হুমায়ূন আজাদের 'তুলনামুলক ও ঐতিহাসিক ভাষাবিজ্ঞান' বইটির সমালোচনা লিখেছেন মৃণাল নাথ







President of India Pranab Mukherjee in his customary address to the nation on the eve of the 69th Independence Day on Friday spoke about several pressing issues of the country ranging from the Parliament session washout to the terrorist attacks that the country saw recently. In his speech, President Mukherjee also highlighted the need for tolerance in a diverse nation like ours.
Here is the full text of the speech:
1932 का पूना समझौता और 15 साल बाद आजादी के वक्त गांधी-आंबेडकर की साझेदारी भारत के समाज और शासन व्यवस्था के लिए और साथ ही साथ दोनों संबद्ध व्यक्तियों की जीतों की नुमाइंदगी भी करती है.
...उन्होंने [अरुंधति रॉय ने- अनु.] दो विरोधियों के उल्लेखनीय तरीके से एक साथ आने को, जिसके नतीजा अपने जीवन के आखिरी दौर में गांधी की आंबेडकर के साथ साझेदारी थी, महारत से दबा दिया है. संविधान बनाने में आंबेडकर को शामिल किए जाने के शानदार नतीजों के बारे में हर कोई जानता है.
पूना समझौता वाली शिकस्त के बावजूद आंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडलों के विचार को पूरी तरह नहीं छोड़ा था. बदकिस्मती से उनकी दूसरी पाटी, शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन प्रांतीय विधान सभा के 1946 के चुनावों में हार गई थी. हार का मतलब ये था कि आंबेडकर ने अगस्त 1946 में बने अंतरिम मंत्रालय के कार्यकारी परिषद में अपनी जगह खो दी. यह एक गंभीर झटका था, क्योंकि आंबेडकर बेकरारी से कार्यकारी परिषद में अपनी जगह का इस्तेमाल करना चाहते थे, ताकि वे उस समिति का हिस्सा बन सकें जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करनेवाली थी. इस बात से फिक्रमंद कि ऐसा मुमकिन नहीं होने जा रहा था, और मसौदा समिति पर बाहरी दबाव डालने के लिए आंबेडकर ने मार्च 1947 में एक दस्तावेज प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज - जो 'संयुक्त राज्य भारत' (एक ऐसा विचार, जिसका वक्त शायद आ पहुंचा है) के लिए उनका प्रस्तावित संविधान था. उनकी किस्मत थी कि मुस्लिम लीग ने आंबेडकर के एक सहयोगी और बंगाल से शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के नेता जोगेंद्रनाथ मंडल को कार्यकारी परिषद में अपने उम्मीदवारों में से एक के रूप में चुन लिया. मंडल ने इसे यकीनी बनाया कि आंबेडकर बंगाल प्रांत से संविधान सभा के लिए चुन लिए जाएं. लेकिन आफत ने फिर से दस्तक दी. बंटवारे के बाद, पूर्वी बंगाल पाकिस्तान के पास चला गया और आंबेडकर ने एक बार फिर अपनी जगह गंवा दी. नेकनीयती दिखाने के लिए और शायद इसलिए कि उस काम के लिए उनकी बराबरी का कोई भी नहीं था, कांग्रेस ने संविधान सभा में आंबेडकर को नियुक्त किया. अगस्त 1947 में आंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष बनाए गए. नई बनी सरहद के उस पार जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने. उस सारी उथल-पुथल और बदगुमानियों के बीच यह गैरमामूली बात थी कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के पहले कानून मंत्री दलित थे. आखिर में मंडल का पाकिस्तान से मोहभंग हो गया और वे भारत लौट आए. मोहभंग आंबेडकर का भी हो गया था, लेकिन जाने के लिए उनके पास कोई जगह नहीं थी.
भारतीय संविधान का मसौदा एक समिति ने तैयार किया और इसमें आंबेडकर के नजरियों से ज्यादा इसके विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के सदस्यों के नजरियों की झलक मिलती थी. तब भी, अछूतों के लिए अनेक सुरक्षा प्रावधानों ने इसमें अपनी जगह बनाई, जिनकी रूपरेखा स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज में दी गई थी. आंबेडकर के रेडिकल सुझावों में से कुछ, जैसे कि खेती और मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण को फौरन खारिज कर दिया गया. मसौदा बनाने की प्रक्रिया से आंबेडकर सिर्फ नाखुश ही नहीं थे. मार्च 1955 में उन्होंने राज्य सभा (भारतीय संसद का ऊपरी सदन) में उन्होंने कहा: 'संविधान एक अद्भुत मंदिर है, जिसे हमने देवताओं के लिए बनाया था. लेकिन उनकी स्थापना इसमें हो पाती, इसके पहले ही शैतानों ने आकर उस पर दखल कर लिया.' 1954 में आंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उम्मीदवार के रूप में अपना आखिरी चुनाव लड़ा और हार गए (रॉय 2014: 137-39).
हालांकि 1945-46 के चुनौवों ने इसकी तस्दीक की कि आईएनसी [इंडियन नेशनल कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस] ने भारतीय मतदाताओं की भारी तादाद को अपनी तरफ खींचा था, जिसमें दलित समर्थकों की भी अच्छी खासी संख्या थी...अनेक दलित उम्मीदवारों ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई थी, जिसे समझा जा सकता है, कि गैर-दलित मतदाता उनकी हार की वजह बन सकते हैं. बदकिस्मती से 1952 के आम चुनावों में यह खुद आंबेडकर के साथ भी हुआ, जब वे हिंदू कोड बिल को पारित करने में कांग्रेस की सुस्ती पर निराश होकर कैबिनेट से इस्तीफा दे चुके थे. उनके साथ 1954 में फिर यह हुआ, जब उन्होंने उपचुनावों में हिस्सा लिया.
उस वक्त तक गांधी के पूर्वाग्रह का (जो उनके लगभग सभी समकालीनों में मिलते हैं) खुले दिल से सामना करना चाहिए, लेकिन रॉय इस फेहरिश्त के सबसे अनुकूल पहलू को क्यों छुपा लेती हैं, जो अपने वक्त के लिहाज से दुर्लभ था?
चाहे वो हिंदू हों या मुसलमान उनमें नाम बराबर भी नैतिक और धार्मिक समझदारी नहीं है. वे इतना नहीं जानते कि दूसरों की मदद के बगैर खुद शिक्षा हासिल कर सकें. इस तरह देखा जाए तो वे झूठ बोलने की हल्की सी भी लालच के आगे झुक जाते हैं. कुछ समय बाद उनके लिए झूठ बोलना एक आदत और बीमारी बन जाता है. वे बिना किसी वजह के झूठ बोलते हैं, अपनी भौतिक स्थिति को बेहतर बनाने की किसी संभावना के बगैर, असल में यह जाने बिना कि वे क्या कर रहे हैं. वे जीवन में एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाते हैं जब अनदेखी की वजह से उनकी नैतिक क्षमताएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं.
उपनिवेश (कॉलोनी) में इस मुसीबत के वक्त में हमारा क्या फर्ज है? यह कहना हमारा काम नहीं है कि काफिरों [जुलू लोगों] का विद्रोह न्यायोचित है या नहीं. हम ब्रिटिश सत्ता की महिमा से नाटाल में हैं. यहां हमारी मौजूदगी ही इस पर निर्भर करती है. इसलिए हमारा फर्ज है कि जो हम जो भी मदद कर सकें, करें.
हम सभी मशक्कत के लिए तैयार थे, लेकिन इस तजुर्बे के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे. हम समझ सकते थे कि हमारा दर्जा गोरों के साथ नहीं रखा जाता, लेकिन देशी लोगों के बराबर के दर्जे पर रखा जाना बर्दाश्त से बाहर लगता था. तब मैंने महसूस किया कि भारतीय लोगों ने हमारे निष्क्रिय प्रतिरोध को वक्त पर शुरू नहीं किया. यह इस बात का एक और सबूत था कि इस घिनौने कानून का मकसद भारतीयों को शक्तिहीन करना था...चाहे इसका नतीजा पतन हो या नहीं, मुझे यह कहना ही चाहिए कि यह खतरनाक है. काफिर नियमत: असभ्य होते हैं – जिनके कसूर साबित हो चुके हैं वो तो और भी. वे तकलीफदेह होते हैं, बहुत गंदे और लगभग जानवरों सी जिंदगी जीते हैं.
मुझे कोठरी में एक बिस्तर दिया गया, जहां ज्यादातर काफिर कैदी रहते थे जो बीमार पड़े थे. मैंने इस कोठरी में भारी मुसीबत और डर में रात गुजारी...मैंने भगवत गीता पढ़ी जिसे मैं अपने साथ ले गया था. मैंने वो श्लोक पढ़े, जिनमें मेरी स्थिति का वर्णन था और उन पर चिंतन करते हुए, मैंने खुद को दिलासा दिया. मेरे इस कदर बेचैन महसूस करने की वजह ये थी कि काफिर और चीनी कैदी जंगली, हत्यारे और अनैतिक तौर-तरीकों वाले दिखते थे...वह [चीनी] तो बदतर मालूम पड़ता था. वह मेरे बिस्तर के करीब आया और उसने मुझे करीब से देखा. मैं स्थिर बना रहा. फिर वो बिस्तर में पड़े एक काफिर के पास गया. दोनों ने आपस में अश्लील मजाक किए, एक दूसरे के यौनांगों को उघाड़ा...मैंने मन ही मन एक आंदोलन करने की प्रतिज्ञा की ताकि यह यकीनी बनाया जा सके कि किसी भी भारतीय कैदी को काफिरों या दूसरों के साथ न रखा जाए. हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि उनके और हमारे बीच कोई साझी जमीन नहीं है. इससे भी ज्यादा, जो लोग उन लोगों की कोठरियों में सोना चाहते थे, उनके ऐसा करने के लिए एक छुपी हुई मंशा है.
मैंने उन्हें सूचित किया कि मैं...एक माहवार चंदा भेज दिया करूंगा... 'बढ़िया,'उन्होंने जवाब दिया. देखिए मैंने क्या किया – मेरी बेवकूफी! मैंने कहा, 'फिर बहुत अच्छा. मैं आपकी ओर से एक माहवार खत का इंतजार करूंगा,'उन्होंने यह कहते हुए टोका कि 'क्या इसका मतलब यह है कि हर महीने मुझे भीख का कटोरा लेकर आपके पास आना पड़ेगा?'मुझे इतनी शर्मिंदगी महसूस हुई.
पैसे की मेरी प्यास बस बुझने वाली नहीं है. मुझे कम से कम 2,00,000 रुपए चाहिए – खादी, छुआछूत और शिक्षा के लिए. गोशाला के काम पर 50,000 और बनते हैं. फिर आश्रम का खर्च भी है. पैसे की तंगी से कोई भी काम अधूरा नहीं रहता, लेकिन ईश्वर कड़ी परीक्षा के बाद ही देता है. यह भी मुझे संतोष ही देता है. आपको जिस काम में भी आस्था हो उसमें अपनी पसंद से दे सकते हैं (बिरला 1953 से, रॉय 2014: 106 में उद्धृत).
मैं चाहता हूं कि टाटा जैसा बड़ा घराना अपने कानूनी अधिकारों पर अड़ने के बजाए खुद जनता के साथ बात करेगा और वह जो करना चाहता है उसे जनता के साथ मशविरे से करेंगे...उन सभी वरदानों का क्या मोल है जिन्हें टाटा की योजना भारत के लिए लाने का दावा करती है, अगर इसके लिए एक भी अनिच्छुक गरीब आदमी को कीमत चुकाना पड़े? (आरजी.कॉम: 7)
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ভালোবাসা একঘেয়ে
ডঃ সুজাতা ঘোষ
আমি অভ্যেস, একঘেয়ে, মৃত।
আমার কোন উত্তাপ, অনুভূতি নেই।
আমি বয়ে চলেছি সারা শরীর জুড়ে
প্রতি সপ্তাহে হাত রাখি নিয়ম করে
তোমার হাতে।
আজ দু ফোঁটা বৃষ্টি ধুয়ে দিল
রেলিংয়ের উপরের ফাঁকা আকাশ।
গা শিরশির করল বোধ হয়, থেমে থেমে।
আবার সব শান্ত। বহুদূর ধোঁয়াশা মিশ্রিত।
মনে করার চেষ্টা করি সমস্ত স্মৃতি কেন্দ্রীভূত করে।
ফিকে হয়ে গেছে আঁতকে ওঠা, আবছা তুমি
আর তোমার গায়ের গন্ধ।
চড়া পোড়া গন্ধ বয়ে বেড়াচ্ছে বাতাস।
তুমি নেই, কোথাও নেই।
আমার কোন স্মৃতি ভালোবাসা, ভাললাগা,অনুভুতি
কোথাও নেই।
ফোনটা বাজছে ........... তোমার পরিচিত সেই ছবি।
অভ্যেস মত বলে গেলাম কিছু শব্দ।
তুমি বেঁচে আছ; আমার একঘেয়েমি, বিরক্তি, অভ্যেস, ভদ্রতা,
নিয়ম না ভাঙার মধ্যে।
সেই কবে কথা দিয়েছিলাম
হাত ধরে একসাথে চলব।
আজও চলেছি .................. হাত ছেড়ে
পাশাপাশি, একঘেয়, না ছেড়ে যেতে পাড়া
বন্ধনের শপথ ঘাড়ে বয়ে।।
'Why are women involved? Because, broadly speaking, they are under attack from both ends, from tradition as well as this new market-driven "modernity". I myself grew up in Kerala, dreaming of escape from a life of 'tradition' but then came up against a type of modernity that I wanted to flee from too. So you have to pick through it all and find your own path. In this country we have people who practise female infanticide, female foeticide in which millions of girl children are killed—and not only in traditional rural communities—we have honour killings based on caste, and at the same time we have the freest, strongest, most vibrant women anywhere in the world, the most independent and radical women, original thinkers who are on the frontlines of struggles—in India, we live in several centuries simultaneously.'
एक बहुत प्राचीन लोक कथा है एक किसान, उसके बेटे और एक गदहे के बारे में। सब ने सुनी होगी। मैंने बचपन में इसे ईसप की कथाओं में पढ़ा था, लेकिन कहीं अंदलूसिया के इब्न सईद को तो कहीं ज्यां दे ला फॉन्टेन को इसका जनक बताया जाता है। किस्सा-कोताह कुछ यूं है कि एक किसान अपने बेटे और गदहे के साथ कहीं जा रहा होता है। रास्ते में अलग-अलग जगहों पर मिलने वाले लोग उसे अलग-अलग सलाह देते हैं। कोई लड़के को गदहे पर बैठने को लेकर लताड़ता है तो कोई बाप को। जब दोनों उस पर बैठ जाते हैं तो लोग गदहे से सहानुभूति जताने लग जाते हैं। अंत में बाप-बेटे गदहे को टांग कर ले जाते हैं तो गदहवा लटपटा कर एक पुल से कूद पड़ता है और पानी में डूब जाता है।
इस कथा के मूल स्रोत पर विवाद है, हालांकि इसका सबसे दिलचस्प उपदेशात्मक संस्करण मुल्ला नसरुद्दीन के यहां मिलता है। वे कहते हैं, ''गदहे की पूंछ कभी जनता के सामने मत छांटो। कोई कहेगा कम कटी, कोई कहेगा ज्यादा। अंत में होगा ये कि सबकी मानते-मानते पूंछ समूल गायब हो जाएगी।'' कल रजत शर्मा से सुमित्रा महाजन कह रही थीं कि उन्हें अंत तक समझ ही में नहीं आया कि कांग्रेस क्या चाहती है। पहले कांग्रेस ने कहा कि बहस करनी है। सरकार जब बहस के लिए तैयार हुई तो कांग्रेस इस्तीफा मांगने लगी। फिर उसने संसद नहीं चलने दी। मतलब प्रधान पहले तो खुद संसद में बैठा, फिर उसने अपने गुर्गों को मोर्चे पर लगाया, फिर दोनों ने मिलकर संसद को संभालने की कोशिश की। प्रसारण लाइव हुआ। गदहे की पूंछ जनता के सामने छांटने की गलती करते हुए इन्होंने 25 सांसदों को निलंबित कर दिया और संसद को गदहे की तरह अपने कंधे पर टांग लिया। संसद छटपटाने लगी और बिना राष्ट्रगान सुने कल डूब गयी।
भाई, जो हुआ, कांग्रेस वही चाहती थी। इस देश की जनता का डीएनए टेस्ट करवा लें। सबका डीएनए कांग्रेसी है। कांग्रेस कोई पार्टी नहीं है, इस देश का डीएनए है। थोड़ा ईमानदार, थोड़ा भ्रष्ट, थोड़ा चतुर, थोड़ा मूर्ख, थोड़ी नैतिकता, थोड़ा अवसरवाद, थोड़ा खानदानी, थोड़ा संन्यासी, थोड़ा सच, थोड़ा झूठ, ये भी सही, वो भी सही। कुल मिलाकर एक ऐसा डीएनए जो हर स्थिति में सिर्फ मौज लेता है। पूरे सत्र के दौरान कांग्रेस ने इस देश की जनता की तरह मौज काटी है, और कुछ नहीं। एनडीए सरकार मुल्ला नसरुद्दीन के इस फॉर्मूले को समझ पाने में नाकाम रही और उसने अपनी सार्वजनिक हो चुकी मूर्खता में सत्र को डुबो दिया। अब प्रधान और उसका 344 का कुनबा कांग्रेस के 44 के लघु-कुनबे को 'एक्सपोज़' करेगा। सोचिए, किसान अगर चिल्ला-चिल्ला कर ढिंढोरा पीटे कि जनता की सलाह ने उसका गदहा डुबा दिया, तो कौन यकीन करेगा? सब मौज ही लेंगे न?