'जब तक जीवन है लड़ेंगे' (सोनी सोरी) – देवेश त्रिपाठी की विशेष रिपोर्ट
दिल्ली में जिस वक्त एक सरकार आ गई है और वो देश की तकदीर बदल देने का दावा कर रही है, उसी समय देश की एक महिला और उसके समर्थन में तमाम एक्टिविस्ट, लेखक, वकील, मानवाधिकार कार्यकर्ता फासीवाद को चुनौती देने के लिए एकजुट हो रहे हैं। सोनी सोरी दिल्ली में थी, और अरुंधति राय, प्रशांत भूषण तथा हिमांशु कुमार के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस कर रही थी। हिल्ले ले की ओर से देवेश त्रिपाठी ने इस प्रेस कांफ्रेंस को कवर किया और यह आलेख भेजा। हालांकि इस रिपोर्ट का प्रारूप थोड़ा आलेख जैसा है और थोड़ा भावुक सा भी। लेकिन फिर भी समय की मांग है कि इसे ऐसे ही छापा जाए और इसमें हेर-फेर और सम्पादन न किया जाए। हम इस आलेख को स्पेशल रिपोर्ट कह रहे हैं, आप इसे सच कह सकते हैं।
- मॉडरेटर
…यह आलेख तैयार करते वक़्त तक दिल्ली से लेकर दुबई तक देश के अगली महाशक्ति होने सपने देखे-दिखाए जा रहे हैं। भारत की महान परम्पराओं, संस्कृति आदि का सस्वर गान प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पूरा देश कर रहा है। इन सबके बीच मज़े की बात ये है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का ढिंढोरा पीटने वाला यही महान देश अपने मूल निवासियों यानी आदिवासियों की हत्याएँ प्रायोजित करता रहा है। इससे भी ज्यादा मज़े की बात ये है कि हम यानी देश के 'द्वितीय निवासी'आदिवासियों के खुले कत्लेआम पर आँख मूंदे 'नमो'का जाप करने में व्यस्त हैं।ऐसी व्यवस्था जो आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर उनकी ज़मीनें हड़प रही है, उनकी हत्याएँ प्रायोजित कर रही है, आदिवासी महिलाओं का बलात्कार कर रही है, विरोध जताने या असहमत भर होने पर नक्सली/माओवादी करार दे रही है, कहीं से लोकतंत्र कहलाने का अधिकार रखती है? आदिवासी तो देश के मूल निवासी हैं, संसाधनों पर पहला हक उन्हीं का बनता है फिर सरकारें उनका दमन कैसे कर सकती है? लोकतान्त्रिक देश में तो अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो संवैधानिक अधिकार है, फिर ये हक आदिवासियों के लिए क्यों नहीं काम कर रहा? ध्यान रखिये कि हर तरफ चल रहे इतने क्रूर दमन के बाद अगर पीड़ित आदिवासी हथियार उठा लेते हैं तो उन्हें आतंकवादी या देश के लिए खतरा बताने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
दिल्ली प्रेस क्लब में आज बस्तर सहित समूचे छत्तीसगढ़ में जारी आदिवासियों के दमन को लेकर हिमांशु कुमार, सोनी सोरी, लिंगा कोडोपी के नेतृत्व में प्रेस कांफ्रेस आयोजित की गयी थी। बताते चलूँ कि हिमांशु कुमार पिछले दो दशकों से आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने उन पर फर्जी मामले दर्ज कर उनका छत्तीसगढ़ में प्रवेश बंद करा दिया है। वहीं सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी जो खुद भी राज्य सरकार और पुलिस के दमन का शिकार रहे हैं, वो अब बस्तर और उसके आसपास के आदिवासियों के साथ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ यह कहने की जरूरत नहीं कि इन पर भी फर्जी केस दर्ज किये गए हैं। प्रेस कांफ्रेंस में अरुंधती रॉय, प्रशांत भूषण, वृंदा करात भी मौजूद थी।
कांफ्रेंस की शुरुआत करते हुए हिमांशु कुमार ने बताया कि पिछले एक साल में बस्तर के हालात और भी ज्यादा बिगड़ गए हैं। आई.जी. के तौर पर उन एस आर पी कल्लूरी को बुला लिया गया है जिन्होंने सलवा जुडूम का बखूबी सहयोग किया था। इन्हीं कल्लूरी के कहने पर सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी को अवैध ढंग से लम्बे समय तक थाने में रखा गया था। अब कल्लूरी के निर्देश पर सोनी सोरी के घर पर हमला किया जा रहा है, धमकाया जा रहा है। सबसे दुखद ये है कि सबकुछ राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित है। बस्तर की ज़मीनों के लिये आदिवासियों का दमन किया जा रहा है। आदिवासियों का दमन करने वाले अंकित गर्ग जैसे पुलिस अधिकारियों को सम्मान दिया जा रहा है। बस्तर के एस.पी. तक का घर आदिवासियों के लिए 'टॉर्चर सेंटर'बन गया है। हिमांशु कुमार ने आदिवासियों के हो रहे दमन को यूरोपियों द्वारा हुए नेटिव अमेरिकियों के दमन से जोड़ते हुए कहा कि विकास के शोर में आदिवासियों की कोई बात नहीं कर रहा है। देश की जनसंख्या की 8% आबादी को इस तरह चुपचाप मारकर सभ्य होने का ढोंग बंद करना होगा।
अरुंधती रॉय ने आदिवासियों के दमन के चरित्र को समझाते हुए कहा कि "बस्तर में हो रहे दमन को समझने की जरुरत है। गरीब और मुख्यधारा से कटे हुए लोग तो पूरे देश में है फिर बस्तर व उसके आस-पास ही क्यों ऐसा दमन जारी है। जाहिर-सी बात है कि सरकार की नज़र उनकी ज़मीनों पर है। सरकारों को पता है कि आदिवासियों के दमन के लिए केवल फौजें काफी नहीं हैं इसलिए उनको पूंजी व भौतिक वस्तुओं का लालच भी दिया जा रहा है। पिछली सरकार के वक़्त पी. चिदंबरम ने ऑपरेशन ग्रीन हंट की घोषणा की थी जिसका उद्देश्य आदिवासियों का दमन था, साथ-ही-साथ उनको देश की नज़र में आतंकवाद का पर्याय भी घोषित करना था। मगर जब ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध में राष्ट्र-व्यापी आन्दोलन होने लगे तो इसे वापस लेने का नाटक किया गया और अन्दर ही अन्दर ये काम करता रहा। अरुंधती रॉय के अनुसार "'ऑफिशियल', संस्थागत ढंग से हो रहे इस दमन के खिलाफ जो भी बोलता है उसे माओवादी बोल दिया जाता है, अत: मीडिया की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है कि वह आदिवासियों के दमन को नज़रंदाज न करे और दुनिया के सामने लाने में अपनी अहम भूमिका निभाये।"
प्रशांत भूषण ने सरकारों के रवैये और व्यवस्था के चरित्र पर कई सवाल खड़े किये। उन्होंने हैरत जताई कि सलवा जुडूम चलाने वालों को कैसे व्यवस्था में शामिल किया जा सकता है?आईजी कल्लूरी का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि "कल्लूरी पर आदिवासियों के हत्याओं के तमाम केस दर्ज हैं, अभी जांच चल रही है फिर उसे दोबारा नियुक्त करना बेहद खतरनाक है। झूठे केस दर्ज कर आदिवासियों को अनिश्चित काल के लिए जेलों में डाला जा रहा है, मारा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट सहित साड़ी जुडीसरी फेल हो गयी है। आदिवासियों पर दर्ज होने वाले 97% से 99% केस झूठे पाए जाते हैं। छूटने वाले आदिवासियों को कोई मुआवज़ा नहीं दिया जाता है न हीं उनका बलात्कार करने वाली, मारने वाली पुलिस पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। स्थानीय निवासियों से लेकर स्थानीय मीडिया में इतना डर भर गया दिया है कि ये सब मामले दबे रह जाते हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ से बाहर की जनता, मीडिया व सिविल सोसाइटी की जिम्मेदारी है कि वो आदिवासियों के लिए आवाज़ उठाये। जहाँ-जहाँ आदिवासी रहते हैं, केवल वहीं पर्यावरण का अस्तित्व बचा हुआ। अत: आदिवासी देश की पूंजी हैं और उनको ख़त्म करना, देश की पूंजी को ख़त्म करना है। "
वृंदा ग्रोवर ने स्पष्ट किया कि कैसे व्यवस्था का कोई भी अंग आदिवासियों के लिए नहीं काम करता है। कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका सभी आदिवासियों के दमन में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बस्तर व उसके आस-पास के जेलों पर किये अपने अध्ययन के आधार पर वृंदा ग्रोवर ने बताया कि छत्तीसगढ़ की जेलें सलवा जुडूम का काम रही हैं। 'नक्सल केस'के नाम आदिवासियों पर अवैध ढंग से अत्याचार किये जा रहे हैं। सन 2009 से अबतक का उनका अध्ययन बताता है कि दक्षिण छत्तीसगढ़ की जेलें देश भर की अन्य जेलों की तुलना में सबसे ज्यादा भरी हुई हैं, 'ओवरक्राउडेड'हैं। मसलन कांकेर की जेल की क्षमता 67 कैदियों की है जबकि वहां लगभग 400 आदिवासियों को भरा गया है। पूरे दक्षिण छत्तीसगढ़ की जेलों में आदिवासियों की संख्या में 269% की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गयी है। होता यह आया है कि आदिवासियों को अवैध ढंग से जेल में जाता है, यहाँ तक कि लगभग सभी मामलों में आरोप तक नहीं तय किये जाते और वर्षों तक उन्हें जेल के भीतर रखा जाता है। अध्ययन के अनुसार जगदलपुर सेन्ट्रल जेल में ठूंसे गए आदिवासियों में से केवल 3% पर आरोप तय किये गए हैं। आदिवासियों के दमन के इतने मामलों में केवल उन मामलों का खुलासा हो पता है जिनमें कोई सामाजिक संगठन सक्रीय भूमिका निभाकर न्यायिक प्रक्रिया पूरी करवाता है। इन सबके अतिरिक्त यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि दक्षिण छत्तीसगढ़ की जेलें दुनिया में ऐसी अकेली जेलें हैं जहाँ मीडिया को जाने की अनुमति नहीं है।
दमन के इस खूनी कुचक्र में आदिवासी महिलाओं की स्थिति सबसे ख़राब बनी हुई है। इसे ऐसे समझिये कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में नियुक्त किये जाने सरकारी कर्मचारी साथ में अपने परिवार को नहीं ले आते। उनके लिए ये इलाका भारत के बैंकाक जैसा है। आदिवासी महिलाओं को पुलिस या वहां मौजूद फौज उठा लेती है, फर्जी केस के नाम पर जेल में डालती है, बलात्कार करती है। कोई भी मामला ऐसा नहीं होता जिसमें किसी आदिवासी महिला का बलात्कार न किया गया हो। सोनी सोरी को, जिनके पति को छत्तीसगढ़ पुलिस ने पहले ही मार दिया है, पुलिस ने अवैध ढंग से लगभग 2 साल जेल में रखा। वो बताती हैं कि इस दौरान कई बार उनका बलात्कार किया गया, उनके गुप्तांगों में पत्थर भर दिए गए। सोनी के अनुसार हर आदिवासी महिला के साथ यही सुलूक किया जा रहा है। जिन-जिन मामलों को लेकर सोनी सोरी, लिंग कोडोपी संघर्ष कर रहे हैं, उनमें से एक मामला है बोरगुडा गाँव की हिडमे का। सन 2008 में हिडमे को, जब वो 15 साल की थी, मेले से उठाया गया। पुलिस ने उन पर 302 का केस दर्ज किया। भांसी पुलिस थाने में उनका बलात्कार किया गया, तमाम तरह से उनको प्रताड़ित गया। फिर उनको कभी सुकमा जेल तो कभी रायपुर जेल तो कभी फिर वापस दंतेवाड़ा भेजा जाता रहा। इस दौरान हिडमे को कई तरह की गंभीर स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतें रही मगर उनको चिकित्सा की सुविधा से वंचित रखा गया। पुलिस ने केस दर्ज करने का आधार बताया था कि माओवादियों के साथ हुए एक मुठभेड़ के वक़्त उन्होंने माओवादियों के मुंह से हिडमे शब्द सुना था। केस दर्ज करने लिहाज़ से पुलिस की यह दलील कहीं से भी विश्वसनीय नहीं लगती। सोनी सोरी बताती हैं कि यह नाम आदिवासियों महिलाओं के बीच बहुत प्रचलित है। लगभग 8 साल बाद 2015 में जाकर शारीरिक रूप से कमजोर हो चुकी 23 वर्षीय हिडमे को अदालत ने बरी किया है। सोनी सोरी कहती हैं ऐसी स्थिति में किसी भी आदिवासी महिला के पास केवल एक ही चारा होता है कि वो जाकर हथियार उठा ले या सरकार से लोक तांत्रिक ढंग से संघर्ष करे क्योंकि इतनी प्रताड़ना, बलात्कार के बाद कोई भी महिला परिवार चलाने के काबिल नहीं रह जाती है। अरुंधती रॉय के अनुसार नक्सल/माओवादी कैम्पों में आधी से अधिक महिलाओं की संख्या होने का कारण ऐसे ही मामले है।
सोनी सोरी बताती हैं कि आदिवासियों का दमन उनकी ज़मीनें हड़पने के लिए ही किया जा रहा है बाकी देश को बताया जाता है कि नक्सलवादी आन्दोलन ख़त्म किया जा रहा है। आई.जी. कल्लूरी के आने के बाद से आदिवासियों का फर्जी आत्मसमर्पण करवाया जा रहा है। पिछले एक साल में हुए लगभग 400 आत्मसमर्पण का सच यह है कि ये हुए ही नहीं, मुश्किल से 10 हुए जो डरा धमका कर करवाया गया। आदिवासियों पर झूठे केस का डर बैठाया जाता है, जेल में डालने की धमकी दी जाती है जिसके डर से ही वो सरेंडर करते हैं। यह भी राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित है जिसके लिये पुलिस अधिकारियों को बाकायदा इनाम दिया जाता है। लिंडा कोडोपी बताते हैं कि ऐसे ही फर्जी एनकाउन्टर भी किये जाते हैं। लिंगा के अनुसार हाल ही में ऐसा एक मामला कुकनार थाने के अंतर्गत हुआ है। रेवाली गाँव के नक्को भीमा को, जब वो केकड़ा पकड़ रहा था, पुलिस ने गोली मारी और एनकाउंटर का रूप दे दिया। कई मामलों ऐसे भी आते हैं जिनमें आदिवासियों के मार रही पुलिस या सीआरपीऍफ़ कह देती है कि इन्हें नक्सलियों ने गोली मारी है। लिंगा बताते हैं कि नक्सलवादी किसी को ऐसे नहीं मारते, वो जनादालत लगाकर ही किसी को मारते हैं। इस तरह हर तरह आदिवासी इस तरह के फर्जी मामलों को देख रहा है और आक्रोशित हो रहा है। रेवाली गाँव के मामले के बाद बड़ी संख्या में आदिवासी अपने परम्परागत हथियारों को लेकर निकल पड़े जिन्हें बहुत से मुश्किल लोकतंत्र में भरोसा रखने का हवाला देकर लिंगा कोडोपी और उनके साथियों ने शांत किया। लिंगा कोडोपी कहते हैं कि हम शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात रखना चाहते हैं, मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं पर ऐसा नहीं होने दिया जा रहा है। पहले से ही आदिवासियों के लिए पुलिस एक डर का नाम है। अब सलवा जुडूम-2 आ रहा है जिसके कारण बहुत-से आदिवासी गाँव छोड़ कर अभी से भागने लगे हैं।
उपर्युक्त सभी कथन बेहद विचलित करने वाले हैं। क्या विकास का मतलब यही होता है कि आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की बलि चढ़ती रहे? ऐसा विकास किसे चाहिए? और ऐसे विकास के सपने बेचने वाले लोग कौन है? दुनिया को दिखाने के लिए 26 जनवरी व 15 अगस्त को जब आदिवासी समुदायों की झांकी प्रस्तुत की जाती है, जब प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ में पर्यावरण प्रेमी होने का दावा कर आता है तो कौन लोग हैं वो जो थूकने के बजाय तालियाँ पीटते हैं? जब हिंदी का एक कलमघसीट जो कहता है कि 'संसद से सब कुछ हजारों प्रकाशवर्ष की दूरी पर है'तो क्यों उसकी बात की काट नहीं दिखाई देती ? तमाम ऐसे सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। क्या कोई हिमांशु कुमार की वह चिंता दूर कर सकता है जब वह कहते हैं कि लोकतंत्र, सुप्रीम कोर्ट ऐसे ही चलते रहेंगे और हम या सोनी सोरी या लिंगा कोडोपी कब गायब कर दिए जाएँ कोई पता नहीं।
'निराशावादी'कौम का सदस्य 'मैं'जब कांफ्रेंस से बाहर निकलने वाला था तो मन में गुस्से के अलावा उम्मीद की एक किरण जाते-जाते सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी ने दे दी। दोनों ने एक प्रश्न के जवाब में कहा कि जब तक जीवन है, लड़ेंगे! मैं तब बस मुस्कुरा ही सका। अब कहने की बारी है तो कह रहा हूँ, साथ में आप भी कहिये आमीन! सोनी सोरी, लिंगा कोडोपी, हिमांशु कुमार हम आपके साथ हैं, आमीन!
देवेश त्रिपाठी, मूलतः हिंदी साहित्य के छात्र थे, लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर, सिर्फ पढ़ने लगे , कविताएं , कहानियां और रिपोर्ट्स भी लिखते हैं, सब आक्रोश से भरे हुए। पत्रकारिता में उम्मीद दिखती है तो छोड़ कर साहित्य में रम जाते हैं और जब लगता है कि लेखक बन जाएंगे तो पता चलता है कि सब छोड़ यायावरी कर रहे हैं। देवेश, मौके-बेमौके अब हमारे लिए रिपोर्ट्स भेजते रहेंगे, ऐसा अविश्वसनीय सा वादा किया है। सनद रहे कि हम अपने संवाददाताओं को कोई भुगतान नहीं करते हैं।