पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है-4: अरुंधति रॉय
Posted by Reyaz-ul-haque on 8/15/2015 01:42:00 AMआंबेडकर-गांधी बहस के संदर्भ में राजमोहन गांधी को अरुंधति रॉय के जवाब 'ऑल द वर्ल्ड'ज अ हाफ-बिल्ट डैम'के हिंदी अनुवाद की चौथी और आखिरी किस्त. अनुवाद: रेयाज उल हक
[यहां पढ़ें पहली और दूसरी और तीसरी किस्तें]
आंबेडकर, कांग्रेस और संविधान सभा
राजमोहन गांधी इसके लिए मेरी आलोचना करते हैं कि मैंने गांधी, नेहरू और पटेल द्वारा आंबेडकर को संविधान मसौदा समिति (कॉन्स्टिट्यूशन ड्राफ्टिंग कमेटी) का अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित करने और उन्हें आजादी के बाद भारत का पहला कानून मंत्री बनाने में दिखाई गई राजनीतिक सूझबूझ के बारे में कंजूसी बरती है.वे कहते हैं,
1932 का पूना समझौता और 15 साल बाद आजादी के वक्त गांधी-आंबेडकर की साझेदारी भारत के समाज और शासन व्यवस्था के लिए और साथ ही साथ दोनों संबद्ध व्यक्तियों की जीतों की नुमाइंदगी भी करती है.
और
...उन्होंने [अरुंधति रॉय ने- अनु.] दो विरोधियों के उल्लेखनीय तरीके से एक साथ आने को, जिसके नतीजा अपने जीवन के आखिरी दौर में गांधी की आंबेडकर के साथ साझेदारी थी, महारत से दबा दिया है. संविधान बनाने में आंबेडकर को शामिल किए जाने के शानदार नतीजों के बारे में हर कोई जानता है.
क्या इस दोस्ती के बारे में उनके दावे के समर्थन में कोई सबूत है? गांधी या आंबेडकर दोनों की काफी लिखते थे और क्या उनमें से किसी ने इस 'उल्लेखनीय तरीके से एक साथ आने'के बारे में कुछ लिखा है? उन्होंने नहीं लिखा है. अपने निधन से एक साल पहले, 1955 में बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में आंबेडकर, गांधी के प्रति लगातार सख्त बने रहे. यह यूट्यूब पर मौजूद है.[4] जो दोस्ती आंबेडकर ने साफ-साफ कभी नहीं चाही, ऐसी ना-मौजूद दोस्ती को उन पर थोपना एक तरह का अपमान ही है.
आंबेडकर के संविधान मसौदा समिति में आने की कहानी उतनी सीधी भी नहीं है, जितनी शायद राजमोहन गांधी कबूल करने की चाहत रखते हैं. 'द डॉक्टर एंड द सेंट'से एक हिस्सा ये रहा:
पूना समझौता वाली शिकस्त के बावजूद आंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडलों के विचार को पूरी तरह नहीं छोड़ा था. बदकिस्मती से उनकी दूसरी पाटी, शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन प्रांतीय विधान सभा के 1946 के चुनावों में हार गई थी. हार का मतलब ये था कि आंबेडकर ने अगस्त 1946 में बने अंतरिम मंत्रालय के कार्यकारी परिषद में अपनी जगह खो दी. यह एक गंभीर झटका था, क्योंकि आंबेडकर बेकरारी से कार्यकारी परिषद में अपनी जगह का इस्तेमाल करना चाहते थे, ताकि वे उस समिति का हिस्सा बन सकें जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करनेवाली थी. इस बात से फिक्रमंद कि ऐसा मुमकिन नहीं होने जा रहा था, और मसौदा समिति पर बाहरी दबाव डालने के लिए आंबेडकर ने मार्च 1947 में एक दस्तावेज प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज - जो 'संयुक्त राज्य भारत' (एक ऐसा विचार, जिसका वक्त शायद आ पहुंचा है) के लिए उनका प्रस्तावित संविधान था. उनकी किस्मत थी कि मुस्लिम लीग ने आंबेडकर के एक सहयोगी और बंगाल से शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के नेता जोगेंद्रनाथ मंडल को कार्यकारी परिषद में अपने उम्मीदवारों में से एक के रूप में चुन लिया. मंडल ने इसे यकीनी बनाया कि आंबेडकर बंगाल प्रांत से संविधान सभा के लिए चुन लिए जाएं. लेकिन आफत ने फिर से दस्तक दी. बंटवारे के बाद, पूर्वी बंगाल पाकिस्तान के पास चला गया और आंबेडकर ने एक बार फिर अपनी जगह गंवा दी. नेकनीयती दिखाने के लिए और शायद इसलिए कि उस काम के लिए उनकी बराबरी का कोई भी नहीं था, कांग्रेस ने संविधान सभा में आंबेडकर को नियुक्त किया. अगस्त 1947 में आंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष बनाए गए. नई बनी सरहद के उस पार जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने. उस सारी उथल-पुथल और बदगुमानियों के बीच यह गैरमामूली बात थी कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के पहले कानून मंत्री दलित थे. आखिर में मंडल का पाकिस्तान से मोहभंग हो गया और वे भारत लौट आए. मोहभंग आंबेडकर का भी हो गया था, लेकिन जाने के लिए उनके पास कोई जगह नहीं थी.
भारतीय संविधान का मसौदा एक समिति ने तैयार किया और इसमें आंबेडकर के नजरियों से ज्यादा इसके विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के सदस्यों के नजरियों की झलक मिलती थी. तब भी, अछूतों के लिए अनेक सुरक्षा प्रावधानों ने इसमें अपनी जगह बनाई, जिनकी रूपरेखा स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज में दी गई थी. आंबेडकर के रेडिकल सुझावों में से कुछ, जैसे कि खेती और मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण को फौरन खारिज कर दिया गया. मसौदा बनाने की प्रक्रिया से आंबेडकर सिर्फ नाखुश ही नहीं थे. मार्च 1955 में उन्होंने राज्य सभा (भारतीय संसद का ऊपरी सदन) में उन्होंने कहा: 'संविधान एक अद्भुत मंदिर है, जिसे हमने देवताओं के लिए बनाया था. लेकिन उनकी स्थापना इसमें हो पाती, इसके पहले ही शैतानों ने आकर उस पर दखल कर लिया.' 1954 में आंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उम्मीदवार के रूप में अपना आखिरी चुनाव लड़ा और हार गए (रॉय 2014: 137-39).
पूना समझौते की तारीफ करने के बाद राजमोहन गांधी कहते हैं
हालांकि 1945-46 के चुनौवों ने इसकी तस्दीक की कि आईएनसी [इंडियन नेशनल कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस] ने भारतीय मतदाताओं की भारी तादाद को अपनी तरफ खींचा था, जिसमें दलित समर्थकों की भी अच्छी खासी संख्या थी...अनेक दलित उम्मीदवारों ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई थी, जिसे समझा जा सकता है, कि गैर-दलित मतदाता उनकी हार की वजह बन सकते हैं. बदकिस्मती से 1952 के आम चुनावों में यह खुद आंबेडकर के साथ भी हुआ, जब वे हिंदू कोड बिल को पारित करने में कांग्रेस की सुस्ती पर निराश होकर कैबिनेट से इस्तीफा दे चुके थे. उनके साथ 1954 में फिर यह हुआ, जब उन्होंने उपचुनावों में हिस्सा लिया.
यह बुरी मंशा से, भीतर ही भीतर संतुष्ट होने की ओछी हरकत है. यह ऐसा है मानो एक अपाहिज को एक एथलीट के साथ दौड़ने पर मजबूर किया जाए और फिर फिनिश लाइन पर अपनी जीत का जश्न मनाया जाए (या जश्न न मनाने का दिखावा किया जाए).
आंबेडकर ने कानून मंत्री के रूप में जो कुछ भी करने की कोशिश की, उनका वक्त बहुत बोझ और मुश्किलों से भरा था. आजादी के बाद के भारत में कानून मंत्री के रूप में उन्होंने हिंदू कोड बिल के मसौदे पर उन्होंने महीनों काम किया. उन्हें यकीन था कि जाति व्यवस्था औरतों पर नियंत्रण रखते हुए अपने वजूद को कायम रखती है और उनकी बड़ी चिंता यह थी कि हिंदू निजी कानून को औरतों के लिए ज्यादा न्यायोचित बनाया जाए. उन्होंने जो विधेयक पेश किया, उसमें तलाक को मंजूरी दी गई थी और विधवाओं और बेटियो को जायदाद के अधिकार दिए गए थे. संविधान सभा चार बरसों तक (1947 से 1951 तक) इस पर कुछ करने से बचती रही और फिर आखिर में इसमें अड़ंगा ही लगा दिया. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने धमकी दी कि वे इस विधेयक को कानून नहीं बनने देंगे. हिंदू साधुओं ने संसद को घेर लिया. उद्योगपतियों और जमींदारों ने चेतावनी दी कि वे आनेवाले चुनावों में अपना समर्थन वापस ले लेंगे. आखिरकार आंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे के वक्त अपने भाषण में उन्होंने कहा: 'वर्ग और वर्ग के बीच, लिंग और लिंग के बीच गैर बराबरी को, जो हिंदू समाज की आत्मा है, ज्यों का त्यों बने रहने देना, और आर्थिक समस्याओं के बारे में कानूनों को पारित करते जाना हमारे संविधान को एक मखौल बना देना है और गोबर के ढेर पर महल खड़े करना है' (रेगे 2013 से, रॉय 2014: 46-47 पर उद्धृत).
दक्षिण अफ्रीका में गांधी
अपने अध्ययन के दौरान जाति के बारे में गांधी के रवैए से परेशान मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि उन्हें कब और कैसे महात्मा कहा जाने लगा था. 1915 में, जिस साल वे दक्षिण अफ्रीका से लौटे, गुजरात के गोंडल में एक आम सभा में सार्वजनिक रूप से महात्मा कहा गया. (टिड्रिक 2006, रॉय 2014: 65 में उद्धृत). मुझे यह जानने की उत्सुकता हुई कि इस तारीफ के लायक उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में क्या किया था और नस्ल के प्रति उनका रवैया जाति के प्रति उनके रवैए से किस तरह अलग था. मैंने इससे जो नतीजे निकाले हैं, उनसे राजमोहन गांधी बेहद नाखुश हैं. देखिए:उस वक्त तक गांधी के पूर्वाग्रह का (जो उनके लगभग सभी समकालीनों में मिलते हैं) खुले दिल से सामना करना चाहिए, लेकिन रॉय इस फेहरिश्त के सबसे अनुकूल पहलू को क्यों छुपा लेती हैं, जो अपने वक्त के लिहाज से दुर्लभ था?
असल में मैंने 'फेहरिश्त के अनुकूल पहलू'का जिक्र किया है. लेकिन इससे मामला और भी ज्यादा परेशान करने वाला बना जाता है. जो भी हो, हम यहां किस फेहरिश्त की बात कर रहे हैं? क्या ये बातें और काम घरेलू खर्च के हिसाब की तरह एक दूसरे में से जोड़े और घटाने वाली चीजें हैं? यही नहीं, अगर गांधी के पूर्वाग्रह अपने समकालीनों में भी 'मिलते'थे तो क्या हम पूछ सकते हैं कि उन्होंने अपने समकालीन के रूप में देखे जाने के लिए किस तरह के लोगों को चुना था?
बेशक यह 'अपने वक्त का इंसान'वाली दलील ही है. लेकिन यह किसी की भी दलील नहीं हो सकती कि उन वक्तों में (और उनसे पहले के वक्तों में भी) किसी ने भी बराबरी और इंसाफ के बारे में बात नहीं की थी? या उपनिवेशवाद के बारे में? फिर क्या एक ही साथ अपने वक्त का (एक बेहद पूर्वाग्रह से ग्रस्त) इंसान होना और सभी वक्तों के लिए एक महात्मा होना मुमकिन है?
मैंने 'द डॉक्टर एंड द सेंट'में दक्षिण अफ्रीका में गांधी के बरसों के बारे में जो कुछ लिखा है मुझे उसका एक व्यवस्थित खाका पेश करने दीजिए, हालांकि यह भी निहायत ही नाकाफी है (रॉय 2014: 66-88).
गांधी 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे जब वे 24 साल के थे. वे एक वकील थे. उनकी सियासी आंख तब खुली जब पीटरमारिट्जबर्ग में उन्हें 'केवल गोरों के लिए'रेलवे डिब्बे में से फेंक दिया गया. वे गोरों के डिब्बे में इसलिए बैठे थे, क्योंकि वे इस बात से अपमानित महसूस कर रहे थे कि भारतीय लोगों से उम्मीद की जाती थी कि वे देसी काले अफ्रीकियों के साथ रेलवे डिब्बों में सफर करेंगे. 1894 में उन्होंने नाटाल इंडियन कांग्रेस (एनआईसी) की शुरुआत की. एक विशिष्ट संघ (क्लब) था जिसका सदस्यता शुल्क तीन पाउंड था, जो सिर्फ दौलतमंद लोग ही अदा कर सकते थे. इसकी शुरुआती जीतों मे से एक डर्बन डाकघर की समस्या का 'समाधान'था. एनआईसी ने एक कामयाब अभियान चलाते हुए डाकघर में तीसरा दरवाजा खुलवाया था, ताकि भारतीयों को काले अफ्रीकियों के साथ एक दरवाजे का इस्तेमाल न करना पड़े. जल्दी ही गांधी डर्बन के भारतीय समुदाय के प्रवक्ता बन गए. उन्होंने जतन से 'प्रवासी (पैसेंजर) भारतीयों'और और बेहद गरीब 'कुली'लोगों के बीच फर्क किया - 'पैसेंजर भारतीयों'में धनी मुसलमान और विशेषाधिकार प्राप्त सवर्ण हिंदू व्यापारी आते थे, जबकि 'कुली'लोग मातहत जातियों से ताल्लुक रखनेवाले अनुबंधित (बंधुआ) मजदूर थे:
चाहे वो हिंदू हों या मुसलमान उनमें नाम बराबर भी नैतिक और धार्मिक समझदारी नहीं है. वे इतना नहीं जानते कि दूसरों की मदद के बगैर खुद शिक्षा हासिल कर सकें. इस तरह देखा जाए तो वे झूठ बोलने की हल्की सी भी लालच के आगे झुक जाते हैं. कुछ समय बाद उनके लिए झूठ बोलना एक आदत और बीमारी बन जाता है. वे बिना किसी वजह के झूठ बोलते हैं, अपनी भौतिक स्थिति को बेहतर बनाने की किसी संभावना के बगैर, असल में यह जाने बिना कि वे क्या कर रहे हैं. वे जीवन में एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाते हैं जब अनदेखी की वजह से उनकी नैतिक क्षमताएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं.
1899 में देशी अफ्रीकियों और भारतीय मजदूरों, दोनों को ब्रिटिशों और बोअरों ने बोअर युद्ध में (आज इसे दक्षिण अफ्रीका में गोरों की जंग के नाम से जाना जाता है) लड़ने के लिए घसीट लिया गया था. गांधी ने ब्रिटिश फौज की सेवा करने के लिए खुद को पेश किया. उन्हें एंबुलेंस कोर में शामिल किया गया. यह एक क्रूर जंग थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए और कई हजार यातना शिविरों में भूख से मर गए. (यही वो जंग थी, जिसमें ब्रिटिशों ने यातना शिविर की अवधारणा खोज निकाली थी.) 1906 में, गांधी ने एक बार फिर जुलू लोगों से लड़ने के लिए ब्रिटिश फौज में सक्रिय सेवा के लिए खुद को पेश किया. जुलू लोग ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपे गए नए चुनाव कर के खिलाफ विद्रोह में उठ खड़े हुए थे. गांधी ने अपने अखबार इंडियन ओपीनियन में चिट्ठियों का एक सिलसिला प्रकाशित किया. इस चिट्ठी पर 14 अप्रैल 1906 की तारीख है:
उपनिवेश (कॉलोनी) में इस मुसीबत के वक्त में हमारा क्या फर्ज है? यह कहना हमारा काम नहीं है कि काफिरों [जुलू लोगों] का विद्रोह न्यायोचित है या नहीं. हम ब्रिटिश सत्ता की महिमा से नाटाल में हैं. यहां हमारी मौजूदगी ही इस पर निर्भर करती है. इसलिए हमारा फर्ज है कि जो हम जो भी मदद कर सकें, करें.
इस जंग में गांधी ने स्ट्रेचर ढोने वालों के रूप में काम किया. आखिरकार विद्रोह को कुचल दिया गया. जुलू सरदार बंबाटा को पकड़ लिया गया और उनका सिर कलम कर दिया गया. चार हजार जुलू मारे गए, हजारों को कोड़े लगाए गए और कैद किया गया.
सितंबर 1906 में ब्रिटिश शासन ने ट्रांसवाल एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट एक्ट पारित किया, जिसमें नाटाल के भारतीय व्यापारियों को (जिन्हें गोरे कारोबारियों के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता था) ट्रांसवाल में दाखिल होने की इजाजत खत्म कर दी. गांधी ने इस अधिनियम के खिलाफ पैसेंजर भारतीयों के विरोध का नेतृत्व किया. उन्हें पीटा गया, गिरफ्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया. उन्हें देशी अफ्रीकियों के साथ जेल की कोठरी में रहना पड़ा. उन्होंने 1908 केइंडियन ओपीनियन में इसके बारे में लिखा:
हम सभी मशक्कत के लिए तैयार थे, लेकिन इस तजुर्बे के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे. हम समझ सकते थे कि हमारा दर्जा गोरों के साथ नहीं रखा जाता, लेकिन देशी लोगों के बराबर के दर्जे पर रखा जाना बर्दाश्त से बाहर लगता था. तब मैंने महसूस किया कि भारतीय लोगों ने हमारे निष्क्रिय प्रतिरोध को वक्त पर शुरू नहीं किया. यह इस बात का एक और सबूत था कि इस घिनौने कानून का मकसद भारतीयों को शक्तिहीन करना था...चाहे इसका नतीजा पतन हो या नहीं, मुझे यह कहना ही चाहिए कि यह खतरनाक है. काफिर नियमत: असभ्य होते हैं – जिनके कसूर साबित हो चुके हैं वो तो और भी. वे तकलीफदेह होते हैं, बहुत गंदे और लगभग जानवरों सी जिंदगी जीते हैं.
और दक्षिण अफ्रीका में वे जो 20 वर्ष बिताने वाले थे, उसके 16वें वर्ष यानी 1909 में उन्होंने 'माई सेकंड एक्सपीरियंस इन गाओल'लिखा:
मुझे कोठरी में एक बिस्तर दिया गया, जहां ज्यादातर काफिर कैदी रहते थे जो बीमार पड़े थे. मैंने इस कोठरी में भारी मुसीबत और डर में रात गुजारी...मैंने भगवत गीता पढ़ी जिसे मैं अपने साथ ले गया था. मैंने वो श्लोक पढ़े, जिनमें मेरी स्थिति का वर्णन था और उन पर चिंतन करते हुए, मैंने खुद को दिलासा दिया. मेरे इस कदर बेचैन महसूस करने की वजह ये थी कि काफिर और चीनी कैदी जंगली, हत्यारे और अनैतिक तौर-तरीकों वाले दिखते थे...वह [चीनी] तो बदतर मालूम पड़ता था. वह मेरे बिस्तर के करीब आया और उसने मुझे करीब से देखा. मैं स्थिर बना रहा. फिर वो बिस्तर में पड़े एक काफिर के पास गया. दोनों ने आपस में अश्लील मजाक किए, एक दूसरे के यौनांगों को उघाड़ा...मैंने मन ही मन एक आंदोलन करने की प्रतिज्ञा की ताकि यह यकीनी बनाया जा सके कि किसी भी भारतीय कैदी को काफिरों या दूसरों के साथ न रखा जाए. हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि उनके और हमारे बीच कोई साझी जमीन नहीं है. इससे भी ज्यादा, जो लोग उन लोगों की कोठरियों में सोना चाहते थे, उनके ऐसा करने के लिए एक छुपी हुई मंशा है.
गांधी ने जेल के भीतर से ही भारतीय कैदियों को 'काफिरों'से अलग करने की मांग करते हुए आंदोलन का नेतृत्व किया. अफ्रीका में अपने सभी बरसों में उनका राजनीतिक संघर्ष करीब-करीब पूरी तरह सवारी भारतीयों की मांगों और आकांक्षाओं तक सीमित रहा. वे अपनी इस राय पर कायम रहे कि भारतीय देशी अफ्रीकियों के मुकाबले बेहतर रवैए के लायक हैं.
इन्हीं संघर्षों के दौरान गांधी ने सत्याग्रह के अपने विचार विकसित किए. वे भारतीयों और यूरोपीयों के एक आश्रम (कम्यून) में रहे, जो उनके जर्मन वास्तुशिल्पी हरमन कालेनबाख द्वारा तोहफे में दिए गए 1100 एकड़ के फलों के फार्म में चल रहा था. आश्रम के सदस्यों में काले अफ्रीकी शामिल नहीं थे. विडंबना यह थी कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी के सत्याग्रह का मकसद पूंजी जमा करने पर या संपदा के गैरबराबर बंटवारे पर सवाल उठाना या अनुबंधित मजदूरों के लिए काम के बेहतर हालात के लिए प्रतिरोध करना नहीं था या जमीन को उन लोगों को लौटाना नहीं था, जिनलोगों से उसे चुराया गया था. गांधी ट्रांसवाल में भारतीय व्यापारियों के कारोबार को फैलाने और ब्रिटिश व्यापारियों के साथ मुकाबला करने के अधिकार के लिए लड़ रहे थे. 1913 में, दक्षिण अफ्रीका में अपने आखिरी साल में – दक्षिण अफ्रीका के 'खूनी साल'में - जाकर में वे अनुबंधित मजदूरों के उभार में शामिल हुए जिसमें उन्होंने बड़ी भूमिका अदा की. लेकिन फिर बड़ी जल्दी ही उन्होंने यान स्मट्स के साथ एक समझौते पर दस्तखत कर लिए और भारत लौट आए.
भारत आने के रास्ते में वे लंदन में रुके जहां उन्हें पेन्सहर्स्ट के लॉर्ड हार्डिंग के हाथों सार्वजनिक सेवा के लिए कैसर-ए-हिद का सोने का तमगा दिया गया. इसके बावजूद, जब वे भारत लौटे तो महात्मा कह कर उनकी तारीफ की गई जो इंसाफ की खातिर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ खड़ा हुआ और जिसने अपने लोगों की रहनुमाई की.
राजमोहन गांधी मेरी बातों को पूर्वाग्रह से भरी हुई और पक्षपातपूर्ण कह कर खारिज करते हैं. वे इसे मेरी खामी बताते हैं कि मैं जॉन डुबे के साथ गांधी की 'अच्छी तरह दर्ज'दोस्ती का जिक्र करने में नाकाम रही, जो अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) के संस्थापकों में से एक थे. राजमोहन गांधी कहते हैं, 'गांधी की तरह जॉन डुबे भी जुलू विद्रोह का समर्थन करने में हिचके थे.' (गांधी जुलू विद्रोह का समर्थन करने में हिचके थे? इसके उलट, उन्होंने ब्रिटिशों को इसकी इजाजत देने के लिए सार्वजनिक याचिकाओं पर याचिकाएं लिखी थीं, कि वे भारतीयों को जुलू लोगों के खिलाफ हथियार उठाने की इजाजत दें.) 'अफ्रीकी पत्रकार और शिक्षाविद तेंगो जाबावु की अफ्रीकियों के लिए एक कॉलेज की स्थापना करने की कोशिशों'पर गांधी की तारीफ का जिक्र करने में नाकाम रहना भी मेरी खामी है. इसी में यह भी है: 'रॉय, कालों के लिए गांधी की 'हिकारत'की बात करती हैं लेकिन इसका जिक्र करने में नाकाम रहती हैं कि उनकी टिप्पणियां उस भयानक व्यवहार से जन्मी थीं जो उन्होंने उन लोगों में देखा जिन्हें गंभीर अपराधों का कसूरवार पाया गया था और जिनके साथ वे जेल की कोठरी में रहे.'क्या मेरी मलामत इसलिए की जा रही है कि मैं इसका जिक्र करने में नाकाम रही कि गांधी का 'माई सेकंड एक्सपीरियंस इन गाओल'शीर्षक वाला लेख गाओल (जेल) में उनके दूसरे तजुर्बे के बारे में था? और कि यह लेख गांधी के दक्षिण अफ्रीका में 16 वर्ष रह चुकने के बाद लिखा गया था? यही नहीं, क्या मुसलमानों, आदिवासियों, बनियों, ब्राह्मणों, कालों, गोरों, गुलाबियों, पोल्का डॉट वालों - किसी भी समुदाय के बारे में रूढ़ सामान्यीकरण (जेनेरलाइजेशन) करना उचित है और उनके बारे में अपमानजनक बातें करना उनके गुनहगार साबित हो चुके लोगों के 'भयानक व्यवहार'पर आधारित है? गांधी ने ऐसा किया था. और अब राजमोहन गांधी भी कर रहे हैं.
वे अपनी आलोचना के इस हिस्से का अंत करते हुए एक लंबे भाषण को पेश करते हैं (हिसाब को संतुलित करने के लिए) जिसमें गांधी अमेरिका में गुलामी की आलोचना करते हैं और अब्राहम लिंकन की तारीफ करते हैं. इसके बाद राजमोहन गांधी एक घटना को याद करते हैं जिसे पूना में 1922 से 1924 के बीच गांधी के जेल के साथी रहे इंदुलाल याग्निक ने अपनी किताब गांधी ऐज आई न्यू हिम में लिखा है. यह इस बात का ब्योरा है कि कैसे एक सोमालियाई जेल वार्डेन अदन को बिच्छू काट लेने पर गांधी ने उसके जहर को चूसकर थूकते हुए उसकी जान बचाई.
क्या यह उस इंसान की प्रतिक्रिया थी, जो कालों को हकीर समझता था? – राजमोहन गांधी पूछते हैं.
मेरा सवाल है, क्या गांधी के दक्षिण अफ्रीकी बरसों के बारे में आपको बस इतना ही कहना है?
मेरा सवाल है, क्या गांधी के दक्षिण अफ्रीकी बरसों के बारे में आपको बस इतना ही कहना है?
बिरला और टाटा
राजमोहन गांधी ने शुरुआत में जो बाल की खाल निकाली है, मैं उससे अपनी बात खत्म करूंगी. इसका ताल्लुक बिरला और टाटा घरानों के साथ गांधी के रिश्ते से है. गांधी को जी.डी. बिरला का समर्थन हासिल था, यह बात तो मानी हुई है. लेकिन राजमोहन गांधी का नुक्ता यह है कि गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर युवा जी.डी. बिरला ने ही गांधी को अपने समर्थन की पेशकश की थी, न कि गांधी ने उनसे यह मांगा था. वे जी.डी. बिरला को उद्धृत करते हैं:मैंने उन्हें सूचित किया कि मैं...एक माहवार चंदा भेज दिया करूंगा... 'बढ़िया,'उन्होंने जवाब दिया. देखिए मैंने क्या किया – मेरी बेवकूफी! मैंने कहा, 'फिर बहुत अच्छा. मैं आपकी ओर से एक माहवार खत का इंतजार करूंगा,'उन्होंने यह कहते हुए टोका कि 'क्या इसका मतलब यह है कि हर महीने मुझे भीख का कटोरा लेकर आपके पास आना पड़ेगा?'मुझे इतनी शर्मिंदगी महसूस हुई.
'हममें से हरेक यह फैसला कर सकता है कि किसके ब्योरे में सच्चाई की गूंज है – रॉय के या बिरला के,'राजमोहन गांधी कहते हैं. मुझे कोई अंदाजा नहीं कि इससे उनका क्या मतलब है. मेरे लिए इसकी कोई अहमियत नहीं है कि किसने किससे पैसे की मांग की, न ही मैंने इसके बारे में कुछ कहा है. जिस बात की अहमियत है वो यह है कि गांधी को पूरे वक्त बिरला घराने की मदद हासिल थी, और यकीनन कोई भी इसमें यकीन नहीं करता कि यह रिश्ता एक जटिल और दिलचस्प तरीके से दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद नहीं था. (सबसे पहली बात तो यही कि वे एक ही जाति-बिरादरी के थे. जी.डी. बिरला पूना समझौते पर दस्तखत करने वालों में से भी एक थे.) लेकिन अब चूंकि मुद्दे को उठा ही दिया गया है तो पेश है जी.डी बिरला के नाम गांधी का खत, तारीख जनवरी 1927:
पैसे की मेरी प्यास बस बुझने वाली नहीं है. मुझे कम से कम 2,00,000 रुपए चाहिए – खादी, छुआछूत और शिक्षा के लिए. गोशाला के काम पर 50,000 और बनते हैं. फिर आश्रम का खर्च भी है. पैसे की तंगी से कोई भी काम अधूरा नहीं रहता, लेकिन ईश्वर कड़ी परीक्षा के बाद ही देता है. यह भी मुझे संतोष ही देता है. आपको जिस काम में भी आस्था हो उसमें अपनी पसंद से दे सकते हैं (बिरला 1953 से, रॉय 2014: 106 में उद्धृत).
बस पैमाने का अंतर समझने के लिए जरा इस पर गौर करें: यह खत महाड सत्याग्रह से एक महीना पहले लिखा गया था. अपने सत्याग्रह के लिए पैसे जुटाने की खातिर 40 गांवों के अछूतों ने हर गांव से 3 रुपए चंदा दिया था, और तुकाराम पर बंबई में मंचित एक नाटक से 23 रुपए आए थे, जिससे कुल चंदा 143 रुपए का बना (तेलतुंबड़े (मिमेओ), रॉय 2014: 106 में उद्धृत).
मेरा आखिरी नुक्ता राजमोहन गांधी के पहले नुक्ते से मुखातिब है. वे मेरे निबंध के इस बयान को मुद्दा बनाते हैं: '[गांधी की] दो नावों पर सवारी (डुअलिटी) ने उन्हें इस बात में सक्षम बनाया कि उन्हें बड़े उद्योगों और बड़े बांधों का समर्थन मिला और उन्होंने उनका समर्थन भी किया.'इसकी मिसाल देने के लिए मैंने एक फुटनोट जोड़ा था जिसमें एक खत शांमिल किया गया था, जो गांधी ने अप्रैल 1924 में टाटा घराने द्वारा बनाए जा रहे मुलशी बांध से विस्थापित आंदोलनकारी गांववालों को सलाह देते हुए लिखा था कि वे अपना प्रतिरोध खत्म कर दें (सीडब्ल्यूएमजी 27: 168, रॉय 2014: 49 में उद्धृत). इस बार मेरे द्वारा छोड़ दी गई बात यह थी कि मैंने इस बात का जिक्र नहीं किया था कि दो साल पहले अपने अखबार यंग इंडिया में गांधी ने इसी बांध को लेकर टाटा घराने को चुनौती दी थी. यह एक लंबा लेख है. बेशक चुनिंदा तौर पर ही, मैंने उसका भी महज एक हिस्सा ही चुना है, जिसे राजमोहन गांधी ने उद्धृत करने के लिए चुना था:
मैं चाहता हूं कि टाटा जैसा बड़ा घराना अपने कानूनी अधिकारों पर अड़ने के बजाए खुद जनता के साथ बात करेगा और वह जो करना चाहता है उसे जनता के साथ मशविरे से करेंगे...उन सभी वरदानों का क्या मोल है जिन्हें टाटा की योजना भारत के लिए लाने का दावा करती है, अगर इसके लिए एक भी अनिच्छुक गरीब आदमी को कीमत चुकाना पड़े? (आरजी.कॉम: 7)
गांधी के दक्षिण अफ्रीकी दिनों से ही उनके साथ लंबे और गहरे रिश्ते रखने वाले टाटा घराने ने अपनी परियोजना जारी रखी (वे गांधी के अखबार में चंदा देते थे). इस बीच गांधी पहले असहयोग आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए जेल भेज दिए गए. उनके छूटने के वक्त तक, बांध आधा बन चुका था. कुछ गांव वालों ने मुआवजा ले लिया था, जबकि दूसरे गांववाले अब भी प्रतिरोध कर रहे थे, क्योंकि प्रतिरोध करने के लिए उनके पास काफी वजहें थीं. (मुलशी बांध से विस्थापित होने वाले अनेक लोगों को कभी मुआवजा नहीं मिला.) यही वक्त था, जब गांधी ने उनसे संघर्ष छोड़ देने की सलाह दी. कोई भी इंसान जो बांधों के बारे में थोड़ा भर भी जानता है, वह बताएगा कि आधा बन जाने के बाद बांध के डूब के दायरे में आने वाले इलाके में नाटकीय बढ़ोतरी होती है. नर्मदा पर बननेवाले अनेक बांध आधे से ज्यादा बन चुके हैं. डूबे हुए इलाकों के अनेक गांववालों ने मुआवजा ले लिया है. तब भी नर्मदा बचाओ आंदोलन (एक आंदोलन जो खुद को गांधीवादी कहता है और जिसकी मैं सचमुच प्रशंसक हूं) प्रतिरोध जारी रखे हुए है. हरेक बांध की हरेक मीटर ऊंचाई में बढ़ोतरी को चुनौती दी जाती है. अपने प्रतिरोध की निशानी के तौर पर गांववाले आखिर में भरते हुए पानी के बीच खड़े रहते हैं. आप जाइए और उन्हें अपनी किस्मत को कबूल करने और अपना आंदोलन छोड़ देने को कहिए और फिर देखिए कि वे क्या कहते हैं – खास कर अगर आप पहले उनकी तरफ रह चुके हों. वे जो कहेंगे, उसमें दो नावों पर सवारी वाली बात (डुअलिटी) तो शायद सबसे नरम होगी.
प्यारे राजमोहन गांधी, पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है. हममें से कुछ लोग मुआवजे ले लेंगे और महफूज जगहों की ओर खिसक लेंगे, हममें से कुछ लोग डूब जाएंगे और कुछ डटे रहेंगे और लड़ेंगे. इन लड़ते हुए लोगों के बीच में टांग क्यों अड़ाई जाए? क्यों नहीं इस बात पर भरोसा किया जाए कि वे जानते हैं कि उनके लिए बेहतर क्या है?
आप मुझसे पूछते हैं, 'कौन है आपकी प्रेरणा, आपका सितारा, आपकी उम्मीद? कौन है जिसके बारे में आप चाहती हैं कि अपनी जमीन से नाखुश भारतीय और दुनिया उनके पीछे या उनके साथ चले?'
अगर आप मुझसे एक अकेले नेता, विचारधारा या राजनीतिक दल का नाम पूछ रहे हैं जो शिकायतों से बाहर हो, जिस पर श्रद्धा रखी जाए और जिसकी कभी आलोचना न की जाए – तो मुझे डर है कि मेरे पास आपके सवाल का कोई जवाब नहीं है. मैं कोई मेगास्टार, ब्लॉकबस्टर औरत नहीं हूं, खास तौर से सियासी नाटक की विधा में. मैं समूह की कलाकारी में यकीन रखनेवालों में हूं. अगर आप मुझसे उन लोगों और संगठनों के नाम पूछ रहे हैं जिनकी मैं इज्जत करती हूं तो मैं उनके नामों से एक किताब भर सकती हूं. जिस मुद्दे पर हम बहस कर रहे हैं, उसे देखते हुए मेरे जेहन में फौरन ये नाम आ रहे हैं – जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, आंबेडकर, अय्यनकली...अगर आप किसी ज्यादा समकालीन की तलाश में हैं तो हम दलित पैंथर्स, शंकर गुहा नियोगी, विनायक सेन और शहीद अस्पताल चलानेवाले उनके साथी, नर्मदा बचाओ आंदोलन, मजदूर किसान शक्ति संगठन और वे कॉमरेड जिनके साथ चलते हुए मैंने बस्तर के जंगलों का सफर किया (और नहीं, मेरे ट्विटरपसंद दोस्तों, मैंने उन्हें गांधियन्स विद गन्स नहीं कहा था), क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन, शीतल साठे और कबीर कला मंच और मारूति वर्कर्स यूनियन से शुरू कर सकते हैं, जिसके अनेक सदस्य अभी भी जेल में हैं. मैं उन डॉक्टरों को भी शामिल करूंगी, जो (करीब-करीब तबाह कर दिए गए) सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में अब भी काम करे रहे हैं, हालांकि वे निजी क्षेत्र में अपनी तनख्वाह से दस हजार गुणा ज्यादा मेहनताना पा सकते हैं, और हमारे (आधे तबाह कर दिए गए) विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को भी, जो हमारे देश में सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को पूरी तरह तबाह कर दिए जाने के खिलाफ खड़े हो रहे हैं. अगर आप नौजवान लोगों के बारे में पूछ रहे हैं, तो ये जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप के वो वकील हैं जो देशद्रोह के आरोप में जिलों और छोटे शहरों में हमारी जेलों में कैद हजारों आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं, भगत सिंह के विचारों पर चलने वाले वे नौजवान जो मुजफ्फरनगर में गांव दर गांव घूमते हुए वहां के नफरत से भरी सांप्रदायिक राजनीति का सीधे सामना कर रहे हैं, जिसकी फसल हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा बोई जा रही है जो इन दिनों मुल्क को चला रहे हैं – क्या आप मेरे साथ चलना पसंद करेंगे?
बहरहाल, चूंकि आपने पूछा है, तो यही मेरे सितारे हैं. वे एक दूसरे से अलग दिख सकते हैं; और यकीनन उनमें आपस में मजबूत असहमतियां हैं. लेकिन वे सब मिल कर सितारों का एक जत्था बनाते हैं. और वे और उन्हीं जैसे दूसरे एक साथ मिल कर हमारे मुल्क में सचमुच के या अवधारणाओं के हर आधे बने बांध की हरेक इंच की उंचाई में होनेवाले इजाफे से लड़ रहे हैं (और लड़ते आए हैं).
जॉन फोर्ड की 1962 की मशहूर वेस्टर्न फिल्म [यह एक कला विधा है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका में मिसिसिपी नदी के पश्चिमी इलाके की कहानियां पेश की जाती है और जो ज्यादातर 19वीं सदी के उत्तरार्ध में घटती हैं - अनु.] द मैन हू शॉट लिबर्टी वैलेंस का एक यादगार पल है, जब एक संवाददाता, जिसने इस दंतकथा के पीछे की सच्चाई का पता लगा लिया है कि लिबर्टी वैलेंस को किसने गोली मारी थी, अपने नोट्स को नष्ट कर देता है और कहता है, 'जब दंतकथा एक तथ्य बन जाती है तो दंतकथा पर यकीन करो [When the legend becomes fact, print the legend].'मुझे यह विचार काफी पसंद आता है – लेकिन यह दंतकथा पर निर्भर करता है. जब एक दंतकथा एक ऐसे अवाम को नुकसान पहुंचाती रहे, जो पहले से ही इतिहास के हाथों गंभीर रूप से नुकसान उठाता आया है, तो शायद यह वो वक्त है जब साफ, गैरजज्बाती नजरों के साथ जिम्मेदारी उठाई जाए.
संदर्भ
4. https://www.youtube.com/watch?v=ZJs-BJoSzboPl see my blogs;
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