उस रसगुल्ले की देहगंध अब इस कायनात में कहीं नहीं।कहीं भी नहीं।
मधुमेह की शिकार है हमारी यह दुनिया।
पेशावर में तालिबान ने सौ बच्चों को मौत के घाट उतार दिये और गौरतलब यह है कि इस्लाम के नाम पर मारे गये वे तमाम बच्चे मुसलमान ही थे। मलाला का नोबेल जीतने का जश्न पाकिस्तान ने ऐसे मनाया।धर्मोन्मादी आतंकवाद अपनों पर ही सबसे पहले वार करता ह,यह समझ लेना चाहिए।पाकिस्तान की इस त्रासदी पर धर्मांध नजरिये से सोचने का बजाय हम थोड़ा सावधान भी होजायें और अपने बच्चों की खैर मनायें तो बेहतर है कि राजनीति का तालिबानीकरण कितना खतरनाक हो सकता है ,उसका सबूत पाकिस्तान है और हमें इस भस्मासुर से जरुर अपने देश और अपनी जनता को बचाने की हर जुगत लगानी चाहिए।
पलाश विश्वास
पेशावर में तालिबान ने सौ बच्चों को मौत के घाट उतार दिये और गौरतलब यह है कि इस्लाम के नाम पर मारे गये वे तमाम बच्चे मुसलमान ही थे।
मलाला के नोबेल जीतने का जश्न पाकिस्तान ने ऐसे मनाया।
भारत में नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी के कुशल क्षेम के लिए अब मैं चिंतित हूं क्योंकि हम भी तालिबान के शिकंजे में कम नहीं है और गीता महोत्सव शुरु कर चुका है तालिबान राजकाज।
धर्मोन्मादी आतंकवाद अपनों पर ही सबसे पहले वार करता ह,यह समझ लेना चाहिए।
पाकिस्तान की इस त्रासदी पर धर्मांध नजरिये से सोचने का बजाय हम थोड़ा सावधान भी हो जायें और अपने बच्चों की खैर मनायें तो बेहतर है कि राजनीति का तालिबानीकरण कितना खतरनाक हो सकता है ,उसका सबूत पाकिस्तान है।
और हमें इस भस्मासुर से जरुर अपने देश और अपनी जनता को बचाने की हर जुगत लगानी चाहिए।
पाकिस्तान के आर्य हिंदुओं और सिखों को अब पांच साल पहले आने पर भी हिंदुत्व की सरकार नागरिकता और नौकरी दोनों दे रही है और कश्मीर समस्या उसके लिए कश्मीरी पंडितों की समस्या है,बाकी कश्मीर और बाकी देश की नहीं।
तो पूर्वी बंगाल के अनार्यहिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थी जो सन सैतालीस में भारत में बसने के बावजूूद अस्पृश्यऔर बेनागगरिक हैं,वोटबैंक समीकरण के अलावा रंगभेदी भेदभाव के अलावा संघ परिवार की कोई मिठाई नहीं है उनके लिए।
रंगभेदी नस्ली मनुस्मृति नवउदार मुक्तबाजारी राजकाज के इतिहास भूगोल का यह दर्पण है।चाहें तो अपना चेहरा देख लें।
शोर नहीं सोर यानी कोलाहल नहीं,चेतना का अंतस्थल,अंतःप्रवाह
आज के रोजमनामचे में सबसे पहले हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठीका यह वक्तव्य,मेरी रचना 'आधी रात के सोर'के 'सोर'को कतिपय पाठक शोर (कोलाहल) समझ रहे हैं.वस्तुत: यह शब्द कुमाऊनी भाषा का है और stream of conscousness या हिन्दी के 'चेतना प्रवाह'का समानार्थक है. सोते समय दिमाग में एक के बाद एक अनेक यादों और विचारों का उभर आना ही 'सोर'है।
इस भूल के अपराधी हम हैं क्योंकि हम खुद इसका मायने समझ नहीं सकें।
कृपया आधी रात का शोर शीर्षक प्रकाशित कविता को आधी रात का सोर पढ़ें।
ब्रह्मराक्षसे के दिखाये रोशनदान की रोशनी में इसी सोर के तहत फिर पढ़ेंः
पेशावर में तालिबान ने सौ बच्चों को मौत के घाट उतार दिये और गौरतलब यह है कि इस्लाम के नाम पर मारे गये वे तमाम बच्चे मुसलमान ही थे।
मलाला के नोबेल जीतने का जश्न पाकिस्तान ने ऐसे मनाया।
भारत में नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी के कुशल क्षेम के लिए अब मैं चिंतित हूं क्योंकि हम भी तालिबान के शिकंजे में कम नहीं है और गीता महोत्सव शुरु कर चुका है तालिबान राजकाज।
धर्मोन्मादी आतंकवाद अपनों पर ही सबसे पहले वार करता ह,यह समझ लेना चाहिए।
पाकिस्तान की इस त्रासदी पर धर्मांध नजरिये से सोचने का बजाय हम थोड़ा सावधान भी हो जायें और अपने बच्चों की खैर मनायें तो बेहतर है कि राजनीति का तालिबानीकरण कितना खतरनाक हो सकता है ,उसका सबूत पाकिस्तान है।
और हमें इस भस्मासुर से जरुर अपने देश और अपनी जनता को बचाने की हर जुगत लगानी चाहिए।
पाकिस्तान के आर्य हिंदुओं और सिखों को अब पांच साल पहले आने पर भी हिंदुत्व की सरकार नागरिकता और नौकरी दोनों दे रही है और कश्मीर समस्या उसके लिए कश्मीरी पंडितों की समस्या है,बाकी कश्मीर और बाकी देश की नहीं।
तो पूर्वी बंगाल के अनार्यहिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थी जो सन सैतालीस में भारत में बसने के बावजूूद अस्पृश्यऔर बेनागगरिक हैं,वोटबैंक समीकरण के अलावा रंगभेदी भेदभाव के अलावा संघ परिवार की कोई मिठाई नहीं है उनके लिए।
रंगभेदी नस्ली मनुस्मृति नवउदार मुक्तबाजारी राजकाज के इतिहास भूगोल का यह दर्पण है।चाहें तो अपना चेहरा देख लें।
मौलिक हलवाई दुर्गापद अधिकारी बसंतीपुर वाले
बात का सिरा फिर वहीं बसंतीपुर में उलझ गया है।
अपने वीरेनदा के निर्देशानुसार यह गप्प उसी बसंतीपुर से शुरु करता हूं।
हमारे बचपन में वहां दुर्गापद अधिकारी मानक एक मौलिक हलावाई हुआ करते थे जो जाति से लेकिन कायस्थ थे।
जात पांत के बारे में बसंतीपुर की दुनिया और हिमालय छोड़कर कोलकाता आने से पहले हमें कुछ खास मालूम न था।कोलकाता में ही हमें अपनी सामाजिक हैसियत और कुल औकात के बारे में समझा दिया गया।पहाड़ में किसा ने समझाया नहीं।
जाति परिचय उजागर होने,जगजाहिर होने के बावजूद,बाहैसियत कुत्ता बन जाने के बावजूद मैं अब भी उत्तराखंड के कोने कोने में उनका अपना बच्चा हूं जहां जाति भाषा पहचान अस्मिता बेमतलब है।
अगर उत्तराखंड मेरे वजूद में न होता तो यह सब लिखना मेरे लिए असंभव ही होता।
ताराचंद्र त्रिपाठी से मुलाकात नहीं होती तो मैं बड़ा कोई चाकर कामयाब हो सकता है,हो जाता और देश दुनिया के सरोकारों से बेखबर बेहद कामयाब भी हो जाता,लेकिन त्रिपाठी जी से स्ट्रीम आफ कांशसनेस के संक्रमण की वजह से मैं अब भौंकताै हुआ कुत्ता हूं और मुझे बिना काटे इस भौकने की विरासत पर गर्व है।
थोड़ी सी जगह दें उत्तराखंड में
मुझे बंगाली बंगाल में कोई नहीं मानता और मैं बतौर बंगाली मरना भी नहीं चाहता।
मुझे लोग उत्तराखंडी मानकर अपनी माटी में थोड़ी सी जगह दे दें मरने के लिए तो मेरा जीवन मरण सार्थक हो जाये।
लेकिन दुर्गापद अधिकारी की जाति इसलिए मालूम है कि वे बसंतीपुर में अव्वल तो अकेले कायस्थ थे और शरणार्थी जनपद दिनेशपुर में कायस्थ जनसंख्या लगभग शून्य है।अब तो उस परिवारे के बच्चों के जैसे इने गिने ब्राह्मण परिवारों के बच्चों की शादी भी दूसरी जातियों में हो रही है और इसतरह उनकी वैवाहिक समस्या सुलझ गयी।
दुर्गापद अधिकारी के एकमात्र पुत्र विधू अधिकारी ,जो हमारे बड़े भाई हैं और अब बसंतीपुर में कार्तिक काका जात्रा कलाकार की तरह सबसे बुजुर्ग भी हैं,उनकी विवाह की भारी समस्या हो गयी क्योंकि कायस्थ परिवार में ही उनका विवाह हो ,ऐसा दुर्गापद जी की जिद थी।और कायस्थ परिवार शरणार्थी उपनिवेश में कहीं थे नहीं कि कन्या मिल जाये।बाकायदा विधूदा कुंआरा बनकर रह जाने से बाल बल बच गये क्योंकि हमारी भाभी जान की शुभदृष्टि के अधिकारी बनने को वे कामयाब हो गये।
मुश्किल यह है कि कायस्थ ब्राह्मण शरणार्थी होकर भी बंगाल में बस गये और बाहरी राज्यों में निनानब्वे फीसद दलितों का ही बसेरा है।
वहां इक्के दुक्के कायस्थ ब्राह्मणों के लिए विशुद्ध जाति की रक्षा कर पाना आर्थिक संगति के मुताबिक कभी संभव ही नहीं रहा है।
पुलिनबाबू की मूर्ति तोड़ो का जश्न
वे बाहैसियत शरणार्थी दलित ही रहे हैं और उनके नेता पुलिनबाबू,जो संजोग से मेरे पिता हैं और अंबेडकर जोगेंद्र नाथ मंडल के कट्टर अनुयायी भी और मार्क्सवादी भी और अपढ़ भी, बार बार यही कहते रहे कि बेनगरिक सारे शरणार्थी दलित ही हैं और उनकी कोई जाति नहीं है और उनमे रोटी बेटी के रिश्ते में भेदभाव होना नहीं चाहिए।
यह संघ परिवार की विशुद्धता आधारित हिंदुत्व का महान दर्शन के खिलाफ है।
शायद इसीलिए अब केसरिया हुए दिनेशपुर वाले रोज रोज पुलिन बाबू की मूर्ति नये सिरे सेगढ़कर रोज रोज तोड़कर उनकी शरणार्थी जिंदगी का जश्न मना रहे हैं।
हकीकत फिर भी यही है कि बंगाल के बाहर बसे ब्राह्मण और कायस्थ और सवर्ण शरणार्थी भी चाहे अनचाहे अनार्य भूगोल में शामिल हैं।बंगाल में उनके एकाधिकारवादी वर्चस्व के विपरीत।
बाकी देश के मुक्त बाजार में ब्राह्मणत्व और सवर्ण अस्मिता का सच भी लेकिन यही है।सबकुछ लुट पिट तहबाह हो जाने के बाद सवर्ण अस्मिता के मध्य लोग हिंदुत्व का गीता महोत्सव मना रहे हैं और तमाम मूर्तियां तोड़कर नाथूराम गोडसे की मूर्तियां लगा रहे हैं और विधर्मियों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू बना रहे हैं।
यही है तालिबान का हिंदू साम्राज्यवादी राजकाज, जिससे लेकिन भारत का भविष्य फिर वही पाकिस्तान है और पेशावर हमारे यहां भी कभी भी संभव है।
कृपया अपने बच्चों की हिफाजत के ख्याल से हमाराे लिक्खे पर गौर जरुर करें बाकी जो आपर हमें गरियाते रहते हैं,आपका वह आशीर्वचन हमारे सिर माथे हैं हम मनुस्मृति व्यवस्था में दलित अस्पृश्य हैं और गालियों के अलावा हमारा कोई सामाजिक सम्मान नहीं है।बाकी सारा कुछ बोनस है अगर दाना पानी मिलता रहे और जान की खैरियत रहे।
तो विधूदा की दुल्हन बंगाल से लायी गयी।
भइया हमारे साढ़े चार फुट कद के और भाभी छह फुटिया।उस भाभी से बचपन से हमारे बेहद मीठे संबंध हैं। लेकिन ऐसी अजब गजब जोड़ी हमने कोई दूसरी कहीं देखी नहीं हैं।
उन दुर्गापद अधिकारी का पहचान उनके बनाये रसगुल्लों से होती थी जिसकी दक्षता वे पूर्वी बंगाल से बसंतीपुर तक ढो कर लाये थे।
उन्होंने ही दिनेशपुर में एक दूसरे कायस्थ परिवार को आयातित किया जो संजोग से हलवाई थे। कर्तिक मयरा।
जिनकी दुकान दिनेशपुर की खास पहचान बनी रही जबतक न कि अपनी बेटी अर्पणा के विवाह के बाद वे दुकान जमीन बेचकर बंगाल नहीं चले गये।अर्पणा मेरी सहपाठिन रही है।
हम लोग उसे रसगुल्ला कहकर ही बुलाया करते थे।
कारीगर हमारे विधू दा भी खूब हैं लेकिन वे स्वभाव से कलाकार हैं।
बसंतीपुर जात्रा पार्टी के वे प्रोमटर रहे हैं और उनके बच्चे अब संगीतकार हैं।लेकिन मिठाइयां विधूदा भी खूब बना लेते हैं।
व्यवसाय दुर्गापद अधिकारी का स्वभाव नहीं था।वे मिठाइयां कलाकार के तेवर में बनाते थे और कारोबार में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
मिठाइयां बनाने के बाद तमाम लोग उनकी कला और रसगुल्लों की मिठास की तारीफ करें ,उनकी सारी कोशिश यही होती थी।
इसलिए दिनेशपुर में पहली मिट्ठाई की दुकान खोलने के बावजूद उनकी दुकानदारी चली नहीं और दिनेशपुर की मिठाइयों की पहचान हमारी सहपाठिन अर्पणा के पिता की दुकान ही रही है।
अर्पणा खुद बेहद सुंदर थी लेकिन उससे भी सुंदर थीं उनकी मां जो रात दिन अपने पति के साथ रसगुल्ला बनाया करती थीं।
अर्पणा उनकी इकलौती संतान थीं और उसके बंगाल चले जाने की वजह से उनकी दुकान भी बंद हो गयी।
कार्तिर मयरा वहीं दिवंगत हो गये,ऐसा हमें इस बार दिनेशपुर जाकर पता चला है।
अपने विधू दा तो साक्षात भोलेनाथ हैं।ऐसा सज्जन आदमी हमने कभी कहीं देखा नहीं है।
गांव के सारे पर्व त्योहार या फिर किसी के यहां किसी भी आयोजन में निःशुल्क सेवा के लिए सबसे पहले वे तैयार थोड़ा बहुत जलपान की व्यवस्था हालांकि उनके लिए करनी होती है और वे किसी से कभी मेहमाताना मांगते हों,ऐसा मुझे कभी मालूम नहीं पड़ा।
इस परिवार की ज्यादा दिलच्सपी अपनी खेती बाड़ी में रही हैं।
मिठाइयां वे बैठे ठाले बनाते रहे हैं जैसे इस देस की हम मां बहन तीज त्योहार पर अपना मिठाइयां शौक पूरी करने के लिए विशुद्ध हलवाई बन जाती हैं वैसे ही उनका हलवाई होने का किस्सा है।फिर गांव में ही ठेला लगाकर बेचते है और दुकान उनने कभी लगायी ही नहीं।
रसगुल्ले की उत्पत्ति गांव बसंतीपुर में ही हुई
अगर मुझसे कोई पूछे कि रसगुल्ले की उत्पत्ति कहां से हुई तो मैं बेहिचक कोलकाता और बंगाल के सारे दावे खारिज करके,देवघर के रसगुल्लों को खारिज करके बाबुलंद आवाज में कह सकता हूं कि रसगुल्ले की उत्पत्ति गांव बसंतीपुर में ही हुई।
बसंतीपुर से बने उस रसगुल्ले की देहगंध से महमहाते रहे हैं हमारे बचपन,कैशोर्य और यौवन।तब हम कितनी ही रसगुल्ले खा लेते थे।
आज हम मधुमेह के शिकार हैं।
पूरा देश मधुमेह का शिकार है।पहाड़ में भी लोग मधुमेह से पीड़ित हैं।
जैसे मैदानों में रसगुल्ले नहीं हैं वैसे ही लालाबाजार अल्मोड़े में कब तक बने रहेंगे बाल मिचाई,इसकी हमारी कोई धारणा नहीं है।नैनीताल में तो बमुश्किल मिलती है।
अब उस रसगुल्ले की देहगंध इस कायनात में कहीं नहीं है।कहीं भी नहीं है।
सबसे मजे की बात है कि बंगाली शरणार्थी जो तराई में बसे और उनका जो अपना शहर उन लोगों ने बनाया,बसंतीपुर का या बाकी किसी शरणार्थी गांव का कुछ भी नहीं बचा है।
वहां हमें कोई पहचानने वाला नहीं है
दिनेशपुर हाईस्कूल में मेरे सीनियर अरविंद मिष्टिवाल महज नाम के मिष्टिवाला हैं क्योंकि उनकी मिष्टि की दुकान चली नहीं और बंगालियों की कोई मिठाई की दुकान दिनेशपुर में है या नहीं,मुझे मालूम नहीं है।
कार्तिक मयरा ने बेहद निजी कारण से जो अपनी दुकान जमीन बेच दी तो एक एक करके सारे बंगालियों ने बेशकीमत दुकान और जमीन मुंहमांगे दाम पर बेच देने में कोई हिचकिचाहट दिखायी नहीं है।
अब दिनेशपुर बहुत बड़का शहर हो गया है जहां हमारी जवानी में हमारे साथ झुंड के झुंड लोग होते थे,जहां हमारी एक आवाज पर दसियों हजार लोग इकट्ठा हो जाते ते,वहां हमें कोई पहचानने वाला नहीं है।
स्थानीय सारे लोग दिनेशपुर से बेदखल हैं।
हमारे बैठने की कोई जगह है ही नहीं क्योंकि बंगाली हो यागगैर बंगाली स्थानीय सारे लोग दिनेशपुर से बेदखल हैं।
मित्रों यह किस्सा एक अधूरी प्रेमकथा जैसी कुछ नहीं है,स्कूल की क्यारी पर खड़े कनेर के फूल की खुशबू की चर्चा के अलावा अर्पणा से हमारा कोई संवाद नहीं रहा है।हम नहीं जानते कि वह जीवित है कि दिवंगत हो गयी है और इस जनम में उससे मिलने की कोई संभावना नहीं है।
इसलिए उसे इस किस्से की नायिका समझने की भूल न करें।उससे मेरी कोई मुलाकात सन सत्तर के बाद हुई भी नही।तब हम लोग बारह तेरह चौदह साल की दहलीज पर थे।
दरअसल यह किस्सा हिमालय का है,सारा देश का किस्सा है यह,प्रेम कथा नहीं,भोगा हुआ यथार्थ
दरअसल यह किस्सा पूरे हिमालय का है,जहां पाहाड़ी प्रकृति और पर्यावरण से बेदखल हो रहे हैं।यह किस्सा तमाम नदियों के किनारे ,समुद्रतट पर रहने वाले,जंगलों में रहने वाले और भारत देश के हर जनपद के वाशिंदों की व्यथाकथा है जहां रसगुल्ले की कोई देहगंध इस कायनात में कहीं नहीं है।
सारे रंग रुप रस गंध बेदखल हैं।
रस्सगुल्ले की गुमशुदगी दरअसल मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था का भोगा हुआ यथार्थ है।
मसलन बागेश्वर में साठ साल के बाद बर्फ गिरी है तो उत्तराखंड में अरसे बाद सर्वत्र भारी हिमपात की खबरें और तस्वीरें हैं।उन्हें नत्थी कर दूं तो बातें अधूरी रह जायेगी।
कल ही लिखा है हमने कि हम तो इसी हिमपात के लिए लड़ रहे हैं बदलते हुए फिजां और मौसम के लिए।उसका विस्तार है यह रसगुल्ला आख्यान।जो गीता महोत्सव समय में धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे विधवा विलाप जैसा ही है कुछ।
और आज इकोनामिक टाइमस् की लीड खबर हैः
Norms on large factories and land acquisition depressing manufacturing sentiment
Prime Minister Narendra Modi's showpiece Make in India project can potentially get unmade by lack of administrative clarity on two crucial environmental policy areas -green regulations on setting up large factories and norms of green clearance for land acquisition.
Industry complaints on both these are building up even as potential investors in Indian manufacturing wait for the environment ministry to clarify matters. Industrialists who spoke to ET for this story did so on the condition they not be identified.
The policy hurdle in case of setting up large factories is a UPA-2 legacy -the Jayanti Natarajan-run environment ministry had issued a rule prohibiting construction of factories larger than 20,000 square metres unless a green clar ance was obtained.
The Modi government had moved on this matter and on September 11, two weeks be fore the prime minister launched the Make In India initiative, the environment ministry had said it will deal with this UPA-2 rule.
But nearly three months after the high-voltage launch, the ministry is yet to notify the change in the rule. In government, there's usually a 60-day window from the day a ministry proposes a clarification to an existing rule and the finalisation of the draft. For the large factoriesgreen clearance rule, the 60-day period ended on November 12.
The environment ministry told ET that the draft is being finalised and will soon be put up to the minister, Prakash Javadekar. However, industry, including MNCs, are complaining.
The ministry also confirmed to ET it has received industry views on this matter.
http://epaperbeta.timesofindia.com/index.aspx?eid=31817&dt=20141216
जाहिर है कि इस हिमपात के मौसम का पर्यटन को उद्योग बनाकर भारत की सरकार कोई कल्याण नहीं करने जा रहा है।
पर्यटन को उद्योग बनाकर दरअसल इस कारोबार को एकाधिकारवादी कारपोरेट वर्चस्व के हवाले किये जाने का कार्यक्रम है।
पहाड़ों में पर्यटन उद्योग में अब कितने पहाड़ी बचे हुए हैं,हमें नहीं मालूम।
केदार जलप्रलय के बाद भी लोग अभी लिहाफ तानकर शूतूरमुर्ग बने हुए हैं और हर मुद्दे के जवाब में नमो नमो जाप रहे हैं,तो बाकी जो कुछ भी बचा है उसके लिए शायद अगले जलप्रलय का इंतजार भी न करना पड़ें।
हम नैनीताल और पहाड़ के दूसरे हिस्सों में जिन अति प्रिय मित्रों के यहां ठहरा करते हैं,वे ठौर ठिकाने कितने बचे रहेंगे,अबनी बची खुची जिंदगी की सबसे बड़ी फिक्र यही है।
जहूर आलम और रंगकर्म
जहूर आलम हमारे ऐसे मित्र हैं जो फिल्म उद्योग की चकाचौंध में बह जाने को तैयार नहीं है और नैनीताल में युगमंच के लिए दिया बत्ती करने वाला वही बचा हुआ है।
इतना बड़ा कलाकार और सुबह से देर रात तक कपड़े की दुकान में बैठा हुआ पहाड़ का सारा रंग कर्म साधता है।रंग कर्म चूंकि बेहद प्रासंगिक माध्यम है क्योंकि इसके बिना शायद किसी और माध्यम में हम आगे बात चला सकें।
अपने मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं
नेटजाल में इस महाद्वीप के आधे लोग शामिल हो रहे हैं लेकिन अपने ही मुद्दों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं।वे जिन्हें हम जानते हैं,उनकी दीवाल पर हम अपनी चिंताएं टांग देते हैं,तो वे परेशां हो जाते हैं।
जिन्हें पढ़ने लिखने का शौक है नहीं .वे जाहिर है कि नेट पर भी पढ़ने लिखने के लिए घुसे नहीं हैं।धर्मोन्माद भड़काने के सिवाय इस नेट पर हाजिर ज्यादातर लोग कुछ भी नहीं कर रहे हैं,ऐसा कहते हुए मुझे अफसोस है।
पहाड़ से सबसे ज्यादा दुश्मनी पहाड़ियों की ठैरी
खासतौर पर पहाड़ के लोगों को तो पहाड़ से सबसे ज्यादा दुश्मनी ठैरी।इस पहाड़ को मैदान बना देने की हर संभव जुगत वे लोग लगा रहे हैं और इसका सबसे आसान तरीका है,पहाड़ का केसरियाकरण ,जो खूब हो रहा है।
अबकी दफा जो हिमपात हुआ है और जवानी कैशोर्य के दिनों में कालेज आते जाते वक्त,मालरोड और ठंडी सड़क पर हिमपात में दुनियाजहां की समस्याओं से जूझते रहने की वाली टोलियों और एकांत कमरे में कड़कती सर्दियों में प्रिय उंगलियों की दस्तक के लिए इंतजार के वे सारे पल याद आ गये।
स्नो व्यू,लरियाकांटा,टिफिन टाप और चीना पीक पर बर्फ की बेशुमार दौलत को याद करके दिल कैसा कैसा होने लगा है।लेकिन यह भी कहना मुश्किल है कि अबकी दफा जो हिमपात हुआ ,वह फिर कब होगा।
हस्तक्षेप के लिए
मुद्दों को स्पर्श करने के लिए 16 मई के बाद कविता और प्रतिरोध के सिनेमा जैसे आयोजन हो रहे है।हम उनकी मदद करने की हैसियत में नहीं रहे हैं।
हस्तक्षेप को और ज्यादा प्रासंगिक,और ज्यादा मुखर बनाने के लिए अमलेंदु की मदद करने में लगे हैं।जो खुद बेरोजगारहै।उसकी पत्नी की भी कोई नौकरी नहीं है।हमें पिक्र है कि यह आयोजन कब तक कैसे चल पायेगा।सर्वर मंहगा होता जा रहा है।
हम चाहते हैं कि हमारे रिटायर होने से पहले सभी भारतीय भाषाओं में हम संवाद शुरु कर सकें।डोनेट करने का बड़ा सा बोर्ड टांगने के बावजूद हिंदी वालों की नींद में कोई खलल पड़ नहीं रही है।
आनंदस्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट के बाद
हम फिक्रमंद हैं कि आनंदस्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट के बाद हमारे वैकल्पिक मीडिया आंदोलन का क्या आखिरकार होना है।
टीवी की तरह टीआरपी दर्शन जैसे सोशल मीडिया को खाने चबाने लगा है,उससे लगता नहीं है कि बहुत देर तक हमारा पढ़ना लिखना बोलना संभव होता रहेगा।
रंगकर्म का असली मूल्य
अब रंगकर्म का असली मूल्य हमारे सामने आ रहा है।हमारे गिरदा बड़े कवि थे।अंदर बाहर पारदर्शी थे।
गिरदा को जिनने नैनीताल फ्लैट्स पर कार्यकर्म एंकर करते नहीं देखा,वे सही मायने में असली गिरदा के दर्शन से वंचित है।
गिरदा रंगकर्मी थे।असली रंगकर्मी और पहाड़ में अलख शायद वे इसलिए जला सकें।
आधुनिक भारतीय साहित्य में सामाजिक यथार्थ को प्रतिरोध का गुरिल्ला युद्ध बनाकर साहित्य लिखने वाले हाल में दिवंगत हमारे अति प्रिय नवारुण भट्टाचार्य भी भारतीय गण नाट्यसंघ के वारिस थे और रंगकर्म ही दरअसल उनका माध्यम था,जिसे उनने गद्य पद्य में स्थानांतरित किया।
गिरदा चिरकुट में लिखने वाले ठैरे
गिरदा चिरकुट में लिखने वाले ठैरे,राजीवदाज्यू ने कहा जब हमने भाभी को कापीराइट दिलाने के जुगाड़ के बारे में बात चलायी।
राजीव दा ने साफ साप कहा कि गिरदा मुखर बहुत थे लेकिन लिखा और लिखकर समेटा उनने बेहद कम है।उनका लिखा भी सारा का सारा उनके रंगकर्म में शामिल है।
भुलाये गये शिवराम,जहूर को पहचानते नहीं
हमारे लिए तो गद्दर के साथ ये दो नाम ही हैं,जो सीधे रंगकर्म से जुड़े हुए हैं और जनसरोकार ही जिनका वजूद रहा है।
हमारे मित्र शिवराम भी कुछ वैसे ही थे।लेकिन राजस्थान के कोटा से उनकी निरंतर क्रियता का उताना नोटिस लिया नहीं गया है।
ठीक उसीतरह जैसे सर से पांव तक भले मानुष जहूर बाबू के भाव हमें ठीक से मालूम भी नहीं है।
बटरोही उवाच
बटरोही ने गिरदा की किताबें कोर्स में लगाने के बाबत चिढ़कर कहा कि कौन लगायेगा।
समझ लीजिये पहाड़ के विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा है।गिरदा की विधवा हीरा भाभी को अपने दिवंगत पति पर गर्व जरुर होगा पर पूरा पहाड़मिलकर भी उनके आंसू नहीं पोंछ सकते।
नैनीताल डीएसबी कालेज और हल्दवानी एमबी कालेज,रुद्रपुर महाविद्यालय,काशीपुर महाविद्यालय,अल्मोड़ा कालेज,गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर और उत्तराखंड के तमाम शिक्षा संस्थान कभी पर्यावरण चेतना और पर्यावरण आंदोलन के केंद्र होते थे,जिसकी पूंजी अब भी हमारी कुल जिंदगी है।
डिजिटल देश में हमारा वर्तमान और भविष्य दोनों उपभोक्ता है और हमारा जीवन ,पहाड़ और मैदान सिर्फ बाजार है।मुक्त बाजार।
अब इकोनामिक टाइम्स में आज यह भी छपा हैः
Govt suggests using Aadhaar card to authenticate profiles on matrimonial websites
The Aadhaar card could soon be your passport to a married life with the government asking all matrimonial websites to verify the authenticity of the profiles they put up.
The move by Minister for Women and Child Development Maneka Gandhi comes in the wake of the recent rape incident in Delhi involving a driver with prior history who managed to get employed with an online taxi service without any background check.
The minister has suggested using Aadhaar card details to authenticate profiles and by early next year all matrimonial sites will have to comply . She has also asked them to crack down on fake profiles. Ministry sources told ET that Maneka Gandhi pointed out that a mobile number was the only requirement currently needed to put up one's profile. "This is clearly not enough. There are hundreds of people who register online on matrimony sites every month and there are increasing instances of women being cheated while looking for grooms. There are men who have multiple accounts in different websites.Making an Aadhaar card compulsory will ensure the pictures of the grooms are on the profiles. This will limit the number of stalkers, serial daters and married men posing as single," a senior official at the ministry said.
सुहाग रात से पहले आधार बनवाएं
मायने यह कि हमें रोबोट बना दिया जा रहा है जिसकी हर गतिविधि रिमोट कंट्रोल से इसतरह नियंत्रित होनी है कि सुहाग रात मनाने के लिए भी अब आधार कार्ड अनिवार्य होने जा रहा है।
गैस कनेक्शन,वेतन,स्कूल और अस्पताल में एडमिशन के बाद गैरकानूनी अवैध नागरिकता हनन का यह कारपोरेट उपक्रम अब हमारी पहचान के अलावा हमारी जिंदगी का भी अनिवार्य हिस्सा बना दिया जा रहे हैं।
डीएसबी रीडिंग ऱूम का सन्नाटा पूरे हिमालयऔर पूरे भारत में हैं,जहां हमारे गुरुजी का स्ट्रीम आफ कांशसनेस कहीं नहीं है,सोर कहीं नहीं है।शोर है।
पहाड़ को मैदान बनाने वाले लोगों को बखूब मालूम है कि मैदान दरअसल मैदान हैं ही नहीं।मैदान अब सीमेंट के जंगल हैं।
जैसे सारे के सारे पहाड़ नंगे हो गये वैसे ही सारे के सारे मैदान और अभयारण्य अब श्मशान है और श्मसान हैं सारे के सारे जनपद हिमालय में और हिमालयकी गोद में बसे बाकी भारतवर्ष में।
रंगकर्म कि विरासत खत्म हो रही है।
सफदर हाशमी का जन्मदिन हम खूब मनाते हैं।
गिरदा की यादें भी अभी दफन हुई नहीं हैं।
गद्दर हमारे दिल में,दिमाग में हैं और हमारे पुराने साथी दिवंगत शिवराम हैं ,लेकिन हम रंगकर्म की विरासत बचा नहीं पा रहे हैं।
नांदीकार नाट्यउत्सव में मणिपुर
आज ही कोलकाता में नांदीकार का राष्ट्रीय नाट्यउत्सव शुरु हुआ है अकादमी में।रुद्रप्रसाद सेनगुप्त जाहिर है कि अब भी जिंदा हैं।
इसबार भी मणिपुर से रतन थियाम की विरासत चली आयी है।
मणिपुर के बंगाल से स्थानांतरित वैष्णव आंदोलन,मातृसत्ता,शास्त्रीय नृत्य लाई हरोबा और मार्शल आर्ट के साथ मणिपुर का रंगकर्म विशेष सैन्यबल सशस्त्र कानून के प्रतिरोध में मणिपुरी जनजीवन की अभिव्यक्ति की निरंतरता है।
ग्लोबीकरण से हुए चौतरफा सर्वनाश पर केंद्रित
इसबार रतन थियाम का बेटा थओवई थियाम निर्देशक बतौर कोलकाता नाट्य उत्सव में पेश कर रहे हैं मणिपुर कोरस रिपोर्टरी थियेटर का नाटक वाकथाई।जिसकी कथा ग्लोबीकरण से हुए चौतरफा सर्वनाश पर केंद्रित है।
एक प्रकृति निर्भर जनसमुदाय के वजूद खो देने की व्यथा कथा है यह।मुक्त बाजार में वह जनसमुदायअपना सबकुछ खो देता है।अपनी पहचान,आत्म सम्मान, आजीविका, विरासत,संस्कृति लोक,अपनी भाषा तक।यह पूरे हिमालय की कथा है।
यह उत्तर आधुनिक उत्तराखंड की कथा जितनी है उतनी ही हिमाचल से लेकर सिक्कम की कथा भी है।
धारा 370 की वजह से कश्मीर में निरंतर नागरिक और मानवाधिकार हनन के बावजूद कश्मीरियत अभी जिंदा है।जिंदा है डल झील और जिंदा है चिनार के वन भी।
कश्मीर के केसरियाकरणसे कितना कश्मीर बच पायेगा ,अब यही देखना बाकी है जैसे बंगाल में दीदी के सौजन्य से जो केसरियाकरण हो रहा है,उससे कितना बंगाल और कितने बंगाली बचेंगे,हमें शक है।
जैसे अलग झारखंड और अलग छत्तीसगढ़ बन जावने से इंच दर इंच जमीन और जंगल से बेदखल हैं आदिवासी,पहाड़ियों के हाल उससे बेहतर हैं या नहीं,हमें महसूस करना होगा।
पहाड़ों में हिमपात की तस्वीरों का यह बेरंग दूसरा पहलू है।
जिसकी नजीर यह कि इतने बुजुर्ग और मशहूर रंगकर्मी जहूर आलम अपेन ही शहर नैनीताल में युगमंच के साथियों के साथ मारे मारे रिहर्सल की जगह खोजते रहते हैं।
पहाड़ों में,अपने उत्तारखंड में जैसे कि सुंदरलाल बहुगुणा का कहना है कि चीड़ के अलावा कुछ भी नहीं बचा है।
नैनीझील की शवयात्रा
जो मित्र बर्फबारी में नैनीजील को कैमरे में कैद करके साझा कर रहे हैं,उनका आभार।लेकिन शायद ही उन्हें अहसास हो कि नैनी झील का दम घुट रहा है और नैनीझील की शवयात्रा निकालने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
विशिष्ट लेखक उज्ज्वल भट्टाचार्य ने सही लिखा हैःपेशावर की घटना दिखाती है कि समाज का तालिबानीकरण कितना भयंकर ख़तरा है।
जाहिर है कि हम लोग वही कर रहे हैं और वही दोहरा रहे हैं जिससे भारत का भविष्य पाकिस्तान बन जायें।इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान के मुकाबले हिंदू राष्ट्र भारत।इंसानियत नाम का लफ्जअपना वजूद खोने लगा है कि इंसान इतना बेहया,बेशर्म है।
विशिष्ट लेखक उज्ज्वल भट्टाचार्य ने आगे लिखा हैःसबसे पहले यह कहने का वक़्त है : ये हमारे बच्चे थे. जिस किसी के दिल में मां-बाप का प्यार है, वह खोने के इस दर्द को महसूस कर रहा है।
विद्याभूषण रावत का मंतव्य भी गौरतलब हैः
In one of the deadliest and bloodiest attacks Taliban terrorists have killed hundreds of students after storming the school run by the army in Peshawar. Such horrendous attack shows that these rascals have no humanity in them and can go any extent. The world is passing through a difficult phase with religious competitiveness and attempt to change the faith of others. Taliban want to Islamise the world. Their agenda is clear and they would do it at the cost of killing children, men and women. It is a serious time to think. It is time for condemning all kind of religious fanaticism and religious terrorism which has kept us hostages. Our lives have become hostage to such notorious gangs of thugs who operate in the name of religion. Those who are rejoicing in India must understand that religious fanaticism can ultimately bring a fascist regime. The answer for this is secular state where faith become just a personal matter. We moan for these innocent children and their untimely deaths. We must call a bluff to these operating in the names of God and killing the innocents. No ifs and buts. Speak up as silence will be a crime at the moment.
अपने अभिषेकवा यानी अभिषेक श्रीवास्तव के इस पोस्ट की बेचैनी भी समझ लीजियेः
Mr. Kailash Satyarthi - Nobel Prize Winner Peace 2014 must instantly do and say something on the slaughter of more than 100 children in Peshawar by Talibans. At least he must call the PM Mr. Narendra Modi and advise him to issue an official statement condemning the incident. Apart, we expect him to go to Pakistan with a delegation, meet government representatives and console the nation in mourning. If possible he must convey a strong message to the perpetrators of Peshawar.
अभिषेकवा ने लिखा है
काहे न भोजपुरी में लिखल,समझत नइखे
पेशावर में सौ से ज्यादा बच्चों के तालिबानियों द्वारा किए गए कत्ल पर दुनिया के ताज़ा शांतिदूत बने नोबेल पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी को तत्काल इस संबंध में कुछ कहना और करना चाहिए। कुछ नहीं तो कम से कम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन कर के बोलें कि वे एक आधिकारिक बयान जारी कर के इस घटना की निंदा करें। इसके बाद हम उम्मीद करते हैं कि श्री सत्यार्थी एक प्रतिनिधिमंडल लेकर पाकिस्तान जाएंगे, वहां के हुक्मरानों से मिलेंगे और वहां के राष्ट्रीय शोक में सांत्वना का हाथ बढ़ाएंगे। संभव हो तो वे अपनी ओर से पेशावर के अपराधियों को एक कड़ा संदेश भी भिजवायें।
हमारे युवा कवि नित्यानंद गायेन की ताजा कविता पोस्ट भी गौर तलब हैः
पाकिस्तान के पेशावर में आर्मी स्कूल पर हमला, . अब ताज़ा समाचारों के अनुसार अबतक 104 से ज्यादा बच्चे मारे गये हैं .......इतने ही घायल हैं ...... मन खराब हो गया .
मैं भी पर्वत होना चाहती हूँ
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जारी है तुषारापात निरंतर
फिर भी हौसला न हुआ पस्त पर्वत का
मैं भी पर्वत होना चाहती हूँ |
हिम, बिजली और आंधियों से
लड़ते रहना है मुझे |
इसी सिलसिले में एचएल दुसाध जी के इस मंतव्य पर भी गौर कीजियेगाः
जाति –मुक्त लोगों को एक बार फिर 16 दिसंबर को दुष्कर्म की शिकार हुई अपनी नायिका की याद में कैंडल मार्च निकाल कर क्रन्तिकारी बनने का मौका मिल गया .आज के कई अखबार कैंडल मार्चियों की तस्वीरों से भरे पड़े हैं.इस मामले में जेएनयू के छात्र सबसे आगे दिखे .इन्ही लोगों ने कुछ दिन पहले कैब में दुष्कर्म का शिकार बनी एक युवती को इंसाफ दिलाने के लिए कैंडल से दिल्ली को रोशन कर दिया था.लेकिन यही कैंडल वीर भागाणा की निर्भायाओं की ट्रेजडी पर ख़ामोशी अख्तियार किये रहे. दरअसल कथित निर्भया को दुष्कर्म का शिकार बनाकर देश के प्रभु वर्ग के हित को आघात पहुचाया गया था.यही आघात कुछ दिन पूर्व प्रभुवर्ग ने एनालिस्ट युवती के मामले में महसूस किया था.जब –जब उन्हें ऐसी घटनाओं के जरिये स्व-वर्गीय हित पर चोट पहुचती वे ऐसे ही मार्च निकलते हैं.किन्तु जिन घटनाओं से उनके वर्गीय हित का कोई सरोकार नहीं होता,उनकी संवेदना सुप्त पड़ी रहती है.यही कारण है मूलनिवासी समाजों के बच्चियों के साथ जब ऐसी त्रासदी होती है वे खामोश रहते हैं.अगर उनकी संवेदना सभी के प्रति समान रूप से होती तो भगाणा पीड़ितों को भी इंसाफ मिलता,जो न मिल सका
तीस घंट की बर्फबारी के बाद सुबोध चंदोला की यह तस्वीर हैः
महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ पर भले ही संसद में बवाल हो गया हो, लेकिन गोडसे से जुड़ा संगठन राजधानी में उसकी प्रतिमा लगाकर उसे सम्मानित करने की तैयारी में है।
पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थियों को निजी कंपनियों में नौकरी करने की सुविधा दी जा सकती है।
पर्यावरण बचाओ आंदोलन के 47 नारे
गांव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहीं, मायेर माटी छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं
नदी का पानी और भूजल बोतल में बेचना बंद करो
धूप में बल्ब जलाना बंद करो
खेतों और खलिहानों को पार्क बनाना बंद करो
तालाबों और कुओं पर मकान बनाना बंद करो
जंगलों में कारखाने लगाना बंद करो
नदियों में कचरा डालना बंद करो
पहाड़ों को रहने दो, पेड़ों को रहने दो, बच्चों में बचपना रहने दो
अमीरों की अमीरी से, कंपनियों की मुनाफाखोरी से पर्यावरण को खतरा है
फुकुशिमा और चेरनोबिल हादसे से सबक सीखना होगा, परमाणु बिजलीघरों पर रोक लगानी होगी
भोपाल हादसे के पीडि़तों को न्याय दो, एंडरसन को भारत लाओ
पर्यावरण विरोधी नदी जोड़ परियोजना पर रोक ल्गाओ, नदियों को तोड़ना-मरोड़ना बंद करो
जानलेवा एसबेस्टस कारखानों पर रोक लगाओ, भोगियों को मुआवज़ा दो
कचरे से बिजली बनाने वाले जिंदल के कारखाने को बंद करो
नदियों को मुक्त बहने दो, नदियों की हत्या करना बंद करो
रिहायशी इलाकों में कारखाने लगाना बंद करो
निजी वाहनों पर रोक लगाओ, हवा में ज़हर घोलना बंद करो
पेप्सी-कोका कोला पर रोक लगाओ, संसद में रोक है तो देश में भी रोक लगाओ
खेतों में शहर बसाना, कारखाना लगाना बंद करो
प्रदूषित पर्यावरण और कारखाने से होने वाले रोगों पर श्वेत पत्र जारी करो
नदियों पर बांध और तटबंध बनाना बंद करो
जल निकासी के रास्तों को अवरोधमुक्त करो
विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) कानून को रद्द करो, पर्यावरण के खिलाफ आतंकवाद बंद करो
नदियों-पहाड़ों को बेचना बंद करो
बैंकों और संयुक्त राष्ट्र की मंशा का परदाफाश करो
पर्यावरण को प्लास्टिक कचरे से मुक्त करो, कचरा जलाना बंद करो
देसी-विदेशी कंपनियों के पर्यावरण के खिलाफ अपराध पर रोक लगाओ
समुद्र में खतरनाक और रेडियोधर्मी कचरा डालना बंद करो, ज़हरीले कचरे का व्यापार बंद करो
देसी-विदेशी खनन कंपनियों द्वारा खनिज के अवैध खनन पर रोक लगाओ
मानव केंद्रित ज़हरीले विकास का त्याग करो, सभी जीव-जंतुओं के अधिकारों को मान्यता दो
विकसित देशों और कंपनियों होश में आओ, वायुमंडल को ज़हरीला बनाना बंद करो
खेतों में रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक डालना बंद करो, खाद्य श्रृंखला को विषमुक्त करो
कंपनियां प्रकृति विरोधी हैं, मानव विरोधी हैं, कंपनियों पर पाबंदी लगाओ
पर्यावरण बचाओ आंदोलन के शहीदों को सलाम, शहादत की परंपरा को सलाम
कंपनियों के अपराधों पर श्वेत पत्र जारी करो
कंपनियों से चंदा और विज्ञापन लेना बंद करो
सौर ऊर्जा और अन्य प्रदूषणमुक्त बिजली के स्रोतों को स्वीकार करो
पर्यावरण विरोधी धार्मिकता का त्याग करो
सियासी दलों, कंपनियों और एनजीओ का गठजोड़ पर्यावरण विरोधी है, इस अनैतिक गठजोड़ के खिलाफ एकजुट हो
मीडिया के पर्यावरण विरोधी रवैये का परदाफाश करो
कंपनियों से यारी, पर्यावरण से गद्दारी नहीं चलेगी
पौधों और अनाजों के जैव-संशोधन पर रोक लगाओ
आणविक ऊर्जा कानून 1962 रद्द करो
1894 से लेकर अब तक हुए भूमि अधिग्रहण पर श्वेत पत्र जारी करो
सीआईआई/फिक्की/एसोचैम जैसे अघोषित सियासी दलों का पर्यावरण विरोधी और मुनाफाखोर रवैया मुर्दाबाद
केलकर कमेटी की सिफारिशों को अस्वीकार करो, लोकहित में ली गई ज़मीनों को निजी कंपनियों को देने के प्रस्ताव पर रोक लगाओ
शहरों को कारमुक्त करो
Toxics Watch Alliance द्वारा जनहित में जारी