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औरतों को देह की नहीं,निर्णय की आजादी चाहिए – ज्योति कुमारी

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औरतों को देह की नहीं,निर्णय की 

आजादी चाहिए – ज्योति कुमारी



इंट्रो : आज भी तय किया जाता है कि कौन-सी बात एक लड़की की डायरी तक सीमित रहनी चाहिए और कौन-सी कहानी में आनी चाहिए वह भी किस तरह और किस हद तक और यह सलाह देने के लिए आपका विद्वान होना भी जरूरी नहीं। कोई भी ऐरा-गैरा ऐसी किसी स्त्री को ऐसी सलाह दे सकता है, बस उसे 'मर्द'होना चाहिए।

मुझे लगता है कि अपनी बात रखने से पहले नीलाभ जी की एक कविता की कुछ पंक्तियां यहां रखना समीचीन होगा-

चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है

जिंदा आदमी के लिए

तुम नहीं जानते

वह कब तुम्हारे खिलाफ खड़ी हो जाएगी

और सर्वाधिक सुनाई देगी

तुम देखते हो एक गलत बात

और खामोश रहते हो

वे यही चाहते हैं

और इसीलिए चुप्पी की तारीफ करते हैं

वे चुप्पी की तारीफ करते हैं

साथ ही यह सच है कि

वे आवाज से बेतरह डरते हैं

दरअसल चुप्पी की तारीफ करने वाला वर्ग वह है, जो नीति-नियंता है। शक्तिशाली प्रभु वर्ग है। यह भी एक तथ्य है कि हर युग में पुराने मूल्य कमजोरों के खिलाफ जाते रहे हैं और यह जाना अब भी जारी है। जाना ही है, क्योंकि जो नीति-नियंता है, वह अपने ही प्रभुत्व की तो बात करेगा। अपने कंफर्ट जोन को सही सलामत रखने का उपाय तो करेगा ही। ऐसे में लेखन और लेखक का यह दायित्व हो जाता है कि वह इस शक्तिशाली वर्ग को उनके कंफर्ट जोन से बाहर निकाल लाए। उनकी कमजोरियों पर उंगली रखे। अपने लेखन से उसे चुनौती दे और उन्हें जागृत और एकजुट करें जो कमजोर है।

मैं जिन कमजोर वर्गों की बात कर रही हूं, उनमें ही स्त्री भी है।

मूल्य बदल रहे हैं। पहले की अपेक्षा अब बहुत बदल गए हैं। मैं उन पुराने मूल्यों के पुनरुत्थान के लिए लिख भी नहीं रही हूं। नये मूल्य बनें, इसके लिए लिख रही हूं। इस क्रम में अब जो बातें मैं कहने जा रही हूं वे वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में हैं। हर वंचित तबके की बात है। अगर मैं स्त्री की बात करूं, तो वह भी दलित की ही तरह है, जिसे या तो चहारदीवारी में कैद रहना पड़ता है अथवा चहारदीवारी के बाहर की अदृश्य दीवारों में। इस कैद से तस्लीमा नसरीन जैसी मशहूर लेखिका भी मुक्त नहीं रह सकी हैं। इस कैद से निकल कर प्रिटी जिंटा जैसी सक्षम स्त्री तक को अपने पूर्व ब्वॉयफ्रेंड के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने में पांच साल लगे, जो प्रिटी के रिश्ता तोड़ लेने के बाद भी लगातार उनका पीछा कर रहा था। कई तो ऐसी महिलाएं इस दुनिया में आपको मिल जाएंगी, जो उत्पीड़न का शिकार होकर एक जगह से नौकरी छोड़ कर दूसरी जगह ज्वॉइन करती हैं, फिर वहां भी वही कुछ घटने लगने पर तीसरी… चौथी…। इसके बावजूद अपने जीवन के कैदखाने से निकल कर वह विद्रोह नहीं करतीं.़ . औरतों के जीवन में यह आम दिनचर्या की तरह हो गया है, इसके बावजदू वे आवाज नहीं उठातीं। और जो उठाती हैं, उनके लिए कुछ रटे-रटाए जुमले मर्दवादी समाज ने गढ़ रखे हैं। बवाली, चरित्रहीन, बेशर्म, हर बार इसी के साथ क्यों होता है। लेकिन सच यही है कि किसी-किसी स्त्री के जीवन में ऐसा नहीं हो रहा होता। लगभग हर स्त्री को हर रोज ऐसी अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। एक स्त्री जैसे ही सामाजिक जीवन में आती है, लगभग रोज ही उसे ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि सामाजिक जीवन में ही, बल्कि घर में भी बहुत सारी स्त्रियां इस तरह की स्थितियों का सामना करती हैं। लेकिन कोई-कोई ही बगावत पर उतरती है। विद्रोह करती है। ऐसी स्थिति में होता यह है कि एक बागी लड़की जब इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह पर उतारू होती है तो उसे पता चलता है कि उसके साथ खड़े होने वाले भी पीठ पीछे उसका चरित्र हनन कर रहे होते हैं। साथ में रोज उन्हें ऐसी अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में 'मर्दों'के लिए अफवाह फैलाना आसान हो जाता है- देखो यह लड़की है ही ऐसी। हर बार इसी के साथ ऐसा क्यों होता है आदि-आदि। और इस स्थिति में होता यह है कि रोज-रोज की गलीज हरकतों और फब्तियों से तंग आकर वह स्वेच्छा से वापस अपने कैदखाने में बंद हो जाती है।

इसलिए यह बहुत जरूरी हैं कि नये मूल्य गढ़े जाएं, जो इस भेदभावमूलक समाज को बदल सकें। उदाहरण के तौर पर, हमारे यहां परिवार और समाज की व्यवस्था है। पारिवारिक होना एक बड़ा मूल्य है। मेरे अंदर एक सवाल हमेशा उठता है कि एक लड़की ऐसे परिवार या समाज की शर्तों पर पारिवारिक या सामाजिक बन कर क्यों रहे, जहां वह क्रश हो जाए। उसे टॉर्चर किया जाए। जीवन नर्क हो जाए। स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो जाए।

तो विकल्प क्या है?

ऐसी स्थिति में लड़की क्यों न अपारिवारिक हो जाए। अकेली रहे। जैसा कि वर्जिनिया वुल्फ ने भी 'अपना एक कमरा' (A Room of One's Own) में लिखा है। मैं यहां अकेली रहने की बात इसलिए कर रही हूं, क्योंकि जैसे ही एक लड़की पति और पिता का घर छोड़ने का निर्णय लेती है लोग कहते हैं, चलो पति बुरा था, लेकिन पिता.़ . पिता के घर क्यों नहीं रही? जरूर लड़की ही गड़बड़ है। लोग एक स्त्री की स्वतंत्र सत्ता की कल्पना किताबों में तो करते हैं, मगर वास्तविक जीवन में नहीं। किताब या फिल्म की ऐसी बहादुर संघर्षशील नायिकाओं की तारीफ करते लोग नहीं थकते, मगर आपके सामने जब एक जीती-जागती लड़की वही संघर्ष कर रही होती है तो उसके संघर्ष में सहयोग देने के बदले लोग उस पर तरह-तरह के लांछनें लगा कर उस पर यह प्रेशर बनाने की कोशिश करते हैं, ताकि वापस उसी कैदखाने (व्यवस्था) में लौट जाए, जिसका हामी समाज का ठेकेदार यानी शक्तिशाली पुरुष वर्ग है। क्योंकि वे किसी भी तरह के परिवर्तन से डरे हुए लोग हैं। इससे उन्हें अपनी सत्ता टूटती हुई महसूस होती है। इस वर्ग को उसके सुरक्षित खोल से बाहर लाना ही होगा। तभी नये मूल्य बनेेंगे, जिसमें कोई अकेली स्त्री सम्मान और चैन से जी सकेगी।

ऐसा भी नहीं है कि इस शक्तिशाली वर्ग में सिर्फ पुरुष हैं। न… महिलाएं भी हैं। ऐसी महिलाएं, जो प्रयास करें तो स्त्रियों की स्थिति बदलने में कुछ कारगर कदम उठाने में तो जरूर सक्षम हैं। मगर वे ऐसा नहीं करती हैं। पुरुषों के सुर में सुर मिलाती हैं, क्योंकि वे गांधारी की तरह अपनी आंख पर पट्टी बांधकर, संजय की आंखों से सब कुछ देखती हैं। वे समझ ही नहीं पातीं कि जो स्त्री-विमर्श या आजादी उन्हें तश्तरी में सजा कर भेंट की गई है, वह ऊपर से जितनी लुभावनी है, अंदर से उतनी ही खतरनाक। इसकी परिणति वही होनी है, जो महाभारत की परिणति हुई। गांधारी और धृतराष्ट्र ने संजय की आंखों से और शकुनी के दिमाग से महाभारत का युद्ध कौरवों को लड़ते देखा, लेकिन कौरवों को विनाश से बचा नहीं पाये। क्योंकि आंख और दिमाग संजय और शकुनी के थे। आज की कुछ स्त्रियां भी इसी तरह मर्दवादी समाज और विचार के प्रभाव में हैं, इसलिए वे कौरवों की तरह स्त्रियों के पक्ष में नहीं खड़ी हो पा रही हैं, क्योंकि वे सब कुछ संजय और शकुनी यानी मर्द के नजरिये से देखती हैं। तो जाहिर है ऐसी स्त्रियों से स्त्री मुक्ति की दिशा में नई पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए इन स्त्रियों के खिलाफ चुप्पी साधना भी उतना ही खतरनाक है, जितना भयावह अपने पर हुए अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ है। ये मात्र इसी बात से खुश हैं कि अब वे पहले की तरह घर में बंद (कैदखाने) नहीं हैं। वे बाहर निकल आई हैं, जबकि वे इस बात को नहीं जानतीं कि जब मर्दों को लगा कि स्त्रियां अब उनकी जागीर बनकर घर में रहने को तैयार नहीं हैं, तो उन्होंने देह मुक्ति का नारा देकर उन्हें खुश कर दिया कि वे उनके लिए सहज सुलभ रहें यानी छोटे कैदखाने से बड़े अदृश्य कैदखाने में उन्हें बंद कर दिया।

मैं पूछती हूं सेक्स का इतना वितंडा क्यों? क्या स्त्री को सेक्स की आजादी के सिवाय किसी अन्य आजादी की जरूरत नहीं?

है! इससे कहीं ज्यादा है। उसे सम्मान से जीने, अपने फैसले खुद लेने, आत्मनिर्भर होने आदि की ज्यादा जरूरत है। देह मुक्ति का अर्थ तो मेरी नजर में इस प्रक्रिया में है कि मैंने स्त्री तन पाया है, इसलिए यह काम मैं नहीं कर सकती या रेप जैसी अप्रिय घटना हो गई तो यह सोचना कि अब मैं अपवित्र हो गई किसी के लायक नहीं रही या यह काम तो मर्दों का है, भला मैं कैसे कर सकती हूं, जैसी मानसिकता से ऊपर उठने में है। यानी स्त्री होने के कारण जो अक्षमता या हीन भावना हमारे भीतर बचपन से भर दी जाती है, उससे मुक्ति ही देह मुक्ति है, स्त्री मुक्ति है। बाकी रही बात सेक्स या लाइफ पार्टनर की तो अगर उसे निर्णय (डिसिजन मेकिंग) लेने की स्वतंत्रता है, तो बाकी सबकुछ खुद ब खुद हो जाएगा।

अब थोड़ी बात लेखन की कर ली जाए, हालांकि ऊपरवर्णित बातें भी लेखन और लेखकों पर लागू होती हैं। लेकिन मैं अब यहां अब मैं सिर्फ स्त्री लेखन की बात करूंगी और उनकी स्थिति की।

एक स्त्री का लेखन पुरुष के लेखन से बहुत भिन्न होता है। वह क्या लिखती है, कैसा लिखती है, यह तो बाद की बात है, सबसे पहली मुश्किल तो यही आती है कि क्या उसे अभिव्यक्ति की वही स्वतंत्रता प्राप्त है, जो पुरुष वर्ग को। जाहिर है नहीं।

चलिए थोड़ा अतीत में जाकर देखते हैं। 80-90 के दशक में एक संस्था थी 'लेखिका'। उस समय उसकी अध्यक्ष थीं शीला गुजराल। उसके एक वार्षिक अधिवेशन में अमृता प्रीतम अपने विचार प्रकट कर रही थीं और मंच पर थे जैनेन्द्र। अमृता जी ने नारी लेखन पर विस्तृत बयान दिया कि इस देश में इन-इन महिलाओं ने इसलिए आत्महत्या की, क्योंकि उनकी लेखन प्रतिभा का दम घोंट दिया गया था। कहीं मायके में तो कहीं ससुराल में। उसी दौर की निरूपमा सेवती, दीप्ति खंडेलवाल, मालती जोशी जैसी लेखिकाओं ने परिचर्चाओं में भाग लेते हुए कहा कि हमें तो कई बातें लिखने के कारण ससुराल से, यहां तक कि मायके से भी निकाले जाने का खौफ सताता रहता है। ये स्थितियां आज भी कमोबेश कायम हैं। आज भी तय किया जाता है कि कौन-सी बात एक लड़की की डायरी तक सीमित रहनी चाहिए और कौन-सी कहानी में आनी चाहिए वह भी किस तरह और किस हद तक और यह सलाह देने के लिए आपका विद्वान होना भी जरूरी नहीं। कोई भी ऐरा-गैरा ऐसी किसी स्त्री को ऐसी सलाह दे सकता है, बस उसे 'मर्द'होना चाहिए।

यह कैसी स्वतंत्रता है अभिव्यक्ति की? और जब कोई लड़की इस लक्ष्मण-रेखा को पार करती है तो नीति नियंता असहज हो उठते हैं। हो सकता है, इस लेख को पढ़ कर भी कुछ लोग असहज हों। कंफर्ट जोन से बाहर निकल आएं। मेरी कुछ बातें उन्हें परेशान करे। वे विरोध पर उतर आएं। कुछ मेरे खिलाफ भी लिख डालें। बोलें। व्यक्तिगत हमले पर उतर आएं, जो स्त्रियों के संदर्भ में उनका अनादिकाल से अचूक हथियार रहा है। इसमें कुछ वैसी महिलाएं भी शामिल हो सकती हैं, जो सबकुछ मर्दवादी नजरिये से देखती हैं। सच कहूं तो यह सब होगा तो मैं समझूंगी कि मैं सफल हुई, क्योंकि तब मुझे लगेगा कि कुछ बदल रही हूं मैं। जिसकी बौखलाहट में शक्तिशाली वर्ग अपनी खोल से बाहर निकल आया है। आज बाहर आया है, कल बदल जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है, तो मैं मानूंगी कि वह सोंस की तरह अब भी पड़ा है और खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए चुप है।

साथ ही मेरा उद्देश्य यह भी है कि कमजोर दबा-कुचला वर्ग अपनी स्थिति समझने तक सीमित न रहे, वह अपनी चुप्पी तोड़े। इसीलिए मैं अपनी कहानियां साधारण बोलचाल की भाषा में लिखती हूं, क्योंकि दबे-कुचले वर्ग का वह हिस्सा जो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं है, वह भी मेरी कहानियों को पढ़ कर समझ सके। यहां मैं एक वाकया सुनाना चाहूंगी-

'मेरे पड़ोस की एक भाभी एक बार डॉक्टर से दिखाने गईं। तो डॉक्टर ने कहा कि आपके लिए सलाद यूजफुल है। फलों में सेव फायदेमंद है। तो भाभी खूब सलाद खाने लगीं। एक दिन मैं उनके पास ही थी, तो बोलीं ज्योति जी आज तो खीरा खत्म है। सेव ही खाना पड़ेगा। तो मैंने कहा सेव खाना तो अच्छा है। मुंह क्यों बना रही हैं। नहीं वो डॉक्टर ने कहा कि सेव फायदेमंद है। तो? तो कम फायदा करेगा न। मंद मतलब तो कम होता है न।'

अब देखिए यूजफुल तो वे समझ गईं, मगर फायदेमंद पर अटक गईं। तो इसलिए मैं बोलचाल की भाषा लिखती हूं, ताकि वे भाषा की जाल में न उलझें, तथ्यों को समझें।

कहा जाता है कि साहित्य समाज का आईना होता है। लेकिन आईना वही दिखाता है, जो हो रहा है। मगर साहित्य वह भी दिखाता है जो हो सकता है। इसलिए मेरी कोशिश हमेशा यह रहती है कि मैं जो लिखूं, उसे पढ़ कर लोगों के अंदर कुछ उबले या वह सकारात्मक विद्रोह की सोचें, विध्वंसक की नहीं। बदलाव की सोचे। नये मूल्य गढ़ने की सोचें। ऐसे मूल्य जो जनसरोकार से वाबिस्ता हों।


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