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सबसे बड़ा फरेब यही कि बेदखल, विस्थापित यानी जिससे उसकी जान माल इज्जत पहचान और मुल्क मजहब छीन लिया गया,जिसकी रुह रौंद दी गयी और रब लूट लिया गया सरेआम,उसे या रंडी कहते हैं या शरणार्थी! विकास का कोढ़ फूटने लगा है यूरोप में जिसे आप अभूतपूर्व शरणार्थी सैलाब कह रहे हैं। फासीवाद का यह कायाकल्प है जो मुक्तबाजार बहार है। हमारे यह तो यह सैलाब कभी थमा ही नहीं है। ग्लोबीकरण और मुक्त बाजार ने इस कायनात में तमाम ज्वालामुखियों के मुहाने खोल दिये हैं और प्रकृति, मनुष्यता और सभ्यता खून की नदियों में तब्दील हैं सरहदों के आर पार,महादेशों के आर पार। पलाश विश्वास

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सबसे बड़ा फरेबयही कि बेदखल, विस्थापित यानी जिससे उसकी जान माल इज्जत पहचान और मुल्क मजहब छीन लिया गया,जिसकी रुह रौंद दी गयी और रब लूट लिया गया सरेआम,उसे या रंडी कहते हैं या शरणार्थी!

विकास का कोढ़ फूटने लगा है यूरोप में जिसे आप अभूतपूर्व शरणार्थी सैलाब कह रहे हैं।

फासीवाद का यह कायाकल्प  है  जो मुक्तबाजार बहार है।

हमारे यह तो यह सैलाब कभी थमा ही नहीं है।


ग्लोबीकरण और मुक्त बाजार ने इस कायनात में तमाम ज्वालामुखियों के मुहाने खोल दिये हैं और प्रकृति, मनुष्यता और सभ्यता खून की नदियों में तब्दील हैं सरहदों के आर पार,महादेशों के आर पार।

पलाश विश्वास

मैं पिर वही आइलान हूं जिसका हाथ पिता के हाथ से छूट गया है न जाने कब से।न जाने कब तक जारी रहना है उसका यह भसान और लोगों की सहानुभूति,करुणा और घृणा का बोझ बनकर न जाने कब तक समुंदर की लहरों से टकराता रहेगा आइलान।


महसे घना,हमसे ज्यादा टूटकर मुहब्बत कोई नहीं कर सकता क्योंकि हमें मुहब्बतों का कोई हक नहीं है और न हमें मुहब्बतों का शौक है और न मुहब्बतें हमारे लिए सीढ़ियां हैं।


फिरभी सच यही है कि दुनिया में कोई शरणार्थी मुहब्बत के लिए पैदा होता नहीं है।दुनियाभर कि जिल्लत किल्लत और नफरत उसके बैग बैगेज के साथ टैग है,कुछ न मिले कहीं तो नफरत मुकम्मल मिलती है और कोी नहीं मानता कि अपने हकहकूक की जमीन,जल जंगल जमीन से बेदखल कोई इंसान नागरिक है या एक अदद मनुष्य है।यही शरणार्थी समस्या है.यही सत्ता का किस्सा है।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।मैं भारत का बंटवारा देखता हूं।बंगाल और चीन का अकाल देखता हूं।मराठवाड़ा में दुष्काल देखता हूं।सरहदों के आर पार जारी दंगा फसाद का अनंत सिलसिला देखता हूं।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।मेरे ख्बाबों में होते हैं मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा के तमाम बेदखल खंडहरों को देखता हूं और तन्हाई में एकदम अकेला हड़प्पा और मोहनजोदोडो़ं से लेकर इनका और माया सभ्यताओं के दरो दीवार से टकराकर लहूलुहान होता हूं।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।मैं यूरोप का इतिहास देखता हूं।सोवियत संघ का विखंडनदेखता हूं।हिटलर और मुसोलिनी देखता हूं चार्ली चैपलिन बनकर मैं देखता हूं,हेल हिटलर कि कैसे किसी कातिल को रब बना दिया जाता है।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।लोकतंत्र पर बहस होती है तो ब्रिटिश पार्लियामेंट में स्पीकर के आसन पर ऊन देखता हूं मैं।शरणार्थी सैलाब में भारत का बंटवारा देखता हूं में और आदिवासी भूगोल में जारी अविराम सलवा जुड़ुम देखता हूं।मरता हुआ हिमालय देखता हूं मैं सरहदों के आर पार।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।मैं आफसा में कैद अपना जन्नत काश्मीर देखता हूं।डूब में तब्दील देश,हिमालय देखता हूं और समुंदर की मौजों को कच्छ के रण में तब्दील देखता हूं।रायपुर के पुरखौती के आसपास सैकड़ों उजाड़े गये आदिवासी गांवों की तलाश में निकलकर आदिवासी भूगोल के चप्पे चप्पे पर चुस्त चाकचौबंद सैन्य राष्ट्र देखता हूं।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।यूरोप में शरणार्थी सैलाब को देखते हुए मुझे तमाम सामंती और साम्राज्यवादी तचेहरे नजर आते हैं।दुनियाभर में उत्पादक मनुष्यों के कटे हुए हाथ पांव दीखते हैं।दुनियाभर के अनाथ और बंधुआ,मांस एक दरिया में तब्दील खून से लथपथ बच्चे दीखते हैं।बेरोजगार युवा कंबंधों का जुलूस दीखता है।जूट मिल, चाय बागान और बंद कल कारखाने,बेदखल,उजड़े खेत दीखते हैं।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।राम रावण युद्ध,महाभारत,इलियड से लेकर दुनिया के तमाम युद्ध महायुद्ध और वहां से अब भी जारी खून की नदियां और समुंदर दीखते हैं। मुझे वियतनाम दीखता है।लातिन अमेरिका और अफ्रीका नजर आते हैं।आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी।इराक,अफगानिस्तान, लीबिया,इथोपिया,सीरिया,जार्डन,फिलीस्तीन,लेबनान और इजराइल नजर आते हैं।


लोग सरहदों में कंटीली बाड़ देखते हैं और में सरहदों में अपने शरणार्थी पिता का बिंधा हुआ दिलोदिमाग फैलानी की लाश देखता हूं।मैं भूल नहीं पाता ,तोमार नाम आमार नाम वियतनाम।भूल नहीं पाता बंगालके खोये हुए बेदखल लोक गीत।भूल नहीं पाता चंगेज की तलवार,सिकंदर के हमले,हिटलर का जलवा और यहूदियों का कत्लेआम और वे कत्लेआम जो जायनी यहूदियों का काम है,जिसे मुक्त बाजार दुनिया में बाकी दुनिया का काम तमाम है।

हमसे जितनी नफरत है लोगों को,उससे निजात पाने को कायनात की सारी बरकतें नियामतें भी कम है।हम टूटकर मुहब्बत करते हैं लेकिन किसी को दरअसल हमसे मुहब्बत होती नहीं है।इसीलिए हमारा कोई मजहब भी नहीं है।हमारा कोई मुल्क नहीं है।और न हमारा कोई रब है।


मेरे पिता से ज्यादा मुहब्बत मुझसे किसी ने नहीं की।जिनने बचपन में मेरी हाथों में लाल किताब देखकर छीना नहीं,जिनने मुझे कुछ भी पढ़ने या देखने के लिए कभी मना नहीं किया,जिसने मुझ पर कोई पाबंदी नहीं लगायी और मैंने जब भी आसमान का चांद मांगा,उनने तभी आसमान में सीढ़ियां तोड़कर सितारे तोड़कर ला दिये।


मेरे पिता पूर्वी बंगाल के चंडाल नमोशूद्र अछूत किसानों की तेभागा विरासत लेकर आखिरी दम तक किसानों और शरणार्थियों के हकहकूक के लिए,मेहनतकशों के हकहकूक के लिए सरहदों के आर पार बिना पासपोर्ट,बिना वीसा दौड़ लगाते रहे,जेल जाते रहे,मार खाते रहे और अपनी तमाम हदें तोड़कर सत्ता,सियासत और मजहब की दीवारं तोड़ते रहे।मैं उनका उत्तराधिकारी भी नहीं।


मैंने अपने लोगों के न लाठियां खायी है और न जेल गया हूं और न सरहद लांघने की हिम्मत की और न एकमुश्त सियासत,मजहब और हुकूमत के मुकाबले रीढ़ सीधी करके किसी के हकहकूक की लड़ाई में जमीन पर तनकर खड़ा हुआ हैं।उनकी रीढ़ में कैंसर था और मेरी रीढ़ में महानगर है।वे खेत पर खेत हुए।मेरी किस्मत खेत खोने या खेत बेच देने की है।वे आजीवन लड़ते रहे और मैं लड़ाई से पहले ही मैदान से बाहर हूं।


उनने तेभागा देखा।

उनने बंटवारा देखा।


सरहदों के आर पार दंगों की आग में कबाब बनकर भी वे हंसते रहे और लड़ते भी रहे।


वे तजिंदगी कंटीले तारों की बाड़ से लहूलुहान वजूद की मरम्मत की।


उनने फजलुल हक औय जोगेन मंडल,बाबासाहेब और ज्योति बसु,मुजीब और इंदिरा गांधी को देखा।


हमने मौकापरस्त बिना रीढ़ बददिमाग संपादकों के सिवाय किसी को नहीं देखा इस दुनिया में।हम उस दुनिया में है जहां किसी से किसी की दोस्ती नहीं है।हर शख्स पीठ पर सीढ़ी लेकर चल रहा है और उन सीढ़ियों के अलावा उन्हें किसी भी चीज की परवाह नहीं है।रुह की भी नहीं और रब की भी नहीं।उन सीढ़ीदार लोगों के साथ मैंने अपनी जिंदगी रेत की तरह फिसलते हुए देखा है।


बचपन से मुझे पिता से कभी बनी नहीं कि क्योंकि वे अपने लोगों को शरणार्थी मानकर उनके हकहकूक की लड़ाई लड़ रहे थे और उनके जीते जी मैंने शरणार्थी पर कोई बात नहीं की।


क्योंकि मैं यह नहीं मान पाया ,न तब और न अब कि कोई मनुष्य शरणार्थी भी होता है।हर बार हमारा झगड़ा इसी बात पर होता रहा कि इंसान नागरिक होता है,शरणार्थी कभी नहीं होता।


मैंने एक पल के लिए भी खुद को वंचित कभी नहीं माना।

मैंने एक पल के लिए भी  खुद को अछूत कभी नहीं माना।

मैंने एक पल के लिए भी खुद को शरणार्थी कभी नहीं माना।


मैं जन्मजात खुद को नागरिक मानता रहा।

नागरिक न वंचित होता है,

नागरिक न अछूत होता है

और न नागरिक शरणार्थी होता है।

शरणार्थी शब्द मेरे लिए एक बेहूदा गाली है।


मैं वह पल कभी भूलता नहीं हूं जब कोलकाता में अखबार निकालने के लिए माननीय प्रभाष जोशी ने मुझे सतह से नीचे से उठाकर कोलकाता ले आये थे और कहा था कि मगलेश और अमित पर्काश सिंह तुम्हे जानते रहे हैं और समझो कि मैं भी तुम्हें जानता हूं।


मैं वह पल कभी भूलता नहीं हूं जब कोलकाता में अपने गांधीवादी समाजवादी मशहूर मित्र से हम सबका परिचय करा रहे थे प्रभाष जोशी और उन सजज्न ने मेरी बारी आते ही कहा कि इन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं।ये पूर्वी बंगाल के नमोशूद्र अछूत शरणार्थी हैं।


मेरा इतना बड़ा अपमान आजतक किसीने कभी नहीं किया।जो मैंने कभी नहीं माना कि मैं अछूत नमोशूद्र शरणार्थी हूं,उसी मैं को आखिरकार मानना पड़ा कि मैं वहीं हूं।उससे पहले मैं विशुध यूपीवाला था।उत्तराखंडी था विशुध।पहाड़ी था सौ टका।


गांधीवाद ने एक झटके से मुझे शरणार्थी और अछूत बना दिया।

उसी के साथ पत्रकारिता में मेरा कैरीयर हमेशा के लिए खत्म हो गया और कहीं कोई सीढ़ी नहीं रही मेरे लिए।सीढ़ियां खत्म।


मुझे तब समझ में आया कि कि ढिमरी ब्लाक और तेलेंगाना में पार्टी ने जब किसानों से गद्दारी की तो पिता को कितना गुस्सा आया होगा।


मुझे तब समझ में आय़ा कि जेल में सड़ कर मरनेवाले अर्जुनपुर शरणार्थी सिख गांव के बाबा गणेशा सिंह की चिता जब बसंतीपुर और अर्जुनपुर की मरी हुई नदी के उसपार उनके खेत में जला दिया गया तब क्यों कि पिता के लिए एकमुश्त जल गया तेभागा, तेलंगाना और ढिमरी ब्लाक और वे विशुध शरणार्थी रह गये।


सबसे बड़ा फरेबयही कि बेदखल, विस्थापित यानी जिससे उसकी जान माल इज्जत पहचान और मुल्क मजहब छीन लिया गया,जिसकी रुह रौंद दी गयी और रब लूट लिया गया सरेआम,उसे या रंडी कहते हैं या शरणार्थी!

मुक्त बाजार में सबसे बड़ा फरेब सियासत हुकूमत और मजहब का त्रिशुल है,जो रुह और रब को एकमुश्त बिंधकर हर इंसान को शरणार्थी बना रहा है।जैसे मुझे कभी मालूम न था और मैं मान भी नहीं रहा था कि आखिरकार मैं फिर वही वंचित अछूत शरणार्थी हूं,उसी तरह किसी को नहीं मालूम,कोई मान नहीं रहा कि वे भी आखिर फिर वही वंचित अछूत और शरणार्थी है।

बोलियां जब सत्ता की भाषा बन जाती है,तब भाषा भी जनता के खिलाफ कड़ी हो जाती है।बेदखली से पहले सबसे पहले बोलियां बेदखल होकर फरेब के आखर में तब्दील हो जाती है,जिन्हें बांचकर हम सबजानता बड़बोला तो बन जाते हैं,इंसान रह नहीं जाते।


इसीलिए भाषा,साहित्य, कला संस्कृति के सियासती मजहबी हुकूमती सम्मेलनों,उत्सवो,पुरस्कारों और सम्मान,प्रतिष्ठा से मुझे उतनी ही नफरत है जितनी कि उन्हें जो दुनिया का सबसे बड़ा बेहूदा गाली रंडी किसी औरत के साथ चस्पां करते हैं या फिर किसी इंसान को शरणार्थी कह देते हैं और उसके नागिरक मानवाधिकार एकमुश्त खत्म।सारी सीढ़ियां एकमुश्त गायब।

मीडिया का सचःThe changing face of Europe: EU facing migrant crisis as millions of refugees are on the move, displaced by conflict, poverty and persecution and seeking safety across Europe, escaping dire conditions and misery across conflict zones in Africa and Middle East. The United Nations' refugee agency, UNHCR, estimates that more than 366,000 refugees and migrants have crossed the Mediterranean Sea to Europe in 2015 alone.


विकास का कोढ़ फूटने लगा है यूरोप में जिसे आप अभूतपूर्व शरणार्थी सैलाब कह रहे हैं।


हमारे यह तो यह सैलाब कभी थमा ही नहीं है।




आइलान के भसान के बाद मीडिया में यूरोप के शरणारथी सैलाब की बहुत चर्चा हो रही है।फिरभी इस मुद्दे पर बहस नहीं हो रही है कि यूरोपीय समुदाय के लिए इस वक्त शरणार्थी सैलाब सरदर्द का सबक क्यों बना हुआ है और क्यों दूसरे विश्वयुद्ध की याद आ रही है।


मुक्त बाजार में अबाध पूंजी और विकासकथा के नाम पर जो विस्थापन का अनंत सिलसिला भारतीय महादेश का सच है ,वही सच दुनिया के सबसे बेहतरीन चमकदार हिस्से का सच भी है।


अबाध पूंजी के लिए देश का कायदा कानून खत्म है तो  संविधान की हत्या हो रही है रोज रोज।

न लोकतंत्र का वजूद है और कानून का राज है।


देश के हुक्मरान खुल्ला निवेश की गुहार लगा रहे हैं विदेशी लंपट पूंजी के लिए और देश के सारे संसाधन और खुदै देश बिकाऊ है।


विदेशी पूंजी निवेश के लिए जल जंगल जमीन से बेदखली को जायज ठहरा रहे हैं देशभक्ति और स्वभिमान स्वदेश के तमाम झंडेवरदार और मेहनतकशों और आदिवासियों,किसानों के हकहकूक के हक में हर आवाज राष्ट्रद्रोह है।


विकास और पूंजी का यह खेल यूरोप में उतना नया भी नहीं है।


यूरोपीय साहित्य और इतिहास पर नजर रखें तो उत्पादन प्रणाली में बदलाव के साथ साथ औद्योगीकरण से जब खेत खलिहान उजाड़े गये,तभी से बेदखली का सिलसिला चल पड़ा और यूरोप के विस्थापित न जाने कहां न कहां छितरा दिये गये।


उत्तर अमेरिका और लातिन अमेरिका,आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से लेकर अफ्रीका में इन विस्थापितों की ही सभ्यता है,जिनके पूर्वज रोजगार की तलाश में वहां पहुंचे थे।


चूंकि वे विकसित समाज के दबंग गोरे लोग थे,तो उनने वहां फिर मार काट मचाकर अश्वेत मूलनिवासियों का सफाया करके अपने झंडे गाड़ दिये।उन्हीं गोरे शरणार्थियों ने अखंड भारत पर दो सौ साल तक राज भी किये।


शरणार्थी सैलाब अंधाधुंध औद्योगीकरण और शहरीकरण का मुक्त बाजार कार्निवाल है।


कृषि समुदायों का कत्लेआम ग्लोबल सच है जिसतरह,उत्पादकों का, मेहनतकशों, स्त्रियों, बच्चों और बेरोजगार युवाजनों का सच भी शरणार्थी है।


खास इंग्लैंड  में  थामस हार्डी के वेसेक्स उपन्यासों को देख लें या स्काटलैंड और आयरलैंड के विस्थापितों का हाल जान लें तो यह बहुत नया भी नहीं है।


सोवियत संघ के पतन के बाद पूर्व यूरोप के बिखराव में उतना कून नहीं बहा है जितना अब विशुद्ध आर्थिक कारणों से बह रहा है।


लोग रोजगार के लिए कहां कहां नहीं भटक रहे हैं तो मध्यपूर्व में अरबिया वसंत से तेलकुओं की आग अब यूरोप को भी शरणार्थी सैलाब की शक्ल में झुलसाने लगी है।


विकास का कोढ़ फूटने लगा है यूरोप में जिसे आप अभूतपूर्व शरणार्थी सैलाब कह रहे हैं।


ग्लोबीकरण और मुक्त बाजार ने इस कायनात में तमाम ज्वालामुखियों के मुहाने खोल दिये हैं और प्रकृति,मनुष्यता और सभ्यता खून की नदियों में तब्दील हैं सरहदों के आर पार,महादेशों के आर पार।


ग्लोब से खेलने वाले लोग इंसानियत को हर कहीं आग में झोक रहे हैं और दुनियाभर की अर्थव्यवस्था मुनाफावसूली का स्थाई बंदोबस्त है जहां उत्पादकों और उत्पादक समुदायों का कत्लेआम विकास है।


अबाध पूंजी के हित में हर राष्ट्र अब सैन्य राष्ट्र है और हर देश में सुरक्षा और प्रतिरक्षा दरअसल सलवा जुड़ुम है।


मजहबी सियासत का बोलबाला इसी अंध राष्ट्रवाद का नतीजा है जो अंद राष्ट्रवाद की आड़ में सैन्यराष्ट्र और अबाध पूंजी के गठबंधन को जायज ठहराता है और मेहनतकशों के हकहकूक की हर लड़ाई को दमन का सबब बनाता है।


फासीवाद का यह कायाकल्प  है  जो मुक्तबाजार बहार है।


अद्वेैत है मुक्तबाजार जो आखिर फासीवाद है और उत्पादन का निषेध है और भोग का कार्निवाल है।


इस मसले पर गौर करना बेहद जरुरी है कि भोग के कार्मिनवाल में यह कैसी फिजां है कि दरिया में आइलान की लाश है।


दुनियाभर में बेगुनाह बच्चा दांव पर है और मुहब्बत का भसान है।


अभूतपूर्व हिंसा है।


गांधी ने इसीको पागल दौड़ कहा है और वैज्ञानिक तरक्की के भोग कार्निवाल में सब्यता फिर वही मध्ययुगीन अंधियारा है,यह युद्ध और शांति और अन्न कैरेनिना के रचयिता तालस्ताय का कहना है।


जाहिर है कि इस मसले पर गौर करने का माहौल हिंदू राष्ट्र में है ही नहीं,जिसे हासिल करने के लिए सत्तर साल पहले जनसंख्या स्थानांतरण के नाम पर दूसरे विश्वयुद्ध और हाल के यूरोपीय शरणार्थी सैलाब के मुकाबले खून की सुनामियां इस महादेश में बह रही थी।


बाबरी विध्वंस,भोपाल गैस त्रासदी,गुजरात नरसंहार,सिख संहार,सलवा जुडु़म आफसा काकटेल में सबसे भयानक रसायन ग्लोबीकरण का है और मुक्तबाजा की कोख से शरणार्थी सुनामियां का पिर पुनर्जन्म है हिंदुत्व के पुनरूत्थान की तरह।


इस महादेश में विस्थापन विकास है और पुनर्वास किसीका होता नहीं है।किसी शरणार्थी से किसी को कहीं कोई सहानुभूति नहीं है।


यह विकसित यूरोप का जो सच है,वह भारतीय महादेश का उससे बड़ा सच है।


দরিয়ায় ভেসে গেল নিস্পাপ শিশুরা!!!

ভেসে গেল,ভেসে যায় প্রেম!!!


আহা কি আনন্দ!!!


আবার সেই দন্ডকারণ্যে শরণার্থী আন্দোলন!!!


আমাগো কোনো দ্যাশ নাই,মোরা শরণার্থী,মোদের মাতৃভাষা নেই,ইতিহাস নাই!!!


তবু ত রয়ে গেছে আরও কোটি কোটি বেনাগরিক বাচাল!!!

আসছে আবার দলে দলে সীমান্ত পেরিয়ে ফ্যালানি হইল ,লজ্জা হইল না , তবু ফিরে আসে হিন্দুত্বের দোহাই দিয়ে,উত্পীড়নের কারসাজিতে,রাজনীতির প্রয়োজনে!!!


পলাশ বিশ্বাস

"আমার হাত পিছলে পড়ে যায় আইলান," বাবার কান্না  "আমার হাত পিছলে পড়ে যায় আইলান," বাবার কান্না

সুমদ্রের তটে মুখ থুবড়ে পড়ে থাকা ছোট্ট শরীরটা দেখে থমকে গিয়েছে বিশ্ব। সিরিয়ার সন্তান ৩ বছরের ছোট্ট আইলান কুর্দি। লাল টি-শার্ট, নীল প্যান্ট অক্ষত। ছোট্ট পায়ে সযত্নে পরানো রয়েছে জুতোজোড়াও। শুধু দেহে নেই প্রাণ। সমুদ্রের ঢেউয়ের আওয়াজ মিলিয়ে যাচ্ছে বাবার কান্না। অসহায় স্বাকারোক্তি, "আমার হাত পিছলেই পড়ে যায় আইলান।"

সৌজন্যেঃ 24 ঘন্টা


আহা কি আনন্দ!!!

আমাগো কোনো দ্যাশ নাই,মোরা শরণার্থী,মোদের মাতৃভাষা নেই,ইতিহাস নাইআমাগো কোনো দ্যাশ নাই,মোরা শরণার্থী!!!


দরিয়ায় ভেসে গেল নিস্পাপ শিশুরা!!!

ভেসে গেল,ভেসে যায় প্রেম!!!


আহা কি আনন্দ!!!

একদিন বাংলা থেকে নির্বাসিত হয়েছিল কোটি বাহালি ভিটেছাড়া, ছন্নছাডা়,পাহাড়ে জহঙগ্লে,মরুভূমিতে দ্বাপান্তরে তাঁদের নির্বাসন!!!

ফিরে এসেছিল মরিচঝাঁপিতে যারা,আগুনে দগ্ধ হয়েছিল যারা,সুন্দরবনে জলে ডুবে যাদির শিশুরা মরেছিল,নারীরা ধর্ষিতা হয়েছিল,তারা সব,

সব ব্যাটা বাঙালের পো!!!


আজও বিচার হয়নি সেই নির্লজ্জ গণসংহারের!!!

কলিজাতে শরণার্থীর বুকে বুকে আলোর মালা হয়েছিল বুলেটের গুলিতে রক্তধারা!!!


শরণার্থীদের আলো দিতে নন্দিনী কোথাও দাঁড়ায না!!!

রক্তধারা বহিয়া যায়,মুক্তধারা বহে না,নদীরা কান্না হইয়া বহিয়া যায়!!!


তবু ত রয়ে গেছে আরও কোটি কোটি বেনাগরিক বাচাল!!!

আসছে আবার দলে দলে সীমান্ত পেরিয়ে ফ্যালানি হইল ,লজ্জা হইল না , তবু ফিরে আসে হিন্দুত্বের দোহাই দিয়ে,উত্পীড়নের কারসাজিতে,রাজনীতির প্রয়োজনে!!!


আবার সেই দন্ডকারণ্যে শরণার্থী আন্দোলন!!!

নাগরিকত্ব চাই!!!

সংরক্ষণ চাই!!!

মাতৃভাষার অধিকার চাই!!!

খাট ভাঙ্গা মীডিয়ায় ঔ বাঙালপোদের তবু কোনো খবর হয় না!!!

মধ্যপ্রাচ্যের শরণার্তীদের জন্যতবু দরদ উথাল পাথাল!!!

যদিও শাশ্বত সত্য অকৃত্তিমঃআমাগো কোনো দ্যাশ নাই,মোরা শরণার্থী,মোদের মাতৃভাষা নেই,ইতিহাস নাইআমাগো কোনো দ্যাশ নাই,মোরা শরণার্থী!!!



আহা কি আনন্দ! প্রথম ৩০ মিনিটের মধ্যে ৫ হাজার ডলার জমা পড়ে ফান্ডে। পরবর্তী ১৬ ঘণ্টার মধ্যে ৪৫ হাজার ডলার জোগাড় হয়ে যায়! শরণার্থী বাবা, ঘুমন্ত মেয়ে আর কয়েকটি কলম : এক ছবিতে টুইটারে 'বিস্ফোরণ'. আবদুল নামের ওই প্যালেস্টানিয়ানসিরিয়ান শরণার্থী বর্তমানে ইয়ারমোক রিফিউজি ক্যাম্পে রয়েছেন। তার সঙ্গে আছেন ৪ বছরের মেয়ে রিম।


আহা কি আনন্দ!খবরের কাগজ যখন রগরগে নারী দেহের কোলাজ,শয্যা সঙ্গিনীর ছবি যখন সর্বশ্রেষ্ঠ বিজ্ঞাপন,এখবরে বিটলিত হওয়া মানে নেই কোনো কি বিবিসির বিশ্লেষণে উঠে শরণার্থী দুর্ভোগের কিছু চিত্র। জর্ডানে সিরিয়ার শরণার্থী শিবিরের অনেক নারীই কার্যত বিক্রি হয়ে যাচ্ছেন।


সীমান্তর এপারে ওপারে রমরমে কুটির শিল্পের নাম নারী ও শিশু পাচার।

তাদের শরণার্থী তকমাও জোটেনা।


ডলার আসে না ভারতবর্ষে শরণার্থীদের নামে যেহেতু ভারত আন্তর্জাতিক শরনার্থী চুক্তিতে আদৌ দস্তখত করে নি কোনোদিন।


সারা বিশ্বে ক্ষমতা দখলের হুড়োহুড়ুতে যদিও ইতিহাসে জনসংখ্যা বেনজির স্থানান্তরণে রক্তাক্ত সীমানার এপার ওপার।পূর্ব পশ্চিমে,উত্তরে দক্ষিনে সর্বত্রই কাঁটাতারে শুধু টাঙানো প্যালানির শবদেহ।


বিচলিত হওয়ার কথা নয় আদৌ যদিও বাবা-মা নিজ হাতে চুক্তিনামায় সই করে কিশোরী মেয়েদের তুলে দিচ্ছেন সৌদি ব্যবসায়ীদের হাতে। তারা কনট্রাক্ট ম্যারিজ করে ৬ মাস থেকে ১ বছরের জন্য এসব মেয়েদের ব্যবহার করে শিবিরে আবার ফেরত পাঠাচ্ছেন।


নেপালে ভূমিকম্প পশ্চিম বাংলায় উত্সবের কাঠামো,নিদর্শন।

মনুষত্বের বিপর্যয়ে আহা কি আনন্দ।

প্রকৃতির ভয়াল প্রতিশোধে বিপর্যয় সীমান্তের কাঁটাতার ডিঙিয়ে,গঙ্গার ভাঙ্গণে ভেসে যায় দিনকাল,ছিটমহলের স্বাধীনতায় আহা কি আনন্দ।

24 ঘন্টার খবরঃ

আয়লান একা নয়, রোজ মরছে শয়ে শয়ে সিরিয়ান শিশু আয়লান একা নয়, রোজ মরছে শয়ে শয়ে সিরিয়ান শিশু

তুরস্কের সমুদ্র তীরে মুখ থুবড়ে পরে থাকা ছোট্ট নিথর দেহ কাঁপিয়ে দিয়েছে মানবসভ্যতার ভিতটাই। এত দিন পর্যন্ত সিরিয়ার গৃহযুদ্ধে দীর্ণ, বাস্তু হারা মানুষদের কথা যারা দেখেও নিজের সুখী গৃহকোণের আড়ালে এড়িয়ে গেছেন, আজ তাদের ঘুণ ধরা মনন-মস্তিষ্কেরো ঝড় তুলেছে ওই একটা দেহ। এই এত্ত বড় পৃথিবীতে বড়রা সীমান্ত নিয়ে এতই ব্যস্ত ছিলেন যে কেউই এক ফালি ছাদের জোগান দিতে পারেনি ৩ বছরের আয়লান কুর্দিকে। বদলে দিয়েছে কবরের অন্ধকার।

দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধ পরবর্তী সবথেকে বড় উদ্বাস্তু সমস্যার সম্মুখীন ইউরোপ, আয়লানকে নিজে হাতে সমাহিত করলেন বাবাদ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধ পরবর্তী সবথেকে বড় উদ্বাস্তু সমস্যার সম্মুখীন ইউরোপ, আয়লানকে নিজে হাতে সমাহিত করলেন বাবা

তুরস্কের সমুদ্রের তীরে মুখ থুবরে পড়েছিল তার ছোট্ট নিথর দেহটা। এত দিন পর্যন্ত যারা সিরিয়ার উদ্বাস্তু সমস্যা নিয়ে নিশ্চুপ ছিলেন, পুঁচকে আয়লানের এই ছবি হয়ত এক ধাক্কায় ভেঙে দিয়েছে তাদের সুখী ঘুম। নিজের ৩ বছরের জীবনের মূল্যে আজ পৃথিবীর চর্চার কেন্দ্রে সিরিয়ার উদ্বাস্তু সমস্যা।



(প্রিয়.কম) ডুবে যাওয়ার আগে বাবাকে সতর্ক করেছিল তিন বছর বয়সী সিরীয় শরণার্থী আয়লান। বলেছিল ''বাবা, মরে যেও না।'' চিরতরে চলে যাওয়ার আগে এই ছিল আয়লানের শেষ কথা। আয়লানের এক ফুপু, কানাডার টরন্টোর বাসিন্দা ফাতিমা কুর্দির বরাতে আয়লানের শেষ আকুতির খবর জানিয়েছে ব্রিটিশ সংবাদমাধ্যম মেইল অনলাইন। গৃহযুদ্ধের বিভীষিকা থেকে বের হয়ে সম্প্রতি পরিবারের সঙ্গে সাগরপথে গ্রিসে পালাবার সময় নৌকাডুবিতে মৃত্যু হয় আয়লানের। তুরস্ক উপকূলে উপুড় হয়ে পড়ে থাকা তিন বছর বয়সী শিশু আয়লানের মরদেহের ছবি প্রকাশের পর তা নাড়া দিয়ে যায় বিশ্ব বিবেককে। প্রশ্ন ওঠে ইউরোপের দেশগুলোর মানবতাবোধ নিয়ে।

আয়লানের ফুপু ফাতিমা জানান, সামনে যখন একটার পর একটা বিশাল ঢেউ আসছিল আর তারই মধ্যে ভিড়ে ঠাসা শরণার্থী বোঝাই নৌকায় কোনরকমে বাবার হাত ধরে গুটিসুটি মেরে দাঁড়িয়েছিল একরত্তি আয়লান। দুই ছেলে এবং স্ত্রীকে ঢেউয়ের দাপট থেকে রক্ষা করতে গিয়ে যখন নিজেই ডুবতে বসেছিলেন আবদুল্লা কুর্দি, তখন বাবাকে দেখে চিৎকার করে বলে উঠেছিল ছোট্ট আয়লান, ''বাবা, মরে যেও না।''

আয়লানের এক ফুপু, কানাডার টরন্টোর বাসিন্দা ফাতিমা কুর্দি এক সাক্ষাৎকারে সাংবাদিকদের জানিয়েছেন, চিরতরে চলে যাওয়ার আগে এই ছিল আয়লানের শেষ কথা। কান্না ভেজা গলায় ফাতিমা বলেছেন, ''এক দিকে দুই ছেলে ও স্ত্রী। আর অন্য দিকে, নিজেকে বাঁচানোর মরিয়া চেষ্টা। এই দুইয়ের মধ্যে প়ড়ে যখন হাঁসফাঁস করছিল আবদুল্লা, সে সময়ই আয়লান বাবাকে বাঁচানোর জন্য চেঁচিয়ে ওঠে।''

ফাতিমা জানান ঘটনার সময় আবদুল্লার সঙ্গে ফোনে কথা হয়েছে তার। তখনই আবদুল্লা বোনকে জানিয়েছেন, আয়লান ও গালিপের হাত ধরে দাঁড়িয়েছিলেন তিনি। যখন উথালপাথাল ঢেউয়ের থেকে বাচ্চাদের আড়াল করার চেষ্টা করছিলেন, তখনই বুঝতে পারেন যে বড় ছেলে গালিপ আর নেই। ছোট ছেলের দিকে তাকিয়ে দেখতে পান, আয়লানের চোখ থেকে রক্ত ঝরছে। ওই দৃশ্য দেখে চোখ বুজে ফেলেন আবদুল্লা। অন্য দিকে তাকিয়ে দেখতে পান, জলের মধ্যে নাকানিচোবানি খাচ্ছেন স্ত্রী। আবদুল্লার কথায়, ''সর্বশক্তি দিয়ে আমি ওঁদের বাঁচানোর চেষ্টা করেছিলাম। কিন্তু পারিনি।''

ফাতিমা জানিয়েছেন, গ্রিস পর্যন্ত আসার খরচ আবদুল্লাকে দিয়েছিলেন তিনি। ফতিমার আক্ষেপ, ''আমি যদি ওঁদের ওই সাহায্য না পাঠাতাম, তা হলে হয় তো এই দুর্ঘটনা ঘটত না।''

আবদুল্লার আর এক বোন টিমা কুর্দি, যিনি আবদুল্লাদের জন্য কানাডায় থাকার বন্দোবস্ত করেছিলেন, তিনি ব্রিটিশ কলম্বিয়ার বাড়িতে বসে জানিয়েছেন, ভাইকে আর কোবানে থাকতে দেবেন না তিনি। তাঁকে কানাডায় নিজের কাছে নিয়ে আসবেন। তবে এই মুহূর্তে কোবান ছাড়তে রাজি নন আবদুল্লা। স্ত্রী ও দুই ছেলের স্মৃতি সম্বল করেই বাকি জীবনটা কোবানেই কাটিয়ে দিতে চান তিনি।

http://www.priyo.com/2015/Sep/06/166420-%E0%A6%B8%E0%A6%BF%E0%A6%B0%E0%A7%80%E0%A7%9F-%E0%A6%B6%E0%A6%BF%E0%A6%B6%E0%A7%81-%E0%A6%86%E0%A7%9F%E0%A6%B2%E0%A6%BE%E0%A6%A8%E0%A7%87%E0%A6%B0-%E0%A6%B6%E0%A7%87%E0%A6%B7-%E0%A6%86%E0%A6%95%E0%A7%81%E0%A6%A4%E0%A6%BF-%E2%80%98%E0%A6%AE%E0%A6%B0%E0%A7%87-%E0%A6%AF%E0%A7%87%E0%A6%93-%E0%A6%A8%E0%A6%BE-%E0%A6%AC%E0%A6%BE%E0%A6%AC%E0%A6%BE%E2%80%99


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