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श्रोता नहीं है इंद्र…बटरोही

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श्रोता नहीं है इंद्र…

बटरोही


आख्यान 

उर्फ हिंदी समाज में अनुपस्थित इनरुवा लाटा   

न सेशे यस्य रम्बते ऽन्तरा सकथ्या 3 कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते।
विश्वस्मादिंद्र उत्तर:। ।
(ऋग्वेद: 10.86.16)

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते।
सेदीशे यस्य रम्बते ऽन्तरा सकथ्या 3 कपृत्।
विश्वस्मादिंद्र उत्तर:। ।
(ऋग्वेद: 10.86.17)

मुझे नहीं लगता कि आज की तारीख में हिंदी कहानी के किसी पाठक को याद होगा कि सन् 2005 में एक अनियतकालिक पत्रिका में 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ शीर्षक से मेरी जो कहानी छपी थी, उसमें ऊपर लिखे ऋग्वेद के दोनों मंत्र मुद्रित थे। नौ साल के बाद आपको इस मरे हुए प्रसंग की याद दिलाने के पीछे मेरी अपनी पीड़ा है। मैं जानता हूं कि हिंदी पाठक के सामने इन दिनों साहित्य से जुड़े रिश्तों की अहमियत नहीं है… ऐसे में सत्तर की सीमा छू रहे इस लेखक में भला कोई क्यों रुचि लेगा? फिर भी मैं 'आ बैल मुझे मारÓ की तर्ज पर आपको परेशान कर रहा हूं, तो इसलिए कि जिंदगी के इस मोड़ पर आकर आखिरी सांस लेने से पहले आप तक अपनी बात पहुंचा देना चाहता हंू।
घटना 1997 की है जब मैं दुनिया के सुंदरतम शहरों में से एक बुदापैश्त (हंगरी) के ऑत्वॉश लोरांद विश्वविद्यालय में हिंदी का विजिटिंग प्रोफेसर था। एक दिन एमए के मेरे एक हंगेरियन विद्यार्थी चॅबॅ दैजो ने ऋग्वेद के उक्त दो मंत्र मुझे इस आशय से दिए कि मैं उनका हिंदी में अनुवाद कर दूं। मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद उसमें लिखा हुआ था। वैदिक संस्कृत सीखने का मुझे कभी मौका नहीं मिल पाया, इसलिए मैंने अपनी असमर्थता व्यक्त की, मगर जब मेरी नजर उसके अंग्रेजी अनुवाद पर पड़ी तो मैं चौंका। ऋग्वेद को मैं एक धार्मिक या (अधिक से अधिक) आध्यात्मिक रचना के रूप में जानता था। मैंने इससे पहले ऋग्वेद नहीं पढ़ा था, सरसरी निगाह से भले देखा हो। बाद में जितना मुझसे बन पड़ा था, मैंने चॅबॅ की मदद की। बात आई-गई हो गई।

भारत लौटने के बाद मैंने अपने विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष की मदद से ऋग्वेद का इंद्र सूक्त पढ़ा और ऋक अथर्व आदि वेदों में आए इंद्र संबंधी प्रसंगों का अध्ययन किया। उन्हीं दिनों मैंने नैनीताल पर केंद्रित एक कथा-शृंखला लिखी, जिसकी एक कड़ी में उक्त मंत्रों से जुड़े प्रसंग का जिक्र किया। इसी कहानी का नाम था 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ! कहानी में इंद्र का प्रसंग अलग तरह से आया है, जिसमें कोशिश की गई है कि धर्म से जुड़े मिथकों को न छेड़ा जाए! फिर भी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में इंद्र इतना जीवंत पात्र है कि उससे जुड़े संदर्भों और प्रतीकों के बिना न तो भारतीय संस्कृति की बात की जा सकती, न धर्म की।

चॅबॅ के दिए गए मंत्रों का संदर्भ शायद मेरे अवचेतन में दबा रहा होगा, इसीलिए कहानी का सारा तानाबाना मैंने इंद्र के चारों ओर बुना। कहानी में इंद्र मंगल ग्रह के राजा के रूप में सामने आता है। इंद्र, नचिकेता, भृगु, यमराज, चॅबॅ दैजो और मैं – ये छह लोग पच्चीस जनवरी, 2004 की रात यमलोक के तोरणद्वार पर अपनी-अपनी जिज्ञासाओं को लेकर बैठे हुए थे। … (पच्चीस जनवरी की रात को मैंने एक सपना देखा था, जिसे हिंदी दैनिक अमर उजाला, नैनीताल संस्करण के26 जनवरी, 2004 अंक में मुख्य समाचार के रूप में हू-ब-हू इस प्रकार प्रकाशित किया गया था: "गणतंत्र दिवस से ठीक एक दिन पहले मंगल ग्रह पर जिंदगी की संभावनाओं की खोज में जुटे वैज्ञानिकों को उस वक्त बड़ी सफलता मिली जब अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र नासा का दूसरा रोवर 'अपॉर्च्युनिटीÓ भी लाल ग्रह मंगल की सतह पर सफलतापूर्वक उतर गया। छह पहियों वाले रोवर ने मंगल ग्रह से तस्वीरें भी भेजनी शुरू कर दी हैं। इन तस्वीरों में मंगल की सतह पृथ्वी की तरह लग रही थी। इससे रोमांचित मिशन से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक स्टीव स्केवयर्स ने उछलते हुए कहा, 'मैं इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं करूंगा, क्योंकि इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैंने पहले नहीं देखा।Ó वैज्ञानिकों ने अपॉर्च्युनिटी के जुड़वां यान 'स्पिरिटÓ से भी दुबारा संपर्क स्थापित कर लिया है जिसे तीन सप्ताह पहले 3 जनवरी, 2004 को उन्होंने सफलतापूर्वक मंगल पर उतारा था।ÓÓ)

मेरी कहानी 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ के नचिकेता के मन में अपने पूर्वज गौतम ऋषि, उनकी पत्नी अहल्या और इंद्र के संबंधों को लेकर अजीब-सी जिज्ञासा ने जन्म लिया था, जिसके समाधान के लिए वह यमराज की शरण में गया था। नचिकेता को एक दिन लगा कि उसके प्रपितामह गौतमवंशीय वाजश्रवा, पितामह अरुण, पिता उद्दालक तथा उसके अपने रक्त में कहीं इंद्र का ही अंश तो नहीं है? जिज्ञासा का बीज तब अंकुरित हुआ जब उसने एक दिन सुना कि संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों में से एक अहल्या उसके पूर्वज गौतम ऋषि की पत्नी थी। अहल्या के सौंदर्य पर मोहित होकर एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में इंद्र उसका वेश धारण कर अहल्या के पास गया और उससे संभोग किया। मगर बीच में ही नदी तट पर नहाने गया गौतम वापस आ गया और अपनी ही आंखों के सामने अपनी पत्नी को एक गैरमर्द के साथ देख क्रुद्ध होकर उसने पत्नी को श्राप दिया, जिससे अहल्या उसी क्षण पत्थर की बन गई। … जिससे बाद में जुड़वां पुत्रों का जन्म हुआ। कौन थे ये जुड़वां?… नचिकेता की जिज्ञासा का मुख्य बिंदु यही था कि कहीं उसके रक्त में ही इंद्र का रक्त तो नहीं है!

सवाल कहानी के अच्छी या बुरी होने का नहीं है। उसे परखने और समझने का अंतर था। इतना मैं समझ गया था कि कहानी को लेकर एक संपादक की आपत्ति का आशय कहानी में चित्रित कुछ ऐसे वर्णनों से था, जिसे उनके अनुसार ऋग्वेदकार ने इंद्र देवता को शिश्न के रूपक में प्रस्तुत करते हुए चित्रित किया था। (वेदों के प्रथम हिंदी टीकाकार दयानंद सरस्वती ने 'कृपत्Ó (शिश्न) के लिए कहीं 'इंद्रियÓ और कहीं 'जननांगÓ लिखा है। ) मगर यह बात समझ में नहीं आई कि जो बात साढ़े तीन हजार साल पहले के कवि के लिए अश्लील नहीं थी, वह इक्कीसवीं सदी के एक स्थापित-चर्चित लेखक-संपादक के लिए कैसे अश्लील हो गई?

अपने मन के ऊहापोह को शांत करने के लिए मैंने भारतीय साहित्य की आख्यान परंपरा पर दुबारा नजर डाली। इसी खोजबीन के दौरान मुझे लगा कि हिंदी के (खासकर आजादी के बाद के) चर्चित लेखकों के चरित्रों में मुख्य चिंता के रूप में शुरू से ही एक 'तीसरा व्यक्तिÓ उपस्थित रहा है (जो खुद लेखक ही होता है) और वह साहित्य को मुख्यधारा की स्वीकृति तब तक नहीं प्रदान करता, जब तक कि उसकी समस्या औरत और मर्द की देह के आदिम आकर्षण और उत्तेजना के साथ न जुड़ी हो… दूसरे शब्दों में उन्हें एक ही बात खुद के द्वारा लिखी जाकर नैतिक लगती है, जबकि दूसरे के द्वारा लिखी जाते हुए अनैतिक।
चॅबॅ दैजो ने बुदापैश्त में मुझे ऋग्वेद के उक्त दो मंत्रों के अलावा अथर्ववेद का यह श्लोक भी दिया था, जिसकी संस्कृत बाद की (लौकिक) होने के कारण मुझे समझने में दिक्कत नहीं हुई :

महानग्नी महानग्नं धावतम अनुधावति।
इमास् तु तस्य गो रक्ष यभ मामद्धि चौदनम्। ।
(अथर्व. 20.136; ऋक्. खिला 5.22: आहनस्या…)

कौन है इंद्र?

प्रिय पाठकगण!
मैंने अपनी कहानी 'श्रोता नहीं है इंद्रÓ भारतीय साहित्य के वर्जित प्रसंगों को उजागर करने के लिए नहीं लिखी थी। न मैंने कहानी की आख्यान के रूप में पुनर्रचना का निर्णय किसी को सबक सिखाने के उद्देश्य से लिया है। साढ़े तीन हजार साल की अवधि में दो ध्रुवांतों पर खड़ी परस्पर विरोधी दृष्टियों की टकराहट का जिक्र करना किसी को भी अटपटा लग सकता है। इसके बावजूद आज मुझे यह देखकर जरूर हैरानी होती है कि इक्कीसवीं सदी में अश्लीलता का पैमाना हमारे पुरखों के यथार्थ से कहीं अधिक दकियानूसी है।

मैं जानता हूं कि भारतीय साहित्य और कलाओं की विराट स्मृति-परंपरा का प्रसंग उठाकर मैं अपने लिए कितना बड़ा जोखिम आमंत्रित कर रहा हूं। यह भी जानता हूं कि मैं इसका पात्र कतई नहीं हूं। मगर यह सवाल विचार करने योग्य तो है ही कि आज, साढ़े तीन हजार सालों के बाद मुझे अपने आरंभिक ऋषि-कवियों का पक्ष लेने के लिए उनके मंत्रों पर उस पीढ़ी के सामने पुनर्विचार करना पड़ रहा है जो सेक्स पर खुली और बेलाग ढंग से बात करने के लिए बदनामी की हद तक चर्चित हो! यहां मैं अपने समकालीनों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए भी नहीं आया हूं… वैसी योग्यता मुझमें है भी नहीं। मगर मन में उठने वाली इस जिज्ञासा को मैं रोक भी तो नहीं सकता कि अपनी भाषा के साथ हमारा संपर्क इतना कट गया है कि हम यद्यपि खुद को साहित्य और भाषा का मर्मज्ञ कहलवाने में गर्व का अनुभव करते हों, मगर अपनी जातीय भाषा की अर्थ-छवियों को बिसरा बैठे हैं!…

बहरहाल, बात इंद्र के संदर्भ में उठी है तो यह जान लेना जरूरी है कि यह इंद्र है कौन? इस इंद्र का भारतीय साहित्य की परंपरा के साथ क्या संबंध रहा है ?… अपने सुदूर अतीत में झांकता हूं तो इंद्र का उल्लेख मुझे अनेक परस्पर विरोधी रूपों में मिलता है… कहीं वह देवताओं का राजा है तो कहीं सेनापति, कहीं अपनी भुजाओं में बिजली की चमक समेटे आकाश के आर-से-पार तक छुट्टे सांड की तरह दौड़ लगाते सूर्य के रूप में है तो कहीं अपने पड़ोसी गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या के सौंदर्य पर लट्टू होकर उसके साथ धोखे से सहवास करने वाले ब्रह्मांड के सबसे बड़े पुरुष के रूप में दिखाई देता है। … कहीं यह अतिमानव हमारी धरती पर नई मानव सभ्यता का प्रसार करने के लिए बीहड़ जंगलों को चुटकी में साफ कर देने वाले महानायक के रूप में सामने आता है!…

ऋग्वेद में अति मानवीय प्राकृतिक शक्तियों के बीच वही एकमात्र देवता है जो मनुष्य है लेकिन नैसर्गिक ताकतों से अधिक शक्तिशाली, एक सुपर पॉवर!… विचित्र वीर है वह, अतुलनीय शक्ति का समुच्चय और बर्बर युग का ऐसा नायक जिसके सामने जल-थल-नभ का कोई प्राणी एक पल के लिए भी नहीं टिक पाता। सृष्टि के समस्त शौर्य के प्रतीक इस महानायक की तुलना के लिए इस धरती पर सचमुच ही कोई प्राणी नहीं है… अपनी महानता में भी और नीचता में भी! इंद्र सचमुच अतुलनीय और सर्वशक्तिमान है! 'इंद्र इज अब्व ऑल!Ó अगर यह अश्लीलता है तो सृष्टि का सारा तामझाम ही अश्लील है… तब फि र श्लील क्या है?

कैसी विडंबना है कि आज के दिन तक हमारी स्मृति में अटके हुए अपनी परंपरा और संस्कृति के ये महानायक – इंद्र, उसकी प्रशस्ति गाते वेद और इन दोनों के द्वारा निर्मित (भारतीय) समाज – एक थके-हारे, सुविधाभोगी और गिड़गिड़ाते परिवेश के रूप में सिमट आए हैं। क्या यही कारण नहीं है कि हम साढ़े तीन हजार साल के बाद भी अतीत के यथार्थ की अभिव्यक्ति को पचा पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। … जिस भारतीय वाङमय का जन्म इतने मुक्त और ऊर्जा-उमंग से जुड़े कथन के रूप में हुआ हो, उसकी जगह पर लिजलिजा धार्मिक कर्मकांड और उद्दंड राष्ट्रीयता कैसे घर करती चली गई है? क्या हमारी भारतीयता और राष्ट्रीयता खुद में ही सिमटी, इतनी ही दकियानूसी तब भी थी, जब चारों ओर इंद्र का ही राज था!… क्या हमारा समाज सचमुच कभी ऐसा 'राष्ट्रÓ रहा है, जिसका आदि-नेतृत्व इंद्र जैसे सेक्युलर महानायक ने किया है!
कहते हैं, भारतीय साहित्य का प्रथम श्लोक आदिकवि के मुंह से संभोगरत क्रौंच पक्षी में से नर के मारे जाने के बाद मादा के रुदन से फूटे शब्दों के रूप में सामने आया था। क्रौंची के अवसाद का कारण यही तो था कि वे लोग संसार के सबसे अंतरंग सुख में खोए हुए थे… ओ शिकारी, तेरा भला न हो क्योंकि तूने आदिम अहसासों के बीच खोए हुए युगल की मधुर अनुभूति को खंडित कर दिया। … उस अनुभूति को, जिसमें से जन्म लेने वाली ऊर्जा के जरिए ही सृष्टि का विस्तार हुआ है… उसी का तो प्रतीक है इंद्र… वह इंद्र, जो अपने रक्तबीजों के रूप में अनादिकाल से संसार का विस्तार करता आ रहा है… ऐसा प्रतीक भला अश्लील कैसे हो सकता है!

कुछ इसी तरह के सवालों के साथ जूझते हुए ही इस बीच मेरा अनेक 'इंद्रोंÓ के साथ सामना हुआ। इनमें से एक इंद्र है, हमारे समय में वेदों की भाषा के एकदम मौलिक व्याख्याकार हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के वेल्स प्रोफेसर माइकेल विट्जेल की किताब 'आर्यों के भारतीय मूल की कल्पना (इतिहास में मिथक का मिश्रण)Ó का देवता इंद्र, जिसे वह ऐसा 'भार्यÓ (भारतीय आर्य) मानते हैं जिसने अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा की बदौलत भारत को वह पहचान दी, जिसे आज तक भारतवासी अपनी अस्मिता के रूप में स्वीकार करते आ रहे हैं। प्रोफेसर विट्जेल लिखते हैं, "ऋग्वेद संहिता के आधार पर पूर्ववर्ती भार्यों की पहचान का एक सरल तरीका यह है : भार्य जन (आर्य जन) वैदिक संस्कृत बोलते थे। इस भाषा में इन लोगों ने विपुल साहित्य की रचना की, जो मौखिक रूप से ही रचा जाता था और मौखिक रूप से ही अन्य लोगों तक पहुंचता था…

"इन भार्यों (आर्यों) का समाज पितृवंशीय था जो वर्ण संरचना (कुलीन या सामंत वर्ग, पुरोहित/ ऋषि वर्ग और जन-सामान्य वर्ग) आधारित तथा गोत्रों में विभाजित था। इसमें गण होते थे और कभी- कभी इन गणों के संघ भी बने होते थे। गण के मुखिया (राजा/महाराजा) का चुनाव उच्च वर्ण के (अर्थात् कुलीन वर्ग के) लोगों में से किया जाता था और इन राजाओं की परंपरा प्राय: एक ही परिवार से संबंधित होती थी। ये गण एक-दूसरे से परस्पर लड़ते-भिड़ते रहते थे। उनके धर्म में देवगणों की व्यवस्था बहुत ही जटिल थी। … कुछ प्राकृतिक शक्तियों के देवता थे, जैसे : हवा के देवता वायु देव, आग के देवता अग्नि देव, आकाश पिता था (द्यौ: पिता), पृथ्वी माता थी (पृथ्वी माता), भोर का देवता उषस् कहलाता था, आदि आदि। … इनमें एक देव और था इंद्र, जो भार्य योद्धाओं का आदि प्रारूप था, यानी इंद्र युद्ध का आदि देवता था। ये सभी देवता समस्त सृष्टि के संचालक और नियंत्रक तो अवश्य माने जाते थे, फिर भी ये सभी एक अन्य अदृश्य यानी निराकार किंतु परम 'सक्रियÓ शक्ति के अधीन थे, जिसे ऋत कहते हैं।ÓÓ

देवताओं के राजा के अलावा दूसरा इंद्र हमारे दौर के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी की किताब प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता का सेनापति इंद्र है, जिसकी इस कार्य के लिए बार-बार वेदों में स्तुति की गई है कि उसने नदियों को मुक्ति दिलाई। कोसंबी के अनुसार, "उन्नीसवीं सदी में, जब प्रकृति संबंधी मिथकों से हर प्रकार की घटना को, यहां तक कि होमर के काव्य में वर्णित ट्रॉय के विध्वंस को भी, समझाया जा रहा था, तब 'नदियों की मुक्तिÓ का अर्थ लगाया गया – वर्षा लाना। इंद्र बादलों में बंद जल को मुक्त करने वाला वर्षा का देवता बन गया। …ÓÓ

तीसरा है हमारे सातवें आसमान में बैठा वह विचित्र इंद्र, जो ब्राह्मणवादी दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए भगवद्गीता की तर्ज पर लिखी गई किताब योगवासिष्ठ की लंबी, एकालापी कथा को जन्म देने वाला है… उस पवित्र गीता की प्रतिलिपि का निर्माता, जिसे हाथ में लेकर आज भी भारत के न्याय के मंदिरों में सत्यनिष्ठा की कसम खायी जाती है!… योगवासिष्ठ की कथा का आरंभ देवताओं के राजा इंद्र के आदेश पर होता है। इंद्र राजा अरिष्टनेमि को महर्षि वाल्मीकि के पास भेजता है, जो उनसे मोक्ष का साधन पूछने के लिए वाद-विवाद करता है। वाल्मीकि अरिष्टनेमि को विश्वामित्र द्वारा दशरथ-दरबार में जाकर यज्ञों की रक्षा के लिए राम को मांगने का प्रसंग सुनाते हैं, लेकिन मोक्ष तथा जीवन-मृत्यु से जुड़ी यह बहस एकाएक भयभीत ब्राह्मणों की इस गुहार के रूप में सामने आ जाती है कि राजा दशरथ पुरोहितों की सुरक्षा के लिए अपने पंद्रह वर्षीय बड़े बेटे राम को भेज दें, जिससे कि उनके यज्ञ निर्विघ्न चल सकें। राजा दशरथ इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इस प्रकार ऋग्वेद का अपराजेय इंद्र योगवासिष्ठ में ब्राह्मणों का रक्षक और पुरोहित वर्ग का कवच बन जाता है।

इनरुवा लाटा

ये तीनों तो इतिहास प्रसिद्ध इंद्र हैं, जिनके बारे में कमोवेश हर भारतीय जानता है, मगर इस आख्यान में एक और इंद्र है, जिसे हमारे इलाके में 'इनरुवा लाटाÓ कहते हैं। हालांकि उसे खुद के समाज में कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। हिंदी समाज का प्रतिनिधि चरित्र इनरुवा लाटा, खुद को सीधा-सच्चा, उदार, परोपकारी और प्रगतिशील समझता है… जितना संभव हो सकता है, दूसरों की मदद ही करता है… फिर भी लोग जाने क्यों उसका यकीन नहीं करते!… पढ़े-लिखे लोगों के समाज के साथ उसका संवाद इसलिए संभव नहीं है क्योंकि उसे न तो पुराने विद्वानों की देवभाषा संस्कृत आती और न नए विद्वानों की भाषा इंग्लिश, सिर्फ हिंदी आती है जिसे भारत में अनपढ़ों और लाचारों की भाषा समझा जाता है… न उसकी पोशाक में जींस-शर्ट की जैसी ठसक है, उसकी भाषा सीधी-सपाट और गंवारू है। मानो इस नए जमाने में भी उसे यह मालूम न हो कि सिविल सोसाइटी में बातें किस तरह की जाती हैं, कै से लोगों को प्रभावित किया जाता है!… उसे देखकर कभी-कभी शक होता है कि वह इसी संसार का जीव है या किसी दूसरे लोक से (मसलन मंगल लोक से) टपक पड़ा कोई एलियन!

बेचारा इनरुवा लाटा… लोगों ने उसे लछुआ कोठारी की औलाद बना डाला। …
माफ कीजिए… आप लछुआ कोठारी और उसकी औलादों को तो जानते नहीं, इस प्रसंग को कैसे समझेंगे ? बता दूं कि लछुवा कोठारी हमारे पहाड़ी समाज की एक अद्भुत लोक-अभिव्यक्ति है, खासकर उसकी नौ संतानें जिनमें से हरेक 'लाटाÓ था… लाटा, यानी सीधा-सच्चा और जुबान से हकलाने वाला, पारदर्शी व्यक्तित्व वाला, जो दिल से उठने वाली किसी बात को सामने खड़े व्यक्ति को देखकर जुबान पर नहीं लाता, बल्कि दिल की बात सीधे उजागर करता है… शायद इसीलिए वे सभी हकलाते थे। उनकी समझ में नहीं आता था कि जो बात वो कहने जा रहे हैं उसे विद्वानों की सभा में कहा जाना चाहिए या नहीं! मगर जुबान तक आ चुकी बात को लौटाया तो नहीं जा सकता था, इसलिए वे अमूमन ऐसी बात कह बैठते थे जो कुलीन समाज को अपनी शान पर बट्टा महसूस होने लगती। दूसरी ओर, सुनने वाला उनकी बातों को सीधे दिल से निकली बात के रूप में ग्रहण करते हुए उन्हें आध्यात्मिक वाणी का-सा सम्मान देता और उनकी सीधी-सपाट अभिव्यक्ति के मूल में छिपी भावना का आशय समझते हुए उनकी इज्जत भी करता था। मगर हर कोई उनके सामने आने से बचता था… इसलिए कि पता नहीं कब वे लोग उनकी सच्चाई नंगे रूप में उजागर कर दें!… इसीलिए मुंह-सामने भले ही लोग उनकी हंसी उड़ाते, पीठ पीछे उन्हें भविष्यवक्ता का-सा सम्मान देते।

लोगों को लगता कि उनके अंदर ऋग्वेद के इंद्र की तरह का कोई ईश्वरांश मौजूद है जिसे वे जानना तो चाहते हैं, मगर सीधे उसका सामना नहीं कर सकते। इसीलिए तो लोगों ने उसका नाम इंद्र का अपभ्रंश 'इनरुवाÓ रख दिया था। मन के अंदर लोग उन्हें गुरु का-सा सम्मान देते, मगर बाहरी तौर पर उनका मखौल उड़ाकर मनोरंजन करते। देखते-देखते ज्ञान के भंडार लछुवा कोठारी के संतानें संसार की सबसे बुद्धिहीन, उल्टी बुद्धि वाले ऐसे खुराफाती बन गए जो हमेशा दूसरों का नुकसान करने की जुगत में रहते हैं! इसी प्रक्रिया में जाने कब समाज के कुलीनों ने 'लाटाÓ शब्द का अर्थ ही बुद्धू और कुटिल बुद्धि वाला व्यक्ति बना डाला।

समाज के खास लोगों को अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरों में ऐसे दोष दिखाने जरूरी होते हैं, जिससे कि वे लोग हमेशा खास बने रहें। ऐसे खास लोगों को बिना सवाल उठाए हां-में-हां मिलाने वाला कोई चाहिए था, लछुवा कोठारी की औलादें इसके लिए सबसे उपयुक्त पात्र थे। हकलाहट में शब्द की ध्वनि मुंह के अंदर से निकलकर कुछ पलों के बाद श्रोता तक पहुंचती है और इस बीच सुनने वाले को उसका आशय अपनी मर्जी से ग्रहण करने का मौका मिल जाता है। बड़े लोगों की बातें, जिन्हें पढ़े-लिखे लोग ज्ञान की बातें कहते थे, लछुवा की औलादों की समझ में तो आती नहीं थीं, इसलिए वह हर बात में मुंडी हिलाते रहते जिससे कि कुलीनों को लगता रहे कि सामने वाला उनकी बातों को संसार के श्रेष्ठतम ज्ञान के रूप में स्वीकार कर रहा है।

मगर वे इतने बेवकूफ भी नहीं थे जितने कि कुलीन उन्हें समझते थे। उनकी बात खत्म हो जाने के बाद वह लाल-बुझक्कड़ की तरह एक ऐसी बात कह डालते, जिसका जवाब कुलीनों के पास भी नहीं होता। ऐसी हालत में कुलीनों की मजबूरी थी कि वे लछुवा कोठारी की औलादों को बुद्धू या उल्टे दिमाग वाला कहें और इनरुवा लाटों की मजबूरी यह थी कि हकलाहट के दौरान जो बात गले के अंदर ही अटकी रह गई थी, उस महत्त्वपूर्ण ज्ञान को उसकी सारी अर्थछवियों के साथ श्रोताओं तक पहुंचाएं। इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों को संतोष मिल जाता था… कुलीनों की श्रेष्ठता भी सिद्ध हो जाती थी, जैसा कि वे लोग चाहते थे, और लछुवा की संतानें अपने गले के अंदर अटकी बातों को भी व्यक्त करने में सफल हो जाते। धीरे-धीरे विचित्र सवाल पूछने के उनके किस्से समाज में इतने मशहूर हो गए कि लछुवा कोठारी की औलादों ने चाहे वह बात कही हो या नहीं, किसी भी लीक से हटी, बेवकूफी भरी बात को उनके नाम के साथ जोड़ दिया जाने लगा। सात समंदर पार इंग्लैंड से आए सफेद चमड़ी वाले कुमाऊं के कमिश्नर ओकले ने तो लछुवा के बिरादरों की इन विशेषताओं के आधार पर उन पर एक किताब ही लिख डाली।
आप पूछ सकते हैं कि लछुवा कोठारी के संतानों उर्फ इनरुवा लाटों को मैं कैसे जानता हूं ?
हुआ यह कि बहुत छुटपन में मुझे 1892 में प्रकाशित कुमाऊं के तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर ई. एस. ओकले की अंग्रेजी में लिखी एक किताब मिली: 'प्रोबर्ब्स एंड फ ोकलोर ऑफ कुमाऊं एंड गढ़वालÓ, जिसे उन्होंने कुमाऊं के एक कुलीन ब्राह्मण पंडित गंगादश्र उप्रेती के साथ मिलकर लिखा था। सवा चार सौ पृष्ठों की इस किताब में हमारे इलाके के डेढ़ हजार से अधिक लोक-विश्वास और लोकोक्तियां संकलित हैं। इन्हीं के बीच पेज 74 पर एक लोकोक्ति संकलित है 'लछुआ कोठारी का च्येलाÓ जिसके साथ लोक जीवन में प्रचलित कथा भी दी गई है।

अब बेचारे लछुवा कोठारी का इसमें क्या कसूर कि उसके 'ज्वान-जवानÓ (भरपूर जवान) नौ बेटे उसकी मर्जी के अनुसार नहीं ढल पाए! कौन पिता बेटों को अपनी मर्जी से गढ़ सकता है? उस पर एक साथ नौ बच्चों को! आधुनिक आनुवंशिकी-वेत्ताओं ने भले ही कुछ ऐसे गुणसूत्रों का पता लगा लिया हो कि पिता की कुछ खास आदतें उसकी संतान में वीर्य के साथ स्थानांतरित हो जाती हैं और इस रूप में संतान की खास आदतों के लिए उसका पिता ही जिम्मेदार होता है, मगर लाटा लछुआ कोठारी क्या जाने गुणसूत्रों और आनुवंशिकी के चमत्कारों को! वह राजा इंद्र तो था नहीं जिसकी प्रशस्ति साढ़े तीन हजार सालों तक वेद-पुराण और उपनिषद् गाते फिरते रहे हों… न वह डार्विन या फ्रॉयड-युंग जैसे विदेशी ऋषियों की जानकारी रखता था, फिर भी लोग तो यही समझते थे कि अगर 'इनरुवाÓ शब्द 'इंद्रÓ का अपभ्रंश है तो उसमें कुछ-न-कुछ तो ब्रह्मांड के सबसे शक्तिशाली तत्त्व का कोई अंश मौजूद होगा!… शायद इसीलिए मेरे दिमाग में भी उस अजीब-सी कल्पना ने जन्म लिया, जिसे मैं इस आख्यान के माध्यम से अपने विद्वान् पाठकों तक पहुंचाना चाहता हूं। खैर, ये बातें बाद में…! पहले लछुवा कोठारी कीे औलादों से परिचय प्राप्त कर लीजिए! कहीं आप भी बाकी लोगों की तरह इनका मखौल न उड़ाने लगें… इसलिए उनसे जुड़ी इस लोककथा को सुन लीजिए। … शायद इसके बाद ये लोग आपको आत्मीय महसूस होने लगें।

कुमाउंनी लोक कथा :
'लछुवा कोठारी का च्येलाÓ (लछुआ कोठारी की औलाद)

बहुत पुराने जमाने में कुमाऊं जिले के परगना गंगोली, पट्टी बेरीनाग के कोठार गांव में लछुवा नामक एक आदमी रहता था जिसके नौ बेटे थे। सभी बेटे मजबूत कद-काठी के हृष्टपुष्ट और सुंदर थे, मगर थे दिमाग के कमजोर और सनकी। बचपन से ही वे लोग लीक से हटी ऐसी बातें करते थे कि लोग उनके नाम का प्रयोग बेवकूफी के पर्याय के रूप में करने लगे थे। अपनी ओर से तो वे लोग किसी भी काम को पूरी ईमानदारी और मन लगाकर करते, मगर जब उसका परिणाम सामने आता, हमेशा उल्टा होता और उनकी समझ में नहीं आता कि ऐसा हो कैसे गया!

लछुवा अपने बेटों को बेहद प्यार करता था और कोशिश करता कि उनकी कोई इच्छा अतृप्त न रहे। दूसरी ओर बेटे भी पिता पर जान छिड़कते थे और कोई ऐसी बात नहीं आने देना चाहते थे कि उनके कारण पिता को कष्ट पहुंचे। पिता द्वारा आदेश देने की देर होती, बेटों में उसे पूरा करने की होड़ लग जाती। … और हमेशा इसी होड़ में बेटों से कुछ-न-कुछ ऐसा हो जाता कि बना-बनाया काम बिगड़ जाता। हालांकि उनमें साहस और जोखिम लेने की वृत्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी लेकिन कौन-सा काम कब और कैसे किया जाना चाहिए, इसे वह तत्काल तय नहीं कर पाते।

लछुआ कोठारी अपने लड़कों की हरकतों से हमेशा चिंतित रहता। यह बात उसे परेशान करती रहती कि ऐसे सरल हृदय बच्चों का पहाड़-सा जीवन कैसे कटेगा… छल-छऽ और स्वार्थों से भरी इस दुनिया में लोग आसानी से उन्हें ठग ले जाएंगे। … एक दिन उसने सोचा, क्यों न हरेक बेटे के लिए एक-एक मजबूत घर बना दिया जाए, ताकि उनके सिर पर कम-से-कम एक आरामदेह छत तो हमेशा मौजूद रहे! सारे बेटों को उसने अपने पास बुलाया और उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा। सभी से उसने जंगल जाकर अपने-अपने मकान के लिए लकड़ी काट कर लाने को कहा।

गंगोली इलाका देवदार की बेहतरीन इमारती लकड़ी के लिए पूरे कुमाऊं में प्रसिद्ध है। इलाके में बीस-तीस फुट ऊंचे देवदार के पेड़ों का घना जंगल है जिनके पेड़ों की मोटाई इतनी होती है कि उन्हें एक लंबा चौड़ा आदमी भी अपने दोनों हाथों के घेरे में नहीं ले सकता। देवताओं के इस वृक्ष के बारे में कहा जाता है कि कोई भी एक आदमी अपने जीवनकाल में इसे जन्म लेते और नष्ट होते नहीं देख सकता। कहावत ही है – 'देवदार का पेड़, सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा और सौ साल सड़ा।Ó इसलिए लछुवा कोठारी ने सोचा, क्यों न ऐसा मकान बनाया जाए जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सैकड़ों सालों तक चलता रहे। बेटों से उसने कहा, 'मेरे प्यारे बच्चो, अब तुम जवान हो गए हो, कल को तुम्हारी शादी होगी और सबको अपने अलग-अलग घरों की जरूरत पड़ेगी। मैं अपने जीवनकाल में तुममें से हरेक के लिए एक-एक घर बनाकर मरना चाहता हूं। जाओ, जंगल से अपने लिए एक-एक खूब मजबूत लंबा-चौड़ा देवदार का पेड़ काटकर ले आओ। वहीं से पेड़ की बल्लियां, तख्ते और गिल्टे भी तैयार कर लाना, जिससे कि यहां का काम कुछ हल्का हो सके। पेड़ काटने में एक दूसरे की मदद करना और जो जितना बड़ा मकान बनाना चाहता है, अपने लिए उतना ही बड़ा पेड़ काटकर तैयार करना।Ó

सभी बेटे कुल्हाड़ी, आरे आदि लेकर जंगल को चल पड़े। आधा दिन उन्होंने अपने-अपने लिए पेड़ छांटने में बिताया और अपने कद के हिसाब से हर बेटे ने एक-एक विशाल देवदार का पेड़ काट डाला। जब सारे पेड़ धराशायी हो गए, उनकी समझ में नहीं आया कि अब उनका क्या करना है? बड़े बेटे ने अपने से छोटे भाई से कहा, 'भुला (भैया), बाज्यू (पिताजी) ने कहा था, इन नौ पेड़ों से उनको नौ घर बनाने हैं इसलिए हमें हरेक घर के लिए बल्लियां, तख्ते, बीम और गिल्टे चाहिए… लेकिन कितने चाहिए, ये तो हम पूछना ही भूल गए। तुम जाकर बाज्यू से पूछकर आओ कि उन्हें कितने बड़े तख्ते और बल्लियां चाहिए, ताकि उसी नाप की बल्ली काटकर हम घर ले जा सकें।Ó आठवे भाई ने 'चम्मÓ-से पेड़ को अपने कंधे पर रखा और उसे घर ले गया।

लछुवा कोठारी ने जब बेटे की बात सुनी तो अपना माथा पकड़ लिया। 'अरे मूर्ख, मुझे ही वहां बुला लिया होता! या मैं किसी रस्सी से नाप भेज देता, पूरा पेड़ यहां लाने की क्या जरूरत थी। … और तू इतना भारी-भरकम पेड़ यहां तक लाया कैसे? इसे तो तुम सारे भाई भी मिलकर नहीं उठा पाओगे।Ó…
'ऐसे लाया, और कैसे…Ó कहकर पलक झपकते आठवे बेटे ने देवदार का पेड़ अपने कंधे पर फिर से टिका लिया।Ó… 'ये आदमी हैं या पिशाचÓ… लछुवा कोठारी ने मन-ही-मन में कहा और प्रकट रूप में बेटे से कहा, 'हर-एक पेड़ के नौ बराबर हिस्से काटना, जिनमें से दो हिस्सों की बल्लियां बनेंगी, दो हिस्सों के खंभे और पांच हिस्सों के तख्ते। … सारे तख्ते तैयार हो जाएं, तब मुझे ही जंगल में बुला लेना।Ó

शाम होते-होते बेटा पेड़ के साथ फिर वापस आ गया, 'बाज्यू, आपने ये तो बताया ही नहीं किसके हिस्से में कौन-सा पेड़ होगा?Ó… लछुवा ने फिर माथा पकड़ लिया, 'अरे च्यला (बेटे), सबेरे से तू भूखा- प्यासा घूम रहा है, इससे अच्छा ये नहीं होता कि तुम सारे भाई सभी कटे पेड़ों को यहीं ले आते और यहीें जरूरत के हिसाब से उनके तख्ते, बीम, दरवाजे और खिड़कियां बना लेते!Ó…

'वो सब चीजें हम बने बनाए यहां ले आएंगे बाज्यू! हम अगर आपकी सेवा के लिए मौजूद हैं तो आपको मेहनत करने की क्या जरूरत है!… आप कहां तक एक-एक तख्ते को ढोते फिरेंगे!Ó आठवे बेटे ने कहा।

जंगल पहुंचकर आठवे बेटे के निर्देशानुसार सारे बेटे पेड़ के नौ टुकड़े करके उनके गिल्टे और बल्लियां चीरने में लग गए, लेकिन प्रत्येक बेटा अपना तख्त दूसरे से बड़ा बनाने और दूसरे को उससे अलग बनाने के जोश में उन्हें काटता चला गया और धीरे-धीरे सारे पेड़ उन्होंने छोटे-छोटे टुकड़ों में काट डाले। सारी मूल्यवान इमारती लकड़ी बेकार हो गई। यह सुनते ही लछुवा कोठारी पर मानो वज्रपात हो गया। 'जिस औलाद ने मकान बनने से पहले ही उसके टुकड़े कर डाले हों, वो कैसे अपनी जिंदगी मिलकर बिताएंगे।Ó, लछुवा ने सोचा और अपने घर के सामने देवदार के टुकड़ों के पहाड़ देखकर वहीं बेहोश हो गया।

कुछ ही दिनों के बाद जब सारे भाई एक दिन जंगल गए थे, ढलती सांझ के समय रोते हुए पिता के पास पहुंचे और बोले, 'बाज्यू, हमारे एक भाई को बाघ ने खा लिया है।Ó 'क्यों, कब, कहां?Ó लछुवा चिल्लाते हुए बाहर आया तो देखा, सारे भाई सकुशल खड़े थे।

'तुम सब तो मेरे सामने ही खड़े होÓ, लछुवा ने उन्हें डांटा तो बड़े बेटे ने रोते हुए कहा, 'ये देखो…Ó, उसने भाइयों को गिनना शुरू किया। बाकी सारे आठ भाइयों को उसने गिना, मगर खुद को नहीं। सारे भाइयों ने भी ऐसा ही किया। सभी भाइयों ने जब रोते हुए आठ ही गिने तो लछुवा कोठारी ने एक-एक कर सबके सिर पर चपत मारकर नौ लोग गिने। सबकी हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। वे लोग खुशी से नाचने लगे : 'बाज्यू, तुमने हमारे एक भाई को फिर से पैदा कर दिया। धन्य हो तुम!Ó

लछुवा कोठारी की औलादों का तीसरा किस्सा भी उतना ही रोचक है। एक दिन उसने बेटों से कहा, 'हमेशा उल्टे काम करते हो, जाकर कुछ कमा कर लाओ!Ó उसने बेटों को बहुत सारा रुपया दिया और कहा कि इससे अपनी पसंद का कोई करोबार करके फायदा कमा कर लाओ। रुपयों को लेकर वह कुमाऊं के सबसे बड़े शहर काशीपुर गए और उससे खूब कपड़ा खरीद कर बेचने लगे। कुछ महीनों के बाद पिता ने बेटों से पूछा कि क्या कारोबार में कुछ फायदा भी हो रहा है, बेटों ने बताया, 'बाज्यू, कपड़े से हमें खूब फायदा हो रहा है। हमने रुपए का आठ गज कपड़ा खरीदा था, लेकिन उसे बारह गज के हिसाब से बेच रहे हैं। कपड़ा हाथों-हाथ बिक रहा है और हमें मिल रहा है चार गज का फायदा!…Ó
लछुआ की समझ में नहीं आया कि कैसे अपने बच्चों की ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जाय। एक दिन उसने बेटों से कहा, बेटो, तुम लोग इतने ताकतवर हो, संसार का कोई भी काम तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं है। अपने लिए एक-एक नौला (जलश्रोत-घर) खोद लो। 'क्यों नहीं, बाज्यूÓ, उन्होंने एक स्वर में कहा और सोचने लगे कि नौला कहां पर खोदना अच्छा रहेगा। सारे भाइयों ने आपस में परामर्श किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गांव में पानी के स्रोत तो बहुतायत में हैं, लेकिन पहाड़ की चोटी पर कहीं पानी नहीं है। गाय भैंसों को लेकर जब ग्वाला जाते हैं, तो चोटी में पहुंच कर प्यास से हालत खराब हो जाती है और पानी पीने के लिए नीचे ही आना पड़ता है। क्यों न पहाड़ की चोटी पर ही नौ नौले खोद लें हम लोग। पहाड़ की चोटी पर जाकर सबने मिलकर नौलों के लिए गड्ढे खोदने शुरू कर दिए। कई-कई दिनों तक बहुत गहराई तक खोदने के बावजूद जब पानी नहीं निकला, तो थककर सारे गड्ढे उसी तरह छोड़ दिए गए। आज भी गंगोली गांव के पहाड़ी शिखर पर जो विशाल नौ सुरंगें खुदी हुई हैं, उन्हें 'लछुवा कोठारी के नौलेÓ कहा जाता है, हालांकि उनमें एक बूंद पानी नहीं है।

लछुवा कोठारी और उसकी संतानों का अंत भी बहुत दुखद रहा। सारी जिंदगी लछुवा इसी बात से परेशान रहा कि कैसे उसके बेटे इतनी स्वार्थी दुनिया में अपना वक्त काटेंगे! रात-दिन यही चिंता उसे परेशान किए रहती और उसकी कुछ भी समझ में नहीं आता। अपने बेटों से वह अपना दुख कैसे बताता? कहीं कुछ उल्टा-सीधा न कर डालें, इसलिए वह अपनी ही चिंताओं में घुलता रहा। इसी फिक्र में एक दिन लछुवा ने खाना-पीना छोड़ दिया। जब लछुवा मरणासन्न हो गया, सारे बेटे बुरी तरह परेशान हो गए। उनकी समझ में नहीं आया कि भगवान की तरह के उनके पिता की यह हालत किसने कर डाली। एक भाई उनकी तकलीफ के बारे में पूछने के लिए गांव के वैद्य-पुरोहित के पास गया तो पुरोहित ने उसे बताया कि यह तो संसार की पुरानी रीत है बच्चे!… जो इस संसार में आया है, उसे एक दिन इसे छोड़ना ही पड़ता है। भगवान के इस नियम को कोई रोक नहीं सकता। …

'हमारे बाज्यू ने अगर किसी का कुछ बिगाड़ा ही नहीं है तो कोई उन्हें क्यों दुख दे रहा है?Ó… एक दिन अंतत: लछुवा कोठरी की मृत्यु हो गई। … अपने पिता की निर्जीव देह को लेकर सारे लड़के गंगोली के सबसे ऊंचे शिखर पर गए और वहां से एक स्वर में शिकायत करने लगे, 'हे भगवान, हमारे पिता ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था जो तुम उनको हमसे छीन रहे हो!… हम उन्हें कभी नहीं छोड़ेंगे, चाहे तुम इन्हें छीनने के लिए कितनी ताकत क्यों न लगा दो।Ó

गांव वालों ने किसी तरह समझा-बुझाकर लछुवा का अंतिम संस्कार करने के लिए बेटों को राजी किया और सारे भाइयों ने मिलकर संस्कार किया। कहते हैं कि जब लछुवा कोठारी का संस्कार संपन्न हो गया, सारे बेटे रोते-रोते विक्षिप्त-से हो गए। … 'हमारी देखरेख करने वाले पिता ही नहीं रहे तो हम जीकर क्या करेंगे?… हम भी अपने बाज्यू के पास जाएंगे।Ó… चिता से उठती हुई लपटों के साथ पिता की देह को धुंए के रूप में उड़ता हुआ देखकर उनके मन में विचार आया कि क्यों न वे भी उड़कर पिता के पास स्वर्ग में चले जाएं। सारे भाइयों ने निर्णय लिया कि वे गंगोली के सुरंगों वाले शिखर पर जाकर अपनी-अपनी कमर में पंख बांधकर पक्षी बन जाएंगे और स्वर्ग के लिए छलांग लगा देंगे।

इस प्रकार सबने अपनी-अपनी कमर के दोनों ओर अनाज साफ करने वाला एक-एक सूप बांधा और स्वर्ग के लिए छलांग लगा दी।
लोक विश्वास है कि वे सभी भाई आज भी अंधेरी रात में टिमटिमाते प्रकाश-बिंदुओं के रूप में अपने पिता के आदेशों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और आकाश के बीचों-बीच टिमटिमा कर अपने पिता के साथ भेंट होने का इंतजार करते रहते हैं।

सहस्रवीर्य, सहस्रयोनि और सहस्राक्ष

'सहस्रयोनिÓ और 'सहस्राक्षÓ के मिथक के बारे में आप जानते ही हैं, सहस्रवीर्य का नाम शायद आपके लिए नया हो। यह वही इंद्र है जिसे ऋग्वेदकार ने 'कृपत्Ó यानी शिश्न कहा है। एक बार मैं उसका प्रसंग दुहरा दूं। इंद्र ने गौतम ऋषि की सुंदर पत्नी अहल्या के साथ धोखे से संभोग किया और पकड़े जाने पर गौतम ने उसे श्राप दिया कि ओ इंद्र, तुझे योनि से इतना ही प्यार है तो जा, तेरा सारा शरीर ही योनिमय हो जाय! पलक झपकते ही गौतम ने इंद्र के शरीर में एक हजार योनियां उगा दीं। कैसा लगता होगा उस वक्त इंद्र। चुटिया से लेकर पांव के नाखूनों तक योनि ही योनि! मगर हिंदू पुरोहितों के पास हर जटिल समस्या की काट है। इंद्र ने सैकड़ों साल तक ब्रह्मा की तपस्या की तो उन्होंने अपने कमंडल से उस पर गंगाजल छिड़कते हुए इतनी मोहलत दे दी कि जा, तेरी हर योनि आंख में बदल जाए। … इंद्र, जो पहले समूचे ब्रह्मांड के वीर्यबैंक के रूप में शिश्न था, गौतम के श्राप से सहस्रयोनि इंद्र बन गया, और फिर एक दिन ब्रह्मा की कृपा से हजार आंखों वाला सहस्राक्ष इंद्र बन गया… हजार आंखों के समान तेज वाले सूर्य के बराबर सहस्राक्ष… जो हमारे सौरमंडल का सबसे ताकतवर देवता है!

इंद्र तो शिश्न था यानी पुरुष… उसने तपस्या के जरिए अपने बचाव का रास्ता निकाल लिया, लेकिन बेचारी अहल्या का क्या! वह तो खामखाह चक्कर में फंस गई। उसने तो इंद्र को अपने साथ सहवास के लिए आमंत्रित नहीं किया था। … अगर किया भी था तो सजा की काट दोनों के लिए समान होनी चाहिए थी। इंद्र को तो ब्रह्मा ने छप्पर फाड़ हजार आंखों के बराबर ज्योति दे दी… मगर अहल्या? उस बेचारी को तो त्रेता युग तक, जब तक कि उस दौर के महानायक राम की ठोकर नहीं मिली, बुत की तरह दो युगों के संधिस्थल पर सोए रहना पड़ा। मुक्त होने के बाद भी उसे अपनी ही योनि मिली। न पति गौतम मिला और न प्रेमी इंद्र!… बेचारी अहल्या! सैकड़ों सालों तक दो युगों के संधिस्थल पर पड़ी रही, मगर कभी भी अपनी पहचान नहीं बन पाई।
चलिए, पहले इंद्र-अहल्या से जुड़े पौराणिक प्रसंग पर विचार करें!

भारत में आर्यों के राजा इंद्र के सत्तासीन होने से पहले जिन मातृदेवियों का एकछत्र साम्राज्य बताया जाता है, उनमें पांच का विशेष जिक्र आता है – सीता, अहल्या, द्रोपदी, तारा और मंदोदरी। आर्यों की संस्कृति में इन पांचों का उल्लेख संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों के रूप में आता है। ये पांचों सर्वशक्तिमान स्त्रियां थीं, सुंदर, वीर, कुशल और सृष्टि का विस्तार करने में दक्ष। ये न होतीं तो इंद्र सृष्टि का कितना ही विशाल वीर्य बैंक क्यों न होता, बिना इनकी मदद के इतना बड़ा ब्रह्मांड कैसे रच सकता था, लेकिन औरत तो औरत ही है न। अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए आर्यों ने राजा इंद्र के नेतृत्व में मातृदेवियों के साथ युद्ध किया। स्त्रियां पराजित तो नहीं हुईं, लेकिन आर्यों ने मां का संबोधन देकर उन्हें अपने वश में कर लिया। … स्त्री की सबसे बड़ी कमजोरी – मातृत्व!… पुरुष आर्यों ने पांचों सुंदरियों को देवी-मां (माई-योगिनी) बनाकर अपने साथ मिला लिया। उनसे मानवी का दर्जा छीन लिया गया, वे देवी बन गईं हमेशा-हमेशा के लिए। … (आख्यान के अगले हिस्से में इसके एक प्रमुख चरित्र 'दाड़िमी माईÓ के रूप में आप इस 'देवी-मांÓ के दर्शन करेंगे। )

मगर यह गौतम कौन था? महाराज जनक का उप-पुरोहित गौतम ऋषि अंतरिक्ष में निवास करने वाले प्रसिद्ध सप्तऋषियों में से एक था, जिसके व्यवहार से खुश होकर ब्रह्मा ने अपनी सबसे सुंदर सृष्टि अहल्या (मातृदेवी) का उससे विवाह कर दिया था… हल (पाप) से मुक्त अहल्या!… क्या था अहल्या का पाप और किस पाप से मुक्त की गई थी वह त्रेता युग के महानायक राम के द्वारा?… इंद्र के द्वारा अपनी वासना को शांत करने का फल उसे ही क्यों जन्म-जन्मांतर तक भोगना पड़ा? इंद्र के साथ सहवास की पहल क्या अहल्या ने की थी?… (वैदिक धर्म के प्रचारक कुमारिल भट्ट ने इंद्र और अहल्या के प्रेम का आध्यात्मीकरण करते हुए इंद्र को सूर्य और अहल्या को रात्रि या भूमि का प्रतीक मानते हुए अहल्या की देह पर इंद्र का शयन प्रकृति का शाश्वत नियम बताया है… आकाश के द्वारा धरती की देह में हमेशा रमण करते हुए सृष्टि का विस्तार करने वाला स्वर्गवासी देवता इंद्र। )

लेकिन रुकिए! इस विचित्र कथा के बीच एक और रोचक व्यक्ति आता है : पुरुवंशी महाराज गाधि का पुत्र ब्रह्मर्षि विश्वामित्र। भारतीय पुराणों में इंद्र से लेकर विश्वामित्र तक न जाने कितने चरित्र हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते, जो शाश्वत और सनातन वीर्यकोश के प्रतीक हैं और जिनमें आजीवन सुंदरियों के साथ रमण की इच्छा बनी रहती है… जिनके लिए जीवन की सिर्फ एक ही सार्थकता है, स्त्री की कोख में वीर्य ढालकर उसका विस्तार करके सृष्टि पर कृपा करना। …
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय और हिंदू संस्कृति में इंद्र जैसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है। इंद्र ही एकमात्र ऐसा चरित्र है जिसके बारे में आज तक भी यह पता लगा पाना मुश्किल है कि उसका कौन-सा पक्ष मिथक है और कौन-सा इतिहास। ऋग्वेद में चित्रित सारे महानायकों के बीच वही एकमात्र मानव है, दूसरों की तरह अतिमानवीय शक्तियों का मानवीकरण नहीं। ऋग्वेद में मौजूद कुल तैंतीस देवताओं को उनके आवास के आधार पर तीन भागों में बांटा गया है – स्वर्ग में रहने वाले, अंतरिक्ष में रहने वाले और धरती पर रहने वाले।

पहली कोटि में सूर्य, उषा, रात्रि, द्यौ (आकाश), मित्र, वरुण और अश्विन आते हैं, जबकि अंतरिक्ष में रहने वाले देवता हैं : इंद्र, रुद्र, मरुत् (गण), पर्जन्य, वात, आपस (जल) और अपांनपात्। सोम, अग्नि, पृथ्वी तथा कुछ नदियों का निवास धरती पर है। इनके अलावा कुछ जुड़वां देवता भी हैं जो एकरूप होकर विचरण करते हैं : मित्रावरुण (मित्र और वरुण), इंद्राग्नि (इंद्र और अग्नि) तथा द्यावापृथिवी (स्वर्ग और भूमि)। वाक् (वाणी) को स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री की तरह स्वतंत्र दैवत्व प्राप्त है, जो सरस्वती का पूर्वरूप है। इनके अलावा बिना विभाग वाले मंत्रियों की तरह कुछ देवता आदमी के मनोभावों के सप्राण प्रस्तुतीकरण हैं – श्रद्धा, मन्यु (क्रोध, अहंकार), अनुमति, आरमति (भक्ति) आदि। … इंद्र इन सबमें एकदम अलग और मनुष्य की आदिम शक्ति और सीमा का जीवंत प्रतीक है। उसे सच ही सर्वशक्तिमान कहा गया है…

आख्यान को आगे बढ़ाने से पहले एक और जिज्ञासा का समाधान कर लेना जरूरी है। क्या इंद्र अहल्या-गौतम दंपत्ति का एक मामूली पड़ोसी था या उनका मित्र था? वह अगर देवकीनंदन खत्री के तेज सिंह ऐयार की तरह गौतम का वेश धारण करके अहल्या के पास गया तो अहल्या ने उसे इतनी आसानी से अपना शरीर क्यों सौंप दिया? आखिर पति और प्रेमी की गंध में फर्क तो होता ही होगा। सारे तामझाम के बावजूद यह संशय अपनी जगह तो है ही कि इंद्र या गौतम की गलती का दंड अहल्या को ही क्यों भोगना पड़ा… अहल्या को तो समय की शिला पर कैद करके आजन्म कारावास का दंड मिला… कोठार गांव की हमारी दाड़िमी माई की तरह… जबकि दोनों पुरुषों को ऐसा कोई दंड नहीं मिला। खैर, कहानी को विस्तार देने से पहले आपके साथ इस कथा की प्रधान पात्र दाड़िमी माई से आपका परिचय करा दूं।

लछुवैकि नौ कुड़ी बाखइ और दाड़िम बुड़ि
(लछुवा कोठारी की नौ घरों की शृंखला और दाड़िम बुढ़िया)

पाठकों को याद होगा, लछुवा कोठारी ने अपनी नौ संतानों में हरेक के लिए एक-एक 'कुड़िÓ यानी घर बनाने का निर्णय लिया था, जिन्हें बनाने के उत्साह में उसके बेटों ने गंगोली का सारा जंगल काट डाला था। लोककथा में इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि लछुवा कोठारी की संतानों के घर कब बने, बने भी या नहीं, मगर आज भी गंगोली गांव में नौ घरों की एक बाखई (शृंखला) मौजूद है, जिसे 'लछुवैकि नौ कुड़ी बाखइÓ यानी 'लछुवा कोठारी के नौ घरों की शृंखलाÓ कहा जाता है। लोककथा में लछुवा कोठारी का समय नहीं बताया गया है, सिर्फ इतना कहा गया है : 'बहुत पुराने जमाने की बात है…Ó कमिश्नर ओकले और पंडित उप्रेती के लिए यह मामूली बात रही होगी इसलिए उन्होंने चलताऊ ढंग से बात कह दी, मगर मेरे लिए तो इस कथन ने संकट ही पैदा कर दिया है।

पिछले दिनों हमारी इस बाखइ की आखिरी निशानी 'दाड़िम बुड़िÓ चल बसी थी। … स्वाभाविक है कि आपके मन में सवाल उठेगा कि यह दाड़िम बुड़ि है कौन, और ऐसे विचित्र शब्द का मतलब क्या है। … दाड़िम के आकार के, असंख्य झुर्रियों वाले चेहरे वाली इस बुढ़िया में धरोहर बनने का तत्व तो मौजूद है, मगर इस खूसट बुढ़िया को भारतीयों के आदि-पुरुष इंद्र के साथ जोड़ने का कुछ और मतलब है। इस राज को मैं कथा के अंतिम वाक्य में ही उजागर करूंगा, इसलिए थोड़ा धैर्य धरें।
दाड़िम बुड़ि का परलोक गमन दूसरी वृद्धाओं से एकदम अलग तरह का था। 'परलोकÓ शब्द का प्रयोग मैं यहां पर अपनी दाड़िम दादी की तरह ही पूरी आध्यात्मिक श्रद्धा के साथ कर रहा हूं। आज से करीब सत्तर-अस्सी साल पहले, जब उसका इस संसार में आगमन हुआ था, तभी से वह पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ तीनों लोकों के अस्तित्व में यकीन करती आ रही थी। उसके मां-बाप ने भी उसे यही सिखाया था और बाद में सास-ससुर और समाज ने भी, कि इस दुनिया में तीन लोक होते हैं, एक हमारे वर्तमान का, दूसरा हमारे अच्छे कर्मों का और तीसरा हमारे ही नीच कर्मों का। जब तक हमारे अंदर सांस है, हम अपने इस लोक में रहते हैं, मरने के बाद अगर हमने अच्छे कर्म किए होते हैं तो स्वर्गलोक में जाते हैं या फिर बुरे कर्मों को भोगने पाताल लोक में। इन तीनों लोकों के बीच ही अपनी जिंदगी का संतुलन संभालते हुए दाड़िम दादी बच्ची से जवान, फिर अधेड़ और फिर बूढ़ी हो गई, मगर आज तक यह तय नहीं कर पाई कि उसने जो कर्म किए उनके आधार पर वह किस लोक में जाने की अधिकारिणी है।

घुटनों तक का झगुला पहनने वाली उस बच्ची का चेहरा कब कच्चे सेब के रंग से गुजरता हुआ पके सेब-सा और फिर कब खेत के कोने में फालतू पड़े गेठी के दाने-सा कुरूप हो गया था, यह बात उसे खुद नहीं मालूम। दरअसल, इस तरह से उसने कभी सोचा ही नहीं। बचपन में तो वह सारी चीजों से बेखबर सामने पहाड़ी पर उगे हुए हिमालय की ऊंचाइयों की छत पर पसरे हुए आकाश में चिड़िया की तरह उड़ते रहना चाहती थी, मगर बचपन में ही जब उसकी शादी कर दी गई वह कुछ देर तक के लिए ठहरी जरूर थी मगर जिंदगी का लंबा सिलसिला कब अजीब-सी करवट बैठ गया, उसे खुद नहीं मालूम… मगर यह बहुत बाद की बात है!…
पहले आप दाड़िम बुड़ि के घर 'नौ कुड़ी बाखइÓ के बारे में कुछ और विस्तार से जान लीजिए। यह तो आपको पता लग ही चुका है कि यह बाखइ लछुवा कोठारी की नौ संतानों ने अपने-अपने लिए बनाई थी, ताकि सैकड़ों सालों तक सारे भाई एक साथ बने रहें। लछुवा कोठारी का समय भले ही आज के दिन हमें मालूम न हो, उन देवदार के पेड़ों के हवाले से, जिनकी लकड़ी इन मकानों में लगाई गई है, इतना तो विश्वास के साथ कहा ही जा सकता है कि वह बाखइ कम-से-कम चार-पांच सौ साल पुरानी तो होगी ही। सवा सौ साल पहले ओकले और उप्रेती ने इस लोक-कथा को लिपिबद्ध किया था, जिसमें उन्होंने इसे 'बहुत पुराने जमानेÓ की बात कहा था। तभी से हमारे गांवों में पुश्त-दर-पुश्त यह कहावत चली आ रही थी… देवदार का पेड़ सौ साल खड़ा, सौ साल पड़ा और सौ साल सड़ा!… यानी तीन सौ सालों तक तो उसे धरती पर कोई मिटा नहीं सकता… रही बात घरों की शृंखला 'बाखइÓ की… पहाड़ी बाखइ की खासियत यह भी है कि इसमें रहते हुए लोग संयुक्त परिवार के साथ-साथ स्वतंत्र परिवार में रहने का आनंद ले सकते हैं। सबका चूल्हा-चौका और आंगन-गोदाम अलग होता है, मगर सारे मकान पंक्ति में एक-दूसरे से जुड़े रहने के कारण एक बड़ी हवेली का अहसास कराते हैं मानो एक बड़ा परिवार एक ही चारदीवारी में रहता हो। यानी नौ कुड़ी बाखइ में चार-पांच सौ वर्षों से नौ परिवार संयुक्त परिवार के रूप में रहते चले आ रहे थे!

कुमाऊं जिले के परगना गंगोली, पट्टी बेरीनाग का कोठार गांव, जिसमें नौ घरों वाली बाखइ आज भी मौजूद है, एक ऊंची चोटी के लगभग मध्य में बसा हुआ बेहद सुंदर गांव है। उत्तर दिशा में हिमालय का अर्धचंद्राकार विस्तार है… और हिमालय तथा धरती के मिलनस्थल पर आज भी देवदार के विशालकाय वृक्षों की कतारें ऐसी लगती हैं, मानो हिमालय के पहरेदार देवताओं के रूप में एक पंक्ति में खड़े उसकी रखवाली कर रहे हों। समुद्र सतह से सवा दो हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह गांव आज भी अपने शिखर पर विशालकाय सुरंगों के रूप में उन नौ नौलों की स्मृति संजोए हुए है जिन्हें बनाने का आदेश किसी जमाने में लछुवा कोठारी ने अपनी नौ लाटा-संतानों को दिया था। उन नौलों में पानी तो कभी नहीं रहा, संभव है कि वे मूल रूप में नौले नहीं, प्राकृतिक सुरंगें रही हों, मगर गांव वाले आज भी उन्हें पूरे विश्वास के साथ 'लछुवा कोठारी के नौलेÓ ही कहते हैं।

मेरा अपना संपर्क भी इस बाखइ से कहां रहा? बचपन से लेकर आज तक वह बाखइ फिल्मों की भुतहा हवेली की तरह मेरी स्मृति में बसी हुई है। बचपन की स्मृतियां… उनकी अपनी अलग चाल होती है… वो जमाने के अनुसार बदलती ही कहां हैं। जमाना अपनी रौ में बहता है, जबकि स्मृतियों की अपनी अलग दीवानी चाल होती है। ऐसी ही एक अलग और निराली चाल है इस 'नौ कुड़ी बाखइÓ की! विशाल पहाड़ी के मध्य में बसा हुआ गांव कोठार और उसके माथे पर इतमीनान से पड़े हुए पुराने सूखे वृक्ष की तरह नौ कुड़ी बाखइ… मानो कोई विशालकाय जिन्न एक पराजित योद्धा की तरह सारी चीजों से बेखबर सदियों से हमारी इस पहाड़ी के मध्य में पसरा हुआ हो।

घने पेड़ों, झाड़ियों और जलस्रोतों से घिरे कोठार गांव के शिखर पर जो रहस्यमय सुरंगें हैं (गांव के लोग जिन्हें 'नौलेÓ कहते है), उन्हें लेकर दाड़िम दादी के जीवन काल में भी अनेक किस्से और किंवदंतियां प्रचलित थीं। नौ विशालकाय लंबी सुरंगें… लोकजीवन ने उनके साथ महाभारत की कथा के न जाने कितने प्रसंग जोड़ डाले थे। भूवैज्ञानिकों के अनुसार चूने की चट्टानों के भ्रंश से बनी ये सुरंगें महाभारतकार व्यास और लछुवा कोठारी के वंशजों की कल्पनाशीलता के समन्वय के अद्भुत नमूने हैं। एक गुफा में अर्जुन अपने धनुष से सैकड़ों कौरवों पर एक साथ निशाना साध रहा है; उसी तरह की दूसरी गुफा में एक भारी गोल शिला के रूप में उसका भाई भीम सिंह कोठारी बगल में आकर बैठ गया है और अपनी विशाल गर्जना के द्वारा दुर्योधन की जांघ पर प्रहार करते हुए कौरवों को हवा में उड़ते सूखे पत्तों की तरह भगा रहा है। अर्जुन अपने अचूक निशाने से एक-एक कौरव को घायल करके धराशायी कर रहा है। … चारों ओर चूना- पत्थर के टुकड़ों के रूप में सैकड़ों कौरव हाहाकार मचाए हुए हैं। …

एक और 'नौलेÓ में चकमक पत्थर की शिला के रूप में सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर खड़े उपदेश दे रहे हैं, तो अगली सुरंग में नकुल और सहदेव अपने-अपने तीर ताने गंगोली के देवदार वन की चौकीदारी कर रहे हैं। उनका नाम भी गांव वालों ने 'नौ कुल कोठारीÓ और 'सौ देव कोठारीÓ रख दिया है। … दाड़िमी को पांचवे नौले की 'दुर-पतीÓ सबसे प्रिय रही है, जो पांच भाई पांडवों से घिरी हुई साक्षात दुर्गा जैसी लग रही है… द्रौपदी की धोती इतनी लंबी है कि वह पाताल लोक के आखिरी कोने तक चली गई है, फिर भी उसका सिरा किसी को नहीं दिखाई दे रहा है… न किसी देवता, न मनुष्य और न राक्षस को। आठवीं सुरंग में एक ओर गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को धनुष-विद्या सिखा रहे हैं, तो दूसरी ओर चारों तरफ फैले नुकीले पत्थरों के बिस्तर पर सोए बाबा भीष्म द्रौपदी की हालत को देखकर दहाड़ मार-मार कर रो रहे हैं। दाड़िम दादी बचपन से ही जब भी इस नौले में जाती, सारे पांडवों के साथ हमेशा अपने आंसू भी चढ़ा आती। उसके जन्म के पहले से ही गंगोली के लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि आंसुओं का यह चढ़ावा ही उन नौलों रूपी मंदिर का प्रसाद होता है। जो भी भक्त यहां आता, दहाड़ मारकर अपनी भावना के कुछ आंसू यहां चढ़ा जाता और ऐसा करके उसे पूरा भरोसा होता कि भगवान उसकी मनोकामना पूरी कर देंगे।

दस साल की उम्र में, जिस दिन दाड़िम दादी की शादी हुई थी, उसने सबसे पहले इस आठवें नौले में ही जाकर घंटों आंसू बहाए थे और पांडव देवताओं से अपनी सुरक्षा और खुशहाली की ढेरों मन्नतें मांगी थीं। उसके मायके का गांव सामने की पहाड़ी पर था, जहां से वह बचपन से ही इन सारे 'पांडवों के नौलोंÓ को देख सकती थी। मायके के गांव के लोग भी यही मानते थे कि अपने हाथों में धनुष-बाण लिए अर्जुन, भीम सिंह, नौकुल और सौदेव कोठारी तथा सारी धरती के बराबर लंबी धोती पहनने वाली दुरपती चौबीसों घंटे उनकी रखवाली करते रहते हैं… उन्हीं के कारण उन पर कभी कोई विपत्ति नहीं आती। … जिस दिन इन नौलों से बाहर निकलकर उनके ये देवता रूठ जाएंगे, सारी दुनिया में 'परलयÓ आ जाएगा। …

और उस दिन सचमुच प्रलय आ ही गया था।
दाड़िम दादी जिस दिन कोठार गांव में ब्याह कर लाई गई थी, उसकी उम्र क्या रही होगी… मुश्किल से दस साल! इसके बाद उसकी जिंदगी के कितने दिन सुख से बीते होंगे… मुश्किल से दस और साल! मगर वो दस साल पांडव देवताओं की कृपा से बहुत ही अच्छे बीते। तब वह दाड़िम दादी नहीं, दाड़िम बहू थी। उसके जीवन की संचित मधुर स्मृतियां इसी दौरान की हैं। एक दिन उसका पति मोहनियां कोठारी चल बसा। सारा गांव उसके शोक में डूबा। दाड़िम बहू से भी अधिक बुरा लगा गांव के लोगों को। लेकिन जैसे सारा गांव एक दिन उस दुख को भुलाकर रोजमर्रा के कामकाज में व्यस्त हो गया, दाड़िम बहू भी जिंदगी के पुराने ढर्रे में लौट आई। सारे दु:ख भूलकर वह बांज, देवदार, कलौंज, भीमल, काफल, बेड़ू और उतीस के जंगल की दुनिया का अंतरंग हिस्सा बन गई। जंगल से लकड़ी, घास और कंदमूल लेने के लिए आते-जाते वह पेड़ों से बतियाती रहती, उनके नीचे बैठकर पल भर के लिए सुस्ताती और इस तरह उनके साथ उसकी गहरी दोस्ती हो गई थी। सारे पेड़ और गुफाओं-सुरंगों में रहने वाले पशु-पक्षी उसके भाई-बहिन जैसे ही बन गए थे और वह उनके साथ अपनी छोटी-छोटी बातें बांटती… हर तरह के सुख-दुख। इन दस सालों में ही उसने गंगोली के कोठार गांव के आसपास के जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौंधों की भाषा सीख ली थी। दाड़िम बहू उन सबसे बतियाती और उनके दुख-सुख ध्यान से सुनती। उसने कोठार गांव के जंगल में अपनी सुखी दुनिया बसा ली थी।

कोठार गांव की सीमा पर जो तुन, बांज, देवदार के घने और सेमल, पीपल और च्यूर के इक्का-दुक्का पेड़ खड़े थे, वही गांव को शेष दुनिया से अलग करते हैं। उन्हीं की जड़ों पर से जन्म लेने वाले जलस्रोत कहीं पर धरती के अंदर और कहीं जमीन के ऊपर झरनों के रूप में बहते हुए नीचे घाटी में बहती सर्पाकार नदी में मिल जाते हैं। नदी किनारे खूब लंबे-चौड़े खेत हैं, जिनमें धान और दूसरे पहाड़ी अनाजों की खेती होती है। दाड़िम बहू का वक्त इन सब के बीच कब गुजर जाता था, इसके बारे में उसने कभी नहीं सोचा। पति की स्मृति उसके दिमाग में सिर्फ इतनी-सी है कि कोई एक लड़का उसे अपने साथ कोठार गांव ले आया था… बस! वह कौन था, उसके साथ उसकी क्या भूमिका थी, इसके बारे में न उसे बताया गया था और न वह जानती थी।

शादी के बाद के उन दस वर्षों के छितराए हुए-से समय के टुकड़े को वह तरतीबवार याद नहीं कर सकती… हालांकि उसे लगता है कि उसी टुकड़े ने उसे जिंदगी की पहचान दी है। फिर भी, जीवन की इस कठिन यात्रा के बाद वह उस छोटे-से टुकड़े को आज भी साफ-साफ याद कर सकती है। …
उस दिन वह अपनी बाखली के आखिरी छोर वाले घर में आग लेने गई हुई थी। यह रोज का नियम था। हर घर का चूल्हा दूसरे के घर से मांग कर लाई गई आग से जलता था और आग के ये छोटे-छोटे टुकड़े (जिन्हें इनरुवा लाटा 'अग्नि देवताÓ कहता था) सिर्फ चूल्हे की लकड़ियों को ही नहीं, गांव भर के लोगों के दिलों में मौजूद आलोक को भी प्रकाशित करते हुए एक-दूसरे के साथ जोड़ते थे।

सुबह का उजाला चारों ओर फैल चुका था। अधिकांश सयानी औरतें गोठ में भैंसों को दुहकर रसोई में उसे कढ़ाई में गरम करने की जुगत में व्यस्त थी। कम उम्र की लड़कियां और बहुएं एक घर से दूसरे घर तक आग के आलोक का आदान-प्रदान कर रही थीं। लड़के आंगन के पेड़ों-झाड़ियों पर उत्पात मचा रहे थे और प्रौढ़ पुरुष सूरज की ओर मुंह किए, माथे के ऊपर हथेली की ओट लगाए दिन भर के कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करने की कोशिश कर रहे थे।

"आग चाहिए, एक पोत (चिंगारी)ÓÓ, दाड़िम बहू ने, जो तब छलकती किशोरी थी, गृहस्वामी इनरुवा कोठारी से कहा था।
"निकाल ले जा दो पोत… छार में दबा हुआ है जला कोयलाÓÓ, इनरुवा लाटा ने अपने छज्जे पर बैठे-बैठे ही कहा। उसकी आंखें बाहर आंगन के कोने पर खड़े दाड़िम के पेड़ पर थीं। उसी पल इनरुवा की नजर दाड़िम बहू के चेहरे पर पड़ी। … 'दोनों आपस में कितने मिलते हैं… दाड़िम बहू और खेत के किनारे खड़े पेड़ पर लटका दाड़िम का फल…Ó इनरुवा के दिमाग में विचार कौंधा… मगर उसने उसे वाणी नहीं दी।
'आग का पोत मैंने निकाल लिया है और कोयले को फिर से छार से ढक दिया है। उससे अपने चूल्हे की आग जलाकर पोत को फिर से छार से ढक देना, हां…Ó दाड़िम बहू ने कहा।
दाड़िम बहू का चेहरा ओझल हो जाने के बाद भी देर तक इनरुवा की आंखों के सामने टंगा रहा। उसने उस चेहरे को पूरी हिफाजत से सहेजकर रख लिया। दाड़िम बहू को इसकी कोई खबर नहीं थी, वह रोज ही आग लेने के लिए इनरुवा के घर जाती, हालांकि कुछ दिनों के बाद वह शाम की आग लेने के लिए भी उसके घर जाने लगी। आग लेने का यह सिलसिला लगातार चलता रहा, एक दिन हर रोज लाई जाने वाली उस चिंगारी ('पोतÓ) ने सचमुच ही पूरे गांव में आग दहका दी।
…'शास्त्रÓ शब्द दाड़िम बहू ने उस दिन पहली बार सुना था। …

'शास्त्रों के अनुसार यह घनघोर पाप है। दस दिनों के बिरादर को जूठा कर दिया है इस पापिन ने!… हमें क्या मालूम था कि यह आग लेने नहीं, बिरादरी में आग लगाने उस घर में जाती है।Ó पुरोहित केशवानंद ने कहा था।

'सात फेरे किसी और के साथ लिए और अपना पेट भर लिया किसी और के साथ जाकर!Ó निचली धार में रहने वाला भिमुवा ल्वार अपने ऑफर (भट्टी) में दराती की धार को जलाकर पीटता हुआ बड़बड़ा रहा था।

दाड़िम बहू की समझ में कुछ भी नहीं आया था। कैसी बातें कर रहे हैं ये लोग। वह तो यही समझती रही थी कि आग का यह लेन-देन उनके स्नेह और उपकार का आदान-प्रदान है।

'इनरुवा हो, क्या हुआ ये सब?… दाड़िम भौजी के बारे में क्या कह रहे हैं लोग-बाग?Ó नदी किनारे अपने घट (पनचक्की) के अंदर ही रहने वाला शेरुवा, जिसका पूरा शरीर हमेशा आटे से रुई के फाहों की तरह ढका रहता था, पानी की गूल से ही इनरुवा को देखकर आंखों के ऊपर हथेली की ओट देकर चिल्लाया।
'ठीक ही कह रहे हैं। अच्छा ही होता अगर वह मेरे घर आ जाती। …Ó घट की चक्की के शोर के बीच ही हकलाते हुए चिल्लाया इनरुवा, 'आग देवता को लेने तो रोज ही आती है वह, कितना अच्छा होता अगर ऐसा हो ही जाता।Ó इनरुवा याद करने की कोशिश करने लगा कि वह लछुवा की संतानों की कितनी पीढ़ियों के बाद इस दुनिया में आया होगा। … कम से कम सत्तर-अस्सी पीढ़ियां तो तब से लेकर आज तक गुजर ही चुकी होंगी। …

इनरुवा लाटा दूसरे ही दिन गांव के सबसे बुजुर्ग घुरू-बू के पास गया। पैंसठ वर्षीय लंबे चौड़े सुदर्शन रूपाकार वाले घुरू-बू जगत् दादा थे, सभी लोग उन्हें 'बूबूÓ (दादा) पुकारते। घुरू-बू इनरुवा के प्रकरण से परिचित थे, फिर भी सारे मामले को उन्होंने इनरुवा की जुबानी सुना तो अपना निर्णय देने में वह खुद को सहज महसूस करने लगे। पहली बार इनरुवा को कोई मिला जो उसकी भावनाएं समझता था। खुद इनरुवा को भी घुरू-बू से इतने आत्मीय और सद्भावनापूर्ण व्यवहार की उम्मीद नहीं थी, 'ठीक कह रहा है रे इनरुवा। मैं तेरे साथ हूं। तू जैसा करना चाहता है कर ले, फिकर मत कर। … हं रे, तू तो इनरुवा ठैरा, साक्षात इंदर भगवान का अवतार। क्यों? तब फिर डरना कैसा?Ó

गांव में जिसने भी घुरू-बू की बात सुनी, भौंचक रह गया। बात घुरू-बू ने कही है तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता, हालांकि ऐसी बात को गलत कैसे नहीं माना जाय! सारे शास्त्र जिसे गलत कहते हैं, घुरू-बू उसे कैसे सही कह सकते हैं। … बात कैसी भी क्यों न हो, गलत बात को सही तो नहीं कहा जा सकता है न!… ये क्या हो गया घुरू-बू को?…
इनरुवा को पूरे समाज का विरोध झेलना पड़ा, मगर अकेले घुरू-बू का समर्थन उसके पास इतनी बड़ी ताकत थी कि उसने फैसला किया कि वह किसी की परवाह नहीं करेगा। पूरे गांव के पीछे शास्त्र की ताकत थी जब कि इनरुवा के पीछे अकेले घुरू-बू की, जो भीष्म पितामह की तरह उसके सामने खड़े थे। भीष्म पितामह के बारे में भी इनरुवा को घुरू-बू ने ही बताया था। उसे यह सोचना अच्छा लगा कि वचन के पक्के उसके दादा एकदम भीष्म पितामह की तरह हैं। भीष्म पितामह ने भी तो मछुआरे की बेटी के साथ अपने पिता की शादी करवाने के लिए आजन्म ब्रह्मचारी रहने का फैसला लिया था। ठीक उसी तरह घुरू-बू भी बिरादरी की परवाह किए बगैर उसका समर्थन कर रहे थे। इनरुवा को अपनी बात पर इसलिए भी भरोसा था कि ऊपर शिखर पर पांडवों के नवें नौले में नुकीले चकमक पत्थरों के बिस्तर पर सोई हुई भीष्म पितामह की महान आत्मा जिस तरह सैकड़ों सालों से कोठार गांव की रखवाली करती रही है, घुरू-बू की कही गई बात भी एक दिन सच होकर रहेगी।

दाड़िमी बहू नौकुड़ी बाखइ के बांई तरफ के आठवें घर में रहती थी, जबकि बाखइ का दाहिनी ओर से पहला घर इनरुवा का था। बीच में पूरे सात घर पड़ते थे और सभी में भरे-पूरे परिवार रहते। पूरी बाखइ में खूब चहल-पहल रहती, इस सबसे बेखबर इनरुवा हमेशा दाड़िमी बहू की यादों में खोया रहता। हर वक्त वह अपने मन में दाड़िमी के बिंब बनाए रखता… काश, उसके घर के एकांत में महज दो लोग होते – इनरुवा और दाड़िमी।

एक दिन हिम्मत करके चौथे घर वाले खीम सिंह कोठारी ने कहा इनरुवा से, 'हं रे इनरुवा, दाड़िम का आदमी मोहनियां तुम्हारा दस दिन का बिरादर हुआ। खून का रिश्ता हुआ तुम दोनों के बीच। … कैसी अनहोनी कर रहा है तू? ऐसा कैसे हो सकता है।Ó
अपने सदाबहार शांत मिजाज में हकलाते हुए बोला इनरुवा, 'हो क्यों नहीं सकता खिमू कका, उसे अपनी जिंदगी खुशी के साथ गुजारने का हक है कि नहीं? क्यों जीतेजी बेचारी को नरक में धकेल रहे हो!Ó

'वह विधवा है रे। विधवा की जिंदगी उसके आदमी के साथ ही खतम हो जाती है। कोई दूसरा आदमी उसकी जगह नहीं ले सकता। ऐसा शास्त्रों में कहा गया है, हमारे मन से सोची गई बात नहीं है।Ó

'घुरू-बू तो राजी हैं इस रिश्ते से। वह हमारे गांव के ही तो बुजुर्ग हैं। इतनी बड़ी उमर उन्होंने ऐसे ही नहीं गुजारी है। अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित का उनको तुमसे ज्यादा ज्ञान है। नहीं है तो तुम ही बताओ कि मैं कैसे गलत हूं। शास्त्रों की बात को छोड़कर। क्यों?Ó

'कैसी बात करते हो इनरुवा। शास्त्रों के फैसले बाद कहने को रह ही क्या जाता है! जहां शास्त्र का ठप्पा लगा, बात खतम।Ó खीम सिंह कोठारी ने भी अपनी बात खत्म की। …
'आदमी से बड़ा इस संसार में और कोई नहीं है इनरुवा,Ó घुरू-बू ने एक दिन इनरुवा को अपने घर बुलाकर कहा। घुरू-बू का घर 'दरमाड़िÓ कोठार गांव के निचले छोर पर था। पत्थर की छत और देवदार के तख्तों से बनी पहली मंजिल के फर्श पर नक्काशीदार दो खिड़कियां और उनके बीच विशालकाय मुख्य दरवाजा था, जिसे 'खोलीÓ कहा जाता था। यह मकान घुरू-बू की पांच पीढ़ी पहले के पुरखे ने बनाया था। तीसरी पीढ़ी के परदादा की पांच संतानें थीं – तीन बेटे और दो बेटियां। तीन बेटों में से घुरू-बू के दादा को छोड़कर दो बेटे ऊपर गांव में मकान बनाकर बस गए थे और दादा के भी जो दो लड़के हुए, उनमें ताऊ ने विवाह नहीं किया। घुरू-बू अकेली संतान, अपने ताऊजी के पदचिह्नों में चलते हुए इतने बड़े घर में अकेले रहने लगे। बहनों की शादी हो चुकी थी, कभी-कभार कोई बहन भेंट करने के लिए मायके चली आतीं। घुरू-बू का सारा वक्त कभी घर में अकेले और कभी गांव में लोगों के विवाद निबटाने में बीतता। यों भी, उनका वक्त अपने घर में कम ही बीतता था।

हिंदुस्तान के नक्शे में जो स्थिति श्रीलंका की है, उल्टे त्रिभुजाकार गांव कोठार से जुड़े घुरू-बू के घर दरमाड़ि की स्थिति ठीक वैसी ही थी। खुद घुरू-बू को भी मालूम नहीं था कि उनके घर का नाम दरमाड़ि क्यों पड़ा और किसने यह नाम इस घर को दिया। दरमाड़ि से गांव का आखिरी घर दस-बारह छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेतों के बाद था इसलिए गांव के लोग जब भी उनके घर का जिक्र करते, ऐसे करते मानो किसी दूसरे गांव की बातें कर रहे हों।

इस रूप में अनेक बार लोग दरमाड़ि का उल्लेख एक अलग गांव या कभी गांव के उपनिवेश के रूप में किया जाता। एक ऐसा उपनिवेश, जिसका भूगोल अपने मूल स्थान से अलग नहीं है, फिर भी वह अलग दिखाई देता है। यह स्थिति गांव के संदर्भ में ही नहीं, घुरू-बू के बारे में भी उतनी ही सच थी, जिनका रहन-सहन और वैचारिक स्तर पूरे गांववासियों से एकदम फर्क था। घुरू-बू को इसका लाभ इस रूप में मिल जाता कि उनके नाम की पहचान दोनों जगहों के साथ जुड़ गई थी, हालांकि उनकी अलग पहचान 'दरमाड़ि के घुरू-बूÓ के रूप में ही थी। लोग जितनी सहजता से उनके आवास के लिए 'घुरू-बू का कोठार गांवÓ का प्रयोग करते, उसी तर्ज पर 'घुरू-बू की दरमाड़िÓ कहते।
दरमाड़ि के घर की खास पहचान उसके अगल-बगल उगे हुए च्यूर के दो भारी-भरकम पेड़ थे और यह पहचान इसलिए भी खास थी कि गांव में किसी और के पास च्यूर के पेड़ नहीं थे। च्यूर के लिए जिस तरह की समशीतोष्ण जलवायु की जरूरत होती है, पूरे इलाके में शायद दरमाड़ि ही उसके लिए उपयुक्त जगह थी। यह पेड़ कई रूपों में प्रयोग में लाया जाता था। इसके पत्तों को मवेशी बड़े शौक से खाते, भैंसें उन्हें खाकर गाढ़ा-स्वादिष्ट दूध देतीं, इसके फूल और फल मीठे और जायकेदार होते, बीजों को पेर कर बढ़िया दानेदार घी बनता था और घी निकालने के बाद जो खली बचती थी, उसे भी जानवर बड़े शौक से खाते। यह खली खेतों के लिए बेहतरीन जैविक खाद के रूप में भी इस्तेमाल की जाती।
दरमाड़ि की एक और खासियत यह थी कि यहां से नीचे घाटी में बहती नदी और ऊपर लछुवा कोठारी के नौलों की दूरी बराबर थी, यानी यह इलाके के ठीक मध्य में था। इतनी खासियतों के होते हुए भी यहां गांव की-सी चहल-पहल नहीं रहती थी। गांव की दो-एक औरतें (कभी एक और कभी दो) घुरू-बू के द्वारा पाली गई भैंस के लिए घास के कुछ पूले डाल जातीं और सुबह या शाम, जब भी सुविधाजनक होता, गोबर झाड़-बटोर कर खेत के किनारे खाद के ढेर में डाल जातीं। जहां तक भैंस का दूध दुहने की बात थी, यह काम घुरू-बू खुद ही करते। कभी अगर रात को गांव में ही रुकना पड़ गया तो किसी अनुभवी रिश्तेदार को दरमाड़ि भेज देते, जो भैंस को दुहकर उसके आगे घास-पात डाल आता।
घुरू-बू के गोठ में जो भी भैंस बंधी रही, हमेशा सीधी-सादी 'गऊ-देवताÓ रही… जिसने भी उसका थन छुआ, चुपचाप उसे ही दूध दे दिया। पानी का स्रोत बगल के खेत में ही था, जिसके चारों ओर उनके किसी पुरखे ने नौला चिन दिया था, इसलिए पीने और सिंचाई के लिए पानी की इफरात थी। मकान से लगे खेत का एक हिस्सा पुराने समय से ही हरी सब्जी, कंदमूल और लहसुन-प्याज-आलू-घुइयां वगैरह के लिए और उसी से चिपका हुआ दूसरा टुकड़ा तंबाकू के पौधे उगाने के काम में लाया जाता। तंबाकू की खेती करने के पीछे घुरू-बू का स्वार्थ सिर्फ नशे का अमल बुझाना नहीं था, गांव से अलग छिटकी इस पहाड़ी पर कुछ विषैले सांपों ने बिल बनाए हुए थे और घुरू-बू जानते थे कि सांप तंबाकू के खेतों के पास नहीं फटकते।

उस दिन जब घुरू-बू ने इनरुवा को दरमाड़ि बुलाकर गहरी आत्मीयता जताते हुए कहा, 'आदमी से बड़ा इस संसार में और कोई नहीं है इनरुवा,Ó तो जो बात सबसे पहले उसके दिमाग में कौंधी थी, यह थी कि भाड़ में जाएं बिरादरी वाले। उस बेचारी दाड़िमी को बेसहारा छोड़ देने का क्या हक है गांव वालों को! कहना तो बड़ा आसान होता है, लेकिन जिसको नरक भुगतना पड़ता है वही उसकी तकलीफ जानता है। गांव वालों का क्या जा रहा है बोलने में, निकाल दिए मुंह से दो आंखर। भुगतना तो भुगतने वाले को ही पड़ता है। …

उसी दिन घुरू-बू ने अपनी खास भाषा में इनरुवा को विस्तार से समझाया था कि उन लोगों का कुल-देवता भीष्म पितामह ऐसे ही देवता नहीं बन गया। सर्वगुण संपन्न इस गंगापुत्र को कदम-कदम पर सताया गया, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। लोग तो अपनी संतान के लिए कुर्बानी देते हैं, हमारे इस पुरखे ने अपने बाप के लिए कुर्बानी दी, अपनी सौतेली माता के लिए कुर्बानी दी। खुद आजन्म ब्रह्मचारी और राजपाट से दूर रहकर अपने पिता को उसकी प्रेमिका दिलाई। … अरे, जिस मोहनियां के पल्ले से उसको बांधा गया था, उसे दाड़िमी ने देखा ही कहां? आठ-दस साल की बच्ची थी वह उन दिनों। जिस दिन उसे होश आया, उसने तो सबसे पहले तुमको ही देखा न! अब तुम ही तो हुए उसके आदमी? बताओ, हुए कि नहीं? तुमको अपना फर्ज निभाना चाहिए कि नहीं… कहने दो शास्त्र को, जो कहता है। आदमी से बड़ा थोड़े ही है शास्त्र। शास्त्र को आदमी ने बनाया है, आदमी को शास्त्र ने नहीं। …

घुरू-बू और इनरुवा का यह सत्संग बहुत दिनों तक नहीं चल पाया। कुछ दिनों के बाद एक दिन अचानक घुरू-बू चल बसे। जब तक वह जिंदा थे, उन्होंने लोगों को समझाने की कोशिश की, समझाने में सफल भी होने लगे थे, लेकिन उनके न रहने पर समर्थकों का सुर ही बदल गया। लोगों ने एक-जुबान में कहना शुरू कर दिया कि वे लोग शास्त्र के खिलाफ नहीं जा सकते। इनरुवा के खिलाफ पुरोहितों ने मोर्चा संभाल लिया, कहते हैं उन्हीं में से किसी ने घुरू-बू के खाने में जहर मिला दिया था। अब मैदान एकदम साफ था, लेकिन इनरुवा अकेला पड़ गया। दाड़िम बहू अकेली पड़ गई। वे दोनों एक बनना चाहते थे, गांव वालों ने उनके सारे रास्ते बंद कर दिए।
पुरोहितों ने ही आखिर में रास्ता सुझाया, 'सबको इस संसार में जीने का अधिकार है। आत्महत्या करना अपराध है, लेकिन शास्त्र के खिलाफ आचरण करना उससे भी बड़ा अपराध। एक ही रास्ता है, दाड़िम बहू को देवता को समर्पित कर दिया जाए। इस तरह उसकी कोख में पल रहा जीव भी पवित्र हो जाएगा। उसे भी जीने का हक मिल जाएगा।Ó इनरुवा पागलों की तरह चिल्लाता रहा, इस बात की भीख मांगता रहा कि उसकी संतान उसे पालने दी जाए, लेकिन कोठार गांव का कोई आदमी उसके पक्ष में नहीं खड़ा हुआ। किससे बहस करता इनरुवा। उसकी भावनाओं को समझने वाले घुरू-बू नहीं रहे थे, उस तरह की सोच वाला आदमी वह कोठार गांव में कहां से लाता? कोठार के शिखर पर के नौलों में लिखी गई महाभारत की इबारत हालांकि अभी भी वहां थी, मगर अब उसे पढ़ने वाला कोई नहीं था। इनरुवा और दाड़िमी की लाख कोशिशों के बावजूद उनका पाठ गांव वालों की समझ में नहीं आया, न गांव वालों का पाठ उन दोनों की समझ में। …

कुछ महीनों के बाद नदी किनारे के एक उपेक्षित मंदिर में एक माई (भक्तिन) छोटे-से शिशु के साथ दिखाई दी। माई तो वहां लगातार ही रह रही थी, लेकिन बच्चा एक दिन गायब हो गया था। यह घटना इतनी जल्दी में घटित हुई कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। मिट्टी-पत्थर की काई-पुती, सीलन से गल गई दीवारों से घिरे इस मंदिर में बेडौल आकार के कुछ पत्थर और लोहे के त्रिशूल-चिमटे और घंटियां फर्श और दीवार पर रोपे गए थे, जो अब दाड़िमी माई के देवता थे। कोठार वालों ने दाड़िमी को इन देवताओं को समर्पित कर दिया था। कल तक उसके देवता इनरुवा को अपना पति स्वीकार करने की जिन लोगों ने अनुमति नहीं दी थी, आज उन्होंने ही एक साथ तैंतीस करोड़ पति उसे सौंप दिए थे। पत्थरों और त्रिशूल-चिमटों से सजे सीलन भरे जिस मंदिर में कल तक कोई झांकता भी नहीं था, अब कोठार ही नहीं, पूरे गंगोली इलाके के सयाने मर्द और औरतें हाथ जोड़े हुए माई के आशीर्वाद के लिए तरसते दिखाई देने लगे थे। …

इनरुवा कहां गया इस बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं पड़ा। कुछ लोगों का कहना था कि उसे एक बार दरमाड़ि के घुरू-बू वाले खाली घर में एक बच्चे के साथ घुसते हुए देखा गया था, लेकिन अपनी नौ कुड़ी बाखइ में वह फिर कभी नहीं लौटा। बाखइ का उसका घर घुरू-बू की दरमाड़ि की तरह बीरान हो गया। …

दो : पुनर्जन्म
इनरुवा जोगी और दाड़िमी माई
"नमोऽऽऽ नरैणÓÓ, दाड़िमी माई ने मंदिर के कोने में किसी भारी चीज के गिरने की आवाज सुनी तो अपेक्षाकृत जोर से कहा, "कौन है बाहर… परेशानी-तकलीफ में तो नहीं है कोई… नमो… नरैण!…ÓÓ
कोई उत्तर नहीं मिला तो ओढ़े हुए कंबल को कंधों से हटाकर बड़बड़ाती हुई खिड़की से झांकने के लिए उस ओर बढ़ी। बाहर अंधेरा था और कोहरा। ऐसे में कौन दिखाई देता। वापस आकर अपने तखतनुमा बिस्तर की ओर बढ़ने लगी तो किसी के कराहने और रोने की आवाज कानों में पड़ी। ऐसा लगा कि कोई बहुत तकलीफ में है। … इतनी सांझ को बरसाती फुहारों और ठंड के बीच कौन हो सकता है?…
इस बार वह लकड़ी के भारी दरवाजे की ओर बढ़ी। कमरे के दाहिने हिस्से में जल रही धूनी का उजाला कमरे में चारों ओर फैला हुआ था, जबकि बाहर पूरी तरह अंधेरा पसरा हुआ था। निपट सन्नाटे के बीच बांज के पेड़ों की छाल में चिपटे हुए झींगुरों और बहती हुई नदी का मिलाजुला शोर अंधेरे के साथ मिलकर अकेलेपन को और अधिक मुखर बना देता था।
इस बार तुन के बने उस सीलन-भरे भारी-भरकम दरवाजे को पूरे जोर से अंदर की ओर खींचा, तो जबरदस्त रगड़न से एक दूसरे ही तरह की चीख वातावरण में फैल गई। मगर दाड़िमी माई को नदी का भुतहा शोर जरा-भी अटपटा नहीं लगा।

बाहर कोई हलचल नहीं थी। नदी में उभरी हुई चकमक पत्थर की एक शिला का गुंबदनुमा सिरा अस्पष्ट झिलमिला रहा था। एक सियार पूंछ झुकाए हुए मंदिर के किनारे-किनारे जंगल की ओर निकल गया था। झुटपुटे अंधेरे के बीच ही एक साही की तीखी आवाज के साथ पंख की तरह गोलाकार उभरे उसके श्वेत-श्याम कांटों का सफेद हिस्सा चमक रहा था। दाड़िमी माई इन सारे जीवों और उनकी हरकतों से परिचित थी, इसलिए किसी भारी चीज के गिरने से हुई आवाज के पीछे मौजूद कारण को जानने की जिज्ञासा उसके मन में बढ़ती चली गई।

"नमोऽऽऽ नरैण!ÓÓ… एक बार फिर आवाज में जोर देकर वह चिल्लाई, "कोई है यहां?… ये कराहने की जैसी आवाज किसकी आ रही है। …ÓÓ
फिर से वही भुतहा अशांति चारों ओर फैल गई। एकाएक कुछ याद आया। … किशन कहां होगा… ऐसे ही सन्नाटे के बीच एक दिन किशन को एक जोगी जबर्दस्ती उसके कमरे से छीन ले गया था। … काफी समय के बाद जब उसकी नींद खुली तो वह जंगल में भटकती रही थी, मगर किशन हाथ नहीं आया। उसका मन कहता था कि वहां उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। … लेकिन ऐसे छीनकर क्यों ले गया वह किशन को? इनरुवा के ही जैसे रूपाकार का कौन-था वह लुटेरा… और दाड़िमी ने उसे खोजने की कोशिश क्यों नहीं की। क्या वह जानती थी उस लुटेरे को? अगर वह दाड़िमी से उस बच्चे को मांगता तो क्या वह उसे नहीं देती? उन दोनों के बीच क्या कोई रिश्ता था?
वास्तविकता यह है कि दाड़िमी अब किशन के बारे में नहीं सोचती। … इस अकेली भुतहा कुटिया में रहते हुए उसे कितने ही बरस गुजर गए हैं। वह भिक्षा मांगने कोठार गांव में नहीं जाती। अपने मायके के गांव भी नहीं जाती। कभी दूसरी ओर की पहाड़ी के गांवों में दूर-दूर तक जाती है। वहां से भी ज्यादा भिक्षा नहीं लेती। पेट भरने के लिए नदी किनारे और जंगल से खूब कंदमूल मिल जाता है।

"कौन है यहां?ÓÓ, इस बार उसने साफ महसूस किया कि आदमी की आवाज में अंधेरे के बीच सीलन भरी तकलीफ तैर रही थी। … कोई है जरूर… यह आवाज जानवर की तो कतई नहीं है। ऐसी आवाज पिछले पांच-छह सालों में उसे पहले कभी नहीं सुनाई दी थी।

बहुत ध्यान से उसने आवाज के पीछे अपने कान दौड़ाए। इस बार कराह की दिशा को उसने चीन्ह लिया। अंदर गई। धूनी से एक जलती लकड़ी निकाली और उसके प्रकाश में कराह की दिशा की ओर बढ़ी। … अपनी ओर टुकुर-टुकुर ताकती आदमी की आंखों को उसने आसानी से पहचान लिया। वह तेजी से उस ओर बढ़ी।
"कौन है यहां?,ÓÓ उसने आवाज में खम देकर पुकारा। कपड़ों के चीथड़ों से भरे किसी ढीले थैले की तरह पड़े उस आकार को उसने तलाशना चाहा, मगर दूसरे ही पल रुक गई। यह जानते हुए कि वह कोई आदमी ही है, पल भर के लिए विचार आया कि कहीं वह कोई जानवर हुआ तो… कोई चोट खाया जानवर!… आदमी की आकृति में हलचल हुई और वह जमीन से उठने की कोशिश करने लगा। जैसे किसी सहारे को तलाश रहा हो। दाड़िमी माई ने अपना हाथ उस ओर नहीं बढ़ाया। शायद वह असमंजस में थी कि उसे ऐसे व्यक्ति को सहारा देना चाहिए या नहीं।

"छूत की बीमारी है मुझे। …ÓÓ उस गुड़मुड़ आकृति में से रुक-रुक कर कराह भीगी आवाज पैदा हुई। लगा कि वे शब्द नहीं, गहरी पीड़ा में से निचुड़कर आता हुआ दु:ख हो, "पलधार (दूसरी पहाड़ी) के मेरे बिरादर ऊपर डाने (शिखर) पर से मुझे धक्का दे गए। सोचा होगा नीचे पहुंचने तक दम तोड़ दूंगा, लेकिन मेरे प्राणों ने मेरा साथ नहीं छोड़ा।ÓÓ कराह के बीच उभर रहे शब्दों के आकार के बिंब दाड़िमी माई साफ देख पा रही थी।
"कौन हो तुम, क्या नाम है, कहां के रहने वाले हो?… यहां पर किसने धक्का दिया तुमको?… ऐसे जबर्दस्त ढलान में तुम बचे कैसे रह गए? तुम्हारे अंदर का जीव तो बड़ा जबर्दस्त मालूम होता है भगत… नमो… नरैण। …ÓÓ दाड़िमी माई ने थैले के आकार के उस आदमी से एक साथ अनेक सवाल पूछ डाले। इस बार वह कुछ भी नहीं बोला। कराह का स्वर जरूर कुछ अस्पष्ट हो गया था।

"अंदर चलो, वहां उजाले में देखती हूं। अभी सांस बची हुई है और मुंह से बोल रहे हो तो ठीक हो जाओगे। नमो… नरैण… भगवान की सबसे कीमती देन होती है यह जिंदगी भया… जब तक सांस में सांस है, इसे संभाल कर रखना चाहिए। देखती हूं कितने बचे हैं प्राण। … चोट में पत्ती-पंखुड़ी रगड़कर देखती हूं, खून का आना तो बंद हो। …ÓÓ
"खून-पीब के दागों से भरा हूं मैं। वो लोग कहते हैं, कोड़-खुजली से सड़ गया हूं। … तभी तो वो लोग मुझे डाने पर से धक्का दे गए। … ऐसी हालत में तुम भी क्या कर सकते हो। … तुमको भी सर जाएगा ये रोग। अब ऐसे ही मरना है मुझे। … मैं अच्छा नहीं हो सकता। …ÓÓ वह अपनी रही-सही ताकत को समेटकर एकाएक फूट-फूट कर रो पड़ा।
दाड़िमी माई से अब नहीं रहा गया। मंदिर के किनारे एकत्र किए गए चीड़ के छिलकों में से एक को उसने धूनी की आग से छुआया तो पलभर में ही उसका लीसा जलकर चारों ओर उजाले के रूप में फैल गया। छिलके की मशाल उस आकृति के पास ले गई तो मुंह से एक दबी-सी चीख निकली, "नमो… नरैण… तुम तो शिशौण के भूड़ (बिच्छू बूटी की झाड़ी) में पड़े हुए हो। … इसके झूस (बारीक कांटे) तुमको चुभ नहीं रहे हैं?… उठो इस पर से…Ó

अपनी हालत से बेखबर वह आदमी सहसा चौंका। मानो उसे कुछ हुआ ही न हो! देह में कपड़ा नहीं, जगह-जगह खून के गंदे चकत्ते-से उभरे थे। एक गंदे कपड़े से शरीर लपेटा गया था जिसके फटे हिस्सों से दाग दिखाई दे रहे थे। लगता था, उसे शरीर में किसी तरह की सनसनी नहीं महसूस हो रही थी, इसीलिए वह नंगे बदन बिच्छू बूटी के इतने बारीक जहरीले कांटों से घिरा होने के बावजूद चेष्टाहीन पड़ा था। इतमीनान से, मानो कपड़े की किसी गठरी का बंधन ढीला करके खोला गया हो, सरकता हुआ वह झाड़ी के किनारे के लगभग सुरक्षित स्थान की ओर बढ़ा और कराहते हुए बैठ गया। मानो वह अपनी देह से पूरी तरह बेखबर था।

"अंदर चलो, धूनी के पास। वहां उजाला भी है और थोड़ी गर्मी भी मिलेगी। तुम्हारे घाव भी दिखाई देंगे। वहीं पर कुछ सोचते हैं।ÓÓ
"नहीं…, तुमको भी सर जाएगा ये रोग। मुझे तो मरना ही है… तुम क्यों अपने लिए जानबूझकर…ÓÓ अटक-अटक कर कराहता हुआ वह अपनी बात समझा रहा था।
दाड़िमी माई ने उसका हाथ पकड़ना चाहा तो जैसे कोई जहरीला सांप जीभ लपलपाता उसकी ओर बढ़ा हो, अपनी पूरी ताकत लगाकर आदमी पीछे सरकता हुआ चिल्लाया, "नहीं-नहीं, मरने दो मुझे। वो लोग मुझे यहां इसीलिए तो फेंक गए हैं ताकि मैं इसी तरह गल-गल कर मर जाऊं।ÓÓ इस बार उसकी आवाज में किसी तरह का दु:ख या अवसाद नहीं था। मानो वह अपनी नियति स्वीकार कर चुका था।

मगर हाथ थाम ही लिया दाड़िमी माई ने। … "मैं भी कहां जिंदा हूं भया, इस भासी (घने) जंगल में… मुझे भी किसके लिए जिंदा रहना है। … मर भी जाती हूं तो कौन है रोने वाला मेरे लिए!…ÓÓ उसने मन-ही-मन में सोचा, लेकिन कहा नहीं। किसको अपनी व्यथा सुनाए, कौन है उसकी बातें सुनने वाला यहां?… उसने हाथ पकड़कर खींचा तो लगा, मानो हथेली किसी लसलसे पदार्थ से सन गई हो। फिर भी हाथ नहीं छोड़ा उसने और उसे कमरे की ओर घसीटती चली गई। अब तक वह भी कुछ संभल चुका था। कराहते हुए ही वह उठा और घिसटता हुआ दाड़िमी माई के पीछे हो लिया।

चीड़ के छिलके डालकर धूनी की आग तेज की उसने… और जब चारों ओर उजाला ही उजाला फैल गया तो उसने गौर से गठरीनुमा उस जीव को तलाशा। शरीर का बड़ा हिस्सा घावों से भरा पड़ा था और कहीं-कहीं खून के थचके जमे हुए थे। उसे ताज्जुब हुआ कि वह जिंदा कैसे है! कुछ पलों के लिए भ्रम भी हुआ कि कहीं यह आदमी नहीं, जंगल का कोई घायल जीव ही हो। उसी पुराने धैर्य के साथ वह खड़ी रही और सोचने लगी कि उसे क्या करना चाहिए। वह पूछना चाहती थी कि उसे ऊपर पहाड़ी से इतनी निर्दयता के साथ क्यों फेंका लोगों ने, दूसरे ही पल खुद ही उसका जवाब पा लिया कि परिजनों के पास इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा होगा।

अब वह कुछ सावधान हो गई थी। लगभग हड़बड़ाहट में ही, वह धूनी पर से जलती लकड़ी उठाकर बाहर निकली और एक कपड़े को हाथ में लपेट कर शिशूण की बड़ी टहनी तोड़ लाई। वह नहीं जानती थी कि उसे इसका क्या करना है… एकाएक जैसे किसी अदृश्य संकेत के वश में हो, शिशूण की टहनी को सिलबट्टे पर रखकर कूटने लगी। करीब आधे घंटे तक वह तेजी से पत्ते और उनकी डंठल कूटती रही और जब सिलबट्टे के ऊपर काफी मात्रा में लसलसा पदार्थ जमा हो गया, उसने करछी से एक कढ़ाई में समेट कर उसे आदमी के शरीर में पोतना शुरू किया। वह नहीं जानती थी कि उसे ऐसा करना चाहिए था या नहीं, मगर इस वक्त ऐसा करने के सिवा उसके पास कोई और रास्ता नहीं था। आदमी उसी तरह निश्चेष्ट पड़ा रहा, मानो उसे इस बात का अहसास ही न हो कि उसके शरीर में कोई देह भी है। …

पूरे शरीर में बिच्छू बूटी का लेप कर चुकी तो उसने एक कटोरे में भरकर लसलसे पदार्थ को उसके हलक में भी डाल दिया। उसे लगा कि आदमी का दर्द कुछ कम हुआ है और वह सिलबट्टे को नदी की ओर सरका कर नदी के पानी से ही अपने हाथ और पांव धो लाई। उसे खुद भी महसूस हुआ कि वह तनावमुक्त हो गई है। आदमी की आंखों में उसने झांकने की कोशिश की, उसमें कृतज्ञता का भाव तो था ही, लगा कि उसे चैन मिला है। अब उसके पास उस आदमी के लिए कोई काम नहीं था, एक गहरी सांस लेकर वह अपने तख्त पर गई और कंबल ओढ़कर सोने की कोशिश करने लगी। कुछ देर बाद जैसे कुछ याद आया हो, धूनी में लकड़ी का एक और मोटा टुकड़ा डाला, कोयले और लकड़ियों की राख झाड़ी और जब आग दहक गई, बिस्तर पर कंबल ओढ़कर सो गई।

रोज की तरह भोर होते ही पयां के पेड़ पर उसे जगाने वाली चिड़िया की चहक से वह उठी, तो सबसे पहले उसकी नजर कोने पर सोए आदमी पर पड़ी। इस बार उसने उसके घावों पर नजर डालने की जरूरत नहीं समझी, मानो वह इस बात को लेकर आश्वस्त हो कि उसका इलाज कारगर हो गया है। वह कराह नहीं रहा था, यही उसके संतोष के लिए काफी था। उठकर रोज की तरह वह नदी किनारे गई और सूरज भगवान की दिशा की ओर देखकर हाथ जोड़ते हुए अपने दिमाग में एकाध पल के लिए अतीत के बिंब बनाने लगी। क्षितिज पर फैले घने बादलों के बीच गुलाबी रेखाएं फैली हुई थीं… वहां पर किसी बीते दिन देखे गए सूरज भगवान का हल्का-सा बिंब उसके दिमाग में बना, इसके बाद उसने ज्यादा कुछ नहीं सोचा। दोपहर के खाने के बारे में उसने सोचने की कोशिश की तो अपनी अपेक्षा उस आदमी को लेकर सोचने लगी।
"नमोऽऽऽ नरैण!… खाना खाओगे कुछ?ÓÓ

वह कुछ नहीं बोला। जरूरी नहीं कि उसे नींद आई हो और उसने दाड़िमी की बात सुनी हो। इतने सारे ताजे घावों के होते हुए कोई भी कैसे सो सकता है?… मरा तो वह अभी नहीं होगा… उसने सोचा, फिर मानो अपने-आप से कहा, 'पेट तो अपने टाइम में हिस्सा मांगेगा ही। यही पापी पेट का नियम है।Ó
आदमी के साथ इतनी ही बातें करने की उसे जरूरत महसूस हुई। इसके बाद आदमी के साथ बातें करने का उसका मन नहीं हुआ। एक मर रहे आदमी के साथ कैसे बातें की जा सकती हैं! चेतना जागेगी तो खुद ही बोलने लगेगा। … तब शिशूण की एक और टहनी कूटकर इसके घावों में पोत देगी। बीते परसों परलीधार के थोकदार के घर से लाई गई भिक्षा को उसने थैले में टटोला। खिचड़ी की पोटली में से दो मु_ी दाने भगोने में डाले और एक बार पानी से धोकर फिर से साफ पानी डालकर नमक-हल्दी मिलाई, तश्तरी से ढका और धूनी के एक किनारे से टिका दिया।

बाकी दिनों खाने की जुगत वह दोपहर के बाद करती थी। सुबह नदी में नहाना, मंदिर की देव-मूर्तियों को नहलाना, पूजा-पाठ और सूरज जब सिर पर आ जाता, तभी उसे पेट की सुध आती। उसे खुद ताज्जुब हुआ कि आज उसने इतनी सुबह खिचड़ी क्यों चढ़ा दी?

"नमोऽऽऽ नरैण…ÓÓ उबासी लेने के-से अंदाज में उसके मुंह से निकला। बाहर निकलते हुए दरवाजे पर ठिठकी। मुड़कर देखा तो उस आदमी पर फिर से नजर टिक गई। मु_ीभर के बेडौल चेहरे वाला कोई अधेड़ था वह। उम्र चाहे जो भी रही हो, इस वक्त बिच्छू बूटी का लेप लगे होने के कारण वह कीचड़-धंसे घायल जानवर की तरह लग रहा था। आंखों के गड्ढों में भरी हुई कीचड़ और खून भरे घाव एकदम हमशक्ल लग रहे थे… मानो पूरी देह में अनेक आंखें पैदा हो गई हों… हजार आंखों की देह वाला आदमी… एक अजीब-सा बिंब बना उसके मन में, फिर खुद ही न समझ पाने के कारण मुस्कराने लगी। दाड़िमी माई के लिए वह जानवर से अधिक था भी क्या… एक ऐसा जानवर, जिसका नाम वह नहीं जानती! जिसके बारे में कुछ भी नहीं जानती। … लेकिन जानवर अपने हाव-भाव तो व्यक्त करता है, ये तो जैसे सड़े हुए मांस का लोथड़ा है, जिसके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, इसके बारे में वह कुछ सोच भी नहीं सकती।

…ऐसे आदमी को वह अपनी कुटिया में क्यों ले आई, जबकि वह खुद ही मना कर रहा था। उसके साथ रहकर तो वह भी सड़ी हुई देह में बदल सकती है… मानो एक हजार सड़ी आंखों वाली दाड़िमी माई… तीखी सिहरन के साथ उसके मन में इनरुवा लाटा का बिंब बना… फिर अपने किशनुवा का… कहां होंगे वो दोनों?… क्या उसका किशनुवां इनरुवा के ही साथ होगा? सामने सोए आदमी के चेहरे में उसे हू-ब-हू इनरुवा लाटा की अनुहारि दिखाई दी… हालांकि वह इनरुवा लाटा नहीं था। … क्या करे वह इस आदमी का?
शाम तक आदमी सोया ही रहा। वह आश्वस्त हुई कि उसे अंदर लाने का उसका निर्णय गलत नहीं था। सुबह जब खिचड़ी पक चुकी थी तो उसके दिमाग में आया था कि आदमी को खाने के लिए पुकारे, मगर वह इतनी गहरी नींद में था कि जगाना उसे खुद ही गलत लगा। उसके चेहरे के अंदाज और सांस के उतार-चढ़ाव को देखते हुए उसे पूरा भरोसा था कि वह मरा नहीं है। उसे फिर से अपने निर्णय पर आश्वस्ति हुई।

अब उसका ध्यान खुद पर टिका। कौन है वह… यहां क्या कर रही है?… वह तो इनरुवा के साथ अपना संसार बसाना चाहती थी। पूजा-पाठ की बड़ी-बड़ी बातें न उसकी समझ में आती थीं और न अपने काम की लगती थी। मगर आज तो ये सब उसकी जिंदगी के जरूरी हिस्से हैं। ऐसे ही मौकों पर उसे घुरू-बू याद आते हैं… ऐसे पहले व्यक्ति, जिनकी बातें उसे हमेशा आकर्षित करती थीं। मगर वह भी तो इस नरक में धकेलने से उसे रोक नहीं पाए थे।

उस दिन रात को नौकुड़ी बाखइ के इनरुवा की खोली में उन दोनों ने तय किया था कि वे बिरादरी की परवाह किए बगैर आने वाली सुबह से ही इस घर में रहना शुरू कर देंगे। इसी घर में किशनुवां (हालांकि तब उसका नाम नहीं पड़ा था) पैदा होगा। तब घुरू-बू जिंदा थे, इसलिए उनके मन में किसी का डर नहीं था। घुरू-बू को लेकर पूरी रात बातें की थीं उन्होंने। तय किया था कि उनकी उपस्थिति में ही वे लोग इस घर में अपना नया जीवन शुरू करेंगे। वे लोग दूसरे दिन हर पल बेसब्री से घुरू-बू की प्रतीक्षा करते रहे थे मगर रात का खाना खाने के बाद आधी रात से ही उन्हें उल्टी शुरू हो गई थीं और सुबह का उजाला फूटने से पहले उन्हें खून की उल्टी हुई और वह अचेत पड़ गए। सुबह काफी देर तक भी जब दरमाड़ि के घर में हलचल नहीं हुई और दोपहर को भैंस भूख से रंभाने लगी, गांव के कुछ लोग दरमाड़ि की ओर ऐसे भागे, मानो पहले से जानते हों कि वहां कुछ अनहोनी हुई है।

उसी के अगले दिन से इनरुवा और दाड़िमी के प्रति लोगों का रुख बदल गया था। मगर वे अकेले पड़ गए थे। यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि न इनरुवा कुछ सोच पाया और न दाड़िमी। कुछ अनहोनी का आभास दोनों के मन में था, मगर घुरू-बू के बारे में नहीं, अपने बारे में। घुरू-बू जैसे देवता आदमी को कोई इस तरह नुकसान भी पहुंचा सकता है, यह बात तो उनके सपने में भी नहीं आ सकती थी। …

इसके बाद का घटनाक्रम तेजी से घटित हुआ था। इनरुवा के पास गांव में दाड़िमी के साथ रहने का यही तर्क था कि उनके सामने लंबी, सपनों-भरी जिंदगी पड़ी है, जिसके साथ वो गांव में ही एक-दूसरे को सहारा देकर बिताना चाहते थे। उसने कुछ बुजुर्गों से विनती भी की थी कि वे लोग गांव के कोने में उन्हें अपने सपनों के साथ पड़े रहने दें… गांव के दो-एक बुजुर्गों ने सहमति में सिर भी हिलाए थे, लेकिन पुरोहित इसकी अनुमति देने के लिए किसी हालत में तैयार नहीं थे।

इनरुवा लाख चिल्लाता रहा, मगर उसकी बातें किसी की समझ में नहीं आईं। गांव के अनेक पुरोहित गाली-गलौज करते हुए लगभग दौड़ाते हुए दाड़िमी को नदी किनारे के पुराने शिव मंदिर तक ले गए और देवताओं के साथ कैद करके बाहर से सांकल चढ़ा गए। एक युवा पुरोहित जोर-जोर से चिल्लाकर उसे सुबह और शाम कर्मकांड समझा जाता था, ताकि उसने जो अश्लील कर्म किया है, उसका पाप धुल सके। बारी-बारी से हर रोज कोई पुरोहित दाड़िमी के लिए खाना लेकर आता, उसे पूजा- कर्मकांड की विधि समझाता और कमरे के अंदर ही उसके नहाने का पानी रखकर चला जाता ताकि वह यथासमय नहा-धोकर पूजा करके खाना खा सके। कितने दिनों तक अपने को भूखा और असहाय रखती दाड़िमी। आखिर एक दिन पुरोहितों के कर्मकांड ने उसे अपने वश में कर ही लिया।


धूनी से थोड़ा हटकर दीवार के किनारे वह आदमी मुर्दे की तरह सोया हुआ था, लेकिन मरा नहीं था। वह कराह भी नहीं रहा था, साफ है कि उसे किसी-न-किसी रूप में राहत अवश्य मिली थी, चाहे बिच्छू बूटी के लेप से, खुद को लेकर रचे गए बर्बर हत्याकांड में उसकी मौत के टल जाने से या दाड़िमी के आत्मीय व्यवहार से। मंदिर की दीवारों पर जगह-जगह उभरे सीलन के निशानों की तरह आदमी का शरीर दरी पर पसरा हुआ था और कमरे की दीवारों और कोनों में टिके हुए पत्थर और लोहे के दाड़िमी के देवता मानो चुपचाप खड़े होकर, सोए हुए आदमी के शरीर में अपेक्षित चेतना की प्रतीक्षा कर रहे थे।

आदमी को उसने नहीं जगाया, न खाने के लिए पूछा। इन चीजों की अगर उसे जरूरत होती तो वह खुद ही इस तरह के संकेत देता। अपने नियत समय पर दाड़िमी ने नदी किनारे जाकर नहाया और रोजमर्रा का कर्मकांड निभाती रही। इस बीच कुछ जंगली जानवर पेड़ों, घास और बूटियों को सूंघते हुए नदी किनारे आए और दाड़िमी की ओर एक नजर डालकर जंगल में गायब हो गए। दाड़िमी ने उठने के बाद से ही सूरज की दिशा में जल चढ़ा दिया था और दोपहर को एक ग्रास खिचड़ी भगवान के नाम रखकर दो ग्रास अपने पेट में डाले और नदी किनारे की झाड़-पत्तियों को टटोलने लगी, मानो उनके बीच वह सोए हुए आदमी के लिए जड़ी-पत्ती खोजने का उपक्रम कर रही हो।
चाहे और किसी के लिए चमत्कार न हो, दाड़िमी माई और उस आदमी के लिए यह चमत्कार ही था कि आदमी दूसरे दिन सुबह की किरणों के साथ ही होश में बातें करने लगा था। शरीर के घावों का गीलापन काफी कम हो गया था, वहां गुलाबी और गहरे हरे रंग का मिलाजुला लेप चकत्तों की तरह उभर आया था। इसी उत्साह में दाड़िमी कुछ और जहरीली पत्तियां तोड़कर उन्हें पीसकर घावों पर मलने लगी। उसे भरोसा था कि अज्ञानतावश, मगर भागती जिंदगी को थामने के उपक्रम में आदमी की देह पर वह जो प्रयोग कर रही है वही इस आदमी को नई जिंदगी देंगे। …
उसका यह प्रयोग अंतत: काम आ गया। …
तीन : उपसंहार
एडविन हब्बल और स्टीफेन हॉकिंग का इंद्रलोक

इस कथा में यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इंद्र का अपभ्रंश इनरुवा और अहल्या की प्रतिरूप दाड़िमी का अंत में क्या हुआ होगा… क्या गांव वालों का हृदय परिवर्तन होकर उन्होंने प्रायश्चित किया होगा या जंगल-जंगल भटकते इनरुवा लाटा को एक दिन उन्होंने उसकी संतान के साथ खोज लिया होगा और वे सारे लोग दाड़िमी माई की कुटिया में एकत्र हुए होंगे… इनरुवा और उसके बेटे की वंश परंपरा के प्रयत्नों से कोठारी गांव में नए युग की शुरुआत हुई होगी… चारों दिशाओं में ज्ञान के सूरज का आलोक फैल गया होगा, जिसने नई धरती और नए आकाश को जन्म दिया होगा!…

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ… जीवन का विस्तार अगर ऐसे ही खयाली पुलावों से संभव हो पाता तो इस संसार में दुख-तकलीफों के लिए जगह ही नहीं बचती। यों, मुझे इस आख्यान का काल्पनिक सुखांत या दुखांत लिखने में कोई कठिनाई नहीं है, मगर ऐसा करने से न तो मुझे संतोष मिल पाएगा, न आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को। … वो जमाने दूसरे थे जब पंचतंत्र या तिलस्मी आख्यानों द्वारा पहले से तय अंत के आधार पर कहानियां तैयार की जाती थीं। आज तो यथार्थ का दबाव हमारे जीवन के पल-पल और पोर-पोर में इस कदर छाया हुआ है कि कोरा अतीत और खालिस यथार्थ दोनों में से कोई एक अकेला आपको किसी भी तरह का सहारा दे सकने में असमर्थ हैं। … ऐसे में कहां शरण ले आज का बेचैन मन! अतीत अब नॉस्टेल्जिया भी नहीं बन पाता। … करोड़ो वर्षों की कशमकश के बाद इस 'होमो-सेपियनÓ (मननशील) जीव का मन कागज के पुराने गल गए टुकड़े पर लिखी गई ऐसी इबारत की तरह बन चुका है, जिसने आदमी को तनाव और यंत्रणा की एक और अंधी गली में झोंक दिया है।

इतना लंबा आख्यान लिख लेने के बाद मुझे भारत के सबसे बड़े संस्कृति-संस्थान के उन पूर्व-निदेशक-संपादक द्वारा उठाई गई आपत्तियों का भी तो कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा है। … ऐसे में क्या करना चाहिए मुझे?… कल्पनाओं के घोड़े तो आदमी के मन में युग-युगों से बेलगाम दौड़ते रहे हैं, मजेदार बात यह है कि इस इक्कीसवीं सदी के गूगलीय माहौल में भी पाठकगण कथाओं और आख्यानों का अंत सदियों से चले आ रहे सुखांत या दुखांत की तरह ही देखना चाहते हैं। … कुछ अतीतजीवी लोग कलाओं को ब्रह्मानंद की प्राप्ति का साधन मानते हैं, जबकि कुछ दूसरे लोगों के लिए अतीत उनके वर्तमान के भविष्यफल की रूपरेखा प्रदान करने वाले उपकरण की तरह रह गया है।

बड़ा सवाल यह है कि हम जिंदगी भर अपनी कल्पनाओं के घोड़े क्यों और किसके लिए दौड़ाते रहते हैं? यह लिखना-पढ़ना हमें ऐसा क्या दे जाता है जिसके लिए हम अनेक परेशानियों और तनावों से गुजरते हुए, उससे मुक्त होना चाहकर भी अंतत: फिर से उसी चक्रव्यूह की शरण में चले जाते हैं… उन्हीं तनावों को एक बार फि र से झेलने। … जिंदगी जीने के नाम पर हम तनावों से मुक्त होना चाहते हैं या एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद में बार-बार पुनर्जन्म के रूप में उसका वरण करते हैं!… क्यों करना चाहते हैं हम अपने जीवन की पुनर्रचना? किसके लिए है यह चाहत!… हम खुद ही ऐसा करते हैं या कोई अधिदैविक शक्ति हमसे ऐसा करवाती है। सारी जिंदगी खुद को लेकर एक तकलीफदेह कनफ्यूजन में जीना हमारी नियति है या यह हमारा अपना चुनाव होता है!…

इस प्रसंग को यहीं छोड़कर मैं अपने इनरुवा लाटा के उन सूत्रों को खोजने की कोशिश करता हूं जो साढ़े तीन हजार साल पहले के महान इंद्र के साथ जुड़े हुए हैं। भारतीय कला-मनीषा को इंद्र के मिथक ने हजारों सालों में जो विस्तार दिया है, वह सिर्फ सेक्स और उसके वीर्य से निर्मित इस ब्रह्मांड के विस्तार की कथा नहीं है, निश्चय ही इससे अलग और अधिक है। … उसे ऐसा होना ही चाहिए था, अन्यथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों सालों से इस ब्रह्मांड में हमारे चारों ओर बुनते चले गए इस इंद्रजाल का मतलब क्या है!…
आदमी ने अपनी ताकत और विवेक के सहारे इतनी प्रगति कर ली है कि वह आज उस जगह पर पहुंच चुका है जहां एक ओर अतीत का सर्वशक्तिमान इंद्र अपने हजारों साल के इतिहास-बोध को अपनी मु_ी में थामे वर्तमान की हजार-हजार व्याख्याओं के साथ मानव जाति को चुनौती देता हुआ खड़ा है, तो दूसरी ओर उस चुनौती का सामना करता, 8 जनवरी 1942 को इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड शहर में पैदा हुआ संसार का सबसे शक्तिशाली दिमाग स्टीफन हॉकिंग, एक अपंग-से चेहरे के रूप में, दुनियाभर में फैले अपने एक करोड़ से अधिक पाठकों के साथ आने वाले नए संसार की व्याख्या कर रहा है। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम, वर्तमान में जी रहे लोग, अतीत और वर्तमान की दोनों धाराओं को अपने दोनों हाथों से थामे रखने की जिद के साथ, एक तर्कातीत अंध-आस्था के सहारे भागे चले जा रहे हैं। हालांकि खुद नहीं जानते कि जा कहां रहे हैं, आगे बढ़ भी रहे हैं या नहीं… फिर भी हम इसे ही प्रगति का नाम देते हैं…

क्या हमारी यह नई दुनिया इंद्र का ही एक प्रति-संसार है?… इंद्र से इनरुवा लाटा तक; वैदिक आर्य इंद्र की भाषा से लेकर इनरुवा लाटा की भाषा, एक उपेक्षित बोली, मध्यपहाड़ी-हिंदी तक; इंद्र, यम, गौतम, नचिकेता और अहल्या के मिथकीय संसार से लेकर स्टीफन हॉकिंग के महा-मिथक ब्लैकहोल तक! इन हजारों वर्षों में हमारे इस 'शिशु ग्रहÓ – हमारी धरती – में ब्लैक होल की तरह ज्ञान-विज्ञान के अनेक अंतराल पैदा हो गए हैं… उन्हें कैसे पाटा जाए!… क्या ब्लैकहोल को पाटा जा सकता है? स्टीफन हॉकिंग और इनरुवा लाटा क्या हमेशा इस धरती पर मनुष्य की दो अलग-अलग प्रजातियां ही बनी रहेंगी! आखिर कहां हैं इनरुवा लाटा की जड़ें?… ऐसे में संसार का सबसे शक्तिशाली मस्तिष्क नास्तिक स्टीफन हॉकिंग शायद आज के विकसित मनुष्य को कोई रास्ता सुझा सके। क्या हमारा स्टीफन हॉकिंग नास्तिक है?…

"अनंत क्षेत्र से परे क्या है यह कभी भी बहुत स्पष्ट नहीं किया गयाÓÓ, हॉकिंग कहता है, "परंतु यह निश्चित रूप से मानव जाति के प्रेक्षण करने योग्य ब्रह्मांड का हिस्सा नहीं था। …

"एक अपेक्षाकृत आसान मॉडल सन् 1514 में पोलेंड के एक पुरोहित निकोलस कॉपर्निकस द्वारा प्रस्तुत किया गया। उनका विचार यह था कि सूर्य केंद्र में स्थिर है तथा पृथ्वी एवं दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में घूमते हैं। इस विचार को गंभीरतापूर्वक ग्रहण करने तक लगभग एक शताब्दी व्यतीत हो गई। तब जर्मनी के जोहांस केपलर और इटली के गैलीलियो गैलिली – इन दो खगोलविदों ने कॉपर्निकस के सिद्धांत का, इस तथ्य के बावजूद, सार्वजनिक रूप से समर्थन करना प्रारंभ कर दिया कि इसमें पूर्वानुमानित कक्षाएं, प्रेक्षित की गई कक्षाओं से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थीं। अरस्तू व टॉलेमी के सिद्धांतों पर एक घातक प्रहार सन् 1609 में हुआ। उस वर्ष गैलीलियो ने रात्रि के आकाश का एक दूरबीन से प्रेक्षण करना प्रारंभ कर दिया था। जब गैलीलियो ने वृहस्पति ग्रह का प्रेक्षण किया तो उसने पाया कि उसके कई छोटे उपग्रह या चंद्रमा हैं, जो उसकी परिक्रमा करते हैं। इससे यह बात सामने आई कि हर पिंड का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाना आवश्यक नहीं था, जैसा कि अरस्तू और टॉलेमी सोचते थे। … "अरस्तू और अधिकतर दूसरे यूनानी दार्शनिकों को ब्रह्मांड की उत्पत्ति का विचार इसलिए पसंद नहीं आया क्योंकि इसमें दैवी हस्तक्षेप की गंध आवश्यकता से अधिक थी। इसी कारणवश वह यह विश्वास करते थे कि मानव जाति और इसके चारों ओर का यह संसार सदैव से अस्तित्व में था तथा सदैव अस्तित्व में रहेगा। … जब अधिकांश लोग एक अपरिवर्तनीय और आवश्यक रूप से स्थिर ब्रह्मांड में विश्वास रखते थे तो यह प्रश्न कि इसकी कोई शुरुआत थी या नहीं, वास्तव में धर्मशास्त्र या तत्व-मीमांसा से संबंधित रह गया था। परंतु 1929 में एडविन हब्बल ने यह महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण किया कि आकाश में जहां कहीं भी हम देखें, दूरस्थ आकाशगंगाएं बहुत तीव्र गति से हमसे दूर भाग रही हैं। दूसरे शब्दों में, ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्ववर्ती समय में सभी पिंड परस्पर बहुत समीप रहे होंगे। वस्तुत: ऐसा लगा कि लगभग 10 या 20 अरब वर्ष पूर्व एक ऐसा समय था जब ब्रह्मांड का सारा पदार्थ ठीक एक ही स्थान पर था और इसीलिए उस समय ब्रह्मांड का घनत्व असीमित था। अंतत: यह खोज ब्रह्मांड की उत्पत्ति के प्रश्न को विज्ञान की परिधि में ले आई। हब्बल के प्रेक्षणों ने यह सुझाया कि महाविस्फोट या महानाद (बिग बैंग) के नाम से ज्ञात एक समय ऐसा था जब ब्रह्मांड अति सूक्ष्म तथा अत्यंत सघन था। ऐसी परिस्थितियों में विज्ञान के सारे नियम भंग हो जाते हैं और इसी के साथ ही भविष्य के बारे में पूर्वानुमान लगाने की सारी क्षमता भी समाप्त हो जाती है। …

"यह कल्पना की जा सकती थी कि ईश्वर ने ब्रह्मांड को अतीत में किसी निश्चित काल पर उत्पन्न किया। दूसरी ओर यदि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है, तो इस तथ्य के भौतिक कारण हो सकते हैं कि उत्पत्ति हुई ही क्यों! अब भी यह कल्पना की जा सकती थी कि ईश्वर ने ब्रह्मांड को बिग बैंग के क्षण पर या इसके बाद ठीक इस तरीके से उत्पन्न किया कि यह ऐसा दिखाई दे मानो कोई महाविस्फोट हुआ था, परंतु यह मानना निरर्थक होगा कि इसे बिग बैंग से पहले उत्पन्न किया गया था। एक निरंतर विस्तृत होता हुआ ब्रह्मांड सृष्टिकर्ता का निषेध नहीं करता, परंतु इस बात पर सीमा-बंधन अवश्य लगाता है कि आखिर उसने अपना कार्य कब पूरा किया होगा!

"…कोई भी भौतिक सिद्धांत इस अर्थ में सदा अस्थायी होता है कि यह मात्र एक परिकल्पना होती है : आप इसे कभी सिद्ध नहीं कर सकते।ÓÓ (साभार: 'समय का संक्षिप्त इतिहासÓ, पृष्ठ 17-23)

उस दिन जब दाड़िमी माई मंदिर के कोने में गठरी की तरह पड़े हुए उस आदमी को मन से मृत घोषित कर चुकी थी, एकाएक उसके बैठने की मुद्रा को देखकर चौंक उठी थी। मानो गल कर वातावरण में विलीन हो चुकी उसकी देह ने एक ठोस देह के रूप में पुनर्जन्म ले लिया हो और मानो मां की कोख से एक बने-बनाए पूरे आकार के मनुष्य ने अभी-अभी जन्म लिया हो… कौन था वह नया मनुष्य?… क्या यह वही आदमी था, जिसे दाड़िमी बिच्छू बूटी की झाड़ी पर से हाथ खींचकर अपने कमरे में घसीट लाई थी। … पिछले बारह वर्षों से दाड़िमी माई इस कुटिया में उस आदमी के साथ रह रही थी। आज दाड़िमी की देह तीस वर्ष की उम्र पार कर चुकी थी और इन वर्षों में लगातार बहती रही नदी किनारे की सर्द हवाओं ने उसके चेहरे को कठोर बना डाला था। मगर आज उसे खुद भी इस बात पर यकीन नहीं होता कि वह दस बरस की वही दाड़िमी है जो कभी ब्याह कर पहली बार कोठार गांव के 'दुर-पतीÓ के आठवें नौले में लाई गई थी।

आज हालात एकदम फर्क हो चुके थे। दाड़िमी के चारों ओर फैली प्रकृति और पर्यावरण ने सामने बैठे उस आदमी को ऐसा चेहरा प्रदान कर दिया था जिसने उस आदमी को ही नहीं, दाड़िमी को भी नए आत्मविश्वास से भर दिया था। इन बारह वर्षों में वह उस आदमी से प्यार करने लगी थी, उसी तरह का प्यार, जैसा कि एक मां अपनी संतान से करने लगती है, एक किशोर लड़की अपने दोस्त से करने लगती है। … जंगल के बीच उस सीलन भरे कुटियानुमा मंदिर में मानो दाड़िमी ने एक शिशु को जन्म दे दिया था, एक सुंदर, स्वस्थ, पवित्र और आत्मीय शिशु को… आदमी के आकार के एक शिशु को। दाड़िमी के मन में उस आदमी ने ममता, स्नेह और वात्सल्य के न जाने कितने खूबसूरत आकार अंकुरित कर दिए थे। … उसे अपने हाथों से एक नया, अपरिभाषेय संसार सौंप दिया था!…

दाड़िमी ने उस आदमी को कितनी ही बार हैरत के साथ अपनी देह को टटोलते हुए देखा था… आश्चर्य से भरे कौतूहल के साथ वह आदमी जितना ही अपनी साफ -सुथरी बन चुकी देह को टटोलता, दाड़िमी को वहां अपने जीवन की सार्थकता पसरी हुई दिखाई देने लगती। लगता, जीने के कितने ही नए अर्थ मिल गए हैं उसे। वह अब उस आदमी के साथ हमेशा रहना चाहती थी… उसके दोस्त की तरह।

वह आदमी एक दिन अचानक गायब हो गया। दाड़िमी ने उसे खोजने की कोशिश नहीं की… वह कोई बच्चा थोड़े ही है, उसने सोचा था। … बारह वर्षों तक दाड़िमी उसके लिए जंगल के कोने-कोने से खोज-खोज कर कितनी ही जड़ी-बूटियां, पेड़-पौधों की छालें और जहरीले पत्ते बटोर कर लाई थी, उनके लेप से उसकी देह पर एक कुशल पेंटर की तरह चित्रकारी करती रही थी और उन्हें पीसकर काढ़ा पिलाती रही थी। वह आदमी बिना किसी एतराज के आज्ञाकारी बच्चे की तरह दाड़िमी के आदेशों का पालन करता रहा था। लेकिन जब आदमी को नई जिंदगी मिल गई, वह दाड़िमी से नाता तोड़कर कोठार गांव की एक औरत के घर बैठ गया था।

दाड़िमी ने जब उसे पहली बार नदी किनारे की पनचक्की से पिसान का बोझा कंधे पर लादे कोठार गांव की चढ़ाई चढ़ते हुए देखा था, तो वह जरा भी नहीं चौंकी थी। उसने मन-ही-मन में सोचा था कि वह जानती थी, उसे सचमुच औरत के सहारे की जरूरत थी। … उसी पल दाड़िमी के मन में यह बात भी तो उभरी थी कि उसे भी एक पुरुष की जरूरत थी, जिसे वह जाने कब से तलाशती रही थी। … तब से लेकर आज तक चालीस साल की लंबी अवधि बीत चुकी है, दाड़िमी इतने सालों तक मंदिर के उसी सीलन भरे कमरे में रहती आ रही थी, उन कुछ वर्षों को छोड़कर, जब वह बुढ़ापे की दहलीज पर कोठार गांव के अपने ससुराल के घर में अपने देवता के लिए खाना बनाने के लिए लौट आई थी।


दाड़िमी माई की प्राकृतिक चिकित्सा, उसके पास किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद, उसकी ही नहीं, मानव समाज की बड़ी ताकत बन सकी, यह बात दाड़िमी के समर्पण से ही नहीं, स्टीफन हॉकिंग द्वारा लिखे गए उक्त विवरण से भी स्पष्ट हो जाती है। इससे यह बात तो साफ हो ही जाती है कि कोरे तर्कों और गणित की गणनाओं के आधार पर न तो हम संसार के सबसे शक्तिशाली मस्तिष्क हॉकिंग के भौतिक सिद्धांतों को सिद्ध कर सकते और न हिंदी की एक उप-भाषा मध्य-पहाड़ी को बोलने वाली, किस्मत की मारी, गंवार दाड़िमी के उस उपचार को, जिसे उसने अपनी कुटी में जबर्दस्ती लाए गए आदमी के इलाज के रूप में बतौर इलाज आजमाया था। इस रूप में इन दोनों खोजों में कोई अंतर नहीं है! काश, ज्ञान-विज्ञान से जुड़े हमारे आधुनिक मनीषियों के पास इस पर विचार करने का अवकाश होता!…

किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ है, हालांकि आगे क्या हुआ होगा, इसका अनुमान आज के इस विकसित युग में लगा पाना मुश्किल नहीं है। हजारों-लाखों सालों से इस ब्रह्मांड में एक ही बात दुहराई जाती रही है : आदमी और औरत की एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हुई देह और उनमें से अंकुरित होती कलाएं। उनकी इकसार परिणति… सृष्टि का विस्तार… सहस्रवीर्य, सहस्रयोनि और सहस्राक्ष… पाठकों से मेरा विनीत आग्रह है कि आगे आने वाले विवरण को इनरुवा लाटा और दाड़िमी माई से जुड़ी कहानी के अंत के रूप में न देखा जाए। …

….
एक दिन नौ कुड़ी बाखइ के आठवे घर में, जिसमें साठ-सत्तर साल पहले दाड़िमी बहू ब्याह कर लाई गई थी, फिर से एक अलग तरह का शोर सुनाई दिया था। …
एक बूढ़ी माई 'नौ कुड़ी बाखइÓ के गोठ में अपने दोपहर के भोजन के लिए निर्वस्त्र होकर भात उबाल रही थी। ऐसा वह लंबे समय से करती आ रही थी। कुछ समय पहले उसकी धोती, जिसे पहनकर वह अपने देवता के लिए खाना बनाती थी, फटकर तार-तार हो चुकी थी। उसके पास बदलने के लिए दूसरी धोती नहीं थी… कुछ दिनों तक तो वह धोती को उसी हालत में अपनी देह पर लपेटकर खाना बनाती रही थी, मगर कपड़े की भी तो अपनी जिंदगी होती है, उसे गल जाना ही था!… दाड़िमी माई सोचती है, अगर वह कपड़े पहनकर रसोई बनाएगी तो अपने देवता को जूठी देह से खाना खिला रही होगी, जो शास्त्रों और परंपरा के विरुद्ध होगा!…

पाठकों से मेरा फिर से अनुरोध है कि मुझसे यह रहस्य न पूछा जाए कि दाड़िमी माई कब और कैसे कोठार गांव के अपने ससुराल के घर में पहुंची? किसने उसे इस बात की अनुमति दी?… मैं सिर्फ एक संकेत कर सकता हूं। संभव है कि ऐसा हुआ हो, दस साल की दाड़िम बहू जब साठ-सत्तर की दाड़िमी माई हो गई होगी, तो अपने ही घर में उसके प्रवेश करने पर कोठार गांव की तीसरी-चौथी पीढ़ी ने कोई ऐतराज नहीं किया होगा। इतने दिनों तक पुरानी बातें किसकी स्मृति में बची रहती हैं?

सबकुछ बदला… पीढ़ियों, सामाजिक सरोकारों, खान-पान, रुचियों और आपसी रिश्तों में फर्क आया, मगर जो चीज नहीं बदली, वे थे दाड़िमी माई के संस्कार। वह चाहती तो अपनी बिरादरी की परवाह किए बगैर अपनी मर्जी से रसोई बना सकती थी… इस उम्र में उसे टोकने वाला था ही कौन! (अब तो पुरोहित भी उसे नहीं रोकते!) मगर पुरखों की रीति और अपने देवताओं की पूजा से वह कैसे इनकार कर सकती थी। … कैसे अपने और देवता के बीच किसी और की उपस्थिति सहन कर सकती थी!…

…एक बूढ़ी निर्वस्त्र औरत कैसी होती है, यह देखने के लिए कोठार गांव के सारे नंगधड़ंग बच्चे दोपहर के वक्त नौकुड़ी बाखइ के आठवें घर के गोठ को घेर लेते; बुढ़िया की ओर कंकड़-पत्थर फेंकते हुए उछलते-कूदते और उसकी नंगी देह की ओर इशारा करते हुए हंसते। हालांकि एक बूढ़ी-नंगी देह में हंसने या उपहास के लायक कुछ भी तो नहीं होता, मगर जिसे देखकर बच्चे हंस रहे होते, बूढ़ी दाड़िमी माई उसे अपनी एक हथेली से ढंके हुए, दूसरे हाथ में डंडा थामे बच्चों के पीछे-पीछे भाग रही होती। …
महानग्नी महानग्नं धावतम अनुधावति।

इमास् तु तस्य गो रक्ष यभ मामद्धि चौदनम्। । (अथर्व. 20.136 और ऋग्वेद खिला. 5.22)
यहां पर विचार योग्य मुद्दा यह है कि क्या दाड़िमी माई को 'महानग्नीÓ संबोधन से पुकारना ठीक रहेगा? और वे बच्चे भला कैसे 'महानंगेÓ हो गए। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि कोठार गांव की चिलचिलाती दुपहरी में नौकुड़ी बाखइ के आठवें गोठ के आगे बच्चों का कौतूहल किस चीज को लेकर था और हमारी दाड़िमी दादी इस उम्र में किस चीज को लेकर इतना शरमा रही थी कि उसे अपने अप्रासंगिक हो चुके हिस्से (ऋग्वेद की भाषा में 'गोÓ यानी गाय) को हथेली से छिपाना पड़ रहा था!…
सहस्राब्दियों से निरंतर लड़े जा रहे सुर और असुर शक्तियों के इस अपराजेय युद्ध रूपी नाटक का यह कैसा विचित्र पटाक्षेप है… जो न सुखांत है और न दु:खांत!

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