यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है
धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति
आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ है कि हमारे सबसे जाँबाज, समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वँस के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं… यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है, मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिन्दी और हिन्दी समाज की त्रासदी है…
पलाश विश्वास
नामदेव धसाल पर लिखे हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख की लिंक बांग्ला विद्वतजनों के ग्रुप गुरुचंडाली में जारी करने पर मुझे चेतावनी दे दी गयी, तो मैं उस ग्रुप से बाहर हो गया। अब इस आलेख के लिये इंटरनेट सर्वर से भी हमारी शिकायत दर्ज कराय़ी गयी।
नामदेव धसाल बेहतरीन कवि ही नहीं हैं, हम उन्हें विश्वकवि तो नहीं कहते न हम ओम प्रकाश बाल्मीकी को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानेंगे और न धसाल को मुक्तिबोध से बड़ा कवि, लेकिन दलित पैंथर आन्दोलन के जरिये अपने कवित्व से बड़ा योगदान धसाल कर गये हैं।
धसाल बना दिये जाने की प्रक्रिया से निकलने को बेताब हिन्दी के एक और बहुजन लेखक एचएल दुसाध जी ने अपनी श्रद्धांजलि में धसाल और दलित पैंथर आन्दोलन का सटीक मूल्याँकन किया है,जिसे हमने पहले ही आपके साथ साझा किया है।
धसाल को हिन्दुत्व में समाहित करने लायक परिस्थितियाँ बनाने का जिम्मेदार अंबेडकरी विचलित आन्दोलन का जितना है, उससे कम प्रगतिशील खेमे का नहीं है।
इसी सिलसिले में शैलेश मटियानी के त्रासद हश्र पर भी विवेचन जरूरी है, जो बाल्मीकि और तमाम मराठी साहित्यकारों से भी पहले दलित आत्मकथ्य लिख रहे थे, जिन्हें कसाई पुत्र होने की हैसियत से लेखक बनने की वजह से मुंबई भाग जाना पड़ा,फिर सुप्रतिष्ठित होने के बावजूद इलाहाबाद की साहित्य बिरादरी में अलगाव में रहना पड़ा।
बहुजनों ने शैलेश मटियानी और उनके साहित्य को जाना नहीं, अपनाया नहीं, पहाड़ चढ़ने की इजाजत भी उस कसाईपुत्र को थी नहीं।
अल्मोड़ा में किंवदंती सरीखा किस्सा प्रचलित है कि किसी सवर्ण लड़की से प्रेम की वजह से वे हमेशा के लिये हिमालय से निष्कासित कर दिया और देवभूमि ने आज तक बाद में उनके हिन्दुत्व में समाहित हो जाने के बाद उनके अतीत के इस कथित दुस्साहस के लिये उन्हें माफ नहीं किया। वे हल्द्वानी में ही स्थगित हो गये।
हमने सत्तर के दशक में देखा, हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी, शैलेश मटियानी की कहानी प्रेतमुक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते थे।
हमसे कभी संवाद की स्थिति में न होने के बावजूद लक्ष्मण सिंह बिष्ट उनके प्रशंसक थे, तो पूरे पहाड़ में तब शायद सन तिहत्तर चौहत्तर में गढ़वाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अलकनंदा के एक शैलेश मटियानी केंद्रित अंक के सिवाय हमें लिखित पढ़त में पहाड़ के लोगों की ओर से शैलेश मटियानी के समर्थन में आज तक कुछ देखने को नहीं मिला।
मेरे सहपाठी प्रिय सहयात्री कपिलेश भोज और हम अचंभित थे पहाड़ में शैलेश मटियानी के सामाजिक साहित्यिक बहिष्कार से जबकि शिवानी की भी पहाड़ में भयानक प्रतिष्ठा थी, है।
प्रगतिशील खेमा ने शैलेश मटियानी जी को कभी नहीं अपनाया और जब अपने बेटे की इलाहाबाद में बम विस्फोट से मृत्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर वे हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह ही हिन्दुत्व में समाहित हो गये, तब शैलेश मटियानी के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को एक सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिन्दी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर ही दिया। शैलेश मटियानी की लेखकीय प्रतिष्ठा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका आखिर मिल गया।
धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि मुकदमा के जरिये आदिविद्रोही शैलेश मटियानी ने हिन्दी के संपादकों,पत्रकारों, आलोचकों, प्रकाशकों और देशभर में उन्हें केन्द्रित हिन्दी और हिन्दी समाज के चहुँमुखी सत्यानाश के लिये प्रतिबद्ध माफिया समाज के खिलाफ महाभियान छेड़ दिया था, जिसका अमोघ परिणाम भी उन्होंने भुगत लिया और ताज्जुब की बात हिन्दी समाज में किसी ने न उफ किया और न आह। अपने ही समाज के सबसे बड़े लेखक को अर्श से फर्श पर पछाड़ दिये जाने की खबर तो खैर भारतीय बहुसंख्य बहुजन समाज को हो ही नहीं सकी है। लावारिस से शैलेश मटियानी की यह प्रेतगति तो होनी ही थी।
धसाल हिन्दुत्व में समाहित थे और गैरप्रासंगिक हैं, ऐसा फतवा देना बहुत सरलतम क्रिया है और इसका वास्तव में न कोई यथार्थ है और न सौंदर्यबोध। लेकिन इससे भी जरुरी सवाल है कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ है कि हमारे सबसे जाँबाज, समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वँस के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं।
यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है, जिसके तहत जनप्रतिबद्ध जनमोर्चे पर आदमकोर बाघों का हमला निरन्तर जारी है। धसाल और मटियानी अतीत में स्वाहा हो गये, अब देखते रहिये कि आगे किसकी बारी है। हमारे ही अपने लोग घात लगाये बैठे होते हैं कि मौका मिले तो रक्तमांस का कोई पिंड हिस्से में आ जाये।
जाहिर है कि शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति असम्भव है। अंबेडकरी बहुजन खेमा तो शायद ही शैलेश मटियानी को जानते होंगे क्योंकि उन्होंने जाति पहचान के तहत न लेखन किया और न जीवन जिया है। वे अस्मिता परिधि को अल्मोड़ा से भागते हुये वहीं छोड़ चुके थे।
विष्णु खरे का धसाल के प्रति जो रवैया है, वह अभिषेक को गरियाते हुए नाम्या को मौकापरस्त करार देने के बाद धसाल की मृत्यु के बाद बीबीसी पर उनके रचनाकर्म के महिमामंडन की अतियों तक विचलित है।
खरे जी हमारे अत्यन्त आदरणीय सम्पादक और कवि हैं, उनका जैसा कवि सम्पादक बनने के लिये मुझे शायद सौ जनम लेना पड़े, लेकिन कहना ही होगा कि मसीहाई हिन्दी के प्रगतिशील साहित्यकार, सम्पादक, आलोचक,प्रकाशक गिरोह किसी को भी जब चाहे तब आसमान पर चढ़ा दें और जब चाहे तब किसी को भी धूल चटा दें।
हमारे प्रिय कैंसर पीड़ित कवि मित्र वीरेन डंगवाल और उनके मित्र कवि मंगलेश डबराल की कथा तो आम है कि कैसे उनके खिलाफ निरन्तर एक मुहिम जारी रही है।
लेकिन हिन्दी के तीन शीर्ष कवि त्रिलोचन शास्त्री, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह प्रगति के पैमाने में बार बार चढ़ते उतरते पाये गये हैं।
बाबा तो फकीर थे और उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी। संजोग से बाबा नागार्जुन और हमारे प्रियकवि शलभ श्रीराम सिंह उन इने गिने लोगों में थे जो शैलेश मटियानी के लिखे को जनपक्षधरता के मोर्चे का विलक्षण रचनाकर्म मानते थे।
कोलकाता में एक बार त्रिलोचन जी से पंडित विष्णुकांत शास्त्री के सान्निध्य समेत हमारी करीब पांच छह घंटे बात हुयी थी, तब उन्होंने प्रगतिशाल पैमाने से तीनों बड़े कवियों के प्रगतिशील प्रतिक्रियाशाल बना देने की परिपाटी का खुलासा किया,जिसका निर्मम प्रहार पहले मटियानी और फिर धसाल पर हुआ।
नैनीताल डीएसबी से एमए अंग्रेजी से पास करने पर अंग्रेजी की मैडम मधुलिका दीक्षित और अपने बटरोही जी के कहने पर शोध के लिये हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय निकल पड़े। बटरोही जी साठ के दशक में मटियानी जी के यहाँ रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। तो उन्होंने मुझे सीधे मटियानी जी के घर पहुँचने को कहा।
तदनुसार शेखर पाठक से रेल किराया लेकर हम पहाड़ छोड़कर मैदान के बीहड़ जंगल में कूद गये और सहारनपुर पैसेंजर से सुबह-सुबह प्रयाग स्टेशन पहुँच गये। वहाँ से सीधे शैलेश जी के घर, जिन्होंने तुरन्त मुझे रघुवंश जी के यहाँ भेज दिया।रघुवंश जी और मटियानीजी दोनों चाहते थे कि मैं अंग्रेजी में शोध के बजाय हिन्दी में एमए करुँ।
जिस कमरे में बटरोही जी शैलेश जी के घर ठहरे थे, वह कमरा शायद उनके भतीजे या भांजे का डेरा बन गया था। तब मैं अपना बोरिया बिस्तर उठाकर सीधे सौ, लूकर गंज में इजा की शरण में शेखर जोशी के घर पहुँच गया।
आम पहाड़ियों की आदत के मुताबिक मैंने छूटते ही जैसे मटियानी जी की आलोचना शुरु की तो शेखर दाज्यू ने बस जूता मारने की कसर बाकी छोड़ दी। इतना डाँटा हमें, इतना डाँटा कि हमें पहले तो यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि हर पहाड़ी मटियानी के खिलाफ नहीं है। फिर यह अहसास जागा कि कोई जेनुइन रचनाकार किसी जेनुइन रचनाकार की कितनी इज्जत करता है।
हम लोग मटियानी जी की बजाय हमेशा शेखरदाज्यू को बड़ा कथाकार मानते रहे हैं। लेकिन उस दिन शेखर जोशी जी ने साफ-साफ बता दिया कि हिन्दी में शैलेश मटियानी के होने का मतलब क्या है।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे इलाहाबाद में करीब तीन महीने के ठहराव में शैलेश मटियानी और शेखर जी का अभिभावकत्व मिला। मेरे लेखन में भी उनका हमेशा अभिभावकत्व रहा है। तब लूकरगंज से कर्नलगंज मैं अक्सर पैदल चला करता था। विकल्प के विज्ञापन के जुगाड़ में मैं भी मटियानी जी के साथ भटकता रहा हूँ। अमृत प्रभात और लोकवाणी नीलाभ प्रकाशन भी जाता रहा हूँ उनके साथ तो व्हीलर के वहाँ भी। थोड़े पैसे उन्हें मिल जाते थे, तो बेहिचक खाने पर भी बुला लेते थे वे। वह आत्मीयता भुलायी नहीं जा सकती।
लेकिन अंबेडकरी प्रगतिशील दुश्चक्र में मैंने अभी तक इस प्रसंग में कुछ नहीं लिखा था।
आदरणीय खरे जी के सर्कसी करतब से मुझे धसाल प्रसंग में शैलेश जी पर लिखना ही पड़ रहा है,जिनके बारे में धसाल पर बेहतरीन लिखने वाले एचएल दुसाध जी भी नहीं जानते थे कि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और पहचान क्या थी और बहुजन जीवन का कैसा जीवंत दस्तावेज उन्होंने किसी भी दलित साहित्यकार से बेहतर तरीके से पेश किया है। फिर जब उन्होंने धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया, तब भी मैंने उन्हें नजदीक से देखा है। इतने गुस्से में थे कि राजीव गांधी से जुड़ जाने के अभियोग के खंडन के लिये सामने होते धर्मवीर भारती तो उन्हें कच्चा चबा जाते। उनके रोज के संघर्ष, उनके रचनाकर्म के जनपक्ष और उनके पारिवारिक जीवन को बेहद नजदीक से देखने के बाद हम अवाक यह भी देखते गये कि कैसे हिन्दी समाज ने संघी होने के आरोप में उनके आजीवन जीवन संघर्ष, सतत प्रतिबद्धता और दलित जीवन के प्रामाणिक जीवंत रचनाकर्म को एक झटके के साथ खारिज कर दिया। लेकिन हमने भी हिन्दी परिवेश की तरह अपने पूर्वग्रह से बाहर निकलकर सच कहने की कोशिश नहीं की, यह मेरे हिस्से का अपराध है।
हम सारे लोग बाल्मीकि को प्रेमचंद से बड़ा साहित्यकार साबित करते रहे, लेकिन बहुजन पक्ष के सबसे बड़े कथाकार को पहचानने की कोशिश ही नहीं की और उनके व्यक्तित्व कृतित्व को हमेशा सवर्ण सत्तावर्गीय दृष्टि से खारिज करते चले गये।
यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है, मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिन्दी और हिन्दी समाज की त्रासदी है।