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मेवात की अरावली पर्वत शृंखला पर गहराता संकट गुमान सिंह

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मेवात की अरावली पर्वत शृंखला पर गहराता संकट

                                                  गुमान सिंह

उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अरावली अधिसूचना मई 1992 में अरावली पर्वत शृंखला के पर्यावरण के संरक्षण के लिए जारी की, जिस की अनुपालना करते हुए बर्ष 2005 में अलवर मास्टर प्लान बनाया गया और यह संवेदनशील क्षेत्र घोषित हुआ। राज्यपाल द्वारा जारी 26 अगस्त 2011 की अधिसूचना के मुताविक, अब अलवर जिला की सभी विकास परियोजनाओं को इस मास्टर प्लान में निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार संचालित करना बाध्यकारी कर दिया गया।   

इसी दौरान DMRC की प्रस्तावित पर्यटन परियोजना के लिए हजारों हेक्टर भूमि इसी पर्वत शृंखला में इस्माइलपुर में चयनित की गई। दिल्ली मेट्रो रेल निगम की इस परियोजना के तहत त्वरित रेल ट्रांज़िट व्यवस्था (RRTS) के अंतर्गत दिल्ली पानीपत से अलवर मेरठ तक कॉरिडोर  बनाने की है। साथ ही चुपचाप DRDO के लिए अलवर के पास 850 हेक्टर वन भूमि का हस्तांतरण कर दिया गया। जिस में साथ लगती कई ग्राम पचायतों;जाजोर,किथुर, खोहबास, पहाड़ा, मेहरामपुर, घासोली इत्यादि के कई गावों की बर्तनदारी वन भूमि, स्थानीय वन निवासियों की मंजूरी व जानकारी के बिना हस्तांतरण कर दी गई। पाँच किलोमीटर चौडे व 12 किलोमीटर लंबे इस  पहाड़ पर 13 पंचायतों के चालीस से अधिक गावों की 65 हजार से भी अधिक आवादी के परंपरागत वन अधिकार हैं, जिन्हें नजरदाज़ किया गया।

यह वन भूमि किस उदेश्य के लिए DRDO को दी गई, इसका स्पष्ट जानकारी कहीं भी सरकारी तौर पर ग्रामीणों को उपलव्ध नहीं कारवाई गई। परंतु अखवारों से मालूम होता है कि रक्षा शोध एवं  विकास संगठन (DRDO) यहाँ पर मिसाइल लॉंच पैड बनाने जा रहा है। जबकि साथ में लगते पाली जिला में मिसाइल interseption base प्रस्तावित किया गया है। जिस के लिए दोनों जगह हजारों हेक्टर वन भूमि हस्तांतरित की जा चुकी है।

इन तीनों प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए अति संवेदनशील अरावली पर्वत शृंखला की बलि दी जा रही है। हालत यह है कि किसी भी पर्यावरणीय कानूनों के प्रावधानों को सज्ञान में लिए बिना यह कार्य किया जा रहा है तथा स्थानीय लोगों के वन अधिकारों को नजरंदाज कर दिया है।

स्थानीय जनता से बात करने पर मालूम हुआ कि सरकार ने इस परियोजना के लिए वन हस्तांतरण की प्रक्रिया में कहीं भी पर्यावरणीय व वन मंजूरी तथा पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन का हवाला नहीं दिया है। न ही कोई DPR(Detail Project Report), EIA (पर्यावरण प्रभाव आंकलन) व EMP के कागजात उपलब्ध है। पर्यावरणीय जनसुनवाई भी नहीं की गई। ऐसे में वन हस्तांतरण की प्रक्रिया को कैसे स्वीकृति दी गई, यह प्रश्न सब के सामने है।DRDO के लिए ऐसे कोई भी विशेष कानून तो है नहीं जिस के तहत सभी कानूनी प्रक्रियाएँ निरस्त की जा सकें। यह वन हस्तांतरण पहली नजर में ही गैर कानूनी लगता है। लोगों को पूछने पर मालूम हुआ कि  यह कोई मिसाल भंडारण की परियोजना है जो 16 हजार करोड़ रुपय से भी अधिक की परियोजना हो सकती है। ऐसे में इस की पर्यावरणीय व वन मंजूरी कानून बांछित है। पर्यावरणीय जन सुनवाई भी करनी होगी। इस से पहले DPR,EIA व EMP की रिपोर्ट की प्रति लोगों को स्थानीय भाषा में उपलब्ध करवानी होगी। स्थानीय लोगों के मुतविक इस मुद्दे पर ऐसी कोई भी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई।

हस्तांतरित की गई उक्त भूमि वन भूमि है, ऐसे में कोई वन हस्तांतरण की प्रक्रिया तब तक नहीं चलाई जा सकती, जब तक वन अधिकार कानून 2006 के तहत स्थानीय लोगों (वन निवासियों) के परंपरागत वन अधिकारों के सत्यापन और मान्यता की कार्यवाही पूरी नहीं की जाती है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने नियमगिरी के फैसले में भी इस की पुष्टि की है और स्पष्ट आदेश पारित किया है कि जब तक वन अधिकारों के मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं की जाती तब तक वन भूमि का इसी दूसरे गैर वानिकी कार्य के लिए हस्तांतरण नहीं हो सकता है। ऐसे में उक्त वन हस्तांतरण में कानूनी अवहेलना व न्यायालय के आदेशों का सरासर उलंघन हुआ है।

मेवात किसान पंचायत के नेतृत्व में वन भूमि की इस लूट के खिलाफ किसान पिछले कई दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। 15 अगस्त को आंदोलन के नेतृत्व से प्रशासन की समझौता वार्ता भी हो चुकी है जो वेनतिजा रही। इस मुद्दे पर तीन सितम्बर को अलवर में किसान महा पंचायत की बैठक बुलाई गई थी, जिस में जिला के सभी राजनीतिक दलों व बर्तमान तथा भूतपूर्व जनप्रतिनिधियों को बुलाया गया था। बेहरहाल दो-तीन को छोड़ कर वाकि नेता लोग तो बैठक में नहीं पहुंचे, परंतु तकरिवन 30 ग्राम पंचायतों से पाँच सौ से अधिक स्थानीय लोग और पंचायत प्रतिनिधि जरूर बैठक में हाजिर थे।

मैं स्वयं इस बैठक में उपस्थित था। बैठक में मुझे मालूम हुआ कि उक्त हस्तांतरण के लिए वन विभाग ने 25 मई 2013 को ग्राम पंचायतों को वन अधिकार कानून 2006 के तहत अनापति प्रमाण पत्र देने का अनुरोध किया। बाद में अगस्त तथा सितम्बर 2013 में कुछ पंचायतों से अनापति प्रमाण पत्र विभाग ने हासिल कर लिए। परंतु पंचायतों का कहना है कि रेकॉर्ड के मुताविक किसी भी पंचायत ने ऐसे प्रमाण पत्र जारी नहीं किए हैं। इस बारे में जिला कैलेक्टर को शिकायत पत्र भी भेजा और झूठे प्रमाण पत्र जारी किए जाने की जांच के लिए लिखित मांग की है। ग्रामीण मांग कर रहे हैं कि पहाड़ का DRDO को हस्तांतरण गलत तरीके से हुआ है, इस लिए इस आवंटन को तुरंत रद्द किया जाए।

यह पूरा पहाड़ गौचर भूमि है, जिस में आज भी ग्रामीणों की चार हजार से भी अधिक गाय चरती है और भूत सी गायें जंगल में ही रहती हैं। बकरी व अन्य पालतू पशु भी इसी में चरते हैं। दूसरे क्षेत्रों के घुमंतू पशुचारी भी यहाँ मौसमी चरान करते हैं। इसी पहाड़ पर अनेकों मजार व सभी समुदायों के धार्मिक स्थल स्थित हैं। ग्रामीण इस पहाड़ के जंगल में उपलब्ध लघु वन उत्पाद तथा जड़ी-बुट्टी के लिए भी सदियो से निर्भर रहे हैं और अपनी आजीविका की जरूरतों को पूरा करते रहे हैं। जिस के दोहन का उन्हें परंपरागत अधिकार प्राप्त है। अरवली पर्वत शृंखला के ये पहाड़ जल संरक्षण के लिए अति महत्व पूर्ण हैं, जिस पर तराई में बसी लाखों की आवादी को पानी मिलता रहा है। लोगों व सरकार द्वारा पहाड़ पर जल संरक्षण के लिए सदियों से जोहड़ और तलाव बनाए गए हैं तथा अब के दौर में मनरेगा से भी सेंकड़ों जोहड़ व एनिकट आदि बनाए गए। चूंकि यह पहाड़ बोल्डर से बना है,इसलिए पहाड़ पर बने जलाशयों के कारण बहुत बड़े क्षेत्र में पानी रिचार्ज होता है।

इस आंदोलन के नेता विरेन्द्र विद्रोही का कहना है कि पहाड़ सिर्फ पत्थरों व चट्टानों का जखीरा नहीं होता, इसका अपना अर्थशास्त्र है, जिसे वे ही समझ सकते हैं जो पहाड़ के साये में जीवन जी रहे हैं। इसीलिए जल संरक्षण की सार्थकता को सज्ञान में लेते हुए, अरावली पर्वत शृंखला के संरक्षण की बात अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उठ रही है।

इस पर्वत शृंखला की तलहटी में सदियो से मेव और अन्य समुदायों की लाखों की आवादी निवास करती है और अपनी आजीविका की जरूरतों के लिए परंपरा से इस पहाड़ की वन  भूमि पर निर्भर रही है। क्षेत्र के सभी ग्रामीण वन अधिकार कानून के तहत आदिवासी वन निवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी की श्रेणी में आते हैं। ऐसे में यह वन हस्तांतरण गैर हुआ कानूनी है, जिसे तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए और वन अधिकार कानून के प्रावधानों के मुताविक ग्रामीणों के परंपरागत वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।

गुमान सिंह

संयोजक- हिमालय नीति अभियान

 

 

 

 

 

 

 

 


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