प्राकृतिक संसाधनो के ऊपर महिला सशक्तिकरण - सामूहिकता, सहकारिता व यूनियन
11-12 नवम्बर 2014
भारती सदन, नागल माफी-सहारनपुर उ0प्र0
मुख्य प्रपत्र
संघर्षशील महिला साथी भारती राय चैधरी की 61वीं वर्षगांठ को एक बार फिर अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन महिला नेतृत्व के सशक्तिकरण को समर्पित करने जा रहा है। इस उपलक्ष में 11-12 नवम्बर 2014 को भारतीजी को समर्पित उ0प्र0 के जिला सहारनपुर के नागलमाफी स्थित ''महिला सशक्तिकरण केन्द्र''पर ''महिला सहकारी समिति के प्रशिक्षण एवं यूनियन में महिला नेतृत्व का सशक्तिकरण''विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। जनवरी 2011 जब भारतीजी का निधन हुआ तब से हमारी यूनियन द्वारा हर वर्ष वनाधिकार आंदोलन से जुड़े महिला नेतृत्व को मजबूत करने के कई कार्यक्रम किये गये हैं, जिनके काफी अच्छे नतीजे भी सामने आ रहे हैं। यह सभी जनशिक्षण कार्यक्रम व अन्य यूनियन के कार्यक्रम लगातार एक श्रृंखला में किए जा रहे हैं, जिनमें से कई मजबूत कार्यक्रम उभर कर सामने आए हैं और जिन्हें सिलसिलेवार तरीके से आगे बढ़ाये जाने का कार्य किया जा रहा है। ज्ञात हो कि भारतीजी द्वारा वनाधिकार आंदोलन में महिलाओं की भूमिका व उनके प्राकृतिक संसाधनों पर स्वतंत्र अधिकारों को लेकर देश भर में एक लम्बे संघर्ष का काम किया गया है व अपनी कर्मभूमि सहारनपुर के शिवालिक वनक्षेत्र में 80 के दशक में पहली बार महिलाओं के वनउत्पाद पर स्वतंत्र अधिकारों को बहाल करने का काम किया गया था। भारती जी का समुदाय की महिलाओं के साथ एक गहरा रिश्ता था व उनके ज़हन में समुदाय की महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने के लिए बहुत गंभीर चिंतन रहा। चूंकि उनका विष्वास था कि, अगर नारी मुक्ति के सपने को साकार करना है, तो वह समुदाय व श्रमिक वर्ग का महिला नेतृत्व ही अपने संघर्ष से साकार कर सकता है।मध्यम वर्ग की महिलाओं के नेतृत्व से उन्हें कम उम्मीद थी, इसलिए उनका ज़्यादा वक्त समुदाय में ही बीतता था व उनको सशक्त करने के लिए भारती जी के द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था।
इसी श्रंृखला की अगली कड़ी के रूप में 11 व 12 नवम्बर 2014 का यह कार्यक्रम नागलमाफी स्थित ''महिला सशक्तिकरण केन्द्र''पर आयोजित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में कई प्रदेशों के महिला नेतृत्वकारी साथी भाग लेंगे। जिनमें प्रमुख तौर पर उ0प्र0, उत्तराखंड़, झांरखण्ड, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली व असम से महिला साथी इस कार्यक्रम में शामिल होंगी। इस जनशिक्षण कार्यक्रम का मुख्य केन्द्र बिन्दु इस बार -
वनोत्पादों के लिये महिला सहकारी समितियों का निर्माण।
यूनियन में महिलाओं की सशक्त भूमिका।
कार्यक्रमों के आधार पर महिला नेतृत्व के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को मजबूत करना।रहेगा।
यह कार्यक्रम काफी गहन चर्चा, मंथन व महिलाओं द्वारा ज़मीन पर संघर्ष करके हज़ारों एकड़ वनभूमि व जंगल पर स्थापित किये गये पुनर्दख़ल की उपज है। यूनियन जिन राज्यों में संघर्षशील है, उनमें कई वनक्षेत्रों में महिलाओं के नेतृत्व में वनाश्रित समुदायों ने वनाधिकार कानून के लागू होने से पहले व बाद में हज़ारों एकड़ भूमि को पुनर्दख़ल कायम करके राजसत्ता और स्थानीय दबंगों को चुनौती देने का काम किया है। यही नहीं आदिवासी दलित महिलाओं ने 250 वर्ष पुराने आदिवासियों के संघर्ष की विरासत को भी जि़न्दा रखा, जिन्होंने सबसे पहले उपनिवेशिक राज के खिलाफ बग़ावत की थी और आज उसी परम्परा को कायम रखते हुए आदिवासी व दलित महिलाओं ने अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए वन एवं भूमि की लूट के कानूनों व उनके द्वारा की जा रही लूट को बादस्तूर ज़ारी रखने के लिए बनाए गए वनविभाग को वनों से बेदखल कर के सामुदायिक वनस्वशासन को स्थापित करने का फैसला तक लिया है।
गौरतलब है कि आज़ादी के 67 साल पूरे होने के बाद आज तक इस आज़ाद देश की हुकुमत ने वनक्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के संवैधानिक अधिकार व लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के लिए एक भी कदम नहीं उठाया, बल्कि उपनिवेशिक परम्परा के तहत वनविभाग को ही देश की 23 प्रतिशत भूमि का मालिक मान कर वनाश्रित समुदायों का दमन करने की खुली छूट दे दी। लेकिन देश की संसद को आखिरकार 2006 में वनाश्रित समुदाय और वनों के सम्बंध को लेकर वनाधिकार कानून को पारित कर यह स्वीकार करना ही पड़ा कि, वनों की बरबादी और वनों में रहने वालों के साथ उपनिवेशिक नीतियों के चलते ऐतिहासिक अन्याय हुए हैं। लेकिन कानून बनने के बाद भी किसी भी सरकार में इतना दम दिखाई नहीं दे रहा कि वे इस कानून को लागू कर सकें। चूंकि वनों में अभी भी उसी उपनिवेशिक परम्परा की जड़े मज़बूत हैं, जिसके द्वारा वनों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने लूटा था। आज इस उपनिवेशिक परम्परा की जगह अंतर्राष्ट्रीय पूंजी इन प्राकृतिक संसाधनों पर हावी हो चुकी है व केन्द्रीय और तमाम राज्य सरकारी तंत्रों पूॅजीवादी उदारीकरण की नीतियों के हाथों बिक चुकी हैं। आज वनक्षेत्रों में वनाश्रित समुदाय और सरकार के बीच में टकराव की स्थिति बनी हुई है। चूंकि जो प्राकृतिक संसाधन वनाश्रित समुदाय की जीविका के साधन हैं, सरकार उन्हीं को बहुराष्ट्रीय व देसी कम्पनियों को ओने-पोने भावों पर बेचने में लगी हुई हैं। इसलिए आज अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के साथ सबसे सीधी लड़ाई प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरशील समुदाय ही लड़ रहे हैं, जिसमें अग्रणी भूमिका में महिलाऐं हैं। इस टकराव के चलते वनाश्रित समुदायों पर हिंसक हमले भी तेज़ हो गए हैं, लेकिन इन हमलों के खि़लाफ समुदाय के लोग भी डट कर सामने मैदान में मुकाबला कर रहे हैं व सरकार, पूंजीपतियों, सामंतो, जमींदारों व पितृसत्तावादी ताकतों को सीधी चुनौती दे रहे हैं।
वनों को अंग्रेज़ों ने केवल कच्चा माल और राजस्व अर्जित करने के लिए इस्तेमाल किया, ताकि यहां की लूट को अपने देश ब्रिटेन तक आसानी से पहुंचाया जा सके। इसके लिए अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा 100 साल तक हमारे सारे संसाधनों को जम कर लूटा। जब इसके खि़लाफ़ आदिवासियों द्वारा कई प्रांतों में बग़ावत शुरू की गई, तब अंग्रेज़ी हुकुमत ने इन विद्रोहों को कुचलने के लिए कई काले कानूनों को बनाया व ऐसी न्यायिक पद्धति की शुरूआत की जो कि बेहद पेचीदा थी व जिसमें चोरों, लूटेरों, हत्यारों, अपराधियों एवं बलात्कारियों को बचाने के लिए ज्यादा प्रावधान थे एवं बगावत करने वाले, देशभक्तों एवं अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों के लिए कड़ी सज़ा के प्रावधान थे। 1947 तक ऐसे कई काले कानूनों के ज़रिए उन्होंने भारत के संसाधनों को लूटा। आदिवासियों के कई आंदोलन, 1857 की क्रांति, भगतसिंह जैसे कई नौजवानों की शहादत, सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले व बाबा साहब अम्बेडकर के चिंतन आदि से जब उनके पांव उखड़ने लगे, तो अंग्रेज़ों ने बंटवारे की नीति अपना कर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का निर्माण करा दिया व 1935 के अंग्रेजी कानून के तहत देश की सत्ता जमींदार, सामंती व ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथ में सौंपी, ताकि देश की आम मेहनतकश जनता, दलित आदिवासी, मूलनिवासी, श्रमजीवी तबकों के समाज अपने हकों से महरूम रहें । इसलिए प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समुदाय का सत्ता से टकराव कोई आज का टकराव नहीं है, बल्कि कई सदियों पुराना है। इस टकराव को राजसत्ता कभी हल नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं हो पाएगी। इसलिए वह लगातार वंचित तबकों को उनके हकों से बेदख़ल कर उन्हें भिखारी या फिर लाभार्थी बनाए रखना ही चाहती है। उनकी मानसिकता है कि वंचित दलित आदिवासी व अन्य अति पिछड़े तबकों का काम केवल सेवा करने का है, नाकि अपने हकों को मांगने का, इस मानसिकता के खिलाफ भले ही संविधान ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया, लेकिन लोकतंत्र को सही मायने में ज़मीनी स्तर तक पहुंचाने का काम सरकारों ने वनक्षेत्रों में तो बिल्कुल नहीं किया और करना भी नहीं चाहतीं, बल्कि सरकार ने तमाम प्राकृतिक सम्पदाओं को सरकारी सम्पत्ति बना लिया, जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39बी की खुली अवमानना है।
वनक्षेत्रों में वनों का मालिक आज भी वनविभाग है और आज भी वनविभाग का काम वनों से राजस्व अर्जित करना है, ना कि वनों की रक्षा करना। इस विभाग का एक अंग वननिगम देश की बेशकीमती व अरबों रूपयों की वनउपज पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है। इस वनउपज का मालिकाना हक़ अगर वनाश्रित समुदाय के पास होता, तो वनाश्रित समुदाय आज देश के सबसे ग़रीब नहीं होते, बल्कि देश के पर्यावरण के प्रहरी होते व आज वनों का इतना नुकसान न होता, जितना कि हो चुका है। वे अपना विकास खुद ही कर लेते व उन्हें सरकार के रहम-ओ-करम पर नहीं रहना पड़ता। इस वनउपज के अलावा वनविभाग द्वारा जंगल की चोरी और अवैध खनन में लिप्त होनेे का काम किया जाता है, जिससे उनके कर्मचारियों और अधिकारियों की अवैध कमाई भी अरबों रूपयों में होती है। यह अवैध कमाई सरकार, पूंजीपतियों, कम्पनियों व अधिकारियों के इशारे पर वनों में ज़ारी है। विडम्बना ये है कि एक तरफ़ सरकारें जंगलों से आदिवासी मूलनिवासी को उजाड़ रही हैं और दूसरी तरफ इन बेशकीमती सम्पदाओं को कम्पनियों के हाथ में सोंप रही हैं। ये आम लोगों के संवैधानिक अधिकारों की घोर अवमानना है।
ऐसे माहौल में सरकार की उन कानूनों को लागू करने में बिल्कुल रूचि नहीं, जिससे आम लोग मजबूत हो व उनकी ग़रीबी दूर हो। केन्द्र व राज्य सरकारें कम्पनियों की गिरफ़्त में हैं, इसलिए यह सरकार तमाम ऐसे कानूनों को कमज़ोर करने में लगी हुई हैं, जोकि आदिवासी, दलित, महिलाओं व श्रमजीवी समाज के तमाम संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करते हैं। तमाम मुख्य राजनैतिक पार्टियां भी सत्तापक्ष के साथ हैं। ऐसे में अब केवल जन राजनैतिक जनांदोलनों के माध्यम से ही वंचित समुदाय अपनी आजीविका, संवैधानिक अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा कर सकते हैं, जिसके लिए उनके द्वारा अपने संगठनों के बलबूते पर ही इन कानूनों को लागू कर नया इतिहास रचे जाने की ज़रूरत है व पूंजीवाद, जातिवाद, पितृसत्तावाद, सामंतवाद व साम्प्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है।
वनाश्रित समुदायों द्वारा सामुदायिकता एवं सहकारिता के प्रयोग
इन्हीं सन्दर्भो में यूनियन द्वारा कार्यरत कई वनक्षेत्रों में महिलाओं की पहल पर सामुदयिकता एवं सहकारिता के अनूठे प्रयोग किए जा रहे हैं, जिन्हें आगे बढ़ाते हुए इन्हें अब राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने की ज़रूरत है। उ0प्र0, बिहार, झारखण्ड, बुन्देलखण्ड, कैमूर एवं तराई के वनक्षेत्रों में ऐसी कई मिसालें हंै, जहां पर समुदाय के महिला नेतृत्व में हज़ारों एकड़ वनभूमि पर सामूहिक खेती, वानिकीकरण व वनउपज पर सहकारी समितियों का गठन करके अपने स्तर पर यह प्रक्रिया चलाई जा रही है। इसमें महत्वपूर्ण वनउपज जैसे तेंदु पत्ता, आंवला, जलौनी लकड़ी आदि हैं, जिन पर समुदायों ने वननिगम से वनाधिकार कानून के आधार पर सीधी टक्कर ले कर अपना दख़ल क़ायम करके सहकारी समितियां बनाने की कोशिश की जा रही है। वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन 2012 में दिये गये प्रावधानों के अनुसार वननिगम द्वारा वनउपज से कमाये जाने वाले अरबों रूपये के राजस्व को वनों के विकास या फिर वनाश्रित समुदायों के विकास के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि उनका शोषण कर, उन्हें वनों से बेदख़ल करने की साजिश बादस्तूर ज़ारी है। लेकिन वनों के अंदर ऐतिहासिक अन्यायों को समाप्त करने की बात कहने वाली वनाधिकार कानून की प्रस्तावना ने वनाश्रित समुदायों को एक कानूनी ताकत दी है। जिसके आधार पर आज वनाश्रित समुदाय उपनिवेशिक वनविभाग, वननिगम और उनके सहयोगियों को कड़ी चुनौती दे रहे हैं। इन्हीं प्रयासों से प्रेरित होकर अन्य राज्यों और क्षेत्रों में जैसे; गुजरात, सांथाल परगना, बिहार में भी यूनियन/क्षेत्रीय मोर्चों का गठन हो रहा है, जिसका प्रभाव क्षेत्रों में दिख रहा है।
इन्हीं प्रयासों ने हमें यह सोचने की दिषा दी कि इन सामूहिक प्रयासों को अब जनसंस्थानों में बदलने की ज़रूरत है, ताकि यह नए सामुदायिक व समुदाय आधारित संस्थान अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए व हमारी आज़ाद सरकार द्वारा पोषित वनविभाग व वननिगम को वनक्षेत्र से बेदख़ल कर सकंे। अब इन पुराने उपनिवेशिक संस्थानों की वनों के अंदर कोई ज़रूरत नहीं है, अगर समुदाय आधारित संस्थान विकसित नहीं किए जाऐंगे तो वन एवं वनाश्रित समुदाय दोनों का ही अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। पिछले 5 वर्षांे से हमारा यूनियन इन सामुदायिक प्रयासों के नीतिगत मस्अलों पर राष्ट्रीय श्रम संगठन न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव की मदद से सहकारिता आंदोलन को इन वनक्षेत्रों में विकसित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इन प्रयासों के तहत चित्रकूट, सोनभद्र जिलों में कई महिला वन-जन सहकारी समूह वनउपज पर हक़ के लिए खड़े किए गए हैं। जोकि अभी प्रारम्भिक दौर में हैं व इनमें समुदायों की लगातार बढ़ती रुचि एवं मेहनत के मद्देनज़र इस दिशा में काफी सकारात्मक काम किए जा रहे हैं। जहां पर पुनर्दख़ल नहीं हो रहा है, वहां भी दिख रहा है कि महिलाऐं सशक्त हो रही हंै, जैसे; गुजरात, सांथाल परगना या फिर बिहार हंै। इसे एक तालमेल में लाकर मजबूत करना ज़रूरी है।
एक बात साफ है कि सरकार की ओर से इन सहकारी समितियों को विकसित करने की कोई भी मदद नहीे मिलने वाली है, चूंकि उसमें वननिगम जैसी भ्रष्ट संस्था को हटाने का दम नहीं है। इसलिए यह पहल स्वयं लोगों को ही करनी होगी और लोकतंत्र में जनता की ताकत क्या होती है, यह भी सरकार को बताना होगा। इसलिए शंकर गुहा नियोगी द्वारा छत्तीसगढ़ में संघर्ष और निर्माण की विचारधारा को आज प्रासंगिक करने की ज़रूरत है। इन्हीं प्रयासों के चलते हमारी यूनियन ने महिला नेतृत्व के साथ इन सहकारी समितियों को मज़बूत करने के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला लिया व दिवंगत साथी भारतीजी की याद में इन प्रयासों को मजबूत कर महिलाओं को सशक्त करने का भी निर्णय लिया। इसी मौके पर सहकारिता एवं यूनियन को मजबूत करने की दिशा में इस कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है।
हमारा मानना है कि कार्यक्रमों के आधार पर ही महिलाओं का सषक्तिकरण सम्भव है। उनके प्रति बढ़ती हुई हिंसा को रोकने का काम सामाजिक और आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रमों के ज़रिए उनको सषक्त करने से ही होगा। महिलाओं के कार्यक्रमों में राजनैतिक सोच की बहुत ज़रूरत है। चूंकि उन्हें किसी भी संसाधन पर स्वतंत्र रूप से किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। संसाधनों के नियंत्रण में ज्यों-ज्यों निजिकरण बढ़ता जाएगा, त्यों-त्यों महिलाओं का शोषण भी बढ़ता जाएगा, परिवार एवं राज्य दोनों ही लगातार निजिकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। निजिकरण ही महिलाओं की गुलामी की जड़ है। महिलाएं सामूहिकता में ज्यादा रहती हैं, इसलिए पितृसत्तावाद को वे ही टक्कर दे सकती हैं, चूंकि पितृसत्तावाद सामूहिकता के खिलाफ है व संसाधनों के निजिकरण पर टिका है। संसाधनों का निजिकरण चाहे वो पितृसत्तावाद, सांमतवाद, जातिवाद या फिर पूंजीवाद के तहत हो वह महिलाओं के खिलाफ ही है। चूंकि इसमें महिलाओं खास तौर पर ग़रीब महिलाओं व उनकी पीढि़यों को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है। सामूहिकता व सहकारिता के विकास से संसाधनों में वृद्धि होगी व समाज का नियंत्रण बढ़ेगा, जबकि संसाधनों के निजिकरण से संसाधन सीमित होते चले जाऐंगे व निर्धनता में बढ़ोतरी होगी। इसलिए सामूहिकता का पाठ दुनिया को शायद ग़रीब महिलाओं से ही सीखना होगा, चूंकि वे ही अपनी सामूहिकता के आधार पर सामूहिक राजनैतिक चेतना का संचार कर रही हैं, जिसमें उनका भविष्य यानि अगली पीढ़ी की सुरक्षा निहित है।
इस चर्चा में आजकल सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को बदलने की जो बहस चल रही है, उस पर भी रोशनी डालना ज़रूरी है। सरकार वनाधिकार कानून को बदलने की फिराक में है और वनक्षेत्रों में कम्पनियों के गैरकाूननी दख़ल कराने की कोशिश कर रही है। पिछली सरकार ने भी यह कोशिश की, लेकिन उन्हें जनता के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस कानून के साथ छेड़खानी को लेकर मध्यम वर्गीय साथियों में भी निराशा और आंशका पैदा हो रही है। हांलाकि यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मौज़ूदा सरकार के लिए कानून को विधिबद्ध रूप से बदलना इतना आसान नहीं होगा। चूंकि उन्हें कानून को बदलने के लिए संसदीय प्रक्रिया में जाना होगा। आज की परिस्थिति में यह तभी सम्भव होगा, जब दोनों सदनों में उन्हें बहुमत प्राप्त होगा, जो कि अभी राज्यसभा में नहीं है। इसलिए एक तरह से भाजपा सरकार एक ऐसा वातावरण पैदा करना चाह रही है कि कानून न बदल के, सारे प्रावधानों को विभागीय आदेशों से बदल दिया जा सके। हमारा मानना है कि सरकार किसी भी प्रकार की ऐसी हरक़त अगर करती है, तो जहां पर सशक्त आंदोलन हैं, वहां इसका प्रतिरोध होगा, जिसको कुचलना अब इतना आसान नहीं है। इतिहास गवाह है कि, उपनिवेषिक काल में ब्रिटिष राज को कई बार जनविद्रोह के कारण पीछे हटना पड़ा। और यह विद्रोह की आग अब भी वनाश्रित समुदायों के अंदर जीवित है, जो कि किसी भी समय ज्वालामुखी बन कर फूट सकती है। इस बार यह विद्रोह वनाश्रित समुदायों का ही नहीं होगा, बल्कि इसमें व्यापक श्रमजीवी समुदाय भी शामिल हांेगे। हमें वन श्रमजीवी महिलाओं के सषक्तिकरण की प्रक्रिया का महत्व इसी ऐतिहासिक प्रसंग में देखना चाहिए। इसलिए यह कार्यक्रम निर्णायक राजनैतिक आंदोलन के लिये एक ठोस कार्यक्रम है। जिसमें किसी समझौते या लेने देन की गुंजाइश नहीं है।
क्रान्तिकारी अभिनन्दन के साथ
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन