जल आजीविका भयंकर खतरे में,बोनस में आपदाएं!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
पहाड़ों में भारी वर्षा हो रही है एक बार फिर।शुक्र है कि कम से कम इस बार मौसम की भविष्यवाणी के मद्देनजर उत्तराखंड में चार धाम यात्रा स्थगित कर दी गयी।फिर भी बाबा रामदेव चार सौ बच्चों के साथ फंसे हुए हैं।किसी धर्म यात्रा या धर्मस्थल में आपदाओं के शिकार आम लोगों के हुजूम के बीच खास चेहरे दिखते नहीं है।कैलाश मानसरोवर यात्रा के दौरान भूस्खलन की शिकार नृत्यांगना प्रोतिमा बैदी शायद विरल अपवाद हैं।घायब घाटियों,गांवों और मनुष्यों का लेखा जोखा राजकाज में शामिल नहीं है।सालभर बाद केदार अंचल में मिले नरककाल इसके ज्लत सबूत हैं।
अभी साल भर ही होने को है केदार जल प्रलय को।इससे पहले आयी सुनामी का विध्वंस देश ने उसीतरह भुला दिया है जैसे भोपाल गैस त्रासदी को।
इस उपमहाद्वीप में इस वक्त जल युद्ध के हालात बन रहे हैं।
नदियां बिक चुकी हैं और नदिया बंध चुकी है।
अविरल जलधारा कहीं है नहीं।
झीलों की लाशों पर बन रहे हैं नगर महानगर उपनगर।
समुंदर भी बिकने लगा है।बेदखल होने लगा है।
ग्लोबल वार्मिंग ने ऋतुचक्र और मौसम में,जलवायु में भारी तब्दीली कर दी है।
ग्लेशियरों की सेहत बेहद खराब है।
मानसून राह भटकने लगा है।
सिर्फ प्राकृतिक आपदाएं फिर फिर लौट रही हैं कहर बरपाती हुई।
समुद्रतटवर्ती भूगोल में क्या खलबली है और पहाड़ों में क्या हो रहा है,बाकी देश को मालूम नहीं होता।हादसे की चपेट में जब बाकी देश भी जख्मी होता है,तभी जल जीवन का ख्याल होता है।
जल जीवनहै तो जल मृत्यु भी है।
इस वक्त बांग्लादेश के समुद्रतट पर भारी आपदा आयी हुई है।लाखों लोग जल बंदी है।लहरों के प्रबल जलोच्छास ने जनजीवन अस्त व्यस्त कर दिया है।
भारत में मानसून और अलनिनो की चर्चा खूब हो रही है और उसी हिसाब से सूखे के मद्देनजर योजनाएं तमाम बन जाने का भारी हो हल्ला है।लेकिन गगन घटा गहरानी का ख्याल किसी को नहीं है।
समुद्री तूफान,सुनामी,जल प्रलय,बाढ़,भूस्खलन का भूगोल स्थानांतरित होने में देऱ लगती नहीं है।
बांग्लादेश में नजारा कैसा है,उसका अंदाजा मुंबई के सड़कों के घेर लेने वाले समुंदर के दर्शन से हो भी सकता है और नहीं भी।
हमारे होश तो ठिकाने पर तब आते हैं,जब तबाही का मंजर हमें घेर लेता है।
हिंद महासागर,अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की कोई वैदिकी विशुद्धता का इतिहास नहीं है।कावेरी,नर्मदा,यमुना जैसी नदियों के पवित्रता के आख्यान भी हैं लेकिन मुक्त बाजार में महज गंगा परियोजनाओं की गुंजाइश है जो तमाम जलस्रोतों को एक मुश्त बेच डालने के कार्यक्रम के लिए जरुरी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का आवाहन करने के लिए पर्याप्त हैं।
पर्यावरण के अलावा आर्थिक मुद्दे भी संगीन हैं।
गुजरात में समुंदर पर तो सेजमाध्यमे अब अदाणी का राज हो गया है।
तेल गैस के लिए हिंद महासागर और अरब सागर में रिलायंस का मुकम्मल साम्राज्य है।
लेकिन सुंदरवन जैसे रक्षा कवच और हिमालय जैसे संजीवनी क्षेत्र के चप्पे चप्पे पर जो विकास कामसूत्र का अभ्यास हो रहा है,उससे पर्यावरण बंधु पर्यावरण का सत्यानाश हुआ जा रहा है तो नदियों और समुंदरं से जुड़े जनसमुदायों के जीवन आजीविका पर संकट निरंतर गहराता जा रहा है।
समझने वाली बात है कि जैसे आदिवासी जंगल और जमीन से बेदखल हो रहे हैं देश भर में,उसी तरह अलग अलग आजीविकाओं में जाति व्यवस्था के मुताबिक खंडित बहुसंख्या भारतीय कृषिजीवी जनता अपनी नदियों और समुंदर से बेदखल होकर गहरे रोजगार संकट में फंस गये हैं।
हमें नहीं मालूम कि कितने लोगों ने बंगाल के बाहर तितास के जल जीवन और आजीविका पर केंद्रित अद्वैत मल्ल बर्मन के महाकाव्यिक उपन्यास पढ़ा है या उसकी चर्चा सुनी है।
किंवदंती फिल्मकार ऋत्विक घटक ने इसी तितास पर एक फिल्म भी बनायी है और शायद उसके बारे में भी कम से कम आज की मुक्तबाजारी जनता को मालूम कम है।
नदियों की सुरक्षा के लिए पर्यावरण कानून पर्याप्त होते तो गंगा का यह हाल नहीं होता और हिमालय से बहने वाली नदियों की कानूनी सुरक्षा मिली होती तो केदार जलप्रलय नहीं आता। लेकिन समुद्रतट सुरक्षा कानून है जो अंतरराष्ट्रीय कानून की जद में आता है,जिसके तहत समुद्र तटवर्ती इलाकों के लैंड स्कैप बदलना देना भी अपराध है।ऐसी किसी गतिविधि की कोई इजाजत नहीं है जिससे जीवनचक्र में फेरबदल हो जाने की आसंका है।
दरअसल पूरे इस भारतीय उपमहाद्वीप में समुद्रजीवी खासकर मत्स्यजीवी मनुष्यों को बेदखल बनाकर समुद्रतीरे कारपोरेट राज कायम करने का खेल जारी है विकास कामसूत्र के मुताबिक।
मसलन मुंबई में अरब सागर के आसपास का भूगाल बदल दिया गया है।
यही नहीं,पश्चिम उपकूल पर तमाम मैनग्रोव फारेस्ट का सफाया करके समूचे महाराष्ट्र को दुष्काल के शिकंजे में फंसा दिया गया है।
हरित क्रांति के जरिये देशज कृषि विधि में क्रातिकारी परिवर्तन और पर्यावरण के सत्यानाश से मौसम चक्र के अनियमित हो जाने से महाराष्ट्र के आर पार पश्चिम भारत,मध्य भारत और दक्षिण भारत में कृषिजीवी जनता के लिए आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
मछुआरे तो देश भर में नदियों,झीलों और समुंदर से बेदखल हो गये हैं।
ब्रह्मपुत्र हो या चिल्का झील या मुंबई चेन्नै का समुद्रतट या बंगाल का सुंदरवन क्षेत्र सर्वत्र मछुआरे संकट में हैं।
इसीलिए अद्वैत मल्लबर्मन का तितास उपन्यास पढ़ना जरुरी है,जो अब शायद बंगाल में भी पढ़ा नहीं जाता।
मीठे पानी की तमाम मत्स्य प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं और खारा पानी में भी मछलियां सुरक्षित नही हैं।
पूर बंगाली भूगोल में जो मछली सबसे ज्यादा स्वादिष्ट है, वह हिलसा मछलियां अब बांग्लादेश की नदियों में भी उपलब्ध नहीं हैं।
इस संकट को कुछ इस तरह समझें कि ओड़ीशा में समुद्रतटवर्ती भीतरकणिका अभयारण्य इलाके में कषिजीवी जनता की गतिविधिायां समुंदर और जमीन पर नियंत्रित है और मछली शिकार की आजादी भी उन्हें नहीं है,लेकिन एकमुश्त वनाधिकार कानून,पर्यावरण कानून और समुद्रतट सुरक्षा कानून की धज्जियां उड़ाकर इस पूरे इलाके को टाटा,पास्को और वेदंत का आखेटगाह बना दिया गया है।
गुजरात के समुद्रतीरे पहले ही आदिवासियों को उजाड़कर संविधान के पांचवीं और छठीं अनुसूचियों,स्थानीय निकायों के जनसुनवाई अधिकार और पेसा के साथ साथ भूमि अधिग्रहण कानून की धज्जियां उड़ाकर कांधला महासेज 184 कंपनियों को भेंट दिया गया है और नर्मदा की जलधारा सरदार सरोवर मार्फत मोड़ दी गयी है।
अब अदालती निषेध के बावजूद गुजरात के पीपीपी विकास माडल के तहत अदाणी के महासेज को भी पर्यावरण कानून और समुद्रतट सुरक्षा कानून हाशिये पर रखकर केसरिया कारपोरेट कंपनी ने हरी झंडी दे दी है।
देश भर में इसीतरह सेज महासेज औद्योगिक गलियारों और स्मार्ट शहरों के जरिये विकास की बुलेट ट्रेन से कृषिजीवी जनता को कुचला जा रहा है।
मुंबई को तो जैतापुर परमाणु क्लस्टर से घेर दिया गया है।
चेन्नै कलपक्कम परमामु बिजलीघर की जद में है तो तीन सागरों के महापवित्र संगम कलन्याकुमारी के सीने पर कुड़नकुलम टांक दिया गया है।
समुद्र से भारी पैमाने पर बेदखल हो रहे हैं लोग तो नदीकिनारे भी डूब में शामिल हो रही है आबादी और जमीन और आजीविका से विस्थापित लोगों का पुनर्वास एक छलावा के अलावा कुछ नहीं है।
आदिम बिजली बांध परियोजना डीवीसी से लेकर सरदारसरोवर,टिहरी से लेकर पोलावरम तक की यह यंत्रणा कथा अनंत है।
निर्माण विनिर्माण अब रियल्टी है और सरकारे भी रियल्टी कपनियां।
सुंदरवन के कोर इलाकों में भी कंपनियों की जयडंक बज रही है। जल क्षेत्रों में चप्पे चप्पे पर सेज,बिजली,परमाणु बिजली परियोनाएं है तो बाकी जगह रिसार्ट हैं कदम कदम पर।
पहाडो़ं में पनचक्की अब कहीं नहीं है और सारा पहाड़ अब चिपको हो जाने के बावजूद जंगल की अंधाधुंध कटान के बाद कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहा है।
बेदखल लोगों की आजीविका की चिंता करोड़पति अरबपति विकास पुरुषों,विकासमाताओं को नहीं है।
मसलन सुंदरवन इलाके में जल परिवहन आजीविका का सबसे बड़ा साधन रहा है मत्स्य और वनोउपज के अलावा।
मत्स्य और वनोपज से तो सुंदरवन वासी बेदखल है ही।बाघों के अभयारण्य में उनकी हैसियत बाघों के चारा से बेहतर नहीं है।
अब द्वीपों को जोड़कर सेतु और राजमार्गों से जो रिसार्ट अरण्य का सृजन मैंगग्रोव फारेस्ट की कीमत पर हो रहा है,वहा जलपिरवहन खत्म है।
सुंदरवन के कोर इलाकों से जुड़ने वाली नदियों पर नावें और लांच चलाकर अब तक जो जी रहे थे,मछुआरो की तरह वे लोग भी बेरोजगार हैं।
विकास की धूम में इस विशाल जनसमूह की कोई चिंता आयला राहत बांटने और नदी तटबंध का केंद्रीय आबंटन हासिल करते रहने के अलावा मां माटी मानुष की सरकार को है,इसका सबूत फिलहाल मिला नहीं है।