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भूखे बगुला भगतों को मछलियों की सेहत की जिम्मेदारी तो स्पेक्ट्रम भी डीकंट्रोल और सारे घोटाले रफा दफा!

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भूखे बगुला भगतों  को मछलियों की सेहत की जिम्मेदारी तो स्पेक्ट्रम भी डीकंट्रोल और सारे घोटाले रफा दफा!

पलाश विश्वास

इस अंक में:

आवरण कथा

भूटानी शरणार्थीः हमारे लोकतंत्र का शर्मनाक अध्याय - आनंद स्वरूप वर्मा

शरणार्थियों का अमेरिकी दुःस्वप्न - टी.पी. मिश्रा

भारत-चीन-भूटान संबंध - अनंत राय

शरणार्थियों का दर्द (कविता) - विनोद अग्निहोत्री


सामयिकी

बसपा का शीराजा क्यों बिखरा - आनंद तेलतुंबड़े

क्या सचमुच खजाना खाली है - मुशर्रफ अली


मानव अधिकार

खेल शुरू हो चुका है - आनंद तेलतुंबड़े


समरगाथा

बस्तरः माओवाद के नाम पर जुल्म जारी - आशुतोष भारद्वाज


अर्थतंत्र

बगुलों के जिम्मे मछलियों की देखभाल - मुशर्रफ अली


विशेष रिपोर्ट

सिंगरौलीः इंसान और ईमान का नरक-कुंड - अभिषेक श्रीवास्तव

सिंगरौलीः पहचान का संकट


कविता

केदार नाथ सिंह की कविताएं - चयनः रंजीत वर्मा


हलचल

बलोचिस्तानः जाहिद बलोच का अपहरण

बलोच जनता की आजादी की लड़ाई


साम्राज्यवाद

इराक संकट का समाधान कब तक - आदिल रजा खान

इराक में अमेरिका के युद्ध अपराध - मार्गेट किमबर्ले


संसद में

इस मैंडेट पर इतराने की जरूरत नहीं - के.सी. त्यागी


टिप्पणी

मोदी के बनाये इतिहास पर भी गौर करें - कृष्ण प्रताप सिंह


मीडिया

साक्षात्कार नहीं पीआर कहिए जनाब - अटल तिवारी


जन्मशती

ख्वाजा अहमद अब्बास - जाहिद खान


पुस्तक समीक्षा

उम्मीद की निर्भयाएं - सुरेश सलिल

(आवरण पर भूटान के पूर्व नरेश और वर्तमान नरेश के साथ प्रधानमंत्री मोदी)


देहाती पिछड़े लालू यादव मीडिया के लिए हास्य और व्यंग्य के पात्र रहे हैं वैसे ही जैसे भोजपुर या किलसी भी लोक भूगोल की माटी में रचे बसे लोग। चारा घोटाले में लालू की जेल यात्रा की खबरों को मीडिया ने ऐसे ही पेश किया कि जैसे भारत की सरजमीं से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट गया हो और सारे भ्रष्ट लोग जेल के सींखचों के पीछे हैं।अब बिहार के ही पूर्व मुख्यमंत्री और चारा घोटाले के सह अभियुक्त डा. जगन्नाथ मिश्र को इस घोटाले के दूसरे मामलों में बरी कर दिया गया गुपचुप तो मीडिया के सारस्वत पुत्र पुत्रियों की कैंची सी चलती जुबान बंद है। सत्ता में आते ही नैतिकता,विशुद्धता और मूल्यबोध के स्वयंभू देव देवियों की सरकार ने एक मुश्त सवा लाख फाइलें नष्ट कर दी हैं। जिसपर आज जनसत्ता में ज्ञानपीठ विजेता गिरिराज किशोर ने सवाल उठाये हैं।


इस सिलसिले में आगे कुछ कहना जरुरी नहीं है।केसरिया कारपोरेट अमेरिकी सरकार के लिए निजीकरण,विनिवेश, विनियंत्रण और विनियमन देश को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने का अभियान है।विदेशी निवेश की शक्ल में अर्थव्यवस्था के पोर पोर में कालाधन भी वापस आ रहा है।


इसी सिलिसिले में मामले को समझने के लिए यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि चारा लालू ने नहीं खाया,लेकिन सरकार के मुखिया बतौर घोटाले के लिए दोषी वे ही हैं।


तमाम रक्षा घोटालों में अंतिम फैसला प्रधानमंत्रियों,वित्तमंत्रियों और रक्षा मंत्रियों की होती है और आप बताइये कि सरकारें भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भले बदल गयी हों,भले ही विश्व के कोने कोने से यशस्वी संवाददाताओं ने स्विस बैंक में जमा कमीशनखोरों के नाम बता दिये हों, आजतक किस ऐसे महामहिम को सजा दी गयी है या कम से कम उनके सत्ता में रहने या सत्ता से बोहर हो जाने के बाद भी कोई मुकदमा ही चला हो उनके खिलाफ।


हाल में कोयला और स्पेक्ट्रम घोटालों को लेकर बाहैसियत मुख्य विपक्ष केसरिया ब्रिगेड ने जमीन आसमान एक कर रखा था और उसी के प्रत्यक्ष समर्थन से मीडिया ने सारे बुनियादी  मुद्दों को एकतरफ रखकर पिछले लोकसभा चुनावों को भ्रष्टाचार के खिलाफ नमोसुनामी में तब्दील कर दिया और इसमें राजनेता से लेकर संतों तक की अपरंपार महिमा रही।


इस सिलसिले में अविराम रामलीला के दो आख्यान बेहद लकप्रिय रहे।पहला कोयला घोटाला तो दूसरा स्पेक्ट्रम घोटाला।


अब सत्ता में आते ही कोयला आबंटन के किस्से को दरकिनार करके एक झटके से कोयला और दूसरे बेशकीमती खनिजों का निजीकरण कर दिये जाने का फैसला हो गया तो स्पेक्ट्रम का  भी विनियंत्रण हो गया बिना नीतिगत कार्यकारी भूमिका के सिर्फ देशी विदेशी स्पेक्ट्रम कंपनियों को घाटे की हालत मेें क्षेत्र की मजबूत कंपनियों के साथ बिना सरकारी हस्तक्षेप के 2जी,3जी,4जी वगैरह वगैरह स्पेक्ट्रम शेयर करने की इजाजत देकर।


हूबहू वही हो रहा है जैसा प्राइवेटाइजेशन के बदले विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश माध्यमे निरंकुश देश बेचो अभियान का सिलसिला है निर्विरोध।जैसे सेज अब औद्योगिक गलियारा या स्मार्ट सिटी हैं।या जैसे ई कमार्स के बिजनेस टू होम मध्ये सिंगल ब्रांड एफडीआई मार्फते देसी कारोबार का बंटाधार और विदेशी कंपनियों की बहार।


संचार क्रांति सूचना क्रांति से जुड़ी है।सूचना का महत्व प्रतिरक्षा से कम नहीं है।क्योकि सूचना से बड़ा कोई हथियार नहीं है। इंदिरा गांधी ने इसीलिए 1980 में सत्ता में वापसी के बाद सूचना नियंत्रण के लिए देश व्यापी टीवी नेटवर्क बना दिया तो उनके बाद उनके सुपुत्र सुपरकंप्यूटर और उच्चतकनीक का आयात करने लगे।


तेईस साल के मुक्तबाजार में आर्थिक सुधारों के लिए सूचना का जनता के विरुद्ध इस्तेमाल ही नहीं किया गया बल्कि इस नरसंहारी सुधार अभियान की हकीकत से लोगों को सिरे से अनजान बनाने के लिए सूचनाओं का कत्ल सरेआम होने लगा है।सवा लाख फाइलों का विनाश दरअसल सूचनाओं और तथ्यों का रक्तहीन कत्लेआम है।


गौरतलब है कि स्पेक्ट्रम क्रांति दरअसल सूचना क्रांति नहीं है और न तथ्य संप्रेषक है।हालांकि बहुआयामी मल्टीमीडिया मार्फते सूचान और तथ्यों को मनोरंजन में दब्दील कर देने की विशुद्ध यह तकनीक है जो डिजिटल भी है और डिजिटल देश के एफडीआई निजी और विदेशी कंपनियों के प्रजाजनों तक ईकामर्स का यह सबसे बड़ा रियल टाइम पोंजी नेटवर्क है।


इसे इस रपट से समझें कि भारत में लोग अपने स्मार्टफोन पर दिन में औसतन करीब 3 घंटे का समय बिताते हैं। ऐसे एक चौथाई उपभोक्ता एक दिन में अपने स्मार्टफोन को 100 से अधिक बार देखते हैं। एरिक्सन कंज्यूमर लैब की ताजा रिपोर्ट में ये तथ्य सामने आए हैं।


भारत में स्मार्टफोन के प्रदर्शन को लेकर रिपोर्ट जारी करते हुए एरिक्सन इंडिया के उपाध्यक्ष (रणनीति व विपणन) अजय गुप्ता ने बताया कि भारतीय ग्राहकों का मोबाइल डेटा अनुभव प्रमुख तौर पर इंडोर कवरेज, स्पीड और नेटवर्क की

रिपोर्ट के मुताबिक, स्मार्टफोन के ज्यादातर नए उपभोक्ता सोशल वेबसाइट और चैट ऐप्स की वजह से स्मार्टफोन खरीद रहे हैं। हालांकि काफी समय से स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे लोगों का कहना है कि अब उनका स्मार्टफोन का इस्तेमाल सोशल नेटवर्किंग तक सीमित नहीं है।


24 प्रतिशत स्मार्टफोन उपभोक्ता व्हाटसऐप और वीचैट का उपयोग उत्पाद व सेवाएं बेचने और नए ग्राहकों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से करते हैं।



स्पेक्ट्रम विनियंत्ऱण की यह प्राविधि भी मौलिक है। दरअसल स्पेक्ट्रम आबंटन कोयला आबंटन की तरह काजल की कोठरी है जिसमें उजले पवित्र चेहरों के काल दाग और हाथों पर लाल छाप एक झटके से सामने आ जाते हैं।स्पेक्ट्रम शेयरिंग के मार्फत भारत की सरकार और देशी विदेशी कंपनियों को इस बला से हमेशा के लिए छूटकारा मिल गया है। इस केसरिया सूचना क्रांति से टेलीकॉम कंपनियों की स्पेक्ट्रम की दिक्कत दूर होने वाली है।


जोहिर है कि  टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने सभी तरह के स्पेक्ट्रम की शेयरिंग के लिए अपनी सिफारिशें जारी कर दी है। अगर टेलीकॉम विभाग ये सिफारिशें लागू करता है तो कंपनियां 2जी, 3जी, 4जी हर तरह का स्पेक्ट्रम शेयर कर सकेंगी।सिपारिशें भूखे बगुला भगतों की कमिटियों और आय़ोगों की तरफ से जारी की जाती है तो तमाम सरकारी एजंसियों की ओर से भी।जिसपर संसदीय कोई बहस होती नहीं है।कैबिनेट फैसला होता है।कभी कभार कैबिनेट फैसले भी नहीं होते ,कार्यकारी अधिसूचना जारी करके सीधे संसद और मंत्रिमंडल तक को बायपास करके ये सिफारिशे लागू कर दी जाती है।यही मुक्तबाजारी राजकाज है।यही मुक्तबाजारी कारपोरेट केसरिया नीति निर्धारण है।


आज की डाक से समकालीन तीसरी दुनिया का ताजा अंक आया है,जिसमें बगुलों के जिम्मे मछलियों की देखभाल शीर्षक के तहत इस बगुला संस्कृति की परतें सांढ संस्कृति के प्रसंग में खोल दी गयी है।मुशर्रफ अली ने इस आलेख में जो लिखा है गौर करेंः


नयी सरकार के गठन के बाद इन बगुला - आयोग ,बगुला कमिटियोंकी जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है।अभी अभी इसी तरह के एक बगुला आयोग की रिपोर्ट आयी है जिसकी अध्यक्षता एक्सिस बैंक के पूर्ऴ एमडी व चेयरमैन व वर्तमान में मार्गन स्टेनले के चेयरमैन पी.जे. नायक ने की है।श्री नायक पूर्व नौकरशाह हैं और वित्तमंत्रालय में काम कर चुके हैं।चूंकि उनके वित्त मंत्रालय में संपर्क रहे हैं इसलिए निजी क्षेत्र ने उनकी इसी उपयोगिता को देखते हुए अपनी सेवा में रख लिया है और इसमें कोई शक भी नहीं है कि वह बखूबी सेवा कर भी रहे हैं।इन्हीं महोदय की अध्यक्षता में रिजर्व बैंक ने एक कमेटी बनायी और अब उसने बैंकों में सुशान लाने,उसका मालिकाना तय करने व निदेशकमंडल को किसी भी राजनीतिक या बाहरी दबाव से मुक्त किये जाने की सिफारिश की।सरकारी बैंकिंग व्यवस्था को सधारने के लिए निजी क्षेत्र से सलाह लेना बिल्कुल वैसा ही है जैसे बगुलों से मछलियों के कल्याण की सलाह लेना।


मुशर्रफ साहेब के इस आलेख से बस इतना ही।बाकी पूरा लेख आप दुनिया मे ही पढ़ लें।हम जब फिर बैंकिंग के निजीकरण के प्राइवेट रोडमैप का सरकारी क्रियान्वयन के मुद्दे पर लिख पायेंगे तब इस आलेख की विस्तार से चर्चा करेंगे।विनिवेश के प्राइवेट रोडमैप का खुलासा तो हम लोग लगातार कर ही रहे हैं।


लेकिन इस अंक में भूटानी शरणार्थी समस्या पर आमुख होने और आनंद तेलतुंबड़े के दो दो आलेख,अभिषेक की सिंगरौली रपट की हम कतई चर्चा नहीं कर रहे हैं।वे जाहिर है कि मौजूदा मुद्दे के संदर्भ में नहीं हैं।


लेकिन स्पेक्ट्रम डीकंट्रोल पर आगे चर्चा से पहले इसी अंक में प्रकाशित मुशर्रफ अली के दो आलेखों की चर्चा मुद्दे को समझने के लिए जरुरी है।


पहलाः क्या सचमुच खजाना खाली है?

दूसराः यह चुनाव नहीं तख्ता पलट है।

कृपया इन दो आलेखों को केसरिया  कारपोरेट सुदार राजसूय के कर्मकांड को समझने के लिए जरुर पढ़ें।


अब फिर स्पेक्ट्रम।

ट्राई ने नीलामी या बिना नीलामी का स्पेक्ट्रम शेयर करने की सिफारिश की है। ट्राई ने शेयरिंग पर 0.5 फीसदी स्पेक्ट्रम यूसेज चार्ज लगाने की सिफारिश की है। इस फैसले से स्पेक्ट्रम की कमी से जूझ रही एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया जैसी बड़ी कंपनियों को फायदा होगा। साथ ही ऐसी कंपनियों को भी फायदा होगा जिनके पास स्पेक्ट्रम तो है लेकिन उनका यूजर बेस ज्यादा बड़ा नहीं है। माना जा रहा है कि स्पेक्ट्रम शेयर के लागू होने के बाद वॉयस क्वॉलिटी सुधरेगी और कॉल दरें भी सस्ती होंगी।


भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने सभी तरह के स्पेक्ट्रम साझा करने की अनुमति देने की सिफारिश की है। इससे कंपनियों को मोबाइल सर्विसेज की लागत घटाने में मदद मिलेगी और ग्राहकों को बेहतर सेवाएं मिल सकेंगी।

ट्राई की तरफ से कहा गया, 'तमाम अतिरिक्त स्पेक्ट्रम साझा किए जा सकेंगे। मसलन, 800/900/1800/2100/2300/2500 मेगा हर्ट्ज के स्पेक्ट्रम शेयरेबल होंगे। बशर्ते दोनों लाइसेंसधारी कंपनियों के पास समान बैंड में स्पेक्ट्रम होने चाहिए।'

माना जा रहा है कि यदि ट्राई की सिफारिशें मान ली जाती हैं, तो टेलीकॉम कंपनियों को तमाम तरह की सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम की दिक्कत दूर हो जाएगी। बहरहाल, ट्राई के सुझावों पर गौर फरमाने के बाद टेलीकॉम विभाग (डीओटी) दिशानिर्देश जारी करेगा।

नई सिफारिशों के मुताबिक टेलीकॉम कंपनियां सभी तरह के स्पेक्ट्रम शेयर कर सकेंगी। इनमें 2जी, 3जी और 4जी स्पेक्ट्रम शामिल हैं। ट्राई ने नीलामी या बगैर नीलामी के स्पेक्ट्रम शेयर करने की सिफारिश की है।

आधा फीसद स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज

ट्राई ने शेयरिंग पर 0.5 फीसद स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज लगाने की सिफारिश की है। नई सिफारिशों के तहत एक बैंड में स्पेक्ट्रम होल्डिंग सीमा 50 फीसद और पूरे सर्कल के लिए 25 फीसद होल्डिंग सीमा होगी।


टेलीकॉम एक्सपर्ट महेश उप्पलने इन सिफारिशों को काफी अहम बताया है। महेश उप्पल ने कहा कि शेयरिंग को मंजूरी से काफी फायदा होगा। देश में स्पेक्ट्रम सीमित मात्रा में उपलब्ध है, लेकिन डिमांड ज्यादा है। वहीं 0.5 फीसदी यूसेज चार्ज से कंपनियों को भी परेशानी नहीं होगी।


जीएसएम टेलीकॉम कंपनियों के संगठन सीओएआईके डायरेक्टर जनरल राजन मैथ्यूजने ट्राई की सिफारिशों का स्वागत किया है। राजन मैथ्थूज के मुताबिक स्पेक्ट्रम की शेयरिंग से टेलीकॉम इंडस्ट्री को फायदा होगा और ग्राहकों को भी बेहतर सुविधाएं मिलेगी।

इकोनामिक टाइम्स नवभारत टाइम्से के ईटी ब्यूरो, नई दिल्ली के मुताबिक

टेलिकॉम रेग्युलेटर ने प्रस्ताव रखा है कि किसी एक सर्कल में 2 टेलिकॉम कंपनियां किसी भी कैटिगरी के एकसमान स्पेक्ट्रम शेयर कर सकती हैं। इसमें वे स्पेक्ट्रम भी शामिल हैं, जिन्हें तय कीमत पर दिया गया था। बैंडविड्थ पूलिंग लिमिट में भी ढील देने का प्रस्ताव है। टेलिकॉम रेग्युलेटर के इन सुझावों पर अमल से जहां रिसोर्सेज का बेहतर इस्तेमाल हो पाएगा, वहीं कंजयूमर के लिए वॉयस और डेटा सर्विसेज सस्ती होंगी।


रेग्युलेटर के इस कदम का अरसे से इंतजार हो रहा था। इससे भारती एयरटेल, आइडिया सेल्युलर और वोडाफोन इंडिया जैसी कंपनियों को फायदा होगा, जो अपने सब्सक्राइबर्स को लिमिटेड बैंडविड्थ से सर्विस दे रही थीं। अगर टेलिकॉम रेग्युलेटर के इन प्रस्तावों को मंजूरी मिलती है तो रिलायंस कम्युनिकेशंस, टाटा टेलिसर्विसेज और एयरसेल जैसी कंपनियां बेकार पड़ी कैपेसिटी से कमाई कर सकेंगी। इन प्रस्तावों के लागू होने पर दोनों तरह की टेलिकॉम कंपनियों की आमदनी बढ़ेगी।


वहीं, कंजयूमर्स को बेहतर वॉयस सर्विस मिलेगी। कॉल ड्रॉप के मामले घटेंगे और इंटरनेट की रफ्तार बढ़ेगी। इन प्रस्तावों के चलते टेलिकॉम कंपनियों की कॉस्ट कम हो सकती है, जिससे वे कंजयूमर्स को सस्ती सर्विस ऑफर कर सकती हैं। उन्हें कैपिटल एक्सपेंडिचर भी कम करना होगा। टेलिकॉम रेग्युलेटर अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने सोमवार को फाइनल स्पेक्ट्रम शेयरिंग गाइडलाइंस का ऐलान किया। इसमें कहा गया है कि सिर्फ 2 कंपनियां एक सर्कल में बैंडविड्थ शेयर कर सकती हैं।   


रेग्युलेटर ने कहा है कि 2जी, 3जी, 4जी सभी में एयरवेव्स शेयर किए जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए दोनों ऑपरेटर्स के पास उसी बैंड में स्पेक्ट्रम होने चाहिए। उसने स्पेक्ट्रम लीज पर देने की इजाजत नहीं दी है। शेयरिंग एग्रीमेंट लाइसेंस की पूरी अवधि के लिए किया जा सकता है। इकनॉमिक टाइम्स ने पहले यह खबर दी थी कि ट्राई 2जी, 3जी और 4जी सबके लिए स्पेक्ट्रम शेयरिंग की इजाजत देगा, भले ही ये सरकार की ओर से तय कीमत पर मिले हों या ऑक्शन के जरिये हासिल किए गए हों। ट्राई के प्रस्ताव पर जीएसएम कंपनियों के लॉबी ग्रुप सेल्युलर ऑपरेटर्स असोसिएशन ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल राजन मैथ्यूज ने कहा, 'शेयरिंग से उन कंपनियों और ऑपरेटर्स को फायदा होगा, जिनके पास 3जी बैंडविड्थ और 4जी स्पेक्ट्रम है, लेकिन जो सर्विस देने के लिए अपने नेटवर्क नहीं बना सके हैं।'


ईवीडीओ स्पेक्ट्रम नीलामी नहीं होने से 4,187 करोड़ नुकसान

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने कहा है कि बिना नीलामी के सीडीएमए आपरेटरों को 2जी स्पेक्ट्रम पर ईवीडीओ प्रौद्योगिकी जोड़कर द्रुत गति की मोबाइल इंटरनेट सेवाएं प्रदान करने की अनुमति देने के फैसले से सरकार को 4,187 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ।


कैग ने दूरसंचार विभाग को भेजे नोट में कहा है कि ईवीडीओ सेवाओं के लिए 800 मेगाहटर्ज :सीडीएमए स्पेक्ट्रम: की नीलामी न किए जाने से सरकार को 4,187.65 करोड़ रुपये के एकबारगी शुल्क का नुकसान हुआ।


सिस्तेमा श्याम :एमटीएस:, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा टेलीसर्विसेज ईवीडीओ सेवाएं प्रदान करती हैं। सीडीएमए कंपनियों के संगठन आस्पी के महासचिव अशोक सूद ने कहा कि हमारी समझ यह है कि ईवीडीओ एक अन्य प्रकार का सीडीएमए है। लाइसेंस में इस तरह की कोई बाध्यता नहीं है जो इसके इस्तेमाल को रोकती हो। हमारा मानना है कि दूरसंचार विभाग भी ऐसा ही समझता है।


कैग के नोटिस का जवाब देने की तैयारी कर रहे दूरसंचार विभाग ने नुकसान के इस दावे को अनुमानित व कल्पित बताया है। दूरसंचार विभाग के सूत्रों ने कहा कि ईवीडीओ सेवाएं दूरसंचार आपरेटर के पास मौजूद लाइसेंस के दायरे में आती हैं। आपरेटर उसकी स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर सकते हैं जो वाइस सेवाओं के लिए करते हैं। ईवीडीओ सेवाओं के लिए 800 मेगाहटर्ज बैंड में स्पेक्ट्रम नीलामी न करने का फैसला वित्त मंत्रालय के साथ सहमति से लिया गया था। ऐसे में राजस्व नुकसान का सवाल नहीं उठता।


आनंद स्वरुप वर्मा की इस अपील को जरुर समझें और वैकल्पिक मीडिया के पक्ष में अपने अपने अवदान पर गौर भी करें।


समकालीन तीसरी दुनिया - एक परिचय

'समकालीन तीसरी दुनिया' का पहला अंक मार्च 1980 में प्रकाशित हुआ। पहले अंक की कवर स्टोरी अफ़ग़ानिस्तान पर थी। पत्रिका 'महाशक्तियों के प्रभुत्ववाद के खिलाफ तीसरी दुनिया का प्रतिरोध'के घोषित उद्देश्य के साथ शुरू हुई थी।

भारत के मीडिया की और खास तौर पर हिन्दी मीडिया की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि के बारे में भरपूर जानकारियां देता है लेकिन बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, बर्मा आदि पड़ोसी देशों के बारे में उसने एक अजीब किस्म की उदासीनता का रवैया अपना रखा है। यह प्रवृत्ति काफी दिनों से जारी है जो अभी भी देखी जा सकती है। पत्रिका का प्रकाशन शुरू करते समय हमने यह सोचा था कि पड़ोसी देशों की घटनाओं से पाठकों को अवगत कराया जाए। इसके अलावा जिस समय इसका प्रकाशन शुरू किया गया हमारे सामने मुख्य रूप से निम्न उद्देश्य थेः

  1. हिन्दी में ऐसी पत्रिका के अभाव को दूर करना जो भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में चल रहे साम्राज्यवाद विरोधी, सामंतवाद विरोधी और हर तरह के जनतांत्रिक आंदोलनों की जानकारी दे और जानकारी इस तरह दी जाय जिससे भारत की संघर्षशील शक्तियां इन देशों में चल रहे संघर्षों के साथ मानसिक तौर पर तादात्म्य स्थापित कर सकें।

  2. राजनीति, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रा में उन प्रवृत्तियों को उजागर किया जाय जो इन संघर्षों को अपने माध्यमों के जरिए अभिव्यक्ति दे रही हों।

  3. दोनों महाशक्तियों अर्थात सोवियत संघ और अमेरिका के बीच दुनिया के देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ का पर्दाफाश करना।

ऐसा महसूस किया गया कि हिन्दी में ऐसी कोई पत्रिका नहीं है और इस कमी को पूरा करने के लिए तीसरी दुनिया का प्रकाशन शुरू हुआ। इसने हमारी इस धरणा को और पुष्ट किया कि अगर हिन्दी में गंभीर और विश्लेषणात्मक सामग्री से भरपूर तथा साथ ही प्रस्तुतिकरण में एक नए सौंदर्यबोध् के साथ कोई पत्रिका निकालीजाय तो उसे पाठकों की कमी नहीं होगी।

इस पत्रिका को न केवल उत्तर भारत में बल्कि उत्तर पूर्व के उन इलाकों में जहां नेपाली आबादी बसती थी तथा नेपाल में काफी लोकप्रियता मिली। इसने संघर्षशील शक्तियों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया। राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जब मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी को गिरफ्रतार किया गया तो इस पत्रिका ने उन्हें और उनके आंदोलन को कवर स्टोरी बनाया। वाम जनतांत्रिक राजनीति की पक्षध्र होते हुए भी इसने अपनी निष्पक्षता इस अर्थ में बनाए रखी कि किसी गुट विशेष को प्रमुखता न देते हुए इसने वामधारा के विभिन्न संघर्षशील समूहों को अपने पृष्ठों में स्थान दिया।

पिछले ढाई दशक के दौरान 'समकालीन तीसरी दुनिया'मासिक पत्रिका का प्रकाशन चार बार स्थगित करना पड़ा और प्रायः हर बार प्रकाशन स्थगित करने और फिर शुरू करने के बीच का अंतराल काफी लंबा रहा। बार-बार प्रकाशन स्थगित होने के बावजूद पाठकों के बीच इसकी साख का बने रहना बहुत बड़ी बात है और यह सौभाग्य इस पत्रिका को प्राप्त है।

अगस्त 2010 से प्रकाशन का ताजा दौर शुरू हुआ है। यह ऐसा समय है जब बाजार की शक्तियां पूरी तरह हमारे देश की राजनीति को संचालित कर रही हैं और कॉरपोरेट घरानों द्वारा बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाध्नों की लूट चल रही है। इसके फलस्वरूप छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड आदि खनिज संपदा से समृद्ध राज्यों में उथल-पुथल की स्थिति बनी हुई है क्योंकि केंद्र में बैठी सरकार की मदद से तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉरपोरेट घरानों ने खनिजों के दोहन के लिए सैकड़ों समझौता पत्रों एमओयूद्ध पर हस्ताक्षर किए हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे आंदोलनों में एक खास तरह की समानता है और वह इस रूप में दिखायी देती है कि इन सभी स्थानों में बड़े उद्योगों को स्थापित करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को उजाड़ा जा रहा है। विस्थापन की समस्या ने अत्यंत गंभीर रूप ले लिया है और सरकार की इस नीति के खिलाफ जनता का प्रतिरोध् लगातार हिंसात्मक रूप लेता जा रहा है। इनके बीच जो लोग सक्रिय हैं उनके खिलाफ तरह-तरह के कानून बनाए जा रहे हैं और कहीं सचमुच तो कहीं अपनी सुविध के लिए सरकार इन इलाकों को माओवाद प्रभावित इलाका घोषित कर रही है। इसमें सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि भारत में 1967 में नक्सलबाड़ी के किसान संघर्ष के साथ जिस आंदोलन की शुरुआत हुई थी और जिसे 1970 के दशक की समाप्ति तक सरकार ने लगभग मृत घोषित कर दिया था वह फिर 'माओवाद'के रूप में समने आ गया है। यह दौर भीषण दमन और प्रतिरोध् का दौर है।

ऐसे समय पत्रिका का प्रकाशन बहुत जोखिम भरा काम है क्योंकि आप कुछ भी अगर जनता के पक्ष में लिखेंगे तो उसे सरकारी भाषा में 'राजद्रोह'मान लिया जाएगा। इन सबके बावजूद अगर कोई जनपक्षध्र पत्रिका निकालनी है तो यह जोखिम उठाना पड़ेगा और 'समकालीन तीसरी दुनिया'फिलहाल इस जोखिम को उठाने के लिए तैयार है। इस दौर के कुछ महीनों का अनुभव पहले से काफी भिन्न है। अभी देश के अंदर आंदोलन जैसी स्थितियां तैयार हो रही हैं लेकिन बड़े पैमाने पर कोई ऐसा आंदोलन नहीं है जो व्यापक आबादी को - खास तौर पर विशाल मध्य वर्ग को - प्रभावित कर सके। जनता के अंदर महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर जो असंतोष पनप रहा है उसे निकालने के रास्ते ढूंढे जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आज राज्य को कुछ ऐसे आंदोलनों की जरूरत पड़ गयी है जिसे लोगों का गुस्सा निकालने के लिए सेफ्रटी वाल्व की तरह इस्तेमाल किया जा सके।

एक पत्रिका के संपादक के रूप में इस तरह के आंदोलन बड़ी मुश्किल पैदा कर देते हैं। अगर आप इसका विरोध् करते हैं तो लगता है कि आप भ्रष्टाचार का साथ दे रहे हैं और अगर इसके साथ खड़े होते हैं तो आपको खुद को यह कनविन्स करना बहुत मुश्किल है कि इस आंदोलन का मकसद सचमुच भ्रष्टाचार को समाप्त करना है। एक राय आती है कि जनता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए लेकिन आज जरूरत इस बात की है कि हम सही अर्थों में जनता को परिभाषित करें और साहस के साथ अपनी बात रख सकें। जिस बड़े पैमाने पर देश में लोगों ने गणेश की मूर्ति को दूध् पिलाने का अभियान चलाया वह भी तो जनता ही थी। तो क्या जनता का अर्थ कभी भी किसी एब्सोल्यूट रूप में हो सकता है? यह एक प्रमुख समस्या है जो बतौर संपादक सामने दिखायी देती है।

इस पत्रिका को लोग इसलिए पसंद कर रहे हैं क्योंकि हिन्दी में इन विषयों पर सामग्री देने वाली कोई पत्रिका नहीं है। मैने जब इसका प्रकाशन शुरू किया था उस समय किसी ने मुझसे पूछा था कि सामग्री का चयन आप कैसे करते हैं। मैंने जवाब में कहा कि अगर आप तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया के सारे दफ्रतरों का एक चक्कर लगाएं और वहां संपादक की टेबुल के नीचे रखी रद्दी की टोकरी को जुटा लें तो उसमें से इतनी सामग्री आपको मिल जाएगी जो आपके कई अंकों की कवर स्टोरी हो सकती है। मैं आज भी इस बात को थोड़े संशोध्न के साथ मानता हूं। आज मेनस्ट्रीम मीडिया की कवर स्टोरी और हमारी कवर स्टोरी मसलन अन्ना हजारे या दंतेवाड़ाद्ध एक हो सकती है लेकिन दोनों के विश्लेषण में जमीन आसमान का अंतर होगा। धीरे-धीरे पाठकों को यह आदत डलवाने की जरूरत है कि वह हमारे विश्लेषण के प्रति दिलचस्पी लें...कोई भी पत्रिका खुद आंदोलन नहीं करती। उसका काम लोगों की चेतना के स्तर को उन्नत करना है जिसका फायदा आंदोलनकारी ताकतें उठा सकती हैं। आज जबकि खबरों का बुरी तरह स्थानीयकरण हो गया है और इन्फॉर्मेशन टेक्नालॉजी के जबर्दस्त विकास के बावजूद लोग खबरों से कटते जा रहे हैं इस तरह की पत्रिकाओं की जरूरत और भी ज्यादा बढ़ गयी है जो लोगों को एक दूसरे के क्षेत्रा की खबरें दे सके। दूसरी बात यह है कि राज्य ने या व्यवस्था ने मिसइंफॉर्मेशन या डिसइंफॉर्मेशन को एक हथियार बना रखा है और इसका मुकाबला हम लोगों को ज्यादा से ज्यादा सही सूचनाओं और जानकारियों से लैस करके कर सकते हैं। तीसरी बात यह है कि ग्लोबलाइजेशन के अंदर एक बिल्ट-इन मेकेनिज्म है- जनआंदोलनों की खबरों को ब्लैकआउट करना क्योंकि जनआंदोलनों की खबरों से निवेश के वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उसका सामना करने के लिए भी आज इस तरह की पत्रिकाओं की जरूरत है। इस तरह के प्रयास ही आगे चलकर एक वैकल्पिक सूचना तंत्रा का रूप ले सकेंगे।

आनंद स्वरूप वर्मा


२जी स्पेक्ट्रम घोटाला

http://hi.wikipedia.org/s/qjh

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

२जी स्पेक्ट्रम घोटाला भारतका एक बहुत बड़ा घोटालाहै जो सन् २०११ के आरम्भ में प्रकाश में आया था।

परिचय[संपादित करें]

केंद्र सरकार के तीन मंत्रियों जिनको त्याग करना पड़ा उनमे सर्व श्री सुरेश कलमाड़ीजी जो कि कामनवेल्थ खेल में ७०,००० हजार करोड़ का खेल किये। दुसरे महारास्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हद जिनको कारगिल शहीदों के लिए बने आवास में ही उलटफेर किया । तीसरे राजा साहब जिन्होंने १ लाख ७६ हजार करोड़ का वारा न्यारा किया। इसप्रकार राजा द्वारा किया गया घोटाला स्वातंत्र भारत का महाघोटाला होने का कीर्तिमान स्थापित किया।

किसी भी विभाग या संगठन में कार्य का एक विशेस ढांचा निर्धारित होता है,टेलीकाम मंत्रालय इसका अपवाद हो गया है। विभाग ने सीएजी कि रिपोर्ट के अनुसार नियमो कि अनदेखी के साथ साथ अनेक उलटफेर किये। २००३ में मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत नीतियों के अनुसार वित्त मंत्रालय को स्पेक्ट्रम के आबंटन और मूल्य निर्धारण में शामिल किया जाना चाहिए । टेलीकाम मंत्रालय ने मंत्रिमंडल के इस फैसले को नजरंदाज तो किया ही आईटी ,वाणिज्य मंत्रालयों सहित योजना आयोग के परामर्शो को कूड़ेदान में डाल दिया । प्रधानमंत्री के सुझावों को हवा कर दिया गया। यह मामला २००८ से चलता चला आ रहा है, जब ९ टेलीकाम कंपनियों ने पूरे भारत में आप्रेसन के लिए १६५८ करोड़ रूपये पर २जी मोबाईल सेवाओं के एयरवेज और लाईसेंस जारी किये थे । लगभग १२२ सर्कलों के लिए लाईसेंस जारी किये गए इतने सस्ते एयरवेज पर जिससे अरबों डालर का नुकसान देश को उठाना पड़ा । स्वान टेलीकाम ने १३ सर्कलों के लाईसेंस आवश्यक स्पेक्ट्रम ३४० मिलियन डालर में ख़रीदे किन्तु ४५ % स्टेक ९०० मिलियन डालर में अरब कि एक कंपनी अतिस्लास को बेच दिया। एक और आवेदक यूनिटेक लाईसेंस फीस ३६५ मिलियन डालर दिए और ६०% स्टेक पर १.३६ बिलियन डालर पर नार्वे कि एक कम्पनी तेल्नेतर को बेच दिया।

इतना ही नहीं सीएजी ने पाया कि स्पेक्ट्रम आबंटन में ७०% से भी अधिक कंपनिया हैं जो नाटो पात्रता कि कसौटी पर खरी उतरती है नही टेलीकाम मंत्रालय के नियम व शर्ते पूरी करती है । रिपोर्ट के अनुसार यूनिटेक अर्थात युनिनार ,स्वान याने अतिस्लत अलएंज जो बाद में अतिस्लत के साथ विलय कर लिया । इन सभी को लाईसेंस प्रदान करने के १२ महीने के अन्दर सभी महानगरो,नगरों और जिला केन्द्रों पर अपनी सेवाएँ शुरू कर देनी थी। जो इन्होंने नहीं किया ,इस कारण ६७९ करोड़ के नुकसान को टेलीकाम विभाग ने वसूला ही नहीं ।

इस पूरे सौदेबाजी में देश के खजाने को १७६,००० हजार करोड़ कि हानि हुई । जब २००१ से अब तक २जी स्पेक्ट्रम कि कीमतों में २० गुना से भी अधिक कि बढ़ोत्तरी हुई है तो आखिर किस आधार पर इसे २००१ कि कीमतों पर नीलामी कि गई? देश के ईमानदार अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते रहे कि हमारे कमुनिकेसन मंत्री राजा ने किसी भी नियम का अतिक्रमण नही किया और भ्रष्ट मंत्री के दोष छिपाते रहे क्यों ?

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]


Jul 22 2014 : The Economic Times (Mumbai)

RESPITE FOR RESOURCE-STRAPPED COS - Telcos Can Now Share Spectrum Within a Circle


NEW DELHI

OUR BUREAU





Move could lead to better services and lower tariffs as telcos save on costs

The telecom regulator has proposed allowing two tel cos to share any category of similar spectrum in a circle, including airwaves allotted at administrative prices, and liber alised a cap on bandwidth that can be pooled in, suggestions that could ensure efficient use of resources, and cheaper voice and data services for users.

The much-awaited facility is set to benefit the likes of Bharti Airtel, Idea Cellular and Vodafone India, which will be able to add to their stretched bandwidth holdings to service millions of their subscribers, that too without taking part in expensive auctions. Others such as Reliance Communications, Tata Teleservices and Aircel will be able to put idle capacities to use. Both sets of telcos would generate higher revenue.

For consumers, this could mean better quality of voice services ­ fewer calls dropping ­ and faster data speeds, and could even translate into lower tariffs as operators' capital ex penditure is like ly to fall.

The Telecom Regulatory Au thority of India (Trai) an nounced final spectrum-shar ing guidelines on Monday .

Trai recomt airwaves in all mended that airwaves in all bands -be it 2G, 3G, 4G -will be sharable but both operators must have that spectrum in the same band. For instance, for two operators to share air waves in the 900 Mhz band, both must have airwaves in the same band. It has not allowed leasing of airwaves. The sharing agreement need not be limited to any tenure, other than the life of the licence.

ET was the first to report that the regulator would permit spectrum sharing across all bands — be it second, third or fourth generation, allotted at government-set prices or through auctions.

"Companies that have 3G bandwidth and operators that have 4G spectrum and have rollout obligations but haven't built their networks can benefit from sharing," said Rajan Mathews, director general of the Cellular Operators Association of India, a lobby group of GSM carriers, including Airtel, Vodafone and Idea.

Mathews added that major operators would be able to pool their spectrum to get contiguous, or continuous, spectrum which wasn't possible previously. Telcos need continuous spectrum to offer better quality of services. 4G can't be offered without at least 5 MHz of continuous airwaves.

The telecom department (DoT), after approving the guidelines, will pass on the recommendations to the Telecom Commission – its

highest decision-making body -which will take the final call. DoT can also send it back to Trai for clarifications. The regulator has recommended that while sharing spectrum, half the additional capacity created needs to be counted for calculating each operator's spectrum holding. After doing so, spectrum can be shared if each op erator's spectrum holding is not be more than 50% of the airwaves allotted in the band and 25% of the total spectrum across all bands in a telecom circle.

But for this clause, telcos such as Vodafone and Airtel would not have been able to share spectrum with the smaller players as the two would have breached the caps. Big operators are the ones that need to share airwaves the most. The clause of the two operators, however, won't allow any attempts at a monopoly in any circle, analysts said.

Further, the regulator has also permitted sharing of non-auctioned spectrum -airwaves allot ted at government-set prices that were much lower than auction prices. In that case, "after sharing, they will be permitted to provide only those services which can be provided through administratively held spectrum," the recommendations said.

Most auctioned spectrum falls under the unified licence category, which allows operators to offer any telecom service under a single licence. But those with administratively allotted spectrum can offer

only services they have the licence for. Ashok Sud, secretary general of Auspi, the lobby group for CDMA and dual-technology operators, including Tata Teleservices and Reliance Communications, said that this clause — allowing airwaves allocated under government-set prices, or .

`1,658 crore, to share bandwidth — was the biggest positive.

Most of the airwaves held by Tata Tele, Aircel and RCom were administratively allocated.

"Limitations that two operators can share spectrum but only within the same band and that auctioned spectrum cannot be pooled with administratively allotted spectrum for sharing, can be a little bit of a restraint but not fatal," Mathews added.

Spectrum usage charge (SUC) on airwaves will increase by 0.5% for both operators entering sharing agreements in the 1800 MHz, 900 MHz and 2100 MHz bands, as the move will result in higher revenue for both companies, Trai added.

"If the government policy is of optimized sharing of resources, since they're scarce, Trai should not have put the 0.5% SUC charge," said Hemant Joshi, partner, Deloitte Haskins & Sells.














Jul 21 2014 : The Economic Times (Kolkata)

Trai May be in Favour of Telcos Sharing All Kinds of Airwaves

ANANDITA SINGH MANKOTIA

NEW DELHI





Operators will be able to pool in their spectrum, ensuring optimum use of resources

The telecom regulator is likely to propose allowing operators share all kinds of airwaves and liberalising the cap on the spectrum that can be pooled in, recommendations that could help companies better utilise the scarce and pricy resource and consumers get better services.

The Telecom Regulatory Authority of India (Trai) doesn't also favour any restrictions on the tenure for operators to share airwaves, according to a draft of the guidelines prepared by the regulator on bandwidth sharing. However, it is likely to have turned down the industry's demand for allowing more than two operators to share their airwaves.

Sharing allows operators pool in their spectrum and use it, thereby resulting in optimum use of the most import asset for a telecom company. It provides a new avenue for stronger operators like Bharti Airtel, Vodafone India and Idea Cellular to beef up their bandwidth holdings without having to take part in auctions.

For weaker players, sharing of spectrum offers a way to monetise their bandwidth assets.

For consumers, this could mean better quality of voice services and faster data speeds, and could translate into lower tariffs as operators' capex could fall, analysts said. But allowing bandwidth sharing could reduce aggressive bidding in spectrum auctions, which could affect

government revenue.

According to a senior official, the regulator may release the recommendations as early as Monday. It had ratified the proposals late Friday. If the Department of Telecommunications (DoT), which issues the final guidelines, doesn't agree with the regulator, it could return the proposals to Trai.

ET was the first to report that the regulator would permit spectrum sharing across all bands — be it second, third or fourth generation, allotted at government-set prices on through auctions.

DoT in its draft guidelines had proposed that operators be allowed to share airwaves only for five years after which they need fresh approval from the department.

As reported by ET earlier, the regulator is likely to recommend that the government charge an additional 0.5% spectrum usage charge on fourth-generation airwaves (2300 MHz, or broadband wireless access spectrum).

On capping the amount of airwaves to be shared, Trai has tried to balance the demand of the industry while ensuring that operators aren't allowed to hoard spectrum, shows the draft, seen by ET.

According to DoT's draft guidelines, two operators would be allowed to share spectrum if their total holding didn't exceed 50% of the airwaves allotted in the band and 25% of the total spectrum across all bands in a telecom circle.

Trai recommendations say only half of the other operator's spectrum be counted

towards this cap. That means if operator A holds 10 MHz of spectrum and operator B 6 MHz, in the event of sharing airwaves, A's total spectrum holding becomes 13 MHz (10 MHz of its own and half of B's 6 MHz) and B's 11 MHz.

These two holdings should individually not breach the 25% and the 50% caps.

This suggestion, if DoT accepts it, will allow big operators such as Bharti Airtel and Vodafone to share their airwaves with smaller ones like Tata Teleservices and Aircel.

The regulator has also permitted sharing of non-auctioned spectrum — airwaves allotted at government-set prices which were much lower than auction prices. In that case, "after sharing, they will be permitted to provide only those services which can be provided through administratively held spectrum", the document shows.

Most auctioned spectrum fall under the unified licence category, which allows operators to offer any telecom services under a single licence. But those with administratively allotted spectrum can offer only services they have the license for.

The regulator feels that operators who haven't paid a market price shouldn't be discriminated against.

Each participant in sharing will have to pay a nominal fee of .

`50,000, the draft shows. Both partners would be liable for meeting rollout obligations for the airwaves assigned to them.








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