देश की आज़ादी की बुनियाद धर्मनिरपेक्षता, सबसे बड़ा देशद्रोह साम्प्रदायिकता – मयंक सक्सेना
इस देश के इतिहास में, वो 14 अगस्त 1947 की अहम रात थी, जब संविधान सभा की बैठक शुरु हुई। संविधान सभा के एक-एक व्यक्ति को ही नहीं पूरे देश को पता था कि अगली सुबह इस देश के लिए दरअसल एक देश बन जाने की सुबह है। उपनिवेश, एक आज़ाद मुल्क बनने वाला था। संविधान सभा की बैठक, महात्मा गांधी के होने और उससे आज़ादी की इस अहम लड़ाई के होने की बात से शुरु हुई और संविधान सभा की बैठक के बाहर इकट्ठा लोग भी महात्मा गांधी की जय के नारे लगा रहे थे। लेकिन महात्मा वहां नहीं थे, वो वहां बिल्कुल नहीं थे और वहां आने के इच्छुक भी नहीं थे। तो फिर बापू कहां थे? वो दिल्ली से 1485 किलोमीटर दूर कलकत्ता में थे और उपवास कर रहे थे। सवाल ये है कि गांधी उपवास क्यों कर रहे थे? वो नोआखली से कलकत्ता आ गए थे और इसImage may be NSFW.
Clik here to view.बार वो कलकत्ता में दंगे रोकने के लिए उपवास पर थे। पूरा देश चाहता था कि आज़ाद भारत का पहला तिरंगा महात्मा गांधी के हाथों लहराए, लेकिन शायद आज़ाद भारत का गांधी का सपना, तिरंगे के लहराने तक महदूद नहीं था। वो एक वृहत्तर स्वप्न था, जिसमें एक ऐसा देश था, जो हिंदुओं, मुस्लिमों, सिखों, ईसाइयों, जैन, पारसियों, बौद्धों का देश होने के बावजूद भी हिंदू-मुस्लिम-सिख या ईसाई राष्ट्र नहीं था। इस सपने को सिर्फ गांधी ही नहीं जी रहे थे, इस सपने को ले कर मौलाना आज़ाद, पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल के साथ करोड़ों हिंदुस्तानी भी जी रहे थे और इसी सपने को लेकर भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और अश्फ़ाकउल्लाह खां ने जान भी दे दी थी। फिर आज वह सपना कहां है? और क्या हमारी आज़ादी का स्वप्न, साकार हो कर सिर्फ तिरंगे और हवा की पारस्परिक भौतिकी पर निर्भर रह गया है?
आज़ादी की मध्यरात्रि को पंडित नेहरू के ऐतेहासिक भाषण में भी समय, देश और उसकी चुनौतियों के बारे में Image may be NSFW.
Clik here to view.बात की गई थी। लेकिन क्या वह प्रतिबद्धता आज भी है, क्या हो सकता है कि देश में शांति, सौहार्द, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी चेतना के बिना किसी भी तरह का भौतिक विकास, विकास का मानक हो सकता है? भगत सिंह, ने फांसी के पहले, जेल से भी कई लेख लिखे। एक लेख में भगत सिंह कहते हैं,
"बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश केपूर्ण स्वतंत्राता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्राता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला हैµबच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है।"
इसी लेख में वह उपसंहार करते हुए कहते हैं,
"लेकिन अगल-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हमें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है। जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।"
यानी कि बिल्कुल अलग-अलग वैचारिकी होते हुए भी, दरअसल गांधी या भगत सिंह एक ऐसे देश के लिए लड़ रहे थे, जो धर्म के नाम पर आपस में न लड़ रहा हो। दोनों ही साम्प्रदायिकता को देश की असल आज़ादी के रास्तेमें रोड़ा मानते थे। ज़ाहिर सी बात है, जो लोग साम्प्रदायिकता, ऊंच-नीच और अपने-पराए धर्म की भावना से ही आज़ाद न हों, वह कैसे आज़ाद हो सकते है? यही वजह थी, कि जब देश का सम्विधान लिखने की शुरुआत हुई, तो उसकी आत्मा के मूल तत्व के रूप में धर्मनिरपेक्षता और समानता को ही रखा गया। लेकिन क्या हम वैसा देश बन पाए? राजनीति ही इसकी जड़ है, और राजनीति में ही इसके उपाय खोजने होंगे।
अपने एक लेख में जवाहर लाल नेहरू ने कहा,
"हम धर्मनिरपेक्ष भारत के बारे में बात करते हैं, क्या इसका तात्पर्य ऐसे राज्य से है जो सभी प्रकार के मतों को समान अवसर तथा सम्मान देता है, जो एक राज्य के रूप में खुद को किसी भी धर्म या विश्वास से सम्बद्ध नहीं रखता, इस प्रकार यह एक राज्य धर्म बन जाता है। भारत में धार्मिक सहिष्णुता का लम्बा इतिह्रास रहा है। यह धर्मनिरपेक्ष राज्य का मात्र एक पहलू है। भारत जैसे बहुधर्मी देश में धर्मनिरपेक्षता के अभाव में वास्तविक राष्ट्रवाद का निर्माण करना दुष्कर है। कोई भी संकीर्ण सोच जनसंख्या का अनिवार्य रूप से विभाजन करती है और उस स्थिति में राष्ट्रवाद भी अपने सीमित अर्थों में सामने आता है।"
ज़ाहिर है कि इस देश का एक आज़ाद देश के तौर पर पहला सपना, एक धर्मनिरपेक्ष देश बनना था, जहां की सत्ता धर्म पर नहीं अपितु, मनुष्य की स्वतंत्रता और मानवता के मूल सिद्धांतों पर आधारित हो। संविधान के पहले पृष्ठ पर अंकित प्रस्तावना, यह साफ कर देती है कि भारत एक गणतंत्र के रूप में क्या है और कैसा रहना चाहिए। निश्चित तौर पर भारत या इंडिया या हिंदुस्तान, एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है और आज़ादी की लड़ाई में अलग-अलग विचारों के साथ लड़ रहे, एक-एक व्यक्ति का स्वप्न यही था। जी हां, धर्मनिरपेक्षता ही इस देश का एकमात्र मूलभूत सिद्धांत है, जिस पर किसी प्रकार का समझौता करना दरअसल भारत के पूरे विचार से ही समझौता है।
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Clik here to view.1940 में जब मुस्लिम लीग ने ज़ोर-शोर से पाकिस्तान की मांग उठानी शुरु की, तब लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा,
"हिंदुस्तान की धरती पर इस्लाम को आए ग्यारह शताब्दियाँ गुजरी हैं। य़दि हिंदू धर्म कई हजार वर्षों से इस भूमि के निवासियों का धर्म रहा है तो इस्लाम भी एक हजार वर्ष से इसके निवासियों का धर्म चला आता है। जिस प्रकार आज एक हिंदू गौरव के साथ यह कहता है कि वह हिंदुस्तानी है और हिंदू धर्म को माननेवाला है, ठीक उसी प्रकार हम भी गौरव के साथ कह सकते हैं कि हम हिंदुस्तानी हैं और इस्लाम धर्म को माननेवाले हैं। इसी तरह ईसाई भी यह बात कह सकते हैं।"
हालांकि मूलभूत रूप से दुनिया में किसी भी देश, सरकार और सम्विधान को धर्मनिरपेक्ष होना ही चाहिए।लेकिन सवाल ये है कि दुनिया के तमाम देशों में इस प्रकार की भौगोलिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता नहीं है, जैसी कि भारत में है। इसलिए साम्प्रदायिकता से आज़ादी पाना हमारे लिए सबसे बड़ी आवश्यकता और चुनौती है। इसी विविधता के एक देश में होने के कारण ही आज़ादी की लड़ाई, किसी धर्म के लोगों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक साझा लड़ाई थी, जो कि धर्म-पंथ और संस्कृति की तमाम भिन्नताओं के बावजूद एक साथ लेकिन एक-दूसरे से अप्रभावित रहने की आज़ादी की लड़ाई थी। साम्प्रदायिकता को लेकर आज़ादी के आंदोलन के नायकों का नज़रिया, क्या था और वह इसको लेकर किस कदर गंभीर थे। इसका अंदाज़ा बंटवारे के समय की एक घटना से लगाया जा सकता है। सितंबर 1947 में सरदार पटेल को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले Image may be NSFW.
Clik here to view.मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दोलाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा,
"इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। …………… मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ………… एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
इस घटना से समझा जा सकता है कि देश की बुनियाद सिर्फ एक आधार पर है, जो कि धर्मनिरपेक्षता है, क्योंकिधर्मनिरपेक्षता के बिना लोकतंत्र भी संभव नहीं है। किसी एक धर्म के प्रभाव, राज या नियमों के अंतर्गत, Image may be NSFW.
Clik here to view.जब बाकी धर्मावलम्बियों या नास्तिकों के अधिकार सुरक्षित ही नहीं, तो लोकतंत्र कैसे हो सकता है? महात्मा गांधी को पढ़ते हुए आप पाते हैं, कि वह एक धर्म में आस्था रखते हुए, भी बाकी धर्मों की आज़ादी को लेकर किस कदर चिंतित थे। क्योंकि वह जानते थे कि लोकतंत्र और स्वतंत्रता, दरअसल धर्म की नहीं, मानवमात्र की स्वतंत्रता और निजता की लड़ाई है। वह कहते है,
"अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है. मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए. फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा."
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Clik here to view.संविधान सभा में डॉ अम्बेडकर ने अपने एक भाषण में कहा,
"धर्म निरपेक्ष राज्य का अर्थ यह नहीं है कि वह लोगों की धार्मिक भावनाओं का ध्यान नहीं रखेगा। धर्म निरपेक्ष राज्य का तात्पर्य यह है कि संसद जनता पर कोई एक धर्म नहीं थोप पाएगी। यह एक सीमा है, जिसे संविधान मान्यता देता है।"
ज़ाहिर है कि देश के लिए अभी के समय में सबसे बड़ा ख़तरा साम्प्रदायिकता है। एक धर्म विशेष के नाम पर ध्रुवीकरण कर के, साम्प्रदायिक और फासीवादी शक्तियां, सत्ता में जा बैठी हैं। देश में कभी योग के प्रचार, कभी जय हिंद की जगह जय भारत लिख कर, कभी बीफ़ पर बैन लगा कर तो कभी साम्प्रदायिक भाषणों को खुली छूट दे कर युवाओं की बड़ी संख्या को भी साम्प्रदायिकता की अफीम चटाई जा रही है। ऐसे में हमको जड़ों की ओर लौटना होगा। सम्विधान और आज़ादी की लड़ाई के मूल उद्देश्य को जन-जन तक पहुंचाना होगा। मानवाधिकारों की लड़ाई को मज़बूत करना होगा और दंगों को चुपचाप देखने की जगह, आगे बढ़ कर प्राण की बाज़ी भी लगा कर, अमन लाने के प्रयास करने होंगे। देश की आज़ादी के लड़ाकों समेत उस पूरी पीढ़ी के आज़ाद हिंदुस्तान का सपना दांव पर लगा है। आखिर स्वतंत्रता एक सपना था, जिसे सच किया गया..उस सपने को धूल में मिलने से बचाना होगा, क्योंकि करोड़ों लोगों का साझा हिंदुस्तान, करोड़ों लोगों का साझा सपना है। जिसेफासीवाद के हाथों सौंप देना, सपने का नहीं समूची भारतीयता और इंसानियत का क़त्ल होगा। समझना होगा कि भारतीयता और इंसानियत कोई अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। देश सबसे बड़ा है और देश धर्मनिरपेक्षता की नींव पर हासिल हुआ था। तय कीजिए, आप देश के साथ हैं या फिर साम्प्रदायिकता के…क्योंकि साम्प्रदायिकता से बड़ा देशद्रोह कुछ नहीं हो सकता है।
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मयंक सक्सेना ने एक दशक तक टीवी पत्रकारिता की और अब स्वतंत्र लेखक और कवि हैं।