'मैं नहीं मानती कि जेंडर सिर्फ दो ही हैं': अरुंधति रॉय
Posted by Reyaz-ul-haque on 8/22/2015 12:45:00 AMअरुंधति रॉय ने मुल्क के मौजूदा हालात और इनमें एक लेखक के रूप में अपनी संवेदना और जिम्मेदारियों के बारे में यह इंटरव्यू आउटलुक की सबा नकवी को दिया है, जो पत्रिका के इंडिपेंडेंस डे स्पेशल में प्रकाशित हुआ है. इंटरव्यू की शुरुआत में पत्रिका की टिप्पणी है, 'अरुंधति रॉय ज्यादातर लेखकों की तुलना में कहीं बड़े फलक को अपने आगोश में समेटे हुए हैं.' अनुवाद: रेयाज उल हक. तस्वीरें: आउटलुक से साभार.
'मैं नहीं मानती कि जेंडर सिर्फ दो ही हैं. मैं जेंडर को एक बहुरंगी पट्टी के रूप में देखती हूं, और मैं इसमें कहीं पर हूं'
आप एक लेखिका हैं, लेकिन आपने अधिकारों के मुद्दों और आंदोलनों पर कुछ बहुत ही मजबूत बहसें की हैं और हस्तक्षेप किया है. आप अपने विकास को लैंगिक (जेंडर के) नजरिए से कैसे देखती हैं?
सबसे पहले तो मुझे यह कहना चाहिए कि मैं नहीं मानती कि सिर्फ दो ही जेंडर हैं. मैं जेंडर को एक बहुरंगी पट्टी (स्पेक्ट्रम) की तरह देखती हूं और मैं इस पट्टी में कहीं पर हूं. एक क्वीर (समलैंगिक- अनु.) दोस्त के मुताबिक, लैंगिक रंगों की पट्टी पर मेरा विकास 'स्ट्रेट' (विपरीतलिंगी- अनु.) से शुरू करके 'क्विक्ड' (समलैंगिक चेतना- अनु.) पर पहुंचा है. दूसरी बात, मैं खुद को एक ऐसी इन्सान के रूप में नहीं देखती, जो दुनिया को 'अधिकारों'और 'मुद्दों'के चश्मे से देखता हो. एक लेखक के लिए दुनिया को देखने की यह बेहद तंग और खोखली नजर है. अगर आप मुझसे पूछें कि मैं जो लिखती हूं, उसके केंद्र में क्या है, तो यह 'अधिकारों'के बारे में नहीं है, यह इंसाफ के बारे में है. इंसाफ एक महान, खूबसूरत और क्रांतिकारी विचार है. इंसाफ की शक्ल क्या हो? अगर हम चीजों को अलग अलग 'मुद्दों'में बांट दें, तब वे महज 'मुद्दे'ही बने रहेंगे, मानो एक कबूल करने के काबिल तस्वीर का वे महज एक तकलीफदेह कोना हों. बेशक, दुनिया में ऐसा कोई समाज नहीं है, जो इंसाफ पर आधारित हो या बिना किसी खामी के एक मुकम्मल समाज हो – लेकिन हम इंसाफ के लिए कोशिश करना छोड़ नहीं सकते. आज तो ऐसा लगता है कि हम उल्टी दिशा में दौड़ रहे हैं, नाइंसाफी की तरफ बढ़ रहे हैं, इसकी ऐसे तारीफ कर रहे हैं मानो यह एक कीमती सपना हो, एक मकसद हो, एक प्रेरणा हो. और भारत की खौफनाक त्रासदी यह है कि जाति व्यवस्था ने नाइंसाफी को संस्थागत बना दिया है, इसे एक पवित्र चीज बना दिया है. तो हमें इस तरह बना दिया गया है कि हम ऊंच-नीच को और नाइंसाफी को कबूल कर लें. ऐसा नहीं है कि दूसरे समाज इंसाफ पर आधारित हैं. दूसरे समाज जंगों और गैर यकीनी पैमाने के नस्ली सफाए से होकर गुजरे हैं. मैं बस अपने समाज की कल्पना के बारे में बात कर रही हूं. ऐसे हालात में कोई क्या कर सकता है, हम इसकी आलोचना कैसे करें? हममें से अनेक लोग यह जानते हुए भी अपने काम में लगे हुए हैं कि अगर कोई सुन नहीं रहा हो फिर भी, हम कभी नहीं जीत पाएं फिर भी - हालांकि हम जीतना चाहते हैं और बुरी तरह इसकी चाहत रखते हैं - हम इस जीत के जुलूस का हिस्सा बनने के बजाए दूसरे पक्ष में रहना पसंद करेंगे, क्योंकि जीत का यह जुलूस असल में मौत का जुलूस है.
जब आप इस पर गौर करती हैं, तो क्या यह समझना मुमकिन है कि आज के दौर के इतने सारे संघर्षों में क्यों महिलाएं अगले मोर्चे पर हैं?
महिलाएं क्यों शामिल हैं? क्योंकि व्यापक रूप से कहें तो वे परंपरा के साथ साथ बाजार थोपी गई नई 'आधुनिकता', दोनों ही तरफ से हमले का निशाना हैं. मैं खुद केरल में 'परंपरा से घिरे हुए' जीवन से बच निकलने का सपना देखती हुई बड़ी हुई, लेकिन तब मेरा सामना आधुनिकता की एक किस्म से हुआ, मैं उससे भी भागना चाहती थी. तो आपको इनमें से चुन कर अपने लिए एक रास्ता चुनना होगा. इस मुल्क में ऐसे लोग हैं जो लड़कियों को बचपन में ही मार डालते हैं, गर्भ में ही लड़कियों की होने वाली हत्याओं में दसियों लाख लड़कियां मारी जाती हैं – और ऐसा सिर्फ परंपरागत ग्रामीण समुदायों में ही नहीं है – यहां जाति के आधार पर इज्जत के नाम पर हत्याएं होती हैं और इसी के साथ साथ यहां दुनिया की सबसे आजाद, सबसे मजबूत, सबसे जीवंत औरतें हैं, सबसे स्वतंत्र और सबसे जुझारू औरतें, मौलिक रूप से सोचने वाली औरतें जो संघर्षों के सबसे अगले मोर्चों पर हैं – भारत में हम एक ही साथ अनेक सदियां जीते हैं.
गुजर बसर के हरेक तरीके पर हमला, जमीन पर हमला, ये सब बुनियादी रूप से औरतों पर असर डालते हैं. इसलिए अगर आप नर्मदा आंदोलन को देखें, जहां हम एक पूरी नदी घाटी सभ्यता की बेदखली और तबाही के बारे में बातें कर रहे हैं, वहां लाखों लोग, औरतें जमीन पर काम करती थीं और जमीन की मालिक थीं. आदिवासी औरतें – और मैं ये नहीं कह रही कि आदिवासी समाज नारीवादी खूबियों से होड़ लेने वाला समाज है – लेकिन वहां एक ऐसी समझदारी थी जिसके तहत औरतें मिल्कियत में हिस्सेदार थीं, जमीन उनकी भी थी. लेकिन औरतों की पूरी आबादी को बेदखल करना और मर्दों को बस मुआवजे की रकम दे देना जो उसे शराब और मोटरसाइकिल पर कुछ ही हफ्तों में खर्च कर देंगे, औरतों को खौफनाक आधुनिकता के इस महासागर में डुबो देना है, जहां वे सब बाजार में बस एक असंगठित मजदूर बन जाती हैं या फिर दूसरे तरह से उनका शोषण होता है, जिसको हमेशा एक नारीवादी मुद्दे के बतौर नहीं देखा जाता है. हालांकि यह भी एक नारीवादी मुद्दा ही है. बस्तर में बेदखली के खिलाफ संघर्षरत, 90,000 सदस्यों वाले क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन को एक नारीवादी संगठन नहीं माना जाता. लेकिन वे लड़ रही हैं, और कैसे! नर्मदा घाटी में, ये औरतें ही हैं जो संघर्ष को अपने कंधों पर उठाए हुए हैं. और लड़ने की प्रक्रिया में वे बदलती हैं, वे खुद को मजबूत करती हैं. जब मैं बस्तर गई थी, जब मैंने 'वाकिंग विद द कॉमरेड्स' लिखा था (मार्च 29, 2010) तो मैं इस बात पर हैरान रह गई थी कि हथियारबंद गुरिल्ला लड़ाकों में से आधी औरते थीं. मैंने रात-रात भर और दिन-दिन भर उनसे इसके बारे में लंबी बात की कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों किया था. बेशक, उनमें से अनेकों ने सलवा जुडूम और अर्धसैनिक बलों के खौफनाक कारनामे अपनी आंखों से देखे थे – बलात्कार और गांवों को जलाना और ऐसे ही कारनामे. लेकिन उनमें से अनेक ने इसे अपने समाज के मर्दों के दबदबे और उनकी हिंसा से बचने के रूप में भी देखा था. और बेशक, वे 'पार्टी'में भी मर्दों के दबदबे और हिंसा के खिलाफ खड़ी हुईं. वहां के मेरे दिनों में एक ऐसा पल भी आया, जब मैं और महिला कॉमरेड्स हम सब नदी में नहाने गईं. उनमें से कुछ ने निगरानी का काम संभाला जबकि हममें से बाकी तैरते हुए नहाने लगीं. धारा की उल्टी तरफ कुछ महिला किसान भी नहा रही थीं. और मैंने सोचा, 'जरा देखो, नदी में ये सब कौन हैं! इस बहते हुए पानी में इन औरतों को देखो.'क्या बात थी वो. तो आपके सवाल का जवाब देते हुए, मैं सोचती हूं कि इस बात की एक तर्कसंगत व्याख्या है कि क्यों औरतें आंदोलनों के अगले मोर्चे पर हैं. और औरतों के बारे में एक खास बात है कि वे एक ऐसे समाज में यह कर सकती हैं, जो उनके खिलाफ हिंसा से इस कदर भरा हुआ है. और बात बस कुछेक गैरमामूली औरतों की ही नहीं है, जिनके नाम हम सब जानते हैं. बेशुमार औरतें हैं, सिर्फ नफीस शहरी औरतें ही नहीं – और वे वहां किसी की पत्नी या मां या विधवा या बहन के रूप में नहीं हैं. वे खुद हैं. वे बेमिसाल हैं.
गुजर बसर के हरेक तरीके पर हमला, जमीन पर हमला, ये सब बुनियादी रूप से औरतों पर असर डालते हैं. इसलिए अगर आप नर्मदा आंदोलन को देखें, जहां हम एक पूरी नदी घाटी सभ्यता की बेदखली और तबाही के बारे में बातें कर रहे हैं, वहां लाखों लोग, औरतें जमीन पर काम करती थीं और जमीन की मालिक थीं. आदिवासी औरतें – और मैं ये नहीं कह रही कि आदिवासी समाज नारीवादी खूबियों से होड़ लेने वाला समाज है – लेकिन वहां एक ऐसी समझदारी थी जिसके तहत औरतें मिल्कियत में हिस्सेदार थीं, जमीन उनकी भी थी. लेकिन औरतों की पूरी आबादी को बेदखल करना और मर्दों को बस मुआवजे की रकम दे देना जो उसे शराब और मोटरसाइकिल पर कुछ ही हफ्तों में खर्च कर देंगे, औरतों को खौफनाक आधुनिकता के इस महासागर में डुबो देना है, जहां वे सब बाजार में बस एक असंगठित मजदूर बन जाती हैं या फिर दूसरे तरह से उनका शोषण होता है, जिसको हमेशा एक नारीवादी मुद्दे के बतौर नहीं देखा जाता है. हालांकि यह भी एक नारीवादी मुद्दा ही है. बस्तर में बेदखली के खिलाफ संघर्षरत, 90,000 सदस्यों वाले क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन को एक नारीवादी संगठन नहीं माना जाता. लेकिन वे लड़ रही हैं, और कैसे! नर्मदा घाटी में, ये औरतें ही हैं जो संघर्ष को अपने कंधों पर उठाए हुए हैं. और लड़ने की प्रक्रिया में वे बदलती हैं, वे खुद को मजबूत करती हैं. जब मैं बस्तर गई थी, जब मैंने 'वाकिंग विद द कॉमरेड्स' लिखा था (मार्च 29, 2010) तो मैं इस बात पर हैरान रह गई थी कि हथियारबंद गुरिल्ला लड़ाकों में से आधी औरते थीं. मैंने रात-रात भर और दिन-दिन भर उनसे इसके बारे में लंबी बात की कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों किया था. बेशक, उनमें से अनेकों ने सलवा जुडूम और अर्धसैनिक बलों के खौफनाक कारनामे अपनी आंखों से देखे थे – बलात्कार और गांवों को जलाना और ऐसे ही कारनामे. लेकिन उनमें से अनेक ने इसे अपने समाज के मर्दों के दबदबे और उनकी हिंसा से बचने के रूप में भी देखा था. और बेशक, वे 'पार्टी'में भी मर्दों के दबदबे और हिंसा के खिलाफ खड़ी हुईं. वहां के मेरे दिनों में एक ऐसा पल भी आया, जब मैं और महिला कॉमरेड्स हम सब नदी में नहाने गईं. उनमें से कुछ ने निगरानी का काम संभाला जबकि हममें से बाकी तैरते हुए नहाने लगीं. धारा की उल्टी तरफ कुछ महिला किसान भी नहा रही थीं. और मैंने सोचा, 'जरा देखो, नदी में ये सब कौन हैं! इस बहते हुए पानी में इन औरतों को देखो.'क्या बात थी वो. तो आपके सवाल का जवाब देते हुए, मैं सोचती हूं कि इस बात की एक तर्कसंगत व्याख्या है कि क्यों औरतें आंदोलनों के अगले मोर्चे पर हैं. और औरतों के बारे में एक खास बात है कि वे एक ऐसे समाज में यह कर सकती हैं, जो उनके खिलाफ हिंसा से इस कदर भरा हुआ है. और बात बस कुछेक गैरमामूली औरतों की ही नहीं है, जिनके नाम हम सब जानते हैं. बेशुमार औरतें हैं, सिर्फ नफीस शहरी औरतें ही नहीं – और वे वहां किसी की पत्नी या मां या विधवा या बहन के रूप में नहीं हैं. वे खुद हैं. वे बेमिसाल हैं.
आपके अपने जीवन में वे कौन से प्रभाव रहे, जिन्होंने आपको वो बनाया जो आप हैं?
मेरा अनुमान है कि सबसे पहले तो मेरी अद्भुत और असाधारण मां ने अनोखे और साथ ही साथ क्रूर तरीकों से असर डाला. वे पलक झपकते मेरा दम उखाड़ सकती हैं. शायद आपको मुझसे बात करने के बजाए उनसे बात करनी चाहिए. वे एक सीरियन ईसाई परिवार से आती हैं, जो किसी भी तरह से धनी परिवार नहीं था. फिर उन्होंने इसके बाहर जाकर एक बंगाली से शादी की, कुछेक बरसों में ही तलाक लिया और अपनी मां के साथ रहने के लिए केरल में एक गांव में आ गईं. वो...और हम...इस बेहद जातिवादी और रोब-दाब वाले, धनी और जमीन की मिल्कियत वाले समुदाय से पूरी तरह बचा कर रखे गए – अब बेशक मेरी मां की तारीफ होती है. लेकिन तब अक्सर वे मेरे भाई और मुझ पर अपना गुस्सा उतारती थीं. हम समझते थे लेकिन इससे यह सब और मुश्किल हो जाता था. मेरा अपनी मां के साथ बेहद जटिल रिश्ता है - मैं जब 17 की थी तो मैंने घर छोड़ दिया और फिर कई बरसों के बाद ही घर लौटी. कुछ लोगों के लिए मेरे परिवार की तस्वीर एक समझ में आने लायक सुरक्षा में बसर करनेवाले परिवार की बनती है, लेकिन जिसने भी द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स पढ़ी है, वो जान जाएगा कि यह मेरे लिए एक खतरनाक जगह थी. मैं एक ऐसे गांव में बड़ी हुई जहां हर चीज मौजूद थी. यह एक ऐसी जगह थी, जहां महान धर्म एक साथ वजूद में थे – हिंदू धर्म, ईसाइयत, इस्लाम, मार्क्सवाद – हम यकीन करते थे कि क्रांति आ रही थी. सब तरफ लाल झंडे और इन्कलाब जिंदाबाद था! लेकिन फिर जाने कैसे यह इतने तंग दायरे वाला था और फिर जाति भी थी. मैंने पाया कि जब मैं छोटी ही थी, मैं इन सबको समझने की कोशिश करने लगी थी. मेरे लिए यह बेहद साफ था कि मैं एक 'शुद्ध'सीरियन ईसाई नहीं थी और कभी भी मैं उस महान समाज का हिस्सा नहीं बनने जा रही थी. और इस तरह मैं वहां से निकलने को बेकरार हो गई, मेरे मन में गांव के प्रति कोई बड़ा प्यार नहीं था, समुदाय या परिवार में शामिल होने की ऐसी कोई चाहत नहीं थी और न ही समुदाय और परिवार को ही मुझे अपने में शामिल करने की इच्छा थी. मैं अपने पिता को नहीं जानती थी, मैंने उनके कुछेक फोटोग्राफ देखे थे, बस. मैंने उन्हें बहुत बाद में देखा, जब मैं बीसेक साल की थी. तो मेरी जिंदगी में कभी कोई मर्द शख्सियत नहीं थी जो मेरी देखभाल करे या मेरी हिफाजत करे. भावनाओं के लिहाज से बड़े होने के लिए यह एक अजनबी सी और गैरमहफूज जगह थी. दुनिया के सारे दुखों को देखते हुए और बच्चे जिन तकलीफों से गुजरते हैं, मैं यह दावा नहीं कर सकती कि मेरा एक त्रासद बचपन था. लेकिन यह विचारों में डूबा हुआ बचपन तो था ही, जिसमें चीजों पर सोचना ज्यादा था और अकेले रहना कम. मैं नदी पर मछलियां मारते हुए काफी वक्त बिताती, एक लेखक के रूप में मैं अपनी आवाज को किसी उत्पीड़न की एक 'शुद्ध'शिकार की साफ और गुस्से से भरी हुई आवाज नहीं बना सकती – अगर असल में ऐसी कोई चीज हो तो. ऐसा है कि मैं कुछ कुछ बेचैन सी, खुरदरी निगाह से देखती हूं और लिखती हूं.
आपने इतनी सारी बातों पर लिखा है, नर्मदा आंदोलन, कश्मीर, माओवादी, पूंजीवाद. अभी अभी भारत में एक फांसी दी गई है और आपने कभी अफजल गुरु की बेगुनाही के बारे में दलील देते हुए एक बेहद ताकतवर लेख लिखा था.
जब द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स को बुकर पुरस्कार मिला, तो यह जाहिर करने के लिए विश्व सुंदरियों के साथ साथ मेरे नाम की रट लगाई जाने लगी कि यह एक विजेता, नए-नए वैश्वीकृत हुए, मुक्त-बाजार वाले भारत का चेहरा है जो दुनिया के रंगमंच पर आत्मविश्वास के साथ कदम रखनेवाला है. इस तरह मेरा इस्तेमाल हो रहा था, जो ठीक है. लेकिन इसके बाद जल्दी ही भाजपा सत्ता में आई और उसने फौरन परमाणु परीक्षण किए जिसको उन हलकों से भी भारी और अश्लील तारीफ हासिल हुई, जिनसे उम्मीद नहीं की जा सकती.मैं खौफजदा थी. मैं तब एक ऐसी सार्वजनिक शख्सियत थी कि चुप रहना उन परीक्षणों को स्वीकृति देने जैसा था, बोलने की तरह ही चुप रहना भी एक राजनीतिक कदम था. और इस तरह मैंने द एंड ऑफ इमेजिनेशन लिखा (अगस्त 3, 1998). फौरन मुझे कुर्सी से लात मार कर नीचे फेंक दिया गया – परियों की रानी-मिस इंडिया-पुरस्कार विजेता की कुर्सी. नफरत और गाली-गलौज का एक बहरा कर देनेवाला डंका बजने लगा. मुझे यकीन है कि उन परीक्षणों ने सार्वजनिक विमर्श के सुर को बदल दिया था. यह बदसूरत हो गया था, यह पहले से ज्यादा कठोर राष्ट्रवादी सुर बन गया था, जो अब तक कायम है. लेकिन जब एक तरह के लोग मुझे खारिज कर रहे थे, तो दूसरी तरह के लोग मुझे अपना रहे थे. और इसने मुझे एक सफर पर रवाना किया, जो अब भी जारी है. परमाणु परीक्षणों के फौरन बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने सरदार सरोवर बांध के निर्माण पर लंबे समय से जारी रोक को हटा लिया. मैंने नर्मदा घाटी की यात्रा की और द ग्रेटर कॉमन गुड (मई 24, 1999) लिखा.
हरेक सफर ने, मेरे लिखे हरेक निबंध ने मेरी समझदारी को और गहरा बनाया. संसद पर हमला जब हुआ था तभी यह मुझे पूरी तरह अस्वाभाविक लगा था. वकील नंदिता हक्सर ने चीजों का पर्दाफाश करने का बेहतरीन काम किया. उसी वक्त मुझे अदालत की अवमानना के आरोप में जेल भेजा गया था. संसद हमले के मुल्जिमों में से एक शौकत गुरु की बीवी अफशां गुरु भी वहां थीं. वो गर्भवती थीं, बेचैन आंखों वाली, रोती हुईं और उन्हें पता नहीं था कि वे जेल में क्यों थीं. दूसरे कैदी उनसे एक बड़ी देशद्रोही के रूप में पेश आ रहे थे. मैंने उनसे बात करने की कोशिश की. मैंने कहा, 'मैं जल्दी ही रिहा हो जाऊंगी. क्या ऐसा कुछ है जो मैं आपके लिए कर सकती हूं?'वो खाली निगाहों से मुझे बस देखती रहीं और कहा, 'क्या आप मुझे एक तौलिया दे सकती हैं? मेरे पास एक तौलिया नहीं है.'कुछ बरस बाद उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन उनकी जिंदगी तबाह हो चुकी थी.
अब उनके बारे में कोई बात नहीं करता. उसके बाद मैंने मामले का सावधानी से अध्ययन किया. जब एस.ए.आर गिलानी को बरी किया गया और अफजल को फांसी की सजा सुनाई गई, तब मैंने मामले के सारे अदालती कागजात को जुटाया और कागजों के इस बस्ते के साथ अकेले गोवा चली गई. यह बारिश का मौसम था और वहां बहुत कम लोग थे और मैं बस एक छोटे से कमरे में बैठ कर पूरी सामग्री पढ़ गई. मैं हैरान थी. इसलिए मैंने '...एंड हिज लाइफ शुड बिकम एक्स्टिंक्ट' (अक्तूबर 30, 2006) लिखा कि कैसे सबूत गढ़े गए थे, प्रक्रियाओं पर अमल नहीं किया गया था और कैसे अफजल के पास अपना पक्ष रखने के लिए कभी कोई वकील नहीं रहा. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पुलिस की हिरासत में निकाले गए कबूलनामे सबूत के बतौर कबूल नहीं किए जा सकते, लेकिन मीडिया ने दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा उनसे जबरन निकलवाए गए 'कबूलनामों'की विभिन्न कहानियों के वीडियो का इस्तेमाल किया. पुलिस ने ठीक यहां, लोदी एस्टेट में उनको वीडियो टेप किया था. एक कबूलनामे में उन्होंने गिलानी को कसूरवार ठहराया, एक दूसरे में किसी और को.
वे दिखाने के लिए अपनी पसंद के कबूलनामे चुन सकते थे. जो कबूलनामा उनके लिए ज्यादा अनुकूल था, उन्होंने उसे चुना. मीडिया ने उन्हें सात साल बाद तब दिखाया, जब वे अभी जिंदा थे और जब वीडियो को टीवी पर दिखाया गया तो दर्शकों के एसएमएस को स्क्रीन के नीचे चलती पट्टी पर प्रसारित किया जा रहा था: 'हैंग हिम बाई द बॉल्स इन लाल चौक'और इसी तरह की बातें. ऐसा वहशीपना था. अगर हम एक बनाना रिपब्लिक में रह रहे होते तो इसे कबूल भी किया जा सकता था, लेकिन हम तो किसी और ही चीज पर चलने का दिखावा कर रहे हैं. मुझे आउटलुक को भेजे गए वो खत याद हैं, जहां मेरा निबंध प्रकाशित हुआ था. उनमें इस तरह की बातें थीं, 'अफजल गुरु को छोड़ दो लेकिन अरुंधति रॉय को फांसी दो'. हर चीज के बावजूद, सरकार ने – कांग्रेस सरकार ने – पूरी तरह यह जानते हुए कि वे बेगुनाह थे, उन्हें फांसी दे दी. यह एक सियासी कदम था, वे अफजल के खून की प्यासी भीड़ से फायदा हासिल करने की कोशिश कर रहे थे, वे वोट पाने की उम्मीद में थे. यह खौफनाक था, एक बुजदिली भरा काम था. उन्हें इतनी शर्म आनी चाहिए.... उन्होंने उनकी लाश को उनके घर वालों को दिया तक नहीं. उन्होंने घरवालों को खत लिखा, उसमें जानबूझ कर देर की गई ताकि वह खत उन्हें तब मिले जब अफजल को फांसी हो चुकी हो. देखिए, ऐसी चीजें 'मुद्दे'नहीं हैं. कश्मीर में भारतीय सरकार द्वारा की जा रही बर्बरता एक 'मुद्दा'नहीं है – यह अपने आप में जीवन है. और अगर एक समाज के रूप में हम इसको कबूल करते जाने को तैयार हों तो हम खुद को भीतर ही भीतर से खोखला बना रहे हैं. हम खुद के लिए आफत को दावत दे रहे हैं.
मैंने दो घाटियों के बारे में लिखा है, नर्मदा घाटी और कश्मीर घाटी और कभी कभी मैं खुद से सवाल करती हूं कि क्यों एक वादी में इंसाफ की मजबूत पुकार ने दूसरी घाटी को समझा नहीं या उस पर अपनी कोई निशानी नहीं छोड़ी है. मतलब यह कि नर्मदा घाटी में पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में, बांधों के असर के बारे में, स्थानीय अर्थव्यवस्था के बारे में, विश्व बैंक के बारे में और पीस डालने वाली गरीबी के बारे में इतनी सुलझी हुई बारीक समझदारी है, लेकिन कश्मीर की अवाम जो भुगत रही है, उसकी बहुत थोड़ी समझ है. और कश्मीर में इसकी बेहद सुलझी हुई बारीक समझ है कि एक फौजी कब्जे में जीने का मतलब क्या है, लेकिन इसकी बहुत कम समझ है कि बड़े बांध क्या हैं और उनका असर क्या होता है, नव उदारवादी नीतियां जिस तरह से लोगों को पीस कर तबाह कर रही हैं, उसके बारे में भी बहुत कम समझदारी है. मैं बस यह कह रही हूं कि मैंने इंसाफ की लीक पर नजर रखी है...हो सकता है यह हरेक की लीक नहीं हो, लेकिन यह यकीनन मेरी लीक जरूर है. यही सब मिला कर वह चीज बनती है जिसे जॉन बर्जर 'अ वे ऑफ सीईंग' (देखने का एक तरीका) कहते हैं. यही तो साहित्य है, यही तो कविता है. इसको यही तो होना है.
आज के भारत में, जहां हम खड़े हैं, आपको सबसे ज्यादा कौन सी बात तकलीफ देती है?
आज हम जिन चीजों से गुजर रहे हैं, वह आरएसएस के इतिहास को देखते हुए ऐसी चीज है, जिसे एक न एक दिन होना ही था. हम इनसे होकर कैसे गुजरेंगे, इससे यह बात तय होगी कि हम असल में किस मिट्टी के बने हैं. आज हरेक संस्थान, न्यायपालिका, शैक्षिक संस्थानों वगैरह पर एक क्रूर, सांप्रदायिक हमला चल रहा है. शिक्षा हासिल करने की जगह के रूप में विश्वविद्यालयों के पुर्जे-पुर्जे बिखेरे जा रहे हैं. सांप्रदायिक मूर्खों को शिक्षकों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है, पाठ्यक्रमों को विद्वत्ता से खाली करके उसमें बेवकूफी के बीज डाले जा रहे हैं. हरेक चीज को इस फासीवादी नजरिए के हिसाब से गढ़ा जा रहा है. यह एक आसान रास्ता है. यह महज सियासी दलों और सत्ता की बात नहीं है. बनावट में ही एक भारी बदलाव जारी है. यह ठीक-ठीक आत्मा पर, इस मुल्क की कल्पना पर हमला है. यह गंभीर बात है. मुझे यह कहना होगा कि कुछ प्रतिक्रियाओं से मुझे हौसला मिला है. हर जगह लोग उठ खड़े हो रहे हैं – एफटीआईआई के छात्रों को देखिए – यह अद्भुत है. हम जिस हमले के खिलाफ हैं, वह बहुत ही व्यापक और गहरा और खतरनाक है, लेकिन मोदी सरकार को लेकर उन्माद खासी तेजी से काफूर हुआ है, उम्मीद से भी काफी पहले. मुझे डर है कि जब वे सचमुच में हताश होंगे, तब वे खतरनाक हो जाएंगे. याकूब मेमन को फांसी इसी दिशा में एक कदम है. शायद अगले चुनाव के पहले वे एक बड़े पैमाने का सांप्रदायिक दंगा भड़काएंगे. लोगों को झांसा देने के लिए झूठे 'आतंकी'हमलों और पाकिस्तान के साथ एक युद्ध, एक परमाणु युद्ध के बारे में मुझे फिक्र होती है. सरहद के दोनों तरफ की सरकारों और मीडिया के ऐसे कुछ सनकी लोगों में ऐसी आत्मघाती बेवकूफी की काबिलियत है.आप अंतरराष्ट्रीय रूप से सम्मानित लेखिका हैं, लेकिन कभी भी लेखकीय बिरादरी का हिस्सा बनने की इच्छा आपमें नहीं दिखती, आप साहित्य उत्सवों में नहीं जातीं हालांकि आप लोगों की उस बिरादरी का हिस्सा हैं, जिसे कार्यकर्ता कहा जा सकता है.
मैं इसको लेकर निश्चित नहीं हूं कि लेखकों की कोई बिरादरी है. देखिए, मैं शुद्धतावादी नहीं हूं. मैं यही कर सकती हूं कि जो मैं सोचती हूं वो कहूं. लोगों को उत्सवों में जाना पड़ता है, अक्सर ये उत्सव खनन निगमों और फाउंडेशनों द्वारा प्रायोजित होते हैं जिनके खिलाफ मैंने लिखा है – लेकिन मेरा कहना यह नहीं है कि मैं उनमें शामिल होने वाले लेखकों से ज्यादा शुद्ध हूं. मैं नहीं हूं. बस मेरे लिए यह तकलीफदेह है, इसलिए मैं नहीं जाती. लेकिन जीने के लिए दुनिया एक मुश्किल जगह है, लोगों को वह करना पड़ता है जो वे नहीं करना चाहते. मेरे पास चुनने की सुविधा है. इसलिए मैं ऐसा करती हूं. लेकिन हरेक के पास यह सुविधा नहीं होती है.जहां तक इस शब्द 'कार्यकर्ता' (एक्टिविस्ट) की बात है – मुझे पक्का पता नहीं इसका इस्तेमाल कैसे शुरू हुआ. मेरे जैसे किसी इंसान को लेखक-कार्यकर्ता कहना मानो यह संकेत करना है कि यह लेखकों का काम नहीं है कि वे जिस समाज में रहते हैं उसके बारे में लिखें. लेकिन यह तो हमारा काम हुआ करता था. यह एक अजीब बात है, जब तक बाजार ने लेखकों को गले नहीं लगाया था, लेखक यही तो करते थे – उन्होंने धारा के खिलाफ जाकर लिखा, उन्होंने सरहदों पर गश्त लगाई, उन्होंने उन बहसों को शक्ल दी कि समाज को कैसे सोचना चाहिए. वे खतरनाक लोग थे. अब हमें बताया जाता है कि हमें उत्सवों में हिस्सा लेना ही होगा और बेस्टसेलर की फेहरिश्त में शामिल होना होगा और अगर मुमकिन हो तो हमें अच्छा दिखने की कोशिश करनी होगी.
Pl see my blogs;
Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!