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औरत को थाने नहीं महिला संगठन चाहिए

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औरतों के साथ बलात्कार और हिंसाचार थमने का नाम नहीं ले रहा। पहले कहा गया सख्त कानून बनाओ,निर्भया कांड के बाद कानून सख्त बन गया। अब बदायूं कांड के बाद के कह रहे हैं सख्त सरकार बनाओ,वह भी बन जाएगी, धैर्य रखो, लेकिन पहले यह तो सोचो भाजपा की सख्त-ताकतवर सरकार मध्यप्रदेश में है और दिल्ली में भी है, लेकिन बलात्कार और हिंसाचार थम नहीं रहे हैं।बलात्कारी न तो कानून से डर रहे हैं और न सख्त सरकारों से। वे इतने निडर क्यों हैं ?      

     औरतों के साथ हिंसाचार कानून और सरकार बदलने मात्र से नहीं थमेगा। औरतों को संगठित होकर लंबे संघर्ष के लिए कमर कसनी होगी। औरत की सुरक्षा का मामला मात्र जेण्डर प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सवाल है।पितृसत्ता के वर्चस्व के सभी रुपों के खिलाफ संघर्ष का मामला है।  यह औरत के स्वभाव को बदलने का मामला भी है।

       औरतों की लड़ाई कानूनी लडाई नहीं है और नहीं यह सरकार पाने की लडाई है ,वह सामाजिक परिवर्तन की लडाई है ,इसमें जब तक औरतें सड़कों पर नहीं निकलेंगी और निरंतर जागरुकता का प्रदर्शन नहीं करेंगी, तब तक स्थितियां बदलने से रहीं । इन दिनों पुंस हिंसाचार का जो तूफान समाज में चल रहा है उसमें इजाफा ही होगा।

     आयरनी यह है कि औरतों के ऊपर हो रहे हिंसाचार के खिलाफ औरतें अभी तक सड़कों पर निकलने को तैयार नहीं हैं। कहीं पर भी हजारों-लाखों औरतों के जुलूस नजर नहीं आ रहे। स्थिति इतनी भयावह है कि पीड़िता को देखकर भी हम अनदेखा कर रहे हैं। पुरुषों के लिए बलात्कार एक खबर होकर रह गयी, वहीं औरतों के लिए जुल्म। हमें इन दोनों के दायरे से निकलकर औरत को संघर्ष की प्रक्रिया में लाना होगा। औरत संघर्ष करेगी तो हिंसाचार थमेगा। हमें औरत को संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना होगा। हमें औरतों को सामाजिक हलचलों से दूर रखने की मनोदशा बदलनी होगी। औरतों को भी अ-राजनीतिक होकर जीने की आदत और अभ्यासों को त्यागना होगा। औरत को अ-राजनीतिक बनाने में पुंस समाज को लाभ रहा है।

      औरत अ-राजनीतिक न बने हमें उसके उपाय खोजने होंगे। औरतों में सामाजिक-राजनीतिक जागरुकता पैदा करने के उपायों पर विचार करना होगा और यह काम औरतों के बिना संभव नहीं है। पहली कड़ी के तौर पर औरतों को अखबार पढ़ने, टीवी न्यूज देखने और राजनीतिक खबरों में दिलचस्पी लेने की आदत डालनी होगी।

      औरत को सीरियल संस्कृति और मनोरंजन संस्कृति के बंद परकोटे से  बाहर निकलना होगा।  मनोरंजन की कैद में बंद औरत अपनी रक्षा नहीं कर सकती। यह वह औरत है जो सामाजिक -राजनीतिक भूमिका से संयास ले चुकी है।

      यह सच है कि औरतें रुटिन कामों को सालों-साल करती रहती हैं और घरों में बैठे हुए बोर होती रहती हैं, लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि सीरियल या मनोरंजन  प्रोडक्टों का रुटिन आस्वादन और भी ज्यादा बोर करता है। उनका अहर्निश आस्वादन हमें बोर और सामाजिक तौर पर निष्क्रिय बनाता है।

        औरत सामाजिक तौर पर निष्क्रिय न बने इसके लिए औरतों को यह जानना होगा कि वे जिसे आनंद या मनोरंजन समझ रही हैं वह तो उनकी बोरियत बढ़ाने वाला संसाधन है।  औरत को मनोरंजन की नकली भूख को खत्म करने के लिए मनोरंजन के असली और कारगर रुपों को अपनाना होगा।

       औरतें अ-राजनीति के दायरे के बाहर आएं इसके लिए जरुरी है कि वे अपनी पहल पर  लोकतांत्रिक महिला संगठनों की शाखाएं अपने मुहल्ले में खोलें और नए सिरे से सामाजिक सवालों पर मिलने-जुलने और काम करने का सिस्टम तैयार करें। आज स्थिति यह है कि भारत के अघिकांश मुहल्लों में महिला संगठन नहीं हैं। महिला संगठनों के बिना महिलाओं को नहीं बचा सकते।

         महिलाओं को हर इलाके में थाने नहीं महिला संगठनों की जरुरत है। महिलाओं के इस तरह के संगठनों की जरुरत है जो निरंतर महिलाओं के सवालों पर सोचें और महिलाओं को सक्रिय-शिक्षित करें। महिलाएं सक्रिय-शिक्षित और संगठित बनेंगी तब ही हिंसाचार रुकेगा।  


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  • Mani Sharma सख्त कानून बनाए जाने से भी लागू करने वाली एजेंसी के हाथ और उसकी दोषी के साथ मोलभाव करने की क्षमता में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार की गंगोत्री अधितेज गति से बहेगी| जब भी कोई नया सरकारी कार्यालय खोला जाता है तो वह सार्वजनिक धन की बर्बादी, जन यातना और भ्रष्टाचार का नया केंद्र साबित होता है, इससे अधिक कुछ नहीं| एक मामला जिसमें पुलिस 1000 रूपये में काम निकाल सकती है , वही मामला अपराध शाखा के पास होने पर 5000 और सी बी आई के पास होने पर 10000 लागत आ सकती है किन्तु अंतिम परिणाम में कोई ज्यादा अंतर पड़ने की संभावना नहीं है| जहां जेल में अवैध सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए साधारण जेल में 1000-2000 रूपये सुविधा शुल्क लिया जाता है वही सुविधा तिहाड़ जैसी सख्त कही जाने वाली जेल में 10000 रूपये में मिल जायेगी|
  • Anwer Jamal Khan बलात्कार की समस्या का हल औरत के अपने हाथ में है। तमाम मर्द बच्चे बनकर उनकी गोद में रहते हैं। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि 6 साल तक की उम्र में बच्चे के मन में जो धारणाएं और मूल्य बैठा दिए जाते हैं। बच्चा पूरे जीवन उन्हीं की बुनियाद पर फ़ैसले लेता है और अमल करता है। बलात्कारियों के कर्म उनकी मांओं की नाकामी का सुबूत हैं कि वे अपने बच्चों के मन में अच्छाई और भलाई की बातें जमा पाने में नाकाम रही हैं। एक औरत की नाकामी की सज़ा उसके बच्चे के विकृत व्यक्तित्व और बहुत सी औरतों की तबाही की सूरत में सामने आती है। आज बच्चों को जिस तरह अश्लील सिनेमा, टीवी और हिंसक वीडियो गेम के हवाले कर दिया गया है। वह सब कोढ़ में खाज साबित हो रहा है। यह सब क़ानून, सरकार और महिलाओं संघर्ष से बदलने वाला नहीं है। मां अपना फ़र्ज़ तब पूरा करे जबकि बच्चे का मन बन रहा हो और बाप भी।
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  • Vijai RajBali Mathur पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी योगीराज श्री कृष्ण की मामी ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं। 
    एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?http://krantiswar.blogspot.in/2014/06/blog-post_17.html

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