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दोस्तो,
महाराष्ट्र के तर्कवादी विद्वान नरेन्द्र दाभोलकर के बाद कन्नड़ के विद्वान और प्रसिद्ध वामपन्थी विचारक 77 वर्षीय श्री कलबुर्गी की हत्या ने यह साबित कर दिया है कि हम अब तालिबानीकरण की दौड़ में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान को पीछे छोड़ चुके हैं. ज़ाहिर है, यह रवैया हमारे यहां नये निज़ाम के आने के बाद तेज़ हुआ है. इन दो घटनाओं ने हिन्दू कट्टरवादियों के चेहरे बेनक़ाब कर दिये हैं. लेकिन विचारों को अगर हत्याओं से मारा जा सकता तो हम अब भी हिटलर और उसके पूर्वज तानाशाहों के युग में रह रहे होते. इस समय और भी ज़रूरत है कि हम एकजुट हो कर ऐसी घटनाओं का विरोध करें और अपने विचारों को और पुख़्तगी से व्यक्त करें. इस समय हिन्दी में जिस व्यक्तिगत कलह-क्लेश का बाज़ार गर्म है, उससे बाहर आ कर संगठित होने की ज़रूरत है, ताकि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि उन लोगों के इरादे कभी कामयाबी तक न पहुंचेंगे जो तर्कों के ज़रिये नहीं, बल्कि हत्याओं के ज़रिये आवाज़ को ख़ामोश करा देना चाहते हैं. श्री कलबुर्गी की शहादत पर मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद हो आयी जिसमें इन आशंकाओं को व्यक्त किया गया था. अगर हम लोगों ने उसी समय से क़दम उठाये होते तो आज हमें यह दुख न उठाना पड़ता. अब भी देर नहीं हुई है. पाश, दाभोलकर और कलबुर्गी की विरासत को संजोना हमारा पहला फ़र्ज़ है. इस कविता में बस नामों के परिवर्तन की ज़रूरत है.
नया निज़ाम
वे उठाते हैं क़लम
और एक ही स्पर्श से
सारे फ़र्क़ मिटा देते हैं
क़ैदी और क़ातिल
आज़ादी और ग़ुलामी
सब एक-से हो जाते हैं
यह फन्दा नहीं है -
वे कहते हैं -
नये क़िस्म की टाई है
ये बेडि़याँ नहीं हैं -
नयी चाल के गहने हैं
कौन कहता है फ़्रांको मर गया है ?
और हिटलर ?
और मुसोलीनी ?
उसे अभी ख़बर नहीं मिली है
या शायद मिल चुकी है। पूरी तरह।
हमारा पुनर्जन्म में विश्वास है -
वे कहते हैं -
मौत के बाद भी ज़िन्दगी है
और आत्मा कभी नहीं मरती
बार-बार जन्म लेती है
शायद वे सच कहते हैं
ख़बर आयी है
फ्रांको का जन्म हुआ है
जनरल ज़िया के चोले में। बधाई।
कहता है सऊदी अरब
महात्मा कार्टर की जय। शान्ति और
मानवाधिकारों के महान योद्धा की जय!
हँसता है ज़ियाउर्रहमान
नेपथ्य में देशमुख और श्री श्री पाँच
अँधेरे में सिर्फ़ उनके
धार्मिक दाँत चमकते हैं
उनके दाँतों पर
चमक है
मुसोलीनी की विश्व-विजयिनी मुस्कान की
अब सिर्फ़ एक हिटलर की तलाश है
और बहुत-से उम्मीदवार लाइन में खड़े हैं।
1977