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इस देश को बचाना है तो मोदी का इ्स्तीफा चाहिए,जितनी देर होगी,उतना ही सत्यानाश डालर छापने की मशीन लगा रहे हैं मोदी और इस देश का सबकुछ छपे कागज के बदले बेच देंगे। ठगों की सरकार है यह और आधार योजना अमेरिकी खुफिया निगरानी के लिए है। ऐसा कहना है वयोवृद्ध अशोक टी जयसिंघानी और हम उनका समर्थन करते हैं।आप तय करें कि आपको क्या करना है। पलाश विश्वास

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इस देश को बचाना है तो मोदी का इ्स्तीफा चाहिए,जितनी देर होगी,उतना ही सत्यानाश

डालर छापने की मशीन लगा रहे हैं मोदी और इस देश का सबकुछ छपे कागज के बदले बेच देंगे।

ठगों की सरकार है यह और आधार योजना अमेरिकी खुफिया निगरानी के लिए है।

ऐसा कहना है वयोवृद्ध अशोक टी जयसिंघानी और हम उनका समर्थन करते हैं।आप तय करें कि आपको क्या करना है।

पलाश विश्वास



(कृपया वर्तनी संबंधी गलतियां सुधार लें,आज बेहद जल्दी में हूं)

THE PROBLEM OF THE RUPEE:

ITS ORIGIN AND ITS SOLUTION

(HISTORY OF INDIAN CURRENCY & BANKING)

http://www.ambedkar.org/ambcd/28A.%20Problem%20of%20Rupee_Preface.htm

Dollar hegemony - Wikipedia, the free encyclopedia

en.wikipedia.org/wiki/Dollar_hegemony

इस पृष्ठ का अनुवाद करें

For the topic of Jean Gabriel's book The Dollar Hegemony: Dollar, Dollarization, and Progress (2000), see dollarization. Dollar hegemony is the hypothesized ...

Definition - ‎See also - ‎Notes - ‎References

Monetary hegemony - Wikipedia, the free encyclopedia

en.wikipedia.org/.../Monetary_hegemo...

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Monetary Hegemony describes not only the asymmetrical relationship that the USdollar has to the global economy, but the structures of this hegemonic edifice ...

Dollar Hegemony - Henry C.K. Liu

henryckliu.com/page2.html

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(Originally published as [US Dollar Hegemony has to go] in AToL on April 11. ... The current international finance architecture is based on the US dollar as the ..


इस देश को बचाना है तो मोदी का इ्स्तीफा चाहिए,जितनी देर होगी,उतना ही सत्यानाश

डालर छापने की मशीन लगा रहे हैं मोदी और इस देश का सबकुछ छपे कागज के बदले बेच देंगे।

ठगों की सरकार है यह और आधार योजना अमेरिकी खुफिया निगरानी के लिए है।


ऐसा कहना है वयोवृद्ध अशोक टी जयसिंघानी और हम उनका समर्थन करते हैं।आप तय करें कि आपको क्या करना है।।


अब पुणे में रह रहे अशोक टी जयसिंघानी वयोवृद्ध हैं और सहज भाव से लिख नहीं रहे हैं,जैसे वे जाने जाते हैं।


मेरे ब्लागों पर उनके आलेख पहले खूब लगते रहे हैं और इस बार भी मैंने निवेदन किया कि वे खुद लिखकर दें तो उन्होंने कहा कि मुझे लिखना है।जो शुरु से मेरे ब्लाग पढ़ते रहे हैं,उन्हें उनका लिखा याद आना चाहिए।


उनके मुताबिक भारत में पाखंडियों का देश है और विशुद्धता के नाम धर्म कर्म वाले देश में गो मूत्र और गोबर के अलावा कुछ भी पवित्र नहीं हैं।उनके मुताबिकः

India: Land of Hypocrisy, Deceit, Poison, Disease & Death! Only Cow's Urine & Dung are Pure in India!! By Ashok T. Jaisinghani

उनके कहे का संदर्ब समझने के लिए उका यह आलेख गुगल कर लें।


जयसिंघानी जी से हमारी पहले नियमित बातचीत होती रही है।लेकिन अरसे से उनसे संवाद नही रहा।


हाल में जब पुणे से उनका फोन आया तो उ्हें पहचानने में मुझे देरी भी हो गयी।तब उनने छूटते ही कहा कि लैंड लाइन टेली फोन में अब किराया 399 है और बिल जो आया,उसमें फ्रीकाल पर सिर्फ दस रुपये की छूट उन्हें मिली है।मुझसे कहा कि अपना बिल चेक कर लूं।मेरा बिल तब तक नहीं आया था लेकिन आने पर मैंने पाया कि मुफ्त काल की छूट लगभग खत्म कर दी गयी है।


मुझसे उन्होंने कहा कि मैं इस विषय पर जरूर लिखूं।


मैंने कहा कि मरे हाथ कुछ लगे तो जरुर लिखुंगा।


तब उन्होंने कहा कि कारपोरेट हितों की गुलाम है यह सरकार और जनता कोटग रही है।जो कहती है ,उसका उलट सबकुछ कर रही है।


आज सुबह फिर उनकाफोन आया और उन्होंने अबकी दफा कहा कि इस देश को बचाना है तो मोदी का इ्स्तीफा चाहिए,जितनी देर होगी,उतना ही सत्यानाश।


हम कुछ कहते ,इससे पहले उनने कहा कि डालर छापने की मशीन लगा रहे हैं मोदी और इस देश का सबकुछ छपे कागज के बदले बेच देंगे।


उनने कहा कि दुनिाभर के संसाधन और बाजारों को अमेरिकी बिना अपना संसाधन खर्च किये बिना कुछ निवेश किये सिर्फ डालकर छापकर हड़प रहा है और मोदी अमेरिकी हरकारा है,भारत का प्रधानमंत्री नहीं।


उनने कहा कि दुनियाभर के तेल पर अमेरिकी कब्जा है जबकि वह तेल उत्पादन नहीं करता बल्कि तेल के कारोबार पर उसका वर्चस्व है।


दरअसल जयसिंघानी जी सच कह रहे हैं।अभा अमेरिका ने तेल उत्पादक देशों को फतवा जारी कर रखा है कि अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कीमतें घट रही है,सो वे तुरंत तेल के उत्पादन में कटौती करें ताकि तेल की कीमतें नहीं घटे।


ओपेक देशों ने ऐसा करने से मन कर दिया तो तेल और गैस सब्सिडी काटकर कोई भारतीय व्यवस्था का कल्याण नहीं कर रहे हैं मोदी लगातार घट रही तेल कीमत परिदृश्य में बल्कि वे अमेरिकी तेल वर्चस्व और अमेरिकी डालर वर्चस्व के कारिंदे बतौर काम कर रहे हैं।


अंबेडकर के गोल्ड स्टैंडर्ड के मुताबिक रुपी प्राब्लमसुलाझाने ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय रिजर्व बैंकआफइंडिया की स्थापना की जो अब कारपोरेट कंपनियों की पालतू बिल्ली है।




सुप्रसिद्व अर्थशास्त्री एवं अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता डा. अमत्य सेन ने एक व्याख्यान में कहा कि डॉ. बी आर अंबेडकर अर्थशास्त्र में मेरे पिता हैं। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में देश को दी गई उनकी सेवाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता।


डा. अमत्य सेन के मुताबिक  डॉ. अंबेडकर की वर्ष 1923 में प्रकाशित थीसिस 'द प्राब्लम ऑफ रुपी'और 'भारतीय मुद्रा और बैंकिंग'का रिजर्व बैंक की स्थापना से गहरा संबंध है।


उसी  थीसिस के आधार पर डॉ. अंबेडकर ने रिजर्व बैंक की कार्य प्रणाली का खाका 'यंग हिल्टन कमीशन', जिसे रॉयल कमीशन के नाम से भी जाना गया, के सामने रखा था।


रॉयल कमीशन के अधिकांश सदस्य रिजर्व बैंक की स्थापना पर विचार करने के लिए रॉयल कमीशन की बैठक में डॉ. अंबेडकर की उक्त थीसिस को साथ में ले गए थे। बैठक में उक्त थीसिस पर भी चर्चा हुई और परिणामस्वरूप रॉयल कमीशन की अनुशंसा पर एक अप्रैल, 1935 को रिजर्व बैंक अस्तित्व में आया।


मोदी की सरकार अब उसी रिजर्व बैंक के सभी सत्ताइस विभागों का प्रबंधन देशी विदेशी कारपोरेट घरानं का सौंप रहे हैं तो समझ जाइये कि डालर छापने की मशीनें लग चुकी हैं और कागज पर छपे डालर के चित्र के बदले हम क्या क्या खोने जा रहे हैं।जल जंगल जमन नागरिकता मानवाधिकर नागरिक अधिकार पर्यावररण मौसम जीवन चक्र जलवायु समेत सबकुछ।


शिक्षा के अधिकार से वंचित हम लोगों को संपत्ति के अधिकार से भी वंचित करके संग परिवार खुल्लम खुल्ला डालर मनुस्मृति राज बहाल कर रहे हैं बाबसाहेब डा.अंबेडकर को विष्णु भगवान का अवतार और हमराे तमाम रामों का हनुमान कायाकल्प करके।


बाबासाहेब का प्राब्लम आफ रुपी में औपनिवेशिक शोषण का जो नेटवर्क  है,मोदी उसी पोंजी स्कम को लागू कर रहा है अंग्रेजों से बी बेरहमी के साथ।


भारतीय अर्थ व्यवस्था पर तेल का सबसे ज्यादा बोझ है और राजस्व के सबसे बड़े हिस्से तेल और हथियारों पर खर्च हो जाते हैं।लेकिन विकास दर के लिए राजस्व घाटा और वित्तीय घाटा टालने के गणित में तेल और हथियारों की चर्चा कतई नही होती।


अमेरिकी रेटिंग एजंसियां और अमेरिका केंदरेत वैश्विक निंयत्रक अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष,विश्व बैंक,विश्वव्यापार संगठन के इशारों से जो वित्तीय और मौद्रिक नीतियां तय होती हैं ,जो निजीकरण और विनिवेध,अबाध विदेशी पूंजी और उदारवादी सुधारों का सत्यानाशी विमर्श है,उसमें तेल और प्रतिरक्षा व्यय का जिक्र ही नहीं होता।


कालाधन का गोमुख भी वही है।राजनीतिक सत्ता का हिमप्रवाह भी वही।


सबूत बतौर विनिवेश आयोग और विनवश परिषद की रपटें देख सकते हैं।


खास बात तो यही है कि तेल और हथियार कारोबार ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मूलादार है और इसीलिए एकतरफ तो अमेरिका युद्ध गृहयुद्ध का निर्यात करता है तो दूसरी तरफ तेल के कारोबार पर नियंत्रण के लिए इजराइल के साथ मिलकर भारतीय नस्ली रंगभेदी सत्ता समूहों को साथ लेकर मनुष्यता और प्रकृति के खिलाफ आतंकविरोधी युद्ध छेड़ा हुआ है जो दरअसल बेदखली अभियान है।


इसी के साथ अमेरिकी हितों के खिलाफ कहीं कोई हलचल भी नहों ,इस खातिर बायोमेच्रिक डिजिटल नागरिकता के जरिये दुनियाभर के तमाम देशों की नागरिकों की खुफिया निगरानी भी करता है अमेरिका।


आधार योजना इसीलिए राष्ट्रद्रोह का ही एजंडा है,असंवैधनिक और गैर कानूनी तो वह है ही।कैश सब्सिडी गाजर के अलाव कुछ भी नहीं है।


धुरंधर कारपोरेट वकील और वित्तमंत्री अरुण जेटली के ताजा बयानोंपर गौर करें।


उन्होंने कहा कि किसी को कोयला ब्लॉक पर फैसला करने या फिर स्पेक्ट्रम अथवा प्राकृतिक संसाधनों या डीजल और गैस मूल्य पर फैसला करने के लिए सालों का इंतजार नहीं करना होता। वित्तमंत्री ने कहा कि इन फैसलों को पिछले कुछ सालों के दौरान जटिल किया गया, लेकिन नई सरकार ने समय खराब न करते हुए उन पर निर्णय किया। जेटली ने कहा कि भारत एक महत्वपूर्ण चरण में हैं। जहां हमें अपने धैर्य को नहीं खोना चाहिए। वैश्विक निवेशक भारत की ओर नई रुचि के साथ देख रहे हैं। सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने डीजल कीमतों को नियंत्रणमुक्त किया है।



धनी लोगों को मिल रहे सब्सिडी के लाभ में कटौती का समय अब नजदीक आता दिख रहा है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने समाज में ऐसे वर्ग के लोगों को बिना मात्रा निर्धारित किए ही सब्सिडी का लाभ देने पर सवाल उठाया है जिनकी पहचान नहीं हो सकती है। हालांकि इसके साथ ही उनका मानना है कि एक बड़े तबके के लिए कुछ न कुछ सब्सिडी जारी रखा जाना जरूरी है, क्योंकि देश में अब भी बड़ी संख्या में लोग गरीब हैं और उन्हें सरकार की मदद की जरूरत है।


जेटली ने कहा था, भारत को अगला महत्वपूर्ण निर्णय करना है कि क्या मेरी तरह के लोग एलपीजी सब्सिडी लेने के हकदार हैं। एलपीजी उपभोक्ताओं को वर्तमान में 12 सिलेंडर सब्सिडी दर पर मिलते हैं और इसके बाद जरूरत पड़ने पर उन्हें बाजार दर पर सिलेंडर खरीदना होता है।


वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सरकारी बैंकों को रुकी हुई परियोजनाओं को कर्ज मुहैया कराने के लिए कहा है। साथ ही उन्होंने उम्मीद जताई कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ेगी बैंकों के बुरे ऋण में कमी आती जाएगी।


त्रैमासिक समीक्षा बैठक के बाद जेटली ने पत्रकारों को बताया, "हमने बैंकों को विभिन्न परियोजनाओं के लिए आर्थिक मदद देने के लिए कहा है ताकि बंद पड़ी ये परियोजनाएं ऋण लेकर बड़े पैमाने पर काम शुरू कर सकें। जाहिर है, बैंक अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक हैं।"


उन्होंने उम्मीद जताई कि बुरे ऋण या गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के अनुपात में अर्थव्यवस्था के बढ़ने के साथ कमी आएगी।


उन्होंने कहा, "साथ ही इस बात पर भी चर्चा की गई है कि एनपीए कम करने के लिए क्या सक्रिय कदम उठाए जाने की जरूरत है।"


उन्होंने सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के प्रमुखों को साथ ही कहा कि ऋण देने के प्रस्तावों का मूल्यांकन बिना किसी भय अथवा पक्षपात के होना चाहिए।


सकल अग्रिम कर और सकल एनपीए का अनुपात इस साल की सितंबर तिमाही में 5.31 फीसदी तक चला गया है जबकि बीते वित्त वर्ष की इसी तिमाही में यह 4.82 फीसदी था।


इसी सिलिसिले में बाबासाहेब डा.अंबेडकर के शोध प्राब्लम आफ रुपी की प्रासंगिकता पर भी गौर करें कि बबा साहेब ने औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों की ओर से सिर्फ  रुपये के नोट छापकर उसके एवज में भारत की संपत्तियां समुद्रपार लंदन भेजने की हरकतों पर रोक लगाने के लिए कहा था कि जितना चाहे नोट छापें ,लेकिन उस नोट की कीमत के हिसाब से बराबर सोना बाजू मं रखना होगा।


इसी शोध के आधार पर न केवल स्वर्म मानक अपनाया गया बल्कि बबासाहेब की सिफारिशें लागू करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की नींव भी डाली गयीं।


आजाद भारत के भारतीय गोरे शासकों ने अश्वेत अस्पृश्य बहुसंख्य जनगण की संपत्तियां लूटने के लिहाज से डालर मानक अपनाकर फिर वहीं नोट छापने की परंपरा डाली गयी है और जो अबाध विदेशी पूंजी है,वह कागज के टुकड़ों के अलावा कुछ भी नहीं है और न उसकी कोई जमानत है।डालर गयो  तो उसके बदले में कुछ नहीं मिलने वाला।


विदेशी प्रत्यक्ष निवेस का मतलब है कि डालर छापने की हजारों लाखों मशीने एटीएम की तरह जहां तहां हर क्षेत्र में लग जायेंगी,जैसे अंबानी समूह डालर के भव भारत का सारा तेल संसाधन कब्जाये बैठा है और तेल गैस कीमतों पर अंबानी समूहके मार्पत दरअसल डालर का वर्चस्व ही है,जो डालर कागज के नोट के अलावा कुछ भी नहीं है।


दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद मार्कमानक देशों का क्या हश्र हुआ ता याद करें तो समझेंगे कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेस और विदेशी पूंजी के बहाने मुफ्त में देश बेचने का कार्यक्रम है नवउदारवाद।


इराक के सद्दाम हुसैन ने तेल कागज के इन टुकडों के एवज में देने से इंकार कर दिया और डालर के बदले यूरो में तेल के भुगतान की पेशकश की त उसे रावण बनाकर अमेरिकी राम ने मार डाला जो अब भारत के भी राम हैं और यही अमेरिका परस्ती ग्लोबल हिंदुत्व है ,ग्लोबल हिंदू साम्राज्यवाद भी है और रामराज्य भी है.इसे जितनी जल्दी समझें ,उतना ही बेहतर।इसी रामायण के लिए भारत देस हीनही,सारा एशिया अब महाभारत है।


डालरवर्चस्व का महाभारत और उसके कन्हा रंगरसिया कौन है,बूझै सिर्फ सुजान।


पहले जर्मनी के पतन बजरिये मार्क और फिर सोवियत संघ के पतन बजरिये रुबल के अवमूल्यणसे ही मुक्तबाजार की यह व्यवस्ता बनी है औरफिर नये सिरे से रुपये की समस्या पर सोचने की जरुरत है वरना यह जडालर पोटेशियम सायोनाइड के संक्रमण से हवाओं और पानियों,जमन और आसमान  के जहरीला बन जाने के आसार है।



THE PROBLEM OF THE RUPEE:

ITS ORIGIN AND ITS SOLUTION

(HISTORY OF INDIAN CURRENCY & BANKING)

________________________________________________________________________________________

B. R. AMBEDKAR

Sometime Professor of Political Economy at the Sydenham

College of Commerce and Economics, Bombay.

LONDON P. S. KING & SON, LTD. ORCHARD HOUSE, 2 & 4 GREAT SMITH STREET WESTMINSTER 1923

DEDICATED TO THE MEMORY OF

MY

FATHER AND MOTHER

AS A TOKEN OF MY ABIDING GRATITUDE FOR THE

SACRIFICES THEY MADE AND THE ENLIGHTENMENT

THEY SHOWED IN THE MATTER OF MY EDUCATION.

Printed in Great Britain by Butler & Tanner Ltd., Frome and London

Contents

Preface To The Second Impression      

Author's Preface    

Foreword By Professor Edwin Cannan  

Chapter I - From A Double Standard To A Sliver Standard    

Chapter II- The Silver Standard And The Dislocation Of Its Parity

Chapter III- The Silver Standard And The Evils Of Its Instability       

Chapter IV -Towards A Gold Standard   

Chapter V - From A Gold Standard To A Gold Exchange Standard 

Chapter VI - Stability Of The Exchange Standard        

Chapter VII- A Return To The Gold Standard

BIBLIOGRAPHY

PREFACE TO THE SECOND IMPRESSION

THE PROBLEM OF THE RUPEE was first published in 1923. Ever since its publication it has had a great demand : so great that within a year or two the book went out of print. The demand for the book has continued, but unfortunately I could not bring out a second edition of the book for the reason that my change-over from economics to law and politics left me no time to undertake such a task. I have, therefore, devised another plan : it is to bring out an up-to-date edition of the History of Indian Currency and Banking in two volumes, of which The Problem of the Rupee forms volume one. Volume two will contain the History of Indian Currency and Banking from 1923 onwards. What is therefore issued to the public now is a mere reprint of The Problem of the Rupee under a different name. I am glad to say that some of my friends who are engaged in the field of teaching economics have assured me that nothing has been said or written since 1923 in the field of Indian Currency which calls for any alteration in the text of The Problem of the Rupee as it stood in 1923. I hope this reprint will satisfy the public partially if not wholly. I can give them an assurance that they will not have to wait long for volume two. I am determined to bring it out with the least possible delay.

B. R. AMBEDKAR

Rajagraha,

Bombay,

7-5-1947.

PREFACE TO THE FIRST EDITION

In the following pages I have attempted an exposition of the events leading to the establishment of the exchange standard and an examination of its theoretical basis.

In endeavouring to treat the historical side of the matter, I have carefully avoided repeating what has already been said by others. For instance, in treating of the actual working of the exchange standard, I have contented myself with a general treatment just sufficiently detailed to enable the reader to follow the criticism I have offered. If more details are desired they are given in all their amplitude in other treatises. To have reproduced them would have been a work of supererogation; besides it would have only obscured the general trend of my argument. But in other respects, I have been obliged to take a wider historical sweep than has been done by other writers. The existing treatises on Indian currency do not give any idea, at least an adequate idea, of the circumstances which led to the reforms of 1893. I think that a treatment of the early history is quite essential to furnish the reader with a perspective in order to enable him to judge for himself the issues involved in the currency crisis and also of the solutions offered. In view of this, I have gone into that most neglected period of Indian currency extending from 1800 to 1893. Not only have other writers begun abruptly the story of the exchange standard, but they have popularised the notion that the exchange standard is the standard originally contemplated by the Government of India. I find that this is a gross error. Indeed, the most interesting point about Indian currency is the way in which the gold standard came to be transformed into a gold exchange standard. Some old, but by now forgotten, facts had therefore, to be recounted to expose this error.

On the theoretical side, there is no book but that of Professor Keynes which makes any attempt to examine its scientific basis.

But the conclusions he has arrived at are in sharp conflict with those of mine. Our differences extended to almost every proposition he has advanced in favour of the exchange standard. This difference proceeds from the fundamental fact, which seems to be quite overlooked by Professor Keynes, that nothing will stabilise the rupee unless we stabilise its general purchasing power. That the exchange standard does not do. That standard concerns itself only with symptoms and does not go to the disease : indeed, on my showing, if anything, it aggravates the disease.

When I come to the remedy, I again find myself in conflict with the majority of those who like myself are opposed to the exchange standard. It is said that the best way to stabilise the rupee is to provide for effective convertibility into gold. I do not deny that this is one way of doing it. But, I think, a far better way would be to have an inconvertible rupee with a fixed limit of issue. Indeed, if I had any say in the matter, I would propose that the Government of India should melt the rupees, sell them as bullion and use the proceeds for revenue purposes and fill the void by an inconvertible paper. But that may be too radical a proposal, and I do not therefore press for it, although I regard it as essentially sound. in any case, the vita! point is to close the Mints, not merely to the public, as they have been, but to the Government as well. Once that is done, I venture to say that the Indian currency, based on gold as legal tender with a rupee currency fixed in issue, will conform to the principles embodied in the English currency system.

It will be noticed that I do not propose to go back to the recommendations of the Fowler Committee. All those, who have regretted the transformation of the Indian currency from a gold standard to a gold exchange standard, have held that everything would have been all right if the Government had carried out in toto the recommendations of that Committee. I do not share that view. On the other hand, I find that the Indian currency underwent that transformation because the Government carried out those recommendations. While some people regard that Report as classical for its wisdom, I regard it as classical for its nonsense. For I find that it was this Committee which, while recommending a gold standard, also recommended and thereby perpetuated the folly of the Herschell Committee, that Government should coin rupees on its own account according to that most naive of currency principles, the requirements of the public, without realising that the latter recommendation was destructive of the former. Indeed, as I argue, the principles of the Fowler Committee must be given up, if we are to place the Indian currency on a stable basis.

I am conscious of the somewhat lengthy discussions on currency principles into which I have entered in treating the subject. My justification of this procedure is two-fold. First of all, as I have differed so widely from other writers on Indian currency, I have deemed it necessary to substantiate my view-point, even at the cost of being charged with over-elaboration. But it is my second justification, which affords me a greater excuse. It consists in the fact that I have written primarily for the benefit of the Indian public, and as their grasp of currency principles does not seem to be as good as one would wish it to be, an over-statement, it will be agreed, is better than an understatement of the argument on which I have based my conclusions.

Up to 1913, the Gold Exchange Standard was not the avowed goal of the Government of India in the matter of Indian Currency, and although the Chamberlain Commission appointed in that year had reported in favour of its continuance, the Government of India had promised not to carry its recommendations into practice till the war was over and an opportunity had been given to the public to criticize them. When, however, the Exchange Standard was shaken to its foundations during the late war, the Government of India went back on its word and restricted, notwithstanding repeated protests, the terms of reference to the Smith Committee to recommending such measures as were calculated to ensure the stability of the Exchange Standard, as though that standard had been accepted as the last word in the matter of Indian Currency. Now that the measures of the Smith Committee have not ensured the stability of the Exchange Standard, it is given to understand that the Government, as well as the public, desire to place the Indian Currency System on a sounder footing. My object in publishing this study at this juncture is to suggest a basis for the consummation of this purpose.

I cannot conclude this preface without acknowledging my deep sense of gratitude to my teacher, Prof. Edwin Cannan, of the University of London (School of Economics). His sympathy towards me and his keen interest in my undertaking have placed me under obligations which I can never repay. I feel happy to be able to say that this work has undergone close supervision at his hands, and although he is in no way responsible for the views I have expressed. I can say that his severe examination of my theoretic discussions has saved me from many an error. To Professor Wadia, of Wilson College, I am thankful for   cheerfully undertaking the dry task of correcting the proofs.

FOREWORD

BY PROFESSOR EDWIN CANNAN

I am glad that Mr. Ambedkar has given me the opportunity of saying a few words about his book.

As he is aware, I disagree with a good deal of his criticism. In 1893, I was one of the few economists, who believed that the rupee could be kept at a fixed ratio with gold by the method then proposed, and I did not fall away from the faith when some years elapsed without the desired fruit appearing (see Economic Review, July 1898, pp. 400—403). I do not share Mr. Ambedkar's hostility to the system, nor accept most of his arguments against it and its advocates. But he hits some nails very squarely on the head, and even when I have thought him quite wrong, I have found a stimulating freshness in his views and reasons. An old teacher like myself learns to tolerate the vagaries of originality, even when they resist "severe examination " such as that of which Mr. Ambedkar speaks.

In his practical conclusion, I am inclined to think, he is right. The single advantage, offered to a country by the adoption of the gold-exchange system instead of the simple gold standard, is that it is cheaper, in the sense of requiring a little less value in the shape of metallic currency than the gold standard. But all that can be saved in this way is a trifling amount, almost infinitesimal, beside the advantage of having a currency more difficult for administrators and legislators to tamper with. The recent experience both of belligerents and neutrals certainly shows that the simple gold standard, as we understood it before the war, is not fool-proof, but it is far nearer being fool-proof and knave-proof than the gold-exchange standard. The percentage of administrators and legislators who understand the gold  standard is painfully small, but it is and is likely to remain ten or twenty times as great as the percentage which understands the gold-exchange system. The possibility of a gold-exchange system being perverted to suit some corrupt purpose is very considerably greater than the possibility of the simple gold standard being so perverted.

The plan for the adoption of which Mr. Ambedkar pleads, namely that all further enlargement of the rupee issue should be permanently prohibited, and that the mints should be open at a fixed price to importers or other sellers of gold, so that in course of time India would have, in addition to the fixed stock of rupees, a currency of meltable and exportable gold coins, follows European precedents. In eighteenth-century England the gold standard introduced itself because the legislature allowed the ratio to remain unfavourable to the coinage of silver: in nineteenth-century France and other countries it came in because the legislatures definitely closed the mints to silver, when the ratio was favourable to the coinage of silver. The continuance of a mass of full legal tender silver coins beside the gold would be nothing novel in principle, as the same thing, though on a somewhat smaller scale, took place in France, Germany, and the United States.

It is alleged sometimes that India does not want gold coins. I feel considerable difficulty in believing that gold coins of suitable size would not be convenient in a country with the climate and other circumstances of India. The allegation is suspiciously like the old allegation that the "Englishman prefers gold coins to paper," which had no other foundation than the fact that the law prohibited the issue of notes for less than £ 5 in England and Wales, while in Scotland, Ireland, and almost all other English-speaking countries, notes for £ 1 or Less were allowed and circulated freely. It seems much more likely that silver owes its position in India to the decision, which the Company made before the system of standard gold and token silver was accidentally evolved in 1816 in England, and long before it was understood, and that the position has been maintained, not because Indians dislike gold, but because Europeans like it so well that they cannot bear to part with any of it.

This reluctance to allow gold to go to the East is not only despicable from an ethical point of view. It is also contrary to the economic interest not only of the world at large, but even of the countries, which had a gold standard before the war and have it still or expect soon to restore it. In the immediate future, gold is not a commodity, the use of which it is desirable for these countries either to restrict or to economize. From the closing years of last century it has been produced in quantities much too large to enable it to retain its purchasing power and thus be a stable standard of value, unless it can constantly be finding existing holders willing to hold larger stocks, or fresh holders to hold new stocks of it. Before the war, the accumulation of hoards by various central banks in Europe took off a large part of the new supplies and prevented the actual rise of general prices being anything like what it would otherwise have been, though it was serious enough. Since the war, the Federal Reserve Board, supported by all Americans who do not wish to see a rise of prices, has taken on the new " White Man's Burden " of absorbing the products of the gold mines, but just as the United States failed to keep up the value of silver by purchasing it, so she will eventually fail to keep up the value of gold. in spite of the opinion of some high authorities, it is not at all likely that a renewed demand for gold reserves by the central banks of Europe will come to her assistance. Experience must gradually be teaching even the densest of financiers that the value of paper currencies is not kept up by stories of " cover " or " backing " locked up in cellars, but by due limitation of the supply of the paper. With proper limitation, enforced by absolute convertibility into gold coin which may be freely melted or exported, it has been proved by theory and experience that small holdings of gold are perfectly sufficient to meet all internal and international demands. There is really more chance of a great demand from individuals than from the banks. It is conceivable that the people of some of the countries, which have reduced their paper currency to a laughing stock, may refuse all paper and insist on having gold coins. But it seems more probable that they will be pleased enough to get better paper than they have recently been accustomed to, and will not ask for hard coin with sufficient insistence to get it. On the whole, it seems fairly certain that the demand of Europe and European-colonised lands for gold will be less rather than greater than before the war, and that it will increase very slowly or not at all.

Thus, on the whole, there is reason to fear a fall in the value of gold and a rise of general prices rather than the contrary.

One obvious remedy would be to restrict the production of gold by international agreement, thus conserving the world's resources in mineral for future generations. Another is to set up an international commission to issue an international paper currency so regulated in amount as to preserve an approximately stable value. Excellent suggestions for the professor's classroom, but not, at present at any rate nor probably for some considerable period of time, practical politics.

A much more practical way out of the difficulty is to be found in the introduction of gold currency into the East. If the East will take a large part of the production of gold in the coming years it will tide us over the period which must elapse before the most prolific of the existing sources are worked out. After that we may be able to carry on without change or we may have reached the possibility of some better arrangement.

This argument will not appeal to those who can think of nothing but the extra profits which can be acquired during a rise of prices, but I hope it will to those who have some feeling for the great majority of the population, who suffer from these extra and wholly unearned profits being extracted from them. Stability is best in the long run for the community.

                                                           EDWIN CANNAN.

                                                                                                                                          

                                                                                                                                                      

                                                                                       Chapter I



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