नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा पर आनंद स्वरुप वर्मा की टिप्पणी............
मोदी की नेपाल यात्रा
आनंद स्वरूप वर्मा
शायद ही किसी देश का समूचा नेतृत्व इस कदर हीनताबोध का शिकार हो जैसा मोदी की यात्रा के दौरान नेपाल में देखने को मिला। संविधान सभा भवन में मोदी के भाषण के दौरान एक जादुई सम्मोहन में डूबे सभासद हतप्रभ थे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अपने दबदबे से आक्रांत रखने वाले 'विस्तारवादी'भारत का कोई प्रधानमंत्री इतनी प्यार मोहब्बत की बातें उनसे कर सकता है। वे नरेन्द्र मोदी को पहली बार रू-ब-रू देख रहे थे, पहली बार सुन रहे थे। उस नरेन्द्र मोदी को जिसके बारे में तरह-तरह की आशंकाएं थीं-क्या वह नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र देखना चाहते हैं, क्या उनकी निगाह करनाली नदी पर लगी हुई है, क्या वह नेपाल में बढ़ रहे चीन के प्रभाव पर अपनी चिंता व्यक्त करेंगे, क्या वह नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता के लिए उन्हें कोसेंगे आदि-आदि। नरेन्द्र मोदी ने उनकी आशंकाओं के विपरीत ऐसा कुछ भी नहीं किया जबकि उनकी यात्रा का मुख्य मकसद ही नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना और नदी जल समझौतों को अपने अनुकूल बनाने का रास्ता तैयार करना था। वह जिस संघ संप्रदाय से आते हैं उसके एक घटक विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र को 'हिन्दू हृदय सम्राट'कहा था। औरों की तो बात छोड़िए मोदी की पार्टी भाजपा के अभी हाल तक अध्यक्ष रहे और मौजूदा समय में गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित सभी प्रमुख नेताओं ने किसी न किसी समय नेपाल के हिन्दू राष्ट्र न रहने पर दुख जाहिर किया है और कामना की है कि नेपाल को उसका पुराना गौरव फिर हासिल हो जाए। लेकिन मोदी इस पर कुछ नहीं बोले-उल्टे उन्होंने 'संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की कल्पना'के प्रति पूरा आदर दिखा कर राजावादियों को निराश किया।
मोदी ने अपने भाषण का लगभग तीन चौथाई हिस्सा नेपालियों के गौरव गान में बिताया। उन्होंने बताया कि 'हिन्दुस्तान ने वह कोई लड़ाई नहीं जीती है जिस जीत में किसी नेपाली का रक्त न बहा हो।'भाड़े के सैनिकों के रूप में नेपाली गोरखा को सारी दुनिया में जो (कुख्याति) मिली है उस पर जब प्रचण्ड जैसे लोगों ने ताली बजायी तो हैरानी होती है। अपने भाषण में मोदी ने जब कहा कि 'भारत का संविधान हिमालय को समुंदर के साथ जोड़ता है'तो किसी भी सभासद के चेहरे पर बेचैनी नहीं दिखायी दी। यहां याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि दशकों पहले जब भारत के प्रथम प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संसद में कहा था कि उत्तर में हमारी सीमा हिमालय तक जाती है तो नेपाली कांग्रेस के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोईराला ने तुरत इसका विरोध किया था और बताया था कि भारत की सीमा हिमालय से पहले ही खत्म हो जाती है और उसके बाद नेपाल की सीमा शुरू होती है जो हिमालय तक जाती है। नेहरू जी को अपना यह कथन वापस लेना पड़ा था और खेद व्यक्त करना पड़ा था लेकिन नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर नेपाल के अखबारों में कोई संपादकीय भी देखने को नहीं मिला।
मोदी की दो दिन की यात्रा को समग्र रूप में देखें तो ऐसा लगता है कि किसी हिन्दू राष्ट्र का प्रधानमंत्री एक दूसरे हिन्दू राष्ट्र में पहुंचा हो। उनके भाषण का समूचा अंडरटोन धार्मिक आग्रहों से भरा हुआ था। एमाले नेता माधव नेपाल की तिरुपति के मंदिर में सर मुंडवाने से लेकर माओवादी नेता अमिक शेरचन के देवी को भैंसे की बलि देने तक की घटनाओं से अनभिज्ञ न रहने वाले मोदी को भरोसा है कि प्रचण्ड, बाबूराम और इन जैसे कुछ की बात छोड़ दें तो यहां के कम्युनिस्टों को भी धर्म की अफीम चटाना बहुत आसान है। मोदी ने इस मानसिकता का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने अपने भाषण में बताया कि सोमनाथ की भूमि से चलते हुए उन्होंने काशी विश्वनाथ की छत्रछाया में राष्ट्रीय राजनीति की शुरुआत की और आज पशुपतिनाथ के चरणों में आ पहुंचे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि काशी का प्रतिनिधि बनने की वजह से नेपाल से स्वतः भी उनका नाता जुड़ गया 'क्योंकि काशी में एक मंदिर है जहां पुजारी नेपाल का होता है और नेपाल में पशुपति नाथ है जहां का पुजारी हिन्दुस्तान का होता है'। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि हिन्दू धर्म में पूज्य जो 51 शक्तिपीठ हैं उनमें से दो नेपाल में ही हैं। उन्होंने जनकपुर की धरती को याद किया जहां सीता माता पैदा हुई थीं। सारी दुनिया में गणेश की मूर्ति को दूध पिलाने में माहिर संघी प्रचार तंत्र ने बड़े सुनियोजित ढंग से यह फैला रखा है कि मोदी जी अब अगले 20-25 साल तक भारत पर राज करेंगे और नेपाल जैसे 'हल्ले-हल्ला को देश'में इस प्रचार के प्रभाव में डूबे सभासदों के बीच मोदी के प्रति सहज अनुराग की वजह को समझा जा सकता है। वे भाव विभोर और मंत्रमुग्ध होकर मोदी को सुन रहे थे। हद तो तब हो गयी जब मोदी के इस कथन पर कि 'नेपाल एक सार्वभौम राष्ट्र है'सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। ऐसा लगा जैसे भारत के प्रधानमंत्री से ये मीठे बोल सुनने के लिए उनके कान कब से तरस गए थे। क्या उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि नेपाल सचमुच एक संप्रभु राष्ट्र है?
हीनता की यह गं्रथि उस समय से ही दिखायी दे रही थी जब से मोदी के पांव काठमांडो की धरती पर पड़े थे। उनके स्वागत समारोह को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे अंग्रेजों के शासनकाल में महारानी विक्टोरिया भारत के दौरे पर आयीं हों। खुद प्रधानमंत्री सुशील कोईराला का प्रोटोकोल तोड़कर हवाई अड्डे पर आना, शानदार गॉर्ड ऑफ ऑनर, 19 तोपों की सलामी, संसद को संबोधित करने का अवसर देना-ये सारी बातें नेपाल के इतिहास में पहली बार हो रही थीं। मोदी ने अपनी वाक्पटुता और भाषण शैली से ऐसा समा बांध दिया था कि लगभग 20 मिनट के भाषण के बाद जब उनके हाव-भाव, उनकी बॉडी लैंग्वेज में एक उग्र आत्मविश्वास का प्रवेश हुआ तो इसे सभासद भांप ही नहीं सके। अब वह उपदेश की मुद्रा में आ गए थे और बता रहे थे कि संविधान क्या होता है और संविधान निर्माण में किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह उन्हेें कह रहे थे कि 'आप अपने नेतृत्व का परिचय दीजिए'और भारत आपका साथ देगा। फिर उन्होंने 'हिट' ;भ्प्ज्द्ध का नायाब मंत्र दिया जिसका अर्थ उन्होंने बताया कि एच यानी हाईवे (सड़क), आई यानी आईवे (सूचना क्रांति) और टी यानी ट्रांसवे (संचार क्रांति)। यहां तक आते-आते उनकी शैली ऐसी हो गयी थी गोया वह नगालैंड या मिजोरम जैसे किसी पिछड़े राज्य की असेम्बली में भाषण दे रहे हों। अब वह अपने उपकारों और उपहारों का पिटारा खोल चुके थे और उसमें से एक-एक बांट रहे थे। हिमालय पर रिसर्च से लेकर फोन की दरों को सस्ता करने, गरीबी के खिलाफ मिलजुल कर लड़ने, नेपाली छात्रों की स्कॉलरशिप में बढ़ोत्तरी करने, महाकाली नदी पर पुल बनाने आदि के वायदे करते-करते उन्होंने समापन के रूप में 10 हजार करोड़ नेपाली रुपए का आसान दर पर कर्ज देने की बात की।
असल मुद्दे पर बहुत बाद में आए। लेकिन अपर करनाली परियोजना का जिक्र भी नहीं किया जिसको लेकर सबसे ज्यादा तनाव और आशंका आज की तारीख में नेपाल के अंदर व्याप्त है। 900 मेगावाट की इस परियोजना पर जी.एम.आर नामक कंपनी के साथ 2008 में ही एमओयू हस्ताक्षरित हुआ था लेकिन स्थानीय जनता के विरोध के कारण अभी तक इस पर काम शुरू नहीं हो सका। यहां तक कि दैलेख में इस कंपनी के दफ्तर को भी लोगों ने जला दिया। लोगों को उम्मीद थी कि शायद करनाली परियोजना का भाषण में जिक्र हो। उन्होंने त्रिशूली और सेती नदी से संबंधित जल विद्युत परियोजनाओं का भी जिक्र नहीं किया जिसे भारत को पीछे छोड़ते हुए चीन ने हथिया लिया है। मोदी को पता है कि जल विद्युत परियोजनाओं के साथ भारत का उल्लेख नेपाल की एक दुखती रग है। अतीत में गंडकी और कोसी नदियों पर भारत के साथ हुए समझौतों के बाद नेपाल की जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया है। 1997 में महाकाली नदी से संबंधित परियोजना ने तो इतना गंभीर रूप लिया कि एमाले पार्टी में विभाजन ही हो गया और कई वर्षों बाद पार्टी फिर एक हो सकी। बेशक उन्होंने पंचेश्वर से जुड़ी 5600 मेगावाट की परियोजना का जिक्र किया और वादा किया कि 17 साल से ठंडे बस्ते में पड़ी इस परियोजना पर एक साल के अंदर काम शुरू हो जाएगा।
मोदी के भाषण का सबसे विडंबनापूर्ण अंश वह था जब उन्होंने हिंसा और अहिंसा की बात की। उन्होंने सदन में मौजूद उनलोगों को बधाई दी और उनका नमन किया जिन्होंने 'शस्त्र को छोड़कर शास्त्र के सहारे जीवन को बदलने'का रास्ता अपनाया। उन्हें बधाई दी जिन्होंने युद्ध को छोड़कर बुद्ध की शरण में जाना बेहतर समझा और इस संदर्भ में इस प्रयास को उन्होंने सम्राट अशोक के साथ जोड़ा। मोदी का इशारा नेपाल के माओवादियों की ओर था और पहला मौका था जब भाषण के इस हिस्से पर प्रचण्ड और बाबूराम भट्टराई के हाथ मेज पर थाप देने की बजाय निश्चल पड़े रहे और चेहरे पर मुस्कान की जगह तनाव ने ले लिया। युद्ध और बुद्ध पर मोदी ने एक लंबा प्रवचन दिया-पाखंडपूर्ण प्रवचन। शायद वह भूल गए कि नेपाल के लोगों को भी 2002 के गुजरात के उनके अतीत की जानकारी है। उन्हें भी पता है कि युद्ध से बुद्ध की ओर जाने की बात कहने वाले इस व्यक्ति ने अभी अपने देश में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में 49 प्रतिशत से लेकर 75 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जो इजाजत दी है उससे जो हथियार तैयार होंगे वे किस बुद्ध का निर्माण करेंगे! रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश के लिए ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल की जो कंपनियां आतुर दिखायी पड़ रही हैं क्या वे एक सीमा के बाद मुनाफा कमाने के लिए इन हथियारों को उन क्षेत्रों में बेचेंगी नहीं जहां संघर्ष चल रहे हैं? क्या यह बात किसी से छिपी है कि हथियारों के सौदागर किस तरह दुनिया की संसदों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जो संघर्ष के नए-नए क्षेत्रों का निर्माण कर सकें जिससे उनके हथियारों की खपत बढ़े। उस स्थिति में क्या भारत कभी यह चाहेगा कि इस उपमहाद्वीप के देशों में शांति बनी रहे? जब आप इसी को बढ़ावा दे रहे हैं तो यह युद्ध और बुद्ध का पाखंड कैसा?
नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा की तारीख काफी सोच-समझकर तय की थी। सावन का वह सोमवार जब शिव की मूर्ति पर जल चढ़ाते हैं। देश के सर्वश्रेष्ठ कांवड़िये की हैसियत में पहुंचा धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रधानमंत्री जिस वेशभूषा में सोमवार को पशुपतिनाथ मंदिर जाने के लिए प्रकट हुआ उससे उसके एक दिन पहले दिए गए भाषण की उदार और उदात्त भावना का पर्दाफाश होने में एक क्षण भी नहीं लगा। आने वाले दिन ही बता सकेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी के इन मीठे वचनों, प्रवचनों और सुभाषितों के बीच तथा नेपाल की जलसंपदा पर ललचाई निगाहों से देख रहे भारत के कॉर्पोरेट घरानों के बीच किस तरह का रिश्ता कायम होने जा रहा है।
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शायद ही किसी देश का समूचा नेतृत्व इस कदर हीनताबोध का शिकार हो जैसा मोदी की यात्रा के दौरान नेपाल में देखने को मिला। संविधान सभा भवन में मोदी के भाषण के दौरान एक जादुई सम्मोहन में डूबे सभासद हतप्रभ थे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अपने दबदबे से आक्रांत रखने वाले 'विस्तारवादी'भारत का कोई प्रधानमंत्री इतनी प्यार मोहब्बत की बातें उनसे कर सकता है। वे नरेन्द्र मोदी को पहली बार रू-ब-रू देख रहे थे, पहली बार सुन रहे थे। उस नरेन्द्र मोदी को जिसके बारे में तरह-तरह की आशंकाएं थीं-क्या वह नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र देखना चाहते हैं, क्या उनकी निगाह करनाली नदी पर लगी हुई है, क्या वह नेपाल में बढ़ रहे चीन के प्रभाव पर अपनी चिंता व्यक्त करेंगे, क्या वह नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता के लिए उन्हें कोसेंगे आदि-आदि। नरेन्द्र मोदी ने उनकी आशंकाओं के विपरीत ऐसा कुछ भी नहीं किया जबकि उनकी यात्रा का मुख्य मकसद ही नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना और नदी जल समझौतों को अपने अनुकूल बनाने का रास्ता तैयार करना था। वह जिस संघ संप्रदाय से आते हैं उसके एक घटक विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र को 'हिन्दू हृदय सम्राट'कहा था। औरों की तो बात छोड़िए मोदी की पार्टी भाजपा के अभी हाल तक अध्यक्ष रहे और मौजूदा समय में गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित सभी प्रमुख नेताओं ने किसी न किसी समय नेपाल के हिन्दू राष्ट्र न रहने पर दुख जाहिर किया है और कामना की है कि नेपाल को उसका पुराना गौरव फिर हासिल हो जाए। लेकिन मोदी इस पर कुछ नहीं बोले-उल्टे उन्होंने 'संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की कल्पना'के प्रति पूरा आदर दिखा कर राजावादियों को निराश किया।
मोदी ने अपने भाषण का लगभग तीन चौथाई हिस्सा नेपालियों के गौरव गान में बिताया। उन्होंने बताया कि 'हिन्दुस्तान ने वह कोई लड़ाई नहीं जीती है जिस जीत में किसी नेपाली का रक्त न बहा हो।'भाड़े के सैनिकों के रूप में नेपाली गोरखा को सारी दुनिया में जो (कुख्याति) मिली है उस पर जब प्रचण्ड जैसे लोगों ने ताली बजायी तो हैरानी होती है। अपने भाषण में मोदी ने जब कहा कि 'भारत का संविधान हिमालय को समुंदर के साथ जोड़ता है'तो किसी भी सभासद के चेहरे पर बेचैनी नहीं दिखायी दी। यहां याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि दशकों पहले जब भारत के प्रथम प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संसद में कहा था कि उत्तर में हमारी सीमा हिमालय तक जाती है तो नेपाली कांग्रेस के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोईराला ने तुरत इसका विरोध किया था और बताया था कि भारत की सीमा हिमालय से पहले ही खत्म हो जाती है और उसके बाद नेपाल की सीमा शुरू होती है जो हिमालय तक जाती है। नेहरू जी को अपना यह कथन वापस लेना पड़ा था और खेद व्यक्त करना पड़ा था लेकिन नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर नेपाल के अखबारों में कोई संपादकीय भी देखने को नहीं मिला।
मोदी की दो दिन की यात्रा को समग्र रूप में देखें तो ऐसा लगता है कि किसी हिन्दू राष्ट्र का प्रधानमंत्री एक दूसरे हिन्दू राष्ट्र में पहुंचा हो। उनके भाषण का समूचा अंडरटोन धार्मिक आग्रहों से भरा हुआ था। एमाले नेता माधव नेपाल की तिरुपति के मंदिर में सर मुंडवाने से लेकर माओवादी नेता अमिक शेरचन के देवी को भैंसे की बलि देने तक की घटनाओं से अनभिज्ञ न रहने वाले मोदी को भरोसा है कि प्रचण्ड, बाबूराम और इन जैसे कुछ की बात छोड़ दें तो यहां के कम्युनिस्टों को भी धर्म की अफीम चटाना बहुत आसान है। मोदी ने इस मानसिकता का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने अपने भाषण में बताया कि सोमनाथ की भूमि से चलते हुए उन्होंने काशी विश्वनाथ की छत्रछाया में राष्ट्रीय राजनीति की शुरुआत की और आज पशुपतिनाथ के चरणों में आ पहुंचे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि काशी का प्रतिनिधि बनने की वजह से नेपाल से स्वतः भी उनका नाता जुड़ गया 'क्योंकि काशी में एक मंदिर है जहां पुजारी नेपाल का होता है और नेपाल में पशुपति नाथ है जहां का पुजारी हिन्दुस्तान का होता है'। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि हिन्दू धर्म में पूज्य जो 51 शक्तिपीठ हैं उनमें से दो नेपाल में ही हैं। उन्होंने जनकपुर की धरती को याद किया जहां सीता माता पैदा हुई थीं। सारी दुनिया में गणेश की मूर्ति को दूध पिलाने में माहिर संघी प्रचार तंत्र ने बड़े सुनियोजित ढंग से यह फैला रखा है कि मोदी जी अब अगले 20-25 साल तक भारत पर राज करेंगे और नेपाल जैसे 'हल्ले-हल्ला को देश'में इस प्रचार के प्रभाव में डूबे सभासदों के बीच मोदी के प्रति सहज अनुराग की वजह को समझा जा सकता है। वे भाव विभोर और मंत्रमुग्ध होकर मोदी को सुन रहे थे। हद तो तब हो गयी जब मोदी के इस कथन पर कि 'नेपाल एक सार्वभौम राष्ट्र है'सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। ऐसा लगा जैसे भारत के प्रधानमंत्री से ये मीठे बोल सुनने के लिए उनके कान कब से तरस गए थे। क्या उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि नेपाल सचमुच एक संप्रभु राष्ट्र है?
हीनता की यह गं्रथि उस समय से ही दिखायी दे रही थी जब से मोदी के पांव काठमांडो की धरती पर पड़े थे। उनके स्वागत समारोह को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे अंग्रेजों के शासनकाल में महारानी विक्टोरिया भारत के दौरे पर आयीं हों। खुद प्रधानमंत्री सुशील कोईराला का प्रोटोकोल तोड़कर हवाई अड्डे पर आना, शानदार गॉर्ड ऑफ ऑनर, 19 तोपों की सलामी, संसद को संबोधित करने का अवसर देना-ये सारी बातें नेपाल के इतिहास में पहली बार हो रही थीं। मोदी ने अपनी वाक्पटुता और भाषण शैली से ऐसा समा बांध दिया था कि लगभग 20 मिनट के भाषण के बाद जब उनके हाव-भाव, उनकी बॉडी लैंग्वेज में एक उग्र आत्मविश्वास का प्रवेश हुआ तो इसे सभासद भांप ही नहीं सके। अब वह उपदेश की मुद्रा में आ गए थे और बता रहे थे कि संविधान क्या होता है और संविधान निर्माण में किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह उन्हेें कह रहे थे कि 'आप अपने नेतृत्व का परिचय दीजिए'और भारत आपका साथ देगा। फिर उन्होंने 'हिट' ;भ्प्ज्द्ध का नायाब मंत्र दिया जिसका अर्थ उन्होंने बताया कि एच यानी हाईवे (सड़क), आई यानी आईवे (सूचना क्रांति) और टी यानी ट्रांसवे (संचार क्रांति)। यहां तक आते-आते उनकी शैली ऐसी हो गयी थी गोया वह नगालैंड या मिजोरम जैसे किसी पिछड़े राज्य की असेम्बली में भाषण दे रहे हों। अब वह अपने उपकारों और उपहारों का पिटारा खोल चुके थे और उसमें से एक-एक बांट रहे थे। हिमालय पर रिसर्च से लेकर फोन की दरों को सस्ता करने, गरीबी के खिलाफ मिलजुल कर लड़ने, नेपाली छात्रों की स्कॉलरशिप में बढ़ोत्तरी करने, महाकाली नदी पर पुल बनाने आदि के वायदे करते-करते उन्होंने समापन के रूप में 10 हजार करोड़ नेपाली रुपए का आसान दर पर कर्ज देने की बात की।
असल मुद्दे पर बहुत बाद में आए। लेकिन अपर करनाली परियोजना का जिक्र भी नहीं किया जिसको लेकर सबसे ज्यादा तनाव और आशंका आज की तारीख में नेपाल के अंदर व्याप्त है। 900 मेगावाट की इस परियोजना पर जी.एम.आर नामक कंपनी के साथ 2008 में ही एमओयू हस्ताक्षरित हुआ था लेकिन स्थानीय जनता के विरोध के कारण अभी तक इस पर काम शुरू नहीं हो सका। यहां तक कि दैलेख में इस कंपनी के दफ्तर को भी लोगों ने जला दिया। लोगों को उम्मीद थी कि शायद करनाली परियोजना का भाषण में जिक्र हो। उन्होंने त्रिशूली और सेती नदी से संबंधित जल विद्युत परियोजनाओं का भी जिक्र नहीं किया जिसे भारत को पीछे छोड़ते हुए चीन ने हथिया लिया है। मोदी को पता है कि जल विद्युत परियोजनाओं के साथ भारत का उल्लेख नेपाल की एक दुखती रग है। अतीत में गंडकी और कोसी नदियों पर भारत के साथ हुए समझौतों के बाद नेपाल की जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया है। 1997 में महाकाली नदी से संबंधित परियोजना ने तो इतना गंभीर रूप लिया कि एमाले पार्टी में विभाजन ही हो गया और कई वर्षों बाद पार्टी फिर एक हो सकी। बेशक उन्होंने पंचेश्वर से जुड़ी 5600 मेगावाट की परियोजना का जिक्र किया और वादा किया कि 17 साल से ठंडे बस्ते में पड़ी इस परियोजना पर एक साल के अंदर काम शुरू हो जाएगा।
मोदी के भाषण का सबसे विडंबनापूर्ण अंश वह था जब उन्होंने हिंसा और अहिंसा की बात की। उन्होंने सदन में मौजूद उनलोगों को बधाई दी और उनका नमन किया जिन्होंने 'शस्त्र को छोड़कर शास्त्र के सहारे जीवन को बदलने'का रास्ता अपनाया। उन्हें बधाई दी जिन्होंने युद्ध को छोड़कर बुद्ध की शरण में जाना बेहतर समझा और इस संदर्भ में इस प्रयास को उन्होंने सम्राट अशोक के साथ जोड़ा। मोदी का इशारा नेपाल के माओवादियों की ओर था और पहला मौका था जब भाषण के इस हिस्से पर प्रचण्ड और बाबूराम भट्टराई के हाथ मेज पर थाप देने की बजाय निश्चल पड़े रहे और चेहरे पर मुस्कान की जगह तनाव ने ले लिया। युद्ध और बुद्ध पर मोदी ने एक लंबा प्रवचन दिया-पाखंडपूर्ण प्रवचन। शायद वह भूल गए कि नेपाल के लोगों को भी 2002 के गुजरात के उनके अतीत की जानकारी है। उन्हें भी पता है कि युद्ध से बुद्ध की ओर जाने की बात कहने वाले इस व्यक्ति ने अभी अपने देश में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में 49 प्रतिशत से लेकर 75 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जो इजाजत दी है उससे जो हथियार तैयार होंगे वे किस बुद्ध का निर्माण करेंगे! रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश के लिए ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल की जो कंपनियां आतुर दिखायी पड़ रही हैं क्या वे एक सीमा के बाद मुनाफा कमाने के लिए इन हथियारों को उन क्षेत्रों में बेचेंगी नहीं जहां संघर्ष चल रहे हैं? क्या यह बात किसी से छिपी है कि हथियारों के सौदागर किस तरह दुनिया की संसदों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जो संघर्ष के नए-नए क्षेत्रों का निर्माण कर सकें जिससे उनके हथियारों की खपत बढ़े। उस स्थिति में क्या भारत कभी यह चाहेगा कि इस उपमहाद्वीप के देशों में शांति बनी रहे? जब आप इसी को बढ़ावा दे रहे हैं तो यह युद्ध और बुद्ध का पाखंड कैसा?
नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा की तारीख काफी सोच-समझकर तय की थी। सावन का वह सोमवार जब शिव की मूर्ति पर जल चढ़ाते हैं। देश के सर्वश्रेष्ठ कांवड़िये की हैसियत में पहुंचा धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रधानमंत्री जिस वेशभूषा में सोमवार को पशुपतिनाथ मंदिर जाने के लिए प्रकट हुआ उससे उसके एक दिन पहले दिए गए भाषण की उदार और उदात्त भावना का पर्दाफाश होने में एक क्षण भी नहीं लगा। आने वाले दिन ही बता सकेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी के इन मीठे वचनों, प्रवचनों और सुभाषितों के बीच तथा नेपाल की जलसंपदा पर ललचाई निगाहों से देख रहे भारत के कॉर्पोरेट घरानों के बीच किस तरह का रिश्ता कायम होने जा रहा है।
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