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जंगल की आदिम गंध में बसै हैं पुरखों के हकहकूक ख्वाबों में मोहनजो दोड़ो या फिर हड़प्पा वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही नफरत कभी नहीं जीतती कोई जंग मुहब्बत के खिलाफ। फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है। सहदों के पार कोई शहबाग जाग रहा है। पलाश विश्वास

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जंगल की आदिम गंध में बसै हैं पुरखों के हकहकूक

ख्वाबों में मोहनजो दोड़ो या फिर हड़प्पा

वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत

लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही

नफरत कभी नहीं जीतती कोई जंग मुहब्बत के खिलाफ।

फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है।

सहदों के पार कोई शहबाग जाग रहा है।



पलाश विश्वास

वनाधिकार पर बातें अब सिरे से बेमतलब हैं अबाध पूंजी के स्मार्टबुलेट मुक्त बाजार में।


शब्द अर्थ खो चुके हैं।


मर गया अखबार।


सारे अखबार मर गये हैं।


जनता का एफआईआर दर्ज कराने वाले सारे लोग जिंदा दफन है।

किसी के ख्वाबों में नहीं हैं हड़प्पा या मोहंजोदोड़ो।


भविष्य के अंतरिक्ष अभियान और मिसाइलों,परमाणु बमों के दरम्यान इंसानों का यह इकलौता मुल्क या हिरोशिमा है या पिर नागासाकी है और इतिहास के दरवाजे बंद हैं।


इतिहास की खिड़कियां भी बंद हैं।


भूगोल सरहदों का बेइंतहा जंगल है।

इस बियाबां में इसानियत राह भटक गयी है।

सारे आदमखोर आजाद हैं।


सिर्फ खुले हैं हर दरवाजे,खुली है हर खिड़की अबाध महाजनी पूंजी के लिए।

अब सारी फसल सिर्फ सुखीलाला की है।

बेटों के सीने में मां की बंदूक गोलियां बरसा रही हैं अब भी।


मर गया है प्रिंट हमेशा हमेशा के लिए।

किसी सूअर बाड़े के भरोसे हमने खो दिये हैं सारे शब्द।

माध्यम सारे बेदखल हैं।


हम फिर से जंगल में हैं।

जंगल राज है।

लेकिन जंगल के हक हकूक यकीनन नहीं है।


कोई रोमा और उनके साथी जंगल के हकहकूक के जेल गये तो रिहाई की खबर नहीं है।


जंगल के हकहकूक के लिए कनहर बांध पर लाशों का कालीन कोई बिछा है।

आदिवासी भूगोल में चांदमारी का दस्तूर चला है और नामालूम कि कौन कहां मरा है,मर रहा है या फिर मर जायेगा किसी दिन।


गोलियां हमारे भी इंतजार में हैं या नहीं,क्या मालूम।

गोलियां सिर्फ ब्लागरों को निसाना नहीं बनाता।

न सिर्फ सरहदों पर गोलियां चलती हैं।


नागरिकता संशोधित है।

नागरिकता बेदखल है।

वजूद फिर वहीं निराधार आधार।


अब डीएनए प्रोफाइल भी बन जायेगा।

कोई शख्स नहीं जो गोलियों से बच जायेगा।


नियमागिरि के आदिवासियों की जुबांं कोई पढ़े लिक्खों की जुबां नहीं हैं।पूरे देश में फिर भी पत्थरों के हरुफ में उनका ही लिखा दीख रहा है दशों दिशाओं में कि खेत न छोड़ब हम।


जंग हमने हारे मोहंजोदोड़ो में।

निर्णायक हार थी हमारी हड़प्पा में।


हम उन्हीं लड़ाइयों में हारे लापता अश्वत्थामा है और जिसका वजूद उन जख्मों के सिवाय कुछ भी नहीं है।


हम लहूलुहान हैं और लहू का अता पता है ही नहीं।

सीना चीरकर गोलियां चल रही हैं धायं धायं।

फिर भी हम बखूब जी रहे हैं।


हम चीख भी नहीं रहे हैं।

सारे शब्द लापता हैं।


जो शब्द बोलता बहुत है,वह दरअसल सिक्कों की खनक है।

उसमें फिर कोई रुह है ही नहीं।


बीहड़ जंगल में फिर मेरा मोहंजोदोड़ो आबाद हुआ है।

बीहड़ जंगल में फिर मेरा हड़प्पा आजाद हुआ है।


फिर वहींच निर्णायक लड़ाई है,जिसके इंतजार में मेरा बचपन जंगल रहा है।


फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है।

सहदों के पार कोई शहबाग जाग रहा है।


ख्वाबों में मोहनजो दोड़ो या फिर हड़प्पा

वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत

लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही


बचपन से हम पानियों के वाशिंदा हैं।

बचपन से हम ख्वाबों में जी रहे हैं।


बचपन से हम हवाओं के हम सफर हैं।

बचपन से हम डूब हैं मुकम्मल।


बचपन से हम मलबे के मालिक भी हैं

क्योंकि जनमजात हम फिर वही टोबा टेक सिंह हैं।


बंटवारे के हम वारिशान लावारिश हैं।

हम दर्द के वारिशान हैं।


हम महब्बत के वारिशान हैं।

तमाम साझा चूल्हों के वारिशान हैं हम।


देश जो तोड़े हैं,देश जो बेचे हैं,होंगे वाण अनेक उनके तुनीर में भी।


होंगे परमाणु बम उनके भी,सारे पहाड़ फिर भी हमारे हैं।


होगी मिसाइलें,युद्ध गृहयुद्ध के अनुभव हथियार संस्थागत जिहादी।

हम भी देश दुनिया जोड़ने पर आमादा हैं।


हम भी आखिर परिंदे हैं आग के

आग से जलकर भी जीनेवाले लोग हैं हम

हमरारे जख्मों के पूल जो चुनै हैं,बहारों का जलवा वे क्या जानै हैं


हम भी इंसानियत के नक्शे को मुकम्ल बनायेंगे यकीनन

दहशतगर्दी के भूगोल और इतिहास के खिलाफ यकीनन


हाथ जो बढ़ायें ,साथी होंगे वे तमाम हमसफर इस सफर में

कांरवा कहीं न कहीं से शुरु हो ही जाना है, बहुत देर भी नहीं है


होगा मुकम्मल बंदोबस्त फिर जनता बोलेगी कभी न कभी

जनता जब बोलेगी तब सारे स्पीकर लाउ़स्पीकर बद होंगे


जनता बोलेगी और हजारों साल पुरानी वे जंजीरें टूटेंगी यकीनन।


ख्वाबों में मोहनजो दोड़ो या फिर हड़प्पा

वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत

लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही



सबसे पहले,आप हमें माफ कर दें कि बेअदब भी हूं और बदतमीज भी हूं।देहाती हूं सर से पांव तलक।

बिना जाने बूझे,कोई भी जुबां देहातियों की जुबां होती है।


उन्हें न उच्चारण की परवाह होती है और न वर्तनी की तमीज।

सिर्फ दिल की जुबां होती हैं उनकी।हम उसी जुबं में बात करै हैं।


फर्क यह है कि वे बेहद कम बोलते हैं।

बल्कि खामोशी ही उनका असल मुल्क है।

लेकिन खामोशी जब भी टूटे उनकी,यूं समझिये कि कयामत आ जावै है।उस कयामत से डरियो।जो आने ही वाली है।


मेरे लिखे का मजमूं पर गौर करें,मुद्दों पर सोचें और मसलों को समझें,सिर्फ यही गुजारिश है।

हमें कोई कार न समझें बेकार।


कार से मुझे कोई खास मुहब्बत नहीं है और महानगरों में आवाजाही होती है जरुर,पेट के कातिर ,रोटी रोजी के वास्ते गैर मुल्क गैर देस में भी यूं घूमना फिरना होता है लेकिन हम लोगों के लिए देश बहुत भारी चीज है चूंकि हम लोग दरअसल देस के भदेस मधेशी लोग हैं।


अर्ज है कि जो कला साहित्य माध्यम गोमाता ब्राडिंग हुआ जाये,गाय से दिल का वास्ता होने के बावजूद उसमें हमारी कोई खास दिलचस्पी नहीं है और न हम लोग अंडे सेते लोग हैं।


गोमाता ब्रांडिंग अगर देहात और खेत खलिहान की गूंज हो कहीं,हमसे खुश दरअसल कोई हो सकै नहीं हैं।

उसी गोमाता की बदौलत हम इतना जो पादै हैं।


मुश्किल यह है कि जिसे वे आका तमामोतमाम कला साहित्य संस्कृति माध्यम विधा वगैरह वगैरह कह रहे हैं,गोमाता ब्रांडिंग के बाद वे सिर्फ वनस्पति घी है,घी की नदियां हर्गिज नहीं है।


पता नहीं,ससुरे क्या क्या मिलाते हैं।मिलावट वह जहर है,समझो।वह गोबर से पाथे हैं,वह भी जहर है।


वे बेहद खतरनाक लोग हैं

जिनके आस्तीं में सांप के सिवा कुछ होता नहीं है।


उन्हें खबर भी नहीं है कि हम भी सपेरे हैं निराले

जो जहरदांत भी खूब तोड़ना जाने हैं।


बाकी वे जो हगे मूतै पेजोपेज सचित्र

वह गुड़गोबर है ही,जहर भी है।


अंजे सेते लोगों के खिलाफ जिहाद हमारा है

क्योंकि सारां जहां हमारा है।


सारी जुबां हमारी है।

इंसानियत का नक्शा हमारा है।

हमीं हैं कायनात के रखवाले।


हम अंडे सेते लोग नहीं है यकीनन।

अंडे जो सेते हैं,उन्हें खूब जानै हैं हम।

अंडे का आमलेट बनाते हैं,खाते हैं हम।


हमरा ख्वाब में मोहनजोदोड़ो हड़प्पा है तो जान लो कि इंसानियत का भूगोल हमारा है।


बदला होगा इतिहास,बदल भी रहा होगा इतिहास,हम फिर इतिहास बनाने वाले लोग हैं।


पुरखों से हो गयी होगी गलती कि भूगोल सेे हुआ छेड़छाड़।

पुरखों से हो गयी होगी गलती कि आपस में हो गयी रंजिशें

और बंटवारा भी हकीकत है यारों।


पुरखों से हो गयी होगी गलती कितमाम साझा चूल्हे किरचियों में बिखरै हैं।सबसे पहले उन्हें जिंदा करने की दरकार है यारों।


पर समझ लो कि हमारे लोग अगर सो नहीं रहे होंगे अब भी।

समझ लो कि सहर हुआ नहीं है अभीतलक बस।


दिशाओं से रोशनी के तार कभी न कभी खुलेंगे।

उनींदी में जागने का अहसास जिन्हें न हो,वे भी जागंगे।

अंधियारों के तारों से रोशिनयों के तार भी अलग होंगे।


आगे बंटवारे की इजाजत नहीं है,नहीं है,नहीं है।

नफरत क सदागरों ,बाजीगरों,तुम्हें मालूम नहीं,हम बेजुबान लोग हर जुबां में बोल सकै हैं।जब बोल सकबो तभै,जमाना बदल जावै है।


हम जब चीखेंगे एक मुश्त तो फर फर फुर्र होगी तुम्हारी सुनामी।

तुम्हारी सुनामियों की असलियत भी हम जानै हैं।

अब हम फर फर हर जुबां में बोलेंगे,सारे राज खोलेंगे।


तहस नहस भले हुआ हो मोहनजोदोड़ो,

तहस नहस भले ही हुआ हो हड़प्पा,

न मरा है मोहनजोदोड़ो,

और न मरा है हड़प्पा।

नफरत कभी नहीं जीतती कोई जंग मुहब्बत के खिलाफ।

ख्वाबों में मोहनजो दोड़ो या फिर हड़प्पा।


वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत।

लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही।


सबसे खतरनाक मिलावट सियासती है।

सबसे खतरनाक मिलावट मजहबी दहशतगर्दी है।


इस गोमाता ब्राडिंग से बुरबक देहात को कोई बना भी लें तो कोई बात नहीं।ब्रांडेड गोमाता फिरभी गोमाता नहीं है।


न जो गोबर हासिल है,वह कोई पवित्र विशुद्ध चीज है।

वह हलाहल है विशुद्ध और अब मोहनजोदोड़ो या हड़प्पा के गर्भ से कोई असली नीलकंठ निकलने वाला नहीं है।


गोबर के मालिक बहुतै हैं।जो फतवा ठोंके हैं कि सोशल नेटवर्किंग पर इस्टैंट राइटिंग से बहुत नुकसान हुवै है।


समलय से पादै रहै जो संपादक आलोचक विशेषज्ञ किस्म के जीव हैं भांति भांति वे भी किसी मौलवी पुरोहित से कम नहीं है,खासकर वे जो भरपूर मुनाफावसूली मशहूर अब बैठे ठालै हैं।फतवा भी पादै हैं।


जिनगी उनकी बाजार से वसूली में बीतै हैं और हमसे बेहतर  कोई नहीं जानै हैं कि वे कहां कहां क्या क्या वसूलै हैं।कहां कहां कैसे कैसे घोड़े और सांढ़ दौड़ाये हैं।कहां कहां खजाना लूटै हैं।


समताल से जो पादै प्रजाति हैं,उनसे विनम्र निवेदन है कि फतवा जारी करै नहीं कि वर्तनी शुध हो तभी लिखें।

अबे हरामखोरों,तुम्हीं कहते हो अशुध खूनै है हमारा।


अशुध खूनै है तो तत्सम काहे को हो भाखा हमारी,हम तो खुदैखुद अपभ्रंश हैं तो तुम्हारे वर्तनी व्याकरण की तो ऐसी की तैसी।

तुम्हारा सौंदर्यशास्त्र हमारे ठेंगे पर।


समझा भी करो जानम,जुबां हो न हो,

हम अपभ्रंश हैं,मुकम्मल सर्पदंश हैं हम।


विशुद्ध खून उनका सारस्वत हैं हम जाने हैं और हरफों पर हकहकूक उनका सारा है,हम जाने हैं।


साहित्यकला माध्यम विधा इत्यादि उन्हीं की जागीर हैं,सो हम जाने हैं।भुगते भी हैं खूबै।हमारा भुगतान बस बाकी है।


हमारी औकात भी तनिकों समझा करैं कि जब हम अपनी पर उतरै हैं,तो किसी की न सुनै हैं हम,अपनी भी नहीं।


सरेबाजार नंगई का शौक न हों तो हमें जुबां की तमीज सिखाने से बाज आवै तो बेहत है,वरना हम खालिस लफ्फाजों को बख्शते नहीं हैं।जिनकी रीढ़ नहीं है कोई,जो न मुद्दों से टकराये,न मसलों से जिनके कोई सरोकार हैं,न जनसुनवाई की परवाह जिन्हें कोई,हमारे हस्तक्षेप से वे ही खास तिलमिलाये हैं।


हम भी देहाती हैं भइया और लाहौर भले छूट गया हो या छूट गया हो नोवाखाली चटगांव,हमारी आदत भी रघुकुल रीत से कम नहीं है।


हमारे ख्वाबों में अब भी है मोहनजोदोड़ो तन्हा तन्हा।

हमारे ख्वाबों में अब भी है मोहनजोदोड़ो तन्हा तन्हा।


वीरानगी के वारिशान हैं हम हजारों हजार सालों से।

तन्हाई के लवारिशान हैं हम हजारों हजार सालों से।

मुकम्मल खामोशी के वारिशान हैं हम वह भी हजारों सालों से।


खूब सुनते रहे हैं हम तुम्हारी हजारों सालों से।

बहुतै बोले हो तुम हजारों सालों से।

अब हम बोलै हैं जो हमारा दिल बोले हैं।


साजिशों और नफरतों और जिहादों का धंधा नहीं हमारा कोई।

हम मुहब्बत के परवाने हैं।

दिलों में है आग तो हम आग के परिंदे हैं।


परिंदे जब आखिर बोले हैं तो जुबां की कोई लक्ष्मण रेखा होती नहीं है।


परिंदे जब आखिर बोले हैं तो मजहबी सियासती तिलस्मों का आखिर टूटना है।


किलेदारों,सूबेदारों और मनसबदारों,सिपाहसालारों की परिंदे कभी न सुने हैं और न उनका कोई सरहद कहीं होवै है।


आखिरकार हम तो वे ही लोग हैं जो गुफाओं में तस्वीरें बनाते रहे हैं या फिर कथरी चटाई कपड़ा में कलाकारी करते रहे हैं।

यही हमारी विरासत है और इस विरासत से कोई कहीं आगे नहीं है।


हम अब भी संगदिलों के सीने पर तारीख लिखने का जोखिम उठा रहे हैं।ज संग दिल न हों,वे ही बूझै हैं हमारी जुबां।

Aug 09 2015 : The Economic Times (Kolkata)

Lost in the Woods

G Seetharaman

Jashipur, Odisha





Community rights under the Forest Rights Act could transform the lives of millions of forest dwellers, but only if the bureaucracy is pushed to implement the legislation fairly and without delay

Reaching Bilapaka in the buffer area of the Similipal Tiger Reserve in Mayurb hanj district of north-eastern Odisha is not easy even in the best of times. So a day after heavy rains which made our visit to the village seem like noth ing more than a dream that may not come to pass, we set off from Jashipur, the nearest town, under clear skies on a 90-minute journey (it usually takes about half the time), periodically dur ing which we encounter massive boul ders on what is an apology for a road next to a gushing river.

When we finally get to Bilapa ka, we are greeted by vast swathes of paddy fields bor dered by the woods, with houses at an elevation in the middle exhibit ing a sense of equanimity that belies the far-reaching development that occurred about four months ago. The villagers, belonging to Bathudi and Kolha tribes, finally got back in April what, till a few years ago, they could not even imagine: the right to manage and conserve the part of the forest that falls within the traditional bound aries of their village, and the right to use and sell minor forest produce like tendu (a leaf used to make beedis), bamboo, honey and medicinal plants.

Bilapaka, with a population of 480, was one of the 44 villages in the core and buffer areas of the tiger reserve whose community forest resource rights, better known as community forest rights (CFR), were recognised in April, under the Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006, better known as the For est Rights Act (FRA). Maheshwar Naik does not need much prodding to talk about CFR. A short man with a chiselled torso, Naik is the president of the forest rights committee, elected by the gram sabha of the village, the body vested with CFR. At least a third of the committee members has to be women. "Before FRA, the government tried to displace us but we didn't move; now they can't do anything," says Naik, with a halfsmoked beedi stuck in his lungi. It's been nearly two years between the village filing its CFR claims and getting the recognition.

Budhurai Soren, from Sanasinai village, which is outside the tiger reserve, is glad that there will be no more penalties for `encroachment'."The old men in our village have for years been engaged in forest protection, reporting poachers to the forest department, but once we get CFR we can handle it ourselves," he tells us at the tahsildar's office in Jashipur where he and people from a bunch of other villages have come to collect their individual forest rights (IFR) ti tles. Sanasinai has completed its CFR claim process and is awaiting the final papers. Indigenous peoples across the world have a history of protecting forests before governments came into the picture. Odisha, for instance, reportedly had 17,000 village forest protection committees even before FRA.

Considered one of the most landmark pieces of legislation enacted during the United Progressive Alliance's 10-year rule, FRA looks to set right the injustices suffered by India's tribals and other forest-inhabiting communities during the time of British rule and in independent India. Tribals had been living in and conserving forests, while at the same time depending on them for their livelihood for centuries, but the British started regulating forests in the second half of the 19th century.

The Forest Charter of 1855 made timber a state property and 10 years later, the first Indian Forest Act was enacted, followed by two more, in 1878 and 1927. These sought to take over forests to exploit their commercial potential and, as a result, put paid to the locals' dependence on them. The 1878 Act divided forests into reserved forests, protected forests and village forests. Reserved forests were the most restricted category, with the government enjoying proprietary rights over them and most uses of the forest by locals were prohibited unless specifically permitted. The government had ownership rights over protected forests too, but most uses by locals were allowed unless prohibited. Village forests, on the other hand, were those where the government assigned the local community powers to manage the forest, but this provision was not made much use of.

Alienation of Tribals

The government also turned several protected forests into reserved forests just so it could control them entirely. Tushar Dash of Vasundhara, a Bhubaneswar-based non-govern mental organisation, says 90% of reserved forests were so declared by the British without any due process for settlement of rights. The government's exclusionist approach to forests continued in independent India. The Forest Policy of 1952 wanted a third of the country to be brought under forest or tree cover. Government-owned forests almost doubled from 40 million hectares (1 hectare = 2.47 acres) in 1947 to 76.5 million hectares in the mid-'70s. Moreover, about 4.5 million hectares were diverted for agriculture and other uses by 1980. The alienation of tribals from their land was one of the root causes of the Naxal movement, which is still a force to contend with in certain pockets of India.

What aggravated the distancing of forest dwellers from their land was the wildlife conservation movement, resulting in the Wildlife Protection Act, 1972, which put the interests of animal and plant species in forests above those of tribals.Forests, which had been a state subject, were put on the concurrent list in 1976, making control of forests more centralised. The Forest (Conservation) Act of 1980 made it compulsory for states to take the Centre's permission before diverting forest land for non-forestry purposes. In 1985, the forest department was moved from the ministry of agriculture to the newly formed ministry of environment and forests, and two years later, the government for the first time admitted the need for the involvement of local communities in forest management. The National Forest Policy of 1988 focused on the welfare of forest dwellers. The policy led to the formation of joint forest management ( JFM) committees, which have officials from the forest department and villages. While this is supposed to be a way to involve locals in the management of forests, JFM committees are often controlled by forest officials.

A public interest litigation filed in the Supreme Court in 1995, which subsequently came to be known as the Godavarman Case, about large-scale illegal timber felling in the Nilgiris in Tamil Nadu, led to orders restricting the rights of tribals on forests. The Central government is said to have misinterpreted the apex court's direction to not regularise encroachments in forests without the court's permission.The Centre in May 2002 ordered state governments to evict "all ineligible encroachers and post-1980 encroachers". This led to thousands of people being removed from 1.5 lakh hectares in just 18 months. The eviction drive set the ball rolling for what became FRA, which came into effect only in 2006.

FRA acknowledges history when it says, "forest rights on lands and their habitat were not adequately recognised in the consolidation of state forests during the colonial period as well as in independent India resulting in historical injustice to the forest-dwelling scheduled tribes and other traditional forest dwellers who are integral to the survival and sustainability of the forest ecosystem". Kundan Kumar, regional director for Asia at the Washington, DCbased Rights and Resources Initiative (RRI), says this admission is one of the reasons FRA is significant.

The Act, for whose implementation the ministry of tribal affairs is responsible, confers both IFR and CFR. Any person belonging to a scheduled tribe can claim IFR to live in and cultivate up to four hectares provided he occupied it and was dependent on it as of December 13, 2005. In case of a nontribal, in addition to this requirement, he will have to prove his family's residence in the vicinity of the forest land for 75 years prior to December 2005. But the more important provision of the Act is CFR, which transfers the powers back to the inhabitants of the forest from the forest department. Rights can be claimed on reserved, protected or unclassified forests. Even protected areas, which include national parks and wildlife sanctuaries, are included. India has 702 protected areas, not including the tiger reserves, elephant reserves and biosphere reserves.

No project of the government or a private entity in the forest can be implemented without the approval of the gram sabha. "The government can only play an advisory role and handhold them [gram sabhas] wherever necessary," says Damodar Patnaik, a senior official at the Integrated Tribal Development Agency in Odisha. To ensure the process stays democratic, the powers are vested with the gram sabha, which consists of all the adults in the village. "The larg er the number of parties involved in decision-making, the greater the chances that the decision would be the in broader social interest," says renowned ecologist Madhav Gadgil.

There are about 150 million forest dwellers in India and the population of scheduled tribes is over 104 million, or 8.6% of India's population. Nine out of 10 tribals live in rural areas. Scheduled tribes' literacy rate is 59% compared to 73% for the country as a whole, as per Census 2011, and 47.3% of scheduled tribes in rural areas are below the poverty line, the highest for any social group, as per Planning Commission data for 2004-05.

Long Way to Go

While not long after FRA came into effect, the government started granting IFR titles, it was not until early 2012, the first village, Mendha Lekha in Naxal-hit Gadchiroli district of Maharashtra, was recognised under CFR. In the same year, the government amended FRA to make it more unambiguous and give more powers to the gram sabha. Gram sabhas got a shot in the arm when the Supreme Court in 2013, in a landmark judgement, ruled that the gram sabhas of 12 affected villages in Niyamgiri in Odisha would decide the fate of a bauxite mining project of mining company Vedanta Resources. All the gram sabhas unanimously voted against the project. Ironically, these villages have not yet got their CFR.

Sharachchandra Lélé of the Ashoka Trust for Research in Ecology and the Environment says while IFR is more a land right, CFR is an actual forest right, in that the people get to man age their forest on their own. "That's why the forest department has opposed it tooth and nail because it means loss of control: no bribes and no salaam [salute] to the DFO [divisional forest officer]." A senior bureaucrat in the tribal welfare ministry of a south Indian state, requesting anonymity, admits that the forest department is in the way of CFR implementation. "It's true not just in my state, but in every state." Questions sent to the environment ministry and the ministry of tribal affairs remained unanswered. There have been reports that CFR titles have been illegally given to joint forest management committees, instead of to gram sabhas, in Telangana, Andhra Pradesh, Chhattisgarh and Madhya Pradesh. NC Saxena, former secretary of the Planning Commission who headed a committee that looked at FRA implementation in 2010, says there is ambiguity in FRA about whether CFR titles can be given to such committees.

There has not been as much resistance from the forest department to IFR. "That's because the forest department did not control that land anyway," notes Saxena. That could be a strong reason why while as of February 28, out of 3.86 million IFR claims, titles have been given for 1.53 million, or about 40%, CFR claims have been processed at a much slower pace, with only about 30% of 97,033 claims cleared.

The BJP-led Central government in June asked nine states -Karnataka, West Bengal, Bihar, Jharkhand, Himachal Pradesh, Kerala, Uttarakhand, Telangana and Uttar Pradesh -to expedite FRA implementation, and recently asked states to review rejected claims. Several states do not report CFR numbers separately, ostensibly to couch low CFR figures in overall statistics boosted by IFR titles.According to a recent report by RRI, Vasundhara and National Resources Management Consultants, around 40 million hectares of forest land in 1,70,000 villages, a fourth of India's villages, qualify for CFR. Less than 1% of the potential has been recognised. Maharashtra has been the top performer among states, recognising rights over 6% of the total eligible land (see Maharashtra Leads in CFR Implementation)."The recognition of CFR rights would shift forest governance in India towards a community conservation regime that is more food security and livelihoodoriented," says the report. While it is still early days, the effects of FRA are evident in those villages that have got the rights. For instance Sirasanapalli, a village in Khammam district of Telangana which got its CFR last year, reportedly auctioned 41,400 bamboo stalks for `26 lakh. Villages in Gadchiroli, Maharashtra, have also seen a rise in incomes.Naik of Bilapaka village says they have started selling more of wheat, potato, mustard leaves, honey and sal leaves, used in food and as plates.

Beyond Monetary Benefits

But the implications are not just monetary. "Whoever comes into the forest, even if it is the DFO, we make them write in a register why they have come and sign," Naik says, showing us the recent entry in his book made by forest officials from Jharkhand and Chhattisgarh who came to study the CFR process. But Mohan Hiralal, an activist who works with villages in Gadchiroli, says the fight is still very much on for villages long after getting CFR titles."While gram sabhas can issue permits for transporting minor forest produce under FRA, the government does not recognise them." The flawed implementation of CFR notwithstanding, indigenous communities are known to manage forests better than the government.For instance, a study of 16 countries in Asia, Latin America and Africa by Center for International Forestry Research, released in 2011, found that protected areas, which are government-managed, lost 1.47% of forest cover every year, compared to just 0.24% in communitymanaged forests.

There is further backing from Nobel-winning econo mist Elinor Ostrom's work, which shows communities make sensible use of common resources by devising their own rules. Her research disputes the theory of the tragedy of the commons, which paints a grim picture of rational individuals exploiting common resources in self-interest, against the larger interests of the community.

In Brazil, deforestation in forests managed by indigenous communities between 2000 and 2012 was less than 1%, compared to 7% in other forests, which resulted in 27 times more carbon emissions there than in communit y-managed forests. Brazil started recognising the forest rights of its indigenous communities in the '80 and currently 28% of its forests are owned by indigenous communities.

Brazil was followed by other Latin American countries like Mexico (70% of forests owned by communities) and Bolivia (43%). About a third of Latin America's forests are owned by communities. "In Latin America, indigenous communities became quite organised after dictatorships. In India, while there was some mobilisation of scheduled tribes, there was nothing pan-India," says Kundan Kumar of RRI.

Gadgil says India should emulate Costa Rica's model of payments for ecosystem services.To tackle rapid deforestation (the country's forest cover dropped from 70% in 1950 to 20% in 1987), the country in 1997 started paying private owners of forest lands for protection, reforestation and sustainable management. The programme has protected 8,60,000 hectares and reforested 60,000 hectares. The country's forest cover has now grown back to 50%.

FRA has won praise from all quarters for being a very robust legislation that addresses the concerns of forestdwelling communities like no other law before, but it does not amount to much being just on paper. Besides giving millions what is their due, FRA could also be a big fillip to the government's conservation efforts.









http://epaperbeta.timesofindia.com/index.aspx?eid=31817&dt=20150809



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