वन अधिकार कानून तथा वन भूमि पर से बेदखली –विशेष आलेख
कुलभूष्ण उपमन्यु
अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान
पिछले दिनों में हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने अप्पर शिमला के रोहडू व
अन्य स्थानों में वन भूमि पर लगे सेव के बगीचों, जिस में सेव की फसल
तैयार थी, को निर्ममता से काटा है। ऐसा ही अप्रैल माह में गोहर में भी
किया गया था, जब एक बगीचे को काटा गया था, जिस में फूल लग रहे थे। कांगड़ा
तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्सन काटे
तथा कुछ घरों को तोड़ दिया गया। यह घृणित कार्य सरकार के ही विभाग ने
हिमाचल उच्च न्यायालय के 6 अप्रैल 2015 व इस से पहले के आदेशों की आड़ में
किया। इस में भी सरकार द्वारा छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिराई, जबकि
बड़े किसानों तथा प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की गई। यह केस
उच्च न्यायालय में वर्ष 2008 से चल रहा है, जिस पर इस से पहले भी कोर्ट
ने कई आदेश जारी किए, जब की प्रदेश सरकार ने आज तक इस पर वन अधिकार कानून
की वाध्यता का पक्ष कोर्ट में नहीं रखा। इस से पहले भी कोर्ट के बहुत से
आदेशों का पिछले कई सालों से पालन करने में सरकार निष्फल रही है या उसे
लागू करने की नियत ही नहीं दर्शायी। ऐसे में केवल इस आदेश पर वन विभाग की
सक्रियता पर शक पैदा होता है और सरकार की वन अधिकार कानून को न लागू करने
की नियत को ही दर्शाता है।
सरकार के संज्ञान में यह बात चाहिए थी कि उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला
कानून संगत नहीं है, क्योंकि वनाधिकार कानून 2006 इस के आड़े आता है। उक्त
कानून के प्रावधानों के मुताविक, जब तक वन अधिकारों की मान्यता की
प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी
किसी भी तरह से उन के परंपरागत वन संसाधनों से वेदखल नहीं किए जा सकते।
नियामगिरी के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब
तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन भूमि से
वेदखली की कार्यवाही व भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती
है। सरकार उच्च न्यायालय में इस पर दखल व पुनरावलोकन याचका दायर करनी
चाहिए थी। जबकि वन अधिकार कानून के तहत मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली
राज्यस्तरीय निगरानी समिति ने अगस्त 2014 में प्रस्ताव पारित कर के सरकार
से अनुरोध किया था कि इस पर उच्च न्यायालय में पुनरावलोकन याचका दायर
करे, परंतु सरकार की ओर से कोई भी पहल नहीं हुई। अगर कब्जाधारी जिस का
कब्जा हटाया गया है ने वन अधिकार समिति व ग्राम सभा में अपने दखल को सही
व 13 दिसंबर 2005 से पहले का सावित करवा लिया तो ऐसी स्थिति में कब्जा
हटाने, घर तोड़ने व हरे सेव के पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के
कर्मचारियों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध के
निर्देशों, वन अधिकार कानून के प्रावधानों तथा वन संरक्षण अधिनियम 1980
के तहत कानूनी कार्यवाही भी हो सकती हैं।
यह केस पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है, जिस पर उस समय की सरकार ने भी
कोई ठोस कदम नहीं उठाया। जबकि ज्यादा तर कब्जे 2002 के हैं, जब उस समय की
सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे परंतु बाद में दूसरीवार
भी सत्ता में आने के बावजूद अपने इस फैसले को लागू नहीं करा सकी। वन
अधिकार कानून को लागू करने पर पिछली सरकार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं
दिखाई। बर्तमान प्रदेश सरकार तो आज भी वनाधिकार कानून 2006 के अनुसार
सोचने को तैयार नहीं है, इसलिए सरकार का यह कहना अनुचित है कि हम छोटे
किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैं और उन्हें नौतोड़ देंगे। उन से पूछना
चाहिए कि किस कानून के तहत कब्जों को बहाल किया जा सकता है व नौतोड़ दी
जा सकती है? आज ऐसा कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है। केवल वन अधिकार
कानून तथा भारत सरकार की 1990 की नोटिफिकेशन के तहत ही कब्जों का
नियमितीकरण हो सकता है। यह भी तथ्य है कि जब से वन संरक्षण अधिनियम 1980
लागू हुआ है तभी से प्रदेश में नौतोड़ बांटना बंद हुआ है, जो आज भी लागू
है। इसलिए सरकारी ब्यान असत्य व तथ्यों से परे है। लीज पर भी वन भूमि
खेती के लिए ऐसे में नहीं दी जा सकती। वन संरक्षण अधिनियम 1980 में
संशोधन होना चाहिए परंतु यह संसद में ही पारित हो सकता है जो आज संभव
नहीं है। ऐसे में रास्ता एक ही है कि सरकार वन अधिकार कानून 2006 को
ईमानदारी से लागू करें और 13 दिसम्बर 2005 तक के उचित कब्जों व वन भूमि
पर आजीविका के लिए वन निवासियों द्वारा किया दखल का अधिकार का पत्र
किसानों को दिलवाया जाए।
वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसान, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी,
के 13 दिसंबर 2005 से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते, वल्कि उन्हें इस
का अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा, बेशर्ते इस पर खुद काश्त करते हों, या
रिहायशी मकान हो। प्रदेश के सभी गैर आदिवासी किसान भी इस कानून के तहत
अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते हैं, क्योंकि वे यहाँ तीन
पुश्तों से रह रहे हैं और आजीविका की जरूरतों के लिए वन भूमि पर निर्भर
हैं। इसलिए पूरे प्रदेश के तकरीवन सभी किसानों पर यह कानून प्रभावी है।
ऐसे में वन भूमि पर दखल को नाजायज कब्जा नहीं कहा जा सकता। यह आजीविका की
मूल जरूरतों के लिए किया दखल है जिस पर ग्राम सभा निर्णय लेने का अधिकार
रखती है। ग्राम सभा ही इसे नाजायज कब्जा या निजी वन संसाधन का अधिकार के
रूप में मान्यता दे सकती है।
कब्जा हटाने का यह आदेश एक तरफा किसानों के ही विरुद्ध लिया गया फ़ैसला है
जबकि जलविद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह वन भूमि पर सेंकड़ों
बीघा पर नाजायज कब्जा कर रखा है। उस पर कोर्ट व सरकार द्वारा आज तक कोई
भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई। इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे
सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों ने भी कर रखे हैं। हिमाचल सरकार
ने उच्च न्यायालय में उस के आदेशों में आंशिक संशोधन के लिए 25 जुलाई
2015 को आग्रह पत्र दायर किया है और कोर्ट से आग्रह किया कि नाजायज कब्जे
से छिनी गई भूमि व सेव के पेड़ों को वन विभाग को सौपा जाए। यह आग्रह ही
अपने आप में गैरकानूननी व असंवेधानिक है। क्योंकि वन निवासी का वन भूमि
पर दखल अगर 13 दिसंबर 2005 से पहले का है तो उस भूमि पर उसी किसान का
कानूनी अधिकार बनता है। उच्च न्यायालय का इस पर दिया गया 27 जुलाई का
फैसला भी अनुचित है और कानून समत नहीं माना जा सकता।
ऐसे में वन अधिकार कानून 2006 व उच्चतम न्यायालय के फैसले के मुताविक
हिमाचल उच्च न्यायालय का निर्णय हिमाचली किसानों (आदिवासी व अन्य
परंपरागत वन निवासियों) पर लागू ही नहीं हो सकता है और सरकार कोर्ट के इस
आदेश को लागू करने के लिए वाध्य भी नहीं होनी चाहिए।
सरकार को चाहिए कि हिमाचल उच्च न्यायालय के इस आदेश के स्थगन हेतु उच्चतम
न्यायालय में याचिका दायर करे। वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में
अक्षरश: लागू करे व वन अधिकार के लंबित पड़े सभी दावों का निपटारा किया
जाए। इस पर भारत सरकार ने प्रदेश सरकार को 10 जून 2015 को आदेश भी जारी
किया हैं और छ: माह के अंदर इस कानून को लागू करने की सभी प्रक्रिया पूरी
की जाए। 13 दिसंबर 2005 से पहले के सभी कब्जे/दखल, जो खेती व आवासीय घर
के लिए किए गए है, के अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे
जाने चाहिए। जिन किसानों के विरुद्ध वन व राजस्व विभाग द्वारा नाजायज
कब्जे की FIR दर्ज की हैं वे सभी गैर कानूनी हैं, उन्हें तुरंत वापिस
किया जाना चाहिए। वन अधिकार कानून संसद में पारित एक विशेष अधिनियम है,
जिसके तहत जब तक वन अधिकारो की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती
तब तक इस तरह की वेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी है। ऐसे में उच्च
न्यायालय व सरकार का कब्जा हटाओ अभियान वन अधिकार कानून की अवहेलना है
जिस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
..........................................................................................................................................................................
कुलभूष्ण उपमन्यु
अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान
पिछले दिनों में हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने अप्पर शिमला के रोहडू व
अन्य स्थानों में वन भूमि पर लगे सेव के बगीचों, जिस में सेव की फसल
तैयार थी, को निर्ममता से काटा है। ऐसा ही अप्रैल माह में गोहर में भी
किया गया था, जब एक बगीचे को काटा गया था, जिस में फूल लग रहे थे। कांगड़ा
तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्सन काटे
तथा कुछ घरों को तोड़ दिया गया। यह घृणित कार्य सरकार के ही विभाग ने
हिमाचल उच्च न्यायालय के 6 अप्रैल 2015 व इस से पहले के आदेशों की आड़ में
किया। इस में भी सरकार द्वारा छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिराई, जबकि
बड़े किसानों तथा प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की गई। यह केस
उच्च न्यायालय में वर्ष 2008 से चल रहा है, जिस पर इस से पहले भी कोर्ट
ने कई आदेश जारी किए, जब की प्रदेश सरकार ने आज तक इस पर वन अधिकार कानून
की वाध्यता का पक्ष कोर्ट में नहीं रखा। इस से पहले भी कोर्ट के बहुत से
आदेशों का पिछले कई सालों से पालन करने में सरकार निष्फल रही है या उसे
लागू करने की नियत ही नहीं दर्शायी। ऐसे में केवल इस आदेश पर वन विभाग की
सक्रियता पर शक पैदा होता है और सरकार की वन अधिकार कानून को न लागू करने
की नियत को ही दर्शाता है।
सरकार के संज्ञान में यह बात चाहिए थी कि उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला
कानून संगत नहीं है, क्योंकि वनाधिकार कानून 2006 इस के आड़े आता है। उक्त
कानून के प्रावधानों के मुताविक, जब तक वन अधिकारों की मान्यता की
प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी
किसी भी तरह से उन के परंपरागत वन संसाधनों से वेदखल नहीं किए जा सकते।
नियामगिरी के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब
तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन भूमि से
वेदखली की कार्यवाही व भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती
है। सरकार उच्च न्यायालय में इस पर दखल व पुनरावलोकन याचका दायर करनी
चाहिए थी। जबकि वन अधिकार कानून के तहत मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली
राज्यस्तरीय निगरानी समिति ने अगस्त 2014 में प्रस्ताव पारित कर के सरकार
से अनुरोध किया था कि इस पर उच्च न्यायालय में पुनरावलोकन याचका दायर
करे, परंतु सरकार की ओर से कोई भी पहल नहीं हुई। अगर कब्जाधारी जिस का
कब्जा हटाया गया है ने वन अधिकार समिति व ग्राम सभा में अपने दखल को सही
व 13 दिसंबर 2005 से पहले का सावित करवा लिया तो ऐसी स्थिति में कब्जा
हटाने, घर तोड़ने व हरे सेव के पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के
कर्मचारियों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध के
निर्देशों, वन अधिकार कानून के प्रावधानों तथा वन संरक्षण अधिनियम 1980
के तहत कानूनी कार्यवाही भी हो सकती हैं।
यह केस पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है, जिस पर उस समय की सरकार ने भी
कोई ठोस कदम नहीं उठाया। जबकि ज्यादा तर कब्जे 2002 के हैं, जब उस समय की
सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे परंतु बाद में दूसरीवार
भी सत्ता में आने के बावजूद अपने इस फैसले को लागू नहीं करा सकी। वन
अधिकार कानून को लागू करने पर पिछली सरकार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं
दिखाई। बर्तमान प्रदेश सरकार तो आज भी वनाधिकार कानून 2006 के अनुसार
सोचने को तैयार नहीं है, इसलिए सरकार का यह कहना अनुचित है कि हम छोटे
किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैं और उन्हें नौतोड़ देंगे। उन से पूछना
चाहिए कि किस कानून के तहत कब्जों को बहाल किया जा सकता है व नौतोड़ दी
जा सकती है? आज ऐसा कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है। केवल वन अधिकार
कानून तथा भारत सरकार की 1990 की नोटिफिकेशन के तहत ही कब्जों का
नियमितीकरण हो सकता है। यह भी तथ्य है कि जब से वन संरक्षण अधिनियम 1980
लागू हुआ है तभी से प्रदेश में नौतोड़ बांटना बंद हुआ है, जो आज भी लागू
है। इसलिए सरकारी ब्यान असत्य व तथ्यों से परे है। लीज पर भी वन भूमि
खेती के लिए ऐसे में नहीं दी जा सकती। वन संरक्षण अधिनियम 1980 में
संशोधन होना चाहिए परंतु यह संसद में ही पारित हो सकता है जो आज संभव
नहीं है। ऐसे में रास्ता एक ही है कि सरकार वन अधिकार कानून 2006 को
ईमानदारी से लागू करें और 13 दिसम्बर 2005 तक के उचित कब्जों व वन भूमि
पर आजीविका के लिए वन निवासियों द्वारा किया दखल का अधिकार का पत्र
किसानों को दिलवाया जाए।
वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसान, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी,
के 13 दिसंबर 2005 से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते, वल्कि उन्हें इस
का अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा, बेशर्ते इस पर खुद काश्त करते हों, या
रिहायशी मकान हो। प्रदेश के सभी गैर आदिवासी किसान भी इस कानून के तहत
अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते हैं, क्योंकि वे यहाँ तीन
पुश्तों से रह रहे हैं और आजीविका की जरूरतों के लिए वन भूमि पर निर्भर
हैं। इसलिए पूरे प्रदेश के तकरीवन सभी किसानों पर यह कानून प्रभावी है।
ऐसे में वन भूमि पर दखल को नाजायज कब्जा नहीं कहा जा सकता। यह आजीविका की
मूल जरूरतों के लिए किया दखल है जिस पर ग्राम सभा निर्णय लेने का अधिकार
रखती है। ग्राम सभा ही इसे नाजायज कब्जा या निजी वन संसाधन का अधिकार के
रूप में मान्यता दे सकती है।
कब्जा हटाने का यह आदेश एक तरफा किसानों के ही विरुद्ध लिया गया फ़ैसला है
जबकि जलविद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह वन भूमि पर सेंकड़ों
बीघा पर नाजायज कब्जा कर रखा है। उस पर कोर्ट व सरकार द्वारा आज तक कोई
भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई। इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे
सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों ने भी कर रखे हैं। हिमाचल सरकार
ने उच्च न्यायालय में उस के आदेशों में आंशिक संशोधन के लिए 25 जुलाई
2015 को आग्रह पत्र दायर किया है और कोर्ट से आग्रह किया कि नाजायज कब्जे
से छिनी गई भूमि व सेव के पेड़ों को वन विभाग को सौपा जाए। यह आग्रह ही
अपने आप में गैरकानूननी व असंवेधानिक है। क्योंकि वन निवासी का वन भूमि
पर दखल अगर 13 दिसंबर 2005 से पहले का है तो उस भूमि पर उसी किसान का
कानूनी अधिकार बनता है। उच्च न्यायालय का इस पर दिया गया 27 जुलाई का
फैसला भी अनुचित है और कानून समत नहीं माना जा सकता।
ऐसे में वन अधिकार कानून 2006 व उच्चतम न्यायालय के फैसले के मुताविक
हिमाचल उच्च न्यायालय का निर्णय हिमाचली किसानों (आदिवासी व अन्य
परंपरागत वन निवासियों) पर लागू ही नहीं हो सकता है और सरकार कोर्ट के इस
आदेश को लागू करने के लिए वाध्य भी नहीं होनी चाहिए।
सरकार को चाहिए कि हिमाचल उच्च न्यायालय के इस आदेश के स्थगन हेतु उच्चतम
न्यायालय में याचिका दायर करे। वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में
अक्षरश: लागू करे व वन अधिकार के लंबित पड़े सभी दावों का निपटारा किया
जाए। इस पर भारत सरकार ने प्रदेश सरकार को 10 जून 2015 को आदेश भी जारी
किया हैं और छ: माह के अंदर इस कानून को लागू करने की सभी प्रक्रिया पूरी
की जाए। 13 दिसंबर 2005 से पहले के सभी कब्जे/दखल, जो खेती व आवासीय घर
के लिए किए गए है, के अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे
जाने चाहिए। जिन किसानों के विरुद्ध वन व राजस्व विभाग द्वारा नाजायज
कब्जे की FIR दर्ज की हैं वे सभी गैर कानूनी हैं, उन्हें तुरंत वापिस
किया जाना चाहिए। वन अधिकार कानून संसद में पारित एक विशेष अधिनियम है,
जिसके तहत जब तक वन अधिकारो की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती
तब तक इस तरह की वेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी है। ऐसे में उच्च
न्यायालय व सरकार का कब्जा हटाओ अभियान वन अधिकार कानून की अवहेलना है
जिस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
..........................................................................................................................................................................
Pl see my blogs;
Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!