क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
और हम जो हो गये निराधार
पलाश विश्वास
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
सुन्दर लाल बहुगुणा की उम्र अब 87 साल की है और वे पक्के गांधीवादी और सर्वोदयी हैं।चंडी प्रसाद भट्ट जी उनसे छोटे हैं।भट्ट जी अभी पहाड़ों में बने हुए हैं और धूम सिंह नेगी जाजल घाटी में सक्रिय हैं।
हर साल आने वाली बाढ़,भूकंप बारंबार और अक्सरहां भूस्खलन और उनसे भारी टिहरी महाभीमाकार जलाशय से बेदखल गांवों और घाटियों,डूब में शामिल तबाह हो रहे मध्य हिमालय में सुन्दरलाल बहुगुणा के साथी और अनुयायी और पहाड़ को भले यह नारा याद हो न हो,उन्हें और उनकी पत्नी विमला बहुगुणा को अब भी हर बात में यही बात नजर आती है,जिसे वे बार बार दोहराते भूलते नहीं है।
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
लोग इसे स्मृतिविभ्रम भी मान सकते हैं लेकिन यह अटूट आस्था प्रकृति और पर्यावरण चेतना की है,मनुष्यता और सभ्यता के भूत वर्तमान और भविष्य का सरोकार भी है इस अकेले नारे में। जिसका गंगासफाई या हिंदुत्व राष्ट्रवाद की बिजनेस फ्रेंडली तकनीकी मुक्त बाजार में शायद ही कोई प्रासंगिकता है।
लेकिन किसी सुन्दरलाल बहुगुणा के लिए तो यह बीजमंत्र है ही जो हम भाषा बेदखल संस्कृति अवक्षय के शिकार लोकजड़ों से उखड़े लोगों के लिए नीरस पुनरावृत्ति मात्र है जो धार्मिक आस्था मसलन जय बदरी विशाल नमो नमो की तरह धर्मोन्माद यकीनन पैदा नहीं करता।
इसीलिए शायद इस केसरिया कारपोरेट समय में इस विध्वंस महाप्रलय की कगार पर खड़े महादेश में धार पर किसी गूंज की तरह सुंदरलाल बहुगुणा और उनका चिपको आंदोलन विकाससूत्र विरुद्धे हैं और राज्यतंत्र की मजबूरी है कि न वे उन्हें कश्मीर बना सकता है,न मणिपुर और न मध्य भारत।
हालांकि कश्मीर से लेकर अरुमाचल तक समूचे हिमालय के विरुद्ध जो युद्ध जारी है अनवरत उसे हम हमेशा चीनविरुद्धे छायायुद्ध के स्मृति विभ्रम में जीते मरते रहेंगे।
प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध जो कारपोरेट विध्वंस का अतिक्रमण है,उसे नजरअंदाज करने का जनादेश है और मिथ्या सीमाओं का युद्धोन्माद में निष्णात वर्तमान के रोबोटिक पीढ़ियों के बेनागरिक हैं हम वर्णशंकर।
दरअसल मुक्तबाजारी महाविनाश के कगार पर खड़े इस महादेश का सबसे बड़ा मुद्दा भी यही है।
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
केदार जल आपदा पर भारतीय कारपोरेट मीडिया के पहाड़ और हिमालय नजरअंदाज पर्यटन धार्मिक हवाई कवरेज से लहुलूहान मैंने सारे देशी विदेशी संपादकों को पहाड़ से करीब डेढ़ हजार किमी दूर कोलकाता से एक खुली चिट्ठी अंग्रेजी में लिखी थी,जिसे आउटलुक संपादक उत्तम सेनगुप्त ने फारवर्ड भी किया था,और जो हस्तक्षेप में लगी भी थी कि आपदा प्रबंधन में जनपदों,गांवों,घाटियों,ग्लेशियरों और स्थानीय जनता की सुधि भी ली जाये।
जो केदार जलप्रलय के अवसान के बाद अब तक नहीं ली गयी है और आगामी विपर्ययों के आपदा प्रबंधन के डीफाल्ट में भी ऐसी किसी तकनीक के ईजाद होने के आसार नहीं है और न कोई जनांदोलन है और न राजनीतिक सदिच्छा है सर्वव्यापी सत्ता कारपोरेट वर्चस्व के अलावा।
जल जमीन,बयार और जीवन के मूलभूत आधार पर बीबीसी हिंदी के अलावा फोकस किसी ने नहीं किया।
दिल्ली में कनाट प्लेस के बाहरी सर्किल से इंडिया गेट की तरफ खुलने वाली सड़क कस्तूरबा गांधी मार्ग परजो हिंदुस्थान टाइम्स की लंबी सी इमारत है,वहां से कभी कादंबिनी और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे प्रकाशन होते थे।
शिवानी की छोटी बहन नीलू कुमार डीएसबी में हमारे अंग्रेजी अध्यापिका और उस परिवार के दूसरे तमाम लोग नैनीताली होने की वजह से अपने ही लोग,लेकिन मृणाल पांडेय से हमारा कभी संवाद हुआ नहीं है।जिन्हें हम बेहतर लेखिका हमेशा मानते रहे हैं लेकिन उनकी ऊंचाई को स्पर्श करने की हमारी स्पर्द्दा रही नहीं है,उनके बाकी परिजनों से अंतरंग आत्मीयता के बावजूद।
हिंदुस्तान में हम हिमांशु जोशी की वजह से जाया करते थे और मनोहर श्याम जोशी की सघन सापेक्षिक उच्चता से मुग्ध होकर लौटते थे।
इसबार अपने तराइया कस्बे के हैरी पुत्तर बीबीसी हिंदी के संपादक राजेश जोशी को इसी भवन में दाखिल होते ही सलमान की गरमजोश जादुई झप्पी से निपटने के बाद हमने जो कहा कि यार राजेश,लंदन से लौटकर तुम्हारी लंबाई कुछ बढ़ ही गयी,वह मजाकिया टिप्पणी कतई नहीं है।
इससे मनोहर श्याम जोशी की कद काठी हिली मिली तो है ही,इस हिमालय के मुद्दों को बारंबार हाईलाइट करने और भारतीय जनता को जनसुनवाई का मौका बार बार देते रहने की हिंदी मीडिया के आखिरी ठिकाने में मोरचाबंद बीबीसी हिंदी टीम की सार्थक भूमिका पर हम जैसे कमतर इंसान की रूह के पैमाने पर बाकी हिंदी और भारतीय मीडिया के मुकाबले उनके कद की सही ऊंचाई यही है। बाकी भारतीय मीडिया से ऊंची।यह विडंबना है लेकिन कटु सत्य भी है कि हम बीबीसी को छू भी नहीं सकते।
केदार जल प्रलय एक अपरिहार्य परिणाम है और आपदा प्रबंधन के लिए वह फिलहाल इतिहास है और मध्य हिमालय अब न सिर्फ ऊर्जा और बांध और डूब प्रदेश हैं,उसे तेजी से तिब्बत की तर्ज पर कैलाश मानसरोवर और शायद एवरेस्ट से जोड़कर धर्म और पर्यटन की बहुराष्ट्रीय मुनाफा वसूली की पुरजोर प्राथमिकता है।
सारा हिमालय अब या तो सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून है।
सारा हिमालय अब या तो स्थानीय वाशिंदो से बेदखल कारपोरेट धर्म है या कार्पोरेट बिजनेस है या कारपोरेट पर्याटन है।
सारा हिमालय अब या तो पिघलता ग्लेशियर है या फिर निरंतर भूस्खलन है या निरंतर जलप्रलय।या अविराम प्राकतिक आपदाओं की सुनामी जिसे हम अब केसरिया नमो सुनामी बताते अघाते भी नहीं,न शर्मिंदा होते हैं।
सारा हिमालय अब या तो अनंत डूब है या फिर विनाशकारी चीड़ महारण्य सीमेंटी है जिसके रगों में बहती पगडंडियां और अविरल जलधाराएं दिशाहीन हैं।नदियां सारी बंधी बंदी,झीलें सारी मरी हुई मछलियां और अनंत संड़ांध से सराबोर हिमालय यह।
या सारा हिमालय अब सिडकुल है जिसमें पहाड़ के लोगों का कोई रोजगार नहीं है।जहां कोई श्रमकानून नहीं है जो शिक्षा बाजार का काकटेल है ,वही मेरा हरियाला हुआ धूसर जलछवि हिमालय है धवल नहीं मलिन म्लेच्छ बाकी हिंदुस्तान के लिए।
क्योंकि देवभूमि के हिंदू दरअसल आदिवासी मूलनिवासी कमतर हिंदू है और बलिप्रदत्तों के लिए वैदिकी पूजा पद्धति की अटूट परंपरा जारी है।
या सारा हिमालय अब किस्सा वासेपुर है और जहां भूमाफिया सर्वशक्तिमान है जो रोज रोज भूमि उपयोग बदल रहा है।इंच दर इच उनका कब्जा है और बाकी जो धरती बची है वह धारा 370 है।
सारा सवर्ण हिमालय उसी वर्ण वैषम्य रंगभेद का शिकार है जो गति दुर्गति बाकी वंचितों की है और मजा यह है कि सारा हिमालय सवर्ण है और सारे पहाड़ी या देव हैं या देवादिदेव और देवियां सारी की सारी बंधुआ मजदूरिनें हैं और भविष्य वर्तमान के गैसचैंबर में एक बूंद आक्सीजन को तरस रहा है।
सिक्किम और सैन्यनियंत्रण से बाहर गांतोक से नाथुला और नीचे तीस्ता तक के पहाड़ पर रिसते जख्मों पर दौड़ती विकास बुलेटों की गूंज सर्वत्र घनघोर हैं और सुन्दरलाल बहुगुणा और विमला बहुगुणा की बूढ़ी आवाजें कुंवर प्रसूण,प्रताप शिखर,भवानी भाई,सुरेंद्र भट्ट,चिपको माता गौरा पंत के महाप्रयाण के बाद साठ और सत्तर के दशकों की तरह इस नारे की गूंज मुक्ताबाजारी महाकोलाहल में बना नहीं सकतीं।
जबकि भारतीय कारपोरेट धर्मांध मीडिया समूह में आर्थिक सुधारों के बहाने हिमालय तो क्या समूची कायनात और इंसानियत से हो रहे बलात्कार शीत्कारों के अलावा कोई आवाज कहीं नहीं है ।कोई जनसुनवाई नहीं है।
हम जानते हैं कि हमारी औकात दो कौड़ी नहीं है और साठ और सत्तर के दशकों के अवसान के बाद हमारी औकात नवारुणदा के कंगाल मालसाट के कालातीत दंडवायस काक की तरह भी नहीं है,जिसके अविराम कांव कांव में मनुष्यता के पक्ष में कोई गुरिल्ला युद्ध का कोई अक्लांत मोरचा बन सकें और न हम कोई काजी नजरुल हैं जो उदात्त कंठ से कह सकें,मम शिर नेहारि नत शिर शिखर हिमाद्रिर।
हम उत्तुंग धवल शिखरों ग्लेशियरों से घिरी अंधों के जनपदसमग्र जिसे देवभूमि कहा जाता है,उसकी प्रवासी संतान मात्र है और अपने ही जल जमीन जंगल से बह निकलती रक्तनदियों की सुनामियों के विरुद्ध मोर्चा बांधने के लिए इन बूढ़ी आवाजों की गोलंदाजी के सिवाय हमारे पास फिलवक्त कोई दिव्य पाशुपत ब्रह्मास्त्र वगैरह नहीं है।
कि जिससे हम अपने बेदखल स्वर्ग के लिए कोई युद्ध घोषणा कर सकें।
न हम इस देश के प्रधानमंत्री हैं और न हो सकते हैं जो कायाहीन शत्रुता की उपासना में निरंतर युद्ध करें और प्रकृति और पर्यावरण के खिलाफ भी जिनकी तमाम फौजें लगातार मोर्चा बंद हों।
हम अपनी जनता के पक्ष में उन अकेले सिपाहियों में हैं जो इस महादेश के सर्वत्र सजे कुरुक्षेत्र चक्रव्यूह में रथी महारथियों से घिरे अकेले अभिमन्यु की तरह मृत्यु अभिशप्त हैं।
हम कोई मूर्ति पूजा के लिए सुंदरलाल जी और विमला जी से गंगासागर से गंगा तक की उलट यात्रा के तहत बसंतीपुर छूकर बिजनौर होकर देहरादून में सरकारी आतिथ्य झेलकर मिलने नहीं गये।गये तो अतीत से वर्तमान और भविष्य के सेतुबंधन के हनुमान प्रयत्न के तहत ही।
हालाकिं इस धर्मोन्मादी कारपोरेट राष्ट्र में हम हनुमान बन भी नहीं सकते।क्योंकि हम हनुमान का संजीवनी पर्वत से नाता कोई नहीं है और वे तो गुजारत के वैसे ही ब्रांड अंबेसैडर हैं जैस सुपरस्टार अमिताभ बच्चन।
चिपको आन्दोलनके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा हैं ,ऐसा भी हम नहीं मानते।
गौरा पंत और उनकी महिलाब्रिगेड को याद करते हुए हमारे लिए यह कहना असंभव भी है।लेकिन सच तो यह है कि ९ जनवरी सन १९२७ को कथित देवों देवियों की की नरकयंत्रणा भूमि उत्तराखंडके टिहरी रियासत के सिल्यारा में जनमे सुंदरलाल बहुगुणा उस पर्यावरण चेतना के भीष्मपितामह हैं,जिनकी सोच के मुताबिक भारतनिषिद्ध वैश्विक पर्यावरण चेतना है और उसका भी मुद्दा वही,क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
प्राथमिक शिक्षा के बाद वे लाहौर चले गए और वहीं से बी.ए. पास करने वाले सुंदरलाल बहुगुणा ने करीब पैंतीस साल बाद हुई मुलाकात के बाद भी हमें पहचान गये,यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं।
सविता को बगल में बैठाकर उनसे वे अपनी बेटी की तरह जो बतियाये हजारों मील दौड़ने के बाद उसकी सारी थकान एकमुश्त छंदबद्ध संगीतमय हो गयी।
स्मृति भ्रम के शिकार हमारे पूर्वज पुरखे नहीं हुए,ऐसा हमारा मानना है क्योंकि वे प्रकृति के नियमों से बंधे प्रकृति के साहचर्य से जुड़े अनुशासनबद्ध लोग होते हैं और हम चूंकि प्रकृति और मनुष्यता के चौतरफा हीरक सर्वनाश कीजुगत में पल पल षड्यंत्र में सक्रिय मृतात्माएं हैं ,रोबोट क्लोन है,जिन्हें न प्रकृति की परवाह है और न मनुष्यता की,हमारे लिए वे स्मृति विभ्रम के शिकार लोग होते हैं और उनकी अंत्येष्टि बिना हम उन्हें श्रद्धासुमन भी नहीं चढ़ा सकते।
जैसे साम्यवाद के,सामाजिक न्याय के मौलिक क्रांतिकारी गौतम बुद्ध को उनके ही अनुयायियों ने भव्य इमारतें तामीर करके तंत्र मंत्र यंत्र तिलिस्म में कैद करके उनके शील,उनके रक्तहीन महाविप्लव,उनके साम्य और उनके सामाजिक न्याय को बाट लगा दिया,वैसा ही तमाम जनांदोलनों और विचारधाराओं की नियतिबद्ध परिणति हैं।
हम ईश्वर की आस्था में निष्णात पल प्रतिपल ईश्वर और धर्म की हत्या में नियोजित पीढियों के रोबोटिक क्लोन हैं जो धरती को तबाह करके अंतरिक्ष,नीहारिकाएं और आकाशगंगाएं जीतना चाहते हैं और जो भारतीय कृषि समाज के महाविनाश की कीमत पर महाशक्तिधर स्वयं सर्वशक्तिमान ईश्वर तानाशाह फासीवादी बनने को उत्कट अश्लील हैं।
सन १९४९ में मीराबेन व ठक्कर बाप्पाके सम्पर्क में आने के बाद ये दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी किए। दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया।इसे भी लोग याद नहीं करते सवर्ण देवभूमि महाविनाश कुरुक्षेत्रे हिमालयमध्ये।न दलितों के दुकानदार इसकी इजाजत देंगे।
अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिल्यारा में ही 'पर्वतीय नवजीवन मण्डल' की स्थापना भी की। सन १९७१ में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
बहुगुणा के 'चिपको आन्दोलन' का घोषवाक्य है-
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है। बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड आफ नेचर नामक संस्था ने १९८० में इनको पुरस्कृत भी किया। इसके अलावा उन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
पर्यावरण को स्थाई सम्पति माननेवाला यह महापुरुष आज 'पर्यावरण गाँधी' बन गया है।लेकिन न भारतसरकार और न उत्तराखंड सरकार को पर्व त्योहार पर सरकारी गाड़ियों से अतिथि और फल भेजने से ज्यादा कोई परवाह इस भीष्म पितामह की है।
जो कंटक शय्या पर हैं और तृष्षा से काठ काठ कंठ उनका है लेकिन इस धरती परकोई धनुर्धर अर्जुन द्वापर के बाद हुआ नहीं कि उनकी प्यास बुझाने को धरती फोड़कर जलस्रोत निकाल लें।
होते अर्जुन तो उनके लिए भी असंभव होता यह कार्यभार क्योंकि वह मछली की आंख नही कोई।क्योंकि आकाश पाताल और मर्त्यभूमि में कहीं अब पानी का कोई ठिकाना नहीं हैं और रेडियोएक्टिव विकिरण से गल रहे हैं तमाम ग्लेशियर जो रेगिस्थान में बदल रहे हैं और इस कायनात में न अब कभी पानी होगा और न अनाज होगा ।हमारे लिए सिर्फ टैबलेट होंगे।
आज यही तक।बाकी मुद्दों पर चर्चा के लिए इसे मुखबंध ही समझें।तब तक यद कीजै यही पहाड़ा कि
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
और हम जो हो गये निराधार
Sunderlal Bahuguna
Sunderlal Bhahuguna | |
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Born | 9 January 1927 (age 87) Maroda village, Tehri Garhwal, Uttarakhand[1] |
Occupation | activist, Gandhian, environmentalist |
Spouse(s) | Vimla Bahuguna |
Children | 3 |
Sunderlal Bahuguna (born 9 January 1927)[2] is a noted Garhwalienvironmentalist, Chipko movement leader and a follower of Mahatma Gandhi's philosophy of Non-violence and Satyagraha. This idea of chipko movement was of his wife and the action was taken by him. For years he has been fighting for the preservation of forests in the Himalayas, first as a member of the Chipko movement in the 1970s, and later spearheaded the Anti-Tehri Dam movement starting 1980s, to early 2004.[3] He was one of the early environmentalists of India,[4] and later he and people associated with the Chipko movement later started taking up environmental issues, like against large dams, mining and deforestation, across the country.india pays him a tribute for his contribution for the trees.[5]
He was awarded the Padma Vibhushan, India's second highest civilian honour, on 26 January 2009.[2]
Contents
[hide]Early life[edit]
Sunderlal Bahuguna was born in village Maroda, near Tehri, Uttarakhand on 9 January 1927. He claimed in a function arranged at Kolkata, that his ancestors bearing surname Bandopadhyaya, migrated from Bengal to Tehri, some 800 years ago.[6] Early on, he fought against untouchability and later started organising hill women in his anti-liquor drive from 1965 to 1970.[7] He started social activities at the age of thirteen, under the guidance of Shri Dev Suman, who was a nationalist spreading message of non-violence[8] and he was with Congress party of Uttar Pradesh (India) at the time of Independence.[9] Bahuguna also mobilised people against colonial rule before 1947.[10] He adopted Gandhian principles in his life and married his wife Vimla with the condition that they would live among rural people and establish ashram in village.[10] Inspired by Gandhi, he walked through Himalayan forests and hills, covering more than 4,700 kilometres by foot and observed the damage done by mega developmental projects on fragile eco-system of Himalaya and subsequent degradation of social life in villages.[10]
Chipko movement[edit]
Chipko movement started in 1973 spontaneously in Uttar Pradesh, in an effort to save trees and forests from felling by forest contractors.[11] In Hindi, "Chipko" literally means "to stick" and people started sticking to trees when it was being cut.Chipko movement later inspired Appiko Movement in Karnataka. One of Sunderlal Bahuguna's notable contributions to that cause, and to environmentalism in general, was his creation of the Chipko's slogan "Ecology is permanent economy." Sunderlal Bahuguna helped bring the movement to prominence through about 5,000-kilometer trans-Himalaya march[10]undertaken from 1981 to 1983, travelling from village to village, gathering support for the movement. He had an appointment with the then Indian Prime Minister Indira Gandhi and that meeting is credited with resulting in Ms. Gandhi's subsequent 15-year ban on felling of green trees in 1980.[3] He was also closely associated with Gaura Devi, one of the pioneers of the movement.
Anti Tehri Dam protests[edit]
He has remained behind the anti-Tehri Dam protests for decades, he used theSatyagraha methods, and repeatedly went on hunger strikes at the banks of Bhagirathias a mark of his protest.[12] In 1995, he called off a 45-day-long fast following an assurance from the then Prime Minister P.V. Narasimha Rao of the appointment of a review committee on the ecological impacts of the dam, thereafter he went on another long fast another fast which lasted for 74 days at Gandhi Samadhi, Raj Ghat,[13] during the tenure of Prime Minister, H.D. Deve Gowda, he gave personal undertaking of project review. However despite a court case which ran in the Supreme Court for over a decade, work resumed at the Tehri dam in 2001, following which he was arrested on 20 April 2001.
Eventually, the dam reservoir started filling up in 2004, and on 31 July 2004 he was finally evacuated to a new accommodation at Koti, a little hillock, along the Bhagirathi where he lives today, continues his environment work.[3]
Sunderlal Bahuguna has been a passionate defender of the Himalayan people, working for temperance, the plight of the hill people (especially working women). He has also struggled to defend India's rivers.[14][15]
Awards[edit]
- 1981 Padma Shri by the government of India, but he refused
- 1986 Jamnalal Bajaj Award for constructive work.[16]
- 1989 Honorary Degree of Doctor of Social Sciences was conferred by IIT Roorkee
- 2009: Padma Vibhushan
Books written[edit]
- India's Environment : Myth & Reality with Vandana Shiva, Medha Patkar[17]
- Environmental Crisis and Humans at Risk: Priorities for action with Rajiv K.Sinha[17]
- Bhu Prayog Men Buniyadi Parivartan Ki Or (Hindi)[17]
- Dharti Ki Pukar (Hindi)[17]
References[edit]
- ^ Bahugunabetterworldheroes.com.
- ^ ab Padma Vishushan awardees Govt. of India Portal.
- ^ ab c Bahuguna, the sentinel of Himalayas by Harihar Swarup, The Tribune, 8 July 2007.
- ^ Sunderlal Bahuguna, a pioneer of India's environmental movement... New York Times, 12 April 1992.
- ^ How green is their valley The Times of India, 22 September 2002.
- ^ Banerjee, Sudeshna (13 March 2011). "Bengali Bahuguna". The Telegraph,Calcutta. Retrieved 8 October 2012.
- ^ Sunderlal Bahuguna culturopedia.com.
- ^ Pallavi Thakur, Vikas Arora, Sheetal Khanka, (2010). Chipko Movement (1st ed.). New Delhi: Global Vision Pub. House. p. 131. ISBN 9788182202887.
- ^ Shiva, Vandana (1990). Staying alive: women, ecology, and development. London: Zed Books. p. 70. ISBN 9780862328238.
- ^ ab c d Goldsmith, Katherine. "A Gentle Warrior". Resurgence & Ecologist. Retrieved 8 October 2012.
- ^ ab Chipko Right Livelihood Award Official website.
- ^ Big Dam on Source of the Ganges Proceeds Despite Earthquake Fear New York Times, 18 September 1990.
- ^ "If the Himalayas die, this country is nowhere". An Interview with Sunderlal Bahuguna with Anuradha Dutt (1996 Rediff Article). Uttarakhand.prayaga.org. Retrieved on 1 May 2012.
- ^ 'My fight is to save the Himalayas' Frontline, Volume 21 – Issue 17, 14–27 Aug 2004.
- ^ Bahuguna uttarakhand.prayaga.org
- ^ "Jamnalal Bajaj Awards Archive". Jamnalal Bajaj Foundation.
- ^ ab c d "Sunderlal Bahuguna". Retrieved 8 October 2012.
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