हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।
बाकीर दोस्तन से हमार अर्जी यह कि हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।
पलाश विश्वास
हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।हमको जो जानत है,ऊ इस बयान का मतलब बूझ लें।जो जानबे ना करै,उनन को का मतलब कि कित्ते जोरल हम भौंकल वानी।
यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है।हुड़के की थाप पर थूकनेवाला कलेजा तो एक ही था।
विशुद्ध अराजनीतिक अवस्थान है।अपने लोगों के हित के लिए तो हम कुछ न कुछ करते रहेंगे,चाहे जो जइसन समझ लीजै।
देवभूमि कहकर पहाड़ की खाल नोंचेने वाले कसाइयों को बख्शने वाले दूसरे हो सकते हैं, हम तो कतई नहीं।
हां , हमको हउ न चाहिए।
न कुर्सी,न सम्मान, न पुरस्कार, न दर्जा उर्जा और न पैसा उइसा,न दवा दारु।
ऐसा हम राजनीतिक दंगल में कूदे बिना ही कर सकते हैं और यकीनन करेंगे भी।
कारपोरेट दलालों के खिलाफ हम उत्तराखंड में लड़ेंगे।उत्तराखंड से बाहर हमका एइसन कोई हंगामा करने की कोई जरुरत नहीं है।
पहले तो म्हारा माफीनामा पढ़ लिया जाये कि मैं दिल्ली गया तो सबसे संपर्क साध नहीं सका।ऐसा मेरे गांव बसंतीपुर,कस्बा दिनेशपुर,सिडकुलिया राजधानी के गृहक्षेत्र तराईभर में और नैनीताल छोड़ बाकी पहाड़ में भी हुआ कि मैं कुछ ही लोगों से मिल पाया और जैसे सुरेंद्र ग्रोवर जी को शिकायत है,वैसे ही अनेक मित्रों प्रियजनों को शिकायत है कि मैंने उनकी खोज खबर नहीं ली।
भइया दिल्ली हम गये सिर्फ वीरेनदा से मिलने और उनसे मिलने हम फौजें इकट्ठी करने नहीं जा सकते थे।
बाकी दो हमारे सबसे खासमखास रिश्तेदार हैं,एक हुुए समयांतर वाले पंकज बिष्ट और दूसरे हैं आनंदस्वरुप वर्मा,पता नहीं कब उठ जायें और उनका किया कराया मटियामेट हो जायी।ऐसा न हो,इसका भी कुछ बंदोबस्त होना चाहिए।
जो लोग वैकल्पिक मीडिया की जंग जारी रखना चाहते हैं,मेरी इसबार की दिल्ली यात्रा उनके लिए ही थी।टीआरपी वालों के लिए कतई नहीं।
मैं हैसियतों की परवाह कतई नहीं करता और लोग यह न जानते हो तो उनकी गलती है।
पत्रकारिता और राजनीति में एको चीज कामन है,जो कुर्सी पे गधा घोड़ा खच्चर भैंस ऊट सांप नेवला कुछ भी हुआ करें,उन उगतन सूरज को सबै अर्घ्य दिया करें छठ मइया का नाम लेइके।डूबतन को भी अर्घ्य।का पता ,का न का बिगड़ लीन्हैं।हम ससुरे बिहारो से पत्रकारिता शुरु किलै,अखंड बिहार के माफिया डेन धनबाद से।किस्सा वासेपुर समझें।तो तनि बाहुबलि,धनपशु,कुर्सियन की रंगदारी हम तनिको कम बूझै हैं।
बीबीसी संपादक राजेश जोशी का कद यकीनन थोड़ा लंबा हुआ है लंदन से वापसी के बाद,लेकिन वह हमारे घरु टीम जनसत्ताई और तराइया दोनों के लिहाज से लंगोटिया हैं।बाकीर उनने इस देस के कारपोरेट मीडिया के खालउधेड़ु,पर्दाफाशु,पेइडू,स्क्रावलिंग रबड़घिस्सू घटनाघनघटा सनसनी के बजाय मुद्दों को संबोधित करने और जनसुनवाई विमर्श और संवाद की जो पत्रकारिता जारी रखी है और केदार जलप्रलय का जो कवरेज किया है, मित्र ,पूर्व सहकर्मी और तराइया होने की हैसियत से राजेशवा की पीठ सीधे ठोंकने की तमन्ना थी।
और बीबीसी वाली उनकी टीम को भी लाइव धन्यवाद देना था,तो पहलीबार बीबीसी वालों से भी मिल आया हिंदुस्तान टाइम्स भवन में जहां कभी हम मनोहर श्याम जोशी,हिमांशु जोशी वगैरह वगैरह से मिलने जाया करते थे,लेकिन हिंदुस्तान समूह में मेरा कभी कुछ छपा उपा नहीं है।मृणाल जमाने में भी नहीं।
कहने को जनसत्ता का सदर दफ्तर भी दिल्ली में है और मैंने किसी से फोनियाया तक नहीं।हम कुल मिलाकर तीन ही लोगों मिलने दिल्ली गये थे, अव्वल वीरेनदा,फिर आनंद जी और फिर पंकजदा।
बाकी अमलेंदु अभिषेक तो हमारे भविष्य ठहरे।रियाज मिलबे नहीं करा।जिनके घर ठहरे ,वह डीएसबी से कोलकाता तक हमारा निरंतर दुरंतो दोस्त हुआ।
इसलिए हमारी अर्जी यह कि हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।
लंबी यात्रा से सविता की हालत बेहद खराब थी,लेकिन हम सिर्फ सुंदरलाल बहुगुणा जी से मिलने देहरादून पहुंचे,जो वहां अपनी बेटी के साथ रहते हैं।
सविता तो सिर्फ बाबूजी को प्रणाम करने देहरादून गयी तो हमारा मकसद भी सिर्फ उन्हीं से मिलना था।
इसीलिए हमने सिर्फ राजीव नयन जी को सूचना दी थी, बाकी गीता गैरोलादीदी और भास्कर उप्रेती को ही जानकारी थी तो कमल जोशी तो कोटद्वार से बरसात के बीच उधार का स्कूटी लेकर बीजापुर स्टेट गेस्टहाउस पहुंचे देर रात कि डीएसबी में बीकर से चायपीने वाले हम लोग इतने अरसे बाद मिल रहे थे।
राजीव नयन जी का फंडा घमासान है,जिनने राजधानी दून में हमारे ठहराव का अतिविशिष्ट इंतजाम किया हुआ था और सुबह पता चला कि बगल में ही माननीय मुख्यमंत्री हरीश रावत आसन जमाये बैठे हैं।
सुरक्षा बंदोबस्त से तो हमारी सांसे वैसे ही बंद हो जाती हैं।
कमल जोशी पहुंचा तो मैंने थोड़ी शिकायत भी की कि किसी केघर में ठहरते तो सबसे मुलाकात हो जाती,इसपर कमल ने कहा कि लाल लंगोट छोड़ी अभी नहीं।तुम्हें क्या लेना देना।सुबह उठकर सुंदरलाल जी से मलकर उल्टे पांव लौट जाना।
और हुआ दरअसल वहीं,भास्कर सुनीता को लेकर हल्द्वानी लौट गया तो कमलापंत को शाम तक पहुंचना था और गीता दीदी को कई दफा बहुगुणा जी से बातचीत के दौरान कोशिश करने पर भी फोन लगा नहीं पाया।
सुंदर लाल जी से बातें खत्म हुईं तो हम फिर बिजनौर की राह पर निकल पड़े।उन बातों का मतलब आज के बुनियादी मसलों से है और इस महादेश के वजूद से उनका वास्ता है,जिसपर अभी बात शुरु होनी है।
किस्सा सारा हूबहू इसलिए कि कोई इस पर न हंगामा बरपा दें कभी कि मैं दून में सत्तापक्ष का अतिथि भी रहा,तो इसका खुलासा करने का तकाजा है यह।
मैं जैसे नैनीताल जाता हूं,वैसे ही मुंह उठाकर खाला का घर समझकर देहरादून चला गया कि अपने भी गर वहां होंगे। सरकारी ठहराव का अंदाजा न था।तैयारी भी न थी अपनी।
दरअसल दून के इस कायाकल्प से तो हकबक हम हुए और हमें लगा कि ससुरे किस सीमेंटी महाअरण्य में आ फंसे। जेब मैं पैसे होते तो अलग ठहरते भी और सुंदरलाल जी से उस बेशकीमती मुलाकात की वीडियोग्राफी भी करवा लेते।
हम तो फक्कड़ हैं ही और राजीवनयन जी हुए गुरु घंटाल।
लेकिन यकीन मानिये कि न अपण को कहीं से सम्मान, पुरस्कार, टिकट,प्लाट,घर,दर्जा वगैरह वगैरह से कोई लेना देना है और न राजीव नयन को।
इसे हिच हाइकिंग समझ लें और हमें सत्ता स्पर्श दोष से मुक्त कर दें और आगे कभी इसे लेकर बवाल न हो,इसलिए सविस्तार यह खुलासा।
किशोरी से क्षमायाचना और उनके आभार के साथ।
क्योंकि उन्हीं राजीव नयन जी की महिमा से मुख्यमंत्री कार्यालय से हमारे लिए गाड़ी का बंदोबस्त हुआ और किशोरी जी ने भुगतान वगैरह करके हमें खर्च से बचा लिया।
त्रिपुरा और असम में राज्यसरकारों का अतिथि बनकर हम कभी गये जरुर थे,लेकिन देहरादून में इस अति विशिष्ट स्वागत के लिए हम प्रस्तुत न थे।
किशोरी उपाध्याय ने राजीवनयन की मित्रता की वजह से जरुर कोई राजनीतिक जोखिम जरुर उठाया है,क्योंकि हम तराई और पहाड़ में उतने गऊ भी नहीं माने जाते।लेकिन हम फिलहाल उत्तराखंड में हर हालत में भाजपाइयों को रोकना चाहते हैं तो राजनीति करें या नहीं करें,कांग्रेस पार्टी और उत्तराखंड सरकार का अहसान उतारने का मौका शायद मुझे मिल भी जाये।
हम अपने लोगों से खुलकर यह तो कह ही सकते हैं कि केशरिया न बनें अगर और सत्यानाश न चाहते हों।
ऐसा हम यकीनन कहेंगे क्योंकि डेढ़ साल बाद रिटायर हो जाना है और तब मैं इतना तो कर ही सकता हूं।
खास तौर पर बंगाली शरणार्थियों को देश भर में बेनागरिक बनाने के,देश सेखदेड़ने के संघी कार्यक्रम और बंगाल से बाहर सर्वत्र उन्हें मूलनिवासी न मानने की भाजपाई सरकारों की करतूत के बाद इतना करना तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार बनता है और इसके लिए मुझ पर सत्ता की किसी मेहरबानी की कोई जरुरत है ही नहीं।
यह हमारी सेवा मुफ्त होगी।बिना शर्त होगी।बशर्ते कि उत्तराखंड के कांग्रेसी और दूसरे भाजपाविरोधी ताकतें हमारी मदद लेने को तैयार हो जायें।
हम हर हाल में पहाड़ में केसरिया सुनामी रोकना चाहेंगे और इसके बदले में हमें कुछ भी नहीं चाहिए।
शमशेर दाज्यू और राजीवदाज्यू पहले ही पुष्टि कर चुके हैं कि रावत जी भी कभी हमारे जमाने में आंदोलनारी रहे हैं।वनों की नीलामी के खिलाफ वे जेलयात्रा कर चुके हैं और हमारे पिताश्री के भी सबसे अलग ताल्लुकात रहे हैं।
इंदिरा ह्रदयेश जी जब 77 के तख्तापलट के बाद हल्द्वानी से चुनाव लड़ी थी,तब हल्द्वानी में उनकी सभा में हेमवती नंदन बहुगुणा जी के अलावा मैं भी मंच पर था, जब भारी पथराव हो रहा था और पुलिस को लाठीचार्ज वगैरह करना पड़ा था।
प्रदीप टमटा जो सांसद बने ,वे हमारे मित्र थे।बाकी मंत्री वंत्री तो पहले से जानत रहे हैं।
हम सुंदर लाल जी से मिलने गये थे मिलकर आ गये।किस्सा खत्म पैसा हजम।
हम दून पहुंचे तो राजीव नयन दाज्यू के सौजन्य से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोरी उपाध्याय जी कांग्रेस भवन में अपने साथियों के साथ मौजूद थे।
उत्तराखंड में पहाड़ और तराई में हमारी भी थोड़ी बहुत पहचान ठैरी और हम भाजपाइयों को पहाड़ का और सत्यानाश करने के लिए सत्ता हस्तातंरित करने के विरुद्ध थे।रहेंगे।
बिजनौर से निकलकर हम मेरठ की नयी चकाचौंध के मध्य से निकलकर मोदीनगर के बाद ढाबे में काफी पीकर बस में बैठे तो गाड़ी गाजियाबाद होकर कश्मीरी गेट की तरफ निकलने लगी और बिजनौर में साइंलेट रहने वाले एअरटेल का नेटवर्क जुड़ गया।दिलीप मंडल ने ठीक याद रखा कि मैं दिल्ली पहुंचने वाला ही हूं।
दिलीप मंडल अब भारी भरकम पत्रकार और अध्यापक हैं।सुमंत और दिलीप दोनों बेहद कामयाब और ब्रांडेड पत्रकार हैं,उसीतरह जैसे अभय कुमार दुबे और एकदा हमें पत्रकारिता में घुसेड़ने वाले राहुल सांकृत्यायन पर अधूरे रिसर्च के साथ जेएनयू में नामवरी शिकार उर्मिलेश भाई या पुण्यप्रसूण वाजपेयी।
हिंदी पत्रकारिता के दिन बहुर रहे हैं,इनकी बेशकीमती कामयाबी से ऐसा ही लगता है।ऐसे अनेकों हिंदी बांग्ला और कुल मिलाकर भारतीय पत्रकार हैं,जिनसे कभी न कभी हमारा रिश्ता रहा है।पी साईनाथ और हार्डीकर जैसे कुछ बिना किसी निजी परिचय के हमें थोड़ा बहुत घास डालते हैं तो बाकी लोग हमें न पिद्दी मानते हैं और न पिद्दी का शोरबा।
हमें इसका कोई गिला शिकवा नहीं है।बूढ़ापे तक परम सारस्वत प्रभाष जोशी ने जो हमें विंध्य भव कर गये,हम वहीं अस्पृश्य मध्यभारत या गैरनस्ली हिमालयी भूत बनकर रह गये.जिसकी प्रेतमुक्ति के आसार हैं नहीं।
दिलीप मंडल अब भी हमें अपना बड़ा भाई कहते शर्माते नहीं हैं और इससे बड़ी बात यह कि अनुराधा के असमय निधन के बाद मैं अब तक उसके साथ खड़ा नहीं हो पाया।लेकिन यकीन मानिये कि मैं दिलीप को फोन भी नहीं कर सका।
पता चला कि संजय जोशी सिनेमा आंदोलनकारी इलाहाबादी भी वीरेनदा के इंदिरापुरम के बगल में कहीं बसते हैं,लेकिन मैं उसके बारे में पूछताछ करना भी भूल गया।कश्मीरी गेट जाने से पहले झिलमिल उतरने का मौका है,जहां मेरी बहन रहती हैं।
अपने जिगर के टुकड़े दिल्ली और अन्यत्र अनेक हैं।जैसे कि वह गुलमोहर का पेड़,जो बचपन मे सिधार गया।हमारे सरोकार दूसरे हैं।मुद्दे भी दूसरे हैं।एजंडा अलग है।मिशन भी अलग है।सो,दिल में उमड़े घुमड़े बले बहुतै कुछ,हमरा राह कुछ अलग ही है।
जिगर के टुकड़ों कि इसलिए हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।
दिनेशपुर में चौराहे पर सुबीर गोस्वामी के दादाजी डा.निखिल राय का दवाखाना था।जो मशहूर बंग्ला फिल्मस्टार विकास राय के भाई थे।दिनेश पुर में जात्रा के जनक हगी कहिए उन्हें।वे बूढ़े थे।सुबीर के पिताजी उनके दामाद।
सुबीर के पिताजी और माताजी दिनेशपुर में थिएटर करने वाले थे साठ के दशक में।रवींद्र नजरुल जयंती भी करने वाले वही।
अब न सुबीर के नानाजी हैं और न उनके पिता।उसके पिता डा.अजय गोस्वामी ने मेरे ससुराल वालों को कभी हिदायत दी थी कि पलाश को देखने की जरुरत नहीं है।न उसके घर वार देखने की जरुरत है।
और सविता इसतरह मेरी जिंदगी में आ गयीं। बिना जांच पड़ताल।खुदा की नियामत की तरह।
डा.निखिल राय और डा.अजय गोस्वामी मेरे वजूद में शामिल है लेकिन उनके अते पते के साथ मेरे शैशव,मेरे बजपन,मेरे कैशोर्य,मेरे विद्रोह,मेरी अराजकता के सारे ब्यौरे सिलसिलेवार गायब हैंय़लेकिन मेरा कोई हक नहीं बनता कि मैं दो बूंद आसूं भी बहा सकूं।
तराई में बंगालियों की सांस्कृतिक पहचान के दोनों आइकन अब शायद ही किसीको याद हों जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू शायद ही किसी को याद हों।इसीतरह भुला दिये जायेंगे हमारे गिरदा भी।
हमको भूल गये हमारे महबूब ,किससे गिला करें,किससे करें शिकायत कि उन्हें हमारी याद आती नहीं है।
दूसरी तीसरी कक्षा से लेकर एमए तक डा.निखिल राय से दुनियाभर के मसलों पर,फिल्म,थियेटर,कला साहित्य,संस्कृति,इत्यादि पर मेरी बहसें होती रहतीं थीं।उनकी आरपामकुर्सी पर सोये मैंने जाडो़ं और गरमियों की छुट्टिया बिता दीं।
सारे दिवास्वप्न उसी दवाखाना में देखीं।
दुनियाभर के हसीन इशारे और गुस्ताखियों का,शैशव से कैशोर्य और जवानी के इंतजार का वही डेरा था।
स्वप्न सुंदरी के साहचार्य का दिलफरेब अहसास का तिलिस्म भी वहीं।
रसगुल्लों के आखिरी जायके की यादें भी वहीं दफन हो गयीं।जीते जी वे स्मृतियां मेरे ख्वाबों में भी लौटेंगी नहीं अब कभी।
दिनेशपुर कस्बे का हमारा वह पुराना ठिकाना अब खत्म है।सुबीर के परिवार में बंटवारे के तहत वह जगह कम पड़ गयी,बिक गयीं और हमारी दिलोदिमाग को नेस्तनाबूत करने वाली तमाम स्मृतियां जमींदोज हो गयीं।
डरता हूं कि इसी तरह मेरा घर,परिवार,गांव,देहात ,तराई पहाड़,देश महादेश और यह दुनिया भी जमींदोज न हो जाये किसी दिन।
वह दिन यकीनन कयमत का सबब होगा।
हमका माफी दियल जायी कि हमरा कौनो कसूर नइखे।