अनंत किस्से थे,जिसमें से लहकती थीं,बहकती थीं मधुमती के दियारे में उपजी खून सिंची फसलें तमाम। हमारे दादा लोग चार थे भाई और वे थे भूमियुद्ध के अपूर्व योद्धा। जमींदारों और पुलिस के मुकाबले,बंदूक से दागी गयी गोलियों के मुकाबले लड़े गये हर युद्ध का ब्यौरा बताती थीं वे सिलसिलेवार।यहां तक कि कैसे वे घर की दूसरी औरतों के साथ वर्गशत्रुओं के विरुद्ध करती थी किलेबंदी मर्दों की गैरहाजिरी में। चारों भाइयों की मंत्रसिद्ध लाठियां जब तब निकल पड़ती थीं उनकी झोली से।

उन लाठियों की सोहबत में जी रहा हूं आज भी।

लालकिताब से ज्यादा ताकतवर हैं वे लाठियां हमारे लिए,जिनमें बसी हैं हजारों साल से जारी जल जमीन जंगल की लड़ाई में लड़ते मरते खपते अश्वेत हमारे पुरखों के खून की सोंधी महक विशुद्ध काली माटी से सराबोर,जो मृत पीढ़ियों के लिए जाहिर है कि है संजीवनी।

उन्हीं रक्तनदियों से घिरा है सारा अस्पृश्य भूगोल युद्धबंदी।


यकीनन हमारे सारे लोग,सारे योद्धा,अश्वेत रक्तबीज की संतानें तमाम

नहीं होंगे दूसरा कोई नेल्सन मंडेला या डा.भीम राव अंबेडकर या मार्टिन लूथर किंग या बीरसा मुंडा या सिधू कान्हो या टांट्या भील या रानी दुर्गावती या हरिचांद ठाकुर या महात्मा ज्योतिबा फूले या  माता सावित्री बाई फूले।मृत लोग लौटकर नहीं आते।न उनकी आत्माएं बोधिसत्व या ईश्वरत्व में समाहित कोई मदद करेंगी हमारी इस निरंकुश युद्ध समय में जब इंच इंच जमीन के लिए हर हाल में अनिवार्य है युद्ध।अपरिहार्य है युद्ध।इस कुरुक्षेत्र से भागने के के तमाम रास्ते अब बंद हैं।इस वध स्थल में मारे जाने के लिए ही यह युद्ध।

क्योंकि प्रतिरोध के मोर्चे पर मोमबत्ती जुलूस किलेबंद हैं।


हम ढिमरी ब्लाक की लड़ाई के गवाह नहीं हैं।लेकिन ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह से जुड़े हर चेहरे से चस्पां है हमारा चेहरा।जिस आग में फूंक दिये गये किसानों के सैंतालीस गांव,वह आग हमने देखी नहीं लेकिन वह आग हमारे सीने में कैद है और मुक्ति के लिए कसमसा रही है तबसे जबसे हमने होश संभाला है।जबसे हमने गिरफ्तारियं का सिलसिला देखा है।हमने मणिपुर में सैन्य कार्रवाइयां देखी हैं तो हमने तराई के रायसिख परिवारों के यहां निरंकुश दबिश देखी है। देखा है हमने स्कूली साथियों को मुठभेड़ में मारे जाते हुए।या गायब हो गये जो चेहरे अचानक,वे चेहरे मेरे चेहरे पर काबिज हैं।साठ के दशक में


तराई में भूमि संघर्ष हजारों बेदखल किसानों की गिरफ्तारियां देखी हैं।देखा हैं ढिमरी ब्लाक के महाविद्रोही बाबा गणेशा सिंह को जेल में सड़ सड़ कर मरने के बाद बसंतीपुर की बेनाम नदी के पार अर्जुनपुर में उनके खेत में चिता पर जलते हुए।विचारधारा तब खामोश।पार्टीबद्ध

कारपोरेट राजनीति में गांव देहात जनपद की आवाजें लापता।


बदलाव के सपनों की मौत थी नहीं वह यकीनन।क्योंकि जागते सोते हर वक्त हम बसंतीपुर के उन बुजुर्गों को देखते रहे गांव छोड़ने से पहले तक,जो आजीवन बने रहे भूमि योद्धा और जो एक साथ शाश्वत विश्राम में हैं।चूंकि वे लोग अब नहीं है, इसीलिए बसंतीपुर में अब मेरे लिए कुछ भी नहीं है वीरानगी के सिवाय।सोते जागते अब भी ख्वाबों में है वही बसंतीपुर,जहां हर शख्स के हाथों में जलती हुई मशाल हुआ करती थीं कभी।घनघोर अंधेरे में वे मशालें अब भी रोशन करतीं दुनिया।


हमने अड़तालीस घंटे से लेकर हफ्तों तक चलने वाला ग्रामीण विमर्श देखा है। लंबी बहस के मार्फत बिना थाना पुलिस बिना अदालत कचहरी दूर दराज के गांवो के आपसी विवादों को निपटाते देखा है पिता को जब मैं उनके साथ हुआ करता था ऐसी तमाम मैराथन बैठकों में। आज भी बसंतीपुर में बिना इजाजत पुलिस प्रवेश निषिद्ध।


वे आवाजें,वे बहसें,भाई चारे की वह जज्बात हर वक्त चुनौती देती रहतीं मुझे कि क्यों देहात को एक सूत्र में पिरोने के लिए कोई पहल नहीं कर पाये हम। हमारे पढ़े लिखे होने को धिक्कार कि अपने लोगों की लड़ाई जारी रखने के लिए पूरे परिवार का पेट काटकर,खेत गिरवी पर रखकर पिता ने जो सपना रचा था,उन सपनों के कत्लेआम के दोषी हमीं तो।



हमारे पुरखों,महापुरुषों की अनंत भूमि युद्ध की विरासत को वर्ण वर्चस्वी नस्ल भेदी कारपोरेट साम्राज्यवाद के अमेरिकी उपनिवेश में विदेशी पूंजी और कालाधन के हवाले करने वाले भी हमीं तो। बाबासाहेब का नाम भुना अकूत संपत्ति बेहिसाब काली कमाई  से मुटियाये कामयाब नव ब्राह्मणों के गुलाम भी तो हमीं तो।

सारा बहुजन आंदोलन बहुजनों के नये वर्ग को समर्पित

और बाकी बहुसंख्य जनगण मारे जाने को नियतिबद्ध।

बाबासाहेब की लड़ाई सीढ़ी बन गयी चुनिंदा लोगों के लिए।


हमारी ताई हरिचांद गुरुचांद वंशज की कन्या और वे ही दरअसल मेरे बचपन में सर्वव्यापी। मां के आंचल से बड़ा था उनका आंचल।मां गांव चोड़कर गयी नहीं कहीं बसंतीपुर उन्हीं के नाम बसाने के बाद। बसंतीपुर के बाकी लोगों में हम बच्चे भी शामिल थे उनके लिए,इसके अलावा कोई सोच अपने लिए नहीं थी उनकी।बसंतीपुर के पार कोई दुनिया बसती है,ऐसा उन्हें देखकर लगता ही न था। उसी गांव में दम तोड़ा मां ने जब,उसके बाद उस गांव में दुबारा जाने की हिम्मत नहीं,

जैसे डीएसबी अग्निकांड के बाद बरसों बरसों न जा सका डीएसबी।


पूरे परिवार की अभिभावक थीं ताई हमारी।दादी जी की जीवितदशा में भी। पिता , ताउजी और चाचाजी हम सब उन्हीं के मार्फत क्योंकि ठाकुर बाड़ी का खून था उनकी रगों में।वही खून अब भी हमारे रगों में जिंदा है बेचैन।वे हरिचांद गुरुचांद की विरासत की वारिशान में

शामिल थीं और हमें मतुआ आंदोलन में शरीक कर गयीं।


ओड़ाकांदी से सन 1964 को उनकी मां प्रभादेवी चली आयी बसंतीपुर और साथ लायी भूमि संघर्षों की अलग कहानियों की पोटली संभाले।ओड़ाकांदी फरीदपुर की उस नानी ने हमें सीधे बिठा

दिया टाइम मशीन पर और यकीन मानिये कि साठ सत्तर दशक के शैशव कैशोर्य में हम जब अंबेडकर अनुयायी पिता से सुनते थे अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल की कहानियां और पढ़ते थे लाल किताब,जिसे पढ़ने की आजादी दे दी थी किसान अपढ़ पिता ने,ढिमरी ब्लाक के किसान विद्रोह के नेता ने तभी अपने बेटे पर अघोषित निषेधाज्ञा लागू कर दी थी कैरियरिस्ट ख्वाबों पर अलिखित।



जो महात्वांकाक्षाएं बाकी बची थीं, नैनीताल डीएसबी परिसर से गिरदा के डेरे पर,फिर गिरदा के डेरे से नैनीताल समाचार के दफ्तर तक,जिंदा दफन हो गयीं जाने अनजाने। नैनीताल क्लब जब जल रहा था वनों की नीलामी में, उस वक्त मेरी आंखों में तिर गये जलते हुए ढिमरी ब्लाक के पूरे के पूरे सैंतालीस गांव।किसानों के ख्वाब।

वह दावानल अब भी सुलग रहा है पूरे हिमालय में और

तमाम ग्लेशियर रचने लगे जल प्रलय विकास विरुद्धे।


हम कैसे कामयाब कारपोरेट मैनेजरों की जमात में शामिल होकर कह सकते हैं कि जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का यह वध

महूर्तों का कालखंड

भूमंडलीकरण यानी ग्लोब बनाकर मनुष्यता और प्रकृति से कारपोरेट बलात्कार निरंकुश,कृषि समाज का चौतऱफा सत्यानाश उदारीकरण सुधारों के बहाने, विकास के नाम धर्मोन्मादी कारपोरेट राज का यह समय निजीकरण का स्वर्ण युग है,नहीं कह सकते।

मरे हुए खेतों की लाशें चारों तरफ।

चारों तरफ अनंत डूब।

रक्त नदियों में घिरे हुए हैं हम युद्धबंदी।

हर गली मोहल्ले से निकलता कबंधों का जुलूस गुलाम गुलाम।


तमाम मिसाइलें,पारमाणविक हथियार,सैन्य गठबंधन

आखिरकार ग्राम्यभारत के सफाये के लिए।

चप्पे चप्पे पर सीआईए

चप्पे चप्पे पर मोसाद

हर शख्स की हो रही है खुफिया निगरानी।

हर किसीका वजूद खतरे में

फिरभी अर्थशास्त्रियों की तर्ज पर

कामयाब कारपरेट मैनेजर तमाम

बता रहे इस ध्वंसकाल को स्वर्णयुग।


शायद हम डफर हैं या आम भारतीयों की तरह

बुरबक रह गये हम कि देश बेचो जमात के खिलाफ

बसंतीपुर की तर्ज पर पूरे के पूरे एक देश रचने का ख्वाब देखते हैं हम आज भी एकदम फुटपाथ पर खड़े होकर।


क्योंकि ज्योतिबा फूले और नारायम लोखंडे को जानने के बजाय तब हम मार्क्स लेनिन चेग्वारा माओ स्टालिन और चारु मजुमदार को पढ़ने के साथ साथ पेरियार और नारायणगुरु को न जानने के बावजूद

नानी की कहानियों के जरिये जी रहे थे नील विद्रोह हर वक्त और मतुआ युगपुरुष हरिचांद ठाकुर और उनके पुत्र गुरुचांद ठाकुर के चंडाल आंदोलन के मध्य थे हम बिना किसी जाति विमर्श के तब भी।


राष्ट्र का चरित्र बदल गया है। नयी महाजनी सभ्यता के एफडीआई विनिवेश ठेका हायर फायर समय के हम बेनागरिक डिजिटल बायोमेट्रिक। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में किसानों और मजदूरों की जो जगह थी,वह उच्च तकनीक कंप्यूटर,आईटी,आटोमेशन और रोबोटिक्स ने ले ली है। हर गांव के साने पर चढ़ बैठा है इंफ्रा देवमंडल और मुक्त बाजार हमारे खून में बहने लगा है।प्लास्टिक मनी के हम कारोबारी डालर के दल्ला हम सब लोग।नीले उपभोक्ता हैं हम लोग।


अंबेडकर समय में जनता की निगरानी नहीं हुई होगी ड्रोन या प्रिज्म से। इस बदले हुए सामाजिक यथार्थ में किस्सों के दम पर कैसे कोई लड़ सकता है भूमि युद्ध वीडियो गेम की तर्ज पर वर्च्यु्ल।


लेकिन हर जनांदोलन दरअसल भारत रत्न सचिन तेंदुलकर

समय में मुकम्मल वीडियो गेम है।जहां जमीन के योद्धाओं के

लिए कोई जगह है ही नहीं।जहां हजारों साल से जारी

जल जंगल जमीन की कोई लड़ाई है ही नहीं।जमीनदल्ला हैं हम सारे।प्रकृति के बलात्कारी हैं सारे के सारे।


यहां तक कि बाबासाहेब के मूल मंत्र जाति उनमूलन की

कहीं कोई गूंज भी नहीं है।हर तरफ चल रहा है जाति विमर्श

सामाजिक न्याय समता और सत्ता में भागेदारी के लिए

हर कोई जाति अस्मिताओं को संबोधित करने लगा

जायनवादी तंत्र के खिलाफ

धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता के खिलाफ

कारपोरेट निर्मित अल्पमत सरकारों

के नरमेध यज्ञ के सारे हैं पुरोहित

वैदिकी रीतिबद्ध हैं क्रांति इनदिनों

वैदिकी कर्मकांड है प्रबल

जिंगल में ऋचाओं में निष्णात हम

रात दिनसातों दिन बरस दर बरस

कर रहे हैं महाविध्वंस का आवाहन

हर दिशा में सजने लगे

अनंत वधस्थल और

आत्मीयजनों के खून से

लहूलुहान हैं सारे हाथ,सारे चेहरे।


तमाम आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों की

गौरवशाली विरासत के विपरीत भूमि सुधार की

मांग छोड़कर लोग मुआवजे और नौकरी के सौदे में सेज महासेज नगर महानगर स्वर्णिम राजमार्ग

बड़े बांध डूब ऊर्जा परियोजनाएं और

परमाणु संयंत्र खरीद रहे हैं लोग इन दिनों।हर शख्स कमीशनखोर,घोटाला बाज इनदिनों।



माफ करना दोस्तों,चैत्यभूमि में मेला लगाने वालों की

कोई प्रतिबद्धता है नहीं बाबासाहेब के संविधान के प्रति।

भाववादी अंधश्रद्धा से बदल नहीं रहा

यह निर्मम वधस्थल

बदल नहीं रही यह

मृत्यु उपत्यका

इसे अब भी महसूस न करने वाले लोगों से

हम कैसे उम्मीद करें कि वे

किसी जनांदोलन के लिए तैयार भी हैं या नहीं


तमाशे,मेले और पिकनिक के मध्य

चल रही है दुकानदारी अबाध

अंध भक्तों के रंग बिरंगे बापू सक्रिय तमाम

अंध भक्तों के रंग बिरंगे मसीहा तमाम

और कहीं कोई विमर्श

शुरु ही नहीं हुआ

इस महा चकाचौंधी तिलिस्म

को तोड़नेके मकसद से।



आजतक किसी अंबेडकर अनुयायी शामिल

नहीं हुआ पांचवीं छठीं अनुसूचियों के लिए।

कोई नहीं बोला सशस्त्र बस विशेषाधिकार कानून के खिलाफ। वामपंथी ट्रेड यूनियनों के विश्वासघात की खूब हुई है चर्चा

लेकिन इतिहास और विरासत के कारोबार

का खुलासा भी तक नहीं हुआ।

जिसकी चर्चा बेहद जरुरी है।


एक विकलांग मलाईदार तबके की

सत्ता में भागीदारी की कीमत पर

देश भर में जो असली भारत है  कृषि समाज

जाति व्यवस्था या नस्ली भेदभाव का शिकार

उत्पीड़नन और अत्याचारों और निर्मम

दमन जिनका रोजनामचा है

जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से

हो रहा निरंतर बेदखल और सत्ता वर्ग को,कारपोरेट राज को

उन्हीं के बिना शर्त समर्थन से

हर वह  कानून बदल रहा है ,जिसे

आकार दिया हुआ है बाबा साहेब ने।

भूमि युद्ध के मोर्चे से बेदखल है कामयाब

कारपोरेट मैनेजरों और प्लेसमेंट

हायर फायर की पीढ़ियां।

बिन मां बाप की बेशर्म पीढ़ियों का देश है यह अब।


कयामत के मुहाने पर खड़े बाजार के हर जश्न में शामिल हम

फिर भी हमें शर्म नहीं आती इतिहास और विरासत,महापुरुषों के अवतारत्व की दावेदारी से।बुद्ध के शील गैरप्रासंगिक जिनके लिए,बोधिसत्व में निष्णात वे तमाम लोग इन दिनों।


बाबासाहेब का नाम लेकर रोज

अंबेडकर मार रहे हैं वे।

मजे की बात तो यह कि वही लोग

बहस चला रहे हैं बाबा साहेब के मृत्युरहस्य पर

जिन्होंने बाबा साहेब का आंदोलन बेच खाया।

अब देश बेचने वालों की

जमात में शामिल हो गये हैं वे धंधेबाज लोग।


भारत रत्न नेलसन मंडेला के अवसान पर

बाबरी विध्वंस की बरसी पर

पांच दिनों का राष्ट्रीय शोक है और

शोक संदेश जारी कर रहे हैं भारत में रंगभेद

जारी रखने वाले वर्णवर्चस्वी जायनवादी कर्णधार तमाम

तमाम युद्ध अपराधी मनुष्यता के शोक मग्न हैं।

पूरा देश अब सलवा जुड़ुम है।

कृषि समाज की चिताएं सज रही हैं

महानगरों और राजधानियों में।


अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध

अनंत

महासंग्राम,जिसमें

जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून।

लेकिन इस महासंग्राम में

अपनी अपनी खाल बचा लेने की शुतुरमुर्ग भूमिका

 के सिवाय हमारी कोई हरकत है ही नहीं।


आज भी मंडेला मंडल ही है इस वर्णवर्चस्वी भारतीय रंगभेदी कारपोरेट मुक्त बाजार में।

आज ईश्वर हैं गौतम बुद्ध

और बोधिसत्व हैं

बाबासाहेब अंबेडकर

विष्णु अवतार बन चुके हैं

विश्व की पहली जनक्रांति के

महानायक गौतम बुद्ध

हरिचांद ठाकुर भी पूर्ण ब्रह्म है

समरसता अभियान में

विष्णुरुप में दर्शन देंगे

अब जाति उन्मूलन के

उद्घोषक बाबासाहब हमारे

सामाजिक बदलाव बस इतना सा है

और शायद यही स्वर्णयुग है

बहुजन भारत का।



Fwd: FW: BBC on Mandela

मोदी को रोकेंगी दीदी চার রাজ্যের ফলাফলে দিদি আবাহন राहुल गांधी से नहीं,अब नरेंद्र मोदी का मुकाबला ममता बनर्जी से है

Next: मौकापरस्त कैरियरिस्ट कारपोरेट मैनेजर शुतुरमुर्ग पीढ़ियों ने ही युवा वर्ग और छात्रों को दिग्भ्रमित किया हुआ है और फिरभी वे अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कोशिश में लगे हैं हमेशा की तरह।स‌बक लेकर हम कोई पहल करें तो बात बने वरना मजे लेने के लिए यह मुक्त बाजर का कालाधन प्रवाह और निरंकुश कारपोरेट राज तो है ही।
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मोदी को रोकेंगी दीदी

চার রাজ্যের ফলাফলে দিদি আবাহন


राहुल गांधी से नहीं,अब नरेंद्र मोदी का मुकाबला ममता बनर्जी से है

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

নির্বাচনের ফলাফল লাইভ

  • 05:22 PMআগামী লোকসভা নির্বাচনে কী হতে চলেছে, তা এই বিধানসভা ভোটের ফলেই স্পষ্ট। বললেন বিজেপি সভাপতি রাজনাথ সিং।

  • 04:21 PMবিধানসভা নির্বাচনের ফলাফলে বোঝা যাচ্ছে কংগ্রেস দলের গভীর ভাবে আত্মসমীক্ষা জরুরি। বললেন কংগ্রেস প্রেসিডেন্ট সনিয়া গান্ধি।

লাইভ ব্লগ: কংগ্রেসের বিরুদ্ধেই জনমত

8 Dec 2013, 07:51চার রাজ্যের বিধানসভা নির্বাচনের ফলাফল আজ। রাজস্থান, দিল্লি কি ধরে রাখতে পারবে কংগ্রেস? না সেখানেও থাবা বসাবে বিজেপি? না কি মধ্য প্রদেশ ও ছত্তিশগড় ফসকে যাবে বিজেপি-র হাত থেকে। সকাল আটটা থেকে শুরু হবে ভোট গণনা। চার রাজ্যের ১২৯টি ভোটগণনা কেন্দ্র ঘিরে কড়া নিরাপত্তা।

দিল্লিতে ত্রিশঙ্কু বিধানসভার সম্ভাবনা

8 Dec 2013, 11:55

বেলা বাড়ার সঙ্গে সঙ্গে দিল্লিতে ত্রিশঙ্কু বিধানসভার সম্ভাবনাই প্রবল হল। প্রথম দিকে সরকার গঠনের দৌড়ে কংগ্রেসকে পিছনে ফেলে বিজেপি এগিয়ে থাকলেও, বেলা গড়ানোর সঙ্গে সঙ্গে পরিস্থিতি এমন জায়গায় দাঁড়ায় যেখানে বিজেপি বা আপ কারও কাছেই একক সংখ্যাগরিষ্ঠতা নেই।

রাজস্থানে রাজে রাজ, এমপি-তে শিব'রাজ'

8 Dec 2013, 11:29

কংগ্রেসের হাত থেকে রাজস্থানকে ছিনিয়ে নেওয়ার পথে বিজেপি। রাজস্থানে একক সংখ্যাগরিষ্ঠতা অর্জন করেছে বিজেপি।




राहुल गांधी से नहीं,अब नरेंद्र मोदी का मुकाबला ममता बनर्जी से है।चार राज्यों के विधानसभा चुनावों से जो नतीजा निकल रहा है,वह मीडिया आकलनों के विपरीत है। सोशल मीडिया ने दिल्ली मेंऔर विश्वविद्यालयी छात्रों ने राजस्थान में सारे समीकरण बेमतलब बना दिये हैं।अगले लोकसभा चुनावों में इसका असर और ज्यादा होना है।कोई अचरच नहीं कि अगर अगला चुनाव राजस्थान की तर्ज पर बाकी देश में भी विश्वविद्यालय परिसरों से लड़ा जाये। इस भारी परिवर्तन की रोशनी में यह कम से कम तय हो गया है कि अकेले दम पर बाजपा के लिए बहुमत मुश्किल है।दिल्ली और छत्तीसगढ़ में बहुमत के लिए नाकों चना चबाने की नौबत देखते हुए उत्तरप्रदेश,बिहार,बंगाल,तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाजपा की गत क्या होने वाली है,इसे समझ लिया जाना चाहिए।अब देशभर में कांग्रेस विरोधी जनज्वार के लगातार तेज होते रहने में भी कोई अंकुश लगाने की हालत में नहीं हैं राहुल गांधी।नरेंद्र मोदी के करिश्मे के जवाब में अब दीदी का करिश्मा देखने का वक्त आ गया है।


मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार फिर सोमवार को नयी दिल्ली जायेंगी, हालांकि उनके इस दौरे के संबंध में आधिकारिक रूप से कोई कार्यक्रम की घोषणा नहीं की गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री का अचानक यह दिल्ली दौरा आगामी लोकसभा चुनाव के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

फिलहाल जस्टिस गांगुली के खिलाफ दीदी की जिहाद पर सबकी नजर है।लेकिन सोमवार को दीदी के दिल्ली पहुंचने के बाद काफी सारे समीकरण बनने और बिगड़ने हैं।फिलहाल इंटर्न के साथ यौन शोषण आरोप झेल रहे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एके गांगुली के इस्तीफे को लेकर बढ़ते दबाव के बीच सबकी निगाहें दिल्ली पर टिकी हैं। बंगाल दौरे पर आए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी रविवार को वापस दिल्ली पहुंचेंगे। कयास लगाए जा रहे हैं कि सोमवार के बाद वे पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से जस्टिस गांगुली के इस्तीफे पर कुछ फैसला ले सकते हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भी सोमवार को दिल्ली जाने की खबर से इन कयासों को और मजबूती मिली है।


यह समझना गलत है कि दीदी बेमतलब दिल्ली पहुंच रही हैं।इस बार दीदी की यह दिल्ली यात्रा सीदे तौर पर प्रधानमंत्रित्व पर उनकी दावेदारी की अग्निपरीक्षा है। रविवार को परिणाम की घोषणा के ठीक एक दिन बाद मुख्यमंत्री दिल्ली जा रही हैं, कयास लगाया जा रहा है कि अपने इस दौरे में वह केंद्रीय पार्टियों के नेताओं से मिल सकती हैं और आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीति तैयार की जा सकती है।


गौरतलब है कि मुख्यमंत्री ने पहले ही अपने सभी सांसदों को केंद्र सरकार की जनविरोधी विधेयक का विरोध करने का निर्देश दे दिया है, चाहे वह सांप्रदायिक हिंसा संबंधी विधेयक हो या तेलंगाना मुद्दा। मुख्यमंत्री ने विधेयकों का संसद के अंदर व बाहर दोनों जगहों पर विरोध करने का निर्देश दिया है। सोमवार को वह वहां तृणमूल कांग्रेस के सांसदों के साथ भी मिलेंगी और उनके भविष्य के नीतियों के बारे में संबोधित करेंगी।


संघ परिवार और भाजपा को शायद यह अंदाजा ही नहीं है कि जिस ममता बनर्जी को अपने पाले में खींचने के लिए नरेंद्र मोदी से लेकर हर केशरिया नेता कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं,नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए वे ही कांग्रेस और क्षत्रपों का सबसे बड़ा दांव बनने जा रही हैं।


इन चुनावों के नतीजे आने से पहले कोलकाता में टीपू सुल्तान मसजिद के इमाम ने साफ साफ कह दिया है कि अब ममता बनर्जी ही देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। इस वक्त अल्पसंख्यकों की आस्था के मामले में मुजफ्फरनगर दंगा और उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की वजह से नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव कोसों दूर हैं।


कामरेड ज्योति बसु के माकपाई पाखंड की वजह से प्रधानमंत्री न बन पाने की ऐतिहासिक भूल से सबक लेकर तय है कि ममता बनर्जी को पहली बंगाली प्रधानमंत्री बनाने के लिए बंगाल से भारी समर्थन मिलने वाला है।वामपंथी इस नये समीकरण से यानी ममता के प्रधानमंत्रित्व के बेहतरीन मौके और उन्हें मुसलिए वोटबैंक के एक मुश्त समर्थन के जोर पकड़ते समीकरण से और मुसीबत में फंस गये हैं। लोकसभा चुनावों में बंगाल में ममता लहर में वामपंथ के पूरे सफाये की आशंका भी है।इसके साथ ही कांग्रेस के बचे हुए गढ़ भी ध्वस्त होने हैं।पूर्वोत्तर व अन्यत्र दो चार सीटें और मिल जायें तो दीदी के पास कम से कम चालीस से पैंतालीस लोक सभा सदस्य होंगे,जो त्रिशंकु लकसभा में कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन से सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है।


इसके अलावा कोई दूसरा रामवाण नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए किसी के पास है ही नहीं।कांग्रेस के लिए सौ के आस पास सीटें हासिल करना भी मुश्किल है और तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देने के सिवायकांग्रेस के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। दूसरी तरफ, बंगाल से सफाया होने के बाद त्रिपुरा और केरल की कुछ सीटों के दम पर वामपंथी भी लोकसभा चुनाव के उपरांत तीसरे मोर्चे की सरकार में कोई भूमिका निभाने लायक नहीं बचेंगे। तमिलनाडु के क्षत्रप नई सरकार जिसकी बनेगी,उसीका साथ देंगे।


दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद निवर्तमान मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने शहर के रुझान को समझने में पार्टी के नाकाम रहने के बारे में पूछे जाने पर कहा, (हम) बेवकूफ हैं ना। चुनाव में करारी हार के रुझान आने के साथ ही शीला ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उप राज्यपाल नजीब जंग को अपना इस्तीफा भेजने के बाद शीला ने संवाददाताओं के साथ संक्षिप्त बातचीत में कहा, हम अपनी हार स्वीकार करते हैं और हम इसका विश्लेषण करेंगे कि क्या गलत हुआ।


लेकिन हकीकत में कांग्रेस उतनी बेवकूफ भी नहीं है। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में जो टक्कर भाजपा को दी है,उससे जाहिर है कि भाजपा को एकतरफा जीत नहीं मिलने वाली है और अगले लोकसभा में त्रिशंकु जनादेश की हालत में निर्णायक भूमिका कांग्रेस की ही रहेगी। उत्तर प्रदेश और बिहार के किसी के प्रधानमंत्रित्व से कांग्रेस के लिए आगे के चुनावों में भी बहुमत के लिए इन अति महत्वपूर्ण राज्यों में अपने जनाधार बनाये रखने की दृष्टि से ममता बनर्जी बेहतर विकल्प हैं। केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार बोलने वाली ममता बनर्जी ने अभीतक गांधी नेहरु परिवार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला है। इसलिए कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते कभी भी नाटकीय अंदाज में बदल सकते हैं।खासकर लोकसभा चुनावों के बाद।चुनाव से पहले दीदी बंगाल में किसी के लिए एक इंच जमीन नहीं छोड़ने वाली हैं।


गौर करें कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इशारों-इशारों में ट्वीट कर राहुल गांधी की चुटकी ली। उमर ने कहा कि बड़ी जनसभाओं का मतलब भले ही वोट न हो, लेकिन अगर भीड़ न हो तो मुसीबत तय है। एक अन्य ट्वीट में उमर अब्दुल्ला ने गांधी परिवार पर निशाना साधते हुए कहा कि इस चुनाव से उन्हें ये सबक मिला है कि विभाजनकारी संदेश काम नहीं आता लेकिन ये भी सच है कि आप चुनाव गांधीवादी अभियान से भी नहीं लड़ सकते। गौरतलब है कि दिल्ली विधानसभा में चुनाव प्रचार की कमान संभालने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की दक्षिण दिल्ली में हुई रैली में कम भीड़ जुटी थी।


कांग्रेस के साथ जो घटक हैं,उनके भी पाला बदल लेने की पूरी संभावना है।लेकिन अल्पसंख्यकों की आस्था की वजह से फिलहाल बढ़त दीदी को ही है।


गौरतलब है कि बाबारी विध्वंस की बरसी पर कोलकाता में  मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तृणमूल युवा की सद्भावना सभा में कहा कि राजनीतिक फायदे के लिए दंगे कराये जाते हैं। यह कोई जाति विशेष के लोग नहीं करते। सद्भावना सभा के जरिये राजनीतिक विरोधियों पर हमला करते हुए कहा कि विरोधी चाहें जितनी भी साजिश कर लें यहां (बंगाल में) उनकी साजिश सफल नहीं होगी। वाममोरचा पर प्रहार करते हुए उनका कहना था कि 34 वर्ष के शासनकाल में उन्होंने कुछ नहीं किया।



मेयो रोड के करीब गांधी मूर्ति के सामने आयोजित इस सभा में लोगों की भारी भीड़ को संभालने के लिए पुलिस का पुख्ता प्रबंध किया गया था।


दीदी ने वामपंतियों को सलाह दी है कि चूंकि उन्होंने 34 साल तक कुछ नहीं किया, इसलिए उन्हें चुपचाप रहकर आराम करना चाहिए और सरकार को काम करने देना चाहिए।दीदी का आरोप है कि विरोधी सच्चाई को दबाकर लोगों के सामने उसका विकृत रूप पेश करते हैं।


दीदी का कहना था कि दंगा कराने की साजिश का वह कभी भी समर्थन नहीं कर सकती। ऐसे लोगों के साथ उनका कोई संबंध नहीं हो सकता।


बाबरी मस्जिद ढांचे को गिराये जाने की घटना की निंदा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि जब यह घटना हुई. तब वह महानगर की सड़कों पर किसी किस्म का दंगा रोकने के लिए उतर पड़ी थीं। तत्कालीन वाममोरचा सरकार से भी उन्होंने कहा था कि जरूरत पड़ने पर वह सरकार को किसी भी किस्म की सहायता करने को तैयार हैं। सभा में तृणमूल कांग्रेस के आला नेता मौजूद थे।



জল মাপতেই এ বার দিল্লি পাড়ি মমতার

জয়ন্ত ঘোষাল • নয়াদিল্লি

৭ ডিসেম্বর

শেষ বার দিল্লি এসেছিলেন যোজনা কমিশনের সঙ্গে বৈঠক করতে। সে বারই কমিশনের দফতরের বাইরে তাঁকে ঘিরে বিক্ষোভ দেখিয়েছিল এসএফআই। যা নিয়ে রাজনৈতিক জলঘোলা হয়েছিল বিস্তর। তার পর আগামী সোমবার ফের দিল্লির মাটিতে পা রাখতে চলেছেন তিনি। তার মানে কি রাজনীতির এক নতুন অধ্যায় শুরু হতে চলেছে?

"কোনও অধ্যায়-টধ্যায় নেই।"প্রশ্ন শুনেই সপাটে উড়িয়ে দিলেন মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। "ব্যক্তিগত কিছু কাজ আছে। তা ছাড়া, এত দিন সংসদে ছিলাম। দিল্লি গেলে অনেকের সঙ্গে দেখা হয়।"

মুখ্যমন্ত্রী তাঁর সফরকে যতই লঘু করে দেখাতে চান না কেন, শাহি দিল্লি কিন্তু রাজনৈতিক তাৎপর্যের গন্ধ পাচ্ছে। বিশেষ করে পাঁচ রাজ্যে বিধানসভা ভোটের ফল প্রকাশের পরের দিনই মমতা দিল্লি আসার সিদ্ধান্ত নেওয়ায়।

ভোটের ফল আগামিকাল দুপুরের মধ্যেই স্পষ্ট হয়ে যাবে। কংগ্রেসের পক্ষে আশার খবর শোনায়নি প্রায় কোনও বুথ-ফেরত সমীক্ষাই। বস্তুত, দশ বছর দেশ শাসনের পরে কংগ্রেসের বিরুদ্ধে যে একটা হাওয়া উঠেছে, সেটা আমদরবারে কান পাতলেই বোঝা যাচ্ছে। ফলে আগামী বছর লোকসভা নির্বাচনে অঙ্কটা কী হবে, তা নিয়ে জল্পনা শুরু হয়ে গিয়েছে এখন থেকেই।

দিল্লিতে গণতন্ত্রের শক্তি মাপা হয় সাংসদের সংখ্যায়। কংগ্রেস এবং বিজেপি, দু'পক্ষেরই যদি সংখ্যায় টান ধরে তা হলে গুরুত্বপূর্ণ হয়ে উঠবে আঞ্চলিক দলগুলির ভূমিকা। আর সিপিএম এবং কংগ্রেস রাজ্যের দুই বিরোধী দলই যে হেতু মনে করছে এ বার তৃণমূলের আসন বৃদ্ধির সম্ভাবনা প্রবল, সে হেতু দিল্লিতে টালমাটাল পরিস্থিতিতে নির্ণায়ক শক্তি হয়ে উঠতে পারেন মমতা। সেই সম্ভাবনা থেকেই মমতার সফর ঘিরে তাৎপর্যের গন্ধ পাচ্ছেন অনেকে।

লোকসভা নির্বাচনে বিজেপি যদি শক্তিশালী হয়ে ওঠে, তা হলে মমতা কি এনডিএ-তে ফিরে যেতে পারেন? হাওড়া লোকসভা উপনির্বাচনে প্রার্থী না-দিয়ে সেই জল্পনা উস্কে দিয়েছিলেন বিজেপি সভাপতি রাজনাথ সিংহ। কিন্তু বরুণ গাঁধী দলের তরফে পশ্চিমবঙ্গের দায়িত্ব নেওয়ার পরে রাজ্য সভাপতি রাহুল সিন্হার সঙ্গে হাত মিলিয়ে তৃণমূলের বিরুদ্ধে কড়া মনোভাব নিয়েছেন।

এনডিএ-তে সম্ভাবনা উড়িয়ে দিচ্ছেন তৃণমূল নেতৃত্বও। রাজ্যের তিরিশ শতাংশ সংখ্যালঘু ভোটের বেশির ভাগই এখন তৃণমূলের দিকে। নরেন্দ্র মোদীর নেতৃত্বে আক্রমণাত্মক হয়ে ওঠা বিজেপি-র সঙ্গে হাত মিলিয়ে সেই ভোট খোয়াতে চায় না তারা। ডেরেক ও'ব্রায়েনের মতো তৃণমূল সাংসদ তাই সাফ বলে দিচ্ছেন "এনডিএ? নৈব নৈব চ।"তৃণমূল নেতারা মনে করাচ্ছেন, নরেন্দ্র মোদীর আমন্ত্রণ সত্ত্বেও তাঁর শপথগ্রহণ অনুষ্ঠানে যোগ দেননি মমতা। মোদী কলকাতায় এসে দেখা করতে চাওয়া সত্ত্বেও দেখা করেননি।

এর বিপরীতে খবর হল, আজ শনিবার দিল্লির জামা মসজিদের শাহি ইমাম সৈয়দ বুখারির ছেলের বিয়েতে আমন্ত্রিত ছিলেন মমতা। নিজে আসতে না-পারলেও মুকুল রায় এবং ফিরহাদ (ববি) হাকিমকে পাঠিয়েছেন মমতা। সঙ্গে উপহার সোনার গয়না। আগামী সপ্তাহে দিল্লি এসে মমতা যাতে নবদম্পতিকে আর্শীবাদ করে যান, সেই অনুরোধও জানিয়েছেন বুখারি।

বিজেপি যদি অচ্ছুৎ হয়, তা হলে তাঁর পুরনো কর্মসূচি ফেডেরাল ফ্রন্ট (ইদানীং যাকে তিনি অবিহিত করছেন ইউনাইটেড ইন্ডিয়া ফ্রন্ট বলে) গঠনের প্রক্রিয়া ত্বরান্বিত করতেই কি মমতার এ বারের দিল্লি-যাত্রা? এই ফ্রন্ট গড়ার ব্যাপারে বিহারের মুখ্যমন্ত্রী নীতীশ কুমারের সঙ্গে একটা সময় আলোচনা শুরু করছিলেন মমতা। কিন্তু নীতীশ এনডিএ ছাড়ার পরে কংগ্রেসের সঙ্গে গোপন বোঝাপড়া শুরু করায় তিনি এই প্রক্রিয়া থেকে খানিকটা দূরে সরে যান। এর পরে দিল্লিতে বামেদের আয়োজিত সমাবেশে যোগ দেন নীতীশ। ফলে মমতার সঙ্গে দূরত্ব আরও বাড়ে।

তবে অন্ধ্রপ্রদেশের জগন্মোহন রেড্ডি, যাঁর নির্বাচনী ভবিষ্যৎ ভাল বলে মনে করছেন কংগ্রেস নেতারাই, সম্প্রতি কলকাতায় এসে মমতার সঙ্গে দেখা করেছেন। তাঁর সঙ্গে ওড়িশার মুখ্যমন্ত্রী নবীন পট্টনায়কের সাক্ষাতের বন্দোবস্ত করে দিয়েছেন মমতাই। মমতার সঙ্গে নিয়মিত যোগাযোগ রাখছেন উত্তরপ্রদেশের মুখ্যমন্ত্রী অখিলেশ যাদবও। মুলায়ম যতই সিপিএমের সঙ্গে ওঠাবসা করুন না কেন! মুকুল রায়ের সঙ্গে যোগাযোগ রাখছেন মায়াবতীর প্রতিনিধি সতীশ মিশ্র। ফলে স্তিমিত হলেও ফেডেরাল ফ্রন্ট গড়ার উদ্যোগ যে জলে গিয়েছে, এমন নয়। প্রশ্ন হল, পরিবর্তিত এই পরিস্থিতিতে কংগ্রেসের ভূমিকা কী হবে? মমতার সঙ্গে কি তাঁরা সংঘাতের পথে যাবে? সারদা-কাণ্ডের সিবিআই তদন্ত নিয়ে তৎপর হবে। তৃণমূলকে বিপাকে ফেলতে উস্কে দেবে কুণাল ঘোষকে? কংগ্রেসের শীর্ষ নেতারাই বলছেন, আসন সংখ্যা যদি কমে, তা হলে দলের দাদাগিরি করার ক্ষমতাও কমে যায়। ফলে লোকসভায় আসন সংখ্যা কমার আশঙ্কা সামনে রেখে কংগ্রেসের পক্ষে কতটা আক্রমণাত্মক হওয়া সম্ভব, সেই প্রশ্ন থাকছেই। তা ছাড়া, তখন এক দিকে যেমন লোকসভা ভোটের পরে তৃণমূলের সমর্থন নেওয়ার সম্ভাবনার কথা মাথায় রাখতে হবে কংগ্রেস নেতাদের, তেমনই বিজেপি-কে ঠেকাতে প্রয়োজনে আঞ্চলিক দলগুলির জোট সরকারকে বাইরে থেকে সমর্থন দেওয়ার জন্যও তৈরি থাকতে হবে।

তৃণমূল অবশ্য কংগ্রেস বিরোধিতার হাওয়া তৈরি হয়েছে বুঝে তাদের সঙ্গে সমঝোতার ভাবনাকে আমল দিচ্ছে না। দলের সর্বভারতীয় সাধারণ সম্পাদক মুকুল রায় বলেন, "কংগ্রেসের সঙ্গে জোট বেঁধে লোকসভায় লড়ার তাগিদ নেই। কারণ তৃণমূল একাই বিপুল ভোটে জিতবে। তা ছাড়া, কংগ্রেসের পক্ষ থেকেও এমন কোনও প্রস্তাব নেই। কাজেই বিবেচনার প্রশ্নও উঠছে না।"

তৃণমূলের মতে, জোট হলে তাঁদের যত না লাভ হবে, কংগ্রেসের লাভ তার চেয়ে বেশি। কারণ, পঞ্চায়েত থেকে পুরসভা রাজ্যের সব ভোটেই বামেদের সঙ্গে পাল্লা দিয়ে অবস্থা খারাপ কংগ্রেসের। তাই রাজ্যের প্রতি কেন্দ্রের কংগ্রেস সরকারের বঞ্চনার অভিযোগ, বাম-কংগ্রেস আঁতাঁত নিয়ে প্রচার করে এক অস্ত্রে দুই শত্রু মারতে চাইছেন মমতা। এ বারের দিল্লি সফরে সনিয়া গাঁধী, রাজনাথ সিংহের সঙ্গে যেমন জোট নিয়ে কথা বলবেন না মমতা, তেমনই ফেডেরাল ফ্রন্ট নিয়ে কথা বলবেন না মুলায়ম-মায়াবতী-জয়ললিতা-করুণানিধির সংসদীয় দলের নেতাদের সঙ্গে। তা হলে এই সফরের তাৎপর্য কোথায়!

রাজধানীর রাজনীতিকরা মনে করছেন, লোকসভা ভোটের মুখে জাতীয় রাজনীতির জল মাপাটাই মূল লক্ষ্য মমতার। বুঝে নেওয়া আঞ্চলিক দলের নেতারা কে কোন অবস্থানে আছেন। কংগ্রেসের অবস্থা কতটা খারাপ। মোদীর পক্ষে হাওয়াই বা কতটা। বস্তুত শুধু মমতা নন, সব নেতাই এখন এই কাজে ব্যস্ত। সব দলের মাথারাই স্বীকার করছেন, এটা মুক্ত জনসংযোগের সময়। সকলেই সকলের সঙ্গে যোগাযোগ রেখে চলেছেন। আর তার থেকেই তৈরি হবে ভবিষ্যতের জোট-চিত্র। দিল্লি প্রতীক্ষায়।

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পরশু দিল্লিতে মমতা, ডাক মঞ্চ থেকেও

নিজস্ব সংবাদদাতা • নয়াদিল্লি ও কলকাতা

পাঁচ রাজ্যের ভোটের ফল বেরোচ্ছে আগামিকাল, রবিবার। আর তার পরের দিন, সোমবারেই দিল্লি যাচ্ছেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।

দিল্লিতে তাঁর কোনও সরকারি কর্মসূচি নেই। তা হলে? তৃণমূল নেতৃত্বের অনেকেই বলছেন, সময়টা খুব গুরুত্বপূর্ণ। তত ক্ষণে পাঁচ রাজ্যে ফলের সূত্র ধরে মানুষের মনের আঁচও মিলে যাবে খানিকটা। তাঁদের ধারণা, বেহাল অবস্থাই হবে কংগ্রেসের। অন্য দিকে নরেন্দ্র মোদীর হাওয়ায় বিজেপি যতটা ভাল ফল আশা করছে, তা-ও হবে না। ছত্তীসগঢ়ে যেমন বিজেপি বিশেষ সুবিধা করতে পারবে না, তেমনই দিল্লিতে কংগ্রেস পর্যুদস্ত হলেও পদ্ম ফোটা নিয়ে সংশয় রয়েছে। বরং সেখানে অরবিন্দ কেজরিওয়ালের আম-আদমি পার্টির ক্ষমতা দখলের সম্ভাবনা রয়েছে। এই অবস্থায় তৃতীয় শক্তির উত্থানের সম্ভাবনা দেখছেন তৃণমূল নেতৃত্ব, যে ফ্রন্টকে মমতা বর্ণনা করছেন ইউনাইটেড ইন্ডিয়া ফ্রন্ট হিসেবে। এই পরিস্থিতিতে তাই দিল্লিতে জনসংযোগ আরও বাড়াতে সফর মমতার। বিভিন্ন দলের নেতাদের সঙ্গে গল্প আড্ডায় যেমন তিনি বুঝে নিতে চাইবেন তাঁদের মনোভাব, তেমনই ইউনাইটেড ইন্ডিয়া ফ্রন্টের জন্য প্রাথমিক ভিতও গড়ে রাখতে চাইছেন এর মধ্যে। দলীয় সূত্রের খবর, সংসদের সেন্ট্রাল হলেও যাবেন মমতা। সেখানে বেশ কিছু সময় তাঁর থাকার কথা।

তাঁদের পাখির চোখ যে এখন দলকে দিল্লির রাজনীতিতে গুরুত্বপূর্ণ জায়গায় নিয়ে যাওয়া, সেটা এ দিন তৃণমূল যুবার ডাকে সংহতি দিবসের মঞ্চ থেকেও স্পষ্ট করে দিয়েছেন দলীয় নেতৃত্ব। ময়দানে গাঁধী মূর্তির পাদদেশে এই সভা থেকে দিল্লিতে 'মা-মাটি মানুষের সরকার'প্রতিষ্ঠার ডাক দেন তৃণমূল যুবার সভাপতি অভিষেক বন্দ্যোপাধ্যায়। লোকসভা ভোটের কথা মাথায় রেখেই অভিষেক তাঁর বক্তৃতায় স্পষ্ট বলেন, "মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়কে সামনে রেখে এ বারের লোকসভা ভোটে তৃণমূল একলাই লড়বে।"অভিষেক যখন এই বক্তৃতা করছেন, তখন অবশ্য মমতা সভায় আসেননি। কিন্তু মঞ্চে সুদীপ বন্দ্যোপাধ্যায়, ফিরহাদ হাকিম, সুব্রত বক্সীর মতো তৃণমূল নেতারা ছিলেন।

*

তৃণমূল যুবার সভায় সর্বভারতীয় সভাপতি অভিষেক বন্দ্যোপাধ্যায়

এবং মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। শুক্রবার। ছবি: সুদীপ আচার্য।

অভিষেকের বক্তব্যের সূত্রে কলকাতার দু'টি বড় মসজিদের ইমাম থেকে শুরু করে বিভিন্ন সম্প্রদায়ের প্রতিনিধিদের অনেকেই মমতাকে প্রধানমন্ত্রী করার আবেদন জানান। তাঁদের বক্তব্য, বাংলায় মমতা সুশাসন এনেছেন। দেশ বাঁচাতেও তাঁর মতো নেত্রী দরকার। জানুয়ারিতে ব্রিগেডের সভার আগে এ দিনও সমাবেশে ভিড় দেখে অভিষেকরা লোকসভা ভোটের প্রচারের মহড়া দিলেন।

মমতা দিল্লিতে সরকার গড়ার বিষয়ে কোনও কথা বলেননি। বরং তাঁর আধ ঘণ্টার বক্তৃতায় বাবরি ধ্বংসের নিন্দা ও সাম্প্রদায়িক সম্প্রীতি রক্ষার বিষয়কে প্রাধান্য দিয়েছেন মুখ্যমন্ত্রী। বিজেপি-র নাম না করলেও বাবরি ধ্বংসের সমালোচনা করেন মমতা। তিনি বলেন, "বাবরি ধ্বংসের আমরা নিন্দা করেছি। করছি। করব।"লোকসভা ভোটের আগে বাবরি ধবংসের ব্যাপারে মমতার প্রতিবাদ কার্যত বিজেপির বিরুদ্ধে সমালোচনার সামিল। এমনকী, ধর্মকে সামনে রেখে রাজনীতি করারও নিন্দা করেন তিনি।

দলের অনেক নেতাই এখন বলছেন, এ দিন সংহতি সভা থেকে একাধিক বার্তা দিতে চেয়েছে তৃণমূল। প্রথমত, বাবরি ধ্বংসের বার্ষিকীর দিনে সংহতি দিবসের আয়োজন করে সাম্প্রদায়িকতা বিরোধী লড়াইয়ে সিপিএমের জমি কাড়তে চেয়েছেন মমতা। দ্বিতীয়ত, বাবরি ধ্বংসের নিন্দা করে বিজেপি বিশেষ করে নরেন্দ্র মোদীর থেকে দূরত্ব বজায়ের বার্তাও দিয়েছেন। তৃতীয়ত, জাতীয় স্তরে সম্ভাব্য তৃতীয় ফ্রন্ট থেকে প্রকাশ কারাটদের সরানোর যুদ্ধটাও জোরদার করতে চান তিনি। তাঁর দিল্লি যাত্রার অন্যতম কারণও সেটা। সিপিএমকে লক্ষ্য করে তিনি বলেন, "৩৪ বছর সুযোগ পেয়েছেন। এখন চুপ থাকুন। কাজ করতে দিন।"এখনও যাঁরা কংগ্রেসে, 'সোনার বাংলা'গড়তে সভা থেকেই তাঁদের তৃণমূলে আসার আহ্বান জানান যুবা-প্রধান অভিষেক, ঘটনাচক্রে তিনি মুখ্যমন্ত্রীর ভ্রাতুষ্পুত্র।

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লাইভ খবর

04 Dec, 2013 , 02.28PM IST

চার রাজ্যের ফলাফল

05:22 PMআগামী লোকসভা নির্বাচনে কী হতে চলেছে, তা এই বিধানসভা ভোটের ফলেই স্পষ্ট। বললেন বিজেপি সভাপতি রাজনাথ সিং।

04:21 PMবিধানসভা নির্বাচনের ফলাফলে বোঝা যাচ্ছে কংগ্রেস দলের গভীর ভাবে আত্মসমীক্ষা জরুরি। বললেন কংগ্রেস প্রেসিডেন্ট সনিয়া গান্ধি।

04:03 PM"দিল্লিতে আমরা বিরোধী আসনে বসতে প্রস্তুত" - মনীষ সিসোদিয়া

"দিল্লিতে আমরা বিরোধী আসনে বসতে প্রস্তুত" - মনীষ সিসোদিয়া

04:01 PMদিল্লিতে ২২ হাজার ভোটে শিলা দিক্ষীতকে হারালেন অরবিন্দ কেজরিওয়াল

03:56 PMকে কোথায় এগিয়ে-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস - ৫, বিজেপি - ১২, আপ - ৮, অন্যান্য - ১। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস - ৪৬, বিজেপি -১০০, বিএসপি - ০ অন্যান্য - ৮। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস - ৭, বিজেপি - ৩৯, বিএসপি - ০ অন্যান্য - ১৫। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস - ২৭, বিজেপি - ৩৫, বিএসপি - ০, অন্যান্য - ০ । কে কোথায় জয়ী-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস - ৪, বিজেপি - ২১, আপ - ১৮, অন্যান্য - ১। মধ্যপ্রদেশ: কংগ্রেস - ১৭, বিজেপি - ৫৯। রাজস্থান: কংগ্রেস - ১৭, বিজেপি - ১১৮, অন্যান্য - ৩। ছত্তিশগড়: কংগ্রেস - ১৬, বিজেপি - ১২।

03:54 PMদিল্লির ফলাফল স্পষ্ট হতে উত্‍ফুল্ল কেজরিওয়াল

03:28 PMকে কোথায় জয়ী-- দিল্লি: কংগ্রেস- ৪, বিজেপি- ১৭, আপ- ১৬, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ: কংগ্রেস- ১৭, বিজেপি- ৫৯। রাজস্থান: কংগ্রেস- ১৭, বিজেপি- ১১৮, অন্যান্য- ৩। ছত্তিশগড়: কংগ্রেস- ১৫, বিজেপি- ১১।

03:28 PMকে কোথায় এগিয়ে-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৪, বিজেপি- ১৭, আপ- ১০, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৪৬, বিজেপি-১০০, অন্যান্য- ৮। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৯, অন্যান্য- ১৫। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ২৮, বিজেপি- ৩৬, অন্যান্য- ।

03:19 PMকে কোথায় জয়ী-- দিল্লি: কংগ্রেস- ৪, বিজেপি- ১৭, আপ- ১৩, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ: কংগ্রেস- ৮, বিজেপি-২৫। রাজস্থান: কংগ্রেস- ১৫, বিজেপি- ১০৫, অন্যান্য- ২। ছত্তিশগড়: কংগ্রেস- ৮, বিজেপি- ১০।

03:18 PMকে কোথায় এগিয়ে-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৪, বিজেপি- ১৭, আপ- ১৪, অন্যান্য- ০। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৫৪, বিজেপি-১৩১, অন্যান্য- ১২।রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ১১, বিজেপি- ৪৯, অন্যান্য- ১৭। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৩৩, বিজেপি- ৩৯, অন্যান্য- ১।

03:16 PMআপ-কে অভিনন্দন জানালেন যোগগুরু রামদেব।

03:14 PMদিল্লি পৌঁছলেন নরেন্দ্র মোদী। সাড়ে তিনটে নাগাদ সংসদীয় বোর্ডের বৈঠক।

03:13 PM'আমি কেজরিওয়ালকে অভিনন্দন জানাতে চাই', বললেন হর্ষবর্ধন।

03:13 PMদিল্লির কৃষ্ণনগর থেকে জয়ী বিজেপির মুখ্যমন্ত্রী পদপ্রার্থী হর্ষবর্ধন।

03:12 PMনয়াদিল্লিতে জয়ী অরবিন্দ কেজরিওয়াল। শীলা দীক্ষিত পরাজিত।

03:09 PMআপ-এর দপ্তরের বাইরে এই পোস্টারে কেজরিওয়ালই 'আসল নায়ক'।

02:07 PMকে কোথায় জয়ী-- দিল্লি: কংগ্রেস- ৩, বিজেপি- ১১, আপ- ৮, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ: কংগ্রেস- ৮, বিজেপি-২৫। রাজস্থান: কংগ্রেস- ১০, বিজেপি- ৫৮, অন্যান্য- ২। ছত্তিশগড়: কংগ্রেস- ১, বিজেপি- ১।

02:07 PMকে কোথায় এগিয়ে-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৫, বিজেপি- ২১, আপ- ২১, অন্যান্য- ০। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৫৪, বিজেপি-১৩১, অন্যান্য- ১২। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২২, বিজেপি- ৮৫, অন্যান্য- ২২। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪০, বিজেপি- ৪৭, অন্যান্য- ১।

02:04 PMদিল্লির গ্রেটার কৈলাস আসনে আপ-এর সৌরভ ভরদ্বাজ জয়ী। মুস্তফাবাদ সিট থেকে জয়ী বিজেপি-র জগদীশ প্রধান।

02:03 PMমধ্যপ্রদেশে জয়ের হ্যাটট্রিকে শিবরাজ সিংকে অভিনন্দন জানালেন বিজেপির অনন্ত কুমার।

02:03 PM'মধ্যপ্রদেশের জনতার জয়', বললেন শিবরাজ সিং চৌহান।

02:03 PMআপ-কে অভিনন্দন জানালেন অনুপম খের, অনুষ্কা শর্মা।

02:02 PMমধ্যপ্রদেশের ফলাফলে হতাশ জ্যোতিরাদিত্য সিন্ধিয়া। বললেন, দলকে আত্মবিশ্লেষণ করতে হবে।

02:02 PMদিল্লির বাদলীতে জয়ী কংগ্রেসের দেবেন্দ্র যাদব। পটপড়গঞ্জ আসনে জয়ী আপ-এর মণীশ সিসৌদিয়া।

01:53 PMকে কোথায় জয়ী-- দিল্লি: কংগ্রেস- ২, বিজেপি- ৭, আপ- ৮, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ: কংগ্রেস- ৮, বিজেপি-২৫। রাজস্থান: কংগ্রেস- ১০, বিজেপি- ৫৮, অন্যান্য- ২। ছত্তিশগড়: কংগ্রেস- ১, বিজেপি- ১।

01:50 PMকে কোথায় এগিয়ে-- দিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৬, বিজেপি- ২৫, আপ- ২১, অন্যান্য- ০। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৫৪, বিজেপি-১৩১, অন্যান্য- ১২। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২২, বিজেপি- ৮৫, অন্যান্য- ২২। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪০, বিজেপি- ৪৬, অন্যান্য- ২।

01:46 PMদিল্লির উত্তম নগরে জয়ী বিজেপি-র পবন শর্মা।

01:46 PM১১০০০ ভোটে এগিয়ে কেজরিওয়াল।

01:46 PMদিল্লির রোহিণী আসনে আপ-এ প্রার্থী রাজেশ গর্গ জয়ী।

01:46 PMদিল্লির উদ্দেশে রওনা নরেন্দ্র মোদী। সাড়ে তিনটে নাগাদ সংসদীয় বোর্ডের বৈঠকে যোগ দেবেন।

01:46 PMরাজীব শুক্লা বলেন, নিজের তরফে পুরো চেষ্টা চালিয়েছেন রাহুল গান্ধী। স্থানীয় ইস্যুর কারণে আমরা হেরেছি। ২০১৪ লোকসভা নির্বাচনে আমরা জয়ী হব

01:28 PMছত্তিশগড়ে কংগ্রেস-বিজেপি-র মধ্যে 'কাঁটে কী টক্কর'। বিজেপি- ৪৫, কংগ্রেস- ৪২ এবং অন্যান্য-২।

01:28 PMগান্ধী নগর থেকে কংগ্রেসের অরবিন্দ সিং লাভলি জয়ী। কংগ্রেসের একমাত্র মন্ত্রী যিনি এখনও পর্যন্ত জয়লাভ করতে পেরেছেন।

01:28 PMরাজস্থানের ঝলরাপাটন থেকে জয়ী বিজেপির মুখ্যমন্ত্রী পদপ্রার্থী বসুন্ধরা রাজে সিন্ধিয়া।

01:28 PMমধ্য প্রদেশের চুরই থেকে জয়ী বিজেপির পণ্ডিত রমেশ দুবে।

01:24 PMসাংবাদিকজের মুখোমুখি শীলা দীক্ষিত। প্রশ্ন করা হয়, জনতার মুড আপনারা বুঝতে পারেননি কেন? তাঁর উত্তর, 'বোকা তাই'।

01:04 PM'দিল্লিবাসী এটি সিদ্ধান্ত নিয়েছে, আমরা তার সম্মান করছি। ১৫ বছর কংগ্রেসের সঙ্গে ছিল দিল্লি।' -- শীলা দীক্ষিত

01:00 PMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৩, আপ- ২২, অন্যান্য- ১। চারটি আসনে বিজেপি এবং তিনটিতে আপ জয়ী। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬৮, বিজেপি-১৪৫, অন্যান্য- ১১। একটি আসনে কংগ্রেস এবং পাঁচটি আসনে বিজেপি জয়ী। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ৩২, বিজেপি- ১৩৩, অন্যান্য- ২৩। একটি আসনে কংগ্রেস এবং ১০টি আসনে বিজেপি জয়ী। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪৩, বিজেপি- ৪২, বিএসপি- ৩। একটি করে আসনে জয়ী কংগ্রেস এবং বিজেপি।

12:47 PMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩০, আপ- ২৪, অন্যান্য- ২। চারটি করে আসনে বিজেপি এবং আপ জয়ী। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬৮, বিজেপি-১৪৫, অন্যান্য- ১১। একটি আসনে কংগ্রেস এবং পাঁচটি আসনে বিজেপি জয়ী। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ৩২, বিজেপি- ১৩৩, অন্যান্য- ২৩। একটি আসনে কংগ্রেস এবং ১০টি আসনে বিজেপি জয়ী। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪৫, বিজেপি- ৪১, বিএসপি- ২। একটি করে আসনে জয়ী কংগ্রেস এবং বিজেপি।

12:42 PMরাজস্থানে জয়ের উল্লাস কর্মী-সমর্থকদের।

12:39 PMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৫, আপ- ২৪, অন্যান্য- ৩। তিনটি করে আসনে বিজেপি এবং আপ জয়ী। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬৮, বিজেপি-১৪৯, অন্যান্য- ১১। একটি করে আসনে কংগ্রেস এবং বিজেপি জয়ী। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ৩২, বিজেপি- ১৪৩, অন্যান্য- ২২। দুটি আসনে বিজেপি জয়ী। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪৯, বিজেপি- ৩৯, বিএসপি- ২।

12:35 PMদিল্লির শকুরবস্তী সিটে জয়ী আপ-এর প্রার্থী সত্যেন্দ্র জৈন। সঙ্গম বিহার সিটেও জয়ী আপ প্রার্থী। শাজিয়া ইল্মী পিছিয়ে।

12:30 PMদেখুন NOTA, অর্থাত্‍‌ কোনও প্রার্থীকে ভোট নয়-এর রাজ্যভিত্তিক হার।

12:27 PMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৫, আপ- ২৪, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬৫, বিজেপি-১৫০, অন্যান্য- ১৩। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ৩৬, বিজেপি- ১৩৯, অন্যান্য- ২২। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪৯, বিজেপি- ৩৯, বিএসপি- ২।

12:17 PMকংগ্রেসের পরাজয় স্পষ্ট হতেই টুইটারে পোস্ট করা হয়েছে এই ছবি...

12:10 PM১৫০০০ ভোটে পিছিয়ে শীলা দীক্ষিত।

12:03 PMপদত্যাগ করলেন শীলা দীক্ষিত।

11:47 AMআট হাজার ভোটে এগিয়ে অরবিন্দ কেজরিওয়াল।

11:35 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৫, আপ- ২৪, অন্যান্য- ৩।মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৮, বিজেপি-১৩৮, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৭, বিজেপি- ১৪০, অন্যান্য- ২২। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪০, বিজেপি- ৪৬, অন্যান্য- ৩।

11:34 AMদিল্লি-- ৬৭০০ ভোটে পিছিয়ে শীলা দীক্ষিত।

11:20 AMদেওলি থেকে জয়ী আপ-এর প্রার্থী প্রকাশ। সপ্তম রাউন্ডের গণনায় ৪০টি ভোটে পিছিয়ে শাজিয়া ইল্মী।

11:18 AMআপ-এর ফলে খুশি আন্না হাজারে। তবে আপ যেন কারও সমর্থনে সরকার গঠন না করে।

11:16 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৭, বিজেপি- ৩৪, আপ- ২৬, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৮, বিজেপি-১৩৮, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৭, বিজেপি- ১৪০, অন্যান্য- ২২। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪০, বিজেপি- ৪৬, অন্যান্য- ৩।

11:14 AMবিজেপি-র জয়ের পিছনে মোদী ফ্যাক্টার, এমনই মত বসুন্ধরা রাজের।

11:14 AMদিল্লিতে আজাদ ময়দানে আপ সমর্থকদের ভিড়।

11:12 AMদিল্লিতে ষষ্ঠ রাউন্ডের গণনায় আরকে পুরম আসনে ১১ হাজার ভোটে এগিয়ে শাজিয়া ইল্মী।

11:11 AM'পরাজয়ের ঝড় উঠলে কেউ কিছু করতে পারে না। পরাজয়ের কোনও কারণ নেই। আমরা ভালো কাজ করেছি, সুশাসন দিয়েছি। এটা একটা আন্ডারকারেন্ট, যার কোনও উপচার নেই। জনতা এর ভিত্তিতেই ভোট দিয়েছে।' -- অশোক গেহলোত।

11:09 AMমধ্যপ্রদেশের অনুপপুর থেকে বিজেপি-র রামলাল রোতাল জয়ী।

11:07 AM'মধ্যপ্রদেশে মোদী ফ্যাক্টার কাজ করেনি। সমস্ত পোস্টারে শিবরাজ সিং চৌহানেরই ছবি ছিল। দিল্লিতেও মোদীর জাদু চলেনি', মন্তব্য রাজীব শুক্লার।

11:06 AM'অরবিন্দ সংখ্যাগরিষ্ঠতা অর্জন করেনি। তাঁকে কোনও না-কোনও দলের সাহায্য নিতে হবে। সে সংখ্যাগরিষ্ঠতা অর্জন করলে নিজে আইন তৈরি করত। সে আমাকে রাজ্যে লোকায়ুক্ত আনার কথা বলেছিল। কিন্তু খিচুড়ি সরকার ভালো ভাবে চলে না। সে কী ভাবে লোকায়ুক্ত আনবে', দিল্লি বিধানসভা নিবার্চনের ফলাফলের পর এমনই মন্তব্য আন্না হাজারের।

11:00 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৯, বিজেপি- ৩৩, আপ- ২৫, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৪, বিজেপি-১৪২, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৬, বিজেপি- ১৪০, অন্যান্য- ১৯।ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৩৫, বিজেপি- ৪৯, অন্যান্য- ৩।

10:59 AM'আজ যা হল তার জন্য সাধারণ মানুষকে অসংখ্য ধন্যবাদ। এটি সাধারণ মানুষ এবং দলের কর্মীদের জয়', বললেন বসুন্ধরা রাজে সিন্ধিয়া।

10:58 AMমধ্যপ্রদেশের রাঘোগড়ে ২,৫৮৭ ভোটে এগিয়ে দিগ্বিজয় সিংয়ের ছেলে জয়বর্ধন সিং।

10:56 AMছত্তিশগড়ে সরকার গড়ার পথে বিজেপি।

10:55 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ১২, বিজেপি- ৩১, আপ- ২৪, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৪, বিজেপি-১৪২, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৬, বিজেপি- ১৪০, অন্যান্য- ১৯। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৩৫, বিজেপি- ৪৯, অন্যান্য- ৩।

10:50 AMনয়াদিল্লি আসনে ৪৫১০ ভোটে পিছিয়ে শীলা দীক্ষিত, এগিয়ে অরবিন্দ কেজরিওয়াল।

10:48 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ১২, বিজেপি- ৩১, আপ- ২৪, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৪, বিজেপি-১৪২, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৬, বিজেপি- ১৪০, অন্যান্য- ১৯।ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪১, বিজেপি- ৪১, অন্যান্য- ৩।

10:47 AMদিল্লিতে আপ-এর উল্লাস।

10:39 AMদিল্লিতে লক্ষ্মীনগর থেকে এগিয়ে একে ওয়ালিয়া। এতক্ষণ পিছিয়ে ছিলেন তিনি।

10:38 AMছত্তিশগড়ে বিজেপি এবং কংগ্রেসের মধ্যে হাড্ডাহাড্ডি লড়াই। দুই দলই ৪১টি করে সিটে এগিয়ে। তিনটি আসনে এগিয়ে অন্যান্যরা।

10:33 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ১৪, বিজেপি- ৩০, আপ- ২৫, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৪, বিজেপি-১৪২, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৮, বিজেপি- ১৩১, অন্যান্য- ১৯। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৩৯, বিজেপি- ৪৩, অন্যান্য- ৩।

10:30 AMদিল্লিতে আপ-এর শঙ্কনাদ। উল্লাসের প্রস্তুতি।

10:28 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ১৩, বিজেপি- ৩১, আপ- ২৫, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৩, বিজেপি-১৩৯, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৮, বিজেপি- ১৩১, অন্যান্য- ১৯। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৩৯, বিজেপি- ৪৩, অন্যান্য- ৩।

10:24 AMদিল্লিতে এগিয়ে বিজেপি-র হর্ষবর্ধন, আপ-এর অরবিন্দ কেজরিওয়াল এবং শাজিয়া ইল্মী। শীলা দীক্ষিত পিছিয়ে।

10:18 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৯, বিজেপি- ৩২, আপ- ২৫, অন্যান্য- ১। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৭৩, বিজেপি-১৩৯, অন্যান্য- ১১। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৮, বিজেপি- ১৩১, অন্যান্য- ১৯। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪২, বিজেপি- ৩৭, অন্যান্য- ৩।

10:17 AMআপ-এর ময়ঙ্ক গান্ধী জানালেন, কংগ্রেসের সমর্থনে সরকার গঠিত হবে না।

10:16 AMদিল্লিতে ত্রিশঙ্কুর সম্ভাবনা।

10:16 AMপটপড়গঞ্জ সিটে এগিয়ে আপ-এর মণীশ সিসৌদিয়া। বিজেপি-র নকুল ভারদ্বাজের তুলনায় ৫৭৪৬ ভোটে এগিয়ে তিনি।

10:14 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৯, বিজেপি- ৩৩, আপ- ২৪, অন্যান্য- ২। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬৮, বিজেপি-১৩৭, অন্যান্য- ১০। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৫, বিজেপি- ১২৯, অন্যান্য- ১৯। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪২, বিজেপি- ৩৭, অন্যান্য- ৩।

09:53 AMদিল্লি (৭০): কংগ্রেস- ৯, বিজেপি- ৩২, আপ- ২৪, অন্যান্য- ২। মধ্যপ্রদেশ (২৩০): কংগ্রেস- ৬২, বিজেপি-১৩৩, অন্যান্য- ৯। রাজস্থান (২০০): কংগ্রেস- ২৮, বিজেপি- ১২০, অন্যান্য- ১৭। ছত্তিশগড় (৯০): কংগ্রেস- ৪১, বিজেপি- ৩৬, অন্যান্য- ৩।

09:51 AM'রাজনীতিতে আপ-কে স্বাগত। অরবিন্দ কেজরিওয়াল নিজের কথা প্রমাণ করেছেন। ভারত পরিবর্তনে জন্য উত্‍‌সুক', বললেন প্রীতিশ নন্দী

09:49 AMনয়াদিল্লি সিটে এবার পিছিয়ে শীলা দীক্ষিত। ২ হাজার ভোটে এগিয়ে অরবিন্দ কেজরিওয়াল।

09:48 AMদিল্লি (৬৫/৭০): কংগ্রেস- ১০, বিজেপি- ২৮, আপ- ২২, অন্যান্য- ৩। মধ্যপ্রদেশ (২০৩/২৩০): কংগ্রেস- ৫৭, বিজেপি-১৩৩, অন্যান্য- ৮। ছত্তিশগড় (৮০/৯০): কংগ্রেস- ৩৬, বিজেপি- ৪১, অন্যান্য- ৩। রাজস্থান (১৬২/২০০): কংগ্রেস- ৩১, বিজেপি- ১১৫, অন্যান্য- ১৬।

09:38 AMছত্তিশগড়ে মাওহানায় মৃত কংগ্রেস নেতা মহেন্দ্র কর্মার স্ত্রী দান্তেওয়াড়া আসনে এগিয়ে।

09:36 AMরাজস্থানের সরদারপুরা থেকে অশোক গেহলোত, ঝলারপাটন থেকে বসুন্ধরা রাজে সিন্ধিয়া আগে।

09:35 AMআপ-এর দপ্তরের বাইরে কর্মী-সমর্থকদের উত্‍‌সাহ।

09:30 AMদিল্লিতে ৯টি আসনে কংগ্রেস, ২৭টিতে বিজেপি, ২০টিতে আপ এবং ৩টি আসনে এগিয়ে অন্যান্যরা।

09:29 AMরাজস্থানে ২৬টি আসনে কংগ্রেস, ৮৯টিতে বিজেপি এবং ১৩টিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:29 AMছত্তিশগড়ে ৩৪টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস। ৩৬টিতে বিজেপি এবং চারটিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:28 AMমধ্যপ্রদেশে ৫৪টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস, ১২২টি আসনে বিজেপি এবং ৬টি আসনে এগিয়ে অন্যান্যরা।

09:26 AMদিল্লিতে ৮টিতে এগিয়ে কংগ্রেস, ২৩টিতে বিজেপি, ১৮টিতে আপ এবং ৩টি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:25 AMরাজস্থানে ১৯টি আসনে কংগ্রেস, ৮৪টিতে বিজেপি এবং ১১টিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:21 AMদিল্লির পটপড়গঞ্জ থেকে আপ-এর মণীশ সিসৌদিয়া এগিয়ে।

09:20 AMমধ্যপ্রদেশে ৪৯টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস, ১১৭টিতে বিজেপি এবং ৬টিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:19 AMছত্তিশগড়ে কংগ্রেস-বিজেপির মধ্যে হাড্ডাহাড্ডি লড়াই। ৩৪টি করে আসনে এগিয়ে দুই দলই। চারটিতে এগিয়ে অন্যান্যরা।

09:17 AMরাজস্থানে ১৮টি আসনে কংগ্রেস, ৭১টিতে বিজেপি এবং ১২টিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:16 AMদিল্লিতে ৮টি আসনে কংগ্রেস, ২০টি আসনে বিজেপি, ১৭টিতে আপ এবং তিনটিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:15 AMমধ্যপ্রদেশে ৩৯টি আসনে কংগ্রেস, ১০৬টিতে বিজেপি এবং তিনটিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:15 AMছত্তিশগড়ে ৩৪টি আসনে কংগ্রেস, ২৯টিতে বিজেপি এবং ২টিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:09 AM''আমরা রাজস্থান, দিল্লি এবং মধ্যপ্রদেশে এগিয়ে। প্রথম দিকে আমরা ছত্তিশগড়ে একটু পিছিয়ে ছিলাম। কিন্তু সেখানেও সরকার গঠনের সম্ভাবনা রয়েছে।'' -- শাহনওয়াজ হুসেন, বিজেপি

''আমরা রাজস্থান, দিল্লি এবং মধ্যপ্রদেশে এগিয়ে। প্রথম দিকে আমরা ছত্তিশগড়ে একটু পিছিয়ে ছিলাম। কিন্তু সেখানেও সরকার গঠনের সম্ভাবনা রয়েছে।'' -- শাহনওয়াজ হুসেন, বিজেপি

09:07 AMনয়াদিল্লি সিট থেকে শীলা দীক্ষিত এগিয়ে, পিছিয়ে রয়েছেন অরবিন্দ কেজরিওয়াল।

09:05 AMমধ্যপ্রদেশে ৩৬টি আসনে কংগ্রেস, ৮৫টি আসনে বিজেপি এবং ৪টি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:04 AMদিল্লিতে পাঁচটি আসনে কংগ্রেস, ১২টি আসনে বিজেপি, ৬টিতে আপ এবং তিনটি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:04 AMরাজস্থানে ৮টি আসনে কংগ্রেস, ৪২টি আসনে বিজেপি এবং পাঁচটি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:03 AMছত্তিশগড়ে ২৩টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস। ১৬টি আসনে বিজেপি এবং একটি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

09:02 AMদিল্লিতে কংগ্রেস এবং আপ-এর মধ্যে হাড্ডাহাড্ডি লড়াই। পাঁচটি করে আসনে এগিয়ে কংগ্রেস এবং আপ। ১০টি আসনে এগিয়ে বিজেপি।

09:01 AMমধ্যপ্রদেশে ৩২টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস। ৭৮টি আসনে এগিয়ে বিজেপি। ২টি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

08:58 AMউদয়পুরের সুন্দরী মন্দিরে গেলেন বসুন্ধরা রাজে সিন্ধিয়া।

08:56 AMরাজস্থানে পাঁচটি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস, ২৪টি আসনে বিজেপি এবং একটি আসনে অন্যান্যরা এগিয়ে।

08:54 AMমধ্যপ্রদেশে ১৯টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস এবং ৫৪টি আসনে এগিয়ে বিজেপি। একটি আসনে এখনও অন্যান্যরা এগিয়ে।

08:52 AMশুধু নয়াদিল্লি সিটে এগিয়ে শীলা দীক্ষিত।

08:52 AMদিল্লিতে তিনটি আসনে কংগ্রেস, সাতটি আসনে বিজেপি এবং পাঁচটি আসনে এগিয়ে আপ। তিনটি আসনে এগিয়ে অন্যান্য দল।

08:51 AMমধ্যপ্রদেশে ১৭টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস, ৪৭টিতে বিজেপি এবং একটিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

08:49 AMরাজস্থানে কংগ্রেস পাঁচ, বিজেপি ১৭ এবং অন্যান্যরা একটি আসনে এগিয়ে।

08:48 AMছত্তিশগড়ে আটটি আসনে এগিয়ে বিজেপি, ১০টিতে কংগ্রেস এবং একটিতে অন্যান্যরা এগিয়ে।

08:41 AMরাজস্থানে দু'টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস এবং চারটি আসনে এগিয়ে বিজেপি।

08:41 AMদিল্লিতে পাঁচটি আসনে এগিয়ে বিজেপি, চারটিতে আপ এবং একটি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস।

08:39 AMমধ্যপ্রদেশে ১৫টি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস এবং ২৬টি আসনে এগিয়ে বিজেপি। একটি আসনে এগিয়ে অন্যান্যরা

08:37 AMদিল্লিতে নরেলায় বিজেপি আগে।

08:35 AMদিল্লিতে এখনও খাতা খুলতে পারেনি কংগ্রেস। দু'টি আসনে এগিয়ে বিজেপি এবং একটিতে আপ।

08:33 AMমধ্যপ্রদেশে কংগ্রেস ১২, বিজেপি ১৮ এবং অন্যান্যরা একটি আসনে এগিয়ে।

08:32 AMছত্তিশগড়ে কংগ্রেস তিন এবং বিজেপি পাঁচটি আসনে এগিয়ে।

08:30 AMশীলা দীক্ষিতের জয়ের জন্য দিল্লিতে যজ্ঞ।

08:22 AMছত্তিশগড়ে রাজনন্দগাঁও আসনে ৬ হাজার ভোটে এগিয়ে রমন সিং।

08:15 AMদিল্লির বিজেপি মুখ্যমন্ত্রী পদপ্রার্থী ড: হর্ষবর্ধন বলেন, আজ তাঁর জন্য বিশেষ কোনও দিন নয়। রোজ যেমন দিন শুরু করেন, সে ভাবেই আজও করেছেন।

08:12 AMছত্তিশগড়ে একটি আসনে এগিয়ে কংগ্রেস, একটিতে অন্যান্যরা। মধ্যপ্রদেশের দু'টি সিটে কংগ্রেস এবং দু'টিতে বিজেপি এগিয়ে।

08:10 AMভোটগণনা শুরু। পোস্টার ব্যালট দিয়ে গণনা শুরু।

07:48 AMসকাল আটটা থেকে শুরু হবে ভোট গণনা। গণনাকেন্দ্র ঘিরে কড়া নিরাপত্তা।

http://eisamay.indiatimes.com/electionresultlive2013/liveblog/26848235.cms


मौकापरस्त कैरियरिस्ट कारपोरेट मैनेजर शुतुरमुर्ग पीढ़ियों ने ही युवा वर्ग और छात्रों को दिग्भ्रमित किया हुआ है और फिरभी वे अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कोशिश में लगे हैं हमेशा की तरह।स‌बक लेकर हम कोई पहल करें तो बात बने वरना मजे लेने के लिए यह मुक्त बाजर का कालाधन प्रवाह और निरंकुश कारपोरेट राज तो है ही।

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मोहन क्षोत्रिय जी स‌े स‌हमत हूं कि कल्पनातीत ! यह तो ‪#‎चौंकाने‬ से भी बड़ा और भारी है ! ‪#‎चौंकाना‬ छोटा लगने लगा है !

मनमोहन-राहुल गांधी को पूरी तरह खारिज कर दिया, जनता ने त्रस्त होकर. महंगाई-भ्रष्टाचार, और घपलों-घोटालों का भरपूर बदला !

मोहन क्षोत्रिय जी स‌े स‌हमत हूं कि दिल्ली में विकल्प दिखा दोनों पार्टियों का, तो जनता ने उसका साथ देने का मन दिखाया, पर त्रिकोणीय संघर्षों की अपनी व्यथा होती है.

इन चुनाव परिणामों का इसके अलावा क्या संदेश हो सकता है?

मेरे हिसाब स‌े भारतीय जनता का आर्थिक स‌ुधार नरसंहार अभियान के खिलाफ तीव्र रोष तो है,लेकिन उस रोष को परिवर्तन का हथियार बनाने में हमारी ओर स‌े कोई पहल ही नहीं हुई है।

इस खारिज स‌े और आगे ना वोटों की गिनती स‌े स‌ोशल मीडिया की भूमिका रेखांकितकी जा स‌केगी।
आपके हाथों में स‌त्ता वर्ग को शिकस्त देने के लिए परमाणु बम है,आपको अहसास नहीं है।

इस चुनाव परिमामों स‌े स‌ाफ स‌ाबित हुआ कि देश के छात्र युवा वर्ग देश के भविष्य को बदलने के लिए कहीं ज्यादा स‌क्रिय हैं। हमने ही विश्वविद्यालय परिसरों को स‌ंबोधित करना छोड़ दिया है।

मौकापरस्त कैरियरिस्ट कारपोरेट मैनेजर शुतुरमुर्ग पीढ़ियों ने ही युवा वर्ग और छात्रों को दिग्भ्रमित किया हुआ है और फिरभी वे अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कोशिश में लगे हैं हमेशा की तरह।स‌बक लेकर हम कोई पहल करें तो बात बने वरना मजे लेने के लिए यह मुक्त बाजर का कालाधन प्रवाह और निरंकुश कारपोरेट राज तो है ही।

दलित आंदोलन के बुनियादी सिद्धांत - एक नजरिया

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भारत की उत्पीड़ित जनता के संघर्ष आज जिस मुकाम पर खड़े हैं, यहां से समाज एक बड़े, स्थायी और क्रांतिकारी बदलाव की तरफ जा सकता है या फिर साम्राज्यवाद परस्त, ब्राह्मणवादी शासक वर्ग अपने संकट को अपने आजमाए हुए तरीकों से टाल कर अपने शोषणकारी अस्तित्व को बनाए रख सकता है, जैसा यह करता आया है. हालात कौन से रुख लेंगे, इसको आखिरी रूप से तय करने वाली बात यह है कि उत्पीड़ित जनता का संघर्षरत हिस्सा कैसे और कितनी कुशलता से व्यापक, उत्पीड़ित जनता को अपने साथ ले आ पाता है, कैसे वह अपने दोस्तों और दुश्मनों की सही पहचान कर पाता है और उनके साथ इस आधार पर अपने संबंध और व्यवहार को तय कर पाता है. उत्पीड़ित जनता के इस संघर्षरत तबके में आदिवासी हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, स्त्रियां हैं. लेकिन इससे बाहर भी, इन्हीं समुदायों से आनेवाली उत्पीड़ित जनता की एक विशाल आबादी है, जो अभी इस संघर्ष का हिस्सा नहीं बनी है. इनमें से दलित एक मुख्य तबका हैं और भारतीय समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन की कोई भी योजना दलितों की सीधी और नेतृत्वकारी भूमिका के बगैर संभव नहीं है. जैसा कि अक्सर कहा गया है, बिना क्रांति के दलितों की मुक्ति नहीं होगी और बिना दलितों की भागीदारी के क्रांति नहीं होगी. आज दलित और पिछड़े वर्गों के मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, निजीकरण वगैरह के पक्ष में दलीलें देते हुए कह रहा है दलितों की मुक्ति इन्हीं में निहित है. बाबासाहेब के जाति के उन्मूलन के एजेंडे को भुला दिया गया है. ऐसे में आनंद तेलतुंबड़े का यह लंबा लेख, दलित आंदोलन की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए, दलित आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन के आपसी रिश्तों पर, उनकी कमियों और उपलब्धियों पर और उनकी भावी एकता की संभावनाओं पर बात करता है. अनुवाद सुधीर कुमार कटियार का है.हाशिया पर इस बहस को आगे बढ़ाते हुए और भी लेख पोस्ट किए जाएंगे. आपकी टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है. मूल अंग्रेजी लेख के लिए यहां जाएं
 

प्रस्तावना 

अछूत समझी जाने वाली जातियों द्वारा संगठित विरोध को हम दलित आंदोलन के तौर पर पहचानते हैं। इस अर्थ में यह आंदोलन औपनिवेशिक शासन के दौरान पनपा। लेकिन यदि इसे ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रभुत्व के खिलाफ कथित निचली जातियों के संघर्ष के रूप में देखा जाए तो इसका इतिहास जाति व्यवस्था जितना ही पुराना है। भारतीय सामाजिक ढांचे में जाति के बरकरार रहने के चलते, दलित आंदोलन को भी उसके पुराने रूपों की ऐतिहासिक निरंतरता के रूप में देखा जा सकता है। कहा जा सकता है कि दलित आंदोलन का वर्तमान स्वरूप सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़े गये गुमनाम संघर्षों का साकार रूप है। किसी भी लिहाज से देखें तो आंदोलन ने अपने दोस्तों और दुश्मनों को पहचानने में, अपनी रणनीतियों को स्थापित करने में तथा सबसे अहम बात यह कि हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। औपनिवेशिक शासन के दौरान आंदोलन सामाजिक-राजनैतिक बदलावों के साथ तालमेल बिठाने में सफल रहा और इसने महत्वपूर्ण सबक हासिल किए। लेकिन आजादी के बाद जब उपलब्धियों को मजबूत करने का समय था, यह महत्वपूर्ण बदलावों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाया।

ऐसा लगता है कि इस अवधि में दलित आंदोलन की पहले की उपलब्धियों को ग्रहण लग गया। यह लेख इसे स्थापित करता है कि वर्तमान दलित आंदोलन की खासियतें उन सब परिस्थितियों को जाहिर करती हैं जिन्होंने इसे जन्म दिया। दूसरे अर्थों में कहा जाए तो आंदोलन ने आजादी के बाद आए परिस्थितियों में बदलावों पर गंभीरता से विचार नहीं किया। फलस्वरूप आंदोलन का पतन हुआ और इसे उन्हीं ताकतों ने कब्जे में कर लिया जिनसे लड़ने के लिए इसका जन्म हुआ था। उन सामाजिक वास्तविकताओं पर रोशनी डालते हुए, जिनसे यह आंदोलन घिरा हुआ है, यह दस्तावेज उन मुद्दों को रेखांकित करेगा जिन पर साफ नजरिया आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत के प्रचलित इतिहास में शोषित जनता द्वारा दमन के प्रतिरोध की बहुत सारी मिसालें नहीं मिलतीं। लेकिन यह मुमकिन नहीं है कि 2000 वर्षों के दमनकारी इतिहास के दौरान ऐसे विद्रोह न हुए हों। जाति व्यवस्था की सफलता के पीछे न केवल इसको मिली दैवीय स्वीकृति थी, बल्कि वह ढांचा था, जिसने शोषित तबकों को एकजुट नहीं होने दिया। सामाजिक वर्गीकरण की इस व्यवस्था की अभूतपूर्व सफलता न केवल इसकी बनावट में निहित है जिसने शोषित जातियों को संगठित नही होने दिया और उनके ऊपर वैचारिक प्रभुत्व कायम किया बल्कि इसकी दैवीय स्वीकृति में भी निहित है। विद्रोह का अर्थ था दैवीय प्रकोप को बुलावा देना और अगले जन्म में मुक्ति न मिलना। भौतिक तौर पर इसने प्रत्येक जाति के लिए निश्चित काम निर्धारित कर भौतिक सुरक्षा प्रदान की तथा मनोवैज्ञानिक तौर पर इसने प्रत्येक जाति को (यहां तक कि तथाकथित अछूतों को भी) किसी दूसरी जाति से ऊपर होने का संतोष प्रदान किया। चूंकि यह पूरा ढांचा धर्म की बुनियाद पर आधारित था, इसके विरोधियों ने भी धर्म का सहारा लिया। बुद्व तथा जैन धर्मों से लेकर भक्ति आंदोलन तक - जाति व्यवस्था का विरोध धार्मिक शब्दावली में ही सामने आया। यह चलन अब तक जारी है। इस प्रकार जाति विरोधी सभी आंदोलन-पुराने समय से लेकर अब तक-ब्राह्मणवाद के साथ धार्मिक आधारों पर बहस करते नजर आते हैं।

इस प्रकार सभी जाति विरोधी आंदोलनों में धार्मिकता का पुट हैं। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में चमार जाति का सतनामी आंदोलन एक अलग धार्मिक संप्रदाय बन गया (रसेल 1916)। पेरियार के द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने राम का पुतला जलाकर और रावण की तारीफ कर सार्वजनिक सनसनी पैदा कर दी। तमिलनाडु में नाडार महासभा व केरल में नारायण गुरु के ऐझवा आंदोलन के नतीजे में श्री नारायण धर्म प्रतिपालन योगम के नाम से एक नया धार्मिक पंथ बना। (थामस 1965, ऐवप्पन 1944, सैमुएल 1973)। यहां तक कि बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व वाले सबसे बड़े दलित आंदोलन की परिणति भी बौद्ध धर्म में सामूहिक धर्म परिवर्तन के साथ हुई (जीलियट 1969)। ये सभी आंदोलन मनु के सिद्धांतों के प्रति तीखी नफरत जाहिर करते हुए अपने अनुयायियों के लिए एक अलग मत की स्थापना करते हैं। ये ब्राह्मणवाद को अपने दुखों की मूल वजह मान कर इसको ठुकराते हैं। अंबेडकर ने अपने विश्लेषण में इसको सबसे सटीक तरीके से समझाया है, जहां उन्होंने हिंदू धार्मिक विचारधारा के प्रभुत्व को खत्म करने को दलितों की मुक्ति के लिए जरूरी बताया है (ओमवेट 1994)। 

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि जाति व्यवस्था कठोर नहीं थी तथा इसमें जातियों के बीच आवाजाही पर पाबंदी नहीं थी, लेकिन यह तथ्य है कि जाति व्यवस्था के चलते उत्पादन की ताकतों और उत्पादन संबंधों में ब्रिटिश राज के आने तक कोई बदलाव नहीं हुआ। अर्धस्वायत्त गांवों की व्यवस्था ने समाज को सदियों तक एक ही स्तर पर बनाए रखा। भारतीय समाज की इसी व्यवस्था के चलते मार्क्स ने कहा कि भारत में इतिहास नहीं है और भारतीय समाज में व्याप्त जड़ता को तोड़ने और इसे पश्चिम की आधुनिकता से जोड़ने के लिए ब्रिटिश शासन की तारीफ की। भारतीय समाज को पहला सांस्कृतिक धक्का मुस्लिम हमलावरों ने दिया। भारतीयों का सामना पहली बार एक दूसरी धार्मिक व्यवस्था से हुआ। समानतावादी इस्लाम ने शुरू में सभी भारतीयों के साथ एक जैसा व्यवहार किया। लेकिन जल्दी ही राजनीतिक रणनीतियों ने उन्हें न केवल भारतीय समाज में व्याप्त अंदरूनी विभाजन का इस्तेमाल करना सिखा दिया बल्कि उनकी अपनी सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद का जहर दाखिल हो गया। 

भगवान दास (1983) महमूद गजनवी के साथ आए एक मुस्लिम अध्ययनकर्ता इब्न बतूता के हवाले से कहते हैं कि मुस्लिम हमलावरों ने पहले सभी भारतीयों के साथ एक जैसा व्यवहार किया लेकिन बाद में सामाजिक विभाजन का फायदा उठाया। राजनीतिक जरूरतें धार्मिक सिद्धांतों पर भारी पड़ीं। इसके नतीजे में, मुस्लिम शासन के दौरान ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति व्यवस्था में न केवल कोई बदलाव नहीं आया बल्कि धर्म बदलने वाले हिंदुओं के जरिए इसने नए उभरते मुस्लिम समाज पर भी असर डाला। फिर भी इस प्रक्रिया ने गांवों और शहरों के बाहर रह रहे अछूतों को एक भारी मौका मुहैया किया। मुस्लिम शासकों ने पहली बार शहरों के दरवाजे अछूतों के लिए खोले। बहुत सी अछूत और तथाकथित नीची जातियों ने उत्पीड़न से बचने तथा बेहतर जीवन की आकांक्षा में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। जो लोग इस्लाम धर्म स्वीकार कर मुस्लिम हमलावरों की फौज में शामिल हुए, उन्होंने अपने नए मालिकों के रीति रिवाजों की नकल की। अपनी इच्छा से या दबाव में औपचारिक रूप से इस्लाम स्वीकार करने वालों के अलावा बुनकर, राजगीर, बढ़ई, लोहार, जूता बनाने वाली, टोकरी बनानेवाली, कुम्हार, रंगरेज़ वगैरह कारीगर जातियों के दसियों लाख लोग धीरे-धीरे मुसलमान बन गए। 

अलग अलग कारणों से कुछ ऊंची जातियों के लोग भी मुसलमान बने। अलग अलग जातियों से मुसलमान बने लोग नए उभरते मुस्लिम समाज में अपनी सांस्कृतिक परंपराएं तथा जातिगत विभाजन लेकर गए। इस तरह धर्म परिवर्तन से अछूतों को अपनी जातिगत स्थिति से पूरा छुटकारा तो नहीं मिला लेकिन फिर भी उत्पीड़न की तीव्रता कम हुई और इससे यकीनन उन्हें भारी राहत महसूस हुई होगी। सबसे पहले तो धर्म परिवर्तन से उनके लिए अपने जातिगत पेशे को बदलना मुमकिन हो गया। यही उनकी निम्न सामाजिक स्थिति का आधार था। दूसरे धर्म को छोड़ते हुए उन्हें अपने ऊपर किए गए अपमानों का बदला लिए जाने का एहसास हुआ तथा मोटे तौर पर शासक वर्ग से जुड़ने का अहसास भी आया। तीसरा, हथियार रखने व चलाने की इजाजत मिलने से उनकी जातीय स्थिति में इजाफा हुआ। वे अछूत से क्षत्रिय की स्थिति में आ गए जो कि जाति पायदान की दूसरी सीढ़ी है। इससे पहली बार उनमें इंसान होने का भाव जगा, जिसका मतलब है कि उनमें विश्वास कायम हुआ और सबसे अहम बात यह हुई कि इसका मतलब था आर्थिक बेहतरी का आना।

यह कहना मुश्किल है कि इन धर्म परिवर्तनों को सामाजिक आंदोलन कहा जा सकता है। क्योंकि तकनीकी रूप से सामाजिक आंदोलन एक ऐसे संगठन पर जोर देता है जो सामाजिक बदलाव के सामूहिक उद्देश्य को हासिल करने की कोशिश करे। धर्म परिवर्तन निश्चित रूप से निजी स्तर पर जातिगत नियमों को तोड़ने और भिन्न आस्था अपनाने के लिए विद्रोह की भावना को दर्शाता है। चूंकि तब तक जातीय समाज में जातियों के बुनियादी संगठन रहे थे, जो जातियों के व्यवहार को निर्धारित करते थे और जातीय ढांचे के भीतर सामुदायिक जीवन की देखरेख करते थे, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह विद्रोह बिना सांगठनिक मदद के संभव हुआ था। जातीय समाज में अपने जातीय आदेशों के पार जाने के लिहाज से व्यक्ति एक बहुत छोटी इकाई है। सारी संभावना ये है कि धर्म परिवर्तन, विशेषकर बड़ी संख्या में हुए धर्म परिवर्तन, सिर्फ सामाजिक स्वीकृति के साथ ही हुए होंगे। जैसा कि बाद के (तमिलनाडु में मीनाक्षीपुरम में तथा दलितों के बौद्व मत में) धर्म परिवर्तन दिखलाते हैं, बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तनों के पीछे हमेशा सामाजिक आंदोलन का योगदान रहा है। हम अछूत जातियों के इस्लाम धर्म स्वीकारने के पीछे भी ऐसे ही किसी आंदोलन की उपस्थिति मान सकते हैं। 
 

ऊपर जो जायजा लिया गया है उसके मुख्य बिंदु हैं: 
  • भारतीय समाज ने कभी भी सीढ़ीदार विभाजन को एक मूल्य के रूप में आत्मसात नहीं किया।
  • जाति विरोधी आंदोलन मूल रूप से अन्यायी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने वाले ब्राह्मणवाद के खिलाफ था।
  • ये आंदोलन हिंदू धर्म के दमनकारी पक्ष के विरोधी सिद्धांत के रूप में व्यक्त हुए।
  • इन्होंने हिंदू धर्म के दमनकारी पक्षों की आलोचना की तथा एक दूसरे विश्वास/धर्म का प्रतिपादन किया।
  • ये आंदोलन बाहरी सहायता विशेषकर सहायक राजनैतिक वातावरण में फलीभूत हुए।

एक स्वायत्त दलित आंदोलन का जन्म

मुस्लिम शासकों ने भारत पर अपने विकसित सामंतवाद के दम पर राज किया जो कि भारत की पुरोहिती-जजमानी आधारित व्यवस्था से बहुत बेहतर था। लेकिन अंग्रेज़ों की भारत पर विजय उत्पादन की बेहतर तकनीक और सामाजिक स्वरूप (बुर्जुआ) पर आधारित थी जो सामंतवाद की तकनीकों से ज्यादा सक्षम थी। एक बुर्जुआ उदारवादी विचारधारा तथा शासन करने की जरूरतों के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अब तक दबी हुई निचली पहचानों को उभरने के लिए जगह प्रदान की, खासकर जाति और धर्म के स्तर पर। संस्थागत बदलाव (न्याय तंत्र, नागरिक प्रशासन, माल बाजार), सांस्कृतिक परिवर्तन (आधुनिकता, पश्चिमी तरीके का रहन सहन, अंग्रेजी शिक्षा, पश्चिमी ज्ञान भंडार के साथ संपर्क), आर्थिक बदलाव (जजमानी, बलूतेदारी प्रथा के स्थान पर जमींदारी, रैयतवाड़ी व्यवस्था) और उभरते सामाजिक बदलावों ने निचली जातियों की आकांक्षाओं को बल दिया। इन बदलावों के फलस्वरूप विकास के जो अवसर पैदा हुए उनका जाति व्यवस्था में जकड़े पारंपरिक सामाजिक संबंधों से टकराव पैदा हुआ।

किसी भी समुदाय में सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत के लिए एक निश्चित स्तर के संसाधनों की आवश्यकता होती है। औपनिवेशिक शासन व्यवस्था ने वंचित समुदायों को विभिन्न अवसर प्रदान कर उन्हें इस स्तर तक पहुचने में मदद की। यह स्वाभाविक था कि सामाजिक विरोध के आंदोलन शूद्र जातियों में पहले प्रारंभ हुए। ये मेहनतकश जातियां जाति पायदान में ऊपर की परजीवी जातियों के एक दम नीचे आती हैं और इनके पास शोषित अछूतों से बेहतर साधन थे। शूद्र जातियों के आंदोलन ने मुख्यतः धर्म के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा रचे गए पाखंड का भंडाफोड़ किया। इन्होंने अपने ऊपर हो रहे शोषण की भर्त्सना की और दुश्मन का दुश्मन होने की वजह से ब्रिटिश राज की तारीफ की। दलित जातियों को भी शोषित होने की वजह से साथी घोषित किया गया। लेकिन शीघ्र ही दलित अछूत जातियों के साथ अंतरविरोधों के चलते इन आंदोलनों की ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना कुंद हो गई। हालांकि दलित आंदोलन पिछड़ी जातियों के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से काफी प्रभावित हुआ, लेकिन यह धीरे धीरे इससे अलग हो गया। अंबेडकर के आगमन के साथ यह राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आया।

लगभग इसी समय रूस की 1917 बोल्शेविक क्रांति के चलते पूरी दुनिया में क्रांतिकारी भावनाओं का ज्वार था। यह आंदोलन कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों पर आधारित था। रूसी क्रांति ने वंचित व शोषित तबकों में मुक्ति की आशा भर दी। भारत में भी इस आंदोलन ने जड़ें पकड़ीं और यह एक राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गया। खास कर शहरी क्षेत्रों के फैक्टरी मजदूरों में। इस कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व शहरी मध्यमवर्ग के तबके का था, जो ऐतिहासिक कारणों से मुख्यतः ऊपर की जातियों से आया था। इनमे भी सर्वाधिक ब्राह्मण थे। इस तबके की साम्यवाद के क्रांतिकारी सिद्धांतों की समझ कुछ तो व्यवस्थित राजनैतिक शिक्षण के अभाव में और कुछ इसकी वर्गीय व जातिगत चेतना के चलते सीमित रही। वर्ग संघर्ष, सर्वहारा की तानाशाही, आधार व ऊपरी संरचना जैसे क्रांतिकारी सिद्धांतों की समझ बिना अंदरूनी द्वंद्वों की पहचान के अधूरी थी। यह आंदोलन मुख्यतः ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में था जिसके चलते यह राष्ट्रवादी आंदोलन के करीब आया। इसमें जाति को ऊपरी ढांचे का हिस्सा मानकर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। कम्युनिस्ट आंदोलन के नए उभरते स्वायत्त दलित आंदोलन के साथ संबंध असहज रहे। साम्यवादियों का मानना था कि दलित आंदोलन मजदूरों में विभाजन पैदा करता है, उपनिवेश विरोधी संघर्ष को कमजोर करता है, और वैज्ञानिक नहीं है। दूसरी तरफ दलित आंदोलन को कम्युनिस्ट आंदोलन में न केवल विशिष्ट जातीय शोषण का हल नजर नहीं आया बल्कि एक तरह की दूरी व उदासीनता नजर आई। उनकी रणनीति से कम्युनिस्ट आंदोलन का राज्य विरोधी रुख भी मेल नहीं खाया।

जैसा कि गेल ओमवेट ने साफ तौर से आकलन किया है, उपनिवेशवादी समाज में दलित आंदोलन को तीन ताकतों से मुकाबला करना थाः

  1. समाज में ऐतहासिक रूप से गहरी पैठ जमाए ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के प्रभुत्व के विरोध में
  2. राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रभुत्व से, जो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में दलित शोषित जनता के बहुत से आंदोलनों का अपने में समावेश कर इनके प्रजातांत्रिक तथा समतावादी एजेंडा को कुंद करने का प्रयास कर रहा था
  3. कम्युनिस्ट आंदोलन से, जिसे प्राकृतिक रूप से इसका साथी होना चाहिए था लेकिन जिससे इसके संबंध असहज थे

ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का विरोध

ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का विरोध करते हुए दलित आंदोलन ने पिछड़ी जातियों को स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखा। कई मायनों में दलित आंदोलन महाराष्ट्र में महात्मा फुले के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से प्रेरित था (उदाहरण के लिए दलित आंदोलन के शुरुआती जनक शिवराम जनाबा कांबले फुले के अनुयायी थे)। फुले और अंबेडकर में समय की भिन्नता तथा सामाजिक पृष्ठभूमि में फर्क के बावजूद दोनों द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों द्वारा किए गए सामाजिक ढांचे के विश्लेषण में समानताएं हैं। दोनों ने मृतप्राय भारतीय समाज में आधुनिकता का प्रवेश कराने के लिए ब्रिटिश शासन की सराहना तो की लेकिन दोनों ने सामाजिक ढांचे के आमूलचूल परिवर्तन में इसकी सीमाओं को भी पहचाना। दोनों ने राष्ट्रवादियों के इस दावे को नकारा कि भारत एक राष्ट्र है, दोनों का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विश्वास नहीं था तथा दोनों ने इसका समान चित्रण तथा विरोध किया। दोनों ने ब्राह्मणवाद का कड़ा विरोध किया लेकिन ब्राह्मणों से घृणा नहीं की। दोनों तर्कवाद में यकीन रखते थे। दोनों ने परजीवी पुरोहितों, सूदखोरों, जमीदारों और पूंजीपतियों का विरोध कर इनके द्वारा उत्पीड़ित तबकों को संगठित किया। दोनों ने दलितों और पिछड़े वर्ग की मुक्ति में शिक्षा की भूमिका पर जोर दिया। फुले और कुछ हद तक अंबेडकर की योजना अछूतों और शूद्र जातियों को ब्राह्मणवाद के विरोध में एक साथ लाने की थी। लेकिन इन्होंने पिछड़ी शूद्र जातियों और अछूत जातियों के अंतर्विरोधों का पूरा आकलन नहीं किया। खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां जाति व्यवस्था ज्यादा मजबूत है, शूद्र जातियां अछूतों के लिए ब्राह्मणवाद का बाना ओढ़ लेती हैं। यह अंतर्विरोध आर्थिक कारणों से पनपता हैं जहां शूद्र जातियां किसान हैं और भूमिहीन अछूतों को उनकी जमीन पर मजदूरी करनी है। मनु की इस परंपरा को न तो फुले का शक्तिशाली ब्राह्मण विरोधी आंदोलन तोड़ पाया और न ही अंबेडकर का दलित आंदोलन। महात्मा फुले की मृत्यु के तुरंत बाद उनका सत्य शोधक आंदोलन जाति विरोधी धारा खो बैठा। कोल्हापुर के शाहूजी महाराज द्वारा 1920 में इसके पुनरुत्थान के प्रयास भी निष्फल साबित हुए और यह शासक वर्ग की राजनीतिक व्यवस्था का अंग बन गया।

जजमानी-बलुतेदारी व्यवस्था में शूद्र जातियों का बहुमत लघु, सीमांत कृषक है या कारीगर है और इनका कई प्रकार से शोषण होता हैं। इनमें से कुछ जो बड़े और मध्यम किसान है, संपन्न हैं। ये लोग पारंपरिक रूप से गांव की व्यवस्था भी संभालते थे। गांवों में ये लोग शोषण की भूमिका में हैं। आजादी के बाद चुनावी राजनीति के चलते मध्यम जातियों का ध्रुवीकरण हुआ। इन लोगों ने आजादी के बाद के सरकारी विकास कार्यक्रमों से भरपूर फायदा उठाया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे, भूमि सुधार जिसके तहत बंटाईदारों को जमीन का मालिकाना हक प्राप्त हुआ। और फिर हरित क्रांति जिसके तहत गांवों में भारी निवेश हुआ और खेती की उत्पादकता में सुधार हुआ। भूमि सुधारों का वास्तविक जमीन जोतने वालों को फायदा नहीं हुआ क्योंकि ये अक्सर ही दलित होते थे। सरकारी मशीनरी को यह मालूम नहीं था कि बंटाईदारों को भी श्रेणियां हैं। दलित जोतदारों का भू स्वामियों से सीधा सम्बन्ध नहीं था। अतः सरकार ने बिचैलियों को असली बंटाईदार माना जो कि मुख्यतः मध्यम जातियों से थे। ज्यादातर बेनामी हस्तांतरण भी इन्हीं के नाम हुआ क्योंकि ये पुराने जमींदारों के विश्वास पात्र थे। हरित क्रांति का ज्यादा फायदा बड़े किसानों को ही पहुंचा।

शूद्र जातियों के एक हिस्से के सशक्तीकरण से इस वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर एक सशक्त पक्ष का निर्माण किया और राजनैतिक सत्ता में हिस्सा बांटा। उनके और ब्राह्मणों के बीच जो अंतर्विरोध थे जिन्होंने अंग्रेजी शासन के दौरान ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलनों को जन्म दिया, वे इस दौरान छिप गए और गांवों में यह वर्ग प्रभुत्वशाली भूमिका अदा करने लगा।

शूद्र वर्ग में आने वाली सब जातियां आर्थिक रूप से संपन्न नहीं थीं और न ही उनकी सामाजिक स्थिति एक जैसी थी। इनमें से कई कारीगर और सेवा करने वाली जातियां दलित जितनी ही गरीब थीं और जाति व्यवस्था के अलग-अलग पायदानों पर थीं। सीढ़ीदार जातिगत ढांचे में ये समकक्ष थीं। दलितों के मुकाबले ये सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप में एकदम भिन्न थीं। दलितों के मुकाबले इनकी श्रेष्ठता की भावना को गांव के शासक वर्ग द्वारा शह दी गई। शासक वर्ग यह नहीं चाहता था कि यह तबका दलितों के साथ मिल जाए। इस प्रकार सभी शूद्र जातियां दलितों के मुकाबले के लिए दो कारणों से एकजुट हुईं। प्रथम तो जातिगत श्रेष्ठता के चलते वे दलितों का आसानी से आर्थिक शोषण कर सकती थीं और द्वितीय दलित जातियों में दलित आंदोलन के चलते आई राजनैतिक चेतना और आरक्षण से मिली आर्थिक उन्नति से इन जातियों को खतरा महसूस हुआ। इस प्रक्रिया से ग्रामीण संपन्न शासक वर्ग को दो फायदे हुए। उनका अपनी जाति के साथ शोषण का व्यवहार छिपा और उन्हें राजनैतिक सत्ता के लिए जनाधार उपलब्ध हुआ। 

जहां एक तरफ जातिगत पहचान का उपयोग मध्यम जातियों का एक मजबूत गठजोड़ खड़ा करने के काम आया, दूसरी तरफ इसी जातिगत पहचान का उपयोग दलितों को विभिन्न जातियों में बांटने के लिए किया गया। ऐतिहासिक रूप से सभी दलित जातियां आर्थिक रूप से एक समान नहीं थीं। सभी के अपने जाति विशेष व्यवसाय थे। लेकिन एक जाति ऐसी थी जो गांव के छोटे मोटे कार्य करती थी। वहां विशेष दक्षता की जरूरत नहीं होती। यह संख्या में बड़ी हो गई और आर्थिक रूप से कमजोर। ये लोग गांव और शहर के बीच पुल का काम करते थे और इसी कारण से ब्रिटिश राज्य में इन्हें अपनी हैसियत का अहसास हुआ। सबसे पहले इन्होंने जाति व्यवसाय के खिलाफ विद्रोह किया। इस बात के सबूत हैं कि शुरू में अन्य दलित जातियों ने जाति विरोधी आंदोलन का साथ दिया। लेकिन संसदीय चुनावी राजनीति के चलते शासक वर्ग ने इनको दलित आंदोलन की मुख्यधारा से अलग कर दिया। बाद में मध्य जातियों के प्रभुत्व और दलित संघर्ष के अंतर्विरोधों ने इस मुखालिफत को हवा दी और दलित एकता की संभावनाओं को खत्म किया।

इस घटना ने वर्ग बनाम जाति की बहस को जन्म दिया। प्रश्न यह है कि कैसे वर्ग संघर्ष के साथ जाति को भी खत्म किया जाए। जहां तक भारत में मजदूर वर्ग प्रमुखतः दलित और शूद्र जाति से आते हैं, यह जरूरी है कि ये दोनों मिल कर एक वर्ग बनें। इसी प्रकार जाति का विनाश तभी संभव है जब दलित और निचले स्तर की शूद्र जातियां मिलकर सत्ता के सभी क्षेत्रों में उच्च जातियों के प्रभुत्व को चुनौती दें। वर्ग की धारणा आर्थिक शोषण पर आधारित है जिसे भारतीय गांवों की अर्धसामंती व्यवस्था में सामाजिक श्रेणियों में अलग नहीं किया जा सकता, अतः यह जाति की अवधारणा से गुंथी हुई है। लेकिन वर्ग संघर्ष के पक्षकारों ने वर्ग को सीमित नजरों से देखा और वे जाति को पकड़ नहीं पाए जो भारतीय सर्वहारा की जिंदा हकीकत है। उन्होंने इसकी लगातार उपेक्षा की जब तक कि सच्चाई के थपेड़ों ने उन्हें मजबूर नहीं कर दिया। फुले और अंबेडकर के पक्ष में कहा जाना चाहिए कि उन्होंने समस्या की जड़ को पहचाना, जाति को शोषण की धुरी के तौर पर पहचान कर आंदोलन के केंद्र में स्थापित किया और भारतीय समाज के जनवादीकरण के लिए एक स्थानीय एजेंडा निर्धारित किया। 

अफसोसजनक रूप से यह वर्ग विरोधी, जाति विरोधी एजेंडा साम्यवादियों के वर्ग विश्लेषण के मुकाबले में आ गया और इसने जाति बनाम वर्ग की एक फिजूल बहस को जन्म दिया जो आज भी जारी है। यदि देश में जारी वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को खत्म करना है तो जाति और वर्ग दोनों ही श्रेणियों को अपनी सीमाओं को फैलाना होगा। यह प्रक्रिया इन दोनों को पास लाएगी। लेकिन यह जाति और वर्ग चेतना पर आधारित जमीनी संघर्षों द्वारा ही संभव है, न कि किसी बुद्धिजीवी के दिमाग में उपजे विचारों से।

शूद्र जातियां दलितों के साथ मिलकर वंचित वर्ग बनाती हैं। लेकिन साथ ही ब्राह्मणवाद का प्रतिनिधित्व भी करती हैं और शोषणकारी भी हैं। अतः इन पर वर्गीय पैमाना लागू करना जरूरी है। इसी प्रकार जहां तक दलित जातियों में भी वर्ग निर्माण हुआ है, यहां पर भी वर्गीय पैमाना लागू करना होगा। यह समझने की आवश्यकता है कि मात्र जातीय पहचान न केवल नाकाफी है बल्कि नुकसानदायक भी। जाति के इस्तेमाल से चुनावी राजनीति में कोई फायदा तो हो सकता है, लेकिन क्रांतिकारियों द्वारा चाहा गया सामाजिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। इसके लिए जरूरत है एक ऐसे मजबूत दलित आंदोलन की जो ब्राह्मणवाद के अवशेषों से लड़ते हुए दूसरी सभी जातियों के मेहनतकश और शोषित वर्गों को भी साथ ले सके। दूसरी तरफ जरूरत है एक ऐसे कम्युनिस्ट आंदोलन की जो वर्गीय संघर्ष में सामाजिक व सांस्कृतिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष को शामिल करे। शोषण की दोनों ही धुरियों के खिलाफ एक साथ संघर्ष की आवश्यकता है। सबसे ज्यादा शोषित होने के कारण दलितों को इन दोनों तरह के संघर्षों में अगुवा होना पड़ेगा। ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का विरोध कर दलितों ने इसे त्यागा लेकिन धर्म को नहीं। उल्टे दलितों में अभी भी, जब धर्म की सामाजिक आचार विचार में मुख्य भूमिका नहीं रही, धर्म के प्रति एक आकर्षण बरकरार है।

जैसा कि हम जानते हैं, धर्मों का उदय विशेष सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों में कुछ विशेष समस्याओं का उस समय मौजूद ज्ञान के आधार पर हल करने के लिए हुआ। ज्यादातर धर्मों ने मनुष्य की भावनाओं को दबा कर अगले जन्म में बेहतर जीवन का आश्वासन दिया। मार्क्स ने धर्म को अंधविश्वास बता कर खारिज किया था, कि इसका आम जनता को गुलाम बनाने के लिए सामाजिक नियंत्रण के औजार के रूप में इस्तेमाल होता है। मार्क्स के अनुसार धर्म सहारा नहीं देता बल्कि वह नियंत्रण करता है। यह जनता के लिए अफीम की तरह है जो शोषण की जंजीरों को तोड़ने की उनकी इच्छा को कुंद करता है। जब दलितों ने हिंदू धर्म का त्याग किया तो इससे उपजे खालीपन को भरने के लिए कुछ जरूरी था। लेकिन यह जरूरी नहीं था कि यह भरपाई एक और संगठित धर्म से की जाए। बुद्ध धर्म अपने प्राचीन अवतार में कितना भी क्रांतिकारी रहा हो लेकिन धीरे धीरे इसमें आख्यान, कर्मकाड, तंत्र मंत्र शामिल होते गए और यह अन्य धर्मों से भिन्न नहीं रह गया। अब यह दलितों को अपनी समस्याओं का हल भौतिक जगत में ढूंढ़ने की जगह उन्हें भ्रमित करता है।

राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभुत्व के मुद्दे

यह लग सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन अब बीती हुई बात है, जो कि अतीत के एक बीते हुए पल से जुड़ा हुआ है। लेकिन यह प्रसंग कुछ ऐसे वैचारिक प्रश्नों को सामने लाता है, जो भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए अभी भी प्रासंगिक हैं।

राष्ट्र

सबसे पहला प्रश्न है राष्ट्र का। दलित आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन की इस प्रस्थापना को खारिज किया कि भारत एक राष्ट्र है। मिसाल के लिए अंबेडकर ने जातीय समाज में राष्ट्र के विचार को खारिज कर दिया और कहा कि प्रत्येक जाति एक राष्ट्र है। फुले ने कहा कि बलिस्थान (भारत के लिए फुले द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शब्द) में जब तक शूद्र, अति शूद्र, भील, कोली आदि शिक्षित होकर एक नहीं होते, वे एक राष्ट्र नहीं बन सकते। अंबेडकर ने लिखा है कि यह मान कर कि हम एक राष्ट्र हैं, हम अपने आपको भुलावा दे रहे है। उन्होंने कहा कि जब हम हजारों जातियों में विभाजित हैं, तो हम एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं। जाति राष्ट्र विरोधी है। एक दूसरी जगह पर उन्होंने कहा जब तक तुम अपनी सामाजिक व्यवस्था को नहीं बदलोगे, तुम तरक्की नहीं कर सकते। आप समुदाय को न रक्षा के लिए प्रेरित कर सकते हैं और न आक्रमण के लिए। न आप एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं और न नैतिकता का। जाति की नींव पर आप जो भी निर्माण करेंगे उसमें दरार आ जाएगी और वह पूरा नहीं होगा। इन चेतावनियों के बावजूद और राष्ट्रीयताओं के खूनी आंदोलन के बावजूद शासक वर्ग अभी भी भारत के बहुराष्ट्रीय स्वरूप को स्वीकार नहीं कर रहा है। वह अभी भी भोली जनता को राष्ट्र के लिए कुरबानियां देने को उकसाता है और जनता के वास्तविक संघर्षों को राष्ट्र विरोधी करार देता है। विरोधाभास यह है कि इसके बावजूद पूंजीवादी विकास में मजबूत होती असमानताओं के चलते भारत में राष्ट्रीयताओं का प्रश्न और जटिल हो रहा है।

राष्ट्र की अवधारणा पूंजीवादी विकास से उपजी है, पूंजीवाद से पूर्व की जाति राष्ट्र की अवधारणा के विरोध में है। दलित आंदोलन ने इस प्रश्न को उठाकर भारत के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बल दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने आजादी के राष्ट्रीय संघर्ष को नेतृत्व दिया, उभरते हुए बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि थी, जो राजनैतिक व आर्थिक नियंत्रण करने का प्रयास कर रहा था। अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने समाज के संबसे वंचित तबकों को मजबूत कर राष्ट्र के अंदरूनी सृदृढ़ीकरण की प्रक्रिया शुरू की।

अंबेडकर के संविधान निर्माण में मुख्य भूमिका में आने और नेहरू के मंत्रीमंडल में शामिल होने से वे ऊंचे सिद्धांत जो दलित आंदोलन के आधार बनते, पृष्ठभूमि में चले गए। हालांकि अंबेडकर का अपने लोगों के प्रति समर्पण कम नहीं हुआ, लेकिन उद्देश्यों की प्राप्ति में समझौता करना पड़ा। अंबेडकर के सारे विरोधों के बावजूद दलित आंदोलन शासक वर्ग की संसदीय राजनीति के भंवर में फंस कर कमजोर हो गया। शुरू के दौर की कानून व्यवस्था का पालन करने की रणनीति संविधानवाद में बदल गई जिसने दलित आंदोलन को सीमाओं में जकड़ दिया। इस प्रकार अंबेडकर के जाति के विनाश (annihilation of caste) के कार्यक्रम को शासक वर्ग ने पूरी तरह राह से भटका दिया।

राष्ट्र के संदर्भ में यहां प्रश्न यह है कि दलित आंदोलन और राष्ट्रीयताओं के आंदोलन में क्या संबंध हो? राष्ट्रीयता आंदोलन अपनी विशिष्टता साबित करने के लिए पुरानी जातीय पहचानों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इसपर जोर डालने के लिए बुनियादी रूप से एक तबके के शोषण के अनुभव का इस्तेमाल किया जाता है। अंबेडकर का तर्क था कि दलित आंदोलन में राष्ट्रीयता के संघर्ष के सभी चरित्र मौजूद थे। इस प्रकार यह पूरी दुनिया की वंचित राष्ट्रीयताओं के संघर्ष के साथ जुड़ जाता है। लेकिन राष्ट्रीयता के विचार का इस्तेमाल शासक वर्ग द्वारा एक दूसरे के खिलाफ हिसाब बराबर करने के लिए किया जाता है। अतः यह आवश्यक है कि संघर्ष को जन्म देने वाले मूल मुद्दों का विश्लेषण किया जाए। दलित आंदोलनों का दूसरे वंचित समुदायों के संघर्षों के साथ जुड़ाव इसको सांस्कृतिक समृद्धता देगा और मजबूत करेगा।

साम्राज्यवाद

दूसरा प्रश्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष को लेकर है। जाति विरोधी आंदोलनों ने स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन नहीं किया बल्कि कुछ हद तक साम्राज्यवादी शासन को जातीय अत्याचारों को समाप्त करने और सत्ता में भागीदारी हासिल करने के उद्देश्यों में सहायक की तरह देखा। यह एक तथ्य है कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों ने बिना किसी सकारात्मक अपेक्षा के दमनकारी ब्राह्मणवादी शासक के मुकाबले विदेशी शासन को पसंद किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को देश में स्थापित करने के लिए जो निर्णायक लड़ाइयां हुईं उनमें दलित सिपाही बहादुरी से लड़े। कोरेगांव के निर्णायक युद्ध में पेशवा की पराजय के बाद जब ब्राह्मण शोक मना रहे थे, दूसरी जातियों ने पुणे में मिठाइयां बांट कर जश्न मनाया। यह शोषक के पतन पर शोषित द्वारा स्वाभाविक हर्षोल्लास था। अंग्रेजों ने दलितों के पक्ष में कई सकारात्मक कदम उठाए। दलितों को फौज में भर्ती किया, उनको शिक्षा दी, एक आधुनिक कानूनी व्यवस्था लागू की जिसमें कम से कम सैद्धांतिक रूप में जाति को न्याय के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी। यूरोपीय परिवारों में, फैक्टरियों में, रेलवे में रोजगार के नए अवसर प्रदान किए, और बाद में राजनीतिक आरक्षण दिया। इन सब कदमों से अछूतों की जिंदगी में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। (एलिनवुड 1978, गैलेंटर 1972, कनानाइकिल 1981)। फुले ने इन भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा, 'हमें अंग्रेजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मनु के कानून का पालन नहीं किया' (कीर 1968)। 

ऐसा नहीं था कि साम्राज्यवादी शासकों ने दलितों के प्रति प्रेम के चलते ये कदम उठाए। ये कदम उनकी रणनीतिक आवश्यकताओं और विजेता के रूप में श्रेष्ठ होने की भावनाओं से प्रेरित थे। अगर कहीं इन सुधारों से उनको साम्राज्यवादी हितों को नुकसान होता नजर आया तो उन्होंने कदम वापस खींचे। जहां तक जाति विरोधी आंदोलनों का सवाल है, ऐसा नहीं था कि ये साम्राज्यवादी शासन के जारी रहने के पक्ष में थे। फुले, जिन्होंने आधुनिकता से परिचित कराने और कानून का राज स्थापित करने के लिए अंग्रेज शासन की तारीफ की, वहीं यह भी रेखांकित किया कि साम्राज्यवादी राज्य में वंचितों के उत्थान की पूरी कोशिश नहीं की जा रही है। उनको विदेशी शासन की सीमाओं का एहसास था। अंबेडकर ने साम्राज्यवादी व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को न केवल अपने अध्ययन ग्रंथों में बल्कि सार्वजनिक रूप से उजागर किया। उदाहरण के लिए दलितों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, 'आप बेहतर सड़कों, रेलवे, सिंचाई की नहरों, स्थायी प्रशासन देने और अंदरूनी शांति स्थापित करने के लिए बैठ कर अंग्रेजी नौकरशाही की तारीफ के पुल बांधते नहीं रह सकते...मैं इस बात पर सहमत होने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा कि अंग्रेजों की यह तारीफ फौरन दूर हो जाएगी, अगर हम जमीदारों और पूंजीपतियों द्वारा इस देश के गरीबों और आम जनता से मुनाफे की जबरन वसूली को देखें' (अंबेडकर 1930)। एक दूसरे स्थान पर उन्होंने कहा, 'हमें शासन में ऐसे लोग चाहिए जो विरोध की परवाह किए बगैर समाज के सामाजिक आर्थिक नियमों में ऐसे बदलाव लाएं जो न्याय और औचित्य के लिहाज से अनिवार्य हैं। अंग्रेजी शासन कभी भी यह भूमिका नहीं अदा करेगा' (क्षीरसागर 1992)।

इस प्रकार जाति विरोधी आंदोलनों और विशेष कर दलित आंदोलनों ने अंग्रेजी शासन के सकारात्मक पक्ष को स्वीकारते हुए बुर्जुआ राष्ट्रवादी नेतृत्व के साथ अपने अंतर्विरोधों के मद्देनजर सामाजिक सुधार और सत्ता में निचले तबकों की हिस्सेदारी के लिए दबाव बनाया। लेकिन इनको इस बात का पूरा एहसास था कि इनका भी हित साम्राज्यवादी शासन के समाप्त होने में है।

आज अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा प्रोत्साहित वैश्वीकरण के नाम पर साम्राज्यवाद के खतरे ने पूरी दुनिया को अपनी आगोश में ले लिया है। इनके कार्यक्रमों के आर्थिक दर्शन की जड़ में है बाजार की ताकतों पर निर्भरता, नियंत्रण को समाप्त करना, राज्य की भूमिका को कम करना और सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी क्षेत्र को लाना। इन कार्यक्रमों के परिणाम होंगे सरकारी इकाइयों का निजीकरण, अतिरिक्त श्रम शक्ति को हटाना, अर्थव्यवस्था में निर्यात आधारित विकास को बढ़ावा देने के लिए ढांचागत बदलाव, विदेशी पूंजी व तकनीक का बेरोकटोक आगमन, वित्तीय तथा सेवा प्रदाता विदेशी इकाइयों के आने व जाने की स्वतंत्रता, पूंजी व दूसरी राशियों का राष्ट्रीय सीमाओं के पार आना जाना, बौद्धिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानूनी बदलाव, कानूनी अनुबंधों को लागू करने के लिए समुचित कानूनी वातावरण तैयार करना, निजी संपत्ति का अधिकार, और जनता को संगठित होने और विरोध करने के अधिकारों में कटौती। पूरी दुनिया का अनुभव है कि ये कार्यक्रम जन विरोधी हैं और वंचितों को और वंचित करते हैं। सबसे वंचित समुदाय होने के नाते दलितों के आंदोलन का इस कार्यक्रम से सीधा संबंध है। यह मानते हुए कि वैश्वीकरण का गरीब लोगों पर खराब असर होता है, कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि इससे दलितों की सामाजिक अक्षमता दूर करने में मदद मिल सकती है। हालांकि यह तर्क पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन यह देश में पूंजीवाद के पिछले एक सदी के अनुभवों के सही सबक पर आधारित नहीं है। जिस प्रकार से पूंजीवाद ने कुशलता के साथ जाति का इस्तेमाल किया है, वैश्वीकरण जो वर्तमान सूचना संचार के युग में पूंजीवाद का ही स्वरूप है, इस पर कोई सकारात्मक असर नहीं डालने वाला है। बल्कि जब आम लोगों की तकलीफें बढ़ रही है, नौकरियां कम हो रही हैं, महंगाई बढ़ रही है, उपभोक्तावाद असंतोष पैदा कर रहा है, सार्वजनिक सेवाओं में कमी हो रही है, होड़ बढ़ रही है, शासक वर्ग लोगों को बांटने और उनके असंतोष को दबाने के लिए जाति का इस्तेमाल करेगा। दलितों के लिए इस मुक्त बाजार आधारित विकास के कुछ विशेष निहितार्थ हैं।

एक तो तुलनात्मक फायदे के आधार पर किया गया निवेश खेती और खेती पर आधारित व्यापार का कॉरपोरेटीकरण करेगा। इसके नतीजे में कृषि के क्षेत्र में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खेतों पर कब्जा मजबूत होगा जो भूमि सुधारों की संभावना को खत्म कर देगा। दूसरे, सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण और वैश्वीकरण द्वारा फैलाए जा रहे न्यूनतम सरकार के सिद्धांत से होने वाली सरकारी नौकरियों में कमी दलितों के रोजगार के अवसर कम करेगी। अभी भी इन नीतियों द्वारा प्रायोजित मुक्त व्यापार वातावरण, जिसका ऊंची जाति के नौकरशाहों द्वारा भरपूर समर्थन किया जा रहा है, से दलित हितों को नुकसान पहुंच रहा है। इससे दलित महिलाओं, दलित संस्कृति तथा सबसे महत्वपूर्ण अपनी आजादी के लिए होने वाले संघर्ष पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। दलित आंदोलन को साम्राज्यवादी एजेंडे और अपने बीच के भारी अंतर्विरोधों को समझना होगा और अपने आंदोलन में इसका मुकाबला करने की रणनीति बनानी होगी।

राज्य

दलित आंदोलन के संबंध में तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न राज्य से इसका संबंध है। दलित आंदोलन का रवैया ऐसा रहा है कि यह राज्य को जाति और वर्ग के झगड़ों में एक निष्पक्ष निर्णायक की भूमिका अदा करने वाले के रूप में देखता है। कई बार राज्य को पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए ईमानदार, परोपकार करनेवाली इकाई की तरह देखा गया है। राज्य के प्रति यह सहृदय नजरिया समझा जा सकता है, क्योंकि दलित, आंदोलन का उदय ही राज्य द्वारा निर्मित वातावरण से हुआ। यदि औपनिवेशिक राज्य ने सबके लिए समान न्याय व्यवस्था और समान शिक्षा अवसर नहीं प्रदान किए होते, दलित आंदोलन का उदय मुश्किल था। महाड में सार्वजनिक तालाब में दलितों के अधिकार का संघर्ष राज्य के नियम कानून लागू करने के लिए ही था। बाद के संघर्ष भी कानूनी दायरे में ही किए गए ताकि राज्य का समर्थन मिलता रहे।

एक तरफ राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन के आधिपत्य और दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी आधिपत्य का विरोध करते हुए दलित आंदोलन को परिस्थितिजन्य संभावनाओं और साधनों का इस्तेमाल करना था। महाड सत्याग्रह के समय अंबेडकर ने अपनी रणनीति स्पष्ट की कि मजबूत दुश्मन के साथ कई मोर्चों पर नहीं लड़ा जा सकता। उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे कानून का उल्लंघन नहीं करें। यह राज्य ही है जिसने लोगों को अपने मानव अधिकारों के हनन के विरोध में आवाज उठाने के लिए मौका दिया है। आंदोलन की रणनीति थी राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों का इस्तेमाल कर दलित अधिकारों की रक्षा की जाए और नए कानून बनाए जाएं।

बाद के राजनीतिक सुधारों के साथ दलित आंदोलन ने जन संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनावी रास्ता पकड़ा। लेकिन राजनीतिक सत्ता की सीमाएं राज्य के ढांचे के तहत सीमित थीं। यह एक सोची समझी रणनीति थी कि राज्य द्वारा हासिल संरक्षण का इस्तेमाल करते हुए प्रतिद्वंद्वी गुटों से दलितों के लिए फायदे प्राप्त किए जाएं। लेकिन यह तथ्य है कि दलित आंदोलन का संचालन करने वाली उदार लोकतांत्रिक सोच के पास न तो कोई वैकल्पिक रणनीति थी और न ही सत्ता की कोई वैकल्पिक समझ। नतीजे में दलित आंदोलन, जिसे शुरुआत में अपनी मजबूरियों का एहसास था, शासक वर्ग के जाल में फंस गया। इसने औपनिवेशिक शासन के हाथों से देशी बुर्जुआ और भूस्वामी गठजोड़ के हाथों में सत्ता के संक्रमण को भुला दिया। बराबरी के संघर्ष में औपनिवेशिक राज्य को निर्णायक की भूमिका में देखना एक रणनीति हो सकती है, लेकिन जब खुद राजसत्ता ही विरोधी पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हो तब अपने पुराने रवैए पर बने रहने को उचित तो नहीं ही ठहराया जा सकता, यह खुद को हार की तरफ ले जाने वाला है।

दलित आंदोलन ने राज्य की ताकत की अवधारणा को इसके बराबरी के दावे के साथ जोड़ा। आरक्षण की असल में शुरुआत यहीं से हुई। यह माना गया कि यदि दलितों को राज्य की नौकरियों में उनकी आबादी के बराबर का हिस्सा मिल जाए तो यह माना जा सकता है कि सत्ता में उनकी बराबर हिस्सेदारी है। लेकिन इस योजना में खामी राज्य के चरित्र को लेकर है। राज्य कैसा भी हो, कल्याणकारी हो या किसी और किस्म का, निर्विवाद रूप से यह शासन करने वाले वर्ग के हाथ में शासित वर्गों का दमन करने का औजार है। अतः यदि शासित वर्ग अपनी मर्जी से इस औजार का हिस्सा होना स्वीकार करते हैं तो इससे शासक वर्ग का ही फायदा होगा। आमतौर पर शासक वर्ग यदि किसी विरोधी वर्ग को सीधे टकराव में काबू में नहीं कर पाते हैं तो वे हमेशा समायोजित करने की रणनीति अपनाते हैं। यह मानी हुई बात है कि समायोजित किए गए लोग बहुसंख्यकों द्वारा दबा दिए जाएंगे। साफ शब्दों में यह संभावित विरोधियों को एक तरह की रिश्वत है। इस तरह अंतिम तौर पर अपनी मर्जी से इस शोषणकारी व्यवस्था का हिस्सा बनने की दलित रणनीति, शासक वर्गों के हित में है।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राज्य सत्ता में भागीदारी की रणनीति से दलितों को उल्लेखनीय फायदे हुए। शिक्षा, रोज़गार व राजनीति में आरक्षण के चलते बहुत से दलित ऐसे पदों पर पहुंचे जहां वे पहुंचने की सोच भी नहीं सकते। लेकिन इन उपलब्धियों के साथ हमेशा समझौता भी जुड़ा हुआ था। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि इस प्रक्रिया से दलित राजनैतिक रूप से शक्तिहीन हुए और उनमें लाभार्थियों के एक ऐसे अलग वर्ग का उदय हुआ जिसका सामान्य दलित जनता से बहुत कमजोर रिश्ता था। इस वर्ग ने दलित मुक्ति की विचारधारा को पूरी तरह से तोड़-मरोड़ दिया। स्थानीय सर्वहारा वर्ग के तौर पर दलितों का उत्थान जेल में कुछ उपहार बांट कर नहीं किया जा सकता। यह आजादी तभी संभव है जब इस जेल को ही बारूद से उड़ा दिया जाए और इसकी जगह उनकी जरूरत के मुताबिक एक नए आसरे का निर्माण किया जाए। 

आजादी के बाद किए गए समझौतों के कारण आए बदलावों के बावजूद आज भी एक आम दलित व्यक्ति अनपढ़ कुपोषित भूमिहीन मजदूर है जो जीविकोपार्जन के लिए कई तरह के शोषकों के जाल में फंसा है। वह सैकड़ों सालों से विकसित तंत्र का शिकार है। दलित आंदोलन ने शुरू में फौरी रणनीति के तहत राज्य का सहारा जरूर लिया लेकिन लंबी रणनीति इस राज्य को खत्म कर इसकी जगह दलित मजदूर राज्य स्थापित करने की होनी चाहिए।

कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ संबंध

तीसरा कारक है दलित आंदोलन के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ असहज संबंध। यह कारक आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास है। यह विरोधाभास सैद्धांतिक मतभेदों से उतना पैदा नहीं हुआ, हालांकि दलित आंदोलन के जनक अंबेडकर के दिमाग में कुछ अस्पष्ट सैद्धांतिक साम्यवाद विरोधी धारणाएं थीं, जितना कि कम्युनिस्ट नेताओं के दलित आंदोलन के प्रति रुख से पैदा हुआ। बंबई के श्रम संगठनों में कार्यरत इन नेताओं ने रूढ़िवादी नजरिए से जाति के प्रश्न को ऊपरी ढांचे का एक मसला माना जो क्रांति के साथ अपने आप दूर हो जाएगा। दलित आंदोलन ने इस पर जवाब दिया कि जाति के रहते क्रांति ही कैसे होगी। इन श्रम संगठनों के कम्युनिस्ट नेता बंबई की कपड़ा मिलों में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव या ज्यादा कमाने वाले विभागों जैसे बुनाई में दलितों को काम नहीं दिए जाने पर खामोश रहे। दलित मजदूरों की आर्थिक स्थिति उनके सवर्ण साथियों से बहुत ज्यादा खराब थी। अंबेडकर का मानना था कि कम्युनिस्टों ने श्रम संगठनों का उपयोग राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किया न कि कामगार वर्ग के कल्याण के लिए। जब भी उन्होंने हड़ताल जैसे कदम उठाए, दलित मजदूरों का ज्यादा नुकसान हुआ, क्योंकि वे ज्यादा गरीब थे। 

श्रम संगठनों के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर अंबेडकर को दो कारणों से आपत्ति थीः (1) मजदूर वर्ग की राजनैतिक चेतना बढ़ाने के स्थान पर संकीर्ण आर्थिक फायदे प्राप्त करना (2) अपने राजनैतिक मंसूबों की प्राप्ति के लिए कामगार वर्ग का इस्तेमाल करना। मार्क्सवाद पर अंबेडकर का लेखन बंबइया कम्युनिस्टों के प्रति उनकी नाराजगी से प्रभावित है। मार्क्सवाद को इसके कुछ स्वयंभू अनुयायियों से पहचानने की ये विरासत दलितों में अभी भी है। वे मार्क्सवाद की कमियां दिखाने के लिए संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों का उदाहरण देते हैं। उनको यह समझना होगा कि मार्क्सवादी विचारधारा खुद अपनी आलोचना की मांग करती है लेकिन सावधानीपूर्ण अध्ययन के बाद।

बहुत सारी गलतफहमियां दलित आंदोलन के पेटी बुर्जुआकरण (निम्न मध्यमवर्गीय नियंत्रण) से पैदा हुई हैं। निहित स्वार्थों ने अंबेडकर के इधर उधर बिखरे विचारों का इस्तेमाल कम्युनिज़्म को नीचा दिखाने के लिए किया। यह जान बूझ कर अर्थ का अनर्थ करने वाली बात है। हालांकि अंबेडकर ने कम्युनिस्ट सिद्धांत की इतने विस्तार से चर्चा नहीं की जितनी जरूरत थी, लेकिन वे इसके विरोध में नहीं थे। बल्कि उन्होंने कम्युनिस्ट सिद्धांत की सराहना की और इसे खुद के करीब बताया। दलित मुक्ति में व्यस्त रहते हुए उन्होंने मार्क्स के तर्क पर कहा कि किसी भी दर्शन की सफलता इसको अमली जामा पहनाने में ही साबित होती है। उनका विचार था कि यदि कम्युनिस्ट इस नजरिए से काम करें तो रूस से पहले भारत में सफलता मिल सकती है (जनता, 15 जनवरी 1938)। उनके लिए कम्युनिज्म उनके सबसे उंचे आदर्श बौद्ध मत के लिए एक कसौटी था। कम्युनिस्टों के कट्टरवाद से हुए कड़वे अनुभवों के चलते उन्होंने कम्युनिज्म के विरोध में भी तर्क दिए और इसकी असफलता की भविष्यवाणी भी की। लेकिन यह कम्युनिस्टों के क्रियाकलापों में व्याप्त कट्टरवाद की प्रतिक्रिया थी। सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्टों के पतन के बाद कुछ लोग उनके कम्युनिस्ट विरोधी विचारों का खुशी हवाला देकर कहते हैं कि अंबेडकर सही थे। हां वह सही थे, लेकिन इस परिघटना पर खुशी जाहिर करना दुर्भाग्यपूर्ण हैं। यह सिर्फ अंबेडकर और कम्युनिज्म, दोनों के प्रति अज्ञानता को ही उजागर करता है। साथ ही इस तरह का नजरिया दलितों को उस विचारधारा से दूर ले जाता है जो पूरी दुनिया के वंचितों के प्रति समर्पित है। दलित आंदोलन को अपने सबसे महत्वपूर्ण संभावित सहयोगी के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करना होगा।

निष्कर्ष

दलित आंदोलन को राज्य, धर्म, शोषण के दूसरे तरीकों और संस्कृति पर अपनी राय पर दोबारा विचार करना होगा। इसे अपने उद्देश्यों को दोबारा परिभाषित करना होगा - क्या उद्देश्य स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित एक नया समाज बनाता है या फिर शोषणकारी समीकरणों में पक्षों को पलट भर देता है। इस परिप्रेक्ष्य में इसे अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में पुनर्विचार करना होगा। वैश्वीकरण का युग यह मांग करता है कि विभिन्न वर्ग अपने पक्ष स्पष्ट करें। ऐसा लगता है कि आंदोलन में उर्जा कम हो गई है और यह अतीत में बंधा हुआ है। इस पतन से दलित जनता को नुकसान हुआ है। अब इसे अपनी आलोचना करनी चाहिए।

जहां दलित आंदोलन में सख्त स्वयं आलोचना की जरूरत है, इसके सकारात्मक पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा। ये बहुत सारे हैं। दलित आंदोलन ने स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के मूल्यों की स्थापना की, शोषण और अन्याय के खिलाफ संघर्ष में राजनीतिक चेतना विकसित की, वैज्ञानिक तर्कवाद को प्रोत्साहन दिया और किसी भी प्रकार के आडंबर और ढकोसले का विरोध किया। यदि उपलब्धियों की बात करें तो इससे शिक्षा, सांगठनिक क्षमता और प्रतिरोधी ढांचे के साथ काम करने की क्षमता के क्षेत्र में एक आधार खड़ा किया हैं। इतने छोटे समय में यह उपलब्धि हासिल करना आसान नहीं है। दुख की बात यह है कि आंदोलन इन उपलब्धियों पर पकड़ खो रहा है और दुश्मन के बनाए रास्ते पर भटक रहा है। यह अपनी उपलब्धियों को मजबूत करने और लंबे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपने सभी सहयोगियों को एकजुट नहीं रख पाया। यह तभी संभव है जब यह निम्न मध्यवर्गीय प्रभुत्व से आजाद हो और दलित जनता की तरफ रुख करे। इसके लिए कुछ नियम बनाए जा सकते हैं - जैसे कि उन मुद्दों को पहले लेना जो बहुसंख्यक दलित वर्ग को छूते हैं, फैसला लेने की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी के लिए संरचनात्मक स्पेस पैदा करना, जनता में क्रांतिकारी संस्कृति को प्रोत्साहन देना, किसी भी तरफ के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के मूल्य को स्थापित करना, और किसी भी प्रकार की संकीर्णता के परे जाकर संपूर्ण मानव जाति की स्वतंत्रता के लिए काम करना। इसके लिए एक संपूर्ण बदलाव जरूरी है। ऐसा लगता है कि दलित आंदोलन की चेतना और नजरिया इसके जन्म के समय से ही वैसे ही बने हुए हैं। इसको यह अहसास करना होगा कि स्वतंत्रता के बाद की स्थिति औपनिवेशिक समय से ज्यादा उलझी हुई है। 

अनुवादकीय टिप्पणी:


1. भौतिकवाद: वह विचारधारा जिसके अनुसार सामाजिक घटनाओं का कारण वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा पता करना चाहिए। यह विचारधारा किसी भी स्वरूप में ईश्वर के अस्तित्व को नकारती है।
2. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद: प्रकृति में (तथा इसी प्रकार समाज में) परस्पर विरोधी प्रक्रियाएं चलती रहती हैं और एक नए स्तर पर उसके विकास को मुमकिन बनाती हैं। उदाहरण के लिए शरीर में विकास तथा क्षरण दोनों प्रक्रियाएं एक साथ चलती हैं।
3. बुर्जुआ: मध्यम वर्ग, वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों जैसे मशीनों, कारखानों, जमीन आदि पर कब्जा होता है और जो जीवन यापन करने के लिए शारीरिक श्रम नहीं करता है।
4. राष्ट्रीयता: एक क्षेत्र विशेष में रहने वाली एक बड़ी जाति जिसकी भाषा, खानपान एक जैसा है। एक राष्ट्र में बहुत सारी राष्ट्रीयताएं संभव हैं, जैसे भारत में नागा, गोरखा, तमिल आदि।
5. वैज्ञानिक समाजवाद: वैज्ञानिक सिद्धांतों पर टिका समाजवाद।
6. साम्राज्यवाद: एक राष्ट्र द्वारा दूसरे देशों का आर्थिक शोषण करने की प्रवृत्ति। वर्तमान में अमेरिका एक साम्राज्यवादी राष्ट्र है।
7. आधार व ऊपरी संरचना: मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार किसी भी समाज की आर्थिक गतिविधियां (अर्थतंत्र) उसका आधार है। इसी आधार पर सामाजिक ढांचा (वर्ग/जाति आदि) और संस्कृति आदि खड़े होते हैं। अतः बदलाव के लिए जरूरी है कि आधार (अर्थतंत्र) पर प्रहार किया जाए न कि ऊपरी संरचना पर। 
8. सर्वहारा की तानाशाही: बदलाव लाने के लिए मजदूरों (सर्वहारा) की तानाशाही जरूरी है। इसका अर्थ है कि एक पार्टी का शासन जैसा रूस, चीन आदि समाजवादी देशों में हुआ।
9. उपनिवेशवाद: उन्नीसवीं व बीसवीं सदी की वह व्यवस्था जिसमें पश्चिमी यूरोप के देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को अपने अधीन कर उनका आर्थिक शोषण किया।

संदर्भ

 
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हालात कुछ यूं हैं दोस्तों कलम ताबूत बंद है जुबान पर धरा वियाग्रा है उंगलियों ने पहन लिया कंडोम इस समलैंगिक समय में हर यक्ष प्रश्न अनुत्तरित है

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हालात कुछ यूं हैं दोस्तों

कलम ताबूत बंद है

जुबान पर धरा वियाग्रा है

उंगलियों ने पहन लिया कंडोम

इस समलैंगिक समय में

हर यक्ष प्रश्न अनुत्तरित है


पलाश विश्वास

आज का संवाद फिर वही

रिलायंस क्यों गैरकानूनी असंवैधानिक निराधार आधार के तहत हमारी बायोमेट्रिक तबाही पर तुला है?

कृपया फेसबुक पर अपनी राय दें।


माफ करना दोस्तों

खंडित जनादेश

से आखिर कोई

दिशा नहीं खुली

नई दिल्ली में

फिरभी छात्र युवा

की परिवर्तन कामी

गोलबंदी को हम

अब भी मानते हैं

सकारात्मक,हमारी

राय अब भी बहाल

और हम इसी को

फौरी कार्यभार

भी मानते हैं कि

गोलबंद करें तमाम

सामाजिक शक्तियों को


कांग्रेस के खिलाफ है

जनादेश दिल्ली में

वैकल्पिक राजनीति

की जो बात कर रहे थे

बढ़चढ़ और

छात्र युवा समेत

सामाजिक शक्तियों

को जो लोग कर रहे थे

गोलबंद वे अब

विदेशी पूंजी,कालाधन

और भ्रष्टाचार के

साथ हुए हमबिस्तर

सत्ता में साझेदारी

का चरित्र ही

दुश्चरित्र है सिरे से

छिनाल सत्ता के साथ

रंगरेलियां मनाने में ही

हो जाता हर क्रांति का

पटाक्षेप, जैसा हमने

सत्तर की संपूर्ण क्रांति

को सत्ता भ्रांति और

मुक्त बाजार में बदलते देखा

जैसा हमने बंगाल में

जमीन आंदोलन के

गर्भ से निकले परिवर्तन का

हश्र देखा कि हूबहू

गुजरात माडल का

विकास कार्यक्रम है

पीपीपी माडल

मुकेश अंबानी का

वर्चस्व है

और निरंकुश प्रोमोटर

बिल्डर राज है

दिल्ली में हूबहू

वही दोहराया  जा

रहा है फिर


अब तक दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर ना ना कर रही आम आदमी पार्टी (आप) के सुर बदले-बदले नजर आ रहे हैं. सूत्रों से मिली ताजा जानकारी के मुताबिक अगर उपराज्यपाल ने कहा तो 'आप' दिल्ली में सरकार बना लेगी. केजरीवाल सरकार बनाने के मुद्दे पर शनिवार सुबह साढ़े 10 बजे उपराज्यपाल नजीब जंग से मिलेंगे. उधर कांग्रेस ने भी 'आप' को बिना शर्त समर्थन देने की चिट्ठी उपराज्यपाल को भेज दी है. हालांकि पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि वह बीजेपी और कांग्रेस से किसी कीमत पर समर्थन नहीं लेगी. ऐसे में पार्टी उपराज्यपाल से बात करके 28 विधायकों के साथ अल्पमत में ही सरकार बनाने पर विचार कर रही है.


इसी के मध्य दूसरा तमाशा जारी है

रालेगण सिद्धि: भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्षनाद बजाने वाले अन्ना हजारे का संसद में जनलोकपाल विधेयक पारित कराने की मांग पर अनिश्चितकालीन अनशन आज चौथे दिन प्रवेश कर गया, जबकि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने उनके आंदोलन का समर्थन किया। हजारे ने कहा है कि जब तक संसद में जन लोकपाल विधेयक पारित नहीं हो जाता वह अपना अनशन नहीं तोड़ेंगे। वह 'जनतंत्र मोर्चा' के बैनर तले महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अपने गृहग्राम रालेगण सिद्धी में यादवबाबा मंदिर के निकट अनशन कर रहे हैं।


शुक्र मनायें कि पेट्रोलियम मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने शुक्रवार का संकेत दिया कि सरकार डीजल जैसे संवेदनशील पेट्रोलिमय उत्पादों की कीमतों में बढ़ाते समय संतुलित रुख अपनाया जाएगा।जबकि सरकार द्वारा सरकारी पन बिजली उत्पादक एनएचपीसी के विनिवेश से दो हजार करोड़ रुपए उगाहे जाने की संभावना है।इससे क्या,कमजोर वैश्विक रुख के बीच स्टाकिस्टों की भारी बिकवाली के चलते दिल्ली सर्राफा बाजार में शुक्रवार को सोने में लगातार दूसरे दिन गिरावट का रुख जारी रहा। आज इसके भाव 340 रुपए की गिरावट के साथ 30,700 रुपए प्रति दस ग्राम रह गए।


बहरहाल खुदरा मुद्रास्फीति के बढ़कर पिछले नौ महीनों के उच्चस्तर पर पहुंच जाने के मद्देनजर विश्लेषकों को लगता है कि रिजर्व बैंक आगामी मध्य तिमाही समीक्षा में फिर एक बार 0.25 प्रतिशत की वृद्धि कर सकता है। हालांकि, इसके साथ ही आर्थिक वृद्धि को लेकर चिंता बढ़ी है।


रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने सॉफ्टवेयर कंपनी टीसीएस, इंफोसिस तथा विप्रो की दीर्घकालीन कंपनी रेटिंग एक से बढ़ाकर बीबीबी प्लस कर दिया है। हालांकि एजेंसी ने उनकी फोरेन करेंसी रेटिंग के मामले में परिदृश्य नकारात्मक रखा है। एजेंसी ने तीन कंपनियों की स्थानीय मुद्र रेटिंग बढ़ाकर स्थिर कर दिया है और उन्हें क्रेडिट निगरानी से बाहर कर दिया है।

बॉलिवुड किंग शाहरुख खान और क्रिकेट के भगवान सचिन तेंडुलकर का दबदबा अब भी बरकरार है। बिजनेस मैगजीन फोर्ब्स इंडिया ने कमाई और शोहरत के आधार पर 100 प्रभावशाली लोगों की लिस्ट जारी की है। इसमें शाहरुख सबसे ज्यादा कमाई करने वाले सिलेब्रिटी बन गए हैं, वहीं तेंडुलकर को सबसे ज्यादा शोहरत कमाने वाली शख्सियत बताया गया है। पिछली बार भी इस तरह की लिस्ट में शाहरुख टॉप पर थे। 100 प्रभावशाली लोगों की इस लिस्ट में कुछ नए नाम जुड़े हैं, जिनमें स्टैंड कमिडियन कपिल शर्मा भी हैं। 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' के होस्ट कपिल को 93वीं पोजिशन मिली है। उनकी कमाई 4.5 करोड़ रुपये बताई गई है। इसी तरह नवजोत सिंह सिद्धू, कमल हासन, श्रीदेवी भी इस लिस्ट में शामिल किए गए नए नामों में से हैं।


शाहरुख की सबसे ज्यादा कमाई

साल 2013 में शाहरुख खान की कमाई 220 करोड़ 50 लाख रुपये रही। इस लिहाज से मैगजीन ने शाहरुख को कमाई में नंबर वन पर रखा। दूसरे पायदान पर हैं सलमान खान जिनकी सालाना कमाई 157 करोड़ 50 लाख रुपये रही। कप्तान महेंद्र सिंह धोनी कमाई करने में तीसरे नंबर पर हैं। 2013 में उन्होंने 155 करोड़ 32 लाख रुपये कमाए। वहीं, अमिताभ बच्चन चौथे और अक्षय कुमार पांचवे नंबर पर रहे। इसके बाद सचिन तेंडुलकर, रणबीर कपूर, कटरीना कैफ, ऋतिक रोशन और विराट कोहली रहे।


शोहरत बटोरने में सबसे आगे सचिन

फोर्ब्स इंडिया मैगजीन ने उन भारतीयों की लिस्ट भी जारी की है, जिनकी साख में पिछले साल की तुलना में इजाफा हुआ है। इस लिस्ट में पहले पायदान पर हैं सचिन तेंडुलकर। सूची में महेंद्र सिंह धोनी दूसरे नंबर पर हैं। सलमान खान इस लिस्ट में तीसरे नंबर पर हैं।


कमाई में टॉप-5 (अरब रु. में)


शाहरुख खान (2.20 अरब)

सलमान खान (1.57 अरब)

महेंद्र सिंह धोनी (1.55 अरब)

अमिताभ बच्चन (1.47 अरब)

अक्षय कुमार (1.18 अरब)


टीवी से प्रसारित

खबर है यह

फिरभी खुदकशी

से बचेगी आप

लोकसभा चुनावों

में होने वाले

बदलाव की खातिर

यह उम्मीद भी है


लेकिन लोकसभा

चुनाव में भी हूबहू

वही नतीजा आना है

जैसा अब तक

होता रहा है

हर विकल्प का

रिमोट कंट्रोल

आखिरकार

रिलायंस मोड में

निलकणि राज

में तब्दील होना है

मोदी हो या ममता

या केजरीवाल

इसतरह तो

कोई परिवर्तन

कहीं नहीं

होना है

जनसंहार नीतियां

जारी रहेंगी

जस का तस

जारी रहना है

सामाजिक अन्याय

संसाधनों और अवसरों पर

एकाधिकारवादी

वर्चस्व फिरभी जारी

रहना है हर हाल में

जारी रहना है

ख्वाबों का कारोबार भी

अविराम प्रवचन

अविराम पैनल

लाइव विमर्श

की तरह हर कहीं


इसतरह बदलाव कोई

होता नहीं दरअसल

ऐसा हम समझा नहीं

पाये लोगों को

जनादेश कुछ भी हो

अभियुक्तों के हाथों

में ही होता रिमोट

कंट्रोल हमेशा

अल्पमत सरकारें भी

बदलाव के  बिना शर्त

समर्थन से बखूब

करता जनगण का सफाया

जैसे अबाध है विदेशी पूंजी

निरंकुश है कालाधन

आर्थिक सुधारों की निरंतरता है

और आम लोगों

का अनिवार्य मरण है

सिलसिला लेकिन टूट

नहीं रहा है


यह भी समझ लीजिये कि

जैसा हम बार बार कहते हैं

जनादेश दरअसल

इस संसदीय लोकतंत्र में

अब है ही नहीं किसी

चिड़िया का नाम इन दिनों

जैसे कोई संविधान कहीं

लागू है ही नहीं

न कहीं कानून का राज है

गणतंत्र नहीं सरासर लूटतंत्र है

सर्वदलीय यह

चुनावों में सत्ता के

भागीदार बदलते हैं सिर्फ हालात

यकीनन नहीं बदलते


यह भी समझ लीजिये

कि हर विकल्प कारपोरेट है

नंदन निलेकणि भी हैं

अब प्ऱधानमंत्रित्व के दावेदार

नमोमय हुआ भारत तो

क्या निलेकणि राज

हर हाल में बहाल है

नमो तूफान रोकने के

जो भी विकल्प हैं

वे भी अंततः आप हैं


यह इसीलिए हो रहा

क्योंकि मुक्ति कामी

जनगण को कोई

संबोधित कर ही नहीं रहा

न छात्र युवा स्त्रियां

किसान मजदूर

नौकरीपेशा पेशेवर को

कोई संबोधित कर रहा

न कोई चुनाव हो रहा

जनता के हक हकूक

की बहाली के लिए

कारपोरेट फंडिंग से

कारपोरेट राज खत्म

करने को वोट मांगते हैं

कारपोरेट के ही कारिंदे


हो सकें तो कुछ

मेरी मदद करना दोस्तों

मैं खोज रहा हूं

जापानी तेल सधे

बांस अनेक

मौखिक,लिखित,आनलाइन

लाइव प्रवचन के विरुद्ध

जो देश को दिग्भ्रमित

कर रहा है सबसे ज्यादा


हालात कुछ यूं है दोस्तों

कलम ताबूत बंद है

जुबान पर धरा वियाग्रा है

उंगलियों ने पहन लिया कंडोम

इस समलैंगिक समय में

हर यक्ष प्रश्न अनुत्तरित है

सुरक्षित यौन संसर्ग

के अभ्यस्त हैं लोग

न परिवार में हैं लोग

और न समाज में हैं लोग

देश उनका महज

रंग बिरंगा झंडा है

या फिर कोई डंडा है

झंडे से सधते हैं हित तमाम

डंडे से हांकते हैं प्रजाजन


इसी बीच लालू  को

भी हो गयी है बेल

जो होनी ही थी

आखिरकार

बदलाव  और

सत्ता में भागेदारी

का खेल चूंकि जारी

रहना है  हर हाल में

बुनियादी परिवर्तन

के गर्भपात के लिए

जाति विमर्श इसी तरह

जारी रहना है

जाति उन्मूलन के बिना


लालू यादव पटना में एक महीने के भीतर एक बड़ी रैली करेंगे. इस रैली के जरिये लालू का वापस लौटने और अपने खोये जनाधार को फिर से पाने का प्रयास होगा. हालांकि अभी तक उन्होंने इस रैली का कोई नामाकरण नहीं किया है, लेकिन उनकी पिछले रैलियों की तरह इस रैली का नाम भी खासा रोचक होने की उम्मीद है. चारा घोटाले में पांच साल की सजा काट रहे आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गयी. इसके साथ ही 30 सितंबर से रांची की सेंट्रल जेल में बंद लालू यादव अब कुछ समय के लिए ही सही, खुली हवा में सांस ले सकते हैं.


शोर का जश्न है बहुत

बहुत ज्यादा है

हंगामा बरस रहा

हर शख्स एक दिशा है

हर कोई अलग विकल्प

देश का हर टुकड़ा

अब अलगाव में है

सारे लोग एक दूसरे के

खून के प्यासे हैं िइन दिनों

निशाने पर हैं सबसे पहले

अपने ही अंतरंग,आत्मीय

सब है जानी दुश्मन इन दिनों

कोई किसी का

दोस्त नहीं है इन दिनों


संसद के अंदर

बहुत होता बवाल

लाइव है आंखों देखा हाल

हर कोई चीख रहा पुरजोर

सुर्खियां तमाम खून सनी हैं

लेकिन हमारे मुद्दों पर

एकदम खालिस सन्नाटा है

न जाने वे लोग

किस किस मुद्दे पर

गरजते हैं बरसते हैं

फिर सबकुछ साझा

कर लेते हैं


सड़कों पर भी कबंधों का

जुलूस और हर दिशा में

ट्राफिक जाम

फर्जी विकल्प

और फर्जी बदलाव

फर्जी ख्वाब बहुत हैं

हकीकत लेकिन

सन्नाटा बटा दो

फिर वही ढाक के

तीन ही पात हुए


मुद्दे सारे अवसरवादी

मुद्दई मौकापरस्त

फरियादी की

सुनवाई कहीं हो

नहीं रही है

न्याय और कानून के घंटे

बजते रहते खूब इन दिनों

रंग बिरंगे अधिकार

मिल गये हैं अब बहुत

कारपोरेट भी जिम्मेदार

विकास घटा घनघोर

छन छन कर बरसा

रहा विध्वंस चहुं ओर


जिन सवालों पर

खामोश है

फेसबुक के सारे

धुरंधर,भूमंडलीय

स्वर्णयुग की संतानें

वे फिर फिर

दोहराया जाना है


डोनर देश में

पितृहीन हो रही हैं

पीढियां,क्योंकि

प्रजनन अक्षम

यह समय है

और प्रेम और दांपत्य

महज क्रयशक्ति समन्वय


मातृत्व महज देहमुक्ति है

पुरुषततंत्र नपुंसक

मगर जारी है

छूने दबाने और भेदने

की कला में दक्ष

हर विमर्श नीली फिल्मों में

निष्णात है इन दिनों

सारे जनसरोकार है

रियेलिटी शो

वेल स्क्रिप्टेड

और प्रतिबद्धता

क्रेडिट कार्ड है

मुक्त बाजार से खेलने

के लिए आखिरकार


हमारे गुरुजी

ताराचंद्र त्रिपाठी

सत्तर के दशक में

कहते थे कि

हर माल की तरह

हर शख्स भी

बिकाऊ है

बाजार में खड़ा

हर कोई नहीं कबीरा

जो घर अपना

फूंककर देखें तमाशा

सिर्फ सौदेबाजी है

सत्ता में समाहित होने का

उसीकी दक्षता प्रबल है

सारी मेधा सत्ता हित में

सामाहित है इन दिनों


बहुजन इस देश के

अजब अंध भक्त हैं

ज्ञान विज्ञान तकनीक

की जाति देखकर

बिदक जाते तुरंत

मसीहा अवतार के

मुताबिक शत्रुपक्ष

का ज्ञान है नरकद्वार

लेकिन कारपोरेट राज

कारपोरेट फंडिंग

की कोई जात होती नहीं

मुक्त बाजार में

मिलती हर चीज

सही गलत

उसकी भी जात

नहीं पूछता कोई


वैसे पूरे वैदिकी

सारे कर्मकांड अक्षत

दसों उंगलियों में

ग्रहशांति रत्न बहुमूल्य

तंत्र मंत्र टोटम

ताबीज यंत्र धागा

यज्ञ हवन सब होता है

विचार लेकिन प्रगतिशील

बच्चों के व्याह में

जात से ही होता तय

सबकुछ,दहेज भी अनिवार्य

गोत्र का ख्याल भी बहुत है


जाति अस्मिता से बाहर

कोई विमर्श नहीं है

न संवाद है कहीं

एकतफा फतवेबाजी है

अलग अलग खेमों में

भेड़ धंसान है

प्रवचन समय है यह

अंधभक्ति का प्रबल

पांचों इंद्रियां महज

भोग के लिए है

जिनका कोई

इस्तेमाल नहीं है दूसरा


जिन्हें औकात से बढ़कर

बेहिसाब मिला है

भय ती जंजीरों में

सबसे ज्यादा वे ही बंधे हैं

फिरभी खुजली से

मुक्त नहीं हो सके

और मौकारस्त

सुरक्षित मुद्दों को

उछालकर मसीहा

भी बने हुए हैं वही लोग

मजा यह है कि

अपने मुद्दे भूलकर

हमारे लोग

उन्हीं को सुन रहे हैं

उन्हीं को पढ़ रहे हैं

असली मुद्दों पर

बात करने की हिम्मत

न कामयाब लोगों में हैं

और न पीड़ितों में

सुनने पढ़ने की

कोई तहजीब है

तहजीब है भी तो

मुद्दे चुनने के हक

से भी वंचित है लोग

अपनो ंके ही फतवों

से उलझे हुए हैं सारे


एयर इंडिया 'स्टार अलायंस' में शामिल होगी

नई दिल्ली सिविल एविएशन कंपनी एयर इंडिया ग्लोबल इंटर एविएशन अलायंस 'स्टार अलायंस' में शामिल होने जा रही है। यह जानकारी शुक्रवार को एक सीनियर अधिकारी ने दी।


एयर इंडिया के एक सीनियर अधिकारी ने कहा, ''एयर इंडिया का निलंबन खत्म कर दिया गया है और प्रवेश प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। स्टार अलायंस के बोर्ड ने शुक्रवार यह फैसला किया है।''


अलायंस में एयर इंडिया के प्रवेश की प्रक्रिया को फाइनैंशल, लेबर और सिक्यॉरिटी जैसे कई कारणों से 2011 में सस्पेंड कर दिया गया था।


चूंकि जवाब आया

नहीं हैं अभीतक

इसीलिए फिर वही

पुराने सवाल

जिनपर बोलने

लिखने से

कतरा रहे हैं

तमाम लोग


Vidya Bhushan Rawat

क्या भ्रस्टाचार के विरूद्ध कोई आंदोलन शरद पवार, नरेद्र मोदी , राजीव शुक्ला, जगन रेड्डी, जयललिथा, अरुण जैटली, मुकेश अम्बानी, आदित्य बिरला आदि महान हस्तियों के विरुद्ध भी होगा या केवल राजनीती करने के वास्ते कुछ विशेष लोगो को ही निशाना बनाता रहेगा।

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विद्यासागर जी, आपसे सहमत हूं। भारतीय भाषाओं में इतने कालजयी रचनाकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी, रंगकर्मी, कलाकार व जन प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं। एक गली में जितने कुत्ते मिलेंगे,उनसे कहीं ज्यादा रंग बिरंगे क्रांतिवीर के दर्शन हो जायेंगे।


फिरभी सवाल है कि सत्ता वर्ग के हितों की हिफाजत के लिए फर्जी मुद्दों को लेकर लोग इतना फंलागते क्यों हैं और सिरे से जनसरोकार के बुनियादी मुद्दे लापता क्यों हैं।इतने समर्थ लोगों की मेधा क्या नपुंसक हो गयी है जो कारपोरेट राज में अभिव्यक्ति का जोखिम कोई उठाना ही नहीं चाहता,विवेचनीय यह है।


आधार कार्ड कारपोरेट राज में जनसंहार और महाविध्वंस का ब्रह्मास्त्र है। अब हमारे पत्रकारों,रचनाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आम जनता को कब कितनी बार इस सिलसिले में संबोधित किया है,बतायें। आम जनता को कारपोरेट नीति निर्धारण के बारे में कानोंकान सूचना महाविस्फोट,सोशल नेटवर्किंग और सूचना के अधिकार के बावजूद खबर नहीं होती।राजकाज के बहाने भारतीय लोक गणराज्य,भारतीय जन गण, भारतीय संविधान, कानून के राज और हर लोकतांत्रिक संस्थान के सफाये के मध्य जो एकाधिकारवादी जायनवादी कारपोरेट अश्वमेध अभियान जारी है,उसके रंग बिरंगे पुरोहित बनने में ही इहलोक परलोक सुधारने में लगे हैं अति सतर्क अति चेतस लोग।



अब सवाल है,

रिलायंस क्यों गैरकानूनी असंवैधानिक निराधार आधार के तहत हमारी बायोमेट्रिक तबाही पर तुला है?

सुबह जागते ही फेसबुक वाल पर यह विषय टांग दिया था,किसी लाइक वीर या शेयर शेर या क्रांतिध्वज ने अब तक कोई मंतव्य ही नहीं किया।


जबकि यह कोई भारतीय प्रशासनिक सेवा का प्रश्न नहीं है कि जवाब देने पर नियुक्ति की संभावना खत्म हो जाये।


यह भौतिकी और अंकगणित का कोई सवाल नहीं है,जिसे हल करने के लिए एढ़ी चोटी का जोर लगाना पड़े।


सीधा सा समाधान है त्रिकोणमिति या रेखागणितकी प्रमिति की तरह स्वयंसिद्ध।


भारत सरकार असल में चला कौन रहे हैं और भारत सरकार किसके हित के मुताबिक तलाये जाते हैं,विवेचना करें।


भारत का पेट्रोलियम मंत्रालय संभालने वाला आखिर किसके प्रति जवाबदेह है और किसकी मर्जी पर मंत्रालय में उनकी आवाजाही है?


ओएनजीसी जैसे सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनी को चूना किसके हितों को साधने के लिए लगाया जा रहा है?


किसके हित साधने के लिए,किसके एकाधिकार के लिए सारी तेल कंपनियों का विनिवेश हो रहा है?


भारत का प्रधानमंत्रित्व के लिए जनादेश निर्माण में भारतीय जनगण के मतामत के बजाय किसका मत मंतव्य ज्यादा निर्णायक है?


रायसीना हिल्स से जनपथ और संसद तक दरअसल किसका साम्राज्य  है?


आधार योजना को नकद सब्सिडी से जोड़ने में आखिर किसके हित सधते हैं?


किसके हित में आखिर तेल और रसोई गैस की सब्सिडी खत्म  की जा रही है?


विनियंत्रित तेल बाजार से किसके शेयर सबसे उछाल पर हैं?


नंदन निलेकणि आखिर किसके हित में काम कर रहे हैं?


गैस की कीमतों में पहली अप्रैल से जो दोगुणा वृद्धि हो रही है,उसका लाभ आखिर किस कंपनी को मिलने वाला है?


नकद सब्सिडी या सब्सिडी खत्म या विनियंत्रित तेल बाजार से भारत का सबसे धनी कौन बना है?


और किसका आवास संप्रभु राष्ट्र बना हुआ है बाकी देश के लिए?


किनका कारोबार और मुनाफा कानून के दायरे से बाहर है?


सत्ता बदलते रहने पर भी किसका विकास अबाधित है?


आर्थिक मंदी का फायदा किसे सबसे ज्यादा हुआ है?


इन सवालों का जवाब पहले जान लें। बहुत कठिन भी नहीं हैं ये सवालात।


थोड़ा दिमाग लगाये और सोचें कि आधार कार्ड क्यों जरुरी है आपके लिए!


बंगाल विधान सभा में पारित सर्वदलीय प्रस्ताव पर राजनीति में सन्नाटा क्यों है?


मीडिया पर इस वक्त आखिर किसका राजकाज है?


मजीठिया पर खोमोश मीडिया क्यों बाकी सारे गैरजरुरी मुद्दों पर तूफान खड़ा किये हुए हैं


और स्टिंग एक्सक्लुसिव विशेषज्ञ की दक्ष कलाकार तमाम टीवी स्क्रीन पर और अखबारों के मुखपन्ने पर रंग बिरंगे सुनामी आयोजन में जुटे हैं


दिनरात सोशल मीडिया पर जो लोग स्टेटस अपडेट किये जा रहे हैं


वे सारे समर्थ बुद्दिमान मेधासंपन्न लोग क्यों खामोश हैं?


सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना के विरुद्ध नागरिक समाज की मोमबत्तियां कहां लापता हैं?


असंवैधानिक गैरकानूनी सीआईए नाटो की कारपोरेट जायनवादी जनसंहारी इस परियोजना को गौरवान्वित करने वाले लोग आखिर कौन हैं?


कौन लोग हैं वे जो रोजाना मुहिम चला कर आम जनता को बता रहे हैं कि आधार नंबर न हुआ तो सत्यानाश हो जायेगा जबकि भारत सरकार ने संसद में बता दिया है कि आधार नंबर अनिवार्य नहीं है और न आधार नंबर नागरिक सेवाओं से नत्थी है?


बिना संसदीय अनुमति के इंफोसिस और दूसरी आईटी कंपनियों के फायदे के लिए डिजिटलाइजेशन मुहिम के लिए हमारे समलैंगिक जनप्रतिनिधि क्यों खामोश हैं


बिना संसदीय अनुमति के आधार परियोजना पर निजी कंपनियों को जो लाखों करोड़ का न्यारा वारा हुा है,इस आर्थिक घोटाले पर क्यों कोई स्टिंग नहीं हो रहा है?


फिर नागरिकों की निजता और नागरिक अधिकारों,मौलिक अधिकारों को लेकर तूफान खड़ा कर देने वाले आधार बजरिये नाटो और सीआईए के गाइडेड मिसाइलों का निशाना बना देने वाले प्रत्येक भारतीय नागरिक के अस्त्तित्व को ही तहसनहस करने के इस महाआयोजन पर देश में रचनाधर्मित,कला क्षेत्र,मीडिया और राजनीति में अखंड सन्नाटा है?


मित्रों,आपकी मदद के लिए ये तमाम सहायक प्रश्न हैं जिनसे इस विषय पर आप बोल लिख सकते हैं।


इसके साथ आपकी मदद के लिए उपलब्ध सामग्री भी है।


सारे प्रश्न ऐच्छिक हैं।


आप अगर देश प्रेमी हैं,जनता के हक हकूक की हिफाजत में मोर्चाबंद हैं तो अवश्य जवाब दें।


मुक्त बाजार के उपभोक्ताओं और मुक्त बाजार को स्वर्ण युग बताने से न अघाने वालों,


छनछनाते विकास के प्रवक्ताओं,


और रंग बिरंगे मसीहा अवतार संप्रदायों के अंध भक्तों के लिए,


कारपोरेट राजनीति और धर्मांध

जायनवादी विध्वंसक राष्ट्रीयता की पैदल सेनाओं


के लिए भी ये सवाल हरगिज नहीं हैं।


अगर सुनामी, प्राकृतिक आपदाओं और डूब में बंदी हैं आप कहीं,


अगर अनंत वधस्थल में अपने आत्मीय जनों के वध से

खौलता हो आपका दिलोदिमाग,


अगर जलजंगल जमीन नागरिकता आजीविका से बेदखली का

हो रहा है आप पर असर,


अगर आपके युवा हाथ बेरोजगार है और भविष्य अंधकारमय है,


अगर आप महज स्त्री देह हैं

और आपके शोषण के लिए कहीं सजा है मुक्त बाजार,


अगर विनिवेश के तंत्र में ,


इंफ्रा के यंत्र में,


एफडीआई के  षड्यंत्र में


आपका अस्त्तित्व कहीं विपन्न है,


अगर आप मलाईदार संप्रदाय में नही ंहैं क हीं तो


आपके लिए ये प्रश्न अनिवार्य हैं।


हम इस पर आगे लिखेंगे आपके जवाब के बाद।


आपकी खामोशी से जाहिर हो रहा है कि रिलायंस के हित में या तो आपके भी हित निष्णात हैं


या रिलायंस के सर्वव्यापी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान देश में आप अपने वजूद और अपने विकास के लिए रिलायंस पर निर्भर हैं


या आप डरते हैं कि कहीं आप पर कहीं से गिरे नहीं गाज


या आप शाकाहारी शुतुरमुर्ग हैं और बालू में सर गढ़ाये आंधी के गुजर जाने का इंतजार कर रहे हैं


ऐसे लोगों के लिए ये सवाल यकीनन नहीं है।


जो देश बेचो अभियान के कारिंदे हैं,जैसे हमारे तमाम अर्थशास्त्री

या तमाम राजनेता


या जिनका कारोबार ही

कालाधन और विदेशी प्रवाह से चलता हो


आधार कार्ड से शॉपिंग कराना चाहती है सरकार, बैंक हुए नाराज

इकनॉमिक टाइम्स | Dec 12, 2013, 01.44PM IST


POS मशीनों और एटीएम को आधार से ट्रांजैक्शन लायक बनाया जाएगा।


सुगाता घोष, मुंबई

आरबीआई ने पिछले दिनों बैंकों से कहा कि बैंक 26 नवंबर के बाद जो भी एटीएम या पीओएस मशीन लगाएंगे, उसमें बायोमीट्रिक रीडर लगे होने चाहिए ताकि कंज्यूमर्स आधार कार्ड के जरिए भी वहां से ट्रांजैक्शन कर सकें। पेमेंट के लिए क्रेडिट या डेबिट कार्ड पीओएस मशीन में स्वाइप किया जाता है। अब बैंक इस कदम पर सरकार से तीखा विरोध जताने का मन बना रहे हैं।


माना जा रहा है कि सरकार एटीएम से पैसे निकालने, बैंक अकाउंट्स में सब्सिडी के डायरेक्ट ट्रांसफर और अपने फिंगर प्रिंट्स देकर खरीदारी में आधार कार्ड के इस्तेमाल की सहूलियत लोगों को देने के अपने महत्वाकांक्षी अजेंडा पर काम कर रही है और आरबीआई का निर्देश इसे देखते हुए जारी हुआ है। इसके लिए लोगों को अपने 12 अंकों वाले आधार नंबर को बैंक अकाउंट से लिंक कराना होगा।


बैंकों को यह बात बेतुकी लग रही है। एक सीनियर बैंकर ने कहा कि जब यही काम मौजूदा टेक्नॉलॉजी से हो सकता है तो नेटवर्क चेंज करने में हम करोड़ों रुपए क्यों खर्च करें। इंडियन बैंक्स असोसिएशन की पेमेंट्स कमिटी ने 3 दिसंबर को इस मामले पर चर्चा के लिए बैठक की थी। इस बैठक से निकले नतीजों की जानकारी आरबीआई को जल्द दी जाएगी।

कमिटी के एक मेंबर ने कहा कि आरबीआई ने कहा है कि बैंक चाहें तो ऐसे कार्ड जारी कर सकते हैं, जिनमें आधार वाले फीचर न हों, लेकिन पीओएस मशीनों और एटीएम को अनिवार्य रूप से ऐसा बनाना है कि आधार कार्ड से वहां ट्रांजैक्शन हो सके। अब अगर बैंक आधार की एक्सेप्टेंस वाले क्रेडिट या डेबिट कार्ड जारी न करें तो हम बायोमीट्रिक रीडर्स के जरिए लेनदेन कर सकने वाले थोड़े से ऐसे कस्टमर्स के लिए नए एटीएम और पीओएस मशीनें क्यों खरीदें।


ऐसा कम ही होता है कि बैंक आरबीआई के निर्देश न मानें। हालांकि इस बार उन्होंने ताजा निर्देश के पालन में आने वाली मुश्कलों की जानकारी बैंकिंग रेग्युलेटर को देने का मन बनाया है। पेमेंट्स कमिटी की बैठक का ब्यौरा अधिकतर बैंकों को भेजा गया है और असोसिएशन इस संबंध में आरबीआई को जल्द लेटर भेजेगी। कुछ बैंकों ने यह मसला हल होने तक नए एटीएम और पीओएस मशीनें नहीं लगाने का फैसला किया है।


जिन बैंकरों और सर्विस प्रोवाइडर्स से इकनॉमिक टाइम्स ने बात की, उन्होंने कहा कि इसके लिए समूचा नेटवर्क ही बदलना पड़ेगा। एक सर्विस प्रोवाइडर ने कहा कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड के मैग्नेटिक स्वाइप का डेटा टेलीफोन लाइंस से ट्रांसमिट होता है। बायोमीट्रिक डेटा के लिए हाई स्पीड कनेक्शन चाहिए। इसके लिए बैंडविड्थ और कपैबिलटी बढ़ानी होगी। इसके अलावा बायोमीट्रिक मोड में रिस्पॉन्स टाइम और रिजेक्शन ज्यादा होंगे। इसके चलते ट्रांजैक्शन में ज्यादा वक्त लगेगा।




केजरीवाल से काफी उम्मीदें पर वोट निलेकणि को: नारायण मूर्ति

इकनॉमिक टाइम्स | Dec 12, 2013, 11.29AM IST


कार्तिक सुब्रमण्यम/ इंदु नंदकुमार, बेंगलुरु

इंफोसिस के चेयरमैन एन. आर. नारायण मूर्ति ने कहा है कि उनके पुराने साथी और कांग्रेस के नंदन निलेकणि को उनका पूरा सपोर्ट है और आम आदमी पार्टी (आप) के अरविंद केजरीवाल को भी वह बहुत पसंद करते हैं। इस साल जून में इंफोसिस के फिर से चेयरमैन बने मूर्ति ने कहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में पहली बार उतरी आप का प्रदर्शन 'शानदार उपलब्धि' है।


केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 28 पर जीत हासिल की है। मूर्ति ने इकनॉमिक टाइम्स से कहा कि अरविंद ने संभावनाओं की नई परिभाषा गढ़ी है। 67 साल के मूर्ति ने केजरीवाल के 'राइट टु इंफर्मेशन' अवॉर्ड्स इनिशिएटिव की आर्थिक मदद की थी। उन्होंने कहा कि आप ने दिखा दिया है कि बहुत ज्यादा पैसे के बगैर भी राजनीतिक पार्टी चुनाव जीत सकती है। उन्होंने कहा, 'मैं इस बात से खुश हूं कि बगैर ज्यादा पैसे, लेकिन नेक मकसद वाली पार्टी चुनाव जीती।'


राजनीतिक हलकों में इन दिनों चर्चा गर्म है कि निलेकणि बेंगलुरु साउथ संसदीय सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं। मूर्ति इसी एरिया में रहते हैं। 1981 में इंफोसिस को शुरू करने में मूर्ति के साथ निलेकणि भी शामिल थे। मूर्ति ने कहा कि अगर निलेकणि चुनाव लड़ते हैं, तो वह उनको वोट देंगे। मूर्ति ने कहा कि निलेकणि स्मार्ट हैं और उन्होंने यूनीक आईडी अथॉरिटी में अच्छा काम किया है। इसलिए वह उन्हें वोट देंगे।


मूर्ति ने इंफोसिस या सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री के बारे में सवालों का जवाब देने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि कंपनी जनवरी में दिसंबर क्वॉर्टर के रिजल्ट का ऐलान करेगी, जिसका 'साइलेंट पीरियड' शुरू हो चुका है। इसलिए वह कंपनी या इंडस्ट्री के बारे में कुछ नहीं कह सकते। दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर रहकर आप ने एक्सपर्ट्स को हैरान कर दिया है। अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं।


आप आम चुनावों में क्या करती है, इसमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। मूर्ति ने कहा कि लोकसभा चुनाव में वह आप के परफॉर्मेंस के बारे में कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि दिल्ली में उसके प्रदर्शन से वह हैरान हैं। मूर्ति ने कहा, 'इसलिए मैं यह कहने की हिम्मत नहीं करूंगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा संभव नहीं है।' इंफोसिस में लौटने के बाद मूर्ति ने कई बदलाव किए हैं। वह कंपनी को 2 साल बाद इंडस्ट्री में सबसे तेज ग्रोथ की राह पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। वॉल्यूम बढ़ाने में उन्हें कामयाबी मिली है और वह मार्जिन बढ़ाने के लिए कॉस्ट कम कर रहे हैं।


अब इसका क्या कीजै कि


कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन की चिट्ठी दिल्ली के उपराज्यपाल को सौंप दी है। कांग्रेस के पास आठ विधायक हैं और आम आदमी पार्टी के पास 28 विधायक हैं। दोनों को मिलाकर 36 विधायक यानि बहुमत का आंकड़ा पूरा हो जाता है। कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को बिना शर्त समर्थन दिया है। कांग्रेस का कहना है कि वो आम आदमी पार्टी की सरकार में शामिल नहीं होगी। उसका समर्थन बाहर से होगा। अब आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को शनिवार सुबह साढ़े 10 बजे उपराज्यपाल नजीब जंग से मिलने जाना है। सवाल ये है कि क्या आम आदमी पार्टी अब सरकार बनाने के लिए तैयार हो जाएगी। क्या उसे कांग्रेस का समर्थन स्वीकार होगा। या फिर कोई और रास्ता अख्तियार करेगी। फिलहाल पार्टी का कहना है कि वो सिद्धांतों पर अडिग है और अपने पत्ते उप-राज्यपाल से मुलाकात के बाद खोलेगी।


बड़ी जटिल स्थिति है, दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बहुमत से आठ सीट कम यानी 28 सीटें दी हैं।


उप-राज्यपाल नजीब जंग ने बीजेपी के इंकार करने के बाद आम आदमी पार्टी को बातचीत का न्योता दिया। ऐसे में सवाल ये है कि अब क्या करेगी आम आदमी पार्टी उसका ऐलान है कि वो ना किसी से समर्थन लेगी, ना किसी को समर्थन देगी। लेकिन शुक्रवार को पार्टी के नेता कुमार विश्वास के एक बयान से ऐसा लगा कि वो कुछ विकल्पों पर विचार कर रही है।


कांग्रेस पहले ही आम आदमी पार्टी को बिना शर्त अपने आठ विधायकों के समर्थन का ऐलान कर चुकी है। ऐसे में 28 और 8 मिलाकर उसके पास बहुमत की 36 सीटें हो जाती हैं। सियासी हलकों में ये बात भी जोर-शोर से उठाई जाने लगी है कि अरविंद केजरीवाल को जनता ने वोट दिया है और अब वो अपने जिम्मेदारी से क्यों भाग रहे हैं। तो क्या कुमार विश्वास ने इसी दबाव के चलते विकल्पों का शिगूफा छोड़ा। शुक्रवार तकरीबन पौने एक बजे आम आदमी पार्टी के विधायक दल के नेता अरविंद केजरीवाल के पास उप-राज्यपाल नजीब जंग का पत्र पहुंचा।


चिट्ठी में उप-राज्यपाल ने शनिवार साढ़े दस बजे अरविंद केजरीवाल को मिलने के लिए बुलाया है। कुमार विश्वास के विकल्प वाले बयान के साए में उनके घर पर पाटच् दिग्गजों की बैठक शुरू हुई। बैठक में तय हुआ कि आम आदमी पार्टी ना तो कांग्रेस और ना ही बीजेपी से समर्थन लेगी। वो अपने पुराने रुख पर कायम रहेगी। हालांकि ये भी साफ किया कि वो अपने पत्ते राज्यपाल से मुलाकात के बाद ही खोलेगी।


सरकार गठन को लेकर जारी गतिरोध पर नरमी का संकेत देने के बाद आम आदमी पार्टी (आप) ने अब कहा है कि उसके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद । साफ-साफ कुछ भी कहने से इनकार करते हुए 'आप' के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि हमारे पास बहुमत नहीं है और हमें लेन-देन की राजनीति में विश्वास नहीं है। ऐसे में हमारी स्थिति पहले से ही स्पष्ट है।'


हालांकि, इससे पहले कुमार विश्वास ने कहा था कि हमें उप राज्यपाल से न्योता मिला है और स्थिति को देखते हुए सभी विकल्पों पर पुनर्विचार होगा। इसके बाद कयास लगाए जाने लगे थे कि शनिवार को उप राज्यपाल नजीब जंग से मुलाकात में 'आप' के नेता अरविंद केजरीवाल दिल्ली में सरकार बनाने के न्योते को स्वीकार कर सकते हैं।


अरविंद केजरीवाल के घर पर पार्टी नेताओं की चर्चा के बाद योगेंद्र यादव ने कहा, 'हमें उप राज्यपाल का न्योता मिला है, लेकिन हम अपने पुराने रुख पर कायम हैं। कल अरविंद केजरीवाल उप राज्यपाल से मिलेंगे और अपनी बात लिखित में देंगे।' उन्होंने इसके बाद मीडिया के सवालों का जवाब देने से इनकार करते हुए कहा कि उप राज्यपाल से मुलाकात के बाद मीडिया के सामने सारी बात रखी जाएगी।


सभी विकल्प खुले रखने का बयान देने के बाद कुमार विश्वास ने सफाई देते हुए कहा कि हम अभी भी बीजेपी और कांग्रेस से समर्थन लेने या देने के खिलाफ हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा था कि बिना कांग्रेस और बिना बीजेपी के 'आप' सरकार कैसे बनाएगी। संभावना जताई जा रही थी कि 'आप' अल्पमत सरकार बनाए और फ्लोर टेस्ट के लिए जाए। ऐसे में जैसा कि कांग्रेस कह रही थी, समर्थन या सदन में गैरमौजूद रहकर सरकार बचा सकती है। अल्पमत सरकार का फॉर्म्युला केंद्र सरकार में पहले लागू हो चुका है। कांग्रेस नेता नरसिम्हा राव ने इसी फॉर्म्युले के आधार पर केंद्र में सरकार बनाई थी और वह पूरे पांच साल तक चली थी।


राज्यसभा में लोकपाल बिल पेश, हंगामे की वजह से राज्यसभा स्थगित

नई दिल्ली : बहुचर्चित लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक को आज सरकार ने राज्यसभा में चर्चा के लिए रख दिया लेकिन महंगाई के मुद्दे पर सपा के सदस्यों के हंगामे के कारण उच्च सदन में भोजनावकाश के पहले इस पर चर्चा शुरू नहीं हो सकी।


सभापति हामिद अंसारी ने लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिए सदन में दोपहर ढाई बजे से होने वाले गैर सरकारी कामकाज को स्थगित करने की घोषणा की। सपा नेता नरेश अग्रवाल ने व्यवस्था के सवाल के नाम पर गैर सरकारी कामकाज को स्थगित करने की सभापति की घोषणा का विरोध किया। हालांकि उपसभापति ने उनकी इस आपत्ति को नकार दिया।


सपा सदस्यों के महंगाई के मुद्दे तथा विभिन्न दलों के अन्य मुद्दों पर हंगामे के कारण आज भोजनावकाश से पहले सदन की बैठक दो बार स्थगित की गयी। एक बार के स्थगन के बाद दोपहर बारह बजे बैठक फिर शुरू होने पर प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक को चर्चा के लिए सदन के पटल पर रखा।


उन्होंने जैसे ही इस विधेयक के बारे में बोलना शुरू किया, सपा सदस्यों ने महंगाई के मुद्दे पर आसन के समक्ष आकर नारेबाजी शुरू कर दी। हंगामे के कारण नारायणसामी की बात सुनी नहीं जा सकी। हंगामे के बीच ही भाजपा के उपनेता रविशंकर प्रसाद ने भी अपने स्थान से उठकर कुछ कहना चाहा लेकिन वह भी अपनी बात नहीं कह पाये। हंगामा थमते न देख उपसभापति ने बैठक को दोपहर ढाई बजे तक के लिए स्थगित कर दिया। (एजेंसी)


करोड़ों का कर्ज लेकिन बेटी की शादी में 500 करोड़ उड़ाए

नवभारतटाइम्स.कॉम | Dec 13, 2013, 01.46PM IST


प्रमोद मित्तल की बेटी की शाही शादी।


नई दिल्ली

जाने-माने धनकुबेर और दुनिया भर में फेमस स्टील टाइकून प्रवासी भारतीय लक्ष्मीनिवास मित्तल के छोटे भाई प्रमोद मित्तल की बेटी की शादी में धन पानी की तरह बहाए गए। प्रमोद मित्तल भले धनकुबेर के छोटे भाई हैं लेकिन इन पर कई भारतीय बैंकों के करोड़ों रुपए कर्ज हैं। प्रमोद और इनके भाई विनोद मित्तल कॉर्पोरेट कर्ज रीस्ट्रक्चरिंग के सहारे खुद को बैंकों के लोन से बचाते रहे हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि इन्होंने डिफॉल्टर होने के बावजूद खबरों के मुताबिक बर्सिलोना में अपनी बेटी सृष्टि की शादी में 60 मिलियन यूरो (करीब 505 करोड़ रुपए) पानी की तरह बहाए।


स्पैनिश न्यूज पोर्टल के मुताबिक इन्वेस्टमेंट बैंकर गुलराज बहल और प्रमोद मित्तल की 26 साल की बेटी सृष्टि मित्तल की शादी दुनिया की पांच महंगी शादियों में से एक है। इस हाई प्रोफाइल शादी में शामिल म्यूनिसपैलटी के एक ऐंप्लॉयी के मुताबिक शादी के दौरान हुए सभी खर्चों को मिला दिया जाए तो करीब 60 यूरो मिलियन खर्च हुए होंगे। फोर्ब्स के मुताबिक इससे पहले अरब के शहजादे मोहम्मद बिन जाएद अल नाहयान और राजकुमारी सलमा ने 1981 में अपनी शादी पर 604 करोड़ खर्च किए थे। 2004 में लक्ष्मी मित्तल ने भी अपनी बेटी की शादी जब भारतीय अरबपति अमित भाटिया से की थी तो 46 मिलियन यूरो चंद दिनों में खर्च किए थे।


जब प्रमोद मित्तल बड़े डिफॉल्टर हैं ऐसे में अपनी बेटी की शादी में धन के अश्लील प्रदर्शन का क्या मतलब हो सकता है? 2010 के अंत में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने प्रमोद को इस्पात इंडस्ट्रीज के लिए 130 करोड़ का लोन दिया था। इस लोन का समायोजन 30 करोड़ में हुआ। ऐसे में बैंकों पर सवाल उठते हैं कि यदि प्रमोद ने पहले के ही लोन नहीं अदा किए हैं तो फ्रेश लोन क्यों दिए गए?


एसबीआई ने इस मामले में आरबीआई के नियमों का भी उल्लंघन किया है। जब इस मामले में मित्तल के इस्पात इंडस्ट्रीज और एसबीआई से कुछ पूछा जाता है तो वे चुप्पी साध लेते हैं। प्रमोद पर कई और बैंकों को करोड़ों बकाए हैं। इसमें आईसीआईसीआई से लेकर कई छोटे बैंक भी हैं। आईसीआईसीआई ने प्रमोद की कंपनी इस्पात इंडस्ट्रीज को जिंदल स्टील में मर्ज कराने की भी कोशिश की ताकि लोन की रकम निकाली जा सके।


बैंकों के 7.25 लाख करोड़ रुपए डूबे!

नवभारत टाइम्स | Dec 5, 2013, 10.12AM IST

नंदकिशोर भारतीय मुंबई: आम आदमी को कई औपचारिकताएं पूरी करने के बाद भी मामूली रकम का लोन मुश्किल से ही मिलता है और कुछ हजार रुपये का लोन न चुका पाने के कारण मजदूर और किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन कॉर्पोरेट सेक्टर देश में 7.25 लाख करोड़ रुपये का लोन चुका नहीं रहा और उसमें से एक बड़ा हिस्सा न चुकाकर हजम कर गया है। सरकार यह जांच तक नहीं कर रही कि इसके लिए कौन दोषी है।


महाराष्ट्र स्टेट बैंक एंप्लॉयीज फेडरेशन (MSBEF) के महासचिव विश्वास उत्गी के अनुसार, इतने सारे लोन का न चुकाने का कारण बैंक के टॉप ऑफिसर्स, कॉर्पोरेट सेक्टर और पॉलिटिशंस का इस गोरखधंधे में शामिल होना है। उन्होंने इस कार्टेल की जांच कराने और दोषियों को सजा देने की मांग की है। इसके लिए देशभर में गुरुवार को 'ऑल इंडिया डे' मनाने की घोषणा की गई है।

फेडरेशन का कहना है कि सरकार को नए बैंक लाइसेंस जारी नहीं करने चाहिए, क्योंकि इनमें से अधिकांश के आवेदन इन्हीं डिफाल्टरों ने किए हैं। फेडरेशन ने इस मामले में उन 5000 बॉरोअर्स की जानकारी छापी है, जिन्होंने 1 करोड़ रुपये से ऊपर का लोन नहीं चुकाया है।


फेडरेशन का कहना है कि सरकार को नए बैंक लाइसेंस जारी नहीं करने चाहिए। क्योंकि, इनमें से अधिकांश के आवेदन इन्हीं डिफॉल्टरों ने किए हैं। फेडरेशन ने इस मामले में उन 5000 बॉरोअर्स की जानकारी छापी है, जिन्होंने 1 करोड़ रुपए से ऊपर का लोन नहीं चुकाया है।


क्या हो रही हैं कोशिशें?


बैड लोंस की रिकवरी के लिए मिलकर कोशिशें की जा रही हैं। रेग्युलेटर, पॉलिसी मेकर्स, बैंक और बॉरोअर्स को एक साथ काम करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। लोन प्रपोजलों की सख्ती से जांच की जा रही है, ताकि उनकी वसूली हो सके। उनका इवैल्युएशन एक्सपर्ट्स करते हैं। सभी स्तर पर अकाउंटेबिलिटी तय की जा रही है। -के.सी. चक्रवर्ती, डेप्युटी गवर्नर, भारतीय रिजर्व बैंक


बैंक बढ़ते हुए एनपीए से काफी चिंतित हैं। इसकी वसूली के लिए वे भरसक प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हर बैंक के लिए एनपीए की समस्या अलग-अलग है और इसके लिए उपाय भी अलग हैं। डिफॉल्टरों के फोटो पब्लिश कराने का कदम काफी कारगर हो रहा है। हालांकि बॉरोअर्स ने इसका काफी विरोध किया। -के.आर. कामथ, सीएमडी, पंजाब नैशनल बैंक


NPA अब बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपए

मुंबई प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विश्वास उत्गी ने बताया कि बैंकों द्वारा अनेक उपाय करने के बावजूद डूबते कर्जों (NPA) का साइज बढ़ा है। 2008 में NPA केवल 39,000 करोड़ रुपये था, जो अब बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपये हो गया है। उनका कहना था कि लोन या डेट रिस्ट्रक्चरिंग भी एक तरह से एनपीए ही है।


उसे भी जोड़कर यह रकम 5.25 लाख करोड़ रुपये हो जाती है। रिस्ट्रक्चरिंग में बॉरोअर को ब्याज की अदायगी से पूरी छूट या रियायत, लोन चुकाने की मोहलत में छूट दी जाती है और कई बार कर्ज की मूल रकम को ही कम कर दिया जाता है। यह हाल केवल सरकारी बैंकों का है।


विदेशी बैंक, सहकारी और प्राइवेट बैंक भी करतूत में पीछे नहीं है। इसमें उनका हिस्सा करीब 2.50 लाख करोड़ रुपये का है। इस तरह कुल 7.25,000 करोड़ रुपये एनपीए है।


बढ़ती महंगाई के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदारः चिदंबरम

चिदंबरम ने कहा, महंगाई के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार।


इकनॉमिक टाइम्स | Dec 12, 2013, 12.56PM IST

ईटी ब्यूरो, नई दिल्ली फाइनैंस मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने अब बढ़ते इन्फ्लेशन के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारों ने महंगाई को काबू में करने के लिए कदम नहीं उठाए। चिदंबरम का कहना था कि राजनीतिक अवसरवाद की वजह से केंद्र सरकार रिफॉर्म अजेंडे पर आगे नहीं बढ़ पाई। आसमान छूती कीमतों के कारण कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हालिया विधानसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा है।


साथ ही, अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले चीजें दुरुस्त करने के लिए भी सरकार के पास काफी कम वक्त बचा है। चिदंबरम ने कहा कि राज्य सरकारों ने मुनाफाखोरों और जमाखोरों पर सख्त कार्रवाई नहीं की, जिससे महंगाई पर काबू पाना मुश्किल हो गया। उन्होंने बताया, 'मुझे लगता है कि इस मामले में राज्य सरकारों की ढिलाई के बारे में बताना जरूरी है। साथ ही केंद्र सरकार को महंगाई रोकने के लिए अपने अधिकारों के भीतर हरसंभव कदम उठाने पड़ेंगे। यह बात सबको पता है कि मौजूदा सरकार को ऊंची महंगाई दर की कीमत चुकानी पड़ेगी।'


अक्टूबर में कंज्यूमर प्राइस इन्फ्लेशन 10.09 फीसदी रहा, जबकि होलसेल इन्फ्लेशन 8 महीने के हाई लेवल यानी 7 फीसदी पर पहुंच गया। प्याज समेत तमाम सब्जियों की कीमत में तेजी के कारण अक्टूबर में फूड इन्फ्लेशन बढ़कर 12.56 फीसदी पर पहुंच गया। हालांकि, फाइनैंस मिनिस्टर ने इन्फ्लेशन को रोकने के लिए अनाजों के सपोर्ट प्राइस या यूपीए की फ्लैगशिप ग्रामीण रोजगार स्कीमों में कमी से इनकार किया।


उन्होंने कहा कि इन चीजों में कटौती करना सही नहीं है। फाइनैंस मिनिस्टर ने कहा कि महंगाई रोकने के लिए सरकार हरसंभव कोशिश करेगी। उनके मुताबिक, फूड प्राइस को काबू में करने में आरबीआई की मॉनिटरी पॉलिसी कारगर नहीं है। चिदंबरम का कहना था कि सरकार फिस्कल कंसॉलिडेशन से पीछे नहीं हट सकती। उन्होंने कहा, 'फिस्कल कंसॉलिडेशन मामले में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। जब तक हम फाइनैंशल ईयर 2016-17 में 3 फीसदी फिस्कल डेफिसिट (जीडीपी का) के टारगेट पर पहुंच नहीं जाते, तब तक हर साल इसमें धीरे-धीरे कटौती करेंगे।'


उन्होंने कहा कि राजनीतिक अवसरवादिता के कारण फाइनैंशल सेक्टर रिफॉर्म को गहरा झटका लगा है। इस वजह से गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स, डायरेक्ट टैक्स कोड, इंश्योरेंस लॉज संशोधन बिल और यूनिफॉर्म फाइनैंशल कोड जैसे बिल अटके पड़े हैं। उन्होंने कहा, 'इन सब मामलों में आम सहमति बनाने की जरूरत है। मेरा अनुभव रहा है कि कई महीने की कड़ी मेहनत के बाद सहमति बनती है और राजनीतिक अवसरवादिता का मामला सामने आता ही यह सहमति खत्म हो जाती है।' फाइनैंस मिनिस्टर ने कहा कि अगले 5 साल के लिए तेज और इनक्लूसिव ग्रोथ का अजेंडा बना रहेगा। उनके मुताबिक, इस स्ट्रैटिजी से देश में गरीबों की संख्या कम करने में काफी मदद मिली।


Sundeep Nayyar via जनचेतना Janchetna

क्यों माओवाद?

janchetnabooks.org

माओवाद संज्ञा पर विचार का प्रश्न मूलतः इस बिन्दु पर विचार का प्रश्न है कि माओ के मार्गदर्शन व नेतृत्व में सर्वहारा क्रान्ति का जो अग्रतम मील का पत्थर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के रूप में क़ायम हुआ, क्या उसकी शिक्षाओं को नकारकर भी कोई पार्टी समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ा सकती है और पूँजीवादी प...

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Bharatmuktimorcha Bhiwandi shared Rajesh Rathi Hisar's photo.

टॉयलेट क्लीनर पेप्सी और कोका-कोला विक्रेता, बूस्ट विक्रेता, एडीडस जूते विक्रेता, Fiat Palio विक्रेता, Canon कैमरा विक्रेता, Reynolds पेन विक्रेता, Toshiba के उत्पाद विक्रेता और कोलगेट विक्रेता को खान्ग्रेस ने "भारतरत्न" से सम्मानित करने का फैसला किया है ... कहीं यह देश के सर्वोच्च पुरष्कार का बाजारीकरण तो नही है जो इस कॉर्पोरेटरत्न / विज्ञापनरत्न को ये दिया जा रहा है ??????????????? सचिन द्वारा विदेशी कंपनियों का विज्ञापन करने की वजह से करोड़ो हातों से रोजगार छिन गया और वे भिखारी हो गए | इसकी वजह से स्वदेशी शरबत, फलो का रस, जूते चप्पल, कपड़े, खाद्य पदार्थ आदि बनाने वाले गृह उद्योग नष्ट हो गए | इसके विज्ञापनों से युवाओं में स्वदेशी प्रेम नष्ट हो गया और वे इसको देख कर विदेशी वस्तुओं का उपभोग करने वाले काले अंग्रेज बन गए |

Himanshu Kumar

आज सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी की ज़मानत याचिका पर सुनवाई का दिन था . सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी स्वयम सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे थे .


सुनवाई परसों यानि बृहस्पतिवार तक के लिए बढ़ा दी गयी है . लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी की अंतरिम ज़मानत इस सुनवाई के दौरान स्वयम आगे बढ़ती जायेगी .


ज़मानत की इस याचिका पर अंतिम फैसला आने के बाद इन्हें विधिवत ज़मानत प्राप्त हो जायेगी जिसके बाद सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी छत्तीसगढ़ जाने के लिए स्वतंत्र होंगे .


सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी अपने अधिवक्ता प्रशांत भूषण के साथ .

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Dalits Media Watch

News Updates 13.12.13

Manifesto: Rahul Gandhi to meet Dalit organisations, NGOs for Lok Sabha elections-Daily Bhaskar

http://daily.bhaskar.com/article/DEL-manifesto-rahul-gandhi-to-meet-dalit-organisations-ngos-for-lok-sabha-elections-4462782-NOR.html

Industry steps to employ SC/ST candidates- Daiji World

http://www.daijiworld.com/news/news_disp.asp?n_id=206788

Two persons arrested- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/two-persons-arrested/article5454262.ece

Mandela likened to Ambedkar- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/mandela-likened-to-ambedkar/article5450000.ece

Daily Bhaskar

Manifesto: Rahul Gandhi to meet Dalit organisations, NGOs for Lok Sabha elections

http://daily.bhaskar.com/article/DEL-manifesto-rahul-gandhi-to-meet-dalit-organisations-ngos-for-lok-sabha-elections-4462782-NOR.html

New Delhi:  With a motive to ncorporate the aspirations of Dalits in the Congress manifesto for next general elections, Rahul Gandhi is going to meet representatives of over 100 Scheduled Caste organisations and NGOs from all over the country here on Friday.

"The entire exercise is to get an insight of what should go into our manifesto from people who are really working at the grassroot level. There are representatives from more than 100 organisations," Chairman of AICC SC department K Raju said.

Gandhi is seeking to reach out to diverse sections of the society to incorporate their views and demands in the party's manifesto for the Lok Sabha polls.

The party's manifesto website says, "We invite every citizen of India to give us your ideas and suggestions for the 2014 Lok Sabha Election Manifesto of the Congress Party. The Congress is the first party to open up its national manifesto building process to the general public.

It also assures people that all the ideas and suggestions provided will be presented to the national leadership of Congress and duly considered for inclusion in the manifesto and it is their voice that will build the poll document.

In the second meeting of Congress' manifesto committee, headed by Union Minister A K Antony in October, Gandhi had told the leaders that suggestions from the people should be incorporated and there is a need to look at the issues seriously.

(With inputs from PTI)

Daiji World

Industry steps to employ SC/ST candidates

http://www.daijiworld.com/news/news_disp.asp?n_id=206788

New Delhi, Dec 12 (IANS): Industry bodies have taken a slew of steps to provide Scheduled Caste (SC) and Scheduled Tribe (ST) candidates job opportunities in the private sector, the Rajya Sabha was informedThursday.

The steps taken by the Confederation of Indian Industries (CII) include setting up an affirmative action council which has identified employability, entrepreneurship, education and employment as its core areas of work, Minister of State for Social Justice and Empowerment Manikrao Hodlya Gavit said in a written reply.

The CII has also trained 1,26,032 candidates from Scheduled Castes and Scheduled Tribes in various vocational skills and begun midday meal programmes for them in backward districts of the country.

The Associated Chamber of Commerce and Industries has imparted skill upgradation training to 1,519 SC, ST students and provided 100 scholarships to them for studying in premier institutions.

The government had set up a coordination committee under the chairmanship of the principal secretary to the prime minister in 2006 to carry forward the dialogue with industry on affirmative action, including reservation for SC/STs in the private sector, the minister said.

The coordination committee is serviced by the department of industrial policy and promotion. It has been holding meetings with the chambers from time to time.

The Hindu

Two persons arrested

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/two-persons-arrested/article5454262.ece

The Coimbatore District Rural Police have booked four persons under the Scheduled Castes and Scheduled Tribes Prevention of Atrocities (POA) Act, 1989.

According to the police, Murugan (40), who belongs to a Scheduled Caste community, was allegedly abused by Nagamani, Vinoth Kumar (23), A. Palanisamy (50) and P. Ponnusamy (24), on Tuesday at a tea shop.

The Annur Police invoked Sections 294 (b) (uttering obscene words, in public places) and 323 (voluntarily causing hurt) of the Indian Penal Code read with Section 3 (1)(X) of the SC/ST Act against them.

Vinoth Kumar and Ponnusamy were arrested.

The Hindu

Mandela likened to Ambedkar

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/mandela-likened-to-ambedkar/article5450000.ece

Likening Nelson Mandela to Ambedkar, Social Welfare Minister H. Anjaneya has said that they should both be seen as role models for bringing about social justice.

If one fought against racial discrimination, the other battled against caste oppression he said, at a condolence meeting for Nelson Mandela organised by the Social Welfare Department, Dalit organisations and the Gandhi Bhavan here on Wednesday.

While the South African anti-apartheid icon was a "fighter", and spent 27 years in prison, he also realised that it wasn't the struggle alone, but the ability to negotiate, that won the war. Mandela symbolises both struggle and reconciliation, Mr. Anjaneya said.

India needs "a second freedom movement" to fight against inequalities in several forms, he said. The Karnataka Scheduled Castes Sub-Plan and Tribal Sub-Plan (Planning, allocation and utilisation of Financial Resources) Bill 2013 was a "great opportunity" to address some of these inequalities, he added.

Chairman of Gandhi Bhavan H. Srinivasaiah said that Mandela came out a "Gandhian" after 27 years of imprisonment. "He saw Gandhi as the father of the nation and also as a world leader."

Chief Minister Siddaramaiah paid his tribute.

News Monitor by Girish Pant


.Arun Khote

On behalf of

Dalits Media Watch Team

(An initiative of "Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC")


Pl visit on FACEBOOK : https://www.facebook.com/DalitsMediaWatch

...................................................................

Peoples Media Advocacy & Resource Centre- PMARC has been initiated with the support from group of senior journalists, social activists, academics and  intellectuals from Dalit and civil society to advocate and facilitate Dalits issues in the mainstream media. To create proper & adequate space with the Dalit perspective in the mainstream media national/ International on Dalit issues is primary objective of the PMARC.



Global Day of Rage: NO GOING BACK!


Sunday 15th December | 3 pm onwards | Jantar Mantar, New Delhi

For all events please click herehttp://orinam.net/377/377-events/

On December 11th, 2013, The Supreme Court of India reinstated the Criminality of Homosexuality in India. This Judgment has inspired anger across different sections of society around the world. While the legal battle continues, it is important that we make our voices heard. Loud and Clear.


This Judgment is not about any one community in any one country but about the hegemonic structures that oppress many across the world. It is a blow to the various other LGBTIQ communities across the world who might have ...taken strength from the Indian story to challenge laws/social norms/prejudices that criminalise homosexuality in their own countries. It is time we begin to heal this lasting scar of colonialism. It is time we are given the space and freedom to pursue the work of fundamental social change which is made impossible with a law such as Sec. 377 of the Indian Penal Code choking us.


Gather your friends, lovers and anyone else who is enraged by this injustice. Make your voices heard.

Events are happening in many cities across the world! Organise one in yours or join one that is happening!

For more details:

Global Day of Rage, Delhi: www.facebook.com/events/168797849996585

Global Day of Rage, World-wide: www.facebook.com/events/168797849996585


Two -day National Consultation

on " Agrarian  Reforms And Land Rights"

December 16-17, New Delhi

Land rights and agrarian reform are two fundamental issues that have been at the centre of peoples' struggles working for safeguarding peoples' livelihood and self-governance over livelihood resources. The concept of access and ownership of people over natural resources has been fundamentally and constitutionally challenged under the neo-liberal trend by replacing the notion of 'common goods' such as land and other natural resources fauna, flora, water, air into 'private goods'. Important to mention that conversion of a virtuous source as 'land' into freely tradable commodity is not only against nature but also against natural justice and natural rights of the toiling people and specially of the landless and poor cultivator peasants and primary producers. Further, it has also negatively affect the labour rights of the labour force engaged in the agrarian sector. This has not only negated peoples' natural and inalienable rights over natural resources but also increased the concerns over critical agrarian issues and precisely on the issue of self reliance on food sovereignty. The process of mass-conversion of agricultural land for non-agricultural purposes and massive land acquisition for PPPs under speedy national investment board is one such example of states' responses to the issue. There is also a new Act which facilitates the corporate to control the natural resources even after the years of struggles to repeal the Land Acquisition Act 1894. While there has been a clear negation of demands by various peoples' movements struggling at various fronts and even parliamentary standing committee recommendations probing a more vetoed power under the concept of eminent domain.

Furthermore, there has been obvious change in the 'rationale of production' in agrarian sector that has also determined the land use policy, alienating 'commons' from the 'right to grow' and converting them in a form of producers for  markets as modeled under neo-liberal policies.

Therefore, a concrete and collective addressal of land rights and agrarian reform is important to emphasis the rights of 'commons' on natural resources and 'rationale of rights of primary produces'.

Under this background, we invite you to a two-day national consultation 16-17th Dec. 2013 on 'Land Rights and Agrarian reform' to share and discuss the thoughts, understandings and strategize for the way ahead on the issue. Details of the two-day consultation are as given below:

Date & venue of the consultation:

16th Dec at Constitution Club; Rafi Marg, New Delhi

Time: 9:30 am to 6:00 pm

17th Dec at Indian Social Institute (ISI); Lodi Road, New Delhi

Time: 9:30 am to 6:00 pm

Looking forward to your participation & support!

Pl find the attached concept note.

Organized by:

National Alliance of People's Movement (NAPM), Society for Rural Urban and Tribal Initiative (SRUTI), Delhi Solidarity Group, INSAF and All India Union of Forest Working People (AIUFWP)


’ लन्दन जैसा मुझे लगा Tara Chandra Tripathi

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  • लन्दन जैसा मुझे लगा

    नव विकसित कैनैरी वार्फ उपनगर जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़ कर, लन्दन में गगनचुंबी भवनों का अधिक प्रकोप नहीं है। जो हैं भी वे महा-व्यावसायिक भवन हैं। अधिकतर आवासीय भवन दो तलों से लेकर चार तलों वाले हैं। सभी भवनों में भूमिगत तल हैं। उनके निर्माण में हवा और प्रकाश की सुलभता का विशेष ध्यान रखा गया है। प्रमुख पथों के दोनों ओर के भवनों में भूतल पर दूकानें रेस्तराँ और विशाल पण्यगृह हैं, लेकिन इन सड़कों से निकलने वाले सहायक पथों पर दूकानों का सर्वथा अभाव है। सभी आवासीय भवनों के प्रवेश.द्वार प्रायः उपपथों की ओर ही खुलते हैं। भवन शीतरोधी हैं। अमरीका में तो शीतरोधिता के लिए दीवारों के भीतर फोम की परत का अवलेपन दिखाई दिया था, संभव है यहाँ भी कोई ऐसी ही तकनीक अपनाई जाती होगी। 

    यह महानगर अभी अपनी उन्नीसवीं शताब्दी की पृष्ठभूमि से पूरी तरह नहीं उबर पाया है। उसके अधिकतर भवन उन्नीसवीं शताब्दी में निर्मित हैं। उनमें अभिजातीय, प्रशासकीय और धार्मिक भवनों में पत्थर का और सामान्य आवासीय भवनों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग हुआ है। अधिकतर भवन प्रायः तीन या चार तल वाले हैं। भवनों में स्थापत्य की बाहरी शैली पर जितना ध्यान दिया गया है, उतना उनके भीतर स्थान की उपलब्धि पर नहीं दिया गया है। 

    अधिकतर आवास परंपरागत शैली में निर्मित हैं फलतः उनमें वे सुविधाएँ नहीं है, जो तोक्यो के आवासों में हैं। यहाँ पंचतलीय आवासीय भवनों में भी लिफ्ट का होना आवश्यक नहीं है। तोक्यो में तो शौचालय भी स्वचालित थे। आगंतुक को द्वार पर देखते ही एयर इंडिया के महाराजा की भंगिमा में आ जाते थे। बस आगंतुक के इशारा करने की देर होती थी। रिक्त होने के अलावा उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ यह सब नहीं है। ठंड के कारण शौचालय के फर्श भी आच्छादित है। बूँदाबाँदी का भी निषेध है। फिर हम लोग, जिनके पाप केवल जल से धुलते रहे हों, बड़ी उलझन में रहते हैं। दिल है कि पोछ-पाछ से मानता ही नहीं।

    हमारा आवास ग्रीनविच में है। आवास के सामने ग्रीनविच विश्वविद्यालय, बगल में ब्रिटेन की रानी का ऐतिहासिक भवन और जलपोत संग्रहालय, पीछे रायल वेधशाला तथा द्रुमावलियों से परिवेष्टित हरा-भरा विशाल उद्यान । सद्यस्नात सी प्रशस्त हरीतिमा को देख कर लगता है कि कहीं यह नाम अंग्रेजी के 'ग्रीन'और पंजाबी के 'बिच'शब्द के संयोग से तो नहीं बना है? 'हरियाली के बीच बसा नगर'। अंग्रेजी में विच का अर्थ 'उपनगर'भी है तो क्या? कमी है तो केवल इतनी कि, पड़ोस में बतियाने के लिए कोई नहीं है। सब के सब ठङ्-ठङ् गौर भैरव हैं। कहीं मिल गये तो 'हाय'के अलावा कोई दूसरा बोल नहीं फूटता।

    आवागमन के साधनों का यहाँ प्राचुर्य है। दो मंजिली और आरामदेह बसें रात-दिन सुलभ हैं। सड़कों पर उनके लिए निर्धारित वीथिका को प्रायः लाल रंग से रंजित किया गया है। उस पर किसी अन्य वाहन को ठहरने की अनुमति नहीं है। ऐसा करने पर एक सौ बीस पाउंड का अर्थ-दंड निर्धारित है। सड़कों पर यातायात को नियंत्रित करने के लिए क्लोज सर्किट कैमरे लगे हुए हैं। साइकिलों का भी बहुत चलन है। उनके लिए सड़कों के किनारे अलग से रेखांकित हैं। प्रायः उन्हें हरे रंग से रंजित किया गया है। नौकायन के लिए नगर के बीचों-बीच, गंदगी में गंगा की छोटी बहिन सी, टेम्स नदी भी प्रवहमान है। मनमौजी लोगों के लिए यह भी आवागमन का एक वैकल्पिक साधन है।
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    अगर लन्दन देखना हो तो पैदल चलिए। यह मेरा सुझाव नहीं है, लन्दन के पर्यटन विभाग का है। बस के भीतर बैठ कर कितना देख पायेंगे? देखने को बहुत है। स्थापत्य की नाना शैलियाँ, सहेज कर रखे गये रचनाकारों और वैज्ञानिकों के कार्यस्थल, सुविस्तृत पार्क और भी न मालूम क्या.क्या? न वाहनों से निकलता धुआँ, न धूल। सड़कों के किनारे लगे पेड़ भी ऐसे दिखते हैं जैसे अभी-अभी नहा कर निकले हों। हर सड़क के किनारों पर पैदल चलने के लिए धूप-छाँव वाले चौरस पथ। सबसे बढ़ कर, अपने देश में दुर्लभ, वाहन-चालकों द्वारा पदयात्रियों को 'पहले आप'का संकेत देने परंपरा।

    पूर्णतः निरभ्र आकाश की तो यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभी धूप खिली थी, लोगों को बाहर निकलता देख कहाँ से आकर बादल बरस पडे़, पारा लुढ़क कर 24 सेंटीग्रेड से 13 सेंटीग्रेड पर आ गया। देवियाँ हैं कि न निकलना छोड़ती हैं और न उन्हें वेशान्तरण का ही अनुभव होता है। कहते हैं कि पिछली शताब्दी में ब्रिटिश अधिकारियों के साथ तिब्बत गये ब्राह्मणों ने वहाँ भी केवल धोती पहन कर अपने लिए भोजन बनाया था। पहले आश्चर्य होता था। अब नहीं होता। इतनी शीत में भी जंघाओं तक निर्वस्त्र, कंचुकी कौपीनावशेष महाश्वेताओें के इन्द्रियनिग्रह के सामने वह कोई बड़ी बात नहीं लगती। अलबत्ता श्यामाओं में यह प्रवृत्ति कम है तो महाश्यामाओं में बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती। 
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    लोग कहते हैं कि लन्दन यूरोप में सर्वाधिक प्रदूषित महानगर है। पर मुझे यह बहुत साफ-सुथरा लगता हैं। मैं उस देश से आया हूँ जिसकी राजधानी विश्व के दस सर्वाधिक प्रदूषित महानगरों में है। मैं उस नगर से आया हूँ, जहाँ नगर के बीच से प्रवाहित होती नहर के ढके जाने की योजना से उसके किनारे रहने वाले लोग अपने घर के कूड़े के निस्तारण की चिन्ता से ग्रस्त हैं। जहाँ हर मुहल्ले में खाली पड़ी भूमि कूड़ेदान में बदल रही है। सन्निवेशों के अनियोजित विकास के कारण हरियाली सिमटती जा रही है। जहाँ मुहल्लों की पहचान उनके गली नंबर से होने लगी है। मेरा नगर अकेला नहीं है। मेरे देश के सब नगरों की वही दशा है। वे नगर जहाँ गलियों में पक्के मकानों के बन जाने के बाद उनको चैड़ी सड़कों में बदलने की योजना बनती है। भूमि का एक इंच भी खाली न रहने के बाद मानचित्रों में विशाल पार्कों का अंकन किया जाता है। अतिक्रमणकारियों पर कार्यवाही से पहले उनकी जाति, संप्रदाय और पहुँच देखी जाती है। अपनी सीमा में बने घरौंदों पर बुल्डोजर तो चलते हैं पर सीमा का अतिक्रमण करने वाली विशाल अट्टालिकाएँ प्रशासन की नपुंसकता पर हँसती रहती हैं। 
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    उपभोक्तावाद और प्रदूषण का चोली-दामन का संबंध है। जितना ही उपभोक्तावाद बढ़ेगा, उतना ही प्रदूषण बढ़ेगा। फिर आधुनिक सभ्यता तो एक से एक आरामदायक वाहनों, फ्रिजों, वातानुकूलक संयत्रों और आधुनिकतम दूर संचार के साधनों और प्लास्टिक की सभ्यता है। एक ओजोन परत की चीर-फाड़ कर रहा है तो दूसरे के कारण जल और थल दोनों की दुर्दशा हो रही है। दोनों प्रदूषकों की जितनी खपत इन विकसित देशों में है, उतनी खपत अविकसित देशो में नहीं है । इतना अवश्य है कि प्लास्टिक के असीमित उपयोग के होते हुए भी उसके अपशिष्ट के समुचित पुनर्चक्रण और निक्षेपण के कारण इन देशों में प्लास्टिक से प्रत्यक्षतः उतने लोग और पशु नहीं मरते जितने विकासशील देशों में मरते हैं।

    सम्पन्नता में वृद्धि, संसाधनों की सहज उपलब्धता, व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए बैंकों से खुले हाथ मिलता ऋण, नगरों का सम्मोहन और जागरूकता का अभाव, विश्व में पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य कारक हैं। लन्दन भी इनसे अछूता नहीं है। सुविधा जनक नगर बसों के रात.दिन उपलब्ध होते हुए भी यहाँ सड़कों पर निजी वाहनों की भीड़ बढ़ती जा रही है। चाहे प्रत्यक्ष में सब कुछ साफ-सुथरा दिखे, अदृश्य प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण यहाँ हर साल लगभग पाँच हजार लोगों की अकाल मृत्यु होती है। हमारे देश की तरह भले ही यहाँ सड़कों पर वाहनों की चिल्ल-पौं एक अपवाद हो, लेकिन कारों, जनवाहनों और दानवाकार ट्रकों की संख्या में अनवरत वृद्धि, और 'जिस गली में पार्किंग न हो बालमा, उस गली में मुझे पाँव रखना नहीं'की बढ़ती प्रवृत्ति, तज्जन्य, घर्षण, कंपन और प्रदूषण पारिस्थितिकी पर निरंतर प्रतिकूल प्रभाव डालते रहते हैं।

    वर्तमान में नये मानकों के हिसाब से नगर का अनवरत कायाकल्प करने के प्रयासों के बाद भी आव्रजकों, विश्व के व्यवसायियों और पर्यटकों के दबाव के सामने ये प्रयास अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। नगर के केन्द्रीय भाग में स्थित आवासीय भवन होटलों में रूपान्तरित होते जा रहे हैं। भूमि का मूल्य असाधारण गति से बढ़ता जा रहा है। बाहरी लन्दन में जिस आवासीय भवन का मूल्य पाँच लाख पाउंड है, केन्द्रीय लन्दन में वह पचास लाख पाउंड में भी उपलब्ध नहीं है। लोग लन्दन नगर से महालन्दन की ओर यहाँ तक कि उससे भी दूर ग्रामीण क्षेत्रों की ओर संक्रमित हो रहे हैं ताकि उन्हें खुला और स्वच्छ प्राकृतिक परिवेश मिल सके। 

    एक अनुमान के अनुसार लन्दन के मुख्य भाग में रहने वाले नागरिकों की कुल संख्या दस हजार के लगभग है। किन्तु कार्यालयों और वित्तीय संस्थाओं की बहुलता के कारण यहाँ लगभग साढ़े तीन लाख लोग कार्यरत हैं। ये लोग लन्दन के बाहरी भागों से और कुछ दूर के क्षेत्रों से भी नित्य नगर में प्रवेश करते हैं। फलतः कार्यालयों के समय पर न पैदल परिपथों में जगह बचती है और वाहनों में। बसों और उपनगरीय ट्रेनों में भीड़ कम होने की प्रतीक्षा में लोगों का बहुत बड़ा समूह शाम को बियर-बारों के द्वार पर खड़ा दिखता है। यह स्थिति तब है जब बहुत सी लाइनों पर प्रति मिनट एक ट्रेन की आवृत्ति है।

    लन्दन न्यूयार्क की तरह ही विश्व का आर्थिक बाजार भी है। एक सूचना के अनुसार अकेले लन्दन शहर में 486 ओवरसीज बैंक और महत्वपूर्ण व्यापारिक और शासकीय प्रतिष्ठान हैं। फिर यह देश अशरण-शरण तो रहा ही है। जो अपने घर से नाराज हुआ, जिसे रोजी-रोटी की परेशानी हुई अथवा जिसे राज्य से संकट का भान हुआ, उसने 'लन्दनं शरणं गच्छामि'का राग अलापना आरंभ कर दिया। फिर दो सौ साल जिन पर राज किया है, उनके लगाव को भी तो झेलना ही है। यही कारण है कि महालन्दन की कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग इन्हीं शरणागतों का है। फिर उनके आने-जाने वाले, परदेशी व्यवसायी, 'नगर दिखाइ तुरत ले आवहुँ'वाले पर्यटन व्यवसायी और उनके अतिथियों का बढ़ता हुआ दल-बल। 

    पर्यटन, रोजगार और समृद्धि तो देता है पर सिरदर्द का कारण भी बनता ही है। जैसे हमारा नैनीताल। जब तक केवल ग्रीष्म और शरद तक ही पर्यटन सीमित था, सीजन के बाद आवास सुलभ हो जाते थे। जब से पर्यटन का बारहमासा आरंभ हुआ, आवास होटलों में बदलने लगे। अब न तो स्थानीयों के लिए जगह बची है न छात्रों के लिए। कर्मचारी भीमताल, ज्योलीकोट और हल्द्वानी से आवागमन करने को विवश हो गये। कच्चे पहाड़ पर वाहनों की रेलपेल आरंभ हो गयी। पिछली शताब्दी के सातवें दशक तक का खुला-खुला नैनीताल, भीड़ भरा कस्बा मात्र रह गया। यही स्थिति इस महानगर की भी होती जा रही है।

    कभी-कभी ब्रिटिश पुस्तकालय से पैदल ही लन्दन ब्रिज तक निकल पड़ता हूँ। यहाँ से चार कि.मी. दूर टेम्स के सहस्राब्दि सेतु तक मुझे नैनीताल की मालरोड दिखाई देने लगती है। होटल ही होटल एक से एक विशाल, रेस्तराँ ही रेस्तराँ, मदिरालय ही मदिरालय, बीच-बीच में पर्यटकों के काम की दूकानें, व्यूटीपार्लर, थिएटर, और परदों और लोहे के फ्रेमों में जकड़े होटलों में बदलते आवासीय भवन। पर्यटकों से भरी खुली छत वाली बसें, व्यस्त सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करने के लिए निर्धारित कंजेशन चार्ज के बावजूद अधिकतर सड़कों पर जाम, रैंगते हुए वाहन, असहाय प्रशासन.... यह केन्द्रीय लन्दन है।

    दूसरी ओर पर्यटन के बढ़ते जाने के कारण यहाँ सामान्य कोटि के रोजगार निरंतर बढ़ रहे हैं । ऐसे रोजगार, जिनमें गौरांग युवकों की अभिरुचि नहीं है। दूकानों में चले जाइये, मालिक भले ही अंग्रेज हो, सेवक सब काले, पीले और साँवले ही दिखाई देते हैं। यदि संयोग से कोई गौर दिखाई भी दे तो ब्रिटेन का नहीं, यूरोप के किसी और देश का प्रवासी निकलता है। अधिकतर रेस्तराँ और सामान्य दूकानें प्रवासियों की हैं। बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था के कारण युवा पीढ़ी में कठिन विषयों के अध्ययन के प्रति अभिरुचि घट रही है। फलतः अधिक बौद्धिक क्षमता और कार्य.कुशलता वाले अवसर भी प्रवासियों के लिए खुलते जा रहे हैं। 

    लन्दन बहुप्रजातीय और बहुभाषायी नगर है। प्रत्यक्षतः प्रजातीय भेदभाव नहीं दिखाई देता। लेकिन बार-बार अनुभव होता है कि यह सबका होते हुए भी किसी का नहीं है। यहाँ थोड़ा-बहुत वह सब होता है जिसे हम अपने देश में देखते हैं। ब्रिटिश पुस्तकालय के वाचनालय के बाहर एक सूचना पट्ट पर लिखा है, यहाँ आपका बैग चुराया जा सकता है। उसे अपनी सीट पर या अमानती सामान कक्ष में रखें। ग्रीनविच विश्वविद्यालय के सामने की सड़क के किनारे एक सूचना पटृ पर लिखा है 'पटालों के चुरा लिए जाने के कारण यहाँ फिलहाल कोलतार किया गया है। टैक्सी-स्टैंड पर टैक्सी लेने वालों को सावधान करते हुए अंकित किया गया है कि यह देख लें कि टैक्सी अवैध तो नहीं है। सवार होने से पहले उसका नंबर और पुलिस का नंबर भी नोट कर लें। अन्यथा आप 'कौन दिशा को ले चला रे बटोहिया'गाते रह जायेंगे। कई बार मैट्रो स्टेशनों पर नशेड़ी युवकों द्वारा बसों और ट्रेनों में उत्पात मचाने और यातायात पुलिस द्वारा ऐसे प्रकरणों में जन-सहयोग के अनुरोध के विज्ञापन भी दिखाई देते हैं। ट्रेनों में सीटों के नीचे केले के छिलके और बची-खुची भोजन सामग्री भी दिखाई दे जाती है। राह चलते, जनाकीर्ण स्थानों पर भी निर्द्वन्द्व भाव से धूम्रपान करते हुए लोगों के दर्शन होते रहते हैं। इनमें भी धूम्रपायिनी देवियों की संख्या सर्वाधिक है। मैंने कई बार भूमिगत ट्रेनों में भी महिलाओं को हौले से सिगरेट की कश लगाते हुए देखा है । 

    सड़कों के किनारे यदा-कदा टोपी फैलाए भिखारी भी दिख जाते हैं। देवियों के कंठहार और आप की जेब का भार कम करने के लिए उत्सुक समाज-सेवियों से सावधान रहने के संकेत भी हैं। भारत के नगरों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित होने पर भी लन्दन तोक्यो की तरह सुरक्षित नहीं है। फिर भी यहाँ जो लगभग अचूक व्यवस्था दिखायी देती है, उससे लगता है कि अपने देश की तरह यहाँ न तो नेतागिरी का प्रकोप है और न प्रशासनिक कार्यवाही में कोई हस्तक्षेप और भेदभाव। कहीं भी चले जाइये, अदृश्य आँखों से आप ओझल नहीं हो सकते। भला ऐसे में अनुशासनहीनता पनपे तो कैसे। इतनी निगरानी होते हुए भी घर और कृष्णमंदिर में समत्व वाले जन अपना दायित्व निभाने का अवसर खोज ही लेते हैं। सच तो यह है कि बहुजातीय समाजों में अपनी भूमि के प्रति उतनी निष्ठा नहीं होती, जितनी एक जातीय समाजों में होती है।
    क्रमश: (मेरी पुस्तक महाद्वीपों के आर-पार का एक अंश)
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Fwd: दलित आंदोलन के बुनियादी सिद्धांत - एक नजरिया

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From: reyaz-ul-haque<beingred@gmail.com>
Date: 2013/12/16
Subject: दलित आंदोलन के बुनियादी सिद्धांत - एक नजरिया
To: alok putul <alokputul@gmail.com>


जरूरत है एक ऐसे मजबूत दलित आंदोलन की जो ब्राह्मणवाद के अवशेषों से लड़ते हुए दूसरी सभी जातियों के मेहनतकश और शोषित वर्गों को भी साथ ले सके। दूसरी तरफ जरूरत है एक ऐसे कम्युनिस्ट आंदोलन की जो वर्गीय संघर्ष में सामाजिक व सांस्कृतिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष को शामिल करे। शोषण की दोनों ही धुरियों के खिलाफ एक साथ संघर्ष की आवश्यकता है। सबसे ज्यादा शोषित होने के कारण दलितों को इन दोनों तरह के संघर्षों में अगुवा होना पड़ेगा।

आनंद तेलतुंबड़े का एक जरूरी लेख

कारपोरेट अश्वमेध अभियान में सर्वत्र स्त्री ही निशाने पर है और नस्ली भेदभाव,जाति व्यवस्था और लिंग वैषम्य का समीकरण एकाकार! स्त्री न सिर्फ सबसे संवेदनशील है, न केवल सबसे सक्रिय है, वह सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध,सबसे ज्यादा सामाजिक और सबसे ज्यादा जुझारु है! पलाश विश्वास

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कारपोरेट अश्वमेध अभियान में सर्वत्र स्त्री ही निशाने पर है और नस्ली भेदभाव,जाति व्यवस्था और लिंग वैषम्य का समीकरण एकाकार!

स्त्री न सिर्फ सबसे संवेदनशील है, न केवल सबसे सक्रिय है, वह सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध,सबसे ज्यादा सामाजिक और सबसे ज्यादा जुझारु है!


पलाश विश्वास

Sudha Raje shared Soumitra Roy's photo.

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जब समाज, व्‍यवस्‍था और तंत्र रेप के मामलों को शहरी-ग्रामीण, दलित-सवर्ण, हिंदू-मुस्‍लिम, चरित्र-चाल चलन, राजनीति, वोट बैंक जैसे अलग-अलग चश्‍मे से देखने लगता है तो ऐसे भयावह आंकड़े सामने आते हैं।


24 Ghanta

আইন বদলেছে, সমাজ বদলেছে কি? এক বছর পরও প্রতিদিন মেয়ের কান্না শুনতে পান নির্ভয়ার বাবা

http://zeenews.india.com/bengali/nation/nirbhaya-s-father-after-one-year_18591.html


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हर स्त्री में गोर्की की मां कहीं न कहीं होती है जो कभी न कभी अभिव्यक्त होती है। लेकिन हर पुरुष में आदिविद्रोही नहीं होता।इसके उलट मिजाज से,चरित्र से अत्याधुनिक हो ने के बावजूद ज्यादातर पुरुष सामंती स्वभाव के होते हैं। स्त्री के विरुद्ध ही यह सामंती चरित्र का विस्फोट होता है।इसी दुर्बलता को स्त्री नरकद्वार जैसे लोकप्रिय मुहावरों से गौरवान्वित किया गया है।


आज फिर पुरुषतंत्र स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध फर्जी प्रतिवाद का जश्न मना रहा है। जबकि हमारी जेहन में गुवाहाटी की सड़क पर दिनदहाड़े नंगी कर दी गयी आदिवासी लड़की के लिए न्याय की आवाज बुलंद हो रही है।हमारी आंखों में इंफल की उन नग्न माताओं का प्रदर्शन आज भी जिंदा है,जो सैन्य शक्ति क बलात्कार की चुनौती दे रही हैं तबस लगातार। भारतीय लोक गणराज्य में फिलवक्त कोई स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। हमने ऐसा मुक्त बाजार चुना है कि पुरुषतंत्र की नंगी तलवारे हर पल स्त्री के वजूद को कतरा कतरा काट रहा है।


निर्मम राष्ट्र, मुक्त बाजार और लंपट समाज में फिरभी लेकिन स्त्री न सिर्फ सबसे संवेदनशील है, न केवल सबसे सक्रिय है, वह सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध,सबसे ज्यादा सामाजिक और सबसे ज्यादा जुझारु है। अब भी।इस पर विद्वत जनों को आपत्ति हो सकती है और असहमति भी हो सकती है। लेकिन यह मेरी राय है जिसे मैं आपसे साझा कर रहा हूं। कोलकाता में अनुवादक सुशील गुप्ता के निधन पर बतौर श्रद्धांजलि।


इस बारे में सोचता रहा तो हमारे जीवन में महत्वपूर्ण तमाम भूमिकाओं की याद आ गयीं। सुशील जी को श्रद्धांजलि के बहाने मैंने उनकी चर्चा करने का फैसला किया क्योंकि उनकी चर्चा फिर कभी कर पाउं या नहीं जानता।बिना कुछ लिखे अगर अंत आ गया या अपने दोस्त जगमोहन फुटेला की तरह निष्क्रिय हो गया तो हमारी कृतज्ञता अभिव्यक्त होने से रह जायेगी।




  1. सुशील गुप्ता : CHAUTHI DUNIYA : चौथी दुनिया

  2. www.chauthiduniya.com/tag/सुशील-गुप्ता

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  • अनुवाद से जगती उम्मीदें. हिंदी में अनुवाद की हालत बेहद ख़राब है. जो अनुवाद हो भी रहे हैं, वे बहुधा स्तरीय नहीं होते हैं. अनुवाद इस तरह से किए जाते हैं कि मूल लेखन की आत्मा कराह उठती है. हिंदी के लेखकों में अनुवाद को लेकर बहुत उत्साह भी नहीं ...

  • सुशील गुप्ता - अनुभूति

  • www.anubhuti-hindi.org/chhandmukt/s/.../index.htm

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  • सुशील गुप्ता. जन्मः १ जनवरी १९४६, कोलकाता में। प्रकाशित कृतियाँ कविता संग्रह- अक्स-दर-अक्स, शब्द साक्षी हैं, आग से गुज़रते हुए अनुवाद- ८० बांग्ला उपन्यासों का। अन्य ४५ से अधिक वृत्त-चित्रों का दूरदर्शन के लिए निर्माण पुरस्कार/सम्मानः ...



  • बांग्ला से हिंदी में अनुवाद के लिए कभी राजकमल चौधरी जैसे लेखक हुआ करते थे, चौरंगी का अनुवाद मूल रचना से कहीं ज्यादा बेहतर है।ऐसा मेरा मानना है।बांग्ला और हिंदी दोनों के जानकार दिवंगत कवि शलभ श्रीराम सिंह भी ऐसा मानते रहे हैं। लेकिन अब कोई बड़ा लेखक कोलकाता में यह कर्म नहीं कर रहा है।


    पिछले दो दशकों में दिवंगत मुनमुन सरकार ने बेहद महत्वपूर्ण  अनुवाद किये तो उन्हींके साथ अनुवाद लगातार करती रहीं सुशील गुप्ता। मुनमुन के अवसान के बाद नीलम शर्मा अंशु ने भी बांग्ला से हिंदी में महत्वपूर्ण अनुवाद किये।


    संजोग से तीनों स्त्रियां हैं। तीनों को विभिन्न कारणों से जानता रहा हूं। यही नहीं,हिंदी से बांग्ला में महत्वपूर्ण अनुवाद भी एक स्त्री निरंतर कर रही हैं,भाषा बंधन के लिए सोमा।अल्पसंख्यक उत्पीड़न की तस्वीरें प्रस्तुत करने वाली तसलिमा नसरीन से भारतीय पाठकों का निरंतर संवाद इन्हीं तीन अनुवादकों की वजह से संभव हुआ है।


    स्त्री विमर्श में कोलकाता की ही प्रभा खेतान का अभूतपूर्व योगदान का स्मरण किये बिना यह प्रसंग पूरा नहीं होता। प्रभा जी न केवल बड़ी लेखिका थीं ,स्थापित उद्यमी भी थीं वे। जून 1995 में जब सविता को ओपन हर्ट सर्जरी करवानी पड़ी,तब बिना किसी मुलाकात औपचारिक परिचय के उन्होंने हमारी मदद सबसे पहले की थी। इस हिदायत के साथ कि हम कहीं उनकी मदद का जिक्र न करें।प्रभा जी का लेखन तो अद्भुत है ही, उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष को हम भुला नहीं सकते।



    दरअसल,इरोम शर्मिला,सोनी सोरी तो क्या अभी हमारी मुलाकात अरुंधति राय से भी नहीं हुई है। लेकिन हम उन्हें संपूर्ण भारत और बहुसंख्य भारतीयों की आवाज मानते हैं।


    जहां तक मेरा सवाल है, महाश्वेता दी से मुलाकात नहीं होती तो शायद मैं अब तक कविता,कहानी और उपन्यास ही लिख रहा होता।हालांकि परिवर्तन उपरांत वर्षों से मेरा उनसे कोई संवाद नहीं है,लेकिन  अब भी मैं उनके परिवार का सदस्य हूं।


    मेरे परिवार की स्त्रियों के अलावा स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय में जिन स्त्रियों ने मेरा चरित्र निर्माण किया है,मुझे दृष्टि के साथ साथ बिना शर्त एकतरफा प्यार और समर्थन दिया है,उन सभी को याद करतेहुए यह आलेख।


    मेरी मां, ताई,चाची, बुआ,दादी,नानी,मेरी बहनों के अलावा मेरे गांव की तमाम माताओं और बहनों के साथ साथ दिनेशपुर की छत्तीस कालोनियों की तमाम स्त्रियों का मेरे विकास में भारी योगदान है।


    मैडम ख्रीष्टी ने पहली बार मुझे स्कूल से बांधा। दिनेशपुर हाई स्कूल में पहलीबार किसी युवा स्त्री जीवविज्ञान शिक्षक गीता पांडेय ने मेरे कैशोर्य को दिशा देने में भूमिका निभाई।


    तो नैनीताल डीएसबी की तमाम अध्यापिकाओं ने संकाय और विषयों के आर पार जो एक शरणार्थी अछूत को अपनाया,उसे मैं भुला नहीं सकता।


    हिंदी की उमा भट्ट,नीरजा टंडन,अंग्रेजी की श्रीमती अनिल बिष्ट,श्रीमती मधुलिका दीक्षित, श्रीमती नीलू कुमार,समाज शास्त्र की श्रीमती प्रेमा तिवारी और दीपा खुलबे से लेकर भौतिकी शास्त्र की श्रीमती कविता पांडेय तक ने हमेशा हमारा साहस बढ़ाया।


    इलाहाबाद में 100 लूकर गंज के किराये के शेखर जोशी के किराये को डेरे पर इजा ने प्रतुल,बंटी और संजू के साथ मुझे जिसतरह परिवार का सदस्य बना लिया,वह मैं कभी नहीं भूल सकता।


    मेरी पत्नी सविता अर्थ शास्त्र से एमए हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी मेरी जिंदगी में जैसे खपा दी,वह कोई स्त्री ही कर सकती है। अपनी महत्वांकाक्षाओं को उन्होंने तिलांजलि दे दी क्योंकि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है।बरेली में उनकी पक्की नौकरी थी,छोड़कर जनसत्ता में हमारी नौकरी के लिए चली आयी। मैंने जब भी जनसत्ता छोड़नेका मन बनाया या मुझे कोई ललचाने वाला प्रस्ताव मिला उसने हमेशा यही कहा कि हमें इफरात पैसे नहीं चाहिए। हम अब भी जनसत्ता में बने हुए हैं तो उसकी जिद की वजह से ही।उन्होंने हमें कोई दूसरा विकल्प चुनने का मौका ही नहीं दिया।


    हम कोलकाता में बिल्कुल नये थे और उनकी ओपन हर्ट सर्जरी डा. देवी शेट्टी के हाथों हो गयी।डा. शेट्टी ने एक पैसा नहीं लिया।डा.चोरारिया जो सविता के डाक्टर थे,उन्होंने भी अपनी फीस नहीं ली।तब इंडियन एक्सप्रेस समूह के तमाम पत्रकार गैर पत्रकार हमारे साथ खड़े थे।


    सविता के दिल में ट्यूमर था और कोलकाता में यह इसतरह का पहला आपरेशन था।


    डा.शेट्टी ने आंधी पानी के बीच सविता के दिल का हाल जानने के बाद तुरंत आपरेशन के लिए त्तकाल डोनरों को बुलाने के लिए कहा तो हमारे मोहल्ले के तमाम लोग अस्पताल पहुंच गये उस भयानक मौसम में तीस किमी दूर।


    सविता फिर वह मोहल्ला छोड़ने को तैयार नही ंहुई।अन्यत्र सोदपुर के आसपास सस्ती जमीन तब इफरात थी।लेकिन उन लोगों को छोड़कर कहीं और बसने का उसने सोचा तक नहीं।हाल यह है कि हमारे मोहल्ले के सारे निजी घर बहुमंजिली इमारतों में तब्दील हो गयी। एक एक फ्लैट पचास पचास लाख का।कहीं एक इंच जमीन भी खाली नहीं। हम जहां थे,वहीं बने रहे।


    सविता को दो साल बाद रिटायर होने की उतनी चिंता नहीं है ,जितनी कि अपना मोहल्ला और वे सारे पड़ोसियों को छोड़ने की चिंता है। जिनका कर्ज साधने के लिए खुद अस्वस्थ होने के बावजूद किसीभी मरीज को लेकर वह अस्पताल पहुंचती है सबसे पहले। किसी की मौत हो जाये तो अस्पाताल से पार्थिव शरीर लेकर श्मसान भी पहुंच जाती।


    इस लिहाज से मैं पूरीतरह असामाजिक हूं और आस पास के सारे सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उसकी उपस्थिति अनिवार्य है।वह जाति धर्म और भाषा के बंधन में नहीं है।


    बामसेफ की सीमाओं पर अंबेडकरी आंदोलन की विसंगतियों और फतवेबाजी से सख्त ऐतराज होने के बावजूद उसने हर कदम पर हमारा साथ निभाया।


    हमारे घर में धर्म,जाति,रंग और भाषा की कोई दीवार नहीं है,तो यह हमारी दादी से लेकर सविता तक सारी स्त्रियों का ही करिश्मा है।


    जाति उन्मूलन का एजंडा हो या फिर भेदभाव मिटाकर समामाजिक न्याय और समता की स्थापना का लक्ष्य पुरुष वर्चस्व को तोड़े बिना हम एक कदम भी नहीं बढ़ सकते।


    सारी विषमता की जड़ है पुरुषतांत्रिक धर्म व्यवस्था और कारपोरेट अर्थव्यवस्था में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद निरंतर इस दुश्चक्र को जटिल से जटिल बना रहा है।


    इस स्त्री को मैं पिछले तीस साल से जानता हूं।उसका मानस और मिजाज समझने में तीस साल लग गये।अभी पूरी तरह नहीं समझ सका।

    दरअसल हम लोग स्त्री को उसकी देह के पार कभी समझने की कोशिश नहीं करते।सर्वोच्च प्राथमिकता देह दखल की होती है। अब मुक्त बाजार में देह भी उपभोक्ता बाजार है।


    अब स्त्री कहीं भी अकेली है। निपट अकेली।


    उनमें से हरकिसी का मानस कमोबेश सविता का जैसा ही होगा, मुझे पक्का यकीन है।


    स्त्री चूंकि खुद को कुर्बान करके सबके लिए सोचती है,इसीलिए परिवार,सामाज और देश का वजूद कायम है।


    हमने तमाम आदिवासी इलाकों में और पूरे हिमालयी दुनिया में हमेशा पाया है कि हर स्त्री प्रकृति और पर्वावरण के संरक्षण में प्रतिनियत सक्रिय है।


    गर हम समझते हैं कि सुंदरता,देहगंध और लिंग वैषम्य के कारण ही स्त्री पर अत्याचार हते हैं,तो सिरे से हम गलत हैं।


    उत्तर आधुनिक समाज में उच्च शिक्षा और उच्च तकनीक से लैस स्त्री जन्मजात दक्षता,प्रबंधन कुशलता और नेतृत्व,समर्पण और प्रतिबद्धता से पुरुष वर्चस्व तोड़ने लगी हैं,नगरों,महानगरों पेशावर जीवन में और कार्यस्थलों में स्त्री विरोधी हिंसा का कारण यह है तो सबसे बड़ा कारण यह है कि लोक और जमीन से सबसे ज्यादा जुड़ाव है स्त्री का।


    प्राकृ्तिक संसाधनों पर कब्जा स्त्री दमन के बिना असंभव है।


    इसीलिए कारपोरेट अश्वमेध अभियान में सर्वत्र स्त्री ही निशाने पर है और नस्ली भेदभाव,जाति व्यवस्था और लिंग वैषम्य का समीकरण एकाकार है।


    इस युद्ध को अंततः स्त्री के नेतृत्व से ही जीता जा सकता है।अन्यथा असंभव है यह प्रतिरोध।


    मैं भारतीय साहित्य में आशापूर्णा देवी,इंदिरा गोस्वामी, कुर्तउल एल हैदर,महाश्वेता देवी,तसलिमा नसरीन, कृष्णा सोबती, मैत्रैयी पुष्पा से लेकर अद्यतन नयी लेखिकाओं और रचनाकारों का आभारी हूं कि उन्होंने बंद समाज के दरवाजे खोलने के लिए,खिड़कियां खोलने के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किया।


    मैं मायावती और ममता बनर्जी का समर्थक नहीं हूं,लेकिन राजनीति में जिस संघर्षयात्रा के मार्फत उनकी अग्निदीक्षा हुई,उस संघर्ष को मेरा सलाम।


    इसी तरह भारतीय राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था में बिना प्रतिनिधित्व के तृणमूल स्तर से लेकर राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं की ईमानदार सक्रियता को भी सलाम।


    उनके बिना भारतीय लोकतंत्र निरर्थक हो जाता।


    राजनीति को जो भी मानवीय चेहरा है वह उसका स्त्री मुख ही है,यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है यह जानते हुए कि बाजार की तरह राजनीति में भी स्त्री का इस्तेमाल का तंत्र बेहद निरंकुश है।


    ऐसा कार्यस्थलों पर भी है।परिवार और समाज में भी है।स्त्री सशक्तीकरण के साथ साथ यह संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है।स्त्री पर बढ़ते अत्याचारों के पीछे सबसे बड़ा कारण भी यही है।


    युद्ध,गृहयुद्ध,दंगा,दमन और सैन्यतंत्र में,रंगबिरंगे सलवा जुड़ुम में नपुंसक पुरुष वर्चस्व के निशाने पर भी है वही स्त्री देह।


    तमाम माध्यमों में और तमाम विधाओं में, पवित्र ग्रंथों तक में और यहां तक कि लोक में भी स्त्री आखेट के आख्यान ही केंद्रीय थीम सांग है।इन सारी सीमाओं को तोड़कर स्त्री का विकास लगातार हो रहा है ,यह मनुष्यता और सभ्यता के टिके रहने का रहस्य है।


    भारतीय फिल्मों में मुख्यधारा की मदर इंडिया और मेघे ढाका तारा व पथेर पांचाली जैसी क्लासिक कला फिल्मों से  लेकर तमाम समांतर कला फिल्मों में और यहां तक कि कथित मसाला फिल्मों में स्त्री की इस संघर्षयात्रा का फिल्मांकन भारतीय लेखन से ज्यादा ईमानदारी से हुआ है।


    एक शबाना आजमी को देख लीजिये और अकाल दिवंगत स्मिता पाटील को याद कर लीजिये,इतने विविधता पूर्ण भूमिकाओं की चुनौती निभाने वाले कलाकार दूसरे हों तो बतायें।


    भूमि सुधार और जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका की लड़ाई में नेतृत्वकारी ताकत तो फिर वही स्त्री।किस किसके नाम गिनाऊं।आप उन चेहरों को बखूब जानते हैं।


    मैं शरत चंद्र के वर्ण वर्चस्वी साहित्य को कतई साहित्य नही मानता अगर उसमें इतनी मजबूती से स्त्री का पक्ष नहीं रखा होता।


    सामाजिक सरोकार के लिए अगर प्रेमचंद हमारे ईश्वर हैं तो शरत महज स्त्री पक्ष और बंद समाज की नरकयंत्रणाओं को उकेरने के लिए हमारे नमस्य हैं।


    हम उपभोक्ता मुक्त बाजार में स्त्री के संघर्ष और उसके निरंतर विजय अभियान का भी स्वागत करते हैं और स्त्री को ही देश,समाज और परिवार,मातृभाषा और लोक बचाने वाली सबसे बड़ी शक्ति मानते हैं।


    हमने मणिपुर की स्त्रियों का संघर्ष देखा है,हमने पहाड़ों में स्त्रियों के संघर्ष को जिया है।हम चिपको माता गौरादेवी की संताने हैं और उत्तराखंड की तमाम आंदोलनकारी महिलाएं हमारे परिवार में शामिल हैं।हमने खनिज क्षेत्रों में स्त्री का महासंग्राम देखा है।


    हमने झारखंड आंदोलन में अगुआ असंख्य महिलाओं को देखा है,हमने गोरखालैंड की मांग लेकर सड़कों पर उतरती महिलाओं को भी देखा है।


    नेपाल,श्रीलंका,पाकिस्तान,म्यांमार,बांग्लादेश में मानवाधिकार हनन के विरुद्ध स्त्री शक्ति का महाविस्फोट भी हमने देखा है।


    बांग्लादेश मुक्तियुद्ध में माताओं और बहनों की कुर्बानी सबसे ज्यादा है।आज भी बांग्लादेश में लोकतंत्र बहाली आंदोलन की बागडोर स्त्री हाथों में है।


    भारत के मुकाबले बांग्लादेश को मातृतांत्रिक देश भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है।


    शरणार्थी परिवार के होने के कारण तमाम तरह की शरणार्थी स्त्रियों के जीवन संग्राम में हमारी हिस्सेदारी रही है।विभाजन की त्रासदी से मानवता को उबारने वाली वे स्त्रियां ही तो हैं जो तमस से लेकर आधा गांव तक, मंटो और इलियस की कहानियों तक, बांग्ला और हिंदी फिल्मों के फ्रेमों में उपस्थित है।


    उमा भट्ट,गीता गैरोला, बसंती पाठक,कमला पंत, कृष्णा अधिकारी,नंदिनी जोशी, शीला रजवार से लेकर मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा और महतोष की पीड़ित महिलाएं भी हमारे परिजन हैं।


    बामसेफ में वर्षों काम करते हुए हमने देश भर की बहुजन महिलाओं को एक एक जिले और कस्बे में देखा है, मंगला थोराट, गीता पाटिल, शिवानी विश्वास,सुनीता राठौर, मैडम पाटिल,विभा ताई जैसी असंख्य महिलाओं की प्रतिबद्धता देखी है।


    सावित्री बाई फूले और रमाबाई अंबेडकर, रानी दुर्गावती,झासी की रानी,रानी रासमणि,कैप्टेन लक्ष्मी सहगल,प्रीतिलता,मातंगिनी हाजरा, इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं के बिना भारतीय इतिहास अधूरा है।


    तेलंगना में ,तेभागा में, नक्सल से लेकर माओवदी आंदोलन के मोर्चे पर स्त्री प्रतिबद्धता का कोई जवाब किसी के पास नहीं है।


    भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा और कारपोरेट प्रबंधन में भी स्त्री ने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। किसी भी अस्पताल चले जाइये, बतौर चिकित्सक स्त्री ज्यादा संवेदनशील और ज्यादा सक्रिय,ज्यादा आत्मीय मिलेगी।ऐसा हमने बार बार देखा है।


    वामपंथी आंदोलन में रेणुका चक्रवर्ती,इलिना सेन से लेकर गीता दी, वृंदा कारत और सुभाषिणी अली हमारे लिए हमेशा प्रेरणा बनी रही हैं।


    इन स्त्रियों को वंचित समुदायों के प्रतिनिधित्व के साथ नेतृत्व में लाने में सिरे से नाकामी को भारत में वामपंथी आंदोलन के अवसान की मुख्य वजह भी मानते हैं हम।


    यह हमारा नजरिया है कि आदिवासी और स्त्री के नेतृत्व के बिना न समाज बदलेगा और न देश। आदिवासियों के बारे में हमने लगातार लिखा है। स्त्री के बारे में अभी तक इस तरह नहीं लिखा है जो आज लिख रहा हूं भारतीय मृत्यु उपत्यका में मुक्तिकामी जनता केहितं के मद्देनजर।


    चर्चा: निर्भया कांड के बाद कितना बदला है समाज?

    स्मिता शर्मा | आईबीएन-7 | Dec 16, 2013 at 09:17pm | Updated Dec 16, 2013 at 10:05pm


    देश निर्भया की शहादत को एक साल बाद भी भूला नहीं है। गैंगरेप कांड की पहली बरसी पर निर्भया को श्रद्धांजलि देने के लिए महिलाएं, पुरुष, छात्र-छात्राएं सब सड़कों पर उतरे। दिल्ली के जंतर-मंतर पर जमा होकर लोगों ने बहादुर बेटी को याद किया। यहां सिटिजन आर्टिस्ट ग्रुप ने नुक्कड़ नाटक के जरिए देश की बहादुर बेटी को याद किया। निर्भया के परिवार ने भी श्रद्धांजलि सभा का आयोजन कर बहादुर बेटी को याद किया। इस प्रर्थना सभा में लोगों ने निर्भया की आत्मा की शांति की कामना तो की ही भविष्य में इस तरह की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए सरकार से हर संभव प्रयास करने की अपील की।

    जहां एक ओर हजारों लोग देश की बेटी को याद कर रहे थे तो वहीं दिल्ली के पीतमपुरा इलाके में स्कूली बच्चों ने अपने तरीके से देश की बेटी को श्रद्धांजलि दी। तकरीबन 25 स्कूलों के छात्र और छात्राओं ने जमा होकर अपने तरीके से देश की बेटी को याद किया। हालांकि दिल्ली की छात्राओं और महिलाओं का कहना है की आज भी उन्हें घर से अकेले निकलने मे डर लगता है।

    जाहिर है निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों पर एक कड़ा कानून बना। लेकिन इस कानून के बनने के बाद भी बलात्कार जैसी घटनाएं नहीं थम रही हैं। हालांकि इस बीच कई मामलों में पीड़ित महिलाएं और लड़कियां खुलकर सामने आए। उसी का नतीजा है कि कई बड़े चेहरे या तो सलाखों के पीछे हैं या उनके खिलाफ आवाज बुलंद हुई है। लेकिन इन वारदातों पर लगाम लगाने के लिए समाज का नजरिया भी बदलने की जरूरत है।

    जाहिर है बलात्कार जैसे अपराध रुक नहीं रहे लेकिन निर्भया कांड के बाद महिलाओं के रुख में बदलाव साफ दिख रहा है। अब वो यौन शोषण बर्दाश्त करने वाली नहीं हैं। आईबीएन7 के खास कार्यक्रम एजेंडा में इसी मुद्दे पर मुद्दे पर चर्चा में शामिल थे स्टॉप एसिड अटैक कैंपेन की प्रज्ञा सिंह, दिल्ली से सांसद और पूर्व आईपीएस अजय कुमार, ब्रेकथ्रू की सोनाली खान, एपवा की सचिव कविता कृष्णन और एडवोकेट के के मनन। (वीडियो देखें)



    A year after Dec 16 gangrape: Fear, anger persist as Delhi remains unsafe for women

    Shivani Vig : New Delhi, Mon Dec 16 2013, 15:51 hrs

    Indian ExpressA year later, a sense of anger blended with fear still persist with the hope that things would improve. (PTI Photo)


    The December 16 gang rape, which has come to be known in India and across the globe as 'Delhi gangrape', has not only left its deep mark on the city but has also created a fear psychosis in women about their safety.

    On that fateful night last year, a 23-year-old paramedical student was gangraped and brutally assaulted by six men on a moving bus. She was stripped naked, gangraped, attacked with an iron rod and thrown out of the moving bus on a deserted street in the winter night. She succumbed to injuries later, triggering outrage, anger and protests across the nation.

    A year later, a sense of anger blended with fear and memories of the public outcry and protests still persist with the hope that things would improve. But there are some questions that still linger: Have we learnt any lesson from the past failures? Has anything changed since that fateful night?

    "I doubt" says Sonel Ahluwalia, an IT professional. The 28-year-old is still haunted by the memories of December 16 and its aftermath and feels no drastic change has taken place so far. "Except for the fact that people have now become more vocal about crime against women, nothing has changed on the ground level when it comes to the safety of women...We still feel unsafe going out alone, more vulnerable," says Sonel, who still thinks twice before stepping out of home alone after 8 pm despite staying in Delhi NCR from past six years.

    "People are unable to come out of that psyche that they can fall prey to assailants anytime of the day. It is because such incidents are being reported every day. Such is the fear that even today my cousin is coming to pick me at 9 pm so that he can accompany me till Delhi Airport," she says.



    स्त्री अस्मिता के प्रति आस्तिक भाव


    हृदयनारायण दीक्षित

    धर्माचार्य


    सौजन्य सहारा समय

    भारत का मन आहत है. यौन शोषण की खबरें हर तरफ छाई हुई हैं. राज समाज के नियामक भी आरोपी हैं. घटनाओं का विश्लेषण डरावना है.

    राजव्यवस्था निशाने पर है. कानून सख्त हो रहे हैं. आरोपी जेल जा रहे हैं. न्यायालय सजा सुना रहे हैं; पर कानूनी सख्ती का कोई प्रभाव नहीं दिखता. मूलभूत प्रश्न यह है कि क्या स्त्री के प्रति उपभोक्ता सामग्री जैसी दृष्टि हमारे संविधान तंत्र की ही विफलता है? क्या स्त्री अस्मिता को सरकारों ने ही उपभोक्ता वस्तु बनाया है?

    हम सभ्य समाज के लोग इस नई जीवन दृष्टि के लिए जिम्मेदार क्यों नहीं हैं? उत्पादन के साधन, चिंतन और दर्शन सहित अनेक तत्वों से मिलकर संस्कृति और सभ्यता का विकास होता है. हमारी संस्कृति और सभ्यता पूर्वजों के सचेत या अचेत कर्मो का ही परिणाम है. आधुनिकता ने इसमें बहुत कुछ जोड़ा है और ढेर सारा छोड़ा भी है. छोड़ने की जल्दबाजी में अनेक उदात्त मूल्य भी छूट गए हैं और आधुनिक हो जाने की हड़बड़ी में हमने मानवीय अस्मिता-गरिमा को भी बाजारू बनाया है.

    कलाएं सौंदर्यबोध में उगती हैं और समाज को सौंदर्यबोध से आच्छादित भी करती हैं. सुंदर की भारतीय दृष्टि सत्य और शिव भी है. मनुष्य सुंदरतम कृति है प्रकृति की. प्राचीन साहित्य में अनेक कथाएं हैं. इन कथाओं में स्त्री या पुरुष द्वारा भोग के निमंत्रण हैं. लेकिन मर्यादा के बंधन के कारण ऐसे निमंत्रण ठुकराए गए हैं. ऋग्वेद का यम-यमी सूक्त सबसे प्राचीन है. यमी ने प्रणय निवेदन किया, यम ने मर्यादा बताई. यमी ने कहा यहां और कोई नहीं. आओ हमारे साथ सुख भोगो. यम ने कहा देवता देख रहे हैं. यह प्रस्ताव अनुचित है.

    स्त्री-पुरुष मिलन पर विवाह की मर्यादा है. भारतीय कानून कहता है कि दोनों वयस्क सहमति के आधार पर मिल सकते हैं. 'सहमति'बड़ा आकर्षक शब्द है लेकिन इसके भीतर असहमति की अनेक परतें हैं. कामकाजी महिला अपने वरिष्ठ अधिकारी की तमाम बातों पर 'जी सर'कहती हैं. आधुनिकता 'आप बहुत सुंदर हैं'का वाक्य प्रयोग लाई है. शिष्ट महिलाएं इसके उत्तर में प्राय: 'धन्यवाद'कहती हैं. अनेक पुरुष इसे सहमति की शुरुआत मानते हैं. सामान्य शिष्ट मुस्कराहट भी जब-तब सहमति की श्रेणी में मान ली जाती है.

    मेरी आंखों देखी घटना है. उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक प्रतिष्ठित पार्क में एक युवक-युवती वार्ता में मस्त थे. पुलिस ने डांटा- रात में क्या कर रहे हो, घर जाओ. पढ़ी-लिखी युवती ने सिपाही को ही डांट दिया- हम दोनों बालिग हैं, हमारी बात में बाधा डालने वाले तुम कौन होते हो. सिपाही खिसिया गया. युवक ने इस डांट को युवती की 'सहमति'मान लिया. उसने अश्लील हरकतें बढ़ाई. युवती चिल्लाई. वही पुलिस वाला देर में आया.

    'सहमति'कोई सोचा-समझा सुविचारित अनुबंध नहीं होता. सहमति दिखाई पड़ती है, लेकिन शिष्ट असहमति नहीं. शालीन असहमति को भी सहमति का ही एक भाग मान लेने वाले भी कम नहीं. असल बात है पुरुष या स्त्री को उपभोक्ता सामग्री समझने वाली जीवनदृष्टि. लड़कियों को मॉडल कहा जाता है. इस माडल का मतलब क्या है! फैशन परेड में उन्हें विशेष अंदाज में प्रस्तुत होने और चलने को कहा जाता है. कह सकते हैं कि इस कार्य में उनकी सहमति है. लेकिन वे सामग्री की तरह इस्तेमाल होती हैं.

    देह उपभोक्ता सामग्री नहीं है. स्त्री सुप्रतिष्ठित अस्मिता है. अस्मिता के प्रति आस्तिक भाव चाहिए. आस्तिकता आस्था नहीं होती. आस्तिकता का अर्थ है अस्तित्व के प्रति अनुगृहपूर्ण स्वीकार भाव. हमारी आधुनिक जीवनशैली में स्त्री अस्मिता के प्रति आस्तिकता नहीं है. आस्तिकता की भावभूमि में ही वह मां, बहन, पुत्री और अंतत: देवी जानी गई है. यह समझ पुरातन पंथ नहीं सनातन प्रज्ञा है. स्त्री-पुरुष का मिलन प्रकृति की सृजन शक्ति का भाग है.

    सृजन कर्म भोग या उपभोग नहीं होता, प्रीतिपूर्ण समर्पण में ही सृजन खिलता है. सृजन कभी अराजक नहीं होता. स्त्री-पुरुष संबंधों को अराजक नहीं बनाया जा सकता. लेकिन स्त्री या पुरुष को उपभोक्ता सामग्री समझने की दृष्टि के कारण ही अराजकता है. अस्मिता स्वीकारने की मर्यादित दृष्टि जरूरी है.


    1. तेजपाल- स्त्रीसिर्फ सेक्स नहीं, अस्तित्व भी

    2. आईबीएन-7-01-12-2013

    3. तरुण तेजपाल को जिस तरह की प्रेस कवरेज मिली है उसने कई सवालों को जन्म दिया है। सवाल, क्या ये बहस सिर्फ महिला उत्पीड़न और कामकाजी महिलाओं के अधिकारों तक ही सीमित है? क्या मुद्दा बस इतना भर है कि दफ्तरों में काम करने वाली ...

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    5. Sahara Samay

    6. अरविंद कुमार सेन

    7. Jansatta-20-11-2013

    8. अमूल डेयरी ने इनमें से एक भी काम नहीं किया है, इसके बावजूद देश की स्त्रियोंके आर्थिक सशक्तीकरण में अमूल का नाम भारतीय महिला बैंक से पहले लिखा जाएगा। असल में अमूल ने अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं के कौशल को बेहतर तरीके से ...

    9. स्त्रीविरोधी हिंसा के दिन लद चुके

    10. नवभारत टाइम्स-05-12-2013

    11. महिलाओं के विरुद्ध हिंसा एक विश्वव्यापी समस्या है। यह ऐसी महामारी है जिससे कोई भी क्षेत्र या देश अछूता नहीं है। पिछले दिनों हमने दिल्ली, स्टुबेदविले और ओहायो जैसी न जाने कितनी दुखद घटनाएं देखी हैं। अखबारों में लगातार ...

    12. *
    13. रश्मि सिंह को स्त्रीशक्ति सम्मान

    14. Webdunia Hindi-29-11-2013

    15. उन्हें अपने अंतरराष्ट्रीय ख्याति मॉडल, स्त्रीशक्ति जेंडर रिसोर्स सेंटर प्रोग्राम दिल्ली के लिए जाना जाता है। दिल्ली में सामाजिक सुविधा संगम, मिशन कनवर्जेंस प्रोग्राम की संस्थापक निदेशक के तौर पर उन्होंने इस कार्यक्रम को बहुत ...

    16. कितने बढ़े स्त्रीके कदम

    17. Dainiktribune-01-12-2013

    18. बीसवीं सदी महिलाओं की है, ऐसा गांधी जी ने कहा था। उन्होंने आह्वान किया था कि महिलाओं को उस अंधेरे से निकालो जहां वे वर्षों से पड़ी हैं। जब स्त्रीशिक्षा आंदोलन शुरू हुआ तो उसमें महिलाओं की कम भागीदारी देखकर गांधी जी ...

    19. दिल्ली में दिए गए स्त्रीशक्ति सम्मान

    20. Webdunia Hindi-01-12-2013

    21. सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री कुमारी शैलजा के घर के प्रांगण में आयोजित इस अवसर पर 'दयावती मोदी स्त्रीशक्ति सम्मान' रश्मि सिंह को दिया गया और स्त्रीशक्ति विज्ञान सम्मान अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान की डॉ. जया त्यागी को ...

    22. ग्रह-नक्षत्र और महिलाओं का व्यवहार

    23. Rajasthan Patrika-24-11-2013

    24. ग्रहों और राशियों को भी स्त्रीऔर पुरूष वगोंü में बांटा गया है। मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ को पुरूष राशि और वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियों को स्त्रीराशि कहा गया है। इसी प्रकार चंद्रमा और शुR जहां स्त्रीस्वभाव ग्रह ...

    25. *
    26. स्त्रियोंके व्यवहार पर बुद्ध ने यह कहा...

    27. अमर उजाला-14 घंटे पहलेसाझा करें

    28. जो स्त्रीपरिवार के अन्य सदस्यों के साथ सद्व्यवहार करती है, उसे मातृसमा कहा गया है। जो सभी से प्रिय भाई के समान व्यवहार करती है, वह भगिनीसमा कहलाती है। बुद्ध के वचनों से सुजाता लज्जित हो गई उसका अभिमान को दूर कर दिया।

    1. तेजपाल कांड के सबक

    2. खबरें l Deutsche Welle-12-12-2013

    3. स्त्रीके विरुद्ध नफरत और हिंसा के सारे आयाम सामने हैं. निर्भया मामला हो या मुंबई का मामला या तेजपाल कांड. 'पशु' झुग्गी झोपड़ियों और गंदे नालों के किनारों से ही नहीं निकलते, वे ड्राइवर क्लीनर मवाली ही नहीं होते वे सत्ता ...

    4. *
    5. अभी हजारों मील का फासला बाकी है

    6. प्रभात खबर-21 घंटे पहले

    7. कुल मिला कर सत्ता, संतति और संपत्ति तीनों में जब तक स्त्रीका बराबर का हक नहीं होगा, तब तक ठोस बदलाव नहीं होगा. महिलाएं जब तक पराश्रित रहेंगी, वो चाहे किसी भी तरीके से हो, तब तक बदलाव संभव नहीं. आज बड़े पैमाने पर महिलाएं नौकरी ...

    8. *
    9. Sahara Samay

    10. 16 दिसंबर के बाद महिलाओं के लिए कितना बदला देश?

    11. प्रभात खबर-7 घंटे पहले

    12. दुख की बात है कि इस दुर्भावना के शिकार हम सभी हो गये हैं, चाहे वह इस मामले का अभियुक्त (अब सजायाफ्ता) अक्षय ठाकुर या मुकेश सिंह हों, जो किसी स्त्रीको सिर्फ और सिर्फ भोग की वस्तु मानते हैं या फिर हममें से कोई भी, जिसकी ...

    13. टीवी सीरियल्स में झलकती है समाज की दुविधा

    14. नवभारत टाइम्स-15-12-2013साझा करें

    15. स्त्रीके हाथों स्त्रीइतनी बेपर्दा और बेइज्जत शायद ही कभी हुई हो। महिलाओं की स्थिति हमारे समाज में बेशक अभी उतनी सम्मानजनक नहीं है लेकिन नारी द्वारा नारी का ऐसा भद्दा प्रस्तुतीकरण पहले कभी देखने को नहीं मिला। फिर भी ...


    1. 'लिव इन रिलेशन' में सुरक्षा का सवाल

    2. अमर उजाला-12-12-2013साझा करें

    3. यह कटु सत्य है कि यदि एक निश्चित समय से ज्यादा समय तक एक साथ रहने वालेस्त्री-पुरुषों के रिश्ते को कानूनी मान्यता मिल सके, तो इससे उनके बच्चों के कानूनी अधिकार भी तय किए जा सकते हैं। देखा जाए, तो हमारे देश में 'लिव इन रिलेशन' ...

  • गे सेक्स अननैचरल है तो ब्रह्मचर्य क्या है?

  • Ajmernama-1 घंटे पहले

  • लेकिन मेरे भाई, अगर स्त्री-पुरुष में सेक्स ही नैचरल है और जो यह नहीं करता, वह अननैचरल और मानसिक तौर पर बीमार है तो फिर ये सारे ब्रह्मचारी क्या हैं ? वे लोग जो सेक्स से ही दूर रहते हैं (या दूर रहने का ढोंग करते हैं), उन्हें तो हमारा ...


  • मुझे संभालकर रखिए

    नवभारत टाइम्स-14-12-2013साझा करें

    मैंने अपने क्रोध को रचनात्मकता में तब्दील किया है। मेरी कहानियां, सामंती सोच वाले समाज से मेरा रचनात्मक प्रतिशोध हैं। मेरा व्यक्तिगत मत है कि स्त्रीकी अधिकांश क्रिया, प्रतिक्रिया होती है। स्त्रीया तो रक्षात्मक रहती ...

    1. *
    2. नेता का डर, पब्लिक का डर

    3. अमर उजाला-14 घंटे पहले

    4. हालांकि अपनी इस मौखिक आशंका पर चारों तरफ से हुई थुक्का-फजीहत से दुखी होकर बाद में उन्होंने स्त्रीविमर्श के पैरोकारों से माफी मांग ली। हम पब्लिक का डर दूसरी तरह का है। वह ऐसा कि मतदान के बाद घोषित नतीजों में जीतने वाला ...

    5. *
    6. ये हैं महिलाओं के हक

    7. इकनॉमिक टाइम्स-14-12-2013

    8. सिर्फ उसी रिश्ते को लिव-इन रिलेशनशिप माना जा सकता है, जिसमें स्त्रीऔर पुरुष विवाह किए बिना पति-पत्नी की तरह रहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि दोनों बालिग और शादी योग्य हों। यदि दोनों में से कोई एक या दोनों पहले से शादीशुदा ...

    9. देश बदला, कानून बदला लड़ाई जारी है...

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    11. मैं हर वह स्त्रीहूं, जो अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाहती है। मैं अदम्य साहस और विश्वास की लौ हूं, जिसे जितना बुझाने की कोशिश की जाएगी, वह उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी... फांसी मिले तो आए नींद दामिनी के पिता ने किशोर दोषी के ...

    12. संबंधों की सामाजिक बुनावट

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    14. लेकिन इस बात के प्रमाण बड़ी संख्या में मिलते हैं कि समाज में स्त्री-पुरुष के बीच प्रजननमूलक यौन-क्रिया के अलावा विभिन्न प्रकार के यौन-संबंध हमेशा से बनते रहे हैं। साथ ही, ऐसे यौनाचारों को लेकर विभिन्न प्रतिक्रियाएं भी रही ...



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  • 28-02-2012 - बांग्लादेश की विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीनने माइक्रो ब्लॉगिंग साईट ट्विटर पर तस्लीमा ने अपनी ट्वीट में कहा है कि ...तसलिमा नसरीनने कुछ दिन पहले किंगफिशर मॉडल पूनम पाण्डेय के लिए बहुत ही अभद्र भाषा का प्रयोग कर चर्चा में आयी थी। ...तेजपाल- स्त्रीसिर्फ सेक्स नहीं, अस्तित्व भी.

  • सामान्यज्ञान प्रश्नोत्तरहरु: | - गृह - WordPress.com

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  • संविधान सभाको निर्वाचनमा प्रत्यक्ष तर्फ कतिजना महिलानिर्वाचित हुनु भएको छ ? .....–दिपेन्द्र बहादुर क्षेत्री  फ्रान्सको सेमोन डि विउ मोइभर नामक पुरस्कार कसले प्राप्त ग¥यो ? –तसलिमा नसरीन २००८ को ओस्कार पुरस्कार प्राप्त चलचित्र कुन ...

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  • 27-11-2012 - ती महिलाको रहिछिन् भन्ने चाहिँ खुलाइएको छैन। पक्राउ .....प्राय सबै केटा मान्छे परस्त्रीगमन गर्नु गर्व ठंचन…..आब यो कुन ...किनकि एक चोटी नेपालगंज मा मुस्लिम हरु ले बिरोध गर्दै थियो तसलिमा नसरीनको किताब लज्जा को. तेती खेर ...

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  • आप वामपंथी हैं, तो समलैंगिक तो होंगे ही...!

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    12/17/2013

    आप वामपंथी हैं, तो समलैंगिक तो होंगे ही...!

    व्‍यालोक 
    व्‍यालोक जेएनयू से पढ़े हैं, मीडिया व एनजीओ में दर्जन भर नौकरियां कर के आजकल घर पर स्‍वाध्‍याय कर रहे हैं। लंबे समय बाद लिखे इस लेख में धारा 377 के विषय में इधर बीच आए लेखों और उनके संदर्भों की उन्‍होंने अपने तरीके से तथ्‍यात्‍मक और आनुभविक स्‍तर पर पुनर्व्‍याख्‍या की है व चुटकी ली है। चूंकि जनसत्‍ता में 13 दिसंबर को छपा प्रकाश के रे का आलेख पौराणिक संदर्भों का सहारा लेता है, लिहाज़ा उसे कुछ और प्रकाशित करने में यह लेख कारगर हो सकता है। (मॉडरेटर) 


    अभी हाल ही में समलैंगिकता के मसले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के बाद जो कोहराम मचा है, उस पर आखिरकार कुछ बोलना ही पड़ रहा है। नहीं बोलने के दो कारण थे- पहला तो, जो इतना मार-तमाम कूड़ा उत्पादित हो रहा है, उसमें काहे का इज़ाफा करनाऔर दूजे, इस महान भारत देश में आप अगर तर्क, मसले और मुद्दों की बात करेंगे, तो आप बहुत-बहुत तेज़ी से अल्पसंख्यक हो जाएंगे। तर्कणा का इस देश के लोगों से छत्तीस का आंकड़ा है और इसी वजह से यहां आपको खामोशी ही अजीज़ लगती है। बहरहाल, इतनी गंद मची है कि कुछ सवाल पूछने का दिल हो आया है। इसमें समलैंगिकता के कई पोस्टर ब्वॉयज की भावना आहत होगी, तो उतना ख़तरा उठाया जाए।

    सवाल नंबर एक- लगभग तयशुदा बात है कि समलैंगिकता को जितने भी समर्थन देने वाले सरपरस्त हैं, उनमें से सभी वामपंथी हैं, पर यह भी उतनी ही तय बात है कि हरेक वामपंथी समलैंगिकता का समर्थन नहीं कर रहा है। मेरा बड़ा आसान सा सवाल है कि क्या वामपंथी होने के लिए घोषित तौर पर समलैंगिकता का समर्थन करना ज़रूरी हैऔर, यदि ऐसा है, तो मुझे मार्क्स-लेनिन और हो-ची-मिन्ह से माओ (इतने ही वामपंथी मैं मानता हूं) तक के साहित्य में किसी का भी कहीं भी समलैंगिकता पर लिखा गया कोई भी ज्ञान दिखा दें। क्या मार्क्स ने कहीं भी समलैंगिकता को जायज़-नाजायज़ ठहराया है और यह कसौटी रखी है''पूंजी'' में, कि कम्युनिस्ट होने के लिए यह प्रमाणपत्र ज़रूरी है?

    दूसरा सवाल- मामले के कानूनी पहलू पर कोई भी तथाकथित (ये असली नही हैं) बुद्धिजीवी/पत्रकार/मानवाधिकारवादी /चैनल का जमूरा /मार्क्सवादी/जानकार/समलैंगिक सहानुभूतिकार आदि-इत्यादि क्यों नहीं बात करने को तैयार हैंइस मामले में थोड़ा पढ़ने-लिखने की ज़रूरत सबको है, जिससे आज की तारीख में किसी का नाता तो है नहीं। बस, कुछ भी कहना है, तो कह दीजिए। सीधे तौर पर, यह निष्कर्ष दे दिया जाता है कि कानून की बात करने वाला हमारा विरोधी है। इसका तो सीधा मतलब है कि आप जॉर्ज बुश हैं- या तो आप हमारे साथ हैं, या आतंक के। फिर, बुश के खिलाफ काहे का पुतला दहन?

    तीसरे सवाल के तौर पर मैं 13 दिसंबर को 'जनसत्ता' में प्रकाशित प्रकाश कुमार रे के एक लेख के कुछ अंशों पर बात करना चाहूंगा। पिछले 16 वर्षों से जेएनयू में विराजित वह मित्र अभी समलैंगिक अखाड़े के ''ब्ल्यू आइड ब्व़ॉय''हैं। अपने ब्‍लॉग बरगद से लेकर जनसत्ता तक उन्होंने समलैंगिकता पर वैचारिक उल्टी की है।

    व्याख्या से पहले प्रश्न- ज़रा प्रकाश समेत तमाम वामपंथी बताएं कि वह सुविधा की कौन सी आड़ है, जिसके तहत तनिक भी मौका मिलते ही आप पुराण-रामायण-महाभारत को कालबाह्य, गैर-ऐतिहासिक और अप्रासंगिक बताते हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी बात सिद्ध करने के लिए उनकी ही दुहाई देते हैं (एक तरफ रहो ना यार... इतने कंफ्यूज्ड हो कि अब तक 83 बार विभाजन करवा लिए हो, फिर भी समझ में नहीं आ रहा!)। आप या तो उनकी दुहाई ना दो, या उनकी ऐतिहासिकता स्वीकार करो।

    प्रकाश ने प्रगतिशील और समय से आगे दिखने के अति-उत्साह में अवांतर पाठ कुछ अधिक ही कर दिया है। उनके लेख पर कुछ टिप्पणियां!

    - आपने तमाम जो उदाहरण दिए हैं, वे एक तो अधूरे हैं (गूगल पूरी जानकारी नहीं देता है, टेक्स्ट पढ़ने की आदत डाल लीजिए), दूजे संदर्भहीन हैं, तीजे भ्रांत हैं औऱ अंततः एक अफवाह का हिस्सा हैं। शुरुआत, मनुस्मृति से: इसमें समलैंगिकता को अपराध माना गया है। इसमें इसे स्वीकार करने की बात कहां से आ गयी?
    आपने खुद स्वीकारा कि नारद-स्मृति में समलैंगिकता वर्जित है।
    - बुध के उभयलिंगी होने की बात किसी पुराण में नहीं है। आप ग़लतबयानी कर रहे हैं। हां, जिस इला की बात आपने बतायी, वह दरअसल युवनाश्व (नाम दूसरा हो सकता है, मैं भूल सकता हूं, पर शायद यही है) नामक राजा था, उसे उस वन में जाने के कारण शाप मिला था, जहां शिव-पार्वती विहार कर रहे थे। पार्वती ने उस सरोवर में प्रवेश करनेवाले किसी भी पुरुष को स्त्री बनने का शाप दे दिय़ा था। तो, यह इक्ष्वाकुवंशीय राजा उस सरोवर में प्रवेश कर स्त्री हो गया। इसके विलाप करने पर शिव ने वरदान दिया कि शाप तो वापस होगा नहीं, पर हां, तुम 15 दिनों तक स्त्री और 15 दिनों तक पुरुष रहोगे। इस तरह वह 15 दिनों तक तो राजा रहता था, बाकी 15 दिनों इला बन कर वन में विहार करता था। इसी दौरान उसका बुध के साथ संयोग हुआ और उससे पुरुरवा का जन्म हुआ। (विष्णु-पुराण)
    यह कथा है मित्र और मेरे लिए इससे अधिक इसका महत्‍व नहीं, पर इसमें समलैंगिकता को मान्य बतानेवाली बात कहां आय़ी?
    - शिव यमुना में नहा कर गोपी बने, ताकि कृष्ण से रास कर सकें। अरे, नयनसुख, स्त्री बने न!
    - अरवणी के किन्नरों की कथा से क्या सिद्ध करना चाहते हो, दोस्तउसमें भी तो यही बात है न कि कृष्ण ने मोहिनी रूप धारण किया। पुरुष रूप में तो उन्होंने विवाह नहीं कर लिया न!!

    बहरहाल, आपका सारा लेख मुझे जेएनयू के वामपंथ की ही याद दिला गया- सुविधाभोगी, वैचारिक तौर पर खोखले, मतलबपरस्त, चरित्र के दोहरे (कोई और शब्द लिखने का मन कर रहा था)। आपकी सारी कथाएं अधूरी और सारे गुमान छिछले। हमारे-आपके बचपन में समलैंगिकता के मामले हमने खूब देखे होंगे, पर इसका मतलब इसी को जायज़ ठहराना कहां से हो गया, बंधु?

    यह ठीक है कि समलैंगिकता अपराध नहीं, लेकिन यह विचलन तो है ही। आपके फ्रायड से लेकर तमाम बड़े पुरोधा इसे स्वीकारते हैं। वैसे, यादें ताज़ा करने के लिए जनसत्ता में ही हाल में (15 दिसंबर 2013) प्रभु जोशी का लेख भी छपा है। एक भाई साहब हैं अपूर्वानंद। हमारे ही गांव के हैं, और जैसी कि बीमारी है, अचानक से दिल्ली जाकर बौद्धिक हो गए हैं। ऊपर से, लेक्चरार भी हो गए हैं। उनका भी एक लेख, जनसत्ता में ही 15 दिसंबर को छपा है। यह लेख इतना स्व-विरोधाभासी है कि उस पर कुछ कहने को जी नहीं चाहता। बहरहाल, उनकी भी वही टेक है कि भारत में समलैंगिकता मान्य थी। अरे गुरुजी, कुछ तो रहम कीजिए।

    एक मजे की बात उन्होंने और कही है। कहा कि भारत में लोकतंत्र की अवधारणा नहीं थी। उसमें उनका कोई दोष नहीं है। उनकी शिक्षा-पद्धति यही बताती है। उसकी ठीक अगली लाइन में कहते हैं कि भारतीय परंपरा में जो कुछ बताया जा रहा है, वह मोटे तौर पर हिंदू है और उससे सहमत होने की ज़रूरत नहीं। यानी, कि खुद उन्हीं को पता नहीं कि वह क्या कह रहे हैं।

    अंग्रेजी के शब्द उधार लूं, तो ऑन अ मोर सीरियस नोट, पौराणिक और मिथक कथाओं में प्रतीक और केवल प्रतीक होते हैं। उससे आगे कुछ खोजना, बेकार का वितंडावाद है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बर्बरीक की पूजा खाटू श्याम के रूप में नहीं होती। कथा महाभारत की है और कुछ यों है कि युद्ध शुरू होने के पहले जब कौरवों-पांडवों ने अपने संबंधियों और मित्रों को बुलाना शुरू किया, तो पांडवों की तरफ से बर्बरीक भी आया। वह भीम का पोता और घटोत्कच एवं मदोत्कटकंटा का पुत्र था। सोलह वर्षीय उस किशोर ने अपनी शेखी बघारते हुए कहा कि केवल तीन बाणों में वह मनुष्य-वनस्पति-पशु सभी का नाश कर देगा। वहां कृष्ण भी थे। उनके पूछने पर बर्बरीक ने कहा कि पहले बाण से सभी के गले पर निशान पड़ेगा, दूसरे से एक छिद्र हो जाएगा और तीसरे से वे भस्म हो जाएंगे। यह सुन कर कृष्ण ने अपनी मुट्ठी में एक पीपल का पत्ता रख लिया। बर्बरीक ने बाण चलाए और दूसरे बाण से कृष्ण के हाथ में रखे पीपल के पत्ते में भी छिद्र हो गया। यह देख, कृष्ण ने तीसरा बाण चलाने से पहले सुदर्शन चलाकर बर्बरीक का वध कर दिया। वध के बाद बर्बरीक के वर मांगने पर उसके सिर को महाभारत का युद्ध देखने के लिए अमृत से अभिमंत्रित कर एक ऊंचे टीले पर कृष्ण ने रखवाया। युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडवों में भीम और अर्जुन अपनी-अपनी हांक रहे थे, तो कृष्ण उनको उसी बर्बरीक के पास ले गए थे और पूछा कि युद्ध में उसने क्या देखाबर्बरीक का कहना था कि पांडवों ने तो मरे हुओं को मारा है। उसके मुताबिक एक अद्वितीय शोभा वाला दिव्य पुरुष (जाहिर तौर पर कृष्ण) पहले ही सबका वध कर चुका था।

    बहरहाल, यह भी केवल कथा है- ग्रीक मिथकों की तरह ही, जिसमें प्रॉमिथियस का मांस अब भी नोचा जा रहा है, जीयस अब भी बदचलनी कर रहा है, आदि-इत्यादि। ये सभी प्रतीक मात्र हैं और इनमें और कुछ भी देखना नादानी है। यहीं, ज़रा यह भी सोचें कि जो बर्बरीक देवी छिन्नमस्ता का उपासक बताया गया है, उसी को हमारे आज के मारवाड़ी भाई खाटू श्याम बनाकर कहां से पूजने लगेयह भारतवर्ष है मित्रों। बड़े-बड़े डूब रहे इसमें। तुमसे न हो पाएगा। इसे वही समझेगा, जो तर्क और गणित की भाषा बोलेगा। केवल लिखने के लिए लिखना तो खैर, आप लोगों का अधिकार है ही...।

    आखिरकार, ये केवल दो उदाहरण हैं। मेरा मानना है कि जिस देश में तर्क की बात और गुंजाइश ही बंद हो, भावनाओं से ही जहां बड़े मसले तय हों, वहां कुछ गंभीर बात कहना मानो अंधों के शहर में आईना बेचना है। अंतत: आपको ही कठघरे में खड़ा कर हाथों में सलीब दे दिया जाएगा!!!

    कलकत्‍ता: जहां डॉन भी बेज़ुबान है...

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    3/21/2013

    कलकत्‍ता: जहां डॉन भी बेज़ुबान है...


    अभिषेक श्रीवास्‍तव


    हर चीज़ में राजनीतिक नाक घुसेड़ने की आदत बहुत बुरी है। कलकत्‍ता से लौटे मुझे कितने  दिन हो गए हैं। मन में, दिमाग में, ज़बान पर, फोन पर बातचीत में, सब जगह कलकत्‍ते का असर अब तक सघन है। बस, लिखा ही नहीं जा रहा। जैसा कलकत्‍ता मैंने देखा, सुना, छुआ, महसूस किया, उसका आभार किसे दूंकायदा तो यह होता कि आज से चालीस बरस पहले का कलकत्‍ता मैंने देखा होता और आज दोबारा लौटकर बदलावों की बात करता। यह तो हुआ नहीं, उलटे एक ऐसे वक्‍त में मेरा वहां जाना हुआ जब वाम सरकार का पतन हो चुका था। मेरा रेफरेंस प्‍वाइंट गायब है और पॉलिटिकली करेक्‍ट रहने की अदृश्‍य बाध्‍यता यह कहने से मुझे रोक रही है कि जिस शहर को मैंने अपने सबसे पसंदीदा शहर के सबसे करीब जाना और माना, उसे ऐसा गढ़ने में तीन दशक तक यहां रहे वामपंथी शासन का हाथ होगा।

    जहां हाथ रिक्‍शा एक विरासत है 
    बनारस में यदि आप संरचनागत औपनिवेशिक भव्‍यता को जोड़ दें और प्रत्‍यक्ष ब्राह्मणवादी कर्मकांडों व प्रतीकों को घटा दें, तो एक कलकत्‍ते की गुंजाइश बनती है। दिल्‍ली या मुंबई में कोई भी काट-छांट कलकत्‍ता को पैदा नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही कलकत्‍ते में कुछ भी जोड़ने-घटाने से दिल्‍ली या मुंबई की आशंका दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। मसलन, रात के दस बज रहे हैं। चौरंगी पर होटल ग्रैंड के बाहर पटरी वाले अपना सामान समेट रहे हैं। उनके समेटने में किसी कमेटी या पुलिस वैन के अचानक आ जाने के डर से उपजी हड़बड़ी नहीं है। होटल के सामने बिल्‍कुल सड़क पर एक हाथ रिक्‍शा लावारिस खड़ा है, लेकिन उसके लिए उस वक्‍त लावारिस शब्‍द दिमाग में नहीं आता। ऐसा लगता है गोया आसपास की भीड़ में कहीं रिक्‍शेवाला ज़रूर होगा, हालांकि उसकी नज़र रिक्‍शे पर कतई नहीं होगी। दरअसल, रिक्‍शे पर किसी की भी नज़र नहीं है। और भी दृश्‍य हैं जिन पर किसी की नज़रें चिपकी नहीं दिखतीं। मसलन, लंबे से जवाहरलाल नेहरू मार्ग के काफी लंबे डिवाइडर पर दो व्‍यक्ति शहर से मुंह फेरे ऐसे बैठे हैं गोया उन्‍हें कोई शिकायत हो किसी से। या फिर, इस बात की शिकायत कि उन्‍हें इस शहर से कोई शिकायत ही नहीं। कुछ भी हो सकता है। बस, वे अदृश्‍य आंखें इस शहर के चप्‍पों पर चिपकी नहीं दिखतीं जैसा हमें दिल्‍ली में महसूस होता है, जहां राह चलते जाने क्‍यों लगता है कि कोई पीछा कर रहा हो। कोई नज़र रखे हुए हो। वहां पैर हड़बड़ी में होते हैं। गाडि़यां हड़बड़ी में होती हैं। दिल्‍ली की सड़कें भागती हैं, उनकी रफ्तार से बचने के लिए आपको और तेज़ भागना होता है। कलकत्‍ता सुस्‍त है, एक चिरंतन आराम की मुद्रा में लेटा हुआ, पसरा हुआ, लेकिन लगातार जागृत।

    चौरंगी पर स्‍केटिंग: जिंदा शहर की जिंदा तस्‍वीर 
    किसी ने कहा था कि कलकत्‍ता एक मरता हुआ शहर है। मैं नहीं मानता। मरती हुई चीज़ अपने पास किसी को फटकने नहीं देती। मृत्‍युगंध दूसरे को उससे दूर भगाती है। लेकिन कलकत्‍ता खींचता है, और ऐसे कि आपको पता ही नहीं लगता। आप कलकत्‍ते में होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई प्रेम में होता है। आप कलकत्‍ते में नहीं होते, जैसे कि आप प्रेम में नहीं होते, या कि दिल्‍ली में होते हैं। बहू बाज़ार के शिव मंदिर के बाहर ज्ञानी यादव रोज़ सुबह अपने हाथ रिक्‍शे के साथ खड़े मिल जाएंगे। छपरा के रहने वाले हैं। दिल्‍ली, फरीदाबाद के कारखानों में बरसों मजदूरी कर के आए हैं। दुनिया देखे हुए हैं। कारखाना बंद हो गया, तो कलकत्‍ता चले आए। परिवार गांव में है। कहते हैं कि दुनिया भर का सब आगल-पागल यहां बसा है। यह शहर किसी को दुत्‍कारता नहीं। अब यहां से जाने का उनका मन नहीं है। जो कमा लेते हैं, घर भेज देते हैं। रहने-खाने का खास खर्च नहीं है। दस रुपये में माछी-भात या रोटी सब्‍ज़ी अब भी मिल जाती है। कोई खास मौका हो तो डीम का आनंद भी लिया जा सकता है। डीम मने अंडा। हम जिस रात रेहड़ी-पटरी संघ के दफ्तर बहू बाज़ार में पहुंचे, हमारे स्‍वागत में डीम की विशेष सब्‍ज़ी तैयार की गई। करीब डेढ़ सौ साल एक पुरानी इमारत में यहां पुराने किस्‍म के कामरेड लोग रहते हैं। दिन भर आंदोलन, बैठक और चंदा वसूली करते हैं। हर रेहड़ी वाला इस दफ्तर को जानता है। पहली मंजि़ल पर दो कमरों के दरकते दफ्तर से पचास मीटर की दूरी पर कोने में एक अंधेरा बाथरूम है गलियारानुमा, जिसमें नलका नहीं है। ड्रम में भरा हुआ पानी लेकर जाना होता है और रोज़ सुबह वह ड्रम भरा जाता है पीले पानी से। यहां पानी पीला आता है। पीने का पानी फिल्‍टर करना पड़ता है। रात का खाना बिल्डिंग की छत पर होता है। कम्‍यूनिटी किचन- एक कामरेड ने यही नाम बताया था। पूरी छत पर बड़े-बड़े ब्‍लैकबोर्ड दीवारों में लगे हैं। बच्‍चों की अक्षरमाला भी सजी है। पता चलता है कि यहां कभी ये लोग बच्‍चों के लिए निशुल्‍क क्‍लास चलाते थे। क्‍यों बंद हुआ, कैसे बंद हुआ यह सब, कुछ खास नहीं बताते। सब सिगरेट पीते हैं, भात-डीम खाते हैं और बिना किसी शिकायत के सो जाते हैं। सुबह हर कोई अपने-अपने क्षेत्र में निकल जाता है हमारे उठने से पहले ही, बस बिशेन दा बैठे हुए हैं अखबार पढ़ते। वे बरसों पहले बांग्‍लादेश से आए थे। आज बांग्‍लादेश की समस्‍या पर कोई संगोष्‍ठी है, उसमें जाने की तैयारी कर रहे हैं। हमें भी न्‍योता है।

    पुरानी भव्‍य इमारतों के बाहर ढहती-घिसटती जिंदगी 
    बिशेन दा अकेले नहीं हैं। पूरा कलकत्‍ता ही लगता है बाहर से आया है। कलकत्‍ते में कलकत्‍ता के मूल बाशिंदे हमें कम मिले। जो मिले, वे अपने आप में इतिहास हैं। उनके बारे में या तो वे ही जानते हैं या उन्‍हें करीब से जानने वाले वे, जिन्‍होंने लंबा वक्‍त गुज़ारा है। मसलन, हम जिस इमारत में आकर अंतत: ठहरे, उसे किसी लेस्‍ली नाम के अंग्रेज़ ने कभी बनवाया था। किसी ज़माने में उसे लेस्‍ली हाउस कहा करते थे। करीब 145 साल पुरानी यह इमारत चौरंगी पर होटल ग्रैंड से बिल्‍कुल सटी हुई है, जो बाहर से नहीं दिखती। उसके पास पहुंचने के लिए बाहर लगे काले गेट के भीतर जाना होता है, जिसके बाद खुलने वाली लेन के अंत में एक छोटा सा प्रवेश द्वार है जिसकी दीवारों पर डिज़ाइनर कुर्ते, टेपेस्‍ट्री आदि लटके हुए हैं। वहीं से बेहद आरामदेह, निचली, चौड़ी सीढि़यां शुरू हो जाती हैं बिल्‍कुल अंग्रेज़ी इमारतों की मानिंद, जैसी हम इंडियन म्‍यूजि़यम में चढ़ कर आए थे। आज इस इमारत को मुखर्जी हाउस कहते हैं। जिनके नाम पर यह इमारत आज बची हुई है, वे बकुलिया इस्‍टेट के बड़े ज़मींदार हुआ करते थे। लोग उन्‍हें बकुलिया हाउस वाले मुखर्जी के नाम से जानते हैं। कलकत्‍ता में इनकी कई बिल्डिंगें हैं। कहते हैं कि संजय गांधी ने जब मथुरा में मारुति का कारखाना लगवाया, उस दौरान छोटी कारें बनाने का एक कारखाना इन्‍होंने भी वहां लगाया था। वह चल नहीं सका। हालांकि उनकी एक टायर कंपनी आज भी कारोबार कर रही है। 

    सुहरावर्दी का नामलेवा नहीं 
    बकुलिया हाउस वाले मुखर्जी ने कभी यह इमारत अंग्रेज़ से खरीदी थी। खरीदने के बाद दीवारें तुड़वा कर जब इसे दोबारा आकार देने की कोशिश की जा रही थी, तो दीवारों के भीतर से रिकॉर्डिंग स्‍टूडियो में इस्‍तेमाल किए जाने वाले गत्‍ते और संरचनाएं बरामद हुईं। पता चला कि इसमें न्‍यू थिएटर का स्‍टूडियो हुआ करता था जहां कुंदनलाल सहगल गाने रिकॉर्ड किया करते थे। धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि वहीं एक डांसिंग फ्लोर भी होता था जहां हुसैन शहीद सुहरावर्दी रोज़ नाचने आते थे। सुहरावर्दी का नाम तो अब कोई नहीं लेता, हालांकि वे नेहरू के समकालीन पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री हुए। मिदनापुर में पैदा हुए थे, वाम रुझान वाले माने जाते थे और उनकी जीवनी में एक अंग्रेज़ ने लिखा है कि वे जितने दिन कलकत्‍ते में रहे, रोज़ शाम इस डांस फ्लोर पर आना नहीं भूले। हम जिस कमरे में सोए, पांच दिन रहे, उसकी दीवारों में सहगल की आवाज़ पैबस्‍त थी, उसकी फर्श पर सुहरावर्दी के पैरों के निशान थे।

    पहली मंजि़ल पर ही एक और दरवाज़ा है हमारे ठीक बगल में, जो लगता है बरसों से बंद पड़ा हो। बाहर डॉ. एस. मुखर्जी के नाम का बोर्ड लगा है। डाक साब पुराने किरायेदार हैं, जि़ंदा हैं, बस बोल-हिल नहीं पाते। कहते हैं कि वे राज्‍यपाल को भी दांत का दर्द होने पर तुरंत अप्‍वाइंटमेंट नहीं दिया करते थे। दांत का दर्द जिन्‍हें हुआ है, वे जानते हैं कि उस वक्‍त कैसी गुज़रती है। दस बरस हो गए उन्‍हें बिस्‍तर पर पड़े हुए, इतिहास उन्‍हें फिल्‍म अभिनेता प्रदीप कुमार के दामाद के तौर पर आज भी जानता है। कलकत्‍ता का इतिहास सिर्फ मकान मालिकों की बपौती नहीं, किरायेदारों का इतिहास भी उसमें साझा है।

    डॉ. मुखर्जी कभी मशहूर डेंटिस्‍ट थे। पुराने शहरों में पुराने डेंटिस्‍ट अकसर चीनी डॉक्‍टर मिलते हैं। जैसे मुझे याद है बनारस के तेलियाबाग में एक डॉ. चाउ हुआ करते थे। आज बनारस में इसके निशान भी नहीं बाकी, लेकिन कलकत्‍ता में अब भी चीनी डॉक्‍टर बचे हैं। मैंने ऐसे तीन बोर्ड देखे। कलकत्‍ता में मशहूर चाइना टाउन को छोड़ भी दें, तो यहां समूची दुनिया बरबस बिखरी हुई दिखती है। कलकत्‍ता से जुड़े बचपन के कुछ संदर्भ हमेशा बेचैन करते रहे हैं। ठीक वैसे ही, जैसे शाम पांच बजे दूरदर्शन पर गुमशुदा तलाश केंद्र, दरियागंज, नई दिल्‍ली का पता हमें दिल्‍ली से जोड़ता था। दरियागंज थाना जिस दिन पहली बार मैंने देखा, वह दिन और कलकत्‍ता में शेक्‍सपियर सरणी के बोर्ड पर जिस दिन नज़र पड़ी वह दिन, दोनों एक से कहे जा सकते हैं। जिंदगी के दो दिन एक जैसे हो सकते हैं। शेक्‍सपियर सरणी का नाम बचपन के दिनों में ले जाता है और ज़ेहन में अचानक कोई सिरकटा पीला डिब्‍बा घूम जाता है जिसे हम शौच के लिए इस्‍तेमाल में लाते थे। बरसों एक ही वक्‍त एक ही डिब्‍बे पर कॉरपोरेट ऑफिस शेक्‍सपियर सरणी लिखा पढ़ना अचानक याद आता है। डालडा का पीला डिब्‍बा, जिसे कभी हिंदुस्‍तान लीवर कंपनी बनाया करती थी, उसका दफ्तर यूनीलीवर हाउस यहीं पर है। सड़कें इंसानों को ही नहीं, स्‍मृतियों को भी जोड़ती हैं। मैंने शेक्‍सपियर को जब-जब पढ़ा, वह सिरकटा पीला डिब्‍बा याद आया, कलकत्‍ता याद आया। ऐसे ही लेनिन, हो ची मिन्‍ह, आदि के नाम पर यहां सड़कें हैं। शायद यह इकलौता शहर होगा जहां गलियां नहीं, सरणियां हैं।

    सड़क का जनवाद: ट्राम, कार, पैदल, साइकिल, रिक्‍शा सब साथ 
    ऐसी ही एक सरणी में उस दिन आग लगी थी। हम एक दिन पहले ही सुबह-सुबह प्रेसिडेंसी कॉलेज से होते हुए सूर्य सेन सरणी में टहल रहे थे। मास्‍टर सूर्य सेन सरणी से चटगांव याद आता है, चटगांव फिल्‍म याद आती है। अगले दिन सुबह वहां स्थित सूर्य सेन बाज़ार में आग लगने की खबर आई। बीस लोग मारे गए। दिल्‍ली में कहीं ऐसी आग लगती तो खबर राष्‍ट्रीय हो जाती, कलकत्‍ता में ऐसा नहीं हुआ। चौरंगी उस दिन भी अपनी रफ्तार से चलता रहा। इस शहर को कोई आग नहीं निगलती। बस बातें होती रहीं खबरों में कि शहर में अवैध इमारतें बहुत ज्‍यादा हैं जहां आग से लड़ने के सुरक्षा इंतज़ाम नहीं किए गए हैं। अवैध इमारतों को नियमित करने के नाम पर अब शहर उजाड़ा जाएगा, इसकी आशंका भी कुछ ने ज़ाहिर की। दरअसल, सरकार जिन्‍हें वैध इमारतें कहती है, उनकी संख्‍या इस विशाल महानगर में बमुश्किल दस लाख से भी कम है। बरसों पहले घर से भागकर शहर में बस गए बुजुर्ग लेखक-पत्रकार गीतेश शर्मा बताते हैं कि यहां कुछ बरस पहले तक मकानों और भवनों के मालिकाने का कंसेप्‍ट ही नहीं था। कोई भी इमारत, कोई भी मकान किसी के नाम से रजिस्‍टर्ड नहीं हुआ करता था। कोई मासिक किराया नहीं, सिर्फ एकमुश्‍त पेशगी चलती थी। जिस रेंटियर इकनॉमी की बात आज पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के विश्‍लेषण में बार-बार की जाती है, वह अपने आदिम रूप में यहां हमेशा से मौजूद रही है। मसलन, अगर कोई बरसों से पेशगी देकर किसी भवन में रह रहा है तो उसे मकान मालिक निकाल नहीं सकता। किरायेदार को निकालने के लिए उसे पैसे देने होंगे, जिसके बाद वह चाहे तो बढ़ी हुई पेशगी पर कोई दूसरा किरायेदार ले आए। इस व्‍यवस्‍था ने शहर में रिश्‍तों को मज़बूत किया है, जिंदगी और व्‍यवसाय को करीब लाने का काम किया है, सबको समाहित करने का माद्दा जना है और नतीजतन बिजली की आग के लिए हालात पैदा किए हैं। शर्मा के मुताबिक यह परिपाटी अब दरक रही है, हालांकि अब भी कलकत्‍ता के पुराने ऐतिहासिक इलाकों में दिल्‍ली वाली खुरदुरी अपहचान ने पैर नहीं पसारे हैं। शायद इसीलिए बकुलिया हाउस के ज़मींदार मुखर्जी और किरायेदार डॉ. मुखर्जी दोनों ही यहां के इतिहास को बराबर साझा करते हैं।

    शायद इसीलिए शर्मा जी से जब हम खालसा होटल का जि़क्र करते हैं, तो वे उसके मालिकान को झट पहचान लेते हैं। हमने इसके मालिक सरदारजी से जो सवाल पूछा, ठीक वही सवाल शर्मा जी ने भी बरसों पहले पूछा था। चौरंगी के सदर स्‍ट्रीट पर एक गली में खालसा होटल 1928 से जस का तस चल रहा है। जितना पुराना यह होटल है, उतनी ही पुरानी है वह आयताकार स्‍लेट जिस पर सरदारजी और उनकी पत्‍नी हिसाब जोड़ते हैं। हमने पूछा यह स्‍लेट क्‍योंपूरी सहजता से वे बोले, ''देखो जी, जितनी बड़ी यह स्‍लेट है, आजकल उतने ही बड़े को टैबलेट कहते हैं। चला आ रहा है बाप-दादा के ज़माने से, पेपर भी बचता है।''ऐसा लगता है गोया ग्राहक भी बाप-दादा के ज़माने से चले आ रहे हों। हमारे पीछे बैठे एक बुजुर्गवार रोज़ सुबह ग्‍यारह बजे के आसपास नाश्‍ता करने आते हैं। नाश्‍ता यानी रोटी और आलू-मेथी की भुजिया। वे बताते हैं कि इस शहर ने शरतचंद्र की कद्र नहीं की। रबींद्रनाथ के नाम पर यहां सब कुछ है, शरत के नाम पर कुछ भी नहीं। नज़रुल के नाम पर बस एक ऑडिटोरियम है। ''कवि सुभाष, कवि नज़रुल, ये भी कोई नाम हुआ भलापता ही नहीं लगता क्‍या लोकेशन है?''सरदारजी हामी भरते हैं, ''हम तो अब भी टॉलीगंज ही कहते हैं जी...।''स्‍टेशनों का नया नामकरण तृणमूल सरकार आने के बाद किया गया है। लोगों की ज़बान पर पुराने नाम ही हैं। यहां नए से परहेज़ नहीं, लेकिन पुराने की उपयोगिता इतनी जल्‍दी खत्‍म भी नहीं होती। खालसा होटल की रसोई अब भी कोयले के चूल्‍हे से चलती है। गैस है, हीटर भी है, लेकिन तवे की रोटी चूल्‍हे पर सिंकी ही पसंद आती है लोगों को। लड़के कम हैं, सरदारजी खुद हाथ लगाए रहते हैं। उनकी पत्‍नी इधर ग्राहकों को संभालती हैं। ऑर्डर लेती हैं, हिसाब करती हैं। अंग्रेज़ों से अंग्रेज़ी में, हिंदियों से हिंदी में और बंगालियों से बांग्‍ला में संवाद चलता है। इस व्‍यवस्‍था को कंजूसी का नाम भी दे सकते हैं, लेकिन कंजूसी अपनी ओर खींचती नहीं। स्‍लेट खींचती है, चूल्‍हा खींचता है, और वह केले का पत्‍ता खींचता है जिसे खालसा होटल के बाहर गली में बैठे छपरा के मुसाफिर यादव पान लपेटने के काम में लाते हैं। कहते हैं कि इसमें पान ज्‍यादा देर तक ताज़ा रहता है। हो सकता है, नहीं भी। लेकिन महुआ को केले से कलकत्‍ता में टक्‍कर मिल रही है। पान लगाते वक्‍त मुसाफिर पास में कुर्सी पर बैठे एक अधेड़ चश्‍माधारी व्‍यक्ति से कुछ-कुछ कहते रहते हैं। ''कौन हैं ये?''''यहां के डॉन...'', बोल कर मुस्‍कराते हैं मुसाफिर। ''विंध्‍याचल में मंदिर के ठीक सामने घर है। यहां बहुत पैसा बनाए हैं... सब इनका बसाया हुआ है। यहां सब पटरी वाले मिर्जापुर, विंध्‍याचल के हैं, इन्‍हीं के लाए हुए। इनके कहे बिना पत्‍ता भी नहीं हिलता यहां।''

    अबकी हमने गौर से देखा। लोहे की एक कुर्सी पर गली के किनारे बैठे डॉन टांगें फैलाए सामंत की मुद्रा में चारों ओर हौले-हौले देख रहे थे। मध्‍यम कद, गठीला बदन, पचास पार उम्र, आंख पर चश्‍मा और गाढ़ी-घनी मूंछ, जो अब तक पर्याप्‍त काली थी। बदन पर सफेद कुर्ता पाजामा। हाव-भाव में अकड़ साफ दिखती थी, एक रौब था, लेकिन उसमें शालीनता भी झलक रही थी। जैसे पुराने ज़माने के कुछ सम्‍मानित गुंडे हुआ करते थे, कुछ-कुछ वैसे ही। बस लंबाई से मात खा रहे थे और धोती की जगह पाजामा अखर रहा था। उनके सामने स्‍टूल पर कुछ पैसे रखे थे। हमें लगा शायद वसूली के हों, लेकिन मुसाफिर ने बताया कि यह दिन भर भिखारियों को देने के लिए है। जाने क्‍यों, डॉन को देखकर डर नहीं लग रहा था, बल्कि एक खिंचाव सा था। रात में हमने उन्‍हें उसी बाज़ार में एक हाथ रिक्‍शे पर टांगे मोड़ कर बैठे चक्‍कर लगाते भी देखा। फिर अगले चार दिन मुसाफिर के यहां पान लगवाते उन्‍हें देखते रहे, गोया वे कोई स्‍मारक हों, संग्रहालय की कोई वस्‍तु। ज्ञानी यादव ने जिन आगल-पागल का जि़क्र किया था, शायद वे मूर्तियों में बदल चुके ऐसे ही इंसान होंगे जिनकी आदत इस शहर को पड़ चुकी होगी। 

    ट्राम की आदिम हैंडिल का खट-खट राग 
    सहसा लगा कि मुझे ऐसे लोगों को देखने की आदत पड़ रही है। सवारी के इंतज़ार में बैठे हाथ रिक्‍शा वाले बुजुर्ग, ट्राम में निर्विकार भाव से हमेशा ही आदतन पांच रुपए का टिकट काटते बूढ़े और शांत बंगाली कंडक्‍टर, ड्राइवर केबिन में पुराने पड़ चुके पीले दमकते लोहे की आदिम हैंडिल को आदतन दाएं-बाएं घुमाते लगातार खड़े चालक, चौरंगी के पांचसितारा होटल के बाहर पिछले तेरह बरस से नींबू की चाय बेच रहे अधेड़ शख्‍स, सब संग्रहालय की वस्‍तु लगते थे। उन्‍हें देखकर खिंचाव होता था, इसलिए नहीं कि उनसे संवाद हो बल्कि इसलिए कि उनमें कुछ तो हरकत हो। जिंदगी की ऐसी दुर्दांत आदतें देखने निकले हम पहले ही दिन इस शहर को भांप गए थे जब हमारी ट्राम चलते-चलते शोभा बाज़ार सूतानुटी पहुंच गई और हम बीच में ही कूद पड़े।

    सूतानुटी- यह शब्‍द हफ्ते भर परेशान करता रहा। किसी ने बताया कि शायद वहां सूत का काम होता रहा हो, इसलिए सूतानुटी कहते हैं। दरअसल, अंग्रेज़ी ईस्‍ट इंडिया कंपनी के प्रशासक जॉब चार्नाक ने जिन तीन गांवों को मिलाकर कलकत्‍ते की स्‍थापना की, उनमें एक गांव सूतानुटी था। बाकी दो थे गोबिंदपुर और कलिकाता। चार्नाक खुद सूतानुटी में ही बसे। आज सूतानुटी सिर्फ शोभा बाज़ार के नाम के साथ लगा हुआ मिलता है और इससे पहचान की जाती है उस इलाके की, जिसे फिल्‍मकार जॉर्गन लेथ ने लार्स वॉन ट्रायर के पूछने पर दुनिया का नर्क कहा था। इसी नर्क को लोग सोनागाछी के नाम से जानते हैं। सोनागाछी को लेकर तरह-तरह की कल्‍पनाएं हैं, मिथक हैं, कहानियां हैं। जिंदगी के अंधेरे कोनों में सोनागाछी एक कामना है, ईप्‍सा है, लालसा है। जिंदगी की धूप में सोनागाछी लाखों लोगों के लिए रोटी है, पानी है। कहते हैं कि यह एशिया का सबसे बड़ा यौनकर्म केंद्र है। सैकड़ों कोठे और हज़ारों यौनकर्मी- जैसा हमने पढ़ा है। बेशक, ऐसा ही होना चाहिए। रबींद्र सरणी पर बढ़ते हुए शाम के आठ बजे अचानक बाएं हाथ एक गली में सजी-संवरी लड़कियां कतार में दीवार से चिपकी खड़ी दिखती हैं। बाहर जिंदगी अनवरत जारी है। भीतर गलियों में जाने पर एक विशाल मंडी अचानक नज़रों के सामने खुलती है, कहीं कतारबद्ध, कहीं गोलियाए, कहीं छितराए- सिर्फ औरतें ही औरतें। हमें डराया गया था, चेताया गया था, लेकिन जिन वजहों से, वे शायद ठीक नहीं थीं। हमें डर लगा वास्‍तव में, लेकिन उन वजहों से जिनसे इंसान भेड़ों में तब्‍दील हो जाते हैं। इस इलाके की पूरी अर्थव्‍यवस्‍था देह के व्‍यापार से चलती है और यह इलाका इतना छोटा भी नहीं। यह दिल्‍ली के श्रद्धानंद मार्ग जितना सघन भी नहीं, कि अमानवीय होने की भौगोलिक सीमा को छांट कर इंसानी सभ्‍यता को कुछ देर के लिए अलग कर लिया जाए। यहां जिंदगी और धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ती जिंदगी के बीच फर्क करना मुश्किल है। देवघर का पानवाला, समस्‍तीपुर का झालमूड़ी वाला, आगरे का मिठाई वाला, कलकत्‍ता का चप्‍पल वाला, सब यहीं सांस लेते हैं, जिंदा रहते हैं। चप्‍पल वाला कहता है, ''आगे जाइए, वर्ल्‍ड फेमस जगह है, बहुत कुछ देखने को मिलेगा...।''दिल्‍ली में अजमेरी गेट से आगे निकलते ही अगर पूछें, तो इस सहजता से श्रद्धानंद मार्ग जाने को कोई कहता हुआ मिले, यह कल्‍पना करना कठिन है। दिल्‍ली में जो नज़रें पीछा करती हैं, उनमें इंसान और इंसान के बीच फांक होती है। वहां हिकारत है, अंधेरी बदनाम सड़कों पर जाना आपको संदिग्‍ध बनाता है। कदम-कदम पर निषेधाज्ञाएं हैं। यहां नहीं है। इसीलिए हम बड़ी आसानी से सोनागाछी में घुस जाते हैं, टहल कर निकल आते हैं और करीब आधे घंटे के इस तनाव में सिर्फ एक शख्‍स करीब आकर कान में पूछता है, ''चलना है क्‍या सर...?''हमारी एक इनकार उसके लिए काफी है।

    यह शहर एक संग्रहालय की तरह आंखों के सामने खुलता है 
    सोनागाछी कलकत्‍ता के बाहर से विशिष्‍ट लगता है, लेकिन वहां रहते हुए उसकी जिंदगी का एक हिस्‍सा। ज़रूरी हिस्‍सा। चूंकि शोभा बाज़ार, गिरीश पार्क, बहू बाज़ार, बड़ा बाज़ार और यहां तक कि चितपुर में जिंदगी इतनी सघन और संकुचित है; चूंकि बसों और मेट्रो में मौजूद महिलाओं का होना अलग से नहीं दिखता; चूंकि गली में खड़ी लड़की और गली के बाहर एक दुकान पर बैठी सामान बेचती लड़की एक ही देश-काल को साझा करती हैचूंकि बाहर से आया आदमी अमानवीयता की सीमा को पहचान नहीं पाता; चूंकि यहां जितना व्‍यक्‍त है उतना ही अव्‍यक्‍त; चूंकि एक दायरा है जिसमें सब, सभी को जानते हैं, पहचानते हैं और इसीलिए एक साथ बराबर खुलते या बंद होते हैं; इसलिए यह शहर एक भव्‍य संग्रहालय की मानिंद हमारे सामने खुलता है। इसके लोग जिंदगी जीते हैं अपने तौर से, जहां की खटर-पटर शायद हम सुन नहीं पाते या फिर जिंदगी की आवाज़ ने खटराग को अपने भीतर समो लिया है। इसका कलकत्‍ता की सड़कों से बेहतर समदर्शी और क्‍या हो सकता है। जितनी और जैसी जिंदगी घरों-मोहल्‍लों में, उतनी ही सड़कों पर। ट्राम, कार, टैक्‍सी, पैदल, ठेला, हाथ रिक्‍शा, बस, मिनीबस, ट्रक, सब कुछ एक साथ सह-अस्तित्‍व में है। बड़ा बाज़ार एक आदर्श पिक्‍चर पोर्ट्रेट है। किसी को कोई रियायत नहीं। सड़क पर बिछी पटरियां हैं, पटरियों में धंसी सडक। ट्राम का होना और नहीं होना दोनों एक किस्‍म के अनुशासन से बंधा है। एक साथ दो दिशाओं से दो ट्रामें आती हैं, तब भी यह अनुशासन नहीं बिगड़ता।

    जिसे हम सह-अस्तित्‍व कह रहे हैं, वही इस शहर का जनवाद है। ज़ाहिर है यह एक दिन में नहीं पनपा होगा। किसी भी शहर की संस्‍कृति एक दिन में नहीं बनती। उत्‍तरी 24 परगना के रहने वाले कलकत्‍ता में ही पले-बढ़े टैक्‍सी ड्राइवर सुबोध बताते हैं, ''यह शहर ज़रा सुस्‍त है। बंगाली आदमी खट नहीं सकता। उसकी प्रकृति में ही नहीं है। इसीलिए यहां खटने वाला सब काम बिहारी लोग करता है।''ज़ाहिर है, जो शहर खटता नहीं, वह सोचता होगा। सोचने वाले शहर का पता इसकी कला, साहित्‍य, सिनेमा, संस्‍कृति आदि में ऊंचाई से मिलता है। बनारस और इलाहाबाद खुद को इस मामले में इसीलिए कलकत्‍ता के सबसे करीब पाते हैं। यह बात अलग है कि जनवाद के प्रत्‍यक्ष निशान जो कलकत्‍ता में हमें दिखते हैं, वे निश्चित तौर पर पब्लिक स्‍पेस में वाम सरकार के दखल का परिणाम होंगे। ठीक वैसे ही, जैसे बनारस धार्मिक प्रतीकों से पटा पड़ा है चूंकि वहां ब्राह्मणवाद के मठों का राज रहा है। यह ब्राह्मणवाद अपने अभिजात्‍य स्‍वरूप में बहुत महीन स्‍तर पर कलकत्‍ता में अभिव्‍यक्‍त होता है, बनारस जैसा स्‍थूल नहीं। गीतेश शर्मा इसे वाम की कामयाबी के तौर पर गिनाते हैं। वरना क्‍या वजह हो सकती थी कि कालीघाट के प्रसिद्ध काली मंदिर में मिथिला के पंडों का राज है, बंगालियों का नहींइस वाम प्रभाव का एक और संकेत यह है कि देश के बाकी शहरों की तरह यहां गांधी-नेहरू परिवार के नाम पर भवनों, सड़कों, पार्कों, चौराहों का आतंक नहीं है। इस लिहाज से कलकत्‍ता आज़ादी के बाद देश भर में पसरे कांग्रेसी परिवारवाद का एक एंटी-थीसिस बन कर उभरता है जिसे लेनिन, शेक्‍सपियर, कर्जन, लैंसडाउन जैसे नाम वैभव प्रदान करते हैं।

    यह जनवाद मूल बाशिंदों की बुनियादी ईमानदारी में भी झलकता है। मैं एक दुकान पर रात में चार सौ रुपए भूल आता हूं और अगली दोपहर मुझे बड़ी सहजता से वे पैसे लौटा दिए जाते हैं। यह घटना कलकत्‍ता के बाहरी इलाके में घटती है, बनहुगली के पार डनलप के करीब। बाहरी इलाके आम तौर पर शहर की मूल संस्‍कृति से विचलन दिखाते हैं, एक कस्‍बाई लंपटता होती है ऐसी जगहों पर। कलकत्‍ता में ऐसा नहीं है, तो इसलिए कि लोगों में अब भी सरलता-सहजता बची है। मुख्‍य चौराहों पर ट्रैफिक लाइट को भीड़ के हिसाब से नियंत्रित करने के लिए बिजली के डिब्‍बे के भीतर बटन दबाते रहने वाले यातायात पुलिसकर्मी का हाथ इस जनवाद की विनम्र नुमाइश है। कोई सेंट्रल कंट्रोल रूम नहीं जो शहर की भीड़ को एक लाठी से हांकता हो। जैसी भीड़, वैसी बत्‍ती। सफेद कपड़ों में गेटिस वाली पैंट कसे चौराहे पर तैनात ट्रैफिक पुलिसवाला जब रास्‍ता बताता है, तो उससे डर नहीं लगता। जिस शहर में पुलिस से डर नहीं लगता, वहां के लोग क्‍या खाक डराएंगे। इंसान, इंसान से महफूज़ है। यही कलकत्‍ता की थाती है। बिशेन दा ने बातचीत में कहा था कि कलकत्‍ता में बम नहीं फूटता, दिल्‍ली, मुंबई, हैदराबाद में फूटता है। इस बात पर किसी ने गौर किया कि नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन यह सच तो है।

    आखिरी दिन हम मुसाफिर के यहां खड़े पान बंधवा रहे थे। उधर कुर्सी पर बैठा डॉन कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था। उसे देखने की आदत में यह असामान्‍य हरकत हमें नागवार गुज़रती है। अचानक वह उठता है, गली में बहती नाली के सामने खड़े होकर नाड़ा खोल देता है। सरेआम पेशाब की तेज़ धार से हमारा ध्‍यान टूटता है। मैंने पूछा, ''कैसी आवाज़ निकाल रहे थे ये?''''प्रैक्टिस कर रहे थे बोलने की... हर्ट अटैक हुआ था न, तब से आवाज़ चली गई है'', मुसाफिर जाते-जाते इस शहर का आखिरी राज़ खोलते हैं। जो अब तक संग्रहालय की वस्‍तु थी, वह अचानक सहानुभूति का पात्र बन जाती है। मित्र कहते हैं, यह कलकत्‍ता है महराज, जहां का डॉन भी बेज़ुबान है। कौन नहीं रह जाएगा इस शहर मेंचंपा ठीक कहती थी, कलकत्‍ते पर बजर गिरे...।

    पिया गइलन कलकतवा ए सजनी... 



     (अतिरिक्‍त तस्‍वीरों के साथ प्रतिरोध डॉट कॉम से साभार) 

    नेपाली क्रान्ति: विजय उन्माद से पराजय के कोहराम तक

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    12/03/2013

    नेपाली क्रान्ति: विजय उन्माद से पराजय के कोहराम तक

    नरेश ज्ञवाली

    नरेश ज्ञवाली पत्रकार हैं और नेपाली राजनीति पर लगातार लिखते रहे हैं। नेपाल में संविधान सभा के चुनाव संपन्‍न होने के बाद की स्थिति पर लिखा उनका यह आलेख समकालीन तीसरी दुनिया के दिसंबर 2013 अंक में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित है। इसे पढ़ने के दौरान जो भी प्रूफ/संपादन की गलतियां दिखाई दें, अनुरोध है कि पाठक उन्‍हें नज़रंदाज़ कर दें क्‍योंकि नेपाली फॉन्ट से हिंदी में कनवर्ट करने की यह गड़बड़ी है। इसके अलावा, कोशिश है कि समूचा लेख जस का तस हम आपके सामने रखें और इसी वजह से कई शब्‍द इसमें नेपाली रंगत लिए हुए मौजूद हैं। हम यहां इसे साभार छाप रहे हैं, अलबत्‍ता वहां छपे लेख से इसमें वर्तनी/संपादन संबंधी कुछ फर्क हो सकता है। 



    मातम है
    सन्नाटा है
    यहां सब खामोश हैं
    लेकिन वे लोग क्यों
    गम्भीर नहीं हैं

    शायद सत्ता की ललक
    अभी भी बाकी है
    यहां तो अभी भी एक प्यास बाकी है
    यह किस ओर का रास्ता है?
    क्रान्ति अथवा विघटन!




    इतिहास को साक्षी मानकर जनता के सामने परिवर्तन की मशाल जलाने वालेनेपाल में खुद उसी मशाल से जलने के कगार पर खडे हैं फिर भी सत्ता की ललक उनके कानों में सुरीली झंकार बनकर गूंज रही है। शायद हो भी सकता कि संसदीय राजनीति से वे नेपाली जनता को मुक्त भी करा सकते। राजनीतिक-वैचारिक विचलन को बारबार रोकने तथा उसको सही ढंग से निर्देशित करने के अवसर को लचकता के साथ प्रयोग करने के नेपाली मॉडल के कारण नेपाली क्रान्ति आज विजय उन्माद से पराजय के कोहराम तक का रास्ता तय कर चुकी है ।

    क्रान्ति की राह से शायद ऐसे बहुत ही कम राष्ट्र गुजरे होंगे जहां क्रान्तिकारियों ने सत्ता पर अपनी पकड स्‍थापित कर ली लेकिन सत्ता के गलियारों में घूम रहे पुरानी राज्य व्यवस्था के पालितों को अपने ही लाल योद्धा देख कर अथवा कहें कि लचकता का अनुपम उदाहरण पेश कर उन्हीं के शिकार हो गए हों। नेपाल आज उन्हीं पुराने राज्य व्यवस्था के गलियारी शैतानों के चालाकीपूर्ण परिणाम अथवा कलाबाजियों में फंसा हुआ छटपटा रहा है, तो दूसरी ओर क्रान्ति योद्धाओं को 'लड़ाकूका दर्जा देने के परिणामस्वरूप वे आज खाडी के मुल्को में मजदूरी करने को अभिशप्त हैं।

    १९ नवम्बर (मंसिर ४) को सम्पन्न चुनावी परिणाम ने क्रान्ति के नेतृत्वकर्ताओं को एक बार बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है कि क्या वे सही रास्ते होकर क्रान्ति की दिशा में जा रहे हैं अथवा वह रास्ता विघटन का हैजब क्रान्ति के नेतृत्वकर्ता की बात आती है तो लोग बडे ही एकतरफा हो जाते हैं। कोई कहता है कि इसका नेतृत्वकर्ता पुष्पकमल दाहाल 'प्रचण्डहै तो कोई कहता है इसका नेतृत्वकर्ता मोहन वैद्य 'किरण'हैं। सवाल यहां नेतृत्वकर्ता भर का नहीं है, जैसा लोग सोचते हैं। सवाल तो उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम नेपाली जनता के सामनेअपने संकल्प के सामनेअपने अतीत के सामनेअपनी विचारधारा के सामने तथा हजारों शहीदों के प्रति ईमानदार हैंहम अभी भी संकल्पकृत हैंहम अभी भी जनता की मुक्ति के लिए मर मिटने को तैयार हैंअथवा जो रास्ता हम तय कर रहे है वह पूरी तरह ईमानदारी भरा और समर्पण योग्य है?

    आज कई आम नेपाली जो माओवादियों से आमूल परिवर्तन की अपेक्षा लगाए बैठे थे, उनके परिवार का एक सदस्य खाडी मुल्कों मेंअफ्रीकी मुल्को में तथा मलेशियाकोरिया में अपने खून को पसीने में तब्दील कर अपने परिवार को जिन्दा रखने की जद्दोजेहद में जुटने को अभिशप्त है। आज वे कई योद्धा जो क्रान्ति की चाह में अपनी जान हथेली पर लेकर सामन्त तथा दलालों को दहाड़दहाड़ कर ललकारते थे आज वे गाँव के उन्हीं सामन्त तथा शहरिया दलाल पूंजीपति के आगे हाथ पसारने को बाध्य हैं क्योंकि उनके पास क्रान्ति की नेतृत्वकर्ता पार्टी का दिया हुआ ऐसा उपहार है जिसे हम डिप्रेशनलाचारी और अपंगता कहते हैं।

    मुझे कई लोग सुदूर गाँवों से फोन कर के पूछते हैं कि क्या पार्टी संघर्ष में जाएगीक्रान्ति करेगीऔर कहते हैं सरकार में अथवा संसद में जाना तो हमारे लिए घातक होगा, नहींमैं उन लोगों से क्या कहूं कि हां, आप सही हैं? क्योंकि मैंने कई बार ऐसा महसूस किया है कि पार्टी के किसी निर्णय में जनता ने पूर्ण समर्थन जताया और पार्टी ने अपना रुख मोड़ दिया। ऐसी कई घटनाओं की फेहरिस्त बाजार में बिखरी पड़ी है जब पार्टी ने निर्णय किया और जनता ने साथ दिया लेकिन बाद में पार्टी उसे छोड़ कर दूसरे रास्तों में समझौतों पर उतर गई। जनताकार्यकर्ता देखते रह गए, तभी क्रान्ति का दूसरा नारा फिर लहराते हुए सामने आ पहुंचा।

    मैं फिर जोर देकर कहना चाहूंगा कि मैं यहां किसी एक पार्टी की बात नहीँ कर रहा। यह सवाल सिर्फ एक पार्टी के हक़ में नहीं है। यह परिवर्तन को गले लगाने को बेताब जनता की चाह को पूरा करने की दिशा में पार्टी द्वारा की जाने वाली सामूहिक प्रतिबद्धता का सवाल है जिससे किरण और प्रचण्ड दोनों ही अछूते नहीं रह सकते। अंधेरे का अंत कर कोई एक नेता सवेरा ला दे, ऐसी सम्भावना भी अत्यन्त न्यून दिखाई देती है। जनता के लिए सवेरे का अर्थ है उनके ही जीवन में क्रान्ति की मशाल ज्वालामुखी हो उठे और उनका जीवन अठारहवीं सदी का जीवन न हो कर 21वीं सदी का जीवन हो, जिसके लिए वे हरदम तैयार हैं। ऐसा लगता है कि नेपाली जनता का दसरा नाम ही आन्दोलन और संघर्ष है।

    शान्ति प्रक्रिया होते हुए पार्टी ने पहले संविधान सभा में भाग लिया और जनता ने माओवादियों से इतनी आस लगाई अथवा कहें उनको आशाएं बाँटी गईं जो पार्टी पूरी नहीं कर सकी। संविधान सभा होते हुए पार्टी ने सरकार का नेतृत्व भी दो बार किया लेकिन इस बीच पार्टी में आर्थिक,सांस्कृतिकराजनैतिक, वैचारिक बिचलन हावी हो गया और नेताओं तथा पार्टी के मध्यम स्तर के शहरी कार्यकर्ताओं में आर्थिक रूप से आमूल परिवर्तन नज़र आने लगा। ऐसा भी नहीं कि पार्टी की विलासिता को किसी ने भी इंगित नहीं किया, लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही आर्थिक स्तर पर बारबार आलोचित होने के बावजूद  अपने को बदलने में असमर्थ प्रतीत होने लगा।

    मुझे अभी भी याद है जब पार्टी में नेताओं की विलासिता को कम करने के लिए पूरी केन्द्रीय समिति को निर्देशित किया गया तथा सभी पोलित ब्यूरो तक के लोगो को मोटरसाइकिल पर चलने को कहा गया, तो विलासिता का आरोप झेल रहे पार्टी अध्यक्ष प्रचण्ड से मैंने पत्रकार सम्मेलन में पूछा कि क्या वे चिलिमें जल विद्युत आयोजना की गाड़ी जो उन्होंने प्रधानमन्त्री होते समय ली थी वह सरकार को वापस कर खुद अपने से इस अभियान की शुरुआत करने को तैयार हैं? तब प्रचण्ड ने मुस्कुराते हुए कहा, ''आप निश्चिन्त रहिए, मैं यह गाड़ी नहीं छोड़ूंगा।'' मैं सन्न रह गया था।

    मैंने सोचा भी नहीं था कि प्रचण्ड का जवाब मुझे दहला देने वाला होगा। उस दिन से लेकर आज तक कई बैठकें हुईंकई ऐसे नारे दिए गए जो पार्टी को सुदृण करें लेकिन दुर्भाग्य से वैसा कभी व्‍यवहार में नहीं देखा गया। देखा गया तो वह जो और भी दिल दहला देने वाला था और पार्टी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष उसके साक्षी बने। लम्बे समय से कैन्‍टोनमेंट में रह रहे 19 हजार 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मीके मुख्य सात सहित 21 सहायक शिविरों में रात के 12 से लेकर 3 बजे तक शिविर नियन्त्रण में लेने के लिए नेपाली सेना को भेजा गया। उस समय प्रधानमन्त्री की भूमिका में अपनी ही पार्टी के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टराई थे। एक अध्याय का निर्मम अंत हो गया और देश में मौन छा गया। 

    पार्टी की शान्तिपूर्ण भूमिका की विभिन्न चरणों में समीक्षा की गई लेकिन सभी समीक्षाएं सब्‍जेक्टिव हो कर की गईं जहां उनको ऑब्‍जेक्टिव होना था। शान्तिपूर्ण राजनीति में प्रवेश के समय से संविधान सभा के विजय के समय तक जश्‍न था। गलीगली में माओवादी कार्यकर्ताओं में विजय की मुस्कान थी, कम से कम हार की मानसिकता तो कहीँ नहीं थी। देश के जिस कोने में आप जाइए, माओवादी की भूमिका के विषय में खुलकर चर्चा की जाती थी। ऐसा नहीं है कि आज उन सब चीजों पर पाबंदियां हैं। आज भी देश में माओवादी एजेण्डे को लेकर ही बहस होती है, सिर्फ उस चाह में और आज की चिन्ता में भिन्नता मिलेगी आपको।

    आज आपको एक ही चिन्ता देखने को मिलेगी, लेकिन आप निश्चिन्त रहिए कि वह चिन्ता माओवादियों के कम सीटों पर सिकुड़ जाने की वजह से नहीं उपजी है। वह चिन्ता है कम्युनिस्‍ट आन्दोलन की, मूवमेंट कीउनकी क्रान्तिकारिता कीजुझारूपन कीबल प्रयोग के सिद्धान्त को व्यवहार में लागू न कर पाने की। क्या वास्तव में नेपाल में माओवादी आन्दोलन पर दक्षिणपन्थ हावी हो गया हैअथवा यह उग्र वामपंथ की दिशा में क्रियाशील हैसवाल इतना ही नहीं, सवाल यह भी है कि हम जनता को कैसी व्‍यवस्था मुहैया कराने वाले हैं, क्योंकि माओवादी आन्दोलन का अंत संसद की सीटों में तो नहीं हो सकता।

    आज जब माओवादी आन्दोलन संसद के सीटों में तौला जाने लगा है तो समस्या और भी गहरी हो जाती है क्योंकि सरकार का नेतृत्व वे खुद कर रहे है और बैसाखी दक्षिणपंथियों की है। दूसरी तरफ सरकार में शामिल भी हैं लेकिन नेतृत्व और कोई कर रहा है। नेपाल में 60 साल से जारी कम्युनिस्‍ट मूवमेंट और माओवादी जनयुद्ध के जरिए पैदा हुई चेतना कोई आम बात नहीं, लेकिन स्थिति यह है कि आज उसके द्वारा आर्जित शक्ति माओवादी के पास नहीं के बराबर है। सबसे दुःखद पक्ष का निर्मम उजागर इस बार प्रचण्डकिरण और बाबूराम के चेहरों में देखने को मिलता था कि वास्तव में हमने गलतियां की हैं।

    प्रचण्ड संसदीय खेल का अभ्यास करते हुए ज्यादा सीटों के चक्कर में यह भुल गए कि जब राज्यसत्ता विदेशशियों के इशारों पर पलटवार करेगी तो उसको रोकने के लिए उनके पास क्या होना चाहिए और वे अभी किस चीज को सबसे ज्यादा मिस कर रहे हैं। इस संविधान सभा के चुनाव ने प्रचण्ड को स्पष्ट कर दिया कि वे जिसको सबसे ज्यादा निष्पक्ष और अपने पक्ष का मानते थे उसने तो भारत के पक्ष में निर्णय कर दिया। वह और कोई नहीं, मन्त्रीपरिषद के अध्यक्ष खिलराज रेग्मी और नेपाली सेना के प्रधान सेनापति गौरव शमशेर राणा थे। जिस सेना ने जनमुक्ति सेना के खिलाडी सहभागी होने वाले कई खेल त्याग दिए उस सेना की किसी भी कोण से पुनरसंरचना किए बगैर 'शाही नेपाली सेनासे 'नेपाली सेनाकह लोकतांत्रिक्‍ बताकर भरोसा करना सबसे बड़ी भूल थी, जिसे निर्वाचन के समय परिचालन किया गया।

    नेपाल के कम्युनिस्‍ट मूवमेंट का अंत करने की दिशा में भारतीय गुप्तचर संस्था 'रॉकी भूमिका पर भी नेपाल में कुछ किया जाना था जिसको व्यवहार में लागू करने के लिए सेना अदृश्य प्रमुख शक्ति थीसो वैसा ही हुआ। भारत का सत्ताधारी वर्ग नेपाल में एक ऐसी शक्ति की तलाश में था/है जो निष्पक्षता के आवरण में योजनाओं का कार्यान्वयन कर सके। वह रेग्मी से अच्छा कोई नहीं था। चुनाव के जरिए ही माओवादियों को साइज में लाया जाना था। सो उसने भारतीय माओवादियों को भी सबक सिखाने के लिहाज से नेपाल के माओवादियों को बुलेट से न हो कर बैलेट से ही करारा झापड़ दिया। भारत मामलों के जानकारों का मानना है कि भारत नेपाल में जल्द से जल्द संविधान चाहता है। यहां की प्राकृतिक सम्पदा को लेने के लिए भी नेपाल में भारत के पक्ष की सरकार का होना आवश्यक है जिससे उसे प्राकृतिक संसाधनों को लेने की दिशा में वैधानिक रास्ता खुला रहे। जाहिर है वह शक्ति माओवादी नहीं हो सकती, इसलिए भारतीय गुप्तचर संस्था नेपाल में माओवादियों को हराना चाहती थी। वैसे तो इसका दूसरा पहलू भी है कि यदि नेपाल के माओवादियों को साइज में लाया जा सकेगा तो भारत के माओवादी प्रभावित जिलों में नेपाल का उदाहरण देकर उसका अंत किया जा सकता है। यहां कहने की शायद जरूरत हो कि नेपाल के चुनावी परिणाम में पहले स्थान पर रही माओवादी पार्टी को तीसरा स्थान मिला है, तो वहीं राजतन्त्र के पक्ष में रही सबसे कमजोर शक्ति राष्‍ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी के मतों में भी काफी इजाफा हुआ है। ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं कि भारत में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की घोषणा चाहते हैं और राप्रपा के अध्यक्ष कमल थापा भी संवैधानिक राजतन्त्र तथा हिन्दू राष्ट्र की मांग किया करते हैं।

    वैसे तो पूरे नेपाल में यह भी चर्चा है कि माओवादी पार्टी को नियोजित रूप से हराया नहीं गया बल्कि जनता के बीच लोकप्रिय न होने के कारणों से खुद-ब-खुद वह हार का शिकार हुई है। लेकिन यदि माओवादी पार्टी की लोकप्रियता घटी है तो संसदवादी दलों (कांग्रेस/एमाले) की लोकप्रियता भी तो नहीं बढी है कि वे बहुमत ही ले आएं। चुनाव में हुई धांधली के विषय में अन्य कई दलों के शीर्ष नेताओं ने कहा है कि धांधली नेपाली सेना तथा सुरक्षा बलों के जरिए ही हुई है। इसमें मुख्य रूप से राप्रपा के प्रकाशचन्द्र लोहनीमधेसी जनअधिकार फोरम के उपेन्द्र यादवसंघीय समाजवादी के अशोक राईएकीकृत माओवादी के प्रचण्ड तथा नेकपामाओवादी के किरण भी हैं।

    माओवादी के अध्यक्ष प्रचण्ड चुनाव में सेना की मिलीभगत में धांधली होने के जहां आरोप लगाकर संविधान सभा में न जाने की बातें करते हैं, वहीं उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टराई सरकार में जाने के विषय में घुमावदार वक्तब्य निकाल कर संविधान सभा में सहभागी होने के विषय को उजागर करते हैं। लेकिन नेपाली राजनीति की बडी ही सरल कडी यह है कि जनता आन्दोलन के, मूवमेंट के पक्ष में है तो वहीं नेताओं का रुख सरकार में जाने का है। पार्टी के हाई कमिशन के नेता का मानना है कि यदि पार्टी संविधान सभा में तथा सरकार में नहीं जाएगी तो प्रतिक्रांति के किसी भी खेल को सिर्फ सडक से नहीं रोक पाएगी। इसलिए उनको संविधान सभा तथा सरकार में जाना चाहिए। लेकिन कार्यकर्ता कम्युनिस्‍ट मूवमेंट को बचाने के पक्ष में हैं। वह रास्ता जनता के आंगन और सड़क से अच्छा कुछ नहीं हो सकता।

    माओवादी पार्टी में राजनीतिक-वैचारिक रूप में बिगडे हुए अनेकानेक विषयों को सम्बोधित करने तथा शक्ति को पुनः संचित करने के लिए जनता के पास जाना ही सबसे उचित विकल्प दिखाई देता है, बजाय इसके कि वे सरकार में शामिल होने के लिए एक बार फिर संसदीय खेल खेलें। जनता की विभिन्न समस्याओं को सरकार के सामने रखते हुए क्रान्तिकारी आन्दोलन की सृजना यदि की जाती है तो नेपाल का वामपंथी आन्दोलन एक बार और हराभरा दिखाई देने लगेगा। मुरझाई हुई क्रान्तिकारिता एक बार फिर वसन्त क्रान्ति हो खिल उठेगी, जिसको पाने के लिए किरण के साथ की जाने वाली पार्टी एकता का सबसे बड़ा महत्व रहेगा। आज भी किरण की पार्टी में ईमानदार कार्यकताओं की बडी पंक्ति हैजो क्रान्ति की भखी है, पेट की नहीं। लेकिन अपने कम्युनिस्‍ट आन्दोलन को उठानेशक्ति अर्जन करनेजनता के पक्ष में उठ खडे होने की जगह यदि सरकार की चॉकलेटी गलियारों में पार्टी चली जाती है तो विगत के दिनों में एमाले होना ही आसान था। माओवादियों के नेताओं को वह भी नसीब नहीं होगा क्योंकि हेग का रास्ता उनके लिए खुलने का यह दूसरा संकेत है।

    मीडिया ट्रायल और साजिश, नतीजा आत्महत्या…

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    मीडिया ट्रायल और साजिश, नतीजा आत्महत्या…

    Khurshid anwar

    और आखिरकार मीडिया-सोशल मीडिया ट्रायल ने एक और जान लेली…जिसकी जान गई उसको मीडिया-सोशल मीडिया दोनों ने ही अपराधी साबित कर दिया था, क़ानून के अपना काम करने से पहले ही एक शख्स पर आरोप लगे, और क़ानून के अपना काम करने से पहले ही उस शख्स को मीडिया-सोशल मीडिया ने सज़ा ही दे दी. सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर के दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से खुदक़ुशी कर लेने की ख़बर मिलते ही बरबस राजेंद्र यादव याद आ गए और सीधे कहा जाए तो मीडिया-सोशल मीडिया ट्रायल से हाल के दिनों में जाने वाली ये दूसरी जान है.

    खुर्शीद अनवर प्रकरण में सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली और संदेह पैदा करने वाली बात ये है कि इस मामले को पिछले 3 महीने से सोशल मीडिया में प्रोपोगेंडे की तरह प्रचारित किया जाता रहा. आरोप लगाने वालों ने आरोपी पर कम और कुछ और लोगों पर ज़्यादा आरोप लगाए. सूत्रों के मुताबिक पीड़ित लड़की का वीडियो मोदी समर्थक सामाजिक कार्यकर्त्री मधु किश्वर के घर पर लगभग 3 माह पहले शूट किया गया लेकिन उसको सार्वजनिक अब किया गया. सवाल ये है कि आखिर जिस लड़की को मधु किश्वर 3 माह पहले ही अपने दफ्तर ले जा कर वीडियो शूट करवा सकती थी, उसे एक एफआईआर के लिए क्यों तैयार नहीं कर पाई? यही नहीं जानकारी ये भी कहती है कि पीड़िता एफआईआर नहीं चाहती थी, साथ ही उसने अपने तमाम साथियों से किसी भी तरह की घटना को सार्वजनिक न करने का अनुरोध भी किया था. अगर ऐसा नहीं था तो फिर पिछले 3 माह से ये वीडियो शूट करने के बाद भी मधु किश्वर इसे लेकर पुलिस के पास क्यों नहीं गई. साफ है कि मंशा में कहीं न कहीं कोई खोट ज़रूर था.

    mkishwar

    मधु किश्वर

    अब सवाल फेसबुक पर प्रोपोगेंडा करते रहने वाले लोगों पर भी है कि आखिर उनके पास इतने ही पुख्ता सबूत और जानकारी थे, तो वो इतने दिन से पुलिस के पास क्यों नहीं पहुंचे, इससे भी बढ़ कर सवाल इंडिया टीवी और जिया टीवी के संपादकों से है कि क्या वो अपने टीवी चैनलों को अदालत समझते हैं? जिया टीवी के नए नवेले सम्पादक जे पी दीवान के बारे में कुछ कहना बहुत ज़रूरी नहीं लेकिन रजत शर्मा क्या कभी इंडिया टीवी को पत्रकारिता करने वाला चैनल बनाना भी चाहते हैं या नहीं? क़मर वहीद नकवी, अमिताभ श्रीवास्तव समेत तमाम सार्थक पत्रकारों को इंडिया टीवी से जोड़ लेने के बाद भी क्या इंडिया टीवी को ये ही करना था? आपने एक पीड़िता के बयान को चलाया अच्छी बात है लेकिन क्या आपको टीवी पैनल में फासीवादियों के समर्थकों को बिठा कर आरोपी के पक्ष को बिना जांचे, बिना पुलिस की जांच आगे बढ़े, उसे दोषी करार दे देना उचित लगा? माफ कीजिएगा रजत शर्मा, लेकिन ये सैद्धांतिक और क़ानूनी दोनों तरीकों से अपराध है.

    इस मामले में साफ तौर पर ये सवाल उठना चाहिए कि आखिर किस मंशा के तहत मोदीवादी एक्टिविस्ट पिछले 3 महीने से ये वीडियो दबा कर बैठी रहीं, और शातिराना ढंग से समाज में बने माहौल का फ़ायदा उठाने के लिए 16 दिसम्बर को ही जारी किया गया? आखिर क्यों किसी पर लगने वाले आरोपों को बिना जांच सच मान कर आरोपी को दोषी बना देने का षड्यंत्र रचा गया? क्या अदालत-पुलिस और क़ानून के अलावा किसी को भी फैसला सुना देने का अधिकार है? क्या महज टीआरपी हासिल करने के लिए किसी की भी जान को दांव पर लगाया जा सकता है? क्यों नहीं इंडिया टीवी, जिया न्यूज़ समेत मधु किश्वर और उनके साथियों के खिलाफ़ खुर्शीद अनवर की सार्वजनिक क्षति और आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप दर्ज होना चाहिए? क्यों नहीं इंडिया टीवी के खिलाफ इस तरह के पुराने सभी मामलों की भी जांच होनी चाहिए? आखिर क्यों नहीं अब मीडिया-सोशल मीडिया ट्रायल पर रोक लग ही जानी चाहिए?

    रजत शर्मा आप जवाब दें…क्योंकि मधु किश्वर तो जवाब देने से रहीं, न तो वो पत्रकार हैं और न ही दरअसल सामाजिक कार्यकर्ता…वो विशुद्ध राजनैतिक कार्यकर्ता है.



    Read more: http://mediadarbar.com/24795/media-trial-and-conspiracy/#ixzz2nqmNViJW

    1984 के दंगों की तुलना गुजरात दंगों से नहीं की जा सकती: अमर्त्य सेन

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    1984 के दंगों की तुलना गुजरात दंगों से नहीं की जा सकती: अमर्त्य सेन

    Wednesday, 18 December 2013 13:02

    नई दिल्ली। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन सेन ने कहा है कि 2002 में गुजरात में हुए दंगों की तुलना 1984 में दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों से नहीं की जा सकती है।

    दरअसल इंफोसिस प्रमुख एन आर नारायणमूर्ति ने कहा था कि गुजरात में हुए दंगे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के मार्ग के बीच नहीं आने चाहिए। सेन ने नारायणमूर्ति के इस विचार को खारिज करते हुए यह बयान दिया।

    सेन ने हालांकि इस तथ्य को ''अत्यंत शर्मनाक''बताया कि 1984 के दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों को न्याय के कटघरे में नहीं लाया गया लेकिन उन्होंने सिख विरोधी दंगों और गुजरात में हुए दंगों में अंतर बताया।

    सेन ने तर्क दिया कि चुनावों में लड़ रहे मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी समेत कांग्रेस नेता सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। किसी ने उन पर इसका आरोप नहीं लगाया जबकि गुजरात में जब दंगे हुए तो उस समय नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे।

    उन्होंने एक निजी समाचार चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि सिख विरोधी दंगे कांग्रेस के सिद्धांत के अनुरूप नहीं हैं। सेन ने कहा कि गुजरात में मुसलमानों के साथ किए जाने वाले व्यवहार ने यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा बर्ताव किया जाता है।

    उन्होंने कहा, ''यह समस्या लगातार बनी हुई है।''

    उन्होंने साथ ही कहा कि नारायणमूर्ति उनके बहुत अच्छे दोस्त हैं लेकिन वह इस मामले में उनसे सहमत नहीं हैं।

    यह पूछे जाने पर कि हाल में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम मोदी की लहर दिखाते हैं या ये परिणाम कांग्रेस के खिलाफ लहर का नतीजा हैं, सेन ने कहा, ''मुझे लगता है कि शायद देश में कांग्रेस विरोधी लहर है और ऐसा इसलिए है क्योंकि शायद पार्टी थकी हुई है।''

    उन्होंने कहा, ''ऐसा शायद इसलिए हैं क्योंकि मोदी के बारे में एक बड़ी बात यह है कि कांग्रेस में जब नेतृत्व की समस्या का समाधान नहीं होता है तो किसी मजबूत नेता को इसका लाभ होता है।''

    यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें लगता है कि कांग्रेस को राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देना चाहिए, सेन ने कहा,

    ''उनकी अपनी कोई रणनीति होगी। चुनाव जीतने का वादा करके चुनाव नहीं जीता जाता। मुझे नहीं पता कि चुनाव जीतने के लिए इस समय कांग्रेस की रणनीति क्या है।''

    सेन ने आम आदमी पार्टी के उदय के बारे में कहा कि वह इसका स्वागत करते हैं लेकिन उन्हें उसके प्रदर्शन को लेकर संशय है।

    उन्होंने कहा, ''इस मामले में खुश होने के दो कारण हैं- एक कारण यह है कि ऐसा हुआ और दूसरा यह है- हम भारतीय बहुत निराशावादी हैं और यदि कोई चीज जो यह दिखाती है कि उन्होंने आशावादी सोच दिखाई है तो वह अच्छी ही होगी। इसलिए दोनों ही कारणों से मैं खुश हूं। ''

    सेन ने कहा कि उन्हें लगता है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए चुनौती बहुत आसान है। उन्होंने उम्मीद जताई कि नई पार्टी भारतीय राजनीति की एक बड़ी ताकत बनेगी।

    यह पूछे जाने पर कि उच्चतम न्यायालय के समलैंगिकता को फिर से अपराध की श्रेणी में लाने के फैसले ने उन्हें निराश किया है, उन्होंने कहा, ''बेहद निराशाजनक कहना भी कम होगा..... मैं यह नहीं दिखाऊंगा कि मैं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से ज्यादा जानता हूं लेकिन आप अब भी यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि क्या तर्क सही था।''

    उन्होंने कहा कि यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा का एक मसला है।

    सेन ने कहा ,''मुझे लगता है कि मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए आपको संसद में बहुमत के आशीर्वाद का इंतजार करना होगा और उच्चतम न्यायालय इसके बारे में कुछ नहीं करेगी, यह कहना उच्चतम न्यायालय की भूमिका समझने में असफलता प्रतीत होती है।


    मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने क्या कहा, यहां पढ़ें

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    [LARGE][LINK=/article-comment/16594-2013-12-18-07-54-42.html]मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने क्या कहा, यहां पढ़ें[/LINK][/LARGE]

    [*][LINK=/article-comment/16594-2013-12-18-07-54-42.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK][/*]
    [*][LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=9514f94cedde3649301b583b9a1aab5fd0e90df6][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK][/*]
    DetailsCategory: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK]Created on Wednesday, 18 December 2013 13:24Written by B4M
    सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीते रविवार को चेन्नई में थे. एक कार्यक्रम में उदघाटन भाषण देने आए थे. इसी दौरान उन्होंने मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर भी कुछ बातें कहीं. उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मजीठिया वेज बोर्ड सुनवाई मामले का समापन जनवरी लास्ट या फरवरी में हर हाल में हो जाएगा. द हिंदू अखबार में छपी खबर में मजीठिया वेज बोर्ड वाला हिस्सा इस प्रकार है....

    Regarding the wage board for journalists and non-journalists, he said the matter had been posted for hearing on January 7, 2014. The newspaper management had sought two days to give a reply and the case would be concluded by the end of January or February.

    पूरी खबर यूं है...

    Wake up to new types of cases, says CJI

    CHENNAI, December 16, 2013

    A new type of jurisprudence cases were cropping in the courts and judicial officers had to be prepared to tackle it, Chief Justice of India P. Sathasivam said on Sunday.

    Delivering the inaugural address at the launch of 'Redefining legal practice for advocates – generation next,' organised by Tamil Nadu State Judicial Academy (TNSJA), Justice Sathasivam said: "I have not heard about such cases in my earlier posting as judge in the High Courts or for six years in the Supreme Court. They take much of our time. So, the judicial officer has to understand the subject to tackle it effectively."

    Justice Sathasivam referred to several cases that were going on for years, such as long-pending mercy petitions of death-row convicts, Majithia Wage Board for Journalists and Non-journalists and other frivolous litigations which consumed the precious judicial time.

    He referred to October-December as a lean period as it was filled with festival holidays. Though, he was willing to work on some of the holidays to reduce pendency of cases, both the Bar and Bench members were not willing to do so.

    "The Bar and Bench serve the judicial institution that is overburdened. It has to work overtime to meet the newer challenges. In this onerous task, no one connected with the administration of justice, can afford to be idle. This applies to the lawyers' community as well," he said after releasing the Academy's logo.

    As on date, 14 executions were stayed by the Supreme Court as the mercy petitions of death-row convicts are pending.

    "We heard the arguments for one month and now are struggling to dispose the cases. The aggrieved parties are developing new jurisprudence by referring to a judgement of a Constitution Bench," he said.

    Though the advocates agreed that their clients had indulged in heinous crimes, they wondered how long a mercy petition could be kept pending? "Two cases are pending for 13 years. We may take a decision by January or February. We must develop a restraint of law," he said.

    Regarding the wage board for journalists and non-journalists, he said the matter had been posted for hearing on January 7, 2014. The newspaper management had sought two days to give a reply and the case would be concluded by the end of January or February.

    As many as 70 lakh cases were cleared in the nation-wide Lok Adalat held from November 23 to 30, of which 40 lakh were pre-litigation cases. The Madras High Court has topped the list by disposing of a maximum number of cases.

    Justice Sathasivam said that both judges and lawyers had a great role to play and they should make heartiest and transparent efforts to strengthen the judicial system. The 21 century posed several challenges and both Bar and Bench must strive to maintain public confidence in the rule of law.

    Madras High Court Judge and president, Board of Governors of TNSJA, Chitra Venkataraman gave an overall view of two-day refresher training programme for advocates having less than 10 years of practice.

    "So far, 1,000 advocates have enrolled for the refresher training course. The training will be imparted in Vellore, Salem, Tirunelveli, Puducherry, Thanjavur, Tiruchi, Chennai, Madurai and Coimbatore," she said.

    Advocate-General A.L. Somayaji urged the advocates to upgrade their knowledge and skill. Madras High Court Chief Justice and TNJSA Patron-in-chief Rajesh Kumar Agrawal spoke on the essence of good lawyering, while Supreme Court Judge Ibrahim Kalifulla spoke about legal profession — challenges, prospects and art of advocacy.

    (साभार- द हिंदू अखबार)

    खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने

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    खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने
    Khurshid Anwar

    खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने

    HASTAKSHEP

    जगदीश्वर चतुर्वेदी

    खुर्शीद अनवर की असामयिक मौत ने कल (18दिसम्बर 2013)अंदर तक उद्वेलित किया। वह मेरा मित्र था और बेहतरीन इंसान था। नए आधुनिक विचारों और मूल्यों को अर्जित करने और उनको जीने की उसमें अद्भुत क्षमता थी। जब वह जेएनयू में एम.ए. (उर्दू) में आया और पहली बार दाखिले के समय उससे जो परिचय हुआ था वह अन्त तक बरकरार रहा। विचारों से लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होने के साथ सर्जनात्मक मार्क्सवादी नजरिए को उसने सचेत रूप में अर्जित किया था। वह बेहतरीन गद्य लिखता था। साहित्य पर उसकी शानदार पकड़ थी और इस पकड़ का वह जीवन के हर मोर्चे पर  इस्तेमाल करता था। वह मानवीय गुणों और कमजोरियों का मिलाजुला शानदार इंसान था।

        खुर्शीद की मौत मुझे इसलिये भी तकलीफ दे रही है कि उसने मौत का अतार्किक रास्ता चुना, उसने आत्महत्या की। आत्महत्या के कारणों का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। लेकिन कई चीजें हैं जो हमें सोचने के लिये मजबूर कर रही हैं।

    खुर्शीद में अनेक गुण थे तो कई कमजोरियाँ भी थीं। उसके निजी जीवन में अनेक कष्ट भी थे, इसके बावजूद वह समस्याओं से लड़ रहा था। अचानक उसने जीवन से हताश होकर हार मान ली और आत्महत्या कर ली।

        खुर्शीद का मरना कई ज्वलन्त सवाल छोड़ गया है। पहला सवाल, हम व्यक्ति के निजी-जीवन में कितना, कहाँ तक और किस रूप में हस्तक्षेप करें ? दूसरा,  इंटरनेट या सोशल मीडिया का निजी समस्याओं, गलतियों, भूल, अपराध आदि के लिये किस रूप में और कितना इस्तेमाल करें ? तीसरा सवाल नए आधुनिक जमाने में किस तरह रहें और जियें ?

      नए आधुनिक जमाने में जीने के लिये आधुनिक चेतना का होना बेहद जरुरी है। हम जीते हैं आधुनिक जमाने में लेकिन हमारे सोच और नजरिए में अनाधुनिकता जड़ें जमाए है। मसलन्, कोई तकलीफ है, समस्या है, या दुविधा है तो सीधे पेशेवर जानकारों की मदद लेनी चाहिए और वे जो कहें वह करना चाहिए।

     यह सच है कि मनुष्य के पास मन है और मन बड़ा दुखदायी होता है। जिद्दी होता है। वह निज की बातें बड़ी मुश्किल से मानता है। लेकिन मन को यदि पेशेवर लोगों के हवाले कर दो तो चीजें आसानी से सुलझ जाती हैं अथवा मन को उधेड़बुन से मुक्ति मिल जाती है। खुर्शीद ने आत्महत्या क्यों की, यह तो वही जाने, लेकिन पेशेवरों की मदद लेता तो राहत में रहता।

           आधुनिक युग पेशवर जानकारों का युग है और इस युग के वे ही हमारे नाते-रिश्तेदार-मित्र हैं। पेशेवरों की राय पर विश्वास करना, अमल करना नए युग की माँग है। मेरा मित्र इस तथ्य को जानता था लेकिन अन्तिम समय में भूल गया और जान से हाथ धो बैठा।

        खुर्शीद की मौत कई पूर्वाग्रहों की ओर भी ध्यान खींचती है। मसलन्, यह पूर्वाग्रह है कि मीडिया में आपके खिलाफ यदि कुछ कहा जा रहा है और लिखा जा रहा है तो आप दोषी हैं। व्यक्ति दोषी है या निर्दोष है इसका फैसला जल्द नहीं किया जा सकता और इसके लिये हमें न्यायिक प्रक्रिया और संस्थानों पर विश्वास करके जीना होगा।

         जिस तरह डाक्टर के यहाँ जाना सामान्य बात है वैसे ही कोई दुर्घटना या अपराध होने पर पुलिस में प्रथम प्राथमिकी दर्ज होना सामान्य बात है। गिरफ्तारी होना, पुलिस द्वारा तहकीकात करना सामान्य बात है। इससे व्यक्ति को अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता।

       फेसबुक मित्र आए दिन अपराध-अपराध, एफआईआर-एफआईआर की रट लगाए रहते हैं,वे मानकर चल रहे हैं कि वेलोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में खड़े हैं और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा कर रहे हैं, या स्त्री के अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं, इस तरह की राय रखने वाले या हरकत करने वाले बुनियादी तौर पर दो लोगों के विवाद में हस्तक्षेप कर रहे होते हैं। वे नहीं जानते कि निजता की लक्ष्मण-रेखा उनसे कहाँ छूट गयी।

       यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसके खिलाफ पीड़िता को यथाशक्ति कानून की मदद लेनी चाहिए। जिन लोगों को उसके प्रति सहानुभूति है वे उससे निजी तौर पर सहानुभूति व्यक्त करें, उसकी हरसम्भव मदद करें, लेकिन सोशल मीडियाया मीडिया का इस प्रक्रिया में औजार की तरह इस्तेमाल एकदम गलत है। यह इस्तेमाल तब जरूरी है जब अपराधी ने मीडिया या सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया हो।

       भारत में यह ट्रेंड नजर आ रहा है कि सोशल मीडिया पर पीड़ित अपनी बात कह रहे हैं, वे जानते हैं कि सोशल मीडिया पर अपराध का समाधान नहीं हो सकता। अपराध का समाधान तो न्यायालय में होगा। सोशलमीडिया जाँच एजेंसी नहीं है,पुलिस ही एकमात्र जाँच एजेंसी है। पीड़ित को मालूम होना चाहिए कि पीड़ा की शिकायत कहाँ करें, वरना त्रासदी का होना तय है।

        अपराध की शिकायत का चैनल पुलिस थाना है, फेसबुक या टीवी चैनल नहीं। जिस महिला ने खुर्शीद पर आरोप लगाए हैं उसे पुलिस में जाने से किसी ने रोका नहीं था, देर से ही सही लेकिन उसने शिकायत की और पुलिस ने एफआईआर लिखी, जाँच आरम्भ होनी थी, इसके साथ ही खुर्शीद की आत्महत्या की खबर आ गयी। एक चैनल विशेष ने समूचे प्रसंग को सनसनीखेज बनाकर उछाल दिया। अनेक लोगों ने फेसबुक पर इस मसले पर मनमाने कमेंटस लिखे। फेसबुक पर लिखने वालों में अधिकतर वे लोग हैं जो इस घटना के साक्षी नहीं थेयदि वे साक्षी थे तो उनको पीड़िता की मदद करनी चाहिए थी और समय रहते उसे पुलिस थाने ले जाते, इलाज कराते, मेडिकल कराते, वकील जुगाड़ करते।

    पीड़िता से सहानुभूति के नाम पर अन्य पर लिखना अतार्किक और हस्तक्षेपकारी है। यह कानूनन गलत है। कायदे से उन सभी महानुभावों को जिन्होंने फेसबुक पर कमेन्ट्स लिखकर इस प्रसंग पर अपने मन की बातें कही हैं इस केस में अदालत में जाकर गवाही देनी चाहिए। अदालत में जाने पर ही और उनको पता चलेगा कि उनकी बात में कितना दम है, वे सत्य बोल रहे हैं या असत्य बोल रहे हैं, उनका फेसबुक लेखन न्यायपूर्ण था या अन्यायपूर्ण था ?

       किसी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर हुयी है या उसकी गिरफ्तारी हुयी है इससे अपराध सिद्ध नहीं हो जाता। पुलिस में एफआईआर दर्ज होना या मुकदमा चलना कोई गाली नहीं है। यह सामान्य आधुनिक सामाजिक और न्यायिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का पेशेवर लोगों की मदद लेकर सामना करना चाहिए। इस प्रक्रिया में पेशेवर लोग जो कहें वह करना चाहिए।

       जीवन एकबार मिलता है। अपराध किया है तो सामना करो, निर्दोष साबित करो, वरना सजा पाओ और अपने को नए इंसान की तरह फिर से निर्मित करो। आत्महत्या इस परेशानी का समाधान नहीं है। सोशल मीडिया इस समस्या का समाधान नहीं है।

        सोशल मीडिया निर्वैयक्तिक कम्युनिकेशन का माध्यम है। उसका हम निजी, आंतरिक, सहजजात अनुभूतियों के माध्यम के रूप में दुरूपयोग करना बंद कर दें। जो लोग आए दिन फेसबुक पर निजी मन की परतें खोलते रहते हैं वे किसी न किसी रूप में आनतरिक दुखों और गहरे अवसाद के शिकार हैं। आन्तरिक दुखों या अवसाद का समाधान समाज में खोजें, पेशेवरलोगों की मदद लें, अपने आस-पास के जीवन में खोजें। सोशल मीडिया में आन्तरिक दुखों के समाधान नहीं हैं, इसके विपरीत आन्तरिक दुखों को जब आप यहाँ पर व्यक्त करते हैं तो अपनी मुश्किलें बढ़ा लेते हैं।

    खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने,हस्तक्षेप पर हमारी प्रतिक्रियाः मुद्दों पर लौटे तमाम मित्र,तो बेहतर!

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    खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने,हस्तक्षेप पर हमारी प्रतिक्रियाः मुद्दों पर लौटे तमाम मित्र,तो बेहतर!

    पलाश विश्वास


    यह प्रतिक्रिया हमने पंडित जगदीश्वर चतुर्वेदी के हस्तक्षेप पर लगे आलेख की प्रतिक्रिया में वहीं टिप्पणी बाक्स पर कंपोज की थी।जो शायद लंबाई की वजह से पोस्ट नहीं हो पायी।हमने अपने ब्लागों पर पंडितजी का आलेख बिना पूछे जारी कर दिया है और अब फिर संवाद में लौटने के लिए आलेख बतौर इस प्रतिक्रिया को भी जारी कर रहे हैं हम।


    फिलवक्त हमारे लिए असली मुद्दा हैः


    कारपोरेट कायाकल्प और सत्ता वर्ग की संसदीय गोलबंदी की आड़ में मनोमोहन की विदाई के बाद युगल ईश्वरों नंदन निलेकणि और अरविंद केजरीवाल के अवतरण का प्रसंग।इस पर सुनियोजित कारपोरेट अभियान और उनसे जुड़ा अर्थव्यवस्था का हर प्रसंग।


    हम इसी मुद्दे पर संवाद चाहते हैं।


    जाहिर है कि दिवंगत सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक खुर्शीद अनवर को कटघरे में खड़ा करने से हमें अब कुछ हासिल नहीं होता और उनको उनके खिलाफ लगे आरोपों से बरी करने का काम भी शायद हमारा नहीं होना चाहिए।हिंदी समाज का गृहयुद्ध यह संकेत करता है कि कारपोरेट चाकचौबंद तिलिस्म ने हमें कितना कूप मंडूक बना दिया है और कितने आत्मघाती हो गये हैं हम।


    फिरभी जैसे हम लगातार सोशल मीडिया को संवाद का माध्यम बनाने के मौजूदा विकल्प पर काम कर रहे हैं और प्रिंट पर चूंकि एकदम लिख नहीं रहे हैं,सोशल मीडिया पर पंडित जी के उच्च विचारों से असहमति के बावजूद उनके ताजा आलेख पर समुचित विवेचना की दरकार महसूस करते हैं।जो सोशल मीडिया को असली  मुद्दों पर फोकस करने में शायद सहायक हो।


    पंडित जगदीश्वर चतुर्वेदी स‌े हमारा जब भी आमना स‌ामना हुआ है,अक्सर हम लोग असहमत ज्यादा थे,सहमत बहुत कम।अब पंडित जी से हमारी मुलाकाते लंबे समय से हो नहीं रही है क्योंक अपने उपनगरीय जीवन की सीमा से बाहर महानगरीय परिधि में हमारी आवाजाही सिरे से बंद है।


    पंडितजी मीडिया विशेषज्ञ हैं और मीडिया पर उनकी पाठ्य पुस्तकें काफी प्रचलित हैं।हालांकि वे स‌ीधे तौर पर मीडिया स‌े जुड़े नहीं हैं।


    ऐसे ही कोलकाता के कृष्णबिहारी मिश्र जी भी मीडिया में न होते हुए पत्रकारिता पर खूब लिखते रहे हैं।आदरणीय प्रभाष जोशी ने मौखिक लिखित तौर पर उनके लिखे का खूब जवाब भी दिया है।


    जाहिर सी बात है कि हम प्रभाष जी की श्रेणी में नहीं हैं और इसलिए इस विषय स‌े हमेशा कन्नी काटते रहे हैं।


    हम अकादमिक भी नहीं है और न अकादमिक मुद्दों पर बात करने में स‌मर्थ हैं,इसलिए पंडित जी के लिखे पर आज तक मैंने कभी कोई टिप्पणी नहीं की है।


    आज पहली बार कर रहा हूं।


    क्योंकि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में जो स‌ुझाव उन्होंने दिये हैं,मेरे ख्याल स‌े उन पर अमल होना जरुरी है।


    हस्तक्षेप पर उनका लेख उपलब्ध है और अब मेरे ब्लागों पर भी।


    वैसे पंडित जी कहेंगे कि कापीराइट का उल्लंघन हुआ है तो वह आलेख मुझे हटाने की नौबत भी आ सकती है।


    ऐसा आदरणीय कंवल भारती के एक आलेख को लगाने के बाद करना पड़ा।उन्होंने मित्रमंडली में मुझे ब्लाक भी कर दिया और सख्त हिदायत दी है कि उनका लिखा कुछ भी लगाने से पहले इजाजत जरुर लें।इस हादसे से गुजरने के बावजूद महत्वपूर्ण चीजों को साझा करने में हम बाज नहीं आते।


    इसी प्रसंग में गिरदा कहा करते थे जो लिख दिया,वह तो जनता की संपत्ति है।इस पर तेरा मेरा हक क्या,गिरदा का तर्क हुआ करता था।वे भी तब बागी कवि लीलाधर जगूड़ी को कोट करने से बचने की हिदायत देते थे। जगूड़ी कब किस बात पर सहमत हो और किस पर नारा,ठिकाना न था,इसीलिए।


    लेकिन कुछ लोग अब भी हैं जैसे हिमांशु कुमार जी,जिनका लिखा मैं तुरंत इस्तेमाल कर लेता हूं।बाकी जिन्हें ऐतराज है,वे लोग कंवल जी की तरह पहले से चेतावनी दें दे तो हमें संवाद में मदद मिलेगी।रियाज की अनूदित सामग्री भी मैं बेहिचक लगा लेता हूं।समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर और नैनीताल समाचार पर तो हमारा पुश्तैनी हक है।खेद यह है कि ईपीडब्लू को इतनी सरलता से साझा नहीं किया जा सकता।अब ईटी के तथ्य साझा करने में भी तकनीकी समस्या है।


    बहरहाल पंडित जगदीश्वर जी का यह आलेख इस दृष्टि से भी प्रासंगिक है कि खिरशीद मामले में एफआईआर दर्ज होने के बाद कानूनी प्रक्रिया शुरु हो चुकी है और अभियुक्त इस दुनिया में नहीं है। फिर यह बाबरी विध्वंस,गुजरात नरंसाहर और सिखों के संहार जैसा मामलो तो है नहीं,जहां न्यायिक प्रक्रिया पर सत्ता वर्चस्व हावी है और उस पर नियमत संवाद जरुरी हो।


    पीड़िता पूर्वोत्तर के अस्पृश्य भूगोल से हैं ,इस तथ्य को जेहन में रखते हुए भी खासकर अनवर  के अप्रत्याशित आत्महननन के बाद इस नितांत निजी विवाद के मामले को सोशल मीडिया ट्रायल बतौर जारी रखना सरासर अनैतिक है और जरुरी मुद्दों को किनारे करने का घनघोर अपराध भी है। इस लिए मैं पहली बार पंडितजी के लिखे पर इतनी लंबी प्रतिक्रिया दे रहा हूं।


    राजेंद्र यादव के बारे में जब तमाम आरोप आ रहे थे,तब भी हमें कष्ट हुआ था।लेकिन तब भी इसे हमने कोई मुद्दा न मानकर पक्ष विपक्ष में खड़े होने स‌े बचने की ही कोशिश की।


    आपको ख्याल होगा कि तरुण तेजपाल प्रकरण में भी हमने कोई टीका टिप्पणी नहीं की।क्योंकि तेजपाल के मीडिया ट्रायल स‌े हम लोग जुरुरी मुद्दों का स्पेस खो रहे थे।


    आपने ख्याल किया होगा कि हमने तहलका को अभी खारिज भी नहीं किया है।


    तरुण तेजपाल कानूनी तौर पर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।कानून के राज में कानून को अपना काम करने देना चाहिए।लेकिन हम तहलका के यउठाय़े मुद्दों को पहले की तरह अब भी स‌ाझा कर रहे हैं।


    हमने आशाराम बापू और नारायण स‌ाईं के मामलों को भी कोई मुद्दा नहीं माना है।


    हमें तो उन इलाकों पर फोकस करना चाहिए,जहां न भारत का संविधान लागू है,न कानून का राज है और न लोकतंत्र है और पूरी जनता जहां युद्धबंदी है।हम लगातार वही कर रहे हैं।


    हमारे लिए मुद्दा तो मध्यभारत है,पूर्वोत्तर है,कश्मीर है,हिमालयी क्षेत्र हैं,प्रत्येक आदिवासी इलाका गरीब बस्तियां हैं,जहां कानून का राज है ही नहीं।महानगरों,उपनगरों की वंचित बस्तियां भी प्राथमिकता पर हैं।


    इसीलिए हम स‌ोनी स‌ोरी और इरोम शर्मिला और अरुंधति राय को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं।


    मधु किश्वर जी को हम तबसे जानते हैं,जब वे वीरभारत तलवार के स‌ाथ पहली बार धनबाद में देखी गयी थीं।


    वीरभारत और मनमोहन पाठक शालपत्र निकालते थे झारखंड आंदोलन के स‌िलसिले में।


    धनबाद में ही मानुषी की खबर लगी थी।


    मानुषी का प्रकाशन होने के बाद हम उसका स‌मर्थन ही करते रहे हैं।लेकिन मानुषी ने स‌ड़क पर उतरकर कोई आंदोलन कभी किया हो या नहीं,मैं दिल्ली में नहीं हूं और नहीं जानता।


    वीर भारत तलवार की बड़ी भूमिका झारखंड आंदोलन को तेवर देने की रही है।वे जेएनयू चले गये और उसके बाद अब वे क्या कर रहे हैं,हमें नहीं मालूम है।


    इसके बजाय नैनीताल स‌े प्रकाशित उत्तरा की टीम में शामिल हर स्त्री उमा भट्ट,गीता गैरोला,शीला रजवार,अनिल बिष्ट,बसंती पाठक, कमला पंत और पहाड़ की तमाम स्त्रियां लगातार जनसंघर्षों में शामिल हैं।


    मणिपुर की औरतों,डूब में छटफटाती औरतों, दंडकारण्य की औरतों,महतोष मोड़ और मरीचझांपी में ,रामपुर तिराहा मुजप्फरनगर के बलात्कारकांडों की पीड़िताओं को भोगा हुआ यथार्थ,नियमागिरि की औरतों,देशभर के खनन क्षेत्रों की औरतों,कश्मीर और हिमालयी औरतों का स्त्री विमर्श निश्चय ही वह नहीं है,जो एनजीओ संचालित स्त्री विमर्श राजधानी केंद्रित है।


    उनके मुद्दे भिन्न हैं और सामुदायिक वजूद के संघर्ष से ही जुड़े हैं। जो हमारे लिए निहायत जरुरी मुद्दे हैं।


    सोनी सोरी का मुद्दा या इरोम का मुद्दा या गुवाहाटी या मणिपुर या कश्मीर या दंडकारण्य में कहीं भी स्त्री अस्मिता का सवाल राजधानियों  और अकादमियों के स्त्री विमर्श से भिन्न है।


    इसलिए मानुषी या मधु किश्वर की गतिविधियों की हमने कभी कोई खबर ही नहीं ली।


    सनद रहे कि कोलकाता में दिवंगत लेखिका प्रभा खेतान का नारीवाद पर बहुत अच्छा लिखा उपलब्ध हैं। हमारी विश्वविख्यात नारी वादी लेखिका तसलिमा नसरीन स‌े बात होती रही है। नारी अस्मिता की स‌बसे मजबूत प्रवक्ता महाश्वेता दी को हम लगभग 35 स‌ाल स‌े जानते हैं।हम लोग आशापूर्णा देवी के रचनासंसार से जुड़े लोग हैं।


    इस्मत चुगताई, कृष्णा स‌ोबती और मृदुला गर्ग जैसी लेखिकाओं के भी हम लोग पाठक रहे हैं।


    आधुनिक स‌्त्री के देहमुक्ति आंदोलन से हम वाकिफ हैं और इसी स‌िलसिले में शुरुआती दौर में नारीवादी लेखिका मधु किश्वर का हम नोटिस भी लेते रहे हैं।


    दरअसल हम स्त्री शक्ति को सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी ताकत भी मानते रहे हैं क्योंकि नागरिक व मानवाधिकार से वंचित,न्याय और अर्थव्यवस्ता से वंचित स्त्री ही है।


    जात पात,रंग,नस्ल ,देश काल परिस्थिति से स्त्री के अवस्थान को कोई फर्क पड़ता नहीं है।


    आदिवासी की तरह मुख्यधारा में होते हुए,सत्ता वर्ग में होते हुए,नारी सशक्तीकरण की तहत जीवन के हर क्षेत्र में कामयाबी और बढ़त के बावजूद पुरुषतंत्र के आखेट का बुनियादी लक्ष्य स्त्री देह और स्त्री अस्मिता है।


    इसलिए बदलाव के प्रस्थानबिंदू बतौर स्त्री विमर्श को अंबेडकरी आंदोलन के एजंडा या वामपंथ की प्रासंगिकता की तरह हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता जरुर होनी चाहिए।


    लेकिन यह स्त्री विमर्श न एनजीओ संचालित होना चाहिए और न राजधानी केंद्रित।


    सत्ता संघर्ष और राजनीतिक समीकरण साधने के लिए भी अर्थव्यवस्था में जैसे स्त्री का उपभोक्ता सामग्री बतौर इस्तेमाल होता है,वैसा हूबहू होने लगा है,इसको हम नजरअंदाज करके आगे बढ़ ही नहीं सकते।


    इसलिए हर मुद्दा उछालने से पहले तथ्यों की जांच परख की भी अनिवार्यता होनी चाहिए।


    खासकर जो लोग सीधे तौर पर जनसरोकार से जुड़े हों या जनमोर्चा के खास सिपाहसालार हों,उनके लिए बेहद सतर्कता की जरुरत है।


    वे लोग मधु किश्वर के झांसे में कैसे आ सकते हैं,मुझे निजी तौर पर इसका विस्मय घनघोर है।


    खुरशीद प्रकरण को मैं कोलकाता में होने के कारण जानता नहीं रहा हूं या गैरजरुरी मानकर ध्यान ही नहीं दिया होगा।किसी किस्म के व्यक्ति आधारित विमर्श,अभियान या आंदोलन में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है।


    लेकिन खुरशीद के निधन के बाद हमें इस मामले पर गौर करने को मजबूर होना पड़ा और जो मसाला उपलब्ध है,उसमें मधु किश्वर की भूमिका ही निर्णायक लग रही है।


    तीस्ता के बाद अनवर खुरशीद तक उनका सफर संजोग नहीं है,इसे समझा जाना चाहिए।लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम दिवंगत अनवर को पूर्वोत्तर की उस स्त्री के आरोपों से बरी कर रहे हैं।


    पहला खटका ही तब लगा था,जब मधु ने अचानक तीस्ता शीतलवाड़ पर नरेंद्र मोदी की हत्या की स‌ाजिश रचने का आरोप लगाया।


    हम चकित रह गये।


    तीस्ता ,रोहित प्रजापति, मल्लिका स‌ाराभाई या हर्ष मंदर के कामकाज और गुजरात नरसंहार के स‌ंदर्भ में मानवाधिकारों की लड़ाई के मद्देनजर हमें यह आरोप निहायत ही भद्दा और षड्यंत्रकारी लगा तो हमने राम पुनियानी जी स‌रीखे हमारे अग्रजों स‌े बात की तो पता चला कि मानुषी की भूमिका बदल गयी है।


    खुर्शीद अनवर को पढ़ता रहा हूं लेकिन उनसे बात कभी नहीं हुई।


    मुझे हमारे मुद्दे उठाने में फुरसत ही इतनी कम मिलती है कि निजी मुद्दों और निजी जिंदगी के बारे में चल रही चर्चाओं पर नजर डालें।


    कल उदय प्रकाश जी के फेसबुक स‌्टेटस स‌े पता चला कि कोई धर्मनिरपेक्ष हस्ती अबकी दफा आरोपों के घेरे में हैं।


    हम उदय जी और दूसरे तमाम रचनाकारों स‌े हमारे मुद्दों पर मुखर होने का लगातार आवेदन करते रहे हैं।इस तरफ उन्होंने अभी कोई पहल की है या नहीं मालूम नहीं।


    हमने उदय प्रकाश जी के स‌्टेटस पर टिप्पणी की कि कवित्व छोड़कर खुलकर लिखें क्योंकि हम्माम में तो स‌ारे नंगे नजर आयेंगे।


    फिर मैं अपने विषयपर अपडेट करने लगा।


    मेरा फोकस कारपोरेट राज के कायाकल्प पर है और लोकपाल विधेयक के सत्ता पक्ष की स‌ंसदीय गोलबंदी पर है।


    फिर उन नये स‌मीकरणों पर जिसके तहत अब मनमोहन के अवसान के बाद नंदन निलेकणि और अरविंद केजरीवाल को कारपोरेटराज नये ईश्वर के तौर पर प्रतिष्ठित करने लगा है।


    लिखकर पोस्ट करने के बाद फेसबुक पर लौटा तो खुरशीद अनवर की खुदकशी की खबर मिली।


    यह यकायक  स्तंभित करने वाली दुर्घटना है।


    अब जैसा कि लोग फेसबुक पर धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री अस्मिता का मामला इसे बना रहे हैं,हिंदी स‌माज जैसे इस मुद्दे को लेकर विभाजित है और तमाम प्रतिष्ठित आदरणीय स्त्रियां जिस कदर आक्रामक रुख अख्तियार किये हुए हैं और खुरशीद की मौत के बाद भी जो मीडिया ट्रायल चल रहा है,हम कारपोरेट कायकल्प पर विषय प्रस्तावना भी नहीं कर स‌कें।


    हमारे लिए यह स्थिति निजी तौर पर बेहद निराशाजनक है।


    हम स‌ामाजिक मुद्दों पर,आर्थिक जनसंहार के विरुद्ध जनमत बनाने के लिए स‌ोशल मीडिया का बेहतर इस्तेमाल कर स‌कते हैं।


    ऐसा दुनियाभर में हो रहा है।


    लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि उच्च तकनीकी दक्षता का इस्तेमाल भी हम निजी विवादों के निपटारे में कर रहे हैं और असली मुद्दों को संबोधित नहीं कर रहे हैं।


    सारे लोग होली के मूड और मिजाज में सोशल मीडिया का अगंबीर प्रयोग कर रहे हैं इसकी भेदक और आत्मघाती विध्वंसक ताकत से अनजान।


    यह दुधारी तलवार है,जिसे चलाने की तहजीब अभी हिंदी समाज को है ही नहीं,ऐसा कहूंगा तो बरसाना होली की हालत हो जायेगी।लेकिन सच यही है।


    स‌ोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में अपने प्रिय पंडितजी का यह आलेख बतौर एजंडा मानकर हम चलें तो शायद हम इसका बेहतर इस्तेमाल कर स‌कें।


    हम जानते हैं कि पंडित जी कीमती लेखक हैं और उनके स‌ाथ कापीराइट भी नत्थी है।लेकिन उनके इस आलेख को बेहद प्रासंगिक मानते हुए हस्तक्षेप के ठप्पे के स‌ाथ अपने ब्लागों में लगाकर आज मैंने दिनचर्या की शुरुआत की है।


    अब मेरे लिए स‌ंवाद का विषय लेकिन वही कारपोरेट कायाकल्प है।

    जो हमारे मित्र मुद्दों स‌े भटक रहे हैं,उनसे विनम्र निवेदन हैं कि मुद्दों पर ही लौटें।


    आप के लिए बंगाल में जगह बनाना मुश्किल! নেতৃত্বের অভাবেই ব্যর্থ কং: অমর্ত্য

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    आप के लिए बंगाल में जगह बनाना मुश्किल!

    নেতৃত্বের অভাবেই ব্যর্থ কং: অমর্ত্য


    एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



    बाकी देश में दिल्ली की तरह आम आदमी पार्टी का तूफान खड़ा होगा या नहीं,यह लोकसभा चुनाव के वक्त तय होगा और वह भी तब जबकि आप दिल्ली में सरकार बनाने की चुनौती मंजूर करके राजनीति और सत्ता में बुनियादी परिवर्तन के अपने वायदे को निभा लें। लेकिन बंगाल की एकतरफा राजनीति में किसी तीसरे विकल्प की कोई गुंजाइश फिलहाल है नहीं। सौरभ गांगुली ने नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव को ठुकरा कर बंगाली जनमानस को ही प्रतिबिंबित किया है कि चाहे पूरा भारत नमोमय हो जाये बंगाल की राजनीति को नमोमय बनाना मुश्किल है।वाम जमाने से यह सिलसिला चला आ रहा है। सत्ता दल का वर्चस्व बंगाल में 1977 से ही अपराजेय है। वामपंथियों को हटाकर सत्ता में आयी ममता बनर्जी के राज में भी विपक्ष का पूरी तौर पर सफाया हो गया है। ममता दीदी के प्रधानमंत्रित्व के दांव के मुकाबले बंगाल में वामपंथियों के लिए भी वापसी के रास्ते बंद हो चुके हैं। ऐसे में आप का बंगाल में क्या भविष्य है निकट भविष्य में ,इसपर शक की गुंजाइश प्रबल है। दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों को हराकर सोशल मीडिया के दम पर सत्ता में आना जितना सरल है, दूसरे राज्यों में क्षत्रपों के अस्मिता आधारित जनाधार को चुनौती दे पाना उस मुकाबले बेहद मुश्किल है।


    खास बात तो यह है कि सीमा पार बांग्लादेश में सोशल मीडिया के जरिये जो आंदोलन चल रहा है, पश्चिम बंगाल में उसका भी कोई असर नहीं है। यहां सोशल मीडिया के बजाय लोगों की आस्था अब भी प्रिंट मीडिया में ही है।बांग्ला के अलावा हिंदी,अंग्रेजी,उर्दू,पंजाबी और उड़िया अखबारों की प्रसार संख्या ही नहीं,असर भी बंगाल में बहुत ज्यादा है। इसलिए बंगाल में सोशल मीडिया का ब्रह्मास्त्र चलने से तो रहा।


    बंगाल में विपक्ष नेतृत्व संकट से जूझ रहा है।विश्वविख्यात नोबेल विजेता अर्थशास्त्री मोदी के मुकाबले कांग्रेस की ओर से बैटिंग कर रहे हैं।जो वाम शासन में बंगाल सरकार के मुख्य सलाहकार हुआ करते थे। 1984 के सिख विरोधी दंगों की तुलना गुजरात नरसंहार से न करने की बात करते हुए उन्होंने साफ तौर पर प्रधानमंत्रीत्व के प्रबल  दावेदार नरेद्र मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया है और कांग्रेस को 1984 के दंगों के मामले में बरी कर दिया है। वे अब कांग्रेस के नेतृत्व संकट को कांग्रेस का मुख्य संकट बता रहे हैं।यानी जनविरोधी नीतियों के आरोपों से भी वे कांग्रेस को रिहा करने लगे हैं। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उनके कहे का मतलब चाहे जो हो,बंगाल में सिर्फ कांग्रेस ही नहीं वमपंथियों समेत समूचे विपक्ष के पास ममता बनर्जी को चुनौती देने वाला कोई नेतृत्व फिलहाल है ही नहीं।


    बंगाल में सिविल सोसाइटी का पूरी तरह ध्रूवीकरण हो गया है। वे या तो दीदी के साथ हैं या फिर दीदी के विरोध में हैं।तीसरा कोई पक्ष है ही नहीं। आप को बंगाल में अपना वह चेहरा खोजना ही मुस्किल होगा, जो उसे मुंबई और दूसरे महानगरों , राज्यों में शायद आसानी से मिल जायेंगे। फिर बंगाल में राजनीतिक अस्थिरता के पक्ष में लोग हैं नहीं,जनादेश यहां स्थायित्व के लिए बनता है।इसलिए मतों का विभाजन भी असंभव है। आप अभी राजनीतिक स्थायित्व  की गारंटी देने की हालत में नहीं है,जैसा नरेंद्र मोदी दे पा रहे हैं।ङालंकि बंगाल में नमो का भी कोई असर नहीं हो पा रहा है।तृणमूल से गठबंधन के बिना बंगाल में भाजपा के लिए कोई सीट निकालना मुश्किल तो है ही,गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के दीदी के आगे आत्मसमर्पण कर देने के बाद ताजा हालात जो बने हैं,भाजपा के लिए दार्जिलिंग की सीट निकालना भी असभव हो गया है।


    ममता बनर्जी के खिलाफ शारदा चिटफंड मामले में सनसनीखेज खुलासे की निरंतरता के बावजूद अब तक यह कोई मुद्दा नहीं बन पाया है। मानवाधिकार हनन के जो मामले चर्चित हैं, वे भी जस्टिस गांगुली के आरोपों के घेरे में आ जाने से रफा दफा है।


    हालत यह है कि दिल्ली में आप की सरकार भी मुश्किल नजर आ रही है।आम आदमी पार्टी आप दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाएगी या नहीं, यह तो वह रायशुमारी के नतीजों के बाद तय करेगी, लेकिन दोनों पार्टियों के बीच तीखी बयानबाजी जरूर शुरू हो गई है। कांग्रेस के नवनियुक्त दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने आप को कांग्रेस के समर्थन के पीछे उसके झूठे वादों की पोल खोलने की बात कही तो, आप  के नेता कुमार विश्वास ने इसका बेहद तीखा जवाब ट्विटर के जरिए दिया। लवली के इस बयान के बाद कुमार विश्वास ने कांग्रेस को धोखेबाज बताते हुए ट्विटर पर दोमुंहे सांप की फोटो शेयर कर दी।


    वैसे तदर्थ तौर पर  अब भी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी सरकार बना सकती है। अरविंद केजरीवाल के मुताबिक उन्हें अब तक चिट्ठी, एसएमएस और फोन के जरिए 75 फीसदी लोगों के संदेश सरकार बनाने के लिए मिले हैं। आज से आम आदमी पार्टी ने अलग-अलग इलाकों में जनसभाएं शुरू कर दी हैं। असल में अरविंद केजरीवाल ने सरकार बनाने का फैसला जनता पर छोड़ दिया है। जनता की राय जानने के बाद आम आदमी पार्टी सोमवार को फैसला लेगी कि सरकार बनाए या नहीं।


    आपको बता दें कि एसएमएस, फोन के जरिए अबतक 5.35 लाख लोग अपनी राय जाहिर कर चुके हैं। अंग्रेजी अखबार इकनॉमिक टाइम्स के मुताबिक इनमें से 75 फीसदी लोगों का मानना है कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली में सरकार बनानी चाहिए।


    इस बीच जेडीयू नेता शिवानंद तिवारी ने अरविंद केजरीवाल की नई तरह की राजनीति का समर्थन किया है। शिवानंद तिवारी के मुताबिक जिस तरह से दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को गले लगाया जरूर उसमें खास बात है। आम आदमी पार्टी को जनमत संग्रह का अधिकार है।


    उधर बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनानी चाहिए, इस सरकार के बनते ही पर्दे के पीछे से केजरीवाल का साथ देने वाली कांग्रेस का चेहरा बेनकाब हो जाएगा।

    इस तदर्थ राजनैतिक परिवर्तन से भले ही दिल्ली के लोग खुश हो जाये,बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में इसका असर होना मुश्किल है। लोकपाल विधेयक आनन फानन में पास करके सत्ता वर्ग ने आप को दिल्ली में अब सीधे तौर पर अपने वायदे पूरे करने की चुनौती दे दी है,जो आसान भी नहीं है।


    सौरभ के मोदी के प्रस्ताव ठुकराने से पहले लग रहा था कि दार्जिलिंग से भाजपा के मौजूदा सांसद जसवंत सिंह को बेदखल करके भारतीय फुटबाल आइकन बाइचुंग भूटिया को जिताकर भले ही तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी बंगाल से अधिकतम लोकसभा सीटें जीत कर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व को राहुल गांधी या नंदन निलेकणि से बेहतर चुनौती दे दें,आइकन वार में मोदी ने उन्हें जबर्दस्त मात दी है और बंगाल के सर्वप्रिय दादा सौरभ गांगुली को फोड़ लिया है।भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली को अगले साल होने वाले आम चुनाव के लिए टिकट का ऑफर दिया था। माना जा रहा था कि यह दांव फेंककर मोदी ने बंगाल के वोटरों को लुभाने की कोशिश कर दी। नरेंद्र मोदी ने सौरभ गांगुली से यह वादा भी कर दिया कि अगर भाजपा लोकसभी चुनाव के बाद सत्ता में आती है तो उन्हें खेल मंत्री बनाया जाएगा।


    सौरभ गांगुली बेहद समझदार हैं और अपने आइकन स्टेटस को किसी कीमत परदांव पर लगाने को तैयार नहीं है। वाम शासन में उन्हें ममता दीदी के खिलाफ प्रत्याशी बनाने की भी तैयारी थी।भाजपाई प्रस्ताव के बाद कांग्रेस  और वामपंथियों की ओर से फिर दादा को घेरने की कोशिश हुई लेकिन दादा राजनीति के पिच पर खड़े नही ंहुए।


    आप के लिए बंगाल में दिक्कत यही है कि कोई परिचित लोकप्रिय चेहरा उसके साथ नहीं है।कोलकाता में दिल्ली फतह करने के बाद निकले आप के  जुलूस में खास लोग तो दूर आम आदमी की भी भागेदारी नहीं के बराबर रही है।


    क्या अरविंद केजरीवाल अपने वादों को पूरा कर पाएंगे,इस पर बहुत कुछ निर्भर है। कहीं ऐसा तो नहीं आम आदमी पार्टी ने जिन वादों का सपना दिखाकर दिल्ली का दिल जीता है वो वादे हवा हवाई साबित हो जाएंगे। आप के वादों में कितना दम है और इसका क्या असर होगा दिल्ली पर इसी पर है सीएनबीसी आवाज़ की खास पेशकश आप का अब असली इम्तिहान।


    आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनाने के 4 महीने बाद ही बिजली 50 फीसदी तक सस्ती करने का वादा किया है। हालांकि आम आदमी पार्टी के सामने चुनौती ये है कि भ्रष्टाचार खत्म होने के बावजूद बिजली सस्ती कैसी होगी। आम आदमी पार्टी ने जलमित्र योजना के तहत 700 लीटर पानी प्रतिदिन मुफ्त में देने का वादा किया है, लेकिन मुफ्त पानी के लिए पैसा कहां से आएगा।


    आम आदमी पार्टी ने झुग्गियों की बजाय पक्के मकान देने का वादा किया है। लेकिन सवाल यही है कि इतनी बड़ी संख्या में पक्के मकान कैसे बनेंगे। आम आदमी पार्टी ने 1 साल में कालोनियों को अधिकृत करने का वादा किया है, जबकि कालोनियों को नियमित करने से अव्यवस्था फैलेगी। आम आदमी पार्टी रिटेल में एफडीआई के खिलाफ है, ऐसे में क्या माना जाए कि क्या पार्टी रिफॉर्म के खिलाफ है।


    दिल्ली की जरूरतों पर एक नजर डालते हैं यहां बिजली की मांग 5600 मेगावॉट है, जबकि सप्लाई 5200 मेगावॉट की हो रही है। दिल्ली में रोजाना 435 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है, जबकि अभी रोजाना 316 करोड़ लीटर पानी की सप्लाई हो रही है।


    दिल्ली में 200 यूनिट तक की बिजली के लिए 3.90 रुपये प्रति यूनिट की दर से भुगतान करना पड़ता है। 201-400 यूनिट तक की बिजली के लिए 5.80 रुपये प्रति यूनिट की दर से भुगतान करना पड़ता है। 401-800 यूनिट तक की बिजली के लिए 6.80 रुपये प्रति यूनिट की दर से भुगतान करना पड़ता है। 800 यूनिट से ज्यादा की बिजली के लिए 7 रुपये प्रति यूनिट की दर से भुगतान करना पड़ता है।


    दिल्ली में 20,000 लीटर तक पानी के लिए 100 रुपये का भुगतान करना पड़ता है। 20,000-30,000 तक पानी के लिए 150 रुपये का भुगतान करना पड़ता है। 30,000 लीटर से ज्यादा पानी के लिए 200 रुपये का भुगतान करना पड़ता है।


    दिल्ली में बीजेपी के नेता डॉ हर्षवर्धन का कहना है कि आम आदमी पार्टी कितने वादे पूरे कर पाएगी, ये समय बताएगा। वहीं बीजेपी के एक अन्य नेता विजय गोयल का कहना है कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाएं नहीं तो यही माना जाएगा कि पार्टी वादे पूरे करने को लेकर गंभीर नहीं है।


    दिल्ली में कांग्रेस की दिग्गज नेता शीला दीक्षित का कहना है कि आम आदमी पार्टी सपनों को हमेशा नहीं बेच सकते। लेकिन आम आदमी पार्टी ने ये किया है। ऐसा एक बार ही हो सकता है, हमेशा नहीं। कांग्रेस के एक अन्य नेता अमरिंदर सिंह लवली के मुताबिक आम आदमी पार्टी ने झूठे वादों से चुनाव जीता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि पार्टियों को वही वादे किए जाने चाहिए जो निभाए जा सकें।




    নেতৃত্বের অভাবেই ব্যর্থ কং: অমর্ত্য


    কৃষ্ণেন্দু অধিকারী, এবিপি আনন্দ

    Friday, 20 December 2013 17:32কলকাতা: চার রাজ্যের সাম্প্রতিক বিধানসভা ভোটে কংগ্রেসের ভরাডুবির পিছনে যোগ্য নেতৃত্বের অভাবকেই কারণ বলে মনে করছেন অমর্ত্য সেন৷ তাঁর মতে, জোর গলায় লোককে বলতে হবে, কে নেতা৷ লোকের সামনে উপস্থিত না হলে রাজনৈতিক লড়াই করা সম্ভব নয়৷ যোগ্য নেতৃত্বের অভাবেই কংগ্রেসের এই হাল৷

    লোকসভা নির্বাচনের আগে চার রাজ্যের বিধানসভা ভোট ছিল সেমিফাইনাল৷ সেখানে ভরাডুবি হয়েছে কংগ্রেসের৷ এই হারের পিছনে কারণ কী? নানা মুনির নানা মত৷ সনিয়া গাঁধী দায়ী করছেন মূল্যবৃদ্ধিকে৷ মনমোহন সিংহ, পি চিদম্বরমরা আঙুল তুলেছেন মুদ্রস্ফীতির দিকে৷ কংগ্রেস সাংসদ মণিশঙ্কর আইয়ার, এনসিপি প্রধান শরদ পওয়ার অবশ্য কংগ্রেসের নেতৃত্ব নিয়েই প্রশ্ন তুলেছেন৷ এই প্রেক্ষাপটে এবার মুখ খুললেন নোবেলজয়ী অর্থনীতিবিদ অমর্ত্য সেন৷ শুক্রবার কলকাতা বিমানবন্দর থেকে শান্তিনিকেতনের উদ্দেশে রওনা হওয়ার আগে তিনি বলেন, নেতৃত্বের অভাবেই চার রাজ্যে কংগ্রেস হেরেছে৷  

    ২০১৪ লোকসভা ভোটের জন্য নরেন্দ্র মোদিকে প্রধানমমন্ত্রী পদপ্রার্থী করে বেশ কয়েক মাস ধরে কোমর বেঁছে প্রচার চালাচ্ছে বিজেপি৷ কিন্তু কংগ্রেসের মুখ কে হবে, তা এখনও স্পষ্ট নয়৷ ১৭ জানুয়ারি এআইসিসির সভা৷ সেই সভায় ঠিক হতে পারে, কাকে মুখ করে লোকসভা নির্বাচনে ঝাঁপাবে কংগ্রেস৷ এই প্রেক্ষাপটে অমর্ত্য সেনের এদিনের মন্তব্য যথেষ্ট তাত্পর্যপূর্ণ বলেই মনে করছে রাজনৈতিক মহল৷


    খাদ্য সুরক্ষা আইনের মতো ইউপিএ-র একাধিক সামাজিক প্রকল্পের সমর্থক অমর্ত্য সেন৷ কিন্তু রাজনৈতিক মহলের একাংশের মতে, চার রাজ্যের ভোটে যেভাবে কংগ্রেস মুখ থুবড়ে পড়েছে, তাতে এই পাইয়ে দেওয়ার রাজনীতি দিয়ে মানুষের মন জয় করা যাচ্ছে কি না, তা নিয়েই প্রশ্ন উঠেছে৷ যদিও অমর্ত্য সেনের মতে, মানুষ যা চেয়েছিল, কংগ্রেস তা পূরণ করতে পারেনি নেতৃত্বের অভাবের জেরেই৷

    কয়েক মাস আগে একটি বেসরকারি নিউজ চ্যানেলে অমর্ত্য সেন বলেছিলেন, একজন ভারতীয় নাগরিক হিসেবে তিনি মোদিকে প্রধানমন্ত্রী হিসেবে দেখতে চান না৷ কারণ তাঁর মতে, মোদি গুজরাতে সংখ্যালঘুদের নিরাপত্তার জন্য যথেষ্ট করেননি৷ এবার তিনি কংগ্রেসের নেতৃত্ব নিয়ে প্রশ্ন তুললেন৷

    http://abpananda.newsbullet.in/national/60-more/44967-2013-12-20-12-05-43


    जनसरोकार गये तेल लेने,पहले आपस में फरिया लें! आप हम जिन मुद्दों को लेकर ,जो हक हकूक की लड़ाई इतने वर्षों स‌े लड़ते रहे हैं,कारपोरेट तंत्र उसे एक झटके स‌े बिखेरकर ऐसा वैमनस्य का माहौल पैदा कर रहा है,कि बदलाव की ताकतों और स‌ामाजिक शक्तियों की गोलबंदी असंभव स‌ी होती जा रही है।

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    जनसरोकार गये तेल लेने,पहले आपस  में फरिया लें!


    आप हम जिन मुद्दों को लेकर ,जो हक हकूक की लड़ाई इतने वर्षों स‌े लड़ते रहे हैं,कारपोरेट तंत्र उसे एक झटके स‌े बिखेरकर ऐसा वैमनस्य का माहौल पैदा कर रहा है,कि बदलाव की ताकतों और स‌ामाजिक शक्तियों की गोलबंदी असंभव स‌ी होती जा रही है।


    पलाश विश्वास

    आज का संवाद

    जनसरोकार गये तेल लेने,पहले आपस  में फरिया लें।


    विशिष्ट लेखिका अनिता भारती के फेसबुक पोस्ट पर इतनी देर रात प्रतिक्रिया देनी पड़ रही है क्यंकि यह एक बेहद खतरनाक मुद्दा है,जिसपर तत्काल अपनी बात रखनी जरुरी है।अनिता जी के पोस्ट पर फेसबुक पर हमने अपनी प्रतिक्रिया  दे दी है।उनकी हालत किसी की भी हो सकती है।इसलिए इस मुद्दे को गंबीरता से लिये जाने की जरुरत है। हम लोगों को जैसे कि मुक्तिबोध ने कहा था कि पहले तय करो कि किस ओर हो तुम,इस प्रस्थानबिंदू पर लौटकर सबसे पहले यह तो तय करना ही होगा कि आखिर हम लोग चाहते क्या हैं।किसकी लड़ाई में शामिल हैं हम।जनता की लड़ाई में या कारपोरेट हितों की लड़ाई में।


    Anita Bharti
    सामाजिक बर्ताव को लेकर एक टिप्पणी करने के बाद पिछले दो दिनों के दौरान मेरे बारे में जिस तरह "दाम" लेकर "बिक जाने" से बहुत आगे बढ़ते हुए "हत्यारिन" "दलाल"तक कहा गया, गाली की भाषा में बात की गई, उससे मेरे सामने कई सवाल खड़े हुए हैं। इस भाषा में बात करने वाला समर अनार्य (मूल नाम- अविनाश पांडेय) खुद को हर बार जोर देकर कॉमरेड और कम्युनिस्ट-वामपंथी कहता है। इसके अतिरिक्त इसका चरित्र, व्यवहार और भाषा सभी के सामने है। इसकी हर बात से सामंती ब्राह्मणवाद का जहर बहता रहता है। व्यवहार के हर पहलू से यह प्रतिगामी संगठन का एजेंट लगता है जो प्रगतिशीलता और वामपंथ का चोला ओढ़ कर खुद वामपंथ को नुकसान पहुंचा रहा है। क्या ऐसे ही लोगों ने हर बार यथास्थितिवाद के विरुद्ध खड़ा होने वाले किसी आंदोलन में घुसपैठ कर उसे बर्बाद नहीं किया है? क्या ऐसे ही सामंती व्यवहार करने वाले लोगों के चलते कमजोर और वंचित जातियों के लोगों को समूचे वामपंथ को शक की नजर से देखने का आधार नहीं मिलता है? दलित-वंचित जातियों के लोग क्यों वामपंथ जैसी विचारधारा से दूर चले जाते हैं? जिस आक्रामक और बेलगाम भाषा-व्यवहार से इसने मेरे व्यक्तित्व, (मैं अपने महिला और सामाजिक पहचान को फिलहाल परे रखती हूं) मेरे मान-सम्मान पर हमला किया है, क्या यही इसका मूल चरित्र नहीं है, जो प्रगतिशीलता के चोले के पीछे छिपा हुआ है? क्या ऐसे ही लोगों के चलते समूचे वामपंथी आंदोलन को ही कुछ लोग संदिग्ध नहीं मानते हैं?
    अब मैं अपने दायरे में सभी प्रगतिशील, वामपंथी और न्याय में विश्वास रखने वाले साथियों से पूछना चाहती हूं कि समर अनार्य (मूल नाम- अविनाश पांडेय) के चरित्र को वे कैसे देखते हैं। अगर वे इस व्यक्ति को वामपंथ का प्रतिनिधि चरित्र मानते हैं और उसका व्यवहार उन्हें आपत्तिजनक नहीं लगता है तो मैं ऐसे वामपंथ को खारिज करती हूं। लेकिन मुझे उम्मीद है कि वामपंथ के ईमानदार साथी वामपंथ को बदनाम करने वाले इस अविनाश पांडेय उर्फ समर पांडेय का सार्वजनिक बहिष्कार करेंगे। क्योंकि इस तरह के चरित्र और व्यवहार का व्यक्ति अपने साथ-साथ एक समूची विचारधारा को गर्त में धकेलने के लिए जिम्मेदार होता है। यह ऐसे लोगों की साजिश भी हो सकती हो सकती है।
    Like·  · Share· 6 hours ago·

    • Anuradha Mandal, Sunil Sardar, Vikash Mogha and 35 others like this.

    • View 15 more comments

    • Deepak Rajanवामपंथी विचारधारा मूलनिवासियों की विचारधारा कदापि नहीं थी और ना होगी बाबा साहेब ने इस विचारधारा को सिरे से ख़ारिज किया है ,और जो मूलनिवासी इस विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं उनको ये साइड इफ़ेक्ट का तो सामना करना ही होगा , क्योंकि भारत की वामपंथी विचारधारा तताकथित सवर्णों के हाँथ की कठपुतली मात्र है, इसमें लेबल भले ही साम्यवाद का हो पर अन्दर की शराब वही पुरानी जातिवादी ही है। आज -कल एक और ब्राण्ड नया आया है बाज़ार में पर इसका भी सिधान्त वही पुराना वामपंथ का ही है जिसका नाम है AAP /जातिवाद।

    • 3 hours ago· Like

    • Manoj Kumar beshak aise ngo chhap individualistic aur araajak elements ka bahishkar hona chahiye..

    • 3 hours ago via mobile· Like

    • Sharwan Meena hame vishwash h aap par...

    • 3 hours ago via mobile· Like

    • Deepak Rajan Sharwan Meena ji

    • 3 hours ago· Like

    • Palash Biswasआदरणीया अनिता जी,यह जो गृहयुद्ध स्त्री अस्मिता और धर्मनिरपेक्षता के बीच छिड़ गया है,उसकी आग दावानल की तरह हम स‌बको झुलसाकर रख देगी।आपकी भूमिका के बारे में स‌ाफ हैं हम लोग।इसके बावजूद आरोप आप पर भी लगाये जा रहे हैं।भाषा का स‌ंयम स‌भी पक्षों की ओर स‌े तोड़ा जा रहा है।विमर्श का माहौल खत्म होने को है। आप हम जिन मुद्दों को लेकर ,जो हक हकूक की लड़ाई इतने वर्षों स‌े लड़ते रहे हैं,कारपोरेट तंत्र उसे एक झटके स‌े बिखेरकर ऐसा वैमनस्य का माहौल पैदा कर रहा है,कि बदलाव की ताकतों और स‌ामाजिक शक्तियों की गोलबंदी असंभव स‌ी होती जा रही है।इसके भयावह परिणाम निकलेंगे।अनवर खुरशीद को अभियुक्त बताने या बरी करने का काम हमारा नहीं है।लेकिन इसकी आड़ में जो भयानक युद्ध छिड़ गया है,किसी की छवि स‌ाबूत बचेगी या नहीं, मुझे शक है।महज फेसबुक पर नहीं,मैं यथासंभव देशभर के स‌ामाजिक कार्यकर्ताओं के स‌ाथ लगातार स‌ंपर्क में हूं।बयानबाजी और जवाबी बयानबाजी स‌े,गाली गलौज और जवाबी गाली गलौज स‌े हम किसे स‌जा दे रहे हैं,यह स‌मझने की जरुरत है।हमने अपनी कुछ आदरणीया महिलाओं की टिप्पणियां भी देखी हैं,जो उनकी प्रतिष्ठा के मुताबिक नहीं हैं।हम स‌मर के बर्ताव की निंदा करते हैं।लेकिन मधु किश्वर की भूमिका स‌िरे स‌े स‌ंदिग्ध है,इसे माने बिना हम इस झंझावात स‌े निकल ही नहीं स‌कते।ऐसी परिस्थितियां जिन लगों की वजह से तैयार हुई हैं,उन्हें भी चिन्हित किये बिना हम इस कुरुक्षेत्र के महाभारत से बच नहीं सकते।

    • 12 minutes ago· Like

    • Palash Biswasआज रात मैंने बहुत दिनों बाद स‌मयांतर के स‌ंपादक पंकज बिष्ट स‌े बात की है।आनंद स्वरुप वर्मा जी स‌े बात हुई नहीं है।ये लोग दशकों से वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम लोग स्पेस बनाने की कोशिश में हैं और हमारे ही लोग उपलब्ध स्पेस पर आपस में ही मारामारी में उलझ गये हैं। हम लोग तो स‌ोशल मीडिया को जनसरोकार के मुद्दों का वैकल्पिक मंच बना रहे थे।अब वह गंगाघाट पर बनारस का खुल्ल्मखुल्ला होली जलसा बनता जा रहा है।आज अगर किसी पर आरोप लगता है तो हम लोग उसे बचाव का मौका दे ही नहीं रहे हैं।लोकतंत्र में तो स‌भी पक्षों की स‌ुनवाई का मौका होना ही चाहिये।यह हालत हममें स‌े किसी की होगी तो हम अपना बचाव तक नहीं कर स‌कते।दशकों स‌े जो लोग स‌ामाजिक क्षेत्र में स‌क्रिय हैं,अचानक उनके स‌ंदिग्ध हो जाने स‌े उनपर अवांछित आरोप लगने स‌े हम उन्हें बचाव का मौका भी न दें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।एकतरफा फतवाबाजी का शिकार फतवा जारी करने वाले लोग भी हो सकते हैं।

    • क्या पूरा देश अब खाप संस्कृति के शिकंजे में है?क्या गोत्र देखकर ही क्या  हम लोग सामाजिक आचरण करेंगे? minutes ago· Like

    • Palash Biswasऔर देखिये,लोगों ने तो आप पर भी आरोप लगाने शुरु कर दिये हैं।

    • 7 minutes ago· Like

    • Palash Biswasक्या हमारी ऊर्जा,प्रतिभा,प्रतिबद्धता अब बस इस काम की रह गयी है कि अबाध कारपोरेट राज के लिए हम जो पहले स‌े खंड विखंड हैं,साथ खड़े ही न हो स‌कें,सब मिलकर आपसी जूतम पैजार स‌े ऎसी भयानक स्थिति   का ही निर्माण करते रहेंगे,इस पर हम स‌बको स‌ोचना चाहिए।

    • 5 minutes ago· Like

    • Palash Biswasआज अगर अनिता जी के खिलाफ यह अभियान है तो कल हमारे और दूसरों के खिलाफ भी यही घमासान होगा।

    • 5 minutes ago· Like

    • Palash Biswasतो क्या हम लोग अबसे जन स‌रोकार के मुद्दे हाशिये पर रखकर भारतीय जनता के वध अभियान का मददगार बनते हुए एक दूसरे को ही लहूलुहान करते रहेंगे,इस पर भी स‌ौचें स‌ारे लोग।

    • 3 minutes ago· Like

    • Palash Biswasजगदीश्वर जी का लिखा हमें प्रासंगिक लगा और मैंने उस पर लंबी प्रतिक्रिया भी देदी। जनसरोकार के मुद्दे पर तमाम स‌मर्थ लोग खामोश हैं लेकिन दूसरों पर हमला करने स‌े कोई चूक नहीं रहा है।

    • 2 minutes ago· Like

    • Palash Biswasयही है केकड़ा चरित्र हिंदी स‌माज।

    • 2 minutes ago· Like

    • Palash Biswasस‌ंवाद के लिए कोई तैयार नहीं।हर कोई अलग अलग खाप है।

    • about a minute ago· Like

    • Palash Biswasएकतरफा फतवे जारी हो रहे हैं।

    • about a minute ago· Like

    • Palash Biswasयही है तो दिल का स‌ारा गुबार निकालकर जमकर गालियों की अंताक्षरी ही हो जाये।लोक में तो गाली गीतों का भी रिवाज है।

    • a few seconds ago· Like

    • Palash Biswasइससे अगर समस्याएं स‌ुलझती हों तो बस,अब यही कर लिया जाये।

    • a few seconds ago· Like



    Panini Anand
    जनला हो मर्दे, इ जेतना बार यूपी आइहैं, बलंडर जरूर होई. मफलर देख के लगत रहल कि कउनो रबड़ के जाकिट पहरले हुअन. कुल भाषण गड़बड़ाए गल. पता नाई लाग कवन बतिया केहर चेपत पेलत जात हौं. अ मिसटेक ई कर देहलेन कि- उत्तर प्रदेश भारत का भाग्य विधाता बन सकता है, उत्तर प्रदेश समृद्ध भारत की धरोहर बन सकता है, उत्तर प्रदेश नई उंचाइयों के लिए एक ताकतवर इंजन के रूप में उभर सकता है.... संकट ये है कि आपने सही सरकारें चुनी नहीं हैं. आपको सही नेता मिले नहीं हैं.- अब लीजिए. मतलब मंच पे राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोसी, सब फरजियै चुनि चुनि जात रहें. अउर इन मोडी बाबू के केऊ बतावौ कि हमनी के खेते में नेता पैदा होवेला. ससुर, बौकड़ी कहै हाथी से कि तुम बड़ा हो सकते हो जी. मजाक करै आवा रहैं. सबसे बड़ा मिसटेक जानत हुआ का भल- याकौ दांई हर हर महादेव न कहलेन. मने बिला काल भैरव, दंडपाणि अउर हर हर महादेव के भाषण सूरू और खतम हो गल. हाहाहहा... जात जात कहिन के बनारस मरण के भूमि है. ससुर, बनारस सर्व विद्या के राजधानी हो. तहार सांस फूल गल. रजातलाब में आंय सांय भाषण देहला. लक्खन ठीक नाहीं हैं तहार.... अरे, टिबिया कम कर बुजरौवाले... ढेर उंचा बाजत हौ.
    Like·  · Share· 6 hours ago near New Delhi·

    TaraChandra Tripathi
    जब समाज और पुलिस की सोच सामन्ती हो और संपन्न और प्रभावशाली वर्ग सारे मूल्यों को ताक पर रख कर क्लबों और सड़्कों मे कामुक और भड़्काऊ प्रदर्शन करने में अपनी शान समझता हो, उसे सत्ता के प्रतिष्ठान से 'काहू ते मरहिं न मारे, का अभयदान हो, टी.वी. और फिल्में सैक्स और स्केंड्लों से भरी हों, पूँजीवादी व्यवस्था नारी की देह को मात्र अपना सामान बेचने का साधन बना रही हो, तो नारी के प्रति समाज की सोच कैसे बदलेगी?
    हमारे समाज ने नारी को कभी मानवी समझा ही नहीं. यदि समझा होता तो विवाह के बाद लड़्की को विदा करते समय माता-पिता उसके ससुराल वालों से 'अब यह तुम्हारी चीज हुई क्यों कहते'.
    सज्जनो 'चीज 'शब्द पर ध्यान दीजिये. यह 'ची"धारणा ही नारी के उत्पीड़्न का मुख्य कारण है.
    Like·  · Share· 6 hours ago·

    Virendra Yadav
    "गंगा की याद के बिना हिन्दुस्तान अधूरा है ".
    "जो गंगा नहीं बचा सकते वे देश क्या बचायेंगें?"

    "गंगा ,गंगा, गंगा"
    गंगा की उपरोक्त दुहाई सुनकर याद आता है प्रेमचंद का वह निम्न कथन जिसमें उन्होंने कहा था--
    "साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है .उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है ,इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था ,संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है ."--प्रेमचंद.
    Like·  · Share· 7 hours ago· Edited·

    Udit Raj

    अगर दलितों और पिछड़ों को सम्मान से जीना है तो इस मनुवादी मीडिया का बहिष्कार करें। हम क्या बहिष्कार करेगें, मनुवादी मीडिया ने हमें पहले से ही बहिष्कृत कर रखा है। 16 दिसंबर, 2013 को अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ की जंतर मंतर, नई दिल्ली पर विशाल रैली को मीडिया ने नहीं के बराबर कवर किया, जबकि ठीक हमारे मंच के आगे एवं पीछे निर्भया कांड की वर्षगांठ पर 10-20 महिलाएं धरने पर बैठी थीं, उन्हें देश के सारे प्रमुख चैनलों ने न केवल लाइव कवरेज दिया बल्कि पूरे अखबार उसी से रंगे थे। जंतर मंतर पर हमारी महा रैली जैसी शायद ही कोई और हुई हो। टी.वी. चैनलों पर बहस में मिश्रा, दुबे, सिंह, अग्रवाल, मित्तल, गोयल, राजपूत आदि ही चर्चा में देखे जाते हैं और इन्हीं के समाज पर चर्चा भी होती है। शायद कभी भूलकर दलित और पिछड़ों की बात हो जाती है, जो नहीं के बराबर है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार दूरदर्शन पर चित्रहार कार्यक्रम भूले-बिसरे गीतों को सुनाया जाता है। हाल में सम्पन्न हुए चार राज्यों के विधान सभा चुनावों में एक बार भी दलित मुद्दों पर चर्चा नहीं हुई, जैसे कि हमारा कोई अस्तित्व ही न हो। इस सवर्ण मानसिकता के खिलाफ यदि खड़ा होना है तो अपना मीडिया खड़ा करो। चाहे जो तकलीफ आए, बर्दाश्त कर लो लेकिन कम्प्यूटर और मोबाइल पर इंटरनेट, फेसबुक, ट्यूटर, यूट्यूब, वाट्सअप, एसएमएस आदि के द्वारा अपना मीडिया खड़ा कर लो। आम आदमी पार्टी मीडिया के द्वारा पैदा की गयी। संकल्प कर लो कि अब यह आपके जरूरी कामों में से एक होगा। इस संदेश को इतना फैलाओ कि देश के सारे दलित और पिछड़ों तक पहुंच जाए। कुछ फोटो रैली की देखें तो अपने आप पता लग जाएगा कि सवर्ण मीडिया, कितना पक्षपाती है।


    डॉ0 नाहर सिंह

    अध्यक्ष, दिल्ली प्रदेश परिसंघ

    मो. 9312255381





    Like·  · Share· 1022072· 6 hours ago·


    TaraChandra Tripathi

    6 hours ago·

    • स्वर्णमंदिर में कुछ पल
    • स्वर्णिम आभा से युक्त जन-जन का स्वर्णमंदिर. मूल नाम हरमंदर साहब. विशाल परिसर. मध्य में नीलाभ अमृत सरोवर. शबद कीर्तन से निनादित परिवेश. पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की परिकल्पना का साकार रूप. शिलान्यास किया था लाहौर के मुस्लिम सन्त हजरत मियाँ मीर जी ने. अभिलेख बताते हैं कि शिलान्यास की तिथि संवत् 1645 वि. के माघ की प्रथम तिथि, संभवतः मकर संक्रान्ति थी. तीसरे गुरु अमरदास की करुणा का अमृत सरोवर, जिसे गुरु रामदास ने बाबा बूढ़ा की देखरेख में बनवाया था. अमृतकुंड और दरबार साहिब का उदय क्या हुआ, अमृतसर उभरने लगा।
    • श्वेताभ प्रांगण में कहीं भी मलिनता न आने देने के लिए अनवरत सन्नद्ध सिख श्रद्धालु. जाति भेद, रंगभेद, प्रजाति-भेद, देश-भेद से मुक्त सबको गले लगाता आध्यात्मिक संसार.
    • 'नानक दुखिया सब संसार'। 'संसार'. हिन्दू नहीं, मुस्लिम नहीं, स्वदेशी नहीं, विदेशी नहीं, गरीब नहीं, अमीर नहीं... 'सब संसार'। एक अद्भुत आध्यात्मिक दुनिया. मन प्रसन्न हो गया। लगा जैसे मंदिर के छोटे से अँधेरे कोने से निकल कर ईश्वर को भी खुली हवा में श्वास लेने का अवसर मिल गया हो. आकार से निकल कर निराकार होकर, पाषाणी मूर्ति से 'सबद'में ढल कर वह ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया हो. बिगबैंग हो या ओ3म् या आमीन। शब्द ही तो ब्रह्म है। शब्दं ब्रह्म।
    • दरबार साहब का पूरा परिसर वर्गाकार वेदी पर निर्मित है. इस परिसर के मध्य में स्थित अमृत सरोवर भी वर्गाकृति में निर्मित है. अमृत सरोवर के मध्य में स्थित हरमंदर साहब का भवन भी वर्गाकृति है. वर्ग या चारों दिशाएँ समान. इस वर्गाकृति के भीतर दिग्, काल और उसमें विकसित संसृति, सबके प्रति सत्गुरु का समत्व-संदेश निहित है।
    • दर्शनी ड्योढ़ी से मंदिर तक 21 फीट चौड़ा और 202 फीट लम्बा सेतु है. यह सेतु अमृत सरोवर से होता हुआ उपासक को मंदिर के परिक्रमा पथ तक पहुँचाता है. परिक्रमा पथ में चारों दिशाओं की ओर खुलते मंदिर के प्रवेश द्वार गुरु की शरण में आने वाले हर उपासक को अंगीकार करते हुए से प्रतीत होते हैं. किसी के भी प्रवेश का निषेध यहाँ नहीं है।
    • मंदिर में तीन तल हैं. जो क्रमशः छोटे होते जाते हैं. भूतल पर स्थित कक्ष, जिसे हर की पौरी भी कहा जाता है, अपेक्षाकृत बड़ा है. प्रथम तल का कक्ष भूतल के कक्ष से छोटा है. उसकी छत पर चारों ओर किनारों पर चार छोटी छतरियाँ हैं. दूसरे तल पर स्थित कक्ष प्रथम तल के कक्ष से भी छोटा है. इसमें तीन द्वार हैं. तीनों तलों में गुरुग्रन्थ साहब का अनाहत वाचन, होता रहता है. एक-एक तल से होता हुआ उपासक जैसे साधना के तीसरे सोपान पर पहुँच कर अपने जीवन की साध पा जाता है.
    • स्वर्णमंदिर सिखों की सामूहिकता का प्रतीक होने के साथ-साथ उनकी निश्छल आस्था का भी प्रतीक भी है. परिसर की स्वच्छता में आत्मभाव से अनवरत लगे सिख सेवकों का समर्पण भाव स्पृहणीय है. प्रसाद और चढ़ावा भी हलवे का है, जो द्वार पर स्वयंसेवक आपसे प्राप्त कर लेते हैं और बदले में हलवे का ही प्रसाद प्रदान करते है. गुरुग्रन्थ साहब का पाठ ही नहीं अखंड लंगर भी दरबार साहब की अनूठी परंपरा है। हर रोज हजारों-हजार दर्शक इसमें भोजन ग्रहण कर कृतार्थ होते हैं।
    • मैं सोच रहा था कि नानक देव के वचनों में कौन सी महाशक्ति थी जिसने इस्लाम को छोड़ कर पूर्ववर्ती सारे धार्मिक अभ्युदयों को आत्मसात् कर चुके हिन्दू धर्म के नाम से अभिहित अनेक उपासना और दर्शन पद्धतियों के समुच्चय की रक्षा करते हुए भी उसके प्रभाव से अपने पन्थ के स्वतंत्र अस्तित्व को अक्षुण्ण रखा. मेरी दृष्टि में यह महाशक्ति है, जीवन के हर समारंभ को, हर संस्कार को, पन्थियों के दैनिक जीवन से जुड़े उपाकर्म को पंडिताई के चक्रव्यूह से मुक्त कर गुरुवाणी में समाहित कर देना. पहली बार हम एक ऐसे पन्थ को पाते हैं जो हिन्दू परंपरा से विकसित होता हुआ भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सका. यह वह पन्थ है, जो अध्यात्म के साथ अपने समाज को भी परिपुष्ट करता है। जहाँ सेवा और समता का साम्राज्य है. सब से महत्वपूर्ण तो यह है कि भले ही संसार के किसी भी देश में किसी भी व्यक्ति को कहीं राह न मिले, आसरा न मिले, आहार न मिले, गुरु का द्वार उसके लिए सदा खुला मिलता है।
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    Emergence of AAP and Consequences

    K K Singh

    AAP victory in Delhi, though not sufficient to form government, has made history. This fact in itself is not sufficient to justify reasons for making history but its manifesto, thousands of volunteers from across the country, selection of its candidates independent of their religion, caste etc., fighting election with common man's donations etc. are but few reasons for starting a new epoch and creating fear in existing parties who hitherto had been doing politics without second thought of the people!

    And another angle of this history is the effort to find solution of hung assembly in Delhi is to approach people on 17 Dec, 20 13 and find out what they want? In the meantime, on this date, Rajya Sabha passed Sarkari Lokpal Bill supported by Anna brokered by open agents of Congress and BJP! On 18th Dec, 2013 Lokpal Bill is passed in LS as well, this in itself is history, but will be remembered as treachery to people and their dream of corruption free India through JLPB!

    Lokpal Bill had been pending since 45 years, but the way it was passed, like Congress, BJP, RJD etc. supporting its enactment, who had been dead opposed to it earlier and even calling Anna by all names, crates suspicion on their integrity and of course the effect of AAP victory and restlessness in all these old and corrupt parties to contain this rising "monster" against corruption and crimes!

    AAP Manifesto: In addition to making electricity 50% cheap, certain amount of water to be provided free, making special force with help of Retired Army Officer to protect women, other emphasis was on rehabilitation of rag pickers, contract labours, hawkers, parking facility for vehicles adjacent to societies, making tax payment etc. simpler to cut corruption etc. were added jewels in this newly emerged party's manifesto.

    Yet, there was enacting of un-diluted Delhi Lokayukta, and that also implied RTI on political parties once in power in Centre!

    NOTA: Another astounding phenomenon was 14 lakhs vote to NOTA in 5 states!! This implies that voter did come out of their cosy residents, went to polling booth, determined and voted to None Of The Above(NOTA), knowing well that even if it gets maximum votes, there will be a winner, the one who gets second maximum votes, the runner! Democracy, if it exists in India on the shoulders of 10 Crore child labours, 9 Crore homeless Indians and 2 Crore prostitutes, must change in form and content to survive! This incident is not due AAP as NOTA was voted in Delhi as well, though in small percentage, but due people's anger on existing system, whatever, one may call it- democracy or Loot Tantra or Dalal Tantra!

    Effecton Foreign Policy Difficult to foresee at present, what is the foreign policy of AAP, even though economic policy is abundantly clear from its Delhi manifesto, which has sent shivers among the agents of Ambani, Adani; only yesterday BJP ex-President Gadkari said AAP is "Right Maoist"! If you talk of controlling national wealth in favour of common man, peasants, workers, you become Maoist?

    Well, as well as foreign policy is concerned, remember Snowden, American whistle-blower, incident, where only one to support his asylum request in India was Arvind Kejriwal and AAP. Congress and BJP treacherously kept mum on this huge criminal spying through PRISM, US network against India and its people! Recent episode of our lady diplomat in US being harassed found echo in Indian political parties, where Mayavati too opened her mouth supporting diplomat in name of Dalit, is nothing but drama by US agents at the time of election and not to let AAP hog the national sentiments!

    So here is the glimpse of AAP's foreign policy- independent outlook with respect of our Sovereignty and maintaining our economic and military interest, be it US, Russia or our neighbours!

    Conclusion: Emergence of AAP has changed the way politics was "played" in India that is to loot mass for their masters, the corporates and for themselves and the state machinery including judiciary was for them and not for people.

    Side effect of AAP can be seen in strengthening of unity among parasite political parties and state machinery to safe guard Corporates' interest and their profit, which was evident in passing a fake Lokpal Bill, 'strong' stance against US hegemony, abruptly dropping of vegetable prices after election, and very positive effect is dramatic votes to NOTA and a cold rage rising in voters to oust existing rogue political parties!

    Revolution is in making!


    About The Author

    Capton K K Sngh (Krishna Kant Singh) is defence expert.He Worked at Indian Air Force, now he is active with Aam Admi Party.



    Prakash K Ray

    13 hours ago near New Delhi·

    मीडिया में दलित मुददो के लिये स्पेस हो

    2013.12.20

    अरुण खोटे। "मीडिया में दलित" के होने से फर्क तभी पड़ सकता है जब मीडिया में दलित मुददो के लिये स्पेस हो। क्योंकि मीडिया पूर्णरूप से निजी और ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले पारम्परिक उद्योगपति वर्ग के हाथो में है। इसलिये मीडिया के सामने यह लेकर आने की जरुरत है कि आज दलित वर्ग भी बाजार में योगदान कर रहा है।

    समाचार पत्र /पत्रिकाओ के ग्राहक और टीवी दर्शक के रूप में दलितो का सीधे योगदान है और उनमें प्रकाशित / प्रसारित विज्ञापन आदि उपभोक्ता वस्तुओं के ग्राहक के रूप में दलित प्रायोजक और विज्ञापनदाता को लाभ दे रहे हैं। और इसी आधार पर दलितो के मुद्दे पर मीडिया में "स्पेस " का दावा किया जा सकता है। क्योंकि दलितो का एक छोटा सा 3 % से 4 % वर्ग मध्य या निम्न मध्य वर्ग के रूप में पैदा हो चूका है। शहरों ने अपने दायरे में गांवों को व्यापक तरीके से प्रभावित किया है। और उसका एक बड़ा हिस्सा बाज़ारवाद कि चपेट में आ चूका है। दलितो का एक छोटा सा हिस्सा इसमें शामिल है जो बाजार में योगदान कर रहा है।

    आज मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कि भूमिका से बहुत दूर जा चूका है, समाचार जगत एक इंडस्ट्री में बदल चूका है और समाचार एक "उत्पाद" का स्वरूप ग्रहण कर चुके हैं। जिसके चलते उससे उसकी सामाजिक सरोकारिता की भूमिका पर सवाल करना या आपेक्षा करना कितना तार्किक हो सकता है ? मैं ऐसे तमाम दिल्ली से लेकर लखनऊ तक के दलित पत्रकारो को जानता हुँ जो अपनी पहचान को छिपाकर सामान्य विषयो पर पत्रकारिता कर रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि इनकी जाति खुलते ही या फिर दलित मुद्दे को उठाते ही येनकेन प्रकारेण इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जायगा। और जो जाति की पहचान के साथ काम कर रहे हैं उनके लिये चुप रहना उनकी मज़बूरी है। इसलिये वह दलित मुद्दों के अलावा अन्य विषयों पर पूरी बेबाकी से पत्रकारिता करते हैं। लेकिन तादाद में इनकी संख्या इतनी कम है कि इसे प्रतिशत में आंकना अन्याय होगा। ऐसा भी होता देखा जाता है कि अंततः समाचार समूह के भेदभावपूर्ण रवैये के चलते दलित वर्ग के पत्रकार अन्य क्षेत्रो में स्थानांतरित हो जाते हैं।

    बाज़ारवाद का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि यह लाभ हानि कि परिभाषा समझाता है और अगर दलितो को मीडिया में स्पेस और प्रतिनिधित्व चाहिये तो बाज़ार से उसकी ही भाषा में संवाद करना पड़ेगा। जरुरत इस बात कि है कि शोधो और अध्ययन के माधयम से बाज़ार में उप्भोक्ता के रूप में दलितो के योगदान और समाचारो पत्र / पत्रिकाओ के ग्राहक के रूप में और TV के दर्शक के रूप में दलितो के योगदान को चिन्हित करने कि आवशयकता है। और मेडिया इंडस्ट्री को चुनौती दे कर दलितो के मुद्दे पर स्पेस और उनके प्रतिनिधित्व का दावा किया जा सकता है।

    न्यूज़रूम में दलितो की भागीदारी और समाचारो के सभी वर्गों मैं दलितो से जुड़े विषयो कि सुनिश्चतता के लिए सरकार के द्वारा अफर्मेटिव एक्शन लिये जेन कि व्यापक आवशयकता है। अमेरिका में काले लोगों के प्रतिनिधित्व को न्यूज़ रूम में सुनिश्चित करने के लिए उठाये गये इस प्रकार के कदमो के नतीज़े काफी हद तक सकारात्मक रहे हैं। सरकारी विज्ञापन पाने वाले और सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम वाले संचार माध्यमो को दलितों के प्रतिनिधित्व और स्पेस के लिये बाध्य किया जा सकता है।

    आज लगभग सभी मीडिया समूह के पास अपने खुद के मीडिया प्रशिक्षण संस्थान हैं जहाँ दलित वर्ग के लिये कुछ स्थान आरक्षित किये जाने की अति आवशयकता है। डॉ अम्बेडकर दलितो के अपने मीडिया के प्रबल समर्थक थे और अपने समय में उन्होंने सफल प्रयास भी किये। आज़ादी के बाद भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में कुछ सफल प्रयास हुऐ है। कुछ एक प्रयास अभी हाल फिलहाल में भी हो रहे हैं जो काफी हद तक उम्मीद पैदा करते हैँ। हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी उन्हें प्रोत्साहन और सहयोग देने की है। उनके अनुभवों को भी शामिल किया जाता तो और बेहतर रहता।

    वैसे समय आ गया है जब सरकार लोकसभा - राज्यसभा चैनल कि तर्ज़ पर दलितों और अन्य दबे कुचले वर्ग पर केंद्रित एक नये और स्वतन्त्र "सामाजिक चैनल और सामाजिक समाचार पत्र" की शुरुवात करे जो इन वर्गों के मुददो पर एक साकारत्मक बहस के माध्यम से अन्य समाजो को दलितों और अन्य उपेक्षित वर्गों के प्रति जवाबदेह और संवेदनशील बनाने कि भूमिका अदा करे। जहाँ तक दलितो के अपने मीडिया को लेकर अबतक जीतने भी प्रयास हो रहे हैं या अतीत में हुये हैं अधिकतर के असफल होने के पीछे महत्वपूर्ण कारण पाठकवर्ग के चयन और प्रकाशित सामग्री में जुड़ाव की कमी बड़ा कारण नज़र आता है।(अरुण खोटे के फेसबुक से )।

    अरुण खोटे---Former Cheif Executive, Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC at Human Rights Campaign


    Amit Kumar Mishra
    मोदी जी की विजय संखनाद रैली वाराणसी के कुछ द्रश्य ----जय श्री राम जय भाजपा

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